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________________ आनुपूर्वो निरूपण होने से द्रव्याथिकनय हैं तथा ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ और एवंभूत ये चार नय पर्यायों को विषय करने वाले होने से पर्यायाथिकनय हैं। सामान्य से द्रव्याथिकनय दो प्रकार का है-१ विशुद्ध, 2 अविशुद्ध / नैगम और व्यवहार नय अनन्त परमाण, अनन्त द्वयणक ग्रादि अनेक व्यक्ति स्वरूप और कृष्णादि अनेक गुणा के आधारभूत त्रिकालवर्ती द्रव्य को विषय करने वाले होने से अविशद्ध हैं और संग्रहनय स्वजाति की अपेक्षा परमाण आदि एक सामान्य रूप द्रव्य को ही विषय करता है। यह द्रव्यगत पूर्वापर विभाग को नहीं मानता है। इसकी दृष्टि में अनेक भिन्न-भिन्न परमाणु आदि भी परमाणुत्व आदि रूप से समानता वाले होने के कारण एक हैं, अतः उनमें भी भेद नहीं है। इन सब कारणों से संग्रहनय विशुद्ध है / अतएव द्रव्याथिकनय के मत से द्रव्यानुपूर्वी का शुद्ध-अशुद्ध स्वरूप बताने के लिये अनोपनिधिको आनुपूर्वी के दो भेद हो जाते हैं। स्कन्ध में अनौपनिधिको आनुपूर्वी कसे? जिज्ञासू का प्रश्न है कि स्कन्ध अनन्तप्रदेशी तक के होते हैं। उनमें कोई त्रिप्रदेशी, कोई चतुःप्रदेशी इस प्रकार उत्तरोत्तर समस्त स्कन्ध क्रमपूर्वक होने से उनमें पूर्वानुपूर्वी के क्रम से स्थापना की व्यवस्था होने के कारण औपनिधिकित्व संभव है, अनौपनिधिकरूपता कैसे ? इसका उत्तर यह है कि स्कन्धगत त्रिप्रदेशिकता आदि किसी के द्वारा क्रम से रखकर नहीं बनाई गई है। वह तो स्वभाव से ही है। सभी स्कन्ध स्वाभाविक परिणाम से परिणत होते रहते हैं। प्रतएव स्कन्ध में अनौपनिधिकीपन है। जहाँ तीर्थकर प्रादि के द्वारा पूर्वानपुर्वी के क्रम से वस्तों की व्यवस्था होती है. वहाँ पर प्रोपनिधिको अानुपूर्वी होती है / जैसे धर्म, अधर्म ग्रादि छह द्रव्यों में अथवा सामायिक आदि छह अध्ययनों में। अनौपनिधिको में आनुपूवित्व कैसे ? यद्यपि अनौपनिधिकी में पूर्वानुपूर्वी के क्रम से व्यवस्थापन नहीं होता है, फिर भी तीन आदि परमाणुनों में प्रादि, मध्य और अन्त रूप नियत क्रम से व्यवस्थापन की योग्यता ही आनुपूर्वित्व का कारण है। पाठभेद-अत्रोक्त सूत्र 94-95 के स्थान पर किसी-किसी प्रति में निम्न प्रकार से विस्तृत पाठ है नामठवणामो गयायो, से कितं दब्बाणपुब्बी ? 2 दुविहा पण्णत्ता, तं जहा—आगमयो अ नोबागमयो अ। से कि तं प्रागमयो दवाणपुवी ? 2 जस्स णं आणुपुग्वित्ति पयं सिक्खियं ठियं जियं मियं परिजियं जाव नो अणुप्पेहाए, कम्हा ? अणुवनोगो दवमितिकट्ट, गमस्स णं एगो अणुवउत्तो पागमनो एगा दव्वाणपुवी जाव कम्हा ? जइ जाणए अणुवउत्ते न भवइ से तं आगमो दव्वाणुपुवी / से किं तं नोग्रागमो दवाणुपुब्बी ?2 तिविहा पण्णत्ता, तं जहा---जाणयसरीरदब्वाणुपुन्वी भविग्रसरीरदव्वाणपुबी, जाणयसरीर-भविप्रसरीरवइरित्तादव्वाणुपुवी। से किं तं जाणयसरीरदवाणुपुत्री ? 2 पयत्थाहिगारजाणयस्स जं सरीरयं बवगयचुयचावियचत्तदेहं सेसं जहा दबावस्सए तहा भाणिग्रव्वं जाव से तं जाणयसरीरदव्वाणुपुवी। से किं तं भविसरीरदव्वाणुपुब्बी ? 2 जे जीवे जोणीजम्मणनिक्खंते सेसं जहा दवावस्सए जाब से तं भविसरीरदब्वाणुपुब्बी। सूत्रपाठ का आशय स्पष्ट है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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