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________________ 196] [अनुयोगद्वारसूत्र वेलणओ रसो जहा--- कि लोइयकरणीओ लज्जणियतरं ति लज्जिया होमो। वारिज्जम्मि गुरुजणो परिवंदइ जं वहूपोतं // 73 // [262-6] विनय करने योग्य माता-पिता आदि गुरुजनों का विनयन करने से, गुप्त रहस्यों को प्रकट करने से तथा गुरुपत्नी आदि के साथ मर्यादा का उल्लंघन करने से वीडनकरस उत्पन्न होता है / लज्जा और शंका उत्पन्न होना, इस रस के लक्षण हैं / 72, यथा-(कोई वधू कहती है--) इस लौकिक व्यवहार से अधिक लज्जास्पद अन्य बात क्या हो सकती है-मैं तो इससे बहुत लजाती हूँ---मुझे तो इससे बहुत लज्जा-शर्म आती है कि वर-वधू का प्रथम समागम होने पर गुरुजन-सास आदि वधू द्वारा पहने वस्त्र की प्रशंसा करते हैं / 73 विवेचन-व्रीडनकरस का सोदाहरण लक्षण बताया है कि लोकमर्यादा और प्राचारमर्यादा के उल्लंघन से वीडनकरस की उत्पत्ति होती है और लज्जा ग्राना एवं प्राशंकित होना उसके ज्ञापक चिह्न हैं / लज्जा अर्थात कार्य करने के बाद मस्तक का नमित हो जाना, शरीर का संकुचित हो जाना और दोष प्रकट न हो जाए, इस विचार से मन का दोलायमान बना रहना। उदाहरण अपने-आप में स्पष्ट है। किसी क्षेत्र या किसी काल में ऐसी रूढि---लोकपरंपरा रही होगी कि नववधू को अलतयोनि प्रदर्शित करने के लिए सुहागरात के बाद उसके रक्तरंजित वस्त्रों का प्रदर्शन किया जाता था। परन्तु है वह अतिशय लज्जाजनक / बीभत्सरस [7] असुइ-कुणव-दुईसणसंजोगमासगंधनिष्फण्णो। निब्वेयऽविहिंसालक्खणो रसो होइ बीभत्सो।। 74 / / बीभत्सो रसो जहा--- असुइमलभरियनिज्झर सभावदुग्गंधि सव्वकालं पि। धण्णा उ सरीरकलि बहुमलकलुसं विमुचंति // 75 / / [262-7] अशुचि-मल मूत्रादि, कुणप-शव, मृत शरीर, दुर्दर्शन -- लार आदि से व्याप्त घृणित शरीर को बारंबार देखने रूप अभ्यास से या उसकी गंध से बीभत्सरस उत्पन्न होता है / निर्वेद और अविहिंसा बीभत्सरस के लक्षण हैं / 74 बीभत्स रस का उदाहरण इस प्रकार है-- अपवित्र मल से भरे हुए झरनों (शरीर के छिद्रों) से व्याप्त और सदा सर्वकाल स्वभावतः दुर्गन्धयुक्त यह शरीर सर्व कलहों का मूल है। ऐसा जानकर जो व्यक्ति उसकी भूर्णी का त्याग करते हैं, वे धन्य हैं। विवेचन-सूत्रकार ने बीभत्स रस का स्वरूप बतलाया है और उदाहरण में रूप के शरीर का उल्लेख किया है। शरीर की बीभत्सता को सभी जानते हैं पल-रुधिर-राध-मल थैली कीकस वसादि तें मैली। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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