________________ 288] [अनुयोगद्वारसूत्र यद्यपि लोक में घंटा, दिन, वर्ष प्रादि को ही काल कहने का व्यवहार प्रचलित है पर यह काल वस्तुभूत-पारमार्थिक नहीं है / वस्तुभूत काल तो वह सूक्ष्म अंश है जिसके निमित्त से सर्व द्रव्य परिणमन करते रहते हैं। यदि वह न हो तो उपर्युक्त प्रकार से प्रारोपित काल का व्यवहार ही न हो। समय से छोटा कालांश सम्भव नहीं है, क्योंकि सूक्ष्म से सूक्ष्म पर्याय भी उस एक समय से पूर्व नहीं बदलता है / इसलिये शास्त्रों में समय की परिभाषा इस प्रकार की है--- __जघन्य गति से एक परमाणु सटे हुए द्वितीय परमाणु तक जितने काल में जाता है, उसे समय कहते हैं / अथवा तत्प्रायोग्य वेग से एक के ऊपर की ओर जाने वाले और दूसरे के नीचे की ओर आने वाले दो परमाणुओं के स्पर्श होने में लगने वाला काल समय कहलाता है। यद्यपि आत्मा, पदार्थसमूह और सिद्धांत के अर्थ में भी समय शब्द प्रयुक्त होता है, किन्तु यहाँ कालद्रव्य और उसकी पर्याय का बोध कराने के लिये समय शब्द का प्रयोग हुआ है। प्रस्तुत सूत्र में 'समयस्स णं परूवणं करिस्सामि' से लेकर 'एत्तोऽवि .......पण्णत्ते समणाउसो' पद तक का कथन विशिष्ट प्राशय को अभिव्यक्त करने के लिये किया गया है कि समय काल का सबसे अधिक सूक्ष्म अंश है / उसका स्वरूप सामान्य रूप से कथन करने पर बुद्धिग्राह्य नहीं हो सकता है / उसके स्वरूप को समझने के लिये विस्तृत व्याख्या अपेक्षित है। जब अनन्त परमाणों के संघात (समुदाय) से एक पक्ष्म (रेशा) निष्पन्न होता है और वे संघात क्रमशः ही छिन्न होते हैं, तब उस पक्ष्म के विदारण में अनन्त समय लगना चाहिये / लेकिन सिद्धान्त में जो असंख्यात समय लगना कहा है, उसका कारण यह है कि पक्ष्म फाड़ने में प्रवृत्त पुरुष का प्रयत्न अचिन्त्य शक्ति वाला होने से असंख्यात समयों में अनन्त संघातों का छेदन हो जाता है। उन संघातों से बना हुआ एक स्थूल पक्षम यहाँ विवक्षित है और ऐसे स्थूल पक्ष्म असंख्यात ही होते हैं, अनन्त नहीं। अतः उनका क्रम से छेदन होने में अनन्त नहीं किन्तु असंख्यात समय लगेगा। यद्यपि असंख्यात समय लगने का संकेत सत्र में नहीं किया है, किन्त प्रकरणानसार उसे यहाँ समझ लेना चाहिये / सूत्र में संकेत न करने का कारण यह है कि छद्मस्थ जनों के ज्ञान का विषयभूत हो सके और उससे समय की चरम सूक्ष्मता का बोध हो जाए ऐसा दृष्टान्त दिया जाना सम्भव नहीं है। इसीलिये समय की सूक्ष्मता बताने के लिये सामान्य रूप में सूत्रकार ने संकेत किया है-'एत्तोऽवि णं सुहुमतराए समए -- समय इससे भी अधिक सूक्ष्मतर होता है।' अर्थात् उपरितन पक्ष्म के छेदनकाल का असंख्यातवां अंश समय है। पुरुष का प्रयत्न अचिन्त्य शक्ति वाला होना प्रत्यक्ष सिद्ध है। जैसे कोई पुरुष दूसरे किसी स्थान पर जाने के लिये प्रस्थान करे और यदि गमन रूप प्रयत्न में प्रवृत्ति करता रहता है तो वह अपने गन्तव्य स्थान पर बहुत जल्दी पहुंच जाता है। उसी प्रकार फाड़ने की क्रिया में प्रवृत्त पुरुष भी अपने प्रयत्न से अनन्त परमाणों के समुदाय से बने पक्ष्म (रेशे) को असंख्यात समय में छेदन कर दे, यह स्वाभाविक है। इस प्रकार से समय का स्वरूपनिर्देश करने के बाद अब उसके समह रूप कालविभागों का वर्णन करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org