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सुदर्शिनी टीका अ० सू०७ 'निस्पृहता' नामकप्रथमभावना निरूपणम् भवइ अंतरप्पा मणुष्णामणुण्ण सुब्भिदुब्भिरागदोसे पणिहियप्पा साहू मणवयणकायगुत्ते संबुडे पणिहिइंदिए चरेज धम्मं ॥ सू० ७ ॥
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'टीका- 'पढ' प्रथमां निःस्पृहत्वाभिधेयां भावनामाह-'सोईदिएण' श्रोत्रेन्द्रि येण = कर्णेन 'सोचा ' श्रुत्वा 'सदाई' शब्दान् कीदृशान् ? ' मणुष्णभदगाई ' मनोज्ञभद्रकान् - मनोज्ञा: मनोहरा अतएव भद्रकाः कर्णेन्द्रिय सुखजनकास्तान् 'किं ते' काँस्तान = कथं भूतांस्तान् ? इत्याह-' चरमुरयमुई गपणवदहुरकच्छभी वीणविपंचिवलबद्धीकघोसणं दिसूसर परिवादिणि वंसतूणगपव्यतीतलतालतुडियनिग्घोस
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अब सूत्रकार इस व्रत की पाँच भावनाओं को प्रकट करने के अभिप्राय से सर्व प्रथम उसकी प्रथम भावना को कहते हैं--' पढमं ' इत्यादि ।
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टीकार्थ - ( पढमं ) इस व्रत की पहिली भावना का नाम निस्पृहता है, वह भावना इस प्रकार से है - ( सोइंदिएण ) श्रोत्रेन्द्रिय से ( मणुभद्दगाइ ) मनोज्ञ अतएव मधुर ऐसे (सदाइ ) शब्दों को ( सोचा ) सुन करके साधु का कर्तव्य है कि वह कभी भी उनमें आसक्ति न करे रागभाव से उनमें न बँधे, उनमें वह गृद्धिभाव न करे और मोहित न हो तथा जो द्वेष पैदा करने वाले हों उनमें वह रुष्ठ न हो । इसी विषय को सूत्रकार इन नीचे की पट्टियों द्वारा स्पष्ट करते हैं - (किं ते) वे कौन २ से हैं- इस प्रकार की शंका करने वाले के प्रति वे कहते हैं कि सुनो वे इस प्रकार से हैं (वरमुरयमुयंगपणवददुरकच्छभी वीण विधि - बल्ल-बद्धीक-सुबोस- मंदि-सर- परिवादिनिवसतृणक
હવે સૂત્રકાર આ વ્રતની પાંચ ભાવનાઓ પ્રગટ કરવાના ઉદ્દેશથી સૌથી पडेसां तेनी प्रथम लावना विषे उडे छे-" पढमं " इत्याह-
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टीडार्थ - "पढमं" या व्रतनी पडेली लावनानुं नाम निस्पृहता छे, ते लावना मा प्रभानु छे–“सोइंदिएण " श्रोत्रेन्द्रियथी, "मणुण्ण महगाई ” भनोज्ञ होवाथी भधुर लागे छे" सदाइ " शो " सोच्चा " सांलजीने तेमां भासात थर्पु જોઈ એ નહી એ સાધુનું કર્તવ્ય છે, તેમાં રાગભાવ ન રાખે, તેમનામાં તેણે બુદ્ધિભાવ કરવા જોઇએ નહી', માહિત થવું જોઇએ નહી. એ જ વિષયને सूत्रार नियेनी सीटीओ द्वारा स्पष्ट उरे छे - " किं ते " ते शब्दों या या हुया छे, थे अारनी श इरनार ते हे छे सालो ते या प्रमाणे छे- "वर - मुख्य-मुग-पाणत्र दरकच्छभी वीण - विपंचिबद्धीसक-सुघोस--दिसूसर