________________ 178] [अनुघोगद्वारसूत्र औदायिक-क्षायिक-क्षायोपशमिक और पारिणामिकभावों का संयोगज रूप चौथा भंग भी तृतीय भंग की तरह नरकादि चारों गतियों में संभव है / परन्तु विशेषता यह है कि तृतीय भंगोक्त उपशमसम्यक्त्व के स्थान पर यहाँ क्षायिक सम्यक्त्व समझना चाहिये। क्षायिक सम्यक्त्व नारक, तियंच और देव इन गतियों में तो पूर्वप्रतिपन्न जीव को और मनुष्यगति में पूर्वप्रतिपन्न और प्रतिपद्यभान को भी होता है / इसी कारण यह चतुर्थ भंग चारों गतियों में संभव है। ___ इस प्रकार चतुःसंयोगी सान्निपातिकभावों की प्ररूपणा जानना चाहिये / अब अंतिम पंचसंयोगी सान्निपातिकभाव का निरूपण करते हैं। पंचसंयोगी सानिपातिकभाव 258. तस्य गंजे से एक्के पंचकसंजोगे से गं इमे-अस्थि नामे उदइए उवसमिए खइए समोवसमिए पारिणामियनिप्पन्ने 1 / [258] पंचसंयोगज सान्निपातिकभाव का एक भंग इस प्रकार है-प्रौदयिक-प्रौपशमिकक्षायिक-क्षायोपशमिक-पारिणामिकनिष्पन्नभाव। 259. कतरे से नामे उदइए उपसमिए खइए खओवसमिए पारिणामियनिष्पन्ने? उदए त्ति मणूसे उवसंता कसाया खइयं सम्मत्तं खोवसमियाई इंदियाई पारिणामिए जीवे, एस णं से गामे उदइए उवसमिए खइए खओवसमिए पारिणामिय निष्पन्ने / से तं सन्निवाइए / से तं छण्णामे / (259 प्र.] भगवन् ! प्रोदयिक औपशमिक-क्षायिक-क्षायोपशमिक-पारिणामिकभावनिष्पन्न सान्निपातिकभाव का क्या स्वरूप है ? 259 उ.] आयुष्मन् ! प्रौदयिकभाव में मनुष्यगति, प्रौपशमिकभाव में उपशांतकषाय, क्षायिकभाव में क्षायिकसम्यक्त्व, क्षायोपशमिकभाव में इन्द्रियां और पारिणामिकभाव में जीवत्व, यह प्रौदयिक-ग्रौपशमिक-क्षायिक-क्षायोपशमिक-पारिणामिकभावनिष्पन्न :सानिपातिकभाव का स्वरूप है। इस प्रकार से सान्निपातिकभाव और साथ ही षड्नाम का वर्णन समाप्त हुआ। विवेचन-इस सूत्र में पांच भावों के संयोग से निष्पन्न सान्निपातिकभाव का कथन करने के साथ षड्नाम की वक्तव्यता की समाप्ति का संकेत किया है। इस पंचसंयोगज सानिपतिकभाव में औदयिक आदि पारिणामिक भाव पर्यन्त पांचों भावों का समावेश हो जाता है। इनके अतिरिक्त अन्य भावों के न होने से यहाँ एक ही भंग बनता है। यह भंग क्षायिक सम्यग्दृष्टि होकर उपरामश्रेणी पर पारोहण करने वाले मनुष्य में पाया जाता है / इसी का संकेत करने के लिये सूत्र में मनुष्य,उपशांतकषाय प्रादि को उदाहृत किया है। जीव में प्राप्त सान्निपातिकमाव-निरूपण का सारांश प्रौदयिक प्रादि पांच मूल भावों के संयोग से निष्पन्न सानिपातिकभाव के द्विकसंयोगी दस, त्रिकसंयोगी दस, चतुष्कसंयोगी पांच और पंचसंयोगी एक कुल छन्वीस भंगों में से जीवों में सिर्फ द्विकसंयोगी एक, त्रिकसंयोगी दो, चतुष्कसंयोगी दो और पंचसंयोगी एक, इस प्रकार छह भंग पाये जाते हैं। शेष भंग प्ररूपणामात्र के लिए ही हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org