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________________ जिनेश्वर भगवान की आज्ञा का उल्लंघन करने वाले स्वच्छन्द-विहारी की अपने मत की दृष्टि से उभयकालीन क्रियाएँ लोकोत्तरद्रव्यावश्यक हैं / भावभावश्यक' पागमत: और नोप्रागमतः रूप में दो प्रकार का है। आवश्यक के स्वरूप को उपयोगपूर्वक जानना आगमतः भावनावश्यक है। नोप्रागमत: भावनावश्यक भी लौकिक और कुप्रावचनिक तथा लोकोत्तरिक रूप में तीन प्रकार का है। प्रातः महाभारत, सायं रामायण प्रभति का स-उपयोग पठन-पाठन लौकिकपावश्यक है। चर्म ग्रादि धारण करने वाले तापस आदि का अपने इष्टदेव को सांजलि नमस्कारादि करना कूप्रावच निक भावनावश्यक है। शुद्ध-उपयोग सहित वीतराग के वचनों पर श्रद्धा रखने वाले चविध तीर्थ का प्रात: सायंकाल उपयोगपूर्वक आवश्यक करना लोकोत्तरिक-भावनावश्यक है। __आवश्यक का निक्षेप करने के पश्चात् सूत्रकार श्रुत, स्कन्ध और अध्ययन का निक्षेपपूर्वक विवेचन करते हैं। श्रुत भी आवश्यक की तरह 4 प्रकार का है—नामश्रुत, स्थापनाश्रुत, द्रव्यश्रुत और भावश्रुत / श्रुत के श्रुत, सूत्र, ग्रन्थ, सिद्धान्त, शासन, आज्ञा, वचन, उपदेश, प्रज्ञापना-प्रवचन एवं प्रागम' ये एकार्थक नाम हैं। स्कन्ध के भी नाम, स्थापना, द्रव्य और भावस्कन्ध ऐसे 4 प्रकार हैं। स्कन्ध के गण, काय, निकाय, स्कन्ध, वर्ग, राशि, पुञ्ज, पिंड, निकर, संघात, याकूल और समूह, ये एकार्थक नाम हैं।४८ अध्ययन 6 प्रकार का है—सामायिक, चविशतिस्तव, वन्दन, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान / सामायिक रूप प्रथम अध्ययन के उपक्रम, निक्षेप, अनुगम और नय ये चार अनुयोगद्वार हैं। उपक्रम का नामोपक्रम, स्थापनोक्रम , द्रव्योपक्रम, क्षेत्रोपक्रम, कालोपक्रम और भावोपक्रम रूप 6 प्रकार का है। अन्य प्रकार से भी उपक्रम के छह भेद बताये गये हैं--प्रानुपूर्वी, नाम, प्रमाण, वक्तव्यता, अर्थाधिकार और समवतार / उपक्रम का प्रयोजन है कि ग्रन्थ के सम्बन्ध में प्रारम्भिक ज्ञातव्य विषय की चर्चा / इस प्रकार की चर्चा होने से ग्रन्थ में आये हए क्रमरूप से विषयों का निक्षेप करना / इससे वह सरल हो जाता है। पानपूर्वी के नाभानुपूर्वी, स्थापनानुपूर्वी, द्रव्यानुपूर्वी, क्षेत्रानुपूर्वी, कालानुपूर्वी, उत्कीर्तनानुपूर्वी, गणनानपूर्वी, संस्थानानुपूर्वी, सामागार्यानुपूर्वी, भावानुपूर्वी, ये दस प्रकार हैं जिनका सूत्रकार ने अतिविस्तार से निरूपण किया है। प्रस्तुत विवेचन में अनेक जैन मान्यताओं का दिग्दर्शन कराया गया है / नामानुपूर्वी में नाम के एक, दो यावत दस नाम बताये हैं। संसार के समस्त द्रव्यों के एकार्थवाची अनेक नाम होते हैं किन्तु वे सभी एक नाम के ही अन्तर्गत आते हैं। द्विनाम के एकाक्षरिकनाम और अनेकाक्षरिकनाम ये दो भेद हैं। जिसके उच्चारण करने में एक ही अक्षर का प्रयोग हो वह एकाक्षरिक नाम है। जैसे धी, स्त्री, ही इत्यादि। जिसके उच्चारण में अनेक अक्षर हों, वह अनेकाक्षरिकनाम है / जैसे- कन्या, वीणा, लता, माला इत्यादि। अथवा जीवनाम, अजीबनाम अथवा विशेषिकनाम, विशेषिकनाम इस तरह दो प्रकार का है। इसका विस्तार से विवेचन किया गया है। त्रिनाम के द्रव्यनाम, गुणनाम और पर्यायनाम ये तीन प्रकार हैं। द्रव्यनाम के 47. सुयं सुत्तं गंथं सिद्धन्त सासणं प्राण त्ति वयण उवएसो। पण्णवणे प्रागमे वि य एगट्ठा पज्जवा सुत्ते // ---सू. 42, गाथा 1 48. गण काय निकाए निए खंधे बग्गे तहेव रासी य।। पूजे य पिण्डे निगरे संघाए पाउल समूहे // --सू. 12, गा.१ (स्कन्धाधिकार) ( 31) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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