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________________ प्रमाणाधिकार निरूपण] [287 [प्र.] भगवन् ! तो जितने काल में उस दर्जी के पुत्र ने शीघ्रता से उस सूती अथवा रेशमी शाटिका को एक हाथ प्रमाण फाड़ दिया है, क्या उतने काल को 'समय' कहते हैं ? [उ.] अायुष्मन् ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / अर्थात् वह समय का प्रमाण नहीं है / [प्र.] क्यों नहीं है ? [उ. क्योंकि संख्यात तंतुओं के समुदाय रूप समिति के संयोग से एक सूती शाटिका अथवा रेशमी शाटिका निष्पन्न होती है बनती है। अतएव जब तक ऊपर का तन्तु छिन्न न हो तब तक नीचे का तन्तु छिन्न नहीं हो सकता / अतः ऊपर के तन्तु के छिदने का काल दूसरा है और नीचे के तन्तु के छिदने का काल दूसरा है / इसलिये वह एक हाथ प्रमाण शाटिका के फटने का काल समय नहीं है। इस प्रकार से प्ररूपणा करने पर शिष्य ने पुनः प्रश्न पूछा--- प्र. भदन्त ! जितने काल में दर्जी के पुत्र ने उस सूती शाटिका अथबा रेशमी शाटिका के ऊपर के तन्त का छेदन किया, क्या उतना काल समय है ? [उ.] उतना काल समय नहीं है। [प्र.] क्यों नहीं है ? [उ.] क्योंकि संख्यात पक्ष्मों (सूक्ष्म अवयवों--रेशानों) के समुदाय रूप समिति के सम्यक समागम से एक तन्तु निष्पन्न होता है-निर्मित होता है / इसलिये ऊपर के पक्ष्म के छिन्न न होने तक नीचे का पक्ष्म छिन्न नहीं हो सकता है / अन्य काल में ऊपर का पक्ष्म और अन्य काल में नीचे का पक्ष्म छिन्न होता है / इसलिये उसे समय नहीं कहते हैं। इस प्रकार की प्ररूपणा करने वाले गुरु से शिष्य ने पुनः निवेदन किया [प्र.] जिस काल में उस दर्जी के पुत्र ने उस तन्तु के उपरिवर्ती पक्ष्म का छेदन किया तो क्या उतने काल को समय कहा जाए ? / [उ., उतना काल भी समय नहीं है / [प्र. क्यों नहीं है ? [उ.] इसका कारण यह है कि अनन्त संघातों के समुदाय रूप समिति के संयोग से पक्ष्म निर्मित होता है, अतः जब तक उपरिवर्ती संघात पृथक् न हो, तब तक अधोवती संघात पृथक् नहीं होता है / उपरिवर्ती संघात के पृथक् होने का काल अन्य है और अधोवर्ती संघात के पृथक् होने का काल अन्य है / इसलिये उपरितन पक्ष्म के छेदन का काल समय नहीं है / आयुष्मन् ! समय इससे भी अतीव सूक्ष्मतर कहा गया है / विवेचन–प्रस्तुत सूत्र में समय का स्वरूप स्पष्ट किया है। जिस प्रकार पुद्गल द्रव्य के अविभाज्य चरम अंश को परमाण कहते हैं, उसी प्रकार काल द्रव्य के निविभाग अंश की 'समय' संज्ञा है / समय कितना सूक्ष्म है ? इसका निर्देश करने के लिये कतिपय उदाहरणों का उल्लेख किया है। लेकिन वे सब अांशिक हैं और समय उनसे भी सूक्ष्म अंश है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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