________________ प्रमाणाधिकार निरूपण] [335 शंका-जिन जीवों ने पहले सम्यक्त्व प्राप्त कर लिया और बाद में मिथ्यादृष्टि हो गये ऐसे प्रतिपतित सम्यग्दृष्टि जीवों की संख्या अभव्यों से अनन्तगुणी और सिद्धों के अनन्त भाग प्रमाण बतलाई है / ' तो क्या ये मुक्त औदारिकशरीर इन्हीं के बराबर हैं ? समाधान-यदि ये उनकी समान संख्या वाले होते तो उनका सूत्र में निर्देश होता, किन्तु सूत्र में संकेत नहीं है / अतएव यह जानना चाहिये कि ये मुक्त औदारिकशरीर प्रतिपतित सम्यग्दृष्टियों की राशि की अपेक्षा कदाचित् हीन, कदाचित् तुल्य और कदाचित् अधिक भी होते हैं / 2 ये अनन्तानन्त औदारिकशरीर एक ही लोक में दीपक के प्रकाश के समान अवगाढ़ होकर रहे हुए हैं। जैसे एक दीपक का प्रकाश समग्र भवन में व्याप्त होकर रहता है और अन्य अनेक दीपकों का प्रकाश भी उसी भवन में रह सकता है, वैसे ही अनन्तानन्त मुक्त औदारिकशरीर भी एक लोकाकाश में समाविष्ट होकर रहते हैं। बद्ध-मुक्त वैक्रियशरीरों की संख्या 414. केवतिया गं भंते ! वेउब्वियसरीरा पं० ? गोतमा! दुविहा पण्णत्ता / तं०- बद्धल्लया य मुक्केल्लया य / तत्थ णं जे ते बद्धेल्लया ते णं असंखेज्जा, असंखेन्जाहिं उस्सप्पिणिओस प्पिणीहि अवहीरंति कालओ, खेत्तओ असंखेज्जाओ सेढीओ पतरस्स असंखेज्जइभागो। तत्थ णं जे ते मुक्केल्लया ते गं अणंता, अणंताहि उस्सप्पिणि-ओसप्पिणीहिं अवहोरंति कालओ, सेसं जहा ओरालियस्स मुक्केल्लया तहा एते वि भाणियब्वा / [414 प्र.] भगवन् ! वैक्रियशरीर कितने प्रकार के कहे गये हैं ? [414 उ.] गौतम ! वे दो प्रकार के कहे हैं / यथा-बद्ध और मुक्त / उनमें से जो बद्ध हैं, वे असंख्यात हैं और कालतः असंख्यात उत्सपिणियों-अवसपिणियों द्वारा अपहत हो हैं। क्षेत्रत: वे असंख्यात श्रेणीप्रमाण हैं तथा वे श्रेणियां प्रतर के असंख्यातवें भाग हैं तथा मुक्त वैक्रियशरीर अनन्त हैं / कालतः वे अनन्त उत्सपिणियों-अवसपिणियों द्वारा अपहत होते हैं। शेष कथन मुक्त औदारिकशरीरों के समान जानना चाहिए। विवेचन---यहाँ सामान्य रूप से वैक्रियशरीर के बद्ध-मुक्त प्रकारों की संख्या का परिमाण बतलाया है। वैक्रियशरीर नारकों और देवों के सर्वदा ही बद्ध रहते हैं। परन्तु मनुष्य और तिर्यचों के जो कि वैकियलब्धिशाली हैं, उत्तरवैक्रिय करने के समय ही बद्ध होते हैं। यह वर्णन पूर्वोक्त औदारिकशरीर के कथन से प्राय: मिलता-जुलता है। परन्तु क्षेत्रापेक्षया बद्ध क्रियशरीरों की संख्या का निर्देश करने में कुछ विशेषता है। जो इस प्रकार जानना चाहिये क्षेत्रापेक्षया बद्ध वैक्रियशरीर असंख्यात श्रेणी प्रमाण हैं और उन थेणियों का प्रमाण प्रतर का असंख्यातवां भाग है / जिसका आशय यह हुआ कि प्रतर के असंख्यातवें भाग में जितनी श्रेणियों हैं और उन श्रेणियों में जितने आकाशप्रदेश होते हैं, उतने ही बद्ध वैक्रियशरीर हैं। मुक्त वैक्रियशरीरों का वर्णन मुक्त औदारिकशरीरों के समान है। अत: उनकी अनन्तता भी पूर्वोक्त मुक्त औदारिकशरीरों के समान समझ लेनी चाहिये। 1-2. अनुयोगहार मलधारीया टीका पत्र 197 त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org