________________ 168] [अनुयोगद्वारसूत्र परिणाम के इस लक्षण द्वारा द्रव्य और गुण में एकान्त भेद एवं द्रव्य को मर्वथा अविकृत और गुणों को उत्पन्न-विनष्ट मानने वाले नैयायिक प्रादि दर्शनों का तथा वस्तुमात्र को क्षणस्थायीनिरन्वय विनाशी मानने वाले वौद्धदर्शन के मंतव्यों का निराकरण किया गया है। यह पारिणामिकभाव सादि और अनादि के भेद से दो प्रकार का है। सादिपारिणामिक संबन्धी स्पष्टीकरण---सादिपारिणामिक के अनेक प्रकारों की मादिता का कारण यह है सुरा, गुड़, पत और तदुलों की नव्य और जीर्ण, इन दोनों अवस्थानों में अनुगत होने पर भी उनमें नवीनता पर्याय के निवत्त होने पर जीर्णता रूप पर्याय उत्पन्न होता है। इसलिये सादिपारिणामिक के उदाहरण रूप में जीर्ण विशेषण से विशिष्ट सुरा आदि पदों को रखा है। जीर्णता उपलक्षण है, अतः इसी प्रकार से नव्य विशेषण के लिये भी समझना चाहिये। भरतादि क्षेत्र सादिपारिणामिक कैसे ?--भरनादि क्षेत्र, हिमवान् प्रादि वर्षधर पर्वत, नरकभूमियां एवं देवविमान अपने प्राकार मात्र से अवस्थित रहने के कारण शाश्वत अवश्य है किन्तु वे पौद्गलिक हैं और पुद्गल द्रव्य परिणमनशील होने से जपन्य एक समय और उत्कृष्ट असंख्यान काल बाद उसमें अवश्य परिणमन होता है। सब विलग हुए उन पुद्गलस्कन्धों के स्थान में दूसरे-दूसरे स्कन्ध मिलकर उस-उस रूप परिणत हो जाते हैं। इसलिये वर्षधरादिकों को सादिपारिणामिकता के रूप में उदाहन किया है। मेघ आदि में तो कुछ काल पर्यन्त ही रहने से सादिरूपता स्वयंसिद्ध है। धर्मास्तिकाय आदि पङ् द्रव्य, लोक, अलोक, भवसिद्धिक, अभवसिद्धिक अनादिपारिणामिकभाव इसलिये है कि वे स्वभावत: अनादि काल से उस-उस रूप से परिणत हैं और अनन्तकाल तक रहेंगे। सूत्रगत कठिन शब्दों के अर्थ-~~~-अब्भा...अभ्र, मेघ / अन्भरुक्खा --अम्रवृक्ष -वृक्षाकार में परिणत हुए मेघ / संझा--संध्या---दिनरात्रि का संधिकाल / गंधवणगरा-गंधर्वनगर- उत्तम प्रासाद से शोभित नगर की आकृति जैसे आकाश में बने हा पूदगलों का परिणमन / उक्कावाया--उल्कापातआकाशप्रदेश से गिरता हुआ तेजपुज। दिसादाघा- दिग्दाह---किसी एक दिशा की ओर आकाश में जलती हुई अग्नि का आभास होना---दिखाई देना / गज्जिय-गाजत-मेघ की गर्जना / विज्ज-- विद्युत--- बिजली। णिग्घाया - निर्घात.. -गाज (बिजली) गिरना / जवया -यूपक .. शुक्लपक्ष सम्बन्धी प्रथम तीन दिन का बाल चन्द्र / जक्खादित्ता ---यक्षादीप्त प्रकाश में दिखाई देती हई पियाचाकृति अग्नि / धूमिया—धूमिका---ग्राकाश में रूक्ष और विरल दिखाई पड़ती हुई धुएं जैसी एक प्रकार की धूमस / महिया--महिका-जलकणयुक्त धूमस, कुहरा। रयुग्घाओं रजोद्घात -याकाश में धूलि का उड़ना, प्रांधी। चंदोवरागा सूरोवरापा--चन्दोपराग. मूर्योपराग चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहण / चदपरिवेसा सूरपरिवेसा–चन्द्रपरिवेश, सूर्यपरिवेश.....चन्द्र और सूर्य के चारों ओर गोलाकार में परिणत हुए पुद्गल परमाणुओं का मण्डल / पडिचंदया, पडिसूरया---प्रतिचन्द्र, प्रतिसूर्य उत्पात यादि का सूचक द्वितीय चन्द्र और द्वितीय मूर्य का दिखाई पड़ना। इंदधणु--इन्द्रधनुष-- आकाश में नील-पील यादि वर्ण विशिष्ट धनुषाकार प्राकृति / उदगमच्छ उदकमत्स्य- इन्द्रधनुप के खण्ड, टुकड़े। कविहसियाकपिहसिता--..कभी-कभी आकाश में सुनाई पड़ने वाली अति कर्णकट ध्वनि / अमोहा---अमोघ--उदय और अस्त के समय मूर्य की किरणों द्वारा उत्पन्न रेखा-विशेष / वासा .. वर्ष... भरतादि क्षेत्र, वासधरावर्षधर –हिमवान् आदि पर्वत / शेप शब्दों के अर्थ सुगम हैं / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org