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________________ 366 मनुचोगहारसूत्र कार्यानुमान में कार्य के होने पर उसके कारण का ज्ञान होता है। जैसे हिनहिनाहट रूप कार्य के द्वारा उसके कारण घोड़े की प्रतीति होती है / इसीलिये यह कार्यजन्य शेषषत्-अनुमान है। कारणानुमान में कारण के द्वारा कार्य की अनुमिति होती है। जैसे-आकाश में विशिष्ट मेघघटानों को देखने पर वष्टि का अनुमान किया जाता है, क्योंकि विशिष्ट प्रकार के मेघों से वृष्टि अवश्य होती ही है / विशिष्ट मेघ कारण हैं और वृष्टि कार्य है। कारण-कार्यभाव संबंधी मतभिन्नता का निवारण करने के लिए सरकार ने अन्य उदाहरण दिया है-तंतु पट के कारण होते हैं, पट तन्तुओं का कारण नहीं है। क्योंकि प्रातानवितानीभूत बने हुए तंतुम्रों से पहले पट की उपलब्धि नहीं होती है, किन्तु पातानवितानीभूत बने हुए तंतुओं की सत्ता में ही होती है / परन्तु तन्तुषों के लिये ऐसी बात नहीं है, पट के अभाव में भी तंतुओं की उपलब्धि देखी जाती है। चाहे कोई निपुण पुरुष पट रूप से संयुक्त हुए तंतुनों को उस पद से अलग कर दे तब भी वह पट उन तंतुओं का कारण नहीं है। गुणजन्य शेषवत्-अनुमान से गुणों के द्वारा गुणी-वस्तु का ज्ञान होता है। जैसे कसौटी पर स्वर्ण को कसने से उभरी हुई रेखा से स्वर्ण का, गंध की उपलब्धि से पुष्प की जाति आदि का ज्ञान होता है / इस प्रकार के अनुमान को गुणजन्य शेषवत्-अनुमान कहा है / अवयव से अवयवी के अनुमान की प्रवृत्ति तभी होती है जब ढंके छिपे होने के कारण अवयवी न दिखता हो, मात्र तदविनाभावी अवयव की उपलब्धि हो रही हो / प्राश्रयानुमान में अग्नि का धूम से ज्ञान होना प्रादि जो उदाहरण दिये गये हैं, उनका प्राशय यह है कि धूम आदि अग्नि आदि के आश्रित रहते हैं। इसलिये धूम आदि को देखने से उनके प्राश्रयी का ज्ञान हो जाता है / यद्यपि धूम, अग्नि का कार्य है और ऐसा अनुमान कार्य से कारण के अनुमान में अन्तर्भूत होता है, तथापि उसे यहाँ जो आश्रयानुमान कहा है, उसका कारण यह है कि धूम अग्नि के प्राश्रय रहता है, ऐसी लोक में प्रसिद्धि है। इसे लक्ष्य में रखकर धम को प्राश्रित मानकर तदाश्रयी अग्नि का उसे अनुमापक कहा है / दृष्टसाधर्म्यवत्-अनुमान 448. से कि तं दिटुसाहम्मवं ? दिष्टुसाहम्मकं दुविहं पण्णत्तं / तं जहा-सामन्नविठं च विसेसविट्ठ च। |448 प्र.] भगवन् ! दृष्टसाधर्म्यवत्-अनुमान का क्या स्वरूप है ? |448 उ. आयुष्मन् ! दृष्टसाधर्म्यवत्-अतुमान दो प्रकार का कहा है / यथा-१. सामान्यदृष्ट, 2. विशेषदृष्ट / 446. से कि तं सामण्णविद्हें ? सामण्णादिळं जहा एगो पुरिसो तहा बहवे पुरिसा जहा बहवे पुरिसा तहा एगो पुरिसो, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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