SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 34
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, अाकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और श्रद्धासमय (काल) ये छह भेद हैं / गुणनाम के वर्णनाम, गंधनाम, रसनाम, स्पर्शनाम और संस्थाननाम आदि अनेक भेद-प्रभेद हैं। पर्यायनाम के एक गुण कृष्ण, द्विगुण कृष्ण, त्रिगुण कृष्ण, यावत् दसगुण, संख्येयगुण, असंख्येयगुण और अनन्तगुण कृष्ण इत्यादि अनेक प्रकार हैं / चतुर्नाम 4 प्रकार का है.-यागमत:, लोपतः, प्रकृतितः और विकारतः। विभक्त्यन्त पद में वर्ण का प्रागमन होने से पद्म का पानि ! यह पागमत: पद का उदाहरण है। वर्गों के लोप से जो पद बनता है वह लोपत: पद है; जैसे---पटोऽत्र-पटोत्र / सन्धिकार्य प्राप्त होने पर भी सन्धि का न होना प्रकृतिभाव कहलाता है। जैसे शाले एते, माले इमे / विकारत: पद के उदाहरण-दंडाग्रः, नदीह, मधुदकम् / पंचनाम पांच प्रकार का है-नामिक, नैपातिक, आख्यातिक, औपसगिक और मिश्र / पदनाम औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, पारिणामिक ओर सन्निपातिक–छह प्रकार का है। इन भावों पर कर्मसिद्धान्त व गुणस्थानों की दृष्टि से विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला गया है। इसके पश्चात् सप्तनाम में सप्त स्वर पर, अष्टनाम में अष्ट विभक्ति पर, नवनाम में नवरस एवं दसनाम में गुणवाचक दस नाम बताये हैं। उपक्रम के तृतीय भेद प्रमाण पर चिन्तन करते हुए द्रव्यप्रमाण, क्षेत्रप्रमाण, कालप्रमाण और भावप्रमाण के रूप में चार भेद किये गये हैं। द्रव्यप्रमाण प्रदेशनिष्पन्न और विभागनिष्पन्न रूप से दो प्रकार का है। प्रदेशनिष्पन्न-द्रव्यप्रमाण के अन्तर्गत परमाणु, द्विप्रदेशी स्कन्ध यावत् दशप्रदेशी स्कन्ध प्रादि है। विभागनिष्पन्नद्रव्यप्रमाण के मान, उन्मान, अवमान, गणितमान और प्रतिमान, ये पांच प्रकार हैं। इनमें से मान के दो प्रकार है----धान्यभानप्रमाण, रसमानप्रमाण / धान्यमानप्रमाण के प्रसृति, सेधिका, कुडब, प्रस्थ, प्राढक, द्रोणि जघन्य, मध्यम, उत्कुष्ट, कुम्भ आदि अनेक भेद हैं। इसी प्रकार रसमान प्रमाण के भी विविध भेद हैं। उन्मान प्रमाण के अर्द्धकर्ष, कर्ष, अर्द्धपल, पल, अक्षतुला, तुला, अर्द्धभार, भार आदि अनेक भेद हैं। इस प्रमाण से अगर, कुमकुम, खाँड, गुड़ आदि वस्तुनों का प्रमाण मापा जा सकता है। जिस प्रमाण से भूमि प्रादि का माप किया जाय वह अवमान है / इसके हाथ, दंड, धनुष्य श्रादि अनेक प्रकार हैं। गणितमानप्रमाण में संख्या से प्रमाण निकाला जाता है / जैसे एक, दो से लेकर हजार, लाख, करोड़ आदि जिससे द्रव्य के पाय-व्यय का हिसाब लगाया जाय / प्रतिमानजिससे स्वर्ण आदि मापा जाय। इसके गुजा कांगणी निष्पाव, कर्ममाशक, मण्डलक, सोनया प्रादि अनेक भेद हैं। इस प्रकार द्रव्यप्रमाण की चर्चा है। क्षेत्र प्रमाण प्रदेश निष्पन्न और विभागनिष्पन्न दो प्रकार का है। एक-प्रदेशावगाही, द्वि-प्रदेशावगाही आदि पुदगलों से व्याप्त क्षेत्र को प्रदेशनिष्पन्न क्षेत्रप्रमाण कहा गया है। विभागनिष्पन्न क्षेत्रप्रमाण के अंगुल, वितस्ति, हस्त. कुक्षि, दंड, कोश, योजन आदि नाना प्रकार हैं। अंगुल-प्रात्मांगुल, उत्सेधांगुल और प्रमाणांगुल के रूप में तीन प्रकार का है। जिस काल में जो मानव होते हैं उनके अपने अंगुल से 12 अंगुल प्रमाण मुख होता है / 108 अंगुल प्रमाण पूरा शरीर होता है। वे पुरुष उत्तम, मध्यम और जघन्य रूप से 3 प्रकार के हैं। जिन पुरुषों में पूर्ण लक्षण हैं और 108 अंगुल प्रमाण जिनका शरीर है वे उत्तम पुरुष हैं, जिन पुरुषों का शरीर 104 अंगुल प्रमाण है वे मध्यम पुरुष हैं और जिनका शरीर 96 अगुल प्रमाण है वे जघन्य पुरुष हैं। इन अंगुलों के प्रमाण से छह अंगुल का 1 पाद, 2 पाद की 1 वितस्ति, 2 वितस्ति का १हाथ, 2 हाथ की 1 कुक्षि, 2 कुक्षि का एक धनुष्य, दो हजार धनुष्य का 1 कोश, 4 कोश का एक योजन होता है। प्रस्तुत प्रमाण से प्राराम, उद्यान, कानन, चन, वनखण्ड, कुंआ, वापिका, नदी, खाई, प्राकार, स्तुप आदि नापे जाते हैं। उत्सेधांगुल का प्रमाण बताते हुए परमाणु त्रसरेणु, रथरेणु का वर्णन विविध प्रकार से किया है / प्रकाश में जो धूलिकण आँखों से दिखाई देते हैं वे बसरेणु हैं / रथ के चलने से जो धूलि उड़ती है वह रथरेणु है। परमाणु [ 32] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy