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________________ [अनुयोगद्वारसूत्र : आवश्यक के निक्षेप 9. से किं तं आवस्सयं? आवस्सयं चउन्विहं पण्णत्तं / तं जहानामावस्सयं 1 ठवणावस्सयं 2 दब्धावस्सयं 3 भावावस्सयं 4 / [9 प्र.] भगवन् ! आवश्यक का स्वरूप क्या है ? [9 उ.] आयुष्मन् ! आवश्यक चार प्रकार का कहा है / यथा-१. नाम-यावश्यक, 2. स्थापना-पावश्यक, 3 द्रव्य-यावश्यक, 4 भाव-आवश्यक / विवेचन--'यथोद्देशं निर्देशः' इस न्यायानुसार प्रथम आवश्यक का निक्षेप किया है। सूत्र में से किं तं प्रावस्सयं' इत्यादि में से 'से' अथ अर्थ का द्योतक मगधदेशीय शब्द है और 'प्रथ' शब्द का प्रयोग मंगल, अनन्तर, प्रारम्भ, प्रश्न और उपन्यास आदि अर्थों में होता है / प्रस्तुत में इसका उपयोग वाक्य के उपन्यास अर्थ में किया गया है। 'कि' प्रश्नार्थसूचक है और 'तं' पूर्व प्रक्रान्त परामर्शक सर्वनाम है। 'आवश्यक' शब्द का निर्वचन-विभिन्न रूपों में इस प्रकार किया जा सकता है जो अवश्य करने योग्य हो, वह आवश्यक है। अर्थात् साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका रूप चतुर्विध संघ के द्वारा प्रतिदिन क्रमशः दिन और रात्रि के अंत में करने योग्य साधना को आवश्यक कहते हैं-अवश्यं कर्तव्यमावश्यकम् / आत्मा को दुर्गुणों से हटाकर पूर्ण रूपेण-सर्व प्रकार से गुणों के वश्य--अधीन करे, वह अावश्यक है—'गुणानां प्रासमन्ताद्वश्यमात्मानं करोतीत्यावश्यकम् / ' - इन्द्रिय और कषाय आदि भावशत्रु सर्वप्रकार से जिसके द्वारा वश में किये जाते हैं, वह पावश्यक है --'ग्रा-समन्ताद् वश्या भवन्ति इन्द्रियकषायादिभावशत्रवो यस्मात्तदावश्यकम् / ' 'श्रावस्सयं' का संस्कृत रूप 'आवासक भी होता है / अतएव गुणशून्य आत्मा को सर्वात्मना गुणों से जो बासित करे उसे प्रावासक (ग्रावश्यक) कहते हैं—'गुणशून्यमात्मानम् प्रा-समन्तात् वासयति गुणैरित्यावासकम् / ' निक्षेपविधि के अनुसार आवश्यक के सामान्यतया नाम प्रादि चार प्रकार होने का कारण यह है कि प्रत्येक शब्द का अर्थ नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव इन चार रूपों में हो सकता है। शास्त्रीय भाषा में इस रूप का संकेत करने के लिये निक्षेप शब्द का प्रयोग हुआ है / अब यथाक्रम उक्त चार रूपों द्वारा आवश्यक का वर्णन करते हैं। नाम-स्थापना-प्रावश्यक 10. से कि तं नामावस्सयं? नामावस्सयं जस्स णं जीवस्स या अजीवस्स वा जीवाण वा अजीवाण वा तदुभयस्स वा तदुभयाण वा आवस्सए त्ति नाम कीरए / से तं नामावस्सयं / 1. संयक्त पद का खण्ड-खण्ड रूप में पृथक्करण करके वाक्य के प्रथं के स्पष्टीकरण करने को निर्वचन कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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