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________________ प्रमाणाधिकार निरूपण] [313 विवेचन--यहाँ खेचरपंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीवों की स्थिति का प्रमाण बतलाया है। पूर्वनिर्धारित प्रणाली के अनुसार पहले सामान्य से, फिर उनके समूच्छिम और गर्भज भेद की अपेक्षा और फिर इन दोनों के भी अपर्याप्तक और पर्याप्तक प्रकारों की अपेक्षा स्थिति का निरूपण किया है / जघन्य स्थिति तो सर्वत्र अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है लेकिन उत्कृष्ट स्थिति समूच्छिमों की बहत्तर हजार वर्ष और गर्भजों की पल्योगम के असंख्यातवें भाग प्रमाण है। पर्याप्तकों की उत्कृष्ट स्थिति में से अन्तर्मुहूर्त न्यून करने का कारण यह है कि समस्त संसारी जीव अन्तर्मुहुर्त काल में यथायोग्य अपनी-अपनी पर्याप्तियों को पूर्ण कर पर्याप्त हो जाते हैं / अपर्याप्त अवस्था अन्तर्मुहूर्त से अधिक काल तक नहीं रहती। संग्रहणी गाथायें [5] एस्थ एतेसि संगहणिगाहाओ भवंति / तं जहा सम्मुच्छ पुत्वकोडी, चउरासोति भवे सहस्साई / तेवण्णा बायाला, बावत्तरिमेव पक्खीणं // 111 // गब्भम्मि पुग्वकोडी, तिण्णि य पलिनोवमाइं परमाउं / उर-भुयग पुन्चकोडी, पलिउवमासंखभागो य // 112 // [387-5] पूर्वोक्त कथन की संग्रहणी गाथायें इस प्रकार हैं संमूच्छिम तिर्यंचपंचेन्द्रिय जीवों में अनुक्रम से जलचरों की उत्कृष्ट स्थिति पूर्वकोटि वर्ष, स्थल त्ररचतुष्पद समूच्छिमों की चौरासी हजार वर्ष, उरपरिसों की त्रेपन हजार वर्ष, भुजपरिसों की बियालीस हजार वर्ष और पक्षी (खेचरों) की बहत्तर हजार वर्ष की है / 111 गर्भज पंचेन्द्रियतिर्यचों में अनुक्रम से जलचरों की उत्कृष्ट स्थिति पूर्वकोटि वर्ष, स्थलचरों की तीन पल्योपम, उरपरिसों और भुजपरिसर्यों की पूर्वकोटि वर्ष और खेचरों की पल्योपम के असंख्यातवें भाग की है / 112 विवेचन-पूर्व में सप्रभेद पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति बताई गई है / उनमें से इन दो गाथाओं में सामान्य से उन्हीं की उत्कृष्ट स्थिति का उल्लेख किया है। __ इस पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीवों की आयु-स्थिति के कथन के साथ तिर्यंचगति के समस्त जीवों की स्थिति का वर्णन पूर्ण हुआ / मनुष्यों की स्थिति भंते ! केवइकालं ठिई पं? गो० ! जहन्नेणं अंतोमुहुतं उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाइं। 388-1 प्र.] भगवन् ! मनुष्यों की स्थिति कितने काल की बताई है ? [388.1 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहर्त की और उत्कृष्ट तीन फ्ल्योपम की कही है। [2] सम्मुच्छिममणुस्साणं जाव गो० ! जह० अंतो० उक्को० अंतो० / |388-2] संमूर्छिम मनुष्यों को जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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