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________________ प्रमाणाधिकार निरूपण [267 [प्र.] भगवन् ! गर्भव्युत्क्रांतजलचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकों की अवगाहना कितनी है ? [उ.] गौतम ! उनको शरीरावगाहना जघन्यत: अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्टतः योजनसहस्र की है। [प्र.] अपर्याप्त गर्भव्युत्क्रांतजलचरपंचेन्द्रियतिर्यचयोनिकों को अवगाहना कितनी है ? [उ.] गौतम ! उनकी शरीरावगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट भी अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है। [प्र.] भगवन् ! पर्याप्तक गर्भजजलचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकों की शरीरावगाहना कितनी है ? [उ.] गौतम ! उनकी जघन्य शरीरावगाहना अगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट एक हजार योजनप्रमाण है। विवेचन--प्रस्तुत सूत्र में प्रथम सामान्य रूप से पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकों की शरीरावगाहना का प्रमाण बतलाया है, तत्पश्चात् उनके जलचर, स्थलचर और खेचर, इन तीन प्रकारों में से जलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंच जीवों की शरीरावगाहना का प्रमाण बतलाया है / उनके सात अवगाहनास्थान हैं-१. सामान्य जलचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक, 2. सामान्य संमूच्छिम जलचरपंचेन्द्रियतिर्यचयोनिक, 3. अपर्याप्त संमूच्छिम जलचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक, 4. पर्याप्त संमूच्छिम जलचरपंचेद्रियतियंचयोनिक 5, सामान्य गर्भज जलचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक, 6. अपर्याप्त गर्भज जलचरपंचेन्द्रियतियंचयोनिक, 7. पर्याप्त गर्भज जलचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक / इसी प्रकार के अवगाहनास्थान स्थलचर और खेचर पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकों के भी जानना चाहिये। किन्तु इतना विशेष है कि स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यच चतुष्पद, उरपरिसर्प और भुजपरिसर्प इन तीन भेदों वाले होने से और प्रत्येक के सात-सात अवगाहनास्थान होने से कुल मिलाकर स्थलचर के इक्कीस अवगाहनास्थान हो जाते हैं तथा एक अवगाहनास्थान सामान्य पंचेन्द्रिय तिर्यंचों का है। इस प्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यंच जीवों के कुल मिलाकर अवगाहनास्थान छत्तीस होते हैं / जलचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकों के उक्त सात अवगाहनास्थानों में से जो उत्कृष्ट अवगाहना एक हजार योजन प्रमाण की बताई है, वह स्वयंभूरमणसमुद्र के मत्स्यों की अपेक्षा जानना चाहिये। स्थलचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक तीन प्रकार के हैं-१. चतुष्पद, 2. उरपरिसर्प, 3. भुजपरिसर्प / इन तीन प्रकारों में से अब चतुष्पदों को अवगाहना का प्रमाण बतलाते हैं [3] चउप्पयथलयराणं पुच्छा, गो० ! जह• अंगलस्स असं०, उक्कोसेणं छ गाउयाई। सम्मुच्छिमचउप्पयथलयराणं पुच्छा, गो० ! जह० अंगु० असं०, उक्कोसेणं गाउयपुहतं / अपज्जतगसम्मुच्छिमचउप्पयथलयराणं पुच्छा, गो० ! जह• अंगु० असं० उक्को० अंगु० असं०। पज्जत्तगसम्मुच्छिमचउप्पयथलयराणं पुच्छा, गो० ! जहन्नेणं अंगु० असंले०, उक्को. गाउयपुहत्तं / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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