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________________ 452] [अनुयोगद्वारसूत्र [592 प्र.] भगवन् ! अप्रशस्तभावक्षपणा का क्या स्वरूप है ? [592 उ.] आयुष्मन् ! अप्रशस्तभावक्षपणा तीन प्रकार की कही गई है। यथा--१. ज्ञानक्षपणा, 2. दर्शनक्षपणा, 3. चारित्रक्षपणा / यही अप्रशस्तभावक्षपणा है। इस प्रकार से नोआगम भावक्षपणा, भावक्षपणा, क्षपणा और साथ ही अोधनिष्पन्न निक्षेप का वर्णन पूर्ण हुअा। विवेचन-प्रस्तुत सूत्रों में भावक्षपणा का विस्तार से वर्णन करके अोघनिष्पन्ननिक्षेप की वक्तव्यता की समाप्ति का उल्लेख किया है / भावक्षपणा का वर्णन स्पष्ट और सुगम है लेकिन इतना विशेष है कि किसी-किसी प्रति में अनुयोगद्वारसूत्र के मूलपाठ में नोप्रागमभावक्षपणा के प्रशस्त प्रकार में ज्ञानक्षपणा, दर्शनक्षपणा, चारित्रक्षपणा ये तीन भेद एवं अप्रशस्त के रूप में क्रोध, मान, माया, लोभ क्षपणा ये चार भेद बताये हैं / लेकिन यहां उससे विपरीत भेद और नामों का उल्लेख किया है। जो उपर्युक्त सूत्र पाठ से स्पष्ट है। ___ इस प्रकार सामान्य से तो यह मतभिन्नता प्रतीत होती है। लेकिन प्रापेक्षिक दृष्टि से विचार किया जाये तो यह सामासिक दृष्टिकोण का अंतर है, जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है यहां क्रोध, मान, माया, लोभ के क्षय को प्रशस्त इसलिये माना गया है कि ये क्रोधादि संसार के कारण हैं, अतएव संसार के कारणभूत इन क्रोधादि का क्षय प्रशस्त. शुभ होने से प्रशस्तभावक्षपणा है आदित्रय का क्षय अप्रशस्त इसलिये है कि प्रात्मगुणों की क्षीणता संसार का कारण है। एक जगह 'प्रशस्त विशेषण को 'भाव' का और दूसरी जगह 'क्षपणा' का विशेषण माना गया है / अतः प्रशस्त ज्ञान आदि गुणों के क्षय को प्रशस्तभावक्षपणा के रूप में एवं अप्रशस्त क्रोधादि के क्षय को अप्रशस्तभावक्षपणा के रूप में ग्रहण किया है। इसी प्रापेक्षिक दष्टि के कारण किसी-किसी प्रति में यहाँ-प्रस्तुत पाठ से अतर प्रतीत होता है। इस प्रकार से निक्षेप के प्रथम भेद अोघनिष्पन्ननिक्षेप का वर्णन करने के अनन्तर अब द्वितीय भेद नामनिष्पन्न निक्षेप की प्ररूपणा प्रारंभ करते हैं / नामनिष्पन्ननिक्षेपप्ररूपणा 593. से कि तं नामनिप्फपणे? नामनिष्फण्णे सामाइए / से समासओ चउविहे पण्णत्ते / तं जहा-णामसामाइए ठवणासामाइए दव्वसामाइए भावसामाइए। [593 प्र.] भगवन् ! (निक्षेप के द्वितीय भेद) नामनिष्पन्न निक्षेप का क्या स्वरूप है ? [593 उ.] आयुष्मन् ! नामनिष्पन्न सामायिक है। वह सामायिक चार प्रकार का है / यथा-१. नामसामायिक, 2. स्थापनासामायिक, 3. द्रव्यसामायिक 4. भावसामायिक / विवेचन--प्रस्तुत सूत्र नामनिष्पन्न निक्षेप का वर्णन करने की भूमिका है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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