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________________ [अनुयोगद्वारसूत्र नैगम-व्यवहारनयसम्मत अनौपनिधिको द्रव्यानुपूर्वी के भेद 98. से किं तं गम-ववहाराणं अणोवणिहिया दव्वाणुपुव्धी ? णेगम-ववहाराणं अणोवणिहिया दवाणुपुती पंचविहा पण्णत्ता / तं जहा अटुपयपरूवणया 1 भंगसमुक्कित्तणया 2 भंगोवदंसणया 3 समोयारे 4 अणुगमे 5 / [98 प्र] भगवन् ! नैगमनय और व्यवहारनय द्वारा मान्य अनौपनिचिकी द्रव्यानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? [98 उ.आयुष्मन् ! नैगम-व्यवहारनयसंमत द्रव्यानुपूर्वी के पांच प्रकार हैं। वे इस प्रकार---१ अर्थपदप्ररूपणा, 2 भंगसमुत्कीर्तनता, 3 भंगोपदर्शनता, 4 समवतार और 5 अनुगम / विवेचन-नैगम-व्यवहारनयसम्मत अनौपनिधिको द्रव्यानुपूर्वी का जिन पांच प्रकारों द्वारा विचार किया जाना है, उनके लक्षण इस प्रकार हैं..... अर्थपदप्ररूपणा—त्र्यणुक स्कन्ध आदि रूप अर्थ को विषय करने वाले पद की प्ररूपणा करना / अर्थात् सर्वप्रथम संज्ञा-संज्ञी के सम्बन्ध मात्र का कथन करना अर्थपदप्ररूपणा है / भंगसमुत्कीर्तनता-पानुपूर्वी आदि के पदों से निष्पन्न हुए पृथक्-पृथक् भंगों का और संयोगज दो आदि भंगों का संक्षेप रूप में कथन करना भंगसमुत्कीर्तनता है / भंगोपदर्शनता---सूत्र रूप में उच्चारित हुए उन्हीं भंगों में से प्रत्येक भंग का अपने अभिधेय रूप त्र्यणकादि अर्थ के साथ उपदर्शन--कथन करना / अर्थात भंगसमत्कीर्तन में तो मात्र भंगविता मूत्र का ही उच्चारण होता है और भंगोपदर्शन में वही सूत्र अपने विषयभून अर्थ के साथ कहा जाता है / यही दोनों में अन्तर है। समवतार आनुपूर्वी प्रादि द्रव्यों का स्वस्थान और परस्थान में अन्तर्भाव होने के विचारों के प्रकार का नाम समवतार है। अनुगम-प्रानुपूर्वी आदि द्रव्यों का सत्पदप्ररूपणा आदि अनुयोगद्वारों से विचार करता अनुगम है। नेगम-व्यवहारनयसंमत अर्थपदप्ररूपणा और प्रयोजन 99. से कि तं गम-ववहाराणं अट्ठपयपरूवणया? गम-ववहाराणं अट्ठपयपरूवणया तिपएसिए आणुपुन्वी, चउपएसिए आणुपुवी जाव दसपएसिए आणुपुन्वी, संखेज्जपदेसिए आणुपुटवी, असंखेज्जपदेसिए आणुपुन्वी, अणंतपएसिए आणुपुग्वी। परमाणुपोग्गले अणाणुपुन्यो / दुपएसिए अवतन्त्रए / तिपएसिया आणुपुठवीओ जाव अणंतपएसिया आणुपुवीओ / परमाणुपोग्गला अणाणुपुथ्वीओ। दुपएसिया अवत्तबगाई। से तं अंगम-ववहाराणं अट्ठपयपरूवणया / 699 प्र.] भगवन् ! नैगम-व्यवहारनयसंमत अर्थपद की प्ररूपणा का क्या स्वरूप है ? [99 उ.] आयुष्मन् ! (तीन प्रदेश बाला) त्र्यणुकस्कन्ध प्रानुपूर्वी है। इसी प्रकार चतुष्प्रदेशिक प्रानुपूर्वी यावत् दसप्रदेशिक, संख्यातप्रदेशिक, असंख्यातप्रदेशिक और अनन्तप्रदेशिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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