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सदर्शिनी टीका अ० १२४ सू० यादृकृतकर्म तथाविधफलनिरूपणम् १३ रत्नप्रभादिषु 'हुलियं ' शीघ्रम् ' उववज्जति ' उत्पद्यन्ते । कथम्भूतेषु नरकेषु ?इत्याह-' महालएसु' महालयेषु-क्षेत्रस्थितिभ्यां महत्सु 'वयरामयकुड्डुरुंद निस्संधिदारविरहियनिम्मदवभूमितलखरामरिसविसमणिरयघरचारएसु' वज्रमयकुड्य-रुन्द्र-निस्सन्धिद्वारविरहितनिर्दिवभूमितलखराऽमर्शविषमनरकघरचारकेषु चत्रमयकुडयानिवनभित्तयः, रुन्दाः-विस्तीर्णाः, देशी-शब्दोऽयम् , विस्तीर्णवाचकः निस्सन्धयः सन्धिरहिताः, द्वारविरहिताः गमनागमनद्वारवर्जिताः, निर्मादवभूमितलाः कठोरतरभूमिभागाः, तथा खरामर्शाः कठिनस्पर्शाः, विषमा: उच्चा वचाः, नरकगृहाः=नरकवासा एव चारकाः बन्दिगृहाः येषु नरकेषु ते तथा तेषु, 'महोसिण-सयापतत्त-दुग्गन्ध-विस्स-उव्वेयजणगेसु' महोष्णसदाप्रतप्त-दुर्गन्ध ( असुभ कम्मबहुला) प्राणीवधजन्य पापकर्म के भार से अत्यंत दवे हुए होकर ( नरएसु ) रत्नप्रभा आदि पृथियों में (हुलियं) शीघ्र ही ( उववजंति ) उत्पन्न हो जाते है । ये नरक (महालयेसु ) क्षेत्र तथा स्थिति की अपेक्षा महान् हैं तथा ( वयरायमकुड्डुरुदनिस्संधिदारविरहिय निम्मदव भूमितल खरामरिसविसमणिरयघरचारएसु) (निरयघर
चारएसु) नरकावासरूपवन्दिगृह ( वयरामयकुड) वज्रभित्तिवाले हैं। (रुंद ) अत्यंत विस्तृत हैं (निस्संधि ) सन्धि रहित हैं । ( दारविरहिय) गमनागमन के साधनभूत द्वार से हीन और (निम्मद्दव ) मृदुता रहित (खरामरिस ) कठोरतर (विसम ) ऊंचे नीचे भूमिभागवाले हैं। ( महोसिण सयापतत्त-दुग्गंधविस्स-उब्वेयजणगेसु ) ( महोसिण) इनमें सदा उष्णजन्य वेदना रहा करती है । (सयापतत्त) ये निरन्तर तापसे व्याप्त ७१ मनुष्य ममाथी भरीने " असुभ कम्मबहुला " प्राqिधने ४४२६ अत्पन्न थयेस पा५४मना माथी मत्यात मायेस मेव ते । “ नरएसु" २त्न xel मा पृथ्वीमामा “हुलियं " त२त “ उववज्जति” त्पन्न २४ तय छ. ते १२४ " महालयेसु" क्षेत्र मने स्थितिनी अपेक्षा महान छ त। "वयरामय कुडु रुंद निस्संधिदार विरहिय निम्मदव भूमितल खरामरिसविसम णिरयधर चारएसु” “निरयधरचारएसु" नावास३५ मन्यि “वयरामय कुह" नी पोजi छ, “रुंद" सत्यत विस्तृत छ, “ निस्संधि" सन्धि२डित छ. “दारविरहिय" २०१२ ०८५२ भाटेनi द्वाराथी २हित छ, भने "निम्मदव " भृढताथी २हित “खरामरिस" ठौरमा १२ “ विसम" Sin नीय भूमि भाव 2. "महोसिणं सयापतत्त-दुग्गधविस्स-उव्वेयजणगेसु" " महोसिण" तेमा सह। ता य ना २ रे छ, 'सयापतत्त"
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