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सुदर्शिनी टीका अ०५ सू० ५ संयताचारपालकस्य स्थितिनिरूपणम् ८९ ' चाई ' त्यागी सर्वसङ्गत्यागात् , 'लज्जू ' लज्जावान संयमी 'धण्णो' धन्यः - सम्यगज्ञान सम्यग्दर्शनसम्यक्चारित्ररूपधनलाभयोग्यत्वात् , ' तबस्सी' तपस्वी प्रशस्ततपोयुक्तत्वात् , ' खंतिक्खमे ' शान्तिक्षमः लब्ध्यादि सामर्थ्य सत्यपि क्षान्त्या-क्षमागुणेन क्षमते-सहते यः स तथोक्तः, तथा-'जिईदिए ' जितेन्द्रियः, ' सोहिए 'शोधितः शुद्धः - क्षालितमिथ्यात्वादिकर्ममलत्वात् , 'अणियाणे ' अनिदानः-निदानवर्जितः, 'अबहिलेस्से ' अबहिर्लेश्यः'अ' अविद्यमाना बहिः संयमाद् बहिः लेश्या अन्तः करणवृत्तिः, यस्य सोऽबहिर्लेश्यः, संयमान्तःकरण इत्यर्थः, तथा 'अममे' अममः-ममत्ववर्जितः, 'अकिं(चाई) सर्व संग का परित्याग कर देने से वह त्यागी कहलाने लगता है । ( लज्जू) लज्जावान् बन जाता है-वह सदा इस बात का ध्यान रखता है कि कहीं ऐसी प्रवृत्ति मुझसे न बन जावे जो संयम मार्ग के विरुद्ध होकर मुझे लजाने वाली हो। ऐसा वह संयमी (धण्णो ) सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन और सम्यक् चारित्र रूप धन लाभ के योग्य हो जाने के कारण धन्य माना जाता है। तथा (तवस्सी) प्रशस्ततपों को आचरित करने वाला होने से तपस्वी कहलाने लगता है, तथा (खंतिक्खमे ) लन्धि आदि रूप सामर्थ्यसंपन्न होने पर भी दद क्षमागुण से सब कुछ सहने वाला स्वभाव बन जाता है। इस तरह (जिइंदिए ) जितेन्द्रिय, ( सुद्ध) मित्थात्वादि कर्ममलक्षालित होने से शुद्ध (अणियाणे ) निदान से रहित, ( अहिलेस्सो) अबहिर्लेश्यसंयमयुक्त अन्तः करण वाला (अममे ) ममता से रहित ( अकिंचणे) थाय छे. तan " चाई" सब सपना त्या ४२ पाथी ते त्यागी ४ापा सारे छ. " लज्जू" ते महथी तथा महारथी हारीन । स२॥ 25 लय છે અથવા લજજાવાન બની જાય છે. તે હંમેશા તે વાતની કાળજી રાખે છે કે મારાથી કદાચ એવી પ્રવૃત્તિ થઈ ન જાય કે જે સંયમ માર્ગની વિરૂદ્ધ
पाने १२ये भारे Anj ५९. मे ते सयभी ." धण्णो" सभ्यशान, સમ્યફ દર્શન, અને સમ્યફ ચારિત્રરૂપ ધનલાભને યોગ્ય થઈ જવાને કારણે धन्य भनाय छे. तथा " तवस्सी " प्रशस्त तपो ४२ना२ डापाथी तपस्वी ४. पापा सागे छ, तथा " खंतिक्खमे" DिE माहि३५ समय युटत डापा છતાં પણ તે ક્ષમાગુણથી બધું સહન કરવાની વૃત્તિવાળો થઈ જાય છે. આ शत “जिइदिए " तेन्द्रिय, " सुद्ध” भियत्वाभिमान। क्षय थाने ४।२२) शुद्ध, “ अणियाणे " निहानथी २डित, “ अवहिलेस्सो" मडिवेश्यसयभी मत:४२५पाणी “ अममे" ममताथी २डित, “अकिंचणे" अध्यिन
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