________________ नामाधिकार निरूपण माध्यम से होता हैं / अतः एक अक्षर से निष्पन्न नाम को एकाक्षरिक और एक से अधिक-अनेक अक्षरों से निष्पन्न होने वाले नाम को अनेकाक्षरिक कहते हैं / श्री, ही आदि नामों के अतिरिक्त इसी प्रकार के अन्य नामों को भी एकाक्षरिक नाम समझना चाहिये तथा वीणा, माला आदि दो अक्षरों के योग से निष्पन्न नामों की तरह बलाका, पताका आदि तीन अक्षरों या इनसे अधिक अक्षरों से निष्पन्न नामों को अनेकाक्षरिक नाम में अन्साहित जानना चाहिए। इन एकाक्षर और अनेकाक्षरों से निष्पन्न नाम से विवक्षित समस्त वस्तुसमूह का प्रतिपादन किये जाने से यह द्विनाम कहलाता है / नाम के द्वारा वस्तु वाच्य होती है / अत: अब प्रकारान्तर से वस्तुमुखेन द्विनाम का निरूपण करते हैं 213. अहवा दुनामे दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-जीवनामे य 1 अजीवनामे य 2 / [213] अथवा द्विनाम के दो प्रकार कहे गये हैं / यथा-१. जीवनाम और 2. अजीवनाम / 214. से कि तं जीवणामे ? जोवणामे अणेगविहे पण्णत्ते / तं नहा—देवदत्तो जण्णदत्तो विष्णुदत्तो सोमवतो। सेतं जीवनामे। [214 प्र.] भगवन् ! जीवनाम का क्या स्वरूप है ? [214 उ.] आयुष्मन् ! जीवनाम के अनेक प्रकार कहे गये हैं। जैसे देवदत्त, यज्ञदत्त, विष्णुदत्त, सोमदत्त इत्यादि / यह जीवनाम का स्वरूप है / 215. से कि तं अजीवनामे ? अजीवनामे अणेगविहे पण्णत्ते / तं जहा-घडो पडो कडो रहो / सेतं अजीवनामे / [215 प्र.] भगवन् ! अजीवनाम का क्या स्वरूप है ? 215 उ.] आयुष्मन् ! अजीवनाम भी अनेक प्रकार के हैं / यथा-घट, पट, कट, रथ इत्यादि / यह अजीवनाम हैं। विवेचन---नाम के द्वारा वाच्य पदार्थ दो प्रकार के हैं-- जीव और अजीब / जिसमें चेतना पाई जाती है उसे जीव कहते हैं / अथवा तीनों कालों में इन्द्रिय, बल, प्रायु और श्वासोच्छवास रूप गों तथा ज्ञान, दर्शन आदि भावप्राणों से जो जीता था, जीता है और जीवित रहेगा वह जीव है। जिसमें जीव का गुण, धर्म, स्वभाव नहीं पाया जाता है उसे अजीव कहते हैं। यह दोनों प्रकार के पदार्थ लोक में सदैव पाये जाते है। अतः लोकव्यवहार चलाने के लिये उनकी जो पृथक्-पृथक् संज्ञाएं निर्धारित की जाती हैं, उनका द्विनाम में अन्तर्भाव कर लिया जाता किन्तु जीव और अजीव कहने मात्र से लोक-व्यवहार नहीं चलता है / क्योंकि एक शब्द से इष्ट अर्थ का ग्रहण और अनिष्ट का परिहार नहीं किया जा सकता है। तथा ये जीव और अजीच Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org