________________ [अनुयोगद्वारसूत्र अनुगमप्ररूपरणा 105. से कि तं अणुगमे ? अणुगमे णवविहे पण्णत्ते / तं जहा संतपयपरूवणया 1 दध्वपमाणं च 2 खेत्त 3 फुसणा य 4 / कालो य 5 अंतरं 6 भाग 7 भाव 8 अप्पाबह 9 चेव // 8 // [105 प्र.] भगवन् ! अनुगम का क्या स्वरूप है ? 105 उ.] आयुष्मन् ! अनुगम नौ प्रकार कहा गया है, जैसे-१. सत्पदप्ररूपणा, 2. द्रव्यप्रमाण 3. क्षेत्र, 4. स्पर्शना, 5. काल, 6. अन्तर, 7. भाग, 8. भाव और 9. अल्पवहुल / __विवेचन -सूत्र में नेगम-व्यवहारनयसम्मत अनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी के अन्तिम भेद अनुगम को वक्तव्यता प्रारम्भ की है। अनुगम-सूत्र के अनुकूल अथवा अनुरूप व्याख्यान करने की विधि को अनुगम कहते हैं / अथवा सूत्र पढ़ने के पश्चात् उसका व्याख्यान करना अनुगम है। इस अनुगम के सत्पदप्ररूपणा आदि नौ भेद हैं, जिनके लक्षण इस प्रकार हैं सत्पदप्ररूपणा--विद्यमान पदार्थविषयक पद की प्ररूपणा को कहते हैं। जैसे प्रानुपूर्वी आदि द्रव्य सत् पदार्थ के वाचक हैं, असत् पदार्थ के वात्रक नहीं, ऐसी प्ररूपणा करना / अनुगम करते समय यह प्रथम करने योग्य होने से सर्वप्रथम इसका विन्यास किया है। द्रव्यप्रमाण--यानपूर्वी ग्रादि पदों के द्वारा जिन द्रव्यों को कहा जाता है उनकी संख्या का विचार करने को कहते हैं। क्षेत्र-प्रानुपूर्वी आदि पदों द्वारा कथित द्रव्यों के आधारभूत क्षेत्र का विचार करना। स्पर्शन--प्रानुपूर्वी आदि द्रव्यों द्वारा स्पर्शित क्षेत्र की पर्यालोचना करना / क्षेत्र में केवल आधारभूत आकाश का ही ग्रहण है, जबकि स्पर्शना में आधारभूत क्षेत्र के चारों तरफ के और ऊपर-नीचे के वे आकाशप्रदेश भी ग्रहण किये जाते हैं जो आधेय द्वारा स्पशित होते हैं, यही क्षेत्र और स्पर्शन में अन्तर है। काल -अानुपूर्वी प्रादि द्रव्यों की स्थिति की मर्यादा का विचार करना / अन्तरविरहकाल / अर्थात् विवक्षित पर्याय का परित्याग हो जाने के बाद पुन: उसी पर्याय की प्राप्ति में होने वाले विरहकाल को अन्तर कहते हैं / भाग -पानपूर्वी प्रादि द्रव्य दूसरे द्रव्यों के कितने भाग में रहते हैं, ऐसा विचार करना / भाव---विवक्षित प्रानुपूर्वी आदि द्रव्य किस भाव में हैं, ऐसा विचार करना। अल्पबहुत्व-...अर्थात् न्यूनाधिकता। द्रव्यार्थिक, प्रदेशार्थिक और तदुभय के आश्रय से इन भानुपूर्वी आदि द्रव्यों में अल्पाधिकता का विचार किया जाना अल्पबहुत्व कहलाता है। इनका विस्तृत विचार क्रम से आगे के सूत्रों में किया जा रहा है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org