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________________ [अनुयोगद्वारसूत्र पर्याप्तक संमूच्छिमजलचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्महुर्त प्रमाण और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्तन्यून पूर्वकोटि बर्ष प्रमाण जानना चाहिये। सामान्य से गर्भव्युत्क्रान्तिकजलचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट पूर्वकोटि वर्ष जितनी है / ___ अपर्याप्तक गर्भव्युत्क्रान्तिक जलचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीवों की जघन्य स्थिति भी अन्तमुहूर्त की है और उत्कृष्ट स्थिति भी अन्तर्मुहूर्त की है। पर्याप्तक गर्भव्युत्क्रान्तिक जलचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्महर्त की है और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त कम पूर्वकोटि वर्ष की है। विवेचन--यहाँ जलचरपंचेन्द्रियतिर्यंच जीवों की स्थिति का वर्णन किया है। पानी के अंदर रहने वाले जीवों को जलचर कहते हैं / ये दो प्रकार के हैं—समूच्छिम और गर्भज। दिशा-विदिशा अादि से इधर-उधर से शरीरयोग्य पुद्गलों का ग्रहण होकर शरीराकार रूप परिणत हो जाने को समर्छिम जन्म और स्त्री के उदर में शुक्र-शोणित के परस्पर गरण अर्थात् मिश्रण को गर्भ कहते हैं। इस गर्भ से उत्पन्न होने वाले जीव गर्भज कहलाते हैं। यह जन्मभेद मनुष्य और पंचेन्द्रिय तिर्यंचगति के जीवों में पाया जाता है। इनमें कोई पर्याप्तक होते हैं और कोई अपर्याप्तक। इसीलिये तिर्यच पंचेन्द्रिय के भेद जलचर जीवों की स्थिति संमूच्छिम और गर्भज तथा इन दोनों के पर्याप्तक और अपर्याप्तक भेदों की अपेक्षा पृथक्-पृथक बतलाई है। पूर्व का प्रमाण पहले बताया जा चुका है कि चौरासी लाख वर्ष को एक पूर्वांग कहते हैं और चौरासी लाख पूर्वांग का एक पूर्व कहलाता है / अंकों में जिसकी गणना का प्रमाण 70560000000000 स प्रकार के वर्ष प्रमाण वाले एक पूर्व के हिसाब से करोड पूर्व की उत्कृष्ट स्थिति जलचरपंचेन्द्रियतिर्यंच जीवों की होती है / चतुष्पद, उरपरिसर्प और भुजपरिसर्प के भेद से स्थलचर जीव तीन प्रकार के हैं / क्रम से उनकी स्थिति इस प्रकार है-... स्थलचर पंचेन्द्रियतिर्यंचों की स्थिति [3] चउप्पयथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं भंते ! केवतिकालं ठिती पन्नत्ता ? गो० ! जह० अंतो० उक्को० तिम्णि पलिओवमाई। सम्मुच्छिमचउप्पयथलयरपंचेदियतिरिक्खजोणियाणं जाव गो० ! जह० अंतो० उक्को० चउरासीतिवाससहस्साई। अपज्जत्तयसम्मुच्छिमचउप्पयथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाण जाव गो० ! जहन्नेणं अंतो. उक्को० अंतो०॥ = / - - - 1. पुवस्स हु परिमाण सत्तरि खल कोडिसदसहरसाई / छप्पण्णं च सहस्सा बोदधन्वा वासकोडीणं // -सर्वार्थसिद्धि प.१६५ से उद्धत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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