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________________ नामाधिकार निरूपण] [207 विवेचन--सूत्रकारने संयोगनिष्पन्न के प्रथम भेद द्रव्यसंयोगजनाम का स्वरूप बतलाया है। द्रव्य तीन प्रकार के हैं—सचित्त (सजीव), अचित्त (अजीव) और दोनों का मिश्ररूप। इस प्रकार द्रव्य के तीन भेद करके उनके पृथक्-पृथक् उदाहरण दिये हैं / __ गोमान (ग्वाला) आदि सचित्तद्रव्यसंयोगजनाम की निष्पत्ति में गायें सचित्त (सचेतन) पदार्थ कारण हैं। अचित्तद्रव्यसंयोगजनाम के लिये उदाहृत छत्री आदि नामों की निष्पत्ति छत्र प्रादि अचित्तद्रव्यसंयोगसापेक्ष है। इसलिये छत्र जिसके पास है वह छत्री, दंड जिसके पास है वह दंडी इत्यादि कहा जाता है। मिश्रद्रव्यसंयोगजनाम के हालिक, शाकटिक प्रादि उदाहरणों में हल, शकट (गाड़ी) आदि पदार्थ अचित्त और उनके साथ संयुक्त बैल प्रादि पदार्थ सचित हैं / इस प्रकार सचित्त-अचित्त दोनों प्रकार के पदार्थों की मिश्रता इन नामों की निष्पत्ति की प्राधार होने से ये सचित्ताचित्त (मिश्र) द्रव्यसंयोगनिष्पन्न नाम के रूप में बताये गये हैं। इसी प्रकार अन्य नामों की द्रव्यसंयोगिता का विचार करके उस-उस प्रकार के द्रव्यसंयोगनिष्पन्त नाम समझ लेना चाहिये। क्षेत्रसंयोगजनाम 277. से कितं खेत्तसंजोगे? खेत्तसंजोगे भारहे एरवए हेमवए एरण्णवए हरिवस्सए रम्मयवस्सए पुवविदेहए अवरविदेहए, देवकुरुए उत्तरकुरुए अहवा मागहए मालवए सोरटुए मरहट्ठए कोंकणए कोसलए / से तं खेत्तसंजोगे। [277 प्र.] भगवन् ! क्षेत्रसंयोग से निष्पन्न नाम का क्या स्वरूप है ? [277 उ.] प्रायुष्मन् ! क्षेत्रसंयोगनिष्पन्न नाम का स्वरूप इस प्रकार है यह भारतीय-भरतक्षेत्रीय है, यह ऐरावतक्षेत्रीय है, यह हेमवतक्षेत्रीय है, यह ऐरण्यवतक्षेत्रीय है, यह हरिवर्षक्षेत्रीय है, यह रम्यकवर्षीय है, यह पूर्वविदेहक्षेत्र का है, यह उत्तरविदेहक्षेत्रीय है, यह देवकुरुक्षेत्रीय है, यह उत्तरकुरुक्षेत्रीय है / अथवा यह मागधीय है, मालवीय है, सौराष्ट्रीय है, महाराष्ट्रीय है, कौंकणदेशीय है, यह कोशलदेशीय है आदि नाम क्षेत्रसंयोगनिष्पन्न नाम हैं। विवेचन--सूत्र में क्षेत्रसंयोगनिष्पन्न नाम का स्वरूप स्पष्ट किया है। क्षेत्र को आधारमाध्यम बनाकर और क्षेत्र की मुख्यता से जो नामकरण किया जाता है, वह क्षेत्रसंयोगनिष्पन्न नाम कहलाता है। भरत, ऐरवत, मगध आदि क्षेत्र रूप में प्रसिद्ध हैं। अत: लोकव्यवहार चलाने के लिये जो मागधीय-मगध देश का रहने वाला आदि नाम रख लिए जाते हैं, वे क्षेत्र के संयोग से बनने के कारण क्षेत्रसंयोगनिष्पन्न नाम कहे जाते हैं / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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