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________________ 380] [अनुयोगद्वारसूत्र से वह एकान्ततः विशेषव्यतिरिक्त सामान्य को ग्रहण नहीं करता है, क्योंकि विशेषरहित सामान्य खरविषाण जैसा होता ही नहीं / इसलिये विशेषों का सामान्य ग्रहण करना दर्शन कहा है।' दर्शन भी ज्ञान की तरह अात्मा का गण है। इसीलिये प्रमाणविचार के प्रसंग में इसका निरूपण किया है। दर्शन के भेद और लक्षण---दर्शनगुण प्रमाण के चार भेदों के लक्षण इस प्रकार हैं 1. भावचक्षरिन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम एवं चक्षु रूप द्रव्येन्द्रिय के अनुपघात से चक्षुदर्शनलब्धि वाले जीव को घट आदि पदार्थों का चक्षु से सामान्यावलोकन होना चक्षुदर्शन है / चक्षुदर्शनसम्पन्न जीव तदावरणकर्म / के क्षयोपशम एवं चक्षुरिन्द्रिय के अवलंबन से मूर्त द्रव्य का विकल रूप से (एक देश से) सामान्यतः अवबोध करता है। 2. चक्षु के अतिरिक्त शेष चार इन्द्रियों एवं मन से होने वाले पदार्थों के सामान्य बोध को अचक्षुदर्शन कहते हैं / यह अचक्षुदर्शन भाव-प्रचक्षरिन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम से और द्रव्येन्द्रियों के अनुपघात से अचक्षुदर्शनलब्धिसंपन्न जीव के घटादि पदार्थों का संश्लेष रूप संबन्ध होने पर होता है / चक्षुरिन्द्रिय और मन अप्राध्यकारी हैं। अर्थात् ये दोनों पदार्थों के साथ संश्लिष्ट होकर पदार्थों का दर्शन नहीं करते हैं। वे उनसे पृथक रहकर ही अपने विषयों को जानते हैं / इसी बात का संकेत करने के लिये अचक्षुदर्शन के प्रसंग में सूत्रकार ने 'प्रायभावे-आत्मभाव पद दिया है। चक्षु और मन के सिबाय शेष श्रोत्रादिक इन्द्रियां प्राप्यकारी हैं, अर्थात् पदार्थ के साथ संश्लिष्ट होकर ही अपने विषय का अवबोध करती हैं। ___यद्यपि चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन से सामान्यतः विकल रूप से पदार्थ का बोध होता है, तथापि दोनों में यह अंतर है कि चक्षुदर्शन का विषय मूर्तद्रव्य है एवं अचक्षुदर्शन के विषय मूर्त और अमुर्त दोनों प्रकार के द्रव्य हैं। 3. अयधिदर्शनावरणकर्म के क्षयोपशम से जो समस्त रूपी पदार्थों का अवधिदर्शनलब्धिसंपन्न जीव को सामान्यावलोकन होता है, उसे अवधिदर्शन कहते हैं / अर्थात् परमाणु से लेकर सर्वमहान् अंतिम स्कन्ध तक के मूर्त द्रव्य को जो प्रत्यक्ष देख सकता है, वह अवधिदर्शन है / अवधिदर्शन मूर्त द्रव्य की सर्व पर्यायों में नहीं होता है किन्तु विकल रूप से देशत: सामान्य अवबोधन कराता है। इसीलिये सूत्र में पद दिया है 'सवरूविदव्वेहि न पुण सम्बपज्जवेहिं / ' क्योंकि अवधिदर्शन की विषयभुत पर्यायें उत्कृष्ट एक पदार्थ की संख्यात अथवा असंख्यात और जघन्य रूप से रूप, रस, गध और स्पर्श ये चार बताई हैं। -अनुयोगवृत्ति, पृ. 220 1. निविशेष हि सामान्यं भवेत खरबिपाणवत / 2. पुढ सुणे सद्रू वं पुण पासई अपुट्ट तु / 3. दब्बानी असंखेज्जे संखेज्जे प्रावि पज्जवे लहर। दो पज्जवे दुगुणिए लहइ य एगाउ दवाओ / / - अनु. मलधारीया वृत्ति पृ. 230 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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