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________________ प्रमाणाधिकार निरूपण [379 इस प्रकार से ज्ञानगुणप्रमाण का निरूपण करने के बाद अब भावप्रमाण के दूसरे भेद दर्शनगुणप्रमाण का वर्णन करते हैं / दर्शनगुणप्रमाण 471. से कि तं दसणगुणप्पमाणे? दसणगुणप्पमाणे चउविहे पण्णत्ते / तं जहा-चक्खुदसणगुणप्पमाणे अचक्खुदसणगुणप्पमाणे ओहिसणगुणप्पमाणे केवलदंसणगुणप्पमाणे य / चक्खुदंसणं चक्खुदंसणिस्स घड-पड-कड-रधादिएसु दम्वेसु, अचक्खुदंसणं अचक्खुदंसणिस्स आयभावे, ओहिदंसणं ओहिदंसणिस्स सन्वरूविदज्वेहि न पुण सम्बपज्जवेहि, केवलदसणं केवलदंसणिस्स सव्वदग्धेहि सव्वपज्जबेहि य / से तं दसणगुणप्पमाणे / [471 प्र.] भगवन् ! दर्शन गुणप्रमाण का क्या स्वरूप है ? [471 उ.] आयुष्मन् ! दर्शनगुणप्रमाण चार प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकारचक्षुदर्शनगुणप्रमाण, अचक्षुदर्शनगुणप्रमाण, अवधिदर्शनगुणप्रमाण और केवलदर्शनगुणप्रमाण / चक्षुदर्शनी का चक्षुदर्शन घट, पट, कट, रथ आदि द्रव्यों में होता है। __ अचक्षुदर्शनी का अचक्षुदर्शन प्रात्मभाव में होता है अर्थात् घटादि पदार्थों के साथ संश्लेष-- संयोग होने पर होता है। अवधिदर्शनी का अवधिदर्शन सभी रूपी द्रव्यों में होता है, किन्तु सभी पर्यायों में नहीं होता है। केवलदर्शनी का केवलदर्शन सर्व द्रव्यों और सर्व पर्यायों में होता है / यही दर्शनगुणप्रमाण है। विवेचन-जीव में अनन्त गुण हैं / उनमें से ज्ञानगुण का वर्णन पूर्व में किया जा चुका है। प्रत्येक द्रव्य सामान्य-विशेषात्मक है / समान रूप से सभी द्रव्यों में पाये जाने वाले गुणधर्मों को सामान्य और असाधारण धर्मों को विशेष धर्म कहते हैं। ये दोनों प्रकार के धर्म प्रत्येक द्रव्य में हैं और इन दोनों को जानने-देखने वाले गुण दर्शन और ज्ञान हैं / ज्ञान द्वारा द्रव्यगत विशेष धर्मों और दर्शन द्वारा सामान्य धर्मों का परिज्ञान किया जाता है। जैसे ज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशम आदि होने से ज्ञान द्वारा पदार्थों का विशेष रूप में पृथक-पृथक् विकल्प, नाम, संज्ञापूर्वक ग्रहण होता है वैसे ही दर्शनावरणकर्म का क्षयोपशम आदि होने से पदार्थों का जो सामान्य ग्रहण होता है. उसे दर्शन कहते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि कोई किसी पदार्थ को देखता है और जब तक वह देखने वाला विकल्प न करे तब तक जो सत्तामात्र का ग्रहण है, उसे दर्शन और जब यह शुक्ल है, यह कृष्ण है इत्यादि रूप से विकल्प उत्पन्न होता है तब उसको ज्ञान कहते हैं। दर्शन में सामान्य की मुख्यता है और विशेष गौण, जबकि ज्ञान में सामान्य गौण और विशेष मुख्य होता है। दर्शन यद्यपि सामान्य को विषय करता है परन्तु वक्षदर्शन के उदाहरणों में घटादि विशेषों का उल्लेख यह संकेत करने के लिये किया गया है कि सामान्य और विशेष में कथंचित् अभेद होने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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