Book Title: Prashnavyakaran Sutram
Author(s): Kanhaiyalalji Maharaj
Publisher: Jain Shastroddhar Samiti

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Page 948
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका ०५ ०७ 'परिग्रहविरमण' नामक प्रथम भावनानिरूपणम् ८९९ 1 } " परसमक्षं च निन्दा न कर्तव्या, ' न छिंदियव्वं ' न छेत्तव्यम् =अमनोज्ञ शब्दकद्रव्यस्य छेदो न कार्यः, तथा-' न भिदियव्वं न भेतव्यम् तस्यैव न भेदः कर्त्तव्यः, ' न वहेयव्वं ' न हन्तव्यम् = तस्यानिष्ट शब्दकर्तुर्वधो न कर्तव्यः, तथा'दुर्गुछावत्तियावि' जुगुप्सावृत्तिकाऽपि शब्दविषये स्वस्य परस्य वा घृणावृत्तिरपि, 'उप्पाएउं' उत्पादयितुं ' न लब्भा' न लभ्या - नोचिता, यथा-स्वस्य परस्य वाहृदि शब्दविषया जुगुप्सा प्रादुर्भवेन्न तथा कर्तव्यमिति भावः । अथ प्रथमभावनानिगमनार्थमाह – एवम् उक्तरीत्या 'सोईदियभावणाभाविओ' श्रोत्रेन्द्रियभावनाभावितः श्रोत्रेन्द्रियं निरोद्धव्यम्, अन्यथा - महदनर्थसंभवः इत्येवं रूपया भावनया भाक्तिः, ' अंतरप्पा ' अन्तरात्मा - जीवो ' भवइ' भवति, ततश्च 'मणुणामण्ण सुब्भिदुब्भिरागदोसे ' मनोज्ञामनोज्ञसुरभिदुरभिरागद्वेषो मनोज्ञामनोज्ञा ( न हीलियव्वं ) उनकी अवज्ञा न करे, ( न निंदिपव्वं ) निंदा न करे ( न खिसि ) उन पर खिसियावे नहीं - दूसरों के समक्ष उनकी निंदा न करे ( न छिंदियव्वं ) जो अमनोज्ञ शब्दों करने वाला विणादि द्रव्य है उसका वह न छेदन करे और ( न भिदियव्वं ) न भेदन करे ( न वयववं ) अनिष्ट शब्द करने वाले मनुष्य आदि का वध न करे । और ( न दुर्गुछा वतिया विलभा उप्पाए उं) न उन अनिष्ट शब्दों के विषय में अपने एवं पर के घृणावृत्ति उत्पन्न करने की कोशिश ही करे । अब सूत्रकार इस प्रथम भावना का उपसंहार करने के लिये कहते हैं - ( एवं ) इस प्रकार ( सोइंदिय भावणाभाविओ ) श्रोत्रेन्द्रिय की भावना से भावित हुआ 'मुझे श्रोत्रेन्द्रिय का निरोध करना चाहिये नहीं तो बड़ा भारी अनर्थ होगा ' इस प्रकार की विचा रधारा से वासित हुआ (अंतरप्पा ) अन्तरात्मा मुनि ( मणुण्णामनुण्णसुन्दुभि रामदोसे पणिहियप्पा ) मनोज्ञ रूप शुभ और अमनोज्ञ 1 खिंसियव्वं " तेना पर मिसियामे नहीं-मील पासे तेनी निहा उरवी लेखे नहीं, “न छिद्रियब्वं " अमनोज्ञ भवान डरनार वीणादि ने वस्तु होय तेनुं तेन न उरे, “ न सिंदियवं " तेनुं लेहन न पुरे "न वहेयव्वं " अनिष्ट शब्द १२नार भनुष्य महिना ते वध न उरे, भने “ न दुगुंछावत्तिया बि लब्भा उप्पाएउ” ते अनिष्ट शब्द अत्ये पोते तृष्णा न पुरे ने जीओमां तुष्या. વૃત્તિ પેદા કરવાની કોશિશ ન કરે. હવે સૂત્રકાર આ પહેલી ભાવનાના ઉપसहारा छे" एवं या रीते " सोईंदियभावणाभाविओ " श्रोत्रेન્દ્રિયની ભાવનાથી ભાવિત થયેલ “ મારે શ્રોતેન્દ્રિય પર અકૂશ રાખવા જોઇએ નહી' તે! ઘણા ભારે અન થશે ” એ પ્રકારની વિચારધારાથી પ્રભાવિત थयेव “ अंतरप्पा ” अन्तरात्मा - सुनि “ मणुष्णा मणुष्णसुमिदुब्भिरागदोसे पणिहि "" For Private And Personal Use Only

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