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सुदर्शिनी टीका अ०४ सू०१० प्रणीतभोजनवर्जन'नामकपञ्चमभावनानिरूपणम्(२९ संयमयात्रार्थमित्यर्थः, ' भवइ' भवति । एवं सति 'धम्मरस ' धर्मस्य विषये, ‘विन्भमो वा ' विभ्रमो धातूपचयेन मनसोऽस्थिरत्वाद् भ्रन्तिश्च न भवति, तथा-धर्मस्य ' भंसगा' भ्रंशना नाशश्च न भवति । एवम् अनेन प्रकारेण 'पणीयाहारविरइसमिइजोगेण ' प्रणीताहारविरतिसमितियोगेन भणीतो य आहारस्तस्माद् या विरतिस्तदूपो यः समितियोगस्तेन भावितोऽन्तरात्मा आरतमना विरतग्रामधर्मों जितेन्द्रियो ब्रह्मचर्यगुप्तश्च भवति ।।मु०१० ॥
उतना ही होना चाहिये। ऐसा होने पर (धम्मस्स विभमो वा भंसणा य न य भवइ ) धर्म के विषय में, धातु के उपचय से मानसिक अस्थिरता होने के कारण जो भ्रान्ति होती है वह नहीं हो सकती है, और न उसके धर्म का ध्वंस (नाश) ही हो सकता है । ( एवं पणीराहारविरइसमिइजोगेण भाविश्वो अंतरप्पा आरयमणा विरयगामधम्मे जिइंदिए बंभचेरगुते भवइ) इस प्रकार प्रणीताहारविरतिरूप समिति के योग से भावित बना हुआ मुनि अपने द्वारा ग्रहीत ब्रह्मचर्य में संलग्न मनवाला बन जाता है और ग्रामधर्म-मैथुन से-विरत हो जाती है । इस प्रकार अपनी इन्द्रियों को जीत कर वह महात्मा नवविध ब्रह्मचर्य की गुतिसे अथवा दशविध ब्रह्मचर्यके समाधिस्थानसे युक्त बन जाता है।
भावार्थ-इस सूत्रद्वारा सूत्रकार ने ब्रह्मचर्य व्रत की पांचवीं भावना प्रकट की है । इस भावना का नाम प्रणीताहार वर्जन है। ब्रह्मचर्य व्रत धारण करने वाले साधु को ऐसा भोजन नहीं करना चाहिये जो छ तर प्रभाभा तमा२ . अथत “ धम्मरस विभमो वा भंसणा य न य भवइ" मना विषयमां, घातुन संग्रह थवाने. કારણે માનસિક અસ્થિરતા થવાથી જે બ્રાન્તિ થાય છે, તે થઈ શક્તી નથી, "एवं पणीयाहारविरइसमिइजोगेण भाविओ अंतरप्पा आरयमणो विरयगोमधम्मे जिई दिए बभचेरगुत्ते भवइ ' 247 रे uglist२ वि२ति३५ समितिना योगया ભાવિત થયેલ મુનિ પિતે ગ્રહણ કરેલ બ્રહ્મચર્ય વ્રતમાં આસક્ત મનવાળે થઈ જાય છે અને ગામધર્મ-મૈથુનથી વિરક્ત થઈ જાય છે. આ રીતે પિતાની ઈન્દ્રિયને જીતીને તે મહાત્મા નવવિધ બ્રહ્મચર્યની ગુપ્તિથી અથવા દશવિધ બ્રહ્મચર્યના સમાધિસ્થાનથી યુક્ત બની જાય છે.
ભાવાર્થ-આ સૂત્રધાર સૂત્રકારો બ્રહ્મચર્યવ્રતથી પાંચમી ભાવનાનું સ્પષ્ટીકરણ કર્યું છે. આ ભાવનાનું નામ " પ્રણીતાહાર વર્જન ” છે. બ્રહ્મચર્યવ્રત ધારણ કરનાર સાધુએ એવું ભોજન લેવું ન જોઈએ કે જે કામોદ્દીપક રસ યુક્ત
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