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________________ श्रुत निरूपण] कीट-चतुरिन्द्रिय जीवविशेष की लार से उत्पत्र सूत्र को कीटज कहते हैं / पट्ट आदि पांचों भेद कीटजन्य होने से कीटज हैं। पट्टसूत्र की उत्पत्ति के विषय में ऐसा माना जाता है कि जंगल में सघन लताच्छादित स्थानों में मांसपुंज रखकर उसकी आजू-बाजू कुछ अंतर में ऊंची-नोची अनेक कीलें गाड़ दी जाती हैं / मांस के लोभी कीट-पतगे मांसपुजों पर मंडराते हैं और कोलों के आसपास घूमकर अपनी लार को छोड़ते हैं / उस लार को एकत्रित करके जो सूत बनता है, उसे पट्टसूत्र कहते हैं। मलय देश में बने कीटज सूत्र को मलय कहते हैं तथा चीन देश से बाहर कीटों की लार से बना सूत्र अंशुक और चीन देश में बना सूत्र चीनांशुक कहलाता है। कृमिरागसूत्र के विषय में ऐसा सुना जाता है कि किन्हीं क्षेत्रविशेषों में मनुष्यादि का रक्त बर्तन में भरकर उसके मुख को छिद्रों वाले ढक्कन से ढंक देते हैं। उसमें बहुत से लाल रंग के कृमिकीड़े उत्पन्न हो जाते हैं। वे कृमि छिद्रों से निकलकर बाहर आसपास के प्रदेश में उड़ते हुए अपनी लार छोड़ते हैं / इस लार को इकट्रा करके जो सूत बनाया जाता है, वह कृमिरागसूत्र कहलाता है। लाल रंग के कृमियों से उत्पन्न होने के कारण इस सूत का रंग भी लाल होता है / __ रोमों-बालों से बने सूत को बालज कहते हैं / भेड़ के रोमों-बालों से जो सूत बनता है वह औणिक, ऊंट के रोमों से बना सूत औष्ट्रिक, मृग के रोमों से बना सूत मृगलोमिक तथा चूहे के रोमों से बना सूत कोतव कहलाता है। इन प्रौणिक आदि सूत्रों को बनाते समय इधर-उधर बिखरे बालों का नाम किट्टिस है। इनसे निर्मित अथवा औणिक आदि सूत को दुहरा-तिहरा करके बनाया गया सूत अथवा घोड़ों आदि के बालों से बना सूत किट्टिस कहलाता है। सन आदि की छाल से बनाया गया सूत बल्कज है। भावश्रुत 46. से कि तं भावसुयं ? भावसुयं दुविहं पन्नत्तं / तं जहा -आगमतो य 1 नोआगमतो 52 / [46 प्र.] भगवन् ! भावच त का क्या स्वरूप है ? [46 उ.] आयुष्मन् ! भावश्रु त दो प्रकार का है / यथा- 1 आगमभावश्रुत और 2 नोग्रागमभावथ त / 47. से कि तं आगमतो भावसुयं ? आगमतो भावसुयं जाणते उवउत्ते / से तं आगमतो भावसुयं / [47 प्र.] भगवन् ! अागमभाव त का क्या स्वरूप है ? [47 उ.] आयुष्मन् ! जो श्र त (पद) का ज्ञाता होने के साथ उसके उपयोग से भी सहित हो, वह आगमभावथ त है / यह पागम से भावश्रुत का लक्षण है। विवेचन--सूत्र में प्रागमभावश्रत का लक्षण बताया है। श्रत रूप पद के अर्थ के अनुभवउपयोग से युक्त साधु आदि भावशब्द का वाच्यार्थ है। अभेदोपचार से साध्वादि भी भावश्रुत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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