________________ 146] अनुयोगद्वारसूत्र 216-19] यदि अजीवद्रव्य को अविशेषित नाम माना जाये तो धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और अद्धासमय, ये विशेषित नाम होंगे। यदि पुद्गलस्तिकाय को भी अविशेषित नाम माना जाये तो परमाणुपुद्गल, द्विप्रदेशिक यावत् अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध, यह नाम विशेषित कहलायेंगे / इस प्रकार से द्विनाम का स्वरूप जानना चाहिये। विवेचन-इन सूत्रों में अविशेषित और विशेषित इन दो अपेक्षाओं से द्विनाम का वर्णन किया है। तात्पर्य यह है कि प्रत्येक वस्तु सामान्यविशेषात्मक है। सग्रहनय सामान्य अंश को और व्यवहारनय विशेष को प्रधानता देकर स्वीकार करता है / संग्रहनय द्वारा गृहीत अविशेषित--सामान्यएकत्व में व्यवहारनय विधिपूर्वक भेद करता है। इन दोनों नयों की दृष्टि से ये नाम अविशेषित और विशेषित बन जाते हैं। इनमें पूर्व-पूर्व अविशेषित- सामान्य और उत्तरोत्तर विशेषित-विशेष नाम हैं। सूत्रार्थ सुगम है। सामान्य-विशेष नामों के द्वारा जीव और अजीव द्रव्यों के इस प्रकार भेद करना चाहिये। कतिपय पारिभाषिक शब्द--सूत्र में आगत प्राय: सभी शब्द पारिभाषिक हैं। लेकिन उनमें से यहाँ कतिपय विशेष शब्दों के ही अर्थ प्रस्तुत करते हैं। संमूर्छिम जीव वे हैं जो तथाविहकर्म के उदय से गर्भ के बिना ही उत्पन्न हो जाते हैं। व्युत्क्रान्ति का तात्पर्य उत्पत्ति है। अतः जिन जीवों की उत्पत्ति गर्भजन्म से होती है वे गर्भव्युत्क्रान्तिक जीव हैं / जो सरकते हैं, वे परिसर्प कहलाते हैं / ये जीव भुजपरिसर्प और उरपरिसर्प के भेद से दो प्रकार के हैं / सादिक जीव छाती से सरकने वाले होने से उरपरिसर्प कहलाते हैं और जो जीव भुजाओं से सरकते हैं, वे भुजपरिसर्प हैं। जैसे गोधा, नकुल आदि / इस प्रकार से द्विनाम की वक्तव्यता जानना चाहिये। त्रिनाम 217. से किं तं तिनामे ? तिनामे तिविहे पण्णत्ते / तं जहा- दवणामे 1 गुणणामे 2 पज्जवणामे य 3 / [217 प्र. भगवन् ! त्रिनाम का क्या स्वरूप है ? [117 उ.] आयुष्मन् ! त्रिनाम के तीन भेद हैं। वे इस प्रकार--१. द्रव्यनाम, 2. गुणनाम और 3 पर्यायनाम / विवेचन-तीन विकल्प वाला नाम त्रिनाम है। सूत्र में द्रव्य, गुण और पर्याय को त्रिनाम का उदाहरण बतलाया है। द्रव्य, गुण, पर्याय का लक्षण-उन-उन पर्यायों को जो प्राप्त करता है उसका नाम द्रव्य है। यह द्रव्य शब्द का व्युत्पत्तिमूलक अर्थ है। इस अर्थ के परिप्रेक्ष्य में जैन दार्शनिकों ने द्रव्य की व्याख्या दो प्रकार से की है जो गुण और पर्याय का आधार हो तथा उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य स्वभाव वाला हो, उसे द्रव्य कहते हैं। त्रिकाल स्थायी स्वभाव वाले असाधारण धर्म को गुण और प्रति समय पलटने वाली अवस्था को अथवा गुणों के विकार को पर्याय कहते हैं / गुण ध्रव और पर्याय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org