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________________ [37 प्रमाणाधिकार निरूपण बहा एगो करिसावणो तहा बहले करिसावणा जहा महके करिसावमा तहा एगो करितामणो से तं सामण्णविळं। / 449 प्र. भगवन् ! सामान्यदृष्ट अनुमान का क्या स्वरूप है ? {449 उ. आयुष्मन् ! सामान्यदृष्ट अनुमान का स्वरूप इस प्रकार जानना चाहिये-जैसा एक पुरुष होता है, वैसे ही अनेक पुरुष होते हैं / जैसे अनेक पुरुष होते हैं, वैसा ही एक पुरुष होता है / जैसा एक कार्षापण (सिक्काविशेष) होता है वैसे ही अनेक कार्षापण होते हैं, जैसे अनेक कार्षापण होते हैं, वैसा ही एक कार्षापण होता है। यह सामान्यदृष्ट साधर्म्यवत्-अनुमान है / 450. से कि तं विससदिठं? विसेसदिळं से जहाणमाए केइ पुरिसे कंचि पुरिसं बहूणं पुरिसाणं मज्झे पुस्वादिढें पच्चभिजाणेज्जा-अयं से पुरिसे, बतूर्ण वा करिसावणाणं माझे पुकदिळं करिसावणं पच्चभिजाणिज्जाअयं से करिमावगे। लस्स समासतो तिमिहं गहणं भवति / तं जहा--तोतकालगहणं पडषणकाल गहणं अणागतकालगहणं / |450 प्र. भगवन् ! विशेषदृष्ट अनुमान का क्या स्वरूप है ? 450 उ. आयुष्मन् ! विशेषदष्ट अनुमान का स्वरूप यह है-जैसे कोई एक पुरुष अनेक पुरुषों के बीच में किसी पूर्वदृष्ट पुरुष को पहचान लेता है कि यह वह पुरुष है। इसी प्रकार अनेक कार्षापणों (सिक्कामों) के बीच में से पूर्व में देखे हुए कार्षापण को पहिचान लेता है कि यह वही कार्षापण है। उसका विषय संक्षेप से तीन प्रकार का है। वह इस प्रकार - प्रतीतकालग्रहण, प्रत्युत्पन्न (वर्तमान) कालग्रहण और अनागत (भविष्य) कालग्रहण / (अर्थात् अनुमान द्वारा भूत, वर्तमान और भविष्य इन नीनों कालों के पदार्थ का अनुमान किया जाता है / ) विवेचन-- यहाँ दृष्टसाधर्म्यवत्-अनुमान का विचार किया गया है / पूर्व में दृष्ट-उपलब्ध पदार्थ की समानता के प्राधार पर होने वाले अनुमान को दृष्टसाधर्म्यवत् कहते हैं। पूर्व में कोई पदार्थ सामान्य रूप से दृष्ट होता है और कोई विशेष रूप से / इसीलिये दष्ट पदार्थ के भेद से इस अनुमान के सामान्यदृष्ट और विशेषदृष्ट ये दो भेद हो जाते हैं। तात्पर्य यह है कि किसी एक वस्तु को देखकर तत्सदश सभी वस्तुओं का ज्ञान करना या बहुत वस्तुओं को देखकर किसी एक का ज्ञान करना सामान्यदृष्ट है। विशेषदृष्ट में अनेक वस्तुओं में से किसी एक को पृथक् करके उसके कैशिष्ट्य का ज्ञान किया जाता है / शास्त्रकार ने इन दोनों अनुमानों के जो उदाहरण दिये हैं, उनमें से सामान्यदृष्टमाधर्म्यवत् के दृष्टान्त का प्राशय यह है कि एक में दृष्ट सामान्य धर्म की समानता से अन्य अदृष्ट अनेकों में भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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