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________________ 402] [अनुयोगद्वारसूत्र है। निकट भविष्य में जो लीव शंखयोनि में उत्पन्न होने वाला है तथा जिसके द्वीन्द्रिय जाति प्रादि नामकर्म एवं नीच गोत्र रूप गोत्रकर्म जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त के बाद उदयाभिमुख होने वाला है, उस जीव को अभिमुखनामगोत्रशंख कहते हैं। ये तीनों प्रकार के जीव भावशंखता के कारण होने से ज्ञशरीर और भव्यशरीर इन दोनों से व्यतिरिक्त द्रव्यशंख रूप हैं। द्विभविक, त्रिभविक, चतुर्भविक प्रादि जीवों को द्रव्यशंख इसलिये नहीं कहते हैं कि ऐसे जीव भावशंखता के अव्यवहित कारण नहीं हैं। वे मरकर प्रथम भव में शंख की पर्याय में उत्पन्न नहीं होकर दूसरी-दूसरी पर्यायों में उत्पन्न होते हैं। जबकि एकभाविक भावशंखता के प्रति अव्यवहित कारण है। वह जीव मरकर निश्चित रूप से शंख की पर्याय में ही उत्पन्न होने वाला है। इसीलिये उसकी द्रव्यशंख यह संज्ञा है।' 488. एगभविए णं भंते ! एगभविए त्ति कालतो केवचिरं होति ? जहणणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं पुन्चकोडी।। [488 प्र.] भगवन् ! एकभविक जीव 'एकभविक' ऐसा नाम वाला कितने समय तक रहता है ? [488 उ.] आयुष्मन् ! एकभविक जीव जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट एक पूर्व कोटि पर्यन्त (एकभविक नाम वाला) रहता है। विवेचन-सूत्र में एकभविक द्रव्यशंख की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति क्रमशः अन्तमहर्त और एक पूर्वकोटि की इसलिये बताई है कि पृथ्वी आदि किसी एकभव में अन्तर्महर्त तक जीवित रहकर तदनन्तर जो मरण करके शंखपर्याय में उत्पन्न हो जाता है, वह जीव अन्तर्मुहूर्त तक एकभविक शंख कहलाता है। जीवों की कम से कम आयु अन्तर्मुहर्त की होती है, इसीलिये जघन्य पद में अन्तर्मुहर्त का ग्रहण किया है। जो जीव मत्स्य आदि किसी एक भव में उत्कृष्ट रूप से एक पूर्वकोटि तक जीवित रहकर मरते ही शंखपर्याय में उत्पन्न होता है, वह पूर्वकोटि तक एकभविक शंख कहलाता है। क्योंकि जिस जीव की पूर्वकोटि से अधिक आयु होती है वह असंख्यात वर्ष की आयु बाला होने से मरकर देवपर्याय में ही उत्पन्न होता है, शंखपर्याय में नहीं / इस कारण उत्कृष्ट पद में पूर्वकोटि का कथन किया है। 489. बताउए णं भंते ! बताउए त्ति कालतो केवचिरं होति ? जहण्णणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं पुवकोडीतिभागं / [489 प्र.] भगवन् ! बद्धायुष्क जीव बद्घायुष्क रूप में कितने काल तक रहता है ? [489 उ.] आयुष्मन् ! (बद्धायुष्क जीव बद्धायुष्क रूप में) जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट एक पूर्वकोटि वर्ष के तीसरे भाग तक रहता है / विवेचन-सूत्रगत कथन का प्राशय यह है कि जबसे कोई जीव भुज्यमान प्रायु में रहते 1. अनुयोग. मलधारीयावृत्ति पृ. 231 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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