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________________ 338] [अनुयोगद्वारसूत्र करने पर 44 4 16 सोलह संख्या वाला वर्ग होता है। इसी प्रकार जीवराशि से जीवराशि को गुणा करने पर प्राप्त राशि जीववर्ग है / सर्व जीवराशि अनन्त है। उसे कल्पना से दस हजार और अनन्त का प्रमाण 100 मान लिया जाए तो दस हजार के साथ 100 का गुणा करने पर दस लाख हुए। यह हुआ मुक्त तैजस शरीरों का सर्वजीवों से अनन्तगुणा परिमाण / जीवबर्ग का अनन्त भाग इस प्रकार होगा कि सर्व जीवराशि कल्पना से 10000 मानकर वर्ग के लिये इस दस हजार को दस हजार से गुणा करें। इस प्रकार गुणा करने से दस करोड़ की राशि आई। वह जीववर्ग का प्रमाण हुा / अब अनन्त के स्थान पर पूर्वोक्त 100 रखकर दस करोड़ में उनका भाग देने पर दस लाख आये / वही जीवराशि के वर्ग का अनन्तवां भाग हुआ / इस प्रकार से मुक्त तैजसशरीर इतने प्रमाण में जीवराशि के वर्ग के अनन्तवें भाग रूप हैं, ऐसा असत्कल्पना से समझ लेना चाहिये। मुक्त तैजसशरीर द्रव्य की अपेक्षा सर्वजीवों से अनन्तगुणे हैं या जीववर्ग के अनन्तवें भागप्रमाण हैं, इन दोनों कथनों का एक ही तात्पर्य है। केवल कथन की भिन्नता है, अर्थ की नहीं है। बद्ध-मुक्त कार्मणशरीरों की संख्या 417. केवइया णं भंते ! कम्मयसरीरा पन्नता? गो० ! दुविहा पण्णत्ता / तं जहाबद्धेल्लया य मुक्केल्लया य / जहा तेयगसरीरा तहा कम्मगसरीरा वि भाणियव्या / / [417 प्र.] भगवन् ! कार्मणशरीर कितने कहे गये हैं ? [417 उ.] गौतम ! बे दो प्रकार के कहे गये हैं, यथा-बद्ध और मुक्त। जिस प्रकार से तैजसशरीर की बक्तव्यता पूर्व में कही गई है, उसी प्रकार कार्मणशरीर के विषय में भी कहना चाहिये। विवेचन तेजसशरीरों के समान ही कार्मणशरीरों की वक्तव्यता जान लेने का निर्देश करने का कारण यह है कि तेजस और कार्मण शरीरों की संख्या एवं स्वामी समान है तथा ये दोनों शरीर एक साथ रहते हैं—अतएव इतनी समानता होने से विशेष कथनीय शेष नहीं रह जाता है। ___इस प्रकार पांच शरीरों का सामान्य रूप से कथन करके अब नारकादि चौबीस दंडकों में उनकी प्ररूपणा की जाती है। नारकों में बद्ध-मुक्त पंच शरीरों की प्ररूपणा 418. [1] नेरइयाणं भंते ! केवतिया ओरालियसरीरा पन्नता? गोतमा! दुविहा पण्णत्ता / तं०-बधेल्लया य मुक्केल्लया य / तत्थ णं जे ते बद्धल्लया ते णं नस्थि / तत्थ णं जे ते मुक्केल्लया ते जहा ओहिया ओरालिया तहा भाणियव्वा / [418-1 प्र.] भगवन् ! नैरयिक जीवों के कितने प्रौदारिकशरीर कहे गये हैं ? [418-1 उ.] गौतम ! औदारिकशरीर दो प्रकार के कहे गये हैं-बद्ध और मुक्त / उनमें से बद्ध औदारिकशरीर उनके नहीं होते हैं और मुक्त प्रौदारिकशरीर पूर्वोक्त सामान्य मुक्त औदारिकशरीर के बराबर जानना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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