________________ प्रमाणाधिकार निरूपण] [337 तैजसशरीर पृथक्-पृथक् होते हैं, औदारिकशरीर की तरह एक नहीं / उसकी अनन्तता का कालतः परिमाण-अनन्त उत्सपिणियों और प्रवपिणियों के समयों के बराबर है। क्षेत्रत: अनन्त लोकप्रमाण है अर्थात् अनन्त लोकाकाशों में जितने प्रदेश हों, इतने प्रदेशप्रमाण वाले हैं। द्रव्य की अपेक्षा बद्ध तैजसशरीर सिद्धों से अनन्तगुणे और सर्वजीवों की अपेक्षा से अनन्तभाग न्यून होते हैं। इसका कारण यह है-तैजसशरीर समस्त संसारी जीवों के होते हैं और संसारी जीव सिद्धों से अनन्तगुणे हैं, इसलिये तैजसशरीर भी सिद्धों से अनन्तगुणे हुए। किन्तु सर्वजीवराशि की अपेक्षा विचार करने पर समस्त जीवों से अनन्तवें भाग कम इसलिये हैं कि सिद्धों के तैजसशरीर नहीं होता और सिद्ध सर्वजीवराशि के अनन्तवें भाग हैं। अत: उन्हें कम कर देने से तैजसशरीर सर्वजीवों के मन्तवें भाग न्यून हो जाते है। इस प्रकार बद्ध तैजसशरीर चाहे सिद्धों से अनन्तगुणे हैं, ऐसा कहो, चाहे सर्वजीवराशि के अनन्तवें भाग न्यून हैं, ऐसा कहो, अर्थ समान है। सारांश यह कि बद्ध तैजसशरीर सर्व संसारी जीवों की संख्या के बराबर हैं, समस्त जीवराशि की संख्या के बराबर नहीं हैं / मुक्त तैजसशरीर भी सामान्यतः अनन्त हैं / काल की अपेक्षा अनन्त उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालों के समयों के बराबर हैं / क्षेत्र की अपेक्षा अनन्त लोकप्रमाण हैं / अर्थात् अनन्त लोकों की प्रदेश राशि के बरावर अनन्त हैं। द्रव्यतः मुक्त तैजसशरीर सर्वजीवों से अनन्तगुणे हैं तथा सर्व जीववर्ग के अनन्नबें भागप्रमाण हैं। मुक्त तैजसशरीरों का परिमाण समस्त जीवों से अनन्तगुणा मानने का कारण यह है कि प्रत्येक जीव भूतकाल में अनन्त-अनन्त तैजसशरीरों का त्याग कर चुके हैं। जीवों के द्वारा जब उनका परित्याग कर दिया जाता है, उन शरीरों का असंख्यात काल पर्यन्त उस पर्याय में अवस्थान रह सकता है / अत: उन सबकी संख्या समस्त जीवों से अनन्तगुणी कही गई है तथा जो जीववर्ग के अनन्तवें भागप्रमाण कही गई है, उसको इस रीति से समझना चाहिये मुक्त तेजसशरीर जीववर्ग के अनन्तवें भागप्रमाण है। इसका कारण यह है कि समस्त मुक्त तैजसशरीर जीववर्ग प्रमाण तो तब हो पाते जब कि एक-एक जीव के तैजसगरीर सर्वजीवराशिप्रमाण होते या उससे कुछ अधिक होते और उनके साथ सिद्ध जीवों के अनन्त भाग की पूर्ति होती। परन्तु सिद्ध जीवों के तो तैजसशरीर होता नहीं, अत: उनको मिलाया नहीं जा सकता है तथा एक-एक जीव के मुक्त तैजसशरीर सर्व जीवराशिप्रमाण या उससे कुछ अधिक नहीं अपितु उससे बहुत कम ही होते हैं और वे भी असंख्यात काल तक ही उस पर्याय में रहते है, उसके बाद तैजसशरीर रूप परिणाम---पर्याय का परित्याग करके नियम से दूसरी पर्याय को प्राप्त हो जाते हैं। इसलिये प्रतिनियत काल तक अवस्थित होने के कारण उनकी संख्या उत्कृष्ट से भी अनन्त रूप ही है, इससे अधिक नहीं / उतने काल में जो अन्य मुक्त तैजसशरीर होते है, वे भी थोड़े ही होते हैं, क्योंकि काल थोड़ा है। इस कारण मुक्त तैजसशरीर जीववर्गप्रमाण नहीं होते किन्तु जीववर्ग के अनन्तभाग मात्र ही होते हैं। द्रव्य की अपेक्षा उपर्युक्त मुक्त तेजसशरीर सर्वजीवों से अनन्तगुणे अथवा सर्व जीववर्ग के अनन्तवें भागप्रमाण होने को असत्कल्पना से स्पष्ट करते हैं--- किसी एक राशि को उसी राशि से गुणा करने पर वर्ग होता है। जैसे 4 को 4 से गुणा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org