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________________ नामाधिकार निरूपण] [175 तत्पश्चात् श्रीपशमिकभाव को विलग कर प्रौदयिक और क्षायिक भाव को ग्रहण किया जाय तब क्षायोपशामिक एवं पारिणामिक भावों में से एक-एक का ग्रहण करने पर त्रिसंयोगी कभाव के दो भंग इस प्रकार बनते हैं—१. औदायिक-नायिक-क्षायोपशामिक और 2. प्रौदयिक-क्षायिक-पारिणामिक / पहले का दृष्टान्त है-क्षीणकषायी, मनुष्य, इन्द्रिय वाला और दूसरे का दृष्टान्त–क्षायिक सम्यक्त्वी, मनुष्य, जीव है। इन भावों को पूर्ववत् घटित कर लेना चाहिये / __ केवल औदयिकभाव का ग्रहण और औपशमिक एवं क्षायिक भाव का परित्याग किये जाने पर छठा त्रिसंयोगी--प्रौदयिक-क्षायोपशमिक-पारिणामिकसान्निपातिकभंग बनता है / इसका उदाहरण है-मनुष्य मनोयोगी जीव है। यहाँ तक तो औदयिकभाव संयोग में ग्रहण किया गया है / लेकिन औदयिकभाव को छोड़कर शेष प्रीपशमिकादि चार भावों में से एक-एक का परित्याग किये जाने पर इस प्रकार चार भंग बनते हैं- 1. औपशमिक-क्षायिक-क्षायोपशमिकसान्निपातिकभाव 2. ग्रीपशमिक-क्षायिक-परिणामिकसान्निपातिकभाव 3. औपशमिक-क्षायोपशमिक-पारिणामिकसान्निपातिकभाव और 4. क्षायिकक्षायोपशमिक-पारिणामिकसान्निपातिकभाव / इन चारों के सूत्रोक्त उदाहरण स्वयं घटित कर लेना चाहिये। इन दस संयोगज भंगों में से पांचवां और छठा भंग जीवों में पाया जाता है / यथा--ौदयिकक्षायिक-पारिणामिकभाबों के संयोग से निष्पन्न पांचवां सानिपातिक भाव मनुष्यगति औदयिक, ज्ञानदर्शन-चारित्र क्षायिक और जीवत्व पारिणामिक रूप होने से यह भंग केवलियों में घटित होता है। इन तीन भावों के अतिरिक्त अन्य भाव उनमें नहीं हैं। क्योंकि उपशम मोहनीयकम का होता है और वे मोहनीयकर्म का सर्वथा क्षय कर चुके हैं तथा केवलियों का ज्ञान इन्द्रियातीत-अतीन्द्रिय होने से उनमें क्षायोपशमिकभाव भी नहीं है / प्रौदयिक, क्षायोपशमिक एवं पारिणाणामिक इन तीन भावों से निष्पन्न छठा भंग नारकादि चारों गति के जीवों में होता है। क्योंकि उनमें नारकादि गतियां औदयिकी हैं, इन्द्रियां क्षायोपशमिकभाव और जीवत्व पारिणामिकभाव है। इनके अतिरिक्त शेष आठ भंगों की कहीं पर भी संभावना नहीं होने से प्ररूपणामात्र समझना चाहिए। इस प्रकार त्रिकसंयोगी दस सान्निपातिकभावों की वक्तव्यता है / चतुःसंयोगज सान्निपातिकभाव 256. तत्थ णं जे ते पंच चउक्कसंयोगा ते णं इमे--अस्थि णामे उदइए उपसमिए खइए खोवसमनिप्पन्ने 1 अस्थि णामे उदइए उपसमिए खइए पारिणामियनिष्पन्ने 2 अस्थि णामे उदइए उवसभिए खयोवसमिए पारिणामियनिष्पन्ने 3 अस्थि णामे उदइए खइए खोवसमिए पारिणामियनिप्पन्ने 4 अस्थि णामे उवसमिए खइए खोवसमिए पारिणामियनिप्यन्ते 5 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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