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________________ 318] [अनुयोगद्वारसूत्र लेश्या-परिणाम-द्युति आदि से संपन्न हैं। इनकी अपेक्षा भवनपति, व्यंतर, ज्योतिष्क देव विशुद्धि आदि में होन हैं / अतएव वैमानिक देवों की पृथक् रूप से जघन्य स्थिति का निर्देश किया है। देवों की जो जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की बताई है, वह भवनपति और व्यंतर देवों की होती है और ये भवनपति व व्यंतर भी देवगति व देवायु वाले हैं। अतएव जब सामूहिक रूप में देवगति की जघन्य स्थिति का कथन करते हैं तो वह दस हजार वर्ष की बताई जाती है। सौधर्म से लेकर अच्युत पर्यन्त के देव इन्द्र आदि दस भेदों की कल्पना होने से कल्पोपपन्न और इनके ऊपर प्रैवेयक और अनुत्तर विमानवासी देव उक्त प्रकार की कल्पना न होने से कल्पातीत संज्ञा वाले हैं / यहाँ जो जघन्य स्थिति एक पल्योपम की बताई है, वह पहले सौधर्म देवों की अपेक्षा से है और तेतोस सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति सर्वार्थसिद्ध देवों की होती है। अब अनुक्रम से एक-एक कल्प और कल्पातीत देवों की स्थिति का वर्णन करते हैं। सौधर्म आदि अच्युत पर्यन्त कल्पों की स्थिति [2] सोहम्मे णं भंते ! कप्पे देवाणं केवतिकालं ठिती पं०? गो० ! जह० पलिओवमं उक्कोसेणं दोन्नि सागरोवमाई / सोहम्मे णं भंते ! कप्पे देवीणं जाव गोयमा! जहन्नेगं पलिओवम उक्कोसेणं सत्त पलिओवमाई। सोहम्मे णं भंते ! कप्पे अपरिगहियाणं देवीणं जाव गो० ! जह० पलिप्रोवम उक्कोसेणं पन्नासं पलिओवमाई। [391-2 प्र. भगवन् ! सौधर्मकल्प के देवों की स्थिति कितने काल की है ? [391-2 उ.] गौतम ! उनकी जघन्य स्थिति एक पल्योपम की और उत्कृष्ट स्थिति दो सागरोपम की है। [प्र.] भगवन् ! सोधर्मकल्प में (परिगृहीता) देवियों को स्थिति कितने काल की है ? [उ.] गौतम ! सोधर्मकल्प में (परिगृहीता) देवियों की जघन्य स्थिति एक पल्योपम की और उत्कृष्ट सात पल्योपम की है। [प्र.] भगवन् ! सौधर्मकल्प में अपरिगृहीता देवियों की स्थिति कितनी है ? [उ.] गौतम ! जयन्य स्थिति पल्योपम की और उत्कृष्ट स्थिति पचास पल्योपम की होती है। [3] ईसाणे गं भंते ! कप्पे देवाणं केवतिकालं ठिती पन्नत्ता? गो० ! जहन्नेणं सातिरेगं पलिभोवम उक्को० सातिरेगाइं दो सागरोवमाई। ईसाणे णं भंते ! कप्पे देवोणं जाव गो० ! जहः सातिरेगं पलिओवम उक्को० नव पलिओवमाई। ईसाणे णं भंते ! कम्पे अपरिग्गहियाणं देवीणं जाव गो० ! जहन्नेणं साइरेगं पलिओवर्म उक्कोसेणं पणपण्णं पलिप्रोवमाइं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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