________________ 378] [अनुयोगद्वारसूत्र आगम के भेद-प्रथम आगम के दो भेद किये हैं- लौकिक और लोकोत्तर / इनका भावश्रुत के वर्णन के प्रसंग में विचार किया जा चुका है। अतएव यहाँ प्रकारान्तर से किये गये प्रागम के तीनतीन भेदों का विचार करते हैं / वे इस प्रकार हैं प्रथम प्रकार 1. अर्थागम, 2. सूत्रागम, 3. तदुभयागम / द्वितीय प्रकार-१. अात्मागम, 2. अनन्तरागम, 3. परम्परागम / __जब अर्थ (भाव) और सूत्र की अपेक्षा आगम का विचार किया जाता है, तब अर्थागम आदि उक्त तीन भेद होते हैं। क्योंकि तीर्थंकर अर्थ का उपदेश करते हैं और गणधर उसके आधार से सूत्र की रचना करते हैं।' अत: इस प्रकार अर्थागम और सूत्रागम यह दो भेद हुए / तीसरा भेद इन दोनों का सम्मिलित रूप है। दुसरी अपेक्षा से उक्त तीनों भेदों का नामकरण किया है—यात्मागम आदि रूप में / तीर्थकर अर्थोपदेष्टा हैं और गणधर उस अर्थ को सूत्रबद्ध करते हैं। अतएव तीर्थकर के लिये अर्थरूप आगम और गणधरों के लिये सूत्ररूप प्रागम आत्मागम है / अर्थ का मूल उपदेश तीर्थकर का होने से अर्थागम गणधर के लिये आत्मागम नहीं किन्तु गणधरों को लक्ष्य करके अर्थ का उपदेश दिया है इसलिये अर्थागम गणधरों के लिये अनन्तरागम और गणधरशिष्यों के लिये परम्परागम है / क्योंकि वह तीर्थंकर से गणधरों को प्राप्त हुआ और गणधरों से उनके शिष्यों को। सूत्ररूप आगम गणधरशिष्यों के लिये अनन्तरागम है, क्योंकि गणधरों से सूत्र का उपदेश साक्षात् उनको मिला है और गणधरशिष्यों के बाद होने वाले प्राचार्यों के लिये अर्थ और सूत्र उभय रूप आगम परम्परागम ही है। प्रागम के उपर्युक्त सभी प्रकार विशिष्ट शब्दरूप हैं और विशिष्ट शब्दों की उत्पत्ति पुरुष के ताल्वादि के व्यापार द्वारा होने से पौरुषेय-पुरुषकृत है, अपौरुषेय नहीं / यह संकेत करने के लिये सूत्र में 'पणीअं-प्रणीत' शब्द का प्रयोग किया है। यदि कहा जाये कि अनादि-अनिधन होने से शब्द का कभी विनाश नहीं होता, किन्तु उस पर आवरण पा जाता है। ताल्वादि का व्यापार उस प्रावरण को हटाकर अभिव्यक्त कर देता है, उत्पन्न नहीं करता है। सर्वदा रहने वाले की अभिव्यक्ति होती है, उत्पत्ति नहीं। किन्तु यह कथन अयुक्त है। क्योंकि एकान्तत: ऐसा माना जाये तो फिर संसार के जितने भी वचन हैं, वे सब अपौरुषेय हो जायेंगे, तब अमुक पागम प्रमाण है और अमुक आगम अप्रमाण, इसकी व्यवस्था नहीं बन सकेगी। इसके अतिरिक्त शब्द मूर्तिक हैं अर्थात् भाषावर्गणा के पुद्गलों से निष्पन्न होने के कारण मूर्त हैं। आकाश की तरह अमूर्त नहीं हैं। शब्दों की पौद्गलिकता प्रसिद्ध भी नहीं है / क्योंकि नगाड़े आदिजन्य महाघोष से कान की झिल्ली तक फट जाती है तथा भीत आदि के कारण अभिघात भी होता है और यह अभिधात प्रादि होना प्रत्यक्षसिद्ध है, अतः शब्द पौद्गलिक है। सारांश यह है कि शब्द एकान्ततः अपौरुषेय नहीं है कथंचित् पौरुषेय और कथंचित् अपौरुषेय है / अर्थात् पौद्गलिक भाषावर्गणाओं का परिणाम होने से अपौरुषेय तथा पुरुष के ताल्वादिक के व्यापार से जन्य होने से पौरुषेय है। 1. अत्थं भास इ अरहा, सुतं गंथति गणहरा निउणं / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org