________________ सात " // प्रमाणाधिकार निरूपण] [305 [प्र.] भगवन् ! बादर वनस्पतिकायिक जीवों की कितनी स्थिति बताई है ? [उ.] गौतम ! बादर वनस्पतिकायिक जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहुर्त की और उत्कृष्ट स्थिति दस हजार वर्ष की कही है यावत् गौतम ! अपर्याप्तकों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्महुर्त की होती है। किन्तु गौतम ! पर्याप्तक बादर वनस्पतिकायिक जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त न्यून दस हजार वर्ष की जानना चाहिए / विवेचन-उपर्युक्त प्रश्नोत्तरों में पहले तो सामान्य से पृथ्वीकायिक आदि पांच स्थावरों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति का प्रमाण बताया है। किन्तु पृथ्वीकायिक आदि ये पांचों स्थावर सूक्ष्म और बादर के भेद से दो-दो प्रकार के हैं और ये प्रत्येक भेद भी अपर्याप्तक एवं पर्याप्तक इन दो अवस्थाओं वाले होते हैं। उक्त भेदों में से पांचों सूक्ष्म स्थावरों की औधिक, पर्याप्त और अपर्याप्त भेदों तथा बादर अपर्याप्तकों की जघन्य एवं उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहर्त की है, लेकिन पर्याप्त बादरों की उनके अपर्याप्तकाल की स्थिति कम करके शेष स्थिति इस प्रकार जानना चाहिये. नाम ज. स्थि . उ. स्थि . पृथ्वी अन्तर्मुहूर्त बाईस हजार वर्ष ( अन्त० न्यून ) अप तेज तीन दिन-रात वायु तीन हजार वर्ष वनस्पति सूक्ष्म और बादर अपर्याप्तक पृथ्वीकायिक आदि की सामान्य से तथा जघन्य और उत्कृष्ट एवं इन्हीं के पर्याप्तक भेद की जघन्य स्थिति का ठीक-ठीक परिमाण क्षुद्रभव रूप अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। इसका कारण यह है कि अन्तर्मुहूर्त के बहुत भेद हैं और निगोदिया जीव के भव की आयु को क्षुद्रभव कहते हैं। क्योंकि सब भवों की अपेक्षा उसकी स्थिति अति अल्प होती है। इतनी स्थिति मनुष्य तिर्यंचों में संभव होने से मनुष्य और तिर्यंच की जघन्य स्थिति का ठीक-ठीक प्रमाण क्षुद्रभव रूप अन्तर्मुहूर्त जानना चाहिए। विकलेन्द्रियों की स्थिति 386. [1] बेइंदियाणं जाव गो० जह० अंतो० उक्कोसेणं बारस संवच्छराणि / अपज्जत्तय जाव गोतमा ! जह० अंतो० उक्कोसेणं अंतोमुहत्तं / पज्जत्तयाणं जाव गोतमा ! जह० अंतो० उक्कोसेणं बारस संवच्छराणि अंतोमुहत्तूणाई। [386-1 प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [386-1 उ.] गौतम ! उनकी जघन्य स्थिति अन्तर्महुर्त और उत्कृष्ट स्थिति बारह वर्ष की है। अपर्याप्तक द्वीन्द्रिय जीवों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्महूर्त प्रमाण है / दस , " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org