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________________ [अयोगदारसूत्र जितना कहने का तात्पर्य यह है कि वाणव्यंतर देवों के बद्धोदारिकशरीर तो होते नहीं हैं। मुक्त औदारिकशरीर पूर्वभवों की अपेक्षा अनन्त हैं। वाणव्यंतर देवों के बद्धवैक्रियशरीर असंख्यात हैं, क्योंकि इन देवों की संख्या असंख्यात है। इस असंख्यात को स्पष्ट करने के लिये कहा है कि कालतः एक-एक समय में एक-एक बद्धवैक्रियशरीर का अपहार किया जाये तो असंख्यात उत्सर्पिणी और असंख्यात अवसर्पिणी कालों के समयों में इनका अपहार होता है / क्षेत्र की अपेक्षा प्रतर के असंख्यातवें भाग में रही हई जो असंख्यात श्रेणियाँ हैं, उन श्रेणियों के जितने प्रदेश हों उतने प्रदेश प्रमाण वाणव्यंतरों के बद्धवैक्रियशरीर हैं। उन असंख्यात श्रेणियों की विष्कभसूची तिथंच पंचेन्द्रियों की बद्धनौदारिकशरीर की विष्कंभसूची से असंख्यातगुणहीन जानना चाहिये / वाणव्यंतर देवों के मुक्तवैक्रियशरीरों का प्रमाण अधिक मुक्तग्रौदारिकशरीरों के समान है, अर्थात् अनन्त है। बद्ध और मुक्त आहारकशरीरों का प्रमाण असुरकुमारों के समान कहने का तात्पर्य यह है कि वाणव्यंतर देवों के बद्धग्राहारकशरीर होते नहीं हैं और मुक्ताहारकशरीर मुक्त औदारिकशरीरों के समान अनन्त हैं / बद्ध तेजस-कार्मण शरीर वाणव्यंतरों के बद्धवैक्रियशरीर के समान प्रसंख्यात हैं और मुक्त तैजस-कार्मण शरीर अनन्त होते हैं / ज्योतिष्क देवों के बद्ध-मुक्त पंच शरीर 425. [1] जोइसियाणं भंते ! केवइया ओरालियसरीरा पं० ? गो० ! जहा नेरइयाणं तहा माणियध्वा / |425-1 प्र. भगवन् ! ज्योतिष्क देवों के कितने औदारिकशरीर होते है ? |425-1 उ.] गौतम ! ज्योतिष्क देवों के औदारिकशरीर नारकों के प्रौदारिकशरीरों के समान जानना चाहिये। [2] जोइसियाणं भंते ! केवइया उब्वियसरीरा पण्णता? * ! दुविहा पं० / २०-बद्धल्लया य मुक्केल्लया य / तत्थ णं जे ते बद्धेल्लया जाव तासि गं सेढीणं विखंभसूची बेछप्पण्णंगुलसयवग्गलिभागो पयरस्स / मुक्केल्लया जहा ओहियओरालिया। [425-2 प्र. भगवन् ! ज्योतिष्क देवों के कितने वैक्रियशरीर कहे हैं ? [425-2 उ.] गौतम ! दो प्रकार के कहे गये हैं-बद्ध और मुक्त। उनमें जो बद्ध हैं यावत् उनकी श्रेणी की विष्कभसूची दो सौ छप्पन प्रतरांगुल के वर्गमूल रूप अंश प्रमाण समझना चाहिये / मुक्तवैक्रियशरीरों का प्रमाण सामान्य मुक्तोदारिकशरीरों जितना जानना चाहिये / [3] आहारयसरीरा जहा नेरइयाणं तहा भाणियम्वा / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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