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________________ 324] [अनुयोगद्वारसूत्र 395. एएहि वावहारिएहि खेतपलिओवम-सागरोवमेहि किं पयोयणं? एएहि नस्थि किचिप्पओयणं, केवलं तु पण्णवणा पण्णविज्जइ। से तं वावहारिए खेत्तपलिओवमे / [395 प्र.] भगवन् ! इन व्यावहारिक क्षेत्रपल्योपम और सागरोपम से कौनसा प्रयोजन सिद्ध होता है अर्थात् इनका कथन किसलिये किया गया है ? [395 उ.] गौतम ! इन व्यावहारिक क्षेत्रपल्योपम और सागरोपम से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता / मात्र इनके स्वरूप की प्ररूपणा ही की गई है / इस प्रकार से यह व्यावहारिक क्षेत्रपल्योपम एवं सागरोपम का स्वरूपवर्णन समाप्त हुआ। विवेचन-सूत्र में व्यावहारिक क्षेत्रपल्योपम एवं सागरोपम के स्वरूप और प्रयोजन का संकेत करने के बाद अब–'तत्थ णं जे से सुहुमे से ठप्पे' की सूचनानुसार सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम का स्वरूप बतलाते हैं। सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम-सागरोपम 396. से कि तं सुहमे खेत्तपलिओवमे ? सुहमे खेत्तपलिओवमे से जहाणामए पल्ले सिया--जोयणं आयाम-विक्खंभेणं, जोयणं उड्डं उच्चत्तेणं, तं तिगुणं सविसेसं परिवखेवेणं; से णं पल्ले एगाहिय-बेहिय-तेहिय० जाव उक्कोसेणं सत्तरत्तपरूढाणं सम्मठे सन्निचिते भरिए वालम्गकोडीणं / तत्थ णं एगमेगे वालग्गे असंखेज्जाइं खंडाई कज्जइ, ते णं वालग्गा विट्ठीओगाहणाओ असंखेज्जइभागमेत्ता सुहमस्स पणगजीवस्स सरीरोगाणाओ असंखज्जगुणा / ते णं वालागा जो अगी डहेज्जा, नो वातो हरेज्जा, णो कुच्छेज्जा, णो पलिविद्धंसेज्जा, जो पूइत्ताए हवमागच्छेज्जा। जे गं तस्स पल्लस्स प्रागासपदेसा तेहि वालग्गेहि अप्फुन्ना वा अणप्फुण्णा वा तओ णं समए समए गते एगमेगं मागासपदेसं अवहाय जावइएणं कालेणं से पल्ले वीगे नीरए निल्लेवे गिट्ठिए भवति / से तं सुहमे खेत्तपलिओवमे / [396 प्र.] भगवन् ! सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम का क्या स्वरूप है ? [396 उ.] अायुष्मन् ! सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम का स्वरूप इस प्रकार जानना चाहिये-जैसे धान्य के पल्य के समान एक पल्य हो जो एक योजन लम्बा-चौड़ा, एक योजन ऊंचा और कुछ अधिक तिगुनी परिधि वाला हो / फिर उस पल्य को एक दिन, दो दिन, तीन दिन यावत् सात दिन के उगे हुए बालानों से भरा जाए और उन बालागों के असंख्यात-असंख्यात ऐसे खण्ड किये जाएँ, जो दृष्टि के विषयभूत पदार्थ की अपेक्षा असंख्यात भाग-प्रमाण हों एवं सूक्ष्मपनक जीव की शरीरावगाहना से असंख्यात गुणे हों / उन बालाग्रखण्डों को न तो अग्नि जला सके और न वायु उड़ा सके, वे न तो सड़गल सके और न जल से भीग सकें, उनमें दुर्गन्ध भी उत्पन्न न हो सके / उस पल्प के बालानों से जो आकाशप्रदेश स्पृष्ट हुए हों और स्पृष्ट न हुए हों (दोनों प्रकार के प्रदेश यहाँ ग्रहण करना चाहिये) उनमें से प्रति समय एक-एक आकाशप्रदेश का अपहरण किया जाए तो जितने काल में वह पल्य क्षीण, नीरज, निर्लेप एवं सर्वात्मना विशुद्ध हो जाये, उसे सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम कहते हैं / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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