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________________ 172] [अनुयोगद्वारसूत्र सम्यक्त्व आदि नाम उपलक्षण रूप हैं। अत: इनमें अन्य जिन-जिन कर्मप्रकृतियों की उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम रूप स्थिति बनती हो उन सबका ग्रहण कर लेना चाहिये। यद्यपि द्विकसंयोगी-सान्निपातिकभाव के दस भंग बतलाये हैं, लेकिन इनमें से मात्र क्षायिकपारिणामिक भावनिष्पन्न एक नौवां भंग ही सिद्ध भगवान् की अपेक्षा घटित होता है / सिद्ध भगवान् में क्षायिक सम्यक्त्व और पारिणामिकभाव रूप जीवत्व है। इसके अतिरिक्त शेष नौ भंग केवल प्ररूपणामात्र ही हैं। क्योंकि सिद्धों के सिवाय सभी संसारी जीवों में कम से कम यह तीन भाव तो होते ही हैं—ग्रौदयिक-वह गति जिसमें वे हैं, क्षायोपशमिक-यथायोग्य इन्द्रिय और पारिणामिक-.. जीवत्व / इस प्रकार से द्विकसंयोगी दस सान्निपातिक भावों की वक्तव्यता जानना चाहिये। त्रिकसंयोगज सान्निपातिकभाव 254. तत्थ णं जे ते दस तिगसंजोगा ते णं इमे-अस्थि गामे उदइए उपसमिए खयनिष्पन्ने 1, अस्थि णामे उदइए उवसमिए खओवसमनिप्पन्ने 2, अस्थि गामे उदइए उवसमिए पारिणामिनिष्पन्ने 3, अस्थि णामे उदइए खइए खओवसमनिप्पन्ने 4, अस्थि णामे उदइए खइए पारिणामियनिष्पन्ने 5, अत्थि णामे उदइए खयोवसमिए पारिणा मियनिप्पन्ने 6, अस्थि णामे उवसमिए खइए खोवसमनिप्पन्ने 7, अस्थि णामे उवसमिए खइए पारिणामियनिप्पन्ने 8, अस्थि णामे उवसमिए खग्रोवसमिए पारिणामियनिष्यन्ने 6, अस्थि णामे खइए खओवसमिए पारियामियनिप्यन्ने 10 / [254] वहाँ (सान्निपातिकभाव में) त्रिकसंयोगज दस भंग इस प्रकार हैं-१. प्रौदयिकग्रौपशमिक-क्षायिकनिष्पन्नभाव, 2. प्रौदयिक-औपशमिक-क्षायोपशमिकनिष्पन्नभाव, 3. प्रौदयिकऔपशपिक-पारिणामिकनिष्पन्नभाव, 4. प्रौदयिक-क्षायिक-क्षायोपशामिकनिष्पन्नभाव, 5. प्रौदयिकक्षायिक-पारिणामिकनिष्पत्नभाव, 6. प्रौदयिक-झायोपशमिक-पारिणामि कनिष्पन्नभाव, 7. औपशमिकनाधिक-क्षायोपशमिकनिष्पन्नभाव, 8. ग्रौपशमिक-क्षायिक-पारिणामिकनिष्पन्नभाव, 9. प्रौपशमिकक्षायोपशमिक-पारिणामिकनिष्पन्नभाव, 10. क्षायिक-क्षायोपशमिक-पारिणामिकनिष्पन्नभाव / 255. कतरे से गामे उदइए उवसमिए खय निष्पन्ने ? उदए त्ति मणसे उवसंता कसाया खइयं सम्मत्तं, एस णं से णामे उदइए उवसमिए खयनिष्पन्ने 1 / [255-1 प्र] भगवन् ! औदयिक-ौपशमिक-क्षायिकनिष्पन्नभाव का क्या स्वरूप है ? [255-1 उ.] अायुष्मन् ! मनुष्यगति प्रौदयिकभाव, उपशांतकषाय प्रौपशमिकभाव और शायिकसम्यक्त्व क्षायिकभाब यह औदयिक-औपशमिक-क्षायिकतिष्पन्नभाव का स्वरूप है / 1 कतरे से जामे उदइए उवसमिए खयोवसमिनिप्पने? उदए त्ति मणसे उवसंता कसाया खयोवसमियाई इंदियाई, एस शं से णामे उदइए उवसमिए खओवसमनिष्पन्ने 2 / [255-2 प्र. भगवन् ! प्रौदयिक-ग्रौपशमिक-क्षायोपशमिकनिष्पन्नभाव का क्या स्वरूप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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