________________ 320] [अनुयोगद्वारसूत्र [391-7 प्र.] भगवन् ! इसी प्रकार प्रत्येक कल्प की कितने काल की स्थिति कही गई है ? [391-7 उ.] गौतम ! वह इस प्रकार कहना जानना चाहिये लांतककल्प में देवों की जघन्य स्थिति दस सागरोपम, उत्कृष्ट स्थिति चौदह सागरोपम की होती है। महाशुक्रकल्प के देवों की जघन्य स्थिति चौदह सागरोपम और उत्कृष्ट स्थिति सत्रह सागरोपम की है। सहस्रारकल्प के देवों की जघन्य स्थिति सत्रह सागरोपम और उत्कृष्ट स्थिति अठारह सागरोपम की है। अानतकल्प में जघन्य स्थिति अठारह सागरोपम और उत्कृष्ट स्थिति उन्नीस सागरोपम को है। प्राणतकल्प में जघन्य स्थिति उन्नीस सागरोपम और उत्कृष्ट स्थिति बीस सागरोपम की है। पारणकल्प के देवों की जघन्य स्थिति बीस सागरोपम और उत्कृष्ट इक्कीस सागरोपम की स्थिति है। __ अच्युतकल्प के देवों की जघन्य स्थिति इक्कीस सागरोपम की और उत्कृष्ट बाईस सागरोपम की स्थिति होती है। विवेचन—पूर्व में सामान्य से वैमानिक देवों की स्थिति बताने के बाद यहाँ विशेष रूप से स्थिति का निर्देश किया है / वैमानिक देवों के छब्बीस लोक हैं। उनमें सौधर्म आदि अच्युत पर्यन्त बारह देवलोक कल्पसंज्ञक हैं। इनकी सामान्य से जघन्य स्थिति एक पल्योपम की और उत्कृष्ट स्थिति बाईस सागरोपम की है / देवियों की जघन्य स्थिति एक पल्य की और उत्कृष्ट स्थिति पचपन पल्योपम की है। किन्तु दूसरे ईशानकल्प से ऊपर देवियां उत्पन्न नहीं होती हैं, इसलिये दूसरे कल्प तक ही देवियों की स्थिति का कथन किया है। इनके दो भेद हैं—परिगहीता और अपरिग्रहीता / इन दोनों की जघन्य स्थिति प्रथम देवलोक में एक पल्योघम की और दूसरे देवलोक में साधिक एक पल्योपम की है, लेकिन प्रथम देवलोक की परिगृहीता देवियों की उत्कृष्ट स्थिति सात पल्योपम की और अपरिगृहीता की पचास पल्य को होती है / द्वितीय देवलोक को परिगृहीता देवियों की उत्कृष्ट स्थिति नौ पल्योपम की अपरिगृहीताओं की पचपन पल्योपम की होती है। ईशानकल्प में देवों को उत्कृष्ट स्थिति सौधर्मकल्प के देवों से कुछ अधिक दो सागरोपम और सनत्कुमारकल्प की अपेक्षा माहेन्द्रकल्प के देवों की उत्कृष्ट स्थिति साधिक सात सागरोपम है। लेकिन इसके बाद ब्रह्मलोक से लेकर अच्युत कल्प तक पूर्व को उत्कृष्ट स्थिति उत्तर की जघन्य स्थिति जानना चाहिये। ग्रेवेयक और अनुत्तर देवों को स्थिति [-] हेदिमहे टिमगेवेज्जविमाणेसु णं भंते ! देवाणं केवइकालं ठिती पं० ? गो० ! जह० बावीसं सागरोवमाई उक्को० तेवीसं सागरोवमाई / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org