________________ आनुपूर्वी निरूपण [67 [104-1 उ.] आयुष्मन् ! नैगम-व्यवहारनयसम्मत पानुपूर्वीद्रव्य प्रानुपूर्वी द्रव्यों में समवतरित होते हैं, किन्तु अनानुपूर्वीद्रव्यों में या अवक्तव्यद्रव्यों में समवतरित नहीं होते हैं। [2] गम-ववहाराणं अणाणुपुब्बोदव्वाई कहि समोयरंति ? कि अणुपुग्वीदोह समोयरंति ? अणाणुपुथ्वीदवेहि समोयरंति ? अवत्तव्वयादवहिं समोयरंति ? णेगम-ववहाराणं अणाणुपुब्धीदव्वाई णो आणुपुब्वोदबेहिं समोयरंति, अणाणुपुच्वीदहि समोयरंति, णो अवत्तव्वयदहि समोयरति / [104.2 प्र.] नैगम-व्यवहारनयसम्मत अनानुपूर्वीद्रव्य कहाँ समवतरित होते हैं ? क्या अानुपूर्वी द्रव्यों में समवतरित होते हैं ? अनानुपूर्वी द्रव्यों में या प्रवक्तव्यकद्रव्यों में समवतरित होते हैं ? 1204-2 उ.] आयुष्मन् ! अनानुपूर्वीद्रव्य आनुपूर्वीद्रव्यों में और प्रवक्तव्यकद्रव्यों में समवतरित नहीं होते हैं किन्तु अनानुपूर्वीद्रव्यों में समवतरित होते हैं / [3] गम-यवहाराणं अवत्तन्वयदवाई कहिं समोयरंति ? कि आणुपुत्रीदहि समोयरंति ? अणाणुपुब्वीदहिं समोयरंति ? अवत्तव्वयदहि समोयरति ? गम-ववहाराणं अवत्तव्वयदव्वाइं णो आणुपुत्वीदहि समोयरंति, णो अणाणुपुवीदोहिं समोयरंति, अवत्तव्वयदहिं समोयरंति / से तं समोयारे / [104-3 प्र.] भगवन् ! नैगम-व्यवहारनयमान्य अवक्तव्यद्रव्य कहाँ समवतरित होते हैं ? क्या आनुपूर्वीद्रव्यों में अथवा अनानुपूर्वीद्रव्यों में या अवक्तव्यकद्रव्यों में समवतरित होते हैं ? [104-3 उ.] यायुष्मन् ! अबक्तव्यकद्रव्य प्रानुपूर्वीद्रव्यों में और अनानुपूर्वोद्रव्यों में समवतरित नहीं होते हैं किन्तु अवक्तव्यकद्रव्यों में समवतरित होते हैं। यह समवतार की वक्तव्यता है। विवेचन--सूत्रकार ने सूत्र में कौन द्रव्य किसमें सभवतरित होता है, यह स्पष्ट किया है। समवतार का तात्पर्य है समावेश अर्थात् प्रानुपूर्वी प्रादि द्रव्यों का बिना किसी विरोध के अपनी जाति में रहना, जात्यन्तर में नहीं रहने का और कार्य में कारण का उपचार करके 'आतुपूर्वी ग्रादि द्रव्यों का अन्तर्भाव स्वस्थान में होता है, या परस्थान में, इस प्रकार के चिन्तनप्रकार-विचार के उत्तर को भी समवतार कहते हैं। यह विचार किस प्रकार से किया जाता है ? उसको सूत्र में स्पष्ट किया है। अविरुद्ध रूप से प्रानुपूर्वीद्रव्य---त्रि प्रदेशिक प्रादि स्कन्ध-प्रानुपूर्वी द्रव्य में, अनानुपूर्वी द्रव्य-परमाणुपुद्गल---अनानुपूर्वीद्रव्य में और अवक्तव्यद्रव्य-द्विप्रदेशिकस्कन्ध –अवक्तव्यद्रव्य में अविरोध रूप से - अपनी जाति में विना विरोध के रहते हैं। इस प्रकार की अविरोधवृत्तिता स्वजातीय पदार्थ में ही हो सकती है, इतर जाति में नहीं। पानुपूर्वीद्रव्यों का समवतार यदि परजाति में भी माना जाए नो परजाति में रहने पर उसमें स्वजाति में रहने की अविरोधवृत्तिता नहीं बन सकेगी। इससे यह सिद्धान्त प्रतिफलित हुअा कि नाना देशवर्ती समस्त प्रानुपूर्वीद्रव्य प्रानुपूर्वीद्रव्यों में रहते हैं, परजाति में नहीं। इसी प्रकार अनानुपूर्वी और अबक्तव्य द्रव्यों के लिये भी समझ लेना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org