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________________ 36] [अनुयोगद्वारसूत्र हैं। श्रत में उपयोगरूप परिणाम के सद्भाव से उसमें भावता और श्रु त के अर्थज्ञान के सद्भाव से आगमता जानना चाहिये / नोमागमभावश्रुत 48. से किं तं नोआगमतो भावसुयं ? नोआगमतो भावसुयं दुविहं पन्नत्तं / तं जहा-लोइयं 1 लोउत्तरियं च 2 / [48 प्र.] भगवन् ! नोआगम की अपेक्षा भावश्रुत का क्या स्वरूप है ? [48 उ.] आयुष्मन् ! नोप्रागमभावश्रुत दो प्रकार का है / जैसे-१. लौकिक, 2. लोकोत्तरिक / लौकिक भावश्रुत 49. से कि तं लोइयं भावसुयं ? लोइयं भावसुयं जं इमं अण्णाणिएहि मिच्छदिट्ठीहिं सच्छंदबुद्धि-महविगप्पियं / तं जहाभारहं रामायणं भीमासुरुक्कं कोडिल्लयं घोडमुहं सगडभद्दिआओ कप्यासियं नागसुहुमं कणगसत्तरी वइसे सियं बुद्धवयणं वेसियं काविलं लोयाययं सद्वितंतं माढरं पुराणं वागरणं नाङगादी, अहवा बावत्तरिकलाओ चत्तारि य वेदा संगोवंगा / से तं लोइयं भावसुयं / [49 प्र.] भगवन् ! लौकिक (नोआगम) भाव त का क्या स्वरूप है ? [49 उ.] आयुष्मन् ! अज्ञानी मिथ्यादृष्टियों द्वारा अपनी स्वच्छन्द बुद्धि और मति से रचित महाभारत, रामायण, भीमासुरोक्त, कौटिल्य (रचित अर्थशास्त्र), घोटकमुख, शटकभद्रिका, कासिक, नागसूक्ष्म, कनकसप्तति, वैशेषिकशास्त्र, बौद्धशास्त्र, कामशास्त्र, कपिलशास्त्र, लोकायतशास्त्र, षष्ठितंत्र, माठरशास्त्र, पुराण, व्याकरण, नाटक प्रादि अथवा बहत्तर कलायें और सांगोपांग चार वेद लौकिक नोप्रागमभावथत हैं। विवेचन--सूत्र में लौकिक नोप्रागमभावश्रुत का स्वरूप बतलाया है कि सर्वज्ञोक्त प्रवचन से विरुद्ध अभिप्राय वाली बुद्धि और मति द्वारा विरचित सभी शास्त्र लौकिक भावभुत हैं / महाभारत, रामायण आदि में प्रागमशास्त्र रूप लोकप्रसिद्धि होने से ग्रागमता और इनमें वर्णित क्रियायें मोक्ष की हेतु न होने से अनागम हैं। इस प्रकार की उभयरूपता को बताने के लिये सूत्रकार ने नोग्रागम पद का प्रयोग किया है। तथा 'उपयोगो भावनिक्षेप:--उपयोग ही भाव निक्षेप है' ऐसा शास्त्रवचन होने से इनमें संलग्न उपयोग की अपेक्षा भावरूपता जाननी चाहिये, किन्तु शब्दों के अचेतन होने से ये महाभारत प्रादि भावश्रुत नहीं हैं। सूत्र में प्रयुक्त बुद्धि और मति शब्दों में से अवग्रह और ईहा रूप विचारधारा बुद्धि है और अवाय तथा धारणा रूप विचारधारा को मति कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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