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________________ 174] [अनुयोगद्वारसूत्र कतरे से णामे उपसमिए खइए पारिणामियनिप्पन्ने ? उवसंता कसाया खइयं सम्मत्तं पारिणामिए जीवे, एस णं से णामे उपसमिए खइए पारिणामियनिप्पन्ने 8 / [255-8 प्र.] भगवन् ! प्रौपशमिक-क्षायिक-पारिणामिकनिष्पन्न सान्निपातिकभाव का क्या स्वरूप है ? [255-8 उ. प्रायुष्मन् ! उपशांतकषाय औप शमिकभाव, क्षायिकसम्यक्त्व क्षायिकभाव, जीवत्व पारिणामिकभाव, यह औपशमिक-क्षायिक-पारिणामिकभावनिष्पन्न सान्निपातिकभाव का स्वरूप जानना चाहिये / 8 कतरे से णामे उवसमिए खओवसमिए पारिणामियनिष्पन्ने ? उवसंता कसाया खओवसमियाइं इंदियाइं पारिणामिए जोवे, एस णं से णामे उवसमिए खओवसमिए पारिणामियनिष्पन्ने / [255-9 प्र.] भगवन् ! औपशमिक-क्षायोपशमिक-पारिणामिकभावनिष्पन्न सान्निपातिकभाव का क्या स्वरूप है ? [255-9 उ.] प्रायष्मन् ! उपशांतकषाय औपशमिकभाव, इन्द्रियां क्षायोपशमिक और जीवत्व पारिणामिक, इस प्रकार से यह प्रौपशमिक-क्षायोपशमिक-पारिणाभिकभावनिष्पन्नमान्निपातिकभाव का स्वरूप जानना चाहिये / 9 कतरे से गामे खइए खोवसमिए पारिणामियनिष्पन्ने ? खइयं सम्मत्तं खओवसमियाई इंदियाई पारिणामिए जीवे, एस णं से णामे खइए खयोवसमिए पारिणामिय निप्पन्ने 10 / [255-10 प्र.] भगवन् ! क्षायिक-क्षायोपशमिक-पारिणामिकनिष्पन्नभाव का क्या स्वरूप [255-10 उ.] आयुष्मन् ! क्षायिकसम्यक्त्व क्षायिकभाव, इन्द्रियां क्षायोपशमिकभाव और जीवत्व पारिणामिकभाव, इस प्रकार का क्षायिक-क्षायोपशमिक-पारिणामिकभावनिष्पन्न सान्निपातिकभाव का स्वरूप है। 10 विवेचन–प्रस्तुत दो सूत्रों द्वारा तीन भावों के संयोग से निष्पन्न दस सान्निपातिकभावों के भंग और और उनके स्वरूप का निरूपण किया है / त्रिकसंयोगज भावों के प्रौदयिक और प्रौपशमिक इन दो भावों को परिपाटी से निक्षिप्त करके अवशिष्ट क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक इन तीन भावों में से एक-एक भाव का उनके साथ संयोग करने पर प्रथम तीन भाव निष्पन्न हुए हैं। उनमें भी पहला औदयिक-प्रौपशमिकक्षायिकसान्निपातिकभाव इस प्रकार घटित करना चाहिये कि यह मनुष्य उपशांतक्रोधादि कषाय बाला होकर क्षायिक सम्यग्दृष्टि है / मनुष्य से मनुष्यगति को ग्रहण किया है और मनुष्यगतिनामकर्म के उदय से मनुष्य होने से गति औदयिकभाव है। उपशांतकोधादि कषाय कहने से औपशमिकभाव तथा क्षायिकसम्यक्त्व से क्षायिकभाव घटित होता है। इसी प्रकार से शेष दो भंगों में पे पहले प्रौदयिक-प्रौपशमिक, क्षायोपशमिक-सान्निपातिकभाव में मनुष्य, उपशांतकषाय, पंचेन्द्रिय तथा दूसरे प्रौदयिक-औपशमिकपारिणामिकसान्निपातिकभाव में मनुष्य, उपशांतकषाय, जीवत्व को घटित कर लेना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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