Book Title: Prashnavyakaran Sutram
Author(s): Kanhaiyalalji Maharaj
Publisher: Jain Shastroddhar Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जेनामार्य अनवसेदिलाकर-जय-यासीलालजी महाराजलिचितया प्रदक्षिन्याख्यया व्याख्यया समस्कृतं हिन्दीगुर्जर भाषानुवादसहितम्॥ मनव्याकरण-सूत्रम् ॥ PRASHNAVYAKARANA SUTRAM नियोबा संस्कृत-पाकृतज्ञ-जैनागमनिष्णात-मिपन्याख्यानि पण्डितमुनि श्रीकन्हैयालालजी महाराजा मदारक पालि(मारवाडोनिवासी-अष्टिनः श्रीमाः मुकनचन्दजी बालिया महाशय तथा अ. सो. तदर्मगली सुकनवाई गदत्त द्रव्यसाहायेन अ० मा०० स्वा० जेनसास्रोबारसमितिममुखा अधि-धीशान्तिलाल-मालदासमाई-महोदयः अपना भाति पशि और संपलू विसंबर 2014 सिदीयम For Private And Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ooooh जैनाचार्य - जैनधर्म दिवाकर - पूज्यश्री- घासीलालजी - महाराज विरचितया सुदर्शिन्याख्यया व्याख्यया समलङ्कृतं हिन्दी - गुर्जर भाषाऽनुवादसहितम् ॥ प्रश्न व्याकरण-सूत्रम् ॥ PRASHNAVYAKARANA SUTRAM नियोजक : संस्कृत - प्राकृतज्ञ - जैनागमनिष्णात- प्रियव्याख्यानिपण्डितमुनि -श्रीकन्हैयालालजी महाराजः प्रथमा - आवृति प्रति १००० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रकाशकः पालि (मरवाड) निवासि - घनः श्रीमतः मुकनचन्दजी बालिया महाशय तथा अ. सौ. तद्धर्मपत्नी सुकनबाई - प्रदत्त द्रव्यसाहाय्येन अ० भा० श्वे० स्था० जैनशास्त्रोद्धार समितिप्रमुखः श्रेष्ठि- श्रीशान्तिलाल - मङ्गलदास भाई-महोदयः मु• राजकोट बीर संवत् २४८८ विक्रम संवत् २०१८ मूल्यम् - रू० २०-0-0 For Private And Personal Use Only ईसवीसन १९६२ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir મળવાનું ઠેકાણું: થી અ, ભા. ૧, સ્થાનકવાસી ન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ, કે. ગરેડિયા કૂવા રેડ, ગ્રીન લજ પાસે, રાજકેટ, (સૌરાષ્ટ્ર). Published by : Shri Akhil Bharat S. 6. Jain Shastroddhara Samiti, Garedia Kuva Road,RAJKOT, (Saurashtra), W. Ry, India, પ્રથમ આવૃત્તિ પ્રત ૧૦૦૦ વીર સંવત્ : ૨૪૮૮ વિક્રમ સંવત : ૨૦૧૮ ઈસવી સન : ૧૯૬૨ મુદ્રકઃ મણિલાલ છાશનલાલ શાહ નવપ્રભાત પ્રિન્ટિંગ પ્રેસ, દીકાંટા રેડ અમદાવાદ For Private And Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir G प्रश्नव्याकरणसूत्रकी विषयानुक्रमणिका अनुक्रमांक विषय पृष्ठांक १ मङ्गलाचरण २ अवतरणिका ३-१३ प्रथम अध्ययन-प्रथम भाग ३ आस्रव और संवर के लक्षणों का निरूपण १३-१८ ४ पहला अधर्मद्वार का निरूपण १९-२६ ५ " मृषावादरूप" दूसरा अधर्मद्वार का निरूपण २७-३५ ६ " यथाकृत् " नामके तीसरा अधर्मद्वार का निरूपण ७ स्थलचर चतुष्पद प्राणीयों का निरूपण ४०-४२ ८ " उरः परिसर्प" के भेदों का निरूपण ४३-४४ ९ भुजपरिसर्प के भेदों का निरूपण ४५-१६ १० खेचर जीवों का निरूपण ४७-५० ११ प्राणियों के वधके प्रकार का निरूपण ४१-५३ १२ चतुरिद्रिय जीवोंकी हिंसा करने वालोंके प्रयोजनका निरूपण ५४-६२ १३ पृथिवीकाय जीवों के हिंसा के कारण का निरूपण ६३-६७ १४ अपकाय जीवों की हिंसा करने के प्रयोजन का निरूपण ६८१५ 'वायुकाय ' जीवों की हिंसा करनेके प्रयोजनका निरूपण६ ९-७० १६ 'वनस्पतिकाय' जीवोंकी हिंसा करने के प्रयोजनका निरूपण ७०-७४ स्थावरादि जीवों को कैसे २ भावों से युक्त होकर हिंसक जन मारते हैं उनका निरूपण ७४-८४ १८ जातिनिर्देशपूर्वक मंदबुद्धि वाले लोक कौन २ जीवों को मारते है उनका निरूपण ८५-८६ १९ कौन २ जीव पाप करते है उनका निरूपण २० जैसे २ कर्म करते है वैसा ही फल प्राप्त होनेका निरूपण ९१-९६ २१ नरक में उत्पत्ति के अनन्तर वहां के दुःखानुभवका निरूपण ९७-१०४ २२ पापि जीव नरकों में कैसी र वेदना को कितने काल भोगते है उनका निरूपण १०५-१०६ For Private And Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २३ नारकीय जीव क्या २ कहते हैं वह वर्णन १०६-१०८ २४ परमाधार्मिक नारकीय जीवों के प्रति क्यार करते है उनका कथन १०९-११० २५ वेदनाओं से पीडित नारक जीवों के आनंद का निरूपण १११-१.१७ २६ परमाधार्मिकों के द्वारा की गई यातनाओं के प्रकार का निरूपण ११७-११८ २७ यातना के विषय में आयुधों (शस्त्रों) के प्रकारों को निरूपण ११९-१२१ २८ परस्पर में वेदना को उत्पन्न करते हुए नारकी यों कि दशा का वर्णन १२१-१२७ २९ नारक जीवों के पश्चात्ताप का निरूपण १२८-१३० ३० तिर्यग्गति जीवो के दुःखों का निरूपण १३१-१३६ ३१ चतुरिन्द्रिय जीवों के दुःख का निरूपण १३७-१३८ ३२ त्रिन्द्रिय जीवों के दुःख का निरूपण १३८-१३९ ३३ द्विन्द्रिय जीवों के दुःख का वर्णन ३४ एकेन्द्रिय जीव के दुःख का वर्णन . १४१-१४४ ३५ दुःखों के प्रकार का वर्णन १४५-१५१ ३६ मनुष्यभव में दुःखों के प्रकार का निरूपण १५२-१६३ दूसरा अध्ययन ३७ अलीकवचन का निरूपण १६४-१६८ ३८ अलीकवचन के नाम का निरूपण १६८-१७४ ३९ जिस भाव से अलीक वचन कहा जाता है उसका निरूपण १७४-१७९ ४० नास्तिकवादियों के मत का निरूपण . १८०-२०५ ४१ अन्य मनुष्यों के मृषाभाषण का निरूपण २०६-२१४ ४२ मृषावादियों के जीव घातक वचन का निरूपण २१५-२४१ ४३. मृषावादियों को नरक प्राप्तिरूप फलमाप्ति का वर्णन २४२-२५२ ४४. अलीक वचन का फलितार्थ निरूपण २५३-२५६ .... .. तीसरा अध्ययन ४५ अदत्तादान के स्वरूप का निरूपण २५७-२६१ For Private And Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४६ अदत्तादान के तीस नामों का निरूपण २६४-२६९ ४७ पञ्चम अन्तरगत तस्करों (चोरों) का वर्णन २७०-२७५ ४८ परधनलुब्ध राजाओं के स्वरूप का निरूपण २७६-२८२ ४९ परधन में लुब्द्ध राजाओं के संग्राम का वर्णन २८३-२९६ ५० अदत्तादान (चोरी) के प्रकार का निरूपण २९७-३०१ ५१ सागर के स्वरूप का निरूपण ३०२-३०६ ५२ तस्कर के कार्य का निरूपण ३०७-३१७ ५३ अदत्तादान के फल का निरूपण ३१७-३२२ ५४ चोर लोक क्या फल पाते है उनका निरूपण ३२२-३३० ५५ अदत्तग्राही चोर कैसे होकर कैसे फल को पाते है उनका निरूपण ५६ अदत्ताग्राही चोर जिस फल को पाते है उसका निरूपण ३४७-३५४ ५७ अदत्तग्राही चोर की परलोक में कौन गति होती है उनका निरूपण ३५४-३६० ५८ जीव ज्ञानावरण आदि अष्टविध कर्मों से बंधदशाको प्राप्तकर संसारसागर में रहते हैं इस प्रकार का संसारगागर के ___ स्वरूप का निरूपण ३६०-३७७ ५९ किस प्रकार के अदत्ताग्राही चोरों को किस प्रकार का फल मिलते है उनका निरूपण ३७८-३८६ ६० तीसरे अध्ययन का उपसंहार ३८७-३९० चोथा अध्ययन ६१ अब्रह्म के स्वरूप का निरूपण ३९१-३९५ ६२ अब्रह्म के नामों का और उसके लक्षणों का निरूपण ३९५-४०० ६३ मोह से मोहित बुद्धिवालों से अब्रह्म के सेवन के प्रकारों का निरूपण ४००-४०३ ६४ चक्रवर्त्यादिकों का और उनके लक्षणों का वर्णन ४०३-४१९ ६५ बलदेव और वासुदेव के स्वरूप का निरूपण ४१९-४४३ ६६ अब्रह्म सेवी कौन होते है ? उनका निरूपण ४४३-४४१ For Private And Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६७ युगलिकों के स्वरूप का निरूपण ४४५-४६७ ६८ युगलिनीयों के स्वरूप का निरूपण ४६७-४८५ ६९ चौथे अन्तार का निरूपण ४८५-४९० ७० चोथा अध्ययन का उपसंहार ४९४-४९८ पांचया अध्ययन ७१ परिग्रह के स्वरूप का निरूपण ४९९-५०६ ७२ परिग्रह के तीस नामों का निरूपण ५०७-५१२ ७३ जिस प्रकार से जो जीव परिग्रह करते हैं उनका निरूपण ५१२-५२७ ७४ मनुष्य के परिग्रह का निरूपण . ५२८-५३९ ७५ परिग्रह से जीव को किस फल की प्राप्ति होती हैं उनका निरूपण ५४०-५४६ ७६ पांचवा अध्ययन का उपसंहार ५४७-५५० दूसरा भाग-पहला अध्ययन ७७ पांचसंवर द्वारों के नाम और उनके लक्षणों का निरूपण ५५१-५५८ ७८ प्रथमसंबरद्वार का निरूपण ५५९-५६९ ७९ अहिंसा के महात्म्य का निरूपण ५७०-५७२ ८० अहिंसा धारण करने वाले महापुरुष के स्वरूप का निरूपण ५७३-६०१ ८१ अहिंसा को पालन करने को उद्यत होने वालों के कर्तव्य . का निरूपण ६०२-६१६ ८२ अहिंसावत की 'ईयांसमिति' नाम की प्रथम भावना का निरूपण ६१७-६२२ ८३ 'मनोगुप्ति' नाम की दूसरी भावना का निरूपण ६२३-६२५ ८४ 'वचनसमिति' नाम की तीसरी भावनाके स्वरूप का निरूपण ६२६-६२८ ८५ 'एषणासमिति' नामकी चौथी भावना के स्वरूप का निरूपण ६२९-६३९ ८६ ' निक्षेप ' नामकी पांचवी भावना का निरूपण ६४०-६४२ ८७ प्रथम अध्ययन का उपसंहार ६४३-६४८ दूसरा अध्ययन ८८ सत्य के स्वरूप का निरूपण ६४९-६८४ ८९ अनावचिन्त्य समिति' नाम की प्रथम भावना के For Private And Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्वरूप का निरूपण ६८५-६८८ ९० 'क्रोधनिग्रहरूप' दूसरी भावना का निरूपण ६८९-६९२ ९१ 'कोभनिग्रहरूप ' तीसरी भावना का निरूपण ६९३-६९६ ९२ 'धैर्य' नाम की चौथी भावना के स्वरूप का निरूपण ६९७-७०० ९३ पांचवी ' मौन' भावना के स्वरूप का निरूपण ७००-७०४ ९४ अध्ययन का उपसंहार ७०५-७१० तीसरा अध्ययन ९५ अदत्तदानविरमण के स्वरूप का निरूपण ७११-७२१ ०६ कैसा मुनि अदत्तादानादि व्रत का आराधन नहीं - करते उसका निरूपण ७२२-७२७ ९७ कैसा मुनि इस व्रत का पालन कर सकते है उसका निरूपण ७२७-७४० १८ 'विविक्तवसतिवास' नाम की प्रथम भावना का निरूपण ७४१-७४७ ९१ 'अनुज्ञातसंस्तारक' नामकी दूसरी भावना का निरूपण ७४८-भ५१ १०१ शय्यापरिकर्म वर्जन' रूप तीसरी भावना का निरूपण ७५२-७५६ १०१ ' अनुज्ञातभक्त ' नामक चौथी भावना का निरूपण ७५७-७६० १०२ 'विनय ' नामकी पांची भावना का निरूपण ७६१-७६४ १०३ अध्ययन का उपसंहार ७६५-७७० चौथा अध्ययन १०४ ब्रह्मचर्यके स्वरूप का निरूपण ७७१-७८८ १०५ ब्रह्मचर्य आराधन का फल ७८९-७९५ १०६ ब्रह्मचारो को आचरणीय और अनाचणीय आदिका निरूपण ७९६-८०३ १०७ ‘असंसक्त वासवसति' नामकी प्रथम भावना का निरूपण ८०४-८०८ १०८ ‘स्वीकथा विरति ' नामकी दूसरी भावना का निरूपण ८०९-८१५ १०९ ' स्त्रीरूप निरीक्षण ' वर्जन नामकी तीसरी भावना का निरूपण ८१६-८१८ ११० 'पूरत पूर्वक्रीडितादि' विरति नामकी चौथी भावना का निरूपण ८१९-८२५ १११ 'मणीतभोजनवर्जन' नामकी पांचवी भावना का निरूपण ८२६-८२९ ११२ चतुर्थ अध्ययन का उपसंहार For Private And Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पांचवा अध्ययन ११३ परिग्रहविरमण का निरूपण ८३५-८४५ ११४ सस्थावर विषयक अपरिग्रह का वर्णन ८४६-८५२ ११५ अकल्पनीय वस्तु का निरूपण ८५३-८६० ११६ कल्पनीय अशनादिक का निरूपण ८६०-८७० ११७ संयताचार पालक की स्थिति का निरूपण ८७१-८८९ ११८ 'निस्पृहा ' नामकी पहली भावना का निरूपण ८९०-९०० ११९ चक्षुरिन्द्रिय संवर' नामकी दूसरी भावना का निरूपण ९०२-९१५ १२० घ्राणेन्द्रियसंवर' नामकी तीसरी भावना का निरूपण ९१६-९२२ १२१ जिहवेन्द्रियसंवर' नामकी चौथी भावना का निरूपण ९२३-९२९ १२२ ' स्पर्शेन्द्रियसंवर' नामकी पांचवी भावना का निरूपण ९३०-९४१ १२३ अध्ययन का उपसंहार ९४२-९४८ १२४ दशमाङ्ग में श्रुतस्कंधादि का निरूपण ९४९१२५ शास्त्रप्रशस्ति ९५०-९५३ -:समाप्तः For Private And Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir રૂા. પ૦૦૧) આપનાર આદ્ય મુરબ્બીશ્રી સ્વ. શેઠ મુકુન્દચંદજી બાલીયા (પાલીવાળા) અમદાવાદ, For Private And Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir શેઠ શામજી વેલજી વીરાણી રાજકેટ, શેઠ રામજી શામજી વીરાણી રાજકોટ શેઠ મીથીલાલજી અને જેવંતરાજજી લુણીયા અમદાવાદ, For Private And Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीमान सेठसाहेब श्री मुकनचन्दजी बालियाजीका संक्षेपमें जीवनचरित्र श्रीमान् सेठ साहब श्री मुकनचन्दजी साहब पाली ( मारवाड़ ) के निवासी थे। आपका शुभ जन्म संवत् १९४० फाल्गुन कृष्ण पक्षक रविवारको हुआ था।आपका पवित्र वंश सदा धर्मशील, विद्याप्रेमी और उदारचरित रहा है । आपके परम पूज्य पितामह श्रीमान् सेठ सा. श्रीपूनमचन्दजी साहब बालिया थे। सेठ सा. श्रीपूनमचन्दजी साहब वालिया के दो पुत्र थे, एक श्री राजारामजी साहब और दूसरे श्रीअगरचन्दजी साहय । आगे चलकर श्रीमान सेठसा. श्री राजारामजी सा.के श्री ताराचन्दजी साहब और श्रीमुकनचन्दजो साहब करके दो पुत्र थे, किंतु अगरचन्दजी सा. के पुत्र नहीं था। इसी लिए श्रीमान् अगरचन्दजीसाहयने अपने भाई के ही पुत्र श्रीमुकनचन्दजी सोहबको दत्तक (गोद) ले लिया। श्रीमान सेठ साहब श्री मुकनचन्दजी शुरु से ही बड़े होनहार, धर्मशील और उदार थे। सौभाग्य से आपकी धर्मपत्नी श्रीमती श्री सुगनकुंवर घाईजी भी धर्मशीलता एवं उदार व्यवहार में आपके ही समान थीं श्रीमती श्री मुगनकुंवर घाइजी की धर्मश्रद्धा का सु प्रभाव आज भी आपके कुटुंब पर अच्छी तरह दिखाई देता है।आप दोनों ने धर्म के दीपक से न केवल अपने परिवार को ही प्रकाशित किया है, किंतु जीवन में अपने संपर्क में आनेवाले सभी धर्म प्रेमी जिज्ञासुओं को धर्म श्रद्धालु बना ने का पवित्र कार्य किया है। यों सेठ साहब श्री मुकनचन्दजी सा. बड़ी सरल प्रकृति के सज्जन थे। व्यापार आपका समुद्रपार अनेक देशों में फैला हुआ था । आपकी जमींदारी भी खूब थी ।आपके रहन-सहन और व्यवहार से सदा सादगी टपकती थी । जितने आप For Private And Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उदार-चरित थे, उतने ही आप शास्त्रों के ज्ञाता भी थे। खास करके धर्मशास्त्रमें आपका अच्छा प्रवेश था। ज्योतिषशास्त्र के भी आप मर्मज्ञ थे कहने का तात्पर्य यह है कि सोने में सुगंध की तरह आप पर भगवती, सरस्वती और देवी लक्ष्मी दोनों का समान रूपसे आशीर्वाद का हाथ रहा । पाली के आबालवृद्ध सभी आपके गुणों को आज भी भूले नहीं है। आपकी तरफ से पालीमें कन्याशाला, हाईस्कुल आदि शैक्षणिक संस्थाएँ चल रही हैं, जिनमें प्रति वर्ष कई विद्यार्थी विद्यालाभ प्राप्त कर रहे हैं । गरीव, अपंग और अनाथों के लिए भी आपकी तरफ से सदाव्रत अनाथालय और प्याउएं चल रही हैं । आयंबिल खाता भी आपकी तरफ से पाली में चल रहा है आपका स्वर्गवास संवत् २०१८ कार्तिक शुक्ल द्वितीया शुक्रवारको हुआ। श्रीमात् सेठ श्री मुकुनचन्दजी सा. के श्री हस्तिमलजी श्री मोहनराज जी श्री माणेकलालजी श्री मदनलालजी ये चार पुत्र और एक पुत्री श्री वसंतकुंवर मौजूद है, एवं सबसे बडे पुत्र श्री सोहनराजजी सा. एवं सबसे छोटी पुत्री श्री सजनकुंवरबाई स्वर्गस्थ हुए है। सेठ साहब के पांच पौत्र हैं, तीन पौत्रियां हैं और एक प्रपौत्र है इस तरह सेठ माहयने अपने सामने चार पीढियों को फलते फुलते देखा है। पूज्य आचार्य श्री जैनधर्मदिवाकर आगमोद्धारक श्री महाराज साहब श्रीघासीलालजीकी देखरेखमें वर्षों से कई शास्त्र ग्रन्थोंका लेखन, प्रकाशन और संपादन होरहा है। समस्त जैनागमोंका आप भारतकी अद्यतन भाषा में संस्कृत-प्राकृत हिन्दी गुजरातीमें-सरल व्याख्याएं करके जैन धर्मकी अभिवृद्धि कर रहे हैं। श्रीमान सेठसाहब के सुपुत्रोंने अपने पिताश्री के पुण्य स्मरणार्थ शास्त्र प्रकाशनमें उदार सहायता की है । । श्रीमान् सेठ सा. की पाली-जोधपुर-व्यावर-अहमदावाद-मुंबई में अनेक पेढ़ियां हैं । इश्वर कृपा से घालियाजी के परिवार सुखसंपत्ति का सदा अनुभव करते रहे। For Private And Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir આમુરબ્બીશ્રીઓ (સ્વ.) શેઠ હરખચંદ કાલીદાસ વારીઆ ભાણવડ, શ્રી કોઠારી હરગોવિંદભાઈ જેચંદ રાજકેટ, શેઠ શ્રી શાંતિલાલ મંગળદાસભાઈ અમદાવાદ, (સ્વ.) શેઠ શ્રી ધારશીભાઈ જીવણભાઈ સોલાપુર, (સ્વ.) શેઠ આત્મારામ માણેકલાલ અમદાવાદ, For Private And Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir આમુરબ્બીશ્રીઓ (સ્વ) શેઠ શ્રી દિનેશભાઈ કાન્તિલાલ શાહ અમદાવાદ, (સ્વ. શ્રી છગનલાલ શામળદાસ ભાવસાર અમદાવાદ, શ્રી વિનોદકુમાર વીરાણી-રાજકોટ, (દીક્ષા લીધાં પહેલાં શાસ્ત્રાભ્યાસ કરતા) શેઠ શ્રી જેસિંગભાઈ પિચલાલભાઈ અમદાવાદ, (સ્વ) શેઠ રંગજીભાઈ મોહનલાલ શાહું અમદાવાદ, For Private And Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सेठ श्री पूनमचन्दजी बालिया ___ श्री राजारामजी श्री अगरचन्दजी श्री ताराचन्द जी श्री मुकनचन्दजी अपने भाईके लड़के श्री मुकनचन्दजी को गोद लिया श्री सोहनराजजी | श्री हस्तीमलजी श्री वसन्तकुंवरबाई श्री मोहनराजजी श्री माणेकलालजी श्री मदनलालजी (१) पांच पौत्र श्री सज्जनकुंवरबाई (२) तिन पौत्रीयां (३) एक प्रपौत्र For Private And Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org For Private And Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 带禁带带带带带带染染带染染 શ્રી અખિલ ભારત વેતામ્બર સ્થાનક્વાસી જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ. ગરેડીયાકુવા રેડ-ગ્રીન લેજ પાસે, રાજકોટ, 染带染带染带染染带染带染法染带带带带带带带带带 દાતાઓની નામાવલી 张带带带带带带带带来挑染带染带染染料张张张染 શરૂઆત તા ૧૮-૧૦ ૪૪થી તા. ૩૧-૧૨-૬૧ સુધીમાં દાખલ થયેલ મેમ્બરનાં મુબારક નામે. લાઈફ મેમ્બરનું ગામવાર કકાવારી સિસ્ટ. (નાની ભેટની રકમ આપનારનું, તથા રૂ. ૨૫૦થી ઓછી રકમ ભરનારનું નામ આ યાદીમાં સામેલ કરેલ નથી) 沿路路路路路林恭恭於染法染料 For Private And Personal Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir આઘમુરબ્બીશ્રીઓ–૧૮ નામ ગામ અમદાવાદ ૫૨૫૧ (ઓછામાં ઓછી રૂા. ૫૦૦૦ની રકમ આપનાર) નંબર ગામ રૂપિયા ૧ શેઠ શાંતીલાલ મંગળદાસભાઈ જાણીતા મીલમાલીક અમદાવાદ ૧૫૦૦૦ ૨ શેઠ હરખચંદ કાળીદાસભાઈ વારીયા હ. શેઠ લાલચંદભાઈ, નગીનભાઈ વૃજલાલભાઈ તથા વલ્લભદાસભાઈ ભાણવડ ૬૦૦૦ ૩ કઠારી જેચંદ અજરામર હા. હરગોવિંદભાઈ જેચંદભાઈ રાજકોટ પરપ૧ ૪ શેઠ ધારશીભાઈ જીવનભાઈ બારસી ૫૦૦૧ ૫ સ્વ પિતાશ્રી છગનલાલ શામલદાસના સ્મરણાર્થે હા. શ્રી ભેગીલાલ છગનલાલભાઈ ભાવસાર ૬ સ્વ શેઠ દિનેશભાઈને સ્મરણાર્થે હા. શેઠ કાંતિલાલ મણીલાલ જેશીંગભાઈ અમદાવાદ ૫૦૦૦ ૭ શેઠ આત્મારામ માણેકલાલ હ. શેઠ. ચીમનલાલભાઈ શાંતીલાલભાઈ તથા પ્રમુખભાઈ અમદાવાદ ૬૦૦૧ ૮ શ્રી શામજી વેલજી વીરાણી અને શ્રી કડવીબાઈ વીરાણી સ્મારક ટ્રસ્ટ હા. શેઠ શામજી વેલજી વીરાણી રાજકોટ ૫૦૦૦ ૯ શ્રી શામજી વેલજી વીરાણી અને શ્રી કડવીબાઈ વીરાણી સ્મારક ટ્રસ્ટ હા. માતુશ્રી કડવીબાઈ વીરાણી રાજકોટ ૫૦૦૦ ૧૦ શેઠ પિચલાલ પીતાંબરદાસ અમદાવાદ પ૨૫૧ ૧૧ શાહ રંગજીભાઈ મેહનલાલ અમદાવાદ ૫૦૦૧ ૧૨ શ્રી શામજી વેલજી વીરાણી અને શ્રી કદેવીબાઈ વીરાણી સ્મારકટ્રસ્ટ હા. શેઠ દુર્લભજી વીરાણી રાજકેટ ૫૦૦૦ ૧૩ શ્રી શામજી વેલજી વીરાણી અને શ્રી કડવીબાઈ વીરાણી સમારકટ્રસ્ટહ શ્રીમતિ મણકુંવરબેન દુર્લભજી વીરાણી રાજકોટ ૫૦૦૦ ૧૪ શ્રી શામજી વેલજી વીરાણી અને શ્રી કડવીબાઈ વીરાણ સ્મારકટ્રસ્ટ હા. છોટાલાલ શામજી વીરાણી રાજકોટ પ૦૦૦ ૧૫ સ્વ. માતુશ્રીના સ્મરણાર્થે હ. ભાવસાર બેગીલાલ છગનલાલ અને કુટુંબજને અમદાવાદ ૫૦૦૦ For Private And Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૧૬ શેઠ મીશ્રીલાલજી જેવંતરાજજી લુણીયા ચંડાવતવાળા અમદાવાદ ૫૫૦૨ ૧૭ શેઠ રામજીભાઈ શામજી વિરાણી એન્ડ સમરતબેન રામજી વિરાણી ટ્રસ્ટ રાજકેટ ૫૦૦૧ ૧૮ એક જૈન ગૃહસ્થ અમદાવાદ ૫૪૨૫ નેટ -ઘાટકે પરવાળા શેઠ માણેકલાલ એ. મહેતા તરફથી અમદાવાદમાં પાલડી બસ સ્ટેન્ડ પાસે પ્લેટ ન. ૨૫૦ વાળી ૬૮ ચે. વાર જમીન સમિતિને ભેટ મળેલ છે. અને જેનું રજીસ્ટર તા. ૨૩-૩-૬૦ ના રોજ થઈ ગયેલ છે. મુરબ્બીશ્રીએ-૨૫ (ઓછામાં ઓછી રૂ. ૧૦૦૦ ની રકમ આપનાર) નંબર નામ, ગામ રૂપિયા ૧ વકીલ જીવરાજભાઈ વર્ધમાન કેડારી હા. કહાનદાસભાઈ તથા વેણીલાલભાઈ કે ઠારી જેતપુર ૩૬૦૫ ૨ દેશી પ્રભુદાસ મુળજીભાઈ રાજકેટ ૩૫૦૪ ૩ મહેતા ગુલાબચંદ પાનાચંદ રાજકેટ ૩૨૮લા૪ મહેતા માણેકલાલ અમુલખરાય ઘાટ પર ૩૨૫૦ ૫ સંઘવી પીતામ્બરદાસ ગુલાબચંદ જામનગર ૩૧૦૧ ૬ લલ્લુભાઈ ગોરધનદાસ ચેરીટેબલ ટ્રસ્ટ હ. શેઠ વાડીલાલ લલુભાઈ અમદાવાદ ૨૫૦૦ ૭ નામદાર ઠાકોર સાહેબ લખધીરસિંહજી બહાદુર મોરબી ૨૦૦૦ ૮ શેઠ લહેરચંદ કુંવરજી હા. શેઠ ન્યાલચંદ લહેરચંદ સિદ્ધપુર ૨૦૦૦ ૯ શાહ છગનલાલ હેમચંદ વસા હા. મેહનલાલભાઈ તથા મેતીલાલભાઈ મુંબઈ ૨૦૦૦ ૧૦ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ હા. શેઠ ચન્દ્રકાંત વીકમચંદ મેરબી ૧૯૬૩ ૧૧ મહેતા સેમચંદ તુલસીદાસ તથા તેમનાં ધર્મપત્ની અ. સી. મૌરી મગનલાલ રતલામ ૨૦૦૦ ૧૨ મહેતા પિપટલાલ માવજીભાઈ જામજોધપુર ૧૫૦૨ ૧૩ દેશી કપુરચંદ અમરશી હા. દલપતરામભાઈ જામજોધપુર ૧૦૦૨ ૧૪ બગડીયા જગજીવનદાસ રતનશી દામનગર ૧૦૦૨ ૧૫ શેઠ માણેકલાલ ભાણજીભાઈ પિોરબંદર ૧૦૦૧ ૧ શ્રીમાન ચંદ્રસિંહજી સાહેબ મહેતા હવે મેનેજર). કલકત્તા ૧૦૦૧ કલકત્તા ૧૦૦૧ For Private And Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૧૭ મહેતા સમચંદ નેણસીભાઈ (કરાંચીવાળા) મોરબી ૧૦૦૧ ૧૮ શાહ હરિલાલ અને પસંદ ખંભાત ૧૦૦૧ કે મેદ કેશવલાલ હરીચંદ્ર અમદાવાદ ૧૦૦૧ ૨૦ કઠારી છબીલદાસ હરખચંદ મુંબઈ ૧૦૦૦ ૨૧ કે ઠારી રંગીલદાસ હરખચંદ ભા નગ૨ ૧૦૦૦ ૨૨ શાહ પ્રેમચંદ માણેકચંદતથા અ. સૌ સમરતબેન અમદાવાદ ૧૦૦૩ ૨૩ શેઠ કરમશી જેઠાભાઈ સોમૈયા હા. અ. . સાકરબેન મુંબઈ ૧૦૦૦ ૨૪ શેઠ પિપટલાવ ચત્રભૂજ કઠારી સુરેન્દ્રનગર ૧૦૦૧ ૨૫ શ્રી સ્થા, જૈન લીંમડી સંપ્રદાયના ક્ષમાગુણ નીધી પુજ્ય શ્રી લાધાજી સ્વામીના શીષ્ય પ્રખર પંડીત રત્ન શ્રી ઉત્તમચંદજી મહારાજના સ્મરણાર્થે પુજ્ય લાધાજી સ્વામી પુસ્તકાલય તરફથી હ. શેઠ જેશીંગભાઈ પિચાલાલ અમદાવાદ ૧૦૦૦ સહાયક મેમ્બરે-૧૨૫ (ઓછામાં ઓછી રૂા. ૫૦૦ની રકમ આપનાર) નંબર ગામ રૂપિયા ૧ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ હ. શેઠ મુંઝાભાઈ વેલશીભાઈ વઢવાણ શહેર ૭૫૦ ૨ શેઠ નરોત્તમદાસ ઓઘડભાઈ જોરાવરનગર ૭૦૦ ૩ શેઠ રતનશી હરજીભાઈ હા. ગોરધનભાઈ જામજોધપુર ૫૫૫ ૪ બાટવીયા ગીરધર પરમાણંદ હા. અમીચંદભાઈ ખાખીજાળીયા પર૭ ૫ મેરબીવાળા સંઘવી દેવચંદ નેણશીભાઈ તથા તેમનાં ધર્મપત્ની અ. સૌ મણીબાઈ તરફથી હા. મુળચંદ દેવચંદ સંઘવી મલાડ ૫૧૧ ૬ વેરા મણીલાલ પોપટલાલ અમદાવાદ ૧૦૨ ૭ ગેસલીયા હરીલાલ લાલચંદ તથા ચંપાબેન ગેસલીયા ,, ૫૦૨ ૮ શાહ મનહરલાલ પ્રાણજીવનદાસ મુંબઈ ૫૦૧ ૯ શેઠ ઈશ્વરલાલ પુરુષોત્તમદાસ અમદાવાદ પ૦૧. ૧૦ શેઠ ચંદુલાલ છગનલાલ ૧૧ શાહ શાંતિલાલ માણેકલાલ ૧૨ શેઠ શીવલાલ ડમરભાઈ (કરાંચીવાળા) ૧૩ કામદાર તારાચંદ પિપટલાલ ધેરાજીવાળા રાજકોટ પ૦૦ ૧૪ મહેતા મેહનલાલ કપુરચંદ છે પ૦૦ નામ » ૫૦૧ ૫૦૧ થી ૫૦૧ For Private And Personal Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir * ૫૦૧ ૧૫ શેઠ ગેવિંદજીભાઈ પોપટભાઈ પ૦૦ ૧૬ શેઠ રામજી શામજી વીરાણી ૧૭ સ્વ. પિતાશ્રી નંદાજીના સ્મરણાર્થે હા. વેણીચંદ શાંતિલાલ જાબુવાળા) મેઘનગર ૫૦૧ ૧૮ શ્રી જૈન સ્થા. સંધ હા. શેઠ ઠાકરશી કરશનજી થાનગઢ ૫૦૦ ૧૯ શેઠ તારાચંદ પુખરાજજી ઔરંગાબાદ ૫૦૦ ૨૦ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ * પ૦૦ ૨૧ મહેતા મુળચંદ રાઘવજી હા. મગનલાલભાઈ તથા દુર્લભજીભાઈ ધ્રાફા ૫૦ ૨૨ શેઠ હરખચંદ પુરૂષોત્તમ હા. ઈન્દુકુમાર ચેરવાડ ૫૦૦ ૨૩ , કેશરીમલજી વસ્તીમલજી ગુગલીયા મલાડ પ૦૧ ૨૪ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ હા, બાટવીયા અમીચ ગીરધરભાઈ ખાખીજાળીયા ૫૦૧ ૨૫ શ્રી ખીમજીભાઈ બાવાભાઈ ફુલચંદભાઈ ગુલાબચંદભાઈ, નાગરદાસભાઈ જમનાદાસભાઈ મુંબઈ ૫૦૧ ૨૬ શેઠ મણીલાલ મોહનલાલ ડગલીહા, મુળજીભાઈ મણીલાલભાઈ મુંબઈ ૫૧ ર૭ સ્વ. કાંતીલાલભાઈના સ્મરણાર્થે હ. શેડ બાલચંદ સાકરચંદ , ૫૦૧ ૨૮ કામદાર-રતીલાલ દુર્લભજી (જેતપુરવાળા) 55 ૫૦૧ ૨૯ શાહ જયંતીલાલ અમૃતલાલ શીવ ૫૦૧ ૩૦ વેરા મણીલાલ લક્ષ્મીચંદ છે પ૧ ૩૧ શેઠ ગુલાબચંદ ભુદરભાઈ તથા કસ્તુરબેન હા. ભાઈ અનેપચંદ ખારોડ૫૦૧ ૩૨ મહાન ત્યાગી બેન ધીરજકુંવર ચુનીલાલ મહેતા ધ્રાફા ૫૦૧ ૩૩ શ્રી સસ્થા જૈન સંધ ધ્રાફા પ૦૧ ૩૪ શ્રી મગનલાલ છગનલાલ શેઠ રાજકેટ ૫૦૧ ૩૫ શેઠ ચતુરદાસ ઠાકરશી તથા અ, સૌ. નંદકુવરબેન જામનગર ૧૦૩ ૩૬ શેઠ દેવચંદ અમરશી (બેન ધીરજકુંવરની દીક્ષા પ્રસંગે ભેટ) ભાણવડ ૫૦૧ ૩૭ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ (બેન ધીરજકુંવરની દીક્ષા પ્રસંગે ભેટ) ભાણવડ ૫૦૧ ૩૮ વકીલ વાડીલાલ નેમચંદ શાહ વીરમગામ ૫૦૧ ૩૯ મહેતા શાન્તિલાલ મણીલાલ હ. કમળાબેન મહેતા અમદાવાદ પ૫૬ ૪૦ શ્રીયુત લાલચંદજી તથા અ. સૌ. ધીસાબેન ,, ૫૦૧ ૪૧ શેઠ મેહનરાજજી મુકુનચંદજી બાલીયા ૫૦૧ ૪૨ સ્વ. શેઠ ઉકાભાઈ ત્રીભવનદાસના સ્મરણાર્થે તેમનાં ધર્મપત્ની લક્ષ્મીબાઈ ગીરધર તરફથી હા. મરઘાબેન તથા મંગુબેન અમદાવાદ ૫૦૧ For Private And Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૪૩ પારેખ જયંતીલાલ મનસુખલાલ રાજકોટવાળા હા. વિનુભાઈ , ૫૦૧ ૪૪ શ્રી સ્થા. જૈન સંધ વાંકાનેર ૫૦૧ ૪૫ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ . બેટાદ ૫૦૧ ૪૬ શેઠ ગુદડમલજી શેષમલજી જેવર (બાર) પીપળગાંવ ૫૦૧ ૪૭ સ્વ. તુરખીયા લહેરચંદ માણેકચંદના સ્મરણાર્થે તેમનાં ધર્મપત્ની જીવતીબાઈ તરફથી હા. ભાઈ જયંતીલાલ તથા પૂનમચંદભાઈ વડેદરા ૫૦૧ ૪૮ શાહ અચણળદાસ શુકનરાજજી હા. શુકનરાજજી અમદાવાદ ૫૦૧ ૪૯ ભાવસાર ખેડીદાસ ગણેશભાઈ ધ ધુકા ૧૦૧ ૫૦ અ. સૌ. હીરાબેન માણેકલાલ મહેતા ધાટકોપર ૫૦૧ પર મહેતા શાંતીલાલ મગનલાલ તથા અ. સૌ. પદમાવતી શાંતિલાલ મહેતા અમદાવાદ ૫૦૦ પર શેઠ હીરાચંદજી વનેચંદજી કટારીયા હુબલી ૫૦૧ પ૩ શેઠ છોટુભાઈ હરગોવિંદદાસ કટેરીવાળા મુંબઈ ૫૦૧ ૫૪ પારેખ રતિલાલ નાનચંદ મોરબીવાળા તરફથી તેમના પિતાશ્રી નાનચંદ ગોવિંદજીના સ્મરણાર્થે તથા તેમનાં ધર્મપત્ની અ સી. વસંત બહેનના અઠાઈત નિમિત્તે હા ભુપતલાલ રતિલાલ અમદાવાદ ઉપર ૫૫ સ્વ. શાહ ત્રીભવનદાસ મગનલાલના સ્મરણાર્થે તેમનાં ધર્મપત્ની શીવકુંવરબાઈ તરફથી હા. રતીલાલ ત્રીભવનદાસ શાહ અમદાવાદ ૫૧૧ ૫૬ શ્રીમાન નાથાલાલ માણેકચંદ પારેખ મુંબઈ (માટુંગા) ૫૦૧ પ૭ શ્રી લીંમડી સંપ્રદાયના ગચ્છાધીપતિ પૂ. આચાર્ય મહરાજ શ્રી લાધાજી સ્વામીના સ્મરણાર્થે હા. શેઠ જેશીંગભાઈ પિચાલાલ (મહરાજ શ્રી છેટાલાલજી સદાનંદીના ઉપદેશથી) અમદાવાદ ૫૦૧ ૫૮ સ્વ. શ્રી વિનયમૂર્તિ શ્રી લક્ષ્મીચંદજી મહારાજના સ્મરણાર્થે હા. શેઠ જેશી ગભાઈ પાચાલાલ (મહરાજશ્રી છોટાલાલજી સદાનંદીના ઉપદેશથી) અમદાવાદ ૫૦૧ ૫૯ બા. બ્ર. પ્રભાવતીબેન કેશવલાલ ઉજજેનવાલા તરફથી તેમની દીક્ષા પ્રસંગે વીરમગામ પપ૧ ૬. શેઠ શ્રીયુત હરજીવનદાસ રાયચંદ હા. છબીલદાસ હરજીવન અમદાવાદ ૫૦૧ ૬૧ શેઠ પિપટલાલ હંસરાજ તથા દિવાળીબેનના સમરણાર્થે હા. શેઠ બાબુલાલ પિપટલાલ અમદાવાદ ૫૦૨ For Private And Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir » ૫૦૧ ૬૨ અ. સૌ. લીલાવતીબેન ઈશ્વરલાલ ૬૩ હેમાણી પ્રભુદાસ ભાણજી કલકત્તા ૫૫૧ ૬૪ શેઠ લમણદાસ સંજરામ અમદાવાદ ૫૦૧ ૬૫ શ્રી સ્થા. જૈન મેટા સંઘ રાજકેટ ૫૦૧ ૨૬ શેઠ ચાંદમલ્લ બીરધીચંદ નાસિક સીટી ૫૦૧ ૬૭ ઝવેરી માણેકચંદજી પન્નાલાલ છજલાણી હ. ધનવંતીબેન તથા કિરણબેન દિલ્હી ૫૦૧ ૬૮ શેઠ હંસરાજજી પૂર્ણમલજી કાંકરીયા ગેગળાવ ૫૦૧ ૬૯ શ્રી છે. સ્થા. જૈન સભા કલકત્તા ૫૦૧ ૭૦ શેઠ તેજસિંહજી ફતલાલજી છાજેડ ઉદેપુર ૫૦૧ ૭૧ શેઠ રતનચંદ લક્ષ્મીચંદ મુંબઈ ૫૦૦ ૭૨ શાહ ઉમરશી ભીમશીભાઈ (સ્વ. પિતાશ્રી ભીમશીભાઈ - તથા માતુશ્રી પાલાબાઈ તથા ધર્મપત્ની પાનબાઈના સ્મરણાર્થે) મુંબઈ પપર ૭૩ શાહ શામલભાઈ અમરસીભાઈ અમદાવાદ ૧૦૨ ૭૪ મહેતા ચન્દ્રકાન્ત નૌતમલાલ મુંબઈ ૫૦૧ ૭૫ શેઠ ભીખચંદ્ર લાલચંદ્ર પીપલગામ ૫૦૧ ૭૬ બેન મેહનીબેન મહેતા મુંબઈ ૫૦૧ ૭૭ શ્રીમતી મેંઘીબેન નવલચંદ શાહ લીમડી (સૌરાષ્ટ્ર) ૫૦૧ હ. મોતીબેન ૭૮ શ્રીમતી વિમલા સૂરજમલ મહેતા બેલગામ ૫૦૧ ૭૯ ઉદાણી નિહાલચંદ્ર હાકેમચન્દ્ર વકીલ બી. એ. એમ. એલ. બી, રાજકેટ ૫૦૧ ૮૦ સ્વ. કોઠારી મગનલાલજી કુન્દનમલજીના સ્મરણાર્થે હ. તેમનાં ધર્મપત્ની રાજકુંવરબેન સતારા ૭૫૧ ૮૧ શેઠ મોહનલાલજી મંછાલાલ હ. રમણલાલ (પૂ. મુનિશ્રી ફતેચંદ મ. ના શિષ્ય પં. મુનિશ્રી કનૈયાલાલજી મ. ના ઉપદેશથી) જયપુર ૫૦૧ ૮૨ શેઠ કનિયાલાલજી સેહનલાલજી કડિયા ધારડી ૧૦૧ ૮૩ શેઠ પ્રતાપમલજી કપુરચંદજી સાંઢેરાવવાળા ( પૂજ્ય ફતેચંદજી મ. ના શિષ્ય મિશ્રી લાલજી મ. ના શિષ્ય ચાંદમલજી મ. ના ઉપદેશથી) અમદાવાદ ૫૦૧ For Private And Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૮૪ શ્રીમાન લાલાજી રેશનલાલજી સમન્દરલાલજી બડત ૫૦૧ - હ. મેંતીલાલજી ૮૫ શ્રીમાન ભૂરમલજી દલીચંદજી સાંકરિયા (પૂ. મ. શ્રી સ્વામીદાસજીના સંપ્રદાય પૂ.મ. શ્રી ફતેચંદજી મ. ના શિષ્ય પં. મુની શ્રી કનૈયાલાલજી મ. ના ઉપદેશથી સહેરાવ ૫૦૧ ૮૬ સ્વ. ગેરીશંકર કાળીદાસ દેસાઈના સ્મરણાર્થે હ. ભૂપતલાલ ગૌરીશંકર ઈર ૫૦૧ ૮૭ શેઠ સાહેબ શ્રી નરામભાઈ હંસરાજભાઈ કમાણે જમશેદપુર ૫૦૧ ૮૮ સ્વ. મહાસજી શ્રી ધનદેવીજી મ. સા. ના સ્મરણાર્કે રવ. ખૂબચંદજી સંખલાલનાં ધર્મપત્ની શ્રીમતી જ્યદેવી તરફથી ( મહાસતીજી શ્રી સુદર્શનામતિજી તથા ફુલમતીજીના ઉપદેશથી દિલ્હી ૫૦૧ ૮૯ શ્રીમાન લાલા કપૂરચંદજી બેરાના ધર્મપત્ની શ્રીમતી વસંતદેવી હા. લાલા રાજમલજી હેમચંદજી તરફથી (મહાસતી શ્રી સુદર્શનામતિજી તથા ફૂલમ તિજી મહાદેવીના ઉપદેશથી) દિલ્હી પ૦૧ ૯૦ સ્વ. મહાસતીજી શ્રી દ્રૌપતાદેવીજી મ. સા. ના મરણાર્થે શ્રી એસ. એસ. જૈન મહિલા સંઘ તરફથી (અનેક ગુણલંકૃત મહાસતીજી શ્રી મોહનદેવજી મ. સા. ની પ્રેરણાથી) દિલ્હી ૫૦૧ ૯૧ ૩. લક્ષમીચંદજીના સ્મરણાર્થે નગિનાદેવી સુતીના તરફથી હસ્તે સંઘવી હેમંતકુમાર જૈન દિલ્હી પ૦૧ ૯૨ સ્વ. પિતાશ્રી લાલા ઝવેરી ઘસ્નેમલજી સુતી ન મરણાર્થે હસ્તે શ્રીમતી નગીના દેવી દિલ્હી પ૦૧ ૯૩ લાલાજી કસ્તુરચન્દજી ખુશાલચન્દજી સચેતી હ. જ્ઞાનચંદજી અલવર પ૦૧ ૯૪ સ્વ. પૂજ્ય પિતાશ્રી દુર્લભજી સેમચંદ દફતરી હ. ગૌરીશંકર દુર્લભજી દફતરી મુંબઈ ૫૦૦ ~ શેઠ સેમચંદ જેઠાલાલ ઘેલાણી હ. - ચુનીલાલભાઈ જોડીયાવાળા મુંબઈ ૫૦૬ ૬ શેઠ ફેજમલજી સુલતાનસીંહજી બેરદીયા અમદાવાદ ૫૦૧ ૯૭ શેઠ છગનલાલ શામજીવિરાણી તથા શ્રીમતી વજકુંવરબેન છગનલાલ વિરાણી ટ્રસ્ટફંડ - તરફથી શેઠ છગનલાલ ભાઈના સમરણાર્થે રાજકોટ ૫૦૧ For Private And Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir નામ ગામ નંબર ગામ રૂપિયા ૯૮ શ્રી વર્ધમાન સ્થા. જૈન શ્રાવક સંઘ હ. પ્રમુખ બંસીલાલ કટારીયા હિંગણવાટ ૫૦૧ ૯૯ લાલાજી રામલાલજી રેશનલાલજીઅનેક ગુણલકૃત મહાસતીજી મોહનદેવીના ઉપદેશથી) દિલ્હી પ૦૧ ૧૦૦ સ્વ. મહેતા મંગળજી મણીલાલજીના સ્મરણાર્થે હ. તેમના ધર્મપત્ની ગુણવતીબહેન મહેતા પંડિચેરી ૫૦૧ ૧૦૧ બાટવીયા વનેચંદ અમીચંદ (મહાવીર ટેક્ષટાઈલ ટેસ) બેંગલોર ૫૫૩ ૧૦૨ શ્રીયુત તારાચંદ ગેલડા ટ્રસ્ટ મદ્રાસ ૫૦૧ ૧૦૩ શેઠ ગુલરાજજી પુનમચંદજી મહેતા કિસનગઢ ૫૫૧ ૧૦૪ શેઠ અગરમલજી ત્રીકમચંદજી ઈદેર સીટી પ૫૧ ૧૦૫ કાનુગા ધીંગડમલ્લજી મુલતાનમલજી કંવાડ ગઢસીંધાણ વાળા અમદાવાદ ૫૦૧ ૧૦૬ લાલાજી નવરતનચંદજી ચોરડીયાનાં ધર્મપત્ની શ્રીમતી રાજકુમારીબેન દીલ્હી પ૦૧ ૧૦૭ શેઠ ચીમનલાલ રૂષભચંદ અમદાવાદ ૫૦૧ ૧૦૮ શેઠ કાનજી પાનાચંદ ભીમાણી ટ્રસ્ટ કલકત્તા ૫૦૧ ૧૦૯ શેઠ ગીરધરલાલ હંસરાજ કામાણી , ૫૦૧ ૧૧૦ અનેક ગુણલકૃત મહાસતી હિનદેવીના ઉપદેશથી સ્વયમી બંધુઓ તરફથી દીલ્હી ૫૦૧ ૧૧૧ સ્વ. વિનયચંદજી પારેખના સ્મરણાર્થે લાલા પૂર્ણચંદજી રતનચંદજી પારેખની વતી હ. શ્રીમતી પ્રેમાદેવી ( શાંત સ્વભાવી મહાસતીજી ફુલકુંવરબાઈના ઉપદેશથી ) દીલ્હી ૫૦૧ ૧૧૨ શ્રીમતી બદામબાઈ મીશ્રીલાલજી લુણીયા ચંડાવતવાળા અમદાવાદ ૫૦૧ ૧૧૩ શેઠ ભરતકુમાર મણીલાલ દલાલ અમદાવાદ ૫૦૧ ૧૧૪ શાહ હરખચંદ અમરચંદ ૧૧૫ શાહ જગજીવનદાસ વન્દાવનદાસ અમદાવાદ ૫૦૧ ૧૧૬ શેઠ હંસરાજ લક્ષ્મીચંદ કામા જૈનભૂવન અમદાવાદ ૫૦૧ કલકત્તા ૫૧ For Private And Personal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૧૦ ૧૧૭ પૂ. દાદાજી સ્વ. કપુરચંદજી તથા દાદીજી કેસરબેન ચારડીયાના સમરણાર્થે હ. લાલા ફુલચંદજી અને શ્રીમતી વિમલકુંવરી જવેરી નીવતી શ્રીમતી નગીનાદેવી (મહાસતીજી ફુલમતીજીના ઉપદેશથી) ૧૧૮ શેઠ નગીનદાસ છેટાલાલ ૧૧ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ હ. શેડ ગણેશમલ ગુલાબચંદ ૧૨૦ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ ૧૨૧ શ્રી સરાક જૈન વિદ્યાલય ૧૨૨ ગાંધી ભુરાલાલ નાનચંદ ૧૨૩ શ્રીમાન હિંમતસિંહજી સાહેબ ગલૂડીયા એડીસનલ કમીશનર અજમેર ડીવીઝનવાળાના ધર્મપત્ની અ.સૌ. માણેકકુંવરબેન તરફથી હ. ખૂશાલસિંહજી ગુલુંડીયા દિલ્હી પ૦૧ અમદાવાદ ૫૦૧ બરોરા ૫૦૧ ભદેસર ૫૦૧ કુમારડી ૫૦૧ મુંબઈ પ૦૧ જયપુર ૫૫૧ ૫૮૪–લાઈફ મેમ્બરે અમદાવાદ તથા પરાઓ નંબર નામ ગામ રૂપિયા ૧ શેઠ ગીરધરલાલ કરમચંદ ૨૫૧ ૨ શેઠ ઇટાલાલ વખતચંદ હા. ફકીરચંદભાઈ ૨૫૧ ૩ શાહ કાંતિલાલ ત્રીભોવનદાસ ૨૫૧ ૪ શાહ પિટલાલ મેહનલાલ ૨૫૧ પ શેઠ પ્રેમચંદ સાકરચંદ ૨૫૦ ૬ શાહ રતીલાલ વાડીલાલ ૨૫૧ ૭ શેઠ લાલભાઈ મંગળદાસ ૨૫૧ ૮ સ્વ. અમૃતલાલ વર્ધમાનના સ્મરણાર્ણ હા, કાનજીભાઈ અમૃતલાલ દેશાઈરપ૧ ૯ શાહ નટવરલાલ ચંદુલાલ ૧૦ શાહ નરસિંહદાસ ત્રીભોવનદાસ ૨૫૧ ૧૧ શાહ બીપીનચંદ્ર તથા ઉમાકાંત ચુનીલાલ પાણી ૩૦૧ ૧૨ શ્રી શાહપુર દરિયાપુરી આઠકે ટી સ્થા. જૈન ઉપાશ્રય હા, વહીવટ કર્તા શેઠ ઇશ્વરલાલ પુરુષોત્તમદાસ ૨૫૧ ૨૫૧ For Private And Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૧૩ શ્રી છીપાળ દરીયાપુરી આઠળેટી સ્થા. જૈન સંઘ હા. શેઠ ચંદુલાલ અચરતલાલ ૨૫૧ ૧૪ શાહ ચીનુભાઈ બાલાભાઈ C/o. શાહ બાલાભાઈ મહાસુશલાલ ૨૫૧ ૧૫ શાહ ભાઈલાલ ઉજમશી ૧૬ શ્રી સુખલાલ ડી. શેઠ હા. ડે. કુ. સરસ્વતીબેન શેઠ ૧૭ શ્રી સૌરાષ્ટ્ર સ્થા. જૈન સંઘ હ. શેઠ કાંતિલાલ જીવણલાલ ૧૮ મેદી નાથાલાલ મહાદેવદાસ ૧૯ શાહ મોહનલાલ ત્રીકમલાલ ૨૦ શ્રી છકેટી સ્થા. જૈન સંઘ હા. શેઠ પિચલાલ પિતાંબરદાસ ૨૧ દેશાઈ અમૃતલાલ વર્ધમાનના સ્મરણાર્થે હા. ભાઈલાલ અમૃતલાલ ૨૫૧ ૨૨ શાહ નવનીતરાય અમુલખરાય ૨૩ શાહ મણીલાલ આશારામ ૨૪ શેઠ ચીનુભાઈ સાકરચંદ ૨૫ શાહ વરજીવનદાસ ઉમેદચંદ ૨૫૧ ૨૬ શાહ રજનીકાંત કસ્તુરચંદ ૨૫૧ ૨૭ સંઘવી જીવણલાલ છગનલાલ ૨૫૧ ૨૮ શાહ શાંતિલાલ મોહનલાલ ધ્રાંગધ્રાવાળા ૨૯ અ.સૌ. બેન રતનબેન નાદેચા હા. શેઠ ધુલજી ચંપાલાલજી ૩૦ શાહ હરિલાલ જેઠાલાલ ભાડલાવાળા ૩૧ શ્રી સરસપુર દરીયાપુરી આઠ કેટી સ્થા. જૈન ઉપાશ્રય હા. ભાવસાર ભેગીલાલ છગનલાલ ૨૫૧ ૩૨ શેઠ પુખરાજજી સમતીરામજી પુનમિયા સાદડીવાળા ૩૩ સ્વ. પિતાશ્રી જવાહરલાલજી તથા પૂજ્ય ચાચાજી હજારીમલજી બરડીયાના સ્મરણાર્થે હ. મુળચંદ જવાહરલાજી બરડીયા ૨૫૧ ૩૪ સ્વ. ભાવસાર બબાભાઈ (મંગળદાસ) પાનાચંદના મરણાર્થે હા. તેમનાં ધર્મપત્ની પુરીબેન ૨૫૧ ૩૫ સ્વ. પિતાશ્રી રવજીભાઈ તથા સ્વ. માતુશ્રી મુળીબાઈના મરણાર્થે હા. કકલભાઈ કોઠારી ૩૦૧ ૩૬ ભાવસાર કેશવલાલ મગનલાલ ૨૫૧ ૩૭ શાહ કેશવલાલ નાનચંદ જાખડાવાળા હા, પાર્વતીબેન ૨૫૧ ૨૫૨ ૨૫૧ ૨૫૬ For Private And Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ૧૧ ૩૮ શાહ જીતેન્દ્રકુમાર વાડીલાલ માણેકચ'દ રાજસીતાપુરવાળા ૩૯ શ્રી સાબરમતી સ્થા. જૈન સ`ધ હા. શેઠ મણીલાલભાઈ ૪૦ ભાવસાર એટાલાલ છગનલાલ ૨૫૧ ૨૫૦ ૨૫૧ ૪૧ ભાવસાર શકરાભાઈ છગનલાલ ૨૫૧ ૪૨ અ. સૌ. એન જીવીબેન રતિલાલ હા. ભાવસાર રતિલાલ હરગોવિંદદાસ ૨૫૧ ૪૩ ભાવસાર ભાગીલાલ જમનાદાસ પાટણવાળા ૨૫૧ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૪૪ સઘવી બાલુભાઈ કમળશી તથા તેમનાં ધર્મપત્નીએ અ. સૌ. ચંપાર્મેન તથા વસતઐન તરફથી ૪૫ અ. સૌ. વિદ્યાબેન વનેચ દેસાઈ વર્ષીતપ તથા અઠાઇ પ્રસ`ગે હા. ભુપેન્દ્રકુમાર વનેચંદ દેસાઈ ૪૬ શાહુ નટવરલાલ ગેાકળદાસ ૪૭ અ. સૌ. સરસ્વતીબેન મણીલાલ છગનલાલ ૪૮ અ. સૌ 'કુબેન (ભાવસાર ભોગીલાલ છગનલાલનાં ધર્મ પત્ની) ૪૯ અ. સૌ. સવિતાબેન (જય'તીલાલ ભોગીલાલનાં ધર્મપત્ની ) ૫૦ અ. સૌ. શાંતાબેન (દીનુભાઈ ભોગીલાલનાં ધમ પત્ની) ૫૧ અ. સૌ. સુનદાબેન (રમણલાલ ભોગીલાલનાં ધર્મ પત્ની) પર શેઠ હીરાજી રૂગનાથજીના સ્મરણાર્થે હ. વાગમલજી રૂગનાથજી ૫૩ શેઠ મણીલાલ ખેાઘાભાઇ ૫૪ પટવા સુમેરમલજી અનેપચંદજી જોધપુરવાળા પપ સ્વ. માણેકલાલ વનમાળીદાસ શેઠના સ્મરણાર્થે હા. રમણલાલ માણેકલાલ ૫૬ સ્વ, શાહુ ધનરાજજી ખેમરાજજીનાં સ્મરણાર્થે હા. કનૈયાલાલ ધનરાજજી ૫૭ શ્રી સાર’ગપુર ૬. આ. કે. સ્થા. જૈન સંઘ હા. શાહે રમણુલાલ ભગુભાઈ ૫૮ દોશી હરજીવનદાસ જીવરાજ તથા લક્ષ્મીબાઇ લહેરચ`દના સ્મરણાર્થે હ. દેશી મનહરલાલ કરશનદાસ મુળીવાળા ૫૯ શાહ પુનમચંદ ફતેહચક ૬૦ શ્રીયુત ચતુરભાઇ નંદલાલ ૬૧ શ્રીચુત અમૃતલાલ ઇશ્વરલાલ મહેતા દુર શાહ જાદવજી મેહનલાલ તથા શાહુ ચીમનલાલ અમુલખભાઇ For Private And Personal Use Only ૨૫૧ ૪૧૭ ૨૫૧ ૩૫૧ ૩૦૯ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૩૦૧ ૨૫૧ ૩૦૧ ૨૫૧ ૩૦૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૬૩ અ. સ. બેન લાભુબેન મગનલાલ હ. શાહ અમૃતલાલ ધનજીભાઈ વઢવાણ શહેરવાળા ૩૦૧ ૬૪ અ.સૌ. બેન કાન્તાબેન ગોરધનદાસ (ચાંદમુનિના ઉપદેશથી) ૨૫૧ ૬૫ દેશી ફુલચંદ સુખલાલભાઈ બેટાદવાળાના સ્મરણાર્થે હ. દેશી છબીલદાસ ફૂલચંદભાઈ ૨૫૧ ૬૬ લાલાજી રામકુંવરજી જૈન ૨૫૧ ૨૭ શેઠ છેટાલાલ ગુલાબચંદ પાલનપુરવાળા ૬૮ શાહ ધીરજલાલ મોતીલાલ ૨૫૧ ૬૯ સંઘવી સૂર્યકાંત ચુનીલાલના સ્મરણાર્થે હ. સંઘવી જીવણલાલ ચુનીલાલ ૭૦ ભાવસાર મેહનલાલ અમુલખરાય - ૨૫૧ ૭૧ મહેતા મૂળચંદ મગનલાલ ૭૨ વૈદ્ય નરસિંહદાસ સાકરચંદનાં ધર્મપત્ની રેવાબાઈના મરણાર્થે હ. હરીલાલ નરસિંહદાસ ૭૩ શાહ કુલચંદભાઈ મુલચંદ હ. હસમુખભાઈ કુલચંદભાઈ જ શેઠશ્રી મિશ્રી લાલજી જવાહરલાલજી બરડીયા ૨૫૧ ૭૫ શાહ લલ્લુભાઈ મગનભાઈ ચુડાવાળા હજશવંતલાલ લલ્લુભાઈ ૭૬ કુમારી પુષ્પાબેન હીરાલાલ (ચાંદમુનિના ઉપદેશથી) ૭૭ શાહ મણીલાલ ઠાકરશી હ. કમળાબેન મણીલાલ લખતરવાળા (ચાંદ મુનિને ઉપદેશથી) ૭૮ કુમારી નલીનીબેન યંતીલાલ ૭૯ વ. ઉમેદરામ ત્રિભુવનદાસનાં ધર્મપત્ની કાશીબાઈના સ્મરણાર્થે હા. શાંતિલાલ ઉમેદરામ (ચદમુનિનાં ઉપદેશથી) ૨૫૧ ૮૦ વ. ભાવસાર મોહનલાલ છગનલાલનાં ધર્મપત્ની દિવાળીબાઈના સ્મરણાર્થે હ. રતીલાલ માણેકલાલ (ચાંદમુનિના ઉપદેશથી) ૨૫૧ ૮૧ મહેતા દેવીચંદજી ખુબચંદજી ધોકા ગઢસીયાણાવાળાના સ્મરણાર્થે હ. મહેતા ચુનીલાલ હરમાનચંદ ૮૨ ઘાસીલાલજી મોહનલાલજી કેડારી ઠે. લક્ષમી પુસ્તક ભંડાર ૮૩ સ્વ. શેઠ નાથાલાલ રતનાભાઈ મફતીયાના સ્મરણાર્થે - પુનાબેન તરફથી હ. કરશનભાઈ (ચાંદમુનિના ઉપદેશથી) ૨૫૧ ૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ For Private And Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૮૪ શાહ મણીલાલ છગનલાલ ૮૫ ભાવસાર જયંતીલાલ ભેગીલાલ ૮૬ ભાવસાર દિનુભાઈ ભેગીલાલ ૮૭ ભાવસાર રમણલાલ ભેગીલાલ ૮૮ ભાવસાર કનુભાઈ સાકરચંદ ૮૯ શેઠ ભેરૂમલજી સાહેબ જોધપુરવાળા ૯૦ સ્વ. બનાણું વર્ધમાન રામજીભાઈ કુંદણીવાળાના સ્મરણાર્થે હ. શાંતિલાલ વર્ધમાન ૯૧ સ્વ. કચરાભાઈ લહેરાભાઈના સ્મરણાર્થે હ. શાંતિભાઈ કચરાભાઈ ૯૨ એક સ્વધર્મી બંધુ હ. શાહ રખભદાસજી જયંતિલાલજી ૩ અ.સૌ. સરસ્વતીબેન મણીલાલ ચતુરભાઈ શાહ (સદાનદી છોટાલાલ મહારાજશ્રીના ઉપદેશથી) ૯૪ ચીમનલાલ મણીલાલ શાહ (રરીયાપુરી સંપ્રદાયના પૂર્વ તપસ્વી મહારાજશ્રી માણેકચંદ્રજીના શિષ્ય મુનિશ્રી મગનલાલજી મહારાજશ્રીના સ્મરણાર્થે ) લ્ય બેન જેકુંવર વ્રજલાલ પારેખ ૯૬ શેઠ પુનમચંદજી જવાહરલાલજી બરડીયા ૭ અ.સૌ. લીલાવંતી ધીરજલાલ મહેતા છે. ધીરજલાલ ત્રીકમલાલ મહેતા ૯૮ શેઠ રાજમલજી ઘાસીલાલજી કઠારી કેશીલવાળા ૯ શેઠ ચુનીલાલ ભગવાનજી કે. રતીલાલ ચુનીલાલ ૧૦૦ ભાગ્યવતી અરવીંદકુમાર છે. અરવીંદકુમાર સકરાભાઈ ભાવસાર ૧૦૧ અ. સૌ. ચંચળબેન મનસુખલાલ હા. મનસુખલાલ જેઠાલાલ રૂપેરા ૧૦૨ સ્વ. આસીબાઈ તથા વસ્તીમલજી ભેમાજીના સ્મરણાર્થે હા. શેક મીશ્રીમલજી દેવચંદજી એ સવાલ કેરુવાળા ૧૦૩ સ્વ. શેઠ કીશનમલજી માંડતના સ્મરણાર્થે હા. શીરેમલજી કીશનમલ સેજવાલા ૧૦૪ સ્વ. શેઠ વક્તાવરમલજીના સ્મરણાર્થે - હા. શેઠ ઘી સાલાલજી મુકનરાજજી શીયારીયા (જોધપુરવાલા) ૨૫૧ ૨૫૧ ૩૦૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ For Private And Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ૧૫ ૧૦૫ શાહ મહાસુખલાલ ભાઇલાલ ( સદાન'દી પતિ મુનિશ્રી ટાલ મહારાજના ઉપદેશથી ૧૦૬ અ. સૌ. કાંતાએન કાળીદાસ કૈ. કુમાર બુક ખાઈડીંગ વર્કસ ૧૦૭ સ્વ. હીંમતલાલ મગનલાલના મરણાર્થે તેમના સુપુત્રો મેસર્સ દ્વારકાદાસ એન્ડ બ્રધર્સ તરફથી ૧૦૮ અ. સૌ. કાંન્તાબેનના સ્મરણાર્થે હા. ભાવસાર નાગરદાસ હરજીવનદાસ ૧૦૯ શ્રી ઉમેદચંદ ડાકરશી કે યુ. ટી ગેપાણી એન્ડ સન્સ ૧૧૦ પૂ. માતુશ્રીના સ્મરણાર્થે હા. ભાવસાર ભોગીલાલ છગનલાલ ૧૧૧ શાહ શાંતીલાલ માહનલાલ ૧૧૨ સરસ્વતી પુસ્તકભંડાર હા. પ્રભુદાસ મહેતા ૧૧૩ સરસ્વતી પુસ્તક ભંડાર હા. શહ ભુરાલાલ કાળીદાસ ૧૧૪ સ્ત્ર, પિતાશ્રી મેાતીલાલજીના સ્મરણાર્થે હા. મહેતા રણજીતલાલજી મૈાતીલાલજી ઉદેપુરવાળા ૧૧૫ શેઠ પરસેાત્તમદાસ અમરસીનાં ધર્મપત્ની સ્વ. કુસુમબેનના સ્મરણોણે તથા અ. સૌ. સવીતાબેનના માસખમણના નિમિત્ત હા. શેઠ સેમચંદ પરસેાત્તમદાસ ( પેટ સુદાનવાળા) ૧૧૯ સરસ્વતી પુસ્તક ભંડાર ૧૨૦ સરસ્વતી ભંડાર ૧૧૬ શ્રીમાન જોરાવરમલજી ધર્મ ચંદ્રજી ડુંગરવાલ રાજાજી કાકેરડાવાળા ( મુનિશ્રી માંગીલાલજીના ઉપદેશથી ) ૧૧૭ ડા, ધનજીભાઇ પુરસેાત્તમદાસ ૧૧૮ સરસ્વતી પુસ્તક ભંડાર ૧૨૧ શેઠ ગેરિલાલજી સુગનલાલજી ઉદેપુરવાળા ૧૨૨ શેઠ કનૈયાલાલજી સુરાણા પીપલે દાવાળા Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૧૨૩ કામદાર વાડીલાલ દતીલાલ (સાખરમતી) ૧૨૪ કુમારી ચ‘પાબેન ભાગીલાલ ભાવસાર ૧૨૫ કુમારી ઉષાબેન જયંતીલાલ ભાવસાર ૧૨૬ કુમારી ચ ંદ્રાબેન જયંતીલાલ ભાવસાર ૧૨૭ કુમારી જયશ્રી રમણલાલ ભાવસાર ૧૨૮ શાહે ડાહ્યાભાઈ અંબાલાલ For Private And Personal Use Only ૫૧ ૨૫૧ ૩૦૧ ૨૫૧ ૩૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૩૫૧ ૧૫૧ ૫૧ ૩૦૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૩૫૧ ૩૫૧ ૩૫૧ ૨૫૧ પર પર ૨૦ પા ૨૪૧ ૫૧ રૂપ૧ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૩૫૧ ૩૫૧ ૧૨૯ બરડિયા ચાંદમલજી ઝવાહર લાલજી ૧૩૦ શ્રી વિજયદાન સુરેશ્વરજી જ્ઞાનમંદીર પિષધશાળા ૧૩૧ શેઠ પાનાચંદ ઝવેરચંદ સાગપુર ઉપાશ્રય ટ્રસ્ટ હ. વકીલ બાબુભાઈ હીંમતલાલ - અમલનેર ૧ શાહ નાગરદાસ વાઘજીભાઈ ૨ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ હા. ગાંડાલાલ ભીખાલાલ અજમેર ૧ શેઠ ભુરાલાલ મોહનલાલ ડુંગરવાલ ૨૫૧ ૫૬. ૨૫૧ અલવર ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૩૦૧ ૨૫૧ ૧ શ્રીમતી ચંપાદેવી છે. બુદ્ધિામલજી રતનમલજી સચેતી ૨. શેઠ ચદમલજી મહાવીર પ્રસાદ પાલાવત ૩ શ્રીયુત રૂષભકુમાર સુમતિકુમાર જૈન આસનસેલ ૧ બાવીશી મણીલાલ ચત્રભુજના સ્મરણાર્થે તેમનાં ધર્મપત્ની મણીબાઈ તરફથી હા. રસિકલાલ, અનિલકત, તથા વદરાય આટકેટ ૧ મહેતા ચુનીલાલ નારણદાસ આણંદ શેઠ રમણીકલાલ એ. કપાસી હા. મનસુખલાલભાઈ આકેલા શેઠ કંચનલાલ રાઘવજી અજમેરા ડે. મેસર્સ અજમેર પર્સ એન્ડ કુ. (પૂ. સદાનંદી મુનિશ્રી છોટાલાલજી મહારાજના ઉપદેશથી) ઇગતપુરી ૧ શેઠ પન્નાલાલ લખીચંદ જૈન ઈદેર ૧ અ. સી. બેન દયાબેન મેહનલાલ દેસાઈ જેતપુરવાળા (અ, સૌબેન વિદ્યાબેનને વષતપ નિમિત્ત) હા અરવિંદકુમાર તથા જીતેન્દ્રકુમાર ૨ શ્રીયુત ભાઈલાલ છગનલાલ તુરખીયા ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૩૫૧ For Private And Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૧૭ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ઉદયપુર ૧ શેઠ રણજીતલાલજી મોતીલાલજી હિંગડ ૨ શ્રીમતી સેહીનીબાઈ ઠે. રણજીતલાલજી મેતીલાલજી હિંગ ૩ અ. સી. બેન ચદ્રાવતી તે શ્રીમાન બહાતલાલ નાહરના ધર્મપત્ની, હા. શેઠ રણજીતલાલજી મેતીલાલજી હિંગડ ૪ શેઠ છગનલાલજી બાગ્રેચા ૫ શેઠ મગનલાલજી બાગ્રેચા ૬ સ્વ. શેઠ કાજુલાલજી લેઢાના સ્મરણાર્થે હા. શેઠ દેવતસિંહજી લેઢા ૭ સ્વ. શેઠ પ્રતાપમલજી સાખલાના સ્મરણાર્થે હા. પ્રાણલાલ હીરાલાલ સાખલા ૮ શેઠ ભીમરાજજી થાવરચંદજી બાફણા ૯ શ્રીયુત સાહેબેલાલજી મહેતા ૧૦ શેઠ પન્નાલાલજી ગણેશલાલજી હીંગડ ૧૧ શેડ દીપચંદજી પન્નાલાલજી લેઢા ૧૨ શેઠ કસ્તુરચંદજી નારૂમલજી ૧૩ શ્રી યુ. એલ. કેડારી ૧૪ બાબુ પરશુરામ છગનલાલજી શેઠ ૧૫ શેઠ કનૈયાલાલજી કાફલાલજી જૈન ૧૬ શ્રી વર્ધમાન સ્થા. જૈન શ્રાવક સંધ આમડ ઉપલેટા ૧ શેઠ જેઠાલાલ ગોરધનદાસ ૨ રવ, બેન સંતોકબેન કચરા હા. ઓતમચંદભાઈ, ઇટાલાલભાઈ મથા અમૃતલાલભાઈ વાલજી (કલ્યાણવાળા) ૩ શેઠ ખુશાલચંદ કાનજીભાઈ હા. પ્રતાપભાઈ ૪ દેશી વિઠ્ઠલજી હરખચંદ પ સંઘાણી મુળશંકર હરજીવનભાઈને સ્મરણાર્થે હા. તેમના પુત્ર જયંતીલાલ રમણીકલાલ ૨૫૧ ૨૫૧ ૩૦૧ ૨૫૦ ૨૫૧ ૩૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ For Private And Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૨૫૧ ઉમરગાંવ રેડ ૧ શાહ મોહનલાલ પિપટલાલ પાનેલીવાળા ૨૫૧ એડન કેમ્પ ૧ મહેતા પ્રેમચંદ માણેકચંદના સ્મરણાર્થે હા. રાયચંદભાઈ, પિપટલાલભાઈ તથા રસીકલાલભાઈ ૨૫૧ ૨ શાહે જગજીવનદાસ પુરૂષોત્તમદાસ ૨૫૧ ૩ શાહ ગોકળદાસ શામજી ઉદાણું ૨૫૧ કલકત્તા ૧ શ્રી કલકત્તા જૈન છે. સ્થા. (ગુજરાતી) સંઘ કલોલ ૧ શેઠ મોહનલાલ જેઠાભાઈના સ્મરણાર્થે હ. શેઠ આત્મારામ મેહનલાલ ૨૫૧ ૨ છે. મયાચંદ મગનલાલ શેઠ હા. ડે. રતનચંદ મયાચંદ ૨૫૧ ૩ સ્વ. નાથાલાલ ઉમેદચંદના સ્મરણાર્થે હા. શાહ રતીલાલ નાથાલાલ ૨૫૧ ૪ શેઠ મણીલાલ તલકચંદના સ્મરણાર્થે હા. મારફતીયા ચંદુલાલ મણીલાલ ૨૫૧ ૫ સ્વ. શ્રીયુત વાડીલાલ પરશોત્તમદાસના સ્મરણાર્થે હા. ઘેલાભાઈ તથા આત્મારામભાઈ ૨૫૧ ૬ શાહ નાગરદાસ કેશવલાલ ૨૫૧ ૭ શ્રી. સ્થા. જૈન સંઘ હા. શેઠ આત્મારામભાઈ મેહનલાલભાઈ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૧ શ્રી સ્થા. દરિયાપુરી જૈન સંઘ હા. ભાવસાર દામોદરદાસભાઈ ઈશ્વરલાલભાઈ ૨ પાર્વતીબેન કે. જેસીગભાઈ ઈશ્વરલાલભાઈ કરજણ ૧ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંધ મીયાંયામ કરજણ કઠેર ૧ સ્થા. જૈન સંઘ હ. જેસીંગભાઈ પાચાલાલ તરફથી (માધવસિંહજી મહારાજશ્રીના ઉપદેશથી) હ. ઠાકરભાઈ રામચંદ્ર ૨૫૧ ૨૫૧ For Private And Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir કત્રાસગઢ ૨૫૧ ૧ શ્રી . સ્થા. જૈન સંઘ હ. શેઠ દેવચંદ અમુલખભાઈ કલ્યાણ ૧ સંઘવી ઠાકરશીભાઈ સંઘજીના સ્મરણાર્થે હિ. શાહ હીંમતલાલ હરખચંદ ૨૫૧ ૩૦૦ ૨૫૧ કાનપુર ૧ શાહ રમણીકલાલ પ્રેમચંદ કુંદણું ( આટકોટ) ૧ દેશી રતીલાલ ટેકરી કલકી ૧ પટેલ ગેવિંદલાલ ભગવાનજી ૨ પટેલ ખીમજી જેઠાભાઈ વાઘાણી (તેમના વ. સુપુત્ર રામજીભાઈના સ્મરણાર્થે) કમ્પાલા ૨૫૧ ૩૦૨ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૧ સ્વ. શેઠ નાનચંદ મેતીચંદ ધ્રાંકાવાળાના સ્મરણાર્થે છે. તેમના સુપુત્ર જમનાદાસ નાનચંદ શેઠ ૨ શ્રીમતી હીરાબેન, રતીલાલ નાનચંદ શેઠ ધ્રાફાવાળા કુશળગઢ ૧ શેઠ ચંપાલાલજી દેવચંદજી ખાખીજાળીયા ૧ બાટવીયા ગુલાબચંદ લીલાધર ખારાઘોડા ૧ રવ. પિતાશ્રી હરજીવનદાસ લાલચંદ શાહ તથા સ્વ. અ. સી. બેન જમકુબાઈ તથા લીલાબાઈના મરણાર્થે હ. નરસિંહદાસ હરજીવનદાસ ૨૫૧ ૨ સ્વ. શેઠ ઓઘડલાલ લહમીચંદના સ્મરણાર્થે હ. ભાઈચંદ એ ઘડભાઈ ર૫૧ ૪૦૧ For Private And Personal Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૩૫૨ ૩૦૦ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ખીચન ૧ શેઠ કિશનલાલ પૃથ્વીરાજ માલુ ખુરદારેડ ૧ શેઠ ગીરધારીલાલજી સીતારામજી ખેંડપવાળા ૨ શેઠ નરસિંહદાસ શાંતિલાલજી ભરવાવાળા (મુનિશ્રી ચાંદલજીના ઉપદેશથી) ખંભાત ૧ શેઠ માણેકલાલ ભગવાનદાસ ૨ શેઠ ત્રીભોવનદાસ મંગળદાસ ૩ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ ૪ શાહ ચંદુલાલ હરીલાલ ૫ શાહ સાકરચંદ મેહનલાલ ૬ શાહ શકરાભાઈ દેવચંદ ૭ શાહ સુખલાલ દેલતચંદ ૮ ગાંધી બાપુલાલ મેહનલાલ ૯ બેન લલિતા માણેકલાલ ગાંધીગામ ૧ શાહ મોરારજી નાગજી એન્ડ કંપની ગુંદાલા ૧ શાહ માલશી ઘેલાભાઈ ગુલાબપુરા ૧ શ્રી સ્થા. જૈન વર્ધમાન સંઘ હ. માંગીલાલજી ઉકારમલજી ધનેપવાળા ૨ શ્રી ઓસવાલ પંચાયત હ. ગુલાબચંદજી ચારડીયા ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૧ સ્વ. ભાખડા વચ્છરાજ તુલસીદાસનાં ધર્મપત્ની કમલબાઈ તરફથી હા. માણેકચંદભાઈ તથા કપુરચંદભાઈ ૨ પીપળીયા લીલાધર દાદર તરફથી તેમના ધર્મપત્ની અ. સી. લીલાવતી સાકરચંદ કોઠારીના બીજા વષીતપની ખુશાલીમાં For Private And Personal Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૨૧ ૩છે. ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૩ કામદાર જુઠાલાલ કેશવજીના સમરણાર્થે હા. - હરીલાલ જુઠાલાલ કામદાર ૪ સ્વ કે ઠારી કૃપાશંકર માણેકચંદના સ્મરણાર્થે હા. તેમનાં ધર્મપત્ની પ્રભાકુંવરબેન ૫ કોઠારી ગુલાબચંદ રાયચંદ રંગુનવાળા ૬ જસાણી રૂગનાથભાઈ નાનજી હા. ચુનીલાલભાઈ છ માસ્તર હકીમચંદ દીપચંદ શેઠ ગદીયા ૧ સ્થા. જૈન સંઘ હ શાહ પ્રેમચંદ છોટાલાલ (શેઠ પોપટલાલભાઈ તરફથી) ૨૫૧ ગોધરા ૧ શાહ ત્રીભવનદાસ છગનલાલ ૨ સ્વ. પ્રેમચંદ ઠાકરશીના સ્મરણાર્થે હ. શાહ ચુનીલાલ પ્રેમચંદ ૩૦૧ ૨૫૧ ૩૦૧ ઘટકણ ૨૫૧ ૩૦૦ ૨૫૧ ૨૫૧ ૧ શાહ ચંદુલાલ કેશવલાલ ઘોલવડ (થાણા) ૧ મહેતા ગુલાબચંદ ગંભીરમલજી ઘડનદી ૧ શેડ ચંદ્રભાણ ભાચંદ ગાદીયા ચુડા ૧ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ હા. રતીલાલ મગનલાલ ગાંધી ચેટીલા ૧ શાહ વનેચંદ જેઠાલાલ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘને ભેટ ચારભુજારેડ ૧ શેઠ માંગીલાલજી હીરાચંદજી બાબેલ જમશેદપુર ૧ દોશી ઝવેરચંદ વલભજી જલેસર (બાલાસર) ૧ સંઘવી નાનચંદ પોપટભાઈ થાનગઢવાળા ૩૦૧ ૩૦૧ ૨૫૧ ૨૫૧ For Private And Personal Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ૨૨ જયપુર ૧ શ્રીમાન શેઠ શીરેમલજી નવલખાનાં ધર્મ પત્ની અ. સૌ. પ્રેમલતાદેવી ૨૫૧ જવ તગત ૧ શ્રીમાન સુન્દરલાલજી નેમીચંદજી તકેસરા જામખંભાળીયા ૧ શાહ છેટાલાલ કેશવજી ૨ વારા ચીમનલાલ દેવજીભાઇ ૩ ડા સાહેબ પી. પી. શેઠ ૧ શેઠ વસનજી નારણુંજી ૨ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ હા. મહેતા રણછોડદાસ પરમાણુનદ ૩ સઘવી પ્રાણલાલ લવજીભાઈ જામનગર ૪ શાહ રગીલદાસ પેપટલાલ ૫ વકીલ મણીલાલ ખેંગારભાઈ પુનાતર જીનારદેવ ૧ ઘેલાણી ત્રીકમજી લાધાભાઈ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir જુનાગઢ ૧ શેઠ મણીલાલ મીઠાભાઈ હું. રિલાલભાઈ (હાટીનામાળીયાવાળા) જામજોધપુર ૧ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ હું, મહેતા પેાપટલાલ માવજીભાઈ ૨ શાહે ત્રીભાવનદાસ ભગવાનજી પાનેલીવાળા ૩ દોશી માણેકચ’ૐ ભવાન ૪ પટેલ લાલજી જીઠાભાઈ ૫ શેઠ બાવનજી જેઠાભાઇ ૬ શેઠ વ્રજલાલ શુનીલાલ જેતપુર ૧ કાહારી ડાલરકુમાર વેણીલાલ ૨ . સૌ. મેન સુરજકુવર વેણીલાલ કાઠારી For Private And Personal Use Only ૩૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૦ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૩૮૭ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૦ ૨૫૧ ૨૫૧ ૩ શેઠ અમૃતલાલ હીરજીભાઈ હ. નરભેરામભાઈ (જસાપુરવાળા) ૨૫૧ ૪ દેશી છોટાલાલ વનેચંદ ૨૫૧ જેતલસર ૧ શાહ લક્ષ્મીચંદ કપુરચંદ ૨ કાદાર લીલાધર જીવરાજના સ્મરણાર્થે તેમનાં ધર્મપત્ની જબકબેન તરફથી હ. શાંતિલાલભાઈ ગેડલવાળા જોધપુર ૧ શેઠ નવરતમલજી ધનવંતસિંહજી ૨ શેઠ હસ્તીમલજી મનરૂપલજી સામસુખા ૨૫૧ ૩ શેઠ પુખરાજજી પદમરાજજી ભંડારી ૪ શેઠ વસ્તીમલ આનંદમલજી સામસુખા જોરાવરનગર ૧ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ હ. શેઠ ચંપકલાલ ધનજીભાઈ ઝરીયા ૧ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ હ. શેઠ કનૈયાલાલ બી મોદી ૨૫૧ ડેડાયા ૧ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ લ્સા ૧ ઢસાગામ સ્થા. જૈન સંઘ હ. એક સદગૃહસ્થ તરફથી ૨૫૧ ૨ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ બગડિયા નરભેરામ જેઠાલાલ (ઢસા જંકશન) ૨૫૧ તાસગાંવ ૧ સ્વ. ચુનીલાલ દુગડના સ્મરણાર્થે તેમના ધર્મપત્ની ટુંબાઈના તરફથી હા. શેઠ રામચંદજી થાનગઢ ૧ શાહ ઠાકરશીભાઈ કરશનજી ૨ શેઠ જેઠાલાલ ત્રીભવનદાસ ૨૫૧ ૩ શાહ ધારશીભાઈ પાશવીરભાઈ હા. સુખલાલભાઈ ૨૫૧ ૪ હંસાબેન અરવીંદ હા. ભાઈ રવીચંદ માણેકચંદ ૩૦૧ ૨૫૦ ૩૫૧ ૨૫૧ For Private And Personal Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २४ દહાણુરોડ ૧ શાહ હરજીવનદાસ એઘડ ખંધાર (કરાંચીવાળા) દાહાદ ૧ શેઠ માણેકલાલભાઈ ખેંગારજી દિકરી ૧ લાલાજી પૂર્ણચંદજી જૈન (સેન્ટ્રલ બેંકવાળા) ૨ શ્રીયુત કીશનચંદજી મહેતાબચંદજી ચારડીયા હા. શ્રીમતી નગીનાદેવી તથા શ્રીયુત મહેતાબચંદ જૈન ૩ અ. સૌ. સજ્જનબેન ઇઢરમલજી પારેખ ૪ લાલાજી મીનલાલજી જૈન એન્ડ સન્સ ૫ લાલાજી ગુલશનલાલજી જૈન એન્ડ સન્સ ૬ બેન વિયાકુમાદી જૈન ઠે. મહેતાખચ'દ જૈન ૧ શેઠ મણીલાલ જેચ'દભાઈ (વાવૃદ્ધ સરલ સ્વભાવી ફુલમતીજી મહાસતિજીની પ્રેરણાથી) ૭ શ્રીમાન લાલાજી રતનચંદજી જૈન હૈ, આઈ સી. હાઝીયરી ૮ ૧. લાલાશ્રીચ'દજી ડુંગરીયાના સ્મરણાર્થે રાજસ્થાન ન્યાયાધિકારી હુકમચંદજી જૈનના સુપુત્ર જીતેન્દ્રકુમાર વકીલના સુપુત્ર અનિલકુમાર તરફથી ભેટ હ. વિનયકુમારી ૯ સ્વ. લાંલા ચંપાલાલજી ચેરડીયાના સ્મરણાર્થે લાભચંદજી તથા હીરાલાલજી તરફથી હ. શાંતાદેવી ૧૦ એક સગ્રહસ્થ તરફથી હ. મહેતાષચ'દજી જૈન ૧૧ એક સ્વધર્મી બન્ધુ તરફથી હસ્તે વિજિથાકુમારી એન ૧૨ માત્રુ નિરજન સિ’હુજી જૈન ૧ શેઠ સાગરમલજી પનાલાલજી ગ્રાફા Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ધાર ધાંગધ્રા ૧ ભાવદીક્ષિત અ. સૌ. રૂપાળીબેન હિંમતલાલ સધવીની તપશ્ચર્યાથે સંઘવી ચીમનલાલ પુરસાતમદાસ સંઘવી તરફથી For Private And Personal Use Only ૫૧ ૨૫૧ ૩૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૩૦૧ ૩૦૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૩૫૧ ૩૫૧ ૩૦૧ ૩૦૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૩૦૫ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૩૧ ૨ સંઘવી નરસિંહદાસ વખતચંદ ૩ શ્રી સ્થા. જૈન મોટા સંઘ હ. મંગળજી જીવરાજ ૪ ઠકકર નારણદાસ હરગોવિંદદાસ પ કોઠારી કપુરચંદ મંગળજી ૨૫૧ ૨૫૧ ધોરાજી ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૧ મહેતા પ્રભુદાસ મુળજીભાઈ ૩૫૧ ૨ અ. સી. બચીબેન બાબુભાઈ ૨૫૧ ૩ ધી નવસૌરાષ્ટ્ર ઓઈલ મીલ પ્રા. લીમીટેડ ૨૫૧ ૪ સ્વ. રાયચંદ પાનાચંદના સ્મરણાર્થે હ. ચીમનલાલ રાયચંદ શાહ ૩૦૧ ૫ ગાંધી પિપટલાલ જેચંદભાઈ ૨૫૦ ૬ દેસાઈ છગનલાલ ડાહ્યાભાઈ લાઠવાળાનાં ધર્મપત્ની દિવાળીબેન તરફથી હ. કુમારી હસુમતી ૭ એક સદ્ગહસ્થ હ. મહેતા પ્રભુદાસ મુળજીભાઈ ૨૫૧ ૮ શેઠ દલપતરામ વસનજી મહેતા ૯ સ્વ. પિતાશ્રી ભગવાન કચરાભાઈના તથા ચિ. હંસાના સ્મરણાર્થે - હ. પટેલ દલીચંદ ભગવાનજી ૩૦૧ ૧૦ મહેતા હેમચંદ કાળીદાસ જામખંભાળીયાવાળા - ધંધુકા ૧ શેઠ પોપટલાલ ધારશીભાઈ ૨૫૧ ૨ સ્વ. ગુલાબચંદભાઈના સ્મરણાર્થે હ. વેર પિપટલાલ નાનચંદ ર૫૧ ૩ શ્રી ચત્રભુજ વાઘજીભાઈ વસાણું ૨૫૧ ધુલીયા ૧ શ્રી અમલ જૈન જ્ઞાનાલય હ. શેઠ કનૈયાલાલ છાજેડ નડીયાદ ૧ શાહ મેહનલાલ ભુરાભાઈ નારાયણ ગામ ૧ શેઠ મોતીલાલજી હીરાચંદજી ચેરડીયા બેરીવાળા નંદુરબાર ૧ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ હ. શેઠ પ્રેમચંદ ભગવાનલાલ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ For Private And Personal Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૩૦૧ નાગેર ૧ શ્રીપાલભાઈ એન્ડ કુ. સાગરમલજી લુકડ ડેરવાળા તરફથી પાલનપુર ૧ બેન લક્ષ્મીબાઈ હ. મહેતા હરીલાલ પીતાંબરદાસ ૨ લેકાગચ્છ સ્થા. જૈન પુસ્તકાલય હ. કેશવલાલ જી. શાહ પાસણ ૧ શ્રી સ્થા. જૈન સંધ હ. શાહ છેટાલાલ પુંજાભાઈ પાલેજ ૧ સ્વ. મનસુખલાલ મેહનલાલ સંઘવીના સ્મરણાર્થે હ. ભાઈ ધીરજલાલ મનસુખલાલ પ્રાંતીજ ૧ સ્થા. જૈન સંઘ હ. શ્રીયુત અંબાલાલ મહાસુખરામ પૂના ૧ શેઠ ઉત્તમચંદજી કેવળચંદજી ધેકા ફાલના ૧ મહેતા પુખરાજ) હસ્તમલજી સાદડીવાલા ૨ મહેતા કુંદનમલજી અમરચંદજી સાદડીવાલા બગસરા ૧ શેઠ પિપટલાલ રાઘવજી રાયડીવાળા હ. નાનચંદ પ્રેમચંદ શાહ ૨ સ્વ. માતુશ્રી જનકબાઈના સ્મરણાર્થે હ. દેશાઈ વૃજલાલ કાળીદાસ ૨૫૦ ૨૫૧ ૩૦૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ બરવાળા-ઘેલાશા ૧ સ્વ. મોહનલાલ નરસિંહદાસના સ્મરણાર્થે હ. તેમનાં ધર્મપત્ની સુરજબેન મોરારજી બદનાવર ૧ શ્રી વર્ધમાન સ્થા. જૈન શ્રાવક સંઘ હ. મિશ્રીલાલ જૈન વકીલ ૨૫૧ ૨૫૧ For Private And Personal Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૪ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૩૫૧ બાલોતરા ૧ શાહ જેઠમલજી હસ્તીમલજી ભગવાનદાસજી ભણસારી બીદડા ૧ શાહ કાનજી શામજીભાઈ બીકાનેર ૧ શેઠ ભેરુદાનજી શેઠીયા બેરાજા ૧ શેઠ ગાંગજી કેશવજી (જ્ઞાનભંડાર માટે) બેલારી ૧ શ્રી સ્થા. જૈન સંધ હ. શેઠ હજારમલજી હસ્તીમલજી રાંકા બેરમે ૧ શ્રી રમે સ્થા. જૈન સંઘ હ. મહેતા નવલચંદ હાકેમચંદ બેંગલોર ૧ શેઠ કિશનલાલ ફુલચંદજી સાહેબ ૨ અજમેરા છોટાલાલ માનસિંગ બોટાદ ૧ સ્વ. વસાણી હરગોવિંદદાસ છગનલાલના સમરણાર્થે હા. તેમના ધર્મપત્ની છબલબેન બોડેલી ૧ શાહ પ્રવીણચન્દ્ર નરસિંહદાસ સાણંદવાળા ૨ શાહ ગીરધરલાલ સાકરચંદ ભાણવડ ૧ શેઠ જેચંદભાઈ માણેકચંદભાઈ ૨ સંઘવી માણેકચંદ માધવજી ૩ શેઠ લાલજી માણેકચંદ લાલપુરવાળા ૪ શેઠ રામજી જીણભાઈ પ શેઠ પદમશી ભીમજી ફેફરીયા ૬ ફેફરીય ગાંડાલાલ કાનજીભાઈ હા. અ. સૌ. શાંતાબેન વસનજી છ વે. મહેતા પૂનમચંદ ભવાનના સ્મરણાર્થે હા. તેમનાં ધર્મપત્ની દિવાળીબેન લીલાધર (ગુંદાવાળા) ૨૫૧ ૨પ૧ ૨૫૧ ઉપર ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ For Private And Personal Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ભાવનગર ૧ વ. કુંવરજી બાવાભાઈના સ્મરણાર્થે હા. શાહ લહેરચંદ કુંવરજી ૩૦૧ ભાદરણુ ૧ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ હા. પટેલ ધુલાભાઈ ઝવેરભાઈ ભીલવાડા ૧ શ્રી શાંતિ જૈન પુસ્તકાલય હ. ચાંદમલજી મામલજી સંઘવી ૨૫૧ ૨ શેઠ ભીમરાજજી મીશ્રીલાલજી ૨૫૧ ૩૦૧ ભીમ ૧ ચંપકલાલજી જૈન પુસ્તકાલય હ. શેઠ ગામલજી માંગીલાલજી ૨૫૧ ભુસાવલ ૧ શેઠ રાજમલજી નંદલાલજી ચેરીટેબલટ્રસ્ટ ૨૫૧ જાય ૧ જ્ઞાન મંદિરના સેક્રેટરી શાહ કુંવરજી જીવરાજ મદ્રાસ ૧ શેઠ મેઘરાજજી દેવીચંદજી મહેતા ૨૫૧ ૨ મહેતા મણુલાલ ભાઈચંદ ૨૫૧ ૩ મહેતા સુરજમલ ભાઈચંદ ૪ મહેતા બાપાલાલ ભાઈચંદ ૨૫૧ મનફરા ૧ સ્થા. છકેટી સ્થા. જૈન સંધ ૨૫૧ મોર ૨૫૧ ૧ શાહ શેરમલજી દેવીચંદજી જશવંતગઢવાળા હ. પૂનમચંદજી શેરમલજી બેલ્યા. માનકુવા ૧ સ્વ. મહેતા કુંવરજી નાથાલાલના મરણાર્થે હા. તેમના ધર્મપત્ની કુંવરબાઈ હરખચંદ (માનકુવા સ્થા. જૈન સંઘ માટે) માંડવી ૧ શ્રી. સ્થા. છોટી જૈન સંધ હ. મહેતા ચુનીવાલ વેલજી ૨૫૧ ૨૭. For Private And Personal Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૨૨૧ ૨૫૦ ૨૫૦ ૨૫૧ ૨૫૧ માંડવા ૧ શ્રી માંડવા સ્થા. જૈન સંધ હ. આ સૌ. કંચનગૌરી રતીલાલ ગેસલીયા (ગઢડાવાળા) ૨૫૧ માલેગાંવ ૧ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ હ. ફતલાલ માલ જૈન માંગરેલ ૧ શાહ ત્રીભોવનદાસ નાનજી ૨ દેશી ગીરધરલાલ જેઠાલાલ મુંબઈ તથા પરાઓ ૧ સ્વ. શ્રી પિતાશ્રી કુંદનમલજી મેતીલાલજી મુળાના સ્મરણાર્થે હા. શેઠ મોતીલાલજી બરમલજી (અહમદનગરવાળા) ૨ વર્ધમાન સ્થા. જૈન સંઘ હ. કામદાર રૂપચંદ શીવલાલ (અંધેરી) ૨૫૧ ૩ અ. સૌ. કમળાબેન કામદાર હ. કામદાર રૂપચંદ શીવલાલ (અંધેરી) ૨૫૧ ૪ સ્વ. માતુશ્રી કડવીબાઈના સ્મરણાર્થે હ. તેમના પત્ર હકમીચંદ તારાચંદ દેશી (અંધેરી) ૫ શાહ હરજીવન કેશવજી ર૫૧ ૬ શાહ રમણીકલાલ કાળીદાસ તથા અ. સૌ, કાન્તાબેન રમણીકલાલ ર૫૧ ૭ સંઘવી હિંમતલાલ હરજીવનદાસ ૨૫૧ ૮ વેરા પાનાચંદ સંઘના સ્મરણાર્થે હ. નંબકલાલ પાનાચંદ એન્ડ બ્રધર્સ ૨૨૧ ૯ શાહ રામજી કરશનજી થાનગઢવાળા ૨૫૧ ૧૦ સ્વ. જટાશંકર દેવજીભાઈ દેશીના સ્મરણાર્થે હ. રણછોડદાસ (બાબુલાલ) જટાશંકર દેશી ૩૦૧ ૧૧ ઘેલાણી વલભજી નરભેરામ હ. નરસીંહદાસ વલભજી ૨૫૧ ૧૨ કપાસી મેહનલાલ શીવલાલ ૧૩ ત્રીભોવનદાસ માનસિયભાઈ દેઢીવાળાના સ્મરણાર્થે હ. શાહ હરખચંદ ત્રીવનદાસ ૧૪ ખેતાણી મણીલાલ કેશવજી (વડીયાવાળા) ઘાટકે પર ૧૫ સ્વ. પિતાશ્રી શામળજી કલ્યાણજી ગુંડલવાળાના સ્મરણાર્થે હા. વૃજલાલ શામળજી બાવીસી ૧૬ શાહ રવિચંદ સુખલાલભાઈ ( દાદર) ૧૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૩૦૧ ૩૫૧ For Private And Personal Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૩૦૧ ૨૫૦. ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫ ૧૭ સ્વ. આશારામ ગીરધરલાલને સ્મરણાર્થે હા. શાંતિલાલ આશરામ વતી જશવંતલાલ શાંતિલાલ ૧૮ ગાંધી કાંતીલાલ માણેકચંદ ૧૯ શાહ રવજીભાઈ તથા ભાઈલાલભાઈની કુાં. (કાંદીવલી) ૨૦ અ.સૌ. લાધુબેન હ. રલજીભાઈ શામજી , ૨૧ સ્વ. માતુશ્રી માણેકબાઈના સમરણાર્થે હશેઠ વલભદાસ નાનજી ૨૨ એક સંગ્રહસ્થ હ. શેઠ સુંદરલાલ માણેક્લાલ ૨૫૧ ૨૩ શેઠ ખુશાલભાઈ ખેંગારભાઈ ૨૪ શેઠ ચુનીલાલ નરભેરામ વેકરીવાળા ૨૫ સવ. માતુશ્રી ગે.મતીબાઈના સ્મરણાર્થે હ શાહ પિટલાલ પાનાચંદ ૨૫૧ ૨૨ કેટેચા જયંતીલાલ રણછોડદાસ સિભાગ્યચંદ જુનાગઢવાળા ર૭ વેરા ઠાકરશી જસરાજ ૨૮ કેડારી સુખલાલજી પુનમચંદજી (ખારેડ) ૨૫૧ ૨૯ અ. સૌ. બેન કુંદનગૌરી મનહરલાલ સંઘવી ૩૦ કઠારી રમણીકલાલ કસ્તુરચંદભાઈ ૩૧ દેશાઈ અમૃતલાલ વર્ધમાનના સમરણાર્થે હ. દલીચંદ અમૃતલાલ દેસાઈ ૩૨ સ્વ. ત્રિભવનદાસ વ્રજપાળ વીછીયાવાળાના સ્મરણાર્થે હા. હરગોવિંદદાસ ત્રિવનદાસ અજમેરા ૩૩ તેજાણી કુબેરદાસ પાનાચંદ ૨૫૧ ૩૪ શેઠ સરદારમલજી દેવીચંદજી કાવડીયા (સાદડીવાળા) ૨૫૧ ૩૫ શેઠ નેમચંદ સ્વરૂપચંદ ખંભાતવાળા હ. ભાઈ જેઠાલાલ નેમચંદ ૨૫૧ ૩૬ શાહ કરશીભાઈ હરજીભાઈ ૩૭ શ્રીમતી મણીબાઈ વૃજલાલ પારેખ ચેરીટેબલ ટ્રસ્ટ ફંડ હ, વૃજલાલ દુર્લભજી પારેખ ૩૮ દડિયા અમૃતલાલ મોતીચંદ (ઘાટકોપર) ૩૯ દેશી ચત્રભુજ સુંદરજી ૪૦ દેશી જુગલકિશોર ચત્રભુજ , ૪૦૧ ૪૧ દેશી પ્રવિણચંદ ચત્રભુજ ૩૮૧ કર શેઠ મનુભાઈ માણેકચંદ હ. ઝાટકયા નરભેરામ મેશરજી ૨૫૧ ૪૩ શાહ કાંતિલાલ મગનલાલ » ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૩૦૧ ૧ » ૪૦૧ For Private And Personal Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ૪૪ શેઠ મણીલાલ ગુલાષચંદ ૪૫ શેઠ છગનલાલ નાનજીભાઈ www.kobatirth.org ૪૯ મહેતા રતીલાલ ભાઇચંદ ૫૦ શાહ પ્રેમજી હીરજી ગાલા ી Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૪૬ શાહ શીવજી માણેકભાઈ ૪૭ મેસસ સવાણી ટ્રાન્સપાટ કુાં. હા. શેઠ માણેકલાલ વાડીલાલ ૪૮ શાહુ નગીનદાસ કલ્યાણજી (વેરાવળવાળા) ઘાટકાપર ૨૫ણુ ૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૫૧ એન કેશરખાઇ ચંદુલાલ જેશીંગભાઇ શાહે પર પારેખ ચીમનલાલ લાલચંદ સાયલાવાળાના ધમપત્ની અ. સૌ. ચંચળખાઇના સ્મરણાર્થે હા સારાભાઈ ચીમનલાલ ૨૫૧ ૫૩ ધી મરીના મોર્ડન હાઇસ્કુલ ટ્રસ્ટ ફંડ હા, શાહ મણીલાલ ઠાકરશી ૨૫૧ ૫૪ મહેતા મેટર સ્ટીસ હા. અનેાપચ ડી. મહેતા ૨૫૧ ૫૫ શેઠ રસીકલાલ પ્રભાશંકર મારખીવાળા તરફથી તેમનાં માતુશ્રી મણીબેનના સ્મરણાર્થે ૫૬ શ્રીયુત જસવંતલાલ ચુનીલાલ વેરા પ૭ શાહ કુંવરજી હુંસરાજ ૫૮ દડીયા જેસીંગલાલ ત્રીકમજી ૫૯ મેદી અભેચંદ સુરચંદ રાજકોટવાળા હા ડાસાલાલ અભેચ ૩૦૧ ૨૫૦ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૬૦ શાહે જેઠાલાલ ડામરશી ધ્રાંગધ્રાવાળા હા. શાહે વાડીલાલ જેઠાલાલ ૨૫૦ ૬૧ સ્વ. પિતાશ્રી ભગવાનજી હીરાચ'દ જસાણીના સ્મરણાર્થે હા. લક્ષ્મીચંદભાઈ તથા કેશવલાલભાઈ ૬૨ સ્વ. પિતાશ્રી શાહુ અખાલાલ પુરુષોત્તમદાસના સ્મરણાર્થ હા. શાહે આપાલાલ અખલાલ ૬૩ સ્વ. કસ્તુરચંદ અમરશીના સ્મરણાર્થે હા. તેમનાં ધમ પત્ની ઝવેરબેન મગનલાલ વતી જયંતીલાલ કસ્તુરચ'દ મશ્કારીયા (ચુડાવાળા) For Private And Personal Use Only ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૬૪ શેઠ ડુંગરશી હુંસરાજ વીસરીયા ૬૫ શાહ રતનશી માણશીની કુાં. ૬૬ શેઠ શીવલાલ ગુલાબચંદ મેવાવાળા ૬૭ શાહે ચંદુલાલ કેશવલાલ ૬૮ સ્વ. પિતાશ્રી વીરચ'નૢ જેસીંગ શેઠ લખતરવાળાના સમરણાર્થે હા. કેશવલાલ વીરચંદ ૬૯ ચ'દુલાલ કાનજી મહેતા ૩૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૧૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૫૧ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૨૫૧ ૫ ૩૦૧ - ૩૨ ૭૦ શ્રી વર્ધમાન સ્થા. જૈન સંઘ હા. કેશરીમલજી અને પચંદજી ગુગલીયા (મલાદ) ૨૫૧ ૭૧ સ્વ. પિતાશ્રી પતુભાઈ મનાભાઈના સ્મરણાર્થે હા. શાહ કાનજી પતુભાઈ ૭૨ અ.સૌ. પાનબાઈ હા, શેઠ પદમશી નરસિંહભાઈ ૭૩ સવ. નાગશીભાઈ સેજપાલના સ્મરણાર્થે રામજી નાશી , ૩૦૧ ૭૪ સ્વ. ગેડા વણરશી ત્રિીભવનદાસ સરસઈવાળાના સ્મરણાર્થે હા. જગજીવન વણરશી ગડા ૨૫૧ ૫ સ્વ. કાનજી સુળજીના સ્મરણાર્થે તથા માતુશ્રી દિવાળીબાઈના ૧૬ ઉપવાસના પારણું પ્રસંગે હા. યંતિલાલ કાનજી ૭૬ શાહ પ્રેમજી માલશી ગંગર , ૨૫૧ ૭૭ શાહ વેલશી જેસીંગભાઈ છાસરાવાળા તરફથી તેમનાં ધર્મપત્ની સ્વ. નાનબાઈના મરણાર્થે ૭૮ સ્વ. પિતાશ્રી રાયશી વેલશીના સ્મરણાર્થે હા. શાહ દામજી રાયશીભાઈ ૭૯ શાહ વરજાંગભાઈ શીવજીભાઈ ૮૦ શાહ ખેમજી મુળજી પુજા ૮૧ અ. સૌ. સમતાબેન શાંતિલાલ ઠે. શાંતીલાલ ઉજમશી શાહ , ૮૨ સ્વ. કેશવલાલ વછરાજ કેકારીના સ્મરણાર્થે સૂરજબેન તરફથી હા. તનસુખલાલભાઈ y ૨૫૧ ૮૩ સ્વ. પિતાશ્રી હંસરાજ હીરાના સમરણાર્થે હા. દેવશી હંસરાજ કચ્છ બીદડાવાળા » ૨૫૧ ૮૪ ઘેલાણી પ્રભુલાલ ત્રીકમજી (બેરીવલી) ઉપર ૮૫ શેઠ ચંબકલાલ કસ્તુરચંદ લીમડી અજરામર શાસબંડારને ભેટ (માટુંગા)૨૫૧ ૮૬ એ. સી. બેન રજનગૌરી કે. શાહ ચંદુલાલ લક્ષ્મીચંદ , ૨૫૧ ૮૭ શાહ નટવરલાર દીપચંદ તરફથી તેમનાં ધર્મપત્ની અ.સૌ. - સુશીલાબેનના વષીતપની ખુશાલીમાં - ૨૫ ૮૮ દેશી ભીખાલાલ વૃજલાલ પાળીયાદવાળા ૮૯ શાહ ગેપાળજી માનસંગ , ૨૫૧ , ૩૦૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ • ૨૫ For Private And Personal Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૩૨ ૨૫૦ ૯૦ દેશી કુલચંદ માણેકચંદ ૯૧ શેઠ ચંપકલાલ ચુનીલાલ દાદભાવાળા , ૨૫૧ ૨ શ્રી વર્ધમાન સ્થા. જૈન શ્રાવક સંઘ હ. શાહ રવિચંદ સુખલાલ (દાદર) ૨૫૧ શાંતિલાલ ડુંગરશી અદાણી , ૨૫૧ ૯૪ શાહ કરશન લધુભાઈ , ૨પ ૯૫ કિસનલાલ સી. મહેતા શીવ ૨૫૧ હ૬ માતુશ્રી જીવાભાઈના સ્મરણાર્થે છે. શામજી શીવજી કચ્છ ગુંદાળાવાળા ગોરેગાંવ ૨૫૧ ૭ સ્વ. શાહ રાયશી કચરાભાઈને મરણાર્થે તેમનાં ધર્મપત્ની નેણબાઈ વતી હ. જેઠાલાલ રાયશી ૨૫૧ ૯૮ શુશીલાબેન શકરાભાઈ છે. નવીનચંદ્ર વસંતલાલ શાહ વિલેપાર્લે ૨૫૧ ૯૯ બેન ચંદનબેન અમૃતલાલ વારિવા ૧૦૦ વ. કાળીદાસ જેઠાલાલ શાહના સ્મરણાર્થે હ સુમનલાલ કાળીદાસ (કાનપુરવાળા) ૧૦૧ શાહ ત્રીભવન ગેપાળજી તથા અ.સૌ. બેન કસુંબા ત્રીભવન (થાનગઢવાળા ) ૨૫૧ ૩૦૧ ગર્વ છે મુળી ૩૦૧ ૩૫૧ ૧ શેઠ ઉજમશી વીરપાળ હ. શેઠ કેશવલાલ ઉજમશી મોરબી ૧ દેશી માણેકચંદ સુંદરજી મોમ્બાસા ૧ શ્રીયુત નાથાલાલ ડી. મહેતા ૨ શાહ દેવરાજ પેથરાજ મહેસાણું ૧ શાહ પદમશી સુરચંદના સમરણાર્થે હ. શીવલાલ પદમશી યાદગીરી ૧ શેઠ બાદરમલજ સુરજમલજી બેંકર્સ ૨૫૧ ૨૫૦ ૨૫ ૨૫૦ For Private And Personal Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir રતલામ ૧ અનેક ભકતજને તરફથી હ, શ્રીમાન કેશરીમલજી ડક ( શ્રી કેવળચંદ મુનિશ્રીને ઉપદેશથી) રાણપુર ૧ શ્રીમતી માતુશ્રી સમરતબાઈના સ્મરણાર્થે હ. ડે. નરેતમદાસ ચુનીલાલ કાપડીયા ૨ સ્વ. પિતાશ્રી લહેરાભાઈ ખીમજીના સ્મરણાર્થે હ. શેઠ કાળીદાસ લહેરાભાઈ વસાણી ૨૫૧ ૩૧ રાણુવાસ ૧ શેઠ જવાનમલજી નેમીચંદજી હા. બાબુ રખબચંદજી ૨૦૧ રાયચુર ૧ સ્વ. માતુશ્રી મેઘીબાઈને સ્મરણાર્થે હ. શાહ શીવલાલ ગુલાબચંદ વઢવાણવાળા ૨ કાળુરામજી ચાંદમલજી સચેતી ૨૫1. ૨૫૧ ૪૦૦ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ રાજકેટ ૧ વાડીલાલ ડાઈગ પ્રિન્ટીંગ વર્કસ ૨ શેઠ રતીલાલ ન્યાલચંદ ચીત્તલીયા ૩ શેઠ મનુભાઈ મુળચંદ (એજીનીયર સાહેબ ) ૪ શેઠ શાંતિલાલ પ્રેમચંદ તેમના ધર્મપત્નીના વષીતપ પ્રસંગે પ શેઠ પ્રજારામ વિઠ્ઠલજી બેન સથુંબાળ નૌતમલાલ જસાણી (વર્ષીતપની ખુશાલી ) ૭ મેદી સૌભાગ્યચંદ મોતીચંદ ૮ બદાણી ભીમજી વેલજી તરફથી તેમના ધર્મપત્ની અ. સૌ. સમરતબેનના વર્ષીતપ નિમિત્તે ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ For Private And Personal Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ૩૫ ૯ દોશી મેાતીચંદ ધારશીભાઈ ( રીટાયર્ડ એકઝીકયુટીવ એન્જીનીયર) ૨૫૧ ૫૦ ૧૦ કામદાર ચંદુલાલ જીવરાજ ( ધ્રાંગધ્રાવાળા ) ૧૧ હેમાણી ઘેલાભાઇ સવચન્દ્રે ૧૨ દફતરી પ્રભુલાલ ન્યાલચંદ ૧૩ સ્વ. મહેતા દેવચંદ પુરૂષોત્તમના સ્મરણાર્થે તેમનાં ધર્મપત્ની હેમકુવરબાઈ તરફથી હ. જયંતીલાલ દેવચંદ મહેતા Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૧ પૂજ્ય વાલજીભાઇ ન્યાલચંદભાઇ ૨૫૧ ૧૪ પારેખ શીવલાલ ઝુંઝાભાઈ મામ્બાસાવાળા હ. અ. સૌ. કંચનબેન પર રાપર રામપુરા ૧ શેઠ તેજમલજી મનેાહરલાલજી એ'કર રાવટી ૧ શેઠ મિયાચદજી જીહારમલજી કટારિયા લખતર ૧ શાહ રાયચંદ ઠાકરશીના સ્મરણાર્થે હ. શાંતિલાલ રાયચંદ શાહુ ૨ ભાવસાર હરજીવનદાસના સ્મરણાર્થે હ. ત્રીભાવનદાસ હરજીવનદાસ ૩ શાહ તલકશી હીરાચંદના સ્મરણાર્થે હું. ભાઈ અમૃતલાલ તલકશી ૪ શાહુ ચુનીલાલ માણેકચંદ ૫ શાહે જાદવજી આઘડભાઈના સ્મરણાર્થે હ, શાંતિલાલ જાદવજી ૬ દોશી ઠાકરશી ગુલાબચંદના સ્મરણાર્થે તેમનાં ધમ પત્ની સમરત મહેન તરફથી હ. જયંતિલાલ ઠાકરશી લાલપુર ૧ નેમચ'દ સવજી માદી હૈ. ભાઈ મગનલાલ ૨ શેઠ મુલચંદ પોપટલાલ હા. મણીલાલ તથા જેશીંગભાઈ લાખેરી ૧ માસ્તર જેઠાલાલ માનજીભાઈ હું. અમૃતલાલ જેઠાલાલ ( સીવીલ એન્જીનીયર સાહેબ ) લાકડીયા ૧ શ્રી લાકડીયા સ્થા. જૈન સ`ઘ હ. શાહ રતનશી કરમણ For Private And Personal Use Only ૨૫૧ ૨૫૧ ૫૧ ૩૫૧ ૩૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ૧ શાહ ચકુભાઇ વખતચંદ www.kobatirth.org ૩૬ લીબડી ( સૌરાષ્ટ્ર ) લીમડી (પંચમહાલ) ( ૧ શાહ કુંવરજી ગુલામચંદ ૨ છાજેડ ઘાસીરામ ગુલાભચંદ ૩ શેઠ વીરચંદ્ર પન્નાલાલજી કરણાવટ ૪ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ હ. શાહ શાંતીલાલ ગુલામચંદ લાનાવાલા ૧ શેઠ ધનરાજ મુલચ'દજી સુથા ૧ બાબુ રાજેન્દ્રકુમાર જૈન દિલ્હીવાળા લુધિયાના વઢવાણ શહેર ૧ શેઠ દીલીપકુમાર સવાઈલાલ હૈ શાહ સવાઈલાલ ત્ર ́ખકલાલ ૨ કામદાર મગનલાલ ગોકલદાસ હ, રતીલાલ મગનલાલ ૫ વારા ચત્રભુજ મગનલાલ ૬ સઘવી શીવલાલ હીમજીભાઇ ૩ સંઘવી મુળચંદ બેચરભાઈ હ. જીવણલાલ ગલદાસ ૧ શેઠ કાંતિલાલ નાગરદાસ ૧૫ શ્રી વૃજલાલ સુખલાલ ૭ શાહુ દેવશીભાઈ દેવકરણ ૮ વારા ડોસાભાઇ લાલચંદ સ્થા. જૈન સઘ હ. વારા નાનચ' શીવલાલ હું વારા ધનજીભાઈ લાલચંદ સ્થા. જૈન સંઘ હું વારા પાનાચંદ્ર ગેાખરદાસ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૧૦ દોશી વીરચ‘દ સુરચંદ હા. દેશી નાનચંદ ઉજમશી ૧૧ સ્વ. વારા મણીલાલ મગનલાલ તથા વારા ચત્રભુજ મણીલાલ ૧૨ શાહ વાડીલાલ દેવજીભાઈ ૧૩ કામદાર ગોરધનદાસ મગનલાલનાં ધર્મ પત્ની અ. સૌ. કમળાબેન રંગુનવાલા વડાવા ૧ કામદાર કેશવલાલ હિંમતરામ પ્રેફેસર For Private And Personal Use Only ૨૫૧ ૨૫૧ પા ૨૫૧ ૩૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org . ૨ વકીલ મણીલાલ કેશવલાલ શાહ ૩ સ્વ. પિતાશ્રી ફકીરચ'દ પુંજાભાઇના સ્મરણાર્થે હા. શાહ રમણલાલ ફકીરચઢ વડીયા ૪ શેઠ ભવાનભાઈ કાળાભાઇ પંચમીયા વલસાડ ૧ શાહ ખીમચંદ મુલજીભાઇ ઘણી ૧ મહેતા નાનાલાલ છગનલાલનાં ધર્મ પત્ની સ્વ. ચ'ચળબેન તથા પુરીબેનના સ્મરણાર્થે હ!. મનહરલાલ નાનાલાલ મહેતા વટામણુ ૧ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ હા. પટેલ ડાયાભાઈ લુભાઈ વડગાંવ ૧ શેઠ માણેકચંદજી રાજમલજી ખાણા વાંકાનેર Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૧ ખઢારીયા કાંતીલાલ ત્રંબકલાલ ૨ દફ્તરી ચુનીલાલ પોપટભાઇ મેરબીવાળા હા. પ્રાણલાલ ચુનીલાલ દફતરી વીછીયા ૧ શ્રી સ્થા. જૈન સધ હા. અજમેરા રાયચંદ વ્રજપાળ વીરમગામ ૧ માસ્તર વીઠલભાઈ મોદી ૨ શાહ નાગરદાસ માણેકચંદ ૩ શાહુ મણીલાલ ધણલાલ શાહપુરવાળા ૪ શાહે અમુલખ નાગરદાસનાં ધર્મપત્ની અ. સૌ. એન લીલાવતીના વર્ષીતપ નિમિતે હા. શાહ કાંતિલાલ નાગરદાસ ૫ સ્વ. શેઠ ઉજમશી નાનચંદના સ્મરણાર્થે હા. ચુનીલાલ નાનચંદ ૬ સ્વ. શેઠ મણિલાલ લક્ષ્મીચંદ ખારાઘેાડાવાળાના સ્મરણાર્થે તેમના પુત્ર તરફથી હ. ખીમચંદભાઇ ૭ સ્વ. શેઠ હરિલાલ પ્રભુદાસના સ્મરણાર્થે હા. અનુભાઈ For Private And Personal Use Only ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૫૧ ૨૫૧ ૫૧ ૨૫૧ ૫૧ ૨૫૧ ૩૦૦ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ૩૮ ૮ સંઘવી જેચંદભાઈ નારણદાસ ૯ સ્વ. શાહ વેલશીભાઈ સાકરચંદ કત્રાસગઢવાળાના સ્મરણાર્થે . ચીમનલાલભાઈ હે. નથુભાઇ નાનચંદ શાહ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૨૫૧ ૧૦ પારેખ મણીલાલ ટોકરશી લાતીવાળા (માટી બેનના સ્મરણાર્થે) ૨૫૧ ૧૧ શાહ નારણદાસ નાનજીભાઈના પુત્ર વાડીલાલભાઇનાં ધર્મ પત્ની અ. સૌ. નારગીએનના વર્ષીતપ નિમિતે હૈં, શાંતીલાલ નારણદાસ ૫૧ ૧૨ ૨૦. છબીલદાસ ગેાકળદાસના સ્મરણાર્થે તેમનાં ધર્મ પત્ની કમળાબેન તરફથી હ. મંજુલાકુમારી ૧૩ શ્રી સ્થા જૈન શ્રાવિકા સધ હુ. રંભાબેન વાડીલાલ ૧૪ સ્વ. ત્રિભાવનદાસ દેવચંદ તથા સ્વ. ચંચળબેનના સ્મરણાર્થે હ. ડો. હિંમતલાલ સુખલાલ ૨૫૧ ૧૫ શાહ મુળચંદ કાનજીભાઇ હૈ. શાહ નાગરદાસ એઘડભાઈ ૧૬ શેઠ મેહનલાલ પિતાંબરદાસ હ. ભાઈ કેશવલાલ તથા મનસુખલાલ ૨૫૧ ૨૫૧ ૧૭ શ્રીમતી હીરાબેન નથુભાઇના વર્ષીતપ નિમિતે ૧૮ શેઠ મણીલાલ શીવલાલ ૧૯ સ્વ. મણીયાર પરસાતમદાસ સુદરજીના સ્મરણાર્થે હું. સાકરચ', પરસાતમદાસ શાહુ ૨૦ સ્વ. માહનદાસ શુહાભાઇના સ્મરણાર્થે હ, તેમનાં ધર્મપત્ની નાથીખાઈ તરફથી હ. શંકરલાલ તથા શાંતીલાલ વીજયનગર ૧ શ્રી વમાન શ્વે. સ્થા. જૈન શ્રાવક સધ હ. પ્રેમલ અજિતસિંહ વેરાવળ ૧ શાહ કેશવલાલ જેચંદભાઈ ૨ શાહ ખીમચંદ સૌભાગ્યચ ૩ સ્વ. શેઠ મદનજી જેચંદભાઇના સ્મરણાર્થે તેમનાં ધર્મપત્ની લાડકુંવરબાઇ તરફથી હ. ધીરજલાલ મનજી ૨૫૧ ૪ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ . શાહ શોભેચ કરશનજી પ શાહુ હરિકશનદાસ કુલચદ કાનપુર વાળા સા ૧ શ્રી સરા સ્થા. જૈન સંઘ હ. દોશી પાનાચંદ્ર સોમચક્ર For Private And Personal Use Only ૨૫૧ ૨૫૧ ૩૦૧ ૨૫૧ :૨૫૧ ૨૫૧ ૩૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૧ ૨૫૧ ૫૧ ૨૫૧ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ૩૯ સાણંદ ૧ શાહ હીરાચંદ છગનલાલ હા. શાહુ ચીમનલાલ હીરાચંદ ૨ અ. સૌ. ચપાબેન હા. દેશી જીવરાજ લાલચંદ ૩ પટેલ મહાસુખલાલ ડોસાભાઇ ૪ શાહ સાકરચંદ કાનજીભાઈ ૫ પુરીબેન ચીમનલાભ કલ્યાણજી સંઘવી લીંબડીવાળાના સ્મરણાર્થે હા. વાડીલાલ મોહનલાલ કોઠારી હા. ડા માણેકલાલ કસ્તુરચંદ શાહ ૯ શેઠ મોહનલાલ માણેચંદ ગાંધી ચુડાવાળા તરફથી તેમનાં ધર્માંપત્ની મંછાબેન લલ્લુભાઇના સ્મરણાર્થે ૧૦ સઘવી કાન્તિલાલ હરખચંદ્ર ૧૧ શાહ ભીખાલાલ નાગરદાસ ૧ દેશી ચુનીલાલ ફુલચંદ સાદડી ૧ શેઠ દેવરાજજી જીતમલજી પુનમીયા Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૬ પારેખ નેમચંદ મેાતીચ'દ મુળીવાળાના સ્મરણાર્થે હા. પારેખ ભીખાલાલ નેમચ'ઢ છ સંઘવી નારણદાસ ધરમશીના સ્મરણાર્થે હા. જયતિલાલ નારણદાસ ૨૫૧ ૮ શાહ કસ્તુરચ ંદ હરજીવનદાસ સાલખની ૧ શેઠ ચાંપશીભાઇ સુખલાલ ૨ ભાવસાર ચુનીલાલ પ્રેમચંદ સાસવર્ડ ૧ ચદનમલજી સુથાનાં ધર્મપત્ની અ, સૌ. ર'ગુભાઈ મુથા તરફથી હું. અમરચંદજી મુથા સિંગાપુર ૧ દોશી વનેચ'દ વછરાજ સુરત ૧ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ હા, શાહ રતિંકાલ લલ્લુભાઈ ૨ શ્રીયુત કલ્યાણચંદ માણેકચંદ હુડાલાવા ૩ શ્રી હરીપુરા છકેાટી સ્થા. જૈન સંઘ હા. આબુલાલ છે.ટાલાલ સુરેન્દ્રનગર For Private And Personal Use Only ૩૦૧ પ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૩૦૧ ૩૦૧ ૨૫૧ ૨૫૦ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૧૧ ૨૫૧ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४० ૨૫૧ ૨૫૧ ૩૦૧ ૭ સ્વ. કેશવલાલ મુળજીભાઈનાં ધર્મપત્ની અમરતબાઈના સ્મથણ હા. ભાઈલાલ કેશવલાલ શાહ ૪ શાહ ન્યાલચંદ હરખચંદ ૫ શાહ વાડીલાલ હરખચંદ ૬ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ સુવઈ ૧ સાવળા શામજી હીરજી તરફથી સદાનંદી જૈન મુનિશ્રી છોટાલાલ મહારાજના ઉપદેશથી સુવઈ સ્થા. જૈન સંઘ જ્ઞાનભંડારને ભેટ સંજેલી ૧ શાહે લુણાજી ગુલાબચંદભાઈ ૨ શ્રી. સ્થા. જૈન સંઘ હા. શાહ પ્રેમચંદ દલીચંદ ૨૫૧ ૩૫૧ ૩૦૧ ૩૦૧ ૧ અ. સૌ. ઘસીબેન લાલચંદજી મહેતા (ફતેહનગર સચિને ભેટ) હારીજ ૧ શાહ અમુલખ મુળજીભાઈ હા. પ્રકાશચંદ્ર અમુલખભાઈ ૨ સ્વ. બેન ચન્દ્રકાંતાના સ્મરણાર્થે હા. શાહ અમુલખ મુળજીભાઈ હાટીના માળીયા ૧ શેઠ ગોપાલજી મિઠાભાઈ ૨ શ્રીમતી આનંદરી ભગવાનદાસના સ્મરણાર્થે હા. તેમનાં નાનાબેન અ.સૌ. મંજુલાબેન ભગવાસદાસ ગાંધી ૨૫૦. ૨૫૧ તા. ૩૧-૧૨-૬૧ સુધીના મેમ્બરોની સંખ્યા ૧૭ આદ્ય મુરબ્બીશ્રી ૨૫ મુરબ્બીશ્રી ૧૨૩ સહાયક મેમ્બર ૫૮૪ લાઇફ મેમ્બરે ૫૪ બીજા કલાસના જુના મેમ્બરે ૮૦૩ દરેક દાતાઓને સમિતિ તરફથી આભાર માનું છું. લી. સેવક, રાજકોટ તા. ૩૧-૧૨-૬૧ સાકરચંદ ભાઈચંદ શેઠ મંત્રી, For Private And Personal Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ श्रीवीतरागाय नमः ॥ जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री-घासीलाल-वति-विरचितया सुर्शिन्याख्यया व्याख्यया समलङ्कतं श्री-प्रश्नव्याकरणसूत्रम् (मङ्गलाचरणम्) ( इन्द्रवज्राभेद-धुद्विवृत्तम् ) श्रीसिद्धाजं स्थिरसिद्धिराज्यपदं गतं सिद्धिगतिं विशुद्धम्। निरञ्जनं शाश्वतसौधमध्ये, विराजमानं सततं नमामि ॥१॥ (शार्दूलविक्रीडितवृत्तम् ) नानालब्धिधरं सुरासुरनुतं सन्देहमोहच्छिदंदीप्तं शासनभास्करं गणधरं शुद्धं विपद्वारकम् । ज्ञाताशेषविशेषवस्तुनिचयं तेजस्विनं मुक्तिगं, वन्दे तं सततं विशुद्धचरितं श्री गौतमं सर्वथा ॥२॥ " प्रश्नव्याकरणसूत्रका हिन्दी अनुवाद " मङ्गलाचरणमैं उन सिद्ध भगवन्तको नित्य नमस्कार करता हूं कि जो निरञ्जनअष्टकर्ममल रूप अंजन से सर्वथा विहीन-हो चुके हैं और इसी कारण जो मुक्तिरूप सौधके मध्य में विराजमान हो रहे हैं। जिनके सन्मार्गपर चलने से जीवोंको स्थिर सिद्धरूपी राज्यकी प्राप्ति हो जाती है। जो स्वयं अत्यंत विशुद्ध बन चुके हैं। और सिद्धि नामक गति प्राप्तकर चुके हैं॥१॥ પ્રશ્નવ્યાકરણુસૂત્રો ગુજરાતી અનુવાદ मगणाय२५હું તે સિદ્ધ ભગવાનને હંમેશા નમસ્કાર કરું છું કે જે નિરંજન અષ્ટકર્મમળરૂપ અંજનથી તદ્દન રહિત થઈ ગયાં છે, અને એ જ કારણે જે મુક્તિરૂપ ભવનની મધ્યમાં વિરાજમાન થયેલ છે, જેમને બતાવેલ સન્માર્ગે ચાલવાથી જીને સ્થિર સિદ્ધિરૂપી રાજ્યની પ્રાપ્તિ થાય છે. જેઓ પિતે અત્યંત વિશુદ્ધ सनी गये छ, भने सिद्व नामनी गतिने पास ४री यूश्यां छ. ॥१॥ For Private And Personal Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नध्याकरणसचे ( द्रुतविलम्बितवृत्तम् ) कमलकोमलमजुपदाम्बुजंविमलबोधिदबोधविबोधकम् । मुखसुशोभिसदोरकवत्रिकं गुरुवरं सदयं प्रणमाम्यहम् ॥३॥ (अनुष्टुववृत्तम्) जैनी सरस्वतीं नत्वा, वृत्तिरेषा सुदर्शिनी। प्रश्नव्याकरणे सूत्रे, घासिलालेन तन्यते ॥४॥ ___मैं उन गौतम गणधर को मन, वचन और काय से नित्य नमस्कार करता हूं कि जिन्हों ने तपस्या के प्रभाव से अनेक लब्धियो को प्राप्त कर लिया है। जिन्हें सुर और असुर आकर नमस्कार करते हैं, जीवों के संदेह और मोह जिनके प्रभाव से नष्ट हो जाते हैं, जो शरीर की कान्ति से दीप्त बने रहते हैं, जो शासन के भास्कर हैं भगवान महावीर प्रभु के जो अन्तिम गणधर हुए है, रागादिक दोषों से सर्वथा विशुद्ध बन चुके हैं, जीवों की विपत्ति को जो नाश करने वाले हैं, केवलज्ञान के प्रभाव से जिन्हों ने समस्त जीवादिक वस्तुओं को अच्छी तरह से जान लिया है, जो तेजस्वी है तथा जो मुक्ति को प्राप्त कर चुके हैं ॥२॥ ___ मैं उन दयालु गुरुवर को नमस्कार करता हूँ कि जिनके मनोहर घरणकमल कमल के जैसे कोमल हैं और जो विमल बोधिको देने वाले बोध के दाता हैं तथा जिनका मुख सदा सदोरकमुखवस्त्रिका से विराजित रहता है ॥३॥ તે ગૌતમ ગણધરને મન, વચન અને કાયાથી નમસ્કાર કરું છું કે જેમણે તપસ્યાના પ્રભાવથી અનેક લબ્ધિને પ્રાપ્ત કરી છે. સુર અને અસુરે આવીને જેમને નમન કરે છે, જેમના પ્રભાવથી જેના સંદેહ તથા મોહને નાશ થઈ જાય છે, જે શરીરની કાંતિથી જાજવલ્યમાન રહે છે, જે શાસનના દિવાકર સમાન છે, જે ભગવાન મહાવીરના અન્તિમ ગણધર છે, રાગાદિ દેથી જે તદ્દન વિશુદ્ધ બની ચૂક્યા છે, જેની મુશ્કેલીઓને જે દૂર કરનારા છે, કેવળજ્ઞાનના પ્રભાવથી જેમણે સમસ્ત જીવાદિક વસ્તુઓને સારી રીતે જાણી सीधी छ, र तेजस्वी छे तथा भारी भुति प्रा री सीधेद छ. ॥ २ ॥ હું તે દયાળુ ગુરુવરને નમસ્કાર કરું છું કે જેમનાં મનહર ચરણ, કમળનાં સમાન કે મળ છે, અને જે વિમળજ્ઞાન દેનાર બેધના દાતા છે, તથા भर्नु भुम सहा होरा सहितनी भुपत्तिथी शाले छे. ॥ ३॥ For Private And Personal Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुदर्शिनी टीका अ० १ मङ्गलाचरणम् इह खल्वतिविचित्राकारेऽपारेऽसारे संसारे धनादिभिर्विविधोपायैः सुखार्थ प्रयतमाना अपि जना न केऽपि वास्तविकं सुखमनुभवन्ति किमत्र परिहारनिदानमिति, सति विचारसंचारे मोक्ष एव निरतिशयसुखसाधनमिति सिद्धयति । आसूक्ष्मैकेन्द्रियः सकलोऽपि लोकः मुखाभिलाषी दुःखविमुखश्च दृष्टोऽतस्तस्य तीर्थकर प्रभुकी वाणीको नमन कर मैं घासीलाल इस प्रश्नव्याकरण सूत्र पर यह सुदर्शिनी नाम की टीका बनाता हूं ॥४॥ इस अतिविचित्रताकार अनियत स्वभाववाले अपार असार संसार में धन आदि विविध उपायों से सुखप्राप्ति के निमित्त समस्त संसारी जीव प्रयत्न करते रहते हैं फिर भी यहां संसार में कोई भी जीव वास्तविक सुख का अनुभव नहीं कर पाता है तो इसका कारण क्या है जब यह विचार किया जाता है तो मालूम देता है कि यहां पर जितना भी सुख है वह वास्तविक सुख नहीं है-सुखाभास है कारण वह इन्द्रिय और मनसे उत्पन्न होता है । वास्तविक सुख तो मोक्षमें ही है, क्योंकि वह सुख निरतिशयरूप आत्यंतिक है। त्रैकालिक दुःखके अत्यन्ताभावसे विशिष्ट जो परमानंद सद्भावरूपता है वही निरतिशयता है । इस प्रकार का निरतिशयरूप जो सुख है वह संसार में नहीं है। क्यों कि सांसारिक सुख दुःखानुषक्त है। और मोक्ष का सुख ऐसा नहीं है । इसलिये सूक्ष्म एकेन्द्रिय से लेकर समस्त पंचेन्द्रियतक के प्राणी सुख के अमि તીર્થકર પ્રભુની વાણુને નમન કરીને હું, “ઘાસિલાલમુનિ આ પ્રશ્નવ્યાકરણ सूत्र ५२ PA॥ 'सुशिनी' नामनी 21 मनाj छु.. ॥ ४ ॥ આ અતિ વિચિત્રાકાર, અનિયત સ્વભાવવાળા, અપાર, અસાર સંસારમાં ધન આદિ વિવિધ ઉપાથી સુખ પ્રાપ્ત કરવા માટે સમસ્ત સંસારી જીવે પ્રયત્ન કરતા રહે છે, છતાં પણ આ સંસારમાં કઈપણ જીવ વાસ્તવિક સુખને અનુભવ કરી શકતું નથી. તેનું શું કારણ છે, એ વિચાર જ્યારે કરવામાં આવે છે ત્યારે એવું લાગે છે કે આ સંસારનાં જેટલાં સુખ છે તે વાસ્તવિક સુખ નથી, પણ સુખને આભાસ જ છે. કારણકે તે ઇન્દ્રિય અને મનથી ઉન્ન થાય છે. વાસ્તવિક સુખ તે મેક્ષમાં જ છે. કારણકે તે સુખ નિરતિશયરૂપ છે. વૈકાલિક દુઃખના અત્યંત અભાવવાળી જે પરમાનંદ સદુભાવરૂપતા છે, તેને જ નિરતિશયતા કહે છે. એવા પ્રકારનું નિરતિશયરૂપ જે સુખ છે તે સંસારમાં મળતું નથી. કારણકે સાંસારિક સુખ દુઃખાનુષક્ત છે. મોક્ષનું સુખ તેવું નથી. તેથી જ સૂકમ એકેન્દ્રિયથી લઈને પંચેન્દ્રિય સુધીના સમસ્ત પ્રાણું સુખની For Private And Personal Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे निरतिशयसुखसाधनं निर्णेतव्यम् । निरतिशयं च सुखं त्रैकालिकदुःखात्यन्ताभावविशिष्टपरमानन्दसद्भावरूपं पारमार्थिकमेव न त्वैहिक, तस्येन्द्रियनोइन्द्रियसंयोगजन्यतयोत्पत्तिविनाशयोरविनाभावनियमाहुःखानुपक्तत्वात् , मरुमरीचिचयोघावचजलतरङ्गभङ्गविभ्रमवदसारत्वाच्चेति मोक्षस्यैव प्राधान्यमामनन्ति महामुनयः, तस्मादात्यन्तिकसुखमधिनिगमिषुणा मोक्षार्थे यतितव्यम् । मोक्षश्च ज्ञानक्रियासेवनेनैव भवतीति ज्ञानक्रिये एव तत्कारणं सिपाधयिषितव्यम् , अन्यथा लाषि और दुःख से विमुख होते हुए दिखलाई पड़ते है। अतः यह निर्णय करना आवश्यक हो जाता है कि उस निरतिशय सुख का साधन क्या है ? जब इस प्रकार का विचार गहराई के साथ किया जाता है तो यही निश्चित होता है कि उस सुख का साधन केवल एक मोक्ष ही है। संसार नहीं है क्यों कि संसार जन्य जो सुख होता है वह इन्द्रिय और मन के संयोग से जन्य होने के कारण उत्पत्ति और विनाश का अविनाभावी होता है और इसलिये वह दुःख से बीच २ में मिश्रित रहा करता है । अतः मृगतृष्णा में ऊँची नीची जल तरंगों के विभ्रमकी तरह यह असार होता है। इसलिये निरतिशय सुख का साधन संसार नहीं हो सकता है-केवल एक मोक्ष ही हो सकता है। ऐसी ही महामुनियोंकी मान्यता है । इसलिये जो प्राणी इस निरतिशय सुखको प्राप्त करने के अभिलाषी हैं उन्हें मोक्ष प्राप्तिमें ही प्रयत्न करना चाहिये, मोक्ष की प्राप्ति जीवोंको ज्ञान और क्रिया के सेवन करनेसे ही होती है। अतः ज्ञान और क्रिया ये दोनों ही उसके कारणरूपसे साधनके ઈચ્છાવાળાં અને દુઃખથી વિમુખ થતાં દેખાય છે. તેથી તે નિર્ણય કરવે જરૂરી થઈ પડે છે કે તે નિતિશય સુખનું સાધન કયું છે? જ્યારે તે પ્રકારને ઊંડે વિચાર કરવામાં આવે છે ત્યારે એ જ નિશ્ચય પર અવાય છે કે તે સુખનું સાધન કેવળ મેક્ષ જ છે, સંસાર નથી. કારણકે જે સુખ સંસારજન્ય હોય છે તે ઈન્દ્રિય અને મનના સંગથી પેદા થયેલ હોવાથી ઉત્પત્તિ અને નાશને પ્રાપ્ત કરનારું હોય છે, અને તેથી તે વચ્ચે વચ્ચે દુઃખથી મિશ્રિત રહ્યા કરે છે. તેથી તે મૃગજળનાં ઊંચાં નીયાં જળતરના વિશ્વમાં જેવું અસાર હોય છે. તે કારણે નિરતિશય સુખનું સાધન સંસાર થઈ શકતો નથી પણ એક માત્ર મેક્ષ જ તેનું સાધન બની શકે છે. એવી જ મહામુનિયેની માન્યતા છે. તેથી જે પ્રાણીને તે નિરતિશય સુખ પ્રાપ્ત કરવાની અભિલાષા હોય તેમણે મેક્ષ પ્રાપ્તિ માટે જ પ્રયત્નો કરવા જોઈએ. જેને મોક્ષની પ્રાપ્તિ જ્ઞાન અને ક્રિયાના સેવનથી જ થાય છે. તેથી જ્ઞાન અને ક્રિયા એ બને તેના કારણરૂપ હોવાથી For Private And Personal Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० १ अवतरणिका मोक्षस्याप्यभावात् मुखावाप्नेर्दूरपयाणं स्यात् । सत्येव हि ज्ञाने इष्टानिष्टोपादानहानोपायविचारसञ्चारो भवति । तदभावे प्राणिनामास्रवेष्वेव नित्यं प्रवृत्तिः स्यात् तस्मात् ज्ञानं परमादरणीयम् । तच्चात्र श्रुतरूपं गृह्यते स्वपरोपकारित्वात् । तदत्र प्रश्नव्याकरणमेव । ननु शाखस्यादौ मध्येऽन्ते च कृतं मङ्गलं निर्विघ्नपरिसमाप्त्यर्थ भवति, अध्येतारश्च शाखधारणावन्तः प्रथन्ते, शास्त्रं च शिष्योपशिष्यपरम्परागामि जायतेशिष्टाचारविषयत्वाच्च मंगलं कुतो न कृतमिति चेदुच्यते____ अत्र भगवदुक्तसाक्षाच्छ्रेयोभूतशास्त्रस्यैव मङ्गलरूपत्वात् मङ्गलमाचरितमेव तथापि श्रृणु-अस्मिन् शास्त्रे आदिमङ्गलं " जंबू इणमो” इति भगवदामन्त्रणेन, लिये इष्ट हैं। अन्यथा मोक्षका अभाव हो जावेगा और इस तरहसे फिर सुख की प्राप्ति होना बहुत कठिन बात हो जावेगी। ज्ञानके होने पर ही इष्ट और अनिष्ट पदार्थों के उपादान (ग्रहण) और त्याग करने में जीवोंकी बुद्धि लगती है। ज्ञान के अभाव में नहीं उस समय तो केवल आत्रबोंमें ही बे रोकटोक प्रवृत्ति होती रहती है। इसीलिये ज्ञानको परम आदरणीय कहा गया है। ऐसा वह ज्ञान स्व और पर का उपकारक होने के कारण यहां श्रुतरूप ग्रहण किया गया है । वह श्रुतरूप ज्ञान यहां प्रश्न व्याकरण ही है। - शंका-शास्त्र की आदि में, मध्य में, और अंत में किया गया मंगलाचरण निर्विघ्नरूप से उसकी परिसमाप्ति के लिये होता है-तथा जो उस शास्त्र के अध्येता होते हैं वे उस शास्त्र की धारणा से सुशोभित रहा करते हैं और इस तरह से वह शास्त्र शिष्योपशिष्य परंपरागामी बन जाता है। तथा शास्त्र की आदि में, मध्य में एवं अन्त में मंगलाસાધન તરીકે યોગ્ય છે. નહીં તે મોક્ષની પ્રાપ્તિ થશે નહીં અને એમ થવાથી સુખની પ્રાપ્તિ ઘણી મુશ્કેલ બની જશે. જ્ઞાન હોય તે જ ઈષ્ટ અને અનિષ્ટ પદાર્થોના ઉપાદાન-(ગ્રહણ) અને ત્યાગ કરવા બાબતમાં જીવોની બુદ્ધિ કામ કરી શકે છે, જ્ઞાન ન હોય તે નહીં. ત્યારે તે તે જ્ઞાનના અભાવે) ફક્ત આસ માં જ રેકટેક વિના પ્રવૃત્તિ ચાલ્યા કરે છે. તે કારણે જ્ઞાનને અત્યંત આદરણીય બતાવ્યું છે. એવું તે જ્ઞાન સ્વ અને પરનું ઉપકારક હોવાથી અહીં શુતરૂપે ગ્રહણ કરવામાં આવેલ છે. અહીં પ્રશ્નવ્યાકરણ જ તે શ્રુતજ્ઞાન છે. શંકા-શાસ્ત્રની શરૂઆતમાં, મધ્યમાં અને અત્તે કરવામાં આવેલ મંગળાચરણ નિવિને તેની પરિસમાપ્તિને માટે હોય છે. તથા જે તે શાસ્ત્રનું અધ્યયન કરનાર હોય છે તેઓ તે શાસ્ત્રની ધારણાથી સુશોભિત રહ્યા કરે છે, અને એ રીતે તે શાસ્ત્ર શિષ્યોપશિષ્યની પરંપરા સુધી પહોંચે છે. તથા શાશના આરંભમાં, For Private And Personal Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रभज्याकणसूत्रे मध्यमङ्गलं प्रथमसंवरद्वारे अहिंसा भगवतीवर्णनेन अन्त्यमङ्गलं च " नायपुत्तेण वीरेण भगवया पयासियं " इत्यालापकेन च विज्ञेयम् , इत्यलं विस्तरेण । अथ प्रश्नव्याकरणमित्यस्य कः शब्दार्थः ? उच्यते प्रश्नाः अङ्गुष्ठादिविद्याः, ते व्याक्रियन्ते प्रतिपाद्यन्ते यस्मिन्निति प्रश्नव्याकरणम् , अत्र-अष्टोत्तरं प्रश्नशतम्। भष्टोत्तरमप्रश्नशतम् । अष्टोत्तरं प्रश्नाऽप्रश्नशतम् । या विद्याः, मन्त्रा वा पृष्टा एव चरण करना ऐसा शिष्ट पुरुषों का आचार भी है तो फिर शास्त्रकार ने इस सूत्र में मंगलाचरण क्यों नहीं किया है ? । उत्तर-इस प्रकार की आशंका ठीक नहीं है, क्यों कि भगवान् द्वारा कहा गया यह शास्त्र साक्षात् मंगल स्वरूप है अतः वह स्वयं ही मंगलरूप है अतः स्वयं मंगलरूप बने हुए शास्त्र में मंगलरूपता होने से शास्त्रकार ने उसे निबद्ध करने की अपेक्षा मंगलाचरण किया ही है। फिर भी सुनो-शास्त्रकार ने इस शास्त्र में " जंबू इणमो" इस भगवान् के आमंत्रण से आदि मंगल, प्रथम संघर द्वार में भगवती अहिंसा का वर्णन रूप मध्यमंगल, और " नायपुत्तेण वीरेण भगवया पयासियं" अन्तमें इस प्रकार के कथन से अन्त्यमंगल किया है, ऐसा जानना चाहिये। अब इस विषय में और अधिक कहने से क्या लाभ । शंका-"प्रश्नव्यकरण" इसका शब्दार्थ क्या है ? उत्तर-अंगुष्ठ आदि विद्याओं का नाम प्रश्न है। ये प्रश्न इसमें विस्तार पूर्वक प्रतिपादित किये गये हैं। इसलिये इससूत्रका नाम મધ્યમાં અને અને મંગળાચરણ કરવું તેવો શિષ્ટ પુરુષોને આચાર પણ છે. છતાં પણ સૂત્રકારે આ સૂત્રમાં મંગળાચરણ કેમ કર્યું નથી? ઉત્તર–આ પ્રકારની આશંકા યેગ્ય નથી, કારણકે ભગવાન દ્વારા કહેવામાં આવેલ આ શાસ્ત્ર જે સાક્ષાત્ મંગળસ્વરૂપ છે, તેથી તે પિતે જ મંગળરૂપ છે. તેથી સ્વયં મંગળરૂપ બનેલ શાસ્ત્રમાં મંગળરૂપતા હોવાથી શાસ્ત્રકારે તેને સવરૂપે બાંધવાની અપેક્ષાએ મંગળાચરણ કર્યું જ છે. વળી સાંભળે શાસ્ત્રકારે भासमा "जंबू इणमो” 24प्रमाणे भगवानना मामयी माहि मग प्रथम सव२वामा लापती डिसाना वर्णन३५ मध्यम, मने "नायपत्तण वीरेण भगवया पयासियं" सन्तमा प्रश्न ४थनथी सत्यम ज्यु छ, એમ સમજી લેવું. હવે આ વિષયમાં વધુ કહેવાથી શું લાભ? श'--" प्रश्वव्या४२९ "नो श शु छ ? ઉત્તર-અંગુષ્ઠ આદિ વિદ્યાઓનું નામ પ્રશ્ન છે. તે પ્રશ્નોનું આ સૂત્રમાં વિસ્તારથી પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે. તેથી તેનું નામ પ્રશ્નવ્યાકરણ પડયું છે. For Private And Personal Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० १ अवतरणिका शुभाशुभं प्रतिपादयन्ति ते प्रश्नाः। एवं ये अपृष्टा एवं शुभाशुभं वदन्ति ते भप्रश्नाः। ये पृष्टा अपृष्टाश्च कथयन्ति ते प्रश्नाऽप्रश्नाः । तथा अन्येऽपि अतिशयाः, नागकुमारैः सुपर्णकुमारैः अन्यैश्च भवनपतिभिः सह साधूनां संवादाः, इत्यादयः सन्ति। नन्दीसूत्रवाचनाकाले प्रश्नव्याकरणे पश्चचत्वारिंशदध्ययननिबन्धः समुपलब्ध आसीत् । तदुक्तं नन्दीसूत्रे-“से किं तं पण्हावागरणाई? पण्हावागरणेसु णं अछु त्तरं पसिणसयं, अठुत्तरं अपसिणसयं, अठुत्तरं पसिणाऽपसिणसयं । तं जहा-अंगुहपसिणाई, बाहुपसिणाई, अदागपसिणाई, अन्नेवि विचित्ता दिव्या विजाइसया, नागसुवण्णेहिं सद्धि दिव्या संवाया आघविज्जंति५ । पहावागरणाणं परित्ता वायणा, सखिज्जा अणुओगदारा संखिज्जा वेढा, संखिज्जा सिलोगा संखिज्जाओ निज्जुसीओ, संखिज्जाओ संगहणीश्रो, संखिज्जाओ पडिवत्तीओ, सेणं अंगठ्ठयाए दसमे अंगे एगे सुयक्खंधे, पणयालीसं अज्मयणा, पणयालीसं उद्देसणकाला, पणयालीसं समुद्देसणकाला, संखिज्जाइं पयसहस्साई पयग्गेण, संखेज्जा अक्खरा, अणंतागमा, अणंता पज्जवा, परित्ता तसा, अणंता थावरा, सासयकडनिवद्धनिकाइया जिणपन्नत्ता भावा आघविज्जंति, पनविनंति, परूविज्जंति, दंसिर्जति. निदंसिर्जति, उवदंसिज्जंति, से एवं आया, एवं नाया, एवं विनाया, एवं चरणकरणपरूवणा से तं आघविज्जइ । पण्हा वागरणाई" ॥ प्रश्नव्याकरण हुआ है। इनमें १०८प्रश्न, १०८ अप्रश्न, और १०८ही प्रश्नाप्रश्न हैं। जो विद्याएँ अथवा मंत्र, पूछने पर शुभ और अशुभ का कथन करते हैं वे प्रश्न हैं। जो विना पूछे ही शुभ और अशुभ कहते हैं वे अप्रश्न हैं। तथा जो मिश्ररूप में पूछने पर-शुभ और अशुभ दोनों को प्रगट करते हैं। वे प्रश्नाप्रश्न हैं। इसी तरह और भी अतिशय एवं नागकुमार, सुवर्णकुमार तथा अन्य भवनपतियों के साथ, साधुओं के संवाद इसमें प्रदर्शित किये गये हैं। नंदीमत्र के वाचनाकाल में प्रश्नव्याकरण में पैतालीस अध्ययनरूप તેમાં ૧૦૮ પ્રશ્ન, ૧૦૮ અપ્રશ્ન, અને ૧૦૮ પ્રશ્નાપ્રશ્ન છે. જે વિદ્યાઓ અથવા મંત્ર, પૂછવામાં આવતાં શુભ અને અશુભનું કથન કરે છે, તેમને પ્રશ્ન કહે છે, પછડ્યા વિના જ શુભ અને અશુભ બતાવનારને અપ્રશ્ન કહે છે. તથા જે મિશ્રરૂપે-પૂછવામાં આવતાં શુભ અને અશુભ બન્નેને પ્રગટ કરે છે તે પ્રશ્નાપ્રશ્ન કહેવાય છે. એ જ રીતે બીજા પણ નાગકુમાર, સુપર્ણકુમાર તથા અન્ય ભવનપતિઓની સાથે, સાધુઓના ઘણા સંવાદ આ સૂત્રમાં બતાવવામાં આવ્યા છે. નંદીસૂત્રના વાચનકાળમાં પ્રશ્નવ્યાકરણમાં પિસ્તાળીશ અધ્યયન સમપલબ્ધ For Private And Personal Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे तदनन्तरं स्थानाङ्गमूत्रवाचनावेलायां पञ्चचत्वारिंशदध्ययनेषु दशाध्ययनान्येवोपलब्धान्यासन्-तदुक्तं स्थानाङ्गे__ “पण्हा वागरणदसाणं दसअज्झयणा पण्णत्ता । तं जहा-उवमा , संखा', इसिभासियाई, आयरियभासिया', महावीरभासियाई, खोमगपसिणाई , कोमलपसिणाई', अदागपसिणाई', अंगुठ्ठपसिणाई', बाहुपसिणाई ।। स्था० १०ठा. । ___ इदानीं तु पूर्वोक्तानि अध्ययनानि विच्छेदं गतानीति हेतोः-पञ्चास्रवपञ्चसंवरात्मकदशाध्ययनानि समुपलभ्यन्ते । तपः संयमाराधकाः सौधर्मादिदेवलोकेषु समुत्पद्यन्ते, उत्कृष्टतपःसंयमाराधकास्तरिमन्नेष भवे मोक्षमाप्नुवन्ति किन्तु येषामायुष्यं सप्तलवपरिमितं होनं ते कर्मक्षयाऽभावात् विजयादि विमानेषु समुत्पद्यन्ते, इति नवमाङ्गे अनुत्तरोपपातिकसूत्रे वर्णितम् । निबंध समुपलब्ध था। यह बात “से किं तं पाहावागरणाई ? से लेकर "से तं पण्हायागरणाई" तक के इस नंदीसूत्र के पाठ से पुष्ट होती है। इसके बाद स्थानाङ्गसूत्र के वाचनाकाल में पैंतालीस अध्ययनों में से केवल १० ही अध्ययन उपलब्ध रह गये । जैसा कि स्थानाङ्गसूत्र के इस पाठ से प्रमाणित होता है कि " पाहावागरणदसाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता तंजहा" इत्यादि । पर अब तो इस समय वे उपमा, संख्या, ऋषिभासित. आचार्यभासित, महावीरभासित आदि दश अध्ययन भी उपलब्ध नहीं है, क्यों कि इनका विच्छेद हो चुका है। इसलिये पांच आस्रव और पांच संवर संबंधी ये दश अध्ययन ही उपलब्ध हैं। नौमा अंग जो अनुत्तरोपपातिक सूत्र है उसमें ऐसा वर्णन किया कि तप संयमके आराधक जीव सौधर्म आदि देवलोकों में उत्पन्न होते हैं। (प्राय) ता. ते पात “से किंतं पण्हावागरणाइं? थी साने “से तं पण्हावागरणाइं" સુધીના આ નંદીસૂત્રના પાઠથી સિદ્ધ થાય છે. ત્યારબાદ સ્થાનાંગસૂત્રને વાચનકાળમાં પિસ્તાળીશ અધ્યયનમાંથી ફક્ત દસ જ ઉપલબ્ધ હતાં. તે વાતનું स्थानांगसूत्रनामा पाथी प्रतियाहन थाय छ-"पण्हावागरणदसाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता तंजहा" त्यादि. ५२ सत्यारे तो उपमा, सण्या, ऋषिमासित, यायભાસિત, મહાવીરભાસિત આદિ દશ અધ્યયન પણ ઉપલબ્ધ નથી, કારણકે તેને વિચ્છેદ થઈ ગયા છે. તેથી પાંચ આસવ અને પાંચ સંવર સંબંધી આ દશ અધ્યયને જ ઉપલબ્ધ છે. અનુત્તરપપાતિકસૂત્ર નામનું જે નવમું અંગ છે તેમાં એવું વર્ણન કરવામાં આવેલ છે કે તપ સંયમની આરાધના કરનાર જીવ સૌધર્મ આદિ For Private And Personal Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुवशिनी टीका भ० १ अवतरणिका उत्कृष्टतपःसंयमाराधनेन संयमवतामङ्गुष्ठदर्पणविद्यादिसंसिद्धयः समुत्पधन्ते, ताभिस्ते प्रतिशदिप्रश्नानुत्तरन्ति । तदुपलब्धिः सम्पति नास्ति, विच्छेद गतस्वात् । इदानीं तु पश्चास्रवपञ्चसंवरप्रतिपादनपरं प्रश्नव्याकरणमुपलभ्यते । ___ उत्कृष्टतपासंयमाराधनं हि पश्चास्त्रवपञ्चसंवरज्ञानं विना न भवति-इतिआस्रवसंवरस्वरूपनिरूपकमिदं प्रश्नव्याकरणं निरूप्यत इति नवमाङ्गेन सहास्य संबंधः। अस्मिन् प्रश्नव्याकरणे पश्चास्वपञ्चसंवरात्मकानि दशाध्ययनानि सन्ति, तस्यास्रवसंवरभेदाभ्यां द्वौ भागौ तयोरास्रस्य बन्धकारणत्वेन पूर्व निरूपणं, तथा जो उत्कृष्ट तप संयम की आराधना करते हैं वे उसी भव में मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं, किन्तु जिनकी आयु सातलव परिमित है हीन है वे कर्मक्षय नहीं कर सकते हैं इसलिये कर्मक्षय के अभाव से वे विजयादिक विमानों में उत्पन्न हो जाते हैं। __उत्कृष्ट तप संयम के आराधना से संयमशाली जीवों को अंगुष्ठविद्या दर्पणविद्या आदि विद्याएँ सिद्ध हो जाती हैं। इनसे वे प्रतिवादियों के प्रश्नों का उत्तर देते रहते हैं ! इनकी उपलब्धि इस समय इनके विच्छेद हो जाने के कारण नहीं होती है । इस समय तो पांच आस्रव और पांच संवर के प्रतिपादन करने में तत्पर मात्र यह प्रश्नव्याकरण उपलब्ध हो रहा है। उत्कृष्ट तप संयम की आराधना पांच आस्रव और पांच संवर इनके ज्ञान हुए विना नहीं हो सकती है । इसलिये आस्रव और संवर के स्वरूप को निरूपण करने वाला यह प्रश्नव्याकरण निरूपित किया जाता है। यही नौवें अंग के साथ इसका संबंध है। દેવકેમાં ઉત્પન્ન થાય છે, તથા જે ઉત્કૃષ્ટ તપ સંયમની આરાધના કરે છે તેઓ એ જ ભવમાં મોક્ષને પ્રાપ્ત કરે છે, પણ જેનું આયુષ્ય સાતલવ પરિમિત છે. હીન છે, તેઓ કર્મો ક્ષય કરી શકતાં નથી. તેથી કર્મક્ષયને અભાવે તેઓ વિજયાદિક વિમાનમાં ઉત્પન્ન થાય છે. ઉત્કૃષ્ટ તપ સંયમની આરાધનાથી સંયમશાળી ને અંગુષ્ઠ વિદ્યા. દર્પણ વિદ્યા આદિ વિદ્યાઓ પ્રાપ્ત થાય છે. તેમની મદદથી તે પ્રતિવાદીઓના પ્રશ્નોના ઉત્તર આપે છે. તેમની ઉપલબ્ધિ (પ્રાપ્તિ) આ સમયમાં તેમને વિચ્છેદ થઈ જવાથી થઈ શકતી નથી. હાલમાં તે પાંચ આસવ અને પાંચ સંવરનું પ્રતિપાદન કરનાર ફક્ત આ પ્રશ્નવ્યાકરણ જ ઉપલબ્ધ થઈ શકે છે. પાંચ આસવ અને પાચ સંવરનું જ્ઞાન થયા વિના ઉત્કૃષ્ટ તપ સંયમની આરાધના થઈ શકતી નથી. તે કારણે આસવ અને સંવરનાં સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરનાર આ પ્રશ્નવ્યાકરણનું નિરૂપણ કરવામાં આવે છે. એ જ નવમાં અંગ સાથે તેને સંબંધ છે. For Private And Personal Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १० प्रश्नव्याकरणसूत्र ततस्तत्परिहारोपायभृतसंवरवर्णनं भगवता कृतम् । नहि कोऽपि मेधावी दुःखस्वरूपस्याऽपरिज्ञाने तत्परिहारोपायपरिमार्गणं विधत्ते, नह्य संसिद्धे ज्वरादिरोगे तच्चिकित्साऽऽवश्यकत्वमुपपद्यते, अतः पूर्वमास्रवपञ्चकमुद्देशक्रममाप्तं नामतः प्रद. शर्यति । आस्रवेष्वपि पूर्व हिंसानिरूपणं कृतम् , असत्यादिभिरपि हिंसाया एव जायमानत्वेन हिंसायाः प्रधानभूतत्वात् , अतः प्रथममानवद्वारमाह-" जंबूइणमो" इत्यादि। इस प्रश्नव्याकरण में पांच आस्रव और पांच संवर के संबंध को लेकर दस अध्ययन हैं इसलिये इसे दो भागों में विभक्त किया गया है। आस्रव का वर्णन वंध का कारण होने से प्रथम भाग में किया गया है और संवर का वर्णन आस्रव के परिहार का उपायभूत होने के कारण उसके बाद में द्वितीय भाग में किया गया है । कैसा भी बुद्धिमान् पुरुष क्यों न हो जबतक वह दुःख के स्वरूप से अपरिज्ञात रहता है तो वह उसके परिहार करने के उपायभूत मार्ग की गवेषणा नहीं करता है, तथा जैसे ज्वरादिरोग की संसिद्धि के अभाव में अर्थात् उसके पूर्ण निदान के अभाव में उसके शमन के उपाय की गवेषणा नहीं होती है, उसी तरह जबतक आस्त्रवतत्त्व का परिज्ञान जीव को नहीं हो जाता है, तबतक संवररूप उसके निरोधकभूत मार्ग को जानने की भी जिज्ञासा उसको उत्पन्न नहीं हो सकती है । इसलिये सब से पहिले उद्देशक प्राप्त पांच आस्रवों को उनके स्वरूप को आगे विशेष स्पष्ट करने के अभिप्राय से सूत्रकार नाम लेकर प्रदर्शित करते हैं। इन पांच आस्रवों में भी सूत्र આ પ્રશ્નવ્યાકરણમાં પાંચ આસવ અને પાંચ સંવર વિષેનાં દસ અધ્યયન છે. તેથી તેના બે ભાગ પાડવામાં આવ્યા છે. આ બંધના કારણરૂપ હોવાથી આસવોનું વર્ણન પહેલા ભાગમાં કરવામાં આવ્યું છે, અને સંવર આમ્રવના પરિત્યાગને માટે ઉપાયરૂપ હોવાથી તેમનું વર્ણન આઅવન' વર્ણન પછી બીજા ભાગમાં કરેલ છે. ગમે તેવે બુદ્ધિશાળી માણસ હોય પણ જે તે દુઃખના સ્વરૂપથી અજાણ રહે તો તેને પરિહાર કરવાના ઉપાયરૂપ માર્ગની પ્રાપ્તિ તે કરી શકતો નથી. તથા જેમ જવર આદિ ગેમાં તેનું પૂર્ણ નિદાન કર્યા વિના તેનું શમન કરવાના ઉપાય જડતું નથી તેમ આવતત્વનું પરિણામ જ્યાંસુધી જીવને થાય નહીં, ત્યાંસુધી તેમને રોકનાર-તેમના નિરોધક-સંવરરૂપ માર્ગને જાણવાની જિજ્ઞાસા તેનામાં ઉત્પન્ન થઈ શકતી નથી તેથી સૌથી પહેલાં ઉદ્દેશપ્રાપ્ત પાંચ આસ્રવેના નામ સૂત્રકાર પ્રગટ કરે છે. તેમનું સ્વરૂપ આગળ જતાં વિસ્તારથી સ્પષ્ટ કરવામાં આવશે. તે પાંચ આસ્ત્રોમાં પણ સૂત્રકારે સૌથી For Private And Personal Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० १ अवतरणिका अत्र " तेणं कालेणं" इत्याधुत्क्षेपवाक्यं वाच्यम् । चम्पानगर्या सुधर्मस्वामिनः समवसरणं, तत्र कोणिको नाम राजा, धारिणी नाम देवी'त्यादि वर्णनमौपपातिकमूत्रादवसेयम् । सुधर्मस्शमिनो जम्बूस्वामिनश्च वर्गनं ज्ञातासूत्रस्य प्रथमाध्ययनतो विज्ञेयम् । जम्बूस्वामिनः सुश्मस्वामिनश्च प्रश्नोत्तरवाक्यं प्रदश्यतेकार ने पहिले हिंसारूप आस्रव का जो निरूपण किया है उसका कारण यह है कि हिंसा से अतिरिक्त जो मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह ये आनव द्वार है उनसे हिंसा ही उत्पन्न होती है । इसलिये उस हिंसा में प्रधानता आने से अब सूत्रकार सर्व प्रथम उसी हिंसा रूप आम्रव द्वार का निरूपण करते हैं-"जंबू इणमो" इत्यादि। इस सूत्र की संगति के लिये इस में " तेणं कालेणं " इत्यादि उत्क्षेपक वाक्य संबंधित करलेना चाहिये-अर्थात् उसकाल में और उस समय में चम्पा नाम की नगरी थी। उसके शासक कोणिक राजा थे। उनकी रानी का नाम धारिणी देवी था। तीर्थकर परम्परानुसार विहार करते हुए वहां सुधर्मास्वामी का आगमन हुआ-इत्यादि प्रकार का समस्त वर्णन जैसा औपपातिक सूत्र में किया गया है वैसा ही जान लेना चाहिये और उसे " जंबू इण" इस सूत्र की संगति निमित्त यहां लगा लेना चाहिये । सुधर्मास्वामी और जंबू स्वामी का वर्णन ज्ञाता सूत्र के प्रथम अध्ययन में किया हुआ है । सो य: भी वहां से ही जान लेना चाहिये । अब जंबूस्वामी और सुधर्मास्वामी की इस प्रश्नव्याकरण પહેલાં હિંસારૂપ આમ્રવનું નિરૂપણ કર્યું છે તેનું કારણ એ છે કે હિંસા સિવાય મૃષાવાદ, અદત્તાદાન, મિથુન અને પરિગ્રહ, એ જે આસ્રવ દ્વાર છે, તેમના વડે હિંસા જ ઉત્પન્ન થાય છે. તે કારણે તે હિંસામાં પ્રધાનતા આવવાથી, સૂત્રકાર सौथी पदां से हिंसा३५ २५पदारनु नि३५५५ ४२ छ-"जंबू इणमो" त्यादि २१ सूत्रना सपने माटतेमा "तेगं कालेणं" त्याहि ५४ वायना સંબંધ જોડી દેવું જોઈએ. એટલે કે તે કાળે અને તે સમયે ચંપા નામની એક નગરી હતી. કેણિક રાજા ત્યાંના રાજા હતા. તેમની રાણીનું નામ ધારિણી દેવી હતું. તીર્થંકર પરંપરાનુસાર વિહાર કરતાં કરતાં ત્યાં સુધર્માસ્વામીનું આગમન થયું. ઈત્યાદિ પ્રકારનું આખું વર્ણન જેમ પપાતિક સૂત્રમાં કરાયું છે તે प्रमाणे समय आ भने तेने " जंबू इणमो” मा सूत्रना समधने भाटे અહીં જડી દેવું જોઈએ. સુધર્માસ્વામી અને જંબુસ્વામીનું વર્ણન જ્ઞાતાસૂત્રના પહેલા અધ્યયનમાં કરેલ છે. તે તે પણ ત્યાંથી સમજી લેવું જોઈએ. હવે જંબૂવામી અને સુધર્માસ્વામી વચ્ચે આ પ્રશ્નન્યાકરણસૂત્રને વિષે જે પ્રશ્નોત્તરરૂપે For Private And Personal Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे मूलम्-"जइणं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं नवमस्स अंगस्स अणुत्तरोववाइयदसाणं अयमढे पन्नत्ते । दसमस्स णं भंते अंगस्स पहा. वागरणाणं समणेणं ३ जाव संपत्तेणं के अटे पगत्ते ? जंबू! दसमस्स अंगस्स समणेणं जाव संपत्तेणं दो दारा पण्णता । आसवदारा य संवरदारा य। पढ़मस्स णं भंते ! दारस्स समणेणं ३ जाव संपत्तेणं कइ अझयणा पण्णत्ता ? जंबू ! पढ़मस्स गंदारस्स समणेणं जाव संपत्तेणं पंच अज्झयणा पण्णत्ता। दोच्चस्स णं भंते ! एवं चेव ! एएसि णं भंते ! अज्झयणाणं अण्हय संवराणं समणेणं ३ जाव संपत्तेणं के अटे पण्णत्ते? । तएणं अज्जमुहम्मे थेरे जंबू नामेणं अणगारेणं एवं वुत्ते समाणे जंबू अणगारं एवं वयासी"छाया-यदि खलु भदन्तः श्रमणेन भगवता महावीरेण यावत्संप्राप्तेन नवमस्याङ्गस्य अनुत्तरोपपातिकदशानामयमर्थः प्रज्ञप्तः । दशमस्य खलु भदन्त ! अङ्गस्य प्रश्नव्याकरणानां श्रमणेन भगवता महावीरेण यावत्संप्राप्तेन कोऽर्थः प्रज्ञप्तः ? जम्बू ! दशमस्य-अङ्गस्य श्रमणेन भगवता महावीरेण यावत्सम्पाप्तेन द्वे द्वारे प्रज्ञप्ते-आत्रसूत्र के संबंध में जो प्रश्नोत्तर रूप बातचीत हुई है उसको प्रकट करते हैं'जइणं भंते' इत्यादि। हे भदन्त ! श्रमण भगवान महावीर ने कि जो यावत् सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त हो चुके हैं अनुत्तरोपपातिक दशाङ्ग नामके नवमे अंग का जब इस प्रकार से अर्थ प्ररूपित किया है-तो उन्हीं यावत् सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त हुए अमण भगवान् महावीर ने प्रश्नव्याकरण नामक दश अंग का क्या अर्थ निरूपित किया है ? इस प्रश्न के उत्तर में सुधर्मास्वामी ने उनसे इस प्रकार कहा-हे जंबू ! तुम्हारे प्रश्न का उत्तर इस प्रकार से है-यावत् सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त हुए श्रमण भगवान महावीर ने इस प्रश्नव्याकरणरूप दशवें अंग के दो द्वार प्ररूपित किये हैं उसमें पहिला आस्रव द्वार है और पातचीत 45 छे तेने सूत्र४।२ प्रगट ४३ छ-" जइणं भंते !" त्यादि. હે ભદન્ત ! શ્રમણ ભગવાન મહાવીર, કે જેમણે સિદ્ધિગતિ નામના સ્થાનને પ્રાપ્ત કરી લીધું છે, તેમણે અનુત્તરપપાતિક દશાંગ નામના નવમા અંગને જે આ પ્રમાણે અર્થ પ્રરૂપિત કર્યો છે, તે તે સિદ્ધિગતિ નામના સ્થાનને પ્રાપ્ત કરેલ શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે પ્રશ્નવ્યાકરણ નામના દસમાં અંગને ક અર્થ નિરૂપિત કર્યો છે? તે પ્રશ્નનો ઉત્તર આપતા સુધમસ્વામીએ તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું–હે જંબૂ ! તમારા પ્રશ્નનો જવાબ આ પ્રમાણે છે–સિદ્ધિગતિ નામના સ્થાનને પ્રાપ્ત કરેલ શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે આ પ્રશ્નવ્યાકરણરૂપ દસમાં અંગનાં બે દ્વાર પ્રરૂપિત કર્યા છે, તેમાં પહેલું For Private And Personal Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० १ ० १ अन्नवसंवरलक्षणनिरूपणम् वद्वारं च संवरद्वारं च । प्रथमस्य खलु भदन्त ! द्वारस्य श्रमणेन भगवता महावीरेण यावत्संप्राप्तेन कति अध्ययनानि प्रज्ञप्तानि ?। जम्बूः ! प्रथमस्य खलु द्वारस्य श्रमणेन भगवता महावीरेण यावत्सम्पाप्तेन पञ्च-अध्ययनानि प्रज्ञप्तानि । द्वितीयस्य खलु भदन्त ! एवमेव । एतेषां खलु भदन्त ! अध्ययनानाम् आस्रवसंवराणां श्रमणेन भगवता महावीरेण पावत्सम्पाप्तेन कोऽर्थः प्रज्ञप्तः ? । ततः खलु आर्य सुधर्मा स्थविरः जम्बूनाम्ना अनगारेण एवमुक्तः सन् जम्बूमनगारमेवमवादी'जंबू इणमो' इत्यादि। मूलम्-" जंबू इणमो अण्हय संवर,-विणिच्छियं पवयणस्सणिस्संदं। वोच्छामि निच्छयत्थं सुभासियत्थं महेसीहिं ॥सू०१॥ ___ टीका-'हे जंबू !' इत्यामन्त्रणेन जम्बूस्वामिनं प्रति सुधर्मास्वामी माह'हे जंबू ! इणमो' इदम्-अनुपदं वक्ष्यमाणं प्रश्नव्याकरणशास्त्रं 'वोच्छामि' दूसरा संवर द्वार है । हे भदन्त ! प्रथम द्वार के श्रमण भगवान महावीर ने कि जो यावत् सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त कर चुके हैं कितने अध्ययन प्ररूपित किये हैं ? इस प्रकार जंबूस्वामी के पूछने पर श्रीसुधस्विामी ने उनसे कहा-हे जंबू! यावत् सिद्धिगति नामक स्थानको प्राप्त हुए श्रमण भगवान् महावीरने प्रथम द्वारके पांच अध्ययन प्ररूपित किये हैं। प्रश्न-द्वितीय द्वार के हे भदंत ! कितने अध्ययन प्ररूपित किये हैं। उत्तर-जंबू ! इतने ही अध्ययन द्वितीय द्वार के प्ररूपित किये हैं। जंबूस्वामी ने पुनः सुधर्मास्वामी से पूछा कि-हे भदन्त ! इन आस्रव एवं संवर संबंधी अध्ययनों का अर्थ यावत् सिद्धिगति नामक स्थानों को प्राप्त हुए श्रमण भगवान महावीर ने कैसा प्ररूपित किया है ? इस प्रकार अनगार जब स्वामी से पूछे गये स्थविर आर्य सुधर्माने उन जंबू अनगार આસવ દ્વાર છે અને બીજું સંવર દ્વાર છે. “હે ભદન્ત! સિદ્ધિગતિને પ્રાપ્ત કરેલ શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે કેટલાં અધ્યયન પ્રરૂપિત કર્યા છે ?” આ પ્રમાણે જબૂસ્વામી વડે પૂછવામાં આવતા સુધર્માસ્વામીએ તેમને કહ્યું- હે જ! સિદ્ધિગતિ નામનું સ્થાન પામેલ શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે પ્રથમ દ્વારના પાંચ અધ્યયન પ્રરૂપિત કર્યા છે.” प्रश्न- Hullan Rei ei मध्ययन प्र३पित यो छ ? " । ઉત્તર--“એટલાં જ અધ્યયન બીજા દ્વારા પણ પ્રરૂપિત કર્યા છે. ” જબૂવામીએ ફરીથી સુધર્માસ્વામીને પૂછ્યું કે હે ભદન્ત! સિદ્ધિગતિ નામના રથાનને પામેલ શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે તે આસ્ત્ર અને સંવર સંબંધી અધ્યયને અર્થ કે પ્રરૂપિત કર્યો છે? આ પ્રમાણે અણગાર જંબૂસ્વામી For Private And Personal Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे वक्ष्यामि त्वां प्रति प्ररूपयिष्यामि। तत् कीदृशमित्याह-'अण्हये 'त्यादि'अण्हयसंवरविणिच्छियं' आस्र पसंवरविनिश्चितं, आस्रवन्ति-आगच्छन्ति कर्मजलानि आत्मसरसि यैस्ते आस्रवाः कर्मवन्धहेतुभूताः प्राणातिपातादयः, यद्वा-आस्रवणम्-आस्रवः-आगमनम् । स द्विविधः-द्रव्यतो भावतश्च, तत्र द्रव्यतो यज्जलान्तर्गतनावादौ छिट्टैर्जलागमनम् । भावतस्तु-प्राणातिपातादिभिरात्मनि कर्मागमनम् । संसारसागरान्तर्गतात्मनौकायां प्राणातिगतादिछिद्रः कर्मजलाग मनमिति भावः। स प्राणातिपातादिरूपः पञ्चविधः। संब्रियन्ते प्रतिरुद्ध्यन्ते से ऐसा कहा-'जंबू इणमो०' इत्यादि। टीकार्थ-इस सूत्र में "जंबू" यह पद संबोधोन अर्थमें प्रयुक्त हुआ है। इससे यह लक्षित होता है कि सुधर्मास्वामी जंबू स्वामी से कहते हैं कि (जंबू इणमो) हे जंबू ! मैं अनुपद वक्ष्यमाण प्रश्न व्याकरणरूप शास्त्र (वोच्छामि) तुमको कहूँगा। (अण्यसंवरविगिच्छियं) इस शास्त्र में आस्रव एवं संवर का निर्णय उनके लक्षणो एवं भेदादिकों के कथनःपूर्वक किया गया है। "विणिच्छियं" पद का अर्थ है विशेषरूप से निर्धारित करना। तथा आस्रवका अर्थ है कर्मबंधके हेतुभूत प्राणातिपातादिक । इनके द्वारा ही आत्मरूपी तालावमें जलतुल्य कर्मों का आगमन होता रहताहै। जिस प्रकार तडाग में जल के आने के लिये नाले हुआ करते हैं उसी प्रकार आत्मा में भी प्राणातिपात आदि रूप नाला द्वारा ज्ञानावरणीय आदि कर्मरूप जल का आना होता रहता है। अथवा-आना यह-आस्रव है यह आस्रव द्रव्य और भाव के भेद से दो प्रकार का कहा गया है। 43 पूछातi स्थवि२ मा सुधा ते मारने धु-"जंयू इणमो” त्यादि. टी -२मा सूत्रमा “ जंबू ” ५४ समाधन मम परायु छ. तेथी એ લક્ષિત થાય છે કે સુધર્માસ્વામી જંબુસ્વામીને કહે છે કે “ इणमो” ! हु मा नीय प्रभानु प्रश्नव्या ४२१७५३५ शाख "वोच्छामि" तभने ४ी. "अण्हयस्वरविणिच्छिय" मा शाखमा मानव અને સંવરદ્વારને નિર્ણય તેમનાં લક્ષણો અને ભેદાદિના કથનપૂર્વક કરવામાં साव्य। छ. “ विणिच्छियं” ५४ने। म विशेष३ मा त ४२२; तथा मास વને અર્થ કર્મબંધના કારણરૂપ પ્રાણાતિપાતાદિક થાય છે. તેમના દ્વારા જ આત્મારૂપી તળાવમાં જળ સમાન કર્મોનું આગમન થયા કરે છે. જેમ તળાવમાં પાછું આવવા માટે નાળાં હોય છે, તે જ પ્રમાણે આત્મામાં પણ પ્રાણાતિપાત આદિપ નાળા દ્વારા જ્ઞાનાવરણીય આદિ કર્મરૂપ જળનું આગમન થતું રહે છે. અથવા આવવું તે આસ્રવ છે. તે આસવ દ્રવ્ય અને ભાવના ભેદથી બે પ્રકારને For Private And Personal Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir % 3A सुदर्शिनी टीकाअ० १ सू०१ मानवसंघरलक्षणनिरूपणम् प्रविशत्कर्मजलानि आत्मसरसि यैस्ते संवराः-कर्मनिरोधहेतुभूताः प्रागातिपात विरमणादयः। यद्वा-संवरण संवर:-स्थगनम् । अयमपि द्विविधः द्रव्यतो भावतश्च । तत्र द्रव्यतस्तथाविधचिकणमृत्तिकादिभिः सलिलोपरि तरतरण्यादेरनारतप्रविशनीराणां विवराणां पिधानम् । भावतः प्राणातिपातविरमणादिभिरास्मनि प्रविशत्कर्मणां निरोधः । असावपि प्राणातिपातविरमणादिरूपः पञ्चविधः। ते विनिश्चीयन्ते= जल के भीतर पड़ी हुई नौका में छिद्रों द्वारा जो जल का आना होता है वह द्रव्यास्रव है। प्राणातिपात आदि अशुभ क्रियाओं द्वारा आत्मा में जो कर्मों को आना होता है वह भावास्रव है । तात्पर्य केवल इसका यह है कि संसार रूप सागर के अन्तर्गत इस आत्म रूप नाव में प्राणा-- तिपात आदि छिद्रों द्वारा कर्मरूप जल का आगमन होता रहता है वह आस्रव है । कर्मागमन हेतुभून यह प्राणातिपातरूप आस्रव पांच प्रकार का है। आत्मारूप सरोवर में प्रवेश होने से कर्मरूप जल जिन क्रियाओं से रुकता है उनका नाम संवर है। प्राणातिपात आदि रूप क्रियाओं से विरमण होना यही कर्मों के रोकने का उपाय भून संवर है। अथवा रुकना इसका नाम संवर है, यह संवर भी द्रव्य और भाव की अपेक्षा दो प्रकार का है-चिकनी मृत्तिका आदि से जल के ऊपर तैरती हुई नौका आदि का छेदों के कि जिनसे निरन्तर उसमें जल आ रहा हो बंद कर देना यह द्रव्य की अपेक्षा संवर है, तथा प्राणातिपातविरमण आदि उपायों से आत्मा में प्रविष्ट होते हुए कर्मों का रोक देना यह भाव की अपेक्षा संवर है। यह संवर भी प्राणातिपात आदिकों के विरमण બતાવ્યો છે. પાણીમાં પડેલી નૌકામાં છિદ્રો દ્વારા જે જળનું આગમન થાય છે તે દ્રવ્યાસવ છે. પ્રાણાતિપાત આદિ અશુભ ક્રિયાઓ દ્વારા આત્મામાં જે કર્મોનું આગમન થાય છે તે ભાવાસ્રવ છે. તેનું તાત્પર્ય એટલું જ છે કે સંસારરૂપી સાગરની અંદર આ આત્મારૂપી નાવમાં પ્રાણાતિપાત આદિ છિદ્રો દ્વારા કમરૂપી જળનું જે આગમન થયા કરે છે તેને આસવ કહે છે કર્માગમનના કારણકપ તે પ્રાણાતિપાત આદિ પાંચ પ્રકારના આઅવે છે. કર્મરૂપ જળ જે ક્રિયાઓથી આત્મારૂપ સરેવરમાં પ્રવેશ પામતું અટકે છે તે ક્રિયાઓને સંવર કહે છે પ્રાણાતિપાત આદિ ક્રિયાઓનું વિરમણ થવું એ જ કર્મોને રોકવાના ઉપાયભૂત સંવરે છે, અથવા સંવર એટલે રોકવું. તે સંવર પણ દ્રવ્ય અને ભાવની અપેભાએ બે પ્રકારનો છે. પાણીમાં તરતી નૌકાના જે છિદ્રોમાંથી પાણી પ્રવેશ કરતું હોય તે છિદ્રોને ચીકણી માટિ આદિથી બંધ કરી દેવા તે દ્રવ્યની અપેક્ષાએ સંવર છે. તથા પ્રાણાતિપાત વિરમણ આદિ ઉપાયોથી આત્મામાં પ્રવેશ કરતાં કમેને રેકી લેવાં તે ભાવની અપેક્ષાએ સંવર છે. તે સંવર પણ પ્રાણાતિપાત, For Private And Personal Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५ प्रश्नव्याकरणसूत्रे 4 " लक्षणप्रदर्शन पुरस्सरं विशेषेण निर्धार्यन्ते यस्मिन् तत् आस्रव संवरविनिश्वितम् आस्त्रवसंवर निर्णयात्मकम् । 'पवयणस्स' प्रवचनस्य- माधुर्यमसादगुण सौन्दर्यस्य भावनासुगन्धिकस्य आत्मस्वरूपानुभवपरमास्वादवतः भगवत्सुरतरुकुसुमित प्रवचन कुसुमस्य निस्संदं ' निस्पन्दं = प्रक्षरद्रसमित्र सारभूतं 'निच्छत्थं' निश्वयार्थं निः= निष्क्रान्तः चयः ज्ञानावरणीयादिकर्मपुञ्जः यस्मात् स नियो=मोक्षः, सोऽर्थः = प्रयोजनं यस्य तत् निश्वयार्थ, निश्चयो मोक्षस्तत्प्राप्त्यर्थं वा, 'महेसीहिं' से पांच भेद रूप है । इन पांच आस्रवों का और संवरो का इस शास्त्र में सूत्रकार लक्षप्रदर्शन पूर्वक विशेषरूप से स्वयं ही आगे निर्धारण करेंगे । यही बात " अण्हयसंवरविणिच्छियं पद से सूत्रकार ने समझाई है । यह प्रश्नव्याकरण ( पवगणस्स ) प्रवचनरूप पुष्प के निकले हुए रस के समान ( निस्संद ) सारभूत है । जो प्रवचनपुष्प भगवान् तीर्थकर प्रभु महावीर रूप कलरवृक्ष पर प्रफुल्लित हुआ है। माधुर्य एवं प्रसाद रूप गुण रूप विशिष्ट शोभा से संपन्न है । भावना रूप सुगंधि से जो भरा है । आत्मानुभवनरूप परम स्वाद से जो युक्त है। तात्पर्य इसका यह है कि जिस प्रकार पुष्प का सार उसका रस माना जाता है उसी प्रकार यह व्याकरण तीर्थकर प्रभु के प्रवचनों में सारभूत माना गया है। भव्यजीवों का इसके अध्ययन से सर्वोत्कृष्ट यही प्रयोजन सघता है कि वे अपनी आत्मा का अनुभव करना सीख जाते हैं । (निच्छयत्थं) पद से यह प्रकट होता है कि इस अंग में जो भी कुछ प्रतिपादित किया जावेगा, वह मोक्ष प्रयोजनीभूत हो इसलिये इस पद का ऐसा भी अर्थ 46 " "" આદિના વિરમણથી પાંચ પ્રકારના છે. એ પાંચ આસ્રવેનું અને સવરોનુ આ શાસ્ત્રમાં સૂત્રકાર પોતે જ લક્ષણ પ્રદર્શનપૂર્વક વિસ્તારથી આગળ જતાં વધુન કરશે. એજ વાત अण्हयसंवर विणिच्छियं " पहथी सूत्रारे समन्भवी छे. भा પ્રશ્નવ્યાકરણ पवयणस्स પ્રવચનરૂપ પુષ્પમાંથી નીકળેલ રસના જેવુ' સારભૂત છે. જે પ્રવચનપુષ્પ ભગવાન તીર્થંકર મહાવીર પ્રભુરૂપી પવૃક્ષ પર વિકસિત થયેલ છે. માય અને પ્રસાદનુરૂપ વિશિષ્ટ શાભાથી તે યુક્ત છે, ભાવનારૂપ સુગંધિથી તે ભરેલું છે, આત્માનુભવરૂપ પરમ સ્વાદથી તે યુક્ત છે. તેનું તાત્પ એ છે કે જેમ પુષ્પના સાર તેને રસ મનાય છે, તે જ પ્રકારે આ પ્રશ્નવ્યાકરણ તીથ કર પ્રભુના પ્રવચનામાં સારરૂપ મનાયુ છે. ભવ્યજીનું તેના અધ્યયનથી એ સર્વોત્કૃષ્ટ પ્રયેાજન સધાય છે કે તેઓ પાંતાના આત્માના અનુભવ કરતા शीणी लय छे. “निच्छयार्थ' मा पट्टी से अगर श्वासां मन्युछे } मा અંગમાં જે કંઈ પ્રતિપાદિત કરવામાં આવશે, તે મેાક્ષના પ્રયેાજનરૂપ થશે; તે કારણે આ પદના એવા પણુ અર્થ થઈ શકે છે કે સૂત્રકાર એનું જે પ્રતિપાદન 66 For Private And Personal Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० १ सू०१ आनवसंवरलक्षणनिरूपणम् महै पिभिः, महान् वृहत् स्वर्गादिफलापेक्षया मोक्षस्तमिच्छन्ति अभिलषन्तीति महैषिणः । यद्वा-महान्तश्च ते सर्वज्ञलान् ऋपया महर्षयस्तैः महर्षिभिः प्रवचनपणेतुभिस्तीर्थङ्करगणधरादिभिः । 'सुभासियत्थं' सुभापिताथै सु-सुष्टु सम्यक्तया लोकाऽलोकावलोकि केवलाऽलोकेन विलोक्य भापितः द्वादशविधपरिषदि कथितः अर्थः-अर्यते गम्यते ज्ञायते इति अर्थ: आस्रवसंबरस्वरूपलक्षणः, यद्वा-अर्थ्यते साध्यते इति अर्थः सकलार्मप्रक्षयो पलक्षित निरतिशयसुखास्वादलक्षणो निर्वाणः यस्मिन् तत् , उक्तविशेषणविशिष्टं शास्त्रं वक्ष्ये इति पूर्वेण सम्बन्धः ॥सू०१॥ हो सकता है कि सूत्रकार जो इस का प्रतिपादन कर रहे हैं वह इस अभिप्राय से ही कर रहें हैं कि इसका अध्येता मुक्ति की प्राप्ति करें। (महेसिहि सुभासियत्थं) इन पदोंद्वारा यह बात प्रमाणित कर प्रकट की जा रही है कि तीर्थकर गगधरादिक देवोंने जो विषय-आस्रव संवररूप अथवा सकल कर्मों के प्रक्षय से उपलक्षित एवं निरतिशयरूप क्षायिक सुख के आस्वाद स्वरूप निर्वाण-मोक्ष -इसमे कहा है वह स्वकपोल कल्पना से कल्पित कर ग्रथित नहीं किया है किन्तु केवलज्ञान रूप आलोक से अच्छी तरह छानवीन करके ही उस उस विषय का निर्दोष प्रतिपादन किया है। तीर्थकर सर्वज्ञप्रभु ने केवलज्ञान से पहिले उस विषय को अपने ज्ञान का विषयभूत बनाकर उसे द्वादशविध परिषदा के बीच में कहा, और उसे श्रवण कर एवं बुद्धि में अवधृत कर उसी के अनुसार गणधरादि देवों ने प्रथन किया गया है । इस लरह उक्त विशेषणों को सार्थकता टीकाकार ने प्रकट की है । संक्षिप्तार्थ केवल इस गाथाका यही કરી રહ્યા છે તે એ હેતુથી જ કરી રહ્યા છે કે તેનું અધ્યયન કરનાર મુક્તિની प्राति ४२. “महेसिहि सुभासियत्थं " ! ५ वाश से वात प्रतिपादन उशने પ્રગટ કરવામાં આવી રહી છે કે તીર્થકર ગણધર આદિ દેએ જે વિષયઆસ્રવ સંવરરૂપ અથવા સકળ કર્મોનો ક્ષયને ઉપલક્ષિત અને નિરતિશયરૂપ ક્ષાયિક સુખને આસ્વાદ સ્વરૂપ નિર્વાણમક્ષ તેમાં કહેલ છે, તે પિતે કલ્પનાથી કલ્પને ગ્રથિત કરેલ નથી પણ કેવળજ્ઞાનરૂપ દષ્ટિથી સારી રીતે વીણીવીણીને તે દરેક વિષયનું નિર્દોષ પ્રતિપાદન કર્યું છે. તીર્થકર સર્વપ્રભુએ કેવળજ્ઞાનથી પહેલાં તે વિષયને પિતાના પાનના વિષયભૂત બનાવીને તેનું બાર પ્રકારની પરિષદમાં કથન કર્યું હતું, અને તેનું શ્રવણ કરીને અને મનમાં બરાબર ઉતારીને તે પ્રમાણે જ ગણધરાદિ દેએ ગ્રથન કર્યું છે. આ રીતે ઉકત વિશેષ ની સાર્થકતા ટીકાકારે પ્રગટ કરી છે. આ ગાથાને સંક્ષેપમાં એટલે જ For Private And Personal Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे है कि यह प्रश्नव्याकरणशास्त्र प्रवचनरूप प्रफुल्लित पुष्प के रस जैसा सार भूत है । इसमें आस्रव और संवर तत्त्वका सुन्दर निर्दोष विवेचन हुआ है। और यह विवेचन तीर्थंकर परंपरा के अनुसार जैसा होता आया है वैसा ही हुआ है। भावार्थ-टीकाकार ने "आस्रवंति-आगच्छति, कर्मजलानि यैस्ते आस्रवाः, यद्वा-आस्रवणम् आस्रवः। संब्रियन्ते-प्रतिरुद्धयन्ते प्रविशत्कर्मजलानि यैस्ते संवराः, यद्वा संवरणं संवरः" इस प्रकार से आस्रव और संवर की व्युप्तत्ति की है, उससे प्रथम व्युत्पत्ति के अनुसार कर्मबंध के कारणभूत प्राणातिपात आदि क्रियाओं को आस्रव कहा गया है कारण कि इन्हीं के द्वाराजीव नवीन२ कर्मों का बंध करता रहता है। दूसरी व्युप्तत्ति के अनुसार आने मात्र का नाम आत्रव कहा गया है सो यह, द्रव्य और भाव के भेद से दो प्रकार का कहा गया है । द्रव्यास्रव कर्मबंध का कारण नहीं है । कर्मबंध का कारण तो भावात्रव ही हैं, क्यों कि प्राणातिपात आदिरूप भावों से ही कर्मों का आगमन होता है। इसी तरह संवर के विषय में भी जानना चाहिये। संवर, आस्रव का निरोधक होता है। छिद्रों के द्वारा नौका में जल का आना यह आस्रव के स्थानापन्न है और उन छिद्रों को बंद कर देना यह संवरके स्थानापन्न है । અર્થ છે કે આ પ્રશ્નવ્યાકરણ શાસ્ત્ર પ્રવચનરૂપ વિકસિત પુષ્પના રસ જેવું સારભૂત છે. અને આ વિવેચન તીર્થંકર પરંપરા પ્રમાણે જે પ્રમાણે થતું આવ્યું છે. તે પ્રમાણે જ થયું છે. ભાવાર્થ—ટીકાકારે આ રીતે આસવ અને સંવરની વ્યુત્પત્તિ કરી છે— " आस्रवंति-आगच्छंति, कर्मजलानि यैस्ते आस्रवाः ” (ना हा! भ भारत यात्रा ४२वाय छे.) अथवा “ आस्रवणम् आस्रवः” (माव सटसे भासव) “संत्रियन्ते-प्रतिरुद्धयन्ते प्रविशत्कर्मजलानि यैस्ते संवराः " (२१ मा प्रवेश पामतुं म छे ते १२ छ) २५! "संवरणं " ( सवर मोटो न) तमाथी पडली व्युत्पत्ति प्रमाणे भनi કારણરૂપ પ્રાણાતિપાત આદિ ક્રિયાઓને આસવ બતાવ્યાં છે. બીજી વ્યત્પત્તિ પ્રમાણે આગમન માત્રનું નામ આસવ બતાવ્યું છે. તે તે દ્રવ્ય અને ભાવના ભેદથી બે પ્રકારના કહેલ છે. દ્રવ્યાસવ કર્મબંધનું કારણ નથી. કર્મબંધનું કારણ તો ભાવાવ જ છે, કારણકે પ્રાણાતિપાત આદિરૂપ ભાથી જ કર્મનું આગમન થાય છે. એ જ પ્રમાણે સંવરને વિષે પણ સમજવું. સંવર આસવને નિરેિધક (કનાર) હોય છે, છિદ્રો દ્વારા નૌકામાં જળનું પ્રવેશવું તે આસવના સ્થાન સમાન છે અને તે છિદ્રોને બંધ કરી દેવા તે સંવરના સ્થાન For Private And Personal Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० १ सू० २ प्रथम अधर्मद्वारनिरूपणम् _ 'यथोदेशं निर्देशः, इति न्यायेन फलतो नामतश्चास्रवप्रकारानाह'पंचविहो' इत्यादि। मूलम्-पंचविहो पण्णत्तो जिणेहिं इह अण्हओ अणादीओ। हिंसा१ मोस२ मदत्तं ३ अबंभं४ परिग्गहं ५ चेव ॥सू०२।। टीका-'जिणेहिं ' जिनः रागाद्यन्तरङ्गरिपुविजेभिरर्हद्भिः इह-जिनशासने संसारे वा, 'अण्हओ' आस्रवः 'अणादीओ' अनादिकः-नास्यादिः प्रथमोत्पत्तिर्विद्यते इत्यनादिकः। उपलक्षणत्वादस्य 'अपर्यवसितः' इत्यपि दृश्यम् , प्राणातिपातादिरूप भाव, प्राणातिपात आदि विरमणरूप भावसंवर से प्रतिरुद्ध होते हैं । और ऐसा होने से ही कर्मों का आगमन रुकता है। "निश्चयार्थ"में निः' शब्दका अर्थ दूर होना है । तथा चयका अर्थ ज्ञानावरणीयादि कर्मपुंज है। वह कर्मपुंज जिस स्थानसे दूर हो चुका है ऐसा वह स्थान मोक्ष है, और यह मोक्ष जिसका प्रयोजन है वह निश्चयार्थ शास्त्र है। अथवा निश्चय का अर्थ मोक्ष है । इस मोक्ष की प्राप्ति के लिये ही इस शास्त्र का प्रणयन हुआ है ॥मू०१॥ उद्देशके अनुसार ही निर्देश हुआ करता है इस न्याय को लेकर सूत्रकार फल और नाम की अपेक्षा अब आस्रव के प्रकारों को प्रकट करते हैं-'पंचविहो पण्णत्तो' इत्यादि। टीकार्थ-(जिणेहिं) जिनेन्द्र देवने (इह) अर्हन्त प्रभुके शासनमें अथवा इस संसारमें (अण्हओ) आस्रव (अणादीओ ) अनादि (पण्णत्तो) સમાન છે. પ્રાણાતિપાતાદિપ ભાવ, પ્રાણાતિપાત આદિ વિરમણરૂપ ભાવસંવરથી અટકે છે. અને એમ થવાથી જ નવીન કર્મોનું આગમન રોકાય છે. "निश्चयाथै 'भा “निः" शहनो मथ २ थ' थाय छे. तथा 'चयन। અર્થ જ્ઞાનાવરણીયાદિ કર્મકું જ છે. તે કમપેજ જે સ્થાનથી દૂર થઈ ગયે છે તેવું સ્થાન મોક્ષ છે. અને તે મોક્ષે જેનું પ્રેજન છે તે નિશ્ચયાર્થ શાસ્ત્ર છે. અથવા નિશ્ચયને અર્થે મોક્ષ પણ થાય છે. એ મોક્ષની પ્રાપ્તિને માટે જ આ શાસ્ત્રની રચના કરવામાં આવી છે. આ સૂ. ૧ ઉદેશ પ્રમાણે જ નિર્દેશ થયા કરે છે તે ન્યાયે સૂત્રકાર ફળ અને નામની अपेक्षा के मासवाना प्राशने प्रगट २ छ- "पंचविहो पण्णतो" त्यादि. का-"जिणेहि" जिनेन्द्र वे "इह" २५ प्रभुना शासनम, मेटम संसारमा “अण्हओ" मासवाने "अणादीओ" मनाहि " पण्णतो" प्रशत For Private And Personal Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रभव्याकरणसूत्र प्रवाहापेक्षया नानाजीवापेक्षया च संसारस्यानाथपर्यवसितत्वात् । आस्रवस्य सादित्वे सपर्यवसितत्वे च स्वत एव विरमणे सिद्धानामिव संसारिणामपि कर्मबन्धाभाव प्रसङ्गः स्यात् । के ते पयास्त्रवाः ? इत्याह-हिंसा' इत्यादि, हिंसा जीवप्रज्ञप्त किया है। (हिंसामोसमदत्तं अवंभ परिग्गहं पंचविहो चेव) यह हिसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह, इस प्रकार से पांच तरह का ही है। रागादिक अन्तरंग रिपुओं को जो विजित कर लेते हैं उनका नाम जिन है। जिन प्रभु ने जो आस्रव को अनादि कहा है उसका कारण यह है कि यह संसार अनादि और अपर्यवसित है । यद्यपि भव्यजीवों की अपेक्षा संसार में अनादिता होने पर भी अपर्यवसिता नहीं बनती है फिर भी नाना जीवों की अपेक्षा यह बन जाती है। आस्रव संसारी जीवों के ही होता है, मुक्त जीवों के नहीं । संसार में रहने वाले जीव ही संसारी जीव हैं। यह संसार प्रवाह एवं नानाजीवों की अपेक्षा जब अनादि अनंत है तो यह बात बन जाती है कि आस्रव भी अनादि अनंत है । अथवा यदि यों भी कह दिया जावे कि आस्रव ही संसार है और संसार ही आस्रव है। तो इस पक्षमें भी आस्रवमें अनादि अनंतता सुघटित हो जाती है। कारण इसकी प्रथमोत्पत्ति तो बनती नहीं है। यदि आस्रवको एकान्ततः सादि और सपर्यवसित ही माना जावे तो इस स्थिति में यह आस्रव जबतक संसारी जीवमें नहीं हुआ तबतक वह जीव सिद्धों (माया) ४ा छ. "हिंसामोसमदत्तं अबभं" परिग्गहं पंचविहो चेव" ते डिसा, અસત્ય, ચોરી, કુશીલ અને પરિગ્રહ એમ પાંચ પ્રકારના છે. રાગાદિ આંતરિક દુશ્મનને જે જીતે છે તેને જિન કહે છે. જિન પ્રભુએ આસને અનાદિ બતાવ્યા છે તેનું કારણ એ છે કે આ સંસાર અનાદિ અને અપર્યવસિત અનંત છે. જો કે ભવ્યજીની અપેક્ષાએ સંસારમાં અનાદિતા હોવા છતાં પણ અપર્યવસિતા બનતી નથી, છતાં પણ નાના જીવોની અપેક્ષાએ તે બને છે. આસવ સંસારી જીવોને જ થાય છે, મુક્ત જીવોને થતા નથી. સંસારમાં રહેનાર છ જ સંસારી જીવ છે. આ સંસાર પ્રવાહ અને નાના જીવોની અપેક્ષાએ જે અનાદિ અનંત છે તે એ વાત પણ નકકી થઈ જાય છે કે આસ્રવ પણ અનાદિ અનન્ત છે. અથવા જે એમ પણ કહેવામાં આવે કે આસ્રવ જ સંસાર છે અને સંસાર જ આસ્રવ છે, તે એ રીતે પણ આગ્નવમાં અનાદિ અનંતતા સુઘટિત થઈ જાય છે. કારણકે તેની પ્રથમ ઉત્પત્તિ તે સંભવી શકતી નથી. જે આસવને એકાન્તતઃ સાદિ અને સપર્યવસિત (સાન્ત) જ માનવામાં આવે તે તે પરિસ્થિતિમાં તે આસવ જ્યાં સુધી સંસારીજીવમાં For Private And Personal Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० १ सू० २ प्रथम अधर्मद्वारनिरूपणम् घातः १ । 'मोसं' मृपा-असत्यभाषणम् २ । 'अदत्तं नदत्तमदत्तं परद्रव्यग्रहणम् ३। 'अबंभं' अब्रह्म-ब्रह्म-कामसेवनत्यागः न ब्रह्म अब्रह्म-अकुशलानुष्ठान स्त्री पुंस सङ्गो मैथुनमित्यर्थः ४ । 'परिग्गह' परिग्रहः-परिगृह्य ते आदीयते इति परिग्रहः स च नवविध:--'धनं १, धान्यं२, क्षेत्रं३, वास्तुकं४, रूप्यं५, सुवर्ण ६, कुप्यं७, द्विपदः८, चतुष्पदश्चेति९ । 'चेव' चैव चेति समुच्चयार्थः, एव शब्दोऽ. की तरह कर्मबंधनसे मुक्त ही रहेगा। तथा सपर्यवसित माननेमें भी यही आपत्ति रहेगी। इस तरह संसारी जीवों के भी कर्मबंधन के अभाव का प्रसंग आकर प्राप्त होगा। इसलिये यही मानना चाहिये कि यह आस्रवप्रवाह नाना जीवों की अपेक्षा अनादि अनंत है । अपर्यवसित यह पद मूल गाथा में नहीं है। फिर भी अनादि पद से उसका उपलक्षण किया गया है। प्रमाद के योग से जीव का घात होना यह हिंसा है। प्रमाद के योग से असत्य भाषण करना इसका नाम झूठ-मोस है। प्रमाद के योग से पर के द्रव्य का ग्रहण करना अदत्तादान चोरी है। काम सेवन करने का परित्याग करना इसका नाम ब्रह्म है । इस ब्रह्मका नहीं होना अब्रह्म है। अर्थात् मैथुन सेवन करने रूप अकुशलानुष्ठानमें प्रवृत्त रहना सो अब्रह्म है । जो ग्रहण किया जावे उसका नाम परिग्रह है, यह परिग्रह नौ प्रकारका है-धन१, धान्य२, क्षेत्र ३, वास्तु ४, रूप्य ५, सुवर्ण ६, कुप्प ७, विपद ८ और चतुष्पद । “च" यह शब्द यहां ન થાય ત્યાં સુધી તે જીવ સિદ્ધોની જેમ કર્મબંધનથી મુક્ત જ રહેશે. તથા - સપર્યસિત માનવામાં પણ તે જ મુશ્કેલી નડશે. એ રીતે સંસારી માં પણ કર્મબંધનના અભાવની સ્થિતિ આવી જશે. તેથી એમ જ માનવું જોઈએ કે તે આઝવ પ્રવાહ નાના છની અપેક્ષા એ અનાદિ અનંત છે. “અપય. વસિત પદ મૂળ ગાથામાં નથી. છતાં પણ અનાદિ પદથી તેનું ઉપલક્ષણ કરવામાં આવ્યું છે. પ્રમાદના રોગથી જીવની હત્યા થવી તે હિંસા ગણાય છે. प्रभाहना योगथी मसत्य मास तेनु नाम पूठ-मोस छे. प्रमाना योगथी પારકાનું દ્રવ્ય ગ્રહણ કરવું તેને અદત્તાદાન–ચારી કહેવાય છે કામ સેવન કરવાને પરિત્યાગ કરે તેનું નામ બ્રહ્મ છે. આ બ્રહ્મને અભાવ હવે તે અબ્રા છે. એટલે કે મિથુન સેવન કરવા રૂપ અશુભ અનુષ્ઠાનમાં પ્રવૃત્ત રહેવું તે અબ્રહ્મ કહેવાય છે. પરિગ્રહ એટલે ગ્રહણ કરવું. તે પરિગ્રહ નવ પ્રકારને छे-(१) धन, (२) धान्य, (3) क्षेत्र, (४) वास्तु, (५) यांही, (१) सुप, (७) प्य, (८) द्विप४ अने () यतु५४. "च" श५४ मडी समुच्यया For Private And Personal Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir મ प्रकरण वधारणार्थः । हिंसादिभेदतः पञ्चविधा एवं आस्रवाः सन्तीत्यर्थः । अनेन दशाध्य यस्य प्रश्नव्याकरणसूत्रस्याद्यानि पञ्चाध्ययनानि सूचितानि ॥ ०२ ॥ अथ प्रथमाध्ययने कतिद्वाराणि ? इति द्वारनिरूपणार्थं श्री सुधर्मास्वामी जम्बूस्वामिनं प्रत्याह- 'जारिसओ' इत्यादि । मूलम् - जारिसओ १, जंनामा२, जहयकओ३, जारिसं फलं देइ ४ | जेवि य करेंति पाव ५, पाणवहं तं निसामेह ॥सू०३ ॥ टीका - स प्राणिवधरूप आस्रवः 'जारिसओ' यादृशकः = यत्स्वरूपः, यादृश तस्य स्वरूपमस्ति, "जं नामा' यन्नामा यानि=यत्संख्यकानि नामानि सन्ति यस्येति यन्नामा भवति । 'जहयकओ' यथा च कृतः प्राणिभिः यथा येनमन्दतीवादिपरिणामेन कृतः = समाचरितः - आचरणविषयीकृतः । आचरितः सन् 'जारिस' यादृशं नरकगमनादिकं फलं 'देह' ददाति । 'जेवि य' येऽपि च 'पावा' समुच्चयार्थक है और " एवं " शब्द अवधारणार्थक है। इससे यह पुष्ट होता है कि आस्रव, हिंसा आदि के भेद से पांच ही प्रकार का है। मी बढती नहीं है । इस कथन से सूत्रकार ने दस अध्ययनात्मक इस प्रश्नव्याकरण शास्त्र के आदि के पांच अध्ययन सूचित किये हैं । सू.२ ॥ अब सुधर्मास्वामी " प्रथम अध्ययन में कितने द्वार हैं " इस जंबूस्वामी के प्रश्न का उत्तर देने के लिये द्वार निरूपण के निमित्त कहते हैं 'जारिसओ जं नामा' इत्यादि । टीकार्थ - यह प्राणिवधरूप आस्रव (जारिसओ) जैसा है (जं नामा) जितने इसके नाम है ( जहयकओ) प्राणियोंद्वारा यह जिन मन्द तीव्र आदि परिणामो से किया जाने पर ( जारिस फलं देह ) जिस प्रकार का उन्हें ८८ "" छे, अने एव શબ્દ અવધારણા ક છે. તેનાથી એ વાતને પુષ્ટિ મળે છે કે આસવ, હિંસા આદિના ભેદથી પાંચ જ પ્રકારના છે. વધારે કે ઓછા નથી. આ કથનથી સૂત્રકારે દશ અધ્યયનવાળા આ પ્રશ્નવ્યાકરણ શાસ્ત્રના શરૂઆતનાં यांय अध्ययन सूति छे. ॥ सू.२ ॥ હવે સુધર્માંસ્વામી “ પ્રથમ અધ્યયનમાં કેટલાં દ્વાર છે. ”. એ પ્રકારના જખૂસ્વામીના પ્રશ્નના ઉત્તર દેવાને માટે દ્વારનિરૂપણને નિમિત્તે કહે છે " जारिसओ जं नामा " त्याहि. - टीअर्थ - या प्राशीवध३५ यास्त्रव "जारिसओ" वो छे, “जं नामा" भेटसा तेनां नाम छे, “ जहयकओ" प्राशुमो द्वारा ते भद्द, तीव्र आदि परिशाभोथी जारिसं फलं देइ " के प्रास्तु तेभने नाहि३५ इमाये छे, तथा ८८ કરાતા For Private And Personal Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुशिनी टीका अ.१ सू.३-४ प्रथम अधर्म-द्वारनिरूपणम् पापा:-पापकर्मशीलाः 'पाणवह' प्राणवधं-प्राणाः सन्ति येषामिति ते प्राणाःप्राणिनः ‘अर्श आदित्वाद च्, तेषां वधो-हिंसा प्राणवधस्तं जीवघातं ' करेंति' कुर्वन्ति 'त' तत्-पथमानवद्वारं वक्ष्यमाणं 'निसामेह' निशामयत-शृणुत । हे जम्बूः ! मम कथयतः श्रृणु इत्यर्थः, अत्रापत्वाद् बहुवचनम् ।।०३।। सम्प्रति 'जारिसओ' यादृशः, इति द्वारं वितृण्वन् प्राणवधस्वरूपमाह'पाणवहो ' इत्यादि। मूलम्-पाणवहो नाम एसो जिणेहिं भणिओ-पावो१, चंडोर, रुदो३, खुदो४, साहसिओ५, अणारिओद, णिग्घिणो, णिस्संसोट, महन्भओ९, पइभओ१० अइभओ११, बीहणओ १२. तासणओ१३, अणजओ१४, उव्वेयणओ य, जिरवयवो १६, णिद्धमो१७, णिप्पिवासो१८, णिकलणो१९, निरयवास निधणगमणो२०, मोहमहब्भयपयट्टओ२१, मरणवेमणस्सो२२, पढम अहम्मं अव्वयस्स ॥ सू०४॥ नरकादिरूप फल देता है, तथा (जे वि य पाणवहं करेंति ) जो पापी इस प्राणवध को करते हैं यह सब विषय इस प्रथम आस्रवद्वार में कहा जावेगा। सो (तं निसामेह ) हे जंबू ! तुम उसको सुनो। ____ भावर्थ-सुधर्मा स्वामी इस गाथा द्वारा यह समझा रहे हैं कि हे जंबू ! अब इस हिंसारूप प्रथम आस्रवद्वार का स्वरूप, नाम और फल इन तीन द्वारांसे इस हिसारूप प्रथम आस्रवद्वारका निरूपण किया जायगा । तथा साथ २ में यह भी स्पष्ट कहा जायगा कि इस प्राणिवध को कौन जीव करते हैं। इस गाथा में “पाणवह" इस पद से प्राण जिनके होते हैं ऐसे प्राणी एकेन्द्रियादिक गृहीत हुए हैं। उनका जो वध है वह प्राणवध है। सू. ३ ॥ "जे विय पावा पाणवह करेंति" रे पापी मा प्रावध ४२ छ, त समस्त विषय 20 पडसा मानपामा वामां आशे. तो “सो तं निसामेह "ई भू! तु त सान. ભાવાર્થ—-સુધર્માસ્વામી આ ગાથા દ્વારા એ સમજાવે છે કે હે જંબ! આ હિંસારૂપ પ્રથમ આસ્રવદ્વારનું સ્વરૂપ, નામ અને ફળ એ ત્રણેનું દ્વારે. વડે નિરૂપણ કરવામાં આવશે. તથા તેની સાથે એ પણ સ્પષ્ટ કરવામાં આવશે है प्रावध श्य। (पी) ०१ ४२ छ. 241 थामा “पाणवह" से पहथीने પ્રાણ હોય છે તેવાં એકેન્દ્રિયાદિક પ્રાણી ગ્રહણ કરાયેલ છે. તેમને જે વધ છે तेने प्रावध ४ छे. ॥ सू. 3 ॥ For Private And Personal Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्र ____टीका-'पाणवहो' प्राणधो नाम 'एसो' एषः वक्ष्यमाणः 'जिणेहिं' जिनैः ‘भणिओ' भणितः कथितः। स चायम्-'पावो' पापः-पापप्रकृतीनां बन्धकारणत्वात् । 'चंडो' चण्ड:-क्रोधजनकत्वात् 'रुद्दो' रौद्रः-रौद्ररसप्रवर्तितस्वात् , 'खुद्दो' क्षुद्रः-क्षुद्रजनाचरितत्वात् , 'साहसिओ' साहसिकः-असमीक्ष्यकारि जनप्रवर्तितत्वात् । 'अणारिओ' अनार्यः-अनार्यपुरुषैराचस्तित्वात् । 'णिग्धिणो' निणः-न विद्यते घृणा-पापजुगुप्सा येषां ते निघृणाः-निर्दयाः, तैरावरितत्वात् । णिस्संसो' नृशंसः-क्रूरकर्माचरितत्वात् , 'महन्भओ' महाभयः-महाभयजनकत्वात् , 'पइभओ प्रतिभयः सकलप्राणिनां भवहेतुत्वात् , ____ अब सूत्रकार ' जारिसओ' इस द्वार का विवरण करते हुए प्राणवध के स्वरूप को कहते हैं-' पाणवहो नाम एसो ' इत्यादि । टीकार्थ-(एसो पाणवहो नाम) यह प्रागवध (जिणेहि) जिनेन्द्र देवने (पावो) पाप प्रकृतियों के बंध का कारण होने से पापरूप १, ( चंडो) क्रोध का जनक होने से, चंडस्प २, (रुद्दो ) रौद्र रस से प्रवर्तित होने के कारण रौद्ररूप ६, (खुद्दो) क्षुद्र जनों द्वारा आचरित होने के कारण क्षुद्ररूप ४, ( साहसिओ) अविचार शील मनुष्यों द्वारा किया हुआ होने के कारण साहसिक रूप ५, ( अगारिओ) अनायें जनों द्वारा विहित होने के कारण अनायरूप ५, (गिन्धिणो ) दया विहीन हृदयवाले मनुष्यों द्वारा सेवित होने के कारण निघृणरूप ७, (णिस्संसो) कर कर्मवाले जनों द्वारा किया हुआ होने के कारण नृशंसरूप८, (महमओ) नहान् भयका जनक होने के कारण महा भय रूप९, (पहभओ) समस्त प्रागियोंको भयका हेतु वे सूत्रा: “ जारिसओ' AN AIRनु १ - ४२di प्रावधनु २१३५ छ-" पाणवहो नाम एसो" त्यादि. टार्थ-"एसो पाणवहो नाम" २॥ प्रावध “जिणेहि" जिनेन्द्र श्वे (१) "पावो" पा५ प्रतियाना धन ४२११ डापायी ॥५३५, (२) "चंडो" धने पहा ४२॥२ डापाथी २४३५, (3) “ रहो" शैद्र २सथी प्रवर्तित होपाने रहो रौद्र३५, (४) "खुद्दो" क्षुद्रमना २आयरित वायी क्षुद्र३५, (५) 'साहसिओ" अवियारी भनुष्यो २॥ ४रातो पाने ॥२) साउसि४३५, (6) "अणारिओ" અનાર્ય કે દ્વારા કરાતું હોવાને કારણે અનાર્યરૂપ, (૭) "णिग्षिणो" या२डित या७॥ २॥ ४२रातो पाथी नि ४३५, (८) "णिसंसो" २ मा द्वा२। रातो डावाने पर नृश स३५, (6) "महन्भओ" भडान लय न वाथी मामय३५, (१०) “पइमओ" समस्त प्राणीमान भयनी तुभूत पाने ४॥२२ प्रतिमय३५, (११) 'अइभओ" For Private And Personal Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० १ सू० ३-४ प्रथम अधर्मद्वारनिरूपणम् 'अइभओ' अतिभयः-मरणान्तभयजनकत्वात् , 'बीहणओ' भवानकः भयोत्पादकत्वात् 'तासणओ' त्रासनकः अकस्मात्क्षोभजनकत्वात् , 'अणज्जओ' अन्या. य्यः-न्यायादनपेतः युक्तः न्याय्यः, न न्याय्यः-अन्याय्यः न्यायवर्जितत्वात् । 'उध्वेयणओ य' उद्वेजनकच-उद्वेगकरः-हृदयोद्वेगजनकत्वात् । चकारः समुच्चयार्थः। 'निरवयक्खो' निरपेक्षः-निर्गता अपेक्षा परहितविषया यस्य स तथा परमाणत्राणवाञ्छावर्जितत्वात् , 'णिद्धम्मो' निर्धर्मः-श्रुतचारित्रधर्मवर्जितत्वात् , 'णिप्पिवासो' निष्पिपासः-प्राणिस्नेहरहितत्वात् , 'णिक्कलुणो' निष्करुणःदयाभाववर्जितत्वात् , 'निरयवासनिधणगमणो' निरयवासनिधनगमनः, निर. यवासा-नरकावासः, तत्र गमनमेव निधनं-पर्यवसानं अन्तिमफलं यस्य स निरयवासनिधनगमनः नरकपापकत्वात् । भूत होने के कारण प्रतिभयरूप १०, (अइभओ) मरणान्तभयजनक होने से अतिभयरूप ११, (बीहणओ) भय के उत्पादक होने से भयकारकरूप १२, ( तासणओ ) अकस्मात् क्षोभ का कारण होने से त्रासनकरूप १३, (अणजओ) अवैध होने के कारण--अनीति रूप होने के कारण अन्यायरूप १४, ( उब्वेयणओ) हृदयमें उद्वेग का जनक होने से उद्वेगकर्तृरूप १५, (निरवयक्वो ) परप्राणी के प्राणों की रक्षा करने की वाञ्छा से रहित होने के कारण निरपेक्षरूप १६, (णिद्धम्मो:) श्रुतचारित्र रूप धर्म से वर्जित होने के कारण निर्धर्मरूप १७, (णिप्पिवासो) प्राणियों के प्राणों के प्रति ममताभाव से रहित होने के कारण निष्पिपासारूप १८, (णिकलुणो) दयाभाव से रहित होने के कारण निष्करुणारूप १९, (निरयवासनिधणगमणो) तथा नरकगमन ही जिसका अन्तिम फल है ऐसा होने के कारण निरयवास निधनगमनरूप २०, ( मोहमहन्भयपयट्टओ ) यह onनन नेमभ३५ पाथी मतिलय३५, (१२) " बीहणओ" अयन पन्न ४२ना२ हवाथी लया२४३५, (१3) " तासणओ" अयान सामना ४४२११३५ डापाथी बासन४३५, (१४) "अणजओ" अवैध हवाथी-मनीति३५ जापाने ४।२२ सन्याय३५, (१५) “उठवेयणओ" हयमा उद्वेग पहा ४२ना हवाथा उद्वेग४।२४, (१६) " निरवयक्खो" ५२ प्राणानां प्राणीनी २क्षा ४२वानी छाथी २हित पाने २२ निरपेक्ष३५, (१७) “णिद्धम्मो" श्रुत-यात्रि३५ धमथी २ति डावाने १२ निधभ३५, (१८) “णिधिवासो" प्राणीमानां प्राणे। त२५ ममता माथी २डित पाने ४२ निपास३५, (१८) “णिकलुणो" ध्यामाथी २हित पाथी नि८४२९३५, (२०) “निरयवासनिधणगमणो" तथा न२४ ગમનજ જેનું અંતિમ ફળ છે, એ હેવાને કારણે નિવાસ નિધનગમનરૂપ, For Private And Personal Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra २६ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे 'मोहमम्भयपट्टओ' मोहमहाभयप्रवर्तकः, मोह: अज्ञानम् स एव महाभयहेतुत्वात् महाभयं तस्य प्रवर्तको यः स मोहमहाभयप्रवर्तकः । ' मरणमणस्सो' मरणवैमनस्यः - मरणेन = मृत्युरूपकारणेन प्राणिनां वैमनस्यं = दैन्यं यस्मात् स मरणवैमनस्यः दीनमनः कारित्वात् । 'पढमं अहम्मं ' = प्रथममधर्मम् अधर्मद्वारम् ' अव्ययस्स ' अत्रतस्थ = त्रतरहितस्य ॥ मृ० ४ ॥ प्राणवध मोह-अज्ञान रूप महाभय का प्रवर्तक है २१, और ( मरणवेम सो) इस से प्राणियों में मृत्युरूप कारण को लेकर के दीनता आती अतः यह मरण वैमनस्यरूप है २२, ऐसा ( भणिओ ) भगवान ने कहा है । भावार्थ - इस सूत्र द्वारा प्राणिहिंसारूप आसव कैसा है यह बात सूत्रकार ने स्पष्ट की है, वे कहते हैं कि यह प्राणिहिंसारूप आस्रव पापप्रकृतियों के बंध का कारण है। कारण हिंसा करनेवाला जीव प्रमाद के योग से प्राणों का व्यपरोपण कर्त्ता होने से पापप्रकृतियों का ही बंधक होता है, अतः यह प्राणिहिंसा पापरूप है । पर की हिंसा करते समय आत्मा में क्रोध परिणति तीव्ररूप से रहती है, क्यों कि हिंसक जीव हिंस्य जीव जैसी २ अपनी रक्षा आदि के कारणकलाप जुटाता है उन्हें क्रोध के आवेश में तन्मय होकर नष्ट करता है - इसलिये यह प्राणहिंसा चंडरूप प्रकट किया गया है। इसी तरह रौद्र आदि रूपता भी इस में अपने २ उन २ भिझ २ कारणों को लेकर घटित कर लेना चाहिये । इस प्रकार से ये प्रथम आस्रवरूप अधर्म द्वार है। इसमें प्राणिहिंसा का क्या स्वरूप है यह स्पष्ट किया गया है || ०४ || " (२१) “मोहमहब्भयपयट्टओ" ते आणुवध, भोई - अज्ञानश्य महालया प्रवर्त छे, भने (२२) “मरणवेमणस्सो ” तेनाथी प्रायुगमां मृत्यु३प अरणने सीधे हीनता आवे छे, तेथी ते भरणवैमनस्य३५ छे, येवु “ मणिओ " लगवाने लांजेस छे. ભાવાર્થ સૂત્રદ્વારા પ્રાણીવધરૂપ આસ્રવ કેવા છે તે વાતનું સૂત્રકારે સ્પષ્ટીકરણ કર્યુ” છે. તેઓ કહે છે કે તે પ્રાણીવધરૂપ આસ્રવ પાપ પ્રકૃતિયાના અંધનું કારણ છે. કારણ કે હિંસા કરનાર જીવ પ્રમાદના ચેગથી પ્રાણાના નાશ કર્યાં હાવાથી પાપપ્રકૃતિયાના અંધક હોય છે, તેથી તે પ્રાણવધ પાપરૂપ છે. પરની હિંસા કરતી વખતે આત્મામાં ક્રોધપરિણતિ તીવ્રરૂપે રહે છે, કારણ કે હિંસ્યજીવ જેમ જેમ પેાતાના રક્ષણ માટે પ્રયત્ન કરે છે તેમ તેમ હિંસકવ ક્રોધના આવેશમાં તલ્લીન થઇને તેને નાશ કરે છે, તે કારણે પ્રાણવધને ચડરૂપ કહેલ છે. એ જ રીતે રૌદ્રરૂપતા આદિ તેનાં લક્ષણા પણ ભિન્ન ભિન્ન કારણાને લઈને ઘટાવી શકાય છે. આ રીતે તે પ્રથમ આસ્રવરૂપ અધદ્વાર छे. तेमां आणीवधनु ठेवु स्व३५ छे ते समभववामां आव्यु छे ॥ सू. ४॥ For Private And Personal Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ०१ सू० ५ मृषावादरूप द्वीतियं अधर्मद्वारनिरूपणम् २७ पूर्व प्राणिवधस्य स्वरूपामुक्तम् , इदानीं यन्नामेति प्रतिज्ञातानि तस्य नामान्याह-'तस्से 'त्यादि। ____ मूलम्-तस्स य इमाणि नामाणि गोणाणि हुंति तं जहापाणवहर, उम्मूलणा सरीरओर, अवीसंभो३, हिंसविहिंसा, तहा अकिच्चं च५, घायणाय६,मारणाय७, वहणा८, उद्दवणा९. निवायणा य१०,आरंभसमारंभो११, आउयकम्मस्सुवदवो भेयाणिहवणगालणा य संवदृगसंखेवो१२, मच्चू१३, असंजमो१४, कड. गमदणं१५, वोरमण१६, परभव संकामकारओ१७, दुग्गतिप्पवाओ १८, पावकोवो य१९, पावलोभोय२०,छविछेओ२१, जीवियंतकरणो २२, भयंकरो२३, अणकरो२५, वजो२५, परितावण अण्हओ२६, विणासो२७, निजवणो२८, लंपणा२९, गुणाणं विराहण३० त्ति वि य तस्स एवमादीणि णामधेजाणि हुंति तीसं पाणवहस्स कल्लुसस्स कडुयफलदेसगाई ॥ सू० ५॥ टीका-'तस्स य' तस्य च माणवधस्य ' इमाणि' इमानि अनुपदं वक्ष्यमाणानि नामाणि' नामानि 'गोणाणि' गौणानि-गुगनिष्पन्नानि 'हुति' भवन्ति 'तीसं' त्रिंशत् , 'तं जहा' तद्यथा-'पाणवह' प्राणवधः जीवघातः१, 'उम्मूलणा सरीराओ' उन्मूलना शरीरता=वृक्षोत्पाटनमिव उन्मूलना जीवस्य प्राणिहिंसाका इस प्रकार स्वरूप कहकर अब सूत्रकार इसके कितने नाम हैं यह प्रकट करते हैं-तस्स य इमाणि' इत्यादि। टीकार्थ-(तस्स गोणाणि इभागि नामाणि तीसं हुंती) उस प्राणिहिंसाके ये गुणनिष्पन्न तीस नाम हैं (तं जहा) वे इस प्रकारसे हैं-(पागवह) जीवघात१, (उम्मूलणासरीराओ) शरीरसे वृक्षको उखाडनेको तरह जीवकी उन्मूलनार, પ્રાણવધનું આ પ્રકારનું સ્વરૂપ સમજાવીને હવે સૂત્રકાર તેનાં કેટલાં नाम छ ते प्रगट ४३ छ-" तस्स य इमाणि" त्याह. टी-"तस्स गोणाणि इमाणि नामाणि तीसं हंति" ते प्रावधाना शु प्रमाणे त्रीस नाम छ " तंजहा" ते मे २॥ प्रमाणे छ-(1) " पाणवह " पडत्या, (२)"उम्भूलगा सरीराआ"वृक्षने 63वानी रेभ शरीरमाथी लवनी भूदाना,(3) For Private And Personal Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे शरीरादिति२ । 'अवीसंभो' अविश्रम्भः-अविश्वासः-पाणवधकारकेषु जीवानां विश्वासो नैव भवति इति हिसाया अविश्रम्भकारणत्वादविश्रम्मव्यवहारः३, 'हिंसविहिंसा' हिंस्यविहिंसा हिंस्यानां जीवानां विहिंसा प्राणवियोगः अजीवानां हिंसाया अभावात् 'हिंस्याना' मितिकथितम् ४ । ननु अरूपिणः हिसेव न सम्भवति इति हिंसविहिंसेत्युक्तावपि किमायातमितिचेन्न स्वरूपत एव प्राणवियोग रूपहिंसायागृह्यमाणत्वात् । उक्तश्च " पञ्चेन्द्रियाणि त्रिविधं बलं च उच्छ्वासनिच्छ्वासमथान्यदायुः। माणादशैते भगवद्भिरक्तास्तेषां वियोजीकरणं तु हिंसा ॥ १॥" 'तहा अकिच्चं च' तथा अकृत्यं च-तथा तेनप्रकारेण अकृत्यम्-अकरणीयं भगवता निषिद्धत्वात् ५ । 'घायणा य' घातना च-हननं ६ । 'मारणा य' मारणा चपाणपीडनम् । 'वहणा' हननम् ८ । 'उद्दवणा' उपद्रवणम् ९, ‘निवायणा' निपातना-यस्य यावन्तः प्राणाः सन्ति तस्य तेभ्यः निपातनंदूरीकरणम् , यद्वा'तिवायणा' इति पाठे त्रिपातना-त्रयाणां मनोवाकायानां पातना=ध्वंसना १०, 'आरंभसमारंभो' आरभ्यन्ते विनाश्यन्ते इति आरम्भाः प्राणिनः तेषां समारम्भः -परितापः-"परितात्रकरो भवे समारंभो” इति वचनात् । आरम्भो वा कृष्यादि व्यापारः तेन समारम्भः प्राणिपीड़नम् ११ । 'आउयकम्मस्सुबद्दवो भेयनिठवण गालणा य संवट्टगसंखेवोत्ति' आयुःकर्मण उपद्रवः भेदः निष्ठापनं गालना च संपवर्तकः संक्षेपः, आयुः कर्मण उपद्रवः समुच्छेदः, भेदा विनाशः, निष्ठापन समापनम् , गालना=निस्सारणम् । संवर्तकः-सर्वबलसामर्थ्यादीनां संकोचनम् , संक्षेपः-अभावकरणम् १२ । 'मच्चू' मृत्युः=मरणम् १३, 'असंजमो' असंयमः-न (अवीसंभो) अविश्रंभ३, (हिंसविहिंसा) हिंस्यविहिंसा४, तथा (अकिचं) अकृत्य५, (घायणा) घातना६, (मारणा) मारण७, (वाहगा) हनन८, (उद्दवणा) उपद्रवणा, (निवायणा) निपातना१०, (आरंभसमारंभो) आरंभसमारंभ ११, (आउयकम्मस्सुबद्दवो भेयणिवणगालणा य संवदृग संखेवो) आयुकर्म का उपद्रव, भेद, निष्ठापन, गालना, संप्रवर्तक, संक्षेप१२, (मच्चू ) मृत्यु १३, (असंजमो) असंजम१४, ( कडगमद्दणं) " अवीसंभो" अविश्रम, (४) " हिंसविहिंसा" डिस्यविडिसा, (५) “ अकिच " मकृत्य, (६) “घायणा" धातना, (७) " मारणा" भा२९, (८) “ वाहणा" उनन, (6) "उद्दवणा" पद्र१!, (10) निवायणा" निपातना, (११) "आरंभसमारंभो” मा मसभास, (१२) " आउयकम्मरसुवद्दवो भेयणिवणगालणा य संवदृगसंखेवो” आयुमने उपद्रव, लेह, नियन, मासना, सप्रपत्त, संक्षेप, (१३) “ मच्चू" मृत्यु, (१४) " असंजमो” असम, (१५) "कडगमणं" ४४४ For Private And Personal Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदशिनी टीका अ० १ सू०५ मृषावादरूप द्वितीयं अधर्मद्वारनिरूपणम् २९ संयमोऽसंयमः सावद्यानुष्ठानम् १४ । ' कडगमद्दणं' कटकमद्दनं - कटकेन सैन्येन किलिजेन वा आक्रम्य मर्द्दनं, प्राणवध कारणत्वादौपचारिकः प्राणबधे कटकमर्दनं व्यवहारः १५ । 'वोरमणं' व्युपरमणं जीवस्य प्राणतो वियोजीकरणम् १६ । 'परभवसंकामकारओ' परभवसंक्रमकारकः = नरकनिगोदादि चतुर्गतिसंसार पुनः पुनः परिभ्रमण हेतुत्वात् १७ । 'दुग्गइप्पत्राओ' दुर्गतिमपातः - दुर्गतौ नरकादि दुष्टगतौ प्रपातयतीति दुर्गतिप्रपातः नरकनिगोदादि कुगति दायकः १८ । 'पावकोवो य' पापकोपश्च = पापं कोपयति = प्रवर्धयति इति पापकोपः सकलपापोत्पादकत्वात्, या पापस्य कोपकार्यत्वात्पापकोपः क्रोधस्वरूप इत्यर्थः १९, 'पावलोभो य' पापलोभश्व - पापं लुभ्यति धातुनामनेकार्थत्वात् संश्लिष्यति यस्मात् स पापलोभः = पापागमनद्वारलक्षणः २० | 'छविच्छेओ' छविच्छेदः - छविः = शरीरं तस्य छेदः = कर्तनमिति छविच्छेदः शरीरकर्तनम् । यद्वा शरीरावयवच्छेदनम् २१ । " 'जीवितकरणों' जीवितान्तकरणः = प्राणोच्छेदकरः २२ । 'भयंकरो = भयदायकः २३ । 'अणकरो' ऋणकरः - ऋण अनेकेष्वपि भवेषु नानाविधदुःखभोगेरपि दुरषनेयस्वरूपं करोतीति ऋणकरः २४ | 'वज्जो' वर्ज्यः = त्याज्यः । अथवा वज्रमित्र गुरुत्वात्, तत्कारि प्राणिनामधः पातकत्वाद् वा वज्रम् २५ । 'परितावण Forओ' परितापनाश्रवः = परितापनारूप आस्रवः । भव भव सन्तापकत्वात् २६, 'विणासो ' विनाशः - प्राणविध्वंसनरूपः २७ । 'निज्जवणो' निर्यापना=निर्यापयति= निर्गमयति प्राणिनः - प्राणानिति निर्यापना=पाणनिस्सारणम् २८ । 'लंपणा' लोपना - प्राणिप्राणविगमनम् २९ । 'गुणाणं विराहणा ' गुणानां विराधना = श्रुतकटकमदन १५, (वोरमणं) व्युपरमण १६, (परभवसं कामकारओ) पराभवसंक्रमकारक १७, (दुग्गपवाओ) दुर्गतिप्रपात १८, (पावकोवो) पापकोप १९, (पावलो भो) पापलोभ २०, (छविच्छेओ) शरीर का नाश २१, (जीबियंतकरणो ) जीवितान्तकरण २२, (भयंकरो) भयंकर २३, (अणकरो ऋणकर २४, (बज्जो) वर्ज्य २५, (परितावण अण्हओ) परितापनाश्रव२६, (विणासो) विनाश२७, (निज्जवणो ) निर्यापना२८, ( लंपणा) लोपना २९, ( गुणाणं विराहणा ) भर्हन, (१६) "वोरमणं" व्युपरमाणु, (१७) “ परभवसंकामकारओ " परालव सभा२४, (१८) "दुग्गइप्पवाओ " दुर्गति प्रयात, (१८) " पावकोवो” पापीय, (२०) “ पात्रलोभो” पापसोल, (२१) “छविच्छेओ ” छवि२४४, (२२) " जीवि - यंत करणा” वितान्तश्शु, (२३) "भयंकरो ” (लय ४२, (२४) “अणकरो” ऋणु४२, (२५) " वज्जो" वर्ज्य, (२६) " परितावण अण्हओ " परितापनाश्रव, (२७) “विणासे।" विनाश, (२८) "निज्जवणे।” निर्यापना, (२४) "लुपणा" सोचना, For Private And Personal Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकणसूत्रं चारित्रगुणानां भञ्जना ३० । 'ति वि य' इत्यपि च=' इति ' शब्दः समाप्तिसूचका अपि चेति समुच्चयार्थः । 'तस्स' तस्य-प्राणिवधस्य 'एवमाईणि ' एवमादीनिउक्तरूपाणि 'तीसं' त्रिंशत् 'नामधेज्जाणि' नामधेयानि 'पाणवहस्स' प्राणवधस्य, 'कलुसस्स' कलुषस्य-पापरूपस्य 'कडुयफल देसगाई कटुकफलदेशकानि-अशोभनपरिणामबोधकानि 'हुंति' भवन्ति । एतावता ‘जं नामा' यन्नामेति, द्वितीय प्राणवधनामद्वारमुक्तम् ॥सू०५॥ गुणोंकी विराधना३०, । (एवमादीणि) इत्यादिक ये (तीसं) तीस. (नामधेज्जाई) नाम प्राणिहिंसाके (हुंति) हैं। यह प्राणिहिंसा (कलुसस्स) पापरूप है। उसके ये तीस नाम (कड्डयफलदेसगाई) अशुभ परिणाम के ही बोधक हैं। इस तरह यह 'जं नामा' इस नामका द्वितीय प्राणिहिंसा द्वार कहा है। भावार्थ-सूत्रकार ने इस सूत्रद्वारा प्राणिहिंसाके गुणानुसार कितने नाम हैं अथवा हो सकते हैं यह कहा है। इस प्राणिहिंसाका प्रथम नाम प्राणिहिंसा है, प्राणिहिंसा का अर्थ पांच इन्द्रिय, तीनबल, ओयु और श्वासोच्छ्वास इन संभवित दश प्राणों का वियोग करना। एकेन्द्रिय जीवके४ चार प्राण, दो इन्द्रिय जीवके ६छ प्राण, तीन इन्द्रियनाले जीवके७ सात प्राण, चौ इन्द्रिय जीवकेट आठ प्राण, असंज्ञीपंचेन्द्रिय जीवके९नव प्राण और संज्ञीपंचेन्द्रिय जीवके १०दस प्राण होते हैं। इस तरह भिन्न २ जीवों में संभक्ति इन प्राणोका प्रमादके योगसे वियोग करना इसका नाम प्राणिहिंसा है,यह प्रथम भेद हुआ। प्राणिहिंसाका यह पर्यायवाची शब्दहै। भने (३०) “गुणाणं विराहणा” गुणानी विराधना, “ एवमादीणि" त्यादि.. "तीस" त्रीस "नामधेजाई” नाम प्राशुधना “हुंति” छ. ते प्रावध “कलु. सस्स" ५५३५ छे. तेना २॥ त्रीस नाम "कडुयफलदेसगाई" मशुभ परिणाभतार मा छ. २प्रा२नु “जनामा " से नामन द्वितीय प्रावध દ્વાર ભાંખેલ છે. ભાવાર્થ-સૂત્રકારે આ સૂત્ર દ્વારા પ્રાણવધના ગુણાનુસાર કેટલાં નામ છે અથવા હોઈ શકે છે તે બતાવ્યું છે. તે પ્રાણવધનું પહેલું નામ પ્રાણવધ છે. પ્રાણવધનો અર્થ આ પ્રમાણે છે—પાંચ ઈન્દ્રિય, ત્રણ બળ, આયુ અને શ્વાસોથયાસ એ સંભવિત દશ પ્રાણને વિયોગ કરે તેને પ્રાણવધ કહે છે. એકેન્દ્રિય જીવને ચાર પ્રાણ, દ્વિઈન્દ્રિય જીવને છ પ્રાણુ, ત્રિઇન્દ્રિય જીવને સાત પ્રાણ. ચતુરિન્દ્રિય જીવને આઠ પ્રાણુ, અસંજ્ઞી પંચેન્દ્રિય જીવને નવ પ્રાણ અને સંજ્ઞી પંચેન્દ્રિય જીવને દસ પ્રાણ હોય છે. આ રીતે જુદા જુદા માં સંભવિત એ પ્રાણનો પ્રમાદના વેગથી વિયોગ કરે તેને પ્રાણવધ કહે છે. આ પહેલે ભેદ થશે. પ્રાણવધને તે પર્યાયવાચી શબ્દ છે. પ્રથમ પ્રાણવધ તે For Private And Personal Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० १ सू० ५ मृषावादरूप द्वितीय अधर्मद्वारनिरूपणम् . ३१ प्रथम प्राणिहिंसा यह सामान्य अर्थका बोधक होनेसे सामान्य शब्द है और इसका पर्यायवाचीरूप प्राणिहिंसा विशेष अर्थका बोधकहोने से विशेष शब्द है । इस तरह से गुण निष्पन्नता इन सब नामों में जानना चाहिये। इसका खुलासा इस प्रकार से है-जमीन से जैसा वृक्ष उखाड़ देते हैं उसी तरहसे शरीर से जीवका निकाल देना यह जीवकी शरीरसे उन्मूलना (उखाडना है। इस उन्मूलनामें जीवकी पर्यायका विनाश होता है, और जीव को कष्ट होता है अतः यह प्राणिहिंसा है। यह दूसरा भेदर। जो जीव हिंसक, निर्दयी, हत्यारे होते हैं उनमें जीवों का विश्वास नहीं होता है इसलिये हिंसाको अविश्वास का कारण होने से उसमें अविश्रंभ का व्यवहार करदिया गया है। यह तीसरा भेद ३। हिंस्य विहिंसा-अजीवों की हिंसा नहीं होती है-हिंसा तो जीवोंकी होती है इसलिये यहाँ पर हिंस्य पद से जिन जीवों की हिंसा होती है वे ग्रहण किये गये हैं। इन हिंस्य जीवों के प्राणोंका वियोग इस प्राणिहिंसा में होता है इसलिये इसे हिंस्यविहिंसा कहा गया है। यह चौथा भेद ४। प्रश्न-जीव तो अरूपी है-जो अरूपी होता है उसको हिंसा होती नहीं है फिर हिंस्यविहिसाका व्यपदेश माणि हिंसामें क्यों किया? સામાન્ય અર્થને બેધક હોવાથી સામાન્ય શબ્દ છે અને તેને પર્યાયવાચી પ્રાણવધ શબ્દ વિશેષ અર્થને બાધક હોવાથી વિશેષ શબ્દ છે. આ રીતે એ બધાં નામમાં ગુણયુકતતા સમજી લેવી. તેનું સ્પષ્ટીકરણ આ પ્રમાણે છે– જમીનમાંથી જેમ વૃક્ષને ઉખાડી નાખવામાં આવે છે એ જ પ્રમાણે શરીરમાંથી જીવને કાઢી નાખે તે જીવની શરીરથી ઉમૂલન કરી કહેવાય છે. તે ઉન્મલનામાં જીવની પર્યાયને વિનાશ થાય છે, અને જીવને કષ્ટ થાય છે, તેથી તે પ્રાણવધ ગણાય છે. આ બીજો ભેદ થયે. જે જીવ હિંસક, નિર્દય, હત્યારા હોય છે, તેમનામાં જીવને વિશ્વાસ હોતે નથી, તે કારણે હિંસાને અવિશ્વાસનું કારણ ગણીને તેમાં અવિશંભને વ્યવહાર કર્યો છે. આ ત્રીજે ભેદ થયે. હિંસ્યવિહિંસા-અજીની હિંસા થતી નથી. હિંસા તે જીવોની જ થાય છે, તેથી અહીં હિંસ્ય એલે જે જીવની હિંસા થાય છે તે છે એ પ્રમાણેને અર્થ, ગ્રહણ કરવામાં આવ્યું છે. તે હિંસ્ય જીના પ્રાણને વિગ તે પ્રાણવધમાં થાય છે તેથી તેને હિંસ્યવિહિંસા કહેવામાં આવેલ છે. આ ચે ભેદ થશે. પ્રશ્ન-જીવ તે અરૂપી છે-જે અરૂપી હોય છે તેની હિંસા થતી નથી. તે પછી હિંસ્યવિહિંસાનું આજે પણ પ્રાણવધમાં કેમ કર્યું છે? For Private And Personal Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३२ प्रश्नव्याकरणसूत्रे उत्तर-शंका ठीक है यह तो हम भी कहते हैं कि जीवरूप अरूपी पदार्थ की हिंसा नहीं होती है, परन्तु यहां हिंसा से तात्पर्य संभवित प्राणों का वियोग करना लिया गया है । पांच इन्द्रिय-कर्ण, चक्षु, घाण, रसना, स्पर्शन, ३ बल-मनबल, वचनबल, कायबल, आयु एवं श्वासोच्छवास, इन प्राणों का जिस प्रवृत्ति से वियोग होता हो उसका नाम हिंसा है ४! तथा-अकृत्य-सिद्धान्तों में जीवों की हिंसा करने का प्रभु ने निषेध किया है, क्यों कि यह कृत्य, अकृत्य-अकरणीय है, इसलिये उस रूप से यह अकृत्य होने के कारक प्राणिहिंसाको अकृत्य कहा हैं यह पांचवां भेद है ५। घातना-अर्थात्-घात करना छठा भेद है ६ । प्राणों का वियोग करना केवल यही हिंसा नहीं है किन्तु जिन कृत्यो से प्राणियों के प्राणोंको पीडा पहुँचती हो ऐसे कृत्य भी हिंसा ही है, 'यह बात मारणा पद से सूत्रकार ने प्रदर्शित की है। सातमा भेद ७। हनन-वध करना, यह आठवां भेद ८ । उपद्रवण-विनाश करना, यह नौवां भेद ९। निपातना-जिस जीव के जितने प्राण होते हैं उन जीव के उतने प्राणों का विनाश इस प्राणवध द्वारा होता है इसलिये इसे निपातना शब्द से व्यवहृत किया गया है। अथवा इस पद की जगह ઉત્તર–શંકા બરાબર છે એ તે અમે પણ કહીએ છીએ કે જીવરૂપ અરૂપ પદાર્થની હિંસા થતી નથી. પણ અહીં સંભવિત પ્રાણોને વિગ ४२वी, मेलिसा तात्५य सेवाम माथु छ. पांय ४न्द्रिय-1न, नेत्र, नासिt, રસના અને સ્પર્શેન્દ્રિય, ત્રણ બળ-મનબળ, વચનબળ, કાયબળ આયુ અને શ્વાસોચ્છુવાસ એ પ્રાણને જે પ્રવૃત્તિઓથી વિયોગ થાય તેનું નામ હિંસા છે. तया अकृत्य-सिद्धांतोमा प्रभुमे यानी हिसा ४२वाना निषेध या छ, કારણ કે તે કૃત્ય ન કરવા યોગ્ય છે, તેથી તે રીતે તે અકૃત્ય હોવાથી પ્રાણવધને भइत्य ह्यो छे. 24! पायी लेह थये..। વાતના એટલે કે ઘાત કરે તે છો ભેદ છે. પ્રાણેને વિગ કરે તે જ કેવળ હિંસા નથી, પણ જે કૃત્યથી પ્રાણીઓના પ્રણેને પીડા પહોંચે છે એવા કૃત્યે પણ હિંસા જ છે તે વાત “મારણ પદથી સૂત્રકારે પ્રગટ કરી છે. આ સાતમે ભેદ થયે. હનન–વધ કરે તે આઠમો ભેદ છે. ઉપદ્રવણ વિનાશ કરે તે નવમ ભેદ છે. નિપાતના-જે જીવોને જેટલા પ્રાણ હોય છે તેટલાં પ્રાણને વિનાશ આ પ્રાણવધ દ્વારા થાય છે તેને નિપાતના शपथी गृहीत शयेर छ. मया ॥ ५४नी या " तिवायगा" ५६ For Private And Personal Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदशिनो टोका अ० १ सू० ५ मृषावादरूपद्वितीयाधर्मद्वारनिरूपणम् ३३ " तिवायणा" ऐसा पद जब माना जावेगा तब इसकी छाया निपातना होगी और इसका अर्थ तब मन वचन और काय, इनका ध्वंस करना ऐसा होगा, दशना भेद १० । आरंभ समारंभ-आरंभ शब्द से जिनका विनाश किया जावे ऐसे, अर्थात् विनाश किया जाता है जिनका वे हैं आरंभ अर्थात् प्राणी उनका जो समारंभ-परिताप वह है आरंभ समारंभ प्राणिहिंसामें जीवोंको परिताप होता है यह बात स्पष्ट और अनुभवगम्य है। अथवा-कृष्णादि कर्म का नाम आरंभ है, इस आरंभ से जीवोंके प्राणोंका पीड़न होताहै। यह ग्यारहवां भेद ११। इसी तरह जीवकी आयुका उपद्रव-समुच्छेद, भेद विनाश, निष्ठापन-समाप्तकरना, गालनानिकालना, संवर्तक-समस्तबल, सामर्थ्य आदि का संकोच करना, संक्षेप इनका अभाव करना, यह बारहवाँ भेद १२ । मृत्यु-मरण तेरहवां भेद है १३ । इन्द्रियसंयम और प्राणसंयम धारण करने से प्राणीयों की रक्षा होती रहती है। असंयमी जीव से यह रक्षा बनती नहीं है, अतः असंयम को प्राणिहिंसाका अंग कहा गया है । इसी अभिप्राय से यहां उसे उसका पर्यायवाची नाम कहा है। सावध अनुष्ठान का नाम ही तो असंयम है । यह चौदहवां भेद १४ । कटक मर्दन का अर्थ है-कटक भानी सेवामा तो तेनी छाया " त्रिपातना" थशे. मने यारे तना અર્થ મન, વચન અને કાયને વંસ કરે, એ પ્રમાણે થશે. આ દસમે ભેદ છે. આરંભસમારંભ–આરંભ શબ્દથી જેમને વિનાશ કરાય એવાં અથવા વિનાશ કરાય છે જેમને તેવા પ્રાણી એ અર્થ થાય છે. તેમને જે સમારંભ પરિતાપ તેને આરંભ સમારંભ કહે છે. પ્રાણવઘમાં જીવોને પરિતાપ થાય છે, તે વાત સ્પષ્ટ તથા અનુભવ ગમ્ય છે. અથવા ખેતી આદિ કર્મનું નામ પણ આરંભ છે. તે આરંભથી જીનાં પ્રાણોને પીડા પહેંચે છે. આ અગિયારમે ભેદ છે. એ જ પ્રામણે જીવના આયુને ઉપદ્રવ-સમુચછે, ભેદ-વિનાશ. નિષ્ઠાપન–અંત, ગાવના-નિકાલવું, સંવર્તક–સમસ્ત બળ સામર્થ્ય આદિને સંકોચ કરો, સંક્ષેપ તેમને અભાવ કરે, તે બારમે ભેદ છે. મૃત્ય-મરણ તેરમે ભેદ છે. ઇન્દ્રિયસંયમ અને પ્રાણસંયમ ધારણ કરવાથી પ્રાણીઓની રક્ષા થયા કરે છે. અસંયમી જીવથી તે રક્ષા થઈ શકતી નથી, તેથી અસંયમને પ્રાણવાનું અંગ કહેલ છે. તે કારણે જ તેને અહીં પર્યાયવાચી નામ ગણેલ છે. સાવદ્યઅનુષ્ઠાનનું નામ જ અસંયમ છે. આ ચૌદમે ભેદ છે. કટકમર્દન શબ્દને અર્થ આ પ્રમાણે છે-કટક-સૈન્ય દ્વારા હિંસાના प्र-५ For Private And Personal Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे सैन्य द्वारा दूसरों पर हिंसा के अभिप्राय से आक्रमण काना। यह सैन्यमर्दन प्राणिहिंसाका कारण होता है फिर भी इसे जो प्राणिहिंसा रूप कहा है वह उपचार से ही कहा गया जानना चाहिये, यह पन्द्रहवां भेद १५। जीव का प्राण से वियुक्त करना यह व्युपरमण है । यह सोलहवां भेद १६ । प्राणिहिंसाको जो परभव संक्रम कारक कहा है उसका भाव यह है कि यह प्राणिहिंसा नरकनिगोदादि चतुर्गतिरूप संसारमें परिभ्रमण का कारण बनता है। यह सत्रहवां भेद हुआ १७। इस प्राणिहिंसा के प्रभाव से जीव नरकादि दुर्गतियों में ही जाकर जन्म लेना है इसलिये यह दुर्गति प्रपातरूप कहा है, यह अठारवां भेद १८। सकल पापोंका यह कोपक-उत्पादक है, इसलिये इसे पापकोप कहा गया है । अथवा पाप, कोप का कार्य होता है इस अभिप्राय से यह प्राणिहिमा क्रोध स्वरूप है ऐसा भी कहा जा सकता है। यह उन्नीसवां भेद १९ । इस प्राणिहिंसा को करने वाला व्यक्ति केवल पाप का ही आलिंगन करता है-पापकर्म को बांधता है, इसलिये प्राणवध पापलोभरूप है । यह वीसवां भेद २० । छविच्छेद-छवि का अर्थ शरीर है, इसका छेदना छविच्छेद है। प्राणवध में शरीर अथवा शरीर के अवयवों का छेदन होता ही है, इसलिये इसे ઉદેશથી બીજા ઉપર આક્રમણ કરવું. આ સિન્યમર્દન પ્રાણિવધના કારણરૂપ હોય છે. છતાં પણ તેને જે પ્રાણવધરૂપ કહેલ છે તે ઔપચારિક રીતે જ કહેલ છે એમ સમજી લેવું. આ પંરમે ભેદ થયે. જીવને પ્રાથી વિયુક્ત–રહિત કરે તેને વ્યુપરમણ કહે છે, આ સોળ ભેદ છે. પ્રાણવધને જે પરભવ સંકમકારક કહેલ છે તેનું તાત્પર્ય એ છે કે તે પ્રાણવધ નરકનિદાદિ ચાર ગતિરૂપ સંસારમાં પરિભ્રમણ કરાવનાર છે. આ સત્તરમે ભેદ છે. આ પ્રાણવધના પ્રભાવથી જીવ નરકાદિ દુર્ગતિમાં જ જઇને જન્મ લે છે, તેથી તેને દુર્ગતિ પ્રપાતરૂપ કહેલ છે. આ અઢારમો ભેદ છે. સકળ પાપને તે કેપક-ઉત્પાદક છે, તે કારણે તેને પાપકપરૂપે દર્શાવ્યા છે. અથવા પાપ, કેપનું કાર્ય હોય છે. તે કારણે આ પ્રાણવધ કેપસ્વરૂપ છે, એમ પણ કહી શકાય છે. આ ઓગણીસમે ભેદ છે. એ પ્રાણવધ કરનાર વ્યક્તિ કેવળ પાપનું જ આલિંગન કરે છે–પાપકર્મો બાંધે છે, તે કારણે તે પ્રાણવધ પાપલેભરૂપ છે. આ વીસમે ભેદ છે. છવિચ્છેદ--છવિ એટલે શરીર, તેનું છેદન તે છવિચ્છેદ કહેવાય છે. પ્રાણવધમાં શરીર અથવા શરીરના અવયવનું છેદન થાય છે તેથી તેને છવિચ્છેદરૂપ કહેલ છે. આ એકવીસમે ભેદ છે. પ્રાણવધ જીવનને For Private And Personal Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदशिनी टीका अ० १ सू० ५ मृषावादरूपद्वितीयाधर्मद्वारनिरूपणम् ३५ छविच्छेदरूप कहा है । यह इक्कीसवां भेद २१ । प्राणवध जीवन का अंतकर-विनाशक होने से जीवितान्तकरणरूप कहा गया है। यह बावीसवां भेद २२। प्राणवध के अवसर उपस्थित होने पर जीवों को भय होता है अतः इस भय का कारक होने से प्राणवध भयंकर है, ऐसा कहा गया है । यह तेवीसवां भेद २३ । इस प्राणवध को करने वाला प्राणी अनेक भवों में भी नाना प्रकार के दुःखों को भोगता रहता है फिर भी इस से उद्भूत पापरूप ऋण का वह शोधन नहीं कर पाता है, इसलिये इसे ऋणकररूप कहा गया है । यह चौवीसवां भेद २४ । विवेकी जो व्यक्ति होते हैं वे इस प्राणवध से सदा दूर रहते हैं इसलिये इसे वर्णछोड़ने योग्य-कहा है। अथवा वज" की संस्कृत छाया 'वज्र' भी हो सकती है। वज्र जिस प्रकार गुरु (भारी होता है उसी प्रकार यह प्राणवध भी अपन को-आचरित करने वाले प्राणी को अधःपात नरक निगोद आदि में पतन का कारण होने से वज्र के जैसा भारी होता है । यह पच्चीसवाँ भेद २५ । भव भव में प्राणी इसके करने से सन्तापरूप परितापना को पाता है इसलिये इसे परितापनारूप आस्रव कहा गया है। यह छब्बीसवां भेद २६ । विनाश प्राण का विध्वंसन करना । यह सत्ताइसवां भेद २७ । निर्यापन। प्राणियों के प्राणों को निकालना । यह अट्ठाइ. सवां भेद २८ । लोपना-प्राणियों के प्राणों का लोप करना-दर करना। અંતકર-વિનાશક હોવાથી જીવિતાન્તકરણરૂપ બતાવ્યું છે. આ બાવીસમે ભેદ છે. પ્રાણવધને પ્રસંગે ઉપસ્થિત થતાં જેને ભય થાય છે, તેથી તે ભયકારક હેવાથી તેને ભયંકર કહેલ છે. આ તેવીસમે ભેદ છે. એ પ્રાણવધ કરનાર પ્રાણુ અનેક ભામાં અનેક પ્રકારનાં દુઃખ ભેગવ્યા કરે છે, છતાં પણ તેને કારણે ઉત્પાદિત પાપરૂપ ત્રણને તે ફેડી શકતું નથી. તે કારણે તેને વણકર નામ આપ્યું છે. આ વીસમો ભેદ છે. વિવેકી વ્યક્તિ એ પ્રાણવધથી સદા ६२ २३ छ, तेथी तेने पक्ष्य-छ।341 साय: उस छे. A24" वज"नी सरत छाया “वन" ५५५ छ. १०२ भाटीय छ त પ્રકારે પ્રાણવધ પણ, તે કરનાર પ્રાણીને અધઃપાત-નરક નિદ આદિમાં પતન થવાનું કારણ હવાથી વજન જેવો ભારે હોય છે. આ પચીશમે ભેદ થયે. જે કરવાથી વ્યક્તિને દરેક ભવમાં સંતાપરૂપ પરિતાપના–પીડા સહન કરવી પડે. છે, તેથી તેને પરિતાપનારૂપ આસવ કહેલ છે આ છવીસમે ભેદ છે. વિનાશપ્રાણને વિધ્વંસ કરે, તે સત્યાવીસમે ભેદ છે. નિર્યાપન-પ્રાણીઓના પ્રાણને નિકાલવા, તે અચાવીસમે ભેદ છે. લેપના-પ્રાણીઓના પ્રાણને લેવા-દૂર For Private And Personal Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राव्याकरणसूत्र अथेदानीं 'जयकओ' यथाकृतः इति तृतीयं द्वारमाचष्टे 'तं च पुणे'त्यादि। ___ मूलम्-तं च पुण करेंति केइ पावा असंजया अविरया अणिहुयपरिणामदुप्पांगा पाणवहं भयकर बहुविहं बहुप्पगारं परदुक्खुप्पायणपसत्ता इमेहिं तसथावरेहिं जीवेहि पडिणिविट्ठा किं ते? पाठीण-तिमि-तिमिगिल-अणेगझस-विविहजाइमंडुक दुविह-कच्छभ-णक-मगरदुविह-गाह-दिलि-वेढय-मदुय-सीमागारपुलुय-सुंसुमार बहुप्पगारा जलयरविहाणा कए य एवमाई।सू०६॥ टीका--तं च माणिवधं 'पुण' पुनः 'के' केऽपि केचिदेवेत्याशयः 'पावा' पापा पापप्रकृतयः 'असंजया' असंयताः असमाहितेन्द्रियाः 'अविरया' अविरता =पापकर्मनिवृत्तिरहिताः, 'अणिहुयपरिणामदुप्पोगा' अनिभृतपरिणामदुष्पयोगा अनिभृतः उपशमार्जितः परिणामः अध्यवसायो येषां ते अनिभृतपरिणामाः, दुष्टाः प्रयोगा-इन्द्रियनोइन्द्रियव्यापाराः येषां ते दुष्प्रयोगाः, अनिभृतपरिणामाश्च ते दुष्प्रयोगा इति अनिभृत् परिणामदुष्प्रयोगाः, 'परदुक्खुप्पायणपसत्ता' परयह उन्तीसवां भेद है २९ और गुणविराधना-श्रतचारित्रगुणों का भङ्ग करना यह तीसवाँ भेद है ३० इस तरह ये प्राणवध के ३० पर्यायवाची शब्द गुणनिष्पन्न प्रकट किये गये हैं ।सू०-५।। अब सूत्रकार "जह य कओ" इस तृतीय द्वार के विषय में कहते हैं-'तं च पुण' इत्यादि। ___टोकार्थ-(केइ पावा) कितनेक पापप्रकृतिवाले (असंजया) असमाहित इन्द्रियवाले, ( अविरया ) अविरतिसंपन्न, ( अणिहुयपरिणामदुपओगा) उपशम रहित परिणामों वाले, और इन्द्रिय एवं मन के दुष्टव्यापार वाले (परदुक्खुप्पायणपसत्ता ) पर प्राणी के लिये दुःखोत्पादन में परायण કરવા, તે ઓગણત્રીસમો ભેદ છે. અને ગુણવિરાધના-કૃતચારિત્ર ગુણોને ભંગ કરે, તે ત્રીસમે ભેદ છે. આ રીતે પ્રાણવધના ૩૦ પર્યાયવાચી શબ્દ તેમના गुरु सहित प्रगट ४२वामा माव्या छ. ॥ सू. ५॥ के सूत्रा२ “जह य का" २ तृतीय हार्नु पर्षन ४२ --" तं च पुण" त्याहि. 10--"केइ पावा" 21 पा५प्रतिव"असंजया” असमाडितन्द्रियपा, " अविरया " अविरति युत, “अणिहुयपरिणामदुप्पओगा" ५शम २डित परिणामवाणा, मन छन्द्रिय अने भनना दुष्ट व्यापारवा "परदुक्खुप्पायणपसत्ता" ५२ प्राणाने माटे दुःमोत्पादनमा ५२शया मेवा व "तंच पुण" For Private And Personal Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनीटीका अ० १ सू० ६ यथाकृतनामकतृतीयाधर्मद्वारनिरूपणम् ३७ दुःखोत्पादनप्र पक्ताः परपीडाकरणपरायणाः 'इमेहिं ' एतेषु-प्रत्यक्षं लक्ष्यमाणेषु 'तसथावरेहिं' त्रसस्थावरेषु 'जीवेडिं' जीवेषु पडिणिविट्ठा' प्रतिनिविष्टाः तेषां रक्षणाद् द्वेषयुक्ताः 'बहुविह' बहुविधं 'बहुप्पगारं' बहुपकारम् अनेकभेदप्रभेदसहितं, 'भयंकर' भयजनकं 'पाणवह' प्राणवधं जीवहिंसां करेंति' कुर्वन्ति । 'किं ते ' ते त्रसस्थावरेषु द्वेषवन्तः 'कि' किं कुर्वन्ति ? पाठीनादि जीवान् ‘हणंति' घ्नन्ति, इति वक्ष्यमाणेन सम्बन्धः । तानेव दर्शयति-'पाठीणेत्यादि । 'पाठीणतिमि-तिमिगिल-अणेग-असविविह जाइमंडुक्क-दुविहकच्छम-शक-मगर- दुविहगाह-दिलिवेढय-मंदुय-सीमागारपुलुय-सुसुमार बहुप्पगारा' पाठीन-तिमि तिमिगिला-ऽनेकझष-विविधजातिमंडूक-द्विविध-कच्छप-नक्र-मगर-द्विविधग्राह-दिलि वेष्टक-मन्दुक-सीमाकार-पुलक-सुंसुमार-प्रकाराः, तत्र-पाठीनाःतन्नामका मत्स्यविशेषाः, तिमयः मत्स्यविशेपाः, तिमिगिलन्ति इति तिमिगिलाच, महामत्स्याः । " अस्तिमत्स्यस्तिमि म शतयोजनविस्तरः। तिमिगिलगिलोऽप्यस्ति तगिलोऽप्यस्ति राघवः ॥१॥” इतिवचनात् । अनेकझपाः विविधाः क्षुद्रमत्स्याः, विविधजातयो मण्डूकाः = नानाजाऐसे जीव (तं च पुण ) इस ( भयकरं) भयप्रद, ( बहुविहं ) बहुविध और (बहुप्पगारं) अनेक भेद प्रभेद सहित (पाणवहं ) प्राणवध को (करेंति ) करते हैं । ( इमे हिं तसथावरेहिं जीवहिं ) इन प्रत्यक्षीभूत बस और स्थावर जीवों की रक्षा करने के विषय में (पडिणिविट्ठा) द्वेषयुक्त होते हुए प्राणवध करते हैं, (किं ते ) वे क्या २ करते हैं इस बात को अब सूत्रकार "पाठीण" इत्यादि पदों द्वारा प्रकट करते हैं( पाठीण-तिमि-तिमि-गिल-अणेगझस-विविहजाइमंडुक-दुविहकच्छभ-णक्क-मगर-दुविहगाह-दिलिवेढय मंदुय-सीमागार पुलय सुंसुमार मा "भयंकर” (मयप्रह, “बहुविहं " म विध मने "बहुप्पगारं” भने से प्रमेह सहित, "पाणवह " प्रा१५ ४२ छ, “इमे हिं तसथावरे हे जीवे हिं" से प्रत्यक्षीभूत असे अने स्था१२ वानी २२॥ ३२वानी म “पडिणिविद्वा" द्वेषयुत ने प्रावय ४२ , " किंते'' तयशु शु ४२ छे थे यातने वे सूत्र५२ “पाठीण" त्यादि ५ वा प्रगट ४२ छ- “पाठीण-तिमि-तिमिगिलअणेगझसविविहजाइ-मंडुक्क-दुविहकच्छभ-णक्क-मगर-दुविहगाह-दिलिवेढय-मंदुयसीमागार-पुलुय-सुसुमार-बहुप्पगारा” सेवा यो नीचे प्रभारी छ - पाहीन, તિમિ, તિમિંગલ, અનેકઝષ, અનેક જાતિના દેડકા, બન્ને પ્રકારનાં કાચબા, નક, For Private And Personal Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे तीयाः-दर्दुराः, द्विविधाः द्विभेदाः, कच्छपाः कूर्मविशेषाः-मांसकच्छपा१, अस्थिकच्छपाश्च२, नकाः मत्स्यविशेषाः, मकराजलजन्तुविशेषाः, द्विविधाः= द्विप्रकाराः ग्राहा:तुण्डा ग्रहाः तद्भिनाश्च, दिलिवेष्टकाः, मन्दुकाः, सीमाकाराः, पुलकाः, शिशुमाराः, सर्वे ग्राहविशेषा एI, एवं-विधाः बहुपकाराः अनेक भेदाः, जलचरभेदाः सन्ति, तान् घ्नन्तीति । तथा 'एबमाई' एवमादीन्-एवंप्रकारान्पाठीनादिसदृशान् अन्यान् ‘जलयरविवाणाकए य' जलचरविधानककृतांश्चजलचराणां विधानानि-जलचरविधानानि, तान्येव जलचरविधानकानि, तानि कृतानि यैस्ते तथाभूतान्-जलचरविशेषांश्च, 'उनन्ती ' त्यग्रेग संबन्धः । 'जलय. रविहाणाकए' इत्यत्र ककारलोपो दीर्घश्वार्षत्वादिति ||मू०६॥ बहुप्पगारा) ऐसे जीव पाठीन, तिमि, तिमिगिल, अनेकझष, अनेक जाति के मंडूक, दोनों प्रकार के कच्छप, नक्र, मकर, द्विविधग्राह, तथा दिलिवेष्टक, मन्दुक, सीमाकार, पुलक, शिशुमार, ये पाँचों ग्राह विशेष, ये सभी जलचर जीवों के प्रकार हैं इन्हें ये दुष्ट मनुष्य मारा करते हैं। तथा (एवमाई जलयरविहाणाकए य) पूर्वोक्त पाठीन आदि जीवों से भिन्न जो और जलचर जीव हैं उन्हें भी ये दुष्ट मनुष्य मारा करते हैं। भावार्थ-सूत्रकारने इस सूत्र द्वारा यह स्पष्ट किया है कि जो प्राणी स्वभाव से पापी होते हैं, अथवा जिनका जीवन संयमरूपी लगाम से रहित होता है, इन्द्रियों के गुलाम होते हैं-पार कर्म से जिन्हें घृणा नहीं होती है, जिनके परिणाम उपशम भाव से रहित होते हैं, मानसिक विचार धारा जिनकी सदा मलिन बनी रहती है तथा जो दूसरों को दुःखी देखकर अथवा दुःश्व देकर आनंद मग्न बनते हैं ऐसे जीवों को बस स्था. वर जीवों के ऊपर दया नहीं आती है । वे उनके साथ मनमानी करते भा२, विधाड, तथा हलिवेट४, मन्दु, सीमा४।२, १४, शिशुभा२, से પાંચે ગ્રાહ વિશેષ, એ બધા જળરાર ના પ્રકાર છે. તેમને એ દુષ્ટ મનુષ્ય માર્યા १२. तथा " एवम इजलचरविहाणाकए य" पूर्वोत पाहन माहिये। सिवायना બીજો પણ જે જળચર જીવે છે તેમની પણ તે દુષ્ટ મનુષ્ય હત્યા કર્યા કરે છે. ભાવાર્થ-સૂત્રકારે આ સૂત્ર દ્વારા એ સ્પષ્ટ કર્યું છે કે જે જીવ સ્વભાવથી પાપી હોય છે, અથવા જેમનું જીવન સંયમરૂપી લગામથી રહિત હોય છે. જે ઇન્દ્રિયના ગુલામ હોય છે. પાપકર્મ પ્રત્યે જેને ઘણા હોતી નથી, જેમની વૃત્તિઓ ઉપશમ ભાવથી રહિત હોય છે, જેમની માનસિક વિચારધારા સદા મલિન હોય છે, તથા જે બીજાને દુઃખી જોઈને અથવા દબ દઈને આનદિત થાય છે, એવા જીને ત્રસ, થાવર જી પર દયા આવતી નથી. તેઓ For Private And Personal Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनीटीका अ० १ सू० ६ यथाकृतनामकतृतीयाधर्मद्वारनिरूपणम् ३९ हुए थोड़ा सा भी संकोच नहीं करते हैं। उनका विचार यही बना रहता है कि मनुष्य के उपयोग के लिये ही ये सब जीव हैं, अतः मनुष्य जैसा चाहे वैसा उनका उपयोग करे । यह संसार बस और स्थावर प्राणियों से भरा हुआ है। उस स्थावर प्राणी अनेक प्रकार के हैं। इनकी जातियां भिन्न २ रूप से अनेक प्रकार की हैं । तिर्यच जाति के जीव कि जो पंचेन्द्रिय हैं जलचर नभचर और स्थलचर के भेद से ३ तीन प्रकार के हैं। इनमें जलचर जीव वे हैं जो जल में ही रहते हैं। इन्हीं के विषय में यह सूत्रकार ने अपना अभिमत प्रकट किया है । पाठीन इस नामका एक मत्स्यविशेष होता है। तिमि भी भत्स्यविशेष होता है-इसका विस्तार बड़ा होता है। इस तिमि को जो खा जाते हैं वे तिमिगिल हैं और ये भी मत्स्यजाति के ही प्रकार हैं । और भी जो छोटी २ मछलियां होती है वे सब " अनेक झष" इस शब्द द्वारा यहां गृहीत की गई हैं। कच्छप नाम कच्छुए का है। ये अस्थिकच्छप और मांसकच्छप के भेद से दो प्रकार के होते हैं। शुण्डाग्राह और अशुण्डाग्राह, इस प्रकार से ग्राह के भी.ये दो भेद होते हैं । इसी तरह दिलिवेष्टक, मन्दुक, सीमाकार पुलक और शिशुमार भी जलजन्तु विशेष हैं । इन सब की ये निर्दयी जनहिंसा તેમની સાથે મન ગમતું વર્તન કરતાં જરા પણ સકેરા રાખતા નથી. તેઓની માન્યતા એવી જ હોય છે કે મનુષ્યના ઉપયોગને માટે જ આ બધા જ છે, તેથી મનુષ્ય ઈછે તે રીતે તેમને ઉપયોગ કરી શકે છે. આ સંસાર ત્રસ અને સ્થાવર જીથી ભરેલો છે. ત્રણ સ્થાવર જી અનેક પ્રકારનાં હોય છે. તેમની જાતિઓ જુદી જુદી રીતે અનેક પ્રકારની છે. તિર્યંચ જાતિના જીવ કે જે પચેન્દ્રિય છે, તેમના ત્રણ પ્રકાર છે–જળચર, નભચર અને સ્થલચર, તેમાં જળમાં રહેતા જેને જળચર કહે છે. તેમને વિષે સૂત્રકારે અહીં પિતાને અભિપ્રાય પ્રગટ કર્યો છે, “પાઠીન” નામનું એક ખાસ પ્રકારનું મત્સ્ય હોય છે. તિમિ પણ એક પ્રકારના સભ્યનું નામ છે, તેનું કદ મેટું લેય છે. એ તિમિને જે ખાઈ જાય છે તેને તિર્મિંગલ કહે છે, અને તે પણ એક જાતને भत्त्य । छ. मी ५ नानी नानी भासीमे। हाय छेतेनु" अनेकझष" શબ્દ દ્વારા અહીં ગ્રહણ કરાયેલ છે. કચ્છપ એટલે કાચ, તેના અસ્થિકચ્છ અને માંસ કરછપ એવા બે ભેદ છે. શુંડાગ્રહ અને અમુંડાગ્રાહ, એ પ્રકારના ગ્રાહના પણ બે ભેદ હોય છે. એ જ રીતે દિલિષ્ટક, મટુક, સીમાકાર પલક અને શિશુમાર પણ ખાસ પ્રકારનાં જળચરે છે. એ બધાંની તે નિર્દય વ્યક્તિ For Private And Personal Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४० D प्रश्नव्याकरणसूत्रे अथ स्थलचरेषु चतुष्पदप्रकारानाह--'कुरंग०' इत्यादि। मूलम्-कुरंग रु सरभ चमर संबर उरन्भ-सलय-पसर-गोणरोहिय-य-गय-खर-करभ-खग्ग-वानर.गवय-विग-सियाल-कोलमज्जार-कोलसुणह-सिरिकंदलगावत्त-कोकतिय-गोकपग-मियमहिस वियग्घ-छगल-दीविय-साण-तरच्छ अच्छभल्ल-सदल-सीह-चिल्लल-चउप्पय-विहागाकए य एवमाई ॥सू०७ ॥ टीका-कुरंगा हरिणाः, रुरवो-मृगविशेषाः, सरभाः वन्यपशुविशेषाः विशालकायाः, अष्टापदाः 'परासरे 'ति ख्याताः ये महागजानपि पृष्ठे स्थापयन्ति, चमरा अन्यगावः येषां केशानां चामराणि भवन्ति, संवराः अनेकशाखशङ्गाः द्विखुरा आरण्यपशवः 'सांभर' इति प्रसिद्धाः ' उरभ' उरभ्राः मेपाः, 'समय' किया करते हैं, तथा इनके सिवाय और भी जो जलचर जीव होते हैंउन्हें भी मार कर थे आनंद मग्न बनते हैं। मू. ६ ॥ ____ अब सूत्रकार स्थलचर नियंञ्चों में जो चतुष्पदों के प्रकार हैं उन्हें इस सूत्र द्वारा प्रकट करते हैं-'कुरंगरुरु' इत्यादि। टीकार्थ-(कुरंग) कुरंग हिरणको कहते हैं। (हरु) रुरु नाम भी मृगका है, परन्तु यह सामान्य भृग से विशेष प्रकार का होता है। (सरभ) सरभ नाम अष्टापद का है । यह शरीर में विशाल होता है । परोसर भी इस का दूसरा नाम है । ये महागजों को भी अपनी पीठ पर बैठा लेता है। (चमर) चमरी गायों का नाम चमर है। इनके बालों के चामर बनते हैं। (संबर) संबर को हिन्दी भाषा में सांभर कहते हैं। इनके सींगो में | હિંસા કર્યા કરે છે, અને તે સિવાયનાં બીજાં જે જળચર જ હોય છે, તેમની પણ હત્યા કરવામાં તેમને મજા આવે છે. સૂત્ર હવે સૂત્રકાર સ્થળચર તિર્યંચોમાં જે જાનવરેના પ્રકારો છે તેમને આ सूत्र द्वारा प्रकट ४२ -- "कुरंगहरु" त्याहि. टी -"कुरंग" उ२।शुने २४ छ. “रुरु" २० ५। भृगनी मे पास ४२ છે. “રમ” સરભ અષ્ટાપદ નામના પ્રાણીને કહે છે. તે શરીરે વિશાળ હોય છે તેનું બીજું નામ પરાસર પણ છે. તે મોટા હાથીઓને પણ પિતાની પીઠ પર मेसाही शे छ. “ चमर" यम आयाने म२ . तेमना पामाथी याभ२ मने छ. " संघर" स१२ने साम२ ४ छ तेना शीगामाथी मी For Private And Personal Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनीटीका म०१ सू० ७ स्थलवरचतुष्पदजीवनिरूपणम् शशकाः प्रसिद्धाः। 'पसर' प्रशराः द्विखुरा वन्यपशुविशेषाः, 'गोणा' गावः 'रोहिय' रोहिताः चतुष्पदपशुविशेषाः, 'हयगयखर' हया गजाः खराश्च प्रसिद्धाः । करभाः-उष्ट्राः 'खग्ग' खड्गाः एकशुङ्गा आटव्याश्रतुष्पदविशेषाः 'गेंडा' इति लोके ख्याताः येषां गमनकाले उभयोरपि पार्श्वयोः पक्षतुल्यानि चआणि लम्बन्ते, 'वानर' वानरा: प्रसिद्धाः, गवयाःम्वत्तलकण्टा गो सदृशाः 'रोझ' इति प्रसिद्धाः। 'विग' घृकाः श्वापदजन्तुविशेषाः 'भेड़िया' इति प्रसिद्धाः, 'सियाल' शृगालाः प्रसिद्धाः, 'कोला ' शूकराः 'मजार' मार्जारा:-बिड़ाला 'कोलमुणह' कोलशुनका: आटव्यमहाशूकराः 'सिरिकंदलगावत्त ' श्रीकन्दलकाअनेक औरश्रृंग जैसी शाखाएं फूटती हैं । इनके सींगों की जो भस्म बनती है उसे विशाण भस्म कहते हैं । इनके दो खुर होते हैं। और ये जंगल में ही रहते हैं । (उन्भ)उरभ्र नाम मेंड़े का है। (ससय) शशक नाम खरगोश का है । (पसर) पशर एक जाति का जानवर होता है, इसके दो खुर हुआ करते हैं । यह जंगल में ही रहता है। (रोहिय) "रोहित" यह भी चार पैरोंवाला एक जानवर विशेष होता है। ( हय ) हय-नाम घोड़े का है, (गय) गय-गज नाम हाथी का है । (खर) खर नाम गधे का है। (करभ) करभ ऊँटका नाम है । (खग) खड्गीको हिन्दी भाषा में गेंदा कहते हैं । इसके एक ही सींग होता है, यह जंगल में ही रहता है, इस के पैर चार होते हैं, जब यह चलता है तो उस समय इसकी दोनों तरफ पंखों जैसा चमड़ा लटकने लगता है । (वानर) वानर नाम वंदर का है । (गवय) गवय रोझका नाम है, यह गायके जैसा होता है । और इसका कंठ गोल होता है । (विग) वृक यह हिंसक जंतु होता है और इसे हिन्दी भाषा में भेड़िया कहते हैं । (सियाल) "श्रृगाल" यह जंगली અનેક ઉપશાખાઓ ફૂટે છે. તેમનાં શીંગડાંઓની જે ભસ્મ બને છે તેને વિષાણુ ભસ્મ કહે છે. તેમને બે ખરી હોય છે, અને તેઓ જંગલમાં જ રહે છે. "उरभ" र नाम घटानु छ. "मसय" शश: नाम सससानु छ. "पसर" પ્રશર એક જાતનું જાનવર છે, તેને બે ખરી હોય છે. અને તે જંગલમાં રહે છે "रोहिय" 'शहित' ५५ ४ या५शु प्राणी छे. “ हय" य मेटले घोडी, "गय" आय मेटले साथी, "स्वर" ५२ अटो आधे31, “करभ" ४२९१ मेट , "खग्ग" 100 मेटो गे , तेने से or शाजाय छ, ते समi l રહે છે, તેને ચાર પગ હોય છે. જ્યારે તે ચાલે છે ત્યારે તેની બંને તરફ पांभोवी यामडी सरती २९ छे. “वानर" वान२ पान ४ . "गवय" ગવય એટલે રેઝ, તે ગાયના જેવું હોય છે અને તેની ડોક ગેળ હોય છે. "विग" १४ मे गती प्राणी छे. तेने ७ वामां भाव छ. "सियान" For Private And Personal Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नयाकरणसूत्रे वर्त्ताः = श्रीकन्दलकाः आवर्त्ताच उभे सजातीया एकखुरजीवविशेषाः, 'कोकंतिय' कोकंतिकाः = लोमटका : 'लोमड़ी' इति भाषायाम्, 'गोकष्ण गोकर्णाः द्विखुर 'चतुष्पदजन्तुविशेषाः, 'मिय' मृगाः, 'महिस' महिषाः, 'वियग्ध' व्याघ्राः, 'छगला' अजा: 'दीविय' द्वीपिका : 'दीपडा' इति भाषायाम्, 'साण' श्वानः= आटव्याः कुक्कुराः 'तरच्छ' तरक्षाः, अच्छभल्लाः- भल्लूक जातिविशेषाः 'सल शार्दूलाः = 'सीह' सिंहाः, 'चिल्लला' चित्रका: - श्वापदजन्तुविशेषाः । एषां द्वन्द्व समासः । 'चउप्पयविहाणाकए य एवमाई ' चतुष्पदविधानाः कृताः तां एवमादीन = चतुष्पद विशेषान् कुरङ्गादीन घ्नन्तीति परेण योजना | ०७|| जानवर है - जो रात को “ हुआ हुआ" बोला करता है। (कोल) कोलशूकर एवं (मज्जार) मार्जार ये हिंसक जानवर हैं। (कोलसुणह) " कोल शूकर" ये शूकर के ही भेद हैं और सामान्य शूकर की अपेक्षा शरीर में विशाल होता है । (सिरिकंदलगावत्त) श्रीकन्दलक और आवर्त्त ये भी जानवर हैं और इनके एक खुर होता है। इन दोनों की जाति समान होती है। (कोकंतिय) कोकंतिका नाम लोमड़ी का है, यही बड़ी चालाक होती है । ( गोकण) गोकर्ण एक प्रकार का जानवर होता है, इसके दो खुर होते हैं, और पैर चार होते हैं । (मिय) मृग, (महिस) महिष, ( वियग्ध ) व्याघ्र यह हिंसक जीव है और सिंह जैसा ही होता है। (छगल) बकरा बकरी का नाम अज है । (दीविय) द्वीपिका यह भी मांसभक्षी शिकारी जानवर है, इसे तेंदुआ कहते हैं । ( साण ) जंगली जो कुत्ते हैं जिन्हें शुनी - कुत्ता कहा जाता है वे यहां " साण " शब्द से गृहीत हुए हैं । (तरच्छ) तरक्ष, (अच्छभल्ल) अच्छभल्ल, यह रीछों का ही 6 66 શ્રૃંગાલ ’ એક જંગલી પ્રાણી છે, જે રાત્રે “ હુઆ હુ " मोसे छे. तेने शुभराती मां शियाण उडे छे. "कोलसुण " अस-शूअर मने “मज्जार” भार હિંસક જાનવરો છે. “ કાલ શુકર ” તે શૂકરના જ ભેદ છે, અને તે સામાન્ય शूर डरता शरीरे भोटु' होय छे, “सिरिकंदलगावत्त" श्रीउन्हसम् माने यावत्तं પણ જાનવરે છે અને તેમને એક ખરી હાય છે. તે અને સમાન જાતિનાં છે. "कोकंतिय" बोडीने अति उहे छे, ते धाी न्यासा होय छे. " गोकण्ण " गो मे अारनुं पशु छे. "मिय" भृग "महिस" महिष मने “वियग्ध,” व्याघ्र हिंसा आशीयो छे भने ते सिंह नेवा ४ होय छे. "छगल" मरा अम्रीने अन्न उहे छे. “दोविय" द्वीपि मांसाहारी शिअरी पशु छे. तेने तें हुआ छे. ते चित्ता होय छे. भगदी इतरागाने शुनी हुत्ता उछे, मोण " शब्दथी भड़ीं ते भगती इतराम समन्वाना छे, "तरच्छ अच्छ 66 For Private And Personal Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुदर्शिनी टीका अ० १ सू०८ उर-परिसर्पप्रकारनिरूपणम् साम्मतमुर परिसर्पमकारानाह–'अयगर' इत्यादि। मूलम्-अयगर-गोणस-वराहि-माउलि-काकोदर-दब्भ पुप्फा-आसालिय-महोरगा उरग विहाणा कए य एवमाई।सू०८॥ टीका-अजगर-गोणश वराहि मुकुलि-काकोदर-दर्भपुष्प-आशालिक महोरगोरगविधाना कृताश्च एवमादीन् । अजगराः प्रसिद्धाः, गोणशाः कणरहितद्विमुखसर्पविशेषाः 'वराहयः' दृष्टिविषसाः येषां दृष्ट्या विषावेशो भवति । मुकुलिना ईषत्फणकारकाः, काकोदराः सामान्यसर्पाः, दर्भपुष्पा सामान्यफणनाम है। (सहूल) शादल, (सीह ) सिंह एवं (चिल्लल ) चित्रक ये सब मांसभक्षी जंगली जानवर हैं और स्थलचर हैं । सू.७॥ अब सूत्रकार उरःपरिसर्पके भेदों को प्रकट करते हैं-'अयगर गोणस' इत्यादि। टीकार्थ-(अयगर) अजगर यह बहुत अधिक मोटा सर्प होता है, धीरे २सरकता है, जिस प्रकार सामान्य सर्प आहट पाते ही बहुत शीघ्र भग जाता है वैसे यह नहीं भग सकता है । (गोणस) गोणश यह भी एक प्रकार का सर्प ही होता है, परन्तु इसके फणा नहीं होती है, व्यवहार में लोग ऐसा कहते हैं कि इसके दो मुख होते हैं. इसका दूसरा नाम दुमुही भी होता है। (वराही) वराहि-यह वह सर्प है कि जिसकी दृष्टि में विष रहता है, जिसे यह देख लेता है उसके विष का आवेश हो जाता है, इसका दूसरा नाम दृष्टिविष सर्प भी है। ( माउलि ) मुकुलीयह वह सर्प है जो अपने फण को थोड़ा ही विस्तारता है, ज्यादा नहीं, भल्ल" तरक्ष, ५२७ मा तेशछानi नाम छ. “सद्दल" , "सीह" सिंड भने “चिल्लल' चित्र में सजा मांसमक्षा नपरे। छ, भने २५२ छ. ॥१.७॥ वे सूत्रा२ " उरःपरिसर्प। पेटे याराना। सोना लेह मतावले" अयगर-गोणस" त्यादि. टी --" अयगर" 201२-ते २१ पधारे भाटी सा५ छ, ते धाम ધીમે સરકે છે. જે રીતે સામાન્ય સાપ સહેજ પણ આવાજ થતાં તરતજ भाभी लय छे तमतमा मासी ता नथी. "गोणस" गोश-ते ५ मे પ્રકારને સાપ જ હોય છે, પણ તેને ફેણ હોતી નથી. વ્યવહારમાં લેકે એવું ४ छ तेने में भुग डाय छ, तेनुं मी नाम 'डमुडी' ५५ छ. “वराहि" વરાહિતે એ સર્પ છે કે જેની દષ્ટિમાં જ વિષ રહે છે, જેને તે જુવે છે तेन तेनु २ 43 छ, तेनुं मlag नाम दृष्टिविष स५ ५५ छ. "माउली" भुती તે એવી જાતને સર્પ છે કે છે પિતાની ફેણને થોડા પ્રમાણમાં જ ફેલાવે છે, For Private And Personal Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४४ प्रश्नव्याकरणसूत्रे धारिणः । आशालिकाः, उरः परिसर्पविशेषाः । एते च चक्रवत्तिवासुदेववळ देवादीनां स्कन्धावारमध्ये ग्रामनगरादिषु वा एतेषां विनाशकाले सामुदानिक कर्मोदयात् - असशिनो मिथ्यादृष्टयः संमूर्छिमपञ्चेन्द्रिया अन्तर्मुहूर्त्तायुष्काः जघन्येनाsकुलस्यासंख्येयभागपरिमितयाऽवगाहनया, उत्कर्षेण द्वादशयोजन परिमितया sवगाहनया विष्कम्भबाहल्येन तथानुरूपां भूमि विदार्य समुत्पद्यन्ते । अन्तर्मुहूर्त्तानन्तरं तन्मरणे - स्कन्धावारादीनां सहसा विनाशो भवति । 'महोरगा' योजनसहस्र क्यों कि फण को अधिक विस्तार करने की इसमें शक्ति नहीं होती है। (काकोदर) काकोदर - सामान्य सर्पका नाम है। इसी तरह ( दग्भपुप्फ) दर्भपुष्प भी वह सर्प होता है जो सामान्य रूपसे फणा से युक्त होता है, परन्तु यह अपने फणा को तानता नहीं हैं, बीन बजाने पर भी यह प्रकृतिस्थ बना रहता है । (आसालिय) आशालिक भी सर्पों की एक विशेष जाती है। ये चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव, आदिकों के सैन्य के निवासस्थानमें अथवा ग्राम नगर आदिकों में भूमि के नीचे उत्पन्न होते हैं, इनके विनाशकाल में सामुदानिक कर्मका उदय होता है, स्कन्धावार- छावनी तथा गाम नगरादि जमीन में उतर जाते हैं प्रायः मर जाते हैं ये असंज्ञी मिथ्यादृष्टि होते हैं, इनका जन्म संमूच्छिम होता है, इनके पांचो इन्द्रियां होती है। इनकी आयु अन्तर्मुहूर्तप्रमाण होती है इनके शरीर की अवगाहना जघन्य से अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण होती है तथा उत्कृष्ट से द्वादश योजनप्रमाण होती है, अन्तर्मुहूर्त के बाद इनका मरण हो जाता रणुर्डे वधारे प्रभाशुभां देवाववानी शक्ति तेनाभां होती नथी. "काकोदर" अहिर सामान्य सर्पतुं नाम छेप्रमाणे "दब्भपुप्फ" हर्लयुष्य पशु सेवा પ્રકારના સર્પ છે કે જે સામાન્ય રીતે ફણાથી યુક્ત હાય છે, પણ તે પેાતાની ફણાને ફેલાવતા નથી, મારલી ખાવવામાં આવે તે પણ તે ફણાને વિસ્તાર્યો विना भूण स्थितिमा ४ रहे छे. "आसालिय” माशासिक, पशु सर्योनी ठ ખાસ જાતિ છે. તે ચક્રવર્તી, વાસુદેવ, ખલદેવ આઢિના સૈન્યના નિવાસસ્થાનમાં અથવા ગામ નાર આદિમાં ભૂમિની નીચે ઉત્પન્ન થાય છે, તેમના વિનાશ કાળે સામુદાયિક કર્મીના ઉદય થાય છે. સ્કન્ધાવાર-છાવણી તથા ગામ નગર આદિ જમીનમાં ઉતરી જાય છે. સામાન્ય રીતે મરી જાય છે. તે અસ'ની મિથ્યાદૃષ્ટિ હોય છે. તેમનેા જન્મ સ’મૂર્ચ્છિમ થાય છે, તેમને પાંચે ઇન્દ્રિયો હોય છે. તેમનું આયુષ્ય અન્તમુહૂર્ત પ્રમાણુ છે, તેમના શરીરની અવગાહના જઘન્યથી 'ગુલના અસ ંખ્યાતમાં ભાગ પ્રમાણ હોય છે, તથા ઉત્કૃષ્ટ ખાર ચાજન प्रभा होय . अन्तर्मुहूर्त पछी तेमनुं भरा था लय छे " महोरगा " For Private And Personal Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० १ सू० ९ भुजपरिसर्पमेदनिरूपणम् प्रमाणशरीरा मनुष्यक्षेत्र वहिर्भाविनउरः परिसर्पविशेषाः, एषां द्वन्द्वः । उरगविधानाः = उरगप्रकाराः कृताः । तान् च एवमादीन् 'घ्नन्ति' इत्यनेन सम्बन्धः ||८|| अथ परिसर्पभेदानाह - ' छीरल० ' इत्यादि । मूळम् - छोरल - सरंब - सेह - सेल्लग - गोधा - उंदुर-उलसरड - जाहक - मंगुस - खाडहिला - चाउप्पइय- घरोलिया - सरीसिव गणे य एवमाई ॥ सू० ९ ॥ टीका- क्षीरळाः, शरम्याः, 'सेहाः' तीक्ष्णकण्टकाकुलकायाः, शैल्यकाः, एते सर्वे वजपरिसर्पविशेषाः । गोधाः = प्रसिद्धाः, उन्दुराः = मूषकाः, नकुलाः प्रसिद्ध : है । (महोरगा ) महोरग ये वे सर्प हैं कि जिनका शरीर एक हजार योजन का होता है, तथा ये मनुष्य क्षेत्र से बाहिरी क्षेत्रों में उत्पन्न होते हैं। ( उरगविहाणांक एय ) ये सब भेद उरः परिसर्पो के हैं पापी जीव इन्हें मारते हैं । सू. ८ ॥ अब भुजपरिसर्प के भेदों को सूत्रकार प्रकट करते हैं-'छीरलसरंब' इत्यादि । " टीकार्य - (कोरल - सरंच सेह-गोधा - जंदर गउल-सरंड - जाहक मंगुस खाडहिला - चाउप्पइय- घरोलिया - सरीसिव गणे य एवमाई ) क्षीरल, शरम्य सेह ये वे जीव है कि जिनका शरीर कटों से युक्त रहता है। सेह को हिन्दी भाषा में “ सेही " कहते हैं, इसका आकार श्रृगाल जैसा होता है, इसके शरीर पर तीखे नुकीले काले और सफेद रंग वाले कांटे होते हैं। ये भेद भुजपरिसर्पों के हैं । गोधा गुहेरेकी मांको कहते हैं यह भित्ति पर इतनी मजबूती के साथ चिपक जाती है कि इसे पकड़ कर चोर મહોરગ, તે એવા સર્પ હાય છે કે જેમનું શરીર એક હજાર ચેાજનનું હાય छे, तथा ते मनुष्य क्षेत्रथी महारनी क्षेत्रमां उत्पन्न थाय छे. "उरगविहाणाकएय" આ બધા ઉર:પરિસર્પોના ભેદ છે. પાપી જીવા તેમની હત્યા કરે છે. સૂ.૮॥ हवे लूपरिसर्पना लेहोने सूत्रअर प्रगट उरे छे-" छीरलसर ब " इत्याहि. अर्थ - "छीरल, सरब, सेह, सेलग गोधा उंदर, णउल, सरड, जाहक, मंगुस, खाडहिला, चाउ पइय, घरोलिया, सरीसिव, गणे य एवमाई” क्षीरस, शरभ्ण, સેહ, તે જીવા કાંટા થી યુક્ત શરીરવાળા હોય છે. સેહને ગૂજરાતી ભાષામાં સાહુડી કહે છે. તેના દેખાવ શિયાળ જેવા હાય છે, તેના શરીર પર તીક્ષ્ણ, અણીદાર, કાળા અને સફેદ રંગના કાંટા હોય છે. તે ભુજપરિસોના ભેદ છે. " गोवा " पाटवा धोने उडे छे. ते हिवास पर गोटली सन्न योटी लय छे, For Private And Personal Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रभव्याकरण शरटा-ककलाशाः, जाहकाकण्टकव्याप्ताङ्गाः, मंगुसाः भुजपरिसर्पविशेषाः, खाडहिला श्वेतकृष्णरेखाऽङ्कितदेहाः भुजपरिसपेविशेषाः। चातुष्पदिकाः चतुभरणा भुजपरिसर्पविशेषाः। 'घरोलिया' गृहगोधिकाः ‘छिपकली घरोली' इति प्रसिद्धाः। एतेषां द्वन्द्वः । एवमादीन् सरीसृपगणान् ‘घ्नन्तीति सम्बन्धः ।।०९।। __अथ खेचरभेदानाह-'कादंब' इत्यादि। मूलम्-कादंब-कंक-बलाका-सारस आडा-सेडी-कुललवंजुल-पारिप्पव-कीर-सउण-दीविय-हंस-धत्तरट्र-भास-कुलीरात्रि में चोरी करने को ऊपर दुमंजिले आदि मकान पर चढ़ जाते हैं यह कमन्द की तरह भित्ती पर लटक जाती है । उन्दुर नाम भूषक का है। नकुल नौलो को कहते हैं । शरट नाम कृकलाश का है, यह गले में लाल होता है और बैठा हुआ अपना मस्तक हिलाया करता है, छिपकली जैसा इसका आकार होता है, मारवाड़ आदि राजस्थान में "करंगेटया' कहते हैं । जाहक वे भुजपरिसर्पविशेष हैं कि जिनके शरीर पर काटे रहते हैं । मंगुस भी इसी प्रकार के भुजपरिसर्प विशेष हैं । खाडहिल को हिन्दी में गिलहरी कहते हैं, इसके शरीर पर जो रोमराजी होती है वह सफेद और काली रेखा से युक्त होती है, यह वृक्षों पर रहती है। चातुष्पदिक चार पैरों वाला भुजपरिसर्प विशेष होता है। घरोलिया को हिन्दी में छिपकली कहते हैं, यह मकानों के भीतर भीत पर छत पर चिपकी रहती है । निर्दयी हिंसक जीव इन्हें तथा इनसे भिन्न जो और भी भुजपरिसर्प विशेष हैं उन्हें मारते हैं।. ९॥ કે તેને પકડીને રાત્રે ચાર ચોરી કરવાને માટે બે ત્રણ માળના મકાનપર ચડી य, ते अन्धनी म नीत५२ सटीनय छे. "उदुर" मेटले १२. "णउल" मटर नाणीयो, “सरड" मेटर आर्थिडी. तेनु गाय छे मन त मेह। બેઠે પિતાનું શિર હલાવ્યા કરે છે, ગળી જે તેને આકાર હોય છે. મારવાડ આદિ રાજસ્થાનમાં તેને “કરગેટયા” કહે છે, જાહક, એ એક જાતના ભુજપરિસર્પને ભેદ છે. તેમના શરીર પર કાંટા હોય છે. મંગુસ પણ એજ પ્રકારે परिसप छ, "खांडहिल" मेटर मिसदी तना शरी२५२ २ ३वारी डाय છે તે સફેદ અને કાળી રેખાથી યુક્ત હોય છે, તે વૃક્ષ પર રહે છે. તે ચાતુપદિક, ચાર પગ વાળુ ભુજપરિસર્પ વિશેષ છે. “ઘરેલિયા” તેમને ગૂજરાતીમાં ગળી કહે છે. તે મકાનની અંદર ભીંત તથા છત પર ચેટી રહે છે નિર્દય હિંસક લેકે તેમની તથા તેમના સિવાયના બીજાં પણ જે ભુજપ રિસર્ષ વિશેષ છે તેમની હત્યા કરે છે સૂ-લા For Private And Personal Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदशिनी टीका अ० १ सू० १० पेपरजीवनिरूपणम् कोस-कुंच-दगतुंड-ढेणियालग-सूईमुह-कविल-पिंगलक्खगकारंड-चक्कवाग-उकोस-गरुल-पिंगल-सुय-बरहिण-मयणसाल-नंदीमुह-नंदमाणग-कोरंग-भिंगारग-कोणालग-जीवं जीवक-तित्तिर-वग लावग-कपिंजलग कवोतग-पारेवग-चडग ढिंक कुक्कुड-मेसर-मऊर-चओरग- हयपोंडरीय करक-धीरल्ल -सेण-वायस विहाण-सियचास वग्गुलि चम्महिल-विततपक्खि समुग्गपक्खि-खहयर विहाणाकए य एवमाई जल थल खचारिणो य पंचिदिए पसुगणे बियति य चउरिदिए य विविहे जीवे पिय जीविए मरणदुक्खपडिकूले वराए हणंति बहुसंकिलिट्ठ कम्मा ॥ सू० १०॥ ___टीका-कादम्बाः कलहंसाः, कङ्काः पतिविशेषाः बलाका:='वगला' इति भाषा प्रसिद्धाः, सारसाम्म्मसिद्धाः 'आडा' जलचर पक्षिविशेषाः 'आडा' इति भाषायाम्। 'सेडी' सेटी, कुललाः, कन्जुलाः, 'पारिप्पव' पारिप्लवा पक्षिविशेषाः कीरा शुकाः, 'सउणं' शकुनाः 'शकुनपक्षिविशेषाः, 'दीविया' दीपिकाः ___ अब खेचर जो तिर्यच हैं उनके भेदों को सूत्रकार स्पष्ट करते हैं'कादंष कंक बलाका' इत्यादि। टीकार्थ-(कादंष ) कादम्ब-कलहँस (क ) कंक-पक्षिविशेष (बलाका) बलाका-बगुला (सारस) सारस-इसी नामका प्रसिद्ध पक्षी है (आडा) आडा-जल में तैरने वाला पक्षी जिसे भाषामें 'आड' कहते हैं (सेडी) सेटी (कुलल ) कुलल (वंजुल) वंजुल ( पारिप्पव) पारिप्लव पक्षिविशेष ( कीर) कीर-तोता (सउण) शकुन-पक्षिविशेष, હવે જે ખેચર-નભચર તિર્યંચે છે તેમના ભેદને સૂત્રકાર પ્રગટ કરે છે. • " कादंब, कंकबलाका" त्याह At---" कादव" -दस " कंक" - तनुं पक्षी, "बलाका" vast-unj "सारस" सारस-2 नामनुं प्रसिद्ध पक्षी "आ" माम तरना३ ४ पक्षी ने सस्कृतमi " मा " ४९ छे. “सेडी" बेटी "कुठल" "वजुल" पुस "पारिपव” पा२ि.८१ मे पक्षीमानी भार on छ. "कीर" हीर-पोपट "सण" शन-पक्षीना मे त “दीविष" For Private And Personal Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे कृष्णचटकाः,इंसाः नीरक्षीरविवेचकाः पक्षिणः 'धत्तरदृ' धार्तराष्ट्रका: श्यामचरणचञ्चु इंसाः, 'भास' भासाः 'कुलीकोस' कुलीक्रोशाः पक्षिविशेषाः 'कुंच' क्रौञ्चाः क्रौञ्चपक्षिणः ये शरदि ऋतौ माघन्ति मधुरध्वनि च कुर्वन्ति, 'दगतुंड' दकतुण्डाः, 'टेणियालग' ढेणिकालकाः, 'मूईमुह' सूचीमुखाः 'कविल' कपिलाः= पक्षिविशेषाः, "पिंगलक्खग' पिङ्गलाक्षा:-पिङ्गले अक्षिणी येषां ते पिङ्गलाक्षाः पीतलोचनपक्षिणः 'कारंड ' कारण्डका-बतक इति.लोके प्रसिद्धाः, 'चकवाग' चक्रवाकाः असिद्धाः, 'उक्कोस' उक्कोशाकुरराः कुरज पक्षिविशेषाः, 'गरुल' गरुडा सिद्धाः ‘पिंगल' पिङ्गलाः रक्तशुकाः 'सुय' शुकाः रक्तमुखशुकाः, 'बरहिण' बहिणः पिच्छधारिमयूराः ‘मयणसाल' मदनशलाका मेना' इति भाषायाम् , 'नंदीमुह' नन्दीमुखाः, 'नंदमाणग' नन्दमानकाश्च पक्षिविशेषाः, 'कोरंग' कोरङ्काः तन्नामकाः पक्षिणः 'भिंगारग' भृङ्गारिकाः (दीविय ) दीपिका-कालीचिड़िया (हंस ) हंस-नीरक्षीर को जुदा करने वाला पक्षी ( धत्तरट्ठ) धार्तराष्ट्रक-जिनके चरण और चोंच दोनों काले होते हैं ऐसे हंस ( भास ) भास और (कुली-कोस) चुलीक्रोश पक्षिविशेष हैं (कुंच ) क्रौंचपक्षी-जो शरद ऋतु में मदोन्मत्त होते हैं एवं मधुर ध्वनि किया करते हैं (दगतुंड ) दगतुंड (टेणियालग) ढेणिकालक (मईमूह ) सूचीमुख (कविल ) कपिल, ये भी पक्षि विशेष हैं । (पिंगलकखग) पिङ्गलाक्ष-पीलेनेत्रवाला एक जात का पक्षी (कारंड ) कारण्डकवतक ( चक्कवाग) चक्रवा-चकवा ( उक्कोस ) उक्तोश-कुरर, (गरुल) गरुड (पिंगलसूय) पिंगलतोते, (सूय ) शुक-लालचाच वाळे तोते ( वरहिण) पहि-पिछोंवाले मयूर (मयणसाल ) मदनशाल-मैना (नंदीमुह) नंदीमुख (नंदमाणग) नन्दामानक, और (कोरंग) कोरंक इन नाम के हाय-हेquel "हंस" स-ना२क्षा२ने । ४२३ पक्षी “धत्तरदृ" धात:રાષ્ટ્રક–જેમનાં ચરણ અને ચાંચ કાળા હોય છે તેવા હંસ “મા” ભાસ અને "कुळीकोस" सुखीजोश-पक्षीनी पास तो "कुंच" होयपक्षी-२ १२६अतुमा भहीन्मत्त थाय छ भने मधुर पनि ४ा ४३ छे. “दगतुंड" आतुडे, “टेणियालग" aged: "सूईमुह" सूचीभुम “कविल" पिस मे पक्षानी मास तो छ. "पिंगलक्खग" विदाक्ष-पीni नेत्रवाणु मे तनु पक्षी "कार" ४।२४४मत "चकाग" वा-य४॥ "उकोस" Gोश-४२२ "गझल" १२ "पिंगल" शिव-सा पोपट 'सुय" शुर-साद यांया पोपट "वरहिण" ईपीछा वा भार "मयणसाल" भहनशास-भेना "नंदीमुह" नहीभुज "नंदमाणग" नन्दभान भने “कोरंग" १२ नामना पक्षीम। "भिंगारग" सं॥२४ For Private And Personal Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुदर्शिनी टीका भ० १ सू० १० खेचरजीवनिरूपणम् 'भिंगोडी' इति प्रसिद्धाः, 'कोणालग' कोणालकाः जलचरपतिविशेषाः, जीवञ्जीवका चातकाः, तित्तिराः= तीतर' इति लोके प्रसिद्धाः, 'वट्टग' वर्तकाः पक्षिविशेषाः 'वटेर' इति भाषायाम् । 'लावग' लावका प्रसिद्धाः, 'कविजलग' कपिालका तन्नामकपक्षिणः 'कवीतग' कपोतकाः= कबूतर' इति मसिद्धाः, 'पारेवग' पारावतका: तुज्जातीया एवं 'चडग' चटकाः 'चिडी' इति प्रसिद्धाः, 'लिंक' ढिङ्काः ढिङ्कपक्षिणः, 'कुक्कुड' कुक्कुटाः असिद्धाः, मेसरा = पक्षिविशेषाः, 'मऊर' मयूरा मसिद्धाः, 'चओरग' चकोरकाः प्रसिद्धा एव 'हयपौडरीय' हूदपुण्डरीका: जलचरपतिविशेषाः, 'करग' करकाः 'चीरल्ल' चीरलाश्च पक्षिविशेषाः 'चील' इति प्रसिद्धाः 'सेण' श्येनाः 'बाज' इति भाषायां 'वायसविहाण' वायसविधानाः काकरक्षिभेदाः, 'सियचास' सितचाषा: श्वेतचापपक्षिणा, 'वगुलि' वल्गुल्यः-'वागल' इति प्रसिद्धाः, 'चम्महिल' चर्मास्थिलाः चर्मचटका इति भाषायां, ' विततपक्वि' विततपक्षिणः 'समुग्गपविख' समुद्गपक्षिणः, एते पक्षी (भिंगारग) भृङ्गारक-भिगोडी (कोणालग) कोणालक-जलचर पक्षिविशेष ( जीवंजीवक ) जीवंजीवक-चातक (तित्तिर) तित्तिर-तीतर ( वग) वर्तक-वटेर ( लावग) लावक-लावा ( कपिजलग) कपिंजलक इस नाम का पक्षी (कवोतग) कपोतक-कबूतर (पारेवग) पारापतक कबूतर के जातिविशेष (चडग) चटक-चिड़िया (ढिंक) टिंकपक्षी (कुक्कुड) कुक्कुट-मुर्गा (मेसर) मेसर (मऊर) मयूर और (चओरग) चकोर ये सब पक्षिविशेष है (हयपोडोरीय) हृदपुंडरीक-जलपक्षिविशेष (करक) करक-पक्षिविशेष (चीरल्ल) चीरल्ल-चील, (सेण) इयेन पाज (वायसविहाण) वायसविधान-कौवा पक्षी के भेद (सियाचास) श्वेतचाष पक्षी (वग्गुलि) वल्गुली-वागल (चम्मद्विल) चर्मास्थिल-चम. गादड (विततपक्खि ) पिततपक्षी (समुग्गपक्खि) समुद्रपक्षी, खहयरनिगडी "कोणालग" स मे तनु य२ पक्षी “जीवंजीवक" . १-यात "तित्तिर" तित्तिर-तेत२५क्षी "वग" १४-५टे२ "लावग" सा१४-सावा “कपिंजलग" vिH8- नामनु पक्षी "कबोतग" ४पात: तर "पारेवग" पासवत-पारे भूतनी तनु पक्षी "चडग" २४यदी “ढिंक" ढि& पक्षी “कुक्कुड" ४४४८-४31 "मेसर' भेस२ "मऊर" भयू२ भने “चओरग" २२ मे धां ही adri पक्षीया छे. “हय. पोंडरीय" :- नाभनु य२ पक्षी "करक" ४२४--पक्षिविशेष "चीरल्ल" याव-समी “सेण" श्येन- "वायसविहाण" वायस विधान पानी मे and “सियचास"तया५ पक्षी "वग्गुलि" १६वी- qn "चम्मदिल" यस्थित-यम॥४३ “विततपक्खि" विततपक्षी "समुगपक्खि" समुद्रपक्षी प्र०७ For Private And Personal Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५० प्रश्नव्याकरणसूत्रे मनुष्य क्षेत्रवहिर्भाविपक्षिणः = ' खयदर विहाणकर य एवमाई' खचर विधानाः कृताः, तानेवमादीमुक्तमकारान्। तथा 'जलथलखचारिणो य-पंचिदिए पगणे' जलस्थलखचारिणश्च पञ्चेन्द्रियान पशुगणान् 'त्रियतिय चउरिदिए' द्वित्रिचतुरिन्द्रियान् 'विवि जीवे' विविधान् जीवशन् 'पियजीविए' प्रियजीवितान् ' मरणदुक्खपडिकूले' मरणदुःखप्रतिकूलान् 'वराए' वराकान=दीनान् 'बहुसंकिलद्वकम्मा' बहुसंक्लिष्टकर्माणः समधिकदुष्टाचरणाः जनाः 'हणंति' घ्नन्ति = मारयन्ति ॥ सू०१० ॥ एवं प्राणिवधस्य प्रकाराण्यभिधाय सम्प्रति तत्प्रयोजनप्रकाराण्याह'इमेद्दि' इत्यादि । मूलम् - इमेहिं विविहिं कारणेहिं, किं ते? 'चम्म वसा-मंसमेय सोणिय जग - फिफिस - मत्थुलिंग हिय--अंत-पित्त- फोफस दंतट्ठा - अट्ठिी - मिंज - नह- नयण- कण्ण-पहारुणि--नक्क-- धर्माणि-लिंगदाढि पिच्छ - विस-विसाण - बालहेउं ॥ सू० ११ ॥ विहाणाकए य) ये मनुष्य से बाहिर रहने वाले पक्षी । ये सब खेचर जातिके प्रकार हैं । इन्हें तथा ( एवमाई ) और भी इनसे भिन्न ओ (जलथल खचारिणो य पंचिदिए पसुगणे) जलचर, स्थलचर, एवं खेचर पञ्चेन्द्रिय पशु हैं उनको इसी प्रकार ( वियति उरिदिए य) द्वीन्द्रिय, तेन्द्रिय, और चतुरिन्द्रिय ऐसे (विविहे जीवे) नानाप्रकार के जीवों को कि जिन्हें (पियजीविए) अपने प्राण प्रिय हैं और ( मरण दुक्खपडिकूले ) सरण जन्य दुःखों से जो सदा डरते रहे हैं, ये दुःख जिन्हें प्रतिकूल हैं, एवं जो (बराए ) दीन हैं उन्हें (बहुसंकि लिट्टकम्मा) अत्यन्त दुष्ट ओचरण वाले मनुष्य ( हणंति) मारते हैं । सू १० ॥ खयर, विहाणाकए य" ते मनुष्यथी हर रहेनार पक्षी छे से मघा मेयर भतिना अक्षरो छे, तेभने तथा “पत्रमाई” ते सिवायना जीन याशु ने " जलभल खचारिणो य पचिदिए पशुगणे " ४२, स्थणयर अने पेयर ययेन्द्रिय पशु छे तेभने तथा येन प्रमाणे " बियतिय चरिदिए य " द्वीन्द्रिय, त्रिन्द्रिय, यतुरिन्द्रिय मेवां " विविद्दे जीवे " विविध प्रानां भवा के भने “ पियजीबिए " पोताना आशु प्रिय छे भने “मरण दुक्खपडिकूले" भरगुन्नन्य दुःपोथी ने सहा उरतां रहे छे, ते हुःयो भेभने प्रतिपूज छे, भने ? “वराए" डीन छे तेभने “ बहुस 'किलिट्ठकम्मा” अत्यंत दुष्ट आभरण वाजा मनुष्यो "हणंति" से छे ॥ सू. - १०॥ For Private And Personal Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुदर्शिनी टीका अ०१ सू० ११ प्राणिवधप्रयोजन प्रकारवर्णनम् ___टीका-'इमेहिं' एभिः वक्ष्यमाणैः 'विविहेहि' विविधैः नानाप्रकारैः 'कार णेहि कारणैः वक्ष्यमाणपयोजनैः सान् पाणान् घ्नन्ति अबुधा जनाः इत्यग्रेण सम्बन्धः। 'किं ते' कानि तानि प्रयोजनानि ? इत्याह-'चम्मे 'त्यादि । 'चम्म' धर्म-शरीरत्वचा, तदर्थ यथा 'चर्मणि द्वीपिनं इन्ति' इत्यादि । 'यसा' वसा शरीरस्थधातुविशेषः, 'चर्बी ' इति भापा, ' मंस' मांस, मेदो-देहस्थ चतुर्थधातु. इस प्रकार प्राणिवध के प्रकारों को कहकर अब सूत्रकार उसके प्रयोजन के प्रकारों को कहते हैं-इमेहिं विविहेहिं ' इत्यादि। ___टीकार्थ-जो अबुध-अज्ञानी मनुष्य हैं वे (इमेहिं) इन वक्ष्यमाण (विविहेहिं), नानाप्रकार के (कारणेहिं) प्रयोजनों के वशवर्ती होकर (हिंसंति तसे पाणे) प्रस जीवों की घात करते है । इस प्रकार का संबंध १३वे सूत्र में कथित " अबुहा इह हिंसंति तसे पाणे" इन पदों को लेकर यहां लगा लेना चाहिये । (किं ते ) जिन प्रयोजनों को लेकर अज्ञानी-प्राणी प्रस जीवों की हिंसा करते हैं वे प्रयोजन क्या २ हैं-इसी विषय को सूत्रकार " चम्म-वसा-मंस-मेय" इत्यादि पदों द्वारा स्पष्ट करते हैं, वे कहते हैं कि ( चम्म-वसा-मंस-मेय-सोणिय-जग-फिप्फिस-मत्थुलिंग-हियअंत-पित्त-फोफस-दंतहा ) अघुधजन जो इन प्राणियों की घात करते हैं उसमे कितनेक प्राणियों का उनकी (चम्म ) त्वचा प्राप्त करने का प्रयोजन रहता है इसलिये वे उनका घात करते हैं, कितनेक प्राणियों का उनकी (वसा ) चर्वी प्राप्त करने का उद्देश्य होता है, कितनेक આ પ્રમાણે પ્રાણવધના પ્રકારે વિષે વાત કરીને હવે સૂત્રકાર તેના કયા ध्या हेतु। य छे ते तावे छे-" इमेहिं विविहेहिं " त्या.. - मयुध-शानी मनुष्यो छे ते "इमेहिं" प्रमाणे “विविहे हिं" विविध ४२i "कारणेहि" प्रयोगनने १५ ने “हिंसति तसे पाणे" ત્રસ જેને ઘાત કરે છે. આ પ્રકારનો સંબંધ ૧૩ માં સૂત્રમાં કહેલ " अबुहा इह हिंसति तसे पाणे ' २ा पहानी साथै त्यias A. "किंते" જે હિતને ખાતર અજ્ઞાની–જીવ ત્રસ જીવેની હિંસા કરે છે તે હેતુઓ કયા કયા छ-२ विषयने सूत्र४.२ " चम्म-वसा-मंस-मेय" त्यादि पो. वा२॥ २५५८ ४२ छ. ते थे "चम्म, वसा, मस, मेय, सोषिय, जग, फिप्फिस, मत्थुलिंग हिय, अंत, पित्तफोफस, दंतहा" अमुध सो ते प्राणीमानी २ डिंसा ४२ छ તેને હેતુ કેટલાંક પ્રાણીઓની બાબતમાં તેમનું “મ” ચામડું પ્રાપ્ત કરવાનો હોય छ, ३८९is प्राणीयानी “वसा" ५२०ी प्रास ४२१॥ भाटे मनी १५ ४२॥य छ, For Private And Personal Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे विशेषः, 'सोणिय' शोणितं द्वितीयधातुविशेषः, 'जग' यकृत् - उदरदक्षिणभागस्थ मांसग्रन्थिः, ' फिफिस' फिल्फिस - अन्त्रस्थितमांसविशेषः, ' फेफड़ा' इति भाषायां, ' मथुलिंग' मस्तुलिङ = मस्तक भेजकं ' हिय' हृदयं = हृदयमांसपिण्डं 'कलेजा' इति प्रसिद्धं, 'अंत' अन्त्रं 'आंत' इति भाषा, 'पित्त' पित्तं पित्ताशयः, फोफसं= शरीरावयवविशेष: 'दंतट्ठा' दन्तार्थ = दन्ताः = प्रसिद्धाः, एतेषामर्थाय । पुनः - 'अट्ठि' अस्थि प्रसिद्ध', 'मिंज' मज्जा - वीर्यजनकपष्टधातुविशेषः । उक्तञ्च - प्राणियों का उनके (मंस) मोंस प्राप्त करने का, कितनेक प्राणियों का उनकी (मेय) मेद जो देह की चतुर्थ धातु है उसके प्राप्त करने का, कित नेक प्राणियों का उनके ( सोणिय ) शोणित प्राप्त करने का कितनेक प्राणियों का उनके (जग) यकृत् को - उदर के दक्षिणभाग में रही हुई मांसग्रंथि को प्राप्त करने का, कितनेक प्राणियों का उन के "फिल्फिस" फिफिस को आंतों में स्थिति मांस विशेष को प्राप्त करने का, कितनेक प्राणिओं का उनके ( मत्थुलिंग) मस्तक के भेजे को प्राप्त करने का, कितनेक का उनके (हिय) हृदयमांसपिंड को जिसे कलेजा कहते हैं प्राप्त करने का (अंत) आंतों को प्राप्त करने का ( पित्त ) पित्ताशय प्राप्त करने का, कितनेक का. फोफस- शरीरावयव विशेष प्राप्त करनेका, कितनेक का उनके दांतों को प्राप्त करने का प्रयोजन होता है तथा (अट्ठि - मिंजनह - नयणकण्ण-पहारुणि- नक-धमणि- सिंग- दाढि पिच्छ - विसाण - बाल हेउं ) कितने का उनकी (अट्ठि) अस्थि-हड्डी प्राप्त करने का कितनेक का उनकी (मिंज ) કેટલાક પ્રાણિયોનું “મંત” માંસ પ્રાપ્ત કરવાના ઉદ્દેશથી તેમને વધ કરાય છે કેટલાંક પ્રાણીઓનો વધ તેમની “મે” મેદ્ય જે દેહની ચતુર્થી ધાતુ છે તેને आप्त ४२वा भाटे उराय छे, डेटा प्राशुनो वघ तेभना "जग" यष्टुतने-पेटना જમણા ભાગમાં આવેલી માંસ ગ્રંથિને પ્રાપ્ત કરવા માટે કરાય છે, કેટલાંક પ્રાણીઓના વધ તેમના આંતરડામાં રહેલ માંસ વિશેષને પ્રાપ્ત કરવા માટે કરાય છે, કેટ सां प्राणीशानो वध तेभनां "मत्थुलिंग” भाथांभांना भगन्ने आस खा भाटे કરાય છે, કેટલાંક પ્રાણિઓના વધે તેમનાં “”િ હૃદય માંસ પિંડ કે જેને કાળજું કહે છે તેને પ્રાપ્ત કરવાને માટે કરાય છે, કેટલાક પ્રાણીઓના વધ તેમનાં મંત” આંતરડાં પ્રાપ્ત કરવા માટે કરાય છે, કેટલાંક પ્રાણીઓના વધ તેમનાં વત્ત” પિત્તાશય પ્રાપ્ત કરવાને માટે કેટલાંક પ્રાણીઓને વધુ તેમનાં " फोफस" शरीरनु येऊ यास अवयव प्राप्त खाने भाटे, भने उटवाउ प्राणीगोनो वध तेमनां हांत प्राप्त अश्वाने भाटे थाय छे तथा "अट्ठि, मिंजनह नयण, कण्ण, ण्हारुणि, नक्क, धमणि, सिंग, दाढि, पिच्छ, विसाण, बालहेउ" टाउन वध तेभनी “अट्टि" अस्थि - डावाने भाटे यांनी For Private And Personal Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० १ ० ११ प्राणिवधप्रयोजनप्रकारवर्णनम् " रसासमांसमेदोऽस्थिमज्जाशुक्राणि धातवः' इति ' नह ' नखाः, 'नयण' नयनानि-नेत्राणि 'कण्ण' कर्णाः 'हारु ' स्नायुः अङ्गप्रत्यङ्गबन्धननाडीविशेषः 'नक' नासिका='धमणि' धमन्योनाड्यः, 'सिंग' श्रृङ्गाणि प्रसिद्धानि, 'दादि' दंष्ट्राः 'पिच्छ' पिच्छं-मयूरादिपिच्छं, 'विस' विष कालकूटादि 'विसाण' विषाणानि गजदन्ताः, बालोः केशाः, एषां 'हे' हेतुं हेतुमाश्रित्य अस्थिमज्जादिहेतोरित्यर्थः, 'हिंसति' इति पूर्वेण सम्बन्धः ||मू०११॥ मजा नामक छठवी धातु विशेष को प्राप्त करने का, कितनेक का उनके (नह ) नखों का प्राप्त करने का, कितनेक का उनके (नयण) नयननेत्रों को प्राप्त करने का, कितनेक का (कण्ण) कान प्राप्त करने का कितनेक का (हारुणि ) स्नायुयों को अंग प्रत्यंगों को बांधने वाली नाडि विशेषों को प्राप्त करने का, कितनेक का उनकी (नक्क) नासिका प्राप्त करनेका, कितनेक का उनकी (धमणि ) धनियाँ-नाडियां प्राप्त करने का, कितनेक का उनके (सिंग) शंगों को प्राप्त करने का, कितनेक का उनकी (दादि) दाढों को प्राप्त करनेका, कितनेक का उनकी (पिच्छ) पिच्छों को प्राप्त करने का, कितनेक का उनके (विस) कालकूट आदि विष प्राप्त करने का, कितनेक का उनके विषाण-गज दन्तों को प्राप्त करने का और कितनेक को उनके (बाल) बालों को प्राप्त करने का,उद्देश्य होता है। इन उद्देश्यों प्रयोजनों को लेकर अबुधजन इनकी हिंसा करते हैं । सू-११॥ વધ તેમની “કિંગ મજજા નામની છઠ્ઠી ધાતુને પ્રાપ્ત કરવાને માટે, કેટલાંકને १५ तेमना "नह" नमाने प्रात ४२वाने भाटे, खisो ध तमना "नयण" નેત્ર પ્રાપ્ત કરવાને માટે, કેટલાંકને વધ તેમના “o” કાન પ્રાપ્ત કરવાને भाट सन १५ "हारुणि" स्नायुमान म1 प्रत्याने साधनारी નસ પ્રાપ્ત કરવાને માટે, કેટલાકને વધ તેમનું “ના” નાક પ્રાપ્ત કરવાને માટે Decist १५ तेभनी “धमणि" यमनीमा- आस ४२वाने भाटे, 2લાંકનો વધ તેમનાં “સિંઘ શિંગડાં પ્રાપ્ત કરવા માટે, કેટલાંકને વધ તેમની "दाढि" ! पास ४२वाने भाटे, डेटसांनी वध तमना "पिच्छ” पीछi प्रास ४२वाने भाट, सानो ५ तेभनु “विस" सट मा विष प्रात ४२वान માટે. કેટલાકને વધ તેમના વિષાણ હાથી દાંતને પ્રાપ્ત કરવા માટે, અને કેટ લાંકને વધ તેમના “રા” વાળ પ્રાપ્ત કરવાને માટે કરાય છે તે ઉદ્દેશપ્રયે જનેને માટે અબુધ લોકે તેમની હિંસા કરે છે. સૂર-૧૧ For Private And Personal Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नध्याकरणसूत्रे अथ चतुरिन्द्रियादीनां हिंसामयोजनमाह-'हिंसंति य' इत्यादि। मूलम्-हिंसंति य भमरमहुकरिंगणे रसेसु गिद्धा, तहेव तेइंदिए सरीरोवकरणट्टयाए किवणे, बेइंदिए बहवे वत्थोहर परिमंडणट्ठा ॥ सू० १२ ॥ ___ टोका-'ये' च-पुनः ‘रसेसु' रसेषु-मध्वादिषु 'गिद्धा' गृद्धाः तद्रसलोलुपाः हिंसकाः जना मध्वादि ग्रहणार्थ 'भमरमहुकरिंगणे' भ्रमरमधुकरीगणान्भ्रमराः कृष्णवर्णाः लोकभाषया पुंस्त्वविशिष्टाः, मधुकर्यः-लघुमधुमक्षिकाः लोक भाषया स्त्रीत्वविशिष्टाः, तेषां गणान् समूहान् हिंसन्ति । 'तहेव तथैव 'तेइंदिए' त्रीन्द्रियान-यूकामत्कुणादीन ‘सरीरोवकरणठ्याए' शरीरोपकरणार्थ-शरीरस्योपकारार्थ शयनकाले मत्कुणादिकृतदुःखनिवारणार्थ हिंसन्ति । तथा 'किवणे' कृप___ अब सूत्रकार चतुरिन्द्रिय आदि जीवों की हिंसा करने वालों का क्या प्रयोजन होता है-इस बात को प्रकट करते हैं-'हिंसंति य भमरमहुकरिगणे ' इत्यादि। टीकार्थ-(रसेसु गिद्धा) जो अषुध-अज्ञानी जन मधु (शहद) आदि रसों में लोलुप होते हैं वे उन मधु आदि रसों को प्राप्त करने के अभिप्राय से (भमरमहुकरिगणे हिंसंति ) भ्रमर भ्रमरियों के समूह मारते हैं। भ्रमरियों से, मधुको एकत्रित करने वाली मधु मक्खियों का यहां ग्रहण करना चाहिये । (तहेव ) इसी तरह (किवणे) दीन ऐसे (तेइंदिए ) जू खटमल आदि तेइन्द्रिय जीवों की (सरीरोवकरणट्ठयाए ) अपने शरीर के उपकार के लिये अर्थात् शयनकाल में जोखटमल आदि बारा उनके शरीर में काटने जन्य दुःख होता है उस दुःख को, निवारण करने હવે ચતુરિન્દ્રિય આદિ જેની હિંસા કરનારનું શું પ્રયોજન હોય છે, ते सूत्रा२ प्राट ४३ छ-" हिंसंति य भमरमहुकरिगणे" त्यादि. ___tथ-"रसेसु गिद्धे" २ ममुध-मज्ञानी मधु-मध माहि २सोमा सोयु५ याय छ तेस ते भ५ मा २सोने पास ४२वाने भाटे “भमरमहुकरगणे हिंसति" प्रभरे। तथा अमरीमाना सभूउनी त्या रे छ. अमरीमा मेरो मही भय सत्र ४२नारी मधमानीमा सभापी "तहेव" मे प्रमाणे "किवणे" या "तेइंदिए" , भा3 माहिन्द्रिय वानी या "मरी. रोक्करणदयाए" पोताना शरीरन ५४रने भाट मेसे सूती मते मां આદિ જે જંતુ કરડે છે અને ઉંઘમાં ખલેલ પહોંચાડે છે તે દુખના નિવા For Private And Personal Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुशिंनी टीका म०१ सू० १२ चतुरिन्द्रियादिनां हिंसाप्रयोजननिरूपणम् ५५ णान् दीनान् 'बहवे' बहून् 'बेइंदिए' द्वीन्द्रियान 'वस्थोहरपरिमंडणहा' वस्त्रोपगृ. हपरिमण्डनार्थम् , 'वस्थ' वस्त्राणि 'ओहर' उपगृहाः लघुगृहाः तेषां परिमंडणट्ठा' परिमण्डनार्थ शोभार्थम् , तत्र वस्त्राणां परिमण्डनं कृमिरागेण रञ्जनम् , उपगृहाणां परिमण्डनं शङ्खशुक्तिचूर्णेनावलेपनम् । यद्वा-अर्थशब्दस्य प्रत्येकमभिसम्बन्धेवस्त्रार्थम् , उपगृहाथ, मण्डनार्थ चेति । तत्र पट्टसूत्रादि वस्त्रनिर्माणे कम्याधुपधातः, उपगृहनिर्माणे मृजलादिषु पुतरकाशुपमर्दनम् , हारादिपरिमण्डननिर्माणे शुक्त्याग्रुपहननं भवत्येव ॥मू०१२।। के अभिप्राय से वे उनकी हिंसा करते हैं । इसी तरह (वेइंदिए ) शंख शुक्तिका आदि जो विचारे दो इन्द्रिय जीव हैं उन बहुत से दीन जीवों की भी (वत्थोहर परिमंडणट्ठा ) वस्त्र, उपगृह-लघुघर की शोभानिमित्त हिंसा करते हैं । कृमिराग से वस्त्रों का रंगनो यह वस्त्रों का परिमंडन हैं। शंख, शुक्तिका के चूने से छोटे २ :घरों का पोतना यह उपगृहों का परिमंडन है । अथवा अर्थ शब्द का प्रत्येक के साथ संबंध करने पर ऐसा भी इस पद को अर्थ होता है कि वस्त्र के निमित्त, उपगृह के निमित्त और मण्डन-हार आदि भूषण के निमित्त पटसूत्र आदि वस्त्र के निर्माण में कृम्यादि जीवों का उपघात होता है, उपग्रहों के निर्माण में मिट्टी जल आदि में रहे हुए लट आदि दो इन्द्रिय जीवों का उपमर्दन होता है, तथा हार आदि आभूषणों के निर्माण करने में शुक्ति आदि जीवों का हनन होता है। ___भावार्थ-भ्रमर, मधुकरी आदि जो चार इन्द्रिय वाले जीव हैं, तथा २९] भाटे तो तेभनी डिसा ४३ छे. मे ४ रीते "बेइंदिए” २५ शुति भारे मिया। दिन्द्रिय सयोनी ५ "वयोहरपरिमंडणद्वा" १७. ७५ લઘુઘરની શોભાને નિમિત્તે હિંસા કરે છે કૃમિરાગથી વોને રંગવા તે વસ્ત્રોનું પરિમંડન કહેવાય છે શંખ, શુક્તિકાના ચૂનાથી નાનાં નાનાં ઘરને લીંપવા તે ઉપગ્રહ પરિમંડન કહેવાય છે. અથવા “અર્થ’ શબ્દને દરેકની સાથે સંબંધ જોડવાથી આ પદને એ પણ અર્થ થઈ શકે છે કે અને માટે, ઉપગ્રહને માટે અને મંડન-હાર આદિ ભૂષણને માટે. પસૂત્ર આદિ વસ્ત્ર બનાવવામાં કૃમ્યાદિ છને ઉપઘાત થાય છે, ઉપગ્રહોની રચનામાં માટી, જળ આદિમાં રહેલ લટ આદિ કિંઈન્દ્રિય જીને વાત થાય છે, તથા હાર આદિ આભૂષણે બનાવવામાં શુક્તિ આદિ જીની હત્યા થાય છે. ભાવાર્થ–મર, મધમાખી આદિ જે ચાર ઈન્દ્રિય વાળા જ છે, તથા For Private And Personal Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्नध्याकरणसूत्रे पुनरप्याह-'अण्णेहिय' इत्यादि । मूलम्-अण्णेहि य एवमाइएहि बहुहिं कारणेहिं अबुहा इह हिंसति तसे पाणे, इमे य-एगिदिए बहवे वराए, तसे य अण्णे तदस्सिए चेव तणुसरीरे समारंभंति । अत्ताणे, असरणे, अणाहे, अबंधवे, कम्मनिगडबद्धे, अकुसल-परिणाम मंदबुद्धिजणदुध्विजाणए, पुढविमए, पुढविसंसिए, जलमए, जलगए, अणलाणिलतणवणस्सइगणनिस्सिए य, तम्भय तज्जीए चेव, तदाहारे तप्परिणयवण्णगंधरसफासबोंदिरूवे अचक्खुसे य चक्खुसे य तसकाइए असंखे थावरकाए य सुहुमबायरपत्ते यसरीरनामसाधारणे अणते' हणंति अविजाणओ य परिजाणओ य जाव इमेहिं विविहेहिं कारणेहि किं ते ? ॥सू०१३।। जू खटमल आदि जो तीन इन्द्रिय वाले जीव हैं, एवं शंख शुक्ति आदि जो दो इन्द्रियवाले जीव हैं, इनकी हिंसा करने का उद्देश्य जीवों का क्या होता है यह बात सूत्रकार ने इस सूत्र द्वारा प्रकट की है। जो प्राणी रस में गृद्ध बने हुए हैं वे भ्रमर मधुकरी आदि जो रस को एकत्रित करने वाले जीव हैं उनकी तथा जो प्राणी अपने शरीर आदि के उपकार करने के अभिलाषी हैं वे लोक जू खटमल आदि जीवों की एवं जो वस्त्र उपगृह आदि के निर्माण करने के अभिलापी हैं वे शंख शुक्ति आदि दो इन्द्रिय जीवों की हिंसा करते हुए बिलकुल विचार नहीं करते हैं ॥ १२॥ જૂ, માકડ આદિ જે ત્રણ ઈન્દ્રિયવાળા જીવે છે, અને શંખ છીપ આદિ જે બે ઇન્દ્રિયવાળા જીવે છે, તેમની હિંસા કરવા પાછળ લોકેને શો હેતુ હોય છે તે સૂત્રકારે આ સૂત્રદ્વારા પ્રગટ કર્યું છે. જે માણસ રસમાં વૃદ્ધ-લેપ બનેલ છે તેઓ ભ્રમર આદિ રસ એકત્ર કરનારા જે જીવે છે તેમની તથા જે લોક પિતાના શરીર આદિના સુખને જ વિચાર કરનાર છે તેઓ જ, માકડ આદિ જાની અને જે લેકે વસ્ત્ર, ઉપગ્રહ આદિના નિર્માણની અભિલાષાવાળા છે તેઓ શંખ, છીપ આદિ કીન્દ્રિય ની હિંસા કરતાં બિલકુલ વિચાર ३२ता नथी, ॥ सू. १२॥ For Private And Personal Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ.१ सू० १३ चतुरिन्द्रियादिनां हिंसाप्रयोजननिरूपणम् ५७ टीका--' अण्णेहि य ' अन्यैश्च ‘एमाइएहि ' एवमादिकैः पूर्वोक्तसदृशैः 'बहुहि' बहुभिः नानाविधैः ‘ कारणसएहिं ' कारणशतैः 'अबुहा' अबुधाः अज्ञा निनो जनाः इह-अस्मिन् जीवलोके तसे पाणे' सान् प्राणान् द्वीन्द्रियादीन् 'हिंसति' हिंसन्ति=घ्नन्ति । तथा-'इमेय' इमांश्च=अग्रे वक्ष्यमाणान् ‘एगिदिए' एकेन्द्रियान् पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिलक्षणान 'बहवे' बहून् अनेकान् ‘वराए' वराकान् दीनान् , तथा-'तयस्सिए चेव' तदाश्रितान् चैव-पृथिव्या केन्द्रियाश्रयस्थितानपि 'अण्णे' अन्यान् 'तणुसरीरे' तनुशरीरान्सू क्ष्मशरीरान् 'तसे य' त्रसांश्च 'समारंभति' समारभन्ते-उपमर्दयन्ति । कीदृशान तान् ? इत्याह-'अत्ताणे' अत्राणान्=त्राणरहितान् रक्षकाभावात् , 'असरणे' अशरणान् शरणदातुरभावात् , फिर भी कहते हैं-' अण्णेहि य ' इत्यादि । टीकार्थ-(अण्णेहि य एवमाइएहिं बहुहि कारणसएहिं अबुहाइह हिंसंति पाणे ) इत्यादि और भी नानाविध इसी प्रकार के सैकड़ों कारणों से अज्ञानी जीव इस लोक में द्वीन्द्रियादिक ब्रस जीवों की हिंसा करते हैं। तथा (इमेय) वक्ष्यमाण इन (बहवे) अनेक प्रकार के (वराए) दीन (एगिदिए) पृथिवीकाय, अपूकाय तेजाकाय, वायुकाय, वनस्पति काय रूप एकेन्द्रिय जीवों को और (तदस्सिए चेव ) इनके आभित रहे हुए (अण्णे ) दूसरे पूर्वोक्त प्रस जीवों से अतिरिक्त (तणुसरीरे ) छोटे शरीर वाले (तसे य) त्रस जीवों की (समारंभंति ) हिंसा करते हैं । इनकी हिंसा करते हुए जो इन अज्ञानी प्राणियों को संकोच नहीं होता है उसाक कारण यह है कि ये (अत्ताणे) इन एकेन्द्रियादिक जीवों का कोई रक्षक नहीं है इसलिये रक्षक के अभाव से ये सब त्राण रहित है । ( असरणे ) ६७ ५५५ सूत्र४।२ ४३ छ-" अण्णेहिय" त्या. "अण्णेहिंय एवमाइएहिं बहुहिं कारणसएहिं अबुहा इह हिंसंति तसे पाणे" ઈત્યાદિ બીજાં પણ એવા જ પ્રકારનાં સેંકડો વિવિધ કારણોથી અજ્ઞાની જીવ मासभन्द्रिया िस वानी डिसा ४३ छ. तथा “ इमेय " मा प्रभारी ते “ बहवे " मने प्रा२न। “वराए” मिया२" एगिदिए” पृथिवीय, अ५४ाय, ते:य, वायुय, वनस्पतिय३५ मेन्द्रिय योनी भने “तदस्सिएचेव" तमना माश्रये २४सा "अण्णे" on पूरित सा उपसतना " तणुसरीरे" नान शरी२वा! " तसेय" सवानी “ समारंभंति" हिसा કરે છે. તેમની હત્યા કરતાં તે અજ્ઞાની અને સંકેચ થતું નથી કારણ કે " अत्ताणे" ते मेन्द्रिया6ि3 वार्नु २६४ । नथी. तेथी २२४ने मला ते या नाडीन-(निराधा२) छ. " असरणे" ते पृथिव्या ७ मा १४ प्र-८ . For Private And Personal Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५८ प्रश्नध्याकरणसूत्रे 'अणाहे' अनाथान स्वाम्यभावात् , ' अबंधवे' अबान्धवान-सहायकाभावात् , 'कम्मनिगडबद्धे' कर्मनिगडबद्धान्-कर्मण्येव निगडानि बन्धकत्वात् तैर्बद्धान् कर्मराहित्याभावात् , 'अकुसलपरिणाममंदबुद्धिजणदुबिजाणए' अकुशलपरिणाममन्दबुद्धिजनदुर्विज्ञेयान्-कुशलः तत्त्वातत्वविवेकसम्पन्नः, परिणामः अन्तकरणं येषां ते कुशलपरिणामाः, न कुशलपरिणामाः = अकुशलपरिणामाः आत्मौपम्यदृष्टिविकला इत्यर्थः मन्दा-हिंसाजनितनरकनिगोदाद्यनन्तभवभ्रमणकटुकफलविवेचनशून्या-बुद्धिर्येषां ते मन्दबुद्धयस्ते च जना इति अकुशलपरिये पृथिव्यादि जीव भगकर जा नहीं सकते, इनके आश्रित त्रस जीव यदि भगकर कहीं जावें भी तो कोई ऐसा नहीं है जो इन्हें शरण प्रदान करे अतःशरणदाता के अभाव से ये अशरण हैं । (अणाहे ) कोई इनका स्वामी नहीं है इसलिये अपने स्वामी के अभाव से ये बिचारे अनाथ हैं। (अबंधवे ) इनकी कष्ट में कोई सहायता करने वाला नहीं है इसलिये सहायक के अभाव से ये अवान्धव हैं। (कम्मनिगडबंधे ) उस प्रकार के कर्मों का सद्भाव होने के कारण कर्मरूप निगड-वेडी से ये बंधे हुए हैं। (अकुसल-परिणाम-मंदबुद्धिजणदुन्धिजाणए.) अकुशल परिणाम वाले मंदबुद्धि जनों द्वारा ये दुर्विज्ञेय हैं। तत्त्व और अतत्त्व का विवेक जिनके अन्तःकरण में जगता है वे कुशल परिणाम वाले जीव हैं । इस तरह का कुशल परिणाम जिनका नहीं हैं अर्थात् सब जीवों के ऊपर जिनकी दृष्टि आत्मौपम्यवाली नहीं हैं और जो इस बात को भी नहीं जानते हैं कि हिंसा करने से नरक निगोद आदि अनंत भवों में भ्रमण करने रूप कटुकफल को શકતાં નથી, તેમને આશ્રિત ત્રસજીવ જે ભાગીને કોઈપણ જગ્યાએ જાય તે પણ કોઈ એવું નથી કે જે તેને શરણ આપે, તેથી શરણદાતાને અભાવે તેઓ मशरण छे. "अणाहे" भनी स्वामी नथी, तेथी स्वामीन अभाव तेसा मिया मनाथ छ. “ अबंधवे" ४टभ तभने सहाय ४२ना२ । नथी, तथा सहायाने मसावे तेस। मधq छ. “कम्मनिगडबंधे" ते अनi भनि। सद्भाव थाने १२णे भ३५ डी. ५ तेमा मायेत छ. “अकुसलपरिणाम-मंदबुद्धिजणदुविजाणए" सशस परिणामवा मधुद्धियुत सी દ્વારા તે દુવિય-સમજવું–મુશ્કેલ છે. જેમના અંતઃકરણમાં તત્ત્વ અને અતત્વને વિવેક જાગૃત થાય છે તે કુશલ પરિણામવાળા જીવ છે. આ પ્રકારનું કુલ પરિણામ જેમનું હોતું નથી, એટલે કે સઘળા જીવે ઉપર જેમની દષ્ટિ આત્મવતું નથી, અને જે એ વાતને પણ જાણતા નથી કે હિંસા કરવાથી નરક, નિગેદ આદિ અનંત ભામાં ભ્રમણ કરવા રૂ૫ કડવાં ફળ ભેગવવા પડે છે, For Private And Personal Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० १ सू० १३ चतुरिन्द्रियादिनां हिंसाप्रयोजननिरूपणम् ५९ णाममन्दबुद्धिजनाः तै मिथ्यात्वोदयेन 'दुर्विज्ञेया' 'एते हीनदीनाः पाणिनो रक्षणीयाः, इति ज्ञातुमशक्यास्तान , 'पुढविमए' पृथिवीमयान् पृथिवीकायिकान् , 'पुढवि संसिए' पृथिवीसंश्रितान अलसमभृति द्वीन्द्रियान् 'जलमए' जलमयान्अप्कायिकान् 'जलगए' जलगतान् पूतरकादि त्रसान् , अणलाणिलतणवणस्सइ गणनिस्सिए य ' अनलाऽनिलतृणवनस्पतिगणनिश्रितांश्च=अनला=अग्निः, अनिलो = वायुः, तृणानि = दर्भादीनि वनस्पतया बनस्पतिकायभेदा अग्रवीजादयः,तणं वनस्पतिकायिकमेव पुर्वनस्पतिग्रहणं स्वगत सूक्ष्मादिसकलभेदख्यापनार्थम् , तेषां गणः-समूहस्तस्य निश्रितान् अनलाद्याश्रितान् च शब्दात्-तेजस्कायिकादींश्च, तथा-'तम्मयतज्जीए ' तन्मय तज्जीवान् तत्र तन्मयान् पृथिवी कायिकादीन् भोगना पड़ता है, इस तरह के ज्ञान के अभाव वाले मंदबुद्धि हैं, उन जनों द्वारा मिथ्यात्व के उदय से “ये हीन दीन प्राणी रक्षा करने योग्य हैं हिंसा करने योग्य नहीं है" यह बात जानी नहीं जा सकती है इसलिये ऐसे प्राणियों द्वारा ये जीव नहीं जाने जा सकते अतः ये अज्ञानी जीव ( पुढविमए ) पृथ्वीकायिक जीवों को तथा ( पुढविसंसिए पृथिवी के आश्रय रहे हुए अलस आदि द्वीन्द्रिय जीवों को इसी तरह ( जलमए) जल कायिक जीवों को तथा ( जलगए ) जलकायिक जीवों के सहारे रहे हुए पूतरकादि त्रस जीवों को, तथा (अणलाणिलतण वणस्सइगणनिस्सिए) अग्निकायिक जीवों को और अग्निकाय के सहारे रहे हुए उस जीवों को और वायुकायिक जीवों के सहारे रहे हुए बस जीवों को, तृणरूपवनस्पतिकायिक जीवों को, एवं वनस्पतिकाय के भेद प्रभेदों के सहारे रहे हुए त्रस जीवों को भी मारते है। यही बात “ तम्मथतज्जीवए" આ પ્રકારના જ્ઞાન વિનાના જી મંદબુદ્ધિ છે. તે લેકે દ્વારા મિથ્યાત્વના ઉદયથી “આ હીન દીન પ્રાણુઓ રક્ષા કરવાને ચગ્ય છે હિંસાને ચોગ્ય નથી.” એ વાત પણ સમજી શકાતી નથી. તે કારણે એવા જ દ્વારા તે જેને भी शाता नथी, तेथी ते अज्ञानी " पुढविमए" पृथ्वीय वानी तथा “पुढविसंसिए" पृथ्वीन माश्रये २२८ मसियां माहीन्द्रिय वानी, मे प्रमाणे " जलमए" oratis वोनी तथा “जलगए" साथि: वोने याश्रये २९१ पूत२४।६ सयानी, तथा “ अणलाणिल तणवणस्सइगण निस्सिए " ममि योगी 43 ममियने माश्रये उस यानी, વાયુકાય જેની અને તેમને આશ્રયે રહેલ ત્રસ જીની, તૃણરૂપ વનસ્પતિકાય જીની અને વનસ્પતિકાયના ભેદ પ્રભેદના આશ્રયે રહેલ ત્રસજીની હિંસા १२ छ. मे १ पात " तम्मय तज्जीवए" त्या यह दास हवामा भार For Private And Personal Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे तज्जीवान् पृथिव्यादि निश्रितांश्चैव, 'तदाहारे' तदाधारान्ते पृथिव्यादयः आधारो येषां ते तान् तदाधारान् पृथिव्याद्याश्रयान् अथवा 'तदाहारे' तदाहारान् ते पृथिव्यप्तेजोवायवाट्य एव आहारो येषां ते तान् तदाहारान् 'तप्परिणयवण्णगंधरसफासबौदिख्वे' तत्परिणतवर्णगन्धरसस्पर्शबौदि (शरीर) रूपान्तेषामेव पृथिव्यादीनां परिणता वर्णगन्धरसस्पर्शे या बौदिः शरीरं सैव रूप-स्वभावो येषां ते तथा तान् , ' अचक्खुसे य' अचाक्षुषान्चक्षुरगोचरान् 'चक्खुसे य' चाक्षुषांश्च चक्षुरिन्द्रियविषयान् 'तसकाइए' त्रसकायिकान् सन्ति उष्णाघभितप्ताः सन्तः विवक्षितस्थानादुद्विजन्तेबाच्छन्ति छायाघासेवनाथै स्थानान्तरमिति बसाः, यद्वा-त्रस नामकर्मोदयात् त्रस्यन्ति इति त्रसा: त्रसनामकर्मोदयवर्तिनइत्यर्थः, तेषां कायोराशिस्तत्र भवास्त्रसकायिकाः, तान् , कियतः ? इत्याह-'असंखे' इत्यादि-'असंखे' असंख्यान् ‘थावरकाए' स्थावरकायान् , तिष्ठइत्यादि पदों द्वारा कही जाती है-(तम्मयतज्जीवए ) पृथिवी कायिक आदि जीवों को तथा पृथिवी आदि के सहारे रहे हुए जीवों को, (तदाहारे) जिन जीवों के वे पृथिवी आदिक आधारभूत हैं ऐसे जीवों को अथवा पृथिवी आदिक ही जिनका आहार है ऐसे जीवों को (तप्परिणय वण्णगंधरसफासयोंदिरूवे ) तथा पृथिव्यादिकों के वर्ण, गंध, रस, स्पर्शी से जिनका शरीररूप स्वभाव परणित हो रहा है, तथा (अचकखुसे य) जो चक्षु इन्द्रिय विषयभूत नहीं है, और (चक्खुसे य) जो चक्षु इन्द्रिय के विषयभूत भी हैं ऐसे त्रस जीवों को-उष्गादिक से संतप्त होकर जो छाया आदि के सेवन के लिये एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते हैं, अथवा त्रस नामकर्म के उदय से जो युक्त हैं वे स हैं, ऐसे सजीवों को, तथा-(असंखए थावरकाए य) असंख्यात स्थावर कायों को, स्थाछ-" तम्मयतज्जीवए” पृथिवी थि: यौन तथा पृथिवी माहिने माश्रये २स याने “तदाहारे" याने ते पृथिवी मा आधारभूत छ मेवा वान अथवा पृथिवी माहि भनी २२ मेवा ७वाने “ तप्परिणय वण्णगंधरसफासबोंदिरूवे" तथा पृथिवी यानि १ गध, २४, २५ थी सभनी शरी२३५ मा परिणत २७ २wो छ, तथा “अचक्खुसे य" यक्ष धन्द्रियना विषय३५ नथी, भने “चक्खुसे य" 2 यक्षु धन्द्रियना विषय३५ ५५ છે એવા વસ ને ઉષ્ણતા આદિથી દુઃખ પામીને જે છાયા આદિના સેવન માટે એક જગ્યાએથી બીજી જગ્યાએ જાય છે, અથવા ત્રસ નામકર્મના ઉદયથી २ युत छ, तामा उस गाय छ. मेवा सोने, तथा "असंखए थावर काएय" अस ज्यात स्था१२योने-स्था१२ नाममन अश्य भने छेते स्था१२ For Private And Personal Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुर्शिनीटीका अ० १ सू० १३ चतुरिन्द्रियादिनां हिंसाप्रयोजननिरूपणम् ६१ तीति स्थावरः, स एव कायः-शरीरं येषां ते स्थावरकायाः पमृतशीताऽतप सन्तापाद्युपेतत्वेऽपि अन्यत्र गन्तुमशक्ताः स्थावरनामकर्मोदयवर्तिनः पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः, तान् ' मुहुम-बायर-पत्तेय-सरीरनामसाहारणे' सूक्ष्म-बादरप्रत्येकशरीरनामसाधारणान , मूक्ष्मं च बादरं च प्रत्येकशरीरं च-मूक्ष्मवादरप्रत्येकशरीराणि, तानि नामानि-नामकर्माणि येषां ते सूक्ष्मवादरपत्येकशरीरनामानः, ते च ते साधारणाश्च सूक्ष्मवादरमत्येकशरीरनामसाधारणाः, तान् । तत्र सूक्ष्मा: चमचक्षुरग्राह्याः पृथिव्याघेकेन्द्रियाः, बादराः-तएव चमचायाः , प्रत्येकशरीरा येषामेकमेकं जीवं प्रतिभिन्न भिन्नं शरीरमुपजायते ते पृथिव्यादयः। साधारणाः येषामनन्तानां जीवानां साधारणमेकं शरीरं भवति ते कन्दमूलादयः, वर नाम कर्म का उदय जिनके हैं वे स्थावर हैं अथवा जो शीत आतप आदि बाधा को सहते हुए भी अन्यत्र गमन करने में अशक्त हैं अपनी इच्छा से चल फिर नहीं सकते हैं-ये स्थावर है ऐसे ये स्थावर पृथिवी, अप्, तेज वायु वनस्पति जीव हैं, इन जीवों को तथा (सुहुम-बाथर-पत्ते य-सरीर नाम साहारणे) सूक्ष्म, बादर, प्रत्येक शरीररूप नाम कर्म के उदय वाले जीवों को, तथा साधारण शरीर नामकर्म के उदयवाले जीवों को, चर्मचक्षुओं से जो देखने में नहीं आते हैं वे सूक्ष्म जीव हैं, तथा जो धर्मचक्षुओं द्वारा देखे जाते हैं वे बादर हैं, ये सूक्ष्म और बादर भेद पृथिवी आदि एकेन्द्रिय जीवों के होते हैं, प्रत्येक वे जीव हैं कि जिनका भिन्न २ शरीर होता है, ऐसे पृथिव्यादिक जीव होते हैं क्यों कि इनका अपना २ भिन्न २ शरीर होता है इन जीवों को, तथा साधारण वे जीव हैं कि जिन अनंत जीवों का एक ही शरीर होता है, ऐसे वे जीव कंदमूल आदि वनકહેવાય છે અથવા જે શીત, તાપ આદિની મુશ્કેલીઓ પડવા છતાં પણ અન્યત્ર ગમન કરવાને અશક્ત છે, પિતાની ઈચ્છાથી હલનચલન કરી શકતાં નથી. તે થાવર છે. એવા જે સ્થાવર પૃથિવી, અપૂ, તેજ, વાયુ અને વનસ્પતિ छो छ ते ७वाने, तथा “सुहुम, वायर, पत्तेय, सरीर नामसाहारणे "सूक्ष्म, બાદર, પ્રત્યેક શરીરરૂપ નામકર્મના ઉદયવાળા જીવોને, તથા સાધારણ શરીર નામકર્મના ઉદયવાળા જેને, ચર્મચક્ષુઓ વડે જે દેખી શકાતાં નથી તે સૂક્ષ્મ જ છે, તથા જે ચર્મચક્ષુઓ દ્વારા જોઈ શકાય છે તે બાદર છવે છે. તે સૂકમ અને બાદર પ્રથિવી આદિ એકેન્દ્રિય જીવોના હોય છે. પ્રત્યેક જીવ એ જીવે છે કે જેમનાં અલગ અલગ શરીર હોય છે, પૃથિવ્યાદિક જીવ એવા હોય છે કારણકે તેમને પિત પિતાનું ભિન્ન ભિન્ન શરીર હોય છે. તે છેને, તથા સાધારણ છ એ છે કે જે અનંત જીવોનું એક જ શરીર હોય છે, એવા જે કંદમૂળ આદિ વનસ્પતિકાયિક હોય છે. તે છે તે પ્રકારનાં કર્મો For Private And Personal Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 41 ६२ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे ते अनन्ता अपि जीवास्तथाविधकर्मोदयसामर्थ्यात् समकमेवोत्पत्तिदेशमधिवसन्ति, सममेव तच्छरीरमाश्रिताः पर्याप्तं समारभन्ते, समकमेव पर्याप्ताः भवन्ति । समकमेव च प्राणापानादि योग्य पुद्गलान् गृह्णन्ति । यच्च - एकस्य जीवस्याहारयोग्यपुलोपादानं तदेवान्येषामनन्तानामपि भवतीति । 'अनंते' अनन्तान् 'अविजाणओ' विजानतः = एते घातका अस्मान् हनिष्यन्ति ' इति ज्ञानविकलान् एकेन्द्रियान् 'परिजाणओ य' परिजानतश्च स्ववधदुःखमनुभवतश्च द्वीन्द्रियादीन् 'जीवे' जीवान् 'इमेहिं' एभिः = अनुपदं वक्ष्यमाणैः 'विविहेहि' विविधैः नानाप्रकारै: 'कारणेहिं' कारणैः = प्रयोजनैः 'इति' घ्नन्ति येषां घातं कुर्वन्तीत्यर्थः । किं ते? कानि तानि पृथिव्यादि - हिंसायाः कारणानि ? इत्याह- 'करिसणे 'त्यादिना ॥ सू० १३|| स्पति कायिक होते हैं। ये जीव तथाविध कर्मोदयों के वश से एक साथ ही उत्पत्ति देश में रहते हैं, एकसाथ ही इनकी शरीर पर्याप्ति पूर्ण होती है । इस तरह एक ही साथ पर्याप्त होकर अनंत जीव एक ही साथ प्राणापानादि योग्य पुद्गलों को ग्रहण करते हैं। इनमें जो एक जीव का आहार होता है वही अन्य अनंत जीवों का भी होता है । इस तरह के ( अनंते) अनंत साधारण जीवों को कि- (अविजाणओ ) " जो यह नहीं जानते हैं कि ये घातक जन हमे मारेंगे " इस प्रकार के ज्ञान से विकल हो रहे हैं ऐसे एकेन्द्रिय जीवों को, तथा ( परिजाणओ य जीवे) जो अपने वधादि संबंधी दुःखों को जानते हैं, ऐसे दीन्द्रियादिक जीवों को, (इमेहिं ) इन अनुपद वक्ष्यमाण (विविहेर्हि) नाना प्रकार के ( कारणेहिं ) प्रयोजनों से ( हणंति) मारते हैं । (किंते ) वे पृथिव्यादि की हिंसा के कारण कोनर हैं ? वह 'करिसण ' इत्यादि अगले सूत्र से कहते हैं । પ્રકારના દયને કારણે એક સાથે જ ઉત્પત્તિ દેશમાં રહે છે, એક સાથે જ તેમની શરીર-પર્યાપ્તિ પૂર્ણ થાય છે. એ રીતે એક સાથે જ પર્યાપ્ત થઇને તે અનંત જીવ એક સાથે જ પ્રાણાપાનાતિ પુદ્ગલેને ગ્રહણ કરે છે. તેઓમાં એક જીવને જે આહાર હાય છે તે જ આહાર અન્ય અનત જીવાના પણ હાય છે. આ " अणते " अनंत साधारण भवने - " अविजाणओ " " ने ते नथी જાણતાં કે એ ઘાતક લેાકા અમને મારી નાખશે ” એ પ્રકારના જ્ઞાનથી જે रडित छे मेवा मेडेन्द्रिय भवाने, तथा " परिजाणओ य जीवे " ? पोताना वधाहि संधी हुःयोने लगे छे सेवा द्वीन्द्रिय साहि लवोने, “इमेहि' माहवे छीना होस दर्शावेद्य “ विविहेहि " विविध प्रानां "कारेणहि ' प्रयोन्नोथी “हणंति” भारे छे. " किते ?” ते पृथ्वीभय आहिनी हिसानां म्यां यां ५२]। छे, ते “करिसण ” इत्यादि हुवे पछीना सूत्र द्वारा उडेवामां आवे छे. 22 For Private And Personal Use Only " Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदशिनो टीका अ० १ ० १३ पृथिवीकाहिंसाकारणनिरूपणम् ॥ अथ पूर्व पृथिवीकायहिंसाकारणान्याह–'करिसण' इत्यादि। मूलम् करिसण-पोक्खरणी-वावि-वप्पिण-कूव सर-तलाग चिइ चेइय-खाइय-आराम-विहार-थूम-पागार-दार--गोउर अट्टालगचरिया सेउ-संकम-पासाय-विकप्प-भवण-घर-सरण लयण आवणवेइय-देवकुल-चित्त-सभा-पवा-आययण आवसह-भूमिघर-मंडवाणकए-भायणभंडोवगरणस्स य विविहस्स य अहाए पुढवि हिंसति मंदबुद्धिया ॥ सू० १४ ॥ टीका-'करिसण' इत्यादि । 'करिसण' कर्षण कृषिः 'पोक्वरिणी' पुष्करिणी समचतुष्कोणा कमलकाननकान्तिकमनिया पयःपूरपूरितपातालकुक्षितला नानाविधचित्रविचित्रपतस्त्रिकुलकूजितपुत्रितलिनमण्डलमण्डनसुरम्या, “वावि' १ 'केयारो वप्पिणं वप्पो' इति 'पाइअलच्छीनाममाला'। भावार्थ-जो आत्मबोध से विकल प्राणी हैं वे स्थावर और प्रस जीवों की नाना प्रकार के प्रयोजनों के वशवर्ती होकर विराधना करते हैं। पृथिवीकाय आदि स्थावर जीव हैं, क्यों कि इनके स्थावर नामकर्म का उदय है। द्वीन्द्रियादिक त्रस जीव हैं, क्यों कि इनके प्रस नामकर्म का उदय है । इसी कारण से स्थावर जीव अपनी इच्छानुसार एक स्थान से दूसरे स्थान पर चल फिर नहीं सकते हैं । त्रस जीव अपनी इच्छानुसार चल फिर सकते हैं । सू०१३॥ ___ अब सूत्रकार उन कारणों को कहते हुए प्रथम पृथिवीकाय की हिंसा के कारणों को कहते हैं-'करिसणपोक्खरिणी' इत्यादि। ___टीकार्थ- (करिसण) कृषि-खेती के निमित्त, (पोक्खरिणी) पोक्ख. ભાવાર્થ–જે પ્રાણીઓ આત્મબંધથી રહિત છે તેઓ સ્થાવર અને રસ જીની અનેક પ્રકારના પ્રયજનથી દેરાઈને હિંસા કરે છે. પૃથિવીકાય આદિ સ્થાવર જીવ છે, કારણકે તેમના સ્થાવર નામકર્મને ઉદય થયો હોય છે. કીન્દ્રિયદિક ત્રસ જીવે છે, કારણકે તેમને ત્રસ નામકર્મને ઉદય થયે હોય છે. એ જ પ્રમાણે સ્થાવર જીવ પિતાની ઈચ્છા પ્રમાણે એક જગ્યાએથી બીજી જગ્યાએ જઈ શકતા નથી. ત્રસજીવ પિતાની ઈચ્છા પ્રમાણે હરીફરી શકે છે. સૂ. ૧૩ હવે સૂત્રકાર તે કારણેને બતાવતા પ્રથમ પૃથિવીકાયની હિંસાનાં કારણે भाषेछ- करिसणपोक्खरिणी "त्यादि. ---"करिमण" दृषि-भती निमित्त “पोखरिणि" Rel For Private And Personal Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्र वापी = दीर्घायामा 'वप्पिण' वप्राणि = क्षेत्राणि, 'कूब' कूपाः 'सर' सरःकृत्रिमजलाशयः 'तलाग' तड़ागस्तदितरः प्रसिद्धः एव, 'चिइ' चितिः, मृतकदहनार्थ काष्ठचयनम् , 'बेइय' चैत्यम्-मृतकोपरिस्मारकचिदम् , 'खाइय' खातिका परिखा, आरामः-गृहसमीपोपवनम् , विहारः विहियतेऽत्रेति विहारः क्रीडास्थानविशेषः, 'धूम' स्तूपाम्-स्मारकस्तम्भः 'पागार' प्राकारः ‘गढ़' इति भाषाप्रसिद्धः, 'दार' द्वारं प्रसिद्धम् , गोउर' गोपुरं=पुरद्वारम् , 'अटालग'अट्टालका छत"अटारी' इति प्रसिद्धः, 'चरिया' चरिका-दुर्गनगरयोमध्यस्थितः अष्टहस्तप्रमाणः इस्त्यादि संचारमार्गः, 'सेउ' सेतुः='पुल' इति मसिद्धः, 'संकम' संक्रमः संक्रम्यते येन स संक्रमः जलगर्तपारकरणाय पाषाण काष्ठरचित मार्गः, 'पासाय' प्रासादः=नृपगृहम् विकप्प' विकल्पाः-तभेदाः 'भवण' भवनानि, भवनमायामापेक्षया किश्चिदल्पमुच्छायमानं भवति, मासादस्तु आयामद्विगुणोच्छायः, इति मासादभवनयोविशेषः, रिणी-पुष्करिणी के निमित्त (वावि ) वापी-चाव के निमित्त ( वप्पिण) वावडी के निमित्त ( कूव ) कूप कुवा-के निमित्त ( सर ) सर-कृत्रिम जलाशय के निमित्त (तलाग) तलाग-तड़ाग के निमित्त (चिइ) चिति के निमित्त ( चेइय) चैत्य के निमित्त (खाइय) खातिका के निमित्त (आराम) आराम का निमित्त (विहार ) विहार के निमित्त ( शुभ ) स्तूप के निमित्त ( पागार ) प्राकार के निमित्त (दार) द्वार के निमित्त (गोउर) गोपुर के निमित्त ( अट्ठालग ) अट्टालिका अटारी के निमित्त (चरिया ) चिरिका के निमित्त (सेउ) सेतु-पुल के निमित्त (संकम) संक्रम के निमित्त (पासाय ) प्रासाद-राजमहल के निमित्त (विकप्प) विकप्प-विकल्प के निमित्त (भवण ) राजमहल विशेष-उनके लिये yosहिने निभित्तो “वावि" पापी-पापने निमित्त "वप्पिण" पापन निमित्त "व" भूप-याने निमित्त "सर" ५२-३त्रिम शयने निमित्त "तलाग" dell-ताने निमित्त "चिह" यितिन निमित्त "चेइय” चैत्यने निमित्त "खाइय" माति-8 निमित्त "आराम" माराम-मयाना निमित्त "विहार" विडा२ने निमित्त "थूम" २तूपन निमित्त "पागार" प्रा१२दिया निमित्त "दार" २ने निमित्त "गोर" गोपुरने निमित्त "अदालग" मालिन निमित्त "चरिया" यरिने निमित्त "से" सेतु-पुराने निभित्ते "संकम" समान निमित्त "पासाप" प्रासा-मसन निमित्त "विकप्प" વિકલ્પ-વિકલ્પને નિમિત્તે “મા” એટલે કે એક પ્રકારના રાજમહેલ માટે, For Private And Personal Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनीटीका अ० १४ पृथियोकाहिंसाकारणनिरूपणम् 'घर' गृहा प्रसिद्धा, 'सरण' शरणानि सामान्यगृहाणि, 'लयण' लयनानि पर्वतवति पाषाणगृहाणि, 'आवण' आपणाः हट्टाः, 'वेइय' वेदिका-परिष्कृता भूमिः, 'देवकुलानि यक्षगृहाणि, 'चित्तसभा' चित्रसभा-चित्रयुक्तसमास्थानम् , 'पवा' मपा-पानीयशाला 'प्याड' इति भाषा प्रसिद्धा, 'आययण' आयतनं यज्ञशाला, 'आवसह' आवसथा-तापसाश्रमः, 'भूमिघर' भूमिगृह-गुहारूपं पृथिवीगृहम् , 'मंडवाण' मण्डपाः पटनिर्मितगृहास्तेषां, 'कए' कृते-एतनिमित्तमित्यर्थः । तथा 'मायण मंडोवगरणस्स' भाजनभाण्डोपकरणस्य भाजनानि-सौवर्णराजवादीनि, भाण्डानि-मृण्मयानि शरावादीनि, उपकरणानि उदूखल मुसलादीनि एतेषां समाहारद्वन्द्वे-भाजनभाण्डोपकरणम् , तस्य च 'विविहस्स य' विविधस्य च-अनेक पकारस्य 'अट्ठाए' अर्थाय प्रयोजनाय — मंदबुद्धिया' मन्दबुद्धिकाःम्स्वपरहिताहितविवेकविकलाजनाः, 'पुढवीं पृथिवीं 'हिसति' घ्नन्ति ॥मू०१४॥ (घर) घर के निमित्त (सरण ) शरण-सामान्यगृह के निमित्त (लयण ) लयन-पर्वतवति पाषाण घर के निमित्त (आवण)आपण-हाट के निमित्त (वेइय) वेदिका-चोतरे के निमित्त (देवकुल) देवकुल-यक्षायतन के निमित्त (चित्तसभा) चित्रसभा-चित्रयुक्त सभा के निमित्त (पवा) प्रपा-प्याऊ के निमित्त "आययण" आयतन-यज्ञशाला के निमित्त ( आवसह ) अवसथ-तापसों के आश्रम के निमित्त (भूमिघर) भूमिगृह के निमित्त (मंडवाणकए) मंडप के निमित्त तथा ( भायण भंडोवगरणस्स य विविहस्स य अट्ठाए पुढवि हिंसंति मंदघुद्धिया) नाना प्रकारके भाजन भांडोपकरणके निमित्त मन्दबुद्धिजन पृथिवीकाय जीवोंकी हिंसा करतेहैं । ___ भावार्थ-पृथिवी कायिक एकेन्द्रिय जीव है । इस एकेन्द्रिय जीव की हिंसा करने का निमित्त-प्रयोजन क्या होता है-इस विषय को सूत्र "घर" ५२ने निमित्त "सरण” २१२७४-सामान्य ने निमित्त “लयण” सयन पतति पाए घरने निमित्त "आवण" माप-दुआनने निभित्ते "वेश्य" वेद-यातराने निमित्त "देवकुल" हेक्टर-यक्षायतनने निभित्ते "चित्तसभा" शिवसलमा-यित्रयुत समान निमित्त “ पवा" प्रपा-५२५ निमित्त "आययण" मायतन यशाने निमित्त "आवसह" मावसथ-तापसेना सश्रमाने निमित्त "भूमिघर" भूभिडने निमित्त 'मंडवाणकए" भ3पने निमित्त, तथ! "भायण भंडोवगरणस्स य विविहस्स य अढाए पुढविं हिंसंति मंदबुद्धिया" मने ४२न ભાજન, ભાંડેપ્રકરણને નિમિત્તે મંદ બુદ્ધિવાળા લેકે પૃથ્વીકાયજીની હિંસા કરે છે. ભાવાર્થ–પૃથ્વીકાયિક છે એક ઈન્દ્રિયવાળા હોય છે, એ એકેન્દ્રિય જીવની હિંસા કરવાના નિમિત્તે, પ્રજને કયાં કયાં હોય છે, તે વિષે સૂત્ર For Private And Personal Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रभव्याकरण कार ने यहां निर्दिष्ट किया है । मंदधुद्धिजनों से यहां तात्पर्य स्वपर हित के विवेक से विकल जनमें से है । जिन्हें स्व और पर का विवेक नहीं है ऐसे प्राणी ही कृषी आदि इन उपर्युक्त कारणों के वशवर्ती होकर पृथिवी कायिक जीव की हिंसा किया करते हैं। सुषीकर्म प्रसिद्ध हैं। जिसके चारो कोण समान हों, कमल जिसमें विकसित हो रहे हों, अगाधजल जिसमें भरा हो, नाना प्रकार के कलरव से जिसके तट मण्डित हो ऐसे सुरम्य जलाशय का नाम पुष्करिणी है। जिसका विस्तार दीर्घ हो उसका नाम वापी है। हिन्दी में इसे वावडी कहते हैं । अनाज के पोने का जो स्थान होता है उसे क्षेत्र-खेत कहते हैं। कृत्रिम जलाशय का नाम सर है। स्वाभाविक जलाशय का नाम तडाग है, इसे हिन्दी में तालाप कहते हैं। पिता का नाम चिति है, जो मृतक के दाह संस्कार के निमित्त श्मशान में लकडियों के देर के रूप में चिनी जाती है। किसी मृतक की यादगार में जो उसका स्मृति चिह्न स्वरूप भवन आदि बना दिया जाता है उसका नाम चैत्य है। किले के परकोटे के चारों ओर जो गहरी खाई होती है कि जिसमें जल भी भरा रहता है उसका नाम खातिका-खाई है। घर के पास के बगीचे का नाम आराम है, नगर से कुछ दूर पर जो जनों का क्रीडा स्थान होता है उसका नाम विहार है। जो स्मारक - કાર આ સૂત્રમાં સ્પષ્ટીકરણ કરે છે. અહીં મંદબુદ્ધિજને અર્થ, પિતાનું અને પારકાનું હિત ન જાણનાર કે થાય છે. જેમને સ્વ અને પરને વિવેક હેતે નથી એવા જીજ કૃષિ આદિ ઉપર કહેલ કારણોને વશ થઈને પૃથિવી કાયિક જીવની હિંસા કર્યા કરે છે. કૃષિકર્મ પ્રસિદ્ધ છે. એટલે તેને વિષે સ્પટીકરણની જરૂર નથી. જેના ચારે ખૂણા સમાન હય, જેમાં કમળ વિકસ્યાં હૈય, જેણાં ડું પાણી ભરેલું હોય વિવિધ પ્રકારના કલરવથી જેને તટ પંડિત હેય એવા સુંદર જળાશયને પુષ્કરિણી કહે છે. જેને વિસ્તાર લાંબે હાય તેવી વાવને વાપી કહે છે. હિંદીમાં તેને વાવડી કહે છે, અનાજ વાવવાનું જે સ્થાન હોય છે તેને ક્ષેત્ર-ખેતર કહે છે. કૃત્રિમ જળાશયને સર કહે છે. ચિતાને ચિતિ કહે છે, જે મૃત શરીરને અગ્નિદાહ દેવાને માટે લાકડાના ઢગલા રૂપે ખડકવામાં આવે છે. કેઈ મૃત વ્યક્તિના સ્મરણાર્થે જે ભવન આદિ બનાવાય છે તેને ચૈત્ય કહે છે. કિલ્લાની દિવાલની ચારે તરફ જે ઊંડી ખાઈ હોય છે, અને જેમાં પાણી પણ ભરેલું રહે છે. તે ખાઈને ખાતિકા ખાઈ કહે છે. ઘર પાસેના બાગને આમ કહે છે. નગરથી દૂર જે લેકેનું કિડા સ્થાન હોય છે તેને For Private And Personal Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दुदशिनी रीका म० १ ० १४ पृथिवीकाहिंसाकारणनिरूपणम् ६७ स्तंभ बनाया जाता है वह स्तूप है। प्राकार-जिसे हिन्दी भाषा में गढ़ कहते हैं। नगर में प्रवेश करने का जो प्रधान द्वार होता है उसका नाम गोपुर है। दुमंजिले आदि मकानों के छत को अटारी कहते हैं। दुर्ग और नगर के बीच में जो आठ हाथ प्रमाण का मार्ग होता है कि जिससे होकर हाथी आदि आते जाते रहते हैं उसका नाम चरिका है। जल की धारा प्रवाह को पार करने के लिये जो पाषाण अथवा काष्ठ का उस पर मार्ग बना दिया जाता है उसका नाम संक्रम है। ऐसे स्थान नदी नालों आदि जलाशय प्रदेशों पर बने हुए रहते हैं। राजमहल प्रसिद्ध है, इसे संस्कृत भाषा में प्रासाद कहते हैं। भवन-लम्बाई की अपेक्षा कुछ थोड़ी कम ऊँचाई वाला होता है। तथा जो प्रासाद होता है यह भवन की अपेक्षा विगुणित ऊँचाई वाला होता है। सामान्यघर का नाम शरण है । पर्वत के पास जो पत्थरों के घर बने हुए होते हैं उनका नाम लयन है । दुकान का नाम हट्ट या हाट है। परिष्कृत भूमि का नाम बेदिका है। देवकुल-यक्षायतन-यक्ष के स्थान को कहते हैं। जिस सभास्थान में चित्र होते हैं उसका नाम चित्रसभा है । जहां लोगों को पानी पिलाया जाता है उसका नाम प्याऊ है। यज्ञशाला का नाम आयतन, तापसाश्रम का नाम आवसथ, पृथिवी के नीचे बने हुए घर का नाम વિહાર કહે છે. સ્મારક તંભને સ્તૂપ કહે છે. કિલ્લાને પ્રાકાર કહે છે. નગરમાં પ્રવેશ કરવાનું જે મુખ્યદ્વાર હોય છે તેને ગેપુર કહે છે. બે માળને આદિ મકાનની અગાશીને અટારી કહે છે. દુર્ગ અને નગરની વચ્ચે જે આઠ હાથ પહોળે માર્ગ હોય છે, કે જ્યાં થઈ હાથી આદિ આવે જાય છે, તે માર્ગને ચરિકા કહે છે. પાણીના પ્રવાહને ઓળંગવાને માટે તેના પર પથ્થર અથવા લાકડાને જે માર્ગ બનાવવામાં આવે છે તેને સંક્રમ (પુલ) કહે છે. એવા સ્થાને નદી, નાળાં, આદિ જળાશ પર બનાવેલાં હોય છે. રાજમહેલ શબ્દ જાણીત છે. તેને સંસ્કૃત ભાષામાં પ્રાસાદ કહે છે. ભવનની ઊંચાઈ પ્રાસાદ કરતાં ઓછી હોય છે. ભવન કરતાં પ્રાસાદની ઊંચાઈ બમણી હોય છે. સામાન્ય ઘરને શરણ કહે છે. પર્વતની પાસે પથ્થરનાં જે ઘરે હોય છે તેમને લયન કહે છે. દુકાન નને હટ્ટ અથવા હાટ કહે છે. ચેતરાને વેદિકા કહે છે. દેવકુલ યક્ષાતન પક્ષના સ્થાનને કહે છે. જે સભાસ્થાનમાં ચિત્ર હોય છે, તે સભાસ્થાનને ચિત્રસભા કહે છે. જ્યાં તેને પાણી પાવામાં આવે છે તે જગ્યાને પાઊપરબ કહે છે. યજ્ઞશાળાને આયતન, તાપસના આશ્રમને આવસથ, જમીનની અંદર બનાવેલ For Private And Personal Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - % 3D प्रश्नव्याकरणले अथाऽकायहिंसाकारणान्याह-'जलं च' इत्यादि । मूलम्- जलं च मज्जणय-पाण-भोयण-वत्थ धोवणसोयमाइएहि ॥सू०१५॥ टीका-'मज्जगय मज्जनक-स्नानं 'पाण' पानं 'भोयण' भोजनं वत्थधोवण' वस्त्रधावनं वस्त्रप्रक्षालनं 'सोय' शौचम् ‘आइएहि' आदिभिः मज्जनाधनेक कारणैः 'जलं च अप्कायं हिंसन्ति ।मु०१५॥ अथाग्निकायहिंसाकारणान्याह-‘पयण' इत्यादि । ___ मूलम्-पयण-पयावण-जलण-जलावण-विदंसणेहिं अ. गणिं ॥सू०१६॥ टीका-'पयण' पचनं-स्वयं, 'पयावण' पाचनमन्यैः 'जलणं' ज्वलनंस्वहस्तेन प्रदीपनम् , 'जलावण' ज्वालनम् अन्यैः, 'विदंसण' विदर्शनं-प्रकाशकरणम् , एभिः कारणैः प्रयोजनैः 'अगणि' अग्नि हिंसन्ति ।मु०१६॥ भूमिघर या तलघर, तंबू का नाम पट्टघर, अथवा मंडप है । चांदी सोने के बने हुए वर्तनों का नाम यहां भाजन एवं मिट्टी के बने हुए वर्तनों का नाम भांड है । उदृखल (ओखली) तथा मुसल आदि को यहां उपकरण से ग्रहण किया है ।सू० १४॥ ___ अब अकाय की हिंसा करने के प्रयोजन को सूत्रकार स्पष्ट करते हैं 'जलं च मज्जण य' इत्यादि । . टीकार्थ-(मज्जणय) स्नान, (पाण ) पान, (भोयण) भोजन, (वत्थघोवण) वस्त्रप्रक्षालन, ( सोय) शौच, इत्यादि कारणों को लेकर (जलं च ) अप्काय-जलकाय की हिंसा करते हैं । सू०१५॥ अब अग्निकाय की हिंसा करने के प्रयोजन को सूत्रकार कहते ઘરને ભૂમિઘર અથવા તલઘર અને તંબૂને પટઘર અથવા મંડપ કહે છે. ચાંદી સેનામાંથી બનાવેલ વાસણને ભાજન અને માટીમાંથી બનાવેલાં વાસણોનેભાંડ કહે छे. मणियो तथा समेत माहिने मी ५४२६४थी अ७५ ४२८ छ ॥ सू.१४ ॥ હવે અપૂકાયે (જળકાય)ની હિંસા કરવાના પ્રયજનને સૂત્રકાર સ્પષ્ટ કરે "जलं च मज्जण य" त्याहि. टी -"मज्जणय" स्नान, " पाण " पान “भोयण" सासन, "वत्थधोवण" धापा, " सोया " शीय त्या आने सीधे अप्काय જળકાયની હિંસા થાય છે સૂઇ ૧પ હવે અગ્નિકાયની હિંસા કરવાના પ્રયજનોને સૂત્રકાર બતાવે છે For Private And Personal Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org खुशी टीका अ. १ सू० १७ वायुकाय हिंसाकारणनिरूपणम् अथ वायुकायहिंसाकारणान्याह - ' सुप्प ' इत्यादि । मूलम् -सुप्प-वियण-तालियंट- पेहुण- मुह करयल सग्गपत्तवत्थ एवमाइएहिं अणिलं ॥ सू० १७ ॥ टीका - 'सुप्प' शूर्पः = अन्नशोधनोपकरणविशेषः, 'छाज ' ' सूपडा ' इति भाषामसिद्धः 'वियण' व्यजनं - वंशशलाकादिनिर्मितम्, 'तालियंट' तालवृन्तं 'तापंखा' इति प्रसिद्धम्, 'पेहुणग' पेहुणकं = मयूरपिच्छकृतव्यजनं 'मुह' मुखं पणपावण ' इत्यादि । टीकार्थ - ( पयण- पयावण - जलण- जलावण- विदंसणेहिं अगणि) स्वयं भोजनपनाना, दूसरोंसे भोजन बनवाना, स्वयं अग्नि जलाना, दूसरोंसे अग्नि जलवाना, तथा दीपक जलाकर प्रकाश करना, इत्यादि प्रयोजनों को लेकर अग्निकाय की हिंसा करते हैं। सू० १६ ॥ वायुकाय की हिंसा करने के प्रयोजन को सूत्रकार कहते हैं'सुप्पवियण ' इत्यादि । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टीकार्थ - (सुप्प - वियण-तालीयंट-पेहुण-मुह-करयल सग्गपसवत्थएवमाएहि अणिलं ) सूपसे जब पछाड़ कर अन्न आदि शोधन करते हैं तथ वंशशलाका आदि से निर्मित पंखे से जब हवा की जाती है तब, तालवृक्ष के पत्ते से बने हुए पंखे से जब हवा की जाती है तब मयूर के पिच्छों से निर्मित पंखे से जब हवा की जाती है तब, मुख 66 पयणपयावण " इत्यादि. टीडअर्थ - " पयण, पयावण, जलण, जलावण, विदंसणेहि अगणि" लते लोभन બનાવવાને, બીજા પાસે ભાજન અનાવરાવવાને, પોતે અગ્નિ સળગાવવાને, અન્ય પાસે અગ્નિ સળગાવરાવવાને, તથા દીવા સળગાવીને પ્રકાશ કરવા, ઈત્યાદિ પ્રાજનાને માટે અગ્નિકાયની હિંસા કરે છે. સૂ.૧૬।। હવે વાયુકાયની હિંસા કરવાનાં પ્રયાજાને સૂત્રકાર પ્રગટ કરે છે 'सुप्प वियण "छत्याहि 66 अर्थ - "सुप्प, वियण, तालियट, पहुण, मुह, करयल सभापत्त वत्थ एवमाइएहिं अणिलं" क्यारे सूपड़ा वडे आरडीने अनाम साई शय छे त्यारे, पांसनी સળી આદિમાંથી બનાવેલા પખા વડે જ્યારે હવા ખવાય છે ત્યારે, તાડનાં પાનાંમાંથી બનાવેલ પપ્પા વડે જ્યારે પવન ન ખાય છે ત્યારે, મારનાં પીંછાંમાંથી અનાવેલ પુ'ખા વડે જ્યારે પવન નખાય છે ત્યારે, જ્યારે કોઇ નિમિત્તે મુખથી For Private And Personal Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नमाकरणसूत्र 'करयळ करतलं हस्ततलं 'सग्गपत्त' सागपत्रं-वृक्षविशेषपत्रं 'वस्थ' वस्त्रम् , 'एवमाइएहि एवमादिभिः इत्यादिमिर्वायूदीरकविद्युद्वयजनादिसाधनैः 'मणिलं' अनिलं वायुं हिंसन्ति ।मु०१७॥ - अथ वनस्पतिकायहिंसाकारणान्याह-'अंगारे'त्यादि। मूत्रम्-अगार--परियार-भक्ख-भोयण--सयणासण-फलगमुसल-उखल-तत-विततातोज-वहण-वाहण-भंडग-विविहभवणतोरण-विटंग-देवकुल-जालयद्धचंद-निज्जूहग-चंद-सालिय-वेइयणिस्से-णिदोणि-चंगेरी-खील-मंडव-सभा-पवा-ऽऽवसह-गंधमल्लाणु लेवणं-वर-जुय नंगल मेइय-कुलिय-संदणसीया रह-सगड-जाणजोग्ग-अहालग-चरिअदार-गोपुर-फलिहा-जंत-सूलिया लउडमुसंढि सयग्घी-बहुपहरणा-वरणुवक्खराण कए अण्णेहिं एवमाइएहिं बहुहि कारणसएहिं हिसंति तरुगणे भणिए अभणिए य एवमाई ॥ सू० १८ ॥ से जब किसी निमित्त फूक मारी जाती है तथ, और खुले मुंह बोलते हैं तब, जब हाथों से ताली बजाई जाती है तब, जब पत्र शाक के पत्तों को साफ करने के लिये उन्हें हाथ पर झटकारा जाता है तब, और जब वस्त्र के अंचल से हवा की जाती है तब, तथा विजली आदि के पंखों से जब हवा की जाती है तब वायुकाय के जीवों की हिंसा होती है। तात्पर्य इसका यह है कि जितने भी वायूदीरक साधन हैं उन से वायुकाय के जीवों की हिंसा होती है ॥सू-१७॥ अब वनस्पति की हिंसा करने के प्रयोजन को सूत्रकार कहते हैंકુંક મારવામાં આવે છે ત્યારે, જ્યારે ખુલ્લે મેઢે બોલવામાં આવે છે ત્યારે ત્યારે હાથ વડે તાળી વગાડવામાં આવે છે ત્યારે, જ્યારે શાકના પાનને સાફ કરવાને માટે હાથથી ઝાટકવામાં આવે છે. ત્યારે. તથા વીજળી આદિના પંખા ડે ત્યારે હવા ખાવામાં આવે છે ત્યારે વાયુકાય જેની હિંસા થાય છે. તેનું તાત્પર્ય એ છે કે હવા ખાવાનાં જેટલાં સાધને છે તેમનાથી વાયુકાય જીવોની हिंसा थाय छ. ॥२१. १७॥ હવે વનસ્પતિકાયની હિંસા કરવાના પ્રજનને સૂત્રકાર પ્રગટ કરે છે. For Private And Personal Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुशिनीटीका भ० १ सू० १८ बनस्पतिकाहिंसाकारणनिरूपणम् । टीका-'अगार' अगारं-गृहं 'परियार' परिचारः जीविकाः, खड्गादि कोशो वा 'भक्ख' भक्ष्याणि मोदकादीनि 'भोयण' भोजनानि ओदनादीनि, 'सयणासण' शयनासनानि-शयनानि-मञ्च पर्यङ्कादिशय्याः; आसनानि-भद्रासनादीनि 'फलग' ‘फलकानि-काष्ठनिर्मितवस्तुविशेषाः 'तख्ता' इति भाषा प्रसिद्धानि 'मुसलमुखलं च प्रसिद्धम् , ततानि वीणादीनि-विततानि-मुरजभेर्यादीनि, 'आतोज्ज' आतोद्यानिवाघविशेषाः, 'वहण' वहनानि-पोतनौकादीनि यानपात्राणि 'वाहण' वाइनानि-शिक्किादीनि 'भंडग' भाण्डानि गृहोपकरणानि, 'विविहभवण' विविध भवनानि सर्वतोभद्रादिभवनानि, तोरणानि द्वारशोभाकारिवन्दनमालादीनि, 'विटंग' विटङ्काः कपोतपालेयः 'छज्जा' इति भाषा प्रसिद्धाः, देवकुलानिम्यक्ष गृहाः, 'जालय' जालकानि गवाक्षविशेषाः, 'अद्धचंद' अर्धचन्द्राः अर्धचन्द्राकार'अगार-परियार-भक्ख' इत्यादि। टीकार्थ-(अगार) अगार-गृह, (परियार) परिचार-जीविका अथवा खड्गादिकोश-म्यान, (भक्ख) भक्ष्य-मोदक आदि खाने योग्य द्रव्य, (भोयण) भोजन-ओदनादि द्रव्य, (सायणासण) शयनासन-मश्च पर्यङ्क आदि शय्या, भद्रासन आदि आसन, (फलग ) फलक-काष्ठनिर्मित वस्तुविशेष-तख्ता, (मुसल) मुसल, उदूखल-ओखली (तत) तत-वीणा आदि वाघ (वितत) वितत-मुरज भेरी आदि बाजे, (आतोज) आतोय वाचविशेष, (वहण) वहन-पोत, नौका आदि यान पात्र, (वाहण) वाहण शिषिका आदि, (भंडग) भंडक-गृहके उपकरण, (विविहभवण) विविध भवन-सर्वतोभद्र आदि मकान, (तोरण) तोरण-द्वार की शोभा वर्धक वंदन-माला आदि, (विटंग) विटंक-कपोतपाली-छज्जा, ( देवकुल) देवकुल यक्षगृह, (जालय) जालकगवाक्ष-खिडकी, (अद्धचंद).अर्धचंद्राकार “ अगार, परियार-भक्ख " त्यात थ-"आगार"मा२- "परियार" परिया२-०वि मया तलवार मानि भ्यान "भक्ख” भक्ष्य-सा माहि भावा साय: द्रव्य "भोयण" भोगनमात माद्रिव्य "सयणासण" शयनासन-भाट ५' मालिशम्यान साधना, मद्रासन मा6ि आसन "फलग" ५१४-15. पाट, पटियु “मुसल" समj, Sua-ismयो "सत" तd ale या पाच "वितत" वितत-भु२०० ले। भावारी "आतोज्ज" माताध- २पाय विशेष "वहण' पठन पोत नौ31 मा पाइन-पास भी माह "भंडग" 23 गन 6५३२!, "विविहभवण" विविध मन-सपताल मा भान "तोरण" द्वा२नी शाला धारना२ नमास माह "विटंग" विट'४-७२ "देवकुल" यक्ष "जालय" -आवास पारी "निजग" भारी "अनुचंद" मयन्द्र-अधयन्द्रा७२ सोपान For Private And Personal Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रमव्याकरणसूत्रे सोपानविशेषाः, 'निज्जूहग ' नियुहकाणिद्वारो भागबहिनिर्गताः घोटकायाकाराः काष्ठविशेषाः, 'चंदसालिय' चन्द्रशालिका: प्रासादोपरितनशाला। 'वेइय' वेदिका-पाङ्गणे कृतोपवेशनस्थानम् , 'णिस्सेणि' निःश्रेणिः 'सीढी' इति प्रसिद्धा 'दोणि' द्रोणिः लघुनौका, 'चंगेरी' तृणादिनिर्मितपात्रविशेषः 'टोकरी' इति भाषा प्रसिद्धा देशीशब्दोऽयम् , 'खोल' कीला असिद्धाः, 'मंडव' मण्डपा:=पटगृहाः, द्राक्षादिमण्डपा वा; सभाः जनोपवेशनस्थानानि, 'पवा' प्रपाः पानीयशालाः, 'आवसह' आवसथा: तापसाश्रमाः 'गंध' गन्धाः गन्धद्रव्याणि, 'मल्ल' माल्यानि-कुसुमानि-माल्यं कुसुमस्रम् वा, 'अणुलेवण' अनुलेपनं चन्दनं, 'अंबर' अम्बराणि-वस्त्राणि, 'जुय' युगानि 'झूसरा' इति भाषा प्रसिद्धानि, 'नंगल' लागलानि हलानि, 'मेइय' मेतिकानि यः कृष्टक्षेत्र मृघते, 'कुलिय' कुलिकानि हलभेदाः 'संदण' स्यन्दनो स्थविशेषाः, 'सीया' शिविका:-'पालखी' इति सोपानविशेष, (निज्जूहग) निर्ग्रहक-द्वारके उर्ध्वभागमें बाहर की ओर लगे हुए घोड़ा आदि के आकार वाले काष्ठ विशेष, (चंदसालिय) चंद्रशालिका-मासाद के ऊपरकी शाला, (वेइय) वेदिका-आंगनमें बैठने के लिये बना हुआ स्थान, (गिस्सेणि) निःश्रेणी-नसेनी-सीढी, (दोणि) द्रोणी-लघुनौका-होडी, (चंगेरी) चंगेरी-शृणादिसे बना हुआ पात्र विशेष, जिसे चंगेर भी कहते हैं, ( खील) कीला, (मंडव ) मंडप-पटगृह अथवा द्राक्षादि मंडप, (सभा) सभा-मनुष्यों के बैठने का स्थान, (पवा) प्रपाप्याऊ, ( आवसह ) आवसथ-तापसाश्रम, (गंध) गंध-सुगंधि द्रव्य, (मल्ल) माल्यकुसुम आदि माला-कुसुमों की गुथी हुई पुष्पमाला, (अनुलेवणं) अनुलेपन-चंदन, अम्बर-वस्त्र, (वरयुग) युग-झूसरा-जुंवारी, (नंगल) लांगल-हल, (मेइय) मेतिक-वखर, जिससे जुता हुआ खेत વિશેષ, નિસ્પૃહક-બારણાની ઉપર બહારની બાજુએ લગાડેલ ઘેડા આદિના मा।२।। 31°४ विशेष "चंदसालिय" यशालिst-प्रासाना 6५२नी l "वेइय" वहि-idulhi मेसवा माटेना यात, "णिस्सेणि" नि:श्रेणी निसी , "दोणि" द्रोणी नानी नौ' चंगेरी" य-तृहिमाची मनापेस पात्रविशेष रेने य२ ५५ ४ छ. "खोल" भूटी "मंडव" भ७५-'यू मथ। द्राक्षाहना भ७५ "सभा" समा-भासाने सानु स्थान "पवा" ५५ ५२॥ "आवसह" मावसथ-तापसानो पाश्रम "गंध" मध-सुगधि द्रव्य "मल्लाणुलेवणं, મલ-માલ્ય કુસુમ આદિની માળા, અનુપન ચંદન, અખર વસ્ત્ર “સુ” ખૂસરા सरी “मंगल" aine " मेहय "मति: १५२ नाथी भेउमेत२ मे For Private And Personal Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिमी टीका अ० १ सू० १८ वनस्पतिकायहिंसाकारणनिरूपणम् . प्रसिद्धाः, 'रह' रथाः-प्रसिद्धाः, 'सगड' शकटानि-प्रसिद्धानि, 'जाण' यानानिशकटविशेषाः, 'जोग्ग' युग्यानि जम्पानविशेषाः, 'अट्टालग' अट्टालकाः प्राकारोपरिवर्ति स्थानविशेषाः 'चरिअ' चरिका नगरप्राकारमध्यस्थाष्टहस्तप्रमाणमागाः 'दार' द्वाराणि प्रसिद्धानि, 'गोपुर' पुरद्वाराणि, 'फलिह' परिघाः अर्गलाः 'यंता' यन्त्राणि प्रसिद्धानि 'सूलिया' शूलिकाः शूलारोपणकाष्ठानि, 'लउड' लकुटा:यष्टयः, 'मुसंदि' शस्त्रविशेषाः, 'सयग्धी' शतघ्न्यः शस्त्र विशेषाः, महाशिलासु या उपरिष्टात् पातिता सत्यः शतानि ध्नन्ति, एवं 'बहु' बहूनि अनेकानि ‘पहरण' प्रहरणानि-शस्त्राणि खगतोमरतीरादीनि 'आवरण' आवरणानि फरकाणि 'छरपला' इति प्रसिद्धानि · उवक वराण' उपस्कराणि गृहोपकरणानि, कपाटादीनि, तेषां 'कए' कृते एतदर्थे, तथा 'अण्णेहिय' अन्यैश्च, 'एवमाइएहिं' एवमादिकैः एकसा किया जाता है, (कुलिय) कूलिक-हलविशेष, स्यंदन-रथविशेष, (सीया) शिबिका-पालखी, (रह) रथ-सामन्य रथ (सगड) शकट-गाडा, (जाण) यान-वाहन विशेष, (जोग्ग) युग्य-जम्पान विशेष, (अट्टालग) अट्टालक-प्राकार के ऊपर का स्थान विशेष (चरिका ) चरिका-नगर और कोट के मध्य का आठ हाथ प्रमाण का मार्गविशेष, (दार) द्वार, (गोपुर ) गोपुर-पुरद्वार (फलिहा ) परिघा-अर्गला बेंडा, (जंत ) यंत्र, (सूलिया) शुलिका - शूलारोपण काष्ठ (लउड ) लकुट-यष्टि-छडी, (मुसंदि) मुसंढी शस्त्रविशेष, (सयग्घी) शतघ्नी-शस्त्रविशेष जिससे एक ही पारमें सौ मनुष्य मार दिस जाते हैं तथा (बहुपहरणा) अनेक प्रहरणशस्त्रखङ्ग,तोमर,तीर आदि, आवरण-छरपला,(वरणुक्खराणकए) उपस्कर -कपाट आदि गृहके उपकरण इन सबके लिये तथा (अण्णेहिं एवमाइएहिं) स२७ ४२वामा मावे छ. “कुलिय" मुसि ४ ५४२४७॥ “संदणं" २२४न मे तन! २५ “सीया" शिमिश पासणी " रह" २५ “ सगड, १४८ ॥ “जाण" यान पान विशेष “ जोग्ग " युज्य में प्राणीथी यातi पाउने। " अलग" भट्टसर दिसानी ५२नु मास प्रा२नु स्थान " चरिय" यरिश ना अटनी पथ्येने। मा डायनी पीना भाग विशेष " दार" द्वार “गोपुर " गोपुर शहनु भुज्य द्वार " फलिहा" परिघा मांगजियो " जंत" यत्र शूरा “सूलिया" शुजी या माटे ४08 “लउड" स्ट यटि ७31 " मुसंढि " भुसती विशेष “ सयग्धी” शती Adनु' शस नाथीको २४ पारभास भासो भारी शाय छ, तथा "बहुपहरणा" भने प्र२६५ श म ताम२ ता२ मा “ वरणुवक्खराणकए " આવરણ ઉપકર કપાટ આદિ ઘરમાનાં ઉપકરણો એ બધાને માટે તથા प्र-१० For Private And Personal Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नम्याकरणसूत्रे एवं प्रकारैः 'बहुहिं ' बहुभिः कारणसएहिं ' कारणशतैः-प्रयोजनशतैः 'भणिए' भणितान् उक्तान् 'अभणिए य' अभणितांश्च अनुक्तांश्च, एवमादीनुक्तप्रकारान् 'तरुगणे' तरुगगान् बनस्पतिसमूहान् हितंति' विनाशयन्ति ॥०१८ । कीदृशान् जीवान् कीदृशा हिंसकाः किमर्थं घ्नन्ति ? इत्याह-'सत्ते' इत्यादि। ___ मूलम्-सत्ते सत्तपरिवजिए उवहणंति दढमूढा दारुणमई कोहा माणा माया लोभा हासा रती अरती सोय वेदस्थ जीय धम्मत्थ कामहेऊ सवसा अवसाअट्ठाए अणहाए य तस. पाणे थावरे य हिंसंति ॥ सू० १९ ॥ टीका-'दहमूढा' दृढमूढाः सातिशयविवेकविकलाः, 'दारुणमई' दारुणमतया राशयाः जनाः, 'सत्तपरिवज्जिए' सत्त्वपरिवर्जितान् बलहीनान् और भी इनसे अतिरिक्त (बहुहिं कारणसएहिं) अनेक प्रयोजनों के लिये (भणिए अभणिए य) जो यहां पर कहे गये और जो नहीं कहे गये हैं, (एवमाई) उन सब तरुगण वनस्पति समूहकी हिंसा करते हैं। संसारी अबुधजन इन पूर्वोक्त वस्तुओं के निर्माण के लिये वृक्षों को काटते हैं। वृक्षों को काटना ही वनस्पति जीवों की हिंसा करना है। इन उपर्युक्त वस्तुओं का निर्माण वृक्षों के काष्ठ से होता है । ॥ सू० १८ ॥ .. अस स्थावर जीवों को कैसे २ भावों से युक्त होकर हिंसक जन मारते हैं सूत्रकार इस सूत्र द्वारा स्पष्ट करते है-'चत्ते सत्तपरिवजिए' इत्यादि। टीकार्थ-(ढमूला) जो सातिशय विवेक से विकल हैं-जिनके विवेक “अण्णेहिं एवमाइएहिं" ते सिवायना “ बहुहिं कारणसएहि " uflor पए अने प्रयानाने भाट “भणिए अभणिए य" माही उपाय छ । नयी ४ वायां एवमाई " ते ४५! तर वनस्पति सभूनी या हिंसा કરે છે. સંસારી અબુધ કે પૂર્વોક્ત વસ્તુઓ બનાવવાને નિમિત્તે વૃક્ષોને કાપે છે. વૃક્ષોને કાપવા એ જ વનસ્પતિ છની હિંસા છે ઉપર કહેલી વસ્તુઓ सानों ४माथी थाय छे. ॥ सू. १८॥ ત્રણ સ્થાવર ને કેવા કેવા ભાવથી યુક્ત થઈને હિંસકજન મારે છે तेनुं या सूत्रा२. सूत्र॥२ २५४४२९४ ४२ छ–“सत्ते सत्तपरिवजिए" त्या. ... -"ठमूला" २ अतिशय विवेथ विस छे. भनां वि३४३५ अनुमो For Private And Personal Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका ० १ सू० १९ कान् जीवान् किरण्यात कानति दीनान् 'सत्ते' सच्चान् = पृथिव्यादीन 'उवहणंति' उपघ्नन्ति = मारयन्ति, कस्मादि'स्याह - 'कोहा' क्रोधात्, 'माणा' मानात् 'माया' मायायाः = कपटात् 'कोभा ' लोभात् 'हासा' हास्यात् 'रह' रते = रागात् 'अरइ' अरते द्वेषान् 'सोय' शोकात् 'उपघ्नन्ति' इति सम्बन्धः । किमर्थम् ? इत्याह- 'वेयत्थजीयधम्मत्थकामहेऊ' वेदार्थजीवधर्मार्थकामहेतोः अत्र हेतुशब्दस्य प्रत्येकमभिसम्बन्धः । ' वेयत्थ ' वेदोक्तानुष्ठानं, 'जीयः' जीवः =जीवनं, ' धम्म ' धर्मः कुलजात्यादिलक्षणः, ‘अत्थ' अर्थः=घनं, 'काम' कामाः = शब्दादयः इत्येतेषां हेतोः कारणात् 'सबसा' स्ववशाः = स्वाधीनाः सन्तः, ' अवसा' अवशाः = पराधीनाः--पर निर्देशवर्तिनः, 'अट्टाए' अर्थाय = प्रयोजनाय 'अणट्टाए' अनर्थाय - अप्रयोजनाय - निरर्थकमित्यर्थः रूप चक्षुओं पर अज्ञान का पर्दा पड़ा हुआ है । और (दारुणमई) जिनके परिणाम अत्यंत क्रूर बन चुके हैं ऐसे प्राणी ( सत्तपरिवज्जिए ) बलहीन दीन ( सत्ते) पृथिव्यादिक जीवों की ( उवहणंति ) विराधना करते हैं वह विराधना किस कारण से करते है सो कहते है (कोहा, माणा, माया, लोभा, हासा, रति, अरति, सोय) क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति शोक से करते हैं । अर्थात् इन परिणामो से युक्त होकर हिंसक पृथिवी आदिक जीवों की हिंसा करते हैं । किसलिये करते है ? (वेयस्थ जीयधम्मत्थकामहेऊ) वेदार्थ, जीवन, धर्मा काम के लिये करते हैं, यहां हेतु शब्द का संबंध प्रत्येक के साथ में कर लेना चाहिये - वेदार्थ वेदोक्त अनुष्ठान के लिये, जीवन के लिये, धर्म के लिये, अर्थ-धन के लिये, काम-शब्दादिक पांचों इन्द्रियों के विषयों के लिये, इन्हीं सब कारण कलापों को लेकर (सबसो) स्वाधीन अथवा (अवसा) पराधीन होकर (अट्टाए) प्रयोजन के लिये अथवा (अणट्टाए य) - " ५२ अज्ञानन! यह पडेल छे, भने “ दारुणमई " लेमनी वृत्तियो अत्यंत रे जनी गई छे सेवा वो “ सत्तपरिवज्जिए" जसद्दीन, हीन “सत्ते" पृथ्वीजय श्यादि कवोनी “ उवहणंति ” त्या उरे छे. ते हिंसा यां यां अरे छे ते सूत्रBIR SÊ D—“ HÌET, AIOIT, #191, àtur, gien, efa, sfa, dia” ĝu, HIM, भाया, बोल, हास्य, रति, अरति शोड़ आदि वृत्तिमोथी युक्त वर्धने हिंस भव। पृथिवीय याहि लवोनी डिसा रे छे. शा भाटे तेम हरे छे ? “ वेयत्थ जीय धम्मत्थकामहेऊ" वेहार्थ, भवन, धर्मार्थ अमने माटे ते करे छे वेहार्थ - वेदोस्त धर्म डियागोने भाटे, भुवनने माटे, धर्मने भाटे, अर्थ-धनने भाटे, शुभ-यांचे इन्द्रियोना विषयने भाटे, मे मधां अश्शु समूहोंने सीधे “सवत्रा " સ્વાધીન અથવા " पराधीन इशाभां होवाथी " अट्ठाए ” પ્રચેજિનને (6 अवसा For Private And Personal Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकणसूत्रे 'तसपाणे' असप्राणान-द्वीन्द्रियादीन् जीवान् ‘थावरे य' स्थावरांश्च पृथिवीकायादीन हिंसन्ति-घ्नन्ति ।मु०१९॥ उक्तार्थमेव विशदयन्नाह–'मंदबुद्धिया' इत्यादि । मूलम्-मंदबुद्धिया सहसा हणंति, अवसा हणंति, सवसा अवसा दुहओ हणंति, अट्ठा हणंति, अणट्ठा हणांति, अट्ठा अणट्टादुहओ हणंति, हस्सा हणंति, वेरा हणंति, रती हणंति हस्सा वेरारती हणंति। कुद्धाहणंति,लुद्धा हणंति, मुद्धा हणंति, कुद्धालुद्धा मुद्धा हणंति, अत्था हणति, धम्माहणंति, कामा हर्णति, अत्था धम्मा कामा हणंति ॥ सू० २० ॥ टीका-' मंदबुद्धिया' मन्दबुद्धिका:-मिथ्यात्वोदयात्तत्वाऽतत्वविवेकरहितमतयः, 'सवसा' स्ववशास्वतन्त्राः सन्तः, स्वेच्छया 'हणंति' घ्नन्ति, 'अवसा' अवशाः पराधीनाः सन्तः प्रन्ति, 'सवसा अवसा' स्ववशा अवशा 'दुहओ' उभयतो अनर्थ-विना प्रयोजन के लिये (तसपाणे ) द्वीन्द्रियादिक त्रस प्राणियों की एवं (थावरे य) पृथिवीकोयादिक एकेन्द्रिय स्थावर प्राणियों की (हिंसति ) हिंसा करते हैं। सू० १९॥ __इसी उक्त अर्थ को विस्तार से समजाने के लिये पुनः सूत्रकार कहते हैं-' मंद बुद्धिया सवसा हणंति' इत्यादि। टीकर्थ-(मंदधुद्धिया) मिथ्यात्व के उदय से तत्व और अतत्त्व के विवेक से जिनकी बुद्धि शून्य हो रही है ऐसे प्राणी (सवसा) स्वतंत्र बनकर अपनी इच्छानुसार त्रस स्थावर जीवों की ( हणंति ) हिंसा करते हैं। इसी तरह जो प्राणी (अवसा हणंति ) नौकरी आदि के कारण पराधीन मात२ मथवा "अणढाए” बिना प्रयोरने "तसपाणे" मीन्द्रिय मा सोना भने “ थावरे य" पृथिवीय माहि मे डेन्द्रिय स्था१२ योनी " हिंसंति" डिसा ४२ छ. ॥ सू. १८॥ એ જ ઉપરોક્ત અર્થને સવિસ્તર સમજાવવાને માટે સૂત્રકાર કહે છે“मंदबुद्धिया सवसा हणंति" त्या. At-" मंदबुद्धिया" मिथ्यात्वना यथारेमनी मुद्धि तत्व सने मतत्वना विवेयी २डित 45 गई छ वा छवो “सवसा" स्वतत्र छापा छतi पy पोतानी छानुसार स स्था१२ वानी " हणंति" हिंसा ४२ छ. यो । प्रभार से भारत “ अवसा हति" नारी पोरेने ॥२२ पराधीन छ तेरा For Private And Personal Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० १ सू० २० मंदबुद्धिया कान२ जीवान् जन्ति ७७ शान्ति, अर्था, अनर्थाय तदुभयतो नन्ति । हास्यात् वैरात् रतेन न्ति, हास्यवैररतिभ्यो नन्ति । किंभूताः सन्तो नन्ती ? त्याह 'क्रुद्धा इत्यादि । 'कुद्धा' क्रुद्धाः = क्रोधयुक्ताः, 'लुद्वाः' लुब्धा विषयगृद्धाः | 'मुद्रा' मुग्धाः = मोहवशाः नन्ति । है - वे भी इन त्रस स्थावर जीवों की हिंसा करते हैं । ( सवसा अवसा दुहओ हति ) तथा स्वतंत्र और परतंत्र दोनों प्रकार से होकर भी इन जीवों की हिंसा करते हैं । तथा ( अट्ठा हणंति ) ये जीव जीवों की हिंसा प्रयोजन से करते हैं और (अणट्टा हति) अनर्थ - बिना प्रयोजन के निरर्थक भी करते हैं (अट्ठा अणट्टा दुहओ हणंति ) कोई २ ऐसे भी जीव हैं। जो कुछ जीवों की हिंसा अपने स्वार्थ से करते हैं । और fears जीवों की हिंसा स्वार्थ न भी हो तो भी करते हैं। (हस्सा हति) संसार में ऐसे भी हिंसक जीव हैं जो जीवों की हिंसा हास्य के कारण ही कर डालते हैं, (वेरा हणंति ) कितनेक ऐसे भी हैं जो जीवों की हिंसा वैर के निमित्त को लेकर करते हैं । ( रई हणंति ) कितनेक ऐसे भी हैं जो रति-आमोद प्रमोदके निमित्त को लेकर जीवों की हिंसा करते हैं। (हस्सा वेरा रति हणंति ) कितनेक जीव ऐसे भी हैं जो एक ही साथ हास्य वैर और रति-आमोद प्रमोद के निमित्त को लेकर जीवों की हिंसा करते हैं। वे कैसे होकर हिंसा करते हैं- ( कुद्धाहति) कितनेक जीव ऐसे भी हैं जो क्रोधी होकर जीवों की हिंसा सवसा अवसा दुहओ हणंति "" " પણ એ ત્રસ સ્થાવર જીવાની હિંસા કરે છે, તથા સ્વતંત્ર અને પરતંત્ર, અન્ને પ્રકારથી યુક્ત થઇને પણ જીવાની હિંસા કરે छे तथा " अट्ठाहति” ते कवोनी हिंसा तेथे अर्थ सारे छे भने “ अणाहणंति ” अनर्थ - २५अर-निश्रेछे. " अट्ठा अणट्ठा दुहओ हणंति" अर्ध सेवा पशु को होय छे ! भेगो डेंटलाई भयोनी डिसा पोताना સ્વાર્થને કારણે કરે છે અને કેટલાક જીવોની હિંસા સ્વાર્થ ન હાવા છતાં પણ २ छे. “हस्सा हणंति ” संसारमा सेवा उटलाई हिंसा वा पशु छे मेयो लवोनी हिंसा हास्य- मानहने भातर ४ २ छे. " वेरा हणंति " - લાક એવા પણ જવા છે કે જે જીવાની હિંસા વેરને નિમિત્તે કરે છે, “ हणंति” डेंटला मेवा पशु को छे ने रतिमाह प्रभोदने भातर वोनी डिसा रे छे "हस्सा वेरा रती हणंति " डेंटला लवो सेवा पशु छे से भेयो એક સાથે હાસ્ય, વેર અને રતિ-આમેાદ પ્રમેાદને નિમિત્તે જીવાની હિંસા કરે छे, तेथे देवी वृत्तिथी बोनी हिंसा रे छे ? " कुद्धा इणंति " डेटा ली For Private And Personal Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ७८ प्रश्न याकरणसूत्रे एवं ' कुद्धा लुद्रा मुद्धा' क्रुद्धाः लुब्धाः मुग्धाः - क्रोध लोभमोहवन्तः घ्नन्ति । 'अत्था' अर्थाः =धनार्थिनः, 'धम्मा' धर्माधर्मार्थिनः - जाति कुलधर्माभिमानवन्तः 'कामा' कामाः = कामार्थिनो घ्नन्ति । एवं 'अत्था धम्मा कामा' अर्थ धर्मकामार्थिनो घ्नन्ति ॥०२० ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir करते हैं, (लुद्धा हणंति ) कितनेक ऐसे हैं जो केवल लोभ के वशवर्ती होकर जीवों की हिंसा करते हैं, और ( मुद्धा हणंति ) कितनेक ऐसे भी हैं जो केवल मोहाधीन वृत्ति होकर जीवों की हिंसा करते हैं । ( कुद्धा लुद्धा मुद्धा हति) कितनेक ऐसे भी हैं जो क्रोध, लोभ, मोह इन तीनों के वशवर्ती बनकर जीवों की हिंसा करते हैं । ( अत्था हर्णति ) कितने क ऐसे भी जीव हैं जो केवल धन के अर्थी होकर ही जीवों की हिंसा करते हैं, (धम्मा हति) कितनेक ऐसे भी हैं जो धर्मार्थी जाति धर्म और कुलधर्म के अभिमानी होकर जीवों की हिंसा करते हैं । (कामा हति कितनेक ऐसे भी हैं जो कामार्थी इन्द्रियों के विषयों को भोगने की लालसा के वशवर्ती होकर जीवों की हिंसा करते हैं और (अस्था धम्मा कामा हति ) कितनेक ऐसे भी हैं जो अर्थ, धर्म और काम, इन तीनों के वशवर्ती होकर जीवों को हिंसा करते हैं। भावार्थ — इस सूत्र द्वारा सूत्रकार ने हिंसा करने की विचारधारा वाले जीवों को कहा है, वे कहते है कि कितनेक जीव ऐसे भी हुआ ," ओोधभां भावीने धोनी डिसा रे छे. "लुद्धा हणंति " ऐटसाङ ठेवण बोलने वश थाने लवोनी हिंसा उरे छे, " मुद्धा हणंति ” डेटलाई सेवा पशु बोअ હાય છે કે જે કેવળ મેાહાધીન થઈને જીવોની હિંસા કરે છે. ૮ कुद्धा लुद्धा मुद्धा हणंति " उटसा बोओ सेवा पण छे ! रेमो डोध, बोल, भोह मे ત્રણને વશ થઈને જીવાની હિંસા કરે છે. 'अत्था हणंति ” डेंटलाई सेवा पशु वो छेडे ने धनने भाटे ४ भवानी हिंसा अरे छे. " धम्मा हणंति " डेटલાક એવા પણ છવા છે કે જે ધર્માર્થ-જાતિધર્મ અને કુળધમ ના અભિમાનને કારણે જીવાની હિંસા કરે છે. कामा हणंति" डेंटला मेवा पशु वो होय છે કે જે કામાર્થે ઇન્દ્રિયાની વિષય લાલસાને વશ થઇને જીવાની હિંસા કરે छे, भने “ अत्था धम्माकामा हति ” डेंटला सेवा पशु भवो डाय छे से જે અર્થ, ધર્મ અને કામ, એ ત્રણને વશ થઈને જીવાની હિંસા કરે છે. ભાવાર્થ—આ સૂત્રમાં સૂત્રકારે હિંસા કરવાની વિચારધારાવાળા જીવે ખતાવ્યા છે. તેઓ કહે છે કે કેટલાક જીવા એવા પણ હોય છે કે જે સ્વાધીન " For Private And Personal Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - सुदर्शिनी टीका अ० १ सू० २० मंदबुद्धिमा कान्र जीवान् अस्ति ७९ अथ यद्यपि-उद्देशक्रमानुसारेण 'जारिसं फलं देह' इति चतुथै फलद्वारं पूर्व वक्तव्यं, तथापि फलस्य कधीनत्वेन कतः प्राधान्यात् , अल्पवक्तव्यत्वेन सूचीकटाहन्यायाच पूर्व 'जेविय करेंति पावा पाणवई' इति प्रथमप्राणवधद्वारस्य करते हैं जो स्वाधीन होने पर हिंसा कर्म में रत हो जाते हैं। कितनेक जीव ऐसे भी होते हैं कि जो हिंसक जीवों की संगति आदि के पराधिन होकर हिंसा करने लग जाते हैं। बहुत से ऐसे भी प्राणी है जो अपने लिये हिंसा करते है और बहुत से जीव ऐसे भी होते हैं कि उठते बैठते चलते फिरते विना किसी प्रयोजन के भी जीवों की हिंसा करते हैं। बहुत से जीव ऐसे भी हैं कि वे चाहे स्वतंत्र रहे या परतंत्र रहे किसी भी स्थिति में रहें पर फिर भी हिंसा करने से नहीं चूकते हैं । कोई जीव किसी दूसरे जीव को वैर के कारण मार डालते हैं, कोई अपनी हँसी करने के कारण मार डालते हैं । और कोई २ ऐसे भी प्राणी हैं जो रति के कारण-चित्त खुशी में रहने के कारण-जीवों की हिंसा-शिकार करते हैं । इत्यादि और भी इसी तरह के कारण सूत्रकार ने इस मूत्र दारा प्रकट किये हैं जो ऊपर अर्थ में कहदिये हैं। इनके सिवाय दूसरे कारणों से भी हिंसा करते हैं । सू०२०॥ अब सूत्रकार यह प्रकट करते हैं कि उद्देशक्रम के अनुसार यद्यपि "जारिसं फलं देइ " यह चतुर्थ फलद्वार पहिले कहना चाहिये था तो હોવા છતાં પણ હિંસા કર્મમાં લીન રહે છે. કેટલાક જ એવા પણ હોય છે કે જે હિંસક જીની સંગતિ આદિ વડે પરાધીન હોવાને કારણે હિંસા કરવા લાગે છે. કેટલાક એવા પણ જીવે છે કે જે સ્વાર્થ ખાતર હિંસા કરે छ, भने egl O ! ५९ सय छ रे Ssdi, मेसतi, sledi, यासतi, કેઈપણ પ્રયજન વિના જીવેની હિંસા કરે છે. ઘણા છે એવા પણ હોય છે કે તેઓ સ્વતંત્ર હોય કે પરતંત્ર હોય. કેઈપણ સ્થિતિમાં હોવા છતાં પણ હિંસા કરતા અટક્તા નથી. કોઈ જીવ બીજા ને વેરને કારણે મારી નાખે છે, કોઈ હસી-મજાકને ખાતર મારી નાખે છે, અને કઈ કઈ છે એવા પણ હોય છે કે જે રતિને કારણે-મનના આનંદને ખાતર જેની હિંસા (શિકાર) કરે છે. ઈત્યાદિ બીજા પણ એ જ પ્રકારનાં કારણે સૂત્રકારે આ સૂત્ર દ્વારા પ્રગટ કર્યા છે, જે ઉપર બતાવી દેવામાં આવ્યાં છે. તે સિવાય બીજાં यी ५ तेथे CAR ४२ छे. ॥ सू. २० ।। वे सूत्रा२ मे २५ष्ट रेछ देशोना भ प्रभावले 'जारिखं. For Private And Personal Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir % प्रश्नण्याकरणसूत्रे पश्चममुपद्वारमाह-'कयरेते' इत्यादि । मूलम्-कयरे ते ? जे ते सोयरिया मच्छबंधा साउणिय वाहा कूरकम्मा वाउरिया दीविय-बंधणप्पओग-तप्पगल-जाल-वीरल गायसदब्भ-वग्गुरा-कूडछलियाहत्था हरिएसा उणिया यविदंस. गपासहत्था वणचरगा लुद्धगा महुघाया पोयघाया एणीयारा पएणीयारा सरदह-दीहिय-तलाग-पल्लग-परिगालण-मलण सोतबंधण सलिलासय सोसगा विसगरस्स य दायगा उत्तणवल्लरदवग्गिणिदयपलीवका कूरकम्मकारी ॥ सू० २१ ॥ टीका-'कयरे ते' कतरे ते प्राणवधकर्तारः ? इति प्रश्ने सत्युत्तरमाह-'सोयरिया' इत्यादि-'जे ते' ये ते 'सोयरिया' सौकरिकाः सूकरघातकाः 'मच्छबंधा' मत्स्यबन्धाः मत्स्यघातका धीवरा इत्यर्थः, 'साउणिया' शाकुनिकाः पक्षिवधोपजीविनः, भी फलद्वार न कह कर जो प्रथमप्राणवध द्वार का पंचम उपद्वार कहा जा रहा है उसका कारण यह है कि फल, कर्ता के आधीन होने से पहिले कर्त्ता की प्रधानता रहती है, दूसरे कर्ता के विषय में वक्तव्य भी अल्प है तो सूची कटाहन्याय से पहिले " स वि य करेंति पावा पाणावहं " इस प्रथमप्राणवध द्वार का यह पंचम उपद्वार ही कहा जा रहा है 'कयरे ते' इत्यादि। टीकार्थ-प्रश्न (कयरे ते) प्राणवध करनेवाले वे कौन २ से प्राणी हैं ? उत्तर-(जे ते ) वे ये २ हैं-(सोयरिया, मच्छबंधा, साउणिया वाहाकूर कम्मा वाउरिया ) ( सोयरिया) सौकारिक-सुअर की शिकार करने फलं देह " से याथु ३० बार पडे उ तुं तु, छतi ५५ ५६ द्वारर्नु વર્ણન ન કરતાં પહેલાં પ્રાણવધદ્વારનું પાંચમું ઉપદ્વાર વર્ણવવામાં આવ્યું છે, તેનું કારણ એ છે કે ફળ, કત્તને અધીન હોવાથી પહેલાં કર્તાની પ્રધાનતા રહે છે અને બીજું કારણ એ છે કે કર્તાની બાબતમાં વક્તવ્ય-કહેવાનું પણ था छ, तेथी सूची ४ाडन्याये पडे " जे विय करेंति पावा पाणवहं " 24! પ્રથમ પ્રાણવધ દ્વારનું આ પાંચમું ઉપદ્વાર જ વર્ણવવામાં આવી રહ્યું છે "कयरे ते" त्याहि. At-4-" कयरे ते ? " प्रा१५ ४२॥२ ते ४यां प्राणीयो छ ? S२-"जे ते" तेसो नीचे प्रमाले छे-"सोयरिया, मच्छबंधा साउणिया वाहा For Private And Personal Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदशिनी टीका अ० १ सू० २१ मन्दबुद्धिया कान्२ जीवान् नन्ति ? १ 'वाहा' व्याधाः मृगघातकाः, 'कूरकम्मा ' क्रूरकर्माणः - दुष्टकर्मकारिणः, 'वाउरिया' वागुरिकाबागुरा-मृगबन्धनं तया चरन्ति ये ते वागुरिका:जालेन मृगवन्धकाः, 'दीविय-बंधणप्पभोग-तप्पगलजाल-चीरल्लगायसदन्भ वग्गुरा-कूड छलिया हत्या' द्वीपिक बन्धनप्रयोगतत्प्रगलजाल-चीरलगायसीदर्भवागुरा कूटछेलिकाहस्ताः-दीविय' द्वीपिका-व्याधस्य कृत्रिमा हरिणी या मृगाकपणार्थ स्थाप्यते 'बंधणपओग' बन्धनप्रयोगः मृगादि बन्धनोपकरणं, 'तप्प तप्तः मत्स्यग्रहणीलघुनौका, 'गलं बडिश मत्स्यवेधन कण्टक इत्यर्थः, 'जालं' प्रसिद्धं, वाले मनुष्य, (मच्छयंधा ) मत्स्यवंध-मछलियों को मारने वाले धीवर (साउणिया) शाकुनिक-पक्षियोंकी शिकार करने वाले चीड़ीमार, (वाहा ) व्याध-मृग की शिकार करने वाले वहेलियाजन, (कूरकम्मा) क्रूर कर्मा-दुष्टकर्म करने वाले मनुष्य, (बाउरिया) वागरिका-जाल से मृग को बांधने वाले वाघरी लोग, (दीविय-बंधणप्पओगताप-गल-जोल चीरल्लगा यस दन्भ-वग्गुरा-कूडछलिया हत्था ) द्वीपिका-व्याध द्वारा मृगों को लुभाने के लिये बनाई गई कृत्रिम हरिणी, बंधन प्रयोगमृगादि जीवों को बांधने के उपकरण, तप्र मछली पकड़कर जिसमें धीवर रखते जाते हैं ऐसी टोकरी, अथवा मछली जिस पर बैठकर पकड़ी जाती है ऐसी लघु नौका, गल-बडिश, बंशी जिसके अग्रभाग में आटा या जीव का कलेवर आदि लगाकर मच्छीमार उसे पानी में डाल देते हैं मछली जैसे ही उसे खोती है तो उसका वह नुकीला अग्रभाग उसके कंठ में विध जाता है, यस मच्छीमार फिर डोरे से बंधी कूरकम्मावाउरिया” “सोयरिया"सौ४२ि४- सुपरनो शि६।२ ४२॥२॥ मनुष्या, “मच्छबंधा" भत्त्या-भाछवियाने भा२ना२ भाछीमारी, " साउणिया " शनि-पक्षी-मोने शि:४२ ४२॥२ पा२धियो “वाहा ” व्याघ-मृगना शि२ ४२॥२ शिरोमो, "कूरकम्मा" २४ा-दुष्ट ४ ४२॥२॥ मनुष्यो, “वाउरिया " पाशु!ि--- otni भृगने सावना पारी , “ दीविय, बंधणप्पओगे तप्प, डाल, जाल, चीरल्लगा-यस, दम' वग्गुरी, कूडछलिया हत्था” दीपि-च्या द्वारा મૃગેને લલચાવવાને માટે બનાવેલી કૃત્રિમ હરિણી, બંધનપ્રયોગ-મુગાદિ જીને બાંધવાના સાધન, તપ્ર-મછલીને પકડીને માછીમાર જેમાં મૂકે છે તે ટેપલી, અથવા જેમાં બેસીને માછલાં પકડવામાં આવે છે તે નાની નૌકા, ગલ-બડિશ, બંશી-જેના અગ્રભાગ પર લટની કણેક કે અળસિયાં આદિ જીનાં કલેવર લગાડીને માછીમાર તેને પાણીમાં નાખે છે, માછલી જેવું તે ખાવા જાય છે. કે તરત જ તેને અણીદાર અગ્રભાગ તેના કંઠમાં પરોવાઈ જાય છે. प्र० ११ For Private And Personal Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir মগাব্দ 'चीरल्लग' चीरलका-श्येनाभिधो हिंसकपक्षिविशेषः-योऽन्यपक्षिवधार्थ पाल्यते, 'आयसः' लोहनिर्मितबन्धनविशेषः, 'दम' दर्भ-दर्भमयबन्धनविशेषः, 'वग्गुरा' वागुरा-पाशः, कूटछेलिका-कूटाजा, सिंहादि प्रलोभनाथं चित्रलेप्यादिमयी छगलिका एते हस्ते येषां ते तथाभूताः । 'हरिएसा' हरिकेशाः मातङ्गाश्चाण्डला इत्यर्थः, 'उणिया य' कुणिकाश्च तत्सेवकाः 'वीदंसगपासहत्था' वीतंसकपाशहस्ताः बीतंसका मृगपक्षिवन्धनसाधनानि, पाशाच, ते हस्ते येषां ते वीतंसकपाशहस्ताः, 'वणचरगा' वनचरकाः किराताः, 'लुद्धगा' लुब्धका व्याधाः, 'महुघाया' हुई इस वंशी को तान लेते हैं, विधी हुई मछली इसी के साथ बाहर निकल आती है और मच्छीमार इसे पकड़ लेते हैं। जाल-मछली आदि पकड़ने की एक प्रकार की जाल, चीरल्लक-हिंसकपक्षिविशेष यह पक्षी अन्य पक्षियों को मारने के लिये शिकारियों द्वारा पाला जाता है, आयस लोह का बना हुआ बंधन विशेष, दर्भ-दर्भमय बंधन विशेष, वागुरापाश, कूट छलिका-बनावटी बकरी जो सिंहादि जानवरो को लुभाने के लिये बनाकर रखी जाती है, ये सब जिनके हाथों में हैं ऐसे प्राणी । इस सब प्राणीवध के कर्ता जानना चाहिये । तथा (हरिएसा ) हरिकेश-चाण्डाल, (उणिया) कुणिक-चाण्डाल के सेवकजन, (वीदंगपासहत्था ) वीतंसक-मृग एवं पक्षियों के बांधने का साधन और पाश जिनके हाथ में हैं ऐसे (वणचरगा ) किरात । ये भी प्राणवध के करने वाले माने गये हैं। (लुद्धगा)) लुब्धक-व्याध, (महुघाया) मधुघातकત્યાબાદ માછીમાર દોરીથી બાંધેલી તે જાળને ખેંચી લે છે, તેમાં એંટી ગયેલી માછલીઓ તેની સાથે જ બહાર નીકળી આવે છે અને માછીમાર તેને પકડી छ. om-मास माह ५४वानी मे ४२नी , चीरल्लकહિંસક પક્ષીનું નામ, તે પક્ષી બીજા પક્ષીઓને મારવાને માટે શિકારીઓ વડે पाय छे. आयस-सोढानुं मनायतुं मे तनुं धन, "दम" मनु मे सततुं सधन, वागुरा-पाश, कूटछलिका-नसी ५४२१२ सिंह माहि जनवरीने લલચાવવા માટે બનાવીને રાખવામાં આવે છે, એ સઘળી ચીજો જેમના साथमा छे ते सपणा प्राप५ ४२५॥२॥ डाय छ. तथा " हरिएमा" शि -यां, “उणिया" मुगि-यांना सेवा, “वींदसगपासहत्या " વીતંસક-મૃગ અને પક્ષીઓને બાંધવાનું એક સાધન અને પાશ જેના डायमा छ । “वणचरगा" शित वगैरे प्रावध ४२॥२॥ मनाय छे. "लुदगा" ५५४-व्याध, “महुघाया ” मधु घात-भय देवाने भाटेरे For Private And Personal Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० १ सू० २१ मन्दबुद्धिया कानूर जीवान् धनन्ति ? ૮૩ मधुघाता:= 'मधु' ग्रहणेन तन्मक्षिका घातकाः 'पोयधाया' पोतयाता = पक्षिशिशुहिंसकाः 'एणीयारा' एणीचारा - एणीं हरिणीं चारयन्ति = पालयन्ति अन्यान् मृगान् गृहीतुं ये ते एणीचाराः, 'पएणीयारा' मैणीचाराश्व व्याधविशेषा एव । 'सरदहदी हियतला गपल्ललपरिगालणमलणसोत्तबंधणसलिलासयसोसगा ' सरोद्रह दीर्घिका तडाग पल्वल परिगालन मलन स्रोतोबन्धन सलिलाशयशोषकाः, तत्र - सरः=सामान्यजलाशयः, इदः = अगाधजलाशयः, दीर्घिका=वापी, तडागः = प्रसिद्धः, पल्वलं = अल्पसरः, एतेषां परिगालनेन = मत्स्यादि ग्रहणाय जलनिस्सारणेन, मलनेन मन्थनेन, स्रोतोबन्धनेन - जलमवाहनिरोधेन च 'सलिलाशयान् जलाशयान् शोषयन्ति ये ते तथाभूताः, विसगरस्सय विपगरस्य च विप=प्रसिद्धं, गरः = संयोगजनितं विपं, तयोः समाहारे तस्य 'दायगा' दायकाः जीवोपघातार्थं विष मधु - शहद को लेने के लिये जो मधुमक्खियों का घात कर देते हैं वे, ( पोयघाया) पोतघातक पक्षियों के बच्चों को मारने वाले, तथा (एणीयारा) जो मृगों को पकड़ने के अभिप्राय से मृगी - हरिणी को पालते हैं वे, तथा (पणीयारा ) जो प्रैणीचार - व्याधविशेष होते हैं वे, तथा(सर- दह - दीहिय-तलाग-पहल- परिगालण-मलण-सोत्तबंधण सलिलासयसोसगा ) जो सर सामान्य जलाशय, द्रह अगाधजलाशय, दीर्घिका - वापी, तडाग, पल्वल - छोटाजलाशय, इनके जल को मत्स्यादि ग्रहण करने के अभिप्राय से जो निकाल देते हैं, तथा इनके जल का जो मन्धन- विलोडन करते हैं, अथवा इनमें जिन स्रोतों से जल आता हैं उन्हें बंद कर देते हैं, इस तरह से जो सलिलाशयों को सुखा देते हैं वे, तथा (विसगरस य दायगा ) विष - हलाहल जहर, गर-संयोग जनित 66 भधभाभीयोनी डिसा रे छे ते, " पोयवाया " पोत घात - पक्षीमोनां मभ्याने મારનારા તથા एणीयारा " ने भृगोने पम्डवाने भाटे भृणी-हुरिलीने पाणे છે તે લેાકા, તથા ،، पइणीयारा " ने पैलीयार ! प्रारना व्याध - होय छे ते, तथा "सर, दह, दीहिय, तलाग, पल्लल, परिगालण, मलण, सोतबंधण, सलिलासयसोसगा " ने सर-सामान्य नजाशय हृद - अशाध भणाशय, दीर्घिका - बाबू, तझाव, पल्वल - नानुं नाशय, वगेरेना पालीने भाछसां वगेरे भड કરવાના હેતુથી બહાર કાઢી નાખે છે. તથા તેના જળનું ને મન્થન કરે છે. અથવા તેમાં જે સ્ત્રોતો દ્વારા પાણી આવતું હોય તે સ્રોતાને બધ કરી દે છે. या रीते ? सोओ भाशयाने सूक्ष्वी नाचे छे.ते बोओ तथा " विसगरस्स य दायगा " विष-हजाइज ओर, गर-संयोग-नित विष आदिलवाने भारी For Private And Personal Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याफरणसूत्रे प्रयोगकर्तार इत्यर्थः । 'उत्तणवल्लरदवग्गिणिदयपलीवगा' उत्तृणवल्लरदवाग्निनिर्दयप्रदीपकाः-उत्तृणानांवर्धिततृणानां वनानां, वल्लराणां गहनवनानामरण्यक्षेत्राणां वा, दवाग्निना-दावानलेन निर्दयं दयारहितं यथास्यात्तथा प्रदीपकाः प्रज्वालकाः, 'कूरकम्मकारी' क्रूरकर्मकारिणा कठोरकर्मकर्तारः घातकाः घ्नन्ति= प्राणवधं कुर्वन्तीति पूर्वेग सम्बन्धः ॥०२१॥ तानेव जातिनिर्देशपूर्वकं वर्णयति-'इमेय बहवे' इत्यादि । मूलम्-इमेय बहवे मिलक्खुजाईया, के ते ?, सक-जवणसबर-बब्बर-काय-मरुंडो-द-भडग-तित्तिय पकणिय-कुलक्ख-गोडसिंहल-पारस-कोचंध-दविल-विल्लल पुलिंद-अरोस-डोंव-पकण-गंध हारग-बहलिय-जल्ल-रोम-मास-बउस मलया-चुचुया-य चूलियगकोंकणग-कणग-लेय-मेया-पण्हव-मालव-महुर-आभासिय-अणक्ख चीण-लासिय-खस-खासिया-नेहुर-मरहट्र-मुट्ठिअ-आरब-डोबिलग कुहण-केकय-गुण-रोमग-रुरु-मस्या-चिलायविसयवासी य पावमइणो ॥ सू० २२ ॥ ___टीका-'इमेय' इमे च-अनुपदं वक्ष्यमाणाः 'वहवे' बहवः 'मिलक्खुजाईया' म्लेच्छजातीयाः अनार्याः सन्ति । 'किं ते?' के ते ? इत्याह- सके ' त्यादि। विष, इन्हें जो जीवों को मारने के अभिप्राय देते है वे, तथा ( उत्तणवल्लर-दवग्गि-णिय-पलीवगा ) जो निर्दय होकर उत्तणों को-वर्धिततृणवाले वनों को वल्लरों को गहनवनों को अथवा अरण्य के खेतों को दावानल से जला देते हैं वे सब (कूरकम्मकारी) क्रूरकर्मकारी माने गये हैं और ऐसे प्राणी ही प्राणवध के करनेवाले होते हैं ।सू०२१॥ सूत्रकार इन्हीं प्राणियों को जाति निर्देश पूर्वक वर्णन करते हैंनामवाने माटोमा भने अपरावे छे तमो तथा · उत्तण-बल्लर, दवग्गि, णिय पलीवगा" को निय ने उत्तशाने पधित तृणु पनाने, १६દેિને,–ગહન વનેને, અથવા વનનાં ક્ષેત્રને દાવાનળ લગાડીને સળગાવે છે તે मधाने "कूरकम्मकारी" २४ ४२२भानपामा मा छ भने ते वो પ્રાણવધ કરનાર છેસૂ. ૨૧ सत्र प्रामोनु तिना निश सहित वन ४२ छ “ इमेय For Private And Personal Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदशिनीटीका अ.१सू.२२ जातिनिर्देशपूर्वकम् मंदबुखिया कान्२ जीवान् नन्ति? ८५ 'सम' शका! शकदेशोत्पन्नाः, 'जवण' यवना: मसिद्धाः, 'सवर' शबरा:-शवरदेशोत्पन्नाः भिल्लाः 'बब्बर' बर्वराःबर्बरोऽनादेशविशेषस्तत्र भवा बर्बराः 'काय' कायाः कायदेशविशेषोद्भवाः मरुंड ' मुरुण्डाः=मुरुण्डदेशीयाः, 'उदाः ' अना यविशेषाः ' भडग' भटका:=भटकदेशवासिनः 'तित्तिय ' तित्तिकाः तित्तिकदेशजाताः, 'पक्कणिय' पक्कणिकाः तद्देशजाताः, 'कुलक्ख' कुलक्षाः अनार्यदेशोद्भवाः, 'गोड' गौडा गौड़देशोत्पन्नाः, 'सिंहल' सिंहला सिंहलद्वीपोत्पन्नाः, 'पारस' पारसा: पारसदेशजाताः, 'कोच' क्रौश्चा:-क्रौञ्चदेशोद्भवाः, अंध' आन्ध्राः अन्ध्रदेशोत्सन्नाः, 'दविल' द्राविडा-द्रविडदेशजाताः, 'बिल्लल' विल्वलाः 'इमे य बहवे मिलक्खुजाईया' इत्यादि । टीकार्थ-(इमे य) अनुपद वक्ष्यमाण ये (बहवे) बहुत से (मिलक्खु जाईया) म्लेच्छ-जातीय-अनार्य हैं । (किंते?) वे कौन २ हैं उत्तर-(सक) शक-शक देशवासी, (जवण) यवन-प्रसिद्ध है, ( सबर) शबर-शबर देशोत्पन्न भील, (बब्बर) बब्बर-बर्बर नाम के अनार्यदेश में उत्पन्न हुए मनुष्य, (काय) काय-इस नाम के देश विशेष में जन्मे मनुष्य, (मुरुंड) मुरुण्ड-मुरुण्डदेश में पैदा हुए मनुष्य, (उद) उद-इस जाति के अनार्य मनुष्य, (भडग) भटक-भटक देशनिवासी मनुष्य, (तित्तिय) तित्तिय-तित्तिक देश के मनुष्य, (पक्कणिय) पक्कणिकदेश के मनुष्य, (कुलक्ख) कुलक्ख-कुलक्षनाम के अनार्य देश में उत्पन्न हुए मनुष्य, (गोड़) गौड-इस जाति के मनुष्य, (सिंहल) सिंहल-सिंहल द्वीप में उत्पन्न हुए मनुष्य, (पारस) पारस-पारस देश में उत्पन्न हुए बहवे मिलक्खुजाईया " त्या. 21312-"इमेय" नीय प्रभावनी " बहवे" [५] "मिलक्खु जाईया" २७ नात!-मनाय छे. " किं ते ?" ते मनायति यी यी छ ? उत्त२-"सक" २४-२४३शना २७वासी “जवण" यवन, “सबर" शर -२५२३शना वतनी लास, "बब्बर" १२ नाम अनाय देशना पतनायो, "काय" से नामना देशमा मेसा मनुष्य, “मुरुंड" भुरु-शिमा मेसा खी, "उद" मे तिन मनाय सो, “ भडग" लट४ देशना २२वासी, "तित्तिय" तिति देशना वतनी, “पक्कणिक" ५४नि देशना दी, "कुलक्ख" सुलक्ष नामना मनाय देशना सो, “गोड" गोड जतिना alt, “ सिंहल" सिंडस-सिंsalyanent, 'पारस" ५।२४-१२स (UPI)मा मेसा हो, - - For Private And Personal Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नण्याकरणसूत्रे बिल्वलदेशोद्भवाः, 'पुलिंद ' पुलिन्दा:-पुलिन्ददेशोत्पन्नाः, 'अरोस' अरोषाः= अरोषदेशजाः, 'डोब' डोंबा: डोम्बदेशोद्भवाः, 'पोकण ' पोकणाः पोक्कणदेशभवाः, 'गंधहारग' गन्धहारकाः गन्धारदेशजाताः, 'बहलिय' बहलिकाः बहळीदेशोद्भवाः, जल्ला:-रोमाः मासाः 'बउस' बकुशाः मलयाः 'चुंचुया य' चुञ्चुकाश्च, 'चूलियग' चूलिकाः 'कोंकणग' कोकणकाः 'कगग' कनकाः 'सेय' सयाः 'मेया ' मेदाः, 'पण्हव' पवाः, 'मालव' मालवाः 'महुरा' मधुराः, 'आमासिय' आभाषिकाः, 'अणक्ख' अनक्षाः 'वीण' चीनाः 'लासिय' लासिकाः खसाः 'खासिय' खासिकाः 'नेछुर' निष्ठुराः 'मरहट्ट' महाराष्ट्राः 'मुट्ठिअ' मौष्टिकाः, 'भारवाः ' 'डोविलग' 'डोविलकाः, कुहणाः केकयाः, हणाः, 'रोमग' 'रोमकाः 'रुरु' रुरवः ' मरुया' मरुकाः, 'जल्लाः' इत्यारभ्य मरुकपर्यन्ताः, एतेऽपि तत्तन्नामक म्लेच्छदेशविशेषोद्भवाः, 'चिलाय मनुष्य, (कोच) क्रौच-क्रौंच देशमें उत्पन्न हुए मनुष्य, (अंध) आंध्रआंध्रदेश में उत्पन्न हुए मनुष्य, (दविल) द्राविड-द्राविडदेश में उत्पन्न हुए मनुष्य, (विल्लल) बिल्वल-इस नाम के देशमें उत्पन्न हुए मनुष्य, (पुलिंद) पुलिंद-पुलिंददेश में उत्पन्न हुए मनुष्य, (अरोस) अरोषअरोषदेशज (डोंब) डॉव-डोम्ब देशोद्भव मनुष्य, (पोक्कण) पोकण-पोकण नाम के देश में उत्पन्न हुए मनुष्य, (गंध) गन्धहारक-गन्धार देश में उत्पन्न हुए मनुष्य, (बहलिय) बहलिय-बहली नाम के देश में उत्पन्न हुए मनुष्य, इसी तरह (जल्ल) रोम, मास, बकुश, मलय, चुरचुक, लिक, कोंकणक, कनक, सेय, मेद, पह्नव, मालव, मधुर, आभिषक, अनक्ष, चीन, लासिक,खस, खासिक, निष्ठुर, महाराष्ट्र, मौष्टिक, आरव, डोविलक, कुणह, केकय, हूण, रोमक, रुरु, और मरुक, ये सब उस उस नाम के म्लेच्च देशविदेश में उत्पन्न हुए मनुष्य हैं। तथा (चिलाय" काँच" य-औय देशमा , " अध" मां-- देशमा सन्भेसावी, 'दविल' द्रविड-द्रविड देशमन्भेसाला, "विल्लल" मिसतनामना देशमा समेत दो, “पुलिंद" पुलि-पुदि देशना सोडी, "अरोस" माशेष-मारोष देशमा समसा, "डोंब" ir-3 देशमा जन्मेसा, "पोकण" पॐ]- शनi al, "गंध" -धा२ देशमा समेत सो, "बहलिय” म४ि -५७सी देशमा उत्पन्न प्ये सो), मे रीते "जल्ल" शम, भास, अश, माय, युथु, is]४, 13, सय, मेह, पवार, भासय, मधुर, सामाषि, सक्ष, थान, सासिs, मस, मासि, नि२, महाराष्ट्र. भौष्टि, मा२५, विख, ३७, ३४३, , रोभ., २२, अने भ२४ ते ते तशमा अन्वा सो छ. तथा, "चिलाव वि सयवासी य" विनात For Private And Personal Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुदर्शिनी टीका भ० १ २० २३ के के जीवा पापं कुर्वन्ति ! विसयवासी य' चिलात विषयवासिनथ, चिलातदेशवासिनोऽनार्याः, ‘पावमइणो' पापमतया पापबुद्धयः सन्ति ॥ सू०२२ ॥ पुनरपि केके जीवाः पापं कुर्वन्तीति तान् दर्शयितुमाह-'जलयर' इत्यादि। मूलम्-जलयर-थलयर-सणप्फय-ओरग-खहयर-संडासतोंड-जीवोवघायजीवी सण्णी य असण्णिणो पजत्ते अपज्जत्ते य-असुभलेस्स परिणमे एए अण्णे य एवमाई करोति पाणाइवायकरणं। पावापावाभिगमाः पावमई पावरुई पाणवहकयरई पाणवहरूवाणुढाणा पाणवहकहासु अभिरमंता तुट्रा पावं करेत्तु हुंतिय बहुप्पगारं ॥ सू० २३ ॥ टीका-'जलयर-थलयर-सणफओरंग-खहयर-संडासतोंड जीवोवघायजीवी ' जलचर स्थलचर सनखपदोरग-खचर संदंशतुण्ड जीवोपघातजीविन: जलचराः ग्राहादयः, स्थलचराः चतुष्पदाः, सनवपदाः नखयुक्तचरणाः व्याविसयवासी य ) चिलात देशवासी मनुष्य, ये सब अनार्य हैं ( पावमइणो) इनकी बुद्धि पापकर्म में रत रहती है। ये जितने भी नाम के कहे हैं वे सब पापकर्म में रतमतिवाले हैं और ये प्राणवध के करने वाले हैं । सू० २२॥ ___ अब सूत्रकार फिर यह कहते हैं कि कौन से जीव पाप करतेहैं'जलचर थलचर' इत्यादि। टीकार्थ-(जलयर) ग्राह आदि जलचर जीव, (थलयर) चतुष्पद-गाय, भैंस, आदि चार पद वाले स्थल चर जीव, (सणप्फय) नखयुक्त पैरोंवाले देशवासी मनुष्य, मे सनी मनाय नमो छ, भने “ पावमइणो" તેમની બુદ્ધિ પાપકર્મમાં લીન રહે છે. આ જે જે જાતિઓ બતાવી છે તે જાતિઓના લેકે પાપકર્મમાં રત-લીન મતિવાળા હોય છે અને તેઓ પ્રાણવધ કરનારા હોય છે. સૂ. ૨૨ હવે સૂત્રકાર ફરીથી એ બતાવે છે કે કયા કયા જી પાપ કરે છે "जलयर थलचर " त्याहि. थ-"जलयर" आई माEिareA२ १, "थलयर" यतुष्पह-आय,लेस माहि यो५॥ २२२ वो, “सणफय " ना२ युत पवा वाघ माह For Private And Personal Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org . नव्याकरणसूत्रे , 4 प्रादयः, उरगाः = सर्पाः खचराः - पक्षिणः श्येनादयः संदेशतुण्ड: संदेशमिवतुण्डो येषां ते संदशतुण्डा:= ढङ्ककङ्कादि पक्षिणः, एषां द्वन्द्वस्ततः ते च ते 'जीबोपघातेन = जीवहिंसया जीवन्ति इति, जीवोपघातजीविनश्वेति तथोक्ताः । सणीय ' संज्ञिनव 'असणिणो ' असंज्ञिनः ' पज्जत अपज्जत्ते य ' पर्य्याप्ता अपर्याप्ताव = सर्वे जीवा-पर्याप्ता अपर्याप्ताश्चेति द्विविधा भवन्ति तत्र पर्याप्तयो विद्यन्ते येषां ते पर्याप्ताः पर्याप्तनामकर्मोदयात् पर्याप्तियुक्ता जीवाः, ते द्विविधाः लब्धिपर्याप्ताः, करणपर्याप्ताश्च । ये सर्वा अपि पर्याप्ती: पूरयित्वा म्रियन्ते न ततः प्राक् ते लब्धिपर्याप्ताः ये पुनः शरीरेन्द्रियादोनि करणानि Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याघ्र आदि जीव ( ओरग) उरग - छाती के सहारे चलने वाले सांप, (खहर) श्येन आदि पक्षी खेचर जीव (संदसतोंड ) संदेश- संडासी के जैसे मुखवाले ढंक कंक आदि पक्षी (जीबोवधायजीवी ) ये सब जीवों की हिंसा करके अपना जीवन निर्वाह करने वाले हैं । तथा ( सण्णीय) जिनके मन है ऐसे संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव और (असण्णिणो ) जिनके मन नहीं है ऐसे असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव, ये सब पाप करके प्रसन्न होते हैं । जलचर से लेकर असंज्ञी पर्यन्त के जितने भी जीद हैं सब (पज्जते अपज्जन्ते य) पर्याप्त और अपर्याप्त होते हैं । पर्याप्त नामकर्म के उदय से जिनकी अपनी२ योग्य पर्याप्तियां पूर्ण हो जाती हैं वे पर्याप्त जीव हैं, और जिनकी पर्याप्तियां पूर्ण नहीं होती हैं वे अपर्याप्त जीव हैं। ये पर्याप्त जीव लब्धिपर्याप्त और करणपर्याप्त के भेद से दो प्राकार के होते हैं । जो समस्त पर्याप्तियों को पूरण करके ही मरते हैं। वो, " ओरग " २ग-पेटे शासनाश साथ, खयर માજ આદિ નભथ२ पक्षी, “ संदसतोंड ” सदृश-साणुसीना भेवां भुवाणां 63, 33 माहि પક્ષીએ " जीवोवधाय जीवी ” मे मधा भवानी हिंसा उरीने पोतानो न निर्वाडु उरनार व छे तथा " सण्णीय " भने भन छे सेवा सज्ञी पथे. न्द्रिय लव, भने “ असणिण्णो ” भने भन नयी सेवा असंज्ञी पथेन्द्रिय જીવ, એ બધા પાપ કરીને પ્રસન્ન થાય છે. જળચરથી લઈ ને અસ’જ્ઞી સુધીના આ જેટલા જીવ છે તે બધા " पज्जन्ते अपज्जते य" पर्याप्त भने पर्याप्त હાય છે. પર્યાપ્ત નામક ના ઉદયથી જેમની પાત પેાતાની યાગ્ય પર્યાસિ પૂર્ણ થઈ જાય છે તેમને પર્યાપ્ત જીવા કહે છે. અને જેમની પર્યામિંયા પૂછ્યું " થતી નથી તે જીવાને અપર્યાપ્ત જીવે. કહે છે. પર્યાપ્ત જીવાના બે ભેદ છે. (૧) લબ્ધિ પ્રર્યાપ્ત (૨) કરણુપર્યાપ્ત જે જીવા સમસ્ત પર્યાસિયા પૂરી કરીને 4. For Private And Personal Use Only " Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका भ० १ सू० २३ के के जीवा पापं कुर्वन्ति ? निर्वर्तितवन्तस्ते करणपर्याप्ताः । तदितरे-अपर्याप्ताः। 'असुभलेस्सपरिणामे' अशुभलेश्य परिणामाः=अशुभलेश्याः संक्लिष्टलेश्यायुक्ताः परिणामा: अध्यवसाया येषां ते, एते पूर्वोक्ताः 'अण्णे य ' अन्ये च अन्येऽपि 'एवमाई । एवमादयःएतादृशाः पाणिनः, 'पाणाइवायकरणं' प्राणातिपातकरणं प्राणातिपातानुष्ठानं 'करेंति ' कुर्वन्ति, पुनरपि तदेवाह-'पावा' इत्यादि-पावा' पापाः पापकर्मतस्पराः, 'पावाभिगमा' पापाभिगमा: पापमेव अभिगमः स्वीकारो येषां ते तथा 'पावमई ' पापमतयः पापबुद्धयः, 'पावरई ' पापरुचयः पापे एव रुचिरनुरागो येषां ते तथा, ‘पाणवहकयरई' प्राणवधकृतरतयः पाणवधे कृता-रतिःप्रीतियेस्ते तथा, 'पाणवहरूवाणुट्ठाणा' प्राणवधरूपानुष्ठाना-माणवधरूपमनुष्ठान इसके पहिले नहींवे लब्धिपर्याप्त जीव हैं ! तथा जो जीव शरीर इन्द्रिय आदि करणों की रचना को पूर्ण कर चुकते हैं ये करणपर्याप्त है। इनसे भिन्न जो जीव हैं वे अपर्याप्त हैं तथा (असुभलेस्सपरिणामे ) जिन जीवों के अध्यवसाय-परिणाम-संक्लिष्ट लेश्यायुक्त हैं (एए' ये तथा ( अण्णे य एवमाई ) इनसे भिन्न और भी ऐसे ही प्राणी (कातिपाणाइवाय करणं) प्राणातिपातरूप पाप के करने वाले होते हैं। इसी बात को सूत्रकार "पावा" इत्यादि पदों द्वारा प्रकट करते हैं (पावा) जो पापकर्म करने में तत्पर हैं, (पावाभिगमा) पाप प्रवृत्ति ही जिन्हें स्वीकृत है, ( पावमई ) जिनकी बुद्धि पापमय हो रही है, (पावरुई) पापकर्म में जिनकी रुचि अधिक से अधिक रूप में सजग रहती है, ( पाणावहकयाई) प्राणवध में जिन्हें आनंद आता है (पाणावहरूवाणुમરે છે તે પહેલાં મરતાં નથી, તેમને લબ્ધિ પર્યાપ્ત છ કહે છે. તથા જે જે શરીર ઈનિદ્રય આદિ કરણની રચના પૂર્ણ કરી નાખે છે, તે જીવને કરણ પર્યાપ્ત કહે છે. તેમનાથી જે ભિન્ન પ્રકારના છપ છે તેઓ અપર્યાપ્ત છે. तथा "असुभलेसपरिणामे ” ? सवाना मध्यवसाय-परिणाम-सडिट अश्या युत डाय छ “ए ए " तेमो तथा " अण्णेय एवमाई " ते सिपायनi मीन पर अव १ प्राशीमो “करेंति पाणाइ वायकरणं" प्रतिपात ३५ पा५ ४२नासं हाय छ. मेरी वातने सूत्रधार " पावा" त्याहि हो द्वारा प्रगट ४३ छ. “ पावा" ५५४ ४२वाने तत्५२ डाय छ, “पावाभिगमा " पा५ प्रवृत्ति भणे स्वीसी छे,“ पावमई " भनी मुद्धि पापमय था गई छे, " पावरुई ” ५४म भो भनी वृत्ति धारेमा थारे गत २७ छ, ' पाणवह कयरई " प्रावधमा भने मन भावे छे, “पाणवहरूवाणु For Private And Personal Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ९० प्रश्नध्याकरणसूत्रे कार्य येषां ते तथा, 'पाणवहकहासु ' प्राणवधकथामुपाणिहिंसावार्तासुअभिरमंता । अभिरमंतः प्रसीदन्तः सन्तस्ते 'बहुप्पगारं ' बहुप्रकारं नानाविधं 'पावं ' पापं करेंतु ' कृत्वा 'तुट्टा' तुष्टाः =प्रसन्ना 'हुंति' भवन्ति ॥सू० २३॥ पूर्व · जेविय करेंति पावापाणवहं इति प्रतिज्ञातं पश्चमं प्राणवधकद्वार निरूपितं, सम्मति 'जहयकओ जारिसं-फलं देइ ' यथा च कृतः प्राणवधो यारशं फलं ददाति इति चतुथै फलद्वारं मतिपादयन्नाह-' तस्से' इत्यादि। मूलम्-तस्स य पावस्स फलविवागं अयाणमाणावडति महब्भयं अविस्लामवेयणं दीहकालबहुदुक्खसंकडं नरयतिरिक्खजोणिं । इओ आउक्खए चुया असुभकम्मबहुला उववजंति नरएसु हुलियं महालएसु वयरामय कुड्ड-रुंदनिस्संधि-दार विरहिय-निम्मदव-भूमितल-खरामरिस-विसमणि रयघर चारएसुं हाणा ) प्राणवधरूप कार्य करना ही जिनका एक अनुष्ठान है और (पाणावह कहासु अभिरमंता) प्राणियों की हिंसात्मक वार्ताओं में जिन्हें रस मिलता है, ऐसे जीव (बहुप्पगारं ) नानाविध (पावं करेत्तु) पाप करके ( तुट्ठा) संतुष्ट (हुंति ) होते हैं । भावार्थ-जलचर, थलचर आदि जितने भी तिर्यच हैं, एवं पक्षी आदि जितने भी खेचर जीव हैं-चाहे वे संज्ञी हो चाहे असंज्ञी हो पर्याप्त हो चाहे अपर्याप्त हो यदि ये जीव घात करके अपना निर्वाह करते हैं तो पापी हैं-पापकर्म में रत हैं । जिन जीवों के परिणामों में अशुभलेश्या वर्तती रहती है, जो पापमय कृत्यों में आनन्द मानते हैं इत्यादि प्रकार के जीव भी पापी और पापकर्म रत हैं । सु. २३ ॥ ट्राणा" प्रावधनु ४ भर्नु मे अनुठान छ, भने “ पाणवहकहासु अभिरमता" प्राणी मोनी डिसाम पातामोमा भने २४ ५3 छ, मेवा " बहुप्पगारं" विविध “ पावंकरेत्तु" पायो रीन. "तुद्वा” संतोष "हुंति" पामे छ. | ભાવાર્થ-જળચર, સ્થળચર આદિ જે જે તિર્યંચ છે, અને પક્ષી આદિ જેટલાં ખેચર (નભચર) જીવે છે, તેઓ સંજ્ઞી હોય કે અસંશી હોય, પર્યાપ્ત હોય કે અપર્યાપ્ત હેય પણ જે તે જીની હત્યા કરીને પિતાને નિર્વાહ ચલાવતા હોય તે તેઓ પાપી છે-પાપકર્મમાં રત છે. જે જીવેનાં પરિણામોમાં અશુભલેશ્યા પ્રવર્તીતિ હોય છે જેઓ પાપમય કૃમાં આનંદ માનતા હેય તે, ઈત્યાદિ પ્રકારના છે પણ પાપી અને પાપકર્મમાં રત હોય છેસૂ.૨૩ For Private And Personal Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० १ सू० २४ यारपकृतकर्म तथाविधफलनिरूपणम् ९१ महोसिण सयापतत्त-दुग्गंधविस्स-उव्वेयजणगेसु वीभच्छदरिसणिज्जेसु य निच्च हिमपडलसीयलेसु कालोभासेसु य भीम गंभीर लोमहरिसणेसु णिरभिरामेसु निप्पडियार बाहिरोगजरापालिएसु अईव निच्चंधयारतमिस्सेसु पइभएसु ववगयगहचंद-सूर-णक्वत्त-जोइसेसु मेयवसामंसपडल-पोच्चड--पूयरुहिरुविकण्ण-विलीण-चिक्कणरसिया वावण्णकुहिय चिक्खल्लकहमेसु कुकूलानल-पलित्तजालमुम्मुर असिक्खुरकरवत्तधारसु निसिय विच्छ्यडंक निवातोवम-फरिस अतिदुस्सहेसु य अत्ताणा असरणा कडुयदुक्खपीरतावणेसु अणुबद्ध निरंतरवेयणेसु जमपुरिससंकुलेसु ॥ सू० २४ ॥ टीका-' तस्स य पावस्स' तस्य च पापस्य प्राणवधस्वरूपस्य पाप वृक्षस्य — फलविवागं ' फलविपाक=" प्राणातिपातस्य नरकनिगोदादि दुःखरूपं कटुफलं भविष्यती "ति पापपरिणाम, ‘अयणमाणा' अजानन्तः पापकर्माणः 'नरकतिर्यग्योनि वर्धयन्ति' इत्यग्रेण सम्बन्धः, वेदनामेव वर्णयति-' महन्भयं' इस प्रकार "जे वि य करेंति पावा पागवहं " यह प्रतिज्ञात पांचवा प्राणवधकद्वार कह दिया-अब सूत्रकार "जह य कओ जारिसं फलं देह " यह चतुर्थ फल द्वार कहते हैं-' तस्स य पावस्स' इत्यादि । .. टीकार्थ-(तस्स य पावस्स) इस माणवधरूप पाप वृक्षका (फलंविवागं) नरक निगोद आदि दुःखरूप कटुक फल भोगना होगा इस बात को (अयाण माणा ) नहीं जानते हुए पापीष्ठ जीव (नरयतिरिक्खजोणिं मा शत “जे वि य करेंति पावा पाणवहं " ते प्रतिज्ञात पांयमा प्रायद्वार- विवेयन सपूणु थयु'. वे सूत्रा२ “जह य को जारिसं फलं देह" मा यतुर्थ सानु विवेयन ४२ छ " तस्स य पावस्स" त्याहि. __ -- तस्स य पावरस": प्राणुq५३५ ५।५वृक्षनु “फलविवाग" न२४ नि म ३५ ४७j ५० लोगवई ५७, ते पातने " अयाणमाणाः " नही ना२॥ पापी ० " नरयतिरिक्खजोणि बड्दति " २४ तिय" For Private And Personal Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६६ प्रश्नव्याकरणसूत्रे इत्यादि-' महन्भय' महाभयां 'अविस्सामवेयणं' अविश्रामवेदनांपतिसमयमनुभूयमानाऽशातवेदनां, 'दीहकालबहुदुक्खसंकडं ' दीर्घकालबहुदुःखसंकटां= दीर्घकालमभिव्याप्यवर्तमानः बहुभिर्नानाविधैः शारीरमानसर्दुवैः संकटां-संकुला, तादृशीं 'नरयतिरक्खजोणि ' नरकतिर्यग्योनि-नरकेषु तिर्यक्षु च या योनिः= उत्पत्तिस्थानं तां 'वति' वर्धयन्ति-तासु तासु नानाविधासु योनित्यूत्पद्य च महावेदनामनुभवन्तीत्यर्थः । ते प्राणवधकारकाः नरकतिर्यगादि कुयोनिषु परिभ्रमणं कुर्वन्तो जन्म मरणाधविच्छिन्नपरम्परया यथा घोरातिघोरदुःखमनुभवन्ति तथोच्यते- इओ' इत्यादि-ते प्राणवधकारकाः 'आउक्खए' आयुः क्षये 'इओ' इतः मनुष्य भवात् 'चुया' च्युताः-मृताः सन्तः । असुभकम्मबहुला' अशुभकर्मबहुलाः प्राणिवधपापकर्मप्रचुराः सन्तः 'नरएसु' नरकेषुवइंति ) मरक तिर्यच योनि को बढाते हैं जो योनि (महन्भयं ) अत्यंतभयप्रमद, एवं (अविस्सामवेयणं) प्रतिसमय अनुभूयमान अशातवेदना सम्पन्न है-तथा ( दीहकाल बहुदुक्खसंकडं ) जिसमें दीर्घकालतक जीव नाना प्रकार के शारीरिक एवं मानसिक दुःखों को भोगा करता है। ऐसी उस विविध शारीरिक मानसिक दुःखों से संकुल नरक तिर्यच योनि को बढाते हैं। तात्पर्य इसका यह है कि जो प्राणवध करनेवाले जीव हैं वे उन २ नाना प्रकार की योनियों में उत्पन्न होकर महान् वेदना ओंका अनुभव करते रहते हैं । इस प्रकार नरक तिर्यच आदि कुयोनियों में परिभ्रमण करते हुए वे प्राणवधकारी जीव जन्म मरण आदि की अविच्छिन्न परम्परा से जिस प्रकार घोरातिघोर दुःखों को भोगते हैं, अब सूत्रकार इसी विषय को यहां स्पष्ट करते हैं (इओआउक्खए चुया) आयु के क्षय होने पर मनुष्यभव से मरकर प्रागवध कारक जीव यानिन पधारे छ, र यानि “ महन्भयं" अत्यंत लयप्रद, भने “ अविस्साम वेयणं " प्रतिणे अनुमपाती. मान वेहनाथी युत छ, तथा “दीहकाल बहुदुक्खसंकडं" भावी सुधी १ विविध १२ शारी२४ भने માનસિક દુઃખને ભગવ્યા કરે છે. એવી વિવિધ શારીરિક અને માનસિક દુખથી યુક્ત, તે નરક તિર્ય ચ નિને તેઓ વધારે છે. તેનું તાત્પર્ય એ છે કે પ્રાણવધ કરનાર છે ઉપરક્ત વિવિધ નિમાં ઉત્પન્ન થઈને મહાન વેદનાઓ અનુભવે છે. આ રીતે નરક તિર્યંચ આદિ કનિમાં પરિભ્રમણ કરતાં તે પ્રાણવધ કરનારા જે જન્મ મરણ આદિની અતૂટ પરંપરા પૂર્વક જે જે પ્રકારનાં ભયંકરમાં ભયંકર દુઃખે ભગવે છે, તે વિષયનું હવે સૂત્રકાર २५टी २९ ४२ छ “ इओ आउक्खए चुया" मायुष्यन। क्षय थतi प्राणु१५४।। For Private And Personal Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सदर्शिनी टीका अ० १२४ सू० यादृकृतकर्म तथाविधफलनिरूपणम् १३ रत्नप्रभादिषु 'हुलियं ' शीघ्रम् ' उववज्जति ' उत्पद्यन्ते । कथम्भूतेषु नरकेषु ?इत्याह-' महालएसु' महालयेषु-क्षेत्रस्थितिभ्यां महत्सु 'वयरामयकुड्डुरुंद निस्संधिदारविरहियनिम्मदवभूमितलखरामरिसविसमणिरयघरचारएसु' वज्रमयकुड्य-रुन्द्र-निस्सन्धिद्वारविरहितनिर्दिवभूमितलखराऽमर्शविषमनरकघरचारकेषु चत्रमयकुडयानिवनभित्तयः, रुन्दाः-विस्तीर्णाः, देशी-शब्दोऽयम् , विस्तीर्णवाचकः निस्सन्धयः सन्धिरहिताः, द्वारविरहिताः गमनागमनद्वारवर्जिताः, निर्मादवभूमितलाः कठोरतरभूमिभागाः, तथा खरामर्शाः कठिनस्पर्शाः, विषमा: उच्चा वचाः, नरकगृहाः=नरकवासा एव चारकाः बन्दिगृहाः येषु नरकेषु ते तथा तेषु, 'महोसिण-सयापतत्त-दुग्गन्ध-विस्स-उव्वेयजणगेसु' महोष्णसदाप्रतप्त-दुर्गन्ध ( असुभ कम्मबहुला) प्राणीवधजन्य पापकर्म के भार से अत्यंत दवे हुए होकर ( नरएसु ) रत्नप्रभा आदि पृथियों में (हुलियं) शीघ्र ही ( उववजंति ) उत्पन्न हो जाते है । ये नरक (महालयेसु ) क्षेत्र तथा स्थिति की अपेक्षा महान् हैं तथा ( वयरायमकुड्डुरुदनिस्संधिदारविरहिय निम्मदव भूमितल खरामरिसविसमणिरयघरचारएसु) (निरयघर चारएसु) नरकावासरूपवन्दिगृह ( वयरामयकुड) वज्रभित्तिवाले हैं। (रुंद ) अत्यंत विस्तृत हैं (निस्संधि ) सन्धि रहित हैं । ( दारविरहिय) गमनागमन के साधनभूत द्वार से हीन और (निम्मद्दव ) मृदुता रहित (खरामरिस ) कठोरतर (विसम ) ऊंचे नीचे भूमिभागवाले हैं। ( महोसिण सयापतत्त-दुग्गंधविस्स-उब्वेयजणगेसु ) ( महोसिण) इनमें सदा उष्णजन्य वेदना रहा करती है । (सयापतत्त) ये निरन्तर तापसे व्याप्त ७१ मनुष्य ममाथी भरीने " असुभ कम्मबहुला " प्राqिधने ४४२६ अत्पन्न थयेस पा५४मना माथी मत्यात मायेस मेव ते । “ नरएसु" २त्न xel मा पृथ्वीमामा “हुलियं " त२त “ उववज्जति” त्पन्न २४ तय छ. ते १२४ " महालयेसु" क्षेत्र मने स्थितिनी अपेक्षा महान छ त। "वयरामय कुडु रुंद निस्संधिदार विरहिय निम्मदव भूमितल खरामरिसविसम णिरयधर चारएसु” “निरयधरचारएसु" नावास३५ मन्यि “वयरामय कुह" नी पोजi छ, “रुंद" सत्यत विस्तृत छ, “ निस्संधि" सन्धि२डित छ. “दारविरहिय" २०१२ ०८५२ भाटेनi द्वाराथी २हित छ, भने "निम्मदव " भृढताथी २हित “खरामरिस" ठौरमा १२ “ विसम" Sin नीय भूमि भाव 2. "महोसिणं सयापतत्त-दुग्गधविस्स-उव्वेयजणगेसु" " महोसिण" तेमा सह। ता य ना २ रे छ, 'सयापतत्त" For Private And Personal Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरसूत्रे -विश्रोद्वेगजनकेषु तत्र महोष्णाः=अत्यन्तोष्णाः, सदा प्रतप्ताः निरन्तरतापयुक्ताः, दुर्गन्धाः अनिष्टगन्धयुक्ताः, विश्राः अपक्वमांसवत्पूतिगन्धाः, अतएव-उद्वेगजनका उद्वेगोत्पादकाः, तेषु 'बीभच्छदरिसणिज्जेसु' बीभत्सदर्शनीयेषु घृणितदर्शनेषु 'निच्चं' नित्यं 'हिमपडलसीयलेस' हिमपटलशीतलेषु-हिमपटलमिव शीतला ये ते तथा तेषु 'कालोभासेमु' कालावभासेषु, काल: श्यामलोऽवभासः कान्तिर्येषां ते तथा तेषु कृष्णवर्णेषु 'भीमगंभोरलोमहरिसणेमु' भीमगम्भीरलोमहर्षणेषु-तत्र भीमा: भयजनका गंभीरा:-अतलस्पर्शा अतएव लोमहर्षणाः रोमाञ्चकारिणस्तेषु-तत्स्वरूपश्रवणमात्रेण-रोमाश्चोत्पादकेषु ‘णिभिरामेसु ' निरभिरामेषु = अशोभनेषु 'निप्पडियारवाहिरोगजरापीलिए 'निष्पतिकार न्याधिरोगजरापीडितेषु-निष्पतिकाराः प्रतिकाररहिता व्याधयः कुष्ठादयः रोगाः रहते हैं । (दुग्गंध विस्सउव्वेयजणगेसु) अनिष्टतर दुगंध से भरपूर रहते है। विस्र-कच्चेमांस के जैसी यहां सदा दुर्गध आती रहती है, इसलिये नारकियों को ये सदा उद्वेग के उत्पादक होते रहते हैं। (घीभच्छदरिसणिज्जेसु य) देखने में ये बड़े असुहावने घृणित प्रतीत होते हैं । (निच्च हिमपडलसीयलेसु) सदा ये हीमपटल के जैसे शीतल होते हैं (कालोभासेसु) इनकी कांति काली होती है । ( भीमगंभीरलोमहरिसणेसु ) इन नरकावासों में जीव को सदा भय ही भय रहता है। ये आवास कितने गहरे हैं इनका पता नहीं पड़ता है । इनके स्वरूप श्रवण मात्र से ही जीवों के शरीर में रोमांच खडे हो आते हैं। (गिरभिरामेसु) ये सब अशोभन हैं। (निप्पडियार बाहिरोगजरापीलिएसु ) यहां को जो कुष्ठ आदि व्याधियाँ हैं, मस्तकशूल आदि जो रोग हैं, वार्धक्य जो तमा निरत२ तथा व्यास ४२ छ, “दुग्गंधविस्सउव्वेयजणगेसु" सौथी ખરાબ ગધથી ભરપૂર રહે છે. વિશ્વ-કાચા માંસના જેવી દુર્ગધ ત્યાં સદા આવ્યા કરે છે, તેથી નારકીઓને તેઓ સદા સંતોષ પેદા કરનારા હોય છે. बीभच्छ दरिसणिज्जेसु य" वाम ते घgin मे3101-Jए! थाय ते हाय छ. “निश्च हिमपडलमीयलेसु" तेसो सहा मिना यश व शीत राय छ 'कालो भासेसु" तेयो हेपावे ॥ य छे. “ भीमगंभीरलोमहरिसणेसु" તે નરકવાસોમાં જેને સદા ભય જ રહે છે તે આવા કેટલાં ઊંડા છે. તેની ખબર પડતી નથી. તેના સ્વરૂપનું વર્ણન સાંભળતાંજ ના શરીરના शभाय Hi / tय छ. :" णिरभिरामेसु" ते मां शाला विनानां छे. "निप्पडियारबाहिरोगजरापालिएसु" मीनी ४०४ माहि रे व्याधियो छ, For Private And Personal Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - - - - - - सुर्शिनी टीका अ. १ सू० २४ यातकर्म तथाविधफलनिरूपणम् ९५ मस्तकशूलादयः, जरा-धार्धक्यं च, तैः पीडितेषु व्याप्तेषु, 'अईवनिच्चंधयारतमिस्सेसु ' अतीवनिस्यान्धकारतमिस्रेषु-अतीव अत्यन्तं नित्यान्धकारेण तमिनेषु-घोरान्धकारस्वरूपं-प्राप्तेषु, अतएव 'पइभएम' प्रतिभयेषु-पतिवस्तुभययुक्तेषु, ' वगयगहचंदमूरणक्खत्तजोइसेसु' व्यपगतग्रहचन्द्रसूरनक्षत्रज्योतिष्केषु प्रहचन्द्रसूर्यनक्षत्रज्योतिष्कजितेषु, ' मेयवसामंसपडल पोच्चडपूयरुहिरुक्किण्णविलीणचिक्कणरसियावावण्णकुहियचिक्खल्लकद्दमेसु । मेदोवसामांसपटलपोच्चडप्यरुधिरोत्कीर्णविलीनचिक्कणरसिकव्यापन्नकुथित चिक्खलकर्दमेषु-मेदः-शरीरस्नेहविशेषः, वसा-चर्वी इति भाषा, मांसं-प्रसिद्धं तेषां यत्पटलं-राशिः 'पोच्चड ' गिलगिलायमानं पूर्य= पीप' 'परू' इति प्रसिद्धं, रुधिरं शोणितं तेन उत्कीर्ण-व्याप्तं विलीन=संभृतं, चिक्कणं-गुन्द्रवत् , 'रसिका' विकृतरुधिरं व्यापन्न-विनष्टस्वरूपम् अतएव-कुथितं दुर्गन्धितं 'चिक्खलं' शिथिलकर्दमः, कर्दमः घनकर्दमश्च येषु ते तथा तेषु । ' कुकूलानलपलित्तजालमुम्मुरअसिक्खुर अवस्था है इनकी पीडा यहां प्रतिकार-उपाय रहित होती हैं। (अईव णिचंधयारतमिस्सेतु ) यहां पर सर्वदा घोरातिघोर अंधकार रहता है। (पइभएसु ) यहां की प्रत्येक वस्तु भय से भरपूर रहती है। (ववगय. गहचंदमूरणवखत्तजोइएस्सु ) न यहां पर कोई ग्रह हैं न कोई चन्द्र है, न सूर्य है, न नक्षत्र हैं। ( मेयवसामंसपडल-पोचड-पूय-रुहिरुकिण्ण विलीग-चिक्कण-रसिया वावण्णकुहियचिक्वलकद्दमेतु ) मेद, वसाचर्वी और मांस का ढेर इन स्थानों में सदा लगा रहता है । तथा पोचड गिलगिलायमान पूय-पीब, एवं रुधिर से व्याप्त, गोंद के समान चिकने भरे हुए व्यापन्न दुर्गधित ऐसे विकृत खून, से तथा चिकने धनकदम से ये स्थान सदा व्याप्त रहते हैं। (कुकूलानल-पलित्तजाल-मम्मुरમાથાનો દુઃખા આદિ જે રોગે છે. વૃદ્ધાવસ્થા આદિ જે અવસ્થા છે, તેમની પીડાને ત્યાં કઈ પણ ઇલાજ હોતે નથી. તે પ્રતિકાર રહિત હોય छ, “भईव णिचंधयारतमिरसेसु" महीं आयम घारमा घार मा२ २३ छे. " पइभएसु" मडानी ४२४ १२तु मयनय छे. “ववगयगहचंदसूरणक्ख जोइसेसु" मडी ग्रह नथी, यन्द्र नथी, सूर्य नथी नक्षत्र ५ नथी. " मेयवसा मंसपडल-पोच्चह-पूय-रुहि रुक्किण्ण-विलीण-चिकण, रसियावावण्णकुहिय चिक्खल्लकहमेसु" भेद, वसा य२५ी मने मांसना ढा ते स्थानमा सहा પડેલાં હોય છે. તથા પચ્ચડ-કિચડ અને પૂર પીબ તથા રક્તથી વ્યાપ્ત, ગુંદરના જેવા ચીકણાં, ભરેલા દુધમયે વિકૃત લેહીથી, તથા ચીકણા કાદવથી ते स्थानी सही पाये २३ छ “कुकूलानल-पलित्तजाल-मम्मुर-असिक्खुर For Private And Personal Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ९६ www.kobatirth.org प्रश्नव्याकरणसूत्रे करवत्तधारमुनिसियाविच्छुयडं कनिवातोवमफरिस अतिदुस्सहे सु कुकूळानल प्रदीप्तज्वालमर्मुरा सिक्षुरकरपत्रधार सुनिशितवृश्चिकदंशनिपातोपमातिदुस्सहेषु, कुक्कूलानलः = करिपाग्निः खदिराग्निर्वा, प्रदीप्ता च ज्वालेति मदीप्तज्वाळा = प्रवृद्धवह्निशिखा च मुर्मुरः भस्ममिश्रोऽग्निकणः, असिः खङ्गः, क्षुरः = नापितोपकरणं, करपत्र = काष्ठ भेदकशस्त्रविशेषः तेपां धारेति असिधुरकरपत्रधारा, सुनिशितविकदंशनिपातः=सुनिशितास्तीक्ष्णा ये वृश्चिकदंशाः = तत्पुच्छकण्टकास्तेषां निपातश्वेति द्वन्द्वः एभिरुपमा = सादृश्यं यस्य स तथाविधः स्पर्शः येषां ते तथा अतएव तेच ते अति दुस्सहाः = अत्यन्त दुःखेन सहनयोग्यास्तेषु, 'कड्यदुक्खपरितावणे ' कटुकदुःख परितापनेषु = कटुकैः = दारुणैर्दुःखैर्दशविधक्षेत्र वेदनारूपैः परितापनं येषु तेषु ' अणुवद्ध निरंतरवेयणेसु ' अनुबद्धनिरन्तर वेदनेषु =अनु. बद्धा = अनुक्षणं व्याप्ता निरन्तरा=अविच्छिन्नवेदना=पीडा येषु तथा तेषु 'जमपुरिससंकुलेस' यमपुरुपसंकुलेषु यमस्य - दक्षिणदिक लोकपालस्य पुरुषा:असिक्खुर - करवत्तधार सुनिसियाविच्छु डंक निवातोवम-फरिस अतिदुसहेसु ) इनका स्पर्शकुकूलानल - करीषाग्नि अथवा खदिराग्नि के जैसा, वृद्ध - बह्नि की ज्वाला के जैसा, मुम्मुर - भस्ममिश्रित अग्निकण के जैसा असि - तलवार की धार के जैसा, खुर-क्षुरा की धार के जैसा, करवतकरोति को धार जैसा, एवं अत्यंत तीक्ष्णवृश्चिक के डंक के द्वारा काटने जैसा है, इसी कारण ये स्थान अत्यंत दुस्सह बन रहे हैं ( कड्डयदुक्खपरितावणेसु) दशविधक्षेत्र वेदनारूप दारूण दुःखों द्वारा जहां जीत्रों को सदा संताप ही संताप भोगना पड़ता है तथा ( अणुबद्ध निरंतरवेय Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1 सु) यहां प्रतिक्षण अविछिन्न असह्य पीडा होती है । एवं (जमपुरिससंकुलेसु ) यम-दक्षिण दिशासंबंधी लोकपाल के अम्ब अम्बरीषादिक For Private And Personal Use Only करवत - धारसुनि सियविच्छु डंक निवातोवम-फरिस अतिदुस्सहेसु " तेभनो स्पर्श કફૂલાનલ-કરિષાગ્નિ અથવા ખદિરાગ્નિ જેવા, પ્રવૃદ્ધ–અગ્નિની જવાળા જેવા, भुम्भुर-लक्ष्म-भिश्रित अग्निल भेवा; असि-तसवारी धारना देवेो, जुरખરીની ધાર જેવા, કરવતની ધાર જેવા, અને અત્યંત તીક્ષ્ણ વીંછીના ડંખ જેવા છે. તે કારણ તે સ્થાને અત્યંત દુઃખદાયી હાય છે. 'कडुयदुक्खपारतावणेसु દશ પ્રકારનાં ક્ષેત્ર વેદનારૂપ દારુણ દુઃખો દ્વારા જ્યાં જીવાને सट्टा सताय ४ लोगवा पडे छे, तथा अणुत्रद्धनिर तरवेयणेसु ” त्यां हरे ક્ષણે અવિચ્છિન્ન અસહ્ય પીડા ભોગવવી પડે છે. અને 'जमपुरिस संकुलेसु યમ દેવાથી તે સદા ઘેરાયેલા હોય છે. યમ-દક્ષિણ દિશાના લોકપાલના અમ્બ, "C "" " 66 12 Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० १ सू० २५ नरकोत्पत्यनु दुःखानुभवनिरूपणम् ९७ अम्बाम्बरीपादयः परमाधार्मिका असुरकुमारदेवास्तैः संकुलेषु व्याप्तेषु-एता. शेषु नरकेषु ते प्राणवधकर्तारः अत्ताणा' अत्राणा-त्राणरहिताः दुःखनिवारका भावात् , अतएव ' असरणा' अशरणाः शरणरहिताः रक्षकाभावात् , 'उववज्जति उत्पद्यन्ते इति सम्बन्धः ॥सू०२४॥ मूलम्-तत्थ य अंतोमुहुत्तलदिभवपच्चएणं निव्वत्तेति उ ते सरीरं हुंडं बीभच्छदरिसणिज्जं बीहणगं अट्टिण्हारुणह रोमवज्जियं असुभगं दुक्खविसयं, तओ य पज्जत्तिमुवगया इंदिरहिं पंचहिं वेदोंत वेदणं असुहाए वेयणाए उज्जलबल विउल-कक्खडखरफरुसपगाढपयंडघोरबीहणगदारुणाए,किंते२५॥ टीका-'तत्थ य ' तत्र च नरकेषु उत्पत्त्यनन्तरं ते पापकर्माणः 'अंतो मुहुत्तलदिभवणपच्चएणं' अन्तर्मुहूर्तलब्धिभवप्रत्ययेन अन्तर्मुहूर्तस्य वैक्रियलब्ध्या परमाधार्मिक असुरकुमार जाति के देवों से ये सदा संकुल रहते हैं । ऐसे इन नरकोमा प्राणवध के करने वाले जीव (अत्ताणा) दुःखनिवारक के अभाव से त्राण रहित एवं (असरणा) रक्षक कोई न होने से अशरण बन ( उववजति ) उत्पन्न होते हैं। भावार्थ-प्राणवध करनेवाले जीव जो पापपुंज का संचय करते हैं। उसके प्रभाव से वे यहां से मरकर शीघ्र ही नरक में जन्म लेते हैं । नरकों में जीव की कैसी हालत होती है एवं वहां की क्या स्थिति है यही बोत सूत्रकार ने इस सूत्र द्वारा समझाई है ॥ सू. २४ ॥ टीकार्थ-(तत्य य) उन नरकों में उत्पत्ति के अनन्तर (ते)वे पापकर्म वाले जीव (अंतोमुहुत्तलद्धि भवपच्चएणं ) अन्तर्मुहूर्त में प्राप्त वैक्रियलઅમ્બરીષ આદિ પરમ અધામિક અસુર કુમાર જાતિના દેવો છે. પ્રાણવધ ४२ नारा ते वो मेथी ते नरीमा “ अत्ताणा" हुम निवा२४ने समावेत्राए २डित भने " असरणा" 5.२६४ नही डावाथी ११२९५ ४ामा " उवत्रजंति" त्पन्न थाय छ । ભાવાર્થ–પ્રાણવધ કરનારા જીવ જે પાપપુંજનો સંચય કરે છે તેના પ્રભાવે અહીંથી મરીને તરત જ નરકમાં ઉત્પન્ન થાય છે. નરકમાં જીવોની કેવી હાલત થાય છે અને ત્યાંની કેવી પરિસ્થિતિ છે, એ વાત સૂત્રકારે આ સૂત્રદ્વારા સમજાવી છે. સૂ.૨૪ 10-"तत्थ य" त्याह, “तत्थ य"ते नरमा त्यत्ति थय! पछी "ते" ते पा५४म ४२ना२। ७६ "अंतोमुहुत्तलद्धिभवपञ्चएणं' मन्तभुतभा ॥ वैठिय प्र० १३ For Private And Personal Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे भवप्रत्ययेन च, = भवप्रत्ययः = भवन्ति कर्मवशाः जीवाः अस्मिन्निति भवः = नरकादिजन्म, भव एव प्रत्ययः कारणं यस्य तत भवप्रत्ययं तेन-नरकजन्मकारणेन 'सरीरं शरीरं नरकभवसम्बन्धिदेहं, 'निव्वत्तेति' निवर्तयन्ति-रचयन्ति । कीदृशं शरीरम् ? इत्याह-' हुंडं ' अस्फुटावयवं, बीभच्छदरिसणिज्जं ' बीभत्स दर्शनीयं-विकृतम्वरूपं 'बीहणगं' भापकं भयजनकम् , 'अहिण्हारुणहरोमवज्जियं' अस्थिस्नायुनखरोमनितं-स्पष्ट, असुभगम्-असुन्दरम् , दुक्वविसयं' दुःखविषयं-क्लेशबहुलं शरीरं निवर्तयन्तीति सम्बन्धः । ' तओ य' ततश्च-शरीरनिर्वतनानन्तरं 'पजत्ति' पर्याप्ति = आहारशरीरेन्द्रिय-प्राणापानभाषामनःपर्याप्ति न्धि से और भवप्रत्यय से-नरक जन्म के कारण से वे ( सरीरं )शरीर को-नरकभव संबंधी शरीर को (निवत्तंति बना लेते हैं। तात्पर्य कहने का यह है कि नरकों में जो जीव नारकी जीव की पर्याय से उत्पन्न होता है उसका अन्तर्मुहूर्त में ही नारकी का शरीर बन जाता है, क्यों कि इस शरीर के बनने का कारण वहां पर जन्म लेना है । इस शरीर के अवयव अस्फुट रहते हैं इसलिये इसे (हुंड ) हुंड कहा है और (बीभ. च्छदरिसणिजं) यह शरीर-विकृत स्वरूपवाला होता है इसलिये बीभत्स दर्शनीय कहा है । (वीहणगं ) यह शरीर भयजनक होता है और (अट्टिण्हारुणहरोमवज्जियं) अस्थि हड्डियों से, स्नायु-नसों से तथा नख और रोम से रहित ( असुभगं ) असुन्दर और ( दुक्खविसयं ) क्लेश बहुल होता है । (तओ य ) इस प्रकार शरीर की रचना auथी मने लपप्रत्ययथी--२४मा ४५ थाने २0 तरी " सरीरं " शरीरने-न२४९११ समधी शरी२ने " निवत्तति " नावी से छ. ४डपार्नु तात्पय' એ છે કે નરકમાં જે જીવ નારકી જીવની પર્યાયથી ઉત્પન્ન થાય છે, તેમનું અન્તમુહૂર્તમાં જ નારકનું શરીર બની જાય છે, કારણ કે ત્યાં જન્મ લે એજ તે શરીર બનવાનું કારણ છે તે શરીરનાં અવયે અફુટ હેય છે તેથી तने “ हुंड” हु ४ह्या छ भने “ बीभच्छदरिसणिज्ज" ते शरी२ विकृत स्व३५ वा छाय छे तेथी तेने मामास शनीय ४डेस छे. “ बीहणगं" शरी२ सयन डाय छ, भने “ अद्विहारुणहरोमवज्जिय" अस्थि-डामाथी स्नायु-नसाथी तथा नम भने रुपाटीथी २ति, “ असुभगं" असु४२ भने "दुक्यविसयं" श युत डाय छ, “ तओ य” मा प्रा२नी शरीरनी For Private And Personal Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुर्शिनीटीका भ. १ सू. २५ नरकोत्पत्यनु दुःखानुभवनिरूपणम् ‘उवगया' उपगताः प्राप्ताः-सन्तः 'पंचहि ' पञ्चभिः 'इंदिएहि' इन्द्रियैःश्रोत्रादिभिः 'अमुहाए ' अशुभया अशातरूपया, 'वेयणाए' वेदनया-अशातवेदनीयकर्मोदयजनितया 'वेयणं वेदन-कुम्भीपचनानि दुःखं ' वेदेति' वेदयन्ति अनुभवन्ति । कीदृशया वेदनया ? इत्याह-'उज्जलबलविउलकक्खडखर फलंसपगाढपयंडघोरबीहणगदारुणाए ' उज्ज्लवलविपुलकर्कशखरपरुषप्रचण्डघोर भीषणदारुणया-उज्ज्ला-तीव्रानुभावात्मकर्षत्वात् , बलाबलवती अनिवार्यत्वात् , विपुला-विशाला परिमाणरहितत्वात् , कर्कशा = कठोरा प्रत्यङ्गदुःखजनकलात् , खरा तीक्ष्णा-अन्तःकरणभेदकत्वात् , परुषा-निष्ठुरा-मुखलेशरहितत्वात् प्रगाढा -प्रतिक्षणमसमाधिजनकत्वात् , प्रचण्डा-भयानका-आत्मनः-प्रतिप्रदेशव्यापित्वात् हो जाने के अनन्तर ( पजत्तिमुवगया ) आहार, शरीर, इन्द्रिय, प्राणापान, भाषा और मन, इन पर्याप्तियों को प्राप्त हुए वे नारकी जीव (इंदिएहिं पंचहिं ) श्रोत्रादिक पांच इन्द्रियों द्वारा (असुहाए वेयणाए) असाता वेदनीय कर्म के उदय से जनित अशुभ अशातरूपवेदना से (वेयणं ) कुंभी पचनादि दुःखों का (वेदेति ) अनुभव करते हैं। यह अशातरूपवेदना उन नारकी जीवों की ( उज्जलबल विउल-कक्खड खरफरुसपगाढपयंडघोरबीहणगदारुणाए ) उज्ज्वल-तीत्रानुभावशाली होती है, बल-अनिवार्य होने से बलिष्ठ होती है, विपुल परिमाण रहित होने से विशाल होती है, ( कक्खड ) प्रत्येक अंग दुःख जनक होने से कर्कश-कठोर होती है । खर अंतरंग की भेदक होने से तीक्ष्ण होती है। (फरस ) मुख के लेश से रहित होने के कारण निष्ठुर होती है। (पगाढ) प्रतिक्षण असमाधि की उत्पादक होने से प्रगाढ है (पयंड) आत्मा के श्यना 25 या पछी “ पज्जत्तिमुवगया " पाडा२, शरीर, न्द्रिय, प्राणापान, लाषा भने मन से पालिमोने पास ४ीने ना२४ी ७१ " इंदिएहिं पंचहिं " श्रोत्राहि पाय छन्द्रियो द्वारा “ असुहाए वेयणाए " मसात वहनीय भना यथा ननित मशुम साता३५ वढनाथी " वेयणं " मम २'धावा माहि माना " वेदेति " मनुभव रे छे. ते ना२४ी वानी ते माशाता३५ बहना . उज्जलबल विउब-कक्खड-खर-फरूसपगाढ पयंडघोरबीहणगदारूणाए " Garden-तीय अनुभवाणी हाय छ. बल-निवायः हावाथी प्र हाय छे, विपुल-परिभा २डित पाथी वि डाय छे. “कक्खड” प्रत्ये: અંગમાં દુખ જનક હવાથી કઠોર હોય છે, રાહદય ભેદક હોવાથી તીર્ણ डाय छ, फरस-सा ५९ सुमथी २डित पाने २णे निहु२ डाय छ, पगाढ- ४२४ पणे असमापिनी ५४४ साथी भाइ सय छ, पयड - For Private And Personal Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ܘܘܪ www.kobatirth.org प्रश्नव्याकरणसूत्रे , घोरा विकटा - श्रवणेऽपि दुःखजनकत्वात्, भोषणा भयोत्पादिका - प्रतिप्राणिभयजनकत्वात् दारुणा हृदयसंक्षोभकारिणी प्रतिकाररहितत्वात् तथा-भूतया बेदना पापिनो दुःखमनुभवन्तीति सम्बन्धः ' किं ते ' कानि तानि दुःखानि ? तान्यग्रेऽनुपदे वर्णयिष्यते ॥ सू०२५ ॥ अथ तान्येव दुःखानि वर्णयति कंदु महाकुम्भीए' इत्यादि । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मूलम् - कंदु महाकुंभीए पयण- पउलण- तवग तलण भट्ट भ जणाणि य लोहकडाकणाणि य कोहवलिकरणकोट्टणाणि य सामलि तिक्खग्ग-लोहकंटग - अभिसारणा पसारणाणि, फालण विदारणाणि य अवकोडक बंधणाणि, लट्ठिसयतालणाणि य, गलगबलुलंबणाणियसूलग्गभेयणाणि य, आएसपर्वचणाणि यखिंसणा माणणाणि य विघुट्टपणिजणाणियवज्जसय माइयाणि य ॥ २६ ॥ टीका - ' कंदुमहाकुंभीए' कन्दुमहाकुम्भ्यो :=कन्दुः = लोहमयविशालपात्रप्रति प्रदेश में व्यापक होने से प्रचण्ड - भयानक होती है, घोर-सुनने में भी दुःखजक होने से विकट होती है, (बीहणग) हरएक प्राणी में भय की संचारक होने से भीषण भयोत्पादिका होती है, (दारुणाए ) इसका वहां कोई इलाज नहीं होता है इसलिये यह हृदय को संक्षोभकारिणी होने से दारूण होती है। इस प्रकारकी वेदना से पापी जीव नरकों में दुःखों का अनुभव करते हैं । (किंते) वे दुःख कौन कौन से हैं वह इसी के अगले सूत्र में कहेंगे ॥ सू. २५॥ अब सूत्रकार " किते " इन पदों द्वारा सूचित दुःखों को कहते हैं वामां भाव ॥ सू. २५ ॥ હવે સૂત્રકાર 66 आत्माना हरे! अद्वेशोभां व्यापेसी होवाथी प्रयड लयान होय छे, घोरसांता ना होवाथी विष्ट होय छे, "बीहणग ” દરેક પ્રાણીમાં ભયના સંચાર કરનાર હેાવાથી; ભીષણ-ભયંકર હોય છે, दारुणाए " तेने! ત્યાં કાઈ ઇલાજ હાતા નથી, તેથી તે હૃદયમાં ક્ષેાભ ઉત્પન્ન કરનાર હેાવાથી દારુણ હોય છે. આ પ્રકારની વેદનાથી પાપી જવ નરકામાં દુઃખાના અનુભવ ४रे छे. " किंते " ते हुः यो इयांड्यांछे ते डबे पछीना सूत्रभां मता " किंते " द्वारा सूचित हामोनुं वार्डन रे " कैदु For Private And Personal Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० १ सू० २६ कुंभोदुःखनिरूपणम् विशेषः, महाकुम्भी घटाकृतिपाविशेषस्तयोर्मध्ये, सूत्रे जातिवादेकवचनम् । 'पयण' पवचन-मोदनादेवि ' पउलग ' प्रकुलनम् सीसकवद्गालनम् , 'तबगतलण' तपकतलन-तपको लोहपात्रविशेषः 'तत्रा' इति भाषाप्रसिद्धः, तस्मिन् तैलादिभिरपूपवत्तलनम् , 'भट्ठभज्जण' भ्राष्ट्रभर्जनं च-भ्राष्ट्रभर्जनपात्रं-'भाड' इति प्रसिद्धः, तत्र भर्जनं चणकादेवि, इत्येषां द्वन्द्वस्तानि च 'लोहकडाहुक्कडणाणि य' लोहकटाहोत्वपथनानि च लोहकटाहा='कढाई' इति भाषापसिद्धः, तत्र उत्क्वथनानि औषधिवदुत्कालनानि 'कोवलिकरणकोहणाणि' कोवलिकरणकोहनानिकुट्टेन-क्रीडया वलिकरणाय, कुट्टनानि करचरणाद्यवयवत्रोटनानि-शरीरं 'खण्डशः' कृत्वा काकादिभ्योऽर्पणानीत्यर्थः, 'सामलितिकखग्गलोडकंटगअभिसारणापसार'कंदुमहाकुंभीए ' इत्यादि। टीकार्थ-नारकीजीव नरकों मे (कंदुमहाकुंभीए) कंदु-लोहमय विशाल पात्राविशेष में तथा घटाकृति जैसे महाकुंभी में ओदनादिक की तरह (पयण-पउलण-तवग-तलण-भट्ठभज्जणाणि य) (पयण ) पकाये जाने के (पउलण ) सीसक-रांग की तरह गलाये जाने के, (तवगतलण) गर्म लोह के तवा पर तैलादिक में तले गये पूआ आदि की तरह तले जाने के ( भट्ठभज्जणाणि य) भांड में भुंजे गये चना आदि की तरह भुंजे जाने के दुःखों को प्राप्त करते हैं। तथा ( लोहकडाहुक्कडणाणि य ) जैसे लोहे की कढाई में औषधियां उबाली जाती हैं उसी तरह वहां पर वे भी बड़े २ कडाहों में उथाले जाते हैं । ( कोहबलिकरणकोटणाणि य) घलि देने के लिये अनायास ही उनके कर, चरण आदि अवयवों को वहां तोड दिया जाता है-शरीर को खंड २ करके वहां काकादिकों के लिये महाकुंभीए " त्याहि. ____टी -11२४ी ०१ २ मा "कंदुमहाकुभीए " "कंदु" सोढाना विशाल पात्र-विशेभा, तथा घडाना माना भरालीमा सोनाहिनी म “पयणपउलण, तवग, तलण, भट्टभज्जणाणि य” “ पयण" २धावानां, “पउलण" सीसानी सेभ सापानi, " तवगतलण" सोताना २५ तेजना तापामा तसना भासपूपा माहिनी म तानi, " भट्टभज्जगाणि य" तामा शता या मालिनी रेम शबाना मी अनुभव छ. तथ! " लोहकडा हुकड्ढणाणि य” २वी रीत होतानी तपासामा यौषधियो Glय छै मेकर शते त्या तेमन ५५ भोट तापायामा पाम आवे छे, " कोहबलि करणकोटगाणि य" मलि पाने भाटे भयान तेभना राय ५ मा अवयवोर्नु ત્યાં છેદન કરવામાં આવે છે. શરીરના ટૂકડે ટૂકડા કરી ત્યાં કાગડા આદિને For Private And Personal Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૦૨ प्रश्नव्याकरणेस्त्र णाणि' शाल्मलि तोक्ष्गाग्रलोहकण्टकाभिसारणापसारणानि शाल्मलि:=' सेमल' इति - ख्यातो वृक्षविशेषस्तस्य ये तीक्ष्णाग्रा लोहकण्टका इव कण्टकाः, तेषु अभिसारणापसारणानि च = कर्षगापकर्षणानि ' फालगविदारणाणि ' फालनानि-वस्त्रवत्स्काटनानि, विदारणानि-क्राचादिना काष्ठवद् द्वैधीकरणानि ' अवकोडगबंधणाणि' अवकोटकबन्धनानिधीवाया इस्तयोश्च पश्चाद्भागानयनेनबन्धनानि, ' लट्ठिसयताळणाणि ' यष्टिशतताड़नानि यष्टिशतैस्ताड़नानि, 'गलगबलुल्लंबणाणि ' 'गलकवलोल्लम्बनानि-गल एव गलकः कण्ठः, तस्मिन् बलात् बलपूर्वकम् उल्लम्बनानिक्षशाखादौ उद्घन्धनानि, ' मूलग्ग भेयणाणि य' शूलाग्रभेदनानि च शूलाग्रेग-शूलाग्रभागेन भेदनानि, शूलारोपणानि वा, 'आएस पवंचणाणि ' आदेशप्रवचनानि-आदेशेन-आज्ञया असत्यवस्तु विषयया उनका वह शरीर अर्पित किया जाता है, (सामलितिक्खग्गा-लोहकंटग अभिसारणा-पसारणाणि ) सेमर वृक्ष के लोहकण्टक के समान नुकीले कांटा के ऊपर उनका कर्षणापकर्षण किया जाता है उन्हें आगे पीछे खेंचा जाता है, (फालग विदारणाणि य) फालन-वस्त्र के समान फाड़ना और करोति आदि के द्वारा काष्ठ को तरह चोरना भी उनका वहां किया जाता है । ( अवकोडगयंधणाणि ) उनको ग्रीवा और दोनों हाथ पीछे के भाग की तरफ करके बांधे जाते हैं । ( लट्ठिमयताडणाणि य ) सैकडों लाठियों की उन पर वहां मार पडती है । (गलगवललंबणाणि य) जबर्दस्ती उनके गलों को वृक्ष की शाखा पर बांधकर लटकाया जाता है। (मूलग्गभेयणाणि य ) शूल के अग्रभाग से उनके शरीर का भेदन किया जाता है । अथवा शूली के ऊपर उन्हें लटकाया जाता है। (आए. तमना ते शरी२ मा ४२।५ छ. “सामलितिक्खग्गलोहकंटग-अभिसारणा -पसारणाणि य" सेभर वृक्षना सोना समान २०७२ ४iटा ५२ તેમનું કણાપકર્ષણ કરાય છે તેમને આગળ પાછળ ખેંચવામાં આવે છે. " फालणविदारणाणि य” त्या तेभने पनी म वाम मावे छ भने કરવત આદિ દ્વારા જેમ લાકડાને ચીરવામાં આવે છે તેમ તેમને પણ ચીરपाम भार छ “ अवकोडगबंधणाणि" तेभनी 1४ भने भने । पाछाना लामा २मावाने riyाम मावे छ. : लट्टिसयताडणाणि य" त्यां तेभने से सामान भार ५ छ. “गलगबललुबणाणि य” ने२ सभथी तमनi mi माधान वृक्षानी जियो ५२ तेमने सामने पाये छ," सूलगा भैयणाणि य" शूगनी भाषा तेभनi शरीर लेन ४२पामा भावे छे मथवा For Private And Personal Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० १ सू० २६ कुंभीदुःखनिरूपणम् प्रवचनानि-प्रतारणानि पखरोष्णसन्तप्तवालुका निकरानेकक्षणपरिक्रमणोपताप प्रदीपितपानीय पानातितृष्णस्य समुदञ्चजलवीचिरुचिमरीचिनिचयं जलाशदिश्य तत्र पानाय प्रेषणं, 'गच्छ तत्र ते पिता 'समागतः' इत्याद्यनेकविधः प्रवञ्चना इति भावः, खिसण विमाणणाणि ' खिंसनविमाननानिखिंसनानिजातिकुलोदिनामनिर्देशपूर्वकं निन्दनानि, अत एव विमाननानि तिरस्करणानि 'विघुटपणिज्जणाणि ' विघुष्ट प्रणयनानि-विघुष्टानां="स्वकृतपापकर्मणां फलानि भुव" इत्यादिभिनिष्ठुरवचोनिसितानां प्रणयनानिबध्यस्थाननयनानि । एतानि कि हेतुकानि ? इत्याह-'वज्जसयमाइयाणि ' अवद्यशतमातृकाणिअवद्यशतमातृकाणि-अवद्यशतानि मन्दतीवादिपरिणामेन कृतानि पापशतानि, सपवंचणाणि य असत्य वस्तुविषयक आदेशरूप आज्ञा से उन्हें प्रतारित (ठगना) किया जाता है-वहां पर नारकीजन पहिले उस नवीन नारकी को प्रखर उष्ण से सन्तप्त वालुका पुंज की ऊपर अनेकवार घुमाते हैं। इससे उसकी गर्मी से उसकी प्यास अधिक से अधिक मात्रा में जय प्रदीपित हो जाती है तब उसे बनावटी जलाशय दिखलाकर वहां वे भेज देते हैं इस तरह उसे वहां वार २ प्रतारित किया जाना है “जाओ वहां तुम्हारा पिता आया है" इत्यादि अनेकविध वचनों द्वारा वे उसकी प्रवचना किया करते हैं । (खिसणविमाणाणि य) जाति, कुल आदि के नामनिर्देषपूर्वक उसकी वहां निंदा की जाती है । तिरस्कार किया जाता हैं। (विघुट्ठपणिज्जणाणि य ) " अपने किये हुए पापकर्मों का तुम फल भोगो" इत्यादि निष्ठुर वचनों से उसे निर्भत्सितकरके वध्य स्थानों पर लाया जाता हैं । ( वज्जसयमाइयाणि य) इस तरह नाना प्रकार के इन दुःखों को नरकों में मन्द, तीव्र आदि परिणामो द्वारा किये गये शूणी ५२ तेभने सामi मावे छ. " आएसपवंचणाणि य” असत्य वस्तु વિશેના આદેશ વડે તેમને ત્યાં ઠગવામાં આવે છે. ત્યાં નારકીજન પહેલાં તે નવીન નારકી ઓને પ્રચંડ ઉષ્ણુતાથી સારી રીતે તપેલી રેતી પર અનેક વાર ચલાવે છે. તેથી તેની ગરમીથી તેમની તૃષા જ્યારે વધારેમાં વધારે પ્રમાણમાં પ્રદીપ્ત થાય છે ત્યારે તેઓ તેમને બનાવટી જળાશય બતાવીને ત્યાં મેકલી દે छे, मा शते त्यां तेन वारपार प्रतारित राय छ-आवामा भाव छयो, ત્યાં તમારા પિતા આવ્યા છે” ઈત્યાદિ અનેક પ્રકારનાં વચને દ્વારા તેઓ તેની &iसी र्या ४२ . “ खिसणविमाणणाणि य" onति, गुण माहिना नामना निष शनतेनी त्या निहा ४२शय छ. ति२२४१२ ४२राय छे. “ विघपणिज्जणाणि य" " ते अरेस भानु तु मागव" i नि२ क्यनाथी तभनयम. जापान स्थान ५२ ६४ मत मावे छ. “ वज्जसयमाइयाणि य" मा રીતે પાપી જીવ મંદ, તીવ્ર આદિ પરિણામે દ્વારા કરાયેલ સેંકડે પાપને કારણે For Private And Personal Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकणसूत्रे तान्येव मातृकाणि उत्पत्तिस्थानानि येषां तानि तथा-पापशतहेतुकानीत्यर्थः । दुःखानि वेदयन्तीति पूर्वेण सम्बन्धः 'क्य ' इत्यत्र पाकृतत्वादकारलोपः ॥२६॥ एते पापकारिणः कीदृशीं ' वेदनां कियत्कालमनुभवन्ति ? इत्याह'एवं ते ' इत्यादि । मूलम्-एवं ते पुवकम्मकयंसचओवतत्ता निरयाग्गिमहग्गि संपलित्ता गाढदुक्खमहब्भयं ककसं असायं सारीरं माणसं च दुविहं तित्वं वेदोंत वेयणं पावकम्मकारी। बहुणि पलिओवमसागरोवमाणि कलणं पालेति ॥ सू० २७ ॥ सैकडों पापों के कारण पापी जीव उत्पन्न होकर भोगा करते हैं "मातृक" पद यहां पर उत्पत्ति स्थान का वाचक है । अर्थात् इन दुःखों के उत्पतिस्थान अवद्यशत सेंकडो घोर पाप करनेवाले पापी हो जाते है । __ भावार्थ-पापी जीव नरकों में जन्म लेकर नाना प्रकार की वेदना भोगा करते हैं यही बात सूत्रकार ने इस सूत्र द्वारा प्रदर्शित की है। वहां पर उन्हें पकाया जाता है, उबाला जाता है, गलाया जाता है, तला जाता है, भुंजा जाता है उनके शरीर के तिल २ के बराबर खंड २ भी करदिया जाता है । सेमर जातिके वृक्षों के नुकीले काटोंपर उन्हेंघसीटा भी जाता हैं इत्यादि भयंकर से भी भयंकर कष्ट वहां दिये जाते हैं, तापर्य यह है कि वेदना के जितने भी प्रकार हो सकते हैं वे सब प्रकार नरकों में होते हैं और उन सब प्रकारों से होने वाले दुःखों को मन्द तीव्र आदि परिणामोंसे किये गये पापोंके कारण पापी जीव भोगा करते हैं । નરકમાં ઉત્પન્ન થઈને વિવિધ દુઓને ભોગવે છે. “માતૃક પદ અહી ઉત્પત્તિસ્થાનનું વાચક છે. એટલે કે તે દુઃખનું ઉત્પત્તિસ્થાન સેંકડો પાપ અવશત છે. ભાવાર્થ–પાપી જીવે નરકમાં જન્મ લઈને અનેક પ્રકારની વેદના ભગ વ્યા કરે છે. એજ વાત સૂત્રકારે સૂત્ર દ્વારા પ્રગટ કરી છે. ત્યાં તેને પકાવવામાં આવે છે, ઉકાળવામાં આવે છે, ઓગાળવામાં આવે છે, તળવામાં આવે છે, શેકવામાં આવે છે. તેમના શરીરના રાઈ રાઈ જેવડા ટૂકડા કરવામાં આવે છે. સેમર વૃક્ષોના અણીદાર કાંટા ઉપર તેમને ઘસડવામાં પણ આવે છે, વગેરે ભયંકરમાં ભયંકર કો તેમને ત્યાં આપવામાં આવે છે. તેનું તાત્પર્ય એ છે કે વેદનાના જેટલા પ્રકારો હોઈ શકે તે બધા પ્રકાર નરકોમાં હોય છે. અને તે બધા પ્રકારોથી થતાં દુઃખાને મંદ, તીવ્ર આદિ પરિણામેથી કરાયેલ પાપને १२) पाथी सोगव्या रे छ. ॥ सू. २६॥ For Private And Personal Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ०१ सू० २७ पापिनो वेदनाकालनिरूपणम् १०५ टीका-एवम् उक्तरीत्या ते पापकारिणः, 'पुव्वकम्मकयसंचओववतत्ता' पूर्वकर्मकृतसञ्चयोपतप्ताः=पूर्वकृतानां कर्मणां सञ्चयेन समुपार्जनेन उपतप्ताःसन्तापं प्राप्ताः । निरयग्गिमहग्गिसंपलित्ता ' नरकाग्निमहाग्निसंप्रदीप्ताः= नरकएवाग्निः सन्तापकारकत्वाद् नरकाग्निः, स महाग्निरिव अत्युत्कटत्वात् तेन संप्रदीप्ताः संतप्ताः · पावकम्मकारी ' पापकर्मकारिणः, 'गाढदुक्खमहब्भयं' गाढदुःखमहाभयां गाढेन-निविड़ेन दुःखेन महाभयां-विशालभययुक्तां' कक्कस' कर्कशां कठोराम् ' असाय' असाताम्-असातनामवेदनीयकर्मोद्भवां, 'सारीरं' शारीरी 'मानसं' मानसीं च दुविहं-द्विविधां 'तिव्वं ' तीव्राम्-अतिशयां 'वेयणं' वेदनां पीडां वेदयन्ति-अनुभवन्ति । कियकालम् ? इत्याह-'बहूणि' बहूनि 'पलिभोवमसागरोवमाणि 'पल्योपमसागरोपमाणि=पल्योपमाणां कालं, अब सूत्रकार यह प्रकट करते हैं कि पापी जीन नरकों में कैसी २ वेदना को कितने कालतक भोगते हैं-' एवं ते' इत्यादि. टीकार्थ (एवं) इस प्रकार (ते पावकम्मकारी) वे पापकारी जीव (पुव्व -कम्मकयसंचओवतत्ता) पूर्वकर्म के लिये हुए संचय से अत्यंत संतप्त होकर तथा संतापकारी होने से महाग्नि जैसी नरकरूप अग्नि से संप्रदीप्त होकर (पावयारी ) पापकारी जीव ( गाढ दुक्खमहन्भयं ) निविड़दुःख से अतिश दुखवाली ऐसी (ककस) कठोरातिकठोर (सरीरं ) शारिरीक, एवं (माणसं) मानसिक, (दुविहं ) दोनों प्रकार की (असायं वेयणं) असाता वेदनीय कर्म के उदय से जनित (तिव्वं वेयणं) तीव्र वेदना को वेदेति) भोगते हैं ऐसी वेदना को वे कितने काल तक भोगते हैं वह कहते हैं (बहूणि पलिओवमसागरोवमाणि) इस तरह હવે સૂત્રકાર એ પ્રગટ કરે છે કે પાપી જીવ નરકમાં કેવી કેવી વેદનાને ४८८॥ समय सुधी लागवे छ “ एवं ते" त्यादि. टी -“एवं" मा प्रमाणे "ते पावकम्मकारी" ते ५.५४० "पुव्वकम्मकयसंचओवतत्ता" पूर्व ४२८i नि! संययथा अतिशय सतत थन तथा सत।५४ारी पाथी भड। AAथा सही थने, “ पावयारी” पापी 04 "गाढदुक्खमहब्भयं" सय ४२ हुमाथी भतिशय हुशवाजी, " ककसं" भतिशय ४२, “ सारीरं " शरी२४ अने “ माणसं " भानसि " दुविहे" मने प्रा२नी " असायं वेयणं " असाता वहनीय भना यथा उत्पन्न थयेस “तिव्वं वेयणं" तीन वेहनाने " वेदेति" सागवे. वी. वहनान तमासा समय सुधी लागवे छे. ते सूत्रा२ मतावे छ “बहूणि पलिओवमसागरोवमाणि" એ રીતે અનેક પ્રકારની વેદનાને તેઓ ઘણા જ પલ્યોપમ તથા સાગરેપમ For Private And Personal Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नग्याकरणसूत्रे 'कलुणं ' करुणं-यथास्यात्तथा दीनदशामाश्रित्येत्यर्थः, 'पाले ति ' पालयन्ति प्रतीक्षन्ते 'कदा ममायं दुःखकालः पूर्णो भविष्यतीति प्रतीक्षमाणा नरकजीवाः कालं यापयन्तीत्यर्थः ॥ मू० २७ ॥ ते पुनः किं कुर्वन्ती ? त्याह____ मूलम्-ते अहाउयं जमकाइयतासिया य सदं करेंति भीया, किंते ? अवि-भाय ! सामि! भाय ! बप्प ! ताव ! जितवं ! मुय मे मरामि दुब्बलो वाहिपालिओ हं किं इदाणि असि, एवं दारुणो णिद्दओ य मा देहि मे पहारे, अस्सासेउ मुहत्तं मे देहि, पसायं करेह, मा रूसह वीसमामि गेविजं मुयह मे, मरामि, गाढं तण्हाइओ अहं, देहि पाणियं ॥ सू० २८ ॥ ___ टीका-ते पूर्वोक्ताः पापकर्माणः 'अहाउयं' यथायुष्क यथाबद्धायुष्कंपूर्वभव यावत्कालपरिमितमायुर्वेदमासीत्तावत्परिमितं न तु न्यूनाधिकं देवनारकाकी वेदना वे बहुत से पल्योपम तथा सागरोपमप्रमाण कालतक (कलुणं) करुणदशा से, (पालेति) भोगते हैं । उस समय उनकी बड़ी दीनदशा रहती है । और वे इस बात की प्रतीक्षा में उस असह्य पीड़ा को भोगते हुए कहा करते हैं कि " कब यह हमारा दुःखकाल समाप्त हो " । इस तरह विचारे वे पापी जीव वहां से निकलने के समय की प्रतिक्षा करते हुए काल को व्यतीत करते रहते हैं ॥सू. २७॥ और वे क्या करते हैं ? सो सूत्रकार कहते हे-'ते अहाउयं' इत्यादि। टीकार्थ-देव और नारकियों आदिकी आयु निरुपक्रम होती है-बीच में छिदती भिदती नहीं हैं, तीव्र शस्त्र, तीव्र विष, तीव्र अग्नि आदि जिन प्रभा १७ सधी “ कलुणं " ४२९४न ४ाम “ पालति" लागवे छे. ते સમયે તેમની ઘણી દીનદશા હેય છે. અને “ક્યારે અમારો આ દુખને સમય પૂરો થાય” એ વાતની રાહ એ અસહ્ય પીડા ભેગવતા ભેગવતા તેઓ જોયા કરે છે. આ રીતે બિચારા પાપી જીવો ત્યાંથી નીકળવાના સમયની રાહ adi radi समय पसार ४२ छ । सू. २७ ॥ मने तया | ४३ छ ? ते सूत्र४।२ मतावे छ- 'ते अहाउयं" त्या. દેવ અને નારકીઓ આદિનું આયુષ્ય નિરુપક્રમ હોય છે-તે વચ્ચે અકસ્માતેથી છેઃાતું દાતું નથી, તીવ્ર શરુ, તીવ્ર વિષ, તીવ્ર અગ્નિ આદિ જે કારણથી For Private And Personal Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० १ सू० ८ नारकाः किं किं वदन्ति ! दीनां निरुपक्रमायुष्कत्वात् उक्तञ्च " "देवा नेरइया त्रिय, असंखवासाज्या तिरियमणुया | उत्तमपुरिसा य तहा, चरमसरीरा निरुवकमती ॥ १ " શુંš निमित्तोंसे अकालमृत्यु होती है उन निमित्तों का प्राप्त होना उपक्रम है। यह उपक्रम देव और नारकियों के तथा चरमदेहधारी एवं उत्तम देहवालों के प्राप्त नहीं होता है । चरमदेह और उत्तमपुरुषों के यह उपक्रम कदाच प्राप्त हो भी जावे तो वह उन की आयु अनपवर्तनीय ही होती है, इस नियम के अनुसार (ते) वे पापकारी जीव (अहाउयं ) इतने प्रकार की प्राणान्तक वेदना को भोगने पर बीच में मरते नहीं हैं - अर्थात् उनकी अकाल में मृत्यु नहीं होती है क्यों कि पूर्वभव में जितनी आयु यहां की उन्हें ने बांधली थी उतनी आयुतक वे वहां रहते हैं कम या ज्यादा समय तक नहीं रहते। कहा भी है G - " देवा रहया विय, असंखवासाच्या तिरियमणुया । उत्तमपुरिसा य तहा, चरमसरीरा निरुवक्कमती " ॥१॥ इस गाथा के अर्थकी सूचना यद्यपि कुछ रूप में ऊपर कर दी गई है फिर भी स्पष्टरूप में इस प्रकार है- देव, नारकी, असंख्यातवर्ष की आयुवाले, तिर्यंच और मनुष्य-तीस अकर्म भूमियों, छप्पन अन्तद्वीपों और भरतादिक्षेत्र में उत्पन्न युगलिक तथा ढाईद्वीप के बाहर के द्वीप અકાળ મૃત્યુ થાય છે તે કારણેાનું પ્રાપ્ત થવું તે ઉપક્રમ કહેવાય છે. તે ઉપક્રમ દેવ અને નારકીઓને તથા ચરમ દેહધારી અને ઉત્તમદેહધારીને પ્રાપ્ત થતા નથી. ચરમ દેહધારી અને ઉત્તમપુરુષાને કદાચ તે ઉપક્રમ પ્રાપ્ત થાય તે પણ તેનું આયુष्य मनपवर्तनीय-निश्चित अणनं ४ होय छे, ते नियम प्रमाणे "ते" ते यापारी वो " अहाउयं " भाटा, प्रहारनी प्रशांत बेहना लोगववा छतां પણ વચ્ચે મૃત્યુ પામતા નથી, એટલે કે તેમનું અકાળ મૃત્યુ થતું નથી કારણ કે પૂર્વભવમાં તેમણે અહીંનું જેટલું આયુષ્ય માધ્યુ છે તેટલું આયુષ્ય પૂરૂં થાય ત્યાં સુધી તે અહીં જ નરકામાં રહે છે, વધારે કે ઓછે સમય રહેતા नथी, उधुं पशु छे For Private And Personal Use Only " देवा नेरइया विय, असंखवासाज्या तिरियमणुया । उत्तमपुरिया य तहा, चरमसरीरा निरुत्रकमती " ॥ १ ॥ આ ગાથાના અર્થનું સૂચન ઘેાડા પ્રમાણમાં કહેવામાં આવ્યુ છે. તેનો સ્પષ્ટ અથ આ પ્રમાણે છે. દેવ, નારકી, અસ ંખ્યાત વના આયુષ્યવાળાં તિર્યંચ અને મનુષ્ય-ત્રીસ અકમ ભૂમિયા, છપ્પન અન્તદ્વીપો અને ભરતાદિ ક્ષેત્રમાં ઉત્પન્ન થયેલ યુગલિક તથા અઢી દ્વીપની બહારના દ્વીપ સમૂહમાં રહેતાં Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૨૦૮ प्रश्नव्याकरणसूत्रे 'जमकाइय तासिया' यमकायिक त्रासिताः-यमकायिकैः पञ्चदशविधैः परमाधार्मिक अम्बाम्बरीषादिभिर्वासिताः बासं प्रापिताः 'भीया' भीताः भयव्याकुलाः सन्तः 'सई' शब्दं वक्ष्यमाणप्रकारमार्तनादं करेंति' कुर्वन्ति । 'किं ते ' के ते आर्तशब्दाः ? इत्याह-'अविभाये 'त्यादि 'अवि' अपिवाक्यालङ्कारे 'भाय' भाग-हे महाभाग-सामर्थ्यवत्त्वात् , 'सामि' हे स्वामिन् ! अधिपतित्वात् , 'भाय ' हे भ्रातः ! - सहायकत्वात् , 'बप्प' हे पितः! - पालकत्वात् , 'ताय' हे तात ! - बायकत्वात् , 'जितवं' हे जितवन् । =हे विजयिन् ! – विजयशालिवात् , 'मुय मे' मुश्च मां 'मरामि' म्रिये, अहं ' दुबलो' दुर्बलाबलहीनः 'वाहि पीलिओ' व्याधि पीड़ितः, 'कि' किमर्थं त्वम् ' इदाणि' इदानीम् अस्मिन्-समये 'दारुणो' कटोरः, 'णिदओ' समुद्रों में भी पाये जाने वाले तिर्यच-उत्तमपुरुष-तीर्थकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, आदि, एवं चरमशरीरी-उसी भव से मोक्ष जाने वाले जीव, ये सब निरूपक्रम आयुवाले होते हैं ॥१॥ पापी जीव वहां (जमकाइयतासिया) यमकायिक-पन्द्रह प्रकार के परमाधार्मिक अम्ब और अम्बरीष आदि देवों के द्वारा त्रास को प्राप्त कराये जाते हैं । (भीया) इसलिये भय से सदा व्याकुल बने हुए वे वहां पर (सई) आर्तनाद (करेंति) किया करते हैं (किं ते ?) वे कौन २ शब्द करते हैं ? वही कहते हैं-(अविभाय) हेमहाभाग ! (सामि) हे स्वामिन् ! (भाय) हे भाई ! (वप्प) हे पिता ! (ताय) हे तात ! (जितवं) हे विजयन् ! (मुय मे) तू मुझे छोड़ दे, (मरामि) में भर रहा हूं, (दुबलो) मैं बलहीन हूं, (वाहिपीलिओहं) व्याधि से पीडित हो रहा हूं, (किं इयाणि) क्यों इस समय तुम मेरे उपर (एवं) इस प्रकार से (दारुणो निदओ य असि) तिय"य, उत्तम ५३५-ती॥ ४२, यती , मजदेव, पासुदृ५ मा, मने २२भશરીરી-એજ ભવમાં મેક્ષે જનારા છે, એ સઘળા નિરુપકમ આયુષ્યવાળા डाय छ ॥१॥ यो पापी । " जमकाइय तासिय” यमयि४-५४२ ४२॥ • ५२भाधामि ४ २५ भने २१५ माहियो वा त्रास पामे छ, "भीया" तथी मयथी व्या मानसा तो त्या “ सदं” भात ना " करें ति" रे छ. " किंते ? " तेया ॥ ५॥ Audो माले छ ? ते ४ाम मावे छे. " अविभाय " मडामा ! " सामि" स्वामिन् ! "भाय" मा ! "वप्प" पिता! 'हे ताय"तात ! "जितव"विनयी ! "मुय में" तु भने छोड़ी है, “मरामि" ई भरी २यो छु, “ दुबलो" नि छु', “वाहिपीलिओहं " व्याधियी पी13 २हो छु, " किं इयाणि" सत्यारे तमे भा२। प्रत्ये "एवं" मा रीते " दारुणो निहओ य असि” १२ भने निय For Private And Personal Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० १ सू० २९ यमाः नारकान् प्रति किं कुर्वन्ति ! १०९ निर्दयः-दयारहितः, 'असि' भवसि ?, मा देहि मे' मा 'पहारे' प्रहारान् मां मा ताडयेत्यर्थः। 'अस्सासेउँ' उच्छ्वसितुंश्वासमात्रं ग्रहीतुं 'मे' मा 'मुहुत्तं' मुहूर्त-क्षणमात्रं देहि, येन श्वासमात्रमपि मुखमनुभवामीति भावः, 'पसायं' प्रसादम्-अनुग्रहं 'करेह ' कुरुत 'मा रुसह' मा रुष्यत-क्रोधं मा कुरुत । वीसमामि ' विश्रमामि-किश्चित्कालं विश्रामं करोमि अतः 'मे' मम 'गेविज्ज' ग्रैवेयकं-श्रीवाबन्धनं 'मुयह ' मुश्चत त्यजत यतो हि-अहं 'मरामि' म्रिये, गाढं-अत्यधिक 'तण्डाइओ' तृष्णादितः पिपासाकुलितोऽस्मि मे मा 'पाणियं' पानीयं जलं देहि ।। सू० २८ ।। एवं नारकैः कथिते सति यमपुरुषाः यत् कुर्वन्ति तदाह-'ताहे तं' इत्यादि । मूलम्-ताहे तं पिय इमं जलं विमलं सीयलंति घेत्तुण य नरयपाला तवियं तउयं से दिति कलसेण अंजलीस दट्टण य तं पवेवियंगोवंगा अंसुपगलं तपप्पुयच्छा छिण्णा तण्हा इयम्ह कलुणाणि जपमाणा विपेक्खंता दिसोदिसि अत्ताणा असरणा अणाहा अबंधवा बंधुविप्पहीणा विपलायंति य मियविववेगेण भउठिवग्गा, घेत्तण वला पलायमाणाणं निरणुकंपामुहं विहाडेउं लोहदंडेहि कलकलंण्हं वयणसि छुभंति केइ जमकाइया हंसता॥२९ कठोर और निर्दय हो रहे हो, (मा देहि मे पहारे) मुझ पर प्रहार मत करो (अस्सासेउं मुहुत्तं मे देहि ) मुझे कम से कम मुहूर्त-क्षण मात्र श्वास तो लेने दो, (पसायं करेह) मेरे ऊपर दया करो, (मा रुसह) मुझ पर क्रोध मत करो, (वीसमामि) में कुछ कालतक विश्राम करना चाहता हूं-अतः ( गेविजं मुयह मे ) मेरी ग्रीवा के बंधन को तुम छोड दो, देखो ( गाढं तण्हाइओ अहं ) गहरी प्यास से व्याकुल होकर मैं मर रहा हूं अतः मेरे लिये ( देहि पाणियं) पीने को जल दो ॥सू. २८॥ 3 मनी २६॥ छ। १ "मा देहि मे पहारे" भा२! ५२ प्रडा न ४२१. “ अस्सासेउ मुहत्तं मे देहि " भने माछामा गाछी मे क्षए भाटे तो श्वास सेवा हो. "पसायं करेह " भा२। ७५२ ४या ४, "मा रुसह" भा७५२ ओध न ४२१, " वीसमामि" ई था। समय विश्राम ४२१॥ भाछुतो “गेविज मुयह मे" भारी भानुं धन तमे छ। हो, दु! “ गाढं तहाइओ अहं" मारे तृषाथी व्या पुण धन भी रह्यो छ. तो भने “देहि पाणियं " भावाने भाट १७ मा " ॥ सू. २८ ।। For Private And Personal Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११० प्रश्नध्याकरणस्त्र टीका-यदि त्वं पिपासितः 'ताहे ' तदा 'तं' त्वं ' इमं ' इदं 'विमलं' निर्मलं ' सीयलं' शीतलं जलं - पिय ' पिब, इति कथयिता ' नरयपाला' नरकपाला:=परमाधार्मिकाः 'तवियं' तापितम्-उत्कालितं 'तउयं त्रपुकं 'कथीर' इति प्रसिद्धं सीसकं वा, ' कलसेण ' कलशेनघटेन ' से ' तस्मै नारकाय 'अं. जलीसु य ' अनलिषु च 'दिति ' ददति । 'तं' तत-तापितं त्रपु दह्ण' दृष्ट्वा अवलोक्य 'पवेवियंगोवंगा' प्रवेपिताङ्गोपाङ्गाः प्रकर्षेण वेपितानि कम्पिवानि अङ्गानि उपाङ्गानि च येषां ते तथा कम्पितसर्वशरीराः 'अंसु-पगलं-तपप्पुयच्छा' प्रगलदश्रुमप्लुताक्षाः प्रगलद्भिः अश्रुभिः प्रप्लुते=व्याप्ते अक्षिणी नयने येषां ते तथा, प्रक्षरत्मबलाश्रुधाराः सन्तः 'अम्ह' अस्माकं 'तण्हा' तृष्णा — छिण्णा ' छिन्ना-नष्टा ' इय' इति एवमुक्त्वा ' कलुणाणि' करुणानि इस प्रकार नारक जीवों के कहने पर परमाधार्मिक जो कुछ उनके साथ करते हैं वह सूत्रकार प्रदर्शित करते हैं-'ताहे ' इत्यादि । टीकार्थ-(ताहे तं) यदि तुम पिपासित हो तो ( इमं ) इस (विमलं ) निर्मल ( सीयलं) शीतल ( जलं ) जल को (पिय) पिओ ऐसा कह कर ( नरयपाला ) वे नरकपाल परमाधार्मिक देव (तवियं ) उबाले हुए कथीर को अथवा सीसे को (कलसेण ) कलश में भरकर ( से ) उस नारकी के लिये ( अंजलीसु ) अंजलि में (दिति ) देते हैं। (तं ) उस तपे हुए त्रपु-सीसे को (दटूटूण य ) देखकर ( पवेवियंगोवंगा ) उन नारकियों का समस्त शरीर-अंग-उपांग बहुत अधिक रूप में कंपने लगते हैं। और ( अंसुपगलंतपप्पुयच्छा ) उसी स्थिति में वे निकलते हुए आंसुओं से अपनी आंखों को व्याप्त करके उनसे कहते हैं कि (छिण्णा तण्हा अम्ह ) अब हमारी प्यास शांत हो गई है ( इय) इस નારકી ના એ પ્રકારના શબ્દો સાંભળીને પરમધર્મી તેમની સાથે वो वताव ४२ छ ते सूत्र७२ सतावे -"ताहे" त्याहि. साथ-" ताहेत" ने तभने तर सास डाय तो "इम” मा “विमलं" निभा, “सीयल" शीत "जलं" पाel "पिय" पीवी. मेम ५डीन "नरथपाला" ते २४५८ ५२मायामि | "तवियं" मा १२५ ४थी२ Aथवा सीसनि “कलसेण" म मरीन "से" ते ना२४ीने “अंजलीसु" २५० लिमा “दिति" मापे छे. "त" ते १२मा १२म धु-सीसाने नठुण य" नधन “पवेवियंगोवंगा" ते नासानां म सत्यत ४५ साणे छ. “असुपगलंत पप्पुयच्छा " ते स्थितिमा मासुमरी मां ते तेभने ४ छ । “छिण्णा तव्हा अम्ह " वे भारी तृप! शin 45 गई छ. "इय" ३१ For Private And Personal Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सुदर्शिनी टीका अ० १ सू० ३० वेदनापीडितनारकाक्रन्दनिरूपणम् १११ वचनानि ' जंपमाणा' जल्पमानाः = प्रलपन्तः ' दिसोदिसि ' दिशो दिशं = एकस्याः दिशोऽन्यां दिशमितस्तत इत्यर्थः ' विप्पेक्खत्ता ' विप्रेक्षमाणाः = समन्तात् पश्यन्तः 'अत्ताणा ' अत्राणाः = रक्षाहीनाः, अतएव 'असरणा' अशरणाः = शरणरहिताः, अतएव ' अणाहा ' अनाथाः = दीनाः, ' अबंधवा' अवान्धवाः = बान्धवरहिताः, ' बंधुविप्पहीणा' बन्धुविप्रहीणाः विद्यमानसम्बन्धिविमयुक्ताः, ' मियविव ' मृगा इव ' भव्विग्गा' भयोद्विग्नाः = भयव्याकुलाः ' वेगेण ' वेगेन ' विपला - यंति' विपलायन्ते प्रधावन्ति, ततः प्रधावमानान् तान् नारकान् 'बला बलात् 'घेचूण' गृहीत्वा 'निरणुकंपा ' निरनुकम्पाः दयारहिता: ' के ' केऽपि 'जमकाइया ' यमकायिका:- परमाधार्मिकाः, दसंता ' इसन्तः ' पलायमाणाणं' पलायमानानां च तेषां ' मुहं ' मुखं ' लोहण्डेहि ' लोहदण्डैः, ' विहाडे ' विघाटथ उद्घाट्य ' कलकलं' अतितप्तत्वात् कल-कल शब्दयुक्तं पूर्वोक्तं त्रपुकं ↑ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रकार कहकर वे (कलुणाणि जंपमाणा ) करुणा वचनोंका उच्चारण करते हुए ( दिसोदिसि विप्पेक्खता) वहां से दूसरी दिशा में इधर उधर देखते हुए (अत्ताणा ) रक्षक रहित ( असरणा) शरण रहित (अणाहा) विनानाथ के ( अबंधवा ) दीनदशा संपन्न ( बंधुविप्पहीणा ) बांधवों से रहित - रक्षक जनों से रहित, अतः (भव्विग्गा ) भय से व्याकुल बन कर वे (मियविच) मृगों की तरह वहां से ( वेगेण ) वेगपूर्वक ( विप्पलायंति ) भागते हैं । इसके बाद भागते हुए उन नारकियों को (बलाघेण ) जबर्दस्ती से पकड़कर ( निरणुकंपा ) दयारहित बने हुए ( केइ ) कितनेक (जमकाइया) यमकायिक परमाधार्मिक देव ( हसंता ) हँस हँसकर ( पलायमाणाणं ) पलायन करते हुए उनके ( मुहं ) मुख को ( लोहदंडेहि ) लोहदंडों से ( बिहाडे ) फाडकर फिर उसमें (कलक - 16 प्रभा उडीने “कलुणाणि जंपमाणा " ४३ वथनो मोसता, " दिसो दिसिं विष्पेक्खंता " त्यांथी मील दिशाभां आम तेम लेता, "अत्ताणा " २क्ष विनानां “असरणा', शरण विनाना, "अणाहा" अनाथ, “अबंधवा" ही नहशमां भूक्षयेला, 'बंधुविप्पहीणा " गांधव विनाना-रक्षण अरनार विनाना, भेवा ते नारडी भवो "भव्विग्गा" लयथी व्याडुण मनीने "मियविव" भृगोनी नेम त्यांथी ' वेगेण” वेगथी "विप्पलाय'ति' लागे छे. त्यारगाह लागतां भेवा ते ! नारी भवाने "बलाघेत्तूण " लेर ब्लुसभथी पडीने "निरणुकंपा " हया रहित अनेसा " केइ " डेंटलाई “जमकाइया ” यभाय, परमाद्यामि देवो "हसंता" इसी हसीने " पलायमाणाणं " नासता येषा तेमना "मुहं " भुमने 'लोहदंडे हिं" बोढाना For Private And Personal Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११२ प्रश्नव्याकरणसूत्रे , 'हं' इति वाक्यालङ्कारे तेषां ' वयणंसि ' वदने मुखे 'छुभंति' क्षिपन्ति = पाययन्तीत्यर्थः ।। ० २९ ॥ ' इत्यादि । ततो नारकाः किं कुर्वन्ति ? तदाह - 'तेण दुड्ढा मूलम् - तेण दड्ढा संतो रसंति य भीमाई विस्सराई रुवंति कलुगाई परिवगा इव एवं पलविय विलाव कलुणो कांदय - बहुरुन्न रुइय सो परिदेविय रुद्धबद्धय नारगारव संकुलो णीसिट्टो || सू० ३० ॥ 1 टीका – 'तेज' तेन=मुख निक्षिप्तेन तप्तेन त्रपुणा ' दङ्कासंती' दग्धाः सन्तः ' भीमाई' भीमान् भयानकान् = हृदयक्षोभजनकान् 'विस्सराई 'विस्वरान् =आर्तनादान् 'हा ! हा!' ' हतावयम् ' इत्यादिरूपान् 'रसंति' रसन्ति = कुर्वन्ति । सूत्रे प्राकृतत्वान्नपुंसकम् । तथा 'पारेवयगाइव' पारावतकाइव = कपोता इव ' कलुगाई' करुणानि हृदयद्रावकाणि रुवंति रुदन्ति । एवं ' ' पलालहं ) कलकलाते उस अत्यंत गरम सीसे को ( वयसि ) मुख में (छुभंति) डाल देते हैं, अर्थात् उन नारकियों को पिला देते हैं । सू.२९ ॥ इसके बाद वे नारकी क्या करते हैं अय सूत्रकार इस विषय को स्पष्ट करते हैं-' तेण दड्रा संतो ' इत्यादि । टीकार्य (तेण दड्ढा संतो) मुख में जबर्दस्ती फाड़कर डाले गये उस तस सीसेसे दग्ध हुए वे नारकी (भीमाई) हृदय को क्षोभ पहुँचाने वाले ऐसे ( विसराई ) आर्तनादों को (रसंति) करते हैं- “ हाय ! हाय ! मार डाला " इस प्रकार से चिल्लाते हैं । तथा ( पारेवयगा इव ) कनू - तरों की तरह ( लुगाई ) हृदय को द्रवीभूत करने वाला आक्रंदन " हडामोथी “ विद्दाडेउ' ” पडणां उरीने तेमां "कलकलह " उणणता ते अत्यंत गरम सीसाने ' वयणंसि" भुजनां " छुमति " रेडी हे छे. भेटले ते नारडीमने भीवरावे छे. 11 सू. २८ ॥ ત્યારબાદ તે નારકી જીવા શું કરે છે, વિષયને હવે સૂત્રકાર સ્પષ્ટ કરે " तेण दड्ढा संतो " इत्यादि. टीअर्थ - " तेण दड्ढा संतो " लेर सभथी भोटु डोरीने रेडवामां यावेस ते गरम सीसाथी हाञेसा ते नारडी वो "भीमाई” हृहयने क्षेोल पभाडे तेवा “विस्तराई" भर्त्तनाहो “रसंति” रे छे - “ हाय ! हाय ! भारी नाच्या " 241 4312 alâù 413 &; dai ‘'qitaanışa” syakıl du “agon' हृदय द्राव आ "वंति " उरे छे, " एवं " था अारना तेभना “पलविय For Private And Personal Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुवशिनी टीका अ०१ सू० ३० वेदनापीडितनारकाक्रन्दनि?षवर्णनम् ११३ विय विलावकलुणो' पलापितम् अनर्थकवचनं 'विलापः, 'हा तात ! हा मात ! ' इत्यादि लक्षणं विलापकरणं, ताभ्यां करुणो यः स तथा । 'कंदिय बहुरुन्नरुइयसदो' क्रन्दित-बहुरुन्नरुदितशब्दः = क्रन्दितम् चीत्कारः बहु-प्रचुरं 'रुन्न' रोदनम्-सशब्दमश्रुमोचनम् ' रुइय' रुदितम्-मस्तकादिताडनपूर्वक रोदनम् , एतेषां शब्दो यस्मिन् स तथा 'परिदेवि य रुद्धबद्धय नारयारवसंकुलो' परिदेवितरुद्धबद्धकनारकारवसंकुलः = परिदेवताः = परधार्मिकैर्विलापं प्रापिताः रुद्धा चाटकेऽजादिवदवरुद्धाः, बद्धकाःम्बन्धन प्राप्ताश्च ये नारकास्तेषामारवैः शब्दैः संकुला: व्याप्तो यः स तथा, ‘णीसिहो' निसृष्ट: नारकैः कृतः निर्घोषः -प्रबलदुःखजनितो महाशब्दः श्रूयते इत्यग्रेण सम्बन्धः ।।०३०॥ (रूवंति ) करते हैं ( एवं ) इस प्रकार उनका ( पलवियविलावकलुणो) प्रलाप-अनर्थकवचनरूप तथा विलाप रूप " हा तात! हा मात" इत्यादि रूप तथा वहां नारकियों के मुख से जो प्रबल दुःख के वेग के समय शब्द निकला करते हैं वे प्रलाप और विलाप वाले तो होते ही है साथ २ में उनमें ( कंदिय बहुरूनरुइयसद्दो) चीत्कार प्रचुर रोदन एवं मस्तक आदि ताडनपूर्वक रुदित, अर्थात् नारकी जो वहां चिल्लाते विल्लाते हैं वह इस ढंग से होता है कि वे उसमें बोलते २ रोते हैं, आंसुओंको ढार कर चिल्लाते हैं । मस्तक, छाति आदिको कूटते पीटते हैं, और रोते जाते हैं । इस तरह (परिदेविय-रुद्ध बद्धय नारगारवसंकुलो) परमाधार्मिकों द्वारा वे नारकी वहां विलापाये जाते हैं। बाडे में जिस प्रकार बकरियां आदि रोककर बांधी जाती हैं उसी प्रकार वे भी उनके द्वारा रोक लिये जाते हैं, बांध दिये जाते हैं उनके शब्द से व्याप्त ऐसा विलाव कलुणो" प्रा५-मन४ qयन३५ तथा विसा५३५ " उ तात ! 3 મા ! ઈત્યાદિ રૂપ તથા ત્યાં પ્રબળ દુખના આવેગથી નારકીઓનાં મુખમાં જે શબ્દ નીકળે છે તે પ્રલાપ એને વિલાપવાળા તે હોય જ છે, પણ તેની સાથે साथ तेमा "कदिय बहुरुन्नरुइयसहो" था।२ सहित ३४न. मने माथु माह પછાડીને રૂદન પણ થતું હોય છે. એટલે કે નારકીઓ ત્યાં જે ચીરો પાડે છે. અને વિલાપ કરે છે. તે એવી રીતે થાય છે કે તેઓ તે ક્રિયા કરતી વખતે બોલતાં બોલતાં રડે છે અને આંસુ સારી સારીને આકંદ કરે છે. માથુ, છાતી माहिन टता ५८४ता जय छ भने २३ छ. २॥ प्रमाणे "परिदेविय-रुद्धबद्धय नारगारवसंकुलो " ५२यामि द्वारा ते नारीमाने यां. २१वामां-पिता५ કરવામાં આવે છે. જે રીતે વાડામાં બકરીઓ આદિ ને રોકીને બાંધી લેવામાં આવે છે એ જ પ્રમાણે તેઓને પણ તેમના વડે રોકવામાં આવે છે, બાંધ प्र-१५ For Private And Personal Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११४ प्रश्नव्याकरणसूत्रे स कीदृशो निर्घोषः ? इत्याह- रसिये ' त्यादि। मूलम्-रसिय-भणिय-कुविय-उक्कूइय-निरयपालतजियंगेण्ह कम पहर छिंद भिंद उपाडेहुक्म्यणाहि कत्ताहि विकत्ताहि यभंजहण विहण विच्छुभोच्छुब्भ आकड्डू विकड्ड किं णजपसि? सराहि पावकम्माइं कियाइं दुकयाइं एवं वयणमहप्पगम्भो संपडि सुयसहसंकुलो उत्तासओ सया निरयगोयराण महाणगरडझमाणसरिसो निग्घोसो सुव्वए अणिट्ठो तहियं नेरइयाणं जाइज्जंताणं जायणाहिं ॥ सू०३१ ॥ टीका-'रसिय-भणिय - कूइय - उक्कूइयनिरयपालतज्जियं ' रसितभणित-कुपितोत्कूजित-नरकपाल-तर्जितं-तत्र-'रसिय ' रसिताः शूकरवद् घोरशब्दकारकाः, 'भणिय' 'भणिताः उच्चैः शब्दकारकाः, 'कूइय' कूजिताः अव्यक्तचनिकारकाः, 'उक्कूइय' उस्कूजिता भयजनकाव्यक्तशब्दकारकाः ये 'निरय(णीसिद्वो ) प्रबल दुःखजनित महा शब्द वहां ' सुना जाता है। (यह आगे से सम्बन्ध है ) ॥ सू. ३० ॥ उस समय परमाधार्मिक परस्पर में किस प्रकार की बातचीत करते है ? यह सूत्रकार कहते हैं-' रसिय-भणिय' इत्यादि। टीकार्थ-नरकों में नारकियों को हरएक प्रकारसे व्यथा पहुँचानेवाले वे परमाधार्मिक नारकियों को फिर अधिक कष्ट पहुँचाने के अभिप्रायसे (रसिय-भणिय-कूइय-उकूइय-निरयपालतज्जियं) (रसिय) सूअरके जैसे भयंकर घोर शब्दों को (भणिय ) उच्चस्वर से करते हैं ! उस में वे (कूझ्य ) अव्यक्त ध्वनि करते हैं ( उकूइय ) इस से नारकियों को और पामा मावे छे. मने ते॥ vatथी. व्यास मेवे ' णीसिटो" अ - જનિત ચિત્કાર ત્યાં સંભળાય છે' (આ પ્રમાણે આગળના શબ્દો સાથે समय छे.) ॥ सू. ३०॥ તે સમયે પરમધાર્મિક પ્રસ્પર કેવી વાત કરે છે તે સૂત્રકાર બતાવે - "रमिय-भजिय" त्यादि. ટીકા-નરકમાં નારકીઓને દરેક રીતે વ્યથા પોંચાડનાર તે પરમધામિકે, नाहीयमाने पर पधारे प्रष्ट भावाने भाट "रसिय-भणिय-कूइय, उक्कूइय -निरयपालतज्जियं" " रसिय " सूचना | लय ४२ घोर पनि " भणिय" ६२ परे अरे छ. तेमा " कूइय" भव्यत पनि अरे छ. "उक य" For Private And Personal Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० १ सू० ३१ वेदनापीडितनारकाकन्दनिर्घोषवणैनम् १९५ पाल' निरयपालाः परमाधार्मिकाः, तेषां तज्जियं' तर्जितं नारकजीवान् लक्षीकृत्य परस्परं तर्जनाज्ञावाक्यं वक्ष्यमाणप्रकारमस्ति, तथाहि-अम्बाभिधः परमाधामिकोऽम्बरीषं कथयति-हे अम्बरीप ! एनं पलायमानं पापिनं नारकं 'गेण्ह' गृहाण । एवं परस्परमेकः परमाधार्मिको द्वितीयं कथयति-एनं नारकं 'कम' क्रम पादपहारैः पीडय 'पहर' प्रहर-एनं नारकं दण्डादिभिस्ताडय 'छिंद' छिन्धि खङ्गादिभिः खण्डशः कुरु 'मिंद ' भिन्धि-मल्लकादिभिर्भेदय 'उप्पाडेह' उत्पाटय-शरीरात्वचादिकं पृथक्कुरु ' उक्खणाहि ' उत्खन=निष्कासय अक्षिगोलादिकम् 'कत्ताहि ' कुन्त छेदय-छुरिकादिभिर्नासिकादिकं, तथा-'विकत्ताहि' विकृन्त-कर्णनासिकादिकं मूलतश्छेदय, 'भंज' भञ्ज-हस्तपादादिकं त्रोटय, 'हण' जहि-शतघ्न्यादिभिरिय, 'विहण' विजहि-महाशिलादि पातनादिभिरनेकमकारैः अधिक भय उत्पन्न हो जाता है । इस प्रकार रसित, भणित, कूजित एवं उत्कूजित शब्द करने वाले उन परमाधार्मिकों की तजित-नारकियों को लक्ष्य करके जो परस्पर में कष्टादि पहुँचानेवाली बातचीत होती है वह इस प्रकार है-(गेण्ह ) अम्ब नाम का परमाधार्मिक अम्बरीष से कहता है-हे अम्बरीष! तू इस भागते हुए पापी नारकी को पकड लो और (कम) इस को लातों से मारों। बाद में (पहर ) इसे दंडों से खूब पीटो । (छिंद ) ज्यादा और क्या कहूं-तलवार आदि से इसके शरीर के खंड २ कर डालो। (भिंद ) भाला आदि से इसके शरीर को भेद् डालों ( उप्पाडेह ) इसकी खाल उतारलो, ( उक्खणाहि) इसकी आंखें निकाल लो, ( कत्ताहिय ) इसका नाक काट डालो (विकत्ताहि ) कर्ण नासिक आदि इन्द्रियों को मूल से बिलकुल साफ कर डालो। ( भंज) हाथ पैर आदि को मरोड डालो। (हण ) शतघ्नी आदि से इसको धुरी तरह से मारो। (विहण ) महाशिला आदि के ऊपर इसे पछार डालो। (विच्छुभ ) कुए आदि में इसे पटक दो। ( उच्छुभ ) કારણે નારકીઓને વળી વધારે ભય લાગે છે. એ રીતે રસીત, ભણિત. કજિત. અને ઉત્કૃજિન શબ્દ કરનારા તે પરમાધાર્મિકોથી તજિત-નારકીઓને ચીંધીને, તેમને કષ્ટ દેનારી પરસ્પરમાં જે વાતચીત થાય છે તે આ પ્રકારની હોય છે"गेण्ह " २५ नमन। ५२मायामि २५५रीषने ४ छ-" स री ! તું આ નાસી જતાં પાપી નારકીને પકડી લે અને “ઘ” તેને લાતો માર. पछी “पहर" तेने 1 43 धूम ३८१२ "छिंद” धारे शु ! तसवार આદિથી તેના શરીરના ટૂકડે ટૂકડા કરી નાખ. “મં” ભાલા આદિ વડે તેના शरीरने वीथी नाम. “उप्पाडेह" तेनी यामी 3तारी नin, "विकत्ताहि" आन, નાક આદિ ઈન્દ્રિયને મૂળમાંથી કાપી નાખે, “મંા” હાથ પગ આદિને મરડી नाम, "हण" शतनी मातेने भराममा भ७ शत भा, "विण" For Private And Personal Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्र मारय, 'विच्छुभ' विक्षिप-कूपादौ प्रक्षिप, ‘उच्छुभ' उत् क्षिप-उर्ध्वक्षिप 'आकड्र' आकर्षकचादिकं गृहीत्वाकर्षय-कण्टकाकीर्ण भूमौ घर्षयेत्यर्थः, 'विक' विकर्ष अधो मुखं कृत्वा घर्षय । एतादृशीं वेदनां दत्त्वा नारकान् प्रति वदति, 'किंण जंपसि' कि न जल्पसिकथं न वदसि हे पापिन् 'सराहि' स्मर स्मरणं कुरु : कियाई' कृतानि = पूर्वभवसमाचरितानि, 'दुक्याई' दुष्कृतानिपाणातिपातादीनि 'पावकम्माई' पापकर्माणि । एवं अनेन प्रकारेण वयणमहप्पगम्भो' वचनमहाप्रगल्भा वचनैः नरकपालवाग्भिः महाप्रगल्भः अतिदुर्धर्षः भयावह-इत्यर्थः । संपडिसुयसहसंकुलो ' संप्रतिश्रुतशब्दसंकुल संपतिश्रुतः= प्रतिध्वनितः यः शब्दः, तेन संकुल: व्याप्तः । 'सया ' सदा सर्वदा 'उत्तासओ' उत्त्रासका परमत्रासजनकः 'महाणगरडज्ज्ञमाणसरिसो' महानगरदह्यमानसदृशः =दह्यमानस्य प्रज्वल्यमानस्य महानगरस्य यः शब्दस्तेन तुल्यः, एतादृशः 'तहियं' तत्र नरके-'निरयगोयराणं' निरयगोचराणां-निरयगौः-नरकभूमिः, तत्र चरन्ति =नारकत्रासार्थ विचरन्ति ये ते निरयगोचराः परमाधार्मिकास्तेषाम् , तथाऊपर इसको उछाल दो। ( आकड ) बाल आदि पकड़ कर इसे कण्टकाकीर्ण भूमि में खूब खेंचों । (विकड्ढ ) इसे औधा मुख करके जमीन पर खूब रगड़ो। इस प्रकार की वेदना देने की बात कहकर फिर वह उन नारकियों से कहता है-( किं ण जंपसि ) हे पापी। तू बोलता क्यों नहीं है ( सराहि पावकम्माइं कियाई दुक्कयाई ) पूर्वभव में समाचरित प्राणातिपात आदि अपने पापकर्मों को अब तू याद कर ले। ( एवं ) इस प्रकार का ( वयणमहप्पगम्भो नरकपाल की वाणियों द्वारा अतिदुर्धर्ष भयंकर बना हुआ, (संपडिसुयसहसंकुलो ) प्रतिध्वनि से व्याप्त हुआ, (सया उत्तासओ) सर्वदा दूसरों को त्रास जनक एवं ( महाणगरडज्झ माणसरिसो) दह्यमान महानगर के शब्द के जैसा उद्भूत हुआ (निरभडाशि मा ५२ ते ५31 "विच्छभ" वा पोम तेने ३, "उच्छुभ" तेने 2 3जो, “आकड्ढ" तेने वाण माहिने ५डीने xital भीनमा पसी, “विकड्ढ" तेने धा भाभी ५२ ५५ २होतो. सा प्रमाणे वेदना पायावानी वात परीने ते ना२७ वोने ४ छ “ किं ण जपसि" याची ! तु भारती भ नथी ? “सराहि पावकम्माई कियाइं दुक्कयाई" પૂર્વભવમાં આરારેલ પ્રાણાતિપાત આદિ પાપકર્મોને તું યાદ કરી લે. “a” આ २. “वयणमहप्पगब्भो" न२४ासनी queil 43 मतिष-मय४२ सागतो, "संपडिसुयसहसंकुलो" ५४ाथी व्यास थतो, " सया उत्तासओ" सहा भीतने श्रासन, भने “महाणगरडज्झमाणसरिसो" मतi भडानगरमाथी मत डाय For Private And Personal Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० १सू० ३२ यातनाप्रकारनिरूपणम् 'जायणाहि' यातनाभिः कदर्थनाभिः 'जाइज्जताणं' यात्यमानानां दण्डयमानानां ' नेरइयाणं ' नैरयिकोणां नारकजीवानां च उभयेषामित्यर्थः, 'अणिट्ठो' अनिष्टः-अप्रीतिकारकः 'णिग्योसो' निर्घोष:-महानादः 'सुव्यए' श्रूयते।।मु०३१॥ कास्ता यातनाः ? इति यातना प्रकारमाह-'किं ते ' इत्यादिमूलम्-किं ते? असिवण-दभवण-जंतपत्थर-सूइतलक्खारवावि-कलकलंतवेयरणि कलंववालुया-जलियगुहनिरंभणं उसिणोसिण---कंटइल्ल--दुग्गमरहजोयण--तत्तलोहमग्गगमण वाहणाणि ॥ सू० ३२॥ टीका-'किं ते ' कास्ता यातनाः ? उच्यते – 'असिवण' असिवनंखगाकारपत्रवनं, 'दब्भवण' दर्भवन-दर्भाः तीक्ष्णमुखातृणविशेषास्तेषां वनं, यगोयराणं ) परमाधार्मिकों का तथा ( तहियं ) वहां (जायणाहि) यातनाओं द्वारा (जाइज्जताणं ) दण्डयमान (नेरइयाणं ) नारकियों का (अणिटो) अनिष्ट (णिग्योसो) निर्घोष-शब्द उन नरकों में (सुव्वए) सुना जाता है ॥सू. ३१॥ अब सूत्रकार पूर्वोक्त यातनाओं के प्रकारों को प्रकट करते हैं'किं ते ' इत्यादि। टीकार्थ-प्रश्न-(किं ते ) वे यातनाय कौन २ हैं ? उत्तर-वे यातनाएँ इस प्रकार हैं (असिवण-दब्भवण-जंतपत्थर सूइतल-क्खारवावि-कलकलंतवेयरणि-कलंब वालुया - जलियगुहनिरंभणं ) अम्ब और अम्बरोष परमाधार्मिक उन नारकियों को (असिघण) तलवार की धार के आकार वाले पत्रों के वन में ( दम्भवण ) मेवा, “निरयगोयराणे" ५२माधामि जन तथा "तहिय" त्यां "जायणाहि" यातनामे 43 "जाइज्जताणं" शिक्षा साउन ४२०i “नेरइयाणं " ना२श्रीमान "अणिटो" मनिष्ट निषि-५६, ते न२१मा “सुव्वए" समाय ॐ ॥सू.३१॥ वे सूत्रा२ पूर्वथित यातनासाना २ मतावे छ-"किं ते ?" त्याहि. टी - " किं ते?" ते यातनायो यी ४था छ ? ઉત્તર–તે યાતનાઓ આ પ્રમાણે હોય છે " असिवण, दब्भवण, जंतपत्थर, सूइतल, क्खारवावि, कलकलंतवेयरणि, फलंब वालुया, जलियगुह, निरुंभणं " २५० भने मगरीष नामना ५२माधामि ते नाणी वान "असिवण" तसवानी धारवां मान पत्रानi बनभां, "दभवण" तly Pulavig विशेषांना वनभो. "जंत पत्थर' यत्र For Private And Personal Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११८ प्रश्नव्याकरणसूत्रे 'जंत पत्थर' यन्त्र प्रस्तराः घरट्टादयः 'सूइतल' सूचीतलं-ऊर्ध्वमुखसूचीमय भूमिभागः, 'क्खारवावि' क्षारवाप्यः क्षारजलसंभृतवापिकाः, 'कलकलंतवेयरणि ' कलकलायमानवैतरणी = कलकलशब्दायमानमतप्तत्रपुसीसकादिपूर्णा वैतरणी नामधेया नदी, ' कलंबबालुया' कदम्बवालुका-असिसन्तप्तत्वात्कदम्बपुष्पवद् रक्तवालुकामयी नदी, 'जलियगुह ' ज्वलितगुहा-प्रज्वलिताग्निमयीकन्दरा, इत्येतेषां द्वन्द्वः, तेषु असिवनादिषु 'निरंभणं' निरोधनम् , तथाउसिणोसिणकंटइल्लदुग्गमरहजोयणतत्तलोहमग्गगमणवाहणाणि' उष्णोष्णकण्टकाकीर्णदुर्गमस्थयोजन तप्तलोहमार्गगमनवाहनानि-उष्णादप्युष्ण इत्युष्णोष्णः अत्युष्णः कण्टकैः सुतीक्ष्णकीलकैराकीर्णो व्याप्तो दुर्गमा दुःखेण गमागमनं यस्य स तथा, दुर्गमश्च यो स्थः तस्मिन् योजन-संयोजनं बलीपर्दानामेवेति तत्तथा, तच, तप्तलोहमयमार्गे गमनं-नयनं वाहनं भारोद्वाहन चेति तथा तानि ॥मू०३२॥ तीक्ष्ण अग्रभागवाले दर्भ विशेषों के वन में (जंतपत्थर ) यंत्र प्रस्तरों में (सूइतल ) उर्ध्व मुखवाली सूइयों से युक्त भूमिभाग में, (खारवावि) खारे जल से परिपूर्ण हुई वावडियों में, (कलकलंतवेयरणि ) कलकल शब्द से युक्त ऐसे द्रवीभूत हुए रांग और सीसे आदि से भरी हुई वैतरणी नाम की नदी में, (कलंबवालुया ) अत्यंततप्त होने के कारण कदम्बपुष्प के समान रक्त वर्णवाली वालुका से युक्त नदी में, ( जलियगुह) प्रज्वलित अग्निमयी कन्दराओं में, (निरंभणं ) रोक देते हैं। ( उसिणोसिणकंटइल्लदुग्गमरहजोयणतत्तलोहमग्गगमणवाहणाणि) (उसिणोसिण ) अत्यंत उष्ण, ( कंटइल ) सुतीक्ष्णकंटकों से आकीर्ण, तथा (दुग्गम ) दुर्गम-मुश्किल खींचा जा सके ऐसे ( रहजोयण ) रथ में उन नारकियों को बैलों की तरह जोत देते हैं। (तत्तलोहमग्गगमण ) तप्त प्रस्तरीमा, “सूइतल" reliuो मा अq स्थितिमा सय मेवी सोयोथी युद्धत भूमि ५२, “खारवावि" पास थी लरेसी पावामी, “कलकलंतवेयरणिं" ખળ ખળ અવાજથી યુક્ત. ઓગાળેલા કથીર, સીસું આદિના રસથી ભરેલ वैत२०ी नामनी नहीमi, "कलंबवालुया" भतिशय तपेसी डापाथी ४४.५ पना समान २४१ रेतीथी युत नहीमा, "जलियगुह" पसित निजी ४४राममा “निरंभणं" । छ. “ उसिणोसिणकंटइल्लदुगगमरहजोयणतत्तलोहमग्गगमणवाहणाणि" " उसिणोसिण" भतिशय , “कंटइल्ल" मति ily silथी छपाये, तथा “दुग्गम" दुर्गम-भुश्तीथी ची शय तेवा "रहजो. यण" २५ साथे ते ना२४ीमाने मगहीनी भने छ. " तत्तलोहमगगमण " For Private And Personal Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० १ सू० ३३ यातनाविषये आयुधप्रकारनिरूपणम् ११९ यातनाविषये आयुधप्रकाराह-' इमेहिं ' इत्यादि मूलम्-इमेहिं विविहेहिं आउहेहिं किं ते ? मुग्गरमुसुढिकरकय-सत्ति-हल-गय-मुसल-चक्क-कोत तोमर-सूल-लउल-भिंडिपाल सव्वल पट्टिस-चम्मट्ट-दुहण-मुट्टिय-असि-खेटग-खग्ग--चावनाराय-कणक-कप्पिणि-वासिपरसु-टंक-तिक्ख-निम्मलेहि अण्णेहि य एवमाइएहिं असुहेहिं वेउविएहि पहरणसएहिं अणुबद्धतिव्ववेरा परोप्परं वेयणं उईति अभिहणंता ॥ सू० ३३ ॥ ____टीका-' इमेहिं । एभिः वक्ष्यमाणैः । विविहेहिं ' विविधैः अनेकप्रकारैः 'उहेहि' आयुधैः शस्त्रैः परस्परं यातनाम् उदीरयन्तीत्यग्रेण सम्बन्धः । 'किं ते' कानि तानि आयुधानि ? इत्याह-'मुग्गर ' मुद्गरः प्रसिद्धः 'मुसुंदि' शस्त्र लोहमय मार्ग के ऊपर उन्हें चलाते हैं और फिर ( वाहणाणि ) उनसे शक्ति से भी अधिक भार को वहन कराते हैं ॥सू. ३२ ॥ अब सूत्रकार यातना के विषय में आयुधों के प्रकारों को कहते हैं-'इमेहिं विविहेहिं ' इत्यादि । ___टीकार्थ-(इमेहिं) इन वक्ष्यमाण (विविहेहिं) अनेक प्रकार के (आउहेहिं) आयुधों-शस्त्रों से वे नारकी परस्पर में यातना ( वेदना) को उत्पन्न करते हैं । इस प्रकर से यहां संबंध घटित कर लेना चाहिये-( किं ते) वे आयुध कौन २ से हैं ? सो उन्हें प्रकट करते हैं- ( मुग्गर ) मुद्र (मुसुंढि ) मुसुंढि-शस्त्र विशेष ( करकय ) क्रकच-करोंत (सत्ति) तपास खोताना भाग ९५२ तभने सावे छ भने जी “वाहणाणि" तेमनी શક્તિ કરતાં પણ વધારે છે તેમની પાસે ઉપડાવે છે . સૂ ૩ર છે હવે સૂત્રકાર યાતનાઓ આપવા માટે ઉપયોગમાં લેવાતાં આયુધનું वन रे छे-“इमेहिं विविहेहिं" छत्यादि. ___"इमेहिं विविहेहि" नाय शक्विामi nei भने ४२ri “आउहहिं" આયુધ-શાસ્ત્રો વડે તે નારકીઓ પરસ્પરમાં યાતના “વેદના ઉત્પન્ન કરે છે, એ પ્રકારને સંબંધ અહીં સમજી લેવાને છે. "किं ते ? " ते आयुधो ४यां या छ ? तो सूत्रा२ ते सायुधे। मतावे - "मगर" भगत, "मुसुंढि" भुसदी नामनु , "करकय" ४४५-४२१त, For Private And Personal Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे विशेषः ' करकय ' क्रकच-परपत्रं ' करवत' इति भाषा मसिद्धं, 'सत्ति' शक्तिः त्रिशूलं 'हलं ' प्रसिद्धं, ‘गय ' गदा-प्रसिद्धा, ' मुसलं ' प्रसिद्धमेव 'चक्क' चक्र-शस्त्रविशेषो स्थाङ्गकारः ‘कौत ' कुन्तः ‘भाला' इति भाषाप्रसिद्धः, 'तोमर' तोमरः ' गुरजर' इति प्रसिद्धः 'मूल' शुलं सुतीक्ष्णलोहकण्टकमयशस्त्रविशेषः प्रसिद्धः, 'लउल' लकुटः - यष्टिः, 'भिंडिपाल' भिण्डिपाल: । गोफण' इति प्रसिद्धः, ' सव्वल ' शर्वल:-' बरछी' इति प्रसिद्धः, 'पहिस' पटिशः शस्त्रविशेषः, 'चम्मेद्व' चर्मेष्टः चर्मवेष्टितपाषाणमयशस्त्रविशेषः, 'दुहण' द्रुघणः = मुद्गरविशेषः 'मुट्ठिय ' मुष्टिक:- घण' इति प्रसिद्धः, 'असि' लघुखगः, ' खेडग ' खेटकः = शस्त्रप्रहाररोधकशस्त्रविशेषः, 'ढाल ' इति भाषा प्रसिद्धः, 'खड्ग' खना=सुतीक्ष्णदीर्घाकारोऽसिरेव ' चाव' चापः धनुः 'नाराय' नाराचा लोहमयवाणः, 'कणक'कणका आणविशेषः 'कप्पिणि' कल्पनी कर्तरिका 'कैंची ' इति भाषा प्रसिद्धा, 'वासि ' वासी-तक्षणशस्त्रविशेषः 'वसुला' इति भाषा प्रसिद्धा, ' परसु ' परशुः-कुठारः, एषां द्वन्द्वः, ते च ते 'टंक तिक्ख' शक्ति-त्रिशूल, ( हल ) हल ( गय) गदा ( मुसल) मुसल, ( चक्क ) चक्र-रथाङ्ग के आकार शस्त्र विशेष, (कोत ) भाला, ( तोमर) तोमरगुरजर, ( मूल ) अत्यंततीक्ष्ण धारवाले लोहे के कांटो वाला शस्त्रविशेष, (लउल ) लकड़ी-लाठी (भिडिपाल ) गोफण, (सव्वल ) बरछी, (पटिस ) पटिश, इस नाम का शस्त्रविशेष, ( चम्मे8) चर्मवेष्टितपाषाणमयशस्त्रविशेष, ( दुहण ) द्रुघण-एक जाति का मुद्गरविशेष, (मुट्ठिय) मुष्टिक-घण-जिस पर रखकर लोहार लोहे को कूटते हैं, ( असि ) तलवार ( खेटक ) ढाल, (खड्ग ) सुतीक्ष्ण एवं दीर्घ आकार युक्त तलवारबड़ी तलवार, ( चाव ) धनुष, (नाराय) लोहमय बाण, (कणक) एक प्रकार का बाण, ( कप्पिणि ) कतरिका-कैची, ( वासि ) बसूला (परसु) "सत्ति" शति-त्रिशून, "हल" , "गय" 16!, “मुसल" भुसण-सांग्रेड', "चक्क" 23,-२थनां पैडाना भानु शस्त्र, "कांत" मासो, 'तोमर" તેમર-ગુરજર, “ઢ” અત્યંત તીક્ષ્ણ ધારવાળાં લેઢાના કાંટા વાળુ એક શસ "लउल" all-etsी. "भिडिपाल" ५९, “सव्वल " ॥२७, “पहिस" पहिश नामर्नु मे शत्र, चम्मेदृ' यामाथी भठेयु पथ्थरनु मे ५४२नुं शस्त्र, "दुहण" दुध- तनुं भगत, "मुद्रिय" भुष्टि४-५], ना ५२ भूटीन टूडार सोढाने टीय छ, “असि" तववार, "खेटक" ढास, "खड्ग' सत्यात तीक्ष्ण मते दisी तयार-मोटी तसा२, "चाव" धनुष, ' नाराय" सोढार्नु पा, "कणक" मे विशिष्ट प्रा२नु मा "कप्पिणि" तर, “वासि" aiwal For Private And Personal Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० १ सू०३४ परस्परवेदनादीरणायां नारकदशावर्णनम् १२१ टङ्गतीक्ष्णाः अग्रतीक्ष्णाः क्षाणोत्तेजितत्त्वात् , 'निम्मल' निर्मलाच-जाज्वल्यमानः, इत्येभिः । 'अण्णेहि य ' अन्यैश्च ' एवमाइएहि ' एवमादिभिः 'असु. हेहि ' असुखैः परमदुःखोत्पादकैः ‘वेउविएहिं ' वैक्रियकैः वैक्रियशक्तिसम्पादितैः 'पहरणसएहि ' पहरणशतैः अनेकशस्त्रैः 'परोप्परं' परस्परम् अन्योन्यम् , 'अभिहणंता' अभिघ्नन्तः अणुबद्धतियवेरा' अनुवद्धतीववैराःम्पूर्वभवे हिंसादिभिरनुबद्धं तीव्र वैरं यस्ते तथा बद्धवैरानुवन्धिकर्माणः नारकाः, 'वेयणं' वेदनां पीडाम् ' उईरंति ' उनीस्यन्तिसमुत्पादयन्ति । सू० ३३ ॥ परस्परं वेदनामुदीरयन्तो नारकाः कीदृशा भवन्ति ? इत्याह-' तत्थय मोग्गर' इत्यादि। मूलम्-तत्थ य भोग्गर पहार चुण्णिय-मुसंढि संभग्गमहितदेहा जंतोवपीलणफुरंतकप्पिया केइत्थ सचम्मगा विगत्ता णिम्मूलल्लूणियकण्णोदृ णासिया छिण्णहत्थपाया ॥सू०३४॥ टीका-'तत्थ य' तत्र च नरके 'मोग्गरपहारचुण्णिय मुसंढि-संभग्गमहियदेहा' मुद्गरप्रहारचूर्णित-मुसण्डि संभग्नमथित-देहाः = मुद्राणां प्रहारैः कुठार-कुल्हाडी ( टंकतिक्ख ) ये सब शाण पर उत्तेजित किये हुए होने से बहुत अधिक अग्रभाग में तीक्ष्ण होते हैं, और (निम्मला) चरचमाते हैं सो इन शस्त्रों से, तथा ( अण्णेहिं एवमाइएहिं ) इनसे भिन्न और भी (असुहेहिं ) पर दुःखोत्पादक तथा ( वेउब्बिएहिं ) वैक्रिय शक्ति से सम्पादित (पहरणसहिं ) सैकडों शस्त्रों से ( परोप्परं) परस्पर में एक दूसरे को ( अभिहणंला ) मारते हुए वे (अणुबद्धतिव्ववेरा) पूर्वभव में हिंसादि पापों द्वारा अणुबद्ध तीव्र वैर वाले नारकी (वेयणं) वेदना-पीडा को (उईरंति ) उत्पन्न करते हैं।। सू. ३३ ॥ परस्पर में तीव्र वेदना को उत्पन्न करते हुए वे नारकी कैसे हो जाते "परसु" (डाडी, "ट कतिक्ख' 2 या शस्त्रो सराए ५२ वह पाने ४।२0 तेमनी घा२ तथा मणी agी तीक्ष्य छ, भने ते " निम्मला " यतi हाय छ. २ ५.२i शस्त्रोथी तथा “ अण्णेहिं एव माइहि " ते Sid Milot ५९ " असुहेहिं " मन्यने हुमाय तथा “वेउव्विाह " वैठिय शस्तिथी युत “पहरणसएहिं "स' शस्त्रोथी “परोप्पर'" जीतने "अभिहणंता" भारतi, “ अणुबद्धतिव्ववेरा" पूलवमा हिंसादी पाषा वा तीन वरथी युक्त, ना२४ी व "वेवणं,, ५२२५२मा वहन। " उईरति" Sपन्न रे. પરસ્પર વેદના તીવ્ર વેદના ઉત્પન્ન કરતાં કરતાં તે નારકી જીવે કેવા થઈ प्र०१६ For Private And Personal Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२२ प्रश्नव्याकरणसूत्रे पघातैः चूर्णितः कुट्टितः, मुसण्डिभिः शस्त्रविशे षैः संभग्नः-जर्जरीकृतः, मथितश्च-कुम्भ्यादौ-दधिवद् विलोडितः देहो येषां ते तथा, 'जंतोवपीलणफुरंतकप्पिया' यन्त्रोपपीडन स्फुरत्कल्पिताः-यन्त्रेषु उपपीडनेन सम्मईनेन स्फुरन्तः वेपमानाः कल्पिता: कलिता ये ते तथा 'केइत्य' केचिदत्र-केचित् नारकाः अत्र-नरकेषु 'सचम्मगा' सचर्मकाः चर्मसहिताः 'विगत्ता 'विकृत्ताः छेदिताः मृत-पशुवद् उत्पाटितचर्मशरीराः, जिम्मूलुल्लूणियकण्णोढणासिया' निर्मूलोल्लूनकोष्ठनासिकाः निर्मूलं मूलतः उल्लूनाः कर्तिताः कौँ ओष्ठौ नासिका च येषां ते तथा, 'छिण्णहत्थपाया ' छिन्नहस्तपादाः छिन्ना हस्ताः पादा येषां ते तथा भूता नारकाः भवन्ति ॥ मू० ३४ ॥ अपि च–'नस्थ य असि' इत्यादि मूलम्-तत्थ य असि-करकय तिक्खकोत-परस्सुप्पहार• फालिय-वासीसंतच्छियंगमंगा कलकलमाणखारपरिसित्तगाढहैं ? इस बात को सूत्रकार कहते हैं-' तत्थ य मोग्गर इत्यादि। टीकार्थ-(मोग्गरपहारचुण्णिय-मुसंढि संभग्ग-महिय देहा) उन नरकोंमें मुद्गरों के प्रहारों से चूर्णित, मुसंढि जाति के शस्त्रविशेषों से जर्जरीकृत एवं कुंभी आदि में दही की तरह मथित है देह जिन्हों की ऐसे (केइत्थ) कितनेक नारकी नरकों में (जंतोवपीलग फुरंतकप्पिया) यंत्रों में संमदन से कंपित होते हुए काट दिये जाते हैं । ( सचम्मणाविगत्ता) इनके शरीर के उपर की चमड़ी मृतपशु की चमड़ी की तरह उसाड़ ली जाती है। (णिम्मूलुल्लूणियकण्णो?णासिया) मूलतः इनके ओष्ठ और नाक काट ली जाती हैं । (छिन्न हत्थपाया) हाथ पैर छिन्न भिन्न कर दिये जाते हैं ।। सू. ३४॥ जय छ, ते पात सूत्रा२ हवे सतावे छ- "तत्थ मोगर " त्याह. " मोगर पहार चुण्णिय, मुसंढि संभग्ग-महिय देहा " ते न२मा भाना પ્રહારોથી ચૂર્ણિત, મુસંઢિ નામના શસ્ત્રથી જર્જરિત કરેલ અને કુંભી આદિમાં हनी भरेभन शरी२ पोवाय छे. तेवi " केइत्थ " सा ना२श्रीमान नरमा “जंतोवपीलणफुरतकप्पिया " यत्रामा पासवानी भी पता ल्य तेवी सतमi stी नापामा मावे छ. “ सचम्मणा विगत्ता" तेभनो शरीर 6५२नी यामी मृत५शुनी यामीनी म उतारी सेवामा मावे छ. “णिम्मूलु स्वणिय कण्णोदुणासिया " तेमन 18, ना माने जान भूगमाथी आधी सेवामा भाव छ, “छिन्नहत्थपाया" हाथ भने ५॥ छिन्नभिन्न ४२वामा मा छ।सू-३४॥ For Private And Personal Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनीटीका भ. १ सू. ३५ परस्परवेदनोदीरणायां नारकदशावर्णनम् १२६ डझंतगत्तकुंतग्गभिण्ण-जजरियसव्वदेहा विलोलंति महीतले विसूणियंगमंगा ॥ सू० ३५॥ टीका-'तत्थ य' तत्र च असिकरकयतिक्खकोतपरसुप्पहारफालियवासीतच्छियंगमंगा' असिक्रकचतीक्ष्णकुन्त परशुप्रहारपाटित-वासीसन्तक्षिताङ्गोपाङ्गा-तत्र-असिः खड्गः, क्रकचा करपत्रं ' करवत' इति प्रसिद्धः, तीक्ष्णकुन्तः= तीक्ष्णभलः, परशुश्च - कुठारः, एतेषां महारैः पाटितानि = विदारितानि, तथा वासोभिः सन्तक्षितानि तनूकृतान्यङ्गोपाङ्गानि येषां ते तथा, 'कलकलमाणखारपरिसित्तगाढडझंतगत्त-कुंतग्गभिण्णजन्जरियसव्वदेहा , कलकलायमानक्षारपरिपिक्तगाढदह्यमानगात्रकुन्ताग्रभिन्नज रितसर्वदेहाः = अत्युत्कालितत्वात्कलकलायमानेन-क्षारेण सर्जिक्षारादिजलेन परिषिक्तम् , अतएव-गाढम्-अत्यन्तं दह्यमानं गात्रं येषां ते, तथा कुन्तानामग्रैः-निशितधाराभिभिन्नोऽत एव जर्जरितो और भी-'तत्थय असि इत्यादि। टीकार्थ-(तत्थ य) उन नरकों में (असि-करकय-तिक्खकोत-परसु. प्पहारफालिय-वासीतच्छियंगमंगा) असि-तलवार, क्रकच-करोंत, तीक्ष्ण कुन्त-तीक्ष्णधार वाले भाले और परशु-कुठार उनके प्रहारों से विदारित किये गये तथा बाद में वासी-वमलों से छोल २ कर पतले किये गये हैं अंग उपांग जिन्हों के ऐसे ( कलकलमाणखारपरिसित्तगाढ डझंत गत्त-कुंतग्गभिण्णजज्जरियसव्वदेहा) तथा अत्यंत उकला हुआ होने से कलकलायमान सर्जिक्षार आदि के जल से सिञ्चित किये गये होने से जिनका शरीर अत्यंत दह्यमान हो रहा है ऐसे, भालों के अग्रभाग से भिन्न होने के कारग जिनका सकल शरीर बिलकुल जर्ज qणी सूत्र४२ ४ छ -" तत्थ य असि" त्यादि. टी -'तत्थ य" ते नरीमा “ असि, करकय, तिक्खकोंत, परसु, प्पहार फालिय वासी तच्छियंगमंगा" मसि-तसार, ४४५-४२१त, तled-iley અણીવાળા ભાલા અને પરશુ-ફરશીના પ્રહારોથી ચીરવામાં આવેલ અને ત્યાર બાદ વાંસલા વડે પેલી છોલીને જેમનાં અંગ ઉપાંગે પાતળાં કરવામાં આવ્યાં छ तेवा, तथा “कलकलमाणखारपरिसित्तगाढ डझत गत्त-कुंतिम्गभिण्णजर्जरिया सम्वदेहा " मत्यंत गेस पाने २0 ४७१४ता सामा२ माहिना पातुं સિંચન કરવાને કારણે જેમનાં શરીર અત્યંત જળી રહ્યાં છે તેવા, અને ભાલાની અણીથી વધવાને કારણે જેમનાં શરીર બિલકુલ જર્જરિત થઈ ગયાં છે सपा "विसूणियंगमंगा" तथा विविध प्रा२ना प्रडाराथी ना १२ सूझीयां For Private And Personal Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir অস্ববান্ধা सर्वदेहः सकलशरीरं येषां ते तथा, 'विणियंगमंगा' विशुनिताङ्गोपाङ्गा = विशूनितानि नानाविधप्रहारैः संजातशोथानि, कलकलायमानजलसेचनेन समुत्पन्नस्फोटकानि वा अङ्गोपाङ्गानि येषां ते तथा, एवं परमाधामिकैः कर्थिताः सन्तो नरकजीवा महीतले कठोरनरकभूमौ विलोलंति' विलुलन्ति-विलुठन्ति ॥०३५॥ ततः किं भवती ? त्याह-' तत्थ य विग' इत्यादि । ___मूलम्-तत्थ य विग-सुणग-सियाल-काक-मज्जार-सरभदोविय-वियग्घ-सदल-सीह-दप्पिय-खुहाभिभूएहिं णिच्चकालमणसिएहिं घोरारसमाणभीमरूवेहिं अकमित्ता दढदाढा-गाढडक-कड्डिय-सुतिक्खनहफालियउद्धदेहा विच्छिप्पं ते समंतओ विमुक्कसंधिबंधणा वियंगमंगा कंककुररगिद्धघोरकट्टवायसगणेहिं य पुणो खरथिरदढणक्ख-लोहतुडेहिं ओवइत्ता पक्खाहयतिक्खणक्खविकिन्नजिब्भछियनयणनिदओलुग्गविगतवयणा उक्को. संता य उप्पयंता नियडंता भमंता ॥ सू०३६॥ टीका-तत्र च 'विग' वृकाईहामृगाः भेडिया ' इति प्रसिद्धाः रित हो चुका है ऐसे (विसूणियंगमंगा) तथा नाना प्रकार के प्रहारों से जिनमें सूजन आगई है, अथवा कलकलायमान क्षार जल के सिंचन से जिन पर फफोले पड़ गये हैं ऐसे अंग उपांग वाले वे नारकी जीव परमाधार्मिकों द्वारा कर्थित होकर ( महीतले ) नरक की कठोर भूमि पर ( विलोलंति ) लोटते हैं ॥ सू. ३५ ॥ इसके बाद क्या होता है ? इस बात को सूत्रकार प्रदर्शित करते हैं-'तत्थ य विग-सुणग' इत्यादि। टीकार्थ-(तत्थ य) उन नरकोंमें (विग-सुणग-सियाल-काक-मज्जारછે તેવા, અથવા કળકળતા ક્ષારયુક્ત જળ સિંચનથી જેમનાં અંગ ઉપાંગો પર ફેલા પડી ગયા છે. એવા નારકી જીવ પરમધામિર્ક દ્વારા યાતનાઓ. पाभीने “ महीतले " न२४नी ४२ भूमि ५२" विलोलंति" ५staय छे. ॥सू-34।। त्या२६ शु थाय छे. ते पात सूत्रा२ मतावे छ-" तत्थ य विगसुणग" त्यादि. टी -"तत्थ य" ते नरभा“विग-सुणग-सियाल-काक-मज्जार-सरम-दीविय For Private And Personal Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुशिनी टीका अ० १ सू० ३६ परस्परवेदनोदीरणायां नारकदशावर्णनम् १२५ 'सुणग' श्वानः 'सियाल ' शगालाः, काका प्रसिद्धा 'मजार' मार्जाराः = विडालाः, शरभाः अष्टापदाः 'दीविय' द्वीपिका चित्रकाः ‘वियग्ध ' व्याघ्राः प्रसिद्धाः, 'सर्दूल' शार्दूला व्याघ्रविशेषाः, 'सीह' सिंहाः केसरिणः, ते च कादयः कीदृशाः ? ' दप्पिय ' दर्पिताः गर्विताः, तथा 'खुहाभिभूया' क्षुधाभिभूताः क्षुधापिपासाव्याकुलास्तैः ‘णिच्चकालं ' नित्यकालं-सर्वदा 'अणसिएहिं ' अनशितैः अभुक्तैः 'घोरारसमाण भीमरूवेहिं घोराऽऽरसमानभीमरूपैः घोराः भयंकरकर्माणः आरसमानाः अतीवाक्रोशन्तोभीमरूपाः=भयानकाकृतयश्च ये ते तथा तैः — अकमित्ता' आक्रम्य आक्रमणं कृत्वा 'दृढदाढागाढडककड़ियमुतिक्खनहफालिय उद्धदेहा' दृढदंष्टा गाढदंष्ट्रकर्षित-सुतीक्ष्णनखपाटितोर्ध्व सरभ-दीविय-वियग्य-सदूल-सीह-दप्पिय-खुहाभिभूएहिं ) (दप्पिय ) दर्पित-गर्वित तथा (खुहाभिभूएहिं ) भूख प्यास से अत्यंत व्याकुल तथा (णिञ्चकालमणसिएहिं ) उस समय जिन्हों ने बिलकुल कुछ भी नहीं खाया होता है ऐसे, और इसी कारण जो (घोरारसमाणभीमरूवेहिं) घोर-क्रूर कर्म करने के लिये तत्पर बन चुके हैं, अतः चीत्कार करने से भीमरूप जिनका रूप भयंकर बन रहा है ऐसे (विग) वृक-भेडिया, (सुणग ) श्वान-कुने, (सियाल ) श्रृगाल-गीदड़ ( काक) कौवे, (मज्जार ) मार्जार-विलाब, (सरभ) अष्टापद, (दीविय) द्वीपिक-चिता, (वियग्य ) व्याघ्र, (सहल ) शार्दूल-व्याघ्र विशेष, और, सिंह इनके द्वारा ( अकमित्ता) आक्रमण करके (दढदाढा-गाढडक्क-कड्डिय-सुतिक्ख नहफालिय उद्धदेहा ) पहिले दृढदंष्ट्राओं से डसे जाते हैं, पश्चात् पृथ्वीवियग्ध-सदल-सीह-दप्पिय-खुहाभिभूएहिं " " दप्पिय " पित--विट तथा " खुहाभिभूएहिं " भूम प्यासथी-मत्यात व्याज तथा “णिच्चकालमणसिपहि" ते आणे भने मिस पो।४ भन्यो डात नथी मे। मने मेर ४२ रे "घोरारसमाणभीमरूवेहिं " ।२-२ ४ ४२वाने भाट मातुर येस છે, તે કારણે ચિત્કાર કરવાથી જેમને દેખાવ અતિ ભયંકર બની ગયા છે मेवा “ विग" ५.४-१२, “सुणग" वान-ठूत, 'सियाल" शिया, "काक" 111, “ मज्जार ” भान २ मिसा, सरम मटा५४, “दीविय" द्वीप:थित्ता, “ वियग्ध" वाघ, “ सद्दल " शाई-विशिष्ट प्रा२न. पायभने सिंड वगैरे प्राणिो । “अक्कमित्ता" भए ४ीने “ दढवाढा-गाढडक्क कड्डिय-सुति. क्स-नहफोलिय उद्धदेहा" ५i भभूत sial 43 तेभने ५४४ मरे छ, For Private And Personal Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्र देहा: दृढाभिर्दष्ट्राभिः गाढम् अत्यन्तं ' डक्क ' दृष्टाः, कर्षिताः पृथ्वीतले इतस्ततः समाकृष्टाश्च ये ते, तथा सुतीक्ष्णनखैः पाटिता:-द्विधा कृताः ऊर्ध्वदेहाः उर्वशरीराणि येषां ते तथा, अत एव-विमुक्कसंधिबंधणा' विमुक्तसन्धिबन्धनाः -विमुक्तानि-शिथिलीकृतानि सन्धीनां अङ्गसन्धानस्थानानां बन्धनानि येषां ते तथा, 'वियंगमंगा' व्यङ्गाङ्गाः व्यङ्गानि-खण्डितानि अङ्गानि करचरणकर्णनासिकादीनि येषां ते तथा, एवंभूता नरकजीवाः परमाधार्मिकैः ‘समंतओ' समन्ततः चतुर्दिक्षु गगने 'विच्छिप्पते ' विक्षिप्यन्ते = काकबलिवत्मक्षिप्यन्ते, 'पुणो य' पुनश्च-प्रक्षेपणानन्तरं ते नारकाः 'कंक-कुरर-गिद्धघोरकट्ठवायसगणेहिं ' कङ्ककुररगृध्रघोरकष्टवायसगणैः = कङ्काः-कुरराः पक्षिविशेषाः गृध्राः मसिद्धाः, घोरकष्टवायसाः घोरकष्टाः असहक्लेशकारका ये वायसा: काकास्ते तथा तेषां गणैः समूहैः, कीदृशैस्तैः ? इत्याह-'खरथिरदढणक्खलोहतुंडेहिं ' खरस्थिरदृढनखलोहतुण्डैः खराः तीक्ष्णाः स्थिराः-निश्चलाः दृढा कठोरवस्तुतलपर इधर से उधर खेचे जाते हैं-घसीटे जाते हैं, तथा सुतीक्ष्ण नखों के प्रहारोंसे उनके उर्ध्व शरीर को दो टुकडे कर दिये जाते हैं। इस कारण (विमुकसंधिबंधणा) उनके संधियों के बंधन विलकुल ढीले हो जाते हैं। (वियंगमंगा ) वहां नारकियों के कर, चरण, कर्ण, नासिका आदि अंगों को खडित कर दिया जाता है और ( समंतओ विच्छिापते )जिस प्रकार काकबलि दिशाओं में फेंक दी जाती है वे विचारे नारकी भी इसी तरह से आकाश में इधर उधर दिशाओं में फेंक दिये जाते हैं। ( पुणोय) फिर पश्चात् (कंककुररगिद्धघोरकट्ठवायसगणेहिं ) कंक, कुरर, गृद्ध और असह्य क्लेश कारक वायसों-कौओं का समूह कि ( खरथिरदढ णक्खलोहतुंडेहिं ) जिनके नखतीक्ष्ण, स्थिर कठोर वस्तु के विदारण પછી જમીન ઉપર તેમને આમ તેમ ખેંચે છે ઘસડે છે, તથા અતિશય તીણ नम मरावीने तेमनi Bq शरीर मे ८४७॥ ४२री नामेछ. ते १२० " विमु. कसंधिबंधणा" तमना सांधायाना मधन तदन ढीn / नय छ. “वियंग. मंगा" त्यांनाहीगाना डाथ, ५, आन, ना माहिमगार्नु मन ४२वामा भावे छ भने "समंतओ विच्छिप्पते" (मसिन या हिशामा ३४વામાં આવે છે તેમ તે બિચારા નારકીઓને પણ આકાશમાં આમ તેમ ફેંકपामा मावे छ. " पुणो य” त्या२ ५४ " कंककुररगिद्धघोरकट्टवायसगणेहिं " ४४, २२. गीध, मने असा यातना ना२॥ ४॥२५॥मानी समूड, “ खरथिर ढणक्खलोहतुंडेहिं " मना तle] नम ४४९४ परतुमाने थीयो पछी For Private And Personal Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० १ सू० ३६ परस्परवेदनोदीरणायां नारकदशावर्णनम् १२० च्छेदनेऽपि अभग्नाः नखा येषां ते तथा ते च ते लोहतुण्डाः लोहवत्कठोरचन्चुकाश्च, तैः 'ओवइत्ता ' अवपत्य अन्तराल एव आक्रम्य ' पक्खाहयतिक्खणक्ख विकिन्न जिब्भच्छित्तनयणनिद्दओलुग्गविगयवयणा' पक्षाहततीक्ष्णनखविक्षिप्त जिह्वाक्षिप्तनयननिर्दयावरुग्णविकृतवदनाः' पक्खाहय ' पक्षाहताः-पक्षराहता ताडिताः तीक्ष्णैनलै विक्षिप्ता=आकृष्टा मुखाब्दहिनिष्काशिता जिहाः येषां ते तथा, आक्षिप्ते बहिष्कृते नयने येषां ते तथा, अतएव निर्दयं यथास्यानथा अवरुग्णं भग्नं विकृतं विरुपी कृतंच वदनं येषां ते तथा, ततः सर्वेषां कर्मधारयः, उक्कोसंता' उत्क्रोशन्तः हा हा शब्दैराक्रन्दं कुर्वन्तः 'उप्पयंता' उत्पतन्तः परमवेदनाभिश्चिकदष्टकपिवद् गगने उच्छलन्तः 'निवडता' निपतन्तः पृथिव्यां लुठन्तः, 'भमंता' भ्रमन्तः इतस्ततः पलायमानाः दुःखमनुभवन्ति ॥ ३६ ॥ करने पर भी-वैसे ही बने रहते हैं-नहीं टूटते हैं तथा चोंचे जिनकी लोह के जैसी कठोर होती है, वे उन्हें ( ओवइत्ता ) बीच ही में पकड़कर ( पक्खाहय - तिक्खणखविकिन्नजिन्भछियनयणनिद्दओलुग्गविगतवयणा) अपनी पांखों से आहत करते हैं, तीक्ष्ण नखों से उनकी जीभ को उनके मुख से बाहिर निकाल लेते हैं और दोनों आंखों को भी बाहिर काढ लेते हैं। इस तरह निर्दयतापूर्वक विरूपरूप वाले बनाये गये वे पापकारी नारकजीव ( उकोसंता य ) हाय हाय शब्द करते हुए ( उप्पयंतो) विच्छ से काटे गये बंदर की तरह अत्यंत वेदनाओं से आकाश में ऊपर को उछलते हैं और फिर (निवडता ) नीचे गिरते हैं। (भमंता) गिर कर फिर इधर उधर भागते हुए दुःखों का अनुभव करते हैं ।।सू. ३६ ॥ પણ એવાને એવા જ રહે છે-તૂટતા નથી તથા જેમની ચાંચ લેઢાના જેવી ४४९ सय छ, aqi ते पक्षीमे। तेभने “ ओवइत्ता" पश्ये १ ५४ीन " पक्खाहय-तिक्खणक्खविकिन्नजिब्भछियनयणनिदओलुग्गविगतवयणा " पोताना પ વડે મારે છે, તીણ નખેની મદદથી તેમની જીભને તેમનાં મુખમાંથી બહાર ખેંચી કાઢે છે અને બન્ને આંખેને પણ બહાર કાઢી નાખે છે. આ शत नियताथी मे31 मनापामा माता ते ५५४ारी ना२४ी ! “उक्कोसंता य" हाय ! डाय! ४२तi " उप्पयंतो" :पीछी म भाई डाय त्यारे કૂદાકૂદ કરતા વાનરની જેમ, અત્યંત વેદનાથી વ્યાકુળ થઈને આકાશમાં ઉપ२नी मान्ने छ, भने “निवडता" ail i नाय ५३ छ " भमेता" નીચે પડીને વળી આમ તેમ નાસ ભાગ કરતાં તેઓ દુઃખ અનુભવે છે સૂ-૩૬ For Private And Personal Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १२८ प्रश्नव्याकरणसूत्रे ततस्तेषां यथा भवति तथा प्रतिपादयन्नाह - ' पु०त्रकम्मो० ' इत्यादि । मूलम् - पुत्रकम्मोदयोवगया पच्छाणुस एणडज्झमाणा निंदता पुरेकडाई कम्माई पावगाई तहिं तहिं तारिसाणि ओसण्णं चिक्कणाई दुक्खाई अणुभवित्ता तओ यआउक्खएणं उवट्टिया समाणा बहवे गच्छति तिरिय वसहिं दुक्खुतारं सुदारुणं जम्मण मरण जरा वाहि परियहणारहद्वं जल थल खहचरपरोप्परविहिंसणपचं ॥ सू० ३७ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टीका - 'पुत्रकम्मो यो गया' पूर्वकर्मोदयोपगताः कृतानां पूर्वेषां कर्मणामुदयेन उपगताः तिर्यगादिकुयोनिषु गमनोन्मुखास्ते नारकाः ' पच्छाणुसपण ' पश्रादनुशयेन = पश्चात्तापेन ' डज्झमाणा ' दह्यमानाः = सन्तप्यमानाः ' पुरेकडाई' पुराकतानि = पूर्वाचरितानि 'पावगाई' पापकानि प्राणातिपातादीनि 'णिदंता ' निन्दन्तः = मिथ्यात्वाज्ञानमोहान्धेन महारम्भमहापरिग्रहसमासक्तेन मया पूर्वभवे कुशा इसके बाद उन नरकों की जो स्थिति होती है- विचार धारा बंधती है, सूत्रकार अब उसका प्रतिपादन करते हैं-' पुव्वकम्मोदयोवगया ' इत्यादि । टीकार्थ - (पुच्चकम्मोदयोवगया) कृत पूर्वकर्मों के उदय से तिर्यग् आदि कुयोनियों में गमन के सन्मुख बने हुए वे नारक (पच्छाणुस एण) पश्चात्ताप से (ज्झमाणा ) सन्तप्यमान होकर अपने ( पुरेकडाई ) पूर्वांचरित ( पावगाई) प्राणातिपातादिक ( कम्माई ) पापकर्मों की ( जिंदता) इस प्रकार निंदा करने लगते हैं-" मिध्यात्व, अज्ञान तथा मोह से अन्ध बने हुए मैंने महा आरंभ और महा परिग्रह में आसक्त होकर पूर्वभव ત્યાર ખાદ તે નારકી જીવેાની જે વિચારધારા ચાલે છે તેનું હવે સૂત્ર २ प्रतिपादन छे - " पुव्वकम्मोदयोवगया ” इत्यादि. " " टीअर्थ - " पच्छाणुसपण " पूर्वे यांना उदयथी तियंशू आदि योनियोमां ગમન કરવાની પરિસ્થિતિમાં મૂકાયેલ તે નારકી જીવેા “ पच्छाणुसपण " पश्चात्तापथी " " संतस ने पोते " पुरेकडाई ” पूर्वाथरित “ पावउज्झमाणा गाई " आशातियातादि “ कम्माई ” पाय भनी “दिता " या प्रमाणे निहा કરવા માંડે છે-“ મિથ્યાત્વ, અજ્ઞાન તથા મેહુથી અધ બનેલા એવા મે' મહા આરંભ અને મહાપરિપ્રતુમાં આસક્ત થઈને, પૂર્વભવમાં દની અણી પર For Private And Personal Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० १ सू० ३७ नारकपश्चात्तापनिरूपणम् १२९ ग्रजलबिन्दुबच्चश्चलानां कमलदलगतजलबिन्दुवदापातरमणीगानां क्षणमात्रमुखानां बहुकालदुःखाना भोगानां लिप्सया-अर्थमनथं धर्मार्थ वा अनेके हीनादीना अत्राणा अशरणा अनाथा असहायाः मियजीवितामरणमतिकूलाखसस्थावरा जीवा निर्दयं हता उपहता उपमर्दिताः परितापिताः प्राणरहिताः कृताः, सद्गुरुणा प्रतिबोधितोऽपि अहं तन्निर्दिष्टमार्गमनादृत्य कुमार्गमेव शरणीकृतवान् , तस्येदं फलं साम्पतमनुभवामि " इत्यादिरूपेण स्वकृतकर्मणां निन्दां कुर्वन्तः ' तहिं तर्हि ' तत्र तत्र नरके रत्नप्रभादिके 'तारिमाणि' तादृशानि-तत्तन्नरकभोग्यानि 'ओसणं ' इति सातिशयं देशीशब्दोऽयम् , 'चिकणाई' चिकणानि दुर्भेद्यानि 'दुक्खाई' दुःखानि -अशातावेदनीयरूपाणि 'अणुभवित्ता' अनुभूय — तो य' ततश्च तस्मान्नरकात् में कुश के अग्रभाग में स्थित जलबिन्दु के समान चंचल, कमल दल के ऊपर रहा हुई जलबिन्दु के समान आपातरमणीय, क्षणमात्रसुखदायी परन्तु बहुतकालतक दुःखप्रद, ऐसे भोगों की लिप्सा से अपने अर्थ से अनर्थ या धर्म के निमित्त अनेक हीन, दीन, अत्राण, अशरण, अनाथ, असहाय, प्रियजीवित और मरण से सदा भयभीत ऐसे बस स्थावर जीवों को निर्दय बन कर मारा, बार २ उन्हें कष्ट पहुँचाया, उपमर्दित किया, और प्राणरहित किया। इस विषय में मुझे सद्गुरु देव ने समझाया भी, तो भी मैं तन्निर्दिष्टमार्ग की अवहेलना करके कुमार्ग पर ही हटा रहा। उसी का यह फल इस समय मैं भोग रहा हूं।" इस प्रकार से अपने पूर्वाचरित पापकर्मो की निंदा करते हए वे नारक जीव (तहिं तहिं ) रत्नप्रभा आदि उनर नरकों में (तारिसाणि) तत्तत् नरकभोग्य ( ओसणं चिक्कणाई ) अतिशय चिक्कण-दुर्भेय ( दुक्खाई) રહેલ જળબિંદુ સમાન ચંચળ, અને કમળદળના ઉપર રહેલ જળબિંદુઓ સમાન આપાતરમણીય, ક્ષણમાત્ર જ સુખદાયી પણ લાંબા સમય સુધી દુખદાયક, એવા ભાગની લાલસાથી પિતાને માટે અથવા વિના કારણે અથવા ધર્મને નિમિત્તે અનેક દીન, હીન, અત્રાણ, અશરણ, અનાથ, અસહાય, જેમને જીવવું ગમે છે અને મરણથી જે બીવે છે તેવાં વસ, થાવર અને નિર્દય બનીને મેં માર્યા, વારંવાર તેમને કષ્ટ આપ્યું, ઉપમદિત કર્યા, પરિતાપ પહોંચાડયા. અને પ્રાણ રહિત કર્યા. તે વિષયમાં મને ગુરુએ સમજાવ્યું છતાં પણ તેમને બતાવેલ માર્ગની અવગણના કરીને હું કુમાર્ગમાં જ દઢ રહ્યો. તેનું જ આ ફળ અત્યારે મારે ભેગવવું પડે છે. ” આ રીતે પિતે પૂર્વે કરેલા પાપ ना निह! ४२ता ते नाछी “तहिं तहिं " २ixel मा ते नरमा " तारिसाणि "तत न२४साय “ओसण्णं चिकणाई" अतिशय दुध भ० १७ For Private And Personal Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्र 'आउक्खएणं' 'युः क्षयेण-नरकभवायुष्यक्षयेण 'उट्टिया समाणा' उद्धृत्ताः निस्सृताः सन्तः 'बहवे' बहवः कतिपया नरकजीवाः ‘तिरियवसहि' तिर्यग्वसति-तिर्यग्योनि गच्छन्ति प्राप्नुवन्ति, यतो नरकानिःसृता अल्पा एव मनुज्येषूत्पद्यन्ते । कीदृशीं तिर्यग्योनिम् ? इत्याह -दुक्खुत्तरं' दुःखोत्तरां-दुःखप्रकर्षाम् अनन्तोत्सर्पिण्यवसर्पिणी कायस्थितिकत्वात्तस्याः, अत एव 'सुदारुणं' सुदारुणां=भीषणां नानादुखनिधानत्वात् , ' जम्मणमरणजरावाहिपरियट्टणारहट्टं' जन्ममरणजराव्याधिपरिवर्तनारघट्टां-जन्म-मरण जरा व्याधीनां परिवर्तनः पुनः प्रापणै अरघट इव-जलयन्त्र विशेष इव या सा तथा तां 'जलथलखहयरपरोप्परविहिसणपवंचं ' जल स्थल खचर परस्पर विहिंसनप्रपञ्चां-जलचर-स्थलचर अशातावेदनीयरूप दुःखों को (अणुभवित्ता) भोगकर (तो य) जब उस नरक से (आउक्खएणं ) नरकभवसंबंधी आयु के क्षय होने पर ( उव्वट्टियासमोणा) बाहर निकलते हैं तब ( बहवे ) उन में से बहुत से नारक जीव (तिरियवसहिं ) तिर्यश्च योनि को ( गच्छंति ) प्राप्त करते हैं, क्यों कि नरकों से निकले हुए बहुत थोड़े जीव ही मनुष्यगति में उत्पन्न होते हैं । वह तिर्यश्च योनि कैसी है इस बात को सूत्रकार कहते हैं कि वह योनि (दुक्खुत्तरं) अनन्त उत्सर्पिणी प्रमाण कायस्थितिवाली होने से दुःखों के प्रकर्ष से युक्त है। (सुदारुणं ) नाना दुःखों की निधान होने से सुदारुण-भयंकर है। (जम्मण-मरण-जरा-चाहि परियट्टणारहट्ट) जन्म, मरण, जरा एवं व्याधियों की पुनःपुनः प्राप्ति होने से अरहट जैसी है। तथा ( जलथल खहयरपरोप्परविहिंसणपवंचं) "दुक्खाई" मशात वहनीय ३५ दुः। “अणुभवित्ता " सागवान “ तओ य " ज्यारे ते न२४माथी “ आउक्खएणं " आयुष्यनो क्षय थाय छे त्यारे “ उव्वट्टियानमाणा" मा२ नीचे छ. त्या२।६ “ बहवे" तेमनामाथी ag! २॥ न॥२४ी 4 " तिरियवसहिं" तिर्य य योनिमा “गच्छंति" नय छ, ॥२६५ કે નરકમાંથી નીકળેલા બહુ થોડા છ જ મનુષ્ય ગતિ પ્રાપ્ત કરે છે. તે तिय योनि वा छे ते पात सूत्रा२ वि छ-ते योनि “ दुक्खुत्तर" मनન ઉત્સર્પિણી અવસર્પિણી પ્રમાણ કાળ સ્થિતિવાળી હેવાને લીધે દુઃખના sी छ. “ सुदारुण" विविध मार्नु धाम पाथी घgी ३४अय४२ छे. " जम्मण-मरण-जरा-वाहि परियट्टणारहट्ट" भ, भ२६१, १२॥ અને વ્યાધિઓની ફરી ફરીને પ્રાપ્તિ થવાને કારણે રહેટ જેવી છે. તથા " जलथलखहयरपरोप्परविाहसणपवंच ” मा ५२२५२ जयर, स्थण. For Private And Personal Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुदर्शिनी टीका अ. १ सू० ३: तिर्यग्गतिदुःस्वनिरूपणम् खचराणां परस्परं विहिंसनस्य अनेकप्रकारवधस्य प्रपञ्चो विस्तारो यस्यां सा तां तथा, सम्भूतां तिर्यग्यौनि गच्छन्तीति पूर्वेण सम्बन्धः ।। सू० ३७ ॥ अथ तिर्यग्गति दुःखं वर्णयन्नाह-'इमं च ' इत्यादि ।। मूलम्-इमं च जगपागडं वरागा दुक्खं पाति दीहकालं। किं ते ? सीउण्ह-तण्हा खुह-वेयण - अप्पईयार-अडविजम्मण-णिच्चभउव्विग्गवास-जग्गण--वह-बंधण--ताडणंकण निवायण-अट्ठिभंजण-नासा-भेय-प्पहार-दमण-छविच्छयण अभिओगपावण-कसंकुसारानवाय-दमणाणि वाहणाणि यासू०३८॥ टीका-'इमं च ' इदं च = अनुपदवक्ष्यमाणं 'जगपागडं' जगत्मकटं = सकललोकमत्यक्ष, दुःखम् = अशातवेदनीय - लक्षणं 'दीहकालं' दीर्घकालम् = असंख्यातकालपर्यन्तं ' पावेति ' प्राप्नुवन्ति, 'किं ते 'कानि तानि दुःखानि ?, तदाह-सीउण्ह' इत्यादि-' सीउण्हतण्हाखुहवेयण' शीतोष्णतृष्णा क्षुधा वेदना = शीतोष्णतृष्णा क्षुधाजनित दुःखं, तथा 'अप्पईयारअडविजम्मण' जिस में परस्पर जलचर, स्थलचर और खेंचरों के विविध प्रकार के वध का प्रपञ्च-विस्तार है, ऐसी तियश्चयोनि को प्राप्त करते हैं ॥सू० ३७॥ अव सूत्रकार तिर्यचगतिके दुःखोंका वर्णन करते हैं-'इमंचजगपागडं'इत्या. टीकार्थ-(इमं च जगपागड) (इम) अनुपद वक्ष्यमाण यह (जगपागडं) सकल लोकों के प्रत्यक्ष ऐसे ( दुक्खं ) दुःख को (वरागा) वे तिर्यंचगति के जीव (दीहकालं ) अनंतकालपर्यन्त (पावेंति ) भोगते हैं (किं ते ) वे दुःखों के प्रकार कौन २ से हैं ? सो कहते हैं-उस गति में दुःखों के ये २ प्रकार हैं-(सीउण्ह ) शीत-जनित दुःख, उष्णजनित दुःख, ( तण्हा ) पिपासाजनितदुःख और (खुह ) क्षुधाजनितदुःख, तथा ચર, અને નભચરનાં વિવિધ પ્રકારના વધના પ્રપંચ-વિસ્તાર છે. એવી તિર્યંચ योनिन तेसो प्रात ४२ छ ॥ २-३७ ॥ वे सूत्रातिय य ातिना मार्नु प न ४२ छ. "इमं च जगपागड" त्याle. टी "-इमं च जगपागड " "इमं" नीचे प्रमाणेन "जगपागड" सधणा शानी न पडे तवां" दक्खं" : "वरागात भिया। तिय"य गतिना ७"दीहकालं " Adn सुधा" पावेंति " लागवे छे. “कि ते १', તે દુખના પ્રકાર કયા કયા છે? સૂત્રકાર તેને જવાબ આપતાં કહે છે. તે आतिमा नये प्रमाणे मोय छे “ सीउण्ह " शीत नित ५, SYतानित ५ " तहा" पिपासानित u भने "खुह" क्षुधानित For Private And Personal Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे अप्रतीकारं प्रतीकाररहितं-बद्धायुष्कत्वात् यद् अटव्यां=महारण्ये जन्म तत् तथा, तत्र 'णिच्चभउन्धिग्गवास' नित्यभयोद्विग्नवासः = नित्यं = प्रतिक्षणं भयेनव्याधादिकर्तृकवनिग्रहादिरूपेण उद्विग्नः-उद्वेगसहितः वासः = निवासः अतएव 'जग्गण' जागरणं निद्राक्षयः 'वह' वधः-मारणं, 'बंधण' बन्धनं रज्यादिना नियमन, ' ताडणं' ताडनं दण्डादिना हननम् , 'अंकण' अङ्कनं प्रतप्तशूलादिना शरीरे चिन्हविशेषकरणं, · निवायणं ' निपातनम्-उत्थाप्य गर्तादौ प्रक्षेपणम् 'अट्टिभंजण' अस्थिभञ्जनम् मुद्रादिनाऽस्थनां त्रोटनं 'नासाभेय' नासाभेदः = नासिकायां रज्जुयोजनार्थ छिद्रकरणं 'पहारदमण' पहारदमन-प्रहारैः-यष्टयादिताडनैः दमनं = स्वायत्तीकरणं, ‘छविच्छेयण' छविच्छेदनं = अवयवकर्तनं 'अभिओगपावण' अभियोगमापणम् = अनिच्छतोऽपि शकटादौ नियोजन, (वेयण अप्पडियार ) प्रतिकार रहित दुःख, ( अडविजम्मण) अटवी में जन्म होने का दुःख, ( णिच्छभउब्विग्गवास ) प्रतिक्षण व्याध आदि के वध-निग्रह आदि के भय से उद्विग्न चित्त होकर निवास करने का दुःख, (जग्गण ) इच्छानुसार निद्रा नहीं ले सकने का दुःख, (वह) वधजन्य दुःख, (बंधण ) रस्सी आदि द्वारा बांधे जाने का दुःख (ताडण) दण्ड आदि से नर्मस्थानों में ताडित किये जाने का दुःख, ( कण) प्रतप्त शूल आदि द्वारा शरीर में दाग दिये जाने का दुःख, (णिवायण) उठा कर गर्त आदि में पटक दिये जाने का दुःख, (अद्विभंजण ) मुद्गर आदि से हड्डियों को तोड़ दिये जाने का दुःख, (नासाभेय) नासिका के छेदन करने का दुःख, (पहारदमण ) लकड़ी चाबुक आदि के प्रहारों से वशीभूत होने का दुःख ( छवि-च्छेयण ) शारीरिक अवयव काट दिये जानेका दुःख, (अभिओगपावग) नहीं इच्छा होनेपर भी जब गाड़ी आदि म भने “ वेयण अप्पडियार " प्रति:२२डित ५ " अडविजम्मण" वनमा म. वाहुन, " णिच्चभउब्विग्गवास" प्रत्ये क्षाण व्या५ मा द्वारा qध, निश्रड माहिना नयी द्विग्न चित्ते २२वानु दुः५ " जग्गण " छ। प्रभा निद्रा न वायूँ : “ वह ” १५ पन्य हुआ, “बंधण" हो२i Pा 43 माधवा , “ ताडण" alsी माहिथी भभ स्थान५२ માર પડવાનું દુઃખ “” તપાવેલ શૂળ આદિ દ્વારા શરીરે ડામ દેવાયાનું दुः५ “णिवायण" पारी मा. माहिमा ३४वानु " अविभंजण " भ६. माहिथी instalk , " नासाभेय " ना छेपार्नु हु५ " प्पहारदमण " साडी या माहिना हाथी तामे वार्नुभ, “छविच्छेयण" शरी२ना म१यये। ४ावातुं ५ " अभिओगपावग” छन डाय ७ti 4gy For Private And Personal Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org " सुशिनी टीका अ० १ सू० ३९ तिर्यग्गतिदुःखनिरूपणम् १३३ = कसंकुसारनिवाय ' कशाङ्कुशाऽऽरनिपातः कशा = चर्मयष्टि: 'चाबुक ' इति प्रसिद्धा, अङ्कुशः = प्रसिद्धः, आरा = दण्डान्तर्वर्त्तिनीतीक्ष्णलोहशलाका 'पराणी ' इति प्रसिद्धा, तेषां निपातः शरीरोपरिप्रहारः 'दमण ' दमनं शिक्षाग्राहणम्, एतेषां द्वन्द्वः, तानि तथा, 'वाहणाणि य' वाहनानि च भारोद्वाहनानि इत्येवं रूपाणि दुःखानि प्राप्नुवन्तीति सम्बन्धः || सू० ३८ || पुनरपि तान्येवाह - 'मायापि ' इत्यादि । मूलम् - माया - पिइ-विप्पओग- सोयपरिपीलणाणि य सत्थग्गि-विसाभिघाय- गलगवलावलणमारणाणि य गलजालुच्छि - पणाणि य-पउलण विकप्पणाणि य-जायज्जीवगबंधणाणि य पंजरनिरोहणाणि य सजूह निघाउणाणि य धमणाणि य दोहणाणि य कुदंडगलबंधणाणि य वाडग परिवारणाणि य पंकजलनिमज्जनाणि य वारिप्पवेसणाणि य ओवाय निभंगविसमाणि य वडण दवग्गिजाल दहणाइयाई य ॥ ३९ ॥ टोका' मायापि विप्पयोग' मातापितृविप्रयोगः = माता च पिता च में जोत दिये जाने का दुःख, (कसंकुसारनिवा य) कशा-चाबुक अंकुश एवं आरा-दंडे के अग्रभागमें लगी हुई लोह की कील-से पीटे जाने का तथा चुभो देने का दुःख, ( दमणाणि) दमन-अच्छी चाल आदि को चलाने के लिये शिक्षा का दुःख, तथा ( वाहणाणि य) भारों को वहन करने का दुःख, ये सब दुःख है और उन्हें तियंचगति में रहे हुए जीव प्राप्त करते हैं । सू. ३८ ॥ तिर्यंचगति के और भी ये दुःख हैं- 'माया-पिय-विप्पओग' इत्यादि । टीकार्थ - (माया-पिय-विप्पओग सोयपरिपीलणाणि य) माता पिताका Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भादिङ थाडे त्यारे गाडी माहिमे भेडावानुं दु:, “कसंकुसारनिवाय " ४शाચાબુક, અકુશ અને આર-લાકડીને છેડે ચેડેલી અણીદાર ખીલી વડે માર भावानुं दुःख, तथा ते शीलेनी भी शरीरमां लअवाथी हुः शतु "दमणाणि " દમન-સારી ચાલ ચાલાવવા કે ગતિ વધારાવવા માટે થતી શિક્ષાનું દુઃખ તથા “वाहणाणि य ” लार उपाडवानुं डुम, मेघां दुःमना विविध प्रहार छे, अने તિર્યંચગતિમાં જન્મેલા જીવા તે દુઃખા લાગવે છે ॥ સૂ-૩૮૫ तिर्यय गतिना जीन्न हो मा प्रमाणे छे- “माया - पिय- विप्पओग" इत्यादि. टीअर्थ - " माया-पिय-विप्पओगसोयपरिपीलणाणि य" भाता पितानो भन्भतां For Private And Personal Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org प्रसव्याकरणसूत्रे तयोर्विप्रयोगः = वियोगः, तयोर्जन्मतो मरणे बधे व्याधादिमिनिग्रहे वा स्वस्य निग्रहे वेति भाव: ' सोयपरिपीलणाणि य' शोकपरिपीडनानि = मातापितृवियोगजनितशोकदुःखानि, अथवा स्रोतः परिपीडनानि स्रोतसां नासिकादिछिद्राणां रज्जुबन्धनादिभिः परिपीडनानि खेदोत्पादनानि । 'सत्यग्गविसाभिघाय गलगवलावणमारणाणि य' शस्त्राग्निविषाभिघातगलगवलावल नमारणानि च तत्र - शस्त्रं च अग्निश्च विषं च तैरभिघातः = नाश:, तथा गलस्य = कण्ठस्य गवलस्य = शूङ्गस्य च आवलनेन - मोटनेन मारणानि ' गलजालुच्छिष्पणाणि ' गलजालोरक्षेपणानि = गलेन बडिशेन जालेन च उत्क्षेपणानि मत्स्यादीनां जलावहिर्निंस्सारणानि । पउळण - विकप्पणाणि पचन विकल्पनानि=' पउलण पचनं विकल्पनं च अङ्गकर्तनं तानि । जावज्जीवगबंधणाणि' यावज्जीवकवन्धनानि-आजीवन रज्जुशलादि बन्धनानि । 'पंजर निरोहणाणि' पञ्जर निरोधनानि पञ्जरं = लोहवंशशलाकादिनिर्मितं पक्षिनियन्त्रणगृहं तत्र निरोधनानि प्रतिरोधनानि 'सजूह निद्घाडणाणि' स्वयूथ निस्सारणानि स्वयूथात् स्वसार्थात् निस्साणानि - पुनः पुनः परिवारतः जन्मते ही वियोग हो जाने से दुःख सहन करना, अथवा - नासिका आदि के छिद्रों का रज्जु आदि के द्वारा बंधन होने पर उसका कष्ट सहना, (सत्यग्गविसाभिघायगलगवलावलण मारणाणि य ) शस्त्र से, अग्नि से तथा विष से मरण हो जाना, गला और सींग के मुड़ जाना और उससे मरण हो जाना, (गलजालु च्छिप्पणाणि य) बडिश - मछली मारने का कांटा एवं जाल से अपने स्थान से अलग किया जाना, (पउ = Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विकपणाणि य) अग्नि में पकाया जाना अंग अंग का काटा जाना ( जावज्जीवगबंधणाणि य) जीवनपर्यन्त रज्जु अथवा सांकल आदि से बांधा जाना, (पंजरनिरोहणाणि य) पींजरे में बंद किया जाना, (सजूहनिधाडणाणि य) वार २ अपने झुंड में से बाहर निकाल दिया जाना જ વિયાગ થવાથી દુઃખ સહન કરવું પડે છે. નાક આદિના છિદ્રોનું દોરડા माहि द्वारा अधन थवाथी तेनुं दुःख सहन } पडे छे. "सत्यग्गिविसाभिघाय गलगवलावलणमारणाणि य " शस्त्रथी, अग्निथी तथा विषयी मृत्यु थ भवानुं, गळु भने शींगडां भरडाई नवाने अरणे भरणु थवानुं, “गलजालु - च्छिप्पणाणि य" गढ़ ( भाछसी भावाना अंटो ) भने लजथी पोताना स्थाનેથી અલગ કરવાનું, " पउलणविकपणाणि य" अग्निमां रंधावानुं, हरे5 अगनां छेहावानुं, “ जावज्जीवगबंधणाणि य " भवे त्यां सुधी होरा में सांडण पडे मांधावानुं, "पंजरनिरोहणाणि य " शिमां पूशवानुं, " सजूहनिद्वाडणाणि य" वारंवार पोताना समूहमांथी महार स भवानुं, " धमणाणि य " For Private And Personal Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० १ सू० ३९ तिर्यग्गति दुःखनिरूपणम् पृथक्करणानीत्यर्थः, 'निः' पूर्वकस्य 'स्' धातोः 'धाड' आदेशेकृतेऽपि पुननिरुपसर्गपूर्वकनिर्देशः पौनः पुन्यार्थसूचका, 'धमणाणि ' अग्नौ प्रक्षिप्य भस्वादिभि. र्धमनानि । दोहणाणि ' दोहनानि 'कुदंडगलबंधणाणि' कुदण्डगलबन्धनानि कुदण्डस्य चक्रकाष्ठस्य गले कण्ठे बन्धनानि 'वाडगपरिवारणाणि य ' वाटक परिवारणानि बाटके निरोधनानि 'पंकजलनिमज्जणाणि' पङ्कजलनिमज्जनानि पङ्कमयजले निमज्जनानि ब्रोडनानि 'वारिप्पवेसणाणि' वारिप्रवेशनानि-जलप्रक्षेपणानि ' ओवायनिभंगविसमणिवडणदवग्गिजालदहणाइयाई य' अवपातनिभविषमनिपतनदवाग्निज्वालादहनादिकनि च-अवपातेन=गर्तादिषु निपातेन यो निभङ्गः अङ्गोपाङ्गः भञ्जनम् , अपि च-विषमेभ्यः-विषमप्रदेशेभ्यो गिरिवृक्षादिभ्यो निपतनं, तथा दवाग्निज्वालाभिर्दहनं चेति द्वन्द्वः, तानि आदिपेषां तानि -खस्वजातियरोगातङ्कादीनि तान्येवम्पकाराणि दुःखानि प्राप्नुवन्ति ॥सू०३९॥ (धमणाणि य) अग्नि में प्रक्षिप्त करके भस्त्रा आदि से धोका जाना, ( दोहणाणि य ) स्तनों का दोहन होना, ( कुदंड गलबंधणाणि य ) कोठे वक्र-काष्ठ का गले में बांधा जाना-लटकाया जाना, ( वाडगपरिवारगाणि य ) कांटों आदि की बाड लगाकर किसी स्थानपर रोका जाना, ( पंकजलनिमज्जणाणि य ) पंक युक्त जल में फँस जाना, ( वारिप्पवेसणाणि य ) वारिप्रवेशन-बरसते हुए पानी में खड़े रहना अथवा तलाब वगैरह के पानी में हठात् प्रविष्ट कराया जाना, अथवा पानी में डूब कर मर जाना, ( ओवायणिभंगविसमणिवडण-दवग्गिजाल दहणाइयाइं य) किसी गर्त खड्डा आदि में गिर जाने से अंग उपांगों का टूट जाना, पर्वत आदि के ऊँचे स्थानों से गिर जाना, दावाग्नि में जल जाना, इत्यादि नाना प्रकार के दुःखों को तिर्यश्च गति के जीव भोगते हैं ।।मू. ३९ ॥ मनमा नभाने anglet२ सणिया मा 43 वीधापातुं, "दोहणाणि य" मायामाथी ६५ देवानु, “कुदंडगलबंधणाणि य " Amwi Alsi ८१८४१वानु, “ वाडगपरिवारणाणि य" imqat mi भूया पानु “ वारिप्पवेसणाणि य" पारि प्रवेशन-१२सता १२सामi SL २डवानु अथवा तणाव वगेरेना पाएमi 40 मरीथी प्रवेश ४२वानु. “ ओवायणिभंगविसमणिवडण -दवग्गिजालदहणाइयाइं य " 5 मा. माहिमा ५ पाथी 243 Sia તૂટી જવાનું, પર્વત આદિ ઊંચાં સ્થાને પરથી પડી જવાનું, દાવાગ્નિમાં બળી જવાનું, ઈત્યાદિ વિવિધ પ્રકારનાં દુખે તિર્યંચ ગતિના છે ભગવે છાસ રૂલા For Private And Personal Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - - २३६ प्रश्नव्याकरसूत्रे उपसंहरन्नाह-एवं ते' इत्यादि। मूलम्-एवं ते दुक्खसयसंपलित्ता नरगाओ आगया इहं सावसेसकम्मा तिरिक्खपंचिदिएसु पार्वति पावकारी कम्माइं, पमायरागदोसबहुसंचियाइं अइव असायक: कसाई ॥ सू० ४०॥ टीका-एवम्-उक्तप्रकारैः ते = जीवा प्राणातिपातकारकाः 'दुक्खसयसंपलित्ता' दुःखशतसम्प्रदीप्ता दुःखशतैः सम्प्रदीप्ताःसन्तप्ताः 'नरगाओ' नरकात् -इह-तिर्यग्लोके 'आगया 'आगताः उत्पन्नाः 'सावसेसकम्मा' सावशेषकमणिः अवशिष्टपापकर्माणः ‘पावकारी' पापकारिणः 'तिरिक्वपंचिदिएसु' तिर्यक् पञ्चेन्द्रियेषु 'पमाय-रागदोसबहुसंचियाई' प्रमादरांगद्वेषवहुसश्चितानिपमादः विषयाघभिष्वङ्गलक्षणः, रागःमायालोभलक्षणः, द्वेषःक्रोधमानलक्षणः, तः बहूनि सश्चितानि=उपार्जितानि 'अईव' अतीव-अत्यन्तम् 'असायकक्कसाई' अशातकर्कशानि = अशातेषु अशातवेदनीयकर्मोदयप्रभवेषु दुःखेषु कर्कशानि कठोराणि 'कम्माणि' कर्माणि-कर्मजन्यानि दुःखानि 'पाति' प्राप्नुवन्ति, अब उपसंहार करते हुए सूत्रकार कहते हैं-' एवं ते ' इत्यादि। टीकार्थ-(एवं इस प्रकार से (ते) वे प्राणातिपातकारक जीव (दुक्खस यसंपलित्ता) सैकड़ों दुःखों से सन्तप्त होकर (नरगाओ) नरक से (इह ) इस तिर्यग्लोक में (आगया ) उत्पन्न होते हैं और ( सावसेसकम्मा ) पापकर्म उनका अवशेष रहने के कारण वे (तिरिक्ख पंचिदिएसु) तिर्यश्च पंचेन्द्रियों में (पमाय - रागदोसबहुसंचियाई ) विषया यभिष्वरूप प्रभाद से मायालोभरूप राग से और क्रोधमानरूप द्वेष से उपार्जित किये गये (अईच असाय कक्कसाई कम्माइं) अशात कर्कश कर्मों वे ५५२ ४२i सूत्रा२ ४ छ-" एवं ते" त्याहि टी -“एवं" मा प्रमाणे "ते" ते प्राशुवध ४२ना२ ० "दुक्खसयसपलित्ता" से हुमाथी भी थने " नरगाओ" नमाथी " इह " ॥ तिय भi “आगया" उत्पन्न थाय छ भने “सावसेसकम्मा" तेभना ।५४म माडी २स डावाथी ते “तिरिक्खपंचिदिएसु" तिय य पश्यन्द्रियोभा “पमाय रागदोसबहुसंचियाई " विषयाहिनी मलिदा ३५ प्रमाथी, भाया बोल ३५ राथी, भने ओधमान ३५ द्वेषयी Gilad रे " अईत्र असाय कक्कसाई कम्माई " All ४४ भनि माता वहनीय हयने २णे पारित For Private And Personal Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनीटीका अ० १ सू० ४१ चतुरिन्द्रियदुःखनिरूपणम् पाणिवधकारकाः नरकात्मत्यागतास्तिर्यपञ्चेन्द्रिययोनिषु समुत्पन्नाः कठोरतराणि दुःखान्यनुभवन्तीति सङ्कलितोऽर्थः ॥ सू० ४० ॥ तिर्यक् पञ्चेन्द्रियदुःखानि वर्णयित्वा साम्मतं चतुरिन्द्रियदुःखानि वर्णयन्नाइ-'भमर' इत्यादि। मूलम्-भमर-मसग-मच्छियाइएसु य जाइकुलकोडिसयसहस्सेहिं नवहिं चउरिदियाण तहिं तहिं चेव जम्मण मरणाणि अणुहवंता कालं संखिजं भमंति नेरइयसमाण तिव्वदुक्खाफरिसरसणघाणचक्खुसहिया ॥ सू० ४१ ॥ टीका-' भमर-मसग-मच्छियाइएसु ' भ्रमरमशकमक्षिकादिकेषु = प्रसिद्धेषु ' चउरिदियाण' चतुरिन्द्रियाणां 'नवहि ' नवसु-नवसंख्यकेषु ‘जाइकुलकोडिसयसहस्सेहि ' भातिकुलकोटिशतसहस्रेषु = जातौ = चतुरिन्द्रियजाती यानि कुलानि-भ्रमराधनेकाकाराणि, तेषां कोटया विभागाः अन्तभैदाः तेषां शतसहस्रेषु-लक्षेषु-नवलक्षचतुरिन्द्रियजातिकुलकोटिषु इत्यर्थः, 'तहि तहिं चेव' को अशातवेदनीयकर्मोदयसे उद्भूत हुए दुखों में भी कठोतर कर्मजन्यदुःखों को (पावेंति ) भोगते हैं-अर्थात् वे प्राणिवधकारक जीव नरकसे निकलकर तिर्यश्चपंचेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं और वहां कठोर दुःखों को प्राप्त करते हैं ॥सू. ४०॥ वे पापी जीव चतुरिन्द्रिय जीवों में उत्पन्न होकर किस प्रकार के दुःखों को भोगते हैं जिसका वर्णन करते हैं-' भमर-मसग ' इत्यादि। टीकार्थ-(भमर-मसग-मच्छियाइएप्सु चरिंदियाण नवहिं जाइकुलकोडिसयसहस्से हिं) भ्रमर, मशक, मक्षिका आदि चतुरिन्द्रिय जीवों के नौ लाख जातिकुल कोटियों में (तहिं तहिं चेव जम्मणमरणाणि) वहीं वहीं ॥ ४२ai प धारे ॥२ मान्य हुमाने "पाति' लागवे छ. टवे કે પ્રાણવધ કરનાર છો નરકમાંથી નીકળીને તિર્યંચ પંચેન્દ્રિમાં ઉત્પન્ન થાય છે અને ત્યાં વધારેમાં વધારે આકરાં દુઃખ પ્રાપ્ત કરે છે સૂ. ૪૦ તે પાપી જીવે ચતુરિન્દ્રિય માં ઉત્પન્ન થઈને કેવા પ્રકારનાં દુઃખ सागवे छे तेनुन ४२ता सूत्र.२ ७ छ-"भमरमसग" त्य!.. टीमाथ-“भमर, मसग, मच्छियाइएसु चउरिदियाण नवहिं जाइकुलकोडिसयसहस्सेहि" अभ२, भ२४, भाभी माहि यौन्द्रिय ७वानी नपाम ४२नी जातियामा "तहिं तहिं चेव जम्मणमरणाणि." ते ते योनियामा चतुरिन्द्रिय लवामा प्र-१८ For Private And Personal Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३८ प्रश्नव्याकरणसूत्र तत्र तत्रैव-चतुरिन्द्रियेष्वेव ' जम्मणमरणाणि' जन्ममरणानि 'अणुहवंता ' अनु भवन्तः कुर्वन्तः 'नेरइयसमाणतिवदुक्खा । नैरयिकसमानतीव्रदुःखा=नारकैः समानानि-नरके नारकाः यादृशानि दुःखानि अनुभवन्ति तत्तुल्यान्येव तीवाणि=कठोराणि असह्यानीत्यर्थः दुःखानि येषां ते तथा नारकदुःखतुल्यासमवेदनावन्तः, 'फरिस-रसण-घाण-चक्खुसहिया ' स्पर्श-रसन-प्राण-चक्षुः सहिताः स्पर्शादीन्द्रियचतुष्टययुक्ताः 'संखिज्जं कालं' संख्यातं कालं संख्यातवर्षसहस्रं कालं यावत् ‘भमंति' भ्रमन्ति=पुनः पुनर्योनितो योनि प्राप्नुवन्तीत्यर्थः॥४१॥ अथ त्रीन्द्रियदुःखानि वर्णयति ' तहेवे ' त्यादि। मलम्-तहेव तेइंदिएसु कुंथु-पिवीलिया-उद्देहियाइएसु य जाइकुलकोडिसयसहस्सेहिं अहिं अणूणगेहिं तेइंदिदियाण तहिं तहिं चेव जम्मण मरणाणि अणुहवंता कालं संखेजगं भमंति नेरइयसमाणतिव्वदुक्खा फरिस-रसण -घाण-संपउत्ता ॥ सू० ४२ ॥ टीका-'तहेव' तथैव-चतुरिन्द्रियेषु यथा दुःखान्यनुभवन्ति तथैव 'ते इंदिएसु' त्रीन्द्रियेषु ' कुंथु-पिवीलिया उद्देहियाइएमु ' कुन्थु पिपीलिकोपदेहिपर-चतुरिन्द्रिय जीवों में हो-जन्म मरणों को (अणुहवंता ) करते हुए वे पापी जीव ( नेरइयसमाणतिवदुक्खा) नरकगति जैसे असह्य दुःखों को भोगते हुए (फरिस-रसण-घणचक्खुसहिया) स्पर्शन, रसना, घाण और चक्षु इन इन्द्रियों से युक्त हुए ये चतुरिन्द्रिय जीव (संखिजं कालं) संख्याता हजार वर्षतक ( भमंति ) उसी योनि में जन्म मरण करते रहते हैं । सू. ४१॥ __ अब त्रीन्द्रिय जीवों के दुःखों को वे भोगते हैं ऐसा वर्णन सूत्रकार a rम भ२ "अणुहवंता" अनुभवता ते पापी छ। “ नेरइयसमाणतिव्व दुक्खा" न२४ गति असह्य हो लोगवे छे. भने “फरिस-रसण-घाण -चक्खुसहिया" :५शन, रसना, प्राणु, मने यक्ष से यार ४न्द्रियोथी युक्त ते तुरिन्द्रय ७. “ संखिज्नं कालं" सज्यात १२ १५ सुधी "भमंति" તે એનિમાં જન્મ મરણ અનુભવ્યા કરે છે, સૂ-જા હવે તે ત્રિીન્દ્રિય છે જે દુઃખો ભેગવે છે તેનું સૂત્રકાર વર્ણન કરે For Private And Personal Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदशिनी टीका भ० १ सू० ४२ तिन्द्रियद्वीन्द्रियदुःखनिरूपणम् ॥ कादिकेषु-कुन्थुः क्षुद्रजन्तुविशेषः, पिपीलिका प्रसिद्धा, 'उद्देहिया' उपदेहिका =' उदेही' इति भाषा प्रसिद्धा, इत्यादिकेषु ' तेइंदियाण' त्रीन्द्रिगणां, ' अणूणगेहिं ' अन्यून केषु-पूर्णेषु ' अहिं' अष्टसु 'जाइकुलकोडिसयसहस्सेहि' जातिकुलकोटिशतसहस्रेषु-जातौ त्रीन्द्रियजाती यानि कुलानि = कुन्थुपिपीलिकायाकाराणि, तेषां कोटयः-विभागाः अन्तर्भेदाः, तेषां शतसहस्रेषु लक्षेषु परिपूर्णाष्टलक्षत्रीन्द्रिय जातिकुलकोटिषु-इत्यर्थः, 'तहिं तहिं चेव' तत्र तत्रैब त्रीन्द्रियेषु ' जम्मणमरणाणि' जन्ममरणानि ‘अणुहवंता' अनुभवन्तः, नेरइयसमा णतिव्वदुक्खा' नैरयिकसमानतीव्रदुःखा-नरकसदृशदुःखयुक्ताः ‘फरिस-रसणघाण-संपउत्ता' स्पर्श रसनघ्राणसम्प्रयुक्ता-स्पर्शादिभिस्त्रिभिरिन्द्रियैर्युक्ताः 'संखेज्जग ' संख्यातक=संख्यातवर्षसहस्रं कालं यावत् 'भमंति' भ्रमन्ति ।मु०४२॥ करते हैं-' तहेव ' इत्यादि। टीकार्थ-(तहेव) जिस तरह पापी जीव चतुरिन्द्रिय जीवों में जन्म मरण करके दुःखों को भोगते हैं उसी तरह वे ( कुंथु पिवीलिया उद्देहियाइएस) कुंथु, पिपीलिका, उदेही आदिक त्रीन्द्रिय जीवों में कि जिन (तेइंदियाण ) तेन्द्रिय जीवों की (अणूणगेहिं अहिं जाइकुलकोटिसयसह. स्सेहि ) उन पूर्ण आठ लाख जातिकुल कोटियों में (तहिं तहिं चेव जम्ममरणाणि अणुहवंता) बार बार वहीं पर जन्म मरणों को करते हुए ( नेरइयसमाणतिव्वदुक्खा ) नरकगति जैसे असह्य दुःखो को भोगते हुए इनके (फरिस-रसण-घाण संपउत्ता ) स्पर्शन, रसना और प्राण इन तीन इन्द्रिय युक्त हुए ये तेन्द्रिय जीव (संखेज्ज कालं ) संख्यात हजार वर्षों तक (भमंति ) उसी पर्याय में परिभ्रमण करते हैं ।सू०४२॥ 2-"तहेब" प्रत्या. टी -"तहेव" २५ ५५ वो यतुरिन्द्र म म भ२९ पाभीन मो नागवे छ तेम तेम। "कुंथुपिवीलियाउद्देहियाइएसु" इथु, 1.3., SEE ALL त्रिन्द्रिय वोमा म से छे. भने ' तेइंदियाण" तेन्द्रिय वानी "अणूणगेहि अट्टहिं जाइकुलकोटिसयसहस्से हिं" -304 ५२नी. तियोनिमा “ तहिं तहि चेव जम्ममरणाणि अणुहवंता" पावा२ ०४म भरण अनुभवतi "नेरहयसमाणतिव्वदुक्खा " न२४ गति असर हुमो माग छ भने "फरिस-रसण-घाण संपउत्ता' २५०°न, २सना भने प्राए थे अ न्द्रियो। डाय छ. मेवा ते तेन्द्रिय ७यो “ संखेज्जकालं " Avथात १२ वर्षा सुधा "भमंति" ते ॥ योनिमा परिभ्रम ४ा ४२ छ॥ २-४२ ।। For Private And Personal Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ܘ8ܐ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे अथ द्वीन्द्रियदुःखानि वर्णयन्नाद - 'गंडूलय ' इत्यादि । मूलम् - गंडूलय - जलूय - किमिय- चंदणग - माइए य जाइकुलको डिसय सहस्सेहिं सत्तहिं अणूणगेहिं बेइंदियाण तहिं तहिं वे जम्मण मरणाणि अणुहवंता कालं संखिज्जगं भमंति नेरइय समाणतिव्व दुक्खा फरिस-रसण संपउत्ता॥सू०४३ ॥ टीका - त्रीन्द्रियात् समागताः द्वीन्द्रियेष्वपि 'गंडूलय - जलूय किमियचंदणगमाइए ' गण्डोलक - जलूक - कृमि-चन्दन- कादिकेषु - गण्डोला: गोमयादिषु समुत्पन्नाः कीटविशेषाः, जलुका:=जलजन्तुका : 'जोक' इति प्रसिद्धाः कृमयः = ' लट ' ' चूरणिया ' इति प्रसिद्धाः, चन्दनका: शङ्खजातिविशेषाः, ते आदिर्येषां ते तथा तेषु ' बेइदियाण ' द्वीन्द्रियाणां 'सत्तहिं 'सप्तसु जातिकुलकोटिशतसहस्रेषु अन्यृनेषु जन्ममरणानि अनुभवन्तो नारकसमान तीब्रदुःखाः स्पर्शरसनेतीन्द्रियद्वय सम्प्रयुक्ताः संख्यातवर्षसहस्रलक्षणं कालं यावत् भ्रमन्ति ॥ ४३ ॥ अब द्वीन्द्रिय जीवों में उत्पन्न होकर के वे किन किन दुःखों को भोगते हैं इसका सूत्रकार वर्णन करते हैं-' गंडूल य ' इत्यादि । टीकार्थ-तेन्द्रिय योनि से निकल कर वे पापी जीव दीन्द्रिय जीवों में (गंडूलय-जलूय - किमिय- चंदणग-माइएस) गण्डोलक, जलोक, कृमि, और शंख आदिकों में भी कि जिनकी ( सत्तर्हि जाइकुलकोडि सयसस्से हिं) सातलाख जातिकुल कोटि हैं ( तहिं २ ) वहीं वहीं बार २ ( जम्ममरणाणि अणुहवंता) जन्म मरण करते हुए ( नेरइय समाण तिव्वदुक्खा) नारकियों जैसा तीव्र दुःख भोगते हुए (फरिस - रसण संपत्ता ) स्प For Private And Personal Use Only હવે ફ્રીન્દ્રિય જીવેામાં ઉત્પન્ન થઇને તે કયાં કયાં દુઃખો ભાગવે છે, तेनु' सूत्रार वान उरे छे -" गेडूलय " इत्यादि " टीअर्थ-तेन्द्रिय योनिमांनी नीजीने ते पाथी वो " गंडूलय - जलूयfafaa-dz010-873eg” „das, vâls, ¿lu, a'u mult allfeu gani yen से छे. ते द्वीन्द्रिय लवोना पशु "सत्तर्हि जाइकुलको डिसयसहस्से हिं” नति प्रभाषे सात साथ प्राशे छे. “तर्हि तहिं" ते हरे लतियां वारंवार ' जम्ममरणाणि अणुहवंता" જન્મ મરણ અનુભવતા नेरइयसमाणतिव्वदुक्खा " तेथे नारीओ देवां आउ दुःखो लोगवे छे. "फरिसर सण संपत्ता " 66 સ્પર્શન અને રસના ઇન્દ્રિ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ. १ सू० ४४ एकेन्द्रियदुःसनिरूपणम् एवमेव एकेन्द्रियत्वमपि ते प्राप्ताः यासु याच योनिषु यथा भ्रमन्ति तदाह — पत्ता' इत्यादि। मूलम्-पत्ता एगिदियत्तणपि य पुढवि जल जलण-मास्य वणप्फइसुहुमबायरं च पज्जत्तमपज्जत्तं पत्तेय सरीरणाम साहारणं च पत्तेयसरीरजीवेसु य तत्थ वि कालमसंखेज्जं भमंति अर्जतकालं च अणंतकाए, फासिंदियभावसंपउत्ता दुक्खसमुदयं इमं अणिटुं पावंति पुणो पुणो तहिं तहिं चेव परभवतरुगणगहणे ॥ सू० ४४ ॥ टीका-'एगिदियत्तणपि य ' एकेन्द्रियत्वमपि च= अपि चे' ति समु. च्चयार्थः । एवं च न केवलं पञ्चेन्द्रियचतुरिन्द्रियादित्वमेव प्राप्ताः, अपि तु एकेन्द्रियत्वमपि 'पत्ता' प्राप्ताः सन्तः दुःखसमुदयं प्राप्नुवन्तीत्यग्रेण सम्बन्धः । शन और रसना इन दो इंद्रियों से युक्तवाले ये द्वीन्द्रिय जीव (संखेज्जकालं ) संख्यात हजार वर्ष प्रमाण कालतक (भमंति ) इसी द्विन्द्रिय की पर्याय में भ्रमण करते हैं । सू-४३ ॥ इसी तरह एकेन्द्रिय की पर्याय को भी प्राप्त हुए वे पापी जीव जिन २ योनियों में जिस २ तरह से परिभ्रमण करते हैं अब मूत्रकार इस बात को प्रकट करते हैं-' पत्ता एगिदियत्तणंपि य' इत्यादि। ___टीकार्थ-( एगिदियत्तणंपि य पत्ता ) वे पापी जीव केवल पंचेन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय आदि पर्यायौंको ही प्राप्त नहीं करते हैं किन्तु एकेन्द्रिय पर्यायको प्राप्त करते हैं और वहां वे (दुक्खसमुदयं पावंति) दुःख समूह को भोगते योथी युत तेहीन्द्रिय ! “ संखेज्जकाल" सध्यात १२ वर्ष सुधा " भमंति" मे allन्द्रय योनिमा अभएर ४२ छ । २-४३!! એજ પ્રમાણે એકેન્દ્રિયની પર્યાયમાં ઉત્પન્ન થઈને તે પાપી છે જે જે નિમાં જે જે રીતે પરિભ્રમણ કરે છે, તે વાતનું સૂત્રકાર હવે વર્ણન કરે छ-" एगिदियत्तर्णपि य” त्यादि. " एगिदियत्तर्णपि य पत्ता" ते याची यो त चन्द्रिय, यतुरिन्द्रिय પર્યાને જ પ્રાપ્ત કરતા નથી પણ એકેન્દ્રિય પર્યાયને પણ પ્રાપ્ત કરે છે, અને त्यां तो “ दुक्खसमुदयं पावंति" माना समूडने मागच्या रे, ते For Private And Personal Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५२ प्रश्नव्याकरणसूत्र कीदृशमेकेन्द्रियस्वम् ? इत्याह-पुढवीजलजलणमारुयवणप्फइ' पृथिवी-जलज्व लनमारुतवनस्पतिकं, पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिरूपम् । तदपि पृथिव्यादिकं कीटशम् ? इत्याह- सुहुमबायरं सूक्ष्मवादरं-सूक्ष्मवादरनामकर्मोदयसम्पाद्यम् 'पज्ज. त्तमपज्जत्तं ' पर्याप्तमपर्याप्त-पर्याप्ताऽपर्याप्तनामकर्मोदयसम्पाद्यम् । तथा 'पत्तेय सरीरणामसाहारणं ' प्रत्येकशरीरनामसाधारणं, तत्र प्रत्येकशरीरनाम-यदुदयाज्जीवं जीवं प्रति भिन्न शरीरमुपजायते तत्-पृथिव्यप्तेजोवायु-प्रत्येक वनस्प तिरूपं, साधारण साधारणनाम-यदुदयाद् अनन्तानां जीवानामेकं शरीरं भवति रहते हैं, इस प्रकारका संबंध यहां लगा लेना चाहिये । एकेन्द्रियों के भेद इस प्रकार हैं-(पुढविजल-जलण-मारुय-वणप्फह सुहुमवायरंच) पृथिवी जल, अग्नि, वायु और वनस्पति ये सब एकेन्द्रिय जीव हैं इनके सूक्ष्म और बादर ये दो भेद हैं। सूक्ष्म नामकर्म के उदय से जीव पृथिव्यादि रूप सूक्ष्म एकेन्द्रिय और बाद नाम कर्म के उदय से बादर पृथिव्यादि एकेन्द्रिय होता है । ( पज्जत्तमपज्जत्तं) ये दोनों प्रकार के जीव पर्याप्त और अपर्याप्त होते हैं । पर्याप्त नाम कर्म के उदय से जीव पर्याप्त होता है और अपर्याप्त नामकर्म के उदय से अपर्याप्त होता है । (पत्तेयसरीरणामसाहारणं च ) जिसके उदय से जीव जीव का भिन्न २ शरीर होता है वह प्रत्येक शरीर नामकर्म है । यह प्रत्येक शरीर नामकर्म का उदय पृथिवी अप्तेज वायु और प्रत्येक वनस्पति के होता है । तथा जिस के उदय से अनंत जीवों का एक ही शरीर होता है वह साधारण नामकर्म પ્રકારને સંબંધ અહીં સમજી લેવાનું છે. એકેન્દ્રિયના ભેદ આ પ્રમાણે છે" पुढवि जल-जलण-मारुय-वणप्फइसुहुमबायर च” पृथिवी, ४, पनि, વાયુ અને વનસ્પતિ એ સઘળા એકેન્દ્રિય જીવે છે. તેના બે ભેદ છે-સૂમ અને બાદર સૂમ નામકર્મના ઉદયથી જીવ પૃથિવી આદિરૂપ સૂરમ એકેન્દ્રિય અને બાદર નામકર્મના ઉદયથી બાદર પૃથિવી આદિ એકેન્દ્રિય થાય છે. "पज्जत्तमपज्जतं" ते पन्ने ५४२॥ ७५ पर्याप्त मने अपर्याप्त जाय छ, પર્યાપ્ત નામ કર્મના ઉદયથી જીવ પર્યાપ્ત થાય છે અને અપર્યાપ્ત નામકર્મના यथी अपर्याप्त थाय छे “पत्तेयसरीरणामसाहारणं च" ना यथी દરેક જીવનું ભિન્ન ભિન્ન શરીર હોય છે તે પ્રત્યેક શરીર નામકર્મ કહેવાય છે. તે પ્રત્યેક નામકર્મને ઉદય પૃથિવી, જળ, તેજ, વાયુ અને પ્રત્યેક વન સ્પતિને હોય છે. તથા જેના ઉદયથી અનંત નું એક જ શરીર હોય છે તે સાધારણ નામકર્મ છે, અને તેને ઉદય અનન્તકાય વનસ્પતિમાં જ હોય છે. For Private And Personal Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनीटीका अ० १ सू. ४४ एकेन्द्रियदुःखनिरूपणम् तत्-अनन्तकायरूपम् । 'तत्थ वि ' तत्रापि 'पत्तेयसरीरजीवेसु य ' प्रत्येकशरीरजीवेषु = पूर्वोक्तपृथिव्यादिप्रत्येकवनस्पतिपर्यन्तेषु ' असंखेज्ज' असंख्येयम् असंख्यातावसर्पिणी रूपं कालं यावत् भ्रमन्ति । 'अणंतकाए' अनन्तकाये साधारणवनस्पतिशरीरे कन्दमूलादिषु 'अनंतकालं' अनन्तकालम् अनन्तावसपिण्युत्सर्पिणी लक्षणं भ्रमन्ति पर्यटन्ति । उक्तश्च " असंखोसप्पिणि उस्सप्पिणी उ अगिदियाण य चउण्हं । ताओ चेव अणंता, वणस्सईए उ बोद्धन्वा ॥ १ ॥” इति ॥ छाया-असंख्यावसर्पिण्युत्सर्पिण्य एकेन्द्रियाणां च चतुर्णाम् । ताश्चैवाऽनन्ता वनस्पतौ तु बोद्धव्याः ॥ १ ॥” इति । है, और इसका उदय अनन्तकायवनस्पति के होता है । ( तत्थवि पत्तेयसरीरजीवेसु) पापी जीव इन पृथिव्यादि से लेकर प्रत्येक वनस्पति की योनियों में ( असंखेज्जं कालं ) असंख्यात अवसर्पिणी असंख्याय उत्सपिणी काल तक जन्म मरण के दुःख भोगते हैं। तथा ( अनंतकाए अणंत. कालं च ) साधारण वनस्पतिरूप कन्द मूलादिकों में अनंत उप्सर्पिणी और अनंत अवसर्पिणी कालतक जन्म मरण के कष्ट भोगते हैं। कहा भी है " असंखोसप्पिणि उस्सप्पिणी उ एगिदियाण य चउण्हं । ताओ चेव अणता, वणस्सईए उ बोद्धन्वा ॥१॥" इति ॥ एकेन्द्रिय पृथिवी आदि चारों में घूमने का काल असंख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणी है तथा वनस्पति में-साधारण-अनंतकाय में-घूमने का काल अनंत उत्सर्पिणी अवसर्पिणीरूप है ॥१॥ " तत्थवि पत्तेयसरीरजीवेसु" पापी ७१ मा पृथिवी माहिथी साधन प्रत्ये वनस्पतिनी योनीमा “ असंखेज्जं काल" असण्यात पिए मस'भ्यात Graffeil 11 सुधी म भरना लागवे छ, तथा “अणंत काए अणंतकाल च" साधा२२१ वनस्पति३५ भूमाहिमा मत सहि અને અનંત અવસર્પિણી કાળ સુધી જન્મ મરણનાં ક ભોગવે છે. કહ્યું પણ છે. " असंखोसप्पिणि उस्सप्पिणी उ एगिदियाण य चउण्इं । तो चेव अणंता, वणस्सईए उ बोद्धव्वा ॥ १ ॥ इति ॥ એકેન્દ્રિય પૃથિવી આદિ ચારેમાં પરિભ્રમણને કાળ અસંખ્યાત ઉત્સર્પિણી અવસર્પિણી છે, તથા વનસ્પતિમાં-સાધારણ-અનંતકાયમાં પરિભ્રમણને કાળ અનંત ઉત્સર્પિણી અવસર્પિણી રૂપ ૧ For Private And Personal Use Only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे - कीदृशाः सन्तो भ्रमन्ति ? इत्याह-'फासिदियभावसंपउत्ता' स्प शेन्द्रियभावसम्पयुक्ता-स्पर्शमात्र केन्द्रियत्वं प्राप्ताः, 'तहिं तहिं चेव ' तत्र तत्रैव वतस्पतिकाय एव, कीदृशे ? इत्याह-' परभवतरुगणगहणे' परभवतरुगणगहने-परा:-प्रकृष्टाः, सर्वोत्कृष्टकायस्थितिकत्वात् भवाः उत्पत्तिस्थानानि येषु ते तादृशाः तरुगणाः वृक्षगुच्छगुल्मादिसमूहास्तैर्गहने गम्भीरे 'पुणो पुणो' पुनः पुनः=मुहुर्मुहुः ' इमं वक्ष्यमाणम् ' अणिटुं ' अनिष्टं प्रतिकूलं दुःखसमुदयं =दुःखसमूह नानाविधमशातवेदनीयरूपं 'पावंति' प्राप्नुवन्ति । सर्वासां जातीनां कुलकोटयो यथा-- " एगिदिएसु पंचसु, बारस-सत्त-तिग-सत्त-अट्ठवीसा य । विगलेसु सत्त अड नव, जल-खह-चउप्पय-उरग-भुयगेसु ॥ १ ॥ अदत्तेरस बारस, दस दस नवगं नरामरे नरए। बारस छवीस पणवीस हुंति कुलकोडिलक्खाई ॥२॥” इति । (फामिदिय भावसंपउत्ता ) ये सब जीव एक स्पर्शन इन्द्रिय वाले ही होते हैं । और (तहिं तहिं चेव ) उसी बनस्पतिकाय में कि जहाँ (परभवतरुगणगहणे ) वृक्ष, गुच्छ, गुल्म आदि समूहरूप भव सर्वोत्कृष्ट हैं और उनसे जो गहन बना हुआ है (पुणो पुणो ) वार २ ( इमं) इन वक्ष्यमाण (अणिसृ) अनिष्ट-प्रतिकूल (दुक्खसमुदयं ) दुःखों को-नाना. विध अशात वेदनीय रूप कष्टों को ( पावंति ) पाते हैं। समस्त जातियों के कुल कोटियों की संख्या इस प्रकार हैं___ पृथ्वीकाय के बारह लाख, अप्काय के सात लाख, तेउकाय के तीन लाख, वायुकाय के सात लाख, वनस्पतिकाय के अट्ठाईस लाख, फासिदिय भावसंपउत्ता" ते मा यो ४८ी २५शन न्द्रियथी १ युक्त खाय छ, भने “ तहिं तहिं चेव" ते वनस्पतिशयम ॐ न्यi " परभव तरुगण गणे" वृक्ष, गु२७, शुभ मादि सभ७३५ ११ सर्वोत्कृष्ट छ भने तेमनाथी २ गन मने छ “पुणो पुणो” वारंवार “ इम' मा प्रमाणे “अणिटुं' मनिष्ट-प्रति “ दुक्खसमुदय " :माने विविध माता वहनीय ३५ ४टीने “ पावति" मनुभव छ. सी तियानी योनियाना પ્રકારની સંખ્યા નીચે પ્રમાણે છે પૃથ્વીકાયના બાર લાખ, અપૂકાયના સાત લાખ, તેઉકાયના ત્રણ લાખ, વાયુકાયના સાત લાખ, વનસ્પતિકાયના અઠ્ઠાવીસ લાખ, દ્વિઈન્દ્રિય જેના For Private And Personal Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सुदर्शिमटीका अ. १ सू. ४६ मनुष्य भवदुःखनिरूपणम् १५३ र्थम्, 'विकयविगलरूवा ' विकृत विकलरूपाः = विकृतं - बीभत्सं विकलं हीनं च रूपम् = आकारो येषां ते तथा भूताः 'दीसंति' दृश्यन्ते दृष्टिगोचरा भवन्ति । तदेव वर्ण्यते - ' खुज्जा' कुब्जा: ' कूबडा ' इति भाषा प्रसिद्धाः, 'चडभा ' एक पार्श्वहीनाः = वक्रोपरिकायाः, यद्वा - विकृतरूपेण वहिर्निस्सृत हृदयोदर भागाः, 'वामणा ' वामनाः- हस्वकायाः ' बहिरा' बधिराः = श्रवणशक्तिहीनाः 'काणा ' काणा = एकाक्षाः ' कुंटा' कुष्टाः = विकृतहस्ता: 'टूटा ' इति प्रसिद्धाः 'पंगुला ' 'पङ्गव:जाहीनाः 'पांगला ' इति मसिद्धाः, 'विगला ' विकलाः = हीनाङ्गोपाङ्गाः 'सूया' मृका:चचनशक्तिहीनाः, 'मंगणा' मन्मनाः=स्खलद्वचनाः, 'अंधयगा ' अन्धकाः = जन्मान्धाः, 'चक्खुविणिहया' चक्षुर्विनिहताः = विनिहतचक्षुषः= Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हैं (fare विगलत्वादीसंति) उनका रूप विकृत और विकल-हीन होता है। इसी बात को विशेषरूप से सूत्रकार समझाते हैं ( खुज्जा ) उनके शरीर में पीठ पर कुas निकली रहती है । (वडा) वे एक पार्श्वसे हीन होते हैं, अथवा उनके हृदय और उदरका भाग विकृतरूप से बाहर निकला हुआ रहता है । (वामणा ) शरीर उनका बोना होता है । (बहिरा ) उनकी अवणशक्ति नष्ट हो जाती है ( काणा ) वे आंखें सेकाने होते हैं । (कुंटा ) हाथ उनका एक ठीक रहता है दूसरा टूट जाता है इससे वे टूटा कहलाते हैं, (पंगुला ) पांगले - जंधाहीन (विगलाय ) अंग और उपांगों से वे विहीन होते हैं, (या) मूंगे होते हैंवचनशक्ति से वीहीन होते हैं, ( सम्मणा ) मम्मण होते हैं- घोलते समय वे अटकते हैं (अंधवगा ) जन्मांध होते हैं उनकी जन्मतः दोनों आंखें फूटी रहती हैं, (चक्रतुविणिया) चक्खुविनिहत होते हैं - उनकी "" (( विगलरूवा दीसंति તેમનું રૂપ વિકૃત અને વિકલ–હીન હોય છે. એજ વાતને सूत्रार विस्तारथी सभलवे - " खुजा " तेभना शरीरे चीह पर ध નીકળી હાય છે, बडभा ” તેઓ એક પડખે ખેાડવાળા હોય છે, અથવા तेभना हृदय गने पेटना लाग विकृत शेते महार पडतो होय . " वामणा” तेथे। वामन३५ ठींगला होय छे, " बहिरा " तेभनी श्रवणु शक्ति नाश पा છે તે મહેરા થાય છે 6: काणा " तेथे। मां आशा होय छे. " कुंटा " તેમના એક હાથ સારા હાય છે. પણ બીજો હાથ हूँटा उडेवाय छे." पंगुला " पांगणा-पगे बूझा गोनी मोडवाला होय छे, " मृया" भूगा होय होय छे, " તૂટી જવાને કારણે તેઓ " विगला य " म सने अयांछे-योसवानी शक्ति विनाना मम्मणा " तोतडा होय छे-पोसता कल भटडे तेवा होय छे. प्र० २० For Private And Personal Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir মান্ধ रोगादिभिर्विकृत नेत्राः, 'संचिल्लया' सञ्चिलकाः विपटनेत्राः 'वाहिरोगपीलिय' न्याधिरोगपीडिताः व्याधिभिः=कुष्ठादिभिः, रोगैश्व-कासवासादिभिः पीडिताः 'अप्पाउ य' अल्पायुष्काः ' सत्थवज्झ ' शस्त्रवध्याः-शस्त्रप्रयोगेण मरणशीला:, बालाः बुद्धिरहिताः, 'कुलक्खणुक्किनदेहा' कुलक्षणोत्कीर्णदेहाः कुत्सितलक्षणे याप्तशरीरा:-शुभरेखादिवर्जिता इत्यर्थः, 'दुबल' दुर्वला: बलहीना.. 'कुसंघयणकुप्पमाणकुसंठिया ' कुसंहननकुपमाणकुसंस्थिताः - कुसंहननाः = कुत्सितं संहननं अस्थिरचनाविशेषो येषां ते तथा, कुपमाणाः कुत्सितं शरीरस्य प्रमाणमतिलम्बातिहस्वादिलक्षणं येषां ते तथा, कुसंस्थिताश्व-कुत्सितसंस्थानाः एतेषां द्वन्द्वः 'कुरूवा' कुरूपा रूपवर्जिताः 'किविणा' कृपणाः दरिद्राः, दानशक्ति आंखों में कोई न कोई खराबी रहती है, (संचिल्लिया ) संचिल्लक होते हैं. उनके नेत्र चपटे होते हैं, ( वाहिरोगपीलिय ) व्याधि और रोग से पीडित रहते हैं-वे कुष्ठ आदि व्याधियों से, कास श्वास आदि रोगों से सदा पीडित रहते हैं, ( अप्पाउय ) अल्पायुवाले होते हैं, ( सत्थवज्झ ) शस्त्र प्रयोग से इनकी मृत्यु होती है, (पाला ) बुद्धि रहित होते हैं, ( कुलक्खणुक्किन्नदेहा ) खोटे २ लक्षणों वाले होते हैं, अर्थात्-शुभ रेखाओं से वर्जित होते हैं, (दुब्बल ) दुर्बल-बल हीन होते हैं, (कुसं. घयण ) इनका संहनन-अस्थियों की रचना ठीक ठीक नहीं होता है, (कुप्पमाण ) शरीर का प्रमाण भी योग्य नहीं होता है, या तो वह अत्यंत लंबा होता है या अति हूस्व होता है। (कुसंठिया ) संस्थान -आकार भी कुत्सित होता है । ( कुरूवा) सुन्दर रूप से रहित होते हैं। (किविण्णा ) दरिद्र होते हैं, अथवा-दान देने की शक्ति का इनके यहां “अंधयगा" भांध राय छ. मिथी ८ तेमनी मांगो दूटी गाय छ, "चक्खुविणिहया " यक्षु विनित हाय छ, तेमनी ममामा नआई भाभी २३छ, "संचल्लियां" साविस हाय छे. तेमन नेत्र २५i हाय छ, " वाहिगेगपीलिय" व्याधि भने रोगथी पीय ४३ छ-तमा ढ माहि व्याधियोथी, मांसी, म मा रोगार्थी पीया ४२ छ. “ अप्पाउय" टू भायुष्यवाणा डोय छे, " सत्थवज्ज्ञ " शवप्रयोगथी तेभर्नु भृगु थाय छे. "बाला" मुद्धि विनाना डोय छ, “ कुलक्खणुक्किन्नदेहा" ५२२५ सक्षणे डोय छ, मेले में सारी ३मा माथी २डित डोय छ, “ दुव्बल" - हीन होय छ, “कुसंघयण " तेभर्नु सनन-अस्थियोनी रचना-३२।५२ होती नथी, "कुण्पमाण" शरी२ प्रमाणुसरतुंडीतु नथी-sial ते मतिशय in होय छ मतिनीया होय छे. " कुसठिया " संस्थान-मा२ मा पy मेटाडोय. “ कुरूवा" सुदर ३५थी २डित डोय छे. “किविण्णा" हरित For Private And Personal Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुशिनी टीका अ० १ ० ४७ मनुष्यभवदु खनिरूपणम् वर्जिता वा, ' हीणा' हीनाः-नीचजातिकुलाः 'हीणसत्ता' हीनसत्त्वाः उत्साह वर्जिताः, भीरवो वा, 'निच्चं सोक्खपरिवज्जिया ' नित्यसौख्यपरिवर्जिताःसततदुःखाकुलाः, ' अमृहदुक्खभागी' अशुभदुःखभागिनः अशुभानुबन्धिदुःखसम्पन्नाः प्रान्ते दृश्यन्त इति योगः, एवम्भूताः के ? इत्याह-ये 'नरगाओ' नरकाद 'इहं' इह-मर्त्यलोके ' उन्बट्टा समाणा' उद्वृत्ताः आगताः सन्तः 'सावसेसकम्मा ' सावशेषकर्माणः अवशिष्टाशुभकर्माणस्ते ॥ सू० ४६॥ अथोपसंहरनाह-' एवं ' हत्यादि। मूलम्-एवं गरगं तिरक्खजोणि कुमाणुसत्तं य हिंडमाणा पावंति अणंताई दुक्खाई पावकारी। एसो सो पाणवहस्स फलविवागो इहलोइयो पारलोइयो अप्पसुहो बहुदुक्खो मह भयो बहुरयप्पगाढो दारुणो ककसो असाओ वाससहस्सेहिं मुच्चई णय अवेदइत्ता अस्थिहु मोक्खोत्ति एवमासु नायकुल नंदणो महप्पा जिणो उ वीरवरनामधेजो कहेसीय पाणवहस्स अभाव रहता है । (हीणा) इनका कुल एवं जाति ये दोनों ही हीन होते हैं । ( हीणसत्ता) उत्साह शक्ति से ये वजित होते हैं अथवा भीरु -डरपोक-प्रकृति के होते हैं। (निच्च सोक्खपरिवज्जिया) सुखों से नित्य वर्जित-निरन्तर दुःखी रहते हैं । ( असुहदुक्ख भागी ) इस प्रकार इन अशुभानुबंधी दुःखों से वे सम्पन्न (दीसंति ) देखे जाते हैं। जो पापी जीव ( नरगाओ ) नरक से (उच्चटिया समाणा) निकल कर (इह) इस मनुष्य लोक में (सावसेसकम्मा) पाप कर्मों के भोगने पर भी अव. शिष्ट अशुभ कर्म वाले हो कर आते हैं ॥ सू० ४६ ॥ डोय छ, अथवा तेभनाभा हान वानी शति डोती नथी. " होणा" मर्नु १५ मने जति मन्ने डीन डोय छे. “ हीणसत्ता" ते असा विनाना डोय छ अथवा मी२ १२५ो स्वभावना होय छे. निच्च सोक्खपरिवज्जिया" भेशा सुमयी २हित हुभी डोय छे. " असुट्दुक्खभागी " 20 रीते ते भशुलानुमधीमोथी युक्त “ दीसति" पाय छे. पापा 4 "नरगाओ" न२४माथी उवाहिया समाणा " नीजीने " इह " २॥ मनुष्यसमा “ सावसेसकम्मा" पा५ भनां मशुम । माया छti upy माडी २२स अशुभ में साथे साधन भावे छ. ॥ सू. ४६ ॥ For Private And Personal Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे फलविवागं । एसो सो पाणवहो चंडो रुद्दो खुदो साहसिओ अणारिओ, निग्विणो, निस्संसो महब्भओ, पइभओ अइभओ, बीहणओ, तासणओ, अणजओ, उव्वेयणओ य-णिरवयक्खो, णिद्धम्मो, णिप्पिवासो, निकलुणो निरयवासगमणनिधणो मोहमहन्भयपवड्डओ मरणवेमणस्सो तिबेमि ॥ सू० ४७॥ ॥ पढमं अहम्मदारं समत्तं ॥ १ ॥ टीका-एवं' उक्तप्रकारेण 'गरगं' ' नरकं, मनुष्यलोके 'तिरिक्खजोणि ' तिर्यग्योनि-पञ्चेन्द्रियादिभवं 'कुमाणुसत्तं' कुमानुषत्वं-कुब्जवामनादि विकृताङ्गोपाङ्गरूपां मनुष्ययोनि च 'हिंडमाणा' हिण्डमानाः-भ्रमन्तः पावकारी' पापकारिणः माणातिपातकारकाः जीवाः ‘अणंताई' अनन्तानि 'दुःक्खाई' दुःखानि 'पावंति ' प्राप्नुवन्ति । एसो सो ' एप सः प्रत्यक्षं दृश्यमानः 'पाणवहस्स' माणवधस्याणातिपातस्य ‘फलविवागो' फलविषाका परिणामः भवति । अब उपसंहार करते हुए सूत्रकार कहते हैं-' एवं गरगं तिरिक्त जोणि ' इत्यादि। टीकार्थ-(एवं ) इस उक्त प्रकार से जो (णरगं) नरक में, वहां से मनुष्यलोक में आने पर (तिरिक्खजोणि) तिर्यश्च योनि में एवं ( कुमाणुसत्तं ) कुब्ज, वामन आदि रूप से विकृत अंगोपांगवाली मनुष्ययोनिमें ( हिंडमाणा) भ्रमण करते हुए (पावकारी) प्राणातिपातरूप पाप को करने वाले जीव (अणंताई दुक्खाई) अनंत दुःखों को ( पावेंति) पाते हैं। ( एसो सो) प्रत्यक्ष में दृष्टिभूत बना हुओ यह (पाणवहस्स ) प्राण वधरूप हिंसा का ( फलविवागो) परिणाम है। प्राणवध का यह (फल वे उपस.२ ४२i सूत्रा२ ४ छ-" एवणरगं तिरिक्खजोणि त्यादि. . At--एव" ७५२।४1 आरे " णरगं" न२७मां, साथी मनुष्योभा भावता "तिरिक्खजोणिं " तिय य योनिमा मने “कुमाणुसतं" , वामन माहि ३५ विकृत मायांगाजी भनुष्य योनिमा " हिंडमाणा" श्रम ४२ता "पावकारी" प्रातिपात३५ पा५ ४२नार 0 " अणंताई दुक्खाई" मनात म “पाति" लोग छ. " एसो सो” प्रत्यक्ष दृष्टिगोयर यतुं “पाणवबहस्स" प्रावध३५ डिंसानु “ फलविवागो" ते परिणाम छे. प्रावधान! । For Private And Personal Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुंदर्शिनी टीका अ० १ सू०४७ मनुष्यभवदुःखंनिरूपणम् स कीदृशः ? इत्याह-'इहलोइओ' ऐहलौकिका-मनुष्यलोकमाश्रित्य, 'पारलोइओ' पारलौकिकः-नरकनिगोदादिकगत्याधाश्रित्य 'अप्पमुहो' कुत्सिते न्द्रियभोगे मुखजनकखाद् अल्पमुखः, वा 'बहुदुक्खो' बहुदुःखा=नरकादिदुःखकारणत्वाद् दुःखबहुलः, 'महब्भयो' महाभयः महाभयस्वरूपः, तथा 'बहुरयप्पगाढो' बहुरजः प्रगाह अशुभकर्मबहुलः, दारुणो' दारुणः भीषणः नरकादिभयजनकत्वात् 'ककसो' कर्कशः कठोरः दुर्भधत्वात् ' असाओ 'असातः= असातवेदनीयरूपत्वात् , इत्येवंविधः फलविपाकः, 'वाससहस्से हिं' वर्षसहस्रः अनेक सहस्रवर्षभोगैः=पल्योपमसागरोपमादिलक्षणैः 'मुच्चई ' मुच्यते=क्षीयते । तदेवव्यतिरेक मुखेनाह-' नये' ति-' अवेदइत्ता' अवेदयित्वा-तं फलविपाकमनुपभुज्य ' नय' विपाक-परिणाम ( इहलोइओ) ऐहलौकिक-मनुष्यलोककी अपेक्षा से ( अप्पसुहो) कुत्सित इन्द्रियों के भोग जनित सुख का उत्पादक होने से अल्पसुख वाला, तथा ( पारलोइओ) पारलौकिक-नरकादि गति की अपेक्षासे (बहुदुक्खो ) नरकादि गति कारण होनेसे बहुत दुःख वाला, ( महन्भओ) महाभयवाला, तथा ( बहुरयप्पगाढो ) बहुन अशुभकर्मों वाला है । यह ( दारुणो) नरकादिगति का भयजनक होने से भयंकर ( कक्कसो ) दुर्भेद्य होने से कर्कश-कठोर है । ( असाओ) अशाता वेदनीय रूप होने से स्वयं अशातारूप है । ऐसा यह प्राणवधपरिणाम (वाससहस्सेहिं मुच्चई ) पल्योपम तथा सागरोपमादिरूप वर्षसहस्रों में भोगते २ यह छूटता है-नष्ट होता है । इसी बात को अब व्यतिरेक से कहते हैं कि-(अवेयइत्ता न य हु मोक्खो अस्थि) (अवेयइत्ता ) इसका फल ३जविया परिणाम “ इहलोइओ " An सनी मनुष्यहानी अपेक्षा " अप्पसुहो" त्सित ४न्द्रियोना नित सुगर्नु उत्पा६४ छोपाथी ५६५ सुवा, तथा — 'पारलोइओ " ५२वनी-२४हि गतिनी अपेक्षा " बहुदुख्खो" न२४ िगतिना ४२७३५ खोपाथी म मायी, “ महमओ" महा नया तथा "बहुरयष्पगाढो" मत्यात अशुभ छ वा छे. ते “दारुणो" न२४॥ जतिन सय पेही ४२॥२ डोपाथी. लय ४२ छ.. " कक्कसो" दुध डोपाने ४।२0 ४४५ २ छ. " असाओ " AAll-वेहनीय ३५ खोपाथी पोते मशाता३५ छे. मे ते प्रावध परिणाम " वाससहस्सेहिं मुच्चई " પલ્યોપમ તથા સાગરોપમ આદિરૂપ હજાર વર્ષ સુધી જોગવતા ભેગવતા છૂટે छ-नट थाय छे. मे २१ वातने वे भी रीते 12 ४२ छ-"अवेयइत्ता न य हु मोक्खो अन्थि " " अवेयइत्ता" तेनो सपिया लेसिया विना अपनी For Private And Personal Use Only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५८ प्रश्नव्याकणसूत्रे न च-नैव ' हु' निश्चयेन ' मोक्यो ' मोक्षः 'अत्थि' अस्ति, 'त्ति' इति समाप्ति सूचकः । तस्य फलविपाकस्योपभोग विना जीवस्य मोक्षो न भवतीत्यर्थः । अथ न हि येन केनापि प्रतिपादितोऽर्थः श्रद्धेयवचनो भवति प्रामाण्यसन्देहादित्याशङ्कानिवर्तियितुमस्य साक्षात्प्रमाणभूतपरमात्मप्रतिपादितत्वेन प्रामाण्य निरूपणाय प्रमाणयन्नाह-' एवमासु' इत्यादि, एवम् उक्तरीत्या ' आहेसु' ऊचुः-अतीतास्तीर्थङ्करगणधरादयः । तथा 'नायकुलनंदणो' ज्ञातकुलनन्दनः ज्ञातकुलं-सिद्धार्थकुलं, तस्य नन्दनः आनन्दकारकः 'महप्पा' महात्मा-परमा स्मरूपः, 'जिणो' जिनः रागाधन्तरङ्गशत्रुजेता, वीरवरणामधेन्जो' वीरवरनामधेयः प्रशस्तनामा भगवान् महावीरः, 'पाणवहस्स' पाणवधस्य ' फलविवागं' फलविपाकं 'कहेसीय' कथितवान् यथाऽतीता जिनाः कथितवन्तस्तथैवायं भगवान् महावीरोऽपि प्रतिपादयतिस्मेत्यर्थः । अस्याध्ययनस्य महावीरोक्तत्व विपाक भोगे विना जीवका (न य हु मोक्खोअस्थि ) कभी भी छुटकारा नहीं हो सकता है । इस कथन को प्रमाणभूत सिद्ध करने के लिये सूत्रकार इसमें साक्षात् प्रमागभूत परमात्मा द्वारा प्रतिपादितता सिद्ध करने के लिये कहते हैं कि ऐसा जो मैंने कहा है वह अपनी ओर से नहीं कहा है, किन्तु ( एवमाहंसु ) अतीत तीर्थकर एवं गणधर आदि देवों ने ऐसा कहा है तथा ( नायकुलनंदगो महपा जिणो उ वीरवर णामधेओ पाणवहस्स फलविवागं कहेसीय ) ज्ञातकुलनंदन-सिद्धार्थ के कुल को आनंद देने वाले-परमात्मरूप, जिन-रागादिक अंतरंग शत्रु के विजेता प्रशस्तनाम वाले श्री भगवान महावीर ने भी प्राणवध का फल ऐसा ही अतोत तीर्थकरों के कथनानुसार कहा है । ( एसो सो पागवहो चंडो रुद्दो खुद्दो साहसिओ अणारिओ निग्घिको निस्संसो महन्भओ पइभओ " न य हु मोक्खो अस्थि " ४६ ५ .२॥ २७ ४तो नी, Al यनने પ્રમાણભૂત સિદ્ધ કરવાને માટે સૂત્રકાર તેનાં સાક્ષાત પ્રમાણરૂપ પરમાત્માદ્વારા તેની પ્રતિપાદિતતા સિદ્ધ કરવાને માટે કહે છે કે—એવું મેં જે કહ્યું છે તે भारी त२३थी ४थु नथी ५५ " एवमोहसु " मतीत तीथ ४२ अने घर सादिवस से उस छ, तथा " नायकुलनन्दणो महप्पा जिणो उ वीग्वर णामधेज्जो पाणवहस्स फर विवागं कहेसीय" ज्ञातनन-सिद्धार्थनां दुगने આનંદ દેનાર પરમાત્મારૂપ, જિન-રાગ આદિ આંતરિક શત્રુઓ પર વિજય મેળવનાર પ્રશસ્ત નામવાળા શ્રી ભગવાન મહાવીરે પણ પ્રાણવધનું ફળ એવું १ मतात तीय सेना ४थनानुसार ॥ ४ छ-" एसो सो पाणवहो चण्डो कदो खुदो साहसिओ अणारिओ निम्षिणो निस्संसो महन्भओ पइमओ अहमओ For Private And Personal Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका २० १ सू० ४७ मनुष्यभवदुःखनिरूपणम् निरूपणेनैव तदन्तर्गतफल विपाकस्यापि तदुक्तत्वसिद्धौ पुनः पृथरु तस्य महावीरोक्तत्वाभिधानं प्राणिवधस्यैकान्तिका शुभफलदायकत्वात्तस्यात्यन्तहेयत्वद्योतनार्थम् । एसो सो' एष सा=पूर्वोपदर्शित स्वरूपः पाणवहो ' प्राणवधः 'चंडो' चण्डः क्रोधजनकत्वात् , ' रुद्दो' रौद्रः-रौद्ररसप्रवर्तितत्वात् , 'खुद्द' क्षुद्र:= अधमजनाचरितत्वात् ' साहसिओ' साहसिका असमीक्ष्यकारिजनप्रवर्तितत्वात् , अइभओ बीहणओ तासणओ अणज्जओ णिरवयक्खो , निद्धम्मो, निप्पिवासो, निक्कलणो, निरयवासगमणनिधणो, मोमहन्भयपयो मरणवेमणस्सो, ति बेमि ) __ शंका-जब सूत्रकार ने इस अध्ययन में महाविरोक्तता निरूपित की है तब यह बात तो स्वतः सिद्ध हो ही जाती है कि तदन्तर्गन फलविपाक भी उन्हीं द्वारा कहा गया है, फिर क्या बात है जो इसमें पृथक रूप से महावीरोक्तता प्रतिपादित की जा रही है ? उत्तर-शंका ठीक है, परंतु इसका अभिप्राय केवल इतना ही है कि पुनः इसमें जो तदुक्तता प्रतिपादित की है उससे उसमें-प्राणिवध मेंऐकान्तिक अशुभफलदायकता होने से अत्यन्त हेयता प्रकट की गई है। यही बात सूत्रकार इन आगे के पदों द्वारा स्पष्ट करते हैं-( एसो सो) पूर्वोपदर्शित स्वरूप वाला यह ( पाणवहो) प्राणवध-( चंडो) क्रोधजनक होने से चण्ड है, ( रुद्दो) रौद्र रस द्वारा प्रवर्तित होने से रौद्र है, (खुद्दो ) अधमजनों द्वारा आचरित होने से क्षुद्र है, (साहमिओ) बीहणओ तासणओ अणज्जओ णिरवयक्खो, निद्धम्मो, निपिव'सो, निक्कलुणो निरयवासगमणनिधणो, मोहमहब्भयपयट्टो मरणवेमणासो त्तिमि" શંકા–જ્યારે સૂત્રકારે આ અધ્યયનમાં મહાવીરેક્તતાનું નિરૂપણ કર્યું છે ત્યારે તે વાત તે આપોઆપ સિદ્ધ થઈ જ જાય છે કે તેમાં આવતે ફલવિપાક પણ તેમના દ્વારા કહેવાયેલ છે, તે શા કારણે તેમાં અલગ રીતે મહાવીરેક્તતાનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવેલ છે? ઉત્તર-શંકા બરાબર છે પણ તેને ઉદ્દેશ કેવળ એટલે જ છે કે ફરીથી તેમાં જે તેમના દ્વારા કથિત હવાનું પ્રતિપાદન કર્યું છે તેથી તેમાં પ્રાણ વધમાં એકાન્તિક અશુભ ફલદાયકતા હોવાથી અત્યંત હયતા પ્રગટ કરાઈ છે. मे १ वात सूत्र४।२ मा मावतi 20 पहो २१ २५८ ४२ छ-"एसो सो" मा० विधामा भावेस २१३५वाणे ते "पाणवहो" प्रावध " चण्डो" धन पाथी य छ, “रुद्दो" शैद्र२स द्वारा प्रपति डोपाथी रौद्र छ, "खुद्दो" मम सी द्वारा आयरित बापाने सो क्षुद्र छ, “साहसिओ" For Private And Personal Use Only Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६० प्रश्नव्याकरणस्ने 'अणारिओ' अनार्य लेच्छ जनसमाचारितस्यात् , 'निग्विणो' निघृणःअविद्यमाना मापा जुगुप्सा यस्मिन् स तथा विधोजनस्तदाचरितत्वात्प्राणवधोऽपि तथा, ' निल्संसो' नृशंस. क्रूरजनाचरितत्वात् ' महमओ' महाभया= महाभयोत्पादकत्वात् , पइमओ' प्रतिभयः सकलपाणिनां भयहेतुत्वात् , 'अइभओ' अतिभयः-मरणान्तमयजनकत्वात् । 'बीहणओ' भापनकः-भयोत्पादकत्वाद, 'तासणओ ' बासनकः-अकस्मात्-हृदयोद्वेगजनकत्वात् , 'अगज्जओ' अन्याय्या न्यायादनपेतः युक्तः न्याय्यः, न न्याय्यः अन्याय्यः,न्यायवर्जितत्वात् , 'उब्वेयणओ' उद्वेगजनकः मर्मपीडाकारकत्वात् 'णिरवयक्खो' निरपेक्षा निर्गता अपेक्षा परप्राणरक्ष विषया यत्र स तथा, 'निद्धम्मो' निर्धमः श्रुतचारित्र धर्मरहितत्वात् , 'निप्पिासो' असमीक्ष्यकारी जनों द्वारा किया गया होने से साहसिक है, ( अणारिओ) म्लेच्छ जनों द्वारा समाचरित होने के कारण अनार्य है। (निग्विणो) इसे करने वाले मनुष्य को पाप के प्रति धृणा नहीं रहती है अतः यह प्राणवध भी निणरूप है ( निम्संसो) क्रूरजन इसे करते रहते हैं इस लिये यह नृशंगरूप है । (महन्मओ) इसे करते समय करनेवालेको महान् भयका कारण होता है इसलिये यह महाभयरूप है । (पइमओ) समस्त प्रामियों को भय झा हेतु होने से यह प्रतिभयरूप है। ( अइभओ) मरणान्तभय का जनक होने से यह अतिभयरूप है । ( बीहणओ) भयका उत्पादक होने से यह भयानक है । ( तासणओ) अकस्मात हृदय में उद्वेग का जनक होने से त्रासनकरूप है ( अणज्जओ) न्यायवर्जित होने से यह अन्यायरूप है । ( उध्वेयणओ) जीवों को उछेग जनक होने से यह उद्वेजकरूप है (गिरवयवो) पर प्राणियों की रक्षा करने की अपेक्षा मसमीक्ष्य खो द्वारा रातो सोपाथी सासि छे, "अणोरिओ" २७ सो द्वारा मायरित हापाथी मनाय . "निग्धिणो" प्रावध ४२ना२ मनुष्यने. पा५ प्रत्ये घृण! यती नथी, तेथी ते प्रावध ५५ निष्|३५ छ, "निस्संसो" दू२ सा ते सेवन रे छे तेथी ते नृशस३५ छ, “ महमओ " ते ४२ती વખતે કરનારને મહાન ભયનું કારણ તે બને છે તેથી તે મહા ભયરૂપ છે. "पइभओ" सजi प्रासाने ते मयना १२६५३५ होपाथी प्रतिभय३५ . "अइभओ" मृत्युना भयनी न होवाथी त अति भय३५ छ. "बीहणओ" अयन पाडोवाथी ते मयान छ. "तासण ओ" इयमा २५४भात द्वेगना Ans डोपाथी ते त्रासन४३५ छ, “ अणज्जओ" न्यायति होवाथी ते अन्याय ३५ छ, “ उव्वेयणओ" मा उद्वेग 4-1 ४२॥२ डोपाथी ते उद्वेग४३५ ३५ छ. " णिरवयस्खो" ५२ प्राणीमान २क्ष ४२वानी अपेक्षाथी २डित For Private And Personal Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुदर्शिनी टीका अ० १ सू०४७ मनुष्यभवदुःखनिरूपणम् निष्पिपासः परजीवनस्नेहवर्जितत्वात् , 'निकलुणो निष्करुणः-दयाभाववर्जितत्वात् 'निरयवासगमणनिधणो' निरयवासगमननिधनः-निरयावासा-नरकावासः, तत्र गमनमेव निधन पर्यवसानम्-अन्तिमफलं यस्य स तथा, नरकमापकत्वात् , 'मोहमहन्भयपयट्टओ' मोहमहाभयप्रवर्तकः-मोहा अज्ञानं स एव महाभयं महाभयहेतुत्वात् , तस्य प्रवर्तकः, ' मरणवेमणस्सी' मरणवैमनस्यः = मरणेनमृत्युरूप कारणेन प्राणिनां वैमनस्यं = दैन्यं यस्मात्स तथा दीनमनः कारित्वात् , इत्येवं लक्षणः प्राणवधा=ज्ञपरिज्ञया तत्स्वरूपं विज्ञायः प्रत्याख्यानपरिज्ञया सर्वथा परित्याज्य इति भावः । श्री सुधर्मास्वामी जम्बूस्वामिनं कथयति-'त्तिबेमि' से रहित होने के कारण यह निरपेक्षरूप है । (निद्धम्मो ) श्रुताचारित्र रूप धर्म से रहित होने के कारण यह निर्धर्मरूप है। (निप्पिवासो) इस में दूसरों के जीवन के प्रति स्नेहभाव नहीं रहता है इसलिये यह निषि. पासरूप है । ( निक्कलुणो) दयाभाव का सर्वथा इसमें अभाव रहता है इसलिये यह निष्करुणरूप है। (निरयवासगमणनिधणो) नरक गमन ही इसका अन्तिमफल है, इसलिये यह निरयवासगमननिधनरूप है। (मोह महन्भयपयट्टओ) मोहरूप-महाभय का यह प्रवर्तक है इसलिये यह मोह महाभय प्रवत्तकरूप है। (मरणवेमणस्सो) मृत्युरूप कारण से पाणियो को इससे दैन्यभाव होता है इस लिये यह मरणबैमनस्यरूप है। इसलिये इस प्राणवध का ज्ञ परिज्ञा से स्वरूप जानकर प्रत्याख्यानपरिज्ञो से सर्वथा परित्याग कर देना चाहिये । इस प्रकार कह कर अव सुधर्मा होवाने ।रणे ते निरपेक्ष३५ छे “निद्धम्मो" श्रुतयारित्र३५ धमाथी २डित डोपाने ४।२६ निभ३५ छ. " निम्पिवासो" तेमा मन्यना न प्रत्ये स्नेहसाव रहेता नथी तेथी ते निपपास३५ छ. “ निकलुणो" तेभा यामाना तहान मला २ छ तेथीते नि४२११३५ छ. " निरयवासगमणनिधणो" न२४ गमन જ તેનું અંતિમ ફળ હોય છે, તે કારણે તે નિરયવાસગમનનિધનરૂપ છે. "मोहमहब्भयपयओ" भो४३५ भडालयन। ते अवत' छे, ते ॥२ ते मोड महालय प्रपत्त ३५ छ. “ मरणवेमणस्सो” भ२४३५ ॥२६४थी प्राणिमामा તેનાથી દૈન્યભાવ ઉત્પન્ન થાય છે, તેથી તે મરણુમનસ્ય રૂપ છેતે કારણે તે પ્રાણવધનું જ્ઞ પરિણાથી સ્વરૂપ જાણુને પ્રત્યાખ્યાન પરિણાથી તેને સર્વથા પરિત્યાગ કરે જોઈએ. આ પ્રમાણે કહીને હવે સુધર્માસ્વામી જંબુસ્વામીને प्र. २१ For Private And Personal Use Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir %3D%3D १६२ प्रश्नव्याकरण इति ब्रवीमि-हे जम्बूः ! इति-पूर्वोक्तं प्राणिवधस्वरूपनिरूपणं, तत्फलचतुर्गतिभ्रमणलक्षणमर्थ चेति तीर्थङ्करस्य भगवतो महावीरस्य सकाशान्मया साक्षात् श्रुतं ब्रवीमि कथयामि न तु स्वबुद्धिपरिकल्पितम् । यतः स्वबुद्धया कथने श्रुतज्ञानस्याविनयो भवति, किश्च-छद्मस्थानां दृष्टयोऽप्यपूर्णा भवन्ति तस्माद् यथा भगवा स्मतिपादिवमेव त्वां ब्रवीमि-उपदिशामीत्यर्थः । उक्तञ्च" मुअणाणस्स अविणओ, परिहरणिज्जो मुहाहिलासीहि । छउमत्थाणं दिट्टी, पुण्णाणत्थि-त्ति मुइयं इइणा ॥१॥" इति । सू.४९॥ इतिश्री-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्य श्री घासीलालबतिविरचितायां प्रश्नव्याकरणसूत्रस्य सुदर्शन्याख्यायां व्याख्यायां हिंसादि पञ्चास्रवद्वारेषु प्राणवधाख्यं प्रथमम् अधर्मद्वारं समाप्तम् ॥ १ ॥ स्वामी श्री जंबूस्वामी से कहते हैं- (त्तिवेमि) हे जंबू ! प्राणवध का यह पूर्वोक्त स्वरूप निरूपण तथा चतुर्गति भ्रमणरूप उसका फव मैंने साक्षात् तीर्थकर भगवान महावीर के पास सुना है सो उसी के अनुसार यह तुमसे कहा है। इसमें मैंने अपनी ओर से कल्पित कर कुछ भी नहीं कहा है, क्यों कि अपनी बुद्धिसे कल्पित कर कथन करने में श्रुतज्ञान का अविनय होता है। तथा जबतक छद्मस्थावस्था रहती है तबतक ज्ञानकी मात्रा भी अपूर्ण रहती है अतः अपनी ओर से प्रतिपादित वस्तु का स्वरूप यथवत् प्रतिपादित नहीं हो सकता है, इसलिये मैंने जो यह प्रवचन स्वरूप कहा है वह भगवान द्वारा प्ररूपित ही कहा है । कहा भी है छ-" तिबेमि" यू ! प्रावधनु २an पूथित २१३५ नि३५९४ તથા ચાર ગતિમાં બ્રમણરૂપ તેનું ફળ મેં સાક્ષાત તીર્થકર ભગવાન મહાવીર પાસે સાંભળેલ છે, અને તેમણે કહ્યા પ્રમાણે જ તે તમને કહ્યું છે. તેની અંદર મેં મારી પિતાની કલ્પનાનું કાંઈ પણ ઉમેર્યું નથી, કારણ કે પિતાની બુદ્ધિથી કલ્પના કરીને કહેવાથી શ્રુતજ્ઞાનને અવિનય થાય છે તથા જ્યાં સુધી છવાસ્થ રહે છે ત્યાં સુધી જ્ઞાનનું પ્રમાણ પણ અપૂર્ણ હોય છે, તેથી પિતાનાથી પ્રતિપાદિત વસ્તુનું સ્વરૂપ યથાવત્ (જેવું હોય તેવું જ) પ્રતિપાદિત થઈ શકતું નથી, તેથી મેં આ જે પ્રવચન સ્વરૂપ કહ્યું છે તે ભગવાનદ્વારા જે પ્રમાણે પ્રરૂપિત છે તે પ્રમાણે જ કહ્યું છે. કહ્યું પણ છે– For Private And Personal Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टोका भ० १ सू० ४७ अध्ययनसमाप्ति " सुअणाणस्स अविणओ, परिहरणिज्जो सुहाहिलासीहिं। छउमत्थाणं दिट्ठी, पुण्णाणत्थि-त्ति सूइयं इइणा ॥१॥" इति । जो सुखाभिलाषी प्राणी हैं उनका कर्तव्य है कि वे श्रुतज्ञान का अविनय छोड़ें। छद्मस्थों की दृष्टि अपूर्ण रहती है यही बात यहां इति' इस पद से सूचित की है ॥१॥ ॥सू०४७॥ ॥ प्रथम आस्रव–'अधर्म' द्वार समाप्त ॥ "सुअणाणस्स अविणओ, परिहरगिज्जो सुहाहिलासीहिं । छउमत्थाणं दिट्ठी, पुण्णाणत्थि-त्ति मूइयं इइणा ॥१॥ इति ॥ સુખાભિલાષી નું કર્તવ્ય છે કે તેમણે શ્રુતજ્ઞાનને અવિનય કરવાનું छोडी मेय. छत्यानी ष्टि अपू २९ छ, मेरी पात " इति " ५४ दारा मडा सूचित ४२पामा मावी छ. ॥ सू. ४७ ॥ આ રીતે હિંસાદિ પચાસવ દ્વારમાં પ્રાણવધ નામનું પ્રથમ દ્વાર સમાપ્ત થયું. For Private And Personal Use Only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अथ द्वितीयमध्ययनम् । व्याख्यातं प्रथममास्रवद्वारं, साम्पतं द्वितीयमारभ्यते, अस्य च पूर्वेण सहायमभिसम्बन्धः पूर्व यादृश नाम-कर्तृ-फलादिनिरूपणपूर्वकं प्रथमास्रवद्वाररूपं पाणवधस्वरूपमुक्तम् । तस्य हेतुत्वात् 'यथोद्देशं निर्देशः' इति न्यायप्राप्तत्वाच्चेत्यस्मिन् द्वितीयाध्ययनेऽलीकवचनं स्वरूपादिनिरूपणपूर्वकं पदयते, तस्येदमादिसूत्रम्-' इह खलु' इत्यादि। मूलम्-इह खलु जंबू बिइयं च अलियवयणं लहुसग-लहू चवल भणियं, भयकरं, दुहकर, अजसकर, वेरकारगं, रति-अरति -रागदोसमणसंकिलेसवियरणं अलियं नियडिसाति जोगबहलं नीयजणनिसेवियं निस्संसं अप्पच्चयकारगं परमसागरहणिजे द्वितीय द्वार प्रारंभ प्रथम आसव द्वार का अर्थ कह दिया गया है, अब द्वितीय आस्रव बार प्रारंभ होता है । अब आस्रवद्वार का पूर्व आस्रवद्वार के साथ इस प्रकार से संबंध है-पूर्व आस्रवद्वार में स्वरूप, नाम कर्ता और फल आदि के निरूपण पूर्वक प्रथम आस्रवद्वाररूप प्राणवध का स्वरूप कहा है अब उसका हेतु होने से तथा " यथोद्देशं निर्देश:" उद्देश के अनुसार ही निर्देश होता है इस नियम के अनुसार न्यायप्राप्त होने से इस द्वितीय आस्रवहार में अलीक वचन का उसके स्वरूप आदि का निरूपण पूर्वक कथन किया जाता है । इस आस्रवद्वार का आदिम सूत्र यह है'इह खलु जंबू' इत्यादि। બીજા દ્વારને પ્રારંભ પહેલા આઝવદ્વાને અર્થ કહેવાઈ ગયે, હવે બીજા આસવારનું વિવેચન શરૂ થાય છે. આ આસદ્ધારને આગળના આસવદ્વાર સાથે આ પ્રકારને સંબંધ છે-આગળના આસવારમાં સ્વરૂપ, નામ, કર્તા, ફળ આદિનું નિરૂપણ કરીને આસ્રવઢારરૂપ પ્રાણવધનું સ્વરૂપ બતાવ્યું છે. હવે તેના હેતુરૂપ डापाथी, तथा " यथोद्देशं निर्देशः ” उदेशानुसार २८ नि थाय छे ते निय. માનુસાર ન્યાયયુક્ત હેવાથી આ બીજા આસવદ્વારમાં અસત્ય વચનનું તેનાં સ્વરૂપાદિનાં નિરૂપણ સહિત વિવેચન કરવામાં આવે છે. આ આસ્રવદ્વારનું પહેલું सूत्र मा छ-इह खलु जंबू" ईत्याहि. For Private And Personal Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनीटीका अ० २ सू० १ अलीकवचननिरूपणम् परपीलाकारगं परमकिण्हलेस्ससहियं दुग्गइ विणिवायविवडणं भवपुणन्भवकरं चिरपरिचियमणुगतं दुरंतं कित्तियं वित्तियं अधम्मदारं || सू० १ ॥ टीका - हे जम्बू ! इह = अस्मिन् जिनशासने 'खल्विति' निश्वयेन 'बिइयं च' द्वितीयं च आस्रवद्वारम् 'अलियवयणं ' अलीकवचनम् = असत्यभाषणं नाम । अस्यापि " यादृशो १, यन्नाम २ यथाकृतो ३, यादृशं फलं ददाति ४, येऽपि च कुर्वन्ति पापाः ५, " इति पञ्चभिरन्तर्द्वारैः पूर्ववत् निरूपणं क्रियते । तत्र च यथाक्रमं ' यादृशः ' इति द्वारमाश्रित्यालीकवचनस्वरूपमाह - ' लहु ' इत्यादि - 'लहुसग लडुचवल भणियं' लघुस्वकलघुचपलभणितं, लघुः = तुच्छो गौरववर्जितः स्वः = स्वभावो येषां ते लघुस्वकाः, तेभ्योऽपि लघवथपलाच = चञ्चलकाया ये तै For Private And Personal Use Only टीकार्थ - (जंबू) हे जम्बू ! (इह) इन जिन शासन में (खल) निश्चय से (बिइयं च अलियवयणं) द्वितीयआस्रव अलीक (असत्य) वचन-असत्य भाषण नामका है। इसका भी यह "अलीकवचनरूप आस्रवद्वार जैसा हे १, जितने इसके नाम २, प्राणियों द्वारा यह जिन मंद, तीव्र आदि परिणामों से किया जाता है ३, जिस प्रकार का उन्हे नरकादिरूपफल देता है ४, तथा जो पापी जीव इस असत्यभाषण को करते हैं ५ " इन पांच अन्तद्वारों द्वारा पूर्व की तरह निरूपण किया जावेगा । अब सूत्रकार क्रमानुसार " यादृशः " इस द्वार को आश्रित करके अलीक(असत्य) वचन के स्वरूप को कहते हैं - ( लहुसगलहु चवलभाणियं) जिनका स्वभाव गौरव वर्जित है ऐसे जीवों से भी जो हीन हैं लघु हैं, वे लघुस्वक लघु हैं तथा टीडअर्थ – “ जंबू ” डे म्भ्यू ! ” આ જૈનશાસનમાં इह खलु भरेर, “ बिइयं च अलियत्रयणं " जीले मात्रव सीड वयन-असत्य भाषाशु નામના છે. તેનું પણ નીચે પ્રમાણેનાં પાંચ અંતર્દ્વારા દ્વારા, આગળના સવ દ્વારની જેમ જ, નિરૂપણ કરવામાં આવશે. (૧) આ અસત્ય વચનરૂપ આસવદ્વાર કેવું છે? (૨) તેના કેટલા નામ છે ? (૩) પ્રાણીઓ દ્વારા તે કાં કર્યા સદ, તીવ્ર આદિ પ્રરિણામેાથી સેવાય છે ? (૪) કેવા પ્રકારનાં નરકાદિરૂપ ફળ તેને આપે છે ? (૫) તથા કયા કયા પાપી જીવ અસત્ય ખેલે છે ? 66 " 66 હવે સૂત્રકાર અનુક્રમે " यादृशः આ દ્વારા આધાર લઈ ને અસત્ય वयननुं स्व३५ र्शाने छे - " लहु सगलडुचवलभणिय " औरवहीन स्वला - વના જીવાથી પણ જે હીન છે-લઘુ છે, તેઓ ‘ લઘુર્વક લઘુ ' હીનમાં હીન ગણાય છે. એવા લઘુસ્વતક લઘુ દ્વારા તથા ચંચળ મનવાળા દ્વારા એલવામાં આવતું १६५ 66 Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६६ प्रश्नग्याकरणस्ये भणितम्-उक्तं, 'भयकरं' भयकरं-भयजनकम् , 'दुहकरं ' दुःखकरं दुःखननकम् , ' अजसकरं' अयशः करं-अयशजनकं, 'वेरकारगं' वैरकारकं वैरोत्पादकं, 'रति अरतिरागदोसमण संकिलेसवियरणं' रत्यरतिरागद्वेषमनः संक्लेशवितरणरति भीतिरसंयममार्गे, अरतिः अप्रीतिः संयममार्गे, रागः = विषयेष्वनुरञ्जनं 'दोस' द्वेषः-द्रोहः, मनः संक्लेशः चित्त सन्तापः, एतान् वितरति = ददाति यत्तत्तथा ' अलियं अलीक-निष्फलं 'नियडि साविजोगबहुलं' निकृतिसाति योगबहुलं निकृतिः कृतदुष्कृतकर्मापलापनार्थवचनं सातिः अविश्वासस्तयोर्योगः प्रयोगस्तेन बहुलं यत्तत्तथा-कपटाधिश्वाससंभृतमित्यर्थः, ‘नीयजणनिसेवयं' नीचजननिषेवितं नीचः जातिकुलगुणादिभिरधमैर्जनैनिषेवितं, 'निस्संसं' नृशंसं जो चञ्चल शरीर हैं उनके द्वारा कहा गया यह असत्यभाषण (भयकर) भय देनेवाला है । (दुहकर ) दुःख उत्पन्न करने वाला है, ( अजसकरं) अयश बढ़ाने वाला है, (वेरकारग ) वैर भाव को उत्पन्न कराने वाला है, (रइ अरइ रागदोसमणसंकिलेसवियरणं) रति-असंयम मार्ग में प्रीति, अरति-संयममार्ग में अप्रीति, राग-विषयों में अनुराग, दोसपरसे द्रोह एवं मणसंकिलेस-चित्तसंताप, इन सब दुर्गुणों को 'वियरणं' देने वाला है ( अलियं ) निष्फल है ( नियडिसातिजोगबहुलं ) किये हुए दुष्कृतकर्म का अपलाप करने के लिए अनेक जालरचना, तथा कहीं पर भी किसी पर विश्वास नहीं होने देना इन बातों का जिसमें अधिक से अधिक योग रहता है ऐसे स्वभाववाला है अर्थात्-कपट एवं अविश्वास से भरा हुआ है । ( णीयजणणिसेवियं ) इसका सेवन जो जाति, कुल एवं सद्गुणो से रहित होते हैं वे जन करते हैं । (निस्संस) यह नृशंसते मसत्य यन " भयंकर " मय४२ छ, “दुहकर" : Sपन्न ४२॥३ छ, "अजसकर" २५५:त धाना२ छ, “वेरकारगं' पैरसाव पेह! ४२नार छ, “रइ अरइ रागदोसमणसंकिलेसवियरण" रइ-मसयभमागभां प्रीति अरह-मशति-संयम માર્ગમાં અપ્રીતિ, રાગ-વિષય પ્રત્યે આસક્તિ, દેસ–પારકાને દ્રોહ, અને મનસંકિલેસ भनमा ५, हिशुल “वियरणं" ना२ छ, “ अलिय" नि छ, " नियडिसातिजोगबहुलं" ४२ai हुकृत्याने ५११॥ भाट भने १२यना, તથા ક્યાંય પણ કેઈના ઉપર વિશ્વાસ ઉત્પન્ન થવા ન દે, વગેરે બાબતને જેમાં વધારેમાં વધારે ગ રહે છે એવા સ્વભાવવાળું, એટલે કે કપટ અને अविश्वासथी मरे हाय छे. “णीयजणणिसेविय" तेनु सेवन गति, शुज भने सदगुणोथी २डित सो ४२ छे. " निस्संसं "ते नृ'स-२ छ, 9441 For Private And Personal Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुर्शिनी टीका अ० २ सू० १ अलोकवचननिरूपणम् -क्रूरं यद्वा-निशंसं-निर्गता शंसा प्रशंसा यस्मात्तत्तथा-प्रशंसावर्जितमित्यर्थः, 'अप्पच्चयकारगं' अप्रत्ययकारकम् विश्वासनाशकम् , ' परमसाहुगरहणिज्ज' परमसाधुगर्हणीयं = परमा उत्कृष्टाश्वते साधवस्तीर्थंकरगणधरादयस्तैगर्हणीयं % निन्दनीयं, 'परपीलाकारगं' परपीडाकारकं, 'परमकिण्हलेस्ससहियं' परमकृष्णलेश्यासहितं परमा उत्कृष्टा कृष्णा मलिना लेश्या आत्मपरिणतिः, तया सहित 'दुग्गइ विणिवाय विवणं' दुर्गतिविनिपतिविवर्धनं दुर्गतौ-नरकनिगोदादौ यो विनिपाता=निपतनं तस्य विवर्धनं भवर्धकं ' भवपुणब्भवकरं' भवपुनर्भवकर पुनः पुनर्जन्मकारक 'चिरपरिचियं ' चिरपरिचितं-चिरात्=अनेकजन्मजन्मान्तरात् परिचितम् = अनादिमिथ्यात्वाविरतिभवाहविच्छेदा - भावात् ' अनुगतं भवपरक्रुर है, अथवा निःशंस इस भाषण को कोई भी प्रशंसा नहीं करता है इसलिये यह प्रशंसा रहित है, (अप्पच्चय कारगं) यह बोलने वाले के विश्वास का नाशक होता है। (परमासाहुगरहणिजं ) परमसाधु जो तीर्थकर गणधर आदि हैं उनके द्वारा यह गहणीय-निंदनीय कहा गया ले । (परपीलाकारगं) इस वचन से पर को पीडा होने के सिवाय और कुछ नहीं होता है । ( परमकिण्हलेस्ससहियं ) इसके सेवन करने वालों की लेश्या-आत्मपरणति अत्यंत मलिन रहा करती है। ( दुग्गइविणिवायविवडणं ) निगोद आदि दुर्गतियों में यह जीव के पतन का विशेष रूप से वर्धक होता है। ( भवपुणन्भवकरं ) इसके बोलने वाले जीवों का पुनः पुनः संसार में जन्म होता रहता है । ( चिर परिचियं ) अनेक जन्म जन्मान्तर से यह परिचित रहता है-अर्थात्-जन्म जन्मा. न्तरों में इसका संस्कार साथ रहे आने के कारण अनादि काल से लगे से भाषागुनी । प्रशसा ४२ नथी ते १२ ते प्रशस. २(डत छ, “ अप. चयकारगं" ते मोसार प्रत्येना मन्यना विश्वास नाश छ. “परमसाहुगरहणिज्ज" ५२५ साधु रे ती॥ ४२ ४५२ मा छ, तमना द्वारा ते गई jीय-निनीय मतावाम मा छे. " परपीलाकारग" ते वयनथी ५२ने पीडा था सिवाय मीनु ४४५५५ तु नथी. “ परमकिण्ह लेस्ससहियं " तेनु सेवन ४२नारनी वेश्या-मात्मपरिणति मत्यात भनिन रखा ४२ छ- " दुग्गइ विणिवाय विवड्ढणं "५२४, निगाह माहि गतियोमा पने पावाने भाटते विशेष३थे १५४ जाय छे. " भवपुणब्भवकर" ते असत्य मोदना२ ७वाने ५२॥ ३शन संसारमा म सेवा ५ छे. “ चिरपरिचिय” भने सन्म भतराथी ते પરિચિત રહે છે. એટલે કે જન્મ જન્માંતરમાં તેના સંસ્કાર સાથે રહેતા For Private And Personal Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नध्याकरणसूत्रे म्पराऽनुगत सम्यग्ज्ञानाभावात् , दुरन्तं विषाकदारुणत्वात् 'विइयं ' द्वितीयम् 'अधम्मदारं' अधर्मद्वारं 'क्रित्तियं' कीर्तितं कथितम् ॥ सू. १॥ एतेन यादृशं मृषावादस्वरूपमस्ति तत्पथमान्तद्वारे प्रोक्तम् । साम्मतं 'यन्नामे 'ति द्वितीयान्तरे तन्नामान्याह- तस्स' इत्यादिना मूलम्--तस्स य णामाणि गोणाणि हुंति तीसं तं जहाअलियं १, सडं २, अणज्जं ३, मायामोसो ४, असंतकं ५, कूडकवडमवत्थुगं च ६, निरत्थयमवत्थयं च७, विदेसगरहणिज्जं ८, अणुज्जुकं ९, कक्कणा य १०, वंचणा य११, मिच्छापच्छाकडं च १२, साइ १३, उस्सुत्तं १४, उक्कूलं च १५, अढे १६, अब्भ. क्खाणं च १७, किब्बिसं १८, वलयं १९, गहणं च २० मम्मणं च २१, नूमं २२, नियई २३, अप्पच्चओ २४, असंमओ २५, असच्चसंघत्तणं २५, विवक्खो २७, उवहियं २८, उवहि असुद्धं २९, अवलोवोत्ति ३०, बिइयस्स इमाणि एवमाइयाणि नामधेज्जाणि होत तीसं सावज्जस्स अलियस्स वयजोगस्स अणेगाइं ॥ सू. २॥ हुए मिथ्यात्व, अविरति के प्रवाह का विच्छेद नहीं होता है। (अणुगयं) सम्यग्ज्ञानका अभाव होने से यह जीव के साथ भवपरम्परानुगत होता है। (दुरंतं ) विपाक इसका बहुत ही अधिक दारुण होता है इसलिये यह जीव के लिये दुरन्त कहा गया है। इस तरह से (विइयं ) इस द्वितीय अधर्म द्वार का (कित्तियं ) सूत्रकार ने तीर्थकर परंपरा के वर्णन अनुसार वर्णन किया है ।सू. १॥ હોવાને કારણે અનાદિ કાળથી લાગેલ મિથ્યાત્વ અવિરતિ આદિને પ્રવાહ तूटता नथी. “ अणुगयं" सभ्य ज्ञाननी मला पाथी ते ७वनी साथै स१५२५२रानुगत डाय छ. " दुरतं" तेन विपा " परिणाम" घरी २५५ हाय छे, तेथी ते अपने भाट दुरन्त हावायु छ 241 शते " बिइय" A भी अमानुं 'कित्तिय" सूत्रा तीथ ४२ ५२ ५२॥ ४२ वन प्रभा न यु छ. ॥ सू-१॥ For Private And Personal Use Only Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ. २ सू० २ अलोकवचननामानि ____टीका-' तस्स य' तस्य च मृषावादस्य द्वितीयास्रवद्वारस्य 'गोणाणि' गौणानि-गुणनिष्पन्नानि 'तीसं ' त्रिंशत् ‘णामाणि' नामानि 'हुति' भवन्ति तं जहा' तद्यथा-(१) 'अलियं ' अलोकं-निष्फलं शुभफलवर्जितत्वात् , (२) 'सद' शठं-कपटिजनसमाचरितत्वात् , (३) ' अणज्ज' अनार्यम्-अनार्यजनोक्त___“जारिसओ" इसे प्रथम द्वार में मृषावाद का स्वरूप कहा गया है, अब सूत्रकार 'जं नामा' इस दूसरे द्वार में इसके कौन २ से नाम हैं वह कहते हैं-'तस्स य णामाणि' इत्यादि । टीकार्थ-(तस्स) इस द्वितीय आस्रवद्वार रूप मृषावाद के (गोणाणि) गुण निष्पन्न (तीसं ) तीस ( णामाणि ) नाम (हुँति ) हैं (तंजहा) वे इस प्रकार हैं-(अलियं १, संदं २, अणज्ज ३,मायामोसो ४, असंतकं५, कूडकवडमवत्थुगं ६, च निरत्ययमवत्थयं ७ च, विदेसगरहणिज्ज ८, अणज्जुकं ९, ककणा १० य, वंचणा ११ य, मिच्छापच्छाकडं १२ च, साइ १३, उस्सुत्तं १४, उक्कूल १५ च, अहँ १६, अब्भक्खणं १७ च, किविसं १८, वलय १९, गहणं २० च, मम्मणं २१ च, नूमं २२, नियई, २३, अप्पच्चओ २४, असंयमओ २५, असच्चसंघत्तणं २६, विविक्खो २७, उवहियं २८, उवहि असुद्धं २९, अवलवो ३० त्ति ) यह असत्यभाषण शुभफलों से रहित होने के कारण अलीकफल रहित होता है इसलिये इसका नाम अलीक है १। कपटीजनों के द्वारा यह अपना काम " जारिसओ" २प्रथम द्वारभां भृषावाह-मसत्य वयन-नु-१३५ . पामा साव्यु छ. वे सूत्रा२ " जनामा" से पहाथी २३ यता भीत द्वारमा तेन यां या नाम छ ते सतावे छ-" तस्स य णामाणि' त्यादि "-तरस' ! जी भासपा२३५ भूषावाहनi" "गोणाणि" गुणानुसार " तीस" नीस —णामाणि" नाम " हुति" छे. " त जहाँ " ते म. प्रमाणे छे. अलिय १, संढ २, अणज्ज ३, मायामोसो४, असतकं५, कूउकवडमवत्थुगं६, च, निरत्थयमवत्थय७, च विदेसगरहणिज्ज ८, अणज्जुकं ९, ककणा १० य, वंचणा ११ य, मिच्छापच्छाकडं १२ च, साइ १३, उस्सुत्तं १४, उस्कूल १५ च, अई १६, अभक्खणं १७ चा किब्बिस १८, वलय १९, ग इणं २० च, मम्मर्ण २१ च, नूम २२, निरई २३, अप्पच्चओ २४, असंयमओ २५, असच्चसंघयणं २६, विविक्खो २७, उवहिय' २८, उवहि असुद्ध'२९, अवलो वो ३० ति” (१) ते असत्य भाषा] शुम जोथी २डित पाने १२९५ "अलीक" ५२डित राय छ तेथी तेनु नाम “अलीक" ५७युछे (२) प्र-२२ For Private And Personal Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे स्वात् , (४) 'मायामोसो' मायामृपा-मायापूर्वकस्वादसत्यभाषणस्य मायामृषेति नाम, (५) ' असंतकं ' असत्कं-अविद्यमान-सत् यस्मिंस्तदसत्कम् असत्यम् , (६) 'कूडकवडमवत्थुगं' कूटकपटावस्तुकं-तत्र कूट-परवश्वनाथै न्यूनाधिकभाषणं कपट भाषाविपर्ययकरणम् अवस्तु-अविद्यमानवस्तु कथनम् यथा-'जगतः कर्ता इश्वरः' इत्यादि कथनम् कूटादीनां त्रयाणां समानार्थकत्वादेकतमत्वे नैव गणनादिदमेकं नाम, (७) निरत्थयमवत्थयं च ' निरर्थकमपार्थकं च = निर्गतोऽर्थोयस्मिस्तत् = सत्यार्थ हीनम् , अपार्थम् अपगतार्थमसम्बद्धार्थमित्यर्थः, (८) 'विदेसगरहणिज्ज' बनाने के लिये प्रयोग से लाया जाता है इसलिये इसका दूसरा नाम शठ है २ । अनार्यजनों द्वारा यह बोला जाता है इसलिये इसका नाम अनार्य है ३ । यह असत्यभाषण माया पूर्वक होता है इसलिये इसका नाम मायामृषा है ४ । असत्यभाषण में जो विषय कहा जाता है वह उसरूप में नहीं होता है इसलिये इसका नाम असत्य है ५। परवंचन के लिये इसमें न्यूनाधिक बोलना पड़ता है, तथा इसमें बोलने की भाषा की शैली भी भिन्न प्रकार की होती है, और जो वस्तु इसमें कही जाती है वह अविद्यमान होती है, जैसे यों कहना कि जगत का कर्ता ईश्वर है सो यह कूटकपटावस्तुक नाम का असत्य है । यहां कूट कपट अवस्तुक, इन तीनों की समानार्थकता होने के कारण एक पद रूप से गिनती करली गई है ६। यह भाषण सत्यार्थ से हीन होता है इसलिये इसका नाम निरर्थक है । इसमें वाच्य अर्थ, संबंध विहीन रहता है इसકપટી લેકે દ્વારા પિતનું કાર્ય સાધવા માટે તેને પ્રયોગ કરાય છે, તેથી તેનું मी नाम "शठ" छ, (3) सनान २ ते मोसाय रे तेथी तेर्नु alag नाम “अनार्य" छे (४) ते असत्य भाषा भाया पूर्व थाय छ तेथी तेनुं याथु नाम “ मायामृषा" छे. (५) असत्य भाषमा 2 विषयनु ४थन ४राय छे ते यथार्थ-साया २१३५-४२रातु नथी तेथी तेनु पांय नाम 'असत्य" છે (૬) અન્યની વચનાને માટે તેમાં ન્યૂનાધિક બોલવું પડે છે, અને તે બેલ વાની શિલી પણ જુદા જ પ્રકારની હોય છે, અને જે વસ્તુ તેમાં કહેવાય છે તે અવિદ્યમાન હોય છે, જેમ કે “જગતને કર્તા ઇશ્વર છે ” તે પ્રમાણે કહેવું ते २0 ४॥२॥ २ ॥२॥ असत्यने 'कूटकपटावस्तुक असत्य" ४ छ. અહીં કૂટ, કપટ અને અવસ્તક એ ત્રણે પદેથી સમાનાર્થકતા હોવાથી એક જ પદ રૂપે ગણવામાં આવેલ છે. (૭) તે ભાષણ સત્યાર્થ રહિત હોય છે તેથી તેનું નામ નિરર્થક છે તેમાં વાચ્ય અર્થ, સંબંધ રહિત હોય છે તેથી તેનું For Private And Personal Use Only Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुशिनीटीका अ० २ सू० २ अलीकवचननामानि विद्वेषगर्हणीयं-विद्वेषात् विद्वेषसंभृतत्वाद् इदमलीकवचनं गर्हणीय=निन्द्यं महापुरुषैः, (९) ' अणुज्जुकं ' अनृजुकम् = असरलं-सरलभाववर्जितमित्यर्थः, (१०) 'ककणा य' कल्कना च-पापं प्राणातिपातादिरूपम् , (११) 'वंचणा य ' वञ्चना प्रतारणा, (१२) 'मिच्छापच्छाकडं च' मिथ्यापश्चात् कृतं मिथ्येतिबुद्ध्या साधुभिः पश्चात् कृतं = पृष्ठे कृतं तिरस्कृतमित्यर्थः, (१३) 'साइ' सातिः= अविश्वासः, (१४) 'उस्सुत्तं ' उत्सूत्रम्-विरुद्धार्थ-निरूपणम् , (१५) 'उक्कूलं' उत्कूलं सन्मार्गतटात् परिभ्रष्टकारकम् , (१६) * अट्ट' आर्त्तम् , आर्त्तध्यानहेतुलिये इसका नाम अपार्थ है ७। यह विद्वेष से भरा रहने के कारण गहणीय होता है-महापुरुषों द्वारा निंद्य होता है इसलिए इसका नाम विद्वेष गर्हणीय है ८ । इसमें भावों की सरलता नहीं होती है, अर्थात्यह सरल स्वभाव से वर्जित रहता है इसलिये इसका नाम अनृजुक है ९ । कल्कना शब्द का अर्थ पाप है, यह मृषावचन प्राणातिपातादिरूप होता है इसलिये इसका नाम कल्कना है १०। इसमें दूसरों की प्रता. रणा होती है इसलिये इसका नाम वंचना है ११ । मिथ्या समझकर साधु पुरुष इसका तिरस्कार करते हैं इसलिये इसका नाम मिथ्यापश्चास्कृत है १२ । साति शब्द का अर्थ अविश्वास है, मिथ्याभाषण विश्वास रहित होता है । इसलिए इसका नाम साति है १३ । विरुद्ध अर्थ का इसमें निरूपण होता है इसलिये इसका नाम उत्सूत्र है १४ । जीव को यह सन्मार्ग रूप तट से भ्रष्टकर देता है इसलिये इसका नाम उस्कूल है १५ । यह आर्तध्यान का हेतु होता है इसलिये इसका नाम आर्त है नाम " अपार्थ ” छे. (८) ते विद्वेषयी पूर्ण डापायी गय-महापुरुषा द्वारा निध डाय छ, तेथी तेनु नाम “विद्वेष गहगीय" छ. (6) मा मायानी સરલતા હોતી નથી, એટલે કે તે સરળ સ્વભાવથી રહિત હોય છે, તેથી તેનું नाम “ अनृजुक" छे." कल्कनी" शहने। अथ पा५ थाय छे. (१०) ते भृषाक्यन प्रातिपाता३ि५ डाय छ, तेथी तेनु नाम “ कल्कना" छे. (११) ते असत्य ययन 43 अन्यनी प्रता२। थाय छ, तेथी तेनु नाम " वंचना" છે (૧૨) મિથ્યા સમજીને સાધુ પુરુષ તેને તિરસ્કાર કરે છે, તેથી તેનું नाम " मिथ्यापश्चात्कृत” छ (१३) “साति” शहन। म अविश्वास थाय छ, तेथी तेनु नाम “सांति” छे. (१४) विरुद्ध म तभा नि३५४ याय छ, तथा तेनु नाम “ उत्सूत्र” छे. (१५) सपने ते सन्मा३५ नारथी xe 3 छे भाटे तेनु :नाम “ उत्कूल” छे (१६) ते मातध्यानना तु३५ जय , तथा तेनु नाम “आतं" छे. (१७) तेना द्वारा मसत्-मविधान For Private And Personal Use Only Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे त्वात् (१७) 'अब्भक्खाणं ' अभ्याख्यानम् असदोषारोपणम् , (१८) 'किब्विसं' किल्विषं-पाप-प्राणातिपातादिहेतुत्वात् , (१९) 'वलयं ' वलयमिव वक्रत्वाद् कुटिलमित्यर्थः, (२०) 'गहणं' गहन-गहनमिव गहनं-वनमिव दुरवगाहमित्यर्थः, (२१) 'मम्मणं' मन्मनम् = मन्मनमिव मन्मनम् अस्फुटत्वात् । (२२) 'नूम' छादनं-परगुणाच्छादने पिधानमिव, (२३) 'नियई ' निकृतिः मायाच्छादनार्थवचनं किप्रलम्भनं वा, (२४) 'अप्पच्चओ' अप्रत्ययः अविश्वासः (२५) ' असं. १६ । इसके द्वारा असत्-अविद्यमान दोषों का आरोपण किया जाता है इसलिये इसका नाम अभ्याख्यान है १७। यह प्राणातिपात आदि पापों का हेतु होता है इसलिये इसका नाम किल्विष है १८ । वलय के जैसा यह कुटिल रहा करता है इसलिये इसका नाम वलय है १९ । वन के समान यह दुरा वगाह होता है इसलिए इसका नाम गहन है २० । जिस प्रकार तोतली बोली में शब्दस्फुट नहीं हो पाते है उसी प्रकार इसमें भी वस्तु का वास्तविक भान अस्फुट रहा करता है इसलिये इसका नाम मम्मण है २१। जिस तरह ढक्कन वस्तु को ढांक देता है उसी प्रकार यह भी पर के गुणों को आच्छादन कर देता है इसलिए इसका नाम नूम है । नूम नाम छादनका है२२, इसमें बोलनेवाला अपनी मायाको ढकने का प्रयास करता है, अथवा दूसरों को ढकने का उपाय रचता है इसलिये इसका नाम निकृति है २३ । कोई भी सजन पुरुष झूठ वचन का विश्वास नहीं करते हैं इसलिये इसका नाम अप्रत्यय-अविश्वास है २४। होषोनु मापा ४२राय छे तेथी तेनु नाम “ अभ्याख्यान " 2. (१८) ते प्राणातिपात मा पापानु ।२६५ , तेथी तेनु नाम " किल्विष" छे. (१८) १सयना ते टिव डाय छे, तेथी तेनु नाम “ वलय " छ. (२०) पनना ते न डाय छे, तेथी तेनु नाम “गहन" छ. (२१) रेम તેતડા વચને બરાબર સમજી શકાતાં નથી એ જ પ્રમાણે અસત્ય ભાષણમાં ५५ पास्तविरमा १२४-२५२पष्ट २ । ४२ छ, तथा तेनु नाम “मम्मण" છે (૨૨) જેમ ઢાંકણ વડે વસ્તુને ઢાંકી દેવાય છે, એ જ રીતે અસત્ય વચન ५५ शुशाने disी ॥२ डापाथी तेनु नाम 'नूम' छे. ' नूम 'मटले भा२छ।. દા--આવરણ (૨૩) અસત્ય ભાષણમાં બોલનાર પિતાની માયાને ઢાંકવાને પ્રયાસ કરે છે, અથવા બીજાને ઢાંકી દેવાના ઉપાય રચે છે, તેથી તેનું નામ " निकृति" . (२४) अ ५ सन २५ असत्य क्यन ५२ विश्वास भात नथी, तेथी तेनु नाम प्रत्यय " अविश्वास" छ, (२५) न्यायज्ञ पुरुषा For Private And Personal Use Only Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुंदशिनी टीका अ० २ सू० २ अलीकवचननामानि मओ' असम्मतः न्यायज्ञैरनाचरितः, (२६) असच्चसंधत्तणं' असत्यसन्धत्वम् असत्यं-सन्दधाति-सम्मिश्रयति सततं यः सोऽसत्यसन्धस्तस्य भावोऽसत्यसन्धत्वं -भूषाभापि धर्मः, (२७) ' विवक्खो' विपक्षः सत्य प्रतिकूलत्वात् (२८) उवहि यं ' औषधिक-मायामयम्=कपटगृहमित्यर्थः, (२९) उवहि असुद्धं ' उपध्यशुद्धम् =उपधिः सावद्यकर्म तेनाशुद्धम् , (३०) 'अवलोकोति' अपलोप इति-कुर्वाणोऽपि 'नाहं करोमि किश्चि 'दित्यादिभिर्वस्तु प्रच्छादनम् — विइयस्स' द्वितीयस्याधर्मद्वारस्य 'इमाणि' इमानि-पूर्वोक्तानि 'एवमाइयाणि ' एवमादिकानि-अलीकादीनि ‘सावज्जस्स ' सावधस्य पापसहितस्य 'अलियस्स' अलीकस्य मृपावान्यायज्ञ पुरुषों द्वारा यह असंमत है-वे पुरुष इसका कभी भी सेवन नहीं करते हैं इसलिये यह असंमत है २५ । यह मृषाभाषियों का धर्म है इसलिये इसका नाम असत्यसंघात है २६ । सत्यभाषण का यह विपक्षी है इसलिये इसका नाम विपक्ष है। कपटों का यह घर है इसलिये इसका नाम औपधिक है २८ । सावद्यकर्मों से यह सतत अप-- वित्र बना रहता है इसलिये इसका नाम उपध्यशुद्ध है २९ । उपधि शब्द का अर्थ सावद्यकर्म है। कार्य करता हुआ भी व्यक्ति इसके प्रभाव से प्रभावित होकर कहदिया करता है कि मैं कुछ भी नहीं कर रहा हूं। इस तरह इसके द्वारा वस्तु का प्रच्छादन होता है अतः इसका नाम अलोप है ३० । (बिइयम्स ) इस तरह द्वितीय अधर्मद्वार के (इमाणि ) ये पूर्वोक्त अलीक आदि ( तीसं नामधेजाणि ) गुणनिष्पन्न तीस नाम हैं । तथा ( एवमाइयाणि ) इनसे अतिरिक्त और भी इसी તેને માન્ય કરતા નથી-તેઓ તેનું કદી પણ સેવન કરતાં નથી, તેનું નામ '' असंमत" (२६) ते असत्य वयन भृषावाहीमान। म छ, तेथी तेनु नाम " असत्यसंघात" छे (२७) सत्य भाषा ते विपक्षी-वि३६नु छ, तेथी तेनु नाम “ विपक्ष " छे. (२८) ४५टोनु ते घाम छ, तेथी तेनु नाम" औपधिक " छ. (२८) सावध थी ते सतत अपवित्र २ छ, तेथी तेनु नाम, उप ध्यशुद्ध" छे. 'उपधि' शहना म सावध छ, (30) आय ४२ती व्यક્તિ પણ તેના પ્રભાવની અસર નીચે આવી જઈને કહી દે છે કે “હું કઈ કરતું નથી.” આ રીતે તેના દ્વારા વસ્તુનું પ્રછાદન થાય છે, તેથી તેનું नाम "अपलोप" छ. “ बिइयस्स” मा रीते oilon अयमद्वा२ना " इमाणि" प्रति अटी माहि“ तीसं नाम धेज्जाणि " शुशानुसार त्रीस नाम छे. तथा " एवमाइयाणि " ते उपरान्त blot ५ ते ४ ४२ना “ सावजस्स" पा५ For Private And Personal Use Only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७४ प्रश्नव्याकरणसूत्रे दस्य 'क्य नोगस्स ' वचनयोगस्य 'अणेगाई' अनेकानि' तीसं ' त्रिंशत् ' नामधेज्जाणि' नामधेयानि नामानि ' होति ' भवन्ति ।। सू० २॥ एवं ' यन्नामे 'तिद्वारमुक्त्वा यथाकृतं येन मन्दतीबादि परिणामेन अलीके वदन्ति ये च जना वदन्ति इति तृतीयपश्चममन्तरद्वयमाह-तं चे 'त्यादिना मूलम्-तं च पुण वदंति केइ अलियं पावा असंजया,अविरया, कवडकुडिल कडुय चटुल भावा कुद्धा लुद्धा भयाय हस्सट्ठिया य सक्खी चोरा चारभडा खंडरक्खा जियजयकरा य गहिय गहणा कक गुरुग कारगा कुलिगी उवहिया वाणियगा य कूडतूल-कूडमाणी कुडकाहा वणोवजीविया पडगारका कलाया कारुइजा वंचणपरा चारियचाटुयार नगर गोत्तिय परियारगा दुइवाइसूयक अणबलभणिया य पुवकालिय वयण दच्छा साहसिया लहुस्सगा असच्चा गारविया असच्चट्ठावणाहि चित्ता उच्चच्छंदा अणिगाहा अणियता छंदेण मुकवाया भवति ॥ सू. ३॥ टीका-तं च तच्च 'पुण' पुनः 'अलिय' अलोकं 'केह' केऽपि 'पाया' पापा: पापिनो वदन्ति न तु साधवस्तेषामलीकवचननिष्टत्तत्वात् । तरह के ( सावजस्स ) पापसहित इस (अलियस वयजोगस्स ) अलीकमृषावाद-वचनयोगके ( अणेगाइं) अनेक नाम भी (होंति) हैं ॥सू-२॥ इस प्रकार से द्वितीय द्वार द्वारा इसका कथन कर अब सूत्रकार " जयकओ-यथाकृत : "जैसे यह किया गया है इस तृतीय द्वार का, तथा "जेवि य करेंति पावा-येऽपि च कुर्वन्ति पापा:" जो पापीजन इसे करते हैं, इस पंचम द्वार का प्रतिपादन करते हैं-'तं च पुण वदति ' इत्यादि। युत मा “ अलियरस वयजोगस्स" मी-भूषावाह-वयनयान “ अणेगाई" मने नाम ५५] होंति" छे ॥ २-२ ॥ ___ प्रभारी थी R 4 तेनु थन रीने वे सूत्र४२ " जहयकओ -यथाकृतः " यो रीत ते ४२॥या छे ते त्री द्वा२नु, तथा “ जेविय करें'ति पावा-येऽपि च कुर्वन्ति पापाः" ४या पायी ७३ तेनु सेवन २ छ, पायमों सरनु प्रतिपादन रे --" तं च पुण वदंति" त्याहि. For Private And Personal Use Only Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ. २ सू० ३ येन भावनालीक वदन्ति तनिरूपणम् १७५ कीशास्ते पापिन इत्याह-' असंजया' असंयताः अवशेन्द्रियाः ‘अविरया' अविरताः पापकर्मभ्योऽनिवृत्ताः पापकर्मरता इत्यर्थः, 'कवडकुडिलफड्डयचटुलभावा' कपटकुटिलकटुकचटुल भावाः कपटेन-छलेन हेतुना कुटिला-बक्रः, कटुकः =अनिष्टः चटुला तृष्णया चञ्चलो भावः परिणामो येषां ते असत्यभाषणजनित भावि नरकनिगोदाधनन्तदुःखभोगिनो जना एवासत्यं समाचरन्तीत्यर्थः । तथा 'कुद्धा ' क्रुद्धाः क्रोधिनः, 'लुदा' लुब्धाः-लोभिनः, क्रोधात् लोभाच्चासत्यं बदन्ति एवं मुग्धादयोऽपि अस्यैव-शास्त्रस्य प्रथमद्वारस्थ विंशतितमसूत्रपाठात् टीकार्थ-(तं च पुण अलियं केइ पावा वदंति) उस अलीक वचनको जो पापी जन होते हैं वे ही बोलते हैं सब प्राणी नहीं। क्यों कि जो साधुजन होते हैं वे इस अलीक वचन से सदा दूर रहते हैं। असत्यभाषण करने वाले कैसे होते हैं यह बात सूत्रकार इन वक्ष्यमाण विशेषणों द्वारा अथ समझाते हैं- असंजया ) वे असंयत होते हैं-इन्द्रियां उनके वश में नहीं होती हैं । (अविरया ) अविरत होते हैं-पापकर्मों से निवृत्त नहीं होते हैं, अर्थात्-वे पापकर्मों में निरत रहते हैं । (कवडकुटिलकडुयचटुलभावा) वे कपटी होने से कुटिल-वक्र, कटुक-अनिष्ट, और चटुलतृष्णा से चंचल हैं परिणाम जिनका ऐसे होते हैं, अर्थात्-असत्यभाषण जनित पाप उदय से भावी नरकनिगोद आदि के अनंत दुःखों को भोगनेवाले मनुष्य ही असत्य वचनों को बोला करते हैं । (कुद्धा लुद्धा) वे क्रोधी होते हैं, लोभी होते हैं, अर्थात्-क्रोध एवं लोभ से असत्यभा "तं च पुण अलिय केइ पावा वदंति " " असंजया " ते मसत्य वयन પાપી લેકે જ બોલે છે બધા જ બેલતાં નથી, કારણ કે સજ્જને તે તે અલીક વચનથી સદા દૂર રહે છે. અસત્ય ભાષણ કરનાર લેકે કેવાં હોય છે, તે વાતને સૂત્રકાર નીચે પ્રમાણેનાં વિશેષણ દ્વારા સમજાવે છે. टी-“असंजया" ते या मयत डाय-न्द्रियो भने १५ जाती नथी. " अविरया" मविरत डाय छ-तेगा पा५४था निवृत्त यता नथी, मेट तेगा पाप ४ दान २९ छ. " कवडकुटिलकडुयचटुलभावा"तेम। કપટી હોવાથી કુટિલ-વક, કટુક-અનિષ્ટ, અને ચટુલ-તૃષ્ણાથી ચંચળ વૃત્તિવાળા હોય છે, એટલે કે અસત્ય ભાષણ જનિત પાપના ઉદયથી ભાવી નરક નિગોદ અનંત દુઃખને ભેગવનાર મનુષ્ય જ અસત્ય વચને બેલ્યા કરે છે. "कुद्धा लुद्धा " ते औधी डाय छे तथा सोली हाय छ. मेटसीध मने લેભથી અસત્ય વચને બેલે છે. એ જ પ્રમાણે મુગ્ધ આદિ વિશેષણોથી યુક્ત For Private And Personal Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १७६ प्रश्नव्याकरणसूत्रे संग्राह्याः | 'भयाय = अन्येषां भयोत्पादनाय ' व्याघ्रः समागतः ' इतिरीत्या मृषावाद: अथवा भयाच्च 'हस्सट्टिया य ' हास्यार्थिकाः, अथवा हास्यार्थाय च हास्यं कर्तुमपि तथा वदन्ति 'सक्खी' साक्षिणः साक्षिभूतान्यायालयादौ 'चोरा' चौरा - निग्रहादौ : ' चारभडा ' चारभटाः = तत्र चाराः गूढपुरुषाः, भटाः = योधाः, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पण करते हैं। इसी तरह मुग्धादिक जो जीव होते हैं कि जिन्हें प्राणवध के प्रकरण में २० वें सूत्र में कहा गया है वे भी असत्य भाषण करते हैं । कोई धन के लिये, कोई धर्म के लिये, कोई इन्द्रियों के भोगों के निमित्त काम के लिये, और कोई २ अर्थ, धर्म और काम इन तीनों के लिये असत्य भाषण करते हैं । ( भयाय ) कितनेक कितनेक जीव ऐसे भी होते हैं जो दूसरों को भय उत्पन्न करने के अभिप्राय से अस त्यभाषण कर दिया करते हैं । " भयाय " की संस्कृत छाया "भयाच" ऐसी भी होती है - इसका तात्पर्य तब ऐसा होगा कि कितनेक जीव भय से भी असत्य भाषण कर दिया करते हैं । (हस्सडियाय ) कितनेक जीव ऐसे भी होते हैं जो हँसी मजाक में असत्यभाषण कर देते हैं, अथवा दूसरों की हँसी उड़ाने के अभिप्राय से असत्यभाषण करने लगते हैं । (सखी) जो न्यायालय - कचहरी आदि में दूसरों की साक्षी देते हैं वे भाषण करते हैं । (चोरा) चोरी करने वाले जो पुरुष होते हैं वे निग्रह आदि अवस्था के उपस्थित होने पर असत्य भाषण करते हैं। જે જીવા હાય છે, જેમનું પ્રાણવધના ૨૦મા પ્રકરણમાં વર્ણન કરવામાં આવ્યુ છે, તે જીવે પણ અસત્ય ખેલે છે. એટલે કે કેટલાક મુગ્ધ-મેહાધીન વૃત્તિવાળા અસત્ય એલે છે. કેટલાક ક્રોધ, લાભ અને મેહ એ ત્રણેને વશ થઈને અસત્ય ખાલે છે. કેટલાક લેાકેા ધનને માટે, કેટલાક ધર્મને માટે, કાઇ ઇન્દ્રિ— ચાના ભાગોને નિમિત્ત, અને કાઈ કાઇ લોકો અર્થ, ધમ અને કામ, એ ત્રણેને निभित्ते असत्य मोझे छे, “भयाय" डेटलाउ सेवा वो पशु होय छे में भे मीलने लय पभावाने भांटे असत्य माझे छे " भयाय " नी संस्कृत छाया 63 " भयाच्च પણ થાય છે. ત્યારે તેના અથ એવેશ થાય છે કે કેટલાક જીવા लयने अरणे पणु असत्य मोझे छे. “ हस्सट्टिया य " डेटलाई बोझे सेवा પણ હોય છે. કે જેઓ મજાક-મશ્કરીમાં પણ અસત્ય એલી નાખે છે, અથવા जननी भावाने निमित्ते असत्य मोसवा भडे छे. "सक्खी " न्याया क्षय महिमां मीलनी साक्षी आपनाश बोअ य असत्य मोहे छे, " चोरा ચારી કરનારા લામ, જેલમાં જવાના પ્રસંગ ઉપસ્થિત થતાં અસત્ય ખેલે છે. For Private And Personal Use Only " Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुदर्शिनी टीका अ० २ सू० ३ येन भावनालीक वदन्ति तन्निरूपणम् १७७ 'खंडरक्खा' खण्डरक्षा शुल्कपालाः-राजग्राह्यद्रव्यसंग्राहका इत्यर्थः, 'जियजयकरा' जितगतकराः तत्र जिताः प्रतिस्पर्द्विगतकरैः पराजयं प्राप्ताः, घूतकराः= द्यूतक्रीडकाः 'गहियगहणा' गृहीतग्रहणाः = गृहीतानि स्थापितानि ग्रहणानि = बन्धक द्रव्याणि यैस्ते 'कक्कगुरुगकारगा' कल्कगुरुककारका = कल्कगुरुकं -माया संभारसंभृतं वाक्यं तत्कारकाःऋपटिन इत्यर्थः, कुलिंगी' कुलिङ्गिना कुत्सिता लिङ्गिनः कुलिङ्गिनः=कुतीथिकाः ‘उवहिया' औपधिका-मायाचारिणः कपटिन इत्यर्थः ‘वाणियगा' वाणिजका व्यापारकारिणः, ' कूडतुलकूडमाणी' कूटतुलाकूटमानिनः क्रूटा-कपटयुक्ता-न्यूनाधिका तुला येषां ते कूटतुलाः कूटमानिन: कूटं वैषम्ययुक्तं यन्मानंतोलनं तदस्ति येषां ते तथा 'कूडकाहावणोव जीवया ' कूटकार्षापणोपजीविताः-कूटकार्षापणेन उपनीवन्ति ये ते तथा-कूटमुद्रोपजीविनः इत्यर्थः, 'पडकारगा' पटकारकाः-तन्तुवायाः-वस्त्रनिर्मापका इत्यर्थः, इसी तरह ( चारभडा ) जो चार गुप्तचर-सी. आई. डी होते हैं, भटयोधा होते हैं, ( खंडरक्खा ) खंडरक्ष-राजनाथद्रव्य के संग्राहक होते हे, (जियजयकरा ) जितद्यूतकर-प्रतिस्पर्धी जुआरियों द्वारा पराजित हुए जुआरी होते हैं, (गहियगहणा) गृहीतग्रहण-गहना रखकर जो दूसरों को व्याज पर रूपया देने वाले होते हैं ( कक्कगुरुगकारगा) कल्क गुरुक कारक-मायाचारी से भरे हुए वचनों को बोलने वाले होते हैं, अर्थात् कपटी होते हैं, ( कुलिंगी ) कुतीथिक होते हैं, ( उवहिया ) औपधिक-मायाचारी होते हैं, ( वाणियगा) वाणिजनक-व्यापारी होते हैं, असत्यभाषण करते हैं । (कूडतूलतूलमाणी) जो न्यूनाधिक तराजू रखते हैं, नापने तौलने के बांट कमती बढती रहते हैं ( कूडकोहावणोवजीविया) बनावटी रूपया पैसा बनाकर जो अपना निर्वाह करते हैं, मे प्रमाणे "चारभडा" २ शुतय।-सी. भा. 30 डाय छ, १४-योद्धा डाय छ, २ "खंडरक्खा" २१४-२NGrय माना द्रव्यना सब ४२ना२ डाय छ,२ “जियजयकरा" तित:२-प्रति२५धि कुमारी ॥२॥ ५२लित थयेस गारी हाय छ, “ गहियगहणा" 2डीत अडए- भान रे मागत आने व्यारे नji पी२॥२ डाय छ, “ ककगुरुगकारगा" ४६४ शुरु १२४२ भायाचारी क्यने। मासना। डाय छ-340 हाय छ, “ वाणियगा" २ व्यापारी खाय छ, रे " कुलिंगी" तीथि४. डाय छ, “ उवहिया" गोपधि:भायायारी हाय छ, त मसत्य मोसे छ. " कूडतूलतूलमाणी "२ मोटा ત્રાજવાં રાખે છે, માપવા તથા જોખવાનાં માપ વધારે કે ઓછા રાખે છે, "कूडकाहावणोवजीविया " नी ३१ीमा, पैसा मा मनावीन रे ? प्र०२३ For Private And Personal Use Only Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे 'कलाया' कलादा सुवर्णकाराः 'कारुइज्जा' कारुकीयाः शिल्पिनः 'वंचणपरा' वञ्चनपरा:प्रतारणापराः 'ठग' इतिप्रसिद्धाः 'चारियचाटुयारनगरगोत्तिय परियारगा, चारिकचाटुकारनगर गुप्तिकपरिचारकाः तत्र-चारिकाः=गुप्तचराः, चाटु कारामुखमाङ्गलिकाः, नगरगुप्तिकाः कोपालाः, ' कोतवाल' इति प्रसिद्धाः, परिचारकाः= सेवकाः, विषयभोगतत्पराय, 'दुहवाइम्यकभणबलभणिया ' दुष्टवादि सूचकऋणवलभणिताः, तत्र दुष्टवादिनः असत्पक्षग्राहिणः सूचका-पिशुनाः, ऋणवलभणिताः ऋणे-ऋणग्रहणे बलाः बलवन्तस्तै भणिताः-उक्ताः ' देहि मे ऋण' मित्युत्तमर्णेनोक्ता अघमर्णा इति भावः ‘पुवकालियवयणदच्छा' पूर्वकालिकवचनदक्षाः बक्तुकामस्याभिप्रायमालक्ष्य पूर्वमेव ब्रुवन्ति ये ते पूर्वकालिकवचनदक्षाः, 'साहसिका' सहसा-अविचार्य भाषन्ते ये ते साहसिकाः, 'लहुस्सगा' (पडकारगा ) जो तन्तु वाय-जुलाहे होते हैं ( कलाया ) कलाद-सुवर्णकार -सुनार होते हैं, ( कारुहजा) कारुकीय-शिल्पी-कारीगर होते हैं, (चणपरा ) जो ठग होते हैं, (चारिय ) गुप्तचर होते हैं, ( चाटुयार ) चाटुकार-खुशामदी होते हैं, (नगरगोत्तिय ) नगरगुप्तिक-कोतवाल होते हैं, (परियारग) परिचारक-सेवक तथा विषयभागों में तत्पर होते हैं, (दुहवाई ) जो असत्पक्ष को ग्रहण करने वाले होते हैं, (सूयग) सूचक-चुगल खोरहोते हैं, (अणबलभणिया) मेरा ऋण अदा करो इस प्रकार जिस देनदार से साहूकार कहता है वे ऋग बलभणित कर्जदार व्यक्ति कहने वाले के अभिप्राय को लक्षित करके पहिले से ही बोलने वाले ( पुव्वकालियवयणदच्छा) पूर्वकालिक वचनदक्ष मनुष्य, (साहसिया) विना विचारे बोलने वाले मनुष्य, (लहुस्सगा) अपने घातानुं शुसन यावे छ, " पडकारगा" २ १४४२ जाय छ, “ कलाया" सोनी य छ, “ कारुइज्जा" २ हाय थे, " वंचणपरा" 81 8य छ, "चारिय " गुप्तय२ य छ. “ चाटुयार” या ॥२- मुशामतीयो डाय छे. " नगरगोत्तिय" नगरभिटवाडय छ, “परियारग" परिया२५-सेवर તથા વિષય ભાગના ગુલામ હોય છે, જે અસત્ય પક્ષને ગ્રહણ કરનાર હોય छ," दुद्रुवाई " 2 असत्यपक्षने अड ४२ना२ डाय छ, “सूयग" सूच:युगलीपाराय छ, “अणबलभणिया" 'भा३ ऋण म२५४ ४२।। પ્રમાણે જે દેણદારને શાહુકાર કહે છે તે જાણબલ ભણિત દેણદાર વ્યક્તિ, કહે ना२ना भलिप्रायने सक्षित रीने पडेथी मी ना२ जाय छ, “पुषकालिय वयणदच्छा " पूर्व मापे क्यनी मायेसो मनुष्य, “ साहसिया " विद्यार्या विना मोदना२ मनुष्य, “ लहुस्सगा" पातानी नतने तु२७ भानना२ For Private And Personal Use Only Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० २ सू० ३ येन भावनालोकं वदन्ति तिन्निरूपणम् १७९ लघुस्वका:=पुच्छात्मानः, ' असचा ' असत्याः सत्यविमुखाः 'गारविया ' गौरविकाः ऋद्धयादि गौरवयुक्ताः, असञ्चट्ठावणाहिचित्ता' असत्यस्थापनाधिचित्ता:असत्यानाम्-असदर्थानां स्थापनायां प्ररूपणायामधिचित्तं येषां ते तथा असत्यार्थमण्डनपरा इत्यर्थः, ' उच्चच्छंदा' उच्चो-महान् स्वात्माप्रशंसापरः छन्दा=अमिप्रायो येषां ते तथा स्वात्मप्रशंसापरायण इत्यर्थः, 'अणिग्गहा' अनिग्रहाः= अवशेन्द्रियाः ' अणियता' अनियताः अनियमवन्तः छन्देन स्वाभिमायेण 'मुक्कवाया' मुक्तवाचा यथा तथा भाषिणः अथवा 'वयमेव सिद्धवादिनः' इति वदन्ति, के वदन्ति ? 'जे ' ये ' अलियाहिं ' अली केभ्योऽसत्येभ्यः 'अविरया' अविरताः अनिवृत्ताः भवन्ति ॥ मू-३॥ तथा-'अवरे नत्थिगवाइणो' इत्यादि मूलम्-अवरे नत्थिगवाइणो वामलोगवादी भणंति, नस्थि जीवो, न जाइ इह परे वा लोए, नय किंचि वि फुसइ पुनपावं, नस्थिफलं सुकयदुक्कयाणं । पंचमहाभूइयं सरीरं भासंति आपको तुच्छ मानने वाले मनुष्य, (असच्चा ) सत्य से विमुख रहने वाले मनुष्य, (गारविया ) ऋद्धयादि के गौरव से युक्त बने हुए मनुष्य, (असचट्ठावणाहिचित्ता ) असत्यपदार्थ की प्ररूपणा करने वाले मनुष्य, (उच्चच्छंदा ) अपने आपकी प्रशंसा करने वाले मनुष्य, (अणिग्गहा) जिनकी इन्द्रियां वश में नहीं है ऐसे मनुष्य, (अणिययाछंदेणं ) नियम से रहित मनुष्य, ( मुक्वाया ) यथातथा बोलने वाले मनुष्य, और (जे य) जो मनुष्य ( अलियाहिं ) असत्यभाषण से ( अविरया) विरति रहित (भवंति ) होते हैं वे जो मन में आता है सो बोल दिया करते हैं । इस प्रकार के बोलने में अलीक भाषण का दोष लगा करता है ॥सू-३॥ भनुष्यो, “ असच्चा" सत्यथा विभुम २उना२ भनुष्यो, “ गारविया ” ऋद्धि माहिना भलिभानथी युक्त अनेस मनुष्यो, “असच्चद्वावणा हि चित्ता" अस. त्य पदार्थ नी । प्र३५९! ४२॥२ मनुष्यो, “ उच्चच्छंदा " मा५ ५15 ४२॥२ सी, “ अणिग्गहा" भनी छन्द्रियो आमा नथी तेवा सोडी, “ अणिययाछदेणं" नियम विनानो भनुष्यो-मनियमित सो, “मुक्कवाया " म तेम मासना। सी, भने “जे य" रे मनुष्य " अलियाहिं " असत्य मापाशुथा "अविरया" वि२ति २हित “ भवंति" डाय छ, ते हो। मनमा आवे तम બેલી નાખે છે. તે રીતે બેસવાથી અસત્યભાષણને દેષ લાગ્યા કરે છે For Private And Personal Use Only Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे हे वायजोगजुत्तं, पंच य खंधे भणंति केइ, मणं मण जीविका वदंति, वाऊजीवो त्ति एवमाहंसु सरीरं साइयं सनिधणं इह भवे एगभवे, तस्स विप्पणासंमि सव्वनासो त्ति एव जंपंति मुसावाई ॥ सू०४॥ टीका- 'अबरे' अपरे=उक्तेभ्योऽन्ये ' नत्थिगवाइणो' नास्तिकवादिनः 'नास्ति परलोकः' इति मतिर्येषां ते नास्तिका स्ते च ते वादिनः प्रत्यक्षप्रमाणगादिनचार्वाकाः, तथा 'वामलोगवाई ' तथा वामलोकवादिनः, वाम-विरुद्धं लोकं-वदन्ति ये ते तथा सतामपि लोकवस्तूनामसत्त्व प्रतिपादकाः शून्य वादिनः इत्यर्थः, ते हि 'भणन्ति वदन्ति यत् 'नथि जोवो' नास्ति जीवः मुखदुःखादि भोक्ता तत्साधक प्रमाणाभावात् , यतो हि न तत्र प्रत्यक्षं प्रमाणमुपक्रमते चक्षुरादीन्द्रियविषयत्वात्, नाप्यनुमानं तत्र प्रमाणम् , तस्य व्याप्तिपक्षधर्मताज्ञानाबधीनतया तथा-'अवरे नत्थिगवाइणो' इत्यादि. टीकार्थ-( अवरे ) इन पूर्वोक्त व्यक्तियों से भिन्न (नत्थिगवाइणो) जो नास्तिकवादी हैं-' परलोक नहीं है ' इस प्रकार की जिनकी बुद्धि है ऐसे केवल एक प्रत्यक्ष प्रमाण मानने वाले चार्वाक, तथा (वामलोगवाई ) घामलोकवादी-शन्यवादी, ये लोक में रही हुई वस्तुओं को असत्रूप से प्रदिपादित करते हैं वे ( भणंति ) कहते हैं कि (नत्थिजीव ) सुख, दुःख आदि अवस्थाओं का भोक्ता जीव नाम का कोई पदार्थ नहीं है, कारण कि इसके साधक प्रमाणों का अभाव है प्रत्यक्षप्रमाण इसका साधक इसलिये नहीं होता हैं कि चक्षुरादिक जो इन्द्रियां है वे उसे अपना विषयभूत नहीं बनाती हैं । अनुमान से भी उसका ग्रहण नहीं होता है, क्यों कि अनुमान से साध्य और साधन की व्याप्ति का एवं पक्ष तथा-" अवरे नत्थिगवाइणो" त्यात टी -“अबरे"ते पूड़ित व्यतियोथी गुहार (२ना 'नन्थिगवाइणो" જે નાસ્તિકવાદી છે-“પરલેક નથી” એ પ્રકારની જેમની માન્યતા છે એવાં, ३४ मे प्रत्यक्ष प्रमाणुने १ भानना२ याचिाही, तथा “ वामलोगवाई " વામિલકવાદી–વામમાર્ગી, તેઓ સૃષ્ટિમાં રહેલ વસ્તુઓને અસત રૂપે પ્રતિપहित ४२ छ तेरा " भणति" ४ छ ॐ " नस्थि जीवो" सुप ५ माहि અવસ્થાઓને જોતા જીવ નામને કઈ પદાર્થ નથી, કારણ કે તે સિદ્ધ કરવા માટેના પ્રમાણેને અભાવ છે. પ્રત્યક્ષ પ્રમાણે તેનું સાધક તે કારણે હતું નથી કે ચક્ષ આદિ જે ઈન્દ્રિયે છે તે તેને પિતાના વિષય રૂપ બનાવી શકતી નથી. અનુમાનથી તેને ગ્રહણ કરી શકાતું નથી કારણ કે અનુમાનમાં સાધ્ય For Private And Personal Use Only Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० २ सू० ४ नास्तिकवादिमतनिरूपणम् प्रत्यक्षाभावे व्याप्तिग्रहस्याप्यभावात् महानसादौ सत्येव पर्वतादी वहिरनुमीयते । वधूिमयोः प्रत्यक्षेण साहचर्यग्रहे प्रत्यक्षप्रमाणवादिभिरनुमानस्यानङ्गीकृतत्वाच्च । नाप्यागमग्राह्यस्तस्य परस्परविरुद्धत्वेनाऽपामाण्यात् । नाप्युपमानमत्रपसज्यते, असत्पदाथै केनोपमीयते । इति । एवं च जीवस्याऽसिद्धत्वात् कोऽपि इह-मनुष्यलोके परे वा ' लोए ' लोके देवादिलोके वा '.न जाइ' न यातिन गच्छति, 'नय' न च ' किंचिवि ' किश्चिदपि ' पुनपावं , पुण्यपाप-पुण्यपापरूपं कर्म ‘फुसइ' धर्मता आदि का ग्रहण होना आवश्यकीय होता है इसके विना अनुमान नहीं होता है। जब उस विषय में प्रत्यक्षप्रमाण ही प्रवृत्त नहीं होता है तब साध्य साधन की व्याप्ति का ग्राहक वहां वह कैसे हो सकता है । महानस आदि में साध्य साधन की व्याप्ति पहिले प्रत्यक्ष से ग्रहण कर लेने पर ही तो अनुमाता पर्वत आदि में बह्नि का अनुमान करता है । आगम प्रमाण से भी “ जीव है " यह बात नहीं कही जाति है, कारण आगमों में एकमतता नहीं है । परस्पर विरुद्धार्थ का-एक दूसरे आगम से विरोधी तत्त्व का-ये प्रणयन करते हैं, इसलिये इनमें प्रमाणता ही नहीं है। उपमान प्रमाण की यहां प्रवृत्ति इसलिये नहीं हो सकती है कि जब 'जीव ' पदार्थ ही असत् है तब वह उपमेय कैसे हो सकता है। इस तरह जीव नामक पदार्थ की असिद्धि होने पर ( न जाइ इह परे वा लोए) कोई भी इस मनुष्यलोक में अथवा दूसरे देवादिलोक में नहीं जाता है, और (न य किंचि वि फुसइ पुण्यपावं ) न वह पुण्य एवं पापरूप कर्म को छूता है, अर्थात्-जब जीव नाम का कोई पदार्थ ही સાધનની વ્યાપ્તિનું અને પક્ષમતા આદિનું ગ્રહણ થવું આવશ્યક હૈય છે, તેના વગર અનુમાન થતું નથી. જે તે વિષયમાં પ્રત્યક્ષ પ્રમાણ જ પ્રવૃત્ત હોતું નથી તે સાધ્ય સાધનની વ્યાપ્તિને ગ્રાહક ત્યાં તે કેવી રીતે થઈ શકે ! મહાનસ આદિમાં સાધ્ય સાધનની વ્યાપ્તિ પહેલાં પ્રત્યક્ષ રીતે ગ્રહણ કરી લીધા પછી તે અનુમાન કરનાર પર્વત આદિમાં અગ્નિનું અનુમાન કરે છે. આગમોનું પ્રમાણ આપીને પણ “જીવે છે” તે વાત કહી શકાય તેમ નથી, કારણ કે આગમાં એક મતતા નથી. પરસ્પરથી વિરુદ્ધ અર્થનું-એક બીજાથી વિરોધી તત્ત્વનું-તેઓ વર્ણન-પ્રતિપાદન કરે છે, તે કારણે તેમનામાં પ્રમાણભૂતતા નથી, अपमान प्रमाणुनी मी प्रवृत्ति ते २0 ४ शती नथी ने “जीव " પદાર્થ જ અસતું હોય તે તે ઉપમેય કેવી રીતે થઈ શકે ! આ રીતે જીવ नामना पानी मसिद्धि यतi " न जाइ इह परे वा लोए" आई ५ मा भनुष्य सभा अथवा मानवाभि नथी, भने “नय किंचि वि फुसइ पुण्णपाव" ते मने पा५ ३५ भनि २५शता नथी, मेटले 3 For Private And Personal Use Only Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्र स्पृशति । जीवस्याऽसद्भावादेव न शुभाशुभकर्मबन्धनमिति भावः। अत एवं 'सुकयदुक्याणं' सुकृत दुष्कृतानां-पुण्यपापानां फलमपि ' नत्थि' नास्ति जीवासत्वेन तत्फलस्याऽप्यसत्त्वात् । तथा ' सरीरं 'पंचमहाभूइयं ' पञ्चमहा भौतिकं पृथिव्यप्तेजोवावाकाशमयं, 'भासंति ' भाषन्ते । तत् कीदृशं भाषन्ते इत्याह-' हेवागजोगजुत्तं' हेवाकयोगयुक्तम् , हेवाकः-स्वभावस्तेन योगः-परस्परं संयोगस्तेन युक्तम् , पञ्चभूतानां परस्परं संयोगो वियोगश्च स्वभावाद् भवति, न तत्र किंचिदन्यत् कर्मादि आत्मा वा कारणमस्तीति भावः । केई' केऽपि बुद्ध मतानुसारिणः ‘पंचखंधे' पश्चस्कन्धान रूपवेदनाविज्ञानसंज्ञासंस्काररूपान् भणन्ति-कथयन्ति, तत्र-रूपस्कन्ध,:-पृथिव्यादयो रूपादयश्च १, वेदनास्कंध:नहीं है तो मर कर वही पुनः अपने पुण्य पापकर्मों के अनुसार मनुष्यलोक में अथवा देवादिलोक में जन्मता है, यह कथन असल है। तात्पर्य इसका यही है जीव का अस्तित्व न होने से उसके (नस्थिफलं सुकयदुक्कयाणं ) शुभ और अशुभ कर्मों का बंध नहीं होता है। जब शुभ अशुभ कर्मों का बंध ही नहीं होता है तब उनके फल का भी अभाव ही है । तथा ( पंचमहाभूइयं सरीरं भासंति ) यह जो शरीर है वह वृथिवी, अपू , तेज वायु और आकाश, इन पांचभूत स्वरूप है। (हेवाग जोगजुत्तं) पांच भूतों का यह पारस्परिक संयोग अथवा वियोग स्वभाव से ही होता रहता है । इसमें न तो कोई कर्म ही कारण है और न आत्मा ही । (केई पंच य खंधे भणंति) कितनेक वादी बौद्ध-सिद्धातमतानुयायी-ऐसा कहते हैं कि रूप १, वेदना २, विज्ञान ३, संज्ञा ४, જે જીવ નામને કઈ પદાર્થ જ ન હોય તે તે મરીને પિતાના પુન્ય પાપકર્મો પ્રમાણે મનુષ્ય લેકમાં અથવા દેવાદિ લેકમાં જન્મે છે. તે કથન અસત્ય કરે છે. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે જે જીવનું અસ્તિત્વ ન હોય તે તેના "नस्थि फलं सुकयदुबयाणं " शुभ भने अशुल भनि। म मातो नथी, જે શુભાશુભ કર્મોને બંધ જ બંધાતું ન હોય તે તેના ફળને પણ અભાવ ४ डाय. तथा ." पंचमहाभूइयं सरीर भासंति " मारे शरीर छ ते પૃથિવી, અપૂ ( જળ, તેજ, વાયુ અને આકાશ, એ પાંચ ભૂત સ્વરૂપ છે. " हेवागजोगजुत्तं” पांच भूताना मा ५२२५२७ समय अथवा वियोग સ્વભાવથી જ થયા કરે છે. તેમાં આત્મા કે કર્મ કારણરૂપ નથી. “केई पंचेय खंधे भणति " 20 पाम भानना। -ौद्ध सिद्धान्त भतानुयायी मे ४ छ । (१) ३५, (२) वेहना, (3) विज्ञान, (४) संज्ञा For Private And Personal Use Only Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुवशिनी टीका अ०२ सू० ४ नास्तिकवादिमतनिरूपणम् सुखा १ दुःखा २ अदुःखसुखा ३ चेति त्रिविधवेदनास्वभावः २, विज्ञानस्कन्धःरूपादिविज्ञानलक्षणः ३, संज्ञास्कन्धः-संज्ञानिमित्तोऽवग्रहणात्मकप्रत्ययः ४, संस्कारस्कन्धः-पुण्यापुण्यादिधर्मसमुदायश्चेति पश्च स्कन्धाः, एते पञ्चैव स्कन्धाः सन्ति, नान्यः कश्चित्तद्वयतिरिक्त आत्माऽऽख्यः पदार्थोऽस्ति, इति तेषां मतम् । नान्य आत्माभिधानइति बौद्धाः, ' मणंच ' मनश्च मन एव जीवो येषां ते तथा मनोजीविका = मन आत्मवादिनो वदन्ति-इति मन आत्मवादिनो मतम् । तथा 'वाउजीवोत्ति' वायुर्जीव इति ' आहेसु' आहुः केचित्, उच्छ्वासादिरूप एव जीव इति वदन्ति । प्राणवायुना सर्वक्रियासु प्रवर्तनं जायते, अतएव प्राणवायुरेव जीव इत्यर्थः । अथ तज्जीवतच्छरीरवादिमतवाह, तथाहि-'सरीरं साइयं सनिधणं' और संस्कार ५, ये पांच स्कंध हैं । पृथिव्यादिक एवं रूपादिक ये रूप. स्कंध हैं १ । सुख १, दुःख, २ और सुख दुःख ३ इन त्रिविधरूप वेदना. स्कंध, हैं २ । रूपादिकों का विज्ञान स्वरूप, विज्ञानस्कंध है ३ । यह अमुक है-यह देवदत्त है, इत्यादि-रूप से जो संज्ञाओं का ग्रहण होता है वह संज्ञास्कंध है ४। पुण्य अपुण्य आदि रूप जोसमुदाय है वह संस्कार स्कंध है। ये पांच स्कंध ही हैं, इनसे भिन्न आत्मा नाम का कोई स्वतंत्र पदार्थ नहीं है इस प्रकार का मंतव्य बौद्धों का है। (मणं च मणजीविया वयंति) जो मन को ही आत्मा मानते हैं वे मनोजीविक हैं तथा ( वाऊ जीवोत्ति एवमाहंसु ) कोई २ उच्छ्वास आदि रूप वायु ही जीव है ऐसा मानते हैं, इनका कहना है कि प्राण नामकवायु से ही समस्त क्रियाओं में प्रवर्तन होता है इसके विना नहीं, अतः प्राणवायु ही जीव है (सरीरं साइयं सनिधणं) અને (૫) સંસ્કાર એ પાંચ ધ છે. (૧) પૃથિવ્યાદિક અને રૂપાદિક તે રૂપકંધ છે, (૨) સુખ, દુઃખ અને સુખદુઃખ એ ત્રણ પ્રકારને વેદના २४५ ,छ. (3) पाहोना विज्ञान २१३५ विज्ञान२४५ छ. (४) मा समु છે–આ દેવદત્ત છે, ઈત્યાદિ રીતે જે સંજ્ઞાઓનું ગ્રહણ થાય છે તે સંજ્ઞા સ્કંધ છે. (૫) પુન્ય અપુન્ય આદિ રૂપ જે ધર્મ સમુદાય છે તે સંસ્કાર સ્કંધ છે. એ પાંચ સ્કંધ જ છે, તે ભિન્ન આત્મા નામને કઈ સ્વતંત્ર પદાર્થ જ નથી, से प्रार्नु मोहन भतव्य छे. " मणं च मणजीविया वयंति" भनने । मात्मा भाने छे ते मनावि ४वाय छे. तथ“वाऊ जीवोत्ति एवमाहंसु " કઈ કઈ ઉચ્છવાસ આદિ રૂપ વાયુ જ જીવ છે તેમ માને છે, તેમનું કહેવું એવું છે કે પ્રાણવાયુથી જ સમસ્ત ક્રિયાઓ ચાલ્યા કરે છે, તેના વિના ચલતી नथी, तेथी प्राणवायु १०वे छ. “सरीर साइय सनिधणं " शरीरने रे For Private And Personal Use Only Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे शरीरं सादिकं सनिधनम् , शरीरम् आदिसहितम् उत्पत्तिमत्त्वात् , सनिधनं-सविनाशम् अन्तयत्वात् , ' इह भवे' अस्मिन् भवे प्रत्यक्षं जन्म, तस्मात् 'एगे भवे' एक एव भवः जन्म नान्यो लोकः, 'तस्स विप्पणासमि' तस्य विप्रणाशे सति तस्य शरीरस्य विनाशे सति 'सब्बनासोत्ति' सर्वनाशइति नाऽत्माऽवशिष्यते नाऽ पि च शुभाशुभरूपंकर्म । एवं उक्तरीत्या ' जंपति' जल्पन्ति कथयन्ति तज्जीवतच्छरीवादिनः । नास्तिकादारभ्य तज्जीवतच्छरीरवादिपर्यन्ताः सर्वे 'मुसावाई ' मृषावादिनः सन्ति ।। मू०४ ॥ पुनरप्याह-'तम्हा' इत्यादि। मूलम्--तम्हा दाणवयपोसहाणं तवसंजमबंभचेरकल्लाणमाईयाणं नस्थिफलं, नवि य पाणवहे अलियवयणं न चेव चोरककरणं परदारसेवणं वा सपरिग्गहपावकम्मकरणं पि शरीर को ही जो जीव मानने वाले हैं उनका ऐसा कहना है कि यह उत्पत्तिमान होने से सादि है और अन्तवाला होने से विनाशसहित है। ( इहभवे एगे भवे ) इस भव में जो इसका जन्म है वही इसका भव है, इसके अतिरिक्त और कोई दूसरा इसका भव-जन्म नहीं है, क्यों कि (तस्स विप्पणासम्मि सव्वणासोत्ति ) जब इस शरीर का विनाश हो जाता है तब इस जीव का सर्वनाश हो जाता है फिर इसका अस्तित्व ही नहीं रहता है, शुभ और अशुभ कर्म कुछ भी नहीं रहते हैं, ( एवं ) इस तरह नास्तिक वादी से लेकर शरीर को ही जीव मानने वाले ये सब ही मुसाबाई ) मृषावादी ( जंपंति ) कहते हैं । अर्थात् ये सब मृषावादी हैं ।। सू-४॥ જીવ માનનારા છે તેમનું એવું કહેવું છે કે તે ઉત્પત્તિવાળું હોવાથી સાદિ (माहि सहित) छ भने मन्तवाणु वाथी विनाश युत (सान्त) छ. " इह भवे एगे भवे " म भन्भमा २ तेना सन्म छे, ते ४ तनी ભવ છે, તે ઉપરાંત બીજે કઈ પણ તેનો ભવ–જન્મ નથી, કારણ કે " तस्स विप्पणासम्मि सव्वणासोत्ति" क्यारे 241 शरीरने। नाश थाय छे त्यारे આ જીવને પણ સર્વનાશ થઈ જાય છે–પછી તેનું અસ્તિત્વ જ રહેતું નથી, शुम भने पशु ४ ४४ ५४ २ नथी “ एवं" २ रीत नास्ति पाहीथी साई ने शरा२ने । मानना ते मधाने “ मुसाबाई " भृषापाही "जपति" छ. मेटले ते मधा असत्य पहनार छे. ॥ सू-४॥ For Private And Personal Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनीटीका अ. २ सू. ५ नास्तिकवादिमतदिनिरूपणम् नत्थि किं च न नेग्इयतिरिक्खमणुयजोणी, न देवलोगो वा अस्थि सिद्धिगमणं, अम्मापियरो नस्थि, नवि अस्थि पुरिसकारो, पच्चक्खाणमवि नस्थि, नवि अत्थि कालमच्चू य, अरिहंता चकवट्टी बलदेवा वासुदेवा नस्थि, नेवस्थि केइरिसओ, धम्माधम्मफलं वि न अस्थि किं चि बहुयं वा थोवं वा तम्हा एवं जाणिऊणं जहा सुबहु इंदियाणुकूलेसु सव्वविसएसु वदेह नत्थिकाइ किरिया वा एवं भणंति नथिकवाइणो वामलोगवाई ॥ सू० ॥५॥ टीका-यस्मात् आत्माऽपि नास्ति, शुभाशुभकर्माणि तत्फलान्यपि च न सन्ति । तम्हा' तस्मात् 'दाणवयपोसणं' दानव्रतपोषधानां तत्र दानम्= अभयदानसुपात्रदानादिकम् , 'वय' व्रतानि = स्थूलपाणातिपातविरमणादीनि पोषधः पोपं धर्मस्य पुष्टिं धत्ते-करोतीति पोषधः अष्टमीचतुर्दशीपूर्णिमाऽमावास्यापर्वदिनाऽनुप्ठेय आहारादिपरित्याग पूर्वकोव्रतविशेषः, उक्तं च--- आहार तनुसत्काराऽब्रह्मसावधकर्मणाम् । त्यागः पर्वचतुष्टय्यां तद्विदुः पौषधव्रतम् ॥ फिर भी-तम्हा दाणवयपोसहाणं' इत्यादि। टीकार्थ-आत्मा शुभाशुभकर्म और इनके फल ये सब कुछ भी नहीं हैं ( तम्हा ) इसलिये ( दाणवयपोसहाणं ) दान-अभयदान. सुपात्रदान आदि, व्रत-स्थूलप्राणातिपात विरमण आदि, (पोसह ) पोषध-अष्टमी चतुर्दशी, पूर्णिमा एवं अमावस्या इन पर्व दिनों में आहार आदि को परित्याग पूर्वक अनुष्ठेयव्रत विशेष, कहा भी है पणी-" तम्हा दाणवयपोसहाणं " त्याह. सर्थ - आत्मा शुभाशुभ ४ मने तेमना ३० ते मधुय नथी " तम्हा" तेथी " दाणवयपोसहाणं " हान-ममयहान, सुपानाहान मा, प्रत-प्रतिपात वि२भए माह " पोसह " औषध-भाभ, यौहश, पूनम, समास माह આહાર આદિના પરિત્યાગ પૂર્વકનું એક અનુષ્ઠાને કહ્યું છે કે "आहार, तनुसत्कारा-ऽब्रह्म-सावद्यकर्मणाम् । त्यागः पर्वचतुष्टयां, तद्विदुः पौषधव्रतम् ॥१" प्र० २४ For Private And Personal Use Only Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नध्याकरणसूत्रे तेषां नास्ति फलमित्यग्रिमेण संवन्धः, तथा 'तवसंजमबंभचेरकल्लाणमाइयाणं तपः संयमब्रह्मचर्यकल्याणादिकानां, तत्र तपा=अनशनादिलक्षणं, संयमः= सावधानुष्ठानविरतिलक्षणः सप्तदशविधः, ब्रह्मचर्य-कामसेवनपरित्यागः, तान्येव कल्याणकारित्वात्कल्याण तदादिर्येषां ते-तथा तेषां फलं-कर्मक्षयसुगतिगमनादिकं, 'नत्यि' नास्ति, 'नवि' नापि 'पाणवहे ' प्राणवधः, 'अलियबयण' अलीकवचनं प्राणवधे मृषा भाषणे च न किमप्यशुभफलं भवतीत्यर्थः, तथा 'चोरिककरणं' चौरिक्यकरणं चौरिक्यस्य करणं-चौर्य-परद्रव्यहरणमित्यर्थः, परदारसेवनं-परस्त्रीगमनं वा न चैव पापजनक 'सपरिग्गहपावकम्मकरणंपि ' सप " आहार, तनुसत्कारा-ब्रह्म-सावद्यकर्मणाम् । स्यागः पर्वचतुष्टय्यां, तद्विदुःपौषधव्रतम् ॥१॥" इन पर्वचतुष्टय के दिनों में आहार, शरीर संस्कार, एवं अब्रह्म, आदि सावद्यकर्मों का जो त्याग कर दिया जाता है उसका नाम पौषधव्रत है ॥१॥ ____ इनका तथा (तवसंजमबंभचेरकल्लाणमाइयाणं ) कल्याणकारी अन शन आदि बारह प्रकार के बहिरंग अंतरंग तपों का सावद्य अनुष्ठान से विरति कारण करने रूप सत्रह प्रकार के संयम का तथा कामसेवन करने के परित्याग रूप ब्रह्मचर्य का ( नस्थिफलं) कर्मक्षय एवं सुगतिगमनादिरूप कुछ भी (नस्थिफलं ) फल नहीं होता है। इसी तरह (न वि य पाणवहे अलियवयणं) प्राणवध करने पर तथा अलीकभाषण करने पर कुछ भी अशुभ फल नहीं प्राप्त होता है । ( न चेव चोरिककरणं परदारसेवणं वा) चोरी करना , परस्त्री सेवन करना इनसे भी जीवों को कोई पाप नहीं लगता है क्यों कि पापरूप कोई वस्तु ही એ ચાર પર્વદિનોમાં આહાર, શરીર સંસ્કાર અને અબ્રહ્મચર્ય આદિ સાવધ કર્મોને ત્યાગ કરાય છે. તે વ્રતનું નાણુ પૌષધવત છે ના तेनुं तथा “ तवसंजमबंभचेरकल्लाणमाइयाणं " ४८या। मनशन આદિ બાર પ્રકારનાં બાહ્ય અને આંતરિક તપનું, સાવધ અનુષ્ઠાનથી વિરતિ ધારણ કરવા રૂપ સત્તર પ્રકારના સંયમનું, તથા કામસેવન કરવાના પરિત્યાગ३५ प्रायन “नथि फलं" भक्षय भने सुगति गमनाहि३५ ।५५५ " नस्थिफल" ५७. खातुं नथी. मे प्रमाणे " न वि य पाणवहे अलियवयणं " પ્રાણવધ કરતા, તથા અસત્ય બોલતા પણ કઈ અશુદ્ધ ફળ પ્રાપ્ત થતું નથી. " न चेव चोरिककरणं परदारसेवणं वा" यारी ४२वाथी, तथा ५२वी सेवन કરવાથી પણ જેને કઈ પાપ લાગતું નથી, કારણ કે પાપરૂપ કઈ વસ્તુ જ For Private And Personal Use Only Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सुदर्शिनी टीका अ० २ सू० ५ नास्तिकवादिमतनिरूपणम् १८७ रिग्रहपापकर्मकरणमपि परिग्रहेण मूर्च्छया सहितं यत्सपरिग्रहं तदेव पापकर्म करणं = पातककर्मानुष्ठानं तदपि 'नत्थि ' नास्ति । किं च ' नेरइयतिरिक्खमणुय जोणी ' नारकतिर्यङ्मनुष्ययोनिरपि 'नत्थि' नास्ति, अयं भावः - नारकाणां तिरवां मनुष्याणां च योनि रुत्पत्तिरूपा न कर्मजनिता, किन्तु स्वभावादेव, अतो जगतो विचित्रता स्वाभाविकी न कर्मजनिता । उक्तं च- 41 कण्टकस्य च तीक्ष्णत्वं, मयूरस्य विचित्रता । वर्णाश्व ताम्रचूडानां स्वभावेन भवन्ति हि ॥ १ ॥ " मृषावादिताचैषामेवं विज्ञेया- एतन्मते स्वभावो जीवश्च एक एव तथा प्राणातिपातादिकं तज्जनितकर्मापि च स्वभाव एव । एवञ्च प्राणातिपातादेः स्वभाव नहीं है। तथा ( सपरिग्गहपाचकम्मकरणंपि नत्थि ) परिग्रह रूप पापकर्म भी कुछ नहीं है । अर्थात् पापकर्म का अनुष्ठान दोषावह नहीं है। ( किं च नेरइयतिरिक्खमणुयजोणी नत्थि ) नरकयोनि, तिर्यखयोनि, एवं मनुष्ययोनि ये कर्मकृत नहीं है किन्तु स्वाभाविकी है । इसलिये जगत की जो यह विचित्रता दृष्टिगत हो रही है वह स्वाभाविक हि है कर्मजनित नहीं है। कहा भी है 66 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कण्टकस्य च तीक्ष्णत्वं, मयूरस्य विचित्रता । वर्णाश्च ताम्रचूडानां स्वभावेन भवन्ति हि ॥ | १ ||" कंटक की तीक्ष्णता, मयूर की विचित्रका और मुर्गे की विचित्र वर्णता, ये सब स्वभाव से ही हैं ॥ १ ॥ इस प्रकार यह स्वभाववादी का कथन मृषारूप इसलिये है कि इनके मतानुसार स्वभाव और जीव ये कोई भिन्न २ पदार्थ नहीं है किन्तु नथी. तथा सपरिगह पावकम्मकरपि नत्थि " પરિગ્રહરૂપ પાપકમ જેવું पाशु कुछ नथी, भेटलो } पायउनु अनुष्ठान घोषयात्र नथी. " किं च नेरइयतिरिक्त्र मणुयजोणी नत्थि ” नरस्योनि, तिर्यथयोनि मने मनुष्ययोनि, मे ક્રમ કૃત નથી પણ સ્વાભાવિક છે. તેથી જગતમાં આ જે વિચિત્રતા નજરે પુરું છે તે સ્વાભાવિક છે કજનિત નથી. કહ્યું પણ છે— 44 कण्टकस्य च तीक्ष्णत्वं मयूरस्य विचित्रता । 66 वर्णाश्च ताम्रचूडानां स्वभावेन भवन्ति हि ॥ १ ॥ " કાંટાની તીક્ષ્ણતા, મારની વિચિત્રતા, અને કૂકડાની વિચિત્રવણુતા, ને સઘળુ` સ્વભાવથી જ બનેછે. ૧૫ આ પ્રકારનું તે સ્વભાવવાદીઓનું કથન મુષાવાદરૂપ તે કારણે છે કે તેમના મત પ્રમાણે સ્વભાવ અને જીવ એ કાઇ ભિન્ન ભિન્ન પદાથ નથી, પશુ એક For Private And Personal Use Only Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૨૮ટે মধ্যাক रूपत्वे जीवरूपत्वमपि स्पष्टमेव स्यात् , स्वभावत्वेन सर्वेषामेकत्वात् तथा च एकस्मिन् कार्यकारणभावस्य निरूपणाऽसम्भवान्नरकादिविचित्रता निष्कारणा स्यात् न च किमपि निष्कारणं भवति, तथा सति घटपटादेरपि निष्कारणता स्यादित्येतेषां मृषावादित्वं मुव्यक्तमेव । 'न देवलोगो वा अत्थि' न देवलोको वाऽस्ति । 'नय अस्थि सिद्धिगमणं' न चास्ति सिदिगमनम् । 'अम्मापियरो नत्थि' अम्बापितरौ न स्तः, उत्त्पत्तिमात्रकारणत्वेन मातापितृत्व कल्पना न एक रूप ही हैं, तथा प्राणातिपात आदि से जनित कर्म ये भी सब स्वभावरूप हैं। इस प्रकार सब में एक स्वभावरूपता मानने पर इन प्राणातिपात आदिकों में जीवरूपता को प्रशक्ति आ जाती है, क्यों कि सब में भी एक स्वभावरूपता का सद्भाव पाया जाता है। इस तरह होने पर किसी एक में भी कार्यकारण भाव का निरूपण असंभव बन जाता है , अतः नरकादिरूप विचित्रता निष्कारणक ठहरती है, परन्तु विचार करने पर यह विचित्रता निष्कारणक तो है नहीं । यदि इसे निष्कारणक माना जावे तो घट पट आदि रूप जो यह पदार्थों में विचि. व्रता है उसे भी अथवा घट पट आदि जो पदार्थ है उन्हें भी निष्कारणक ही मानना पड़ेगा परन्तु ये सब निष्कारणक नहीं हैं,-सकारणक हैं, इस तरह सकारणक होने पर भी इन्हें निष्कारणक कहना, असत्यभाषण ही है, और यह इनका इस रूप से स्पष्ट ही है । इसी तरह (न देवलोगो वाअस्थि) देवलोक नहीं है, ( न य अत्थि सिद्धिगमणं) सिद्धिરૂપ જ છે, તથા પ્રાણાતિપાત આદિ અને પ્રાણાતિપાત આદિ વડે ઉપાર્જિત કર્મ એ બધુ સ્વભાવરૂપ છે. આ રીતે બધામાં સ્વભાવરૂપતા માની લેવામાં આવે તે તે પ્રાણાતિપાત આદિમાં જીવરૂપતાની પ્રતિ આવી જાય છે, કારણ કે સૌમાં એક સ્વભાવરૂપતાને ભાવ જણાય છે. આમ હોય તે કોઈ એકમાં પણ કાર્યકારણે ભાવનું નિરૂપણ અસંભવિત બની જાય છે, એ રીતે તે નરકા દિરૂપ વિચિત્રતા નકામી કરે છે, પણ વિચાર કરવામાં આવે છે તે વિચિત્રતા નકામી તે નથી. જે તેને નકામી માનવામાં આવે તે પદાર્થોમાં ઘટ-ઘડે, પટ આદિરૂપ જે વિચિત્રતા છે તેને પણ અથવા ઘટ પટ આદિ જે પદાર્થો છે તેમને પણ નકામા માનવા પડશે, પણ તે બધા નિષ્કારણ-નકામા–નથી, સકારણુક છે. આ રીતે સકારણક હેવા છતાં પણ તેને નિષ્કારણક કહેવી તે અસત્યભાષણ જ છે. અને તે વાત ઉપર સમજાવ્યા પ્રમાણે સ્પષ્ટ જ છે. એ જ प्रभारी " न देवलोगो वा अस्थि " पस नयी, “न य अस्थि सिद्धिगमणं" For Private And Personal Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदशिनी टीका अ० २ सू० ५ नास्तिकवादिमतनिरूपणम् ૮૨ युक्ता । यतो हि स्वभावत एव कुतोऽपि किञ्चिदुत्पद्यते, न तत्र कारण विशेष नियम माहात्म्यमन्यथा कथं चेतनान्मनुष्यादेश्वेतनं युकामत्कुणादिकं चेतनादचेतनं मूत्रपुरीषादिकम्, अचेतनात् काष्ठाच्चेतनं घुणकीटादिकम्, अवेतनात् काष्टादचेतनं चूर्णादिकं च जायते । नहि अचेतनस्य चेतनकारणता चेतनस्य चाचेतन कारणता युक्ता । तस्माज्जन्यजनकभावमात्रमेवोत्पद्यमानानामर्थानामस्ति नान्यो मातापितृपुत्रादि विशेष इति । मृषावादिता तु जन्यजनकभावस्य सर्वेषु तुल्यत्वेऽपि मातापित्रोरत्य स्थान में गमन करना नहीं है, ( अम्मा पियरो नत्थि ) माता पिता भी नहीं हैं - उत्पत्ति मात्र कारणता को लेकर मातृत्व पितृत्व की कल्पना युक्त नहीं है क्यों कि स्वभाव से ही चाहे जिससे चाहे जो उत्पन्न हो जाता इसमें कारणविशेष के नियम की कोई महत्ता नहीं है । यदि ऐसी बात मानी जावे नो फिर जो चेतन मनुष्यादि से चेतन यूका मत्कुण आदि उत्पन्न होते देखे जाते हैं चेतन से अचेतन मूत्र पुत्र पुरिष आदि उत्पन्न होते देखे जाते हैं, अचेतन घुण कीट आदि उत्पन्न होते देखे जाते हैं, अचेतन काष्ठ से अचेतन चूर्ण आदि होते देखे जाते हैं सो ये सब कैसे उत्पन्न हो सकेंगे, क्यों कि अचेतन चेतन को चेतन के प्रतिकार णता नहीं होती है और चेतन को अचेतन के प्रतिकाणता नहीं होती है. इसलिये उत्पद्यमान पदार्थों में केवल जन्य जनक संबंध मात्र ही सापेक्ष होता है - मातृत्व पितृत्व आदि संबंध विशेष नहीं । इस प्रकार के कथन में भी मृषावादिता इस प्रकार से आती है यद्यपि जन्य जनक " सिद्धिस्थानमां गमन उखानुं नथी, " अम्मापियरो नत्थ માતા પિતા પણ નથી,–ઉત્પત્તિમાત્ર કારણતાને લઈને માતૃત્વ પિતૃત્વની કલ્પના યોગ્ય નથી કારણ કે સ્વભાવથી જ જે ઈચ્છે છે તે ઉત્પન્ન થઈ જાય છે તેમાં કોઈ કારણ વિશેષના નિયમનું મહત્વ નથી. જે એવી વાત માની લેવામાં આવે તે પછી ચેતન મનુષ્ય આદિથી ચેતન જૂ માકડ આદિ ઉત્પન્ન થતા જોવામાં આવે છે, ચેતનથી અચેતન મૂત્ર, મળ આદિ ઉત્પન્ન થતાં જોવામાં આવે છે, અચેતન કાષ્ઠમાંથી ચેતન કીડા આદિઉત્પન્ન થતા જોવામાં આવે છે, અચેતન કાષ્ઠમાંથી અચેતન લાકડાનો વહેર આદિ થતા વ્હેવામાં આવે છે. તે બધુ` કેવી રીતે ઉત્પન્ન થાય ? કારણ કે અચેતનને ચેતનના પ્રત્યે કારણુતા હેાતી નથી અને ચેતનને અચેતનના પ્રત્યે કારણતા હાતી નથી, તેથી ઉત્પન્ન થતા પાથોમાં કેવળ જન્ય જનક સબંધ જ સાપેક્ષ થાય છે-માતૃત્વ પિતૃત્વ આદિ વિશિષ્ટ સંબધ નહીં. તે પ્રકારના કથનમાં પશુ મૃષાવાદિતા એ રીતે આવે છે. જો કે જન્મ For Private And Personal Use Only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १९० - प्रश्नव्याकरणसूत्रे न्तहितसाधनत्वेन विशेषत्वात् । स्वभाववादं निरूप्य नियतिवादमाह-नापि ' पुरिसकारो' पुरुषकारः उद्योगो नास्ति, भाग्याधीनसकलार्थसिद्धः, उद्योगस्य मुखादिसाधनत्वे सति कोऽपि जगतीतले दुःखी स्यात्, दृश्यन्ते हि उद्योगिनो दुःखिनो बहव इति न पुरुषकारोऽर्थ साधनमिति भावः । ___ अस्य मृपात्वं तु सिद्धमेव लोके अग्रे समुपस्थितस्यापि भोज्यस्य नहि हस्तोघोगमन्तरा भोजनं सम्पद्यते अतएव कीटेष्वपि भोज्यानयनादौ प्रवृत्तिदृश्यते इत्याकीटप्रसिद्धस्य पुरुषकारस्यापलापेन प्रमाणातीत नियतिमतस्वीकारात् । पच्चभाव समस्त पदार्थों में तुल्यरूप में है फिर भी मातृत्व पितृत्व संबंध माता पिता में अत्यन्त हित के साधककर्ता होने से एक विशेष संबंध है। ___ अब सूत्रकार स्वभाववादका निरूपण कर नियतिवाद का निरूपण करते हैं-(न वि अस्थि पुरिसकारो) सकल कार्यों की सिद्धिएक भाग्य के ही आधीन होती हैं इसलिये उद्योग नामकी कोई वस्तु नहीं है । यदि उद्योग को सुखादि कार्य साधक माना जावे तो दुनिया में कोई व्यक्ति दुःखी नहीं होना चाहिये परन्तु ऐसा नहीं है-अनेक उद्योगी दुःखी देखे जाते हैं, इसलिये पुरुषार्थ-अर्थ साधक नहीं होता हैं । भाग्य ही अर्थ साधक है ऐसा नियतिवाद भी मृषावादरूप इमलिये है कि हम लोक में यह प्रत्यक्ष में देखते हैं कि आगे रखा हुआ भी भोजन जबतक हस्तोद्योगरूप पुरुषार्थ से संबंधित नहीं किया जाता है नबतक वह मुँह में नहीं आता है । इसलिये कीट आदि में भी अपने भोज्यपदार्थ के पदार्थ को लाने रूप पुरुषार्थ की प्रवृत्ति देखी जाती है । इस જનક ભાવ છે કે સમસ્ત પદાર્થોમાં તુલ્યરૂપે છે. છતાં પણ માતૃત્વ પિતૃત્વ સંબંધ માતા પિતામાં અત્યંત હિતને સાધક-કર્તા હેવાથી એક વિશિષ્ટ સંબંધ છે. स्वभावपार्नु नि३५५ ४ीने वे सूत्रधार नियतिवाह नि३५४ रेछ-"न वि अस्थि पुरिसकारो" सजा भनी साता मात्र मायने १ साधीन હોય છે, તેથી ઉદ્યોગ નામની કઈ વસ્તુ નથી જે ઉદ્યોગને સુખાદિની પ્રાપ્તિનું સાધન માનવામાં આવે તે દુનિયામાં કઈ જીવ દુઃખી હવે જોઈએ નહીં, પણ એવી પરિસ્થિતિ હતી નથી–અનેક ઉદ્યોગી છે પણ દુખી દેખાય છે, તેથી પુરૂષાર્થ, અર્થસાધક નથી. ભાગ્યે જ અર્થસાધક છે એ મત ધરાવતે નિયતિવાદ પણ એ કારણે મૃષાવાદ છે કે આપણી નજર સમક્ષ મૂકેલું જન પણ જ્યાં સુધી હાથ વડે ઉદ્યોગ – પુરૂષાર્થ ન કરવામાં આવે ત્યાં સુધી માં જતું નથી. તે કારણે જતુઓમાં પણ પિતાના ભેજન માટેના પદાર્થો લાવવાના પુરૂષાર્થની પ્રવૃત્તિ જોવા મળે છે. આ પ્રમાણે જંતુઓમાં For Private And Personal Use Only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० २ सू० ५ नास्तिकवादिमतनिरूपणम् १९१ क्वाणरवि नत्थि ' प्रत्याख्यानं सावध कर्मनिवृत्तिलक्षणमपि नास्ति धर्मस्याभावे तत्साधनस्य प्रत्याख्यानस्याप्यभावः । अस्य मृषावं, सर्वज्ञ वचनविरोधात् । 'न वि अस्थि' नापि च स्तः ' कालमच्चू ' कालमृत्यू = कालः = भूतभविष्यद् वर्तमान लक्षणः कालः मृत्युः=मरणं च । अथवा नापि चास्ति कालमृत्युः = काले=मायुव्यकर्मदलिकक्षयाऽवसरे मृत्युर्मरणम्। 'अरिहंता' तथा अर्हन्तस्तीर्थकरा: 'चक्कट्टी' चक्रवर्तिनः बलदेवा वासुदेवा वा न सन्ति प्रमाणाभावात् । नापि सन्ति ' के ' astu - गौतमादयः, 'रिसओ' ऋषयः = शमदमसंयमाद्यनुष्ठानपरायणाः ऋषयो तरह कीटक में प्रसिद्ध पुरुषार्थ का अपलाप कर केवल प्रमाणातीत Profare स्वीकारा कैसे हो सकता है। पुरुषार्थ का त्यागकर इसकी स्वीकृति से तो मृषावादिता ही इसमें आती है । (पच्चकखाणमवि for ) araana से निवृत्ति होनी इसका नाम प्रत्याख्यान है । यह कहना कि धर्म के अभाव में धर्म के साधनभूत प्रत्याख्यान का भी अभाव है ! सो यह कथन भी मृषावादरूप इसलिये है कि इसमें सर्वज्ञ के वचन से विरोध आता है | तथा ( न वि अस्थि कालमच्चू य ) इस प्रकारकी मान्यता कि-भूत, भविष्यत् और वर्तमानकाल नहीं है, मरण भी नहीं है, अथवा आयुकर्म के दलिंकों के क्षय होने के अवसर में भी मरण नहीं होता है, (अरिहंता चक्कवट्टी, बलदेवा वासुदेवा नत्थि ) अर्हन्त - तीर्थकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव ये सब प्रमाण के अभाव से कोई भी नहीं हुए हैं और ( नेवत्थि के इरिसओ) न गौतम आदि ऋषि ही हुए हैं, क्यों कि शम, दम, संयम आदि अनुष्ठानों में पराय " પણ પ્રસિદ્ધ પુરૂષાથનું આરોપણ કર્યાં પછી પ્રમાણાતીત નિયતિવાદ કેવી રીતે સ્વીકાર્ય ખની શકે ? પુરૂષાના ત્યાગ કરીને તેની સ્વીકૃતિ કરવામાં તે મૃષાवाहिता ४ रडेल छे. “ पञ्चकखाणमवि नत्थि " सावध - पायाभेोथी निवृत्त થવું તેનું નામ પ્રત્યાખ્યાન છે. એમ કહેવું કે ધર્મના અભાવે ધમના સાધ નરૂપ પ્રત્યાખ્યાનના પણ અભાવ છે. એવું કથન પણ તે કારણે મૃષાવાદરૂપ છે કે તેમાં સર્વજ્ઞનાં વચનાના વિરોધ થાય છે તથા न वि अस्थि काल મલ્લૂ ચ'' આ પ્રકારની માન્યતા કે ભૂત, ભવિષ્ય અને વર્તમાનકાળ નથી, મરણુ પશુ નથી, અથવા આયુ કર્માંના સમૂહના ક્ષય થવાના અવસર આવે તેા પણ મરણ થતું નથી, " अरिहंता चक्कट्टी, बलदेवा वासुदेवा नत्थि " प्रभाणुना अलावे, अर्हन्त-तीर्थं५२, यम्वर्ती मजहेव, वासुदेव वगेरे हे पशु थयां नथी अने“ नेवत्थि के इरिसओ " गौतम याहि ऋषि थयां नथी, डार }શમ, દમ સંયમ આદિ અનુષ્ઠાનેામાં પરાયણ ડાય તે જ વ્યક્તિને ઋષિ For Private And Personal Use Only Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - -- १९२ प्रश्नव्याकणसूत्रे विवक्षिताः किन्तु शमदमादेवस्तुत्वाभावान्न तस्यानुष्ठानवतां ऋषित्वसिद्धिः । नेदं सत्यं, शास्त्राध्ययनशिष्यशिक्षापरम्पराऽनादिप्रवाहस्याईदाधभावे उच्छेद प्रसङ्गात् । 'धम्माधम्मफलं वि' धर्माधर्मफलमपि = देवलोकनरकादिप्राप्तिलक्षणं किश्चित् ‘बहुयं' बहुकम्-अधिक 'थोवं वा ' स्तोकमल्पं नास्ति, धर्माधर्मयो. प्रत्यक्षत्वेन वस्तुत्वाभावात् 'तम्हा' तस्मात् न किमपि सुकृतादिकमिति एवं 'जाणिऊण' ज्ञात्वा 'जहा' यथा येन केनापि प्रकारेण सुबहु अत्यन्तम् 'इंदियाणुकूलेसु' इन्द्रियानुकूलेषु श्रोत्रादीन्द्रियप्रियेषु 'सव्वविसएसु' सर्वविषयेषु= णभून व्यक्ति ही ऋषि कहलाते हैं, किन्तु शम, दम आदि ही जब वस्तु भूत-चास्तविक-नहीं हैं तो फिर इनके अनुष्ठान करने वलो में ऋषित्व की सिद्धि कैसे हो सकती है-मृषावादरूप ही है-सत्य नहीं है, कारणशास्त्राध्ययन, शिष्यशिक्षा आदि का जो यह अनादिकाल से परम्परारूप से प्रयाह चला आ रहा है वह यदि तीर्थकर आदि न हुए होते तो उच्छेद को प्राप्त हो जाता। इसी तरह से (धम्माधम्मं फलं विन अस्थि किंचिवहयं वा थोवं वा ) जो और यह कि-"धर्मका फल स्वर्गादि की प्राप्ति और अधर्म का फल नरक आदि की प्राप्ति होना यह न थोड़े रूप में है और न बहुत रूप में है, क्यों कि धर्म और अधर्म ये अप्रत्यक्षभूत हैं अतः इनमें वस्तुतः-अर्थ क्रिया कारित्व का अभाव है । (तम्हा) इसलिये जब पुण्यपाप आदि कोई वस्तुभूत पदार्थ हैं ही तब ( एवं जाणिऊण ) ऐसा समझकर ( जहा ) जिस किसी भी तरह से (सुबहु इंदियाणुकूलेसु ) इन्द्रियों को अत्यन्त प्रिय लगने वामें (सविसएस) કહેવાય છે, પણ શમ, દમ આદિ જ જે વાસ્તવિક ન હોય તે તેનું અનુઠાન કરનારમાં બષિત્વની સિદ્ધિ કેવી રીતે સંભવી શકે છે–એ તે મૃષાવાદ રૂપ જ છે-સત્ય નથી, કારણ કે શાસ્ત્રાધ્યયન, શિષ્યશિક્ષા આદિને જે પ્રવાહ અનાદિકાળથી પરંપરા રૂપે ચાલ્યા આવે છે તે જે તીર્થકર આદિ થયાં ન डात तो छे--२५. पाभ्यो डात. मे प्रमाणे "धम्माधम्मफल विन अस्थि किचि-बहुय वा थोवं वा" भी म नी मान्यता "धर्मन ફળ સ્વર્ગાદિની પ્રાપ્તિ અને અધર્મનું ફળ નરકાદિથી પ્રાપ્તિ તે ચેડા કે વધારે પ્રમાણમાં અસ્તિત્વ ધરાવતું નથી, કારણ કે ધર્મ અને અધર્મ અપ્રત્યક્ષભૂત छ तेथी तेमनाम स्तुत्व-मर्थ या रिपनी मनाप छ. " तम्हा" तथा ने पुन्५५५ मा पस्तुभूत पाय छे । न “ एवं जाणिऊण" मे सभने ' जहा" पाणु प्रा३ " सुबहु इंदियाणुकूलेसु" धन्द्रियोन अत्यन्त प्रिय दागे तेवा " सव्वविसएसु" शाहिसा विषयोमा For Private And Personal Use Only Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शितटीका अ० २ ० ५-६ नास्तिकवादिमतनिरूपणम् १५३ शब्दादिषु ‘बट्टेह' वर्तध्वं शब्दादीन सर्व विषयान् यथेच्छमुपभुध्वम् , 'नत्थि' नास्ति 'काइ ' काचिदपि 'किरिया अकिरिया वा ' क्रिया = तत्र - सक्रिया शास्त्रोक्तानुष्ठानरूपा । अक्रिया असत्क्रिया सावधकर्मानुष्ठानरूपा, आस्तिक कल्पितेनाप्रमाणत्वात् , एवं 'नथिकवादिणो' नास्तिकवादिनः 'वामलोगवादी' वामलोकवादिनश्च भणन्ति कथयन्ति ॥ मू० ५॥ पुनरपि तानेवाह-'इमंपि' इत्यादि___ मूलम्-इमंपि बिइयं कुदंसणं असम्भाववाइणो पण्णवेति मूढा संभूओ अंडकाओ लोगो सयंभुणा सयं च निम्मिओएवं एयं अलियं पयं पंति ॥ सू०६॥ ____टोकाइदमनुपदवक्ष्यमाणमपि 'विइयं ' द्वितीयं 'कुदंसणं ' कुदर्शनं = कुत्सितं दर्शनं-असत्यसिद्धान्तम् ' असब्भावबाइणो' असद्भाववादिनः = असन्तो भावाः येषां ते तथा ते च ते वादिनस्तथा मूढाः ' पणवेति' प्रज्ञापयन्ति यत् शब्दादि सब विषयों में ( वढेह ) इच्छानुसार प्रवृत्ति करते रहना चाहिये। ( नत्थि काइ किरिया अकिरिया वा ) शास्त्रोक्तअनुष्ठान रूप न कोई क्रिया-सस्क्रिया है और न सावद्यकर्मानुष्टान रूप कोई अक्रियाअसक्रिया है तो केवल आस्तिकवादियों की कोरी कल्पनाएँ हैं। इनमें वास्तविकता कुछ भी नहीं है । ( नत्थियवाइणो वामलोगवाई ) नास्तिकवादी और वामलोकवादी ( एवं भणंति ) इस प्रकार कहते हैं वह सब कथन मृपावादरूप है ।।सू. ५॥ फिर कहते है-'इमं पि बिइयं ' इत्यादि। टीकार्थ-अनुपद वक्ष्यमाण ( इमंपि विइयं ) यह दूसरा कुदर्शन भी कि जिसे ( असल्भाववाइणो ) असद्भाववादी तथा ( मूढा ) मूढजन "वदेह "छानुसार प्रवृत्ति ४ा ४२वी . “ नत्थि काइकिरिया अकिरिया वा” शास्त्रोत मनुठान३५ डिया सत् छिया नथी, सावधानुष्ठान રૂપ કોઈ અક્રિયા અસલ્કિયા નથી, તે તો કેવળ આસ્તિકવાદીઓની ખાલી ક૫नाम छे. तेम पाय वास्तविश्ता नथी” "नस्थियवाइणो वाम लोगवाई” नास्तिवाही भने पामतावादी एवं भणति" ते २५ प्रमाणे ४ छ, તે તેમનું કથન મૃષાવાદ છે કે સૂ–પ ! 4जीछ-" इमं पि बिइयं "त्या. टी-नीय प्रभानु "इमं पि बिइय" मान्नु सुशन 32 “असम्भाववाइणो" असहनावाही तथा “मूढा" भूढ all " पण्णवेति' ५३पित ४२ प्र २५ For Private And Personal Use Only Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - १९४ प्रश्नव्याकरणसूत्रे 'लोगो' लोकः पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतितिर्यनरामरनारकरूपः, 'अंडकाओ' अण्डकात् 'संभूओ' संभूतः उत्पन्नः, तत्र अण्डकोद्भूतलोकवादिनां मतमित्थं यत् पूर्व पृथिव्यादिपञ्चभूतरहितं जगत् केवलं जलमयमासीत् तत्र महदण्डं चिरकालविक्लेदितं सत् स्फुटितं द्विधाजातं पृथिवीरूपम् आकाशरूपं च, स्त्र मुराऽसुरनारकतिर्यग् रूपं जगत् सर्व समुत्पन्नमित्येवमण्डकात् सृष्टिः । 'सयं भुणा' स्वयम्भुवा च=ब्रह्मणा ' संयं' स्वयं 'निम्मिओ' निर्मितः निष्पादितः इति केचित् ब्रुवन्ति । तथाहि दृश्यमान-जगदुत्पत्तेः पूर्व पृथिव्यादि पञ्चभूतरहितं विनष्ट स्थावरजङ्गमामरनरगन्धर्वयक्षराक्षसकिन्नरगरुडमहोरगादि सकलविविध (पण्णवेति) प्ररूपित करते हैं, मृषावारूप वह दर्शन यह है-(लोगो अंडकाओ संभूओ) यह पृथिवी अप, तेज, वायु वनस्पति, तिथंच, मनुष्य, देव, नारकरूप लोक अंडे से उत्पन्न हुआ है। अंडे से लोक को उत्पन्न हुआ मानने वालों का मत इस प्रकार है यह लोक पहले पृथिवी आदि पाँचभूतों से रहित था, और केवल जलमय ही था। इसमें एक चिरकाल से गीला अंडा पड़ा हुआ था, जब वह फटा तो इसके दो टुकडे हुएएक टुकडा पृथिवीरूप हुआ और दूसरा टुकड़ा आकाशरूप हुआ-पृथिवी रूप टुकड़े में मनुष्य, तिर्यच, नारक आदिरूप तथा आकशरूप टुकड़े में सुर असुर आदिरूप समस्त जगत् उत्पन्न हो गया। इस तरह अंडे से यह सृष्टि हुई वे कहते हैं । ( सयंभूणा सयं च निम्मिओ) कोई २ ऐसा भी कहते हैं कि यह जो दृश्यमान जगत् है वह उत्पत्ति से पहिले पहिले पृथिवी आदि पंचभूतों से रहित था। इसमें स्थावर, जंगम, अमर, छ त भूषापा६३५ श न. २ प्रमाणेनुछे-" लोगो अंडकाओ संभूओ " 20 પૃથ્વી. અ, તેજ વાયુ, વનસ્પતિ, તિય ચ, મનુષ્ય, દેવ અને નારકરૂપ લેક ઈડામાંથી ઉત્પન્ન થયા છે. ઈડાંમાંથી સૃષ્ટિ ઉત્પન્ન થયેલ માનનારની આ પ્રકારની માન્યતા છે--આ લેકે પહેલાં, પૃથિવી આદિ પાંચ ભૂતાથી રહિત હતા. અને ફક્ત જળમય જ હતું તેમાં એક ચિરકાળથી ભીનું ઈડું પડેલું હતું જ્યારે તે ફાટ્યું ત્યારે તેને બે ટુકડા થયા-એક ટુકડો તે પૃથિવીરૂપ થયો અને બીજે ટુકડે આકાશરૂપ થયે. પૃથિવીરૂપ ટુકડામાં મનુષ્ય, તિર્યંચ, નારક આદિ રૂપ તથા આકાશ રૂપ ટુકડામાં સુર અસુર આદિ રૂપ સમસ્ત સૃષ્ટિ ઉત્પન્ન 25 18. २मा रीते माथी सृष्टि पनि थयानुतेमा वि छ. '' सयंभुणा सयं च निम्मिओ" मे ५ ४ छ भारत न.२ ५३ છે તે ઉત્પત્તિ પહેલાં પૃથિવી આદિ પાંચ ભૂતેથી રહિત હતું. તેમાં સ્થાવર, For Private And Personal Use Only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ०२ सू० ६-७ नास्तिकवादिमतनिरूपणम् भेदं केवलमर्णवस्वरूपं तमोभूतमासीत् , तत्र-तपस्तप्यमानस्य शयानस्य विभोभगवतो नाभेः कमलमुदपद्यत, तत्र ब्रह्मा समुत्पन्नस्तस्मात् सुरासुरमनुजतिर्यक स्थावरजङ्गमभूतपभूतभेदविशेषविशिष्टं जगदुत्पन्नम् । इति एवमुक्तरीत्या 'अलियं ' अलीकम् असत्यं 'पयंपंति ' प्रजल्पन्ति । एतेषामलीकत्वं भ्रान्तज्ञा. निभिनिरूपितत्वात् ॥ सू० ६॥ पुनरप्याह- पयावइणा ' इत्यादि। मूलम्-पयावइणा इस्सरेण य कयत्तिकेइ । एवं विण्डमयं कसिणमेव य जगंति केइ । एवमेके वदंति मोसं-एगो आया अकारगो वेदगो य सुकयस्स य दुकयस्स य करणाणि कारगाणि य सव्वहा सबहिं च णिच्चो य णिकिओ निग्गुणो य अणुवलेवओ त्ति ॥ सू० ७॥ टीका-' पयावइणा' प्रजापतिना-कृतमिदं जगदिति केचित् । एतदलीकता प्रमाणवादितत्वात् । तथा इस्सरेण ' इश्वरेण च 'कयति' कृतमिति केइ' नर, गंधर्व, यक्ष, राक्षस, किन्नर, गरुड, महोरंग आदि समस्त विविध भेद नष्ट थे-यह तो केवल अंधकाराच्छादित अर्णव स्वरूप था। इसमें तपस्या करते हुए विभु भगवान की नाभि से एक कमल उत्पन्न हुआ। उस कमल में ब्रह्माजीने जन्म लिया । उनसे फिर सुर, असुर, मनुज, तिर्यंच, स्थावर आदि अनेक जीवों के भेद प्रभेद वाला यह जगत् उत्पन्न हुआ। इस प्रकार असद्भाववादियों की ये दोनों प्रकारकी मान्यताएँ भ्रान्त ज्ञानियों द्वारा निरूपित होने के कारण मृषावादरूप ही हैं।०५।। फिरभी इन्हीं को कहते हैं-'पयावइणा' इत्यादि। टीकार्थ-(पयावइणा इस्सरेण य कयत्ति केइ ) कितनेक व्यक्ति म सभ२, १२, माधव', यक्ष, राक्षस, छिन्न२ १२, मडो२१, माहिसमસ્ત વિવિધ ભેદનું અસ્તિત્વ ન હતું. તે તો કેવળ અંધકારથી છવાયેલ સાગર સ્વરૂપ હતું. તેમાં તપસ્યા કરતા વિષ્ણુ ભગવાનની નાભિમાંથી એક કમળ પેદા થયું તે કમળમાં બ્રહ્માજીએ જન્મ લીધે, તેમણે સુર, અસુર, મનુષ્ય, તિર્યચ, સ્થાવર આદિ અનેક ના ભેદ પ્રભેદથી યુક્ત આ જગત રચ્યું. આ પ્રકારની અસદ્ધાવવાદીઓની તે બંને પ્રકારની માન્યતાઓ બ્રાન્તજ્ઞાનીઓ દ્વારા નિરૂપિત થયેલ હોવાથી મૃષાવાદ રૂપ જ છે. સૂપ . For Private And Personal Use Only Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकणसूत्र केचित् नैयायिका इत्यर्थः, तद् यथा सित्यकुरादिकं कर्तृजन्य कार्यत्वात् घटवदिति । जलवुदादौ हेतौरनैकान्तिकत्वेनास्यालीकता । एवं ‘कसिणमेव ' कृत्स्नमेव-सकलमेव 'जगं' जगत् ‘विण्हुमयं' विष्णुमयं = विष्णुस्वरूपमिति 'के' केचित् वदन्ति तन्मतानुयायिनः, यथा "जले विष्णुः स्थले विष्णु, विष्णुः पर्वतमस्तके । ज्वालामालाकुले विष्णुः, सर्व विष्णुमयं जगत् ॥१॥” इति । ऐसा मानते हैं कि यह जगत् प्रजापति-ब्रह्माने बनाया है। कितनेक कहते हैं कि यह जगत् ईश्वरने बनाया है सो इस प्रकार की मान्यता में अलीकता प्रमाणबाधित होने के कारण आती है। तथा जो नैयायिक जन ऐसा कहते हैं कि यह जगत् ईश्वर ने बनाया है, क्यों कि यह घटादिकी तरह कार्य है "क्षित्यकुरादिकं कर्तुजन्यं कार्यत्वात् घटवत्" सो कार्यत्वरूप हेतु में जल वुवुद आदि द्वारा अनैकान्तिक दोष आता है, इसलिये यह उनकाकथन असत्यरूप प्रमाणित हो जाता है । ( एवं विण्हुमयं कसिणमेव य जगंति केइ ) इसी तरह यह सकल जगत् विष्णुमय है ऐसा भी कोई २ कहते हैं, क्यों कि उनकी ऐसी मान्यता है कि " जले विष्णुः स्थले विष्णु-विष्णुः पर्वतमस्तके । ज्वालामाला कुले विष्णुः सर्व विष्णुमयं जगत् ॥१॥" जल में विष्णु हैं, थल में विष्णु हैं, पर्वत की चोटी ऊपर विष्णु हैं, ४७ ५५ २ विष ४ छे.- ' पयावइणा" त्यादि At-" पयावइणा इस्सरेण य कयत्ति केइ " ets all मेवु माने છે કે આ જગત પ્રજાપતિ-બ્રહ્માએ બનાવ્યું છે. કેટલાક કહે છે કે આ જગત ઈશ્વરે બનાવ્યું છે, તે તે પ્રકારની માન્યતામાં મૃષાવાદ-અસત્ય દોષ પ્રમાણબાધિત હોવાને કારણે આવે છે. તથા જે નિયાયિકે એવું કહે છે કે આ જગત ઈશ્વરે मनाव्यु छ. २५ ते घाहिना से आय छ, “क्षित्यकुरादिकं कर्तजन्य कार्यत्वात् घटवत् " तो आय (१३५ हेतुमा मुमुद मा वा अनन्ति atष भावे छ, तथा मर्नु ते ४थन असल्य ३५ सिद्ध थाय छे. “ एवं विण्डमय कसिणमेव य जगंति केइ" को प्रमाणे मा समस्त गत विभय छ એવું પણ કેટલાક લેકે કહે છે, કારણ કે તેમની એવી માન્યતા છે કે "जले विष्णुः स्थले विष्णुः विष्णुः पर्वतमस्तके । ज्वालामालाकुले विष्णुः, सर्व विष्णुमयं जगत् ।। १ ।। જળમાં વિષ્ણુ છે, સ્થળમાં વિણ છે, પર્વતનાં શિખરપર વિષ્ણુ છે, For Private And Personal Use Only Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनीटीका अ. २ सू. ७ नास्तिकवादिमतनिरूपणम् एतदलीकता प्रमाणाभावात् मातापित्रादि सकलव्यवहारविच्छेदकत्वाच्च । अथ वेदान्तिमतमाह-एवं-अमुना प्रकारेण ऐके अद्वैतब्रह्मवादिनः वदन्ति यत् 'एगो आया' एक एव आत्मा 'मोस' मृषा-जगत् मिथ्या तदुक्तं " ब्रह्मसत्यं जगन्मिथ्या" इति, उक्तश्च " एक एव हि भूतात्मा, भूते भूते व्यवस्थितः। एकधा बहुधा चैव, दृश्यते जलचन्द्रवत् ॥” इति । तदलीकता च- सकललोकप्रत्यक्षभेदमूलकसुखदुःखधर्माधर्मादिजगद् व्यवहारोच्छेदप्रसङ्गात् । अथात्माऽकर्तुत्वमतमाह-'अकारगो' अकारकः= अग्नि में विष्णु हैं, तात्पर्य यह कि यह सब जगत् विष्णुमय है ॥१॥ ___ यह मान्यता भी अलीकस्वरूप ही है, क्यों कि इस मान्यता को सत्यरूप में प्रमाणित करने वाला कोई भी प्रमाण नहीं हैं। यदि सब जगत् को केवल विष्णुमय ही माना जावे तो फिर यह जो उसमें माता पिता आदि रूप समस्त व्यवहार है उसका उच्छेद प्राप्त होता है । ( एवमेगे वदंति मोसं एगो आया ) इसी तरह वेदान्तियों का जो यह कथन है कि एक ही आत्मा है-जगत् मिथ्या है-" ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या।" कहा भी है " एक एव हि भूतात्मा, भूते भूते व्यवस्थितः । एकधा बहुधा चैव, दृश्यते जलचन्द्रवत् ॥१॥ ,, इति। प्रत्येक प्राणी में एक ही भूतात्मा व्यवस्थित है । वही जलचन्द्र की तरह एकरूप व अनेकरूप दिखलाई देता है ॥१॥ અગ્નિમાં વિષ્ણુ છે. મતલબ એ કે આ સમસ્ત જગત વિષ્ણમય ૧ આ માન્યતા પણ અસત્ય છે કારણ કે આ માન્યતાને સત્યરૂપે સિદ્ધ કરવાને માટે કઈ પણ પ્રમાણ નથી. જે સમસ્ત જગતને કેવળ વિષ્ણમય જ માની લેવામાં આવે છે તેમાં માતા પિતા આદિ રૂપ જે વ્યવહાર છે તેનું मन थाय छ. “ एवमेगे वदंति मोसं एगो आया ” मे ८ प्रमाणे वेहान्तीએનું આ પ્રકારનું જે કથન છે કે “આત્મા એક જ જે-જગત મિથ્યા છે"ब्रह्मसत्य जगन्मिथ्या" युं पशु छ " एक एव हि भूतात्मा, भूते भूते व्यवस्थितः। एकधा बहुधा चैव, दृश्यते जलचन्द्रवत्" ॥ १॥ इति । પ્રત્યેક પ્રાણીમાં એક જ ભૂતાત્મા રહેલ છે. તે જ જલચન્દ્રની જેમ એક રૂપે કે અનેકરૂપે દેખાય છે ? For Private And Personal Use Only Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे अयमात्मा अकर्ता-पुण्यपापादोनाम् । वेदकः भोक्ता पुण्यपापकर्मफलस्य प्रतिबिम्बोदयन्यायादिति भावः, तथा-' मुकयस्स' सुकृतस्य-पुण्यस्य 'दुक्कयस्स' दुष्कृतस्य पापस्य च 'सबहा ' सर्वथा' 'सबहिं ' सर्वत्र सर्वस्मिन् काले 'कारणाणि' कारणानि-निमित्तभूतानि 'करणाणि' करणानि-चक्षुरादीनीन्द्रियाणि, नायमात्मा । अलीकताचास्य संसार्यात्मनो मूर्तत्वेन परिणामित्वेन कर्तृत्वोपपत्तेः तथा ' णिच्चो' नित्य इति केचित् , तदपि न युक्तम् , एकान्तनित्यत्वे सुख __ यह कथन भी मिथ्यारूप ही है, क्यों कि इसे सत्य मानने पर जो सकललोक के प्रत्यक्षभूत भेदमूलक धर्म अधर्म आदिका व्यवहार होता है उसके उच्छेद का प्रसंग प्राप्त होता है । इसी तरह जो आत्मा को एकान्तरूप से अकर्ता मानते हैं ऐसे सांख्यो की यह मान्यता है कि (अकारगो वेदगोय) यह आत्मा पुण्यपाप आदिका अकर्ता है, और उनके फल भूत सुख दुःख आदिका (१) प्रतिविम्बोदयन्यायसे भोक्ता है। तथा कोई कहते हैं कि (सुकयस्स दुक्यस्स य सव्वहा सव्वहिं कारणाणि य करणाणि ) पुण्य और पाप के सर्व प्रकार से सर्वकाल में का निमित्तभूतचक्षुरादि इन्द्रियां हैं । आत्मा नहीं है, यह उनकी मान्यता असत्य है, क्यों कि संसारी आत्मा कथंचित् मूर्तिक है और परिणामी है इसलिये कर्तृत्व और भोक्तृत्व बन जाता है ! सर्वथा अमू તે કથન પણ મિથ્થારૂપ જ છે, કારણ કે તેને સત્ય માનવામાં આવે તે સમસ્ત જગતમાં નજરે પડતો મૂળભૂત ભેદવા ધર્મ અધમ આદિને જે વ્ય વહાર થાય છે તેનું ખંડન થવાને પ્રસંગે ઉપસ્થિત થાય છે. એ જ રીતે આત્માને એકાન્તરૂપે અકર્તા માનનાર સાંખ્ય મતવાદીઓની એવી માન્યતા છે है “ अकारगो वेदगोय " 24t मामा जुन्य ५.५ महिना पत्ता नथी, भने तमना ५१३५ सुप हुन पाहिना "प्रतिबिम्बोदय न्यायथी " माता छ. तथा ats us छ ? " सुकयस्स दुक्कयस्स य सबहा सव्वहिं कारणाणि य करणाणि " धुन्य भने पापना सर्व प्रा२ने ४ता सणे मात्मा नहीं ५ ચક્ષ આદિ ઈન્દ્રિય છે. તેમની તે માન્યતા અસત્ય છે, કારણ કે સંસારી આત્મા કેટલાક પ્રમાણમાં મૂર્તિક છે અને પરિણામી છે, તેથી તેમાં કતૃત્વ અને १ प्रतिबिम्बोदय न्याय का तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार स्फटिकमणि के साथ जिस वर्णका संयोग होगा स्फटिक मणि वैसा ही वर्णका दीखने लग जाता है। ૧પ્રતિબિદય ન્યાયનું તાત્પર્ય એ છે કે જેમ સ્ફટિક મણીની સાથે જે રંગને સંગ થશે, એવા જ રંગને સ્ફટિક મણ દેખાશે. For Private And Personal Use Only Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० २ सू० ७ नास्तिकवादिमतनिरूपणम् दुःखबन्धमोक्षायभावमसङ्गात् । निक्किो ' निष्क्रियः गमनागमनादिक्रियावजितः सर्वव्यापित्वेनावकाशाभावात् , एतदप्यसत् , देहमानोपलभ्यमानत्वात् । 'निग्गुणो' निर्गुणः सत्त्वरजस्तमोगुणरहितः, 'अणुवलेवओ' अनुपलेपकः = निर्लेपः सङ्गवर्जितः आत्मेति कापिलाः, उक्तं च-" अकर्ता निर्गुणोभोक्ता, आत्मा कपिलदर्शने " इति । सत्त्वरजस्तमोगुणानां साम्यावस्था प्रकृतिः, सैव कों, पुरुषस्तु पुष्करपलाशवनिर्लेपश्चेतनोऽकर्ता, इति साङ्ख्यानां मतम् । कुदर्शनत्वं तिक आत्मा में ये नहीं बनते हैं । ( णिच्चो) कोई २ आत्मा को सर्वथा नित्य मानते हैं, सो आत्मा की यह नित्य मान्यता सत्य नहीं है, क्यों कि आत्मा को सर्वथा नित्य मानने पर सुख दुःख एवं बंध, मोक्ष आदि के अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है । (निक्किओ) आत्मा को निष्क्रिय मानना इस अभिप्राय से, कि आत्मा व्यापक है और जो व्यापक होता है उसमें अवकाश के अभाव से गमनागमन रूप क्रियाएँ बन नहीं सकती हैं सो ऐसी मान्यता भी मृषावादरूप ही है, कारण कि-आत्मा शरीर में ही उपलब्ध होती है अन्यत्र नहीं। (निग्गुणो) तथा ऐसा कहना कि " यह आत्मा सत्त्व, रज और तमोगुण से रहित है और (अणुवलेवओ) पुष्करपलाशवत् निर्लेप-संगवर्जित है। सांख्यों का यही कहना है कि सत्त्व, रज और तमोगुण की साम्यावस्था का नाम प्रकृति है। यह प्रकृति ही करनेवाली होनेसे की है, चेतयिता-प्रकृति द्वारा किये गये कार्यों का जानने वाला पुरुषआत्मा तो कमलपत्र के मातृत्व भावी नय छे. सर्वथा अभूति: मामामात मनतुं नथी, "णिच्चो"s કઈ મતવાળા આત્માને સર્વથા નિત્ય માને છે આત્માને એ રીતે નિત્ય માનવું તે સત્ય નથી, કારણ કે આત્માને સર્વથા નિત્ય માનવામાં આવે તે સુખ દુખ અને ५५ मोक्ष माहिना मा जापानी प्रस' उपस्थित थशे- “निकिओ" કઈ લેકે આત્માને એ કારણે નિષ્ક્રિય માને છે કે આત્મા વ્યાપક છે. અને જે વ્યાપક હોય તેમાં અવકાશને અભાવ હોવાથી ગમનાગમનરૂપ ક્રિયાઓ થઈ શકતી નથી. તે માન્યતા પણ મૃષાવાદરૂપ જ છે કારણ કે આત્મા શરી२भांडाय छ अन्यत्र हातो नथी. "निग्गुणो" तथा " मा मात्मा सत्व, २०१ मने तमाशुगुथी २हित छ" मेवी मान्यता “ अणुवलेवओ" तथा ४७ પત્ર પર રહેલા પાણીના બિંદુથી કમળ પત્ર જેમ અલિપ્ત કહે છે, તેમ આત્મા પણ તે તોથી નિલેપ રહે છે. તે માન્યતા પણ મૃષાવાદ છે. સાંપની એવી માન્યતા છે કે સત્વ, રજ અને તમે ગુણની સામ્યવસ્થાનું નામ પ્રકૃતિ છે. એ પ્રકૃતિ જ કરનાર હોવાથી કત્ર છે-પ્રકૃતિ દ્વારા કરાયેલ કાર્યોને જાણનાર પુરુષ For Private And Personal Use Only Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०० प्रश्नध्याकरणसूत्रे चास्य तथाहि-न तावन्निगुणत्वं चेतनास्वरूपखाभ्युपगमात् । अनुपलेपकत्वमपि न बद्धमुक्तावस्था व्यवस्थाविच्छेदप्रसङ्गात् ॥ मू० ७॥ पुनरप्याह---' अवि य' इत्यादि मूलम्-अवि य एवमासु असब्भाव जंपि एहिं किंचि जीवलोगे दोसई सुकयं वा दुकयं वा, एवं जइच्छाए वा सहावेण वावि दयिवयप्पभावओ वावि भवइ, नस्थि तत्थ किचिकयकं तत्तं लक्खणं विहाणं नियइ कारिया एवं केइ जंपति इड्डिरससायगारवपराबहवे करणालसा परूवेंति धम्मवीमंसएणं मोसं ॥ सू० ८॥ टीका-'अवि य ' अपि च एवं वक्ष्यमाणरीत्या 'असन्मावं ' असद्भावं 'आहं सु' आहुः कथयन्ति कथमित्याह-'जपि ' यदपि किंचि ' किश्चित् 'एहि' समान निर्लिप्त है । अतः कहा है "अकर्ता निर्गुणो भोक्ता" आत्मा कपिल दर्शने " यह भी युक्ति युक्त नहीं है कारण आत्माको सर्वथा निर्गुण मानने पर उसमें चेतनत्व गुण का भी अभाव होने से अचेतनत्व का प्रसंग प्राप्त होगा, परन्तु ऐसी यात तो वहां मानी नहीं गई है, क्यों कि आत्मा को चेतना गुण स्वरूप स्वीकार किया गया है । तथा पुष्कर पलाशवत् सर्वधा निर्लिप्त मानने पर उसकी जो बद्ध-संसारी और मुक्त ये जो दो अवस्थाएँ होती हैं उनकी व्यवस्था का विच्छेद प्राप्त होता है । सू-६॥ तथा-'अवि य ' इत्यादि। टीकार्थ-(अवि य एवं असम्भावं आहेसु) इस प्रकार से जो अस. यात्मात भापत्र समान निसि छे. तथा १ छ । “ अकर्ता निर्गुणो भोक्ता आत्मा कपिलदर्शने" ते ५ युतियुत नथी, १२ मामाने सर्वथा નિર્ગુણ માનવામાં આવે છે તેમાં ચેતનત્વ ગુણને પણ અભાવ હોવાથી અચે. તત્વને પ્રસંગે ઉપસ્થિત થશે, પણ એમ તે ત્યાં માનેલ નથી, કારણ કે આત્માને ચેતનગુણ સ્વરૂપ સ્વીકાર્યો છે. તથા કમલપત્ર પર રહેલ જળબિન્દુથી અલિપ્ત કમળ જે તેને માનવામાં આવે તે તેની બદ્ધ-સંસારી અને મુક્ત એ બે અવસ્થાએ જે હોય છે તેની વ્યવસ્થાનું ખંડન થશે. જે સૂા. तथा-" अवि य" त्या 2010-"अवि य ए असब्भाव आहेसु" मा प्रभा २४ म.सा. ४पाय! For Private And Personal Use Only Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका १० २ सू० ७ नास्तिकवादिमतनिरूपणम् २०१ इह जीवलोके 'सुकयं वा ' सुकृतं वा-सुकृतफलं-सुखमास्तिकमतेन 'दुक्कयं वा' दुष्कृतं दुष्कर्मफलं दुःखं वा — दीसई ' दृश्यते 'जइच्छाए' यहच्छया अकस्मात् काकतालीयन्यायेन अवितर्कितमेव सर्व समुत्पद्यते । यथा काकागमनसमये अबु. द्धिपूर्वकं काकोपरितालपतनं नहि काकस्यैवं बुद्धिरस्तियन्मदुपरितालं निपतिष्यति, तथा तालस्यापि नायमभिप्रायो यदहं काकोपरि पतिष्यामि, एवमेव सर्व सुखदुःखादिजातमतर्कितोपस्थितमेव न कर्तृविशेषबुद्धिपूर्वकम् । तदसत् इदमस्य कारणमिदमस्य कार्यमिति सकललोकप्रसिद्ध व्यवस्था विच्छेदापत्तेः अन्यथा कथं द्भाव कहा गया है कि (जंपि किंचि एहि जीव लोगे सुकयं वा दुक्यं वा दीसई ) जो कुछ भी इस जीवलोक में सुकृत अथवा सुकृत का फलरूप सुख दुष्कृत अथवा दुष्कृत का फलरूप दुःख दिखलाई देता है वह सब (जइच्छाए वा ) अकस्मात् काकतालीय न्याय से अविकित ही उत्पन्न हो जाता है. जिस प्रकार उड़ता हुआ कौवा तालवृक्ष के नीचे आया और आते ही उस पर ताड़ का फल गिर पड़ा तो उसके इस पतन में न तो काकने ही ऐसा विचार किया कि मेरे ऊपर ताड़ का फल गिर पड़े, और न ताड़फल ने ही ऐसा सोचा कि मैं काक के आते ही उस पर गिर पहूँ किन्तु यह उसका पतन अवितर्कित ही हुआ इसी तरह सुख दुःख आदि जो कुछ भी होता है वह सब अतकित ही उपस्थित होता रहता है इसमें कर्ता कि विशेष बुद्धि पूर्वकता नहीं है। सो ऐसी मान्यता भी असत्य ही है कारण कि लोक में जो यह व्यवस्था बन रही है कि " यह इसका कारण है यह इसका कार्य है" वह सय इस प्रकार की मान्यता में विच्छेद को प्राप्त हो जावेगा। देखो जो छ ? - जंपि किचि एहिं जीवलोगे सुकयं वा दुक्कयं वा दोसई " A Wali જે કંઈ પણ સુકૃત અથવા સુકૃતના ફળરૂપ સુખ, દુષ્કૃત અથવા દુષ્કતના २०३५ हुनसरे ५२ छ ते ५५ " जइच्छाए वा " मस्भात तासीय ન્યાયે અવિતતિ જ ઉત્પન્ન થઈ જાય છે જેમ ઉડતે કાગડે તાડના ઝાડની નીચે આવે અને આવતાં જ તેના ઉપર તાડનું ફળ પડ્યું, તે તેના તે પતનમાં કાગડાએ એ વિચાર કર્યો ન હતો કે મારા ઉપર તાડનું ફળ પડે અને તાડના ફળે પણ એ વિચાર કર્યો ન હતો કે કાગડે આવતાં જ હું તેના ઉપર પડું પણ તેનું તે પતન અવિતતિ જ થયું હોય છે, એ જ પ્રકારે સુખ દુઃખ આદિ જે કંઈ થાય છે તે બધું અવિતતિ જ થયા કરે છે તેમાં કર્તાની વિશેષબુદ્ધિ કારણરૂપ નથી. તે એવી માન્યતા પણ અસત્ય જ છે કારણ કે સષ્ટિમાં એવી જે વ્યવસ્થા ચાલી રહી છે કે “ તે આનું કારણ છે, તે આનું કાર્ય છે” એ બધાનું તે માન્યતાથી ખંડન થઈ જશે. જુવે જેને તેલ प्र० २६ For Private And Personal Use Only Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०२ प्रश्नव्याकरणसूत्रे तैलार्थी तिलमेवोपादद्यात् दध्यर्थी च दुग्धं, दुग्धार्थी च गाम् । अथ स्वभाववादीमाह"कः कण्टकानां प्रकरोति तैश्य, विचित्रभावं मृगपक्षिणां च । स्वभावतः सर्वमिदं प्रवृत्तं, न कामचारोऽस्ति कुतः प्रयत्नः ॥ १॥" तदप्यसत्-अत्रापि कार्यकारणव्यवस्था विच्छेदात् । तैलार्थी होता है वह तिलों को ही तो ग्रहण करता है, दध्यर्थी दुग्ध को और दुग्धार्थी गाय को। यह ऐसा क्यों होता है इसलिये कि ये तिला. दिक अपने २ कार्य के कारण हैं। अब स्वभाववादी का स्वरूप कहते हैं-'सहावेण वावि ' इत्यादि। स्वभाववादी का ऐसा कहना है कि जगत् में जो कुछ होता है वह स्वभाव से ही होता है, कहा भी है "कः कण्टकानां प्रकरोति तैष्ण्यं, विचित्रभावं मृगपक्षिणां च । स्वभावतः सर्वमिदं प्रवृत्तं, न कामचारोऽस्ति कुतःप्रयत्नः॥१॥" कांटों में तीक्ष्णता कौन करता है ? मृगों में पक्षियों में विचित्रता कौन उत्पन्न करता है ? तो इसका केवल उत्तर यही है कि स्वभाव से ही यह सब कुछ होता है, इसमें कामचारं-यदृच्छा-कारण नहीं है और न कोई प्रयत्न ही कारण है ॥१॥ यह स्वभाववादी का कथन भी ठीक नहीं है । कारण इसमें भी જોઈતું હોય તે તલને જ ગ્રહણ કરશે, દહીંની ઈચ્છાવાળે દુધને અને દૂધની ઈચ્છાવાળો ગાયને ગ્રહણ કરશે. તે પ્રમાણે થવાનું કારણ શું છે? કારણ એ જ છે કે તલ આદિ પિત પિતાના કાર્યને માટે કારણરૂપ-ઉપગી છે ये स्वभाववाढीनुं २१३५ ४ छ-" सहावेण वावि " त्या સ્વભાવવાદીનું એવું કહેવું છે કે જગતમાં જે કંઈ થાય છે તે સ્વભાવથી १ याय छ, थु ५९ छ "कः कण्टकानां प्रकरोति तैष्ण्यं, विचित्रमावं मृगपक्षिणां च । स्वभावतः सर्वमिदं प्रवृत्तं, नकामचारोऽस्ति कुतः प्रयत्नः" ॥१॥ કાંટામાં તીણતા કેણ કરે છે? મૃગમાં તથા પક્ષીઓમાં વિચિત્રતા કોણ ઉત્પન્ન કરે છે? તેને કેવળ એક જ ઉત્તર છે કે સ્વભાવથી જ તે બધું થાય છે, તેમાં કામચાર–તેની ઈચ્છા-કારણરૂપ નથી કે કોઈ પ્રયત્ન કારણરૂપનથી | સ્વભાવવાદીનું તે કથન પણ બરાબર નથી. કારણ કે તેમાં પણ કાર્ય કારણ કે તેમાં પણ કાર્ય-કારણભાવનું ખંડન થાય છે. For Private And Personal Use Only Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org - सुदर्शिनी टीका अ० २ सू० ७ नास्तिकवादिमतनिरूपणम् तथा देववादिनः " प्राप्तव्यमर्थं लभते मनुष्यः, किं कारणं दैवमलङ्घनीयम् । तस्मान्न शोचामि न विस्मयो में, यदस्मदीयं नहितत्परेषाम् ॥ " Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तथा ‘ नस्थि ’ नास्ति ‘तत्थ ’ तत्र मर्त्यलोके ' किचि ' किञ्चित् ' कथकं ' कृतकं कर्मनिष्पन्नं ' तत्तं तवं वस्तु । तथा 'लक्खणविहाणं 'लक्षणविधानां = पदार्थस्वरूपप्रकाराणां नियतिः = भाग्यमेव ' कारिया' कारिका - कर्त्री, तथा यन कार्यकारणभाव का विच्छेद प्राप्त होता है। अ दैववादियों का स्वरूप कहते हैं-' दवियप्पभावओ वावि भवः' इत्यादि । दैववादियों कि ऐसी मान्यता है - " प्राप्तव्यमर्थ लभते मनुष्यः, किं कारणं दैवमलङ्घनीयम् । तस्मान्न शोचामि न विस्मयो में, यदस्मदीयं नहि तत् परेषाम् ॥१॥" जो कुछ प्राप्त होने योग्य वस्तु है वह हमें भाग्य की कृपा से ही प्राप्त होती है । यह भाग्य अलंघनीय है । अतः ऐसा समझकर कि जो हमारी है वह दूसरों की कभी नहीं हो सकती है कभी भी किसी प्राणी को शोक फिकर और आश्चर्य आदि नहीं करना चाहिये ॥१॥ अतः हे भाइयो ! तुम एक मात्र दैव- भाग्य पर ही भरोसा रखो । ( नत्थि तस्स किंचि कयकं तत्तं ) लोक में कोई ऐसी वस्तु नहीं है जो कृतक हो परुषार्थ रूप कर्म से प्राप्त की जा सके- ऐसी हो । इसी प्रकार ( लक्खणविहाणं ) पदार्थों का जितना भी कुछ अपना रूप है तथा उनके जितने भी प्रकार - भेद हैं इन सबकी ( कारिया ) कारिका करने हुवे हैववाहीगोनुं स्व३५ उडे छे -" दद्वियप्पभावओवावि भवइ ” त्याहि. દૈવવાદીઓની માન્યતા છે કે- ૨૦ફે " प्राप्तव्यम लभते मनुष्यः, किं कारणं देवमलङ्घनीयम् । तस्मान्न शोचामि न विस्मयो में, यदस्मदीयं नहि तत् परेषाम् " ॥१॥ પ્રાપ્ત થવા લાયક જે કોઇ વસ્તુ હોય છે તે આપણને ભાગ્યની કૃપાથી જ મળે છે. તે ભાગ્ય અલધનીય-અફર છે, જે અમારી ચીજ છે તે બીજાની કદી પણ થઈ શકતી નથી, એવુ સમજીને કદીપણ કોઇ પ્રાણીએ શાક, ચિન્તા આશ્ચર્ય આદિ કરવા જોઇએ નહીં !! તા હું ભાઈ ! તમે એક માત્ર ભાગ્ય ઉપર જ વિશ્વાસ રાખા For Private And Personal Use Only "" लक्खण “नत्थि तस्स किंचि कयकं तत्तं " भगतमां सेवी अर्ध वस्तु नथी में थे. કૃતક હાય-પુરુષાથથી પ્રાપ્ત કરી શકાય તેવી હોય. એ જ રીતે विहाणं " पहार्थोनुं ? पोतानुं ३५ छे तथा तेभना भेटला अार-लेह छे, ते मधानी " कारिया " अरी-४२नारी " नियई આ नियति-लाग्य-न ܕܕ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०४ प्रश्नव्याकरणसूत्रे भाव्यं तत् कोटि यत्नैरपि न भवति यद् भाव्यं तद् विनापि यत्नेन भवति, तदसत् -सकलप्रत्यक्षोद्यमादीनां व्यर्थत्वापत्तेः । वा शब्देन-कालबादादयोऽपि विज्ञेयाः । तथाहि-"कालः सृजति भूतानि, कालः संहरते प्रजाः। कालः सुप्तेषु जागति कालो हि दुरतिक्रमः ॥ १॥" बाली ( नियई ) यह नियति-भाग्य ही है । तथा जो होने योग्य नहीं है वह करोड यत्नों से भी नहीं हो सकता है, और जो होने योग्य है वह विना यत्न के भी हो जाता है। सो इस प्रकार की देव ( भाग्य) वादियों की यह मान्यता केवल कल्पनामात्र है कारण इसका इस प्रकार की एकान्ततः कल्पना मानने पर सकल प्राणीयों के प्रत्यक्ष भूत उद्यमादिकों में व्यर्थता की आपत्ति आती है। 'वा' शब्द से कालवादियों का स्वरूप कहते हैं-यहां “वा" शब्द से कालबाद आदि भी मृषारूप हैं ऐसा जानना चाहिये । कालवादियों की ऐसी मान्यता है कि " काल : सृजति भूतानि, कालः संहरते प्रजाः। काल : सुप्तेषु जागर्ति, कालो हि दुरतिक्रम :॥१॥" काल ही भूतों को-जीवों को-बनाता है और नष्ट करता है। काल ही सोये हुओं में जगाता है इसलिये काल दुरतिक्रम-अलंघनीय है। अर्थात्-यह अविनश्वर है। છે. તથા જે થવા લાયક નથી તે કરડ પ્રયત્નો કરવા છતાં પણ થઈ શકતું . નથી, તથા જે થવા લાયક છે તે વિના પ્રયત્ન પણ થાય છે. તે આ પ્રકારની हैव " भाग्य" पाहीमानी मान्यता 30 ४६५ ४ थे, २९५ तेमनी ते પ્રકારની એકાન્તતઃ કલ્પનાને માની લેવામાં આવે તે સમસ્ત પ્રાણીઓના પ્રત્યક્ષભૂત ઉદ્યમાદિમાં વ્યર્થતા હોવાની આપત્તિ ઉપસ્થિત થાય છે. “वा" Av४थी आवाहीमार्नु २२३५ ४९ छ- “वा" १५४थी કાળવાદ આદિ પણ મૃણા -અસત્ય રૂપ છે, એમ સમજી લેવાનું છે. કાળવાદી એની એવી માન્યતા છે કે" कालः सृजति भूतानि, कालः संहरते मजाः । कालः सुप्तेषु जागर्ति, कालो हि दुरतिक्रमः " ॥१॥ કાળ જ ભૂતોને-જીને બનાવે છે અને તેમને નાશ કરે છે. કાળા જ સૂતેલાઓમાં જાગૃત હોય છે. તેથી કાળ દરતિકમ-અલંઘનીય છે એટલે કે For Private And Personal Use Only Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० २ सू० ७-८ अन्येषामपि मृषाभाषणनिरूपणम् २०५ तदसत्-कालस्यैव कर्तृत्वे कालप्राप्तौ स्त्रीश्मश्रुवन्ध्या पुत्रहस्ततलकेशादीनामपि सद्भावः स्यात् , इत्यपि मतवादिनो मिथ्या जल्पन्ति । तथा 'इडिरससायगारवपरा ' ऋद्धिरससातगौरवपराः, 'वहवे ' वहवः अनेके करणालसा:= कर्तव्याचरणालसाः अनुद्योगिनः 'धम्मवीसंसएण' धर्मविमर्शनेन-धर्मविचारेण 'मोसं' मृषा-असत्यं वस्तु अधर्ममपि धर्ममेव 'परूवेति' प्ररूपयन्ति=पतिपादयन्ति ॥७ अन्येऽपि जना यथा मृपा भाषणपरा भवन्ति तत्परूपयति 'अवरे' इत्यादि मूलम्-अवरे अहम्माओ रायटै अब्भक्खाणं भगंति अलियंचोरोत्ति अचोरियं करेंत । डामरिओ ति वि य एमेव उदासीणं । दुस्सीलोत्ति य परदारं गच्छइत्ति मइलिंति सोलकलियं । अयंपि गुरुतप्पओ त्ति । अण्णे एमेव भणंति ____ कालवादियों की यह मान्यता असत्यरूप इसलिये है कि काल को ही कर्ता मानने पर स्त्री जब तरुण अवस्था संपन्न हो जाती है तो पुरुष की तरह उसके भी दाढी मूछ का आना, तथा वंध्या के पुत्र होना, हथेली में बाल उगना आदि भी होना चाहिये-परन्तु यह सब कुछ नहीं होता है । इसलिये ये पूर्वोक्त सब ही बाद मिथ्या प्ररूपणा करते हैं ऐसा जानना चाहिथे । ( एवं ) इस प्रकार (केइ ) कितनेक (करजालसा ) अपने कर्तव्य करने पर योग्य आचरण में आलसी बने हुए, और ( इडिरससायगारवपरा ) ऋद्धि, रस, सातगौरव में तत्पर रहे हुए, ( यहवे ) अनेक अनुद्योगी व्यक्ति ( धम्म वीमंसरणं ) धर्म के विचार से ( मोसं ) मृषा-असत्यं-अधर्म को भी धर्मरूप से (परूति) प्ररूपित करते हैं । सू-७॥ શાશ્વત છે. કાળવાદીઓની તે માન્યતા અસત્યરૂપ તે કારણે છે કે કાળને જ જે કર્તા માનવામાં આવે તે સ્ત્રી જ્યારે તરુણ અવસ્થાએ પહોંચે ત્યારે તેને પણ પુરુષની જેમ દાઢી મૂછ આવવી જોઈએ, તથા વધ્યાને ત્ર થ જોઈએ. હથેલીમાં બાલ ઉગવા જોઈએ, પણ તેમાંનું કંઈ પણ બનતું કથી. તેથી પૂર્વોક્તા मे मा वाह मिथ्या ३३५९॥ ४२ छे ओम मानने मे, " एवं” को १ प्रमाणे “ केइ" 32.४ " करणालसा" पोताना तव्य पसनमा मासु ने भने “ इड्ढिरससायगारवपरा” ऋद्धि, २४ मने सात मनिभानमा रत थाने "बहवे" मने अनुयोगी सी “धम्मवीमसएणं" धर्मना व्यासथी "मोस' भृषा-२मसत्य-अयमने पाय धर्म३५ "प्ररूवेति' ५३पित ४२ छ ॥-७॥ For Private And Personal Use Only Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०६ प्रश्नव्याकरणसूत्रे उवहणंता - मित्तलत्ताई सेवइ । अयंपि लुत्तधम्मो | इमो वि वीसंभघायओ, पापकम्मकारी अगम्मगामी । अयं दुरप्पा बहुसु य पातगेसु जुत्तो चि । एवं जंपति मच्छरी भगे वा गुणकित्तिनेहपरलोगनिष्पिवासा । एवं एए अलियवयणदखापरदोसुपायण संसत्ता वेढेति अक्खइय बीएणं अप्पाणं कम्मबंधणेण मुहरी असमिक्खियप्पलावी ॥सू०॥८॥ टीका - अवरे = अपरे अन्ये केचित 'अम्माओ' अधर्मतः असत्यवचनरूपमधर्ममेव स्वीकृत्य ' रायदु ' राजदुष्टं नीतिविरुद्धम्, 'अभक्वाणं' अभ्याख्यानम् = असत्यदोषारोपणं ' अलियं ' अलीकं ' भणति ' = अकृतमपि कार्य कल्पयित्वा जनसमक्षे कथयन्ति । कथमित्याह - ' चोरोति' इत्यादिना - ' अचोरियं करेंतं ' औचार्य कुर्वन्तं = अचोरयन्तं जनं प्रति ' चोरोत्ति ' चोर इति कथयन्ति । 'एमेव ' और भी मनुष्य जिस प्रकार असत्य भाषण करते हैं उसीको दिखलाते हैं-' अवरे अहम्माओ ' इत्यादि । टीकार्थ - ( अवरे ) कितनेक मनुष्य ( अहम्माओ ) असत्य वचन - रूप अधर्म को ही स्वीकार करके (राय) नीति विरुद्ध (अभक्खाणं) असत्य दोषारोपणरूप ( अलियं ) अलीक वचन को ( भांति ) कहते हैं, नहीं किये गये भी कार्य को उसमें कल्पित कर जन समक्ष में कह दिया करते हैं कि ( अचोरियं करेतं चोरोन्ति ) चोरी नहीं करने वाले को भी 'यह चोर है' ऐसा कह देते हैं, अर्थात् जिसने कभी भी चोरी नहीं की है - ऐसे पुरुष को भी चोर देते हैं, कह तथा ( एमेव ) इसी ખીજાં મનુષ્ય પણ જે પ્રકારે અસત્ય ખેલે છે તે સૂત્રકાર બતાવે છે– " अवरे अहम्माओ " इत्यादि. " टीडार्थ - "अवरे” डेटाङ माणुसो' 'अहम्माओ" असत्य वचन अधर्मना १४ स्वीर उरीने “रायदुट्टु ” नीतिविरुद्ध " अव्भक्खाणं " असत्य होषारो ३५ “ अलिय " अली वयो "भणंति " अपना उरीने बोडअनी समक्ष उद्या रे . ચારી ન કરનારને પણ આ ચાર છે” પણ ચારી કરી હાય તેવા પુરુષને પણ ચાર हे छे, न उरायेस अर्यांनी यशु भडे- “ अचोरियं करेतं चोरोत्ति " (6 જેણે કિં (C તથા एमेव ' એવુ કહે છે એટલે કે તરીકે ઓળખાવે છે, For Private And Personal Use Only Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पण २०० सुदर्शिनी टीका अ० २ सू० ८ अन्येषामपि मृषाभाषणनिरूपणम् एवमेव 'उदासीणं' उदासीन अविग्रहकारकं तटस्थं प्रति 'डामरिउत्ति विय' हामरिका-विग्रहकारी-इत्यपि च भणन्ति । तथा-' दुस्सीलोत्ति' दुश्शील इति= दुष्टाचरणोऽयं जन इति, 'परदारं गच्छति' परदारान् गच्छति = परस्त्रीगमनं करोति, इति च असत्यदूषणवचनेन 'सीयकलियं' शीलकलितं सदाचारयुक्तं जनं 'मइलिति ' मलिनयन्ति-लोके कलङ्कयन्ति, 'अयंपि' अयमपि अपिना पूर्वोतोऽपि 'गुरुतप्पओ ' गुरुतल्पगः कलाचायस्त्रीगामि इति भणन्ति । 'अण्णे' अन्ये मृषावादिनः 'उवहणता' उपनन्तः परस्य वृत्ति कीर्ति च नाशयन्तः 'एमेव' एवमेव भणन्ति-अयं 'मित्तकत्ताई' मित्रकलत्राणि-सुहृद्दारान् ' सेवइ' सेवते । 'अयंपि' अयमपि 'लुत्तधम्मा' लुप्तधर्मा-लुप्तो धर्मों यस्य स तथा धर्मविहीनः अस्ति । तथा ' इमो वि ' अयमपि 'विस्संभघायओ' विस्रम्भघातकः विश्वास तरह ( उदासीणं ) उदासीन-तटस्थ होता है उसको ( डामरिओत्तिवि य ) अर्थात्-झगड़ा नहीं करने वाला 'यह डामरिक-विग्रहकारीझगड़ा करने वाला है' ऐसा कह दिया करते हैं। (दुस्मीलोत्ति ) यह दुःशील-दुष्ट आचरण वाला है' और ( परदारं गच्छद ) यह परस्त्री गामी है ' इस तरह के असत्यदोषारोपक वचनो से (सीलकलियं) सदाचारी पुरुष को (मइलिंति ) कलङ्किन कर देते हैं। और ( अयंपि गुरुतप्पओ) यह और वह भी गुरुपत्नी के साथ सहवास करने वाला है। (अन्ने ) कितनेक मृषावादीजन ( उवाहणंता ) परकी आजीविका एवं कीर्ति का नाश करते हुए (एमेव ) इसी तरह बोलते हैं कि यह ( मित्तकलत्ताई सेवेइ ) अपने मित्र की स्त्री को सेवन करने वाला है तथा ( अयंपि ) यह (लुत्तधम्मा ) धर्म विहीन है। तथा ( इमो वि) मे २१ शते " उदासीणं " हासीन- तटस्थ ाय तेने " डामरिओत्तिवि य" એટલે કે ઝગડે ન કરનારને “આ ઝગડે કરનાર છે” એવું કહે છે. તથા " दुस्सिलोत्ति " " 24t दुष्ट मायाको छ ” भने “ परदार गच्छद" આ પરઅગામી છે” આ પ્રકારનાં અસત્ય દોષારોપણ યુક્ત વચનથી " सीलकलिय" सहायारी पुरुषने “ मइलिंति" ते ४६ ४२ छ भने अयं पि गुरुतप्पओ" " ते ५५ शु३५त्नी साथे सहवास ४२ना। छ" येवु माटु होपा।५५ रे छ. “ अन्ने " ८सा भृषावादी सो“उवाgणता । मन्यनी मावि भने तिनी नाश ४२वाने भाटे" एमेव" या प्रमाणे माले थे- " मित्तकलत्ताई सेवइ" " ते पोतानी भित्रपत्नीनु सेवन ४२नार छ" तथा " अय पि" ते “ लुत्तधम्मा ” धभडित छ. तय " इमो For Private And Personal Use Only Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २० प्रश्नव्याकरणसूत्रे घाती 'पावकम्मकारी ' पापकर्मकारी दुष्कर्माचरणशील: ' अकम्मकारी' अकर्मकारीअनुचितकर्मकारी — अगम्मगामी ' अगम्मगामी भगिन्यादिगमनकारी, चास्ति । अयं 'दुरप्पा' दुरात्मा-दुष्टात्मा ‘बहुएसु य' बहुकैः च = अनेकैः 'पातगेसु' पातकेपु-भापकर्मसु 'जुत्तो' युक्तः संलग्न इति । एवं 'भदगे' भद्रके निर्दोषे ‘मच्छरी' मत्सरिणः = परगुणद्वेपिणः 'जंपंति' जल्पन्ति= ब्रुवन्ति । कीदृशास्ते मृपावादिनः ? इलाह-' गुणकित्तिनेहपरलोगनिप्पिवासा' गुणकीर्तिस्नेहपरलोकनिष्पिपासाः गुणाः = विनयार्जवादयः, कीर्तिः= यशः स्नेहा भूतेषु प्रीतिः, परलोकः-जन्मान्तरं तेषु निष्पिपासाः निराकाङ्क्षाः एवमुक्तप्रकारेण एते 'अलियवयणदखा' अलीकवचनदक्षाः मृपाभापणनिपुणाः, ' परदोसुष्पायणसंप्सत्ता' परदोषोत्पादनसंसक्ताः = परदोषाविष्करणतत्पराः यह ( विस्संभघायओ) विश्वासघाती है ( पावकम्मकारी ) पापकर्मकारी है, ( अम्मकारी ) अनुचित कामों को करता रहता है, तथा (अगम्मगामी) अगम्यगामी है-भगिनी आदिका सेवन करने वाला है । (अयं. दुरप्पा ) यह दुरात्मा ( बहुएस य पातगेसु जुत्तो ) अनेक पापकर्मों में लगा रहता है । ( भद्दगे ) निर्दोष पुरुष में (मच्छरी) दूसरों के गुणों से द्वेष करने वाले, तथा (गुणकित्तिनेहपरलोगनिपिवासा) विनय आर्जव आदि गुणों में, कीर्ति में तथा स्नेह-जीवों के ऊपर प्रीति रखने में और परलोक में आकांक्षा विहीन पुरुष ( एवं पंजंति ) इस प्रकार बोलते हैं। इन्हें अपने परलोकके सुधार की भी कोई चिंता नहीं होती है। ( एवं एए) इस प्रकार ये ( अलियवयणदक्स्वा ) असत्य बोलने में बड़े चतुर, तथा ( परदोसुप्पायणसंसत्ता) दूसरों के दोषों को प्रकट वि विस्संभघायओ" ते विश्वासघाती छ, “ पावकम्मकारी " पापकृत्यो रे छ, “ अम्मकारी " मनुथित कृत्ये। ४२॥३॥ , “अगम्मगाभी '' २५भ्याभी छ-मागिनी माहिन सेवन ४२नार छ, “ अयं दुरप्पा" २॥ दुरात्मा " बहुएसु य पातगेसु जुत्तो” भने ५।५४मा सीन २ छ" " भदगे" निषिधुरुबानो मच्छरी" तथा अन्यना गुणाना द्वेष ४२॥२, तथा " गुणकित्ति नेह परलोग निस्पिवासा" विनय मार्ग माहि गुणाथी २डित, प्रीति तथा स्नेहथी २डित, मने ५११४ी 24ial २हित “ एवं जपति ” उ५२ प्रभारी मोसे छे. तेने पाताने ५२वो सुधारवानी ५ चिन्ता हाती नथी. “एवं एए" AL शते ते " अलियवयणदक्खा" असत्य मालवामा धणे! Cि.Yए, तथा “ परदोसुप्पायणसंसत्ता” मन्यना होषाने २ ४२वामi or eीन मेयो ते भृषा. For Private And Personal Use Only Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका २० २ सू० ८-९ अन्येषामपि मृषाभाषणनिरूपणम् २०९ 'अक्खइ य वीएणं' अक्षतिकवीजेन-अक्षय दुःखकारणेन — कम्नबंधणेण' कर्मबन्धनेन 'अप्पाणं ' आत्मानं 'वेडेंति' वेष्टयन्ति, नरकनिगोदाधनन्तदुःखदायक कर्माणि समुपार्जयन्तीत्यर्थः । के ते ? इत्याह-'मुहरो' मुखारया=मुखमेव अरिः =शत्रु:-शत्रुत्वजनकवचनभाषित्वाद् येषां ते तथा । ' असमिक्खियप्पलावी' असमीक्षितपलापिन:-अविचारितानर्थवक्तार इति ।। मू. ८ ॥ पुनस्ते किं कुर्वन्ति ? तदाह-निक्खेवे' इत्यादि । ___ मूलम्-निक्खेवे अवहरंति परस्स अत्थम्मि गढिय गिद्धा अभिजुजति य पर असंतएहिं लुद्धा य करेंति कूड सक्खितणं, असच्चा अत्थालियं च कन्नालियं च, भोमालियं च तहा गवालियं च, गस्यं भणति, अहरगइ गमणं अण्णं पि य जाइकुलरूवसीलपच्चयमाया निगुणं चवला पिसुणं परमट्ठभेदगमसंतकं विदेसमणत्थकारगं पावकम्ममूलं दुढेि दुस्सुयं अमुणियं निल्लुजं लोगगरहणिजं वहबंध परिकिलेसबहुलं जरामरणदुक्खसोगनेमं असुद्धं परिणाम संकिलिट्र भणंति ॥ सू० ९॥ करने में ही लगे हुए मृषावादी पुरुष ( अक्खइयवीएणं) अक्षतिक बीज अक्षय दुःख के कारणभूत ( कम्मबंधणेण ) कर्मबंधन से ( अप्पाणं ) अपने आपको (वेति ) परिवेष्टित करते हैं, अर्थात-नरकनिगोद आदि के अनंत ) दुःखों को देनेवाले कर्मों को उपार्जित करते हैं। वैसे कौन होते हैं ?-(मुहरी ) जिनका मुख ही शत्रु होता है, ( असमिक्खियप्पलावी ) जो विना विचार किये ही अनर्थक प्रलाप करनेवाले होते हैं । वे ही पूर्वोक्त प्रकार का असत्यभाषण करते हैं । सू-८ ॥ पाही पुरु५ " अक्खइयवीएण" #क्षति: ७५-२मक्षय हुने भाटे ॥२९५ ३५ "कम्मबंधणेण ” भनी “ अप्पाणं "पोतानी तने " वेदेति ” परिवेष्टित કરે છે, એટલે કે નરક નિગેટ આદિના અનન્ત દુઃખ દેનાર કર્મોનું ઉપાર્જન ४२ छे सेवा अए डाय छ ?-" मुहरी" भर्नु भुम तेमनी शत्रु डाय छ, भने “ असमिक्खियप्पलावी" रे विना वियाय मन प्रसा५ ४२नार छाय છે. તેઓ જ પૂર્વોક્ત પ્રકારનું અસત્ય ભાષણ કરે છે . સૂતા प्र० २७ For Private And Personal Use Only Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २१० प्रश्नव्याकरणसूत्रे ___टीका-'परस्स' परस्य अन्य सम्बन्धिनि 'अत्यम्मि' अर्थे-धने 'गढियगिद्धा' प्रथितगृद्धाः अत्यन्तलोलुपाः 'निक्खेवे' निक्षेपान न्यासान् ‘धरोहर' तथा 'थापन' इति भाषापसिद्धम् , 'अवहरंति' अपहरन्ति 'न हि खया मत्पार्श्व स्थापित' मित्युक्त्वा सर्वथा अपलपन्ति । 'अभिमुंजंति य' अभियोजयन्ति चघरम् 'असं. तएहिं ' असद्भिः अविद्यमानैर्दोषैः । तथा 'लुद्धा य' लुब्धाश्च परधनलोलुपाः धनलोभेन ' कूडसक्खित्तणं ' कूटसाक्षित्वं ' करेंति ' कुर्वन्ति । चकाराद् ग्रन्थिमोचकत्वपश्यतो हरत्वादिकमपि विज्ञेयम् । ' असच्चा' असत्याः = असत्यवादिनः 'अत्थालियं ' अर्थालोकं अर्थाय धनादि प्रयोजनाय अलीकं, तथा 'कन्नालियं' कन्यालीकं-कुमारी विषयकमलीकं, यथा-सुशीलां कन्यां दुःशीलां, दुशीलां च मुशीला मित्यादि कथयन्ति । इदं लोकेऽतिगर्हितत्वादुपातं तेन उपलक्षणमेतत्मनुष्यजातिविषयकसमस्तालोकस्य । 'भोमालीयं ' भूम्यलीक-पृथिवीनिमित्तमसत्यं-तहा' तथा ' गवालियं ' गवाली-गोसम्बन्धिकमसत्यं ‘गरुयं ' गुरुकं फिर वे क्या करते हैं सो कहते हैं-'निश्खेवे' इत्यादि । टीकार्थ-(परस्स अत्थम्मि गढियगिद्धा ) दूसरों के धन में अत्यंत लोलुप बने हुए ये (निक्खेवे अवहरंति ) धरोहर को-" तुमने मेरे पास नहीं रखी है " ऐसा कहकर दया लेते हैं । तथा ( अभिजुजति य परं असंतएहिं ) दूसरों को अविद्यमान दोषों से दूषित कर देते हैं। (लुद्धा य कूडसक्खित्तणं करेंति ) परधन के लोभ से लुब्ध बने हुए ये झूठी गवाही देते हैं तथा (च) शब्द से दूसरों की गांठ कतर लेते है तथा देखते देखते धन भी चुरा लेते हैं। ( असच्चा ) ये असत्यवादी (अत्यालियं ) अर्थालीक, ( कन्नालीयं ) कन्यालीक, (भोमालियं) भूम्य. qणी तेथे। शु ४२ छे ते सूत्रा२ ४ छ-" निक्खेवे" त्यादि -"परस्स अत्यम्मि गढियगिद्धा" ulon धनने भाटे यु५ मनेसात “ निक्खेवे अवहर ति" ५।२ने-मनामत थापाने ५यावी ५७वा भाटे । प्रमाणे ४ छ-" तमे भारे त्यां मारी था५ भूठी नथी." तथा "अभिजुजति य पर असंतएहिं " on सोमां-तमनाम न डाय तवा होषानु આરેપણ કરીને તેમને કલંક્તિ કરે છે. _ "लुद्धा य कूडसक्खित्तणं, काति" पानी धनने वाले तो मोटर સાક્ષી આપે છે તથા “a” શબ્દથી બીજાનાં ખીસાં કાપે છે અને જેત तामi धन ५५ यारी से छ. " असच्चा" ते असत्यवाही all " अत्थालिय" माती, “ कन्नालिय” न्यादी, " भोमालिय” भूभ्यts, " तहा" For Private And Personal Use Only Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुदर्शिनी टीका अं. २ सू० ९ अन्येषामपि मृषाभाषणनिरूपणम् २११ =महदसत्यं भगन्ति येन निहाछेदनादिकं भवतीत्यर्थः । 'अहरगइगमनं-अधरगतिगमनं अधरगतौ गमनं येन तत् तथा नरकाद्यधोगतिगमनकारगम् । 'अण्णंपि य' अन्यदपि च असत्यं ब्रुवन्ति, तदेवाह-' जाइकुलरूवसीलपच्चयमायानिगुणं जातिकुलरूपशीलपत्ययमायानिगुण-तत्र जातिः मातृपक्षः, कुलं-पितृपक्षः, रूपम्= लीक, (तहा ) तथा (गवालियं ) गवालीक, ( गरुयं ) बहुत अधिकरूप में ( भणंति ) बोलते हैं। धनादि प्रयोजन के लिये जो झूठ वचन बोले जाते हैं। वह अर्थालीक है, धनादि प्रयोजन के लिये जो झूठ कहना होता है वह कन्यालीक है-जैसे-सुशीला कहना, और दुःशीला को सुशीला कहना आदि । पृथिवी निमित्त जो झूठ बोला जाता- वह भूम्यलीक है जैसे-अनुवरा भूमिको उर्वरा कहना आदि । गाय के विषय में जो असत्य बोला जाता है उसका नाम गवालीक है, जैसे-नहीं दूध देनेवाली गाय को दूध देनेवाली कहना, कम दूध देनेवाली गाय को बहुत द्ध देनेवाली कहना आदि । इस असत्य में जिह्वाछेद आदि दंड होता है इसलिये उसको गुरुकबड़ा असत्य कहा है, तथा (अहरगईगमणं) नरक आदि अधोगतियों में गमन कराने वाले ऐसे (अण्णंपि) और भी विविध प्रकार के (जाइकुलरूवसीलपच्चयमायानिगुणं) अपनी जाति, कुल, रूप, स्वभाव ये हैं कारण जिनके ऐसे तथा मायानिगुणं-अप्रशंनीय की प्रशंसा-प्रशंसनीयजन की निन्दारूपमाया वाला होने से निगुणतथा “ गवालिय" lists “ गुरुयं " १८ या प्रमाणमा " भणंति " બોલે છે. ધન આદિને ખાતર જૂઠાં વચને બોલાય છે તે અર્થાલીક કહેવાય છે કન્યાની બાબતમાં જે અસત્ય કહેવામાં આવે છે તે કન્યાલીક કહેવાય છે, જેમ કે સુશીલ કન્યાને દુશીલ કહેવી અને દુઃશીલને સુશીલ કહેવી. જમીન આદિન નિમિત્તે જે જૂઠાં વચને બોલાય છે તે ભૂખ્યલીક છે જેમ કે અનુપજાઉ જમીનને ઉપજાઉ બતાવી આદિગાયને વિષે જે અસત્ય બોલાય છે તેને ગવાલીક કહે છે, જેમ કે દૂધ ન દેનારી ગાયને દૂધ દેનારી કહેવી, એ દૂધ દેનારી ગાયને વધુ દુધ દેનારી કહેવી આદિ ગવાલિકનાં દૃષ્ટાંત છે. આ અસત્યમાં જહાનું છેદન આદિ શિક્ષા થાય છે તેથી તેને ગુરુક-મોટું અસત્ય કહેલ છે. तथा " अहरगईगमणं " २४ मा अधोगतियोमा मन रावनार सेवा "अण्णपि" जीन पाय विविध प्रश्नां “जाइकूलरूवसीलपच्चयमाया. निगुणं " पोताना ति, ३७. ३५, स्वभाव आ ना २णे! छे मेवां, તથા માયાનિગુણ-અપ્રશંસનીયની પ્રશંસા અને પ્રશંસનીય જનની નિંદરૂપમાયાવાળાં હવાથી નિગુણસ્વપરહિત, એવા વચને બોલ્યા કરે છે. માતુ. For Private And Personal Use Only Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ૨ व्याकरणसूत्रे 1 , , आकृतिः, शीलं च = स्वभावः, एतानि प्रत्ययः = कारणं यस्य तत् मायानिगुणं च = निन्दनीयस्य प्रशंसा प्रशंसनीयस्य निन्दा माया तत्सत्त्वादेव निगुणं गुणरहिते स्वपरहितादिवर्जितं 'चवला चपलाः = अस्थिरान्तः करणाः मृपावादिनो भणन्ति । पुनः कथं भूतमलीकमित्याह-' पिसुणं पिशुनं परदोषाविष्करणरूपं 'परमभेदगं' परमार्थभेदकं = परमार्थो = मोक्षः, तत्मविघातकम् 'असंतकं असत्कम् = परमार्थवर्जितं ' विदेसं' विद्वेष्यम्=अप्रियम् 'अणत्थकारणं' अनर्थकारकं धर्मादिपुरुषार्थं विघातेन नरकगमनजननमरणाद्यनर्थजनकं पावकम्ममूलं पापकर्ममूलं पापं ज्ञानावरणादिकर्म तत्कारणं ''दुर्दृष्टं दुष्टं दष्टं यत्र तत् दुर्दृष्टं=कुत्सितदर्शनं 'दुस्मुयं ' दु:श्रुतं दुष्टं श्रुतं यत्र तत्तथा दुश्रुतं दुष्टश्रवणम् ' अमुणियं ' अज्ञानं = अज्ञानरूपं Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्वपरहितवर्जित ऐसे वचनों को बोला करते हैं । मातृ पक्ष का नाम जाति, पितृपक्ष का नाम कुल, रूप का नाम आकृति और शील का नाम स्वभाव है। तथा ( चवला ) जो अस्थिर अन्तः करणवाले मृषावादी जन होते है वे पिशुनादि विशेषणों वाले असत्य वचन बोलते हैं। वे इस प्रकार जो वचन ( पिसुणं) पर के दोषों के प्रकट करने वाले होते हैं । (परमभेदगं) परमार्थ-मोक्ष के भेदक होते हैं । (असतर्ग) असत्कं परमार्थ से रहित होते हैं। (विदेस) विद्वेष्य-अप्रिय होते हैं । (अणरथकारगं) अनर्थकारक-धर्मादिक पुरुषार्थ के विघातक होने से नरक गमन जनन मरणादिरूप अनर्थ के उत्पादक होते हैं । ( पावकम्ममूलं ) पापकर्म के मूल - ज्ञानावरणादिरूप कर्म के कारण होते हैं । (दुद्दिट्ठ ) दुर्दृष्ट-दुष्ट दर्शनवाले हैं - अर्थात् इन वचनों द्वारा जो दर्शन प्रतिपादित किया जाता है वह कुत्सिन- सदोष होता है । (दुस्सुयं) दु:श्रुत होते हैं - 66 શીલને સ્વભાવ કહે છે. (( " પક્ષને જાતિ, પિતૃ પક્ષને કુળ, રૂપને આકૃતિ અને તથા चत्रला " ।” ચંચળ મનવાળા મૃષાવાદી લાકા પિશુનાદિ વિશેષણાવાળાં અસત્ય વચના ખોલે છે. તે આ પ્રમાણે છે જે વચન पिसुणं " अन्यना होषोने प्रगट उरनाश होय छे, “परमट्टभेदगं" परभार्थ - भोक्षने लेहनार होयछे. “ असंतगं ” असत्४-परमार्थ रहित होय छे, “विद्देसं " विद्वेष्य-मप्रिय होय छे, “ अणत्थकारगं ” अनर्थ (२४- धर्माहि पुरुषार्थना विधात होवाथी नर शभन भन भराहि३५ अनर्थना उत्पाद होय छे, “ पावकम्ममूलं " पापभनुं भूण-ज्ञानावरणीय आदि मनु-अरण होय छे, “दुद्दिट्ठ ” हुर्हष्ट-दुष्टદનવાળાં છે, એટલે કે ને વચના દ્વારા જે દર્શનનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવે छे ते मुत्सित-सहोष होय छे, " दुस्मुय " दुःश्रुत-नेने सांभवानुं पशु अ For Private And Personal Use Only Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सुदर्शिनी टीका अ० २ ० ९-१० अन्येषामपि मृषाभाषणनिरूपणम् २१३ " ' निल्लज्जं निर्लज्ज = उज्जावर्जितं 'लोगगरहणिज्जं ' लोकगर्हणीयं = सर्वजन निन्दनीयं 'वह वपरिकिलेसबहुलं ' वधवन्धपरिक्लेशबहुले = तत्र वधः = मारणं बन्धः =रज्यादिना बन्धनं परिक्लेशः = दुःखसन्तापस्ते बहुला अधिकाः यस्मिन्नली के तत्तथा मृषाभाषणेन हि एते भवन्त्येव मृवा भाषिणां ' जरामरणदुक्खसोगनेमं ' जरामरणदुःखशोकानां नेमम् = अवधिभूतम् ' अमुद्ध परिणामसं किलिडं 'अशुद्धपरिणामसंक्लिष्टं = अशुद्धेन - अशुभेन परिणामेन संक्लिष्टं = व्याप्तमलीकं भणन्ति चपला इति पूर्वेण सम्बन्धः ॥ सु० ९ ॥ -' अलिया हि ' इत्यादि । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कीदृशास्ते ? इत्याह मूलम् - अलियाहि संधिसंनिविट्ठा असंतगुणुदीरगा य संतगुण नासका य हिंसा भूओव घाइयं अलियं संपउत्ता वयणं इनका सुनना भी कोई भी सत्यवादी पसंद नहीं करता है । (अमुणियं) ये अमनोज्ञ होते हैं । अथवा अज्ञानरूप होते है - इनसे बास्तविक वस्तु का बोध नहीं होता है । ( निल्लज्जं ) निर्लज्ज - लज्जावर्जित होते हैंअर्थात् ऐसे वचन बोलने वालों को किसी भी प्रकार की लज्जा नहीं आती है। (लोगगरहणिज्जं ) जिन वचनों की समस्तजन निन्दा किया करते हैं । ( वहबंधपरिकिलेसबहुलं ) जो इन वचनों को बोलते हैं वे व्यक्ति इन वचनों के कारण बहुत अधिक वध, बंधन और परिक्लेश को पाते हैं । ( जरामरणदुक्खसोगनेमं ) ये वचन जरा, मरण, दुःख एवं शोक के हेतुभूत होते हैं । (असुद्ध परिणामसंकि लिट्टे) इनके बोलने बालों के परिणाम अशुभ होते हैं। इस प्रकार के असत्य वचनों को चपल पुरुष बोलते हैं | सू-९ ॥ >> સત્યવાદી પસંદ કરતાં નથી ૮ अमणुयं " ते अमनोज्ञ होय छे-अज्ञानश्य હાય છે—તેમનાથી વાસ્તવિક વસ્તુના ખોધ થતા નથી, निलज्जं " निर्स લજજારહિત હોય છે, એટલે કે એવાં વચને ખોલનારને કોઈ પ્રકારની શરમ भावती नथी, “ लोगगरह णिज्जं " ने वचनोनी सधना बोअ निहा उरे छे, वह परिकिले बहु એવાં વચને ખોલનાર માણસ તે વચનાને કારણે ઘણા વધારે વધ, ખંધન અને પરિકલેશ પામે છે. जरामरणदुक्ख सोगनेमं” ते वय ४रा, भरणु, दुःख भने शोउनां हेतुभूत होय छे. “ असुद्ध परिणामसंकिलिट्ठ ” तेवां पथनो मोक्षनारनां परिलाभ - मनोभाव-अशुभ होय छे. या प्राश्नां असत्य वयना संभण वृत्तिना भाणुसो मोटो छे. ॥ सू-- ॥ 66 For Private And Personal Use Only 66 Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे सावज्जमकुसलं साहुगरहणिजं अधम्मजण्णं भणंति अणहिगयपुण्णपावा पुणो वि अहिकरण किरियपावत्तगा बहुविहं अनस्थ अवमई अप्पणो परस्स करेंति ॥ सू० १०॥ ___टीका-'अलियाहि संधि संनिविठ्ठा' अलीकाभि सन्धिसन्निविष्टाः अलीकवादे योऽभिसन्धिः अभिमायस्तत्र सन्निविष्टाः संस्थिताः ‘असंतगुणुदीरगा' असद्गुणोदीरका: अविद्यमानगुणकथकाः 'संतगुणनासगा य ' सद्गुणनाशकाश्च विद्यमानगुणापलापकाः 'अलियसंपउत्ता' अलीकसम्पयुक्ताः = असत्यभाषणतस्पराः ' हिंसा भूभोवघाइयं ' हिंसाभूतोपघातिकं = यस्य कथनेन जायमानया हिंसया भूतानां प्राणिनाम् उपघातः-विनाशो येन भवति तत्तादृशं ' सावज्ज' सावद्य-सपापम् — अकुसलं' अकुशलम् सर्वप्राणिनामहितकरं 'साहुगरहणिज्ज' साधुगर्हणीयम् महापुरुषैस्तीर्थंकरगणधरैर्निन्दितं 'अधम्मजणणं' अधर्मजननम्= पापोत्पादकम् एतादृशं वयणं' वचनं भणन्ति । पुनः कथं भूतास्ते ? इत्याह फिर बे कैसे होते हैं सो कहते हैं-'अलियाहि ' इत्यादि। टीकार्थ-(अलियाहि संधिसंनिविट्ठा ) अलीकवाद के अभिप्राय में संस्थित मृषावादी ( असंतगुणुदीरगा ) अविद्यमानगुणों के कहने वाले और (संतगुणनासगा य ) विद्यमान गुणों के लोप करने वाले होते हैं ( अलिय संपउत्सा) इसी तरह असत्यभाषण करने में तत्पर बने हुए वे ( हिंसाभुओवघाइयं ) जिनवचनों के कहने से प्राणियों का हिंसा धारा विनाश हो जाता हैं ऐसे ( सावज, सावध, ( अकुसलं ) सर्वप्राणियों के अहितकारक, (साहुगरहणिज्नं ) साधु पुरुषों द्वारा गर्हणीय, एवं ( अधम्मजणगं ) अधर्मजनक ( वयणं ) वचनों के कहने से (भणंति) quil di डाय छे ते सूत्र४२ ४ थे-“ अलियाहि " त्या टी-"अलियाहि संधिसंनिविट्ठा" २मदीवाना मलिप्रायमा २४ भृषावादी " असंतगुणुदीरग" भविद्यमान-मस्तित्व विनाना शुशनु थन ४२ना२ भने "संतगुणनासगा य" विद्यमान गुणने छुपानार हाय छ, “अलियसंपउत्ता" मा शत मसत्य मोसपाने त५२ थये ते " हिंसाभूओवधाइयं" प्रासोनी डिसा थाय तवा “ सावज्ज" सावध, “अकुसलं " समस्त प्रामानु सहित ४२नारा " साहुगरहणिज्ज" साधु पुरुषो द्वारा निध मने "अधम्मजणगं" म न " वयण" क्यनो " भगंति' मोदछ. “ अणहिगयपुण्णपावा" For Private And Personal Use Only Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टोका अ० सू० १०-११ मृषावादीनां जीवघातकवचननिरूपणम् २१७ 'अणहि गयपुण्णपावा: अनधिगतपुण्यपापाः पुण्यपापजनितफलज्ञानविकलाः, 'पुणो वि' पुनरपि 'अहिकरण किरियापवत्तगा' अधिकरणक्रियाप्रवर्त्तकाः- अधिकरणं पापारम्भः तस्य क्रियाव्यापारः तस्य प्रवर्त्तकाः, 'अप्पणो परस्स य' आत्मनः परस्य च 'बहुविहं' बहुविधम् 'अणत्थं ' अनर्थ 'अवमदं ' अवमर्द = विनाशं ' करेंति' कुर्वन्ति ॥ सू० १० ॥ पुनः किं कुर्वन्ती ? त्याह- ' एवमेवे ' त्यादि । मूलम् - एवमेव जंपमाणा महिसे सूयकरे य सार्हेति घाय-गाणं, ससपसयरोहिसे य साहति वागुराणं, तित्तिरवट्टकलावे कविजल - कोयगे, य सार्हेति सउणीणं, झसमगरकच्छ भे य सार्हेति मच्छियाणं, संखंके खुलए य साहेति मगराणं, अयगर-गोणस - मंडलि दव्वीकर मउली य साहेति वालियाणं, गोहा सेहा य सलग सरडए य साहति लुद्वगाणं, गयकुल वानरकुले य सार्हेति पासियाणं, सुकवरहिणमयणसालकोइल हंसकुले सारसे य साहति पोसगाणं, वधबंधजायणं च सार्हेति गोम्मियाणं, धणधन्नगवेलए य सार्हेति तकराणं, गामनगर पट्टणे य सार्हेति चारगाणं पारघायग पंथघायगे साहेति गंथि भेयाणं, कयं च चोरियं णगरगुत्तियाणं सार्हेति लंछणं निल्लंडणबोलते हैं । (अणहिगयपुण्णपावा) तथा जो पुण्य और पाप के फल ज्ञान से रहित होते हैं । तथा (पुणो वि अहिगरण किरियापवत्तगा ) बार २ पापारंभ की क्रियाओं के प्रवर्तक होते हैं वे . ( अप्पणी परस्स य ) अपना और पर का ( बहुविहं ) अनेकविध ( अणत्थं ) अनर्थ और ( अवम) विनाश (विराधना ) ( करेंति) करते हैं |सू-१०॥ " તથા જે પુન્ય અને પાપના ફળજ્ઞાનથી રહિત હાય છે, તથા पुणो वि अहिगरण किरियापवत्तगा ” वारंवार पायारलनी डियागोनां अवत! होय छे, ते " अपणो परस्स य " पोतानु भने पारअनु " बहुविहं ” ने अरे “अणत्थं” अडित मने “अवमद्द" विनाश "विराधना "करे तिरे छे ।सू १०॥ For Private And Personal Use Only Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे धमणदुहणपोसणवणणदुवणवाहणादियाइं साहति बहुणि गोमियाणं, धाउ-मणि-सिल-प्पवाल-स्यणागरे य साहति आगरीणं, पुप्फविहिं च फलविहिं च साहेति मालियाणं अस्थमहुकोसए य साहति वणचराणं ॥ सू० ११ ॥ __टीका--'एवमेव जपमाणा' एवमेव जल्पन्तः पूर्वोक्तरीत्या सावद्यमबुद्धिपूर्वकं वक्ष्यमाणं भाषमाणाः, 'महिसे सूकरे य साहेति घायगाणं' महिषान् सूकरांच साधयन्ति घातकानां= तस्मिन् वने वहवो महिषासुकराश्च सन्ति गच्छ तत्रे' त्यादि तेषां घातकान् प्रति कथयन्ति तथा ' ससपसयरोहिसे य साहें ति वागुरीणं' शशपसयरौहिषांश्च साधयन्ति वागुरिणां-तत्र शशाः प्रसिद्धाः पसय= देशी शब्दोऽयं मृगाचकः, रोहिपाः मृगविशेषा एव, तान् जालेन मृगघातकान् प्रति 'तत्र मृगाः-सन्ती'ति साधयन्ति-कथयन्ति, तित्तिरवट्टगलावगे य कविंजल फिर क्या करते हैं सो कहते हैं-' एवमेव' इत्यादि । टीकार्थ-( एवमेव) पूर्वोक्त रीति से अबुद्धिपूर्वक (जंपमाणा) वक्ष्यमाण आगे कहे जाने वाले सावध वचनों को कहते हुए वे महिषादि प्राणियों को शिकारी के लिये बतला देते हैं वे इस प्रकार (महिसे करे य घायगाणं साहेति ) महिषों और सूकरों को मरवाने के अभिप्राय से घातकों के प्रति " उस वन में जाओ वहां अनेक महिष और सूकर हैं" इस प्रकार कहते हैं । तथा ( ससपसयरोहिसे य साहेति वागुरीणं) शश-खरगोश, पसय-मृग एवं रोहिष-मृग विशेष, इन्हें वागुरिकोंजाल से पकड़ने वाले मृग घातकों से अर्थात् अहेरियों से-जाओ उस वन में बहुत से मृग आदि जानवर हैं उन्हें मारो" इस प्रकार कहते जी ते भृषावाही शुरे छे ते ४ छ-" एवमेव " त्या टी -"एवमेव” पूर्वाधत मारे गुद्धि “जपमाणा" 2011 डेवामा આવનાર સાવદ્ય (પાપયુક્ત) વચને કહીને તેઓ મહિષાદિ પ્રાણીઓ શિકારીને मतावी . ते २L प्रमाणे छे. " महिसे सूकरे य घायगाणं साहेति" 31 मने सूपरनी हत्या ४२वाने માટે શિકારીઓને તે કહે છે કે “આ વનમાં જાઓ. ત્યાં અનેક પાડા અને सू१२ छ” तथा “ ससासयरोहिसे य साहेति वागुरीणं' तथा सससा, भृग અને રેહિષ-મૃગ વિશેષ-ને જાળથી પકડનાર વાઘરી આદિ મૃગઘાતકોને તે કહે छ , "onal, A! वनमi agi punनवरे। छ, तभने भा।'' ' तित्ति For Private And Personal Use Only Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० २ सू० ११ मृषावादोनां जीवघातकवचननिरूपणम् २१७ कबोयए य साहेति सउगीण ' तित्तिरवर्तकलावकांच कपिछलकपोतकांश्च साधयन्ति शाकुनिकानां, तित्तिराः-प्रसिद्धाः, वर्तकाः' वटेर' इति भाषा प्रसिद्धाः लोकाः लाबा इति भाषा प्रसिद्धाः कपिञ्जला: तम्नाभापक्षिविशेषाः 'कुरझ' इति प्रसिद्धाः, कापोतकाः पारापतकाः 'कबूतर ' इति भाषा प्रसिद्धाः एतान् शाकुनिकानां पक्षिघातकान् प्रति दर्शयन्ति झसमगरकच्छ भे य साहेति मच्छि. याण' झपमकरकच्छपांश्च साधयन्ति मरिसकानां झपाः मत्स्याः मकरकच्छपाश्च असिद्धास्तान हन्तुं मत्सिकानां मत्स्याः एण्यं येषां ते मासिका धीवरास्तान् प्रति जलाशयादिकं दर्शयन्ति 'संखंकेखुगे य साहेति मगराणं ' शङ्खवान् क्षुल्लकांश्च साधयन्ति मकराणां शङ्का प्रसिद्धा अङ्का तज्जातीयाः क्षुल्लकाः 'कौडी' इति भाषा प्रसिद्धा एतान् मकरतुल्यजलविहारि धीवरान् कथयन्ति 'अयगर गोणसमंडलिदब्धीकरमंडलीय साहेति बालियाणं ' अजगर गोनलमण्डलि दर्वीकर मुकुलिनन साधयन्ति व्यलपानांतत्र अजगरा यतीताः सर्पविशेषाः, गोनसाः फणरहिताः द्विमुखसर्पाः, मण्डलिना=सर्पविशेषाः, दर्वी करा:-फणकारकाः सर्पाः, मुकुलिना ईपत् फणकारकास्तान् व्यालपानांव्यालग्राहकान् प्रति सर्पस्थलानि हैं ( तित्तिर वट्टग लावगे य कविजलायोयए य साहेति सउणीणं) तथा तीतरों को, वटेरों को लावापक्षियों को, कपिजलों को और कबूतरों को शाकुनिकों-इनके मारने वालों के लिये बतला देते हैं (इसमगरकच्छभे य साहेति प्रच्छियाणं) तथा धीवरी-मच्छीमारों के लिये मच्छियों, मगरों एवं कच्छषों के जलाशयों को दिखला देते हैं। ( संखके खुल्लगे य साहेति मगराणं) सम्रा (मगरा) जल में फिरने वाले धीवरों के लिये ये शंखों के, अंकों के विशेष प्रकार के शंखों के, क्षुल्लकों के-कोडियों के स्थानों को बतला देते हैं। (अयगर-गोणस-भंडलि-दव्वीकरमंडली य साहेति बालियाणं) तथा जो व्यालिक सपेरे-सांप पकड़ने वाले होते हैं उन्हें अजगर के गोनस दुमुही के, मंडली के, दर्विकरफणा फैलाने वाले सांप के, मुकुली-थोड़े रूप में फणा तानने वाले रवगलावगे य कजिलकवायए य साहेति सउणीणं " तथा तेत२, पटे२५क्षामा લાવા પક્ષીઓ, કપિલે અને કબૂતર આદિ પક્ષીઓ શકુનિકે (પારધીએ). ने मताची छ. " झसमगरकच्छ भे य साहेति मच्छियाण ' तथा माछाशने માછલીઓ, મગર અને કાચબા જે જળાશયોમાં હોય તે જળાશયે બતાવી દે છે. " संखके खुल्लगे य साहेति मगराण' तथा " मगराणं " मा ३२ना। धीवरीने શંખોનાં, અંકોના વિશેષ પ્રકારના શંખકા. અને ફુલ્લકેનાં-કેડીઓનાં સ્થાને બતાવી छ “अयगर-गोणस मंउलि-दव्यीकर मंडलीय साहेति बालियाणं" तथा व्यातिકને સાપ પકડનારને અજગરનાં, બે મુખવાળા ગેસનાં, મંડલીનાં, દેવકરનાં प्र० २८ For Private And Personal Use Only Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २१८ प्रश्नव्याकरणसूत्रे " कथयन्ति, 'गोहा से हायसल्लगसरडगे य सार्हेति लुद्धकाणं ' गोधाः सेहांथ शल्यक शरटकांच साधयन्ति लुब्धकानां गोधाः = भुजपरिसर्पविशेषाः 'गोहा: ' इति भाषा प्रसिद्धाः, सेहाश्च = भुजपरिसर्पविशेषा एवं ' सहसहेली ' इति भाषा प्रसिद्धास्तान्, शल्यक शरकटांश्च - शल्यका : 'सीसोलिया ' इति प्रसिद्धाः, शरटकाव = कृकलासाथ ' गिरगिट ' करंगेटिया इति भाषा प्रसिद्धास्तान् लुब्धकानां पापर्धिकान् ' शिकरी ' इति प्रसिद्धान् प्रति कथयन्ति । 'गयकुलवानरकुले य साहेति पासियाणं' गजकुलवानरकुलानि च साधयन्ति पाशिकानां गजकुलानि वानरकुलानि च पाशिकानां पाशेन गजबन्ध विशेषेण चरन्ति ये ते पाशिकाः गजादिवन्धनकारका स्वान् कथयन्ति । 'सुरुवरहिणमयणलाल को इलहंसकुले सारसे य साहे ति पोसगाणं' शुक बर्हिमदनशालको किलहंसकुलानि सारसांच साधयन्ति पोषकाणां तत्र शुकाः प्रसिद्धाः, बर्हिणो मयूराः मदनशालाः = सारिकाः, कोकिला:, हंसाच प्रतीताः तेषां यानि कुलानि वृन्दानि तानि तथा सारसांथ, पोषकाणां=पक्षिपालकान् प्रति कथयन्ति । ' वधबंधजायणं च साहेति गोम्मियाणं' वधवन्धयातनं च सर्प के निवासस्थानों को बतला देते हैं । ( गोहा सेहाय सलग सरडगेय साहंति लुगाणं) गोधा - गोह - सेह-सहेली, शल्यक-सीसोलिया, शरटक - कृकलास गिरगिट - गिरदीला; इन जीवों को जो शिकारी होते हैं। उन्हें बतला देते (कुल वानर कुलेय सार्हेति पासियाणं ) तथा पाशिकजोग आदिकों को पकड़ने वाले होते हैं उन्हें हाथियों को बंदरों को दिखला देते हैं, अर्थात् इनके रहने के स्थानों को कह देते हैं। (सुक वरहिण मयण सालको इलहंसकले सारसे व साहति पोसगाणं ) तथा जो पक्षिपोषक होते हैं उनसे तोता, मयूर, मैना, कोकिल, हँस इनके विषय में" इनको तुम पालो " ऐसा कहते हैं और " सारसपक्षियों को भी पालो " ऐसी सलाह देते हैं। (वधयंधजायणं च साहेति गोम्मियाणं ) " Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शर23 - इश्झास गिरगिट ફણા ફેલાવનાર સાપનાં, મુકુલીનાં-ઘેડાં પ્રમાણમાં ફણા ફેલાવનારા સાપનાં निवास स्थान! मलावी हे छे " गोहा सेहा य सलग सरडगे य सार्हेति लुद्धगाणं " गोधा - धो, सेड-सहेली, शय-सीसोसीया, त કાચંડા વગેરે જીવા શિકારીઓને પતાવી દે છે. " गयकुलवानरकुलेय सार्हेति पासियाणं तथा पाशिने - વાનરીનાં નિવાસથાન ખતાવી દે " सुकवरहिणमयणसाल कोइलहंसकुले सारसे य सार्हेति पोसगाणं" तथा पक्षीओने याजनारने ते पोपट, भोर, भेना आाहिने पडनाराने हाथीयो तथा છે. 66 , કાયલ, હુંસ વગેરે પાળવાનું કહે છે. અને સારસ પક્ષીઓને પણ પાળવાની સલાહ આપે છે वधबंधजायणं च साति गोम्मियाणं " अपराधीने लडेर For Private And Personal Use Only Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनीटीका अ० २ सू० ११ मृषावादीनां जीवघातकवचननिरूपणम् २१९ साधयन्ति गौल्मिकानां-वधवन्धयातनं च-वधः-मारणं बन्धः बन्धनं रज्ज्वादिना यातनं दमनं कशादिभिरित्येतानि गौलिमकानां-कोटपालान् कथयन्ति, अपराधादिकं कथयित्वा कोटपालादिभिः वधादिकं कारयन्तीत्यर्थः, धणधन्नगवेलए य साहेति तकराणं ' धनधान्यगवेलकांश्च साधयन्ति तस्कराणां धनधान्यगवेलकांश्च= धनं च धान्यं च गावश्च एलकाः मेपाश्च तान् चोरयितुं तस्करान् प्रति कथयन्ति, 'गामनगरपट्टणे य साहेति चारगाणं ' ग्रामनगरपत्तनानि साधयन्ति चारकाणां ग्रामादीनि गुप्तपुरुषान् प्रति भेदाद्यर्थ कथयन्ति, 'पारघाइयपंथघाइयाओ साहेति गंथिभेयाणं ' पारघातिक पथघातकान् साधयन्ति ग्रन्थिभेदकानां, पारघातिकाः पारे-ग्रामनगरादि सीमान्ते घातकाः - पारघातिकाः, पथि-मार्गे घातिकाः= मार्गघातकास्तान् लुण्टितुं ग्रन्थिभेदकान-चोरविशेषान् प्रति कथयन्ति । 'कयं चोरियं णगरगुत्तियाणं साहेति' कृतां च चौरिकां चौर्य नगरगुप्तिकानां कोटपालान् साधयन्ति । तथा 'लंछण निलंछण धमण दुहण पोसणवणणदुवणवाहणादिअपराधों को प्रकाशित करके जीवों का कोतवाल से वधबंधन, यातना करवाते हैं । (धनधन गवेलए य साहेति तकराणं) जो चोर होते हैं उनसे मिलकर धन, धान्य, गाय और एलक-मेषों की चोरी करने को कहते हैं (गामनगरपट्टणे य साहेति चारगाणं) जो गुप्तचर होते हैंउन्हें ग्राम आदि का भेद लाने के लिये प्रेरित करते हैं, अथवा उन्हें ग्राम आदि का भेद कहते हैं। (पारघाइयपंथघाइयाओ साहेति गंथिभेयाणं) जो ग्रन्थिभेदक चोर विशेष-अर्थात्-चोरी का माल खाने वाले होते हैं उनसे पारघातिकों-गाम की सीमापर घात करने वालों को मार्गघातकों मार्गमें लूटने वालों को लूटने के लिये कहते हैं ( कयं य चोरियं णगरगुत्तियाणं साहेति ) कोटपालों के लिये नगर आदि में हुई चोरी का पता कहते हैं (लंछण-निलंछण-धमण-दुहण-पोसण-वणणકરીને કેટવાલ પાસે જેને વધ કરાવે છે, બંધનમાં નખાવે છે અને પીડા पाया छ. “धनधन्नगवेलए य साहेति तकराणं " योशेने भजी तेभने धन, धान्य, गाय अने घेटासानी यारी ४२वानु छ “गामनगरपट्टणे य साहेति चारगाणं " शुतयरीने अाम माहिनी से शीधी सा रे छ, अथवा भने प्राम. माहिनो से तावे छ “ पारघाइयपंथघाइयाओसाहेति गंथिभेयाणं " ? अन्थि डाय--मेटो शारीनी भास ખાનાર હોય છે તેમને, તથા પરઘાતિક ગામની સીમા પર ઘાત કરनाराने तथा भागमा दूटी नारने " कयं य चोरियं णगरगुत्तियाण साहेति" કેટવાળને નગર આદિમાં થયેલ ચોરી કરનારને બતાવવામાં મદદ કરે છે For Private And Personal Use Only Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ५२० प्रश्नव्याकरणसूत्रे - या साहति वहूणि गोमियाणं' लाञ्छननिलच्छनध्मान दोहनपोपणवननदुवनवाहनादिकानि साधयन्ति बहूनि गोमिनो, लाञ्छनं गादीनां देहे लोहादिभिश्चिन्हविशेषकरणं, निलञ्छनंवर्धित करणं ध्मानं = गवादीनां शरीरे वायुपूरणं दोहन = प्रसिद्धं पोषण = यवचणकादिदानेन पुष्टिकरणं दननं अन्यमातरि वत्सादि संयोजनं दावनम् = उपतापनं=रज्ज्यादिनापादबन्धनम् । वाहनं शकटादिषु योजनमित्यादिकानि 'बहूणि ' बहूनि गोमतां = गोपालादीन् प्रति कथयन्ति, ' धाउमणिसिलप्पवाल रयणागरे य साहेति आगरीणं ' धातुमणिशिलामवालरत्नाकरान् साधयन्ति आकरिणां=घातवः = लौहादयो मणयः = चन्द्रकान्तादयः शिलाः =पापाणाः, मवाला = प्रसिद्धाः, रत्नानि = मरकतादीनि तेषामाकराः = उत्पत्तिस्थानानि, आकरिणां= दुवण वाहणा-दियाई साहेति णि गोमियाणं ) जो गोपालक जनहोते हैं उनसे ये ( लंडण ) गाय आदि जानवरों के शरीर में डांभ देने के लिये, (निलंछन ) उन्हें निलछण-वधिया करने के लिये, ( धमण) उनके शरीर में वायु भरने के लिये, (दुहण ) दोहन के लिये, ( पोसण ) पोषण करने के लिये, जब चना आदि देकर पुष्ट बनाने के लिये, ( वणण ) वनन - मृतवत्सा गाय को दोहन करने के अभिप्राय से उसके साथ दूसरी गायका बच्चा चुखाने के लिये, (दुवण ) दावन - दुहते समय दोरी से पैर आदि को वांधने के लिये और (वाहण ) गाड़ी आदि में जोतने के लिये वार २ कहा करते हैं (घाडमणिसिलप्पवालरयणागरे य साहेति आगरीणं ) जो निपति होते हैं उनके लिये लौहादिक धातुओं, चन्द्रकान्त आदि मणियों पत्थरों, प्रवालों एवं रत्नादिकों Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir " लछण - निलंडण - धम्मण-दुहण-पोसण-वणण-दुवण-वाहणादियाई साहेति बहूणि गोमियाणं ” गोषाणोने तेथे गाय आहिनां शरीर पर डाम हेवाने, “निलछण " तेभने निर्झछन-वया खाने भाटे " धमण " तेमनां शरीरमां हवा भरवाने भाटे, “ दुहण' होडवाने भाटे " पोसण" पोषाखाने माटे, ચણા આદિ આપીને પુષ્ટ બનાવવાને માટે त्रणण " वनन-ने गायनुं वाछરડું મરી ગયું હોય તે ગાયને દોહવાને નિમિત્તે તેને બીજી ગાયનું બચ્ચું धवराववा भाटे, “ दुवण ઢાવણ-દાવાને વખતે દોરડા વડે પગ આદિ ખાંધवाने भाटे भने 'हण " गाडी आदि वाहने लेडवाने भाटे वारंवार ह्या अरे छे. " 'घाउ मणिसिलप्पवोलरयणागरे य सार्हेति आगरीणं " माशांना भावि કોને લેખડ આદિ ધાતુએ, ચન્દ્રકાન્ત આદિ મણીએ, પથ્થર, પ્રવાલા અને રત્ન "" "" For Private And Personal Use Only Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सदशिनीठीका अ० २ सु० ११-१२ मृपावादीनां जीवघातकवचननिरूपणम् २२१ खनिपतीन् कथयन्ति । तथा 'पुप्फविहिं फलविहिं च साहेति मालियाणं' पुष्पविधि फलविधि च-पुष्पजाति फलजातिं च साधयन्ति मालिकानांवनपालकानाम् , 'अग्यमहुकोसए य साहेति वणचराणं' अर्घमधुकोशकांश्च साधयन्ति वनचराणां-अर्घश्च-मूल्यप्रमाणं मधुकोशकाश्च-मधुत्पत्तिस्थानानीत्यर्थमधुकोशकास्तान वनचराणां-भिल्लान् प्रति कथयन्ति ॥ मू० ११ ॥ पुनरप्याह-'जताई' इत्यादि । मूलम्-जंताई विसाई, मूलकम्म-आहेवण-आबिंधण-आभिओग-मंतोसहिप्पओगे चोरिय परदारगमणबहपावकम्भकरणं अवक्खंदेगामघायणं, वणदहणतडागभेयणए बुद्धिविसय वसीकरणमाइयाइं भयमरण किलेसुब्वेगजणयाइं भावबहुसंकिलिट्ठके उत्त्पत्तिस्थानों को कहते हैं । तथा ( पुप्फविहिं फलविहिं च साहेति मालियाणं ) जो माली होते हैं उन्हें ये पुष्पजाति, फलजाति समजातेहैं. अर्थात्-'बागमें अमुक जातिका फुल लगाओ, अमुक जाति के फल उत्पन्न करो' इस प्रकार से कहा करते हैं । ( अग्यमहुकोसए य साहिति वणचराणं ) तथा जो वनचरभील हैं उनसे थे इस प्रकार कहते हैं कि तुम शहद या शहद का छाता ही ले आया करो अमुक मूल्य तुम्हें मिल जावेगा-बैठे २ क्या करते रहते हो। मृगाबाद पाप करने वाले जीव जीवों को बाधा आदि पहुँचे इमका थोड़ा सा भी ध्यान नहीं रखते हैं, तथा जो जीवों को कष्ट पहुंचाने वाले मनुष्य हैं उन्हें हर एक प्रकार से जीवों को कष्ट पहुँचाने में उकसाया करते हैं । सू ११॥ मानिस उत्पत्ति स्थान पाये छ. तथा " पुष्फविहि फलविहिं च साहति मालियाणं " भाजीमान पुति तथा ति मतावे छे, मेटले . " मामा અમુક જાતિમાં કુલ ઉગાડે, અમુક જાતિનાં ફળ ઉત્પન્ન કરો” એ પ્રકારની सार मापे छे. “ अग्धमहुकोसए य साहेति वणचराणं " तथा वनमा ३२॥२१. ભલેને તે આ પ્રમાણે કહે છે. “તમે મધ અથવા મધપુડો લાવ્યા કરે. તમને અમુક કિંમત મળશે-અમસ્તા બેસી રહ્ય શું વળશે ?” મૃષાવાદ પાપ કરનાર વ્યક્તિ જેને કષ્ટ આદિ પહેચશે તેનું સહેજ પણ ધ્યાન રાખતી નથી, તથા જીને કણ પહોંચાડનાર જે માણસે હોય છે તેમને દરેક પ્રકારે અને કષ્ટ પહોંચાડવા ને ઉશ્કેર્યા કરે છે ! સૂ-૧૧ | For Private And Personal Use Only Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२२ प्रश्नव्याकरणसूत्र मलिणाई भूयघाओवधाइयाइं सच्चाणि वि ताई हिंसगाई वयणाई उयाहरंति पुटा वा अपुट्टा वा ॥ सू० १२ ॥ ___टोका-'जंताई' यन्त्राणि तिलनिष्पीडनादि यन्त्राणि उदाहरन्तीति वक्ष्यमाणेन सम्बन्धः । ' विसाई 'विषाणि-क्षणमात्रप्राणहारकतालपुटसर्पादीनि स्थावरजङ्गमभेदानि । मूलकम्मआहेवणआविधणाभिओगमंतोसहिप्पओगे' मूलकर्माक्षेपणावर्धनाभियोग्यमन्त्रीपधिप्रयोगान्-मूलकर्म-गर्भघातनादिकम् , अथवा मूलनक्षत्रादि जातस्य तद्दोषशान्त्यर्थ स्नानकर्मादिकम् , आक्षेपणं-नगरादि क्षोभोत्पादनम् , आवर्धन-धनादीनां मन्त्रप्रयोगेण हरणं आभियोग्यं च-वशीकरणादि तच्च द्रव्यतो द्रव्यसंयोगजनितं भावतो विद्यामन्त्रादिसंजातं वलात्कारजनितं वा, तथा मन्त्रौषधिप्रयोगान् मन्त्रप्रयोगान् औषधिपयोगांच, तथा 'चोरियपरदार गमणबहुपावकम्मकरणं' चौर्यपरदारगमनवहुरापकर्मकरण = चौर्यपरस्त्रीगमनादि फिर भी कहते हैं- जंताई विसाई' इत्यादि। टोकार्थ-(जंताई ) यंत्रों को-तिल आदि के निष्पीडक कोल्हू आदि पदार्थों को (विसाई ) क्षणमात्र में प्राणों को नष्ट करने वाले तालपुट, सर्प आदि स्थावर जंगम विषोंको (मूलकम्म-आहेवण-आविंधणआभिओग-मंतोसहि-प्पओगे) गर्भपातन आदि रूप मूलकम को, अथवा मूल नक्षत्र में उत्पन्न हुए बालक के दोषशांति के लिये स्नान कर्म आदि को, नगरादिक में क्षोभोत्पादनरूप आक्षेपण को, मंत्र के प्रयोग से धनादिकों के हरणरूप आवर्धन को, वशीकरणादिरूप आभियोग्य कर्म को, तथा मंत्र प्रयोगों को, औषधि के प्रयोगों को तया (चोरियपरदार गमगबहुपावकम्मकरणं ) चोरी, परदारगमन आदि रूप पापकर्मों के ९७ ५५५ सूत्रा२ ४ छ-"जताई विसाई" त्याहि. टी.---" जंताई" तेस माहि पासवानins पाहि पानि “विसाई" એક ક્ષણમાં જ પ્રાણ હરી લેનાર તાલપુર, સર્પ આદિ સ્થાવરજંગમ વિષેને, " मूलकम्म-आहेवण आविंधण-आमिओग-संतोसहि-ओगे" मधातन माह રૂપ મૂલકર્મને, અથવા મૂળ નક્ષત્રમાં જન્મેલા બાળકની દેષશાન્તિ માટે સ્નાનકમ આદિને, નગરાદિમાં ક્ષોભ ઉત્પન્ન કરવારૂપ આક્ષેપણને, મંત્રપ્રેગ વડે ધનાદિનાં હરણરૂપ આવર્ધનને, વશીકરણદિપ આભિગ્યકમને, તથા મંત્ર प्रयोगाने, मौधि प्रयोगाने तथा " चोरियपरदारगमणबहुपायकम्मकरणं" यारी, ५२६॥२गमन, मा पापी ४२वाने, तथा ' अवखंदे " सैन्य शिमिर For Private And Personal Use Only Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ. २ सू० १२ मृपावादीनां जीवघातकवचननिरूपणम् २२३ पापकर्मसमाचरणम् , तथा 'अबक्खंदे' अवस्कन्दान् सैन्यशिविरादिभिराक्रमणेनपरवलमर्दनानि धाटीकर्मकरणानि वा 'गामघायणं' ग्रामघातनं यामादिनाशनं ‘वणदहणतडागभेयणए ' वनदहन-तडाग-भेदनानिवनज्वालनानि जलाशय ध्वंसनानि च 'बुद्धिविसययसीकरणाइयाई ' युद्धिविषयवशीकरणादिकानि परस्य बुद्धेविषयस्य च शब्दादेः वशीकरणानि-मन्त्रादिप्रयोगेणु स्वायत्तीकरणानि 'भयमरणकिलेसुब्वेगजणयाई' भयमरणक्लेशोद्वेगजनकानि भयं च मरणं च क्लेशश्व शारीरिकउद्वेगश्च हार्दिकं दुःखमित्येतेषां जनकानि तथा 'भावबहुसंकिलिट्ठः भावमलिणाणि ' भावबहुसंक्लिष्टमलिनानि-भावेन अध्यवसायेन बहुसंक्लिष्टेन= अतिशयपरसन्तापजनकेन मलिनानि-कलुषितानि तथा 'भूयघाओवघाइयाई' भूतघातोषघातकानि-भूतानां प्राणिनां घात: साक्षात् हननं उपघातश्च-परम्परयाहननं तो येषु तानि भूतघातोपघातकानि पूर्वोक्तानि 'सच्चाणिवि ' सत्याकरने को, तथा ( अवक्खंदे ) सैन्य शिविर आदिके द्वारा आक्रमण करके पर के बलको मर्दन करने रूप कर्म को अथवा धाडपाड़ने रूप डकैतीकर्म को, (गामघायणं ) ग्रामघातकरूपकुकृत्य को, ( वणदहणत. डागभेयणए ) जंगलों में आग लगाने रूप, तथा जलाशयों को ध्वंस करने रूप दुष्कृत्यों को, ( बुद्धिविसयवसीकरणमाइयाई ) मंत्रादिकों के प्रयोग से पर को बुद्धि को, एवं शब्दादिक पांचों इन्द्रियों के विषयोंकों स्ववश करने रूप अकृत्यों को कोई पूछे अथवा न पूछे तो भी बताया करते हैं, तथा ( भयमरणकिलेप्लुब्वेगजणयाई ) भय, मरण, क्लेश, उद्वेग, इनके उत्पादक असत्यवचनों को, तथा ( भावबहुसंकिलिट्ठमलिणाणि ) अत्यंत संक्लिष्ट अतिशयरूपमें पर को संतापजनका, ऐसे अध्यवसाय से मलिन हुए तथा (भूयघाओवघाइयाइं ) प्राणियों के साक्षात् આદિ દ્વારા આક્રમણ કરીને અન્યના બળનું મર્દન કરવારૂપ કર્મ તથા ધાડ ५ावान! य°ने, “गामायणं" | Hinा३५ हुत्यने, “ वणदहणतडाग भेयणए लोमा पासवाना तथा माशयोन ताडी पाना हुत्यान, " बुद्धिविसयवसीकरणमाइयाई" माहिना प्रयोगयी ५॥२४॥नी मुद्धिने, मने, શબ્દાદિક પચેઈન્દ્રિયોના વિષયોને પિતાને વશ કરી લેવા રૂપ દુષ્કાને કોઈ पूछे न पूछे तो ५५ ते भृषापा मताच्या ४३ छ, तथा “ भय मरण किलेसुव्वेगजणयाई ” लय. भ२२, ४वेश, ! ARE Sपन्न ४२.४२ असत्य क्यनी, तथा “ भावबहुसंकिलिट्ठमलिणाणि ” मत्यत ससिट, मन्यने न्मतिशय सत५४न मेवा मध्यवसायथा भलिन थये तथा " भूयघाओव: For Private And Personal Use Only Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२४ प्रश्नव्याकरणसूत्रे न्यपि स्वरूपतस्तथ्यान्यपि किन्तु अपि निश्चयेन 'हिंसगाई' हिंसकानि=परि णामतः पाणिप्राणघातकानि तस्मादसत्यस्वरूपाणि, 'वयणाई' वचनानि, 'पुट्ठा वा अपुडा वा पृष्टा वा केनापि, अपृष्टा वाऽपि - अलीकवादिनः ' उयाहरंति ' उदाहरन्ति = कथयन्ति ॥ मु० १२ ॥ अथवा परम्परा रूप से घात करने वाले ऐसे ( सच्चाणि वि) स्वरूप से सत्य भी हों किन्तु निश्चय में (हिसगाई ) परिणामतः प्राणियों के प्राणों के उपघातक होने के कारण असत्य स्वरूप ही होते हैं। ऐसे ( वयणाई ) वचनों को ( पुट्ठा वा अपुड्डा वा ) असत्यवादी जन चाहे उनसे कोई पूछे अथवा न पूछे तो भी ( उयाहरति ) कह दिया करते हैं ! भावार्थ - मृषावादीजन अनेकविध प्राणिपीडक यंत्रों को बनाने के लिये, विविध माकर के विषों का निर्माण करने के लिये दूसरों को उपाय बतलाया करते हैं । गर्भ का पतन कैसे किया जाता है, नगरादिकों में क्षोभ उत्पन्न कैसे हो सकता है, दूसरों को वश में कैसे किया जा सकता है, धोरी करने के क्या २ साधन हैं, परस्त्रीगमन करने का क्या उपाय है, दूसरों की सेना को कैसे परास्त किया जाता है, आदि में उपद्रव कैसे उत्पन्न किया जाता है, जंगल आदि में आग लगाना, लडाग आदि जलाशयों को शुष्क करना - सुखाना, इत्यादि सब प्रकार के इष्ट प्रयोगों को मृषावादी जन चाहे उनसे कोई पूछे अथवा न ग्राम घाइयाई " प्रालीयोनो साक्षात धात उरनार अथवा परम्परा ३ धात १२नार शेवां " सच्चाणि वि" स्व३५ सत्य होय तो पशु अवश्य " हिंसगाई " परिામ જોતાં પ્રાણીએનાં પ્રાણાની હત્યા કરનાર હાવાથી અસત્ય સ્વરૂપ જ હાય छे मेवां " वयणाईं " वयो" पुट्ठा वा अपुट्ठा वा" असत्यवादी भागुस. તેને કઈ પૂછે કે ન પૂછે છતાં પણ उयाहरति " मोट्या उरे छे. 16 ભાવાર્થ-મૃષાવાદી માણસ અનેક પ્રકારનાં પ્રાણીપીડક યંત્રો બનાવવાને માટે તથા વિવિધ પ્રકારનાં વિષ બનાવવાને માટે ખીજા લોકોને ઉપાયા મતાવ્યા કરે છે. ગર્ભપાત કેવી રીતે કરાવાય છે, નગર આઢિમાં કેવી રીત ક્ષેાલ ઉત્પન્ન કરી શકાય છે, ખીન્તને કેવી રીતે વશ કરી શકાય છે, ચારી કરવાનાં કયાં કયાં સાધનો છે, પરસ્ત્રીગમન કરવાના કયા કયા ઉપાય છે. અન્યનાં સૈન્યને કેવી રીતે પરાજ્ય આપી શકાય છે, ગામ આદિમાં કેવી રીતે ઉપદ્રવ પેદા કરી શકાય છે, જગલ આદિમાં કેવી રીતે આગ લગાડાય છે, તળાવ આદિ જળાશયાને કેવી રીતે સૂકવી નખાય છે, ઇત્યાદિ સર્વ પ્રકારના ઇષ્ટ પ્રયોગા For Private And Personal Use Only Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० २ सू० १३ मृषावादिनां जीवघातकबचननिरूपणम् २२५ पुनरप्याह-'परतत्ति' इत्यादि । मूलम्-परतत्तिवावडाय असमिक्खियभासिणो उवदिसंति सहसाउट्टा-गोणा-गवया दमंतु, परिणयवया अस्सा हत्थीगवेलगकुक्कडा य किजंतु किणावेह विकेहय पचह सयणस्स देह पीयह दासीदास-भयग-भाइल्लगा य सिस्सा य पेसकजणो कम्मकरा किंकरा य एए सयणपरिजणा य कीस अच्छंति भारिया भे करेतु कम्म, गहणाई वणाइं खित्तखिलभूमिवल्ल. राई उत्तणघणसंकडाई डझंतु सूडिज्जंतु य रुक्खा भिजंतु जंताई भंडाइयस्स उवहिस्स कारणाए, बहुविहस्स अट्टाए उच्छू दुजंतु पीलिजंतु य तिला, पयावेह इट्टयाओ मम घरट्ठ. याए खेत्ता य कसह कसावेह वा, लहुं गामनगरखेडकब्बडे संनिवेसेह, अडवीदेसेसु विउलसीमे, पुप्फाणि फलानि य कंदमूलाइंकालपत्ताइं गिण्ह,करेह संचयं परिजणस्स अटाए॥१३ ॥ भी पूछे तो भी बताया करते हैं । जिन वचनो से भय मरण आदि उपद्रव खड़े हो जायें, दूसरोंको सुनकर जिन से चित्त में मलिनता आ जावे, ऐसे वचन भी वे बोल दिया करते हैं । सत्य होने पर भी जो प्राणियों के प्राणों को संकट में डाल देते हों-प्राणियों की साक्षात् अथवा परम्परा से हिंसा के जो साधनभूत बनते हों ऐसे सब ही वचन असत्य ही हैं, और उन्हें ये असत्यवादीजन बोला करते हैं । सू०१२ ॥ વિષે મૃષાવાદી માણસને કોઈ પૂછે કે ન પૂછે તે પણ તે બતાવ્યા કરે છે. જે વચનેથી ભય, મરણ આદિ ઉપદ્રવ પેદા થાય, જે વચનો સાંભળીને અન્યનાં મનમાં મલિનતા ઉત્પન્ન થાય, એવા વચને પણ તેઓ બેલ્યા કરે છે. સત્ય હોવા છતાં પણ જે વચનેથી પ્રાણીઓનાં પ્રાણ ભયમાં મૂકાય-પ્રાણુઓની સાક્ષાત હિંસાના અથવા પરંપરાથી હિંસાના જે કારણરૂપ બનતાં હોય એવાં બધાં વચને અસત્ય જ છે, અને તે અસત્યવાદી માણસ તેવાં વચને બેલ્યા કરે છે. સૂ-૧રા प्र २९ For Private And Personal Use Only Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२६ प्रश्नव्याकरणसूत्रे टीका-'परतत्तिवावडाय' परतृप्तिव्यापृताश्च = परप्रसन्नताकरणतत्पराः अथवा परतप्तिव्यामृताः परचिन्तापरायणा वा 'असमिक्खियभासिणो' असमीक्षितभाषिणः अपलोचितवक्तारः 'उपविसंति' उपदिशन्ति आज्ञापयन्ति सहसा अकस्मात् अकारणमेवेत्यर्थः तदेवाह-यत् 'उहा' उष्ट्राः प्रसिद्धाः 'गोणा' गावः बलीवः, गवयाः गोसदृशा यन्याः ' रोझ' इति भाषा प्रसिद्धाः पशुविशेषाः 'दमंतु ' दम्यतां-एते शिक्ष्यन्ताम् । तथा 'परिणयवया' परिणतवयसः-तरुणाः 'अस्सा' अश्वाः 'हत्थी' हस्तिनः प्रसिद्धाः गवेलकाः-मेषाः 'कुक्कुडा' कुक्कुटाश्च-पतीताः 'किज्जंतु' क्रीयन्तां मूल्येन गृह्यन्तां 'किणावेहय' क्रापयत= पूर्वोक्तानामेव क्रयणं कारयत विक्केह' विक्रीणीध्वं-विक्रयं कुरुत ‘पचह' पचत-पाकं कुरुततथा 'सयणस्स ' स्वजनाय ' देह' दत्त-मांसादिकं दीयतां फिर भी कहते हैं-'परतत्ति' इत्यादि टीकार्थ-(परतत्तिवावडा य ) जो दूसरों को प्रसन्न करने में तत्पर रहते हैं, अथवा पर को चिन्ता में परायण रहा करते हैं वे ( असमिक्खियभासिणो ) विना विचारे ही बोल दिया करते हैं, इस बात का वे विचार नहीं करते हैं कि हमारे इन वचनों से दूसरे प्राणियों को कष्ट होगा, (सहसा उदिसंति ) विना कारण के ही यों दूसरों से कह देते हैं कि तुम लोग ( उट्टागोणागवया दमंतु ) ऊँटों को, बैलों को तथा रोझों को दमनकरो-अच्छी चाल चलना सिखलाओ ( परिणयवया अस्सा हत्थी गवेलका कुक्कुडा किजंतु ) तरुण, घोड़े, हाथी, मेष, कुकुट, इन जानवरों को स्वयं खरीदो और (किणावेह ) दूसरों को खरीदवाओ तथा ( विक्केह य ) ये वो और ( पचह ) ओदनादि पकाओ ( सयणस्त ते विषे ७ ५ सूत्रा२ ४ छ- " परतत्ति” त्या. टोडार्थ-." परतत्ति वावडाय" रे flon सोओने मुश ३२वाने मातुर डाय , अथवा पा२४ी थि-alvil प२राया २७ थे, ते " असमिक्खियभासिणो" विया२ ४ा विना मोट्या ४२ छ. तो मेरे विया२ ४२i नथी , सभा 241 क्यनाथी मी याने ४७८ पडायशे. “ सहसा उवदिसंति" ती विना २९५ ullan ने 3 छ । तमे “ उट्टागोणा गवया दमंतु " टोd, मोनु तथा शोनुं मन ४२१-सारी या याता शिमो. " परिणयवया अस्सा हत्थी गवेलका कुक्कुडा किज्जंतु ” युवान, घोडा, साथी धेट ५४d, माहि तमे ते मीही अने “किणावेह " oilen पासे त्या. For Private And Personal Use Only Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० २सू० १०-१३ मृषावादिना जीवघातकवचननिरूपणम् २२७ 'पीयह ' पिवत मदिरादिकं — दासीदासभयगभाइल्लगा' दासीदासभृतकभा. गिकाः दास्य सेविकाः दासाः असिद्धाः, भृतका भृत्या-भक्तदानादिना पोपिताः, भागिकाः धनादेश्चतुर्थादि भागग्राहकाः 'सिस्सा य' शिष्याश्च प्रसिद्धाः 'पेसकनणो' प्रेष्यकजना कार्ययोजनेषु प्रेषणीयो जनः 'कम्मकरा' कर्मकरा= नियतकालं कर्मकुर्वन्ति ये ते कर्मकराः, किंकराश्व प्रश्नपूर्वककार्यकारिणः 'एए' एते 'सयणपरिजणे ' स्वजनपरिजनाश्च स्वजनाः मातापितृभ्रात्रादयः, परिजनाः =सम्बन्धिनः ‘कीस' कस्मात् कारणात् 'अच्छंति' आसते कार्य परित्यज्योपविष्टाः सन्ति 'भे' भवतां ' भारिया' भारिकाः भारवाहिनः 'कम्म' कर्म ‘करेंतु' कुर्वन्तु, तथा 'गहणाई वणाई ' गहनानि वनानि 'खित्तखिलभूमिवल्लराई' क्षेत्र देह ) मांसादिको अपने स्वजन संबंधियों के लिये दिया करो, ( पीयह ) मदिरादि का पान किया करो, ( दासीदास भयगभाइल्लगा य सिस्सा य पेसकजणो कम्मकरा किंकरा य एए सयणपरिजणा य कीस अच्छंति ) ये तुम्हारे दासी, दास, भृत्य भागीदार, शिष्यजन, प्रेष्यकजन, कर्मकर और किंकर तथा स्वजन परिजन किस कारण से अपने २ काम कोछोड़ कर बैठे हुए हैं। इनमें कठिन शब्दोका अर्थ इस प्रकार है-अपने घर पर ही जो भोजनादि से पुष्ट किये जाते हैं वे भृत्य हैं। कोई प्रयोजन वश जो कामके लिये भेजे जाते हैं वे प्रेष्यकजन हैं। नियत कालतक जो मजूरी करते हैं वे कर्मकर हैं । प्रश्नपूर्वक पूछकर काम करनेवाले जन किंकर हैं। माता पिता भाई आदि स्वजन सम्बन्धीजन आदि परिजन हैं। (भे भारीया कम्मं करेंतु) तुल भारिक-अपने भारढोने वाले मनुष्यों सेUN६ ४२वी, तथा "विक्केहय” वेयो, भने “पचह" मनात (मात विशे३) राधे। “ सयणस्स देह" मांस आदि तमासमा समाधान मानभा पारसे। " पीयह" महि! (६३) माहि पान ४, "दासीदासभयगभाइल्लगा य सिस्सा य पेसकजणो कम्मकरा किंकरा य एए सयणपरिजणा य कीस अच्छति ” मे तमा। દાસી, દાસ, નૃત્ય, ભાગીદાર, શિષ્યજન, પ્રેષકજન, કર્મક કિકર અને સ્વજન પરિજન કયા કારણે પિત પિતાનાં કામે છેડીને બેઠા છે! ઉપરના સૂત્રમાં આવેલ કઠિન શબ્દના અર્થ આ પ્રમાણે છે--પિતાને ઘેર જ ભોજનાદિ આપીને જેમનું પિષણ કરાય છે, તે લેકતે ભૂત્ય કહે છે. કેઈ પ્રયોજનથી જેમને કઈ કામે મેકલાય છે તેમને શ્રેષ્ય જન કહે છે. નકકી કરેલા સમય સુધી જે મજૂરી કરે છે તેમને કકર-કારીગર કહે છે. પૂછી પૂછીને કામ કરનારા સેવકને કિકર કહે છે. માતા પિતા ભાઈ આદિ સ્વજન ગણાય છે, સંબંધીઓને પરિજન કહે છે. "भे भारिया कम्मं करेंतु" तमे ला!ि-मा५ ला२ पडन ४२ना२। पासे For Private And Personal Use Only Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२८ प्रश्नव्याकरणसूत्रे खिलभूमिवल्लराणि-क्षेत्राणि-असिद्धानि खिलभूमया हलाऽकृष्टभूमयः वल्लराणि= क्षेत्रविशेषाव तानि 'उत्तणघणसंकडाई उत्तणघनसंकटानि-तत्रउत्तणैः उद्गतः घासैः घनम् अतिशयं संकटानि व्यापनियानि तानि 'डझंतु ' दह्यन्तां भस्मीभूतानि क्रियताम् । रुक्खा' वृक्षाः 'मूडिज्जंतु' मूड्यन्तां = मूलत उन्मूल्यन्ताम् । 'जंताई' यन्त्राणि = तिलेक्षुसर्षपादिपीडनयन्त्राणि 'भिज्जंतु ' भिन्दन्तु । किममित्याह---' भांडाइयस्स ' भाण्डादिकस्य भाण्ड पात्रादेः 'उबहिस्स' उपधेः= उपकरणस्य ' कारणाए ' कारणाय-अयोजनाय । तथा 'बहुविहस्स' बहुविधस्य 'अनेकप्रकारस्य 'अट्टाए ' अर्थाय वक्ष्यमाणप्रयोजनस्य 'सिद्धये 'उच्छु' इक्षवः 'दुज्जंतु ' दूयन्तां छिद्यन्तां तिलाय ' तिलाश्च ‘पीलिज्जंतु' पीड्यन्तां-निष्पीडयन्तां यन्त्रे । तथा मम ‘घरद्वए' गृहार्थाय गृहनिर्माण योजनाय 'इट्टयाओ' इष्टकाः= ईट' इति प्रसिद्धाः ‘पचावेह' पाचयत । 'खेत्ताय कसह कसावेह' नौकर चाकरों से काम कराओ वे ( गहणाई वगाइं ) गहन वनों को, (खित्तखिलभूमिवल्लराई) खेतों को, हलाकृष्टभूमिको-वल्लरों-खेतविशेषों को (उत्तणघणसंकडाइं ) घास आदिसे व्याप्त है, (डझंतु) उनमें आग लगाकर वहांकी भूमिको साफ करें ( रुक्खा सूडिज्जंतु ) वहां जितने भी वृक्ष खडे हों उन्हें जड़मूल से उखाड़ डालें ( जंताई भिजंतु) तिल इक्षु आदि के पीलनेके यंत्रोंको ये चीर फाड़ डालें कि जिससे ( भांडायइस्स उवहिस्स कारणाए) भांड पात्र आदि उपकरण बनाये जा सकें । तथा (बहुविहस्स अट्टाए उच्च दुज्जंतु ) अनेक विध प्रयोजनों की सिद्धि निमित्त ये इक्षु-गन्ना को काटें, (तिला य पोलिज्जंतु घरट्ठयाए) तिलों को पानी में पिले तथा (इयाओ पयावेह ) गृह निर्माण के लिये ये ईटों को पकायें, (खेत्ता य कसह कसावेह) खेतों को जोते व जुतवावें = हाकना और हकवाना चोकना और चोकवाना ना४२ या पाले ४४५ ४२रायो, “गहणाई वणाई” गाउन पनीने, “वित्तखिलभूमि वल्लराइं" मेत३१, १२! ( ४ानु मेतर) " उत्तणघणसंकडाई" घास माहिया पाये छ, " डझंतु " तम या गाडीनते भीनने साई ४२रावो, " रुक्खा सूडिज्जंतु " त्या क्ष वृक्षो छ भने ५ भूमाथी उमेडी नामो, “ जंताई भिज्जंतु' तस, शे२४ी मासिवाना यत्राने तेमे। तोड़ी ही ना थी " भांडाइयस्स . उबहिस्स कारणाए" wis, पात्र माह साधना मनापी २४ाय तथ! " बहुविहस्स अट्टाए उच्छ्र दुज्जंतु ” मने २॥ प्रयोगबनी सता भाटे तो शेरीने पे तिलाय पीलिज्जंतु घरट्याए" तसने घासीमा पीa, तथा " इत्याओ पयावेह" ५२ धावाने भादट पाये, “ खेत्ता य कसह कसावेह" मेतरे। 3 अने डावे, तथा For Private And Personal Use Only Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका म० २ सू० १३ मृषावादिना जीवघातकवचननिरूपणम् २२९ क्षेत्राणि च ' कस' कर्षत-कर्षयत वा । तथा 'अडवीदेसेसु' अटवी देशेषु बन प्रदेशेषु 'गामनगरखेडकब्बडे' ग्रामनगरखेटकबटानि-तत्र ग्रामश्च नगरं च प्रसिद्ध खेटं च-नद्यादिवेष्टितं धूलिप्राकाररहितं कटं च-कुत्सितजननिवासस्थानम् , तानि कीदृशानीत्याह-विउलसीमे' विपुलसीमानि-विस्तीर्णसीमायुक्तानि ' लहु' लघु-सुन्दररोत्या शीघ्रं वा 'संनिवेसेह' सन्निवेशयत=निवासयत तथा 'पुप्फाणि फलाणि य' पुष्पाणि फलानि च 'कंदमूलाई कन्दमूलानि तत्र कन्दा स्वर्णकन्दशर्कराकन्दलशुनादयः मूलानि वृक्षमूलकानि 'कालपत्ताई' कालपाप्तानि उचितसमयलब्धानि 'गिण्ह' गृह्णीत-ग्रहणं कुरुत, तथा ' परिजणस्स ' परिजनस्य कुटुम्बस्य, 'अट्ठाय' अर्थाय प्रयोजनाय सञ्चयं करेह ' कुरुत ।। मू०१३ ॥ तथा ( अडवीदेसेसु गामनगरखेडकब्बडे विउलसीमे लहु संनिवेसेह ) ग्राम, नगर, खेट, कर्बट आदि स्थानोंको विस्तृत सीमायुक्त कर के अटवी देशोंमें सुन्दर रीति से शीघ्र बसावें, (पुप्फाणि फलाणि य कंदमूलाई कालपत्ताई गिण्ह ) तुम लोग ( कालपत्ताई ) कालप्राप्त फूले हुए (पुप्फाई ) फूलों को ( फलाणि ) पके हुए फलों को तथा ( कंदमूलाई ) पके हुए स्वर्णकन्द, शर्कराकंद, लहसुन आदि कंदों को और पिप्पलीमूल आदि मूलों को ( गिण्ह ) ले आया करो, तथा ( करेह संचयं परिजणस्स अट्ठाए ) कुटुम्ब के लिये धन आदि का संचय कर रख जाओ। भावार्थ-ये असत्यवादीजन दूसरे व्यक्ति हमसे प्रसन्न रहें इसलिये सुहाती बातें उनसे कहते रहते हैं । इनका परिणाम क्या होगा ? इसका वे जरा सा भी ध्यान नहीं रखते । जो ऊँट पालते हैं अथवा ऊँटसे जो " अडवीदेसेसु गामनगरखेडकब्बडे विउलसीमे लहु संनिवेसह " :भ, न१२, બેટ, કબૂટ, આદિ સ્થાને વિસ્તૃત સીમાવાળાં કરીને ઉજજડ પ્રદેશમાં સુંદર शते ७५थी: वसावे, “पुष्पाणि फलाणि य कंदमूलाई कालपत्ताई गिण्ह" तमे सोछ। "कालपत्ताई" विसवाने समय मावतi विसेस " पुप्फाई" टोने “फलाणि " पासा जाने तथा “ कंदमूलाई" पासi २१४४-४-२४ीयां લસણ આદિ કંદને તથા પિપ્પલી મૂળ આદિ મૂળોને “ઇ” લઈ આવ્યા ४२, तथा “ करेह संचयं परिजणस्स अट्टाए” १५ महिने भाटे धन આદિને સંચય કર્યા કરો” એ પ્રકારની સલાહ આપ્યા કરે છે. ભાવાર્થતે અસત્યવાદી લેકે બીજા લેકેને ખુશ કરવાને માટે તેમને ગમે તેવી વાતે તેમની સાથે કર્યા કરે છે. પણ તેનું શું પરિણામ આવશે? તે બાબતનો તેઓ જરા પણ વિચાર કરતાં નથી. ઊંટ પાળનારને અથવા ઊંટનો For Private And Personal Use Only Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २३० प्रश्नव्याकरणसूत्रे अपना व्यापार आदि करते हैं उनसे ये यों कह दिया करते हैं कि तुम्हारा यह ऊँट देखने में तो बड़ा सुहावना लगता है परंतु इसकी चाल तो कोई ढंग की ही नहीं है, इसे जैसे भी हो सुन्दर चाल चलना सिखलाओ ! इसी तरह जो बेलों के मालिक होते हैं उनसे भी ये समयर पर ही उपदेश भरी बातें बनाया करते हैं, उनसे कहते हैं-तुम्हारे बैलों की यह जोड़ी देखने में तो बड़ी सुन्दर मालूम पड़ती है, परन्तु देखो इसकी चाल कुछ भी नहीं है, अतः यह गाड़ी आदिमें जोतने पर खूब तेज चाल चले इस तरह की चाल सीखाओ, जंगल में एक गाय जैसा जानवर होता है जिसे रोझ कहते हैं, यह चलने में बड़ा तेज होता है । सो तुम जैसे भी हो सके इसको पकड़वा कर मंगाओ और अपने घर पर रख कर ऊस रोझको जैसे भी हो सके पहिले वशमें लाओ, बादमें उसको जंगल की चाल "छुड़ाकर अच्छी चाल चलने में ढालो, इससे तुम्हें आने जानेमें समयकी बड़ी बचत होती रहेगी। इसी तरह तुम बैठे२ क्या करते रहते हो ? घोड़ों के बछेड़ोंको हाथियों के बच्चों को, मेषों (मेंढे)को, कुक्कुटों (मुर्गों)को, पैसे देकर खरीदो, और खिला पिलाकर जब ये खूब मस्त हो जावे तब इन्हें बेच दिया करो इसमें तुम्हें बहुत अधिक लाभ होगा। तथा कुछ रुजगार कहीं चलता हो तो इस प्रकार बैठे रहने में तुम्हें क्या लाभ વ્યાપારની ચીજો લાવવા લઈ જવામાં ઉપયોગ કરનારને તે કહે છે કે તમારે આ ઊંટ દેખાવમાં તે ઘણે સુંદર લાગે છે પણ તેની ચાલ કઢંગી છે. તેને ગમે તે પ્રકારે સારી ચાલ ચાલતાં શીખવાડે. એ જ રીતે બળદેના માલિકેને પણ તે વારંવાર ઉપદેશ સલાહ આપ્યા કરે છે કે તમારા બળદની આ જોડી દેખાવમાં તે ઘણી સુંદર છે, પણ તેની ચાલ ઘણી ધીમી છે, તે તેને ગાડી આદિની સાથે જોડવામાં આવે તે ઝડપથી ચાલે એવી ચાલ શીખવાડે. જંગલમાં ગાય જેવું એક પ્રાણી હોય છે, તેને રોઝ કહે છે, તે ચાલવામાં ઘાનું ઝડપી હોય છે. તમે ગમે તે રીતે તે રઝને પકડી મંગા; અને તમારે ઘેર રાખીને તેને ગમે તે રીતે પહેલાં વશ કરે, પછી તેને જંગલી ચાલ છોડાવીને સારી ચાલ ચાલતા શીખવો, તેમ કરવાથી તમને અવર જવરમાં સમયને સારે બચાવ થશે. એજ રીતે તે અસત્યવાદી લેકે બીજાને કહે છે કે–તમે બેઠાં બેઠાં શું કરે છે? ઘોડાનો વછેરાને, હાથીઓનાં બચ્ચાંને ઘેટાંઓને, કૂકડાઓને પિસા આપીને ખરીદ કરે, અને તેમને ખવરાવી પીવ રાવીને જ્યારે તેઓ સારી રીતે હૃષ્ટ પુષ્ટ થાય ત્યારે વેચી દે, તેથી તમને સારે લાભ થશે. તથા કેઈ ધંધે ન ચાલતું હોય તે આ રીતે બેસી રહે For Private And Personal Use Only Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० २ सू०१३ मृषावादिना जीवघातकवचननिरूपणम् २३१ है ? कम से कम चना ही भूजकर बेचा करो। तुम तो पैसे वाले हो, तुमने इस मनुष्य जन्म को पाकर क्या आनंद पाया मदिरा आदिमें जो आनंद है वह और कहां हो सकता है, इसलिये इन्हें खूब खाओ पीओ और बचने पर अपने मित्र दोस्तों को भी खिलाया पिलाया करो। देखो तुम्हारे ये नौकर चाकर दासी दास आदि जन बैठे २ क्या करते हैं ? कम से कम तुम इनसे गहन जंगलों को ही साफ कराकर उन्हें खेत आदि के योग्य वनवालो । वृक्ष आदि कट जाने पर वहां बडी अच्छी तरह से खेती के योग्य भूमि तैयार हो सकती है । तुम्हारे पास जो ये यंत्र पड़े हुए हैं वे अब तो कुछ काम में तो नहीं आ रहे हैं पड़े र और खराब हो जायेंगे, अतः क्यों नहीं इनके भाजन पात्र आदि बनवा लेते हो, ताकि उनसे तुम्हारा बहुत सा काम सध सकता है । गुड़ का बाजार इस समय बहुत तेज जा रहा है, खाँड भी बहुत मॅहगी बिक रही है, अतः क्यों नहीं तुम समझ से काम लेते हो ? जहां तक होसके इन इक्षुओं(सेलडी)को जल्दीसे जल्दी पिलवालो,नाकि गुड़ आदि तयार होकर तुम्हें बाजार से अच्छा लाभ हो सके । सरसों का तेल भी बहुत तेज बिक रहा है सो घानी में पिलवाकर इसका तेल निकलवालो और बेच વાથી શું લાભ? બીજું કંઈ ન બની શકે તે ચણા શેકીને વેચ્યા કરો પિસા દારને અસત્યવાદી કહે છે કે- “તમે તે પૈસાદાર છે, તમે આ મનુષ્ય અવતાર પામીને શે આનંદ લૂટ છે! મદિરા આદિમાં જે આનંદ મળે છે તે બીજે ક્યાં મળે તેમ છે તે ખૂબ ખાઓ, પીઓ, તથા ખાતાં પીતાં વધે તે તમારા મિત્રોને પણ ખવરાવ્યા કરે પીવરાવ્યા કરો. જુઓ ! તમારા આ નેકર ચાકર; દાસ, દાસી આદિલકે બેઠાં બેઠાં શું કામ કરે છે? તો તેમની પાસે ગહન જંગલોને સાફ કરાવીને તે સ્થાનને ખેતી કરવાને લાયક બનાવરાવો. વૃક્ષ આદિ કપાવી નાખવામાં આવે તે ત્યાં સારામાં સારી ખેતી થાય એવી જમીન તૈયાર થઈ શકે છે. તમારી પાસે જે યંત્ર છે તે હાલમાં કોઈ ઉપયોગમાં આવતાં નથી, તે પડ્યાં પડ્યાં તે ખરાબ થઈ જશે, તે તેને તેડાવીને તેમાંથી ભાજન પાત્ર આદિ કેમ બનાવરાવતા નથી ? તેમ કરવાથી તમારું ઘણું કામ સરળ થશે. હાલમાં ગોળનાં બજાર ઘણાં ચડી ગયાં છે. ખાંડ પણ ઘણી મેંદી વેચાય છે. તે તમે બુદ્ધિ પૂર્વક કેમ કામ લેતા નથી ? બની શકે એટલી ઝડપથી આ શેરડીને પીલાવી નાખે જેથી ગેળ આદિ તૈયાર કરીને વેચાથી તમને વેપારમાં સારે લાભ મળે. સરસીયું પણ ઘણું છું વેચાય છે, તે સરસવને ઘાણીમાં પીલાવીને તેનું તેલ કઢાવે અને તે તેલ વેચીને સારી એવી For Private And Personal Use Only Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २३२ प्रश्नव्याकरणसूत्रे पुनरप्याह-' सालि' इत्यादि। मूलम्-सालीवीहिजवा य लुच्चंतु मलिजंतु उप्पूयंतु य लहुं च पविसंतु कोट्ठागारं, अप्पमहुक्कोसगा य हम्मंतु पोतसत्था सेणाणिजाउ जाउडमरं, घोरा वटुंतु जयंतु य संगामा, पवहंतु य सगडवाहणाई, उवणयणं चोलगं विवाहो जन्नो अमुगम्मि होउ दिवसे सुकरणे सुमुहत्ते सुनक्खत्ते सुतिहिम्मि अज होउण्हवणं, मुदियं बहुखजपेजकलियं, कोउग विण्हावणसंतिकम्माणि कुणह ससि-रवि-गहोवरागविसमेसु सजगस्स परिजणस्स य निययस्स य जीवियस्स य परिरक्षणटाए। पडिसीप्तगाइं च देह, देह य सीसोवहारे विविहोसहिमजमंसभक्खण्णपाणमल्लाणुलेवण पईव जलिउज्जल ' सुगंधधूवोवयारपुप्फफलसमिद्धे, पायच्छित्ते करेह पाणाइवायकरणेण बहुविहेण विवरीउप्पायदुस्सुविण पावसउणअसोम्मग्गहचरियअमंगलनिमित्तपडिघायहेडं, वित्तिच्छेयं करेह, मादेह किंचिदाणं, सुटुहओ सुट्टछिण्णो भिण्णोति उवदिसंता एवं विहं करेंति अलियं मणेणं वायाए कम्मुणा य अकुसला अणज्जा अलियाणा अलियधम्मनिरया कर रकम इकट्ठी कर लो। इत्यादि नाना प्रकार की बातें बना २ कर मृषावादी जन भिन्न २ पुरुषों को सदा प्रसन्न करने की चेष्टा में लगे रहते हैं। यही सब विषय इस सूत्र द्वारा सूत्रकार ने प्रकट किया है ।।-१३।। રકમ એકત્ર કરી લે.” ઇત્યાદિ વિવિધ પ્રકારની વાત કરીને મૃષાવાદી માણસે જુદા જુદા પુરુષોને હમેશ રાજી રાખવાની પ્રવૃત્તિમાં રચ્યા પચ્યા રહે છે. એ બધી વાત સૂત્રકારે આ સૂત્ર દ્વારા પ્રગટ કરી છે. સુ-૧૩ For Private And Personal Use Only Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ. २ सू० १४ मृषावादिनां जीवघातकवचननिरूपणम् २३३ अलियासु कहासु अभिरमंता तुट्टा अलियं करेउं हुंति य बहुप्पगारं ॥ सू० ॥१४॥ टीका-'सालीवीही ' इत्यादि । 'सालीवीहीजवा य' शालिव्रीहियवाश्च तत्र शालयः पष्टयहोगत्रपरिपाकयोग्या बीहयश्च धान्यविशेषाः यवाश्च-जब इति भाषा प्रसिद्धाः एते 'लुच्चंतु' लूयन्तां छिद्यन्ताम् । 'मलिज्जंतु' मृद्यन्तां-पलालादिभ्यः पृथक क्रियन्ताम् । 'उप्पूयंतु' उत्पूयन्ताम् परिशोध्यन्तां ' लहुं च ' लघु च-शीघ्र सुन्दररीत्या च । कोट्ठागारं' कोष्ठागारं-कोष्ठेपु 'पविसंतु' प्रवेश्यन्तां संभ्रियन्तां शाल्यादयः 'अप्पमहुक्कोसगा हम्मंतु पोतसत्था' अल्पमहदुत्कर्पका हन्यन्तां पोतसार्थाः तत्र अल्पा:-हस्वास्तदपेक्षया महान्तश्च-मध्यमा उत्कर्षका उत्कृष्टा पोतसार्थाःनौकास्थितजनसमुदायाः-पक्षिशिशुसमुदाया वा हन्यन्तां नाश्यन्ताम् । तथा ' सेणाणिज्जाउ ' सेना निर्यातु-कटकं निर्गच्छतु, निर्गत्य च 'जाउडमरं' यातुडमर= तथा-'सालि ' इत्यादि। टीकार्थ-(सालि वीहिजवा य लुच्चंतु ) शालि-साठ दिनरात में परिपाक के योग्य धान्य को तथा ब्रीहि को, और जव को काट लो (मलिग्जंतु) इन्हें पलोल आदि से पृथक् करलो (उप्पयंतु ) अच्छी तरह से इनकी दांय ( गाहट ) करवाकर उड़ावनी करलो-( उफणलो ) अभी वायु अनुकूल अच्छी चल रही है । ( लहुं च कोडागारं पविसंतु ) जल्दी से जल्दी कोठारमें इन्हें भरवा दो । (अप्पम कोसगा हम्मंतु पोतसत्था) छोटे बीचके-मध्यम श्रेणिके, एवं उत्तम श्रेणिके पोतसार्थ-नौकास्थित (नौकामें रहे हुए) जनसमूहको मार डालो, अथवा छोटेयड़े नथा बोचके सब तथा- '' सालि ” त्या टी- “ मालिवी हि जवा य लुच्चंतु" al ( सविसमा पातुं मना२४ ) तथा ग्रीड (202) अने सपना 1५०ी ४२वि स “ मलिज्जंतु " तमाथी ५।७ पोरे ९ ५वी हो, “ उप्पयतु” सारी शते पणु ४२वीन तेने Guja at “ उफणलो " प्रत्यारे मनु पवन पाय छे तो तेने ५पार्नु १२१ ५४. "लहुं च कोट्टागारं पविसंतु” तेने पडसामा पसी त २भा मरावी हो. " अपमहुक्कोसगा हम्मनु पोतसत्था " नाना, मध्यम श्रेणिना भने उत्तम श्रेलिना પિતસાર્થ-નાવમાં રહેલ જનસમૂહને મારી નાખે, અથવા નાના, મધ્યમ તથા भोटा-समस्त पक्षासमुदायने भारी ना. सेणाणिज्जाउ” माथी सेना प्र० ३० For Private And Personal Use Only Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे उपद्रवस्थानम् । 'घोरा संगामा बटुंतु ' घोरा संग्रामा वर्तन्तां भवन्तु ' जयंतु ' जयन्तु-विजयं प्राप्नुवन्तु च । 'सगडवाहणाइं य पत्रहंतु ' शकटवाहनानि च प्रवहन्तु-शकटानि गन्त्रः वाहनानि च नौकादीनि प्रवहन्तु-प्रचालयन्तु । उवणयणं चोलगं विवाहो जन्नो अमुगम्मिहोउ दिबसे सुकरणे सुमुहुत्ते सुनक्खत्ते सुतिहिम्मि य' तत्र ‘उवणयणं' उपनयनं-कलाग्रहणं 'चोलगं' चोलकं बालकानां प्रथम शिरोमुण्डनं, विवाहः पाणिग्रहणं प्रसिद्धं 'जन्नो' यज्ञः एतत्सर्वम् अनुगंमि'अमुकस्मिन् दिवसे मुकरणे करणानि एकादश, तत्र-यव-बालब-कौलव-तैत्तिल-गर-णिज विष्टयश्चैतानि सप्त करणाणि, शकुनि चतुष्पद नागकिंस्तुघ्नानि चत्वारि स्थिराणि, इत्येषामन्यतमकरणे शुभे ' सुमुहुत्ते' सुमुहूर्ते शोभने रौद्रादित्रिंशदन्यतमे 'मुनक्खत्ते' सुनक्षत्रे अश्विन्यादिषु शोभने पुष्पादिके 'सुतिहिम्मि' सुतिथौ नन्दादिषु अन्यतमे ' होउ' भवतु । तथा ' अज' अद्य अस्मिन्नहनि ‘होउण्हवणं' भवतु स्नपन सौभाग्यसन्ततिसमृध्यर्थं वधादेः स्नानं प्रतिकास्नानं च। किंभूत ? ही पक्षि समुदाय को नष्ट कर दो । (सेणाणिज्जाउं) सेना यहांसे निकले और निकल कर उपद्रवग्रस्त स्थान पर जावे (घोरा संगामा वदंतु जयतु) वहां घोर संग्राम वह करें और विजयश्री को पायें ( सगडवाहणाई य पवहंतु ) शकट-गाड़ी और वाहन-नौका आदि वे चलावें, ( उवणयणं चोलगं विवाहो जन्नो अमुगम्मि होउ दिवसे सुकरणे सुमुहुत्ते सुनक्खत्ते सुतिहिम्मिय) उपनयन(जनोइ)-कलाग्रहण, चोलक-प्रथम शिरोमुंडन, विवाह, यज्ञ ये सब अमुक दिवसमें, अमुक बवादि शुभकरण में, रौद्रादि तीस ३० मुहत्तों में, अमुक अच्छे मुहूर्त में अश्विनी आदि सत्तावीस नक्षत्रों में से किसी अमुक शुभ नक्षत्र में नंदा आदि तिथियों में से किसी अच्छी तिथि में होना चाहिये । तथा ( अज्ज होउण्डवणं ) आज सौभाग्य एवं सन्तति समृद्धि के निमित्त वधू ( वहु ) आदि का स्नान नाणे मने तो।नवा विस्तारमा लय " घोरा संगामा वटुंतु जयंतु " त्यां ते लय'४२ युद्ध ४२ मने विन्य प्राप्त ४२. “सगडवाहणाई य पवहंतु" श2-13. मने पाइन-नौ माहिते यावे, “उवणयणं चोलगं विवाहो जन्नो अमुगम्मि होउ दिवसे सुकरणे सुमुहुत्त सुनक्खत्त सुतिहिम्मिय " उपनयनકલાગ્રહણ, ચિલક-પ્રથમ વાળા ઉતરવાની ક્રિયા, વિવાહ, યજ્ઞ એ સઘળું અમુક દિવસે, અમુક બવાદિ શુભ કરણમાં, રૌદ્રાદિ ત્રીસ (૩૦) મુહૂર્તોમાંના અશ્વિની આદિ સત્તાવીસ નક્ષત્રમાંના કેઈ શુભ નક્ષત્રમાં, નંદા આદિ તિથિयांमांनी ४ शुल तिथि थ . तथा “ अज्ज होउण्हवणं" सारे સૌભાગ્ય અને સંતતિ સમૃદ્ધિને માટે વધૂ (વ) આદિને સ્નાન કરાવવું જોઈએ, For Private And Personal Use Only Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुवशिनी टीका अ० २ सू० १४ मृषावादिना जीवघातकवचननिरूपणम् २३५ मित्याह-मुदितं-हर्षसहितं 'बहुखज्जपेजकलियं' बहुखाद्यपेयकलित-बहु-प्रचुरं खाद्यं = भोज्यं मोदकमांसादिकं पेयं मदिरादिकं तेन कलिन-युक्तम् । तथा 'कोउगविण्हावणसंतिकम्माणि कुणह ससिरविगहोवरागविसमेसु सजणस्स परिजणस्स य निययस्स य जीवियस्स य परिरक्खणटाए ' तत्र कौतुकविस्नापनशान्तिकर्माणि =कौतुकं सौभाग्यवृद्धयर्थ दृष्टिदोषनिवृत्त्यर्थ च रक्षापोट्टलिकादोरकादिबन्धन, विस्नापन-विविधैर्मन्त्रौषधादिभिः संमिलितजलैः, स्नापनं शान्तिकर्म च-होमजपादिकमित्येतानि 'सजणस्स' स्वजनस्य आत्मीयजनस्य पुत्रादेः 'परिजणस्स' परिजनस्य च दासदास्यादेश्य पुनः 'निययस्स य' निजकस्य च-स्वस्य ' जीवियस्स' जीवितस्य ' परिरक्वणट्टयाए ' परिरक्षणार्थाय कदा ? इत्याह-'ससि रविगहोवरागविसमेसु ' शशिरविग्रहोपरागविषमेषु-शशिरव्योः तत्र चन्द्रसूर्ययोः ग्रहेण-राहुलक्षणेनोपरागः उपरञ्जनं ग्रहणमित्यर्थस्तेन विषमेषु-कष्टयुक्तेषु दिवसेषु अथवा शशिवि एव नवग्रहेषु मध्ये ग्रहौ तयोरुपरागः-तनुधनादिकष्टकरस्थानेषुहो, अथवा प्रसूतिका का स्नपन हो । (मुदियं बहुखजपेजकलियं) उसमें बडा हर्ष मनाया जावे, अनेक प्रकारके खाद्य-मोदक मांस आदि भोज्य, एवं मदिरा आदि पेय (पीने योग्य) पदार्थ रहें। तथा (कोउगविहावणसंतिकम्माणि) सौभाग्यवृद्धिके निमित्त एवं दृष्टिदोष की निवृत्ति के अर्थ रक्षापोहलिका, दोरक आदिके बंधनरूप कौतुकको, अनेक प्रकार के मंत्रोंसे औषध आदिकोंसे मिश्रित जलसे स्नान करानेरूप विस्नापनको होमजपादिरूप शांति कर्मको तुम (मजणस्स परिज गस्स य निययस्मय जीवियस्स परिरक्षणढाए ) सब पुत्रादिरूप आत्मीयजन की, दासीदास आदिरूप परिजनों को; तथा अपने जीवनकी रक्षाके अर्थ तथा जब (ससिरवि गहोवरागविसमेसु कुणह) चन्द्र और सूर्य जिन दिनों में राहु ग्रसित हो रहे हों उन दिनों में करो' अथवा इन कौतुक विस्नायन, एव शांतिकर्मों मथा प्रसूतिने भा२८ स्नान ४२२१ मध्ये “ मुदियं बहुखज्जपेज्जकलियं" તે પ્રસંગે ખૂબ આનંદ મનાવે જોઈએ-અનેક પ્રકારનાં ખાદ્ય-લાડુ, માંસ આદિ सोन्य, मने महि माहि पेय पदार्थानी व्य१२५॥ थवी त “ कोउग विण्हावणसंतिकम्माणि" सौभाग्य वृद्धिने निमित्त. मने दृष्टिहीपना निवाराने માટે રક્ષાપટ્ટલિકા, દેરી આદિના બંધનરૂપ કૌતુક, અનેક પ્રકારના મંત્રથી. ઔષધો આદિથી મિશ્રિત જળથી સ્નાન કરવારૂપ વિસ્તાપન, હેમ જપાદિ રૂપ शांति भी, तमे “ सजणस परिजणस व निययरस य जीवियस परिरक्खगट्टाए" पुत्राहि ३५ मात्भीय सननी, हास हासी माह ३५ परिसनानी तथा चाताना वननी रक्षाने भाटे न्यारे “ससिरविगहोवरागावेसमेसु कुणह" For Private And Personal Use Only Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे स्थितिः, तथा विपमाणि च दुःस्वप्नादीनि, तेषु शान्त्यर्थ करेह ' कुरुत । तथा 'पडिसीसगाई :च देह ' प्रीतिशीर्षकागि च दत्त-पिष्टनिर्मितस्वशिरःप्रतिरूपकाणि च महाकाल्यादिभ्यो दीयन्तां-युष्माभिरिति वदन्ति । तथा 'देह य सीसोवहारे विविहोसहिमज्जमंसभक्खन्नपाणमलाणुलेषणपईवजलिउज्जलसुगंधधूवोवयारपुप्फफलसमिद्धे ' दत्त च शोर्पोपहारान् विविधौषधिमद्यमांसभक्ष्यानपानमाल्यानुलेपनप्रदीपज्वलितोज्ज्वलसुगन्धधूपोपचारपुष्पफलसमृद्धान , तत्र विविधाः औषधयश्च मद्यमांसानि च भक्ष्याणि च अन्नानि पानानि च माल्यान्यनुलेपनानि च तानि, प्रदीपाश्च ज्वलितोज्ज्वलाश्च-आरार्तिक्याद्याः, तथा-सुगन्धाः शोभनगन्ध को स्वजनादि को रक्षा के लिये उस समय करो जय नवग्रहों में चन्द्र सूर्य ये दो ग्रह तनु धन आदि कष्ट कर स्थानों में स्थिति हों, और दुःस्वप्न आदि विषम चीजों का अवलोकन हुआ हो । तथा (पडिसीसगाइं च देह ) तुम लोग पिष्ट निर्मित अपने २ प्रतिनिधिरूप शिरोंको महाकाली आदि देवियों के लिये बलि रूप में दो, अर्थात् शांति आदि के निमित्त अपने शिर के जैसा शिर आटे का बनाकर काली आदि देवियों के समक्ष बलिरूप में चढाओ, इस प्रकार मृषावादीजन कहते हैं। तथा ( देह य सीसोवहारे ) पशु आदि के शिरों को चढाओ, जब तुम लोग पशु आदि के शिरों को काली देवी के लिये भेट में प्रदान करो उस समय (विविहोमहिमजमस मक्खन्नपाणमल्लाणुलेवणपई वजलिउज्जलसुगंधधूवोवयारपुष्फफलसमिद्धे ) विविध प्रकार की औषधियों से, मथमांसरूप भक्ष्यानपान से, माल्यों से, अनुलेपनों से, ચન્દ્ર અને સૂર્ય જે દિવસે એ રાહુથી ગ્રસિત થાય તે દિવસેએ કરે. અથવા તે કૌતુક, વિનાપન, અને શાન્તિકર્મોને સ્વજનાદિની રક્ષાને માટે તે સમયે કરે કે જ્યારે નવગ્રહોમાંના ચન્દ્ર અને સૂર્ય એ બે ગ્રહે તન, ધન આદિ કષ્ટકારી સ્થાનમાં રહેલ હોય અને દુઃસ્વપ્ન આદિ વિષમ ચીજો જોવામાં मावती डाय. तथा " पडिसीसगाई च देह " तमे सो पिट निमित पोत પિતાના પ્રતિનિધિ રૂપ મસ્તકેનું મહાકાળી આદિ દેવીઓને બલિદાન દે, એટલે કે શાંતિ આદિ નિમિતે પિતાના મસ્તક જેવું લેટનું બનાવેલું મસ્તક કાળીકા દેવીઓને બલિદાન રૂપે અર્પણ કરે, એ પ્રમાણે મૃષાવાદી લેકે કહે छ. “ देह य सीसोवहारे" ५४ माहिना भरत यावा. न्यारे ५४ माहिना भस्ती :ult वान भाट मप ४२॥ त्यारे “ विविहोसहिमज्जमंस भक्खन्नपाणमल्लाणुलेवणपईवजलिउज्जलसुगंधधूवोवयारपुप्फफलसमिद्धे ” विविध પ્રકારની ઔષધિથી, મધમાંસ રૂપ ભઠ્યાન્ન અને પીણાંથી, માળાએથી For Private And Personal Use Only Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ0 २ सू. १४ मृपावादिनां जीवघातकवचननिरूपणम् २३७ सम्पन्ना ये धूपाः-गुग्गुलादयस्तेषामुपचारः = अङ्गारे प्रक्षेपणं तथा पुष्पाणि च फलानि च तैः समृद्धान परिपूर्णान शीर्षोपहारांश्च पश्वादिशिरोवलीन् दत्त देवादिभ्यः । तथा 'पायच्छित्ते करेह पणाइवायकरणेण बहुविहेण विवरीउप्पायदुस्सुविणपावसउण असोम्मन्गहचरिय अमंगलनिमितपडिघायहेउं ' प्रायश्चित्तानि कुरुत-विपरीतोत्पा. तदुःस्वप्नपापशकुनासौम्यग्रहचरितामंगलनिमित्तप्रतिघातहेतु-तत्र विपरीता ये उत्पाताः अशुभसूचकाः धूम केलादयः दुस्स्वप्नाश्च-अस्थिसञ्चयगर्दभारोहणादि स्वप्नदर्शनरूपाः पापशकुनाः प्रसिद्धाः असौम्यग्रहचरितं-क्रूरग्रहदशा, अमङ्गलनिमित्तानि-अङ्गस्फुरणादीनि तेषां प्रतिघातहेतु-निवारणनिमित्तं बहुविधेन=नानाप्रकारेण प्राणातिपातकरणेन-पाणिहिंसया प्रायश्चित्तानि कुरुत । 'वित्तिच्छेयं करेह' वृत्तिच्छेदं कुरुत-जीविकाविनाशं कुरुत, इति किमपि निमित्तादिकमुपादाय ब्रुवन्ति 'मादेह किंचिदाण'मादत्त किश्चिदानं 'सुदृहओ २' मुष्टुहतः सुष्टुहतः-मुष्टु-शोभजलते हुए उज्ज्वल आरतीरूप दीपकों से, तथा शोभनगंध से संपन्न गुग्गुल आदि धूपों के उपचार से, एवं पुष्षों और फलों से परिपूर्ण वह भेट होनी चाहिये। तथा ( विवरीउप्पायदुप्प्तुविणपावसउणअसो म्मग्गहचरियअमंगलनिमित्तपडिघायहे) अशुभस्मृचक धूमकेतु आदि विविध विपरीत उत्पात, अस्थिसंचय, गर्दभारोहण आदि दुस्स्वप्न, खोटे २ शकुन, क्रूर ग्रहदशारूप असौम्यग्रहचरित, अमंगल के निमित्तभूत अंगस्फुरण आदि इन सबके निवारणके लिये ( बहुविहेण पाणाइवायकरणेण पायच्छित्ते करेह ) अनेक प्रकार से प्राणिहिंसा करो, इसीसे इन सबका प्रायश्चित्त होगा। (वित्तिच्छेयं करेह ) हरेक व्यक्ति की जीविका का विनाश करो । ( मा देह किंचिदाणं) किसी को भी અનુપનથી, જલતાં તેજસ્વી આરતીના દીપકેથી તથા સુંદરગધ વાળા ગુગળ આદિ ધૂપથી અને પુષ્પ અને ફળેથી પરિપૂર્ણ તે બલિદાન હોવું જોઈએ. तथा “विवरीउप्पायदुस्सुविणपावसउणअसोम्मग्गहचरियअमंगलनिमित्त पडिघायहेउ” અશુભ સૂચક ધૂમકેતુ આદિ વિવિધ વિપરીત ઉત્પાત, અથિ સંચય, ગભારેહણ આદિ દુન, અશુભ શકુન દૂરગ્રહદશારૂપ અસૌમ્ય ગ્રહચરિત અમંગ થવાના નિમિત્તરૂપ અંગ ફરકવું આદિ અમંગળ બનાवाना निवाणु ने भाटे " बहुविहेण पाणाइवायकरणेण पायच्छित्ते करेह ” भने ५४ारे प्राणीडिंसा ४३१, तेथी ते १५ जानु निवा२१ . “ वित्तिच्छेयं करेह " १२४ व्यतिनी माविन विनाश । “ मादेह किंचिदाणं " For Private And Personal Use Only Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २३८ प्रश्नव्याकरणसूत्रे नतया हतो दुष्टः, अत्र संभ्रमे द्वित्वम्' तथा 'खुद्द छिन्नो भिन्नो सुष्ठु छिन्नो भि नश्च स दुर्जनेन इति पूर्वोक्तप्रकारैः 'उवदिसंता' उपदिशन्तः = कथयन्तः 'एवं विह' एवंविधं स्वरूपतः सत्यमपि प्राणिनां हिंसाकारणत्वात् परिणामतोऽलीकं 'मणेणं, वायाए कम्मुणा य' मनसा - वचसा कर्मणा च त्रिधा 'अलीयं ' अलीकम् = असत्यं ' करेंति ' कुर्वन्ति भाषन्ते इत्यर्थः कीदृशास्ते अलीकभाषिणः ? इत्याह ' अकुसला' अकुशलाः = भाषासमितिविकलाः 'अणज्जा' अनार्याः कलेच्छाः कुछ भी दान मत दो। ( सुहओ सुछिण्णो भिण्णिोत्ति) 'तुमने उस दुष्ट को अच्छा मारा, बहुत अच्छा किया जो उसे छिन्न भिन्न कर डाला | ( ति ) इस पूर्वोक्त प्रकार से ( उवदिसंता) दूसरों के प्रति कहते हुए मृषावादी जन ( एवं विहं ) यद्यपि स्वरूप की अपेक्षा अपने वाच्यार्थ से संबंधित होने के कारण - सत्य होने पर भी प्राणि हिंसा के कारण होने से असत्यवाणी को (मणेणं वायाए कम्मुणा ) मन से, वचन से और काय से, (अलियं करेंति) अलोक - झूठ बोला करते हैं। तात्पर्य इसका यह है कि अपने अभिधेय (वक्तव्य ) से असंबंधित वाणी ही मृषास्वरूप नहीं है किन्तु जिस सत्यवाणी से पर प्राणियों को कष्ट हो आपत्ति में पड़ जाना पड़े उनके प्राणों की हिंसा आदि हो जावे वह वाणी भी असत्य ही है। ऐसी वाणी केवल वचनयोग की अपेक्षा से ही असत्यरूप नहीं मानी जाती है किन्तु वह मन और काय इन अंगों की अपेक्षा भी असत्य मानी जाती हैं । इस तरह की असत्यवाणी का जो (अकुसला) 77 अर्थ नेपा हान न आयो " सहओ सुहुछिण्णो भिण्णोत्ति ” “ तभे તે દુષ્ટને માયા તે ઠીક કર્યું, તેને છિન્ન ભિન્ન કરી નાખ્યા તે ઘણુ સારૂ अयु " "त्ति " मा पूर्वोत अरे" उवदिसंता " जीलने हेत ते असत्य ખેલનારા લોક " एवं विहं " ने स्वपनी अपेक्षा पोताना पायार्थ સાથે સાથે સંબંધિત હોવાને કારણે-સત્ય હોવા છતાં પણ પ્રાણી હિંસાના अरशु ३५ होवाथी असत्यवादीने “ मणेणं वायाए कम्मुणा ” भनथी, वयनथी अने अर्थथी " अलियं करेति " मसी-असत्य मोहया उरे छे- तेनु तात्पर्य એ છે કે પેાત.ના અભિધેયથી અસ’બધિત વાણી જ મૃષાવાદ રૂપ નથી પણ જે સત્ય વાણીથી ખીજા પ્રાણીએને કષ્ટ થાય, આપત્તિમાં મૂકાવુ પડે, તેમનાં પ્રાણાની હિંસા આદી થાય, તે વાણી પણ અસત્ય જ છે. એવી વાણી કેવળ વચનયાગની અપેક્ષાએ જ અસત્યરૂપ માનવામાં આવતી નથી પશુ તે મનચાગ અને કાયયેાગની અપેક્ષાએ પણ અસત્ય મનાય છે. આ પ્રકારની અસત્ય बाली ने " સમિતિથી રહિત જીવા હાય છે તથા ભાષા अलि. << " अकुसला For Private And Personal Use Only Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदशिनी टीका अ० २ सू०१४ मृषावादिना जीवघातकवचननिरूपणम् २३१ 'अलियाणा ' अलीकाज्ञाः अलीका आज्ञा-आगमो येषां ते तथा ' अलियधम्मनिरया' अलीकधर्मनिरताः असद्धर्मपरायणाः 'अलियासु कहासु' अलीकासु आत्मगुणहानिकरासु कथासु अभिरमन्तः प्रसीदन्तः 'बहुप्पगारं ' बहुप्रकारम् 'अलियं करेउं' अलीकं कृत्वा-भाषित्वा 'तुट्ठा' तुष्टाः प्रसन्ना भवन्ति ॥मू०१४॥ भाषा समिति से रहित प्राणी होते हैं तथा ( अलियाणा) जिनका आगम भी असत्य होता है जो ( अलियधम्मनिरया ) असत्य धर्म में निरत रहते हैं, तथा ( अलिपासु कहासु अभिरमंता ) आत्मगुण हानि कराने वालो कथाओं में जिनका मन मोद पाता है ऐसे अनार्यजन (बहुप्पगारं अलियं ) इन विविध प्रकारके अलीक वचनों को ( करेउं तुट्ठा) बोलकर वे भविष्यमें पश्चात्ताप नहीं करते हैं प्रत्युत (उलटे)प्रसन्न होते हैं। ___भावार्थ-मूत्रकारने इस सूत्रद्वारा यह प्रकट किया है कि जो प्राणी असत्यभाषण करनेमें ही आनंद मानता है वे किस प्रकारसे बैठे बैठे दूसरे जनोंको प्राणिहिंसा वर्धक कार्यों में उकसाया करते हैं, जब ये किसीको शालिकी खेतीको पकी हुई देख लेते हैं तो उसके मालिकको चाहे वह माने या न मानें सलाह देते हैं-तुम्हारी यह खेती पक चुकी है, तुम बैठे २ क्या करते हो ? क्यों नहीं जल्दी से जल्दी इसे काटकर और दाय (गाहटा ) करके साफमूफ कर अपने घरमें भरकर रख देते हो ? । इसे तो भंडार में भर कर रखनेमें ही लाभ है । ये वणिक जन बड़े स्वार्थी होते हैं-बाहर परदेशमें नौकाओं से यात्रा कर खूब कमाई याणा" भन! माराम पशु असत्य होय छे. 2 “अलिय धम्मनिरिया" असत्य धर्मभा सीन २९ छ, था “ अलियासु कहासु अभिरमंता" :मात्मण હાનિ કરાવનાર કથાઓમાં જેમનું મન આંનંદ પામે છે એવા અનાર્યજન “बहुप्पगार अलियं” ये विविध प्रकार मास४ क्या " करेउ तुद्रा" બોલીને ભવિષ્યમાં પશ્ચાત્તાપ કરતા નથી પણ રાજી થાય છે. ભાવાર્થ–સૂત્રકારે આ સૂત્ર દ્વારા એ પ્રગટ કર્યું છે કે જે જીવે અસત્ય બોલવામાં જ આનંદ માને છે જેઓ બેઠાં બેઠાં કઈ રીતે અન્ય જીવોને પ્રાણિહિંસા વર્ધક કાર્યો કરવાને ઉશ્કેરે છે. જ્યારે તે કોઈના ખેતરમાં શાલિ ડાંગરને પાક તૈયાર થયેલ જુવે છે ત્યારે તે તેના માલિકને તે માને કે ન માને છતાં પણ તે સલાહ આપે છે કે આ ડાંગર પાકી ગઈ છે. તમે બેસી કેમ રહ્યા છે? તેને જલ્દી કાપીને, ખળું કરીને, ઉપણીને શા માટે ઘરમાં ભરી લેતા નથી? તેને ઘરમાં કારમાં જ ભરી રાખવી હિતાવહ છે. આ વેપારીઓ ભારે સ્વાર્થી હોય છે. વહાણમાં પરદેશની સફર કરીને તેઓ For Private And Personal Use Only Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४० प्रश्नव्याकरणसूत्रे करते हैं और फिर बैठे २ खाते हैं, एक अपनलोग हैं जो रात दिन परिश्रम करके भी उदरपूर्ति के लायक साधन सामग्री नहीं जुटा पाते हैं, अतः अच्छा हो इन सबको जब ये नौकाओं द्वारा बाहर जाने लगें तब इनको नष्ट कर दिया जावे । पक्षि समृह भी खेती आदिका बहुत नुकसान करते है अतः इन्हें भी मार डालो। अमुक जगह पर बड़ा भारी उपद्रव इस समय हो रहा है, सेना वहां जावे और उपद्रवका रियोंको नष्ट कर वहांसे विजयश्री प्राप्तकर लौट आवे तो बहुत अच्छी बात है । इस तरह फिर झगड़ा करनेवाले लोग अपना माथा भविष्यमें ऊँचा नहीं उठा सकेंगे। यदि तुम्हारे पास व्यापार आदिसे इस समय कोई आय (आमदानी)का साधन नहीं है तो गाड़ी वाहन आदिको भाडेपर क्यों नहीं चलाते हो चलाओ, इस से ही तुम्हें लाभ होगा देखो उपनयन(जनोइ), चोलक, विवाह यज्ञ आदि जितने भी ये शुभ कृत्य हैं वे ऐसे ही थोड़े किये जाते हैं, इन्हें तो अमुक शुभ दिवसमें, अमुक तिथिमें, यवादि ग्यारह करणों से अमुक शुभ करण में एवं अमुक शुभमुहूर्त आदिमें किया जाता है, इसलिये भाई ! तुम्हें ऐसा मौका आवे तब तुम इन कृत्यों को शुभ दिवस आदिमें करना । देखो घरमें यह नवीन वह्न ખૂબ નાણું કમાય છે, અને પછી બેઠાં બેઠાં ખાય છે. આપણે જ એવા છીએ કે જે રાત દિનપરિશ્રમ કરવા જતાં પણ ભરણપોષણને લાયક વસ્તુ પ્રાપ્ત કરી શકતા નથી, તે તે બધા જ્યારે નૌકાઓમાં સફર કરતા હોય ત્યારે તેમને નાશ કરવામાં આવે તે ઘણું સારું થાય પક્ષિગણ પણ ખેતીના પાકને ઘણું જ નુકશાન કરે છે, તે તેમને પણ મારી નાખે. અત્યારે અમુક જગ્યાએ ભારે તેફાન ચાલે છે. ત્યાં લશ્કર જાય અને તોફાનીઓની કતલ કરીને ત્યાંથી વિજય પ્રમ કરીને પાછું આવે તે બહુ જ ઈચ્છનીય છે. આમ કરવાથી તેફાની માણસે ભવિષ્યમાં કદી પણ રાજ્ય સામે માથું ઊંચકશે નહીં. જો તમારી પાસે વ્યાપાર આદિ આવકનું કઈ પણ સાધન ન હોય તે ગાડી, વાહન આદિને ભાડે કેમ ચલાવતા નથી? તે સાધને ભાડે ચલાવશો તે તમને લાભ થશે. ઉપનયન, ચોલક-મેવાળા ઉતરાવવાની ક્રિયા, વિવાહ, યજ્ઞ આદિ જે શુભ કર્યો છે તે એમને એમ થેડાં થાય છે ! એ શુભ તે અમુક શુભ દિવસોએ અમુક શુભ તિથિએ, બવાદિ અગ્યાર કરણેમાંથી અમુક શુભ કરણમાં. અને અમક શભ મહત આદિમાં કરવા જોઈએ. તે ભાઈ ! તમારે ત્યાં પણ એવો અવસર આવે ત્યારે તમે પણ તે કૃત્ય શુભ દિવસ આદિમાં કરે, જ! For Private And Personal Use Only Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० २ सू० १४ मृषावादिनां जीवघातकवचननिरूपणम् २४१ आई है-प्रथम समय जब इसका स्नान करनेका हो तय वह शुभ घड़ी आदिमें ही कराना, इससे इसका सौभाग्य सन्तति एवं समृद्धिकी वृद्धि होगी। इसी तरह प्रमूतिका का जब स्नान करानो हो तब भी इन सब बातों का ध्यान रखना । शुभ कृत्यों को करते समय इस बात का भी पूरा २ ख्याल रखना चाहिये कि उस समय चित्तमें किसी प्रकारकी ग्लानिका भाव न जगने पावे, हर्षविभोर (हर्षमग्न ) बन कर ही सब काम किश करो। खूब ठाटबाटसे मद्य, मांसादिकों का उपयोग करो। कौतुक, विस्नापन्न, तथा शांतिकर्म आदि सत्कृत्य अपने जीवन आदि की रक्षा के लिये शशि सूर्यग्रहों पर जब २ राहुद्वारा आक्रमण हो तब २ अवश्य करो । काली आदि देवियों की प्रसन्नता संपादन करनेके लिये बड़े आनन्दके साथ पिष्ट से अपने मस्तककी आकृति बना कर उनके समक्ष बलि चढाया करो । तथा पशुबलि भी चढाओ, बलि चढाते समय खूब उत्सव मनाओ। उनकी आरती उतारो, उस उत्सवमें इच्छानुसार विविध औषधियोंका, वाजीकरण आदि दवाईयोंको भक्ष्यानपान माल्यानुलेपन आदि का खूब उपयोग करो । मानवजीवनका यह ઘરમાં નવવધૂ આવી છે, તેને જ્યારે સૌથી પહેલી વખત સ્નાન કરવાનું આવે ત્યારે તે શુભ ઘડિ આદિમાં કરાવવું જોઈએ. તેમ કરવાથી તેનું સૌભાગ્ય સંતતિ અને સમૃદ્ધિ વધશે- એ જ પ્રમાણે પ્રસૂતિકાને પણ જ્યારે સ્નાન કરાવવાનું હોય ત્યારે પણ આ બધી બાબતોનું ધ્યાન રાખવું જોઈએ. શુભકૃત્ય કરતી વખતે તે વાતની પણ પૂરે પૂરી કાળજી રાખવી કે ત્યારે ચિત્તમાં કોઈ પણ પ્રકારની ગ્લાનિને ભાવ ન જાગે, હર્ષવિભેર થઈને જ સઘળાં કામ કર્યા કરો. ખૂબ ઠાઠ માઠથી માંસ મદિર આદિને ઉપયોગ કરે. જ્યારે જયારે સૂર્ય ચન્દ્ર પર રાહુનું આક્રમણ થાય-ચન્દ્ર કે સૂર્ય ગ્રહણ થાય ત્યારે પોતાના જીવન આદિની રક્ષાને માટે કૌતુક, વિનાપન, શાંતિકર્મ આદિ સત્કૃત્યે અવશ્ય કરે. કાલીકા આદિ દેવીને પ્રસન્ન કરવા માટે ઘણા આનંદ પૂર્વક લેટથી પિતાના મસ્તક જે આકાર બનાવીને તેમને બલિ આપ્યા કરે, તથા પશુએનું બલિદાન પણ આપ, અને આ બલિ અર્પતી વખતે ખૂબ ઉત્સવ મનાવો. તેમની આરતી ઉતારે, તે ઉત્સવમાં ઈચ્છાનુસાર વિવિધ ઔષધિયે, વાજીકરણ આદિ દવાઓને, ભાપાન, ફૂલની માળાઓને અને અનુલેપનેને ખૂબ ઉપયોગ કરે. માનવ જીવનને આવો સમય વારંવાર થડે જ મળે છે? જ્યારે અશુભસૂચક ધૂમકેતુ આદિ ગ્રહ દેખાય ખરાબ સ્વપ્ન આવે, ખરાબ प्र० ३१ For Private And Personal Use Only Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे एतावता 'यथाकृत' इति तृतीयद्वारं 'येऽपि च-कुर्वन्ति ' इति पञ्चमद्वार च मिलितमुक्तम् । अथ 'जारिसं फलं देह' इत्यलीकवचनस्य चतुर्थ फलद्वारमाह मूलम्-तस्स य अलियस्स फलविवागं अयाणमाणा वड्डेति महन्भयं अविस्सामवेयणं दीहकालबहुदुक्खसंकडं, णरयतिरियजोणिं, तेण य अलिएण समणुबद्धा आइटा पुणब्भबंधयारे भमंति भीमे दुग्गइवसहि मुवगया ते यदीसंति इह दुग्गया दुरंता परवसा अत्थभोगपरिवज्जिया असुहिया फुडियच्छवीबीभच्छविवण्णा, खरफरुसविरत्तज्झामझुसिरा निच्छाया लल्लविफलवाया असकयमसकया अगंधा अचेयणा दुब्भगा अकंता काकस्सरा हीणभिन्नघोसा विहिंसा जडबहिरमूया य मम्मणा अकंतविकयकरणा णीया णीयजणणिसेविणो लोगगरहिणिज्जा भिच्चा असरिसजणस्स पेस्सा दुम्मेहा लोगवेदअज्झप्पसमयसुइवजिया समय बार २ थोड़े ही मिलता है । जब अशुभसूचक धूमकेतु आदि ग्रह हों, दुःस्वप्न आते होवे, अशुभ शकुन हों, क्रूर ग्रहों की दशावर्त रही हो, अमंगलजनक निमित्त होवें तो ऐसी स्थितिमें इनकी अशुभता दूर करने के लिये प्राणियोंकी हिंसा प्रायश्चित्त करो । देखो-उसने अपने शत्रु को अच्छा किया जो मार दिया। उसे अच्छा छिन्नभिन्न किया । इत्यादि पाणि प्राणपीडक वचनों को मृषावादी बोलते हैं और आनंदमग्न बनते हैं । सू० १४॥ શુકન થાય, કૂરગ્રહોની દશા બેઠી હોય, અને અમંગળ જનક નિમિત્તે જણાય ત્યારે તેમની અશુભતા દૂર કરવાને માટે પ્રાણીઓની તહિંસા દ્વારા પ્રાયશ્ચિત્ત કરે. જુવે ! તેણે તેના શત્રુને મારી નાખે તે સારું થયું તેને છિન્ન ભિન્ન કર્યો તે સારું કર્યું.” ઈત્યાદિ પ્રાણ પ્રાણપીડક વચને તે મૃષાવાદી બેલે છે અને तमा मान मनुमवे छ. ॥ सू-१४ ॥ For Private And Personal Use Only Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ०२ सू०१५ मृषावादिनां नरकादिप्राप्तिरूपफलनिरूपणम् २४३ नरा धम्मबुद्धिवियला अलिएण य तेणय डज्झमाणा असंतएणं अवमाणणपिट्ठिमंसाहिक्खेवपिसुणभेयणगुरुबंधवसयणमित्ताऽवक्खारणाऽऽई अन्भक्खाणादियाई बहुविहाई पावंति, अमणोरमाइं हिययमणदूमगाइं जावज्जीवं दुरुद्धराई, अणिमुखरफरुसवयणतज्जणनिभच्छणदीणवदणविमणा कु. भोयणाकुवासप्ता, कुवसहीसु किलिस्संता नेव सुहं नेव निव्वुई उवलभंति अच्चंत विउल दुक्खसय संपलित्ता॥ सू० ॥१५॥ टीका-' तस्स य ' तस्य च ' अलियस्स' अलीकस्य मृपावादस्य-द्वितीयास्रवद्वारस्य 'फलविवागं' फलविपाक-फलपरिणामं 'अयाणमाणा' अजानन्तः 'महन्मयं ' महाभयां महद्भयं यस्यां सा तथा 'अविस्सामवेयणं' अविश्रामवेदनाम्-निरन्तरपीडां. 'दीहकालबहुदुक्खसंकडं' दीर्घकालबहुदुःखसंकटां-दीर्घकालं= पल्यसागरणमाणां यावत् विविधदुःखसंकुला 'णिरयतिरियजोणि नरकतिर्यग्योनि इस तरह यहां तक सूत्रकार ने अलीक भाषणका व्याख्यान "यथा कृत" इस तृतीय द्वार से तथा “येऽपि च कुर्वन्ति" इस पंचम द्वारसे मिलितरूप में किया । अब "जारिसं फलं देह" इस चतुर्थ द्वारसे वे इसका विवरण करते हैं-' तस्स य' इत्यादि। टीकार्थ-(तस्स य अलियस्म) उस मृषावादरूप द्वितीय आस्रवद्वारके (फ़लविवागं ) फलरूप विपाक को (अयाणमाणा) नहीं जानते हुए. मृषावादीजन (महाभयं ) अत्यंत भयवाली ( अविस्सामवेयणं ) निरन्तर वेदनावाली तथा (दीहकालबहुदुक्खसंकडं) पल्य तथा सागरोपम प्रमाण काल तक विविध प्रकारके दुःखोंवाली ऐसी (निरयतिरियजोणिं ) नरक या रीते मही सुधी सूत्रअरे मी भानुं व्याभ्यान “ यथाकृत" से alon Rथी तथा “येऽपि च कुर्वन्ति " को पांयम द्वारथी मे रीत ४यु. वे “जारिसं फलं देइ” से याथा बाथी ते ते न दे छे “ तस्स य” त्यादि साथ-" तरस य अलियस्स" ते भृषावा ३५मा मास द्वा२॥ “फलविवाग" ३७१३५ qिाने “ अयाणमाणा" नाता ते ते भृपावादी हो। “महब्भयं " अत्यत मय'२ " अविस्सामवेयणं " निरंतर वेदनामय तथा “ दीहकालबहु. दुक्खसकडं ” ५६५ तथा सागरोयम प्रभाए सुधा विविध २ मा For Private And Personal Use Only Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकणसूत्रे -नरकतिर्यग्योनिः संख्याऽसंख्यकालप्रमाणा, वनस्पत्यपेक्षयाऽनन्तकालप्रमाणा, तत्रोत्पत्तिरूपा वडति ' वर्धयन्ति, ' तेण य अलिएग' तेन चालीकेन असत्य भाषणकर्मणा 'समणुबद्धा' समनुबद्धाः वन्धं प्राप्ताः 'आइट्टा' आविष्टाः आश्लिष्टाः 'पुणब्भवंधयारे ' पूर्वभवान्धकारे = पुनः पुनर्जन्मैवान्धकारस्तस्मिन् भीमे-भयंकरे ' भमंति' भ्रमन्ति-मृषाभापिणो जीवाः जन्मजरामरणयोरनिविड़दुःखान्धकारकान्तारे निपतिताः सन्तो विविधानि कष्टान्यनुभवन्तीत्यर्थः । तथा कथंचित् इह मनुष्यलोके समुत्पन्ना अपि 'दुग्गइवसहिग्लुवगया' दुर्गतिवसतिमुपगता क्लेशबहुलस्थितिं प्राप्ता 'दीसंति ' दृश्यन्ते । अयं भावः-मृषाभाषिणो नरकतिर्यग्योनिषु समुत्पद्यन्ते । अथ कथचिन्नरकादितो निस्सृत्य मनुष्यशरीरं तथा तिर्यच योनिको (वति) बढाते हैं । अर्थात् मृषावादी जन मृषाभाषणसे उत्पन्न पापों के उदयसे पल्यप्रमाणवाली तिर्यंच योनिको तथा उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम प्रमाणकालवाली नरकगतिको अपनी उत्पत्ति स्थान बनाते हैं । वहां वे संख्यात काल, असंख्यात काल एवं वनस्पति अपेक्षा अनंतकाल तक रहते हैं । ( तेण य अलिएण) उस अलीक भाषणकर्मसे (समणुबद्धा) बंध को प्राप्त हुए (आइट्ठा) क्षीर नीरकी तरह परस्पर एक क्षेत्रावगाहरूप संबंध से विशिष्ट हुए वे जीव (पुणभबंधयारे भीमे ) पुनः पुनः जन्मरूप भयंकर अंधकार में ( भमंति ) भ्रमण करते हैं । अर्थात् जो धावादी जन होते हैं वे जन्म, जरा, मरण रूप घोर गाढ अंधकारमें पतित हो कर विविध कष्टों को भोगा करते हैं । तथा (दुग्गइवसहिमुवगया तेय दीसंति) यदि वे कदाच किसी भी तरहसे इस मनुष्यलोकमें उत्पन्न हो जावें तो भी क्लेश बहुल स्थिति quil “ निरयनिरियजोणि" न२४ तथा तिय य योनिन “ वडति ” पधारे છે. એટલે કે મૃષાવાદી લેકે અસત્ય વાણીથી જનિત પાના ઉદયથી પલ્ય પ્રમાણવાળી તિર્યંચ નિને તથા ઉત્કૃષ્ટ તેત્રીસ સાગરોપમ પ્રમાણ વાળી નરકગતિને પિતાની ઉત્પત્તિનું સ્થાન બનાવે છે ત્યાં તેઓ સંખ્યાતકાળ, अस'च्यात भने वनस्पतिनी अपेक्षा मन सुधी २३ . “ तेण य अलिएण" ते असत्यमाप] माथी “समणुबद्धा धायेसा “ आइटा" इध અને પાણીની જેમ પરસ્પર એક ક્ષેત્રાવગાહરૂપ સંબંધી વિશિષ્ટ થયેલ તેજી "पुणब्भबंधयारे भीमे" श श्रीने भि सेवा ३५ सय ४२ ५५४२मां "भमंति" अभए, ४२ छे, मेसे, भूषावाही सोन्म , १२१, मन भ२९५३५ ॥ २५५४१२मा ५डीने विविध प्रष्टीने सोय! ४२ छ. तथा “ दुग्गइवसहिमुवगया तेच दीसंति" ने उहाय ते ५ ४२णे मनुष्य सोभा For Private And Personal Use Only Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनो टीका अ०२सू०१४ मृषावादिनां नरकादिप्राप्तिरूपफलनिरूपणम् २५५ प्राप्नुवन्त्यपिचेत् तर्हि हीनदीनतुच्छजातिकुलादिभिः अधन्या एव वक्ष्यमाणरूपेण दुःखबहुलशरीरं प्राप्ता दृश्यन्ते । कथंभूताः ? इत्याह- दुग्गया' दुर्गताः दुरवस्थां प्राप्ताः सर्वधा दरिद्रा-इत्यर्थः, दुरन्ताः दुःखेन अन्तः जीवनस्यावसानं येषां ते तथा 'परवसा' परवशाः पराधीनाः ‘अत्यभोगपरिवज्जिया' अर्थ भोगपरिवर्जिताः अर्था:-धनानि भोगाश्च-शब्दादयो विषयास्तैः परिवर्जिताःरहिताः । तथा ' अयुहिया' असुखिताः सुखरहिता - निरन्तरमाधिव्याध्यादि को प्राप्त हुए दृष्टिाय होते हैं। तात्पर्य इसका यही है कि मृपावादी जन नरक तिर्यच योनिमें जन्मते हैं। यदि वे किसी तरह नरकादिसे निकल कर मनुष्य भव को प्राप्त कर भी लेवें तो भी वहां वे हीन, दीन, तुच्छ जाति कुल आदि में ही जन्म धारण करते हैं और अधन्य होकर दुःख बहुल शरीर को धारण करते हुए दिखलाई देते हैं । यही बात सूत्रकार (दुग्गया) इत्यादि पदों द्वारा प्रकट कर रहे हैं, वे कहते हैं कि यदि वे किसी प्रकार मनुष्य पर्याय धारण भी कर लेवे तो भी वहां उनकी परिस्थिति ठीक नहीं रहती है-वे सदा ( दुग्गया ) दारिद्रयदुःख से सन्तप्त रहते हैं ( दुरंता) उनके जीवन का अन्त दुःखों से होता है ( परवसा) जीवन भर वे पराधीन बने रहते हैं। (अत्यभोगपरिव. ज्जिया ) अर्थ संपत्ति एवं शब्दादिक भोग पनसे, रहित होते हैं। ( असुहिया ) निरन्तर आधि, व्याधि, उपाधियों से पीडित रहने के कारण उन्हें सुख का अंश भी प्राप्त नहीं होता है । अथवा "अमुहिया" ઉત્પન્ન થાય છે તે પણ અત્યંત દુઃખયુક્ત સ્થિતિમાં નજરે પડે છે. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે મૃષાવાદી લેકે નરક તિર્યંચ નિમાં જન્મ લે છે, પણ તેઓ કોઈ પણ પ્રકારે નરકાદિમાંથી બહાર નીકળીને મનુષ્યભવને પ્રાપ્ત કરે તે પણ ત્યાં તેઓ હીન, દીન, તુચ્છ જાતિ કુળ આદિમાં જ જન્મ પામે છે અને અન્ય-તિરસ્કૃત થઈને અત્યંત દુઃખયુક્ત દશામાં મનુષ્ય જીવન વ્યતીત ४२ छ. २१ पात सूत्र.२ " दुग्गया" त्याहि हो द्वारा प्रगट ४२ छे. તેઓ કહે છે કે તેઓ કોઈ પણ પ્રકારે મનુષ્ય નિમાં જન્મ લે છે તે ત્યાં तेमनी (सत सारी खाती नथी-तेमा सहा “ दुग्गयो " हारिद्रयना मेथी पाडाय छ, ' दुरंता" तेमना नना मतमोथी । भावे छे, " परवसा ” मापन तेथे! ५२॥धीन शाग छ, “ अत्थभोगपरिवज्जिया" A-Aपत्ति तथा Availa थी तसा २डित डाय छे, " असुहिया" नि२. તર આધિ, વ્યાધિ અને ઉપાધિથી પીડાયા કરે છે અને તે કારણે તેમને સુખને म ५७ पास थ नथी, 424 “ असुहिया " नी सकृत छाया "असुहृदः " For Private And Personal Use Only Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४६ प्रश्नव्याकरणसूत्रे पीड़िता, अथवा--अमुहृदः मित्रादिहीनाः ‘फुडियच्छवी ' स्फुटितच्छवया कुष्ठादिभिर्गलितत्वचः 'वीमच्छविवण्णा' वीभत्सविवर्णाः बीभत्सः-चित्तोद्वेगगजनको विरूपो वर्णो येषां ते तथा गलितकुष्ठादिभिघृणाजनकशरीरवन्तः, 'खर फरुसविरत्तज्झामझुसिरा' खरस्पर्शविरक्तव्यामशुषिराः खरः कठोरः स्पर्शा येषां ते खरस्पर्शाः, तथा विरक्ताः चिन्ताऽक्रान्ताः ध्यामाः = कान्तिहीनाः शुपिराः निस्सारशरीरवन्तश्चेति ते तथा 'निच्छाया' नि छायाः = गतममाः 'लल्लविफलवाया' लल्लविफलबाचा लल्ला: अस्पष्टा:-देशीशब्दोयं अस्पष्टार्थवाचकः, अत एव विफलाः निष्फलावाचो येषां ते तथा व्यक्तवचनरहिता इत्यर्थः, 'असक्कयमसकया' असंस्कृताऽसंस्कृताः नास्ति संस्कृतं संस्कारो येषां तेऽसंस्कृता स्तेष्वप्यसंस्कृताः अत्यन्तसंस्काररहिता अतिमलिनशरीरा इत्यर्थः, अत एव अगंधाः -दुर्गन्धा दुर्गन्धदेहाः इत्यर्थः ' अचेयणा' अचेतनाः = विशिष्टचेतनाशून्याः की संस्कृत छाया " असुहृदः " ऐसी भी हो सकती है, इसलिये इसका तात्पर्य मित्रादिकों से वे हीन होते हैं ऐसा भी हो जाता है । ( फुडि. यच्छवी ) कुष्टादिक रोग से इनके शरीर की त्वचा गलित हो जाती है । (वीभच्छविवण्णा ) इनका विरूपवर्ण चित्त को उद्वेगकारी होता है, तथा गलित कुष्ठादिसे इनका शरीर घृणित होता है (खरफरुसविरत्तज्झाम. ज्झुसिरा ) इनका शरीर कठोर स्पर्श वाला होता है । ये सदा चिन्ताओं से रातदिन घिरे रहते हैं । कान्ति से हीन होते हैं । तथा इनके शरीर में कुछ भी सार-बल-नहीं होता है । (निच्छाया ) प्रभा इनकी चली जाती है (लल्लविफलवाया ) ये व्यक्त वचन रहित और निम्फल वचन वाले होते हैं ( असक्कयमसकया) मलिनों से भी ये ओर अधिक मलिन होते हैं ( अगंधा ) इसी कारण इनके शरीर में दुगंध आया करती है પણ થઈ શકે છે, તેથી તેને અર્થ એ પણ ઘટાવી શકાય કે તેઓ મિત્રાદિ विनाना हाय छ, “ फुडियच्छवी " आदि रोगाथा तेमना शरीरनी त्वया आनित us onय छ, “बिभच्छविवण्णा" तमना मे मा शित्तने ઉદ્વેગકારી થાય છે, તથા ગલિત મેઢ આદિથી તેમનાં શરીર પ્રત્યે લેકે ઘણાની न१२ मे छ. " खरफरुसविरत्तज्झामझुसिरा" तेमन शरीरन। २५० કઠોર હોય છે, તેઓ સદા ચિન્તાઓથી ઘેરાયેલા રહે છે, સૌર્ય રહિત હોય छ, तथा तेभनो शरीरमा मिस तत ती नथी, " निच्छाया" तेभर्नु ते यायुं तय छ, “ लल्लविफलवाया" ते! व्यत-२५ण्ट क्य- २डित भने नि वयन हाय . “ असकयमसक्कया" ते मसिनो ४२तां For Private And Personal Use Only Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ०२ सू०१५ मृषावादिनां नरकादिप्राप्तिरूपफलनिरूपणम् २१७ 'दुब्भगा दुर्भगा भाग्यहीनाः तथा 'अकंता' अकान्ता=अमनोज्ञाः ' काकस्सरा' काकस्वराः काकस्य स्वर इव कठोरः स्वरो येषां ते काकस्वराः नीरसवचनाः ' हीणभिन्नघोसा' हीनभिन्नघोषाः हीनः हस्वः भिन्नः गर्दभवत् त्रुटितः घोषः-स्वरो येषां ते तथा मन्दघुघुरितस्वराः 'विहिंसा' विहिस्याः जनस्ताडनतर्जनादिभिर्विशेषेण हिंस्यन्ते ये ते विहिंसकाः 'जडबहिरमूया' जडबधिरमूकाः जडा:-ज्ञानशून्या वधिराश्च श्रवणशक्तिविकलाः 'मम्मणा' मन्मना: अव्यक्तवचनाः ' अतविकयकरणा ' अकान्तविकृतकरणाः अकान्तानि-अमनोज्ञानि विकृतानि-विरूपाणि च करणानि इन्द्रियाणि चक्षुरादीनि येषां ते तथा विकृतेन्द्रिया इत्यर्थः, ' णीया' नीचाः नीचजातिकुलगोत्रादिभिरधमाः, ‘णीय जण( अचेयणा ) इनकी चेतना शक्ति विशिष्ट चेतना शक्ति से रहित होती है ( दुभगा ) ये भाग्य हीन होते हैं ( अकंता ) मनोज्ञ नहीं होते हैं ( काकस्सरा ) काक के स्वर जैसा कठोर-अरुचिकारक-इनका स्वर होता है और वे ( हीणभिन्नघोसा ) हीन हस्व, भिन्न-गधे के स्वर की तरह बीच २ में त्रुटित स्वरवाले होते हैं ( विहिंसा ) मनुष्य इनसे पीछे पड़कर इन्हें ताडन-तर्जन आदि द्वारा विशेषरूप से दुःखित करते रहते हैं ( जडबहिरमूया ) ये जड-ज्ञानशून्य, बधिर-अवण शक्ति विकल और गूंगे होते हैं (मम्मणा) इनके वचन स्पष्टरूप में मुख से नहीं निकलते हैं अर्थात्-बोलते समय तुतलाते अथवा हलकाते हैं । ( अकंतविकयकरणा) इनकी चक्षुरादिक इन्द्रियां अमनोज्ञ एवं विकृत रूप रहा करती हैं (णीया ) इनकी जाति, कुल एवं गोत्र आदि सब अधम होते हैं, ५९५ धारे भासिन डाय छ, “अगंधा ” मे २६ तेमन शरीरमा हु यावती साय छ; “ अचेयणा" तेमनी येतना शहित विशिष्ट येतना शतिथी २हित डाय छ, “ दुब्भगो" ते मनसाय राय छ, “ अकंता” भना। डाता नथी, " काकस्सरा" 11111 पापा । ४ तेमनी माचार डाय छे. मने तेस। “हीणभिन्नघोसा" हीन-स्व, भिन्न-गधेडाना स्वनी म १२ये पच्ये त्रुटित २१२१। डाय छ, “ विहिंसा" भास तेमनी પાછળ પડીને તેમને માર, કોધભર્યા શબ્દ આદિ દ્વારા વધારે દુઃખી કર્યા કરે छ. “ जडबहिरमूया" तेसो ४४-ज्ञानशून्य. १२॥ अने भू डाय छ, " मम्मणा" तेगाना शह! २५ष्ट खाता नथी मेटले ते मारती वमते तेथे। तोतय छ । मी मीन माले छ. “ अतविकयकरणा" तेमनी यक्षु माहिन्द्रियो भनाश भने विकृत राय छे, " णीया" तेमनी गति, गुण For Private And Personal Use Only Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ર૪૮ प्रश्नव्याकरणसूत्रे णिसेविणो' नीचजननिषेविणः जातिगुणकर्मभिर्नीचा ये जनास्तेषां निषेविणः= उत्थानोपवेशनशयनभोजनपानादिभिः सहनिवासिनः ' लोगगरहिणिज्जा' लोक गर्हणीया सकलजननिन्दनीयाः ‘भिच्चा' भृत्याः भरणीया एवान्यैः तथा 'असरिसजणस्स पेस्सा' असदृशजनस्य असमानशीलस्य-म्लेच्छाचारलोकस्य 'पेस्सा' पैष्याः तदाज्ञाकारकाः 'दुम्मेहा' दुर्मेधाः सद्बुद्धिवर्जिताः, 'लोगवेदअझप्पसमयमुइवज्जिया' लोकवेदाध्यात्मसमयश्रुतिवर्जिताः श्रुतिशब्दस्य प्रत्येक सम्बन्धात् लोकश्रुतिः लोकाभिमतं शास्त्र भारतादिः, वेदश्रुतिः ऋग्यजुः सामाथवेदशास्त्रम् , अध्यात्मश्रुतिः आत्मस्वरूपनिर्णायकं शास्त्र, समयश्रुतिः अर्हत्मवचनं ताभिर्वर्जिताः रहिता ये ते तथा, 'धम्मबुद्धिवियला' धर्मबुद्धिविकलाः श्रुतचारित्रधर्मरहिताः नराः मनुष्याः 'दृश्यन्ते ' इति पूर्वेण सम्बन्धः । तथा 'तेण य' तेन च=पूर्वोक्तप्रकारेण 'अलिएण' अलीकेन=मृपावादेन ‘असंतएणं' ( णीयजणणिसे विणो) नीच जनों के साथ ही ये उठा बैठा करते हैं और इन्हीं के साथ ये खाते पीते हैं तथा उन्हीं के साथ रहते हैं। (लोगगरहणिज्जा ) समस्त जन इनकी निंदा करते रहते हैं। (भिच्चा) दूसरी के दास होकर रहते हैं ( असरिसजणस्स पेस्सा) असमानशीलवाले-म्लेच्छाचार वाले लोगों के ये दास होते हैं ( दुम्मेहा) सद्बुद्धि से ये वर्जित होते हैं ( लोगबेयअज्झप्पसमयसुइवज्जिया) लोकश्रुति वेदश्रुति, अध्यात्मश्रुति और समयश्रुति से ये रहित होते हैं । लोकाभिमत भारत आदि शास्त्रो का नाम लोकश्रुति है । ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, इनका नाम वेदश्रुति है। आत्मा के स्वरूप के निर्णायक शास्त्र अध्यात्मशास्त्र हैं । अहेत्प्रवचन का नाम समयश्रुति है। (धम्मबुद्धिवियला ) श्रुतचारित्ररूप धर्म से विमुख रहते हैं। तथा ( तेण भने गोत्र अधम हाय छ, “णीयजणणिसेविणो” नीय लो। साथै ५ ते ઉઠે બેસે છે, તેમની સાથે જ તેઓ ખાય પીવે છે તથા તેમની જ સાથે રહે छ, “ लोगगहरणिज्जा" Am at तेमनी निंदा ४३ छे. " भिच्चा" अन्यना हास ने २ छ, “ असरिस जणस्स पेस्सा" असमान शास-वेच्छ!यार वा सो तेसो हास थाय छ “ दुम्मेहा " ते सद्युद्धि २डित हाय छ, “लोगवेयअन्झप्पसमयसुइवज्जिया” सोश्रुति, वेश्रुति अध्याભકૃતિ અને સમયકૃતિથી તેઓ રહિત હોય છે. કાભિમત ભારત આદિ શાસ્ત્રોને લેકચ્છતિ કહે છે, ઋગ્યે, યજુર્વેદ, સામવેદ અને અથર્વવેદને વેદકૃતિ કહે છે આત્માના સ્વરૂપનું નિર્ણાયક શાસ્ત્ર અધ્યાત્મશાસ્ત્ર છે. અહંત પ્રવચનને समयश्रुति ४ छ 'धम्मबुद्धिवियला " तेथे। श्रुतयारित्र ३५ माथा For Private And Personal Use Only Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनीटीका अ० २ सू०१५ मृषावादिना लरकादिप्राप्तिरूपफलनिरूपणम् २४९ असत्केन-असद्रूपेण अथवा अशान्तकेन अनुपशान्तेन 'डज्झमाणा' दह्यमानाःप्रज्वल्यमाना 'अवमाणगा पिट्ठिमंसाहिक्खेवपिसुणभेयणगुरुबंधवसयणमित्तावक्खारणादियाई ' अपमाननपुष्टिमांसाधिक्षेपपिशुनभेदनगुरुवान्धव स्वजनमित्रापक्षारणादिकानि-तत्र अपमाननम् मानभङ्गः, पृष्ठिमांसं-परोक्षे दोषभापणं, अधिक्षेपःधिक्कारपूर्वकनिन्दनं, पिशुनभेदन-पिशुनैः = खलैः भेदन-प्रेमसम्बन्धविच्छेदन, गुरुवान्धवस्वजनमित्राणामपक्षारणं रूक्षवचनस्तर्जनं, अथवा-भिन्नादिभिर्वहिष्करणं च एतानि आदि येषां तानि तथा भूतानि, 'अभक्खागाई' अभ्याख्यानानि असत्यदोषारोपणवचनानि 'वहुविहाई बहुविधानि-नानामकाराणि 'अमणोरमाई' अमनोरमाणि-मनःप्रतिकूलानि ‘हिययमणदुमगाई' हृदयमनोदावकानि य अलिएण असंतएणं ) मृषावादीजन इस असदूध अथवा अनुपशान्त मृषावाद से ( उज्झमाणा ) रातदिन जलते रहते हैं और (अवमाणणपिहिमंसाहिक्खेवपिस्तुणभेवणगुरुरंधवसयणभित्ताऽवक्खारणादियाई ) ( अवमाणण ) अपमान सहन करते हैं। ( पिद्विमंस ) हरएक कोई इनकी पीठ पीछे निंदा करते हैं। ( अहिक्खेब ) प्रत्येक व्यक्ति इन्हें धिक्कारता रहता है । ( पिउण भेषण ) दुष्ट लोग इनके प्रेमसंबंध को विच्छेद करा देते हैं गुरुबंधवसयणमित्ता) गुरुजन, बंधुजन, स्वजन एवं मित्र ( अवक्खारणाइथाई) रूक्ष वचनां द्वारा इनका अनादर करते हैंडाटते डपते रहते हैं, अथवा ये सब इन्हें अपने में से बाहर निकाल देते हैं (अब्भक्खाणाई) चाहे जो मनुष्य इन पर असत्य दोषारोपण कर दिया करता है । इस प्रकार ये लोग असत्यदोषारोपण वचनों को कि जो (बहुविहाई ) नाना प्रकार के होते हैं, (अप्रणोरमाइं) मन को विभुभ २९ . तथा “ तेण य अलिएण असंतरण " भुषावादी भासद्र५ अथवा मनुपशान्त भूषापाथी “डज्झमाणा" शतहिन ता २६ छ भने " अवमाणपिट्ठिमंसाहिखेपपिसुणभेयणगुरुबंधवसयणमित्ताऽवक्खारणादियाई " " अवमाणण” २५मान सहन रे छ, “पिटुमंस” ४२४ व्यति तेनी पीठ पा४७१ निहा रे छ, “ अहिक्खेव” १२४ व्यक्ति तेन घिसारे छ, " पिसुण भेवण" दुष्ट सो तेमना प्रेम समयमा मगाए। पावे छ," गुरुबंधवसयण मित्त" शुसान, मधुरान, स्थान भने भित्र “ अवक्खारणाइयाई" हा२ वयनी द्वारा तेमनी मनाइ२ ४२ छ-धा घमी मापता २ छ अथ! ते ५धा तेमने पोतानी पच्यथा पा२ (ढी भूछे. " अब्भक्खाणाई" તેમના ઉપર લેકો ગમે તે પ્રકારનું દષારોપણ કર્યા કરે છે. આ રીતે તે લેકે मसत्य होपा५९ १९२४ वयो, 2 " बहुविहाई” विविधारना हाय छ, “ अमणोरमाई” भनने न गमे तवाय छ, तथा “हिययमणदुमगाई" प्र० ३२ For Private And Personal Use Only Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे -हृदयस्य मनसश्च दाबकानि-तापजनकानि 'जावजीवं' यावज्जीव-जीवन पर्यन्तं ' दुरुद्वराई' दुरुद्धराणि दुस्तराणि 'पावंति ' प्राप्नुवन्ति । पुनः कि मित्याह-अणिहावरफरुसवयणतज्जगणिन्भच्छणदीणवयणविमणा' अमिष्टखरफरुषवचनतर्जननिर्भत्सनदीनवचनविमनसः तत्र अनिष्टेन अप्रियेण खरपरुषेण= अतिकठोरेण वचनेन यानि तर्जनानि रे नीच ! कथमेवं करोपि' इत्यादि लक्षणानि निर्भर्त्सनानि='अरे दुष्टकर्मकारिन्गृहानिस्सर दृष्टिपथावा' इत्यादि रूपाणि, तैर्दीनं वदनं-मुखं विकृतं-विषाक्तयुक्तं च मनो येषां ते तथा 'कुभोयणा' कुभोजनाः कुत्सितम्-अरसविरसं भोजनं येषां ते तथा तुच्छान्नाहारिणः 'कुवाससा' कुवाससः कुचैलिनः ‘कुवसहीसु' कुवसतिषु-कुत्सितस्थानेषु 'किलिस्संता' नहीं रुचने वाले तथा ( हियघमणदूमगाई ) हृदय और चित्त को संतापजनक होते हैं ऐसे वचन ( जावज्जीवं) जीवन पर्यंत (दुरुद्वराई) जो इन्हें आघात पहुँचाने वाले होते हैं उनको ( पावंति ) प्राप्त करते हैं अर्थात् सुना करते हैं । फिर क्या सो कहते हैं-(अणि?खरफरुस वयणतज्जणणिन्भच्छण दीणवयणविप्रणा ) ऐसे ये लोग अप्रिय, अतिकठोर वचनों से तथा-" रे नीच ! ऐसा क्यों करता है " इत्यादिरूप तर्जना से, " ओ दुष्टकर्मकारिन् ! तू मेरे घर से बाहिर निकलजामेरे साम्हने मत आ-यहां से दूर हटजा" इत्यादि हृदय विदारक निर्भर्त्सना से अनाहत हुए ये दीन वदन और विकृत अन वाले तथा (कुभोयणा) अपनी जिन्दगी भर कभी अच्छा भोजन नहीं पाने वाले तुच्छाहारी तथा ( कुबाससा ) मैले कुचैले वस्त्र पहनने वाले तथा (कु वसहीसु) गन्दी जगहों में रह कर (किलिस्संता) अनेक कष्टों को इश्य भने चित्तम साता५ पेद्दा ४२॥२ डाय छे तथा “ दुरुद्धराई " भने माघात समाउना२ डाय छे सेवा क्यने! " जावजीवं” वे त्या सुधी तेय " पार्वति" प्रात ४२ छे मेट सicudi ४२ छ. qvil ulod शुमने छ ते छ-" अणिदुखरफरुसवयणतज्जणणिभन्छणहीणवयणविमणा ” तपा એ લેકે અપ્રિય, અતિ કઠેર વચનેથી તથા “ અરે નીચ! આવું કેમ કરે છે?” ઈત્યાદિ પ્રકારની તર્જનાથી, “હે દુષ્ટકર્મકારિન ! તું મારા ઘરમાંથી બહાર નીકળી જા–મારી સામે આવીશ મા - અહીંથી દૂર ચાલ્યા જા” ઈત્યાદિ હૃદય ભેદક નિર્ભત્સનાથી અનાદર પામેલ તે દીન વદનવાળા તથા વિકૃત મન वा तथा “ कुभोयणा" तथा वन पर्यन्त सामान पास नही ४२ना। इस प्रा२नुं लोन A ४२नारा तथा “कुवाससा" भेस तथा टेसा तूटे पर पडरना तथा “ कुवसहीसु" . यामामा डीने “किलि For Private And Personal Use Only Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ.२ सू० १५ मृषावादिनां नरकादिप्राप्तिरूपफलनिरूपणम् २५१ 'क्लिश्यन्तः सन्तप्यमाना अतएव 'अच्चंतविउलदुक्खसयसंपलित्ता' अत्यन्त विपुलदुःखशतसंप्रदीप्ताः अत्यन्तं विपुलानि विशालानि यानि दुःखशतानि तैः सम्प्रदीप्ताः-प्रतप्ताः=' उवलभंति' उपलभन्ते-माप्नुवन्ति 'वसुहं ' नैवसुखं 'नेवनिव्वुई ' नैवनिर्वृति-मनः स्वास्थ्य, किन्तु दुःखमेवानुभवन्तीति भावः । एवं मृषावादफलमुक्तम् । मू० १५ ॥ उठाते हुए ( अचंतविउलदुक्खसयसंपलित्ता ) वहुत अधिक कठिन से कठिन सैकड़ों दुःखों से सन्तप्त बने हुए ये लोग (.नेवसुह) न तो कभी सुख पाते हैं और ( नेवनिव्वुई ) न कभी निवृति-मनः स्वास्थ्य-शांति को ( उवलभंति ) पाते हैं अर्थात् रातदिन दुःख भोगा करते हैं । इस प्रकार यह मृषावाद का फल कहा है। भावार्थ-मृषावाद का फल स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं किमृषवादीजन कभी भी अपने जीवन में सच्ची सुखशांति नहीं पा सकते हैं । ये मृषावाद से उपार्जित पापकर्म के उदय से भरकर तिर्यच एवं नरकगतिके अत्यंत कठिन दुःखोंको भोगा करते हैं । तिर्यंच योनिमें रहने वाले जीवों की आयु उत्कृष्ट तीन पल्य की वनस्पति की अपेक्षा अनंतकाल की और नरक में रहने वाले जीवों की उत्कृष्ट तेतीस सागर प्रमाण है। इतने काल तक वहां रहकर कष्ट परम्पराओं का अनुभव वे करते रहते हैं । फिर भी जो पाप कर्म भोगने से अवशिष्ट रहता है उसे वे वहां से निकलकर किसी तरह भी मिली हुई मनुष्य पर्याय में भोगते हैं । यहां जो इन्हें मनुष्य पर्याय प्राप्त होती है वह बिलकुल जघस्संता” भने ४ो सन. ४२ता “ अच्चंतविउलदुक्खसयसंपलिता" धाgive qधारे २५॥४२॥मा २४ से हुयी हुमी मनेहा ते सो। "नेवसंह" ही पा सुप प्रास ४२i नथी " नेव निव्वुइं" ही पा निवृत्ति भननी शन्ति “ उचलभंति" अनुभव नथी. मेटले हिनशत लोगવ્યા કરે છે, આ પ્રકારનું મૃષાવાદનું ફળ કહેલ છે. ભાવાર્થ-મૃષાવાદનું ફળ બતાવતા સૂત્રકાર કહે છે કે--મૃષાવાદી વ્યક્તિ પિતાના જીવનમાં કદી પણ સાચાં સુખ શાંતિ પામી શકતા નથી. તેઓ મૃષાવાદથી ઉપાર્જિત પાપકર્મોના ઉદયથી મરીને તિર્યંચ અને નરકગતિનાં અત્યંત કઠિન છે ભગવ્યાં કરે છે. તિર્યંચ નિમાં જન્મ પામતા જીનું આયુષ્ય ઉત્કૃષ્ટ ત્રણ પદ્યનું અને વનસ્પતિની અપેક્ષાએ અનંતકાળનું અને નરકની અપેક્ષાએ ઉત્કૃષ્ટ તેત્રીસ સાગર પ્રમાણનું હોય છે. એટલે સમય ત્યાં રહીને તેઓ કષ્ટ પરંપરાઓને સહન કરે છે, ત્યાર પછી પણ જે પાપકર્મો ભેગવવાનાં For Private And Personal Use Only Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २५६ प्रश्नव्याकरणसूत्रे न्यस्थिति की होती है । उस सर्वथा जघन्य स्थिति को मनुष्य पर्याय में उत्पन्न होकर ये कभी भी थोड़ा आनंद भी नहीं प्राप्त कर सकते हैं। सदा पराधीनता की जंजीरों में जकड़ा जाकर इनका जीवन व्यवहार चलता है। इनकी शारीरिक आकृति दुर्दर्शनीय एवं उद्वेगजनक होती है । कोई भी इनसे मोह ममता नहीं रखता है। हरएक व्यक्ति इनका तिरस्कार करता रहता है । चेतन शक्ति इनकी अविकसित रहा करती है । लक्ष्मी नहीं रहने से थे सदा दुःखी बने रहते हैं। मांगमग करके ये जो भी लाते हैं वह रस विरस होता है । भरपेट भोजन इन्हें मिलता नहीं है । वाणी भी इनकी इतनी अच्छी नहीं होती जो दूसरों के चित्त को अपनी ओर आकृष्ट कर सके । काक जैसा कठोर इनका स्वर होता है । गर्दभ जैसी इनकी बोली होती है। कोई २ तो जन्मांध होते हैं । कोई २ बहिरे और गूंगे होते हैं । दुःख में भी इनका साथ देने वाला कोई नहीं होता है। इनकी मित्रता अपने जैसे नीचों से ही होती हैं। उन्हीं के पास ये उठा बैठा करते हैं। गन्दे स्थानों में इन्हें रहने को मिलता है । सब कोई इनकी निंदा करते हैं। दूसरों के हृदय विदारक शब्दों को सुनकर ये मनोमन दुःखित होकर रह जाते हैं। तात्पर्य यह है બાકી રહ્યાં હોય તેમને ત્યાંથી નીકળીને કોઈ પણ રીતે પ્રાપ્ત થયેલ મનુષ્ય નિમાં તેઓ ભોગવે છે. તેને જે માનવ પર્યાય પ્રાપ્ત થાય છે તે બિલકુલ જઘન્ય સ્થિતિની હોય છે. તે તદ્દન જઘન્ય સ્થિતિની મનુષ્ય પર્યાયમાં ઉત્પન્ન થઈને તેઓ કદી પણ ઘેડે સરખાએ આનંદ પ્રાપ્ત કરી શકતા નથી. તેમને જીવન વ્યવહાર સદા પરાધીનતાની બેડીમાં જકડાઈને ચાલે છે તેમનાં શરીરને દેખાવ બેડોળ અને ઉગજનક હોય છે. તેમના પ્રત્યે કોઈ પણ મોહ અથવા મમતા રાખતું નથી, દરેક વ્યક્તિ તેને તિરસ્કાર કર્યા કરે છે. તેમની ચેતના શક્તિ અવિકસિત રહે છે. લક્ષમી નહીં રહેવાથી તે સદા દુઃખી રહે છે. માગી કરીને તે જે કંઈ લાવે છે તે વિરસ હોય છે તેને ધરાઈને ખાવા પણ મળતું નથી. બીજાના ચિત્તને પોતાની તરફ આકર્ષી શકે તેવી મીઠી વાણી પણ તેની હોતી નથી. તેનો સ્વર કાગડા જે કર્કશ હોય છે. ગર્દભ જેવી તેની બેલી હોય છે, કઈ કોઈ તે જન્માઘ હોય છે. કેઈ બહેરા અને મૂગ હોય છે. દુઃખમાં પણ તેને મદદ કરનાર કોઈ હોતું નથી તેને પિતાના જેવા અધમ લેકે સાથે જ મિત્રતા થાય છે તેમની પાસે જ તે ઉઠે બેસે છે. તેમને ગંદાં સ્થાનમાં જ રહેવું પડે છે. સૌ તેમની નિંદા કરે છે. બીજા લોકો હૃદયવિદારક શબ્દો સાંભળીને તેઓ પિતાના મનમાં જ દુઃખ અનુભવીને શાંત રહે છે, તાત્પર્ય For Private And Personal Use Only Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० २ सू० १६ अलीकवचनस्य फलितार्थनिरूपणम् २५३ अथ प्रकृतद्वारं साफल्येन संकलय्य निगमयति सूत्रकारः ‘एसो सो' इत्यादि। मूलम्-एसो सो अलियश्यणस्त फलविवाओ इहलोइओ परलोइओ अप्यसुहो बहुदुक्खो महन्भओ बहुरयप्पगाढो दारुणो ककतो असाओ वाससहस्सेहिं मुच्चइणय अवेदयित्ता अस्थि हु मोक्खोत्ति, एवमासु नायकुलनंदणो महप्पा जिणोउ वीरवर नामधेजो कहेसायं अलिययणस्स फलविवागं, एथं तं विइयं पि अलियवयणं लहस्तग लहुचवलभणियं भयंकरं दुहकरं अयसकर बेरकर अरतिरतिरागदोसमगसंकिलेसवियरणं अलियनियडिसातियोगं वहलं नीयजणनिसेवियं निसंसं अप्पच्चयकारगं परमसाहुगरहगिज़ परपीडाकारगं परमकिण्हलेससहियं दुग्गइविणिवायवड्डणं भवतुणब्भवकरं चिरपरिचियमणुगयं दुरंतं तिबेमि ॥ सू० १६ ॥ ॥ विइयं अधम्मदारं समत्तं ॥ २ ॥ टीका-'एसो सो' एप स अलियवयणस्स' अलीकवचनस्य ‘फलविचाओ' फलविषाकः 'इहलोइओ' ऐहलौकिका मनुष्यभवापेक्षया ' परलोइओ' कि दुःखों के जितने प्रकार हैं वे सब भयंकर से भयंकर इन्हें भोगना पड़ता हैं । उस स्थिति में इनका कोई साथी नहीं होता है । मू-१५ ॥ ____ अब सूत्रकार इस अलिकवचन द्वार का संपूर्णरूप से संकलन करके फलितार्थ कहते हैं-' एसो सो' इत्यादि। ___टीकार्थ-(एसो सो अलियवयणस्स फल विवाओ) अलीक वचनका यह जो मनुष्यगति की अपेक्षा इहलोक संबंधी तथा नरक निगोदगति की એ છે કે દુઃખના ભયંકરમાં ભયંકર જે પ્રકારે છે, તે તેમને ભેગવવા પડે છે. એ સ્થિતિમાં તેમનું કોઈ સાથીદાર હોતું નથી સૂ-૧પ હવે સૂવકાર આ કારનું સંપૂર્ણ રીતે સંકલન કરીને ફલિતાર્થ બતાવે छ- “एसो सो" त्यादि, साथ-"एसो सो अलिथवणस्स फलविवाओ" Reी क्यननो भनुष्यातिनी અપેક્ષાએ આલેક સંબંધી તથા નરકગતિની અપેક્ષાએ પલેક સંબંધી આ જે ફલ For Private And Personal Use Only Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २५४ प्रश्नव्याकरणसूत्र पारलौकिका नरकाद्यपेक्षया 'अप्पसुहो' अल्पसुखः सुखवर्जितः 'बहुदुक्खो' दुःश्वबहलः 'महब्भओ' महाभय: महाभयजनकः 'बहुरयप्पगाढो' बहरजः प्रगाढः प्रचुरकमरजोभिः सम्भृतः दारुणः भीषणः 'ककसो' कर्कशः कठोरः 'असाओ' अशातः असुखोऽशातकर्मवेदनीयस्वरूपः इत्येवंविधः फलविपाकः 'वाससहस्सेहिं ' वर्षसहस्र-पल्योपमसागरोपमप्रमाणकालैः 'मुच्चइ' मुच्यते क्षीयते । तदेवव्यतिरेकमुखेनाह-णय' न च तं फलविपाकम् 'अवेदयित्ता' अवेदयित्वा-अनुपभुज्य उपभोगं विनेत्यर्थः, 'हु'निश्चयेन मोक्खो' मोक्षः 'अत्थि' अस्ति ति ' इति शब्द : समाप्तिसूचक : । एतस्यार्थस्य साक्षात्पमाणभूतपरमात्मप्रतिपादितत्वेन प्रमाण्यनिरूपणाय प्रमाणयन्नाह-' एवमाहंसु ' इत्यादि, एवम् अपेक्षासे परलोक संबंधी फलरूप विपाक कहा गया है, उससे यह अच्छी तरह ज्ञात हो जाता है कि यह (अप्पसुहो) सुखवर्जित एवं (बहुदुक्खो) दुःख बहुल है । ( महन्भओ) महाभयजनक, और ( बहुरयपगाढो) प्रचुर कर्मरूपी रज से भरा हुआ है । ( दारुणो) दारुण तथा ( ककसो) कठोर है । और ( असाओ) असाता वेदनीय कर्म स्वरूप है । ( वाससहस्सेहिं मुच्चइ ) यह फलविपाक जीव पल्योपम एवं सागरोपमप्रमाण कालतक भोगा करता है तभी जाकर उससे यहछूटकारापाता है, अर्थात् चह फलरूप विपाक नष्ट हो पाता है। (णय अवेदयित्ता हु मोक्यो अस्थि त्ति ) भोगे विना जीव इससे मुक्त नहीं होता है । यहां (त्ति) यह समाप्ति अर्थ का सूचक है। ____ अब सूत्रकार इस अर्थ में साक्षात् प्रमाणभूत परमात्मा द्वारा प्रतिपादित होने के कारण प्रमाणभूतता प्रकट करने के लिये कहते हैं-( एव३५ विया मतापाममाव्यो छे तेनाथी ते सारी रीत deya। भणे छे ते 'अप्प. सहो” सुभपति भने "बदुहुक्खो" मयत दुमय छ. “महन्मओ" भाडा लयन, मने “बहुरयप्पगाढो" प्रयू२ ४३५२०४थी भरपूर छे. " दारुणो" हा२५१ तथा “ककसो" २ छ. मने " असाओ" साता येहनीय भ ११३५ छ. " वाससहस्सेहिं मुच्चद" ते सवि५४ ५८यापम भने सागरायम પ્રમાણ કાળ સુધી જીવ ભગવ્યા કરે છે, ત્યારે જ તે તેમાંથી છૂટી શકે છે, मट ते ५३५ विपा मेटसा ein समये नष्ट थाय छे. “णय अवेदयित्ता ह मोक्खो अस्थि त्ति" ते विमा सोगव्या विना ५ तेनाथी भुत २४ शत नथी. मी “त्ति" ते समाप्ति अथनी सूय छे. હવે સૂવાર આ અર્થમાં પ્રત્યક્ષ પ્રમાણભૂત પરમાત્મા દ્વારા પ્રતિપાદિત डावाने ॥२0, प्रमाणभूतता विधाने भाट छ-" एवमाइस" मा पूर्वस्ति शते ती ४२ मा वामे तथा " नायकुलन दणो महप्पा जिणो वीरवर For Private And Personal Use Only Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनीटीका अ० २ सू० १६ अलीकवचनस्य फलितार्थनिरूपणम् २५५ उक्तरीत्या ' आहंसु ' ऊचुस्तीर्थङ्करगणधरादयः । तथा तदनुसारेणैव ' नायकुलनंदणो ' ज्ञातकुलनन्दनः = सिद्धार्थकुलानन्दकरः, 'महप्पा' महात्मा परमात्मरूपः ' जिणो ' जिनः वीरवरनामधेज्जो' वीरवरनामधेयः प्रख्यातनामा भयवान् महावीर इमम् ' अलियवयणस्स' अलीकवचनस्य 'फलविवाग' फलविपाकं ' कहेसी ' कथितवान् । एवं तं ' तत् पूर्वोपदर्शितस्वरूपम् 'अलियवयणं ' अलीकवचनं ' लहुस्सग लहु चवलभणियं' लघुस्वकलघुचपल भणितं-लघुस्वका = तुच्छात्मानश्च ते लघव : अतिनीचाश्चपलाश्च त भणितंजल्पितं 'भयकरं' भयङ्करं 'दुहकरं' दुःश्वकरं ' अयसकरं बैरकरं ' अयस्कर वैरकरम् , ' अरतिरतिरागदोसमणसंकिलेसवियरणं , अरतिरतिरागद्वेषमनः संक्लेशवितरणम् , ' अलियनियडिसातिजोगबहुलं ' अलीकनिकृतिसातियोग बहुलं ' नीयजणनिसेवियं ' नीचजननिषेवितं ' निसंसं ' नृशंसम् 'अपच्चयकारगं' माहंसु) इस पूर्वोक्त रीतिसे तिर्थकर गणधरादिक देवोंने तथा (नायकुलनंदणो महप्पा जिणो वीरवरनामधेजो) उन्हीं के अनुसार ज्ञातकुलनंदन सिद्धार्थकुलके आनंदकारक-परमात्मस्वरूप, जिन महावीरने कि जिनका "वीर" यह उत्तम नाम प्रख्यात है उन्होंने (इमं अलिय वयणस्स फलविवागं कहेंसी) यह मृषावादका फल बतलाया है। अब उपसंहार करते हैं(एयं तं वितियं पि अलियवयणं) इस द्वितीय अलीक वचन को जो (लहुसगलहुचवल भणियं ) लघुस्वक-तुच्छात्मा होते हैं अतिनीच एवं चपल होते है वे ही बोलते हैं । ( भयंकरं ) यह अलीक वचन भयंकर, (दुहकरं) दुःखकर, (अजसकरं) अयस्कारक, ( वेरकर ) वैरकारक, ( अरतिरतिरागदोसपणसंकिलेसवियरणं ) अरति, रति, राग, द्वेष और मनः संक्लेश प्रदाता है। ( अलियनियडिसाइजोगबहुलं ) अलीकनामघेजो" तेना प्रमाणे १४ शातानन सिद्धार्थ ना जुने मानहाय પરમાત્માસ્વરૂપ, જિન મહાવીરે કે જેમનું “વીર” એ ઉત્તમ નામ પ્રખ્યાત छ, तेमाणे “ इमं अलियवयणस्स फलविवागं कहेसी” मा भूपावान २१३५ सताव्युं छे. वे सूत्रा२ ७५स १२ ४२ छ-" एयं तं बिइयं पि अलियवयणं " 21 द्वितीय द्वा२ ३५ Aधर्म क्यनने २ “लहुसगबहुचवलभणियं" લઘુસ્વક-તુરછાત્મા હોય છે, જે અતિ નીચ અને ચંચળ હોય છે તેઓ જ माले छ. “ भयकर " ते सत्यपयन लय।२४, “दुहकरं " दु:५४२, “ अजसकर” २५५ ।२४, " वेरकर ” वै२४।२४, “अरतिरतिर गदोसमणसंकिले सवियरणं " ॥२ति, २ति, २, ३५ भने भनने ४वेश ४२ना२ छे." अलिय नियडिसाइजोगबहुलं" reilx-नि छ, निति, सातिना प्रयोगथी युत For Private And Personal Use Only Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २५६ प्रश्नव्याकरणसूत्रे अप्रत्ययकारकं, ' परमसाहुगरहणिज्जं परमसाधुगर्हणीयं परपीडाकारकं 'परमक्किण्हलेससहियं ' परमकृष्णलेश्या सहितं 'दुग्गड़विणिवायवडूणं 'दुर्गतिविनिपातवर्द्धनं भवपुणम्भवकरं ' चिरपरिचियं चिरपरिचितम् ' अणुरायं अनुगतम् ' दुरंतं' दुरन्तम् । एतानि सर्वाणि पदानि पूर्वमस्यैव द्वारस्य प्रथममुत्रे व्याख्यातानि ततो विज्ञेयम् । 'तिवेमि' पूर्ववत ||०१६ | , इतिश्री - जैनाचार्य - जैनधर्म दिवाकर-पूज्य श्री घासीलालवतिविरचितायां प्रश्नव्याकरणसूत्रस्य सुदर्शिन्याख्यायां व्याख्यायां हिसादि पञ्चाद्वारेषु मृपावादाख्यं द्वितीयम्आस्रव (अधर्म) द्वारं समाप्तम् ॥२॥ 1 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निष्फल है, निकृति, साति के प्रयोग से बद्दल है अर्थात् कपट बहुल है | ( णीयजण निसेवियं) जाति, कुल आदि से अधम बने हुए व्यक्तिओं द्वारा निषेवित है । (निसं) क्रूर अथवा प्रशंसा से रहित है । अप्रत्यय - अविश्वास का कारक है । ( परमसाहुगरहणिजं ) परमसाधु-तीर्थकरों द्वारा गर्हणीय है । ( परपीडाकरणं ) दूसरों को पीड़ा पहुंचाने वाला है | ( परमकिण्हलेसमहियं ) अत्यन्तमलिन आत्म परिति से युक्त है ( दुग्गविशिवाय ) दुर्गति का वर्धक है। (भवपुणभवकरं ) पुनः पुनः जन्म प्रदाता है। (चिरपरिचयं ) चिरपरिचित यह जीवों के साथ अनेक भवों की परम्परा तक रहनेवाला है। (अणुगयं ) भव भव में साथ चलने वाला है । ( दुरंतं ) इसका फल दुरन्तकटुफलका देने वाला है "त्ति बेमि" इसकी व्याख्या की जा चुकी है। सू-१६ ॥ ॥ द्वितीय आस्रव --- ' अधर्म ' द्वार समाप्त ॥ छे भेटखे के उपर भय छे " णीयजणनिसेवियं " भति, डुण साहिथी अधम मेवी व्यक्तियों द्वारा सेवायेस छे. " निसंस" हूर-भेटते है प्रशसाथी रहित छे अप्रत्यय - अविश्वास उत्पन्न हरनार छे." परमसाहुगरह णिज्जं ” परमसाधुतीर्थ उरे द्वारा निद्य छे. " परपीडाकरणं " जीलने पीडा पडोयाउनार छे. " परम किण्हलेस सहियं " अत्यंत भदिन आत्म परिशुतिथी युक्त छे. " दुग्गइ विणिवायवड्ढणं " हुर्गतीनुं वधारनार छे. “ भव पुणब्भवकर " इरी इरीने भन्म बेवडावनार छे. “ चिरपरिचियं ” थिरपरिचित मे ते लवोनी साथै मने लवोनी परंपरा सुधी रहेनार छे. " अणुरायं" हरेड लवमां साथै शासना३ छे " दुरंत " तेनुं इज डुरन्त छे-टु इस हेनार छे. " “ तिवेमि " આ વાકયનો અર્થ આવી ગયા છે ( સૂ-૧૬ ) આ રીતે હિંસાદિ પ'ચાસત્ર દ્વારમાં પ્રાણવધ નામનુ બીજી' આસવ (અધમ)દ્વાર સમાપ્ત થયું. For Private And Personal Use Only Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अथ तृतीयमध्ययनम् ।। व्याख्यातं द्वितीयमधर्मद्वारं सांप्रतं तृतीयमारभ्यते-अस्य च पूर्वेण सहायमभिसम्बन्धः । द्वितीयाधर्मद्वारे यादृशनामादिनिर्देशपुरस्सरमली कवचनस्वरूपमुक्तम् । अलीकवचनं च अदत्ताऽऽदायिनो बदन्त्येवेति हेतो; मूत्रक्रमनिर्देशानुसाराच्च मृषावादानन्तरमुचितप्राप्तमदत्तादानं स्वरूपनामादिनिर्देपपूर्वक प्रदर्श्यते, तत्र पूर्वयोरधर्मद्वारयोरिवास्यापि ' यादृक् १, यन्नाम २, यथा च कृतं ३, यत्फलं ददाति ४, ये च कुर्वन्ति ५, इति पञ्चभिरन्तद्वी रैर्निरूपणं चिकीर्षुरादौ क्रमप्राप्त 'यादृश' इति द्वारमाश्रित्य अदत्तादानस्वरूपं निरूप्यते-'जंबू तइयं च' इत्यादि तृतीय आस्रव-(अधर्म ) द्वार प्रारंभद्वितीय आनव-(अधर्म) द्वार कहा गया, अब तृतीय आस्रवद्वार की व्याख्या प्रारंभ होती है । इस अधर्मद्वार का पूर्व अधर्मद्वार के साथ इस प्रकार से संबंध है कि-द्वितीय आस्रव-(अधर्म ) द्वार में (यादशनामादि निर्देश पूर्वक) अलीक ( झूठ)वचनका स्वरूप कहा है सो इस अलीक वचन को जो अदत्त को लेने वाले व्यक्ति होते हैं, वे ही बोलते हैं तथा सूत्रक्रम निर्देश भी ऐसा ही है, इसलिये मृषावाद के अनन्तर उचितरूप से प्राप्त अदत्तादान का स्वरूप नामादि निर्देशपूर्वक इस अध्ययन में कहा जावेगा । जिस प्रकार पूर्व दो आस्रव ( अधर्म ) द्वारों का सूत्रकार ने ( थादृश यन्नाम ) इत्यादि पांच अन्तरों द्वारा निरूपण किया है उसी तरह से वे इस तृतीय आस्रव (अधर्म ) द्वार का भी निरूपण करना चाहते हैं इसलिये वे सर्व प्रथम इसमें क्रम प्राप्त अदत्तादान का ( यादृश ) इस द्वार को लेकर स्वरूप कहते हैं ત્રીજા આસવ-અધર્મ દ્વારને પ્રારંભ બીજા આસ્રવ-( અધર્મ) દ્વારનું કથન પૂરું થયું, હવે ત્રીજા આસવ દ્વારનું વર્ણન શરૂ થાય છે. આ અધર્મકારને આગળનાં અધર્મદ્વાર સાથે २॥ रीते २०५५ 2-uflat &१-( Aम) २मा “ यादृशनोमादि निर्देशपूर्वक " 21सी क्यननुं स्व३५ प्राट ४२वामा माव्यु छ. ५ ते मसी વચને અદત્ત દિધેલું લેનારી વ્યક્તિ જ બોલે છે, તથા સૂવકમ નિર્દેશ પણ એ જ છે, તે કારણે મૃષાવાદનું નિરૂપણ કર્યા પછી યોગ્ય રીતે અદત્તાદાનનું સ્વરૂપ નામાદિ નિર્દેશ પૂર્વક આ અધ્યયનમાં બતાવવામાં આવશે. म २मान में मासव-(A) द्वारीनुं सूत्रारे "यादृश चन्नाम" त्यहि પાંચ અન્તર્કો દ્વારા નિરૂપણ કર્યું છે, એ જ પ્રમાણે તેઓ આ ત્રીજા આત્સવ (અધર્મ) દ્વારનું પણ નિરૂપણ કરવા માગે છે. તેથી તેઓ સૌથી પહેલાં ક્રમ પ્રમાણે For Private And Personal Use Only Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २५८ प्रश्नव्याकरणसूत्रे मूलम् - जंबू तइयं च अदिष्णादाणं हरद हमरणभयकलुस तासण परसंतगगिज्झिलोभमूलं कालविसमसंसियं अहो अच्छिन्नं तण्हपस्थाणपत्थोइमइयं अकित्तिकरं अणज्जं छिदमंतरविधुरवसणमग्गणउस्सवमत्तप्पमत्तपसुत्तर्वचणाऽऽखिवणघायणपराऽणिहुयपरिणामतकरजण बहुमयं अकलुणं रायपुरिसरकिखयं सयासाहुगरहाणिज्जं पियजणमित्तजणभेदविप्पीहकारगं रागदोसबहुलं पुणो य उप्परसमरसंगामडमरकलिकलहबहकरणं दुग्गइविणिवायवडणं भत्रपुणभवकरं चिरपरिचियं अणुगयं दुरंतं तइयं अधम्मदारं ॥ सू० १ ॥ टीका हे जम्बू ! ' तये ' तृतीयमात्रवद्वारं ' अदिष्णादाणं' अदत्तादानम् = अदत्तस्य देव - गुरु- राज - गाथापति - साधर्मिभिरसमर्पितस्य सचित्ताचित्तमिश्रवस्तुविशेषस्य आदानं = ग्रहणमदत्तादानं नाम चौर्यमित्यर्थः । कीदृशं तदित्याह जंबू ! तइयं ' इत्यादि । s Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टीका - जंबूस्वामी श्री सुधर्मा स्वामी से पूछते हैं कि - हे भदंत ! तृतीय आसव द्वार का सिद्विगति को प्राप्त हुए श्री महावीर प्रभुने क्या स्वरूप कहा है ? इसका उत्तर देते हुए श्री सुधन स्वामी उनसे कहते हैं कि (जंबू) हे जंबू । ( तइयं च अदियाक्षणं) तृतीय अदत्तादान का स्वरूप सिद्धिगति स्थान को प्राप्त हुए श्री महावीर ने इस प्रकार कहा है । अदत्त का देव, गुरु, राजा, गाथापति और साधर्मी द्वारा नहीं समर्पित की गई वस्तु का आदान- ग्रहण करना इसका नाम अद सदृत्ताहाननुं “यादृश” थे द्वारने सहने स्व३५ उडे छे. " जंबू । तइयं" इत्यादि. ટીકા—જ. સ્વામી શ્રી સુધર્માંસ્વામીને પૂછે છે કે હું ભદન્ત ! સિદ્ધિ ગતિ પામેલ શ્રી મહાવીર પ્રભુએ ત્રીજા આસવદ્વારનું કેવું तेन। उत्तर भापता श्री सुधर्मा स्वामी तेभने उडे छे - च अदिण्णादाण " सिद्धिगतिने याभेद श्री महावीर प्रमुखे પ્રકારનું સ્વરૂપ કહેલ છે– સ્વરૂપ કહેલ છે? भ्यू ! ' तइयं महत्ताहाननुं न्या महत्तनुं-द्वेष, गुरु, राज्म, गाथापति मने साधर्मी द्वारा यीशु न उश ચેલ વસ્તુનું–આ દાન-ગ્રહણ કરવું. તેને અદત્તાદાન કહે છે, તે કેવુ હાય છે? For Private And Personal Use Only Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - सुर्शिनी टीका भ० ३ सू० १ अइतादानस्वरूपनिरूपणम् २५९ -'हरदहे 'त्यादि-- 'हरदहमरणभयकलुसतासमपरसंतगगिज्झलोभमूलं' हरदहमरणभयकलुषत्रासन परसत्कगृद्धिलोभमूलं, तत्र हर-हरणं कुरु, दह-गृहादिकं प्रज्वालय, इति वचनद्वयं हरणदाइविषये चोराणां प्रवृत्तिकारकम् । तथा मरणं मृत्युः भयं भीतिः कलुपं च-पापं तैस्त्रसवं-भय जननस्वरूपं यस्य तत्तथा, तच्च परसत्कदिलोभ मूलं च-परसत्के-परकीयधने मृद्धिा आसक्तिः तथा लोभश्च-रौद्रध्यानयुक्तामूर्छा मूलं कारगं यस्य तत्तथा 'कालविसमसंसियं कालविषमसंश्रितं च-काल: अर्धरात्रादिलक्षणः, विषमाणि पर्वतादिदुर्गमस्थानानि तैः संश्रितम् = आश्रितं यत्तत्तथा । एतादृशेषु निर्जनस्थानेषु चौराः प्रायो निवसन्ति । तथा ' अहोअच्छितादान है । यह कैसा होता है ? इस पर कहते हैं-यह अदत्तादान (हरदहमरणभयकलुस तासणपरसंगगिज्झलोभमूलं ) (हर) इसके द्रव्य का हरण करलो, ( दह) इसके गृहादिक को जलादो, ( मरण ) इसे मार डालो, इत्यादि रूपसे ( भय ) भय दिखाकर दूसरों के द्रव्यादि का हरण करना, ( कलुस ) एक दूसरों में कलुषभाव जगाकर उनके द्रव्यादिक को ले लेना, (तासण) इत्यादि अनेक प्रकारसे त्रास पहुँचाना, तथा (परसंतग ) दूसरों के धन में (गिन्झि ) आसक्ति रखना तथा (लोभ) रौद्रध्यानसे युक्त इसमें मूर्छाभाव रखना, ये सब (मूलं ) अदत्तादान के मूल कारण है । ( कालविसमसंसियं) अर्धरात्र आदि काल तथा विषम-पर्वतादि दुर्गमस्थान. इनके द्वारा यह अदत्तादान संश्रितआश्रित होता है-बनता है, तात्पर्य इसका यह है कि जो अदत्तादानचोरी-किया करते हैं, वे चोर प्रायः अर्धरात्रि के समय में निकलते हैं, एवं पर्वतादि दुर्गम स्थानों पर छिपे रहते हैं, इस अपेक्षा काल और तो तेना याममा ४ छ-ते महत्तहान " हरदहमरणभयकलुसतासणपरसंतगगिझलोभमूलं” “हर" "240 व्यतिर्नु द्रव्य ५७वीस “दह" तेना ५२ माहिने सावी हो, “ मरण" तेने भारी नाम" त्याहि शते "भय" मय मतावान मन्यनुं द्रव्य वस्त्र आदि हुरी से, "कलुस" मे मील पथ्ये प्रवेश गान तमना द्रव्य माहिने ससे, " तासण" त्याशित त्रास पायावी, तथा “ परसंतग" oultant घनमा “गिल्झि” मासहित राणवी तथा “लोम" शैद्रध्यानथी युक्त भूभाप तमा राव. ते वां " मूलं ” महत्ताहानना भू रणे! छे. “ कालविसमसंसियं" अशी माहि કાળ તથા પર્વતાદિ દુર્ગમસ્થાન તે અદત્તાદનનાં આશ્રય સ્થાને છે, એટલે કે જે અદત્તાદાનચોરી કરે છે. તે ચેર સામાન્ય રીતે મધ્યરાત્રે ચોરી કરવા નિકળે છે, અને પર્વતાદિ દુર્ગમ સ્થાનમાં છૂપાઈ રહે છે, તે અપેક્ષાએ કાળ For Private And Personal Use Only Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६० प्रश्नव्याकरणसूत्रे प्रतण्हपत्थाणपत्थोइमइयं ' अधोऽच्छिन्नतृष्ण प्रस्थान-प्रस्तोतमतिकं = अधोगतो अच्छिन्नतृष्णानां विषयलोलुपानां यत् प्रस्थान गमनं तत्र प्रस्तोत्री-प्रवर्तिका मतिः = बुद्धिरस्ति यस्मिनदत्तादाने तत्तथा नरकायधोगतिकारणमित्यर्थः, 'अकित्तिकरं' अकीर्तिकरम् अयशस्करम् 'अणज्ज-अनार्यम् = अनार्याचस्तित्वात् अथवा अन्याय-न्यायवर्जितं न्यायरहितमित्यर्थः 'छिमंतरविधुरवसणमग्गणउस्सवमत्तप्पमत्त-पमुत्तवंचणाक्खिवण-घायणपराणिहुय-परिणामतकरजणवहुमयं' छिद्रान्तरविधुरव्यसनमार्गणोत्सवमत्तप्रमत्तप्रसुप्तवञ्चनाऽऽक्षेपणघातनपरानिभृतपरिणामतस्करजनबहुमत-तत्र छिद्रं = 'केन मार्गेण गन्तव्य' मित्यादिकम् , अन्तरम् अवसरः जनानां निद्रादिलक्षणः, विधुरं = अपायः कष्टप्राप्त्यादिलक्षणः, विषमस्थानों को अदत्तादान का कारण कहा गया है। (अहो अच्छिन्नतण्हपत्यागपत्थोइमइयं ) जिन व्यक्तियों की विषय तृष्णा छिन्न नहीं होती है ऐसे व्यक्ति ही अधोगति में पहुँचाने वाली अपनी बुद्धि के द्वारा इस अदत्तादान में प्रवृत्ति करते हैं, अतः अधोगति में गमन की कारणभूत जो विषय लोलुपों की मति है वह भी इस अदतादान की एक कारणभूत है । यह अदत्तादान (अकित्तिकरं ) अयश कारक है । ( अणजं) अनार्यों द्वारा ही आचरित किया जाता है इसलिये अनार्यरूप है । अथवा नीतिमार्ग से विरुद्ध होने के कारण अन्याय्य है। (छिदं) इस अदत्तादानको करने वाले व्यक्ति इस बातकी गवेषणामें रहते हैं कि हमें इस कामको करने के लिये किस मार्गसे होकर जाना चाहिये तथा (अंतर) अन्तर की-कौनसा अवसर इस कामको सिद्ध करनेवाला होगा इस तरहके मनुष्योंके निद्रादिरूप समयकी विधुर) विधुरकी-कष्ट भने दुर्गमस्थानाने महत्तहान माश्रयस्थानी ता०यां छ. 'अहो अच्छिन्नतण्हपत्थाणपत्थोइमइयं" नी विषय वासना नष्ट थती नयी मेवा લેકે જ અધોગતિમાં લઈ જનાર પિતાની બુદ્ધિ દ્વારા આ અદત્તાદાનમાં પ્રવૃત્ત રહે છે, તેથી અધોગતિમાં ગમન કરવાના કારણરૂપ વિષય લેપની જે भति छे ते ५६ मा महत्तहान भाटे.॥२९॥३५ छ, न महत्ताहान " अकित्तिकरं" मीति अपावना छ, “ अणंजं " मनाद्विारा सेवा वाथी અનાયરૂપ છે, અથવા નીતિ માર્ગથી વિરુદ્ધ હોવાથી અન્યાયયુક્ત છે. " छिई” मा महत्ताहान सेवना२ व्यतिथे पातनी शोधमा રહે છે કે આ કામ કરવા માટે આપણે ક્યા માર્ગે થઈને જવું જોઈએ तथा “ अंतर" मतरनी-४ मत २ आभने सिद्ध ४२वा माटे मनुण થશે તેની શોધમાં રહે છે. આ રીતે માણસના નિદ્રાદિરૂપ સમયની શોધમાં For Private And Personal Use Only Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टोका अ० ३ सू० १ अदत्तादानस्वरूपनिरूपणम् २६१ " व्यसनं = राजादि कृतोपद्रवः इत्येतेषां मार्गणम् = गवेषणम्, तथा उत्सवेषु - विवा हादिलक्षणेषु मचानपानाद्यासक्तानां अत एव प्रमत्तानाम्=असावधानानां प्रसुप्तानां = निद्रितानां च वचनं नापहरणं, तथा आक्षेपणं = मन्त्रौषध्यादिभिश्चित्तविक्षेपकरणं, घातनं= रागवियाजीकरणं वयस्यादिभिस्ताडनं वा तेषु परा:= तथा अनिभृतः शान्तः परिणामः = अन्तःकरणवृत्तिविशेषः येषां ते तथा, ते च ते तस्कराननाः चौरगणास्तैर्वहुमतं = सातिशयमादृतं स्वीकृतं यत्तत्तथाभूतमदत्तादानम् ' अकलुगं ' अकरुणं = दयारहितं निर्दयजनप्रवर्तितत्वात् 'रायपुरिसप्राप्ति आदिरूप आपत्ति की, ( वसण) व्यसन को - राजा आदि द्वारा कृत उपद्रव की भी ( मग्गण) गवेषणा - ताक में तत्पर रहते हैं । तथा (उस्सव ) विवाह आदि उत्सवों में (मत्तमत्त) मद्यपान आदि के कर लेने से असावधानी में पडे हुए मस्त व्यक्तियों के तथा ( पसुत्त) निद्रा में पडे हुए व्यक्तियों के ( बंत्रण ) धनापहरण करने में ( आखि वण ) आक्षेपणमंत्र औषधि आदिद्वारा चित्त के विक्षेप करने में, तथा ( घायणपर) प्राणों के अपहरण करने में अथवा अपने मित्रादिकों द्वारा ताडन करवाने में तत्पर रहा करते हैं । ( अइणिहुयपरिणाम ) इस अदत्तादानरूप कुकृत्य को करने वाले जीवों के परिणाम - अन्तः करण की वृत्ति - अशान्त रहती हैं। (तक्करजणबहुमयं ) यह अदत्तादान चोर व्यक्तियों द्वारा ही सातिशयरुप में आहत हुआ है। अतः यह दुष्कर्म ( अ ) निर्दयजनों द्वारा प्रवर्तित होने के कारण स्वयं दयारहितरूप है इसीलिये (रायपुरिसरक्खियं ) राजपुरुषों द्वारा यह निषिद्ध " व्यस " रहे छे. " विधुर ” विधुरनी ४५ प्राप्ति आदि ३५ सायत्तिनी, " वसण 6: 66 >> उस्सव भद्य તથા " 'पसुत " आखिवण 65 घायण. નની રાજાદિ દ્વારા કરાયેલ ઉપદ્રવની પણ मग्गण " गवेषणा तयासने भाटे તૈયાર રહે છે. તથા विवाह आदि उत्सवामां, “ मत्तप्पमत्त પાન આદિ કરીને અસાવધાનીમાં રહેલ મસ્ત વ્યક્તિઓના निद्राभां पडेस व्यक्तिमना " वंचण " ધનને હરી લેવાને આક્ષેપણ–મત્ર ઔષધિ આદિ દ્વારા ચિત્તમાં વિક્ષેપન કરવાને તથા પર ” પ્રાણા હરી લેવાને અથવા પોતાના મિત્રાદિ દ્વારા માર મરાવવાને તત્પર २३ छे. " अयणिहुयपरिणाम ” તે અદત્તાદાનરૂપ દુષ્કૃત્ય કરનાર જીવેાની મનેવૃત્તિ અશાન્ત રહે છે. 'तकरजणवहुभय આ અદત્તાદાન ચાર લાક દ્વારા જ વધારે પ્રમાણમાં સેવવામાં આવે છે. તેથી તે દુમ નિર્દય જના દ્વારા આચરિત હાવાને કારણે દયારહિત હાય છે. તેથી " "अकलु For Private And Personal Use Only ܕܐ " "" "" राय Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६२ प्रश्नव्याकरणसूत्रे रक्खियं ' राजपुरुषरक्षितं राजपुरुषैनिषिद्धं, 'सया साहुगरहणिज्ज' सदा साधु गर्हणीयं-निरन्तरं महापुरुषैनिदितं 'पियजणमित्तजणभेयविप्पीइकारगं' प्रिय. जनमित्रजनभेदविनीतिकारक-प्रियजनानां==वान्धवानां मित्रजनानां च भेदः वियोगः विप्रीतिः द्वेषस्तत्कारकं 'रागदोसबहुलं ' रागद्वेपबहुलं स्पष्टम् । 'पुगो य' पुनश्च । उप्पूरसमरसंगामडमरकलिकलहवहकरणं' उत्पूरसमरसंग्रामडमरकलिकलहवधकरणम्-तत्रोत्पूरः-पचुरो यः समरः = मरेण मृत्युना सहितः समर एतादृशः संग्रामः=युद्धं डमरः-स्वचक्रपरचक्रभयलक्षणः कलि:= स्वपक्षराटिः कलहश्च वाग्युद्धं वधः-ताडनमेतेपांकरण कारकं यत्तत्तथा 'दुग्गइविकिया गया है । (सया साहुगरहणिज्ज) तथा महा पुरुषों द्वारा सदा निन्दित प्रकट किया गया है। (पियजणमित्तजणभेयविप्पीइकारगं ) इस कृत्य को करने वाले पुरुषों को अपने बंधच जनों का तथा मित्रजनों का वियोग हो जाता है, अर्थात् उनकी अपीति का भाजन बन जाता है। (रागदोसबहुलं) रागद्वेषकी मात्रा इसमें सबसे अधिक रहती है। (पुणोय) यह फिर ( उधरसमरसंगाम ) मृत्युसहित संग्राम का कारक है, अर्थात् धन आदि हरण करने के लिए जब चोर किसी के यहां जाता है तब वह डटकर इसका साम्हना करता है तो ऐसी स्थिति में चोर की मृत्यु भी हो जाती है । (डमर ) इसमें सदा स्वचक्र और परचक्रका चोरों को भय रहा करता है ( कलि ) कभी २ अपने ही पक्ष के लोगों के साथ तकरार भी हो जाती है । ( कलह ) वाग्युद्ध आपस में कहा सुनी हो जाती है। (बह ) वध-मार पीट हो जाती है । (दुग्गइविणिवायव पुरिसरक्खिय" २४ पुरुषो २॥ तेना निषेध ४२रायेस 2. “सया साहुगरहणिज्ज" तथा साधु पुरुषो द्वारा-मायुरुषो द्वारा ते सहा निध गायेस, " पियजण मित्तजणभेयविप्पी इकारगं " या कृत्य ४२ना२ पुरुषोने पोताना બંધુજનોને તથા મિત્રજનેને વિગ થાય છે, એટલે કે તેમની અપ્રીતિનું पात्र मन ५ छ. “रागदोसबहुलं" तेमा रागद्वेषतुं प्रमाण सौथी पधारे हाय छ. "पुणो य” qणी ते "उप्पूरसमरसंगाम" मृत्यु सहित सामर्नु १२४ 2-मेसे જ્યારે ધન આદિ ચોરવાને માટે ચોર કોઈને ઘેર જાપ છે અને તે ઘર વાળ तेनी भरभूत सामने। अरे तो यार्नु भात थाय छे. " डमर' मा सहा २१ भने ५२५ नो योरी ४२नारने लय २. ४२ थे, “ कलि" पार पोताना ४ पक्षना माणुसे साथे त४२२ ५९५ 25य छ, “ कलह " मापसभा वायुद्ध-सोसायासी ५५ थाय छे. “ वह " १५ भा२। भारी ५४ For Private And Personal Use Only Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६३ सुदर्शिनी टीका अ० ३ सू० १ अत्तादानस्वरूपनिरूपणम् णिवायवणं ' दुर्गति विनिपातबर्द्धनं दुर्गती= नरकादिके यो विनिपातः अवशतया गमनं तस्य वर्धनंवर्धकं ' भवपुणब्भवकरं' भवपुनर्भवकरं-पुनःपुनर्जन्ममरणकरं 'चिरपरिचियं' चिरपरिचित-चिरं जन्मजन्मान्तरेण अविच्छिन्नतया परिचितम् , ' अणुगयं' अनुगतम् अनुवृत्तमविच्छिन्नप्रवाहतया प्रवृत्तं, 'दुरंत'दुरन्तंदुःखावसानं-विपाकदारुणत्वात् ' तइयं अधम्मदारं ' तृतीयमधर्मद्वारम्।। मू०१॥ इणं ) यह करने वालों के दुर्गति-नरकादि में अवश होकर गमनरूप विनिपात का वर्धक होता है। (भवपुणभवकर) पुनः पुनः इसके प्रभाव से संसार में ही जन्म मरण करने पड़ते हैं । (चिरपरिचियं ) भव भव में इस कुकृत्य जन्य पाप का उदय साथ में रहता है। ( अणुगयं) इसका प्रवाह विच्छिन्न न होने के कारण यह जीव के साथ अनुगत रहता है । (दुरंतं ) विपाक समयमें दारुण होनेसे यह दुरन्त होता है। (तइयं अधम्मदार) इस प्रकार तृतीय अधर्मद्वारका यहां तक स्वरूप कहा। भावार्थ-सूत्रकार ने इस सूत्र द्वारा तृतीय अधर्मद्वार जो अदत्तादान है उसका स्वरूप निरूपण किया है । वे इसमें कह रहे हैं कि कीसी के धनादिक द्रव्यको ऐसा भय दिखलाकर कि 'मैं तुझे मार डालूंगा, मैं तेरे घरमें आग लगा दूंगा' ऐसा कहकर धनादिका हरण कर लेना अदत्तादान है। इस आदत्तादानका कारण लोभ होता हैं। तथा परके धनमें गृद्धि होती है । तात्पर्य इसका केवल यही है कि विना दी हुई पर की वस्तु को हरण था लय छ, “ दुग्गइविणिवायवडण " ते ४२नारनु हुति-२४ हिमा म१श ने मन३५ विनिपातनु-१५'डाय छ “ भवपुणब्भवकां" तेना ४२ वा वा२ संसारमा म भर मनुमा ५७ छ. चिरपरिचय" ४२४ सपना मा हुकृत्य न्य पान ६य साथे २ छ. " अणुगय " तेने प्रवाई अतूट पाने ४२0 ते ७वनी साथे २५.नुगत २ छ “दुरंतं " qिा४ना समये हा०९ मने दुरन्त डाय छे. " तइय अधम्मदार" | प्रमाणे ત્રિીજા અધર્મ દ્વારનું સ્વરૂપ અહીં સુધીમાં કહેવાયું ભાવાર્થ–સૂત્રકારે આ સૂત્ર દ્વારા અદત્તાદાન નામના ત્રીજા અધર્મદ્રારનું સ્વરૂપ પ્રગટ કર્યું છે. તેઓ તેમાં એ બતાવે છે કે કેટના ધનાદિનું मेवे भय सतावान “ तने भारी नामीश, २॥ १२ने मा . ડીશ” એવું કહીને ધનાદિકનું હરણ કરી લેવું તે અદત્તાદાન છે. આ અદત્તાદાનનું કારણ લેભ તથા બીજાના ધન પ્રત્યેની લાલસા હોય છે આ બધી વાતનું તાત્પર્ય એ છે કે કઈ આપણને વસ્તુ ન આપે તેનું હરણ કરવું તે For Private And Personal Use Only Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६४ प्रश्नव्याकरणसूत्रे - अथ यन्नामेतिद्वारमाश्रित्यादत्तादानस्य नामान्याह ' तस्स य' इत्यादि मूलम्-तस्त य नामाणि गोणाणि हुंति तीसं । तं जहाचोरिकं १, परहडं २, अदत्तं ३, कूरिकडं ४, परलाभो ५, असंजमो ६, परधणम्मि गेही ७, लोलिकं ८, तकरतणं तिय ९, अवहारो १०, हत्थलहुत्तणं ११, पावकम्मकरणं १२, तेणिक्क १३, हरणविप्पणासो १४, आइयणा १५, लुंपणा धणाणं १६, अपच्चओ १७, ओवीलो १८, ओक्खेवो १९, क्खेवो २०, विक्खेवो २१, कूडया २२, कुलमसी य २३, कंखा २४, लालप्पणं पत्थणा य २५, आससणा य वसणं २६, इच्छामुच्छाय २७, तण्हागेही य २८, नियडिकम्म २९, अवरोच्छ त्तिवि य ३० । तस्स एयाणि एवमाईणि नामधेजाणिहुंति तीसं अदिपणादाणस्स पावकलिकलुसकम्मबहुलस्स ॥ सू० २ ॥ ___टोका-'तस्स य' तस्य च पूर्वोपदर्शितस्वरूपस्यादत्तादानस्य ' गोणाणि' गोणानि-गुणनिष्पन्नानि नामानि वक्ष्यमाणानि 'तीसं ' त्रिंशत् ' हुति' भवन्ति करना सब चोरी है । इस चोरी में जितने भी निमित्त कारण पड़ते हैं वे भी कारण में कार्य के उपचार से चोरी रूप ही माने जाते हैं। दूसरे की भूली हुई, विसरी हुई, पड़ी हुई, धरोहररूप में रखी हुई, वस्तु का हरण करना और दवा लेना, ये सब अदत्तादान के ही प्रकार हैं। यह अदत्तादान हिंसादि पापों की तरह चोरो के लिये नरकादि दुर्गतियों में गमन का कारण होता है ।।सू०१॥ अब सूत्रकार " यन्नाम" इस द्वार को लेकर अदत्तादान के नामों ચોરી કહેવાય છે. તે ચેરીના જેટલા નિમિત્તે હોય છે તેમને પણ કારણમાં કાર્યના ઉપચારથી ચેરી રૂપ જ માનવામાં આવે છે. બીજાની ભૂલથી પડી રહેલી, ભૂલાઈ ગયેલી પડી રહેલી, અને થાપણ રૂપે મૂકેલી વસ્તુનું હરણ કરવું કે તેમને પચાવી પાડવી તે બધા અદત્તાદાનના જ પ્રકાર છે. તે અદત્તાદાન હિંસાદિ પાપની જેમ ચેરેને નરકાદિ દુર્ગતિમાં ગમન કરાવનાર હોય છેસૂ૦૧ वे सूत्र४.२ " यन्नाम" को मारने वन महत्ताहानन नाभी प्राट For Private And Personal Use Only Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनो टीका अ० ३ सू० २ अदत्तादाननामनिरूपणम् २६५ 'तं जहा' तानि यथा-' चौरिक्यं ' चौरिक्यं चोरणं चोरिका सैवेति चौरिक्यं१, 'परहडं' परहृतं परस्मात् अन्यस्मात् हृतम् अनुमति विनैन गृहीतम्२, 'अदत्तं' केनापि न दत्तमदत्तं ३, 'कूरिकडं ' ऋरिकृतं- क्रूरिभिः निर्दयैः कृतं ४, ‘परलाभो' परद्रव्यस्य लामः ५, 'असंनमो' असंयमा आत्र वानुष्ठानं ६, 'परधम्मि गेही' परधने गृद्धि: परद्रव्याऽभिकाङ्क्षा ७, 'लोलिक' लौल्यं लोलुपत्वं ८, 'तकरतणं' तस्करत्वमिति च 'अवहारो'अपहार=अपहरणं परधनस्य१०, हत्थलहुत्तण' हस्तलघुत्वं हस्तलाघव-हस्तचापल्यम् , अथवा हस्तयोः लघुत्वं = परद्रव्यापहरणकुत्सितत्वात् नो वत्वं ११, पावसम्प्रकरणं' पापकर्मकरणं-पापानुष्ठानं १२, 'तेणिकं ' स्तन्यं-स्तेनस्य चोरस्य कर्म चौर्यमित्यर्थः १३, “ हरणविप्पणासो' हरणविषणाशः हरणेन परद्रव्यहरणेन विभणाशा नाशइत्यर्थः १४, आइयणा' आदानम् अननुमतपरद्रव्यग्रहण १५, 'लुंपणा धणाण' धनानां लोपना-परद्रव्य को प्रकट करते हैं- स ध नामाणि' इत्यादि । __टीकार्थ-(तस्स य ) पूर्व में उपदर्शित स्वरूपवाले इस अदत्तादान के (गोणाणि ) गुगनिष्पन्न ( नामाणि ) नाम (तीसं हंति ) ३० तीस होते हैं ( तंजहा) वे इस प्रकार हैं-( चोरिकं ) चोरी १, ( परहडं ) परहृत-विना अनुमति से दूसरे से वस्तु लेना २, ( अदत्तं) अदत्त ३, (कूरिकडं ) रिकृत ४, (परलाभो ) परलाभ ५, ( असंजमो) असंयम ६, ( परवणम्मि गेहो ) परवनशृद्धि ७ (लोलिकं ) लोलुपता ८, ( तक्करतणं ) तस्करता ९. ( अवहारो ) अपहार १०, ( हत्थलहुत्तणं) हस्तलाघव ११, (पावकम्नकरणं) पापकर्मकर ग १२, (तेणिक) स्तैन्य१३, (हरणविपणासो) हरणविणाश१४, (आइयणा) आदान१५, ४२ -" तम्स य नामाणि" त्यात टी --" तास य" 800 मतावामा मावस २१३५ वा मह. ताहानना " गोणाणि " गुल प्रमाणे “नामाणि" नाम " तीसं हति” त्रीस छ. "तं जहा" ते २मा प्रेमालो -(१) “ चोरिक” यारी (२) “परहडं" ५२४त-अनुमति विना मीलन! तु देवी, (3) “ अदत्तं " महत्त, (४) “ कूरि. कडं" रित, (५) “परलाभो” ५२साल, (६) " असंजमो'' असयम, (७) “ परधणम्मि गेही ” ५२वनद्धि-:२धनानी साससा, (८) " लोलिक्क" सोयुपता, (८) “ तकरतणं” १२४२ता, (10) “ अवहारो" ५५७२, (११) ." हत्थलहत्तणं" तसाधव, (१२) " पावकम्मकरण " पा५४४२९], (१३) " तेणिक्क" तैन्य, (१४) “ हरणविप्पणासो" २४विश, ( १५) "आइ. प्र० ३४ For Private And Personal Use Only Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६६ प्रश्नव्याकरणसूत्रे विच्छेदः १६, ' अप्पच्चओ' अप्रत्ययः अविश्वासः-अविश्वासोत्पादकत्वात् १७, 'ओवीलो ' अवपीडः पीडाजनकं १८, 'ओक्खेवो' अवक्षेपः-परद्रव्यविच्छेदः १९, 'उक्खेयो ' उत्क्षेपः परहस्तात् द्रव्यस्य निर्गमनं २०, विक्खेवो ' विक्षेपः परधनस्य प्रक्षेपण २१, ' कूडया' कूटतान्द्रव्यस्य कूट तुलादिभिरन्यथाकरणं २२, 'कुलमसी' कुलमपी-कुलकङ्कजनकं च २३, कंखा' काङ्क्षा परद्रव्यतृष्णा२४, 'लालप्पणं पत्थणा य' लालपनं प्रार्थना च-लालपनं-गहिंतजल्पनं, प्रार्थना च चौर्यकृते तदपलापकवचन विन्यासः, प्रार्थनारूपाणि वचनानि जल्पन्ति चौराः २५, 'आससणा य वसगं' आशसनाच व्यसनं-आशसना=विनाशः-विनाशहेतुत्वात् , व्यसनं सर्वापत्तिकारणम् २६, 'इच्छामुच्छा य ' इच्छा मूर्छा च-तत्रेच्छा परधनाभिलाषः, मूर्छा च-तत्रैव गाढाभिष्वङ्गरूपा २७, · तण्हागेही य' तृष्णा गृद्धिश्व,तत्र तृष्णा-अप्राप्तद्रव्यस्य प्राप्तिवाञ्छा, गृद्धिश्च प्राप्तस्याऽविनाशेच्छा अदत्तादानस्य हेतुकत्वात् तृष्णागृद्धित्युच्यते २८, 'नियडिकम्म' निकृतिकर्म= निकृतिः कपटं तत्कर्म-पटकार्यमित्यर्थः२९, 'अवरोच्छ ति वि य ' अपरोक्षमिति च-न विद्यन्ते परेषाम् अक्षीणि द्रष्टव्यतया यत्र चौरकर्मणि तदपरोक्षम् अप्रत्यक्षसम्पाद्यमित्यर्थः३० । तस्य ‘पाव कलिकलुसकम्मबहुलस्स' पापकलिकलुष(धणाणं लुंपणा) धनकी लोपना१६, (अप्पञ्चओ) अप्रत्यय(अविश्वास)१७, (ओवीलो) अवपीड-दुःखरूप १८, (ओक्खेवो) अवक्षेप१९, (उक्खेवो) उत्क्षेप २०, (विक्खेवो ) विक्षेप २१' ( कूडया ) कूटता २२, ( कुलसी य) कुलमषी २३, ( कंखा) कांक्षा २४, ( लालप्पणं पत्थणा य ) लाल. पन प्रार्थना २५, (आससणा य वसणं) आशासना व्यसन २६, (इच्छा मुच्छा य) इच्छामू २७, (तण्हागेही य) तृष्णाद्री२८, (नियडिकम्म) निकृतिकर्म (कपटकरण)२९, (अवरोच्छत्तिवि य ) तथा अपरोक्ष ३० । (तस्स ) इस तरह उस कि जिस में (पावकलिकलसकम्मबहुलस्स) यणा" माहान, (१६) "धणाणं लुपणा" धननी योपना, (१७) अपच्चओ" मप्रत्यय, (१८) “ओवीलो” अवधी3, (१८)" ओक्खेवो” २५१२५ (२०) " उक्खेवो" अ५, (२१) "विखेवो" विक्षेप, (२२) 'कूडया" कूटता (२३) " कुलमसी य" सभषी, (२४) "कंखा " क्ष(२५) " लालप्पणं पत्थणा य" सपन प्रार्थना (२६) “आससणा य वसणं " 2 4नव्यसन, (२७) “ इच्छामुच्छायं " निशाभू , (२८) " तहागेही य” तृ द्धि , (२८) “ नियडिकम्म" नितिम, मने (30) “ अबरोच्छत्ति वि य" ५५२।क्ष " तस्स " मा प्रमाणे भा“ पावकलिकलुसकम्मबहुलस्स" प्रातिपाता पा५, युद्ध भित्रद्रोड माहि३५ भनिन म पधारे प्रभाशुभ २ छ. "अदिण्णा For Private And Personal Use Only Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ0 : सू० २ अदत्तादाननानिरूपणम् कर्मबहुलस्य-तत्र पाप-प्राणातिपातादिकं कलिः=युद्धं कलुपाणि=मलिनानि कर्माणि-मित्रद्रोहादिव्यापाररूपाणि बहुलानि-बहूनि यत्र तत्तथा तस्य ' आदिणादाणस्स' अदत्तादानस्य 'एयाणि ' एतानि पूर्वोक्तप्रकाराणि 'एवमाईणि' एवमादीनि चौरिक्यादीनि 'तीसं' त्रिंशत् 'नामधेज्जाणि हुंति' नामधेयानि भवन्ति ॥सू०२। प्राणातिपातादिक पाप, युद्ध, मित्रद्रोह आदिरूप मलिनकर्म अधिकता से रहते हैं ( अदिणादाणस्स ) अदत्तादान के ( एयाणि एवमाईणि ) ये चोरी आदि (तीसं) तीस (नामधेजाणि ) नाम (हुति ) है। ___ भावार्थ-चोरी चोरों का कर्म है इसलिये अदत्तादान का नाम चौरिक्य है १ । चोरी करने वाला विना पूछे ही दूसरों के द्रव्य का हरण करते हैं इसलिये इसका नाम परहन है २। चोरों को कोई बुलोकर अपना द्रव्य नहीं देता है इसलिये इसका नाम अदत्त है ३ । निर्दय बनकर ही यह कर्म किया जाता है सदय होकर नहीं, इसलिये इसका नाम रिकृत है ४ । इसमें दूसरे के द्रव्य का लाभ होता है अतः यह पर लाभ कहा जाता है ५ । इस कृत्य में न इन्द्रिय संयम रहता है और न प्राणि संयम ही, अतः यह असंयम नाम से कहा गया है ६। इसमें परधन में गृद्धि होती है अतः इसका नाम परधनगृद्धि है ७। इसमें परिणामों में लोलुपता अधिक रहती है इस लिये इसका नाम लौल्य है ।। तस्करों का यह भाव है इसलिये इसका नाम तस्करता है ९। इसमें दाणस्स" महत्ताहानना " एयाणि एवमाईणि" ते योरी माहि“ तीसं" श्रीस " नामधेज्जाणि” नाम " हुंति " छ, ભાવાર્થ–(૧) ચેરી કરવી તે ચાર લેકોનું કાર્ય છે. તેથી અદત્તાદાનનું "चौरिक्य' नाम छ. (२) योरी ४२ना२१ पूच्या विना or oilanti द्रव्यनु ४२६१ ४३ छ, तथा तेनु नाम “परहृत” छ (3) योशेने मेवीन ४ पोतानु द्रव्य हेतु नथी, तथा तेनु नाम “अदत्त" छे. (४) निय मनीने २८ थोरी ४२॥य छ, सय ५४ने नही, भाटे ४ तेनु नाम “क्रूस्कृित" (५) तेमा मीना द्रव्यने साम (प्राति) थाय छ, तथा तेने “लाभ” ४वामां आवे छे. (૬) આ કૃત્ય કરતી વખતે ઈન્દ્રિયને સંયમ રહેતો નથી અને વાણી संयम पाए। २डेतो नथी. तेथी तेनु नाम "असंयम” छ.७) ते ४२॥२ने ५२धनमा गुद्धि-साससा थाय छे, तेथी तेनु नाम “परधनगृद्धि ” छे. (८) તેનાથી પરિણામે માં-વૃત્તિમાં લેલુપતા વધારે પ્રમાણમાં રહે છે, તેથી તેનું नाम" लौल्य" 2. (८) त नी ते वृत्ति भावना राय छे, तेथीतेनु नाम For Private And Personal Use Only Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २६८ प्रश्नव्याकरणसूत्रे परके धनका अपहरण होता है इसलिये इसका नाम अपहरण है १० । परद्रव्य चुराने में हाथकी कुशलता काम देती है, अथवा परद्रव्यके चुरानेसे हाथमें लघुता-नीचता आती है इसलिये इसका नाम हस्तलघुत्व है ११। यह कृत्य पापानुष्ठान स्वरूप है, इसलिये इसका नाम पापकर्मकरण है १२ । यह चोरों का कर्म है इसलिये इसका नाम स्तेन्य है | १३ | परgarh हरण से हरने वाले का नाश ही हो जाता है । इसलिये इसका नाम हरण विप्रणाश है १४ । दूसरों की अनुमति बिना ही धनादिक का इसमें ग्रहण होता है इसलिये इसका नाम आदान है १५ । दूसरों के द्रव्य का हरण करना ही द्रव्य का विनाश करना है, इसलिए इसका नाम परद्रव्यविच्छेद है १६ । कोई भी पुरुष चोरों का विश्वास नहीं करता है, अतः अविश्वास का उत्पादक होने से इसका नाम अप्रत्यय है १७ | द्रव्य का हरण हो जाने से दूसरों को पीड़ा होती है इसलिये पर को पीड़ा का कारण होने से इसका नाम अवपीड है १८ । परद्रव्य का इस क्रिया से विच्छेद होता है, अर्थात्-चोरे गये द्रव्य को चोर या तहा खर्च कर डालते है, यही परके द्रव्य का विच्छेद है इसलिये इसका नाम परद्रव्यविच्छेद है १९ | स्वामी के हाथ से यह चुराया हुआ द्रव्य निकल जाता है-चोरों के हाथों में आ जाता है, इसलिये इसका << Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तस्करता " छे. (१०) तेमां धननु भयहरण थाय छे, तेथी तेनु नाभ अपहरण छे (११) परधन योरवामां डाथनी डुशणता अम आवे छे, अथवा परधननी थोरीथी हाथमां लघुता-नीयता प्रवेशे छे. तेथी तेनु' नाम हस्तलवुत्व छे. (१२) ते नृत्य पायत्य होवाथी तेनु नाम पापकर्मकरण छे. ( 13 ) ५२. धननु' अपडेशृणु १२वार्थी हुरनारनो नाश थाय छे, तेथी तेनु नाम हरणवि प्रणाश छे (१५) मीलनी अनुमति दिना तेमां धन आदि श्रद्धालु उशय छे, तेथी तेनु' नाम आदान छे. (१६) मीलना द्रव्यनु रागु उखु पे ४ द्रव्यनो विनाश गाय छे, तेथी तेनु' नाम परद्रव्यविच्छेद छे. (१७) पशु માણસ ચારાને વિશ્વાસ કરતા નથી એ રીતે અવિશ્વાસ જનક હોવાથી તેનુ नाम “अप्रत्यय” छे. (१८) द्रव्यनु अपहरण थवाथी अन्यने पीडा थाय छे, तेथी पीडानु अरण होवाथी तेनु' नाम "अवपीड" छे. (१८) परवननो मा ક્રિયાથી નાશ થાય છે, એટલે કે ચાર લોકો ગમે તે પ્રકારે તેને વેડફી નાખે છે. આ પ્રમાણે તે દ્રવ્યને વિચ્છેદ કરાવનાર હોવાથી તેનું નામ ८८ परदव्यविच्छेद ” छे (२०) ते थोरायेषु द्रव्य तेना भाहिना हाथभांथी यादयु लाने For Private And Personal Use Only Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० ३ सू० २ अदत्तादाननामनिरूपणम् नाम उत्क्षेप है २०१ चोर इस द्रव्य को ले जाकर असुरक्षित अवस्था में इधर उधर रख देते हैं-डाल देते हैं, इसलिये इसका नाम विक्षेप है २१॥ चोर चुराकर जब इस द्रव्य को विभाग करते हैं, तब तुलादिक से कमती बढ़ती तौलते हैं-एक सा हिस्सा नहीं करते हैं, इसलिये इसका नाम कूटता है २२ । यह कर्म करनेवालों के कुलों को कलंक लगता है इसलिये इसका नाम कुलमधी है २३। अदत्तादानमें परके द्रव्यको हरण करने में तृष्णा रहती हैं इसलिये इसका नाम कांक्षा है २४ । चोर गहित जल्पना करते हैं, अर्थात् चोरी करलेने पर भी “ मैंने चोरी की है" इस बात को स्वीकार नहीं करते प्रत्युत उसे छुपाने की ही चेष्टा करते हैं, तथा जिस समय ये चोरी करने के लिये चलते है तो किसी अपने इष्ट की प्रार्थना करके ही चलते हैं, इसलिये इसका नाम लालपन और प्रार्थना है २५ । यह कृत्य विनाश का हेतु होने से विनाशरूप एवं समस्त आपत्तियों का कारण होने से व्यसनरूप है इसलिये इसका नाम आशंसना एवं व्यसन है २६ । परधन के हरण करने की अभिलाषा इसमें बनी रहती है इसलिये इसका नाम इच्छा, तथा पर के धन को हरण करने के लिये इसमें अत्यंत मूर्छाभाव होता है इसलिये इसका नाम मृग है २७ । अप्राप्त द्रव्य की प्राप्ति की वाञ्छा तथा प्राप्त द्रव्य की अविनाशेच्छा, ये दोनों अदत्तादान का हेतु हैं-इसलिये इसका नाम ચોરના હાથમાં જાય છે, તેથી તેનું નામ છે. (૨૧) ચાર તે દ્રવ્યને ચોરી જઈને અસુરક્ષિત હાલતમાં ગમે ત્યાં મૂકી દે છે. તેથી તેનું નામ વિક્ષેપ છે. (૨૨) ચોર ચોરી કર્યા પછી જ્યારે તેના ભાગ પાડે છે ત્યારે ત્રાજવા આદિથી વધારે કે ઓછું તાલે છે-એક સરખા ભાગ પાડતા નથી, તેથી તેનું नाम कूटतो छ (२३) २१॥ ४त्य ४२नारना शुगने ४६४ सागे छे, तेथी तेनु नाम कुलमपी छ. (२४) मतदान अडएर ४२वामi onनु द्र०य हरी सेवानी तृ॥ २ छ, तेथी तेनु नाम कांक्षा छे. (२५) यो२ पाडत २६५ना ४२ छ, એટલે કે ચોરી કર્યા પછી પણ પિતે ચોરી કરી છે, તે વાતને સ્વીકાર કરતે નથી, પણ તેને છૂપાવવાનો પ્રયત્ન કરે છે, તથા જ્યારે તેઓ ચોરી કરવા ઉપડે છે ત્યારે પિતાના કેઈ ઈષ્ટ દેવની પ્રાર્થના કરીને જ જાય છે તેથી તેનું नाम लालपन अने प्रार्थना छे. (२६) ते कृत्य विनाशनु ।२९५ पाथी विना. શરૂપ અને સઘળી આપત્તિનું કારણ હોવાથી વ્યસનરૂપ છે, તેથી તેનું નામ आशसना अने व्यसन छ. (२७) ते कृत्य ४२नारने ५२वननु २९ ४२पानी અભિલાષા રહે છે, તેથી તેનું નામ રૂછ તથા પારકાનું ધન ગ્રહણ કરવાની For Private And Personal Use Only Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २७० प्रश्नव्याकरणसूत्रे पूर्व ' यन्नामे ' ति द्वितीयमन्तरि निरूपितम्, साम्प्रतं ' जे वि य करेंति पावा'-इति पञ्चमान्तरंगताँस्तस्करानाह-' तं पुण' इत्यादि. मूलम्-तं पुण करेंति चोरियं तक्करा परदव्वहरा छेया कयकरणलद्धलक्खा साहसिया लहुस्सगा अइमहिच्छा लोभघत्था, ददरओवीलगा य गेहिया अहिमरा अणभंजगा भग्गसंधिया रायदुटकारी य विसय निच्छुढलोगवज्झाउद्दहग. गामघायगपुरघायग --- पंथघायग - आदीवगतित्थभेयया, लहुहत्थसंपउत्ता जूयगरा खंडरक्वत्थी-चोरपुरिस-चोरसंधिच्छेयया, य गांठभेयगा परधणहरणलोमावहारअक्खेवी हडकारग-निम्मदग-गूढचोर, गोचोर अस्सचोर-दासीचोरा य एगचोरा य अकड्ग-संपदायग-ओछिपग-सत्थघायग-बिलकोलीकारगा य निग्गहविप्पलुंपगा-बहुविह-तेणिकक-हरणबुद्धी, एते अण्णे य एवमादी परस्स दव्वाहि जे अविरया ॥सू०३॥ तृष्णागृद्धि है २८। चोरी एक प्रकारका कपटरूप कार्य है अतः इसका नाम निकृति है २९ । चोरको चोरी करते समय कोई देखता नहीं है इस लिये इसका नाम अपरोक्ष है ३०॥ सू०२ ॥ यन्नाम ' नाम का द्वितीय अन्तर्द्वार कह कर अब सूत्रकार 'येऽ पि च कुर्वन्ति पापाः' इस पञ्चम अन्तर्द्वारगन तस्करों का वर्णन करते તેમાં અત્યંત આસક્તિ રહે છે, તેથી તેનું નામ મુકર્જી છે. અપ્રાપ્ત દ્રવ્ય મેળવવાની ઈચ્છા તથા પ્રાપ્ત થયેલ દ્રવ્યને વિનાશ ન થાય તેવી ઈચ્છા તે અદતાદાનના હેતુ હોવાથી તેનું નામ તૃળા છે. (૨૯) ચેરી એક પ્રકારનું ४५८ युक्त कृत्य वाथी तेनु नाम निकृति छ. (३०) यारी ४२ती मते यार કોઈની નજરે પડતા નથી તેથી તેનું નામ અપરોક્ષ છે સૂ-રા “ यन्नाम " नामनु या मतदार वान सूत्र॥२ " येऽपि च कुर्वन्ति पापाः" पांयमा मन्तत योशनु प न ४२ छे. For Private And Personal Use Only Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सुदर्शिनी टीका अ० ३ सू० ३ पञ्चमान्तर्द्धारिगततस्करस्वरूपनिरूपणम् २७१ टीका- 'तं पुण' तत् पुनः 'चोरियं' चौयें 'करेति ' कुर्वन्ति 'तकरा' तस्कराः। कथंभूताः ? इत्याह--' परदव्वहरा' परद्रव्यहराः = परेषां द्रव्याणि हरन्ति ये ते परद्रव्यहराः ' छेया ' छेकाः = चौर्यकर्मनिपुणाः तथा 'कयकरणलद्बलक्खा ' कृतकरणलब्धलक्षाः कृतकरणाः पुनः पुनः कृतचौर्यानुष्ठानास्ते च ते लब्धलक्षा:= चौर्यकर्मावरज्ञास्ते तथा ' साहसिया साहसिकाः = परद्रव्यहरणे मनोबल युक्ताः, 'लहुस्सगा' लघुस्वका:= तुच्छात्मानः ' अमहिच्छा' अतिमहेच्छा=अतिशयिता महती = प्रगाढा इच्छा = तृष्णा येषां ते अतिमहेच्छा = मद्दाभिलाषिणः, 'लोभवत्था' लोभग्रस्ताः = लोभग्रथितान्तः करणाः " ददरओवीलगा' दर्दराऽप्रव्रीडकाः वचनाटोपेन स्वात्मप्रच्छादकाः, तथा 'गेहिया ' गृद्धिकाः = परद्रव्यलोलुपाः हैं-' तं पुण' इत्यादि । } , '= , टीकार्थ - (तं पुण चोरियं तक्करा करेंति) इस चौर्य कर्मको चोर करते ( परदव्वहरा ) ये चोर परद्रव्य को हरण करने वाले होने के कारण परद्रव्य हर कहे जाते हैं (छेया) चोर अपने चौर्यकर्म में निपुण होते हैं (कयकरणलद्बलक्खा) बार २ चोरी करते रहने से ये चौर्यकर्म के अवसर के ज्ञाता होते हैं (साहसिया) परद्रव्य के हरण करने में इनका मानसिक बल बहुत बढा चढा रहता है । ( लहुस्सगा) इनकी आत्मा अतितुच्छ होती है। तथा पर के द्रव्य को अपहरण करने में इनकी ( अहम हिच्छा) महती लालसा रहती है, इसलिये महा इच्छा वाले हैं (लोभवत्था) ये लोभ से बहुत अधिक ग्रसित अन्तःकरण काले होते हैं । ( दद्दरओबी - लगा) इनके बोलने की पद्धति कुछ ऐसी होती है कि जिससे ये देखने वालों को सहसा चोर रूप में भासित नहीं होने पाते हैं । (गेहिया ) "तं " इत्यादि. पुण 66 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टीशर्थ - "तं पुण चोरियां तकरा करेंति " या थोरी त्यो रे छे. "परदव्वहारा ” ते यो। मीननुं द्रव्य हुरी बेनार होवाथी तेभने परद्रव्य હર કહેવામાં આવે છે “Øયા” ચારલેાકા પોતાના ચારી કરવાના કાર્યમાં નિપુણ होय छे. "कयकरण लद्धलक्खा" वारंवार योरी डरा रहे छे तेथी तेो। योरी उरवाना अवसरना व्नशुअर होय छे " साहसिया " अन्यनुं द्रव्य हरी सेवामां તેમનું માનસિક અળ ઘણું જ તીવ્ર હાય છે. “ लहुस्सगा" तेभनो आत्मा અતિશય તુચ્છ હાય છે, તથા બીજાના દ્રવ્યનું અપહરણ કરવાની તેમની अइम हिच्छ " अतिशय सालसा होय छे, तेथी तेथे महेच्छावाणा छे. " लोभघत्था " तेथे बोलथी अतिशय पधारे उडायेतां मतः१२ वाजा होय छे. दद्दरओवीलगा " तेभनी मोतवानी रीत भेवी તે તેમને જોનારની નજરે જલ્દી ચોર રૂપે દેખાતા 66 होय छेडे भेथी " નથી. गेहिया ' For Private And Personal Use Only Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २७२ प्रश्नव्याकरणसूत्रे 'अहिमरा' अभिमराः धनादिलोभेन मरणाभिमुखाः, मरणभयरहिता इत्यर्थः, अथवा चौर्याभिमुखाः सन्तः परान् मारयन्ति ये ते तथा इहान्तर्भावितण्यर्थः, 'अणभंजगा' ऋणभकाः ऋणं मअन्ति=न ददति ये से तथा 'भग्गसंधिया ' भग्गसन्धिका भग्नः सन्धिः-मित्रादिस्लेहो यैस्ते तथा इष्टजनप्रेमवर्जिताः 'रायदुट्टगारी' राजदुष्टकारिणः राजनीतिविरुद्धाचरणाः 'विलयनिच्छूढलोगवज्झा' विषयनिक्षिप्तलोकवाह्या विषयात् जनपदात् निक्षिप्ताः निष्कासिताः अत एवं लोकवाद्याः जनहिभूताः । उद्दहगगामघायगपुरघायगपंथघायगआदीवगतित्थ भेयगा' उद्रोहक ग्रामघातक-पुरघातक-पथिघातक-ऽऽदीपकतीथभेदकाः तत्र उद्रोहकाच-हिंसकाः ग्रामघातका ग्रामनाशकाः, पुरघातका नगरविध्वंसकाः पथिये परद्रव्य में विशेष लोलुप होते हैं । ( अहिमरा ) धनादिक के लोभ में पड़कर ये मरण के भी अभिमुख रहते हैं-इन्हें मरण का भय नहीं होता है । अथवा चौर्य कर्म में प्रवृत्ति करने पर दूसरों को भी उस समय बाधा डालने पर मार डालते हैं । ( अणभंजगा) इनके ऊपर किसी का कर्जा हो तो भी ये उसे नहीं देते हैं। (भग्गसंधिया) ये अपने इष्ट मित्रादिकों से भी प्रेन नहीं करते हैं। उन पर स्नेह करने से अथवा उनके स्नेह से ये वर्जित रहते हैं । ( रायबुङगारी ) राजनीति के विरुद्ध इनका सदा आचरण रहता है । (विसयनिच्छूढलोगवज्झा) जनपद से ये निकाल दिये जाते हैं, इसलिये ये लोकबाह्य होते है । (उद्दहगगामघायगपुरवावगपंथघावगआदीवगतित्थभेयया ) ( उद्दहग ) ये बड़े भारी द्रोही होते हैं जिनपर इनकी वक्रदृष्टि पड़ जाती है उसकी फिर कुशल नहीं। ( गामघायग) गांवों के गांव नष्ट कर डालते हैं। ( पुर घायग ) नगरों ते। ५२द्रव्यमा अतिशय सोप हाय छे “अहिमरा” पनादिना सोममा ५हीने તેઓ મરણની પણ સ-મુખ રહે છે-તેમને મતની બીક લાગતી નથી. અથવા शोरी ४२वा त तमा माजीसी ३५ थनारने मारी ना छ.." अणभंगा" तेमनी पासे नसोय तो ते! ते युवता नथी. “भगसंधिया"तेमा પિતાના ઈષ્ટ મિત્રાદિ તરફ પણ પ્રેમ રાખતા નથી, તેમના પર સ્નેહ રાખવાથી मा तेमनी रने प्रात ४२वाथी ते २हित डायछ. “रायदुदुगारी” २४ नीतिया विरुद्धतेनु भायण शा२३." विसयनिच्छूढलोगवझा" जन्यमयी तमने sizी वामां आवे छे तेथी तमा ४ हाय छे. “ उद्दहगगामघायगपुरघायगपंथमायगआदीवगतित्थभेयया " " उद्दहग” तेरा मारे द्रोही जाय छ, मना ५२ तमनी ष्टि ५ छ तेभनी सलामती २३ती नथी. " गामघा. यगा" तेमा गाभान भी नष्ट ४२री नामेछ. “पुरघायग" नगरोनी नाश For Private And Personal Use Only Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टोका अ० ३ सू० ३ पञ्चमान्तरगततस्करस्वरूपनिरूपणम् २७३ घातकाः पथि-मार्गे जनानां घातका अव्यलुण्ठनाथ प्रहारकाः आदोपकाश्च= गृहादिदाहकाः तीर्थभेदकाश्च यात्रिकजनधनापहारकाश्च 'लहुहत्थसंपउत्ता' लघुहस्तसम्प्रयुक्ताः लघुः परद्रव्यहरो निपुणो हस्ता-हस्तव्यापारपरावणाः, 'जूयगरा' तकराः, ' खंडरक्खत्याचोरपुरिसचोरसंधिच्छेयया य' खण्डरक्षस्त्रीचौरपुरुषचौरसन्धिच्छेदकाः = तत्र खण्डरक्षा शुल्कपालाः उत्कोचग्राहित्वाचौराः, स्त्रीचौराः स्त्रियश्चोरकाः स्त्रीसकाशाचौरकाः स्त्रियमेव चोरयतीति स्त्रीचोरकाः, तथा स्त्री वेशेन चोरका वा । तथैव पुरुष चौराश्च सन्धिच्छेदकाः सन्धि-भित्यादौ विवरं 'संध ' ' खात्र ' इति भाषा प्रसिद्ध छिन्दन्ति-अवनन्ति ये ते सन्धिच्छेदकाः 'गंठिभेयगा' ग्रन्थिभेदकाः पसिद्धाः ‘परधणहरणलोमावहार अक्खेवी' परको विध्वंस कर देते हैं । ( पंथघायण ) द्रव्य हरण करने के अभिप्राय से मार्ग में चलने वाले मनुष्यों को ये देखते २ मार डालते हैं । (आदीवग ) गृहादिको में आग लगा देते हैं। (तित्थभेयगा ) यात्रिजनों के भी द्रव्य लूट लिया करते हैं । (लहुहत्यसंपउत्ता ) हाथकी सफाई इनकी इतनी जबर्दस्त होती है कि ये देखते २ ही दूसरों के धन को चुरा लेते हैं। ( खंडपखत्थीचोरपुरिसचोरसंधिच्छेयया य ) इसी तरह जो खंड. रक्ष-शुल्कपाल होते हैं ये जो घूसखोरी करने वाले होते है वे चोर माने जाते हैं वे यहां लिये गये हैं स्त्रीचोर-स्त्रियों के पास से द्रव्यादि चुराने वाले, अथवा स्त्रियों को उठाकर ले जाने वाले, अथवा स्त्री के वेश में रहकर चोरी करने वाले होते हैं, इसी प्रकार पुरुषचोर भी होते हैंपुरुषों के पास से द्रव्यादिक चुराने वाले होते हैं, अथवा पुरुषों को धोखा देकर इधर उधर ले जाने वाले होते हैं अथवा पुरुष के वेश में ४ जेठे, “ पंथघायगा" द्रव्य देवाने माटे तेथे। प्रवासीमाने त नेतामा भारी नामे छ. “ आदीवग" ५२ मेरेमा म सगाई छ, तित्थभेयगा” यात्रानां द्रव्यने ५७४ सूटी से छ, “ लइहत्यसंपउत्ता" योरी ४२વામાં તેમને હાથ એટલે કુશળ હોય છે કે તેઓ જોત જોતામાં અન્યનું धन योरी से छे. " खंडरक्खन्थीचोरपुरिसचोरसंधिच्छेयया च " थे। પ્રમાણે જે ખંડરક્ષ-શુલ્કપાલ હોય છે-જે ઘુસખોરી કરનારા (લાંચ લેનાર) હોય છે તેમને ચોર ગણવામાં આવે છે. સ્ત્રીર–સ્ત્રીઓની પાસેથી દ્રવ્ય ચોરનારા, અથવા સ્ત્રીઓને ઉપાડી જનારા અથવા સ્ત્રીના વેશમાં જઈને ચોરી કરનારા હોય છે, એ જ પ્રમાણે પુરુષો પણ હોય છે- પુરુષોની પાસેથી દ્રવ્યાદિકને ચોરનાર, અથવા પુરુષોને દગો દઈને ગમે ત્યાં લઈ જનારા, અથવા પુરૂષના For Private And Personal Use Only Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २७४ प्रश्नव्याकरणसूत्रे धनहरणलोमावहाराऽऽक्षेपिणः = तत्र परधनं हरन्ति ये ते परधनहरणाः, लोमान्यवहरन्ति ये ते लोमावहराः = त्रधपूर्वक लुण्ठनकारिणः आक्षेपिणः = वशीकरणादिना चौर्यकारिणः ' हडकारगनिम्मदगगृहचोरगोचर अस्सचोरदासीचोरा य ' हठका रक निर्मर्दकगूढ चौरगोचौराश्व चौरासी चौराश्च तत्र हठं = बलात्कारं कुर्वन्तीति इठकारकाः, निर्मर्दकाच= निरतिशयेन मर्दनका रिणः युद्धेन धनापहारिणः, गूढचौराः= गुप्तचौरा, गौ चौरा अश्वचौरा दासीचौराव = प्रख्याताः =त एव ' एगचोरा ' एक चौराः = एकाकिन एव चोरयन्ति ये ते 'ओकडूगसंपदायगा ओलिंपगसत्यवाया, frontatकारगाय ' अपकर्षक सम्प्रदायकावच्छिक सार्थघातकविलकोलीकाररहकर चोरी करते हैं, संधिच्छेदक-भित्यादिक में सेंध करके चोरी करते है, (गठिया) ग्रन्थिभेदक गांठ कतरते हैं ( परधण हरगलोमावहार अवखेवी ) परधनहरणलोमापहाराक्षेपी होते हैं परके धन को हरण करने वाले, वध करके धनको हरण करने वाले वशीकरण मंत्र से वश करके धन को हरण करने वाले होते हैं ( हडकारगनिम्मदगगूढ चोरगोचोर अस्सचोरदासीचोरा य ) ( हडकारण ) बलात्कार से धन को हरण करने वाले, ( निम्मदग ) निर्मर्दक- युद्ध करके धन को हरण करने वाले, ( गूढचोर ) गुप्तरूप में रहकर पर के धन को हरण करने वाले, ( गोचोर ) गाय को हरण करने वाले, (अस्सचोर ) अश्व को हरण करने वाले, ( दासीचोर ) दासी को हरण करने वाले, ( एगचोरा य) अकेले रहकर पर के धन को हरण करने वाले, (ओक डुगसंपदायगा ओलिंपगसत्यवायगविलकोलीकारगा य ) ( ओकड्डग ) 61 CL વેશમાં જઈને ચોરી કરનારા હોય છે, સંધિચ્છેદક-દિવાલ આઢિમાં કાણુ પાડીને ચોરી કરનારા હોય છે, गंठिभेोयगा " ग्रन्थिलेड - मिस्सा उतरे छे, "परधणहरणलोभावहार अक्खेबी " પરધનહરણ લાભાપહારાક્ષેપી હોય છે-પરધનનું હરણ કરનારા, હત્યાકરીને ધનનું હરણ કરનારા. વશીકરણ મંત્રથી વશ કરીને ધનનું અપહરણ કરનારા હેાય છે, हडकारग निम्मद्दग गूढचोरगोचोर असचोरदासीचोरा य” “ हडकारग " मालारथी धनने हरी नारा, ' निम्महग " निर्म::-युद्ध उरीने धनने हुरी होनारा “ गृढचोर " गुप्तरीते रहने परंतु धन हुरी बेनारा, "गोचर" गायनु मया ४२नारा, अस्सचोर " घोडानी थोरी हरनार, “ दासीचोर " हासीनी योरी ४२नार, " एगचोराय " भेलो ने पाराना घननु डुगु प्रश्नारा " ओकतपदायगा ओछिंदग reator विलकोलीकारगा य " ओका " आप मीलना घरमाथी 66 66 - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी ठोका अ० ३ सू. ३ पञ्चमान्तरगततस्करस्वरूपनिरूपणम् २७५ काश्च तत्र अपकर्षकाः अपकर्षयन्ति परगृहेषु चोरयितुं चौरानाह्वयन्ति ये तेऽपकर्षका, यद्वा-चोरितं धनमपनीयाऽन्यस्थाने नयन्ति ये ते तथा, तथा शरीरादितो भूषणादि निष्कासका वा, सम्प्रदायकाः चौरान स्वगृहे संस्थाप्य भोजनादि दायकाः, अवच्छिपकाः चोरविशेषाः सार्थयातकाः असिद्धाः बिलकोलीकारकाच= परव्यामोहर्थ विश्वासवचनवादिनः, देशीशब्दोऽयम् । 'निग्गहविप्पलंयगा' निग्रहविप्रलुम्पकाः तत्र निग्रदेणबशीकरणेन शस्त्रादिभयमदर्शनपूर्वकं परं निरुध्येत्यर्थःविश्लुम्पकाः-लुण्टनकारिणः, 'बहुविइतेणिकहरणबुद्धी' बहुविधस्तैन्यहरणबुद्धयः= बहुविधेन स्टैन्येन-चौर्येण हरणे परद्रव्यापहरणे बुद्धिर्येषां ते तथा परद्रव्यहरणबुद्धिशालिनः एते-पूर्वोक्ताः 'अण्णे य ' अन्ये च ' एवमादी जे' एवमादयो ये-एवम्पकाराः ये ' परस्स दव्याहिं अविरया ' परस्य द्रव्येषु अविरताः, सूत्रे तृतीया सप्तम्यर्थे परस्य धनधान्यादि ग्रहणे अनिवृत्ताः परद्रव्यग्रहणासक्ता इत्यर्थः सन्ति ते चौर्य कुर्वन्तीति पूर्वेण सम्बन्धः ।।सू०३।। अपकर्षक-पर के घर से द्रव्यादिकों को चुराने के लिये साथ में दूसरे चोरों को बुलाकर चोरी करने वाले, अथवा चुराये हुए धन को दूसरे स्थान में ले जाने वाले, अथवा शरीर आदि से भूषण निकालने वाले, (संपदायग ) संप्रदायक-चोरों को अपने घर में रखकर उन्हें भोजन आदि देने वाले, अवछिपक-ये भी चोर होते हैं सार्थघातक जनसमूहका घात करने वाले, विलकोलीकारक-परको व्यामोह करने के लिये विश्वास वचन बोलने वाले (निग्गहविप्पलंपगा) शस्त्रादिक का भय दिखला करके दूसरों को रोक कर लूट करने वाले (बहुविहतेणिकहरणबुद्धी) तथा अनेकविधचौर्यकर्म करने में निपुण बुद्धिवाले होते हैं ऐसे ( एते अण्णे य एवमादी परस्स वाहिं जे अविरया) ये सब व्यक्ति तथा इनसे વ્યાદિની ચોરી કરવાને માટે બીજા ચોરેને સાથે લઈને ચોરી કરનારા, અથવા ચોરેલા ધનને બીજી જગ્યાએ લઈ જનારાં. અથવા શરીર આદિ પરથી આ भूषा। सेनाश, “संपदायग" सहाय-योगने पोताना घरमा माश। આપીને ભેજન આદિ દેનારા, અવષ્ઠિપક–તે પણ ચાર જ હોય છે, સાથેઘાતક–જનસમૂહની હત્યા કરનારા, બિલકલાકારક-બીજાને ફસાવવાને માટે વિશ્વાસ उत्पन्न ४२ ते वयनी मासान, " निग्गहविपलुपगा" शस्त्रादिना मय मताकी मीतने मवीन टी सेना, बहुविहतेणिकहरणबुद्धी" तथा भने प्रा२नी यारी ४२वामा शुश भुद्धिवाणा हाय छे. सेवा" एते अण्णेय एवमादी पररस व्वाहि जे अविरया" से. या सो तथा ते सिवायना मीत For Private And Personal Use Only Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे एवं 'येऽपि च कुर्वन्त्यदत्तादान' मिति पञ्चमान्तरं निरूप्य ' यथा च कृतम्' इत्यदत्तादानस्य तृतीयान्तारमाह-विउलबले'त्यादि मूलम्-विउलवलपरिग्गहा य बहवो रायाणो परधणम्मि गिद्धा सए दव्ये असंतुहा परविसए अहिहणंति लुद्धा परधणस्स कए, चउरंग समत्तबलसमग्गा निच्छिय वरजोहजुद्धसद्धा य अहमहमितिदप्पिएहिं सेन्नेहिं संपरिवुडा पउमसगडसूइचक्कसागरगरुलबहादिएहिं अणीएहिं उच्छरंता अहिभूय हरंति परधणाई ॥ सू० ४ ॥ ___टीका-विउलालपरिगहा य' विपुलबलपरिग्रहाश्व-तत्र विपुलम् विशालं बलं सामर्थ्य सैन्यं वा परिग्रहा: परिवारो येतो ते तथा, बहवः अने के ‘रायाणो' राजानः 'परधणनि गिद्धा' परधने गृद्धाः परद्रव्यासक्ताः 'सए दवे' स्वके द्रव्ये निजधने 'असंतुहा' असन्तुष्टाः 'लुद्धा' लोभवन्तः सन्तः 'परविसए' परविषयान् भिन्न इसी तरह से और भी व्यक्ति जो दूसरों के द्रव्यहरण करने रूप कार्य में विरति भाव से रहित होते हैं, इन सबको चोरों की श्रेणि में ही परिगणित जानना चाहिये ॥ सू०३ ।। ___ इस तरह " जो अदत्तादान को करते हैं " इस रूप यह पंचम अन्त र कहकर अब सूत्रकार " यथा च कृतम् " इस तृतीय अन्तर को कहते हैं-'विउलबलपरिग्गहा ' इत्यादि । टीकार्थ-(विउलबलपरिग्गहा) विपुल सैन्य एवं परिवारवाले ( बहवो रायाणो) अनेक राजा लोग ( परधम्मि गिद्धा ) परधन में आसक्त तथा (सए दवे असंतुट्ठा ) अपने पास के द्रव्य में असंतुष्ट और લોકો કે જે બીજાના દ્રવ્યનું અપહરણ કરવાના કાર્યમાં વિરતિભાવથી રહિત હોય છે–તે કાર્યમાં લીન હોય છે તે બધાને ચોરેની શ્રેણીમાંજ મૂકવા જઈઓ સૂવા આ રીતે “જે અદત્તાદાનનું સેવન કરે છે તે પ્રકારના આ પાંચમાં सन्तान ४थन दोन वे सूत्रा२ " यथा च कृतम्" तेत्री सन्तान ४थन ४२ छ-" विउलबलपरिग्गहा ” छत्यादि टी -“विउलबलपरिगहा" विधुर सैन्य अने परिवार वा॥ " बहवोरायाणो "मने रातमे। " परधणम्मि गिद्धा" ५२यनमा सxt तथा “सएव्वे असंतुद्वा” पोतानी पासेना द्रव्यथा असंतुष्ट भने "लुद्धा " टोलयुटत For Private And Personal Use Only Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० ३ सू० ४ परधनलुब्धनृपस्वरूपनिरूपणम् २७७ अन्यजनपदान् देशानित्यर्थः परधणस्स कए परधनस्य कृते परद्रव्यग्रहणार्थम् 'अहिहणंति' अभिघ्नन्ति आक्रमन्ति आक्रमणं कुर्वन्ति इत्यर्थः। तथा 'चाउरंगमसत्तवल समग्गा' चतुरङ्गसमस्ावलसमग्राः चतुर्भिरङ्गैः = गजरथाश्वपदातिरूपैः सेनाऽवयवैः समस्त सम्पूर्ण रलं-सैन्यं तेन समग्राः=युक्ताः चतुरङ्गसेनायुक्ताः 'निच्छियवरजोहजुद्धसद्धा य’ निश्चितवरयोधयुद्धश्रद्धाश्र-तत्र निश्चितैः निर्धारितैः स्थायिरूपेण नियुक्तनिश्चयवद्भिर्वा वर्ग प्रशस्तैः योधैः भटैर्यद् युद्धं तत्र श्रद्धा प्रेमादरो येषां ते तथा ' अहमह 'मिति दप्पिएहिं ' अहमहमितिदपि तैः= अहमेवैकवीरः' इत्येवं दर्पितः = गस्तैिः 'सेन्नेहिं ' सैन्येः 'संपरिखुडा' सम्परिटताः सनद्धाः साजीभूता ‘पउमसगडमइचक्कसागरगरुलबहादिएहिं ' पद्मशकटमचीचक्रसागरगरुडव्यूहादिकैः = पद्माकारव्यूहशकटव्यूहमूचीव्यूहचक्रव्यूहसागरव्युहगरुडव्यूहादिकाः सैन्यर वनाविशेषास्ते विद्यन्ते येषु तैस्तथाभूतैः, 'अणीएहिं ' अनी कैः(लुद्धा) लुब्ध होकर ( परधणस्स कए) दूसरों का धन लेने के लिये (परविसए ) दूसरे राजाओं के देशों के ऊपर ( अहिहणंति ) आक्रमण करते हैं, तथा ( चाउरंगसमत्तबलसमग्गा ) गज, रथ, अश्व एवं पदाति रूप चार अंगों वाली सेना से युक्त एवं (निच्छियवरजोहजुद्धसद्धा य) स्थायी रूप से नियुक्त किये हुए अथवा अटल निश्चय से युक्त हुए ऐसे प्रशस्त योद्धाओं के साथ युद्ध करने में आदरभाव वाले और ( अहमहमिति दपिएहिं ) " मैं ही एक वीर हूं" इस प्रकार के गर्व वाले ( सेन्नेहिं ) सैन्य से (संपरिबुडा ) परिधृत-युक्त होकर (पउमसगड मइचक्कसागरगरुलचूहादिएहिं ) पद्माकार व्यूहवाले, शकटव्यूह वाले, सूचीब्यूहवाले, चक्रव्यूहवाले, सागरव्यूहवाले, एवं गरुडव्यूह आदि वाले (अणीएहिं ) सैन्य से प्रतिपक्षी के सैन्य को ( उच्छरंता) थने “ परधणास कए " ilonनु धन प्रास ४२वाने भाटे "परविसए" bilod सतना प्रदेश ५२ " अहिहणंति” मामा ४२ छ, तथा " चाउरंग समत्त. - बलसमग्गा" हाथी, २५, म पने पायो यतुगी सेना सहित भने " निच्छियवरजोहजुद्धसद्धा य" स्थायी रीते ४२ मा निश्चयवाणा અને યુદ્ધ કરવામાં આદરભાવ રાખનારા પ્રશસ્ત દ્ધાઓની સાથે અને " अहमहमिति इपिएहिं" " २४ वीर " २ १२ वाणा "सेन्नेहि सैन्यथी “संपरिखुडा" परिश्त-युत ने “पउमसगडसूइचक्कसागरगरुलल्लूहादिपाह" ५२ व्यूडाणा, २४८०यूया, सूयी-यूप२२व्यूड पाणा, सागर च्यूडकाण: मने १२७ २माहि न्यूडा, "अणीएहिं " सैन्यथा For Private And Personal Use Only Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २७८ प्रश्नव्याकरणसूत्रे सैन्यैः ‘उच्छरंता' आस्तृण्वन्तः प्रतिपक्षसेनामाच्छादयन्तः, 'अहिभूय ' अभिभूय आक्रमणेन शत्रुसैन्यं पराजित्य हठात् 'परधणाई' परधनानि हरन्ति ।।०४।। तथान्ये राजादयो यथा परधनादीन्यपहरन्ति तदाह-'अबरे ' इत्यादि मूलम्-अवरे रणसीसलद्धलक्खा संगाम अइवयंति, सण्णद्धबद्धपरियरउप्पाडियचिंधपट्टगहियाउहपहरणा माढीवरवम्मगुंडिया, आविद्धजालिया कवयकंडगिया, उर. सिरमुहवंद्धकंठतोणा, पासियवरफलगरइयपहकरसरभस खरचावकरकरंचियसुनिसियसरवरिसवडकरगमुयंतघणचं. डवेगधारानिवायमग्गे, अणेगधणुमंडलग्गसंधियउच्छलिय सत्ति--कणग--वामकर--गहिय--खेडग--निम्मल--- निकिट्ठ-खग्ग-पहरंत-कुंत-तोमर-चक्क-गया-परसु-मुसल -लंगल-मूल-लउड-भिडिपाल-सब्बल-पट्टिस-चम्मेट्रघण-मोट्ठिय-मोग्गरवर-फलिह-जंत पत्थर-दुहण-तोण कुवेणी-पीढाकलिए ॥ सू० ५॥ टीका-'अवरे' अपरे केचित् नृपाः 'रणसीसलद्धलक्खा' रणशीर्षलब्धलक्ष्याः रणशी-संग्रामशिरसि लब्धलक्ष्याः -वैरीवेधने-सिद्धहस्ताः सन्तः स्वयमेव 'संगाम' आच्छादित करते हुए ( अहिभूय ) अपने आक्रमणों से उसे पराजित करके ( परघणाई ) परधन को ( हरंति ) हरण करते हैं। सू०४॥ जो अन्य राजादिक पर के धन आदि हरण करते हैं उनको कहते हैं-' अवरे' इत्यादि टीकार्थ-(अवरे ) कितनेक राजा ( रणसीसलद्धलकवा) जो रणशीर्षलब्ध लक्ष्यवाले होते हैं-वैरी को मारने में सिद्ध हस्त होते हैं प्रतिपक्षीमा अन्यने “ उच्छरंता" घरी ने “अहिभूय " पाताना मसाथी तेने उरावीने “ परधणाई" ५२धन " हरंति " ९२९] ४२ छ । सू. ४॥ જે બીજા રાજાદિકે પરધન આદિનું હરણ કરે છે તેમનું વર્ણન કરતાં सूत्रा२ ४ छ-" अवरे " त्याह टी -“अवरे" old सा २सम्मे। "रणसीसलद्धलक्खा" २ २९शी. MA५२क्ष्य हाय दुश्मननी उत्या ४२वामा निपुण डाय छ “ संगाम For Private And Personal Use Only Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २७२ सुदर्शिनी टोका अ) ३ सू० ४ परधनलुन्धनृपस्वरूपनिरूपणम् संग्रामे 'अइवयंति' अतिपतन्ति-युद्धं कर्तुं प्रवर्तन्ते । कथं भूताः ? इत्याह'सण्णद्धबद्धपडियर-उप्पाडियचिंधपट्टगहियाउहपहरणा' सन्नद्धवद्धपरिकरोत्पाटितचिन्हपटगृहीतायुधप्रहरणाः-तत्र सन्नद्धाः युद्धसामग्रीभिः सज्जीभूतास्तथा, बद्धः परिकरः कवचो यैस्ते बद्धपरिकराः बद्धकवचाः तथोत्पाटितः दृढं बद्धो मस्तके चिन्हपटः रक्तपट्टादि स्वचिन्हविशेषो यैस्ते तथा गृहीतानि परिधृतानि रिपुहननाथमायुधानि-वाणादीनि प्रहरणानि-खड्गादीनि यैस्ते च तथा पदत्रयस्य कर्मधारयः । 'माढीवरवम्मगुंडिया' माढीवरवर्मगुण्डिताः-तत्र-माढी शरीरत्राणविशेषाः देशीशब्दोऽयं वरवर्माणि प्रधानकवचानि तैर्गुण्डिताः-आच्छादितशरीराः, आविद्धजालिकाः निबद्धलोहकञ्चुकाः ‘कवयकंडगिया' कवचकण्टकिताः-सकण्टक कवचेन कण्टकिताः, 'उरसिरमुहबद्धकंठतोणा' उरः शिरोमुखबद्धकण्ठतोणाः तत्र ( संगामं अइवयंति ) वे स्वयमेव संग्राम में उतर आते हैं-युद्ध करने में प्रवृत्ति वाले हो जाते हैं ऐसे ये राजा लोग (सण्णद्धबद्ध पडियर उप्पा. डियचिंधपट्टगहियाउहपहरणा ) ( सण्गद्ध ) पहिले तो युद्धसामग्री से सज्जीभूत होते है, ( बद्धपडियर ) कवच से बांधकर अपने शरीर को सुरक्षित रखते हैं, (उप्पाडियचिंधपट्ट ) मस्तक पर रक्तपट्टादिरूप चिह्नविशेष को दृढतररूप में बाँधते हैं, (गहियाउहपहरणा) रिपु को नष्ट करने के लिये वाण आदि आयुधों को और खङ्ग आदि प्रहरणों को अपने पासमें रखते हैं (माढीवरवम्मगुंडिया) माढी-शरीर वाणविशेष एवं उत्तम कवच से इनका शरीर आच्छादित रहता है, (आविद्धजालिका ) इनके शरीर पर लोहनिर्मित कवच बंधा रहता है ( कवयकंडगिया) काँण्टे वाले कवच से ये युक्त होते हैं, (उरसिरमुहबद्ध अइवयंति" तेथे ते ०४ २४सभाममा उती ५ -युद्ध ४२वान तैयार ४ नय छ, मेवा ते या "सण्णद्धबद्धपडियरउत्पडिय-चिंधपट्टगहिया. उहपहरणा” “सण्णद्धा' ५i तो युद्धनी सामग्री स४४ ४२१वे छ, " बद्धपडियर" ५५५२ पडेशन पोताना शरी२ने सुरक्षितमानावे . " उप्पाडिय चिंधपट्ट” भ२०४ ५२ र पहि पाहि पास यिने भरभूत रीते सांधे “ गहियाउहपहरणा” दुश्मनन। ना ४२वाने माटे oney All आयुधे। भने तसपा२ माहि शत्रो पोतानी पासे राधे छ “ माढीवरवम्मगुडिया" मातीશરીરના રક્ષણ માટેનું એક સાધન, અને ઉત્તમ બખતરથી પિતાના શરીરને भा२४ाहित ४२ छ, “ आविद्धजालिका" तेमना १२२ ५२ सोढार्नु मत२ सांधेदुखाय छे, " कवयकंडगिया " तेयो sieuni. क्यथा यु४॥ य छ, For Private And Personal Use Only Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे उरसा-वक्षःस्थलेन सह शिरोमुखाः-उर्ध्वमुखा बद्धाः कण्ठे ग्रीवायांतोणा: चूणीराः 'तरकस' इति तीरभाता' इति वा भाषाप्रतीता यैस्ते तथा एतादृशा नृपाः गच्छन्ति संग्रामे इत्याह – ' पासियवरफलगरइयपहकरसरमसखरचावकरकरंचियमुनिसियसरवरिसबड्डुकरकमुयंतघणचंडवेगधारानिवायमग्गे , पाशितवरफलकरचितपकरसरभसखरचायकरकराश्चितसुनिशितशरचर्पटद्धकरकमुच्यमानधनचण्ड वेगधारानिपातमार्गे-तत्र ' पासिय ' इति स्पृष्टानि = हस्ते धृतानि वरफलकानि-परशस्वमहारप्रतिरोधकशस्त्राणि — ढाल ' इतिमसिद्धानि यैस्ते, तथा रचितः कृतो रिपुशस्त्रप्रतिघातार्थ 'पहकर ' इति प्रकरः = रचनाविशेषेण सैन्यसमूहो येस्ते, तथा सरभसाः महर्षाः सवेगा वा खरचापकरा:-निष्ठुरधनुः कंठतोणा ) इनके वक्ष्यस्थल पर तूणीर-तरकस-बांधा जाता है, इनमें उर्ध्वमुख करके वाणग्रीवा के पास भरे रहते हैं । इस प्रकार से पहिले सज्जित होकर कितनेक राजा संग्रामभूमि में युद्ध करने के लिये (अइवयंति ) उतरते हैं । इस प्रकार से यहां संबंध लगा लेना चाहिये। जिस युद्ध में राजा उतरते हैं वह युद्ध किस प्रकारका होता है ? सो कहते हैंजिस संग्रामभृमिमें (पासियवरफलग) निष्ठुर धनुर्धारीजन अपने ऊपरसे परके शस्त्रप्रहारोंको रोकने के लिये ढालोंको हाथों में लिये होते हैं, (रइयपकर ) शत्रु के शस्त्रों का प्रतिघात करने के लिये वे अपनी २ सेना को एक विशेष प्रकार की रचना में स्थापित किये हुए रहते हैं तथा ( सरभस ) परस्पर में युद्ध करने का चाव जहां आपसमें खूब चढ़ा बढ़ा होता है-हर्ष अथवा धेग से जो युक्त होते हैं ऐसे (चावकर) धनुर्धारियों " उरसिरमुहबद्धकंठतोणा" तेमना पक्ष-५॥ ५२ तू०॥२-माथा liधेटा डाय छे. તે ભાથામાં બાણ ઉર્ધ્વમુખ રહે તેમ, ડેકની પાસે ભરેલાં રહે છે. આ રીતે पi Rare याने 213 राय युद्ध ४२वाने भाटे २शुभहानमा “ अइवयंति" तरी ५ छ, मे प्रारना समय ही समय मेवानी छ.२ યુદ્ધમાં રાજા ઉતરે છે તે યુદ્ધ કેવું હોય છે? તેના જવાબમાં કહે છે– रे शुभहानमा “पासियवरफलग' निहय धनुर्धामा हुश्मनाना शस्त्र प्रहाशने शबाने माटे पोताना डायमा दास रामेछ, तथ! "रइयपहकर" शत्रुना शस्त्रोनी મુકાબલો કરવાને માટે તેઓ પિતાપિતાની સેનાને એક વિશિષ્ટ પ્રકારની વ્યુહ રચनामांवे , तथा “सरभस" अन्योन्य सवाना ज्या भू५ २३ छ. ७५ अथवा वेगथी युतीय छे ! “चावकर" धनुर्धारीमा ! rii “कर चि For Private And Personal Use Only Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनीटीका अ० ३ सू० ५ परधनलुन्धनृपस्वरूपवर्णनम् २८१ र्धारिणः तैः कराश्चिताः कराकृष्टा ये सुनिशिताः अतितीक्ष्णाः शराः बाणास्तेषां यो वर्षः वर्षणं स वृद्धकरकमुश्चद् घनचण्डवेगधारानिपात इव यत्र, स तथा, यथा मेघस्य प्रचण्डवेगयुक्तः स्थूलोपलधारानिपातो भवति तद्वत् शरवर्षणं यत्रेत्यर्थः तस्य मार्गद्वारभूतस्तस्मिन् संग्रामे पुनः कीदृशे ? इत्याह-' अणेगवणुमंडलग्गसंधियउच्छलियसत्तिकणगवामकरगहियखेडगनिम्मलनिकिट्ठखन्गपहरंतकुंत तोमरचक्कगयापरमुमुसललंगलमूलल उडभिडिपालसब्बलपहिसचम्मेठ्ठधणमोहिमो. ग्गरवरफलिहजंतपत्थरदुहणतोणकुवेणीपीढाकलिए' तत्र 'अणेगधणुमंडलग्ग' अनेकधनुर्मण्डलाग्राः = अनेकानि धषि मण्डलागानि = खड्गविशेषाश्च तथा ‘संधियउच्छलियसत्तिकणग' सन्धितोच्छलितशक्तिकनकाः = सन्धिताः= सन्धानीकृताः सज्जीकृता इत्यर्थः उच्छलिताः-उर्ध्वगताच शक्तयः शस्त्रविशेषाः कनकाः घाणाश्च तथा 'वामकरगहियखेडगनिम्मलनिकिट्ठखग्ग' वामकरगृहीत खेटकनिमलनिकृष्टवङ्गा-तत्र वामकरे गृहीतानि खेटकानि = परपहारपतिरोधकशस्त्राणि 'ढाल ' इति प्रसिद्धानि निर्मला:-उज्ज्वलीकृताः तीक्ष्णीकृताः खड्गाः द्वारा जहाँ पर ( करंचियसुनिसियसरवरिस ) अति तीक्ष्ण बाणों की वर्षा मेघों के द्वारा ( वडकरकमुयंतघणचंडवेगधारानिवायमग्गे ) प्रचण्डवेगवाली स्थूल ओलों की वर्षा जैसी की जाती हैं। तथा जो संग्राम ( अणेगधणुमंडलांग) अनेक धनुषों से एवं मंडलानों-तलवार विशेषों से (संधियउच्छलियसत्ति) सज्जीकृत उच्छलित शक्तियों से-इस नाम के शस्त्र विशेषों से, ( कणग) कनकों से-बाणों से ( वामकर गहिय खेडग ) वामकर में गृहीत ढालों से, ( निम्मलनिक्किट्टखग्ग ) तीक्ष्णीकृत खड्गों से, ( पहरंत ) प्रहार करने में व्याप्रियमाण ऐसे (कुंत) यसुनिसियसरवरिस' अतिशय ती माये।नी वृष्टि पाणी वा! " बढकरकमु. यंतघणचंडवेगधारानिवायमग्गे” प्रय गाजा मोटा ४२रानी वृष्टिनी रेभ ४२॥य छे. तथा रे साम "अणेगधणुमंडलम्ग' मने धनुषाथी मने माओ (तापाथीविशेषो )थी “ संघिय-उच्छलिय सत्ति " At०८ ४२८ छवित शक्तियोथी (ये नमन शस्त्र विशेषाथी ) "कणग" नथी थी, " वामकरगहिय खेडग" 121 डायम. सोल ढाatथी, " निम्मल निक्किटुःखगग" तीक्ष मनावे साथी “ पहर त" प्रा२ ४२वामा १५राता " कुंत" मायामेथी “ तोमर" प्र. ३६ For Private And Personal Use Only Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८२ प्रश्नव्याकरणसूत्रे तथा 'पहरंत' पहियमाणाः पहारे व्याप्रियमाणा ये कुन्ताः भल्लाः तोमराश्य'सुरज' इति भाषा प्रसिद्धाः 'चक्क' चक्राणि 'गया'गदाः प्रसिद्धाः 'परसु' परशवः =कुठाराः तथा मुसलाः प्रसिद्धाः 'लंगल' लागलानि हलानि शुलानि= लौहास्त्रविशेषाः 'लउड' लगुडाः यष्टयः भिडिपाल' भिन्दिपाला: गोफण' इति ख्याताः ‘सब्बल ' इतिशस्त्रविशेषाः 'पट्टिस' पट्टिशाः भल्लप्रभेदाः 'चम्मे?' चर्मेष्टाः चर्मवद्धपाषाणमयास्त्रविशेषाः 'घण' घनाः अयोधनाः ‘घण' इति भाषा प्रसिद्धाः ' मोटिया' मौष्टिकाः मुष्टिप्रमाणास्त्रविशेषाः मोग्गर ' मुद्राथ प्रतीताः 'वरफलिह ' वरपरिघाः-लोहबद्धलगुडाः 'जंतपत्थर' यन्त्र प्रस्तरागोफणादि यन्त्रपाषाणाः ‘दुहण ' द्रुघणाः मुद्गरविशेषाः, तोणा:-तूणीराःकुन्तों से-भालों से, (तोमर) तोमरों से-मुरजों से (चक)चक्रोंसे (गया) गदाओं से, ( परसु ) परशुओं से-कुठारों से (मुसल ) मुसलों से, ( हल ) हलों से, (मूल ) शूलों से, (लउड ) लकुटों-( लाठियों) से (भिडिपाल) भिदिपालो से-गोफणों से, (सब्यल) सबलों से (सब्यल) यह शस्त्र विशेष है जो अग्रभाग में तीक्ष्ण ऐसा लोहे का डंडा होता है, (हिन्दी में भी इसे सब्बल ही कहते हैं ) (पटिस ) पहिशों से-भाले के आकार जैसे एक प्रकार के शस्त्रों से, चर्मेष्टों से-चर्मवद्धपाषाणमय अस्त्रविशेषों से (घण) घण-लोहपिंड, इसे भाषा में भी घण कहते हैं घणों से, ( मोट्ठिय ) :मौष्टिकों से-मुष्टिप्रमाण अस्त्रविशेषों से, (मोग्गर ) मुद्गरों से, ( वरफलिह ) वरपरिघों से-लोहबद्ध लाठियों से, (जंतपत्थर ) यंत्र प्रस्तरों से, गोफण आदि यंत्रों से, फेंके गये पत्थरों से, ( दुघण ) द्रुघणों से एक प्रकार के मुद्गर विशेषों से, (तोण ) तोभरथी-शुरया, “ चक्क" Atथी, — गया " महामाथी, " परसु" ५२शुसाथी, “ मुसल" भुसमाथी, 'हल" डोथी, "सुल" त्रिशुणाथी, "लउड" साहीमाथी, “ भिंडिपाल " लिहा (गो७ )थी, “ सबल " Ratथी, (તે એક શસ્ત્ર છે. તે લેઢાના દંડા જેવું હોય છે અને તીક્ષ્ણ અણીવાળું यि छे. तेने गुरातीम श ४ छ ) “ पट्टिस" हिशोथी ( पट्टि मासाना આકારનું શસ્ત્ર હોય છે) ચમેંટેથી (ચમ બદ્ધ પાષાણુ મહા અગ્ર વિશેशाथी ) "घण" 4थी, ":मोट्ठिय" भौष्टिाथी ( भुष्टि प्रभाएअसा विशे. " मोग्गर" भनहाथी, “ वरफलिह" १२ परियोथी-(खोडवाहीमाथी " जंतपत्थर" यत्र प्रस्तथी ( गो माह साधनाथी येता पथ्थरीथी ) दुघण" घोथी (23 प्रा२ना भाथी) " तोण" तू शिथी (माथा For Private And Personal Use Only Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ.३ सू० ६ सङ्ग्रामवर्णनम् 'भाता' इति प्रसिद्धाः कुवेश्यः शखविशेषाः 'पीढा' पोठानि-यन्त्ररूपास्त्रविशेषाश्च, इत्येतैशस्त्रविशेरेः 'कलिए' कलिते युक्ते संग्रामे अतिपतन्तीत्यन्वयः।०५। पुनरपि संग्रामं वर्णयति- इली' इत्यादि । मूलम्-इलीपहरणमिलिमिलितं खिप्पंतविज्जुजलविरचियसमप्पहनहतलफुडपहरणे, महारणसंखभेरी वरतूरपउरपडुपडहाहयनिनायगंभीरणंदियपकवुभिय विउलघोसे, हयगयरहजोहतुरियपसरियरयुद्धयतमंधयारबहुले, कायरनरनयणहिययवाउल करे, विलुलियउक्कडवरमउडकिरीडकुंडलोडुदामाडोविए, पडगपडाग उच्छियधयवेजयंतीचामरचलंतछत्तंधयारगंभीरे, हयहेसियहत्थि गुलगुलाइयरहघणघणाइयपाइकहरहराइयअप्फोडियसोहनाय छिलियविघुटुक्किटकंठकयसदभीमगजिए सयराहहसंतरुसंतकलकलवे, आसूणिय वयणरुदभीमदंसणाधरोहगाढदढसप्पहारकरणुजयकरे, अमरिसवसतिव्वरत्तनिदारितच्छे, वेरदिहि. कुद्धचेट्टियतिवलीकुडिलभिउडीकयललाडे वह परिणयनरसहस्तविक्कमवियंभियबले॥ सू०६ ॥ टीका-' इलीपहरणमिलिमिलितखियंतविज्जुज्जलविरइयसमप्पड़ नहतले ' इलीपहरणमिलिमिलिन्तक्षिप्यमाणविशुदुज्यलविरचितसमप्रभनमस्तले तूणीरों से-भाताओं से, (कुवेणी) कुवेणियों से-एक प्रकार के शस्त्रों से, (पीठ ) पीठों से-यंत्ररूप अस्त्रविशेषों से ( आकलिए ) युक्त रहते हैं। ऐसे उस भयंकर संग्राम में कितनेक राजा लोक परधन को हरण करने के लिये ही उतरते हैं । सू०५॥ साथी) " कुवेणी" माथी (मे २न शत्रो) “पोट" पाउtथी (-यत्र३५ १२० विशेषाथी ) " आकलिर” युत २ छ. १ ते लय४२ સંગ્રામમાં કેટલાક રાજાએ પરધનનું હરણ કરવાને માટેજ ઉતરે છે. સૂપ For Private And Personal Use Only Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ૨૮૩ प्रश्नव्याकरणसूत्रे " = तत्र इलीभीः = द्विधाधारैः खड्गविशेपैः प्रहरणे = शत्रैश्वानेकविधैः 'मिलिमिलित ' इति चाक चिक्ययुक्तैः क्षिप्यमाणैः भटेर्निपात्यमानैः प्रह्रियमाणैरित्यर्थः, पुनः कीदृशैः खङ्गादिशः ? विद्युदुज्ज्वलैः = विद्युद्वद्विद्योतमानैः विरचितं=कृतं समप्रभं= स्वदृशप्रकाशयुक्तं नभस्तलं यत्र स तथा तस्मिन् तथा ' फुडपहरणे स्फुटमहरणे स्फुटानि= स्पष्टानि प्रहरणानि शस्त्राणि यस्मिन् स तथा तस्मिन् । ' महारणसंखभेरिवरतूरप उरपड पडहाड पनिनायगंभीरणंदियपक्खुभियविउलघोसे णशङ्खमे रिवरतूर्य मचुर पटुपटहाह तनिनाद गम्भीरनन्दितपक्षुभितविपुलघोषे = तत्र महारणे = महायुद्धे ये शङ्खाः प्रतीताः भेर्यः रणभेर्यः वरतूर्याणि प्रधानवादित्राणि तानि च प्रचुराणि = प्रभूतानि पटूनि = स्पष्टध्वनीनि च पटहाच = ' ढोल ' इति प्रसिद्वास्तेषामाहतानां वादितानां निनादेन शब्देन गम्भीरेण नन्दिता दर्पिताः वीराः 1 महार Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir फिर भी संग्राम का वर्णन करते हैं-' इली पहरण ' इत्यादि । टीकार्थ - ( इली ) दोनों तरफ जिनपर धार निकल रहि है ऐसे दुधारे (पहरण ) खङ्गादि अनेक शस्त्र जो ( मिलिमिलित) अत्यन्त arate हैं और (खिपंत ) शत्रुओं पर फेंके जाते समय (विज्जुज्जल ) बिजली जैसे चमकते हैं, ऐसे शस्त्रों ने ( विरइयसमपहनह (त) नभस्तल को अपने सामान प्रकाश वाला बना दिया है अर्थात् जो लपलपाते हुए अति तीक्ष्ण चमकीले शस्त्रों से आकाशमण्डल चमकीला बन रहा है ऐसे संग्राम में (फुडपहरणे ) तथा जिसमें शस्त्र दिखलाई दे रहे हैं तथा जो ( महारणे ) महासंग्राम में बजने वाले ( संख) शंखों से, (भेरी) रणभेरियों से ( वरतूरपउरे ) स्पष्टध्वनिसंपत्र प्रधान २ सूर्य-वादित्रों से, (पडपड हानिनायगंभीर ) बजते हुए ढोलों के गंभीर शब्दों से ( दिय) हर्षित बने हुए जोशीले शगोथी, “ भेरी” सूर्य वान्नित्री, - aufruil, हुक या सूत्रार सभाभनुं वर्जुन हरे छे-" इली पहरण " त्याहि टीअर्थ - "इलो " भन्ने तर भेने धार छे तेवां मेधाशं 'पहरण' अडग वगेरे अने शस्त्री ? " मिलिमिलित " अतिशय जस्ता छे, मने "खिष्पंत" शत्रुओ तरई ३४वामां यावे त्यारे “ विज्जुज्जल " विभाजी भेषां श्रभ छे, भेषां शस्त्रो विरइयसम पहनहतले ” આકાશને પોતાના જેવુ પ્રકાશિત ખનાવી દીધુ છે, એટલે કે જે ચકચકિત અતિ તીક્ષ્ણ ચળકતાં શસ્ત્રોથી આકાશ મ`ડળ ચળકતું ખની રહ્યું છે એવા સ'ગ્રામમાં फुडहरणे " તથા જેમાં શસ્રો નજરે પડે છે તથા જે 4 महारण '' મહાસગ્રામમાં વાગતા (6 (C (1 संख" खुलेरीस थी, " वरतूरपउर " स्पष्ट ध्वनिवानां मुख्य मुख्य gqzgıgafamantit " 'पडुप गंभीरे વાંગતા ઢોલાના ગંભીર 66 For Private And Personal Use Only Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनीटीका अ० ३ सू० ६ सङ्ग्रामवर्णनम २८५ प्रक्षुभिताः क्षोभमापन्नाश्च ये कातरा जनास्तेषां विपुल: विशालः घोषो धनिर्यस्मिन् स तथा तस्मिन् ' हयगयरहजोहतुरियपसरियरयुद्धयतमंधयारबहुले' हयगजरथयोधत्वरितपसृतरजउद्धततमाऽन्धकारबहुले-तत्र हयाः = अश्वाः, गजाःपसिद्धाः, रथाः-स्यन्दनाः, योधाः-सुभटास्तेषां पादाभिघातेन त्वरित-शीघ्र प्रसृत-विस्तारमुपगतं रजः-धूलो, तद् उद्धततमम्-अतिशयेनोद्धृतमुड्डीयमानं तेनाऽन्धकावबहुले । तथा “कायरनरनयणहिययवाउलकरे " कातरनयनहृदयव्याकुलकरे, तत्र = कातरा:-अधीराः युद्धे पलायनस्वभावा ये नरास्तेषां नयनहृदययोः व्याकुळकरे क्षोभजनके तथा 'बिलुलियउक्कडवरमउडकिरिडकुंडलोडुदामाडोविए ' विलुलितोत्कटवरमुकुटकिरिटकुण्डलोडुदामाटोपिते तत्र विलुलितानि इतस्ततश्चलितानि उत्कटवराणि उत्तमप्रकृष्टानि यानि मुकुटानिप्रसिद्धानि किरीटानि-त्रिशिखरशिरोभूषणानि कुण्डलानि-कर्णाभरणानि उडदामानि-नक्षत्रमालाकारभूषणानि च तैराटोपितः विस्तारितो यः स तथा तस्मिन् वीरों के एवं ( पक्खुभिय ) क्षुभित हुए कायर जनों के (विउलघोसे) विपुल घोषों से व्याप्त हो रहा है, तथा ( हयगयरहजोहतुरियपसरियरययुद्धयतमंधयारबहुले) (हय) घोड़ों के, (गय ) गजों के, ( रह) रथों के, ( जोह) योद्धाओं के, ( उद्धयतम ) पैरों के अत्यन्त आघात से उडकर (तुरियपसरिय ) शीघ्र फैली हुई ( रय ) धूली से जहां पर (अंधयारबहुले) अंधकार ही अंधकार हो रहा है (कायरनरनयणहिययवाउलकरे) कायरजनों के नयन और हृद्यको जो व्याकुल बनारहा है । (विलुलिय ) इधर उधर लटकते हुए ( उक्कडवर ) उत्तमोत्तम ऐसे ( मउड ) मुकुटों से, (किरीड ) किरीटों से-तीनशिखर वाले शिरो भूषणों से ( कुंडल ) कुण्डलों से, ( उडुदाम ) नक्षत्र मालाकार भूषणों नाही, " गंदीय" मानहित मनेसा alan वाशना भने “पक्खुभिय" साल पाभेटी आय२ बनाना “ विउलघोसे" विथुस मावास्या व्यास ४ गयु छ. तथा . हयगयरहजोहतुरियपसरियरयुद्धयतमंधयारबहुले " " हय " घाना, “गय" हाथीसोना, "रह" २थान “ जोह" योद्धामना "उद्धयतम" ५ना मत्यात मावातथी जीने "तुरियपसरिय" ५थी सायली " रय" धूणी arti अंधयारबहुले” भतिशय म५४।२ ५६ गयो छ, “ कायरनरनयण. हिययवाउलकरे " ५५२ सोनi नयन भने यने में व्या ४२॥ २३छ, "विलुलिय" म त aexu “ उक्कडवर " उत्तमोत्तम " मउड ” भुटोथी, "किरीड" 1ि2tथी- शिम शिरोभूषणेथी, “कुडल' गाथा “उडुदाम" नक्षत्र भातार भूषणोथी, “ आडोविए" रे माम२ युवत मन छे. "पगड" For Private And Personal Use Only Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra દ www.kobatirth.org प्रश्नव्याकरणसूत्रे 6 'पगडपडागउच्छियधय वे जयंती चामरचलंतछत्तंधयारगंभीरे ' प्रकटपताको च्छ्रितध्वजवैजयन्तीचामरचलच्छत्रान्धकारगम्भीरे = तत्र प्रकटाः- दूरस्था अपि दृश्यमाना याः पताकाः = विशालपताकाः उच्छ्रिताः = अत्युध्वंस्थिताः ये ध्वजाः लघुपताकाः वैजयन्त्यश्च = विजयपताका तथा चामराणि चलन्ति छत्राणि च तैः कृतेनान्धकारेण गम्भीरे गहने तथा 'हयहेसियहत्विगुलगुला इयरघणघणाइयपाइक हरहराइय आफोडियसीहनायछिलिय विद्युत कटुकं कय सह भीमगज्जिए ' तत्र ' हयहेसिय हयहेषितं = दयानाम् = अश्वानां देषितं =शब्दितं 'हत्यिगुलगुलाइय' हस्तिगुलगुलायितं हस्तिनां = गजानां गुलगुलायितं = गुलगुलशब्दः ' रहघगवगाइय' रथवगवनायितं = धावतां स्थानां घनघनेति शब्दः तथा पाइकहरहराइय' पदाति हरहरायितं = पदातीनां सैनिकानां हरहरेति शब्दितं ' आकोडिय ' आस्फोटितं = बहुपरिस्फोटनं 'सोहनाय ' सिंहनादः सिंहस्येव शब्दकरणं 'छिलिय' सष्टितं = सीत्कारकरणं से (आडोविए) जो आडंबर युक्त बना हुआ है । (पगड ) दूर रहने पर भी इयान ऐसी (पडान ) विशाल पताकाओं से, ( उच्छिय ) ऊँची की हुई ऐसी (ध) लघुपताकाओं से, ( वेजयंती ) वै जयन्ती - विजयसूचक ऐसी ध्वजाओं से, तथा ( चामर ) चामरों से एवं ( चलतछत्त ) चंचलछत्रों से किये गये (अंधधार) अंधकार से जो (गंभीरे) गहन हो रहा है, तथा जहाँ (हसिय) घोड़ों की हिनहिनाटके शब्द हो रहे हैं, (हथिगुलगुलाइय) हाथियों की गुरगुलाहट हो रही है, ( रहघणघणाइय) इधर उधर दौड़ते हुए रथों का जहां घनघनाट शब्द हो रहा है, (पाइकहर हराइय) पदातियों की जहां हर हराट' हरहर' इस प्रकार को तुमुल ध्वनि हो रही है. (आकोडिय) वीर अपनी भुजाओं का जहां आस्फालन कर रहे हैं - फटकार रहे हैं, सीना ܕܐ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (C पडाग વિશાળ પતાકાઓથી, લઘુપતાકાઓથી, बेजयंती " દૂર દૂર હાવા છતાં પણ નજરે પડતી એવી " उच्छिय " उंची राभेदी मेवी " 22 धय विश्य सूयम् ध्वन्नमोथी, तथा “चामर" यामरोथी भने “चलंतछत्त" अथण छत्रोथी अशयेस " अंधयार " अधारथी ? ' गंभीरे" गडुन था गयुंछे, तथा न्यां “हयहेसिय” घोडाओनी हुए इलाटीनो भाषान थर्ड रह्यो छे, "हन्थिगुलगुलाइय " હાથીએ ની ગુલગુલાહટ થઇ રહી છે, " रण बनाइय श्थोनो धणुधार ल्यां यासी रह्यो छे, “ पाइक हरहराइय જ્યાં હર હરાટ 66 હર હર ” એ પ્રકારના ભયંકર ધ્વનિ " आकोडिय " यां वीरो पोत पोतानी मुलगी माझान उरी रह्या छेसीहनाय સિંહના જેવી ગર્જના જ્યાં થઇ રહી છે, 66 આમ તેમ દોડતા " पहाती - पायदानो ચાલી રહ્યો છે, ईटारी रह्या छे " For Private And Personal Use Only ) सिंह के जैसी जहां י, , 46 Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ0 ३ सू० ६ सङ्ग्रामवर्णनम् 'विघुट्ट ' विघुष्ट-विरूपघोषकरणम् 'उकिटकंठकयसद' उत्कृष्टकण्ठकृतशब्द:= हर्षात् उत्कृष्टः-अतिशयितः कण्ठेन कृतः शब्दः गलगलाटरूपः स एव 'भीमगज्जिय' भीमगर्जितं-मेधध्वनिश्च, इत्येतानि हय हेषितादीनि सन्ति यत्र स तथा तस्मिन् । पुनः कीदृशे ? तदाह-सयराहहसंतरुसंतकलकलरवे' सयराहहसत् रुष्यत् कलकलरवे-'सयराह ' इति युगपत् हसतां रुष्यतां क्रुध्यतां सैनिकानां कलकलरवः कोलाहलो यत्र स तथा तत्र । तथा-' आमणियवयणरुद्दभीमदसणाधरोहगाढइट्ठसप्पहारकरणुज्जयकरे' आनितवदनरौद्रभीमदशनाधरोष्ठगाढदृष्टसत्यहारकरणोद्यतकरे-तत्र आशूनितेन-ईपत्स्थूलीकृतेन वदनेन-मुखेन ये रौद्राः क्रोधचण्डास्ते तथा, तथा-भीम-क्रोधावेशाद् भयङ्करं यथास्यात्तथा दशनैः दन्तैरधरोष्ठं गाढं दृष्टं यैस्ते तथा परमुभटास्तेषां सत्पहारकरणे = शोभनतया शस्त्र गर्जना हो रही है ( छिलिय ) 'सी सी' इस प्रकार का जहां सीत्कार शब्द हो रहा है, ( विघुट्ठ ) योद्धाओं द्वारा विरूपघोष जहां किया जा रहा है, ( उकिट्ठकंठकयसद्द ) हर्ष से फूले हुए जहां अपने २ कंठों से उत्कृष्ट गलगलाट रूप शब्द कर रहे हैं (भीमगज्जिए ) इस कारण ऐसा वहां ज्ञात होता है कि मानों मेघ ही यहां गर्ज रहा है । ( सय. राहहसंतरुसंतकलकलरवे ) ( हसंत ) हँसते तथा ( रुसंत ) क्रोध से रुष्ट हुए सैनिक जनों का ( सयराह ) एक साथ जहां पर ( कलकलरवे) कलकल शब्द हो रहा है, तथा जहां सैनिकजन ( आणियवयण ) अपना२ मुँह थोड़े से रूपमें फुलाकर (रुद्द ) क्रोध से चण्ड यन रहे हैं तथा ( भीम ) क्रोध के आवेश से भयङ्कररूप में जहां वे ( दसणाधरोढगाढदट्ठ) अपने २ अधरोष्ठों को दृढ़ना पूर्वक डस रहे हैं, तथा (सप्प"छिलिय” ' सीसी' मेयो च्यां सि२ A हो २४ २ छ. तथा "विघुटु" योद्धामा द्वारा वि३५ ३५ या ४२१४ रयो छ, “ उक्किट्रकंठकयसह" मान थी કુલાઈ ગયેલા સૈનિકે જ્યાં પિત પિતાના કંઠમાંથી ઉત્કૃષ્ટ ગર્જના જેવા શબ્દ आढी २॥ छ, “ भीमगज्जिए" ते २२, त्या मेध ना ४१ रहो डाय ते साणे छे. “सयराहहसंतरुसंतकलकलरवे" " हसंत" सता तथा “ रुसंत ” पायभान थयेस सैनिछान! ' सयराह" ४ साथे त्यां " कलकलरवे" ४८ ४८ २०४-८पनि रह्यो छ, तथा न्यो सनि“ आसूणि य वयण" पोत पोतनुं भुप थे. प्रभामा सावान — रुद्द ” अधथी 6 मनी २स छ, तथा " भीम ” ओपना मावेशमा नय४२ रीते न्यो तेस। . “ दसणाधरोढगाढदट्ट" पातयोताना अवशेष्ठीने यी ४२७ २७स For Private And Personal Use Only Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे सञ्चालने, उद्यता प्रवृत्ताः कराः हस्ताः सैनिकानां यत्र स तथा तत्र, अति क्रोधशोणीकृताननाः भयङ्करस्वरूपा योधाः सततमव्यग्रा अश्रान्ता अविच्छेदेन शस्त्रपहरणसमापृता यस्मिन् संग्रामे सन्तीत्यर्थः । 'अमरिसवसतिव्वरत्तनिदारिबच्छे' अमर्षवशतीवरक्तनिर्दारिताक्षे अमर्षवशेन क्रोधवशेन तीव्ररक्ते अत्यन्त लोहिते, निर्दारिते स्फारिते चाक्षिणी योधानां यस्मिन् , तत्र । तथा 'वेरदिष्टिकुद्धचेटियतिवलीकुडिलभिउडिकयललाडे ' वैरदृष्टिक्रुद्धचेष्टितत्रिवलीकुटिलभृकुटीकृतललाटे-तत्र वैरदृष्टया वैरभावनया ये क्रुद्धा=कुपिता भटास्तैश्चेष्टिता त्रिवलीललाटसङ्कोचजनितत्रिरेखारूपा तथा कुटिला भृकुटी कृता ललाटे-भाले यत्र स तथा तत्र ‘वधपरिणयनरसहस्सविक्कमवियंभियबले' वधपरिणतनरसहस्रविक्रमविजृम्भितबले-बधे-प्रतिपक्षिहनने परिणतानां तत्पराणां नरसहस्त्राणाम् अनेकसहस्त्रमुभटानां पराक्रमेण विचम्भित-विक्षोभितं बलं शत्रुसैन्यं शत्रुसामर्थ्य वा यत्र स तथा तस्मिन् , एतादृशे संग्रामे अतिपतन्तीत्यनेनाऽन्वयः ॥ सू० ६॥ हारकरणुज्जयकरे ) द्विपक्षी सुभटों के ऊपर प्रहार करने के लिये जहां सुभटों के हाथों का संचालन हो रहा है तथा ( अमरिसवसतिव्वरत्तनिदारितच्छे ) जहाँ पर ( अच्छे ) वीरों के दोनों नेत्र ( अमरिसवस) क्रोधके वशसे (निदारित) अपलक-निनिमेष होकर (तिव्वरत्ता) अत्यंत रक्तवर्ण के बन रहे हैं,तथा (वेरदिट्ठि) वैरकी भावनासे (कुद्ध) कुपित हुए भटों द्वारा (चेट्टिय ) चेष्टित-की गई (तिवली ) अपनी २ त्रिवलीतीन रेखाएँ, तथा ( कुडिलभिउडिकय ) कुटिल- टेढी भ्रकुटी ललाट ऊपर जहां की गई है, तथा ( वहपरिणयनसहस्सविक्कमवियंभिययले ) प्रतिपक्षीभूत सुभटों को मारने में तत्पर बने हुए अनेक सहस्र सुभटों के प्रराक्रम से जहां पर शत्रु का सैन्य-अथवा यल-सामर्थ्य विक्षोभित छ, तथ! " सप्पहारकरणुज्जयकरे" हुश्मन सैनि। ५२ प्र.२ ४२वाने भोट ल्यां सुमटाना हाय यासी २ह्या छ, तथा “अमरिसवसतिव्यरत्तनिदारितच्छे" ज्या "अच्छे' वानी मन्ने मांगा "अमरिसवस' लोधावेशथी “निदारित" २५५८४ -सारा २डित थईने “तिव्वरत्ता" मयत all मनी २७स छ, तथा "वेरदिदि" वैरवृत्तिथी “कुद्ध" पायमान थेयेस सुभटो द्वा२॥ " चोटिय" राती "तिवली" पोत पातानी जय मास। “त्रिवली" (पायभान थतi ४ामा ५४ती ४२यबी) तथा " कुडिलभिउडिकय" या लभ-भाटी पाणे यी ४ छ, तथा " वहपरिणयनसहस्सविक्कमवियंभियबले” दुश्मनाना भावाने આતુર બનેલા અનેક હજાર સુભટેનાં પરાક્રમથી જ્યાં દુશ્મનના સૈન્યને શક્તિ For Private And Personal Use Only Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुवशिनी टीका अ०३ सू०७ सग्रामवर्णनम् पुनः कीदृशे संग्रामे ? इत्याह ' वगंतं ' इत्यादि। मूलम्-वग्गंततुरंगरहपहावियसमरभडे आवडियछेयलाघवपहारसाहिए समूसियवाहुजुयले मुक्कट्टहासपुक्कंतबोलबहुले, फुरफलगावरणगहियगयवरपत्थंतदरियखलभडपरोप्परपलग्गजुद्धगवियविक्कोसियवरासिरोसतुरियअभिमुहपहरंतछिण्णकरिकरविअंगियकरे, अवइद्धनिसुट्टभिन्नफालियपगलियरुहिरकयभूमिकद्दमचिलिचिल्लपहे कुच्छिदालियगलियनिब्भेलियंतफुरफुरंतविगलमम्महयविगयगाढदिण्णप्पहारमुच्छियसलंतविभलवि. लावकलुणे, हयजोहभमंततुरगउद्दाममत्तकुंजरपरिसंकिय जणणिब्बुक्कछिपणज्झयभग्गरहवरनसिरकरिकलेवराकिण्गपडियपहरणविकिन्नाभरणभूमिभागे नचंतकबंधपउरे, भयंकरवायसपरिलित्तगिद्धमंडलभमंतछायंधयारंगभीरे ॥ सू० ७॥ टीका-" वग्गंततुरंगरहपहावियसमरभडे ' बलात्तुरंगस्थप्रधावितसमरभटे तत्र बलान्तः हेषमाणाः ये तुरगाः अश्वाः रथाः तैः प्रधाविताः = वेगेन नीताः किया जा रहा है ऐसे संग्राम में कितनेक राजा उतरते हैं ऐसा संबंध यहां लगा लेना चाहिये। सू०६॥ फिर कैसे संग्राम में उतरते हैं सो कहते हैं- वग्गंत तुरंग' इत्यादि। टीकार्थ- ( वग्गंततुरंगरहपहावियसमरभडे ) हणहणाट करते हुए घोड़ों से एवं रथों से जहां पर जल्दी २ भट पहुँचाये जा रहे हैं, तथा હીન કરવામાં આવી રહ્યું છે, એવા સંગ્રામમાં કેટલાક રાજાઓ ઉતરે છે, એ સંબંધ સમજી લેવાને છે સૂવા ते तेवा सयाममा उतरे छे तेनु वधु १ ४३ -- " वग्गंत तुरंग" त्यादि. साथ-" वगंततरंगरहपहावियसभरभडे " डाटी ४२ता घा.. ઓથી અને રાની મદદથી જ્યાં જલ્દીથી સૈનિકોને મેકલાઈ રહ્યા છે, તથા For Private And Personal Use Only Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २९० प्रश्नव्याकरणसूत्रे समरे भटा यत्र स तथा तत्र “आडवियछेयलाघवपहारसाहिए " आपतितछेक लाघवप्रहारसाधिते तत्र आपतिताः योद्धमुद्यता ये छेकाः निपुणाः भटाः, तेषां तत्कर्तृका इत्यर्थः, ये लाघवपहारा: चातुर्यपूर्णपहारास्तैः साधितो-निर्मितः यः स तथा तस्मिन् । तथा ' समूसियवाहुजुयले ' समुच्छ्रितवाहुयुगले समुच्छ्रितानि हर्षाधिक्यादूर्वीकृतानि वाहुयुगलानि भटैर्यत्र स तथा तत्र, तथा 'मुकट्टहासपुकंतबोलबहुले ' मुक्ताट्टहासपूत्कुर्वबोलबहुले = मुक्ताहासः कृतमहाहासध्वनयः, पूत्कुर्वन्ता नामनिर्देशपूर्वकं परमावयन्तो ये सुभटास्तेषां बोलाः कोलाहलः, स बहुलो यस्मिन् स तथा तस्मिन् । 'फुरफलग्गावरणगहियगयवरपत्थंतदरियभडखलपरोप्परपलग्गजुद्धगन्धियविकोसियवरासिरोसतुरियअभिमुहपहरंतछिण्णकरिकरविअंगियकरे ' स्फुरफलकावरणगृहीतगजवरमार्थयमानदृप्तभटखल-परस्परमलग्न युद्धगर्वितविकोशितवरासि-रोषत्वरिताभिमुखपहर-च्छिन्न-करिकर-व्यङ्गित-करे तत्र 'फुरफलगावरणगहिय ' स्फुरफलकावरणाः स्फुराः अस्त्रप्रतिघातनिवारकच. ममयपट्टविशेषाः, फलकानि=' द्वाल ' इति भाषा प्रसिद्धानि आवरणानि च कवचानि, तानि गृहीतानि=धृतानि यैस्ते तथा स्फुरकादि शस्त्रधारिणः, तथा ( आडवियछेयलाघवपहारसाहिए ) जो युद्ध करने के लिये उद्यत हुए ऐसे निपुण भटों के चातुर्य पूर्ण प्रहारों से निर्मित किया गया है, (समूसियवाहुजुयले ) तथा जिसमें हर्षित बने हुए भट हर्ष की अधिकता से अपने २ पाहुयुगलों को ऊपर उठा रहे हैं ( मुक्कट्टहासपुकंतयोलबहुले) तथा जिसमें सुभटजनों की महाहास्यध्वनि द्वारा एवं दूसरों को नाम निर्देशपूर्वक बुलाने के शब्दों द्वारा बहुत कोलाहल मचा रहता है तथा जिसमें योद्धागण (फुरफलगायरणहिय) अस्त्रप्रतिघातको निवारण करनेवाले चर्ममय पविशेषोंको, फलकोंको ढालोंको लिये रहते हैं, तथा कवच आदि आवरणोंसे सज्जित रहाकरते हैं, तथा (गयवरपत्थंत) जिसमें " आडवियछेयलाघवपहारसाहिए " 2 युद्ध ४२वाने तैयार थये। मेवा निशु सुभटोना यातुर्य पूर्ण प्राथी युद्धत छ “ समूसियबाहुजुयले ” तथा જેમાં આનંદિત બનેલા સુભટે આનંદની અધિકતાથી પિત પિતાની ભુજાઓ यी ४री २९८ छ. "मुक्कट्टहासपुकंतबोलबहुले” तथा मा सुखटाना મુક્ત હાસ્યને વનિ તથા બીજાને નામ દઈને બેલાવવાના શબ્દો દ્વારા ભારે साहस भया २यो छ, तथा भां योद्धायानो समूह " फुरफलगावरणगहिय " शखोना पाने शेवाने भाटे यम भय ५४ विशेषोने, सोने-हासाने धार! 3रे छ. तथा मत२ मा सावरणेथी स४२४ २७ छ. तथा “ गयव. For Private And Personal Use Only Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुर्शिनी टीका अ० ३ सू० ७ सङ्ग्रामवर्णनम् 'गयवरपत्यंत ' गजवरमार्थयमानाः = गजवरान् शत्रुकुञ्जरान् हन्तुमारोहुँ वा मार्थयमानाः-अभिलपमाणा ये ते तथा 'दरियखलभड' दृप्तखलभटाः दृप्ताः स्वबलगर्विताः, खला: दुष्टाः-भटाः योधास्ते, तथा 'परोप्परपलग्ग' परस्पर मलग्नाः परस्परं शत्रुमभिहन्तुं प्रवृत्ताः 'जुद्रगन्धिय' युद्रगर्विताश्च-युद्धकौशलाऽहङ्कारपूर्णाः, 'विकोसियवरासि ' विकोशिनवरासयः-विकोशिताः कोशानिष्कासिताः असया बङ्गाः यैस्ते तथा, 'रोस' रोषेग-क्रोधेन ' तुरिय' त्वरित शीघ्रम् , ' अभिमुह' अभिमुखं 'पहरंत' प्रहरन्तस्ते छिन्त्रकरिकराः-छिन्नाः करिकराः इस्तिशुण्डाः यैस्ते तथा, वियंगियकरे' व्यङ्गिताः विकर्तिताः कराः येषां ते तथा, एते विद्यन्ते यस्मिन् स तथा तस्मिन्-परसराभिहनन भेदनछेदनपहरण तत्परैर्योधैश्छिन्नभिन्नैः-' हयगजरथपदातीनां परिभ्रष्टशुण्डमुण्डहस्तपादादिभि याप्तं स्थलं यत्रैवं भूते संग्रामे इत्यर्थः। अबइदनिसुट्टभिन्नफालियपलियरुहिरकयएक योधा दूसरे योधा के हाथीको मारने के लिये अथवा उस पर सवार होने के लिये उत्सुक रहता है, तथा जिसमें (दरियाव ल मड) दुष्ट योधा गण अपने बल से अधिक गर्वित बने रहते हैं, (परोप्परपलग्ग ) एक दूसरों को मारने के लिये जहां वीर प्रयत्नशील रहते है, अथवा प्रवृत्त होते हैं, (जुद्वगव्विय ) युद्ध करने का कौशल योद्धाओं में विशेषरूप से जगकर उन्हें जहां गर्वित बना दिया है, तथा (विकोसियवरासि ) जहां पर योद्धा अपनी २ श्रेष्ठ तलवारों को म्यान से बाहिर किये हुए ही रहते हैं, और जहां (रोसतुरिय अभिमुहपहरंतछिण्णकरिकर ) क्रोध से भरकर एक योधा दूसरे योधाके ऊपर प्रहार कर उसके हाथी के शुण्डादण्ड को भग्न कर देता है, तथा (वियंगियकरे ) परस्परमें जहां योद्धायोद्धारपत्थत" मा मे योद्धो मान योद्धाना साथीने भारी नामवाने भाटे, अथवा तेना ५२ सवार थपाने भाट मातु२ २७ छ, तथा मा “दरियखलभड" हुट योद्धागो पाताना मने दीधे थारे गविष्ट मनेा २ छ, " परोपरपलग” त्या मे मानने भावाने भाटे वा२ पुरुषो प्रयत्नशील २७ छ, -424। प्रवृत्त आय छ, “जुद्धगब्धिय" orii योद्धामानु युद्ध कौशल्य વધારે પ્રમાણમાં જાગૃત થયું છે, અને તે કારણે તેઓ વધારે ગર્વિષ્ટ બન્યા. छ, तथा “ विक्कोसियवरासि" या योद्धा पोत पोथी श्रेष्ठ तसवारीने भ्यानमाथी मा२ आढी सवाने तैयार खाय छ, भने यो "रोसतुरिय अभिमुहपहरंतछिण्णकरिकर ” अधायमान थाने मे योद्धो plan योद्धान। S५२ प्रडा२ ४ीने तेना साथीना सूटने पी नामेछ, तथा “वियंगियकरे" यां For Private And Personal Use Only Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २९२ प्रश्नव्याकरणसूत्रे भूमिकद्दमचिक्खिल्लपहे ' अपविद्धनिसुट्टभिन्नफालितप्रगलितरुधिरकृतभूमिकर्दमचिविखल्लपथे तत्र अपविद्धाः बाणादिभिः, निसुट्टा-निपातिताः गलहस्तादिभिः, भिन्नाः त्रिशूलादिभिः फलिताः स्फाटिताः विदारिताश्च कुठारादिभिर्ये, तेभ्यः प्रगलितेन क्षरितेन रुधिरेण कृतः जातो यो भूमौ पृथिव्यां कर्दमस्तेन चिलिचिल्लाः आर्द्राः पन्थानः = मार्गाः यत्र स तथा तत्र, 'कुच्छिदालियगलियनिम्मेलियंतफुरफुरंतविगलमम्महयविगयगाढदिणप्पहारमुच्छि यरुलंतविमलविलावकलणे ' कुक्षिदारितगलितनिब्र्मेलितान्त्रफुरफुरायमाणविगलमर्महतविकृतगाढदत्तप्रहारमूञ्छितलठविह्वलविलापकरुणे-दारितात्-विदारितात् कुक्षेः उदरात् गलितं रुधिरं नि लितानि = उदरागहिर्निंगलितानि च अन्त्राणि = 'आँतडियाँ ' इति भाषा प्रसिद्धानि येषां ते तथा, अतएव-फुरफुरायमाणाः = कम्पमानाः विकला=निरुद्धेन्द्रियवृत्तित्वेन व्याकुलाः, ममेहताः कण्ठादिममेस्थाने हतास्तथा ओंके हाथों को काट दिया करते हैं तथा ( अवइद्ध ) वाणां से वेधे गये, (निसुट्ट) गले में हाथ डालकर हठात् जमीन पर पटक दिये गये, (भिन्न) त्रिशूल आदि के द्वारा भेदे गये एवं ( फालिय) कुठार आदिद्वारा फाड दिये गये-विदारित किये गये ऐसे योद्धाओं के शरीर से ( पगलिय ) झरते हुए ( रुहिर ) रक्तसे ( कयभूमिकामचिखिल्लपहे) जहां की भूमिमें कीचड मच रही है और इसी से जहां के मार्ग चिकने हो रहे हैं तथा (कुच्छिदालिय)विदारित हुए उदरसे जिनके (गलिय) खून बहरहा है और (निम्मेलियत) आंतें भी जिनकी पेटसे बाहिर निकल आई हैं, इसी कारण जो (फुरफुरंत ) कंप रहे हैं और (विगल) विकल हो रहे हैं ऐसे योधा कि जिन पर (मम्मयविगयगाढदिण्णप्पहार ) क्रोध के आवेश योद्धामी मे ilod-lu डाथ छेदी नामेछ, तथा "अबइद्ध' माथी वाघाये। "निसुट्ट" माय मरावीने म भान ५२ ५८४येस, "भिन्न" त्रिशू॥ मावा. हायेसा, मने "फालिय" १२सी माहिद्वारा थीनाणेस, योद्वामानां शरीरमा “पगलिय" पडता "हिर" सोडीया 'कयभूभिकदमचिखल्लपहे" न्या જમીનમાં કીચડ થઈ ગયે છે, અને તે કારણે જ્યાં માર્ગ લપસણ થઈ ગયું છે, તથા "कुच्छिदालिय" मना विद्यारित येai S२माथी “गलिय" वही पडी रघुछ भने " निम्मेलियते " भनां मात२i ५४ पेटमाथी १७०२ नीजी ५४यां छे. मे १ २९ो २ " फुरफुरत ॥ ४॥ी रह्या छ, भने “विगछ” व्या व गयां छे, मना ५२ " मम्मयविगयगाढदिग्णपहार” ओधना आवेशमा For Private And Personal Use Only Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 'दर्शिनी टीका अ0 ३ सू० ७ सङ्ग्रामवर्णनम् विकृतः-क्रोधावेशेन विचित्ररूपः गाढा मर्मभेदी दत्तः शत्रुभिः प्रहारो येषां ते तथा, अत एव मूछिताः मूर्छा प्राप्ताः, लुठन्तः = भूमौ विलुठन्तः, विह्वला:= व्याकुलाश्च तेषां विलापाः=' हा हतावयमि'-त्याद्याक्रन्दशब्दाः, तैः करुणो= दयाजनको यः स तथा तत्र, पुनः कीदृशे ? इत्याह-' हयजोह-ममंत तुरगउद्दाममत्तकुंजरपरिसंकियजण-णिव्वुकणिज्झय-भग्ग-रहवर -- नसिरकरिकले. वराकिण्ण-पडियपहरण-विकिन्नाभरणभूमिभागे' हतयोधभ्रमत्तुरङ्गोदाममत्तकुञ्जरपरिशङ्कितजननिमूलछिन्नध्वजभग्नरथवरनष्टशिरः करिकलेवराकीर्णपतितपहरणविकीर्णाभरणभूमिभागे' तत्र-'हयजोहभमंततुरंग'-हतयोधभ्राम्यत्तुरगः-हताः-मृता योधाः अश्वारोहा सवार इति भाषा प्रसिद्धाः येषां, तथाभूता भ्राम्यन्तः इतस्ततो धावन्तः तुरगाः अश्वा यस्मिन् स तथा, 'उदाममत्तकुंजरपरिसंकियजण'-उद्दाममत्तकुञ्जरपरिशङ्कितजनः-उदाममत्तकुञ्जरेभ्यो-निरङ्कुशमदोन्मत्तहस्तिभ्यः परिशकिताः वधशङ्काकुलाः जना यस्मिन् स तथा, 'णिब्बुकछिण्णज्झयभग्गरहवर 'निर्मूलछिन्न ध्वजभग्नरथवरा:-तत्र निमूला: मूलरहिताः ध्वजदण्डेभ्यो निस्मृताः से विचित्ररूप गाढ मर्म भेदी प्रहार शत्रुओं द्वारा दिया गया है और इसीसे जो (मुच्छिय ) मूर्छा को प्राप्त होकर ( रुलंत ) भूमि पर इधर से उधर लोट रहे हैं एवं (विन्भल ) व्याकुल होकर (विलाव) " हा मैं मारा गया" इत्यादिरूप से विलाप कर रहे हैं ऐसे योद्धाओं के विलापों से जो (कलणे) दयाजनक बना हुआ है तथा जो ( हयजोहभमंततुरग ) अपने सवारों के मर जाने से इच्छानुसार इधर उधर घूमते हुए घोड़ों से युक्त हो रहा है, तथा जहां ( उद्दाममत्तकुंजरपरिसंकियजणे) उत्कट मदवाले हाथियों से, वध की शंका के भय से मनु. प्य व्याकुल हो रहे हैं (णिब्बुक्कछिण्णज्झयभग्गरहवरे ) जहां निर्मूल दंडा रहित और छिन्न-फटी हुई ध्वजाएँ और भग्न हुए श्रेष्ठ रथ पड़े हैं આવેલા શત્રુઓ દ્વારા વિચિત્ર રીતે ભયંકર મર્મભેદી પ્રહાર કરાય છે અને તે २) मी "मुच्छिय" भू-विश थने “ रुलंत " भीन. ९५२ माम तेम माटे छे भने “ विमल " हयान अनेस छ, "विलाव " अरे ! મને મારી નાખ્યો” ઈત્યાદિ પ્રકારે વિલાપ કરે છે, દ્ધાઓના વિલાપથી જે "कलुणे" यान* मनेन छ, तथा रे "हयजोड्भमंततुरंग" पोताना सवारी भरी पाथीमिछानुसार भाम तेभ घूमता घोडामाथी युक्त छ, तथा न्यो "उद्दाममः त्तकुंजरपरिसंकियजण " महोन्मत्त हाथीमाबा२१ ४-५२।४ पाना यथी भारासो व्या मनेा छ, “णिब्बुक्कछिण्णज्झयभग्गरहवर" यो नि ६. २डित For Private And Personal Use Only Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २९४ प्रश्नव्याकरणसूत्रे छिन्ना ध्वजाः, भग्नारथवराश्च यस्मिन् स तथा, 'नट्ठसिरकरिकलेवराकिण्ण' -नष्ट शिरः करिकलेवराकोण:-नष्टानि शिरांसि येषामेतादृशा ये करिणः हस्तिनः, तेषां यानि कलेबराणि शरीराणि तैः आकीर्णः व्याप्तः, 'पडियपहरण '-पतितप्रहरणःपतितानि प्रहरणानिःशस्त्रास्त्राणि यस्मिन् स तथा, 'विकिण्णाभरण'-विकीर्णाभरणः-विकीर्णानि-इतस्ततो विक्षिप्तानि आभरणानि-मृतयोधानाम् अलङ्करणानि यस्मिन् स तथा, एतादृशो भूमिभागो यस्मिन् स तथा तस्मिन् , ' नच्चंतकबंध. पउरे' नृत्यकबन्धप्रचुरे-नृत्यन्तः कबन्धाः मस्तकरहितकलेबराणि, प्रचुरा यत्र स तथा तत्र, ' भयंकरवायसपरिलितगिद्धमंडलभमंतछायंधयारगंभीरे' भयङ्करवायसपरिलीयमानगृध्रमण्डलभ्रमच्छायान्धकारगम्भीरे-तत्र भ्रमताम् आकाशे पर्य टतां भयङ्करवायसानां-भयंकरकाकानां तथा परलीयमानानां-गतिविशे पैरुड्डीयमानानां गृवानां च यन्मण्डलं-समूहः, तस्य छायया योऽन्धकारस्तेन गम्भीरे-धनीभूते घनान्धकारयुक्ते संग्रामे अतिपतन्ति राजानः परधनलुब्धा इति पूर्वेण सम्बन्धः॥७॥ ( नसिरकरिकलेवराकिण्णे ) तथा जो छिन्नमस्तकवाले हाथियों के कलेवरों से व्याप्त है, (पडियपहरण ) जहां पहरण-अस्त्रशस्त्रादिक इधर उधर पड़े हुए हैं, तथा (विकिण्णाभरण ) मारेगये दूसरे कितनेक योधाओं के पड़े हुए आभरणों से व्याप्त ऐसे (भूमिभागे) भूमिभागवाले संग्राम में ( नच्चंतकबंधपउरे) तथा जहां पर योद्धाओं के कबंध (धड़) प्रचुररूप में नृत्य कररहे हैं, ( भयंकरवायसपरिलित्तगिद्धमंडलभमंतछायंधयारगंभीरे ) तथा जो आकाश में उडते हुए भयंकर कौवो की, एवं परिलीयमान-गतिविशेषों से उड्डीयमान-गिद्धों की छायाजन्य अंधकार से गंभीर बन रहा है ऐसे संग्राम में परधनलुब्ध बने हुए राजा लोक उतरते हैं । सू०७ ॥ भने टेसी घnो तथा मांगेसा श्रेष्ठ २थे। ५४॥ छे. “ नटुसिरकरिकलेवराकिण्ण" तथा रे येai भरतवा! साथीमान सेवरोधी पायेद छ, " पडियपहरण" orii मल-श िम त ५i छ, तथा “विकिण्णा. भरण” भरी गये टा योद्वामान आभूषाथी ने पाये छ, “ भूमि भागे" मेवा भूमिमा ७ सयाममा “नच्चतकबंधपउरे" तथा न्य योद्धायानां ५ मतिशय नृत्य ४२॥ २७ छ, “ भयंकरवायसपरिलित्त गिद्ध मंडलभमंतछायधयारगंभीरे" तथा रे माशमi 6sal लय'४२ ४ामानी તથા પરિટ્વીયમાન-વિશિષ્ટ ગતિથી ઉડતાં ગીધની છાયાને કારણે ઉત્પન્ન થયેલ અંધકારથી ગંભીર દેખાય છે, એવા સંગ્રામમાં પરધન પ્રાપ્ત કરવાની લાલસા વાળા રાજાઓ ઉતરે છે ! સૂતળા For Private And Personal Use Only Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २९५ सुदर्शिनी टीका अ० ३ सू० ८ सङ्ग्रामवर्णनम् पूर्वोदितमेव संक्षेपेण प्रतिपादयन्नाह-वसु' इत्यादि । मूलम् ---वसुवसुहविकंपियव्य-पच्चक्खापिउवणं परमरुद्दवहिणगं दुप्पवेसतरंग-अभिवडिंति-संगामसंकडं, परधणं महंता । अवरे पाइक्कचोरसंघा सेणावइचोरवंद-पागडियाय अडविदेसदुग्गवासी काल-हरिय-रत्त पीय सुकिल्ल-अणेगसयचिंधपट्टबंधा परविसए अभिहणंति लुद्धा धणस्स कब्जे ॥ सू० ८॥ ___टीका- वसुवमुद्दविकंपियव्य ' वसुवसुधाविकम्पिता इव-तत्र वसवः देवा वसुधा पृथ्वी च विकम्पिताः-त्रासिता यैस्ते तथा तथैवापरे राजानः 'परधणं' परधनं ' महंता' काङ्क्षन्तः परद्रव्यलुब्धा सन्तः ‘पच्चक्खपिउवणं' प्रत्यक्षपितृवनं साक्षात् श्मशानमिव 'परमरुद्दवीहणगं' परमरुद्रभयानकं अत्यन्तप्रचण्डभयजनकं दुप्पवेसतरगं' दुष्प्रवेशतरकं अत्यन्तदुर्गमं वीराणामपि, का कथा कातराणामित्येवंविधमपि 'संगामसंकडं' संग्रामसंकटंगहनयुद्ध · अभिवडंति' अभिपतन्ति प्रविशन्ति । तथा ' अवरे ' अपरे ‘पाइकचोरसंघा' पदातिकचौर फिर इसी बात को संक्षेप से कहते हैं-'वसुवसुह ' इत्यादि। टीकार्थ-(वसुवहविकंपियव्य) जिन्होंने देवोंको एवं पृथ्वीमंडलको भी कंपित जैसा करदिया है ऐसे और भी अनेक राजा (परधणंमहंता)दूसरों के धनमें लुब्ध होकर (पच्चक्खपिउवणं) साक्षात् पितृवन जैसे-प्रत्यक्ष में श्मशान सरीखे प्रतीत होने वाले तथा ( परमरुद्दयीहणगं) जो अत्यंत प्रचंड एवं भयजनक हो रहा हो, तथा ( दुप्पवेसतरग) वीरों के लिये भी जो अत्यंत दुर्गम बना हुआ हो ऐसे ( संगामसंकडं ) गहनयुद्ध में ( अभिवडंति ) प्रवेश कर जाते हैं । तथा (अवरे ) दूसरे भी ( पाइक वे को २४ पातने साक्षितमा - " वसुवसुह" त्या 10-" वसुवसुहविकंपियव्व" भाणे देवाने तथा पृथ्वीमने ५५ तो पायभान ४२ हीधा छ सेवi olor ५ अने: २० " परधणं महतो" wllodit धनमा यु०५ थने “ पञ्चक्खपिउवणं " प्रत्यक्ष पितृपन - प्रत्यक्ष श्मशान 24t lndi, तथा “परमरुद्दबीहणग" 2 सत्यत प्रय भने नय४२ लासतुं छाय, तथा “दुप्पवेसतरगं" पाशने भाटे ५ से अतिशय दुर्गम डाय मेव “संगामसंकड" इन युद्धमा “ अभिवडति" प्रवेश ४२ छ. तथा “ अवरे" ilon my " पाइकचोरसंघा" पहाति३५ For Private And Personal Use Only Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २९६ प्रश्नव्याकरणसूत्रे सङ्घाः पदातिरूपचौरसमूहाः, 'सेणावइचोरवंदपागडिया य' सेनापतिचौरबन्द प्रकर्षकाः-सेनापतिचौरसमूहयुक्ताश्च ‘अडविदेसदुग्गवासी' अटवीदेशदुर्गवासिनः अटवीदेशे-अरण्यदेशे यानि दुर्गाणि जलस्थलरूपाणि दुर्गमस्थानानि तेषु निवासिनः कालहरियरत्तपीयमुकिल्लअणेगसयचिंधपट्टबंधा ' कालहरितरक्तपीतशुक्लानेकशतचिन्हपट्टबन्धाः = कृष्णहरितरक्तपीतशुक्लवर्णा अनेकशतसंख्यकाः ये चिन्हपट्टास्तेषां बन्धः मस्तकादौ बन्धनं येषां ते तथा 'धणस्स' धनस्य पर द्रव्यस्य 'कज्जे ' कार्ये=अर्थाय 'लुद्धा' लुब्धाः लोलुपाः सन्तः परविसए' परविषयान् अन्यभूपदेशान् ‘अभिहणंति' अभिघ्नन्ति=विनाशयन्ति ।। सू०८॥ पुनरदत्तादानं कथं कुर्वन्ति ? तदाह- रयणागर' इत्यादि मूलम्-रयणागरसागरं च उम्मीसहस्समालाऽऽकुलविगयपोयकलकलंतकलितं, पायालकलससहस्सवायवसवेगसलिलउद्धम्ममाणदगरयरयंधयारं, वरफेणपउरधवलपुलंपुलसमुट्ठियाट्टहासं, मारुयविक्खुब्भमाणपाणियजलमालुप्पलहुलियं अवियसमंतचोरसंघा) पदातिरूप चौरसमूह कि जिसमें ( सेणावइ चोरवंदपागडिया य ) सेनापति एवं चौरों का जत्था एकत्रित रहता है, तथा ( अडवीदेसदुग्गवासी) जो जंगल के बीचमें जितने भी प्रायः दुर्गमस्थान होते हैं-चाहे वे जलरूप हों या थलरूप हो-उनमें रहते हैं तथा ( कालहरियरत्तपोयस्सुकिल्लभणेगसकचिंधपट्टबंधा ) कृष्ण, हरित, रक्त, पीत, शुक्ल, वर्णवाले सैकडों चिह्नपट्टों को जो अपने मस्तक ऊपर बांधा करते हैं ऐसे वे पदातिरूप चौर समुदाय (धणस्स कज्जे ) पर के द्रव्य में (लुद्धा ) लोलुप होकर (परविसए ) अन्य राजाओं के देशों को (अभिहणंति ) विनाश करते हैं ।। सू०८॥ योर समूड भी “ सेणावइचोरवंदपागढिया य" सेनापति भने याराना समूड मे २२ छ, तथा “ अडवीदेसदुग्गवासी" सनी खi દગમ સ્થાને હોય છે પછી તે જળરૂપ હોય કે સ્થળરૂપ–તેમાં રહે છે, તથા " कालहरियरत्तपीयसुकिलअणेगसयचिंधपट्टबंधा " mi, elai, सास, પીળાં, સફેદ આદિ રંગની સેંકડો પટ્ટીઓને જે પિતાના મસ્તક ઉપર બાંધે छ, सव। पहाति--५पाणे-यार समुदाय " धणस्स कज्जे" ५२धनमा — लुद्धा" सोयु५ ने “परविसए" मन्य मान देशोना “ अभिहणंति " विनाश ४२ छ ॥ सू-८॥ For Private And Personal Use Only Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० ३ ० ९ अदत्तादानविषयसागरनिरूपणम् २९७ ओखुभियलुलियंखोखुम्भमाणपक्खलियचीलयीवउलजलचक्कवालमहानइवेगतुरियआपूरमाणगंभीरविउलआवत्तचंचलभममाणगुप्पमाणुच्छलंतपच्चोणियंतपाणिय - पहावियखरफरुसपयंड वाउलियसलिलफुटुंतवीचिकल्लोलं संकुलं, महामगरमच्छकच्छभोहारगाहतिमिसुंसुमारसावयसमाहय समुदायमाणयपूघोरपउरं॥९॥ टीका--अपि च परद्रव्यहरानराः 'रयणागरसागरं च ' रत्नाकरसोगरं चरत्नानाभाकर:-निधिभूतो यः सागरः समुद्रस्तं प्रविश्य तन्मध्ये गत्वा पोतान् घ्नन्ति, इत्यनेण सम्बन्धः, कीदृशं सागरम् ? इत्याह-' उम्मीसहस्समालाकुलविगयपोयकलकलंतकलितं' ऊर्मिसहस्रमालाकुलविगतपोतकलकलकलितम् = उर्मीणांतरङ्गाणां सहस्रमालाभिः सहस्रसंख्यकपंक्तिभिराकुलत्वात् विगताः - भग्नाः ये पोताः नौकाः 'जहाज- स्टीमर' इति प्रसिद्धाः तेषां तत्र स्थितानां व्यापारि 'अत्तादान किस प्रकार किया जाता है ? ' अब सूत्रकार इस बात को समझाते हैं-'रयणागर ' इत्यादि। टीकार्थ-पर के द्रव्य को हरण करने में तत्पर बने हुए मनुष्य चोर ( रयणागरसागरं च ) रत्नों के निधिभूत समुद्र में घुस कर केउसके मध्य में जाकर के जहाजों को नष्ट कर देते हैं, इस प्रकार का संबंध यहां लगा लेना चाहिये । अब सूत्रकार समुद्र का वर्णन करते हैं( उम्मीसहस्समालाकुलविगयपोयकलकलंतकलितं ) हजारों लहरों के समूह से आकुल होने के कारण जहां पर व्यापारी आदि जनों के जहाज नष्ट हो जाते हैं, और इसी कारण उन जहाजों पर बैठे हुए व्यक्तियों અદત્તાદાન-ચેરી કયી રીતે કરાય છે” એ વાતને સૂત્રકાર હવે સમनवे -" रयणागर" त्यादि परधनने सेवाने मातुर गनेही मनुष्य-या२ “ रयणांगरसागर च" રના નિધિ એવા સમુદ્રની વચ્ચે જઈને જહાજોને ડૂબાવી દે છે, એ સંબંધ અહીં જડવાને છે-હવે સૂત્રકાર સમુદ્રનું વર્ણન કરે છે “ उम्मीसहरसमालाकुलविगयपायकलकलंतकलित" m२१ भयान સમૂહના આક્રમણને કારણે જ્યાં વ્યાપારી આદિ લેકેનાં જહાજે નાશ પામે છે, અને તે કારણે તે જહાજેમાં બેઠેલા લેકેના કકળાટથી જે યુક્ત બનેલ છે, प्र०३८ For Private And Personal Use Only Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे प्रभृतीनां कलकलेन-कोलाहलेन कलितं युक्तम् , ' पायालकलससहस्सवायवसवेगसलिलउद्धम्ममाणदगरयरयधयारं ' पातालकलशसहस्रवातवशवेगसलिलोद्धम्यमानोदकरजोरयाऽन्धकारं = तत्र ‘पायालकलससहस्स' पातालकलशानां यानि सहस्राणि तैः वायवसवेग वातवशात्-वायुवशाद् वेगयुक्तं यत् 'सलिलउद्धमाणदगरयरयंधयारे' तत्र सलिलंम्पमुद्रनलं तस्मादुद्धम्यमानम्-उच्छल यदुदकरजा जलबिन्दुस्तस्य रयो वेगातेनाऽन्धकारो यत्र स तथा तम् , 'वरफेणपउरधवलपुलं पुलसमुट्टियाट्टहासं ' वरफेन चुरधवलपुलंपुल समुस्लिादाम = वरफेनः =वर अतिस्वच्छः फेनः 'समुद्र झाग' इति प्रसिद्धः स पचुरो धवलः = श्वेतवर्णः 'पुलंपुल' इति निरन्तर समुस्थितः--उद्गतः स एव अट्टहासो यत्र स तथा तं फेन हासयोः शुक्लत्वेन साम्या रूपकालङ्कारेण निरूपितम् । 'मारुयविक्खुम्भमाणपाणिय' मारुतविक्षोभ्यमाणपानीयं मारुतेन आयुना त्रिशोभ्यमाणम्-आलोड्यमानं पानीयं यत्र स तथा तं ' जलमालुप्पलहुलियं ' जलमालोत्पलहुलिय-जलमालानां म्भीरतरङ्गाणामुत्पला=समूहः 'हुलियं' शीघ्रं पुनः पुनस्तरङ्गान्तरमुत्पद्यमानं यत्र स तथा तं 'अवि य' अपि च 'समंतओक्खुभिय - लुलिय - खोक्खुभमाणके कल कल शब्द से जो युक्त हो रहा है, तथा ( पायालकलससहस्स ) सैकडों पाताल कलशों के ( वायुवसवेग ) वायु के संयोग से वेगयुक्त बने हुए ( सलिल उद्धम्ममाणद्गरयरयंधयारं) जल की उछलती हुई बून्दों के समुदाय से जो अंधकार युक्त जैसा बना हुआ है, ( वरफेणपउर-धवल-पुलंपुल-समुट्टियाट्टहासं.) जो अपने स्वच्छ प्रचुर धवल वर्णवाले फेन से मानों निरन्तर हँस ही रहा है, तथा ( मारुपविक्खुम्भमाणपाणियं ) वायु से जिसका जल आलोड यमान हो रहा है, तथा (जलमालुप्पलहुलियं) जिसमें पानी का समूह जल्दी से दूसरी तरंग उत्पन्न कर रहा है, ( अविय ) तथा जो ( समंतओ खुभिय ) पवन के आघात त " पायालकलससहस्स" से पाता ४ोनi “ वायुवसवेग" वायुन। सयागथी वेगयुत अनेस "सलिलउद्धम्ममाणदगरयरथंधयारं" misdi मिन्दुसाना समुदायथा 2 24°४।२ युद्धमानेस छ, “वरफेण-पउर-धवल पुलंपुल-समुट्ठियाहासं" पोताना २१२३७ अने मत्यत स३४ २ ना 0 43 on नित२ उसी २wो छ, तथा “ मारुयविक्खुब्भमाणपाणिय ' वायुथी रेनु पाए! ४ी २युं छे-- गतिमान मन्युं छे. तथा “ जलमालुप्पलहुलिय" જેમાં પાણીને સમૂહ જલ્દીથી એક તરંગમાંથી બીજું તરંગ-(મજું) ઉત્પન્ન अरी २ , “अवियतथा “समंतओखुभिय" ५५नना आधातथी For Private And Personal Use Only Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदशिनी टीका अ०३ सू० ९. अदत्तादानविषयसागरनिरूपणम् पक्खलिय - चलिय-विपुलजलचकवाल-महानईवेग-तुरिय आपूरमाण-गभीरविपुल-आवत्त-चंचल-मममाण-गुप्पमाणु-च्छलंत-पच्चोणियंत - पाणिय-पधाविय-खर-फरुस-पयंड-वाउलिय-सलिल-फुटुंत-वीचि-कल्लोल-संकुलं' समन्ततः क्षुभितलुलितचोक्षुभ्यमाणप्रस्खलितचलितविपुलजलचक्रवालमहानदीवेगत्वरितापूर्यमाणगभीरविपुलावर्तचश्चलभ्रमद्गोप्यमानोच्छलत्पत्यवनिवृत्तपानीयप्रधावितखरपरुषप्रचण्डव्याकुलितसलिलस्फुटद्वीचिकल्लोलसङ्कुलम् , तत्र 'समंतओखुभिय' समन्ततः क्षुभितं-पवनाऽऽघातेन सर्वतो व्याकुलितं 'लुलिय' लुलितं च तटमदेशमाप्तं तथा 'खोखुब्भमाण' चोक्षुभ्यमाणम् अतिशयेन पुनः पुनर्वा महामत्स्यादिभिर्व्याकुलीक्रियमाणं 'पक्खलियं' प्रस्खलितं = पर्वतादीनां महाशिलादिष्वाघातेन स्खलितं पश्चात् 'चलियं ' चलित-स्वस्थानाद् गमनं प्रवृत्तं 'विउल ' विपुलं-विस्तीर्ण 'जलचकवाल' जलचक्रवाल-जलसमूहः यत्र ताः - क्षुभितलुलित चोक्षुभ्यमाणप्रस्खलित चलितविपुलजलचक्रवालास्तथा बिधाश्च या ' महानईवेग' महानद्याः गङ्गायमुनाधास्तासां वेगेः 'तुरिय' त्वरितं शीघ्रम् ' आपूरमाण' आपूर्यमाणो यः सागरः स तथा । गभीराः-आगाधाः विपुला:-विशालाः ये 'आवत्त' आवतः चक्राकारजलनमाः तथा चञ्चलं यथास्यात्तथा 'भममाणा' भ्रमन्ति 'गुप्पमाणा' गोप्यमानानि व्याकुली भवन्ति से चारों तरफ क्षुब्ध हुआ (लुलिय) तट प्रदेश को प्राप्त हुआ-तटतक पहुँचा हुआ (खोक्खुन्भमाण ) महामत्स्यादि जलचर जन्तुओ से व्या. कुल किया गया (पक्खलिय) पर्वतादि की महाशिलाओं आदि के आघात से स्खलित हुआ फिर ( चलिय) चलित-स्वस्थान से चलित हुआ (विउला ) विस्तीर्ण (जलचकवाल ) जलसमूह जहां है ऐसी (महानईवेगो) गंगा यमुना आदि महानदी के वेगों से ( तुरिय) त्वरित-शीघ्र (आपूरमाण) जो भरा जा रहा है । तथा जो (गभीर) अगाध (विउल) विशाल ( आवत्त) ओवत्तों - ( चक्राकार जलभ्रमणों) से तथा ( चंचल ) चपल (भममाण ) घूमते हुए (गुप्पमाण ) व्याकुल हुए थामेर क्षु ५ २४ने " लुलिय” तटश सुधी ५थाने “खोक्खुब्भमाण" महामत्स्याहि जय२ ७ २॥ व्याण ४२॥येस “पक्खलिय” पाहिनी महाशिवाय And आपातथी मलित ने पछी " चलिय" यलितस्वस्थानथी यसित ने “ विउल" विस्ता “जलचकवाल" समूड स्या छ मेवी ‘महानईवेगो' | यमुना मावि भानही माना वेगथा 'तरिय' थी ' आपूरमाण' मरा २ छ. तथा 'गभीर' म. विउल" विशाल " आवत्त" भगाथी तथा "चंचल" या "भममाण" भता For Private And Personal Use Only Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३०० प्रश्नव्याकणसूत्रे ' उच्छलंत ' उच्छलन्ति आकाशे उत्पतन्ति पुनः ‘पञ्चोणियंत ' प्रत्यवनिवृत्तानि अधोगच्छन्ति च यानि ' पाणिय' पानीयानि पाणिनो वा यत्र स तथा 'पधाविय' प्रधाविताः शीघ्रं गताः 'खरफरुस ' खरपरुषाः वेगातिशयाद् अतिकर्कशाः 'पयंड' प्रचण्डाः दारुणाः 'वाउलियसलिल' व्याकुलित सलिला:-व्याकुलीकृतानि उन्मथितानि सलिलानि-जलानि यैस्ते तथा 'फुटुंत' स्फुटन्तः परस्परसङ्घर्ष प्राप्य विच्छेदं गच्छन्तश्च ये 'वीचिकल्लोलसंकुलं' वीचयःन्तरङ्गाः कल्लोलाः महातरङ्गास्तैः सङ्कुलो यः स तथेति पूर्वेषां कर्मधारयस्तं तथाविधं 'महासा( उच्छलत ) आकाश में उछलते हुए ( पच्चोणियंत ) फिर नीचे गिरते हुए (पाणिय ) पानी अथवा प्राणी जिन में है ऐसी, तथा (पधाविय ) शीघ्रता से उठी हुई ( खरफरुस ) अतिवेग से अत्यन्त कठोर (पयंड) दारुण-भयंकर अतएव (वाउलियसलिल ) जल को मथित जैसा कर दिया ऐसी, तथा ( फुटत ) परस्सर के संघर्षसे विच्छिन्न-जुदी जुदी हुई ऐसी ( वीचिकल्लोल ) छोटी बड़ी तरंगों से ( संकुलं) व्याप्त ऐसे समुद्र को, अर्थात्-जो गंगा यमुना आदि नदियों के वेगों से कि जिनका विपुल जल चक्रवाल-समूह पवन के आघात से सर्वतः व्याकुलित होता रहता है, और तटप्रदेश तक आता रहता है, तथा महामत्स्य आदि जलचर जानवर जिसे अत्यंत चंचल बनाते रहते हैं, एवं जो पर्वत आदिकों की महाशिलाओं पर आघातयुक्त होकर अपने स्थान से आगे को बढ़ता रहता है, तथा जो गंभीर एवं विपुल आवर्ती से सदा व्याप्त बना रहता है, तथा जिसमें चंचल होकर पानी अथवा प्राणी बार २ इधर से उधर “गुप्पमाण” व्याण " उच्छलत" माशमा sendi “पच्चोणियंत " भने ५॥ ५॥७॥ नीय ५७तi " पाणिय " पाए२५ छे, मेवi तथा “ पधाविय, ७५थी उत्पन्न थतi, " खरफरुस" यतिवेगने १२अतिशय ४२ मने “ पयंड" ६॥२५ पाने २) “वाउलियसलिल " पाएन भन्थन ४२॥तु डाय मेवा, तथा “फुहत" २४ मी साथे माथी विछिन्न थता “वीचिकल्लोल" नानां भट भां माथी “ संकुलं” व्या सेवा समुદ્રને, એટલે કે જે ગંગા યમુના આદિ નદીઓના વેગથી કે જેમનું વિપુલ જળ ચક્રવાતના આઘાતથી સર્વતઃ વ્યાકુલિત થતું રહે છે, અને તટપ્રદેશ સુધી આવતું રહે છે તથા મહામત્સ્ય આદિ જળચર પશુઓ જેને અતિશય બનાવતાં રહે છે, અને જે પર્વત આદિની જે મહાશિલાઓ સાથે અથડાઈને પિતાના સ્થાનથી આગળ વધતું રહે છે, જલદી ભરાતું રહે છે, તથા જે ગંભીર અને વિશાળ વમળેથી હમેશાં વ્યાપ્ત રહે છે, તથા જેમાં પાણી અને પ્રાણી ચંચળ For Private And Personal Use Only Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुर्शिनी टीका अ० ३ सू. ९ अदत्तादानविषयसागरनिरूपणम् गर-मच्छ-कच्छ-भोहारगाह-तिमि-सुसुमार-सावय-समाहय समुदायमाणयपूर-घोरपउर' महामकरमत्स्यकच्छपोहारग्राहतिमिशिशुमारश्वापदसमाहतसमुद्घावत्पूरघोरप्रचुर महान्तो मकराः, तथा मत्स्याः कच्छपाश्च 'उहार' इति जलचरविशेषाः ग्राहास्तिमयः शिशुमाराः श्वापदकाश्च सर्वे जलचरविशेषाः ते च ते समाहताः परस्पर सङ्घर्ष प्राप्ताः समुद्घावतः अन्यान् स्वस्मानिर्बलान् जन्तून् हन्तुं धावन्तो ये पूरा समुदायाः ते च ते घोरा-भयङ्कराः प्रचुराः यस्मिन् स तथा तमेवंविधं महासागरं धनार्थं गत्वा घ्नन्ति पोतानिति च वक्ष्यमाणेन सम्बन्धः॥९॥ पुनः कीदृशं सागरमित्याह- 'कायर ' इत्यादि। मूलम्-कायरजणहिययकंपणं घोरमारसंतं महब्मयं भयंकर पडिभयं उत्तासणगं अणोरपारं आगासं चेव निरवलंबं उप्पा. घूमते रहते हैं जिससे वह व्याकुल जैसा होता रहता है, आकाश में उछलता रहता है, और पुनः ऊपर से नीचे आ जाता है। तथा जो शीघ्र उद्भूत वेगातिशय से अतिकर्कश, प्रचंड, व्याकुलित-मथित किया है पानी जिन्हों ने एवं परस्पर संघर्ष को प्राप्त होकर विच्छेद को प्राप्त हुई ऐसी लहरों से संकुलित बना रहता है, (महामगरमच्छकच्छ भोहारगाह तिमिसुंसुमारसावयसमाझ्यसमुद्घायमाणपूरघोरपउरं ) तथा बडे २ मकर, मत्स्य, कच्छप, उहार, ग्राह, तिमि, शिंशुमार, श्वापद, आदि जलचर जन्तुविशेष जिसमें परस्पर संघर्ष को प्राप्त होते रहते हैं और अपने से निर्बलों को मारने के लिये सदा जिसमें दौड़ते रहते हैं ऐसे महासागर में धन की लालसा से जाकर चोर लोग जहाजों को नष्ट कर डालते हैं। सू०९॥ થઈને વારંવાર આમ તેમ ફર્યા કરે છે. જેથી તે જાણે વ્યાકુળ રહે છે, આકાશમાં ઉછળતું રહે છે અને ફરી પાછું નીચે આવીને પડે છે. તથા જે શીધ્ર ઉત્પન્ન થયેલ અતિશય વેગને લીધે અતિ કર્કશ, પ્રચંડ, વ્યાકુલિત, પાણીનું મંથન કરનાર, અને એક બીજા સાથે અથડાઈને વિચ્છેદ પામેલ મેજાએથી વ્યાપ્ત રહે छ. “महामगरमच्छकच्छभोहारगाह तिमिसुसुमारसावयसमाइयसमुद्घायमाणपूरघोरपउर" तथा मोटा भारी, मत्स्य, आयमा, २, आड, तिमि, शिशुभार, वाह, આદિ જળચર પ્રાણીઓ જેમાં પરસ્પર અથડામણમાં આવ્યા કરે છે, અને પિતાના કરતાં નિર્બળને મારવાને માટે સદા દેડતાં હોય છે, એવા મહાસાગરમાં ने यारसा धननी सासयथी डानी नाश ४२ छे. ॥ २० ॥ For Private And Personal Use Only Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - ३०२ प्रश्नध्याकरणसूत्रे इय पवणधणियणोल्लियउवरुवरितरंगदरियअइवेगवखुपहमोच्छरतं कत्थइगंभीरविउलगजियगुंजियनिग्घायगरुयनिवडियसुदीह नीहारिदूरसुच्चंतगंभीरधुगधुगंति सदंपडिपह रंभंतजक्खरक्खसकुहंडपिसायरुसियतज्जायउवसग्गसहस्ससंकुलं बहप्पाइयभूयं विरइयबलिहोमधूवउवयारदिण्णरुहिरऽच्चणाकरणपजयजोगपययचरियं परियंतजुगंतकालकप्पोषमं दुरंतमहानईवइमहाभीमदरिसणिजं दुरणुचरं विसमप्पवेसं दुक्खुत्तारं दुरासयं लवणसलिल पुण्णं असियसिय समुच्छियगेहिं हत्थतरगेहिं वाहणेहि अइवइत्तासमुदमज्झेहणंति गंतूण जणस्स पोरा परदवहरा नरा निरणुकंपा णिरवेक्खा ॥सू० १०॥ टीका-'कायरजगहिययकंपणं' कातरजनहृदयकम्पनं कातरजनानां = भीरुपुरुपाणां हृदयस्य कम्पनं कम्पकारकं घोरं भयङ्करं यथास्यात्तथा आरसन्त शब्दाथमान-शब्दं कुर्वन्तं कोलाहलसङ्कुलमित्यर्थः । 'महब्भयं प्रतिभयं महाभयं-अत्यन्तभयजनकम् , अत एव भयङ्करं 'पडिभयं' प्रतिभयं-प्रतिपाणिनं भयोत्पादकम् फिर यह समुद्र कैसा है सो कहते हैं-'कायरजण' इत्यादि । टीकार्थ-जो समुद्र ( कायरजणहिययकंपणं ) कायरजनों के हृदय को कँपा देता है ( घोरं ) भयंकर होकर जो ( आरसंत ) शब्दायमान होता है (महन्भयं ) देखते ही जिसे लोगों को भय का संचार होने लग जाता है ( पडिभयं ) हर एक प्राणी का रोम २ जिसकी आकृति के समक्ष भय के मारे खडा हो जाता है, और इस लिये जो (भयंकर) ते समुद्र । य छ तेतुं वधु १४न ४ छ-" कायरजण त्या समुद्र " कायरजणहिययकंपणं " " घोर" यर बनायने भावी है छ, “घोर" मय ४२ रीते “ आरसंत" धुधवाट ४२ , “ महः भय" नेतi or सोना सिमा लय उत्पन्न थाय छे, “पडिभय" જેને દેખાવ જોતાં જ ભયથી દરેક પ્રાણુઓના રુવાટાં ખડા થઈ જાય છે, For Private And Personal Use Only Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir %3 - - सुदर्शिनी टोका अ० ३ सू० १० पुनरपिसागरस्वरूपनिरूपणम् ३०३ 'उत्तासणगं' उनासनक-चित्तक्षोभकारकम् ' अणोरपारं' अनर्वापारम् अलधापारपर्यन्तं ' आगासं चेव निरवलंबं ' आकाशमिव निरवलम्बम् आधाररहितं तत्र पतद्भिर्न किश्चिदालम्बनमुपलभ्यते इति भावः, उप्पाइय पक्षणधणियणोल्लिय उवरुवरितरंगदरियअइवेगं ' तथा औत्पातिकपघनघनोदितो पर्युपरितरङ्गतातिवेगम् औत्पातिकेन = उत्पातजनितेन पवनेन वायुना= 'धणिय ' इति अत्यन्तं नोदिताः प्रेरिताः उपर्युपरि-उर्बोचं ये तरङ्गास्ते च ते दृप्ताः-गर्विता इव अतिवेगा: महावेगाः यत्र स तथा तं उत्पातजनितपवनेन अतिवेगतरङ्गयुक्तमतएव ' चक्खुपहमोच्छरंतं ' चक्षुष्पथमवतणन्तं चक्षुष्पथंदृष्टिपथम् अवस्तृणन्तम् आच्छादयन्तं द्रष्टुमप्यशक्यं किं पुनस्तमित्यर्थः, तथा ' कत्थइ ' कुत्रचित् क्वचित्प्रदेशे गम्भीर = अलब्धं मध्यं पुनः · विउलगज्जियगुंजियनिग्घायगरुयनिवडियसुदीहनीहारिदूरसुच्चंतगंभीरधुगधुगंतिसई । विपुलगर्जितगुजितनिर्घातगुरुकनिपतितसुदीर्घनिर्हादिदूरश्रूयमाणगम्भीरदुगधुगितिशब्दं = तत्र विपुलं = विशालं गर्जितं = मेघवद् अनिः तथा गुञ्जितं भय का प्रतिस्वरूप बना रहता है ( उत्तासणगं) चित्त में जिसे अवलोकन कर क्षोभ हो जाता है, ( अणोरपारं) जिसका दूसरा तट अलब्ध होता है (आगासं चेव निरविलंबं) आकाश की तरह जिसमें प्राणियों को पड़ जाने पर कोई भी आधार प्राप्त नहीं होता है, ( उप्पाइयपवण) उत्पात जनित पवन से (धणिय णोल्लिय ) अतिशय वेगशाली होकर ( उवरुवरि ) एक दूसरे के ऊपर पड़ती हुई ( तरंगदरिय ) गर्वित तरंगों से ( अइवेगं ) अत्यंतवेग हो रहा है। ( चक्खुपहमोच्छरंतं ) जिसका देखना भी अशक्य है तो फिर वहां तैरने को तो बात ही क्या है (कत्थहगंभीरं) कीसी २ प्रदेश में जो बहुत ही अधिक गंभीर भने तेथी ०४ " भयंकर" अयनी प्रतिभूति दाग छ, “ उत्तासणगं"तुं मोन ४शन चित्तमा क्षोम थाय छ, “ अणोरपार "नी भी नारे। सय डाय छ-रेन पा२ पामो हु४२ छ, “आगासंचेव निरवलंब " माशनी ममा प्रासाने ५&andit] माघार भगता नथी "उप्पाइ य पवण" Sत्पात नित पवनथी “धणिय णोल्लिय" अतिशय वेम मावी धन. “ उवरुवरि" मी011 S५२ ५३तi " तरंगदरिय" गावित भातसाथी “ अइवेग” ले अत्यंत वेगयुत मनी २डा छ, “ चक्खुपमोच्छर तं" જેને જોઈ શકે પણ અશક્ય છે તે ત્યાં તરવાની તે વાત જ ક્યાં છે! "कत्यइगंभीर" | प्रदेशमा २ घरी! पधारे मार डाय , For Private And Personal Use Only Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - ३०४ प्रश्नव्याकरणसूत्रे भ्रमरगुञ्जितमिव गुञ्जितं तथा निर्घान्तः व्यन्तरकृतो महाध्वनिः गुरुकनिपवित=विशुद्विशेषादि संपातेन च जायमानोध्वनिः सुदीर्घः अत्यथै निहादीप्रतिध्वनियुक्तो निर्घोषः दूरश्रूयमाणः अतिदूरदेशादपि भूयमाणः गम्भीरो धुगू धुगिति शब्दश्च यत्र स तथा तं 'पडिपहरुंभंत-जनवरक्खस कुहंड-पिसायरुसिय - तज्जायउवसग्गसहस्ससंकुलं । प्रतिपथरुन्धानयक्षराक्षसकूष्माण्ड पिशाचरुष्टतज्जातोपसर्गसहस्रसंकुलं = तत्र प्रतिपथं प्रतिमार्ग रुन्धानाः पथिकानां मार्गावरोधं कुर्वाणा ये यक्षाः राक्षसाः कूष्माण्डाः पिशाचाश्च सर्व व्यन्तरविशेषास्ते च ते रुष्टाः रोषयुक्ता स्तै जर्जातानि यान्युपसर्गसहस्राणि-उपद्रवसह स्राणि तैः संकुला व्याप्तो यः स तथा तं ' बहूपाइयभूयं ' बहोत्पातिकभूतंबहून्यौत्पातिकानि-उत्पातभवानि दुःखानि भूतानि यत्र स तथा तं ' विरइय होता है। तथा (विउलगज्जिय गुंजिय) जिसका मेघ की तरह विशाल गर्जित एवं भ्रमरों के जैसा विशाल गुंजित, (निग्याय) निर्घात-व्यन्तरों की ध्वनि, तथा ( गरुयनिवडिय) विजली आदि का जो इसमें गिरना होता है उस समय निला हुआ जो अत्यन्त निहींदी प्रतिध्वनि युक्त विशेष निर्घोष ( दूरसुच्चंत ) दूर से सुनाई देने वाले (गंभीर ) गम्भीर ( धुगधुगंति ) ' धुग युग' ऐसा शब्द, ये (सई) शब्द हैं जिसमें, तथा (पडिपहरुभंत-जक्ख-रक्खस-कुहंङ-पिसायरुसिय-तजायउवसग्गसहस्ससंकुलं ) जो रुष्ट होकर पथिको के मार्ग का अवरोध करने वाले यक्ष, राक्षस, कूष्माण्ड ( व्यन्तरविशेषदेव ) एवं पिशाचों के हजारों उपसर्गों से सदा व्याप्त रहता है ( बहूप्पाइय भूयं ) तथा जिसमें जीवों को अनेक उत्पातजन्य दुःखों का साम्हना तथा “ विउलगज्जियगुंजिय" २ भेधन वा मोटी ना ४२ छ भने प्रभारी वा विशm Y२५ ४२ छ, “निग्याय" निर्धातव्यन्तशनी भापनि तथा “गरुयनिवडिय" पीणी माहितमा ५ त्यारे तमाथी नीत! निहींदी-प्रतिध्वनि युत निषि, “ दूरसुच्चंत ” २थी सन जातो " गंभीर " मी२ " धुगधुगंति " " धुर धु" वो मावा२८, मा " सई" शोभा समय छे तथा “ पडिपहरुभंत-जक्ख-रक्खस-कुहंड -पिसाय-रुसिय-तज्जाय उवसगसहस्ससंकुलं ” २ २८ ने भुसाना માર્ગને અવરોધ કરનારા યક્ષ, રાક્ષસ, કુષ્માંડ, (વ્યન્તર વિશેષ દેવ) અને पिशयाना ७०१२S५साथी सहा व्यास २९ छ, “ बहूप्पाइयभूयं " तथा मा ७वाने माने त्यात न्य मान सामन। ४२३॥ ५ छ, “ विरइय For Private And Personal Use Only Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका १०३ सू० १० पुनरपिसागरस्वरूपनिरूपणम् ३०५ बलिहोमधूवउवयारदिणाहिरच्चणाकरणपययजोगपययचरियं । विरचितबलिहोमधूपोपचारदत्तरुधिराचनाकरणप्रयतयोगप्रयतचरितं = तत्र विरचित्तः = कृतः बलिना-द्रव्योपहारेण होमेन अग्नौ हवनेन धूपेन-धूपेनचोपचारो यैस्ते तथा दत्तं रुधिर समर्पितं शोणितं यत्र तदेवंभूतं यदर्चनाकरणं तत्र प्रयताः-तत्परा ये ते तथा, योगप्रयताश्चमोतादिभिर्व्यापारे निरता ये ते तथा तैः तत्रस्थितैः चरितः संश्रितो यः स तथा तमेतादृशं सागरम् । पुनः कीदृश ? मित्याह-'परियंतजुगंतकालकप्पोवमं ' पर्यन्तयुगान्तकालकल्पोपमं पर्यन्तयुगस्य-सकलेषु युगेषु मध्ये चरमयुगस्य योऽन्तकाला प्रलयकालः स एव कल्पस्तेनोपमा सादृश्यं यस्य स तथा तं 'दुरंतमहानई-नईवर--नहाभीमदरिसणिज्ज' दुरंतमहानदी नदीपतिमहाभीमदर्शनीयं-दुरन्ताः-दुष्पाराः या महानद्यः गङ्गाधानद्यश्वअन्याः सामान्याकरना पड़ता है (विरइयलिहोम-धूव-उवयार-दिण्ण-रुहिर-च्चणाकरण-पयय-जोगपययचरियं) तथा (विरइयबलिहोमधूवउवयार) नौकाओंके अटक जाने पर जहां जहाजों से व्यापार करने में लगे हुए मनुप्यों द्वारा-सार्थवाहो द्वारा-विविध प्रकार की भेंटें दी जाती है, अग्निमें धूप जलाया जाता है तथा (दिण्ण हिरच्चणाकरणपयय ) रुधिर का समर्पण रूप पूजा में लगे हुए ऐसे ( जोगपयय ) व्यापारी लोगों से (चरियं ) सेवित है । तथा ( परियंत जुगंतकालकप्पोवमं ) समस्त युगों के मध्य में चरम युग का प्रलयकालरूप कल्प के जैसा तु (दुरंतमहानई नईवइ-महाभीम रिणिज ) ( दुरंत ) जिनका पार करना कठिन है ऐसी ( महानई नईवइ ) गंगा आदि महानदियों का तथा अन्यसाधारण नदियों को जो पति हैं, इसी कारण यह ( महाभीमदरिसणिज्ज) देखने बलिहोम-धूव-उपयार-दिण्ण-रुहिर-च्चणाकरण-पयय-जोगपययचरियं ” तथा " विरइयवलिहोमधूवउवयार" नौ म28 val orii पलाएं। २ વેપાર કરનાર લોકો દ્વારા (સાર્થવાહ દ્વારા) વિવિધ પ્રકારની ભેટે દેવાય છે, अभिमा ५५ ५७.यामा मात्र छ, तथा “दिण्णरुहिरच्चणाकरणपयय" रुधिरना सम५। ३५ पूorii सासा सवा "जोगपयय" व्यापारी साथी “चरिय" २ सेवित छ, तथा “परियंतजुर्गतकालकप्पोवमं " सा युगानी :वश्ये छेदा युना प्रसय३५ ४८५न वो छ, “ दुरंतमहानईनईवइ-महाभीमदरिसणिज्जं” “दुरंत" ने मेवी भुश्य छ मेवी “ महानईनईवइ” ॥ माहि भ नही मानी तथा मी सामान्य नहीयाना रे पति छ, अने ते २ रे “महाभीमदरिसणिज्ज ” मामा लय२ प्र० ३९ For Private And Personal Use Only Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३०६ प्रश्नव्याकरणसूत्रे स्तासां 'वइ' पतिः, स च महाभीमदर्शनीयः स तथा तं 'दुरणुचर' दुःखेनाऽ नुचर्यते इति दुरनुचरं 'विसमप्पवेस' विषमप्रवेश-विषमा दुस्साध्यः प्रवेशो यस्मिन् स तथा तं ' दुक्खुत्तार' दुःखोत्तार दुःखेनोत्तरणं यस्य स तथा तं 'दुरासयं ' दुरासद दुष्पापं दुराश्रयं-दुःखदस्थानरूपं ' लवणसलिलपुण्णं ' लवणसलिलपूर्ण = क्षारजलभृतम् , ' असियसियसमुच्छियगेहि' असितसितसमुच्छितकै-तत्र असिताः-कृष्णाः सिताः शुक्लाश्च पटाः समुच्छ्रितकाः=उपरि बद्धा येषु प्रवहणेषु तानि तथा तैः 'हत्थंतरगेहि' दक्षतरकैः अन्य यानपात्राद्यपेक्षयाऽतिशयवेगशीलैः · वाहणेहिं' वाहनैः स्कन्धबायैः प्रपदणैः । अइबदत्ता' अतिपत्य= आक्रम्य 'परदबहरा' परद्रव्यहराः परधनापारमशीला: 'निरणुकंपा' निरनु कम्पा:-कृपारहिताः ‘णिस्वयक्खा' निरपेक्षा अपेक्षारहिताः परलोकभयरहिताः नरा:-जना ' समुहमज्झे' समुद्रमध्ये 'गंतूग गत्या जणस्स 'पोत्ते' पोतान्= नौकान् ' हणंति ' मन्ति=विनाशयन्ति ।। मू-१०॥ में भयंकर है (दुरणुचरं ) तथा जिसमें अनुचरण करना-फिरना बहुत ही आयास साध्य-कठिन है । इसीलिये (विसमापवेसं ) जिसमें प्रवेश करना बहुत कठिन होता है । ( दुक्खोत्तारं ) जिसका पार करना बड़ा मुश्किल होता है ( दुरासयं ) जो सदा दुःखदस्थानरूप है। ( लवणसलिलपुण्णं ) क्षार जल से सदा भरा रहता है ऐसे समुद्र को ( असियसिय समुच्छियगेहिं ) कृष्ण एवं शुभ्रवस्त्र जिनके ऊपर बांधा गया है ऐसी ( हत्थंतरगेहिं ) जो अन्य यान पात्रों की अपेक्षा पानी के ऊपर बहुत जल्दी तैरती है ऐसे ( वाहणेहिं) नौकाओं द्वारा ( अइवइत्ता) आक्रमित करके ( परदव्वहरा ) परद्रव्य को हरण करने वाले (निरणुकंपा) निर्दयी (णिरवयक्खा ) जो अपने परभव को सुधार ने की भावना से रहित होते हैं ऐसे ( नरा) चोर मनुष्य (समुद्दमज्झे गंतूण) 2. "दरणचर" तथा मा खु. अतिशय डिन छ. "विसमप्पसं" रेमा प्रवेश ४२वो घो। भुश्य छ, “दुक्खोतार" ने वो मतिशय भुश्स छे, “दुरासय" २ सहा :मह स्थान ३५ छ, “ लवणसलिल. पुण्णं " २ मा पाणीथी सहा लरपूर २७ छ, सेवा समुद्रने “ असियसिय समुच्छियगेहि " मना 5५२ ! सने सई वर मांधेसांछ सेवा “ हत्थं तरगेहि" २ म.न्य वाहनो ४२ पाणी ७५२ पधारे ७५थी तरे छे सेवा "बहणेटिं" नासा वा “ अइव इत्ता' भए शने “ परदव्वहरा" ५२चन २९५ ४२नारा, “ निरणुकंपा" निय भने “णिरत्यक्खा' पोताना ५२सपने सुधारपानी लानाथी २डित सेवा नरा" यार सो “ समुहमाझे For Private And Personal Use Only Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० ३ सू०११ तस्करकार्यनिरूपणम् ३०७ पुनः किं कुर्वन्तीत्याह-'गामागर० ' इत्यादि मूलम्-गामागर-नगर-खेड-कव्वड-मडंब-दोणमुह-पट्टणासमणिगम-जणवए ते य धणसमिद्धे हणंति, थिर हिययच्छिन्नलज्जा वंदिग्गह-गोग्गहा य गेण्हंति, दारुणमई निक्किवा णियं हति छिंदंति गेहसंधि निक्खित्ताणि य हरंति, धणधण्णदव्वजायाणि जणवयकुलाणं निग्घिणमई परदव्वाहि जे अविरया, तहेव केइ अदिण्णादाणं गवेसमाण कालाकालेसु संचरंता चितगपजलिय-सरसदर-दट्टकड्डियकलेवरे रुहिरालित्तवयण - अक्खय-खादिय-पीतडाइणिभमंतभयंकरे जंबुयखिक्खियंते घूयकयघोरसद्दे वेयालुट्टिय विसुद्धकहकहेंत पहसियबीहणग निरभिरामे अइदुब्भिगंधे बीभच्छदरिसणिजे सुसाणे वणे सुण्णधरलेणअंतरावण गिरिकंदरेसु विसमसावय समाउलासु वसहिसु किलिस्संता सीयायवसोसियसरीरा दड्वच्छवीनिरय तिरिय भवसंकडदुक्ख संभारवेयणिज्जाणि पावकम्माणि संचिणिता दुल्लभभक्खण पाणभोयणापिवासिया झंझिया किलंतामंसकुणिमकंदमूल किंचिकयाहारा उठिवगा उप्पुया असरणा अडवीवासं उति वालसयसंकणीयं ॥ सू० ११ ॥ समुद्र के बीच में जाकर ( जणस्स ) मनुष्यों की ( पोते ) नौकाओं को (हणंति ) नष्ट कर डालते हैं ॥सू० १०॥ गंतूण" समुद्रनी १२ये ४४ने " जणस्स" भाणुसोनी " पोते " नामाना "हणंति " नाश ४ी नाणे छ ॥ ९-१० ॥ For Private And Personal Use Only Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे टीका-' ते य' ते च-पूर्वोक्तप्रकाराजनाः ‘गामागरनगरखेडकन्वडमडंबदोणमुहपट्टणासमणिगमजणवए ' ग्रामाकरनगरखेटकटमडम्बद्रोणमुखपत्तनाश्रमनिगमजनपदान्-तत्र ग्रामः, असति बुद्धयादिगुणानितिग्रामः, आकर:= मुवर्णरजतादि धातूनां खनिस्थानं, नगरं अष्टादशकरवर्जितं, खेटे-धूलिप्राकारमयं, कर्बट-अल्पजननिवासस्थानं, मडम्बः सार्धक्रोशद्वयग्रामान्तरशून्यः, द्रोणमुखं= जलस्थलमार्गो यत्र भवेत् तद्रोणमुखं, पत्तनं सकलवस्तुप्राप्तिस्थानम् , आश्रमः= परद्रव्य हरण करने वाले तस्करजन फिर क्या करते हैं ? सो इस सूत्र द्वारा सूत्रकार प्रदर्शित करते हैं-'गामागर०' इत्यादि । टीकार्थ--(धणसमिद्धे गामागरनगर खेडकब्बडमडंवदोणमुहपट्टणासमणिगमजणवए) धनधान्यादि से समृद्ध हुए ग्राम, आकर, नगर, खेट, कर्बट, मडंब, द्रोणमुख, पत्तन, आश्रम, निगम एवं जनपद, इन सब को (ते य) परद्रव्य हरण करने वाले चोर आदिक ( हणंति ) नष्ट कर देते हैं। जहां बुद्धयादिगुणों का हास होता है वह ग्राम है । सुवर्ण रजत आदि धातुओं की उत्पत्ति का जो स्थान होता है उसका नाम आकर है । अठारह प्रकार का राजकर जिसमें नहीं लिया जाता है उसका नाम नगर है। धूलिका प्राकार जिसमें होता है उसका नाम खेट है ! जिसमें थोड़ेसे मनुष्य निवास करते है उसका नाम कर्बट है। चारों दिशाओंमें अढाई२ कोसतक जिसके आसपासमें गांव नहीं होते हैं उसका नाम मडंब है। जलमार्ग के एवं स्थलमार्ग दोनों प्रकार के मार्गसे होकर जिसमें जाया जाता हो उसका नाम द्रोणमुख है । सकल वस्तुओं की प्राप्ति का जो પદ્રવ્યનું હરણ કરનારા ચેરે પછી શું કરે છે? સૂત્રકાર આ સૂત્ર દ્વારા ते प्रगट ४२ छ-" गामागर " त्याह. साथ-“धणसमिद्धे गामागारनगरखेडकब्बडमडंबदोणमुहपट्टणासमणिगमअणवए" धनधान्यकी समृद्ध बने। गाभ, मा४२, नगर, मेट, , भ'भ, द्रोणस, पत्तन, माश्रम, निगम भने ५६ से धान “तेय" પરધન હરી લેનાર ચેર આદિ લેકે નાશ કરે છે. જ્યાં બુદ્ધિ આદિ ગુણોને હાસ થાય છે તે ગામ છે. સેનું, ચાંદી આદિ ધાતુઓનાં ઉત્પત્તિ સ્થાનને આકાર–ખાણ કહે છે. અઢાર પ્રકારને રાજકર જ્યાં લેવાતું નથી તેને નગર કહે છે. ધૂળને કિલ્લે જ્યાં હોય છે તે સ્થાનને ભેટ કહે છે. જેમાં ડા જ માણસે વસતા હોય તે સ્થાનને કઈટ કહે છે. જેની આસપાસમાં અઢી ગાઉમાં ગામ હતાં નથી તેને મર્ડબ કહે છે. જ્યાં જળમાર્ગે તથા સ્થળમાર્ગે જઈ શકાય છે તે સ્થાનને દ્રોણમુખ કહે છે. જ્યાં બધી વસ્તુઓ મળી શકે છે તે For Private And Personal Use Only Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० ३ सू० ११ तस्करकार्यनिरूपणम् ३०९ तापसनिवासः, निगमः वणिग्जननिवासः जनपदोदेशस्तान ‘धणसमिद्धे ' धनसमृद्धान्-धनधान्यसम्पन्नान् ‘हणंति ' नन्ति=विनाशयन्ति तथा 'थिरहियया' स्थिरहृदया अदत्तादाने निश्चलचित्ताः छिन्नलज्जाः जातिकुलादिलज्जावर्जिताः 'बंदिग्गहगोग्गहा य' वन्दिग्रहगोग्रहांश्च = वन्दिनः स्तुतिपाठोपजीविनस्तेषां ग्रहः ग्रहणं गवां च ग्रहणं चोरणमित्यर्थः, 'गेण्हंति' गृह्णन्ति=कुर्वन्ति तथा 'दारुणमई ' दारुणमतयः घोरकर्माचरणबुद्धयः 'निक्कि वा' निष्कृपाः निर्दयाश्च 'णियं' निजं = स्वजनमपि ' हणंति 'नन्ति = नाशयन्ति तथा गेहसन्धि गृहभित्विं छिदंति' छिन्दन्ति । ततश्च 'जणवयकुलाणं' जनपदकुलानां 'निक्खि स्थान होता है उसका नाम पत्तन है। तापस लोगों का जो निवास स्थान होता है उसका नाम आश्रम है । वणिग्जन, जिसमें रहते हों उसका नाम निगम, एवं देश का नाम जनपद है । इन स्थानों को लूटने वाले तथा-नष्ट भ्रष्ट करने वाले ये जन (थिरहियया) अदत्तादान करने में निश्चलचित्त रहते हैं ( छिन्नलज्जा ) इन्हें जाति, कुल आदि की लज्जा कुछ भी नहीं होती है । (बंदिग्गहगोग्गहा य ) ये स्तुति पाठकों को लूट लिया करते है और गायों को भी चुरा लिया करते हैं । (दारुणमई) इनकी मति बडी दारुण (भयंकर) होती है-भयंकरसे भयंकर कर्म करने में भी उन्हें संकोच नहीं होता है । (निक्किवा) ये सदा दया से रहित होते हैं । (णियं हणंति ) अपने निजजन को भी ये जान से मार डालते हैं (गेहसंधि ) घरों की भित्तियों तक को भी ये (छिंदंति ) तोड़ डालते हैं । ( जणवयकुलाणं ) दूसरों की रक्खी हुई-धरोहररूप में स्थापित की સ્થાનને પત્તન કહે છે. તાપસ લેકનાં નિવાસસ્થાનને આશ્રમ કહે છે. વણિક લેકે જ્યાં રહે છે તે નિગમ અને દેશને જનપદ કહે છે. તે સ્થાનોને લૂટना। तथा नष्टभ्रष्ट ४२॥२॥ ते सो “ थिरहियया ” महत्ताहान-यारी पाने भाट १८ निश्चया डाय छे. " छिन्नलज्जा" तेभने ति. ७ महिना सडे पए सा. हाती नथी. " बंदिग्गहगोग्गहाय" तेयो स्तुति ४२नाराने ५ से छ, भने याने ५ यारी तय छ “ दारुणमई " तेमनी नति અતિ દારુણ હોય છે-ભયંકરમાં ભયંકર કૃત્ય કરતાં પણ તેમને સંકોચ થત नथी “निकिया" ते सहा याडीन डाय छ, “णियं हति" पोताना स्वानाने ५५ तेसो भारी नामे छ, “गेहसंधि " धनी हिवान प] ते। " छिदति " धनी हिवासोने पर तेम। “छिंदति " तोडी पाई छ. " जणवयकुलाणं " la-मे अनामत थाप तरी भूस “धणधण्णव्व For Private And Personal Use Only Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३१० व्याकरणसूत्रे -- चाणि ' निक्षिप्तानि = स्थापितानि 'घणघण्णदव्वजायानि ' धनधान्यद्रव्यजातानि = धनधान्यसुवर्णरजतादीनि हरन्ति ' के इत्याह-ये ' परदव्याहि ' परद्रव्यैः 'अविश्या ' अविरताः==अनिवृत्ताः = ' निम्त्रिणमई' निर्घृणमतयः करुणारहिताः 'तदेव' तथैव पूर्वोक्तप्रकारेण 'केई' केऽपि 'अदिण्णादाणं' अदत्तादानं स्वाम्यादिभिरवितीर्णे धनं गवेषमाणाः = अन्वेषमाणाः कालाकाले पु= काठेपु=सकललोकव्यव हारोचितकालेषु दिनादिलक्षणेषु तथा अकालेषु अनुचितकालेषु अर्धरात्रादिलक्षणेषु च सञ्चरन्तः=भ्रमन्तोऽदत्तग्राहिणः, 'चितगपज्जळियसरसदरदडूकड्डियकलेवरे ' चितकप्रज्वलित सरसदरदग्धकृष्टकले व रे = चितकेषु = चितासु, : कीदृशेषु ? प्रज्वलि Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हुई ( घणघण्णदव्वजायाणि) धन, धान्य, सुवर्ण रजत आदि संपत्ति को ( हरंति ) हर लिया करते हैं। (परदव्बाहि अविरया ) क्योंकि ये लोग परके द्रव्य को चुराने रूप कृत्य से विरक्त नहीं होते हैं- “ दूसरों का द्रव्य विना पूछे नहीं लूंगा " इस प्रकार का नियम इन्हें नहीं होता है । (निग्विणमई ) ये सर्वथा दयाभाव से रहित मति वाले होते हैं। ( तहेब केइ ) इसी तरह कितनेक व्यक्ति ( अदिष्णादाण ) स्वामी आदि द्वारा वितोर्ण नहीं किये हुए धन धन्यादि की ( गवेसमाणा ) गवेषणा करते हुए ( कालाकाले ) समस्त लोक व्यवहार के उचित दिन आदि रूपकाल में तथा अर्धरात्रि आदि रूप अकाल - अनुवित काल में ( संचरंता ) इधर उधर घूमते हुए श्मशान शून्यगृह आदि में भटकते रहते हैं, यह सम्बन्ध यहां जोड़ लेना चाहिये । वह श्मशान आदि कैसे हैं सो वर्णन करते हैं-जहां (चितगपज्जलिय ) प्रज्वलित चिताओं में " जायाणि " धन, धान्य, सोनु, ३५, आहि संपत्तिने " हरति " याशु तेखे। हरी वे छे. " परदव्वाहि अविरया " अर े ते बोझे परधनने योश्वाना કૃત્યથી વિરકત ડાતા નથી, “ બીજાનુ દ્રવ્ય તેને પૂછ્યા વિના નહીં લ` '' मेव। तेभने नियम होतो नथी. ' निग्विणमई " तेथे सहा घ्यालावधी रडित भतिवाजा होय छे. “ तहेव केइ " यो ४ प्रमाणे उटवाउ बोओ " अदिण्णादाण " भादिङ आदि द्वारा अर्पण न वामां आवे धन धान्याहिनी " गवेसमाणा शोध रतां “ कलाका અધા લોકો સાથે વ્યવહાર માટેના દિવસ આદિ योग्य सभय अथवा मध्य रात्रि याहि अमले - अयोग्य समये " संचरता " આમ તેમ શ્મશાન, શૂન્યગૃહ-ખાલીઘર-આદિમાં ભટકયા કરે છે. તે શ્મશાન આદિ देवां होय छे, तेनुं वर्जुन रे छे - "चितगपज्ज लिय" सणगती चिताओ मां "सरस" " For Private And Personal Use Only Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ. ३ सू० ११ तस्करकार्यनिरूपणम् तेषु-प्रदीप्तेषु यानि सरसानि रुधिरमांसादिसहितानि अतएव दग्धानि ईषद्भस्मीभूतानि तानि कृष्टानि-श्वशृगालादिभिश्चितातो निष्काशितानि कलेवराणि= मृतकशरीराणि यत्र तत्तथा तत्र श्मशाते । पुनः कीदशे-' रुहिरलित्तवयणअक्खयखादियपीयडाइणिभमंतभयंकरे ' रुधिरलिप्तवदनाऽजतखादितपीतडाकिनी भ्रमद् भयङ्करे-तत्र रुधिरेण लिप्तानि वदनानि = मुखानि तथा अक्षतानि समग्राणि खादितानि मृतकानां शरीराणि तथा पीतानि रुधिराणि याभिस्तास्तथा भ्रमन्त्यश्च या डाकिन्यस्ताभिर्भयङ्करे, 'जंबुयखिक्खियते' जम्बुकानां 'खिखि' इति शब्दयुक्ते तथा 'घूयकयघोरसद्दे ' घूककृत घोरशब्दे-धूकैः-उलूकैः कृतः घोरः=भयङ्करः शब्दस्तेन युक्ते तथा 'वेयालुट्ठियविसुद्धकहकहेंतपहसियबीहणगनिरभिराभे 'वे. तालोत्थितविशुद्धकहकहायमानप्रहसितभीषणकनिरभिरामे = वेतालेभ्यः = विकृत पिशाचेभ्यः उत्थितं समुत्पन्नं विशुद्धम् अन्यशब्दाऽमिश्रितं यत् कहाहायमानं (सरस) रस-रुधिर आदिसे लिप्स मुर्दे (दरदड) पूरे नहीं जल सकने के कारण (कड़ियकलेवरे) कुत्ते एवं श्रृगाल आदि द्वारा चिताओंसे बाहिर निकाल लिये जाते हैं (रुहिर लित्तवयण ) जिनके मुख रुधिर से लिप्त हो रहे हैं, तथा (अक्खयखादियपीय) जिन्होंने समग्ररूपसे मृतक कलेवरोंको खाया है और उनकाखून पी लिया है ऐसी (डाइणीभमंतभयंकरे) घूमती हुई डाकिनियोंसे जो भयंकर बने हुए हैं (जंबुयखिक्खियंते) तथा जो गीदडों के 'खि-खि ' शब्दोंसे युक्त हो रहे हैं (घूयकयघोरसद्दे) उल्लू जहां घोर शब्द कर रहे हैं, तथा जहां (वेयालुट्ठिय) वेताल विकृत बनकर जोर से कह कहाय मार कर हँसा करते हैं । (विसुद्धकह कहेंत पहसिय) उनका यह हँसना जहाँ अन्य और शब्दों से मिश्रित नहीं हो रहा है-केवल " कह कह " ऐसी ही ध्वनि जहां उनके मुख से निकल रही है, इस२स-रुधिर भाटिया ५२॥येai भु४i, " दरदड्ढ ” २! vil 3 न पाथी "कड्ढियकलेवरे" तसं. शियाण मा यितामामाथी २७।२ मेथी दाय छ. " रुहिरलित्तवयण अक्खयखादियपीयडाइणीभमंतभयंकरे " " रहिरलित्तवयण" જેમનાં મુખ લેહીથી ખરકાયેલાં છે તથા જેમણે સંપૂર્ણ રીતે મૃતશરીર નું मक्ष यु छ भने तमनु सोही पाधु छ मेवी " डाइणीभमंतभयंकरे" त्यां समती थी २ सय ४२ सात, “ जबुयखिक्खिय ते " तथा २ शियागान! "भि-मि" शोथी युत छ, “घूयकयघोरसदे" धु43 rii लय ४२ Aण्। ४३ छ, तथा न्यi " वेथालुट्टिय" वेतात मनी र शारथी म. पाट &सी २ छ, “ विसुद्धकहकहेंत पहसिय " तेभनु ते २५ न्यi elan કોઈ શબ્દ સાથે મિશ્રિત થતું નથી-કેવળ “કહ કહ એ ધ્વનિજ તેમનાં For Private And Personal Use Only Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे शब्दायमानं हसितं हसनं तेन भीषणकं भयानकमतएव निरभिरामम् असुन्दरं यत्तत्तथा तत्र, तथा — अइदुन्भिगंधे' अतिदुरभिगन्धे-शटितमृतककलेवरदुर्गन्ध युक्ते, 'बीभच्छदरिसणिज्जे ' बीभत्सदर्शनीये वीभत्सं-अस्थिमृतककलेवरादियुक्तलाज्जुगुप्सोत्पादक दर्शनीय-दर्शनं यस्य तत् तस्मिन् ' मुसाणे' श्मशाने 'वणे' वने-अरण्ये च तथा 'सुण्णघरलेणअंतरावणगिरिकंदरेसु' शून्यगृहलय नाऽन्तराऽऽपणगिरिकन्दरेषु शून्यानि गृहाणि अन्तरापणा: अन्तरा=ग्रामादीनामर्द्धपथे विश्रामार्थ निर्मिता आपणा: गृहा: ग्रामाद्वाह्याः गिरिकन्दराणि च% गिरिगह्वराणि, तेषु, तथा-'विसमसावयसमाउलामु' विषमैः श्वापदैः हिस्रपाणिभिः समाकुलाः व्याप्ताः तास्वेवं विधासु 'वसहिसु' वसतिषु-वासस्थानेषु 'किलिस्संता' क्लिश्यन्ता दुःखानि माप्नुवन्तः, 'सीयायवसोसियसरीरा' शीतातपशोषितशरीराः = शीतैरातपैश्च शोषितानि शरीराणि येषां ते तथा 'ददृच्छवी' लिये इस विशुद्ध कह कह ध्वनि संयुक्त पिशाचों के हास्यसे जो (बीहणग ) भयप्रद और (निरभिरामे ) असुन्दर बने हुए हैं (अहदुन्भिगंधे) अतिदुरभिगंध-सड़े हुए मृतकों के कलेवरों की दुर्गन्ध से जो युक्त हो रहा है (बीभच्छदरिमणिज्जे ) तथा जो हाड़ मृतक कलेवर आदि से युक्त होने के कारण घृणोत्पादक दिखलाई पड़ते हैं ऐसे (सुसाणे) उन श्मशानों में (सुण्णघर ) शून्य गृहों में, (लेण ) लयनों में-पर्वतो के निकटवर्ती पाषाणगृहों में, (अंतरावण ) ग्राम आदिकों के आधे मार्ग में विश्राम निमित्त बने हुए घरों में, (गिरिकंदरेसु) पर्वत की गुफाओं में, तथा (विसमसावयसमाउलासु ) हिंसक प्राणियों से युक्त ( वसहिस्सु ) वसतियों में-वासस्थानों में, (किलिस्संता) नाना प्रकार के दुःखों को सहन किया करते हैं । तथा ( सीया य वसोसियसरीरा) शीत और आतप से इनके शरीर शोषित-सूके हुए रहते हैं। (दडમુખમાંથી નીકળતું હોય છે, તેથી પિશાનાં તે વિશુદ્ધ કહેકહ વનિ યુક્ત खास्यथी ने “बीहणग" लय'४२ भने " निरभिरामे" असु४२ मनेर छे, " अइदुन्भिगधे " सदां भृत देवरानी अतिशय दुर्गन्धथी रे युत छ, " वीभच्छदरिसणिज्जे" तथा रे 313i, भुत माहिया युक्त पाने ॥२० धुलानन माय छ, मेवi "सुसाणे" श्यशानामा, “वणे " पनामा, "सुण्णघर" शून्यधरोमां, “लेण" स्यामा पानी सभीपनi पाषाणामा " गिरिकंदरेसु" पतनी शुमामा, तथा " विसमसावयसमाउलासु " डिस प्राणी माथी यु। “ वसहिसु" निवास स्थानामi, "किलिस्संता” विविध मान सहन ४२ छ. तथा " सीया य वसोसियसरीरा" शीत भने ताथी तमनां शरी२ सू २ छ. “दड्ढच्छवी " तमना शरीरनी For Private And Personal Use Only Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सुदर्शिनी टीका अ० ३ सू० ११ तस्करकार्य निरूपणम् ३१३ , " दग्घच्छवयः =नष्टकान्तयः निरयतिरियभवसंकड दुक्ख संभारवेदणिज्जाणि पावकम्माणि संचिणता ' नरकतिर्यग् भवसङ्कटदुःखसम्भारवेदनीयानि पापकर्माणि संचिन्वन्तः=तत्र नरकविर्यग्भवेषु सङ्कटानि = विषमाणि दुःखानि=परमाधार्मिककृत छेदन भेदनादिरूपाणि तेषां यः संभार: बहुलता तेन वेदनीयानि = अनुभवनीयानि ' पावकस्माणि पापकर्माणि परद्रव्यापहरणादीनि सञ्चिन्वन्तः समुपार्जयन्तः ' दुल्लभभक्खणपाणभोयणा' दुर्लभ भक्षणपानभोजनाः - दुर्लभं - दुष्प्राप्यं भक्षणं=अन्नादिकं पानं दुग्धजलादिकं च भोजनं=कल्यावर्त प्रातरशनादिकं 'नाशता' 'कले वा' इति प्रसिद्धं येषां ते तथा अतएव 'पिवासिया' पिपासिताः : तृषिता: 'झुंशिया' बुभुक्षिताः 'किलंता ' क्लान्ता: =ग्लानियुक्ताः 'मंसकुणिमकंदमूलजं किचिकयाहारा' मांसकुणकन्दमूलयत्किञ्चित् कृताहाराः = तत्र मास = प्रसिद्धं कुणपः = मृतदेहः कन्दमूलानि तेषां यत् किञ्चित - यथावसरं यत्किश्चिharat) शरीर की कांति इनकी नष्ट हो जाती है। (निरयतिरियभवसंकदुक्ख सं भारवेयणिज्जाणि) नरक तिर्यञ्च भवों में परमधार्मिक कृत छेदन भेदन आदिरूप विषम दुःखो के संभार से वेदनीय ऐसे परद्रव्यापहरण आदिरूप (पावकम्माणि) पापकर्मो को ( संचिणंता ) उपाजित करते हुए ( दुल्लभभक्खणपाणभोयणा) ये जीव दुर्लभ अन्नादि सामग्री वाले, दुर्लभदुग्ध जलादि वाले, तथा दुर्लभ भोजनादिरूप कलेवावाले होते हैं । (पिवासिया ) इन्हें पानी तक पीने को नहीं मिलता " प्र० ४० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( झुंशिया) सदा ये बुभुक्षित- भूखे रहा करते हैं । (किलंता) क्लान्तहरएक कोई इनसे refa किया करता है । (मंसकुणिम, कंदमूल जं किंचि कयाहारा) असमय में अथवा यथा अवसर जो कुछ इन्हें खाने को मिल जाता है चाहे वह मांस हो, चाहे कुणप मृतक देह-मुर्दा हो, કાન્તિ નાશ પામે છે. " निरयतिरियभवसंकडदुक्खसंभारवेयणिज्जाणि " નરકતિયંચ આદિ ભવામાં પરમાધામિઁક દેવેદ્વારા કરાતા છેદન ભેદન આદિ રૂપ વિષમ દુઃખેના સમૂહથી વેદનીય ( સહન કરવાં પડતાં ) એવાં પરધન माहिय पानुं “ संचिणंता " पार्थन तेथे। मुरे छे. " दुल्लभभ. पाणभोणा " તે જીવાને અન્નાદિ સામગ્રી ઘણી મુશ્કેલીએ પ્રાપ્ત થાય છે, પાણી દૂધ આદિ પીણાં પણ તેમને માટે દુલભ હાય છે, અને નાસ્તા लोभनाहि यशु तेभना भाये दुर्बल होय छे. “पिवासिया" तेमने थीवा भाटे थाएगी पशु भक्तु नथी. “ झुंझिया " तेथे सहा भूम्या रहे छे, “ किलंता " ४यान्त-हरे व्यक्ति ते खानी पभाड्या उरे छे. “ मंसकुणिमकंदमूल जंकिंचि कयाहारा" आणे अथवा सगणे तेमने कुछ भावा भजे छे-पछी ते માંસ હાય, કુણુપમૃતશરીર હાય, કંદમૂળ હાય- તે તેઓ ખાય છે. તે ચીજો " For Private And Personal Use Only Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे त्माप्तं तदपि स्वल्पमात्रं कृत आहारो यस्तै तथा 'उविग्गा 'उद्विग्नाः उद्वेगयुक्ता अशान्तचित्ता इत्यर्थः, ' उप्पुया' उत्प्लुताः चापलाः ‘असरणा' अशरणाः= त्राणरहिताः गृहवनिता वा 'अडवीवासं ' अटवीवास-अरण्यवासं 'बालसयसंकणीयं ' व्यालशतशङ्कनीयं = व्यालानां सर्पादिदुष्टश्वापदानां शतैः शङ्कनीयं भुजङ्गादिभिर्भयङ्करम् ' उर्वति ' उपयन्ति प्राप्नुवन्ति ॥ मू० ११॥ पुनस्ते कीदृशा भवन्ति ? इत्याह-'अयसकरा' इत्यादि मूलम्-अयसकरातकरा भयंकरा कस्सहरामोत्ति अजव्वं इति समामंतणं करेंति गुझं, बहुयस्स जणस्त कज्जकरणेसु विग्धकरामत्तप्पमत्तपसुत्तवीसत्थछिद्दघाती वसणभुदएसु हरणबुद्धी विगठवरुहिरमहिया परेंति नरवईमज्जायमतिकता सज्जणजणदुगंछिया सकम्मेहिं पावकम्मकारी असुभपरिणया य दुक्खभागी निच्चाउलदुहमनिव्वुइमणा इहलोगे चेव किलिस्संता परदव्वहरा नरा वसणसयमावण्णा ॥सू०१२॥ चाहे कंदमूल आदि हो सो भी वह भापेट नहीं मिलता स्वल्पमात्रा में ही मिलता है, उसे ये खालिया करते हैं, ( उबिग्गा ) इनका चित्त सदा अशान्त रहता हैं । ( उप्पुया ) ये बड़े भारी चपल होते हैं। (असरणा ) इनका एक जगह स्थिर वास नहीं होता इसलिये ये त्राण रहित होकर इधर से उधर भागते रहते हैं और ( अडवीवासं ) जंगल में ही बसेरा करते हैं । ( वालसयसंकणीयं ) सर्पादि सैकड़ों दुष्ट जानवरों के भय से शंका शील ऐसे स्थानों को ये ( उति ) प्राप्त करते हैं ॥०११॥ ५ तेमणे घराने मा0 माती नथी, 231 प्रभामा १ भणे छ. " उविग्गा" तमनु थित्त सहा मशान्त २ छे. “ उप्पुया" तो घ१ २५ डाय थे. " असरणा" तेभर्नु २५ अयम से या खातुं नथी, तथा तया मशरनी भ भामतेम भभ्या ४२ छ. " अडवीवासं " Twi " वालसयसंकणीय" साह से भय ४२ वोना भयथी व्या स्थानीय "उति" तसा पास 3रे छे ॥ सू० ११ ॥ For Private And Personal Use Only Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिमी टीका अ०३ सू० १२ तस्करस्वरूपनिरूपणम् टीका-'अयसकरा' अयशस्करा! अकीर्तिमन्तः भयङ्कराः ' तकरा' तस्कराः अदत्तग्राहिणः चौरा इत्यर्थः, 'अज्ज' अध=अस्मिन् दिवसे 'कस्स' कस्य धनिनः इति एवं विधं यन्मनसि चिन्तितं तत् ‘दव् ' द्रव्यं धनं हरामः= चोरयाम इति एवं प्रकारं 'गुज्झं ' गुह्य-गुप्तं ' समामंतणं' समामन्त्रण विचारणां 'करेंति' कुर्वन्ति । तथा ' बहुयस्सजणस्स' बहुकस्य जनस्थ ‘कज्झकरणेसु' कार्यकारणेसु-कर्मानुष्ठानेषु 'विग्घकरा' विघ्नकरा: विघ्नोत्पादकाः ‘मत्तप्पमत्तपसुत्तवीसत्यछिदघाई' मत्तममत्तप्रसुप्तविश्वस्तछिद्रघातिनः-तत्र मद्यपानादिना. मत्तान् प्रमत्तान् प्रकर्षण मत्तान् प्रसुप्तान विश्वस्तांश्च छिद्रेण-छिद्रं प्राप्य घ्नन्ति फिर वे कैसे होते हैं सो कहते हैं-' अयसकरा' इत्यादि। टीकार्थ-( अयस करा ) इनकी दुनिया में अकीति फैल जाती है ये सब जगह बुराई से विख्यात हो जाते हैं, ( भयंकरा) इनके नाम श्रवण से भी लोगों के हृदयों में भय का संचार हो जाता है। इस तरह के ये (तकरा ) अदत्तग्राही-चोर (अज्ज कस्स दव्वं हरामो त्ति) "आज किस धनी का मन धारा द्रव्य हरण करना चाहिये" इस प्रकार की (गुज्झं ) गुप्त ( समामंतणं ) विचारणा ( करेंति ) किया करते हैं। तथा ( बहुयस्स जणस्स ) अनेक मनुष्यों के (कज्जकरणेसु) कार्यों में ये (विग्धकरा ) विघ्नोत्पादक हुआ करते हैं । ( मत्त-प्पमत्त. पसुत्त वीसत्यछिद्दघाई ) (मत्सप्पमत्त ) मद्यपानादिक से मत्त तथा प्रमत्त बने हुए व्यक्तियों को ( पसुत्त) सोये हुए मनुष्यों को, एवं ( वीसत्य ) अपने ऊपर विश्वास करने वाले प्राणियों को ये (छिद्दघाई ) तेसा ठेवा खाय ते नु वधु वर्णन. ४२ छ-" अयसकरा" ईत्यादि. Ni-'अयसकरा" भी नियामा तेमनी २५५४ीति इसाय छे. तो दुष्कृत्याथी ४२४ स्थणे. ५४य छ, "भय करा" तभनु नाम समान ५५ सोना Gिawi मय पे थाय छे. मे ते “ तकरा” या “ अज्जकस्स दव्वं हरामो त्ति" " साने या पनि नुं धन रीसेस " मे मी. २नी “गुज्झं" शुभ " समामंतणं " विया२॥ " करेंति" छे. तथा "बहुयस्स जणस्स" अने माणसाना "कज्जकरणेसु" मा ते। विग्धकरा" विना या ४२ छे. “मत्त-प्पमत्त-पसुत्तवीमत्थछिद्दघाई " " मत्तपमत्त" ॥३ माहिपान भत्त तथा प्रमत्त मनेसा सामने “ पसुत्त" autu सोने, भने “वोसस्थ " पोताना ५२ विश्वास भूना२ सीने तो “ छिद्दधाई" For Private And Personal Use Only Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे एवं शीलाः 'वसणभुदएसु' व्यसनाभ्युदयेषु हरणबुद्धयः व्यसनेषु रोगाधवस्थायां राजादिकृतोपद्रवेषु च अभ्युदयेषु-विवाहादिमहोत्सवेषु 'हरणबुद्धी' हरणबुद्धयः 'विगन' का इ=' भेडिया' इति प्रसिद्धा नखधारिणः श्वापद जन्तु विशेषा इव 'रुहिरमहिया' रुधिरमहिताः रुधिरस्य-रुधिरपानस्य महःउत्सवः रुधिरमहः, स जातो येषां ते तथा-रुधिरचूपणे तत्पराः, 'परेंति' परियन्ति-पर्यटन्ति सर्वत्र भ्रमन्ति । कथं भूतास्ते इत्याह-' नरवइमज्जा-य मइक्कंता' नरपति मर्यादामतिक्रान्ता-राजाज्ञाबहिर्वर्तिनः 'सज्जणजणदुगुंछिया' सज्जनजनजुगुप्सिताः सत्पुरुषैर्निन्दिताः 'सकम्मेहिं ' स्वकर्मभिः अदत्तादानरूपैः पावकम्मकारी ' पापकर्मकारिणः चौर्यादिपापकर्मकारकाः ‘असुभपरि णयाय ' अशुभपरिणताच शुभपरिणामवर्जिताः ‘दुक्खभागी' दुःखभागिनःछिद्र प्राप्तकर बात की बात में मार डालते है ( वसणभुदएसु) रोगादिक अवस्थारूप तथा राजादिकृत उपद्रवकृत व्यसन के समय पर, अथवा विवाह आदि रूप महोत्सव के अवसर पर भी ये (हरणबुद्धी) अपना कार्य कर दिया करते हैं । (विगव्य ) भेडिया की रुधिर चूषने में तत्परता रहती है ईसी प्रकार ये चोर जन भी ( रुहिर महिया ) पर के खून चूसने में तत्पर रहते हुए ( परेंति ) सर्वत्र घूमते हैं। ( नरवइमइता) राजा को आज्ञा का सदा ये उल्लंघन किया करते हैं। (सज्ज. णजणेदुगुंछिया ) सज्जन पुरुषों की निंदा करने में इन्हें आनंद मिलता है, अथवा इनके इस कर्म की सज्जन पुरुष निंदा करते हैं। ( सकम्मेहिं ) अदत्तादानरूप अपने कर्मों से ये (पावकम्मकारी) पापकर्मकारी पापकर्म करने वाले वे चोर (असुभपरिणयाय) अशुभ आत्मा परिणति धन २९२५ et advani भारी नामे छ. “ वसणभुदएसु" शादि અવસ્થામાં, તથા રાજાધિકૃત ઉપદ્રવ રૂપ સંકટને સમયે, અથવા વિવાહ આદિ भाडासपने प्रसो ५५ ते " हरणबुद्धी " पोतार्नु ५२५- २नु इत्य र्या ४३ छ. “विगम" वरुनी भ-मेटो म १२ साडी यूसवाने त५२ हाय छ तम या२ ५५ " रुहिरमहियो" अन्यनु डी यूसवाने त५२ २६२ " परे ति" सर्वत्र प्रभाए ४२ छ. " नखइमज्झाय मइकंता" नी भाशानु सह. Seeन छ; “ सज्जणजणे दुगुंछिया” सानी नि ४२वामा तभने भ० मावे छे, मया ते दुष्कृत्यानी Arrit निहा रे छ. “ सक्कमेहिं" महत्ताहान-यो३॥ ३५ पोतानां थी ते " पावकम्मकारी" पापकृत्यो ४२॥२॥ या “ असुभपरिणयाय " मशुम यात्मपरिणति-qथी युत मने छे. For Private And Personal Use Only Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ०३ सू० १२ अइत्तादानफलनिरूपणम् नरकनिगोदादिदुःखभागिनः, 'निच्चाउलदुहमनिव्वुइमणा' नित्याकुलदुःखाऽनिवृतिकमनसः नित्यमाकुलं व्याकुलितं दुःखयुक्तम् , अनितिक स्वास्थ्यरहितं मनो येषां ते तथा निरन्तरसंतापसंकुलाः, इहलोके चैव, चात् परलोकेऽपि 'किलिस्संता' क्लिश्यन्तः-क्लेशमनुभवन्तः 'परदव्बहरा' परद्रव्यहराः परधनापहरणशीलाः नरा: मनुष्याः ‘वसणसयं ' व्यसनशतं-दुःखप्रचुरम् 'आवण्णा' आपन्नाःयाप्ताः परियन्तीत्यनेन सम्बन्धः ॥ सू० १२ ॥ एवं ' यथाकृत' इत्यन्तरिमुक्तम् , अथ ' यथाफलंदेह ' इति अदत्तादान फलपतिपादकं चतुर्थद्वारं प्राह- तहेव केइ इत्यादि मूलम्-तहेव केइ परस्सव्वं गवेसमाणा गहिया य हया य बद्धा रुद्धा य तुरियं अइधाडिया पुरवरं समप्पिया चोरग्गाह चारभडचाडुकराण, तेहि य कप्पडप्पहारनिदयाऽऽरक्खिय खरफरुसवयणतज्जणगलत्थल्ल उत्थलणाहि विमणाचारगवसहिं पवेसिया निरयवसहिसरिसं तत्थ वि से युक्त होते हैं । ( दुक्खभागी ) शुभपरिणामों से रहित होने के कारण ये परभव में नरक निगोद आदि के दुःखों को भोगा करते हैं। (णिच्चाउलदुहमणिव्वुइमणा ) इनका मन सदा व्याकुल बना रहता है, इसी से ये निरन्तर मानसिक स्वास्थ्य से रहित होकर संताप से संकुल होते रहते हैं । इस तरह (इहलोगे चेव) इस लोक में तथा 'च' शब्द से परलोक में भी (किलिस्संता) क्लेशों का अनुभव करते हुए ये (पर दव्वहरा) पर द्रव्यापहारी चोर (वसणसयं) अनेक दुःखों को (आवण्णा) प्राप्त होकर (परेंति ) भ्रमण करते हैं अर्थात् अपने समय को दुर्गतियों के भ्रमण करने में ही व्यतीत करते रहते हैं ॥ १२॥ " दुक्खभागी" शुभ परिणामा-मायोथी २ति पाने २ ते ५२सभा न२४ निगोह महिनामा मागच्या छे. "णिच्चाउलदुहमणि व्वुइमणा" तभनु મન સદા વ્યાકુળ રહે છે, તેથી તેઓ નિરંતર માનસિક સ્વાધ્યથી રહિત सनीने सता५थी युत २७ छ. 2 रीते " इहलोगेचेव" मा सोभा तथा 'च' २४थी ५२मा ५५ " किलिस्संता" माने अनुभवता ते “परदव्यहरा' ५२धन २२ ४२न।२। थोर सो " वसणसय ” भने । “आवण्णा" मनुलवता " परे ति” भ्रम ४२ छ, मेटले दुमतीयोमा म કરવામાં જ પિતાને કાળ વ્યતીત કરે છે. સૂ-૧૨ા For Private And Personal Use Only Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३९८ प्रश्नव्याकरणसूत्रे गोम्मिक पहारदुम्मणा निब्भच्छणकडुयवयणभेसणागभया. भिभूया अक्खित्तणिवसणामलिगडंडिखंडवसणा उक्कोडालंचनपासुम्मग्गणपरायणेहिं गोम्नियभडेहिं विविहेहिं बंधणेहिं किते-हडिनियडबालरज्जयकुंडंडगवरत्तलोहसंकलं हत्थंदु य वज्झपट्टदामकणिकोडणेहिं अण्णेहि य एवमाइएहिं गो. म्मियभंडोवगरणेहिं दुक्खसमुदीरणेहिं संकोडणमोडणेहिं बझंति मंदपुण्णा ॥ सू० १३ ॥ __टीका-'तहेव' तथैव-पूर्वोक्तप्रकारेण 'केइ ' केचित् ‘परस्स' परस्य 'दब्वं ' द्रव्यं चोरयितुं 'गवेसमाणा' गवेषयन्तः अन्वेषणं कुर्वन्तः ‘गहिया' गृहीताः राजपुरुपैनिगृहीता हताश्च ताडिताः दण्डादिभिस्ततोवद्धाः = रज्ज्यादिभिर्वन्धन प्रापिताः तथा-रुद्धाःकारागारादौ निरुद्धाश्च 'तुरिय' त्वरितं शीघ्रम् 'अधाडिया' अतिधाटिताः राजपुरुपे मिताः कुत्र ? इत्याह-पुरवरं सकल नगरम् । नागरिकजनान् प्रतिदर्शिता इत्यर्थः पुनश्च ‘समप्पिया' समर्पिताः= अब सूत्रकार " जहा फलं देइ" इस चतुर्थ द्वार का प्रतिपादन करते हैं-'तहेवकेइ' इत्यादि। ___टोकार्थ-(तहेव ) इसी पूर्वोक्त प्रकार से (केइ) कितनेक व्यक्ति ( परस्स दव्वं गवेसमाणा) पर के द्रव्य को चुराने की खोज में रहते हुए (गाहिया य) राजपुरुषों द्वारा निगृहीत होकर (हयाय) दण्डादिको द्वारा ताडित किये जाते हैं (बद्धा) रज्ज्वादिकों द्वारा बांध दिये जाते हैं (रुद्धाय) कारागार आदि में बंद कर दिये जाते हैं । (तुरियं अइधाडिया पुरवरं) और नगर निवासियों के समक्ष नगरभर में घुमाये जाते हैं। वे सूत्र४४२ “ जहा फलं देइ” मे याथा हारतुं प्रतिपादन ४२ छ" तहेव केइ " त्यादि ___Nथ-"तहेव” पूर्वात रे “केई” 213 सो "परस्स दव गवेसमाणा" पा२४i द्रव्यने या२पानी शोधमा २९ छे. " गोहियाय" तेन्मे। २४ पुरुषी वा२। ५४15 न" हयाय " ६ वगेरे द्वारा भराय छे. “ बद्धा " हhi माहिमपाय छ, “रुद्धाय” भने समान महिमा ४२राय छे, “तुरिय अइघाडिया पुरवरं " भने शारीमानी समक्ष मा शरमा For Private And Personal Use Only Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० ३ सू० १३ अदत्तादानफलनिरूपणम् ३१९ , उपस्थापिताः, केभ्यः १ इत्याह- ' चौरग्गह चारभडचाडुकराण ' चौरग्राहचारभटचाटुकरेभ्यः = तत्र चौरप्राहिणः चारभटाः = गुप्तचराः, चाटुकरणा: = मुखमियामृदुभाषणेन चौर ग्राहका इत्यर्थः, तेभ्यः ' तेहिय ' तेथ चोरग्राहादि पुरुषै: 'कप्पउपहारनिया रक्खियखरफरुसवयणतज्जणगलत उत्थलणाहि कर्पटमदार निर्दयाऽऽरक्षिकस्वरपरुषवचन तर्जन गलत्थल्लउत्थलणाभिः = तत्र कर्पटैः = यष्ट्रयाकारवलितवस्त्रैः 'कोडा' इति भाषा प्रसिद्धैः प्रहारा : =ताडनानि तथा निर्दया ये आरक्षिकाः = कोट्टपालपालास्तेषां खरपुरुषैः अति निष्ठुरैर्वचनैस्तर्जनानि - गलल्थल्लोत्थलनाश्च = गलत्थल्लाः = गलहस्तदानानि उत्थलनाः = परिवर्तनाचेत्येताभिः 'चिमणा ' विमनसः = खिन्नचित्ताः सन्तः ' निरयनसहिसरिसं नरकवस तिसदृशां = नरकवासतुल्यां ' चारगवसहि ' चारकवसतिं = कारागृह ' पवेसिया' प्रवेशिताः । (समप्पिया चोरगाहचारभडचाडुकराण ) बाद में वे राजपुरुष उन चोरों को चोरग्राही - चोरों को पकड़ने वाले गुप्तचरों के (कि जो मधुर बोलकर चोरोंको पकड़ने में सिद्धहस्त होते हैं उनके) आधीन कर देते हैं ( तेहि य) बे चोरग्राही चारभट आदि उन चोरों को पहिले तो ( कप्पडष्पहार ) कोड़ों की मार मारते हैं, तथा ( निद्दयारक्खिय) निर्दय होकर कोटपाल उन्हें (खर परुषवयणतज्जिय) अतिनिष्ठुर अत्यन्त कटु वचनों से तज्जित करते हैं, तथा (गलस्थल उत्थलणाहि य ) गला पकड़कर दबोच देते हैं। (विमणा ) इस तरह की क्रियाओं से अपमान जनक व्यवहारों सेचोरों को ये बहुत अधिक विनचित कर डालते हैं। जब ये बहुत बुरी तरह खिन्नचित्त हो जाते हैं तो बाद में वे उन्हें (निरयवसहि सरिसं ) नरकावास तुल्य (चारगवसहि) कारागृह में (पवेसिया) बंद कर देते हैं। त्यार यह ते शन्पुरुष! २वाय छे. “ समपिया चोरगाहचारमडचाडुकराण" તે ચારેાને ચારગ્રાહી-ચારને પકડનારા ગુપ્તચરાને સોંપી દે છે. તે ગુપ્તચરા तेहि य મીઠાં વચના મેલીને ચારાને પકડવામાં નિપુણ હાય છે. “ थोरथाही - गुप्तचर याहि पडेलां तो ते योशेने " कप्पडप्पहार" अरामो वडे इटअरे छे, तथा " निद्दयारक्खिय " निर्दय थाने भेटवास तेभने “खरपरुसवयणतज्जिय” अतिशय निष्ठुर तथा अतिशय उडवां वयना समजावे छे, 'गलत्थ उत्थलणाहिय " गणु पड्डीने हणावे छे, " विमणा આ પ્રકારની અપમાનજનક ક્રિયાઓ તથા વર્તનથી તેએ તે ચારના ચિત્તમાં અત્યંત ખિન્નતા ઉત્પન્ન કરે છે. જ્યારે તે અત્યંત ખિન્ન થાય છે ત્યારે તેમને તે बोओ। 'निरयवसहि सरीर " नरागार सभान " चारगवसहिं " अशगृहमां " 6( For Private And Personal Use Only " તે Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३२० प्रश्नव्याकरणसूत्रे 'तत्थ वि' तत्रापि 'गोम्मिकपहारदूमणनिभच्छणकडयवयणभेसणगभयाभिभूया' गौल्मिकप्रहारदवननिर्भत्सनकटुकवचन भीपणकभयाभिभूताः तत्र गौल्मिकानां कोटपालानां ये महाराः कशायाघाताः दवनानि-सूर्यतापादौ उपतापनानि निर्भर्त्सनानि = जातिकुलादिनामोच्चारणपूर्वकगालिदानानि कटुकवचनानि च 'रे नीच ! रे दुष्ट !' इत्यादि रूपाणि भीषणकानि भयजनकानि ‘जीवनपर्यन्तं कारागृह एव म्रियस्व ' इत्येवमादिरूपाणि तेषां भयेन अभिभूता ये ते तथा 'अक्वित्तणिवसणा' आक्षिप्तनिवसनाः = कर्षणघर्षणादिमिराकृष्टपरिधानवस्त्रा नग्नीकृता इत्यर्थः, 'मलिगडंडिखंडवसणा' मलिनदण्डिखण्डवसनाः तत्र मलिनं 'डण्डि' सीवितं 'डण्डि' इति सोवितवस्त्रवाचको देशीशब्दः, खण्ड-काटितं च (तत्थ वि) वहां पर भी वे (गोम्मियप्पहार) कोटपालोंके कशा(कोडा)दिद्वारा प्रदत्त आघातों को, (दूमण ) वनों को-सूर्यताप आदि में खड़े करने रूप उपतापनों को, (निन्भच्छण) निर्भर्त्सनो को-जातिकुल आदि के नामोच्चारणपूर्वक गालीगलौज आदिको तथा ( कडुपवयग ) कटुक वचनों को जो कि " अरे नीच ! ओ दुष्ट ! जीवनपर्यन्त तू इस कारागार में ही सड २ कर मर” इत्यादिरूप से ( भेसणग) भयप्रदर्शक होते हैं-सहते रहते हैं ( भयाभिभूया ) उनके भय से अभिभूत होते हैं, तथा ( अक्खित्तणिवसणा) कर्षण घर्षण आदि के करने से इनका परिधान वस्त्र खुल जाता है, अर्थात्-ये नग्न हो जाते हैं-नंगे कर दिये जाते हैं । (मलिणडंडिखंडवसणा) ऐसी स्थिति में इन्हें जो वहां वस्त्र खंड पहिरे को मिलता है वह बिलकुल मलिन होता है। बीच.२ में सिला हुया रहता है । तथा कहीं २ फटा भी रहता है । यहा " डण्डि" शब्द " पवेसिवा” पूरी है छे. " तत्थ वि" त्या पण ते दो। “गोम्मियप्पहार" टपाल वा४२वामा सावता यामुना प्रहा। “दमण" इन-सूर्य ना तापमi GHI राजाने ४२वामा भावतुं ४७न, “ निब्भच्छण" निमसं नाजति १०१ महिना सेप सहित अपाती आणाने, तथा " कडुयवयण" ४२ क्यनाने, म " नीय ! दुष्ट ! तुं माभुवन 24 राडमा सडीने सडीने भर!" “भेसणग” सन ४ा ४२ छ, “ भयाभिभूया" ते २॥ अयथी लयभीत २ छ, तथा “ अक्खित्तणिवसणा" यामे यी ४२વાથી તથા ઘસડવાથી તેમનાં વસ્ત્રો ખસી જાય છે–તેઓ નગ્ન થઈ જાય છે. तेभने नन राय छे. “ मलिणडंडिखंडवसणा" सेवी डासतमा भने त्यो रे વચાખડે પહેરવાને મળ્યાં હોય છે. વચ્ચે વચ્ચે શિગડા વાળા હોય છે, તથા For Private And Personal Use Only Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३१ सुदर्शिनी टीका अ०३ सू०१३ अदत्तादानफलनिरूपणम् वसनं वस्त्रं येषां ते तथा मलिनस्फाटितसीवितवस्त्रखण्डधारिण इत्यर्थः, 'उक्कोडालं चनपासुम्मग्गणपरायणेहिं ' उत्कोटालञ्चनपाचोन्मार्गणपरायणैः उत्कोटालश्चने उस्कोटविशेषे ' लाँच-रिश्वत ' इति भाषापसिद्धभेदविशिष्टे पार्थान्मार्गणं च= चौरपावस्थितचोरितद्रव्यान्वेषणं, तेषु पारायणाः-तत्परा ये ते तथा तैः 'गोम्मिगभडेहिं ' गौल्मिकभटैः कोटपालैः 'विविहेहिं बंधणेहिं ' विविधैः बन्धनैः हेतु भूतैस्ते चौरपुरुषाः बध्यन्ते इति वक्ष्यमाणेन सम्बन्धः । किं ते' आर्षत्वात्तृतीयार्थे प्रथमा तेन किम्भूतैस्तैरित्यर्थः, तथा च किम्भूतैः = कथं भूतैस्तैबन्धनैरित्याह- 'हडिनियडबाल रज्जयकुडंडगवरत्तलोहसंकलइत्ययवझपदामाणिकोडणेहि ' हडिनिगडवालरज्जुककुदण्डकवलालोहशङ्खलहस्तान्दुकवर्धपट्टदामकनिकोटनैः तत्र ' हडि ' इति काष्ठनिर्मित निगडबन्धनानि 'खोडा' इति भाषाप्रसिद्धानि, निगडानि= लोहमयघेडी' इति पसिद्धानि बालरज्जुकाः गवादि - बीच में सिले हुए पुराने जीर्ण वस्त्र का वाचक है। ( उक्कोडालंचणपासुम्मगणपरायणेहि ) उत्कोट, लांच-रिश्वत-में तथा चोरों के पास में रहे हुए चुराये द्रव्यकी तपास करने में परायण ऐसे (गोम्मियभडेहि ) गौल्मिकभट-कोटपाल (विविहेहिं बंधणेहिं ) नाना प्रकार के बंधनों से उन चोरों को बांध देते हैं, (किंते ) वे बंधन किस प्रकार के होते सो कहते हैं-( हडिनियडयालरज्जयकुडंडगवरत्तलोह संकलहत्थंदुयबज्झपट्टदामकणिकोडणेहिं ) ( हडि) काष्ठ निर्मित बांधने का बंधन विशेष, जिसमें चोर के पैर डाल दिये जाते हैं-सो वह वहीं पर खड़ा रहता है इधर उधर चल फिर नहीं सकता। भाषामें इसे खोड़ा कहते हैं। (नियडि ) निगड-लोहे की बनी हुई बेडी, वालरज्जुक गाय आदि के वालों से बनी हुई रस्सी, कुदण्डक-जिसके अन्तभाग में काष्ठ लगे हुए ४ स्थगे सटे खाय छे. मी " डण्डि' १५४ १२ये १२ये सीवai पुरा खान सूर्य छे. “ उक्कोडालंचणपासुम्मग्गणप ायणेहिं" , લાંચ-રુશવત, તથા ચેરીની પાસે રહેલ ચેરાયેલ દ્રવ્યની તપાસ કરવામાં xवी मेवा “ गोम्मिय भडेहि " गोलिभ म2-31241 " विविहेहिं बंधणेहिं । विविध प्रजानां धनाथी ते यशने मधे छ. " किं ते ?" ते मधनी ध्या ४५! प्रा२॥ हाय छे, ते ४ छ-"हडिनियडबालरज्जयकुडंडगवरत्तलोहसंकलहत्थदुययज्झपट्टदामकणिकोडणेहिं “ हडि " -- नु मे સાધન, જેમાં ચારના પગ રાખવામાં આવે છે. તેમાં પગનું હલનચલન થઈ २४तुं नयी 'नियडि " निश सोढानी मनावी मेडी, “बालरज्जुक" आय माहिना वाभाथी मनाये २९, “ कुदण्डक " ने छेडे डाय मेवे। प्र० ४१ For Private And Personal Use Only Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे वालमय्योरज्जुकाः, कुदण्डकानि-काष्ठमयप्रान्तभागारज्जुषाशाः वस्त्राः चर्ममय्यो महारज्जवः लोहशृङ्खलाश्च = प्रसिद्धाः हस्तान्दुकाः हस्तनियन्त्रवन्धनविशेषाः 'हथकडी' इति भाषाप्रसिद्धाः वर्धपट्टाः चर्मपटिकाः दामकानि-पादवन्धनरज्जु विशेषाः निष्कोटनानि-बन्धनविशेषा एव तैः · अण्णेहिं य' अन्यैश्वानुक्तैः 'एवमाइएहिं ' एवमादिक उक्तरकारैः ‘गोम्मियभंडोरगरणेहिं ' गौल्मिकभाण्डोपकरणः कोहपालानां चोरबन्धकोपकरणैः, दुक्खसमुदीरणेहिं ' दुःखसमुदीरणः = दुःखदायकैः ‘संकोडणमोडणेहिं संकोटनमोटनैः संकोचनानि हस्तपादादीनां मोटनानि गलादीनि तैः ‘मंदपुणा' मन्दपुण्याः पापिनोऽदत्तग्राहिणः ' बझंति ' बध्यन्ते बन्धनं प्राप्नुनिन ॥ मू० १३ ॥ पुनस्ते किं फलं प्राप्नुवन्ति ? इत्याह ---- संपुड' इत्यादि__ मूलम्-संपुडकवाडलोहपंजर-भूमिघर-निरोहकुवचारगकीलगजूवचक्क-विततबंधणखभालण-उद्धचलण बंधण विहंमणाहि य विहेडियंता अहकोडगगाढ उरसिरबद्धउद्धपूरियहों ऐसी दोरीकी फांसी, वरत्रा-चमड़े से बनाई गई रस्सी, (लोहसंकल) लोहकी सांकल, (हत्थंदुय) हस्तान्दुक-हथनकडी, (वज्झपट्ट दामकणिकोडणेहिं )वर्धपट्ट-चमड़ेकी पट्टिकाएँ और दामनक-पैरों को बांधने के बंधन विशेष हैं, निष्कोटन-बंधनविशेष हैं; इन बंधनों से ( अण्णेहिं एवमाइहिं) तथा इन बंधनोंसे अतिरिक्त जो और भी (गोम्मिय भंडोवगरणेहिं) उनकोतवालों के चोरों को बांधने के लिये उपकरण विशेष हैं कि जो (दुक्खसमुदीरणेहिं) बहुत ही अधिक दुःखप्रद होते हैं उनसे, एवं (संकोडणमो. हणेहिं )हस्त पैर आदि संकोचन से तथा गले वगैरह के मोटन से (मंदपुण्णा) वे अभागे चोर ( बझंति ) बंधनों को प्राप्त होते हैं ॥ सू-१३ ॥ होना इसी वरत्रा-यामानी होरी, “ लोहसंकल" सोढानी सison, " इत्थं दुय" ५४ी, " वज्झपट्टदामकणिकोडणेहिं " - यानी पट्टीमा भने દામનક-પગ બાંધવાનું ખાસ બંધન, નિષ્કટન-એક પ્રકારનું બંધન-આદિ मनाथी “ अण्णेहि एवमाइएहिं" तथा ते सिवायनi vी धनी है "गोम्मियभंडोवगरणेहिं " भने। थोशने मांधवाने माटे छोटा उपयोग ४२ छ भने रे "दुक्खसमुदीरणेहिं ' मधनी सत्यत पाय जय छ, मन नाथी “ संकोडणमोडणेहिं ” &ाय ५७ माहनु सायन तथा vi पोरेनुं भौटन ( भवानी ठिया) ते “ मंदपुण्णा " भनी या२। "वमंति" मनुमचे छ. ॥ सू-१३ ॥ For Private And Personal Use Only Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० ३ सू० १४ चौराः किं फलं प्राप्नुवन्तीतिनिरूपणम् ३२३ फुरंतउरकंडग-मोडणेहिं संबद्धाय नीससंता सीसावेढ अरुयालचप्पडगसंधिबंधण तत्तसलागसूइ आकोडणाणि तच्छण विमाणणाणि य खारकडुय तित्तनावणजायणकारण-सयाणि बयाणि पावियंता, उरघोडीदिण्णगाढपेल्लण-अधिकसंभग्गसपंसुलिया-गलकालक-लोहदंड-उर-उदर वस्थि-पिद्वि-परिपी लिया मत्थंतहियय-संचुणियंगुवंगा आणत्ति कि काहि केइअविराहिं य वेरिएहि जमपुरिससंनिभेहिं पहया ते तत्थ मंदपुण्णा चडवेलावद्ध पट्टपोराच्छिवा कसलत्तवरत्तवेत्तपहारसयतालियंगुवगा किवणालंबंतवम्मवणवेयणविमुहियमणाघणकोदृणनियलजुयल-संकोडियमोडिया य कीरंति निरुच्चारा असंचरणा एया अण्णाय एवमाईओ वेयणाओ पावा पावंति ॥ सू० १४॥ टीका-पूर्वोक्ताः मन्दपुण्याः 'संपुडकवाड-लोहपंजर-भूमिधरनिरोहकूवचारग कीलगवचक्कविततबंधणखंभालणउद्धचलगबंधणविहम्मणाहिय विहेडियंता' तत्र 'संपुडकवाड '-सम्पुटकपाट = पिहितकपाटं लोहपञ्जर तथा 'भूमिवर' भूमिगृहं भूमेरन्त हैं 'भोवरा' इति भाषा प्रसिद्धं च तत्र यो 'निरोह' निरोधः = प्रवेशनं, तथा 'कूच' कूपा अन्धकूपः, 'चारग' चारकाबन्दिगृहं 'कीलग' फिर वे क्या फल पाते हैं ? सो कहते हैं-'संपुडकवाड' इत्यादि। टीकार्थ-ये चोरजन (संपुडकवाड लोहपंजर-भूमिघरनिरोह-कूव-चारग कीलग-जूयचक्कविततबंधण-खंभालण-उद्धचलणबंधण-विहम्मणाहिय विहेडियंता)(संपुडकवाडलोहपंजर) बंद हैं कपाट-युगल जिन्हों के ऐसे लोह के पिंजरों में तथा ( भूमिघरनिरोह ) तलघरों में बंद कर दिये जाते हैं, (कूव ) अंधकूप में पटक दिये जाते हैं, ( चारगकीलग) बंदिगृह में wlagयु भणे छेते सूत्रा२ ४ छ–“संपुडकवाडलोहपंजर"त्या. टी -ते याराने " संपुडकवाडलोहपंजर" ५ माRejiquon सोढाना पin राभां, तथा “ भूमिघरनिरोह " सभा पूरी वामां आवे छे, “कूव" मधारीया पामा ५८४वामां आवे छ, “चारगकीलग" राउमा ४० For Private And Personal Use Only Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे कोलकाः 'खूटा' इति प्रसिद्धाः 'जूब' यूपाः स्तम्भविशेषाः 'चक्क' चक्राणि रथाङ्गानि 'पहिया' इति भाषा प्रसिद्धानि तेषु विततबन्धनं बाहुजङ्घादिविधाटनेन नियन्त्रण तथा ' खंभालण' स्तम्भालगनं-स्तम्भैः-सह रज्ज्वादिभिरावेष्टनं गले रज्जुं बद्ध्वा स्तम्भेषु समालम्बनं वा तथा 'उद्धचलणबंधण' ऊर्ध्वचरणबन्धनं च-पादयोरुपरिकृत्य बन्धनमित्यादिर्या 'विहम्मणाहिं ' विधर्षणा: पीडास्ताभिः 'विहेडियंता' विहेड्यमानाः पीड्यमानाः संकोटिता मोटिताः क्रियन्त इत्यग्रेण सम्बन्धः । तथा---' अह कोडगगाढउरसिरवद्धउद्धपूरियफुरंतउरकंडगमोडणेहिं ' अधः कोटकगाढोरः शिरोबद्धो पूरितस्फुरदुरःकाण्डकमोटनैः, तत्र--अधः कोटकेन अधो नमयनेन गाढम्=प्रत्यर्थमुरसि-वक्षःस्थले शिरः मस्तकं बद्धं येषां ते तथा अतएव ऊर्ध्वपूरिताः श्वासप्रश्वासैः पूरितशरीरो भागास्तथा स्फुरदुरः कण्डकाव-कम्पमानवक्षःस्थलपृष्ठास्थिका ये चौरास्तेषां यानि मोटनानि-पुनः पुनहथकडी आदि में बांध दिये जाते हैं, खूटों पर लटका दिये जाते हैं, (जूब) स्तंभविशेषों से जकड़ कर बांध दिये जाते हैं, (चक्क) पहियों से (वित. तवंधण ) हाथ पैर बाहर निकालकर रस्सियों से बहुत बुरी रतह से जकड़ दिये जाते हैं, (खंभालण ) बड़े २ खंभों के ऊपर गले में रज्जु आदि बांधकर लटका दिये जाते है । तथा (उद्धचलणवंधण ) पैरों में रस्सी आदि से बांधकर मुँह नीचा करके वृक्षादिकों में लटका दिये जाते हैं। (विहम्मणाहिंय ) इस प्रकार की-विविध प्रकार की पीडाओं से वे (विहेडियंता ) पीडित किये जाते हैं। तथा (अहकोडगाढ उरसिरबद्ध उदपूरियफुरंतउरकंडगमोडणेहिं ) ( अहकोडगगाढउरसिरबद्धपूरिय ) इनका मस्तक इतने अधिक रूप में नीचे झुकाया जाता है कि जिससे वह वक्षस्थल पर आकर चिपक जाता है, और इसी कारण श्वास उच्छ्वासों से इनका शरीर का उर्श्वभाग पूरित होता रहता है, (पुरंतउर आहि 43 Mini मावे छ, भूट ५२ स पामा भावे छ, “ जूव" स्थानी साथै वामां आपे छे, "चक" योथी १४वामां आवे छे. “विततबंधण" य ५॥ होरपडे ५२ रीते मांधवामा भाव छ. . खभालण" मोटा मोटा थांबताया 6५२ गणे होi माधान सट भावे , तथा “ उद्धचलणवंधण " पणे हो माधान वृक्षा: ५२ धे माथे सटवाम मा छ, “विहम्मणाहिय" । प्रा२नी विविध यातनायोथी तभने “विहोडियंता" पी.पामां आवे छे. du “ अहकोडगगाढउरसिरबद्धपूरिय” तेमनां भरत ने सयुधु नये નમાવવામાં આવે છે કે જેથી તે છાતી ઉપર ચૂંટી જાય છે, અને તે કારણે श्वासोच्छ्वासथी तेमन शरीरने माग पूरा २६ छ, “फुरतउरकंडग" For Private And Personal Use Only Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदशिनी टीका अ० ३ सू० १३ चौराः किं फलं प्राप्नुवन्तीतिनिरूपणम् ३२५ मर्दनपूर्वकमुर्वाधः करणादीनि तैविहेड्यमाना इति पूर्वेण सम्बन्धः । तथा 'संबद्धा' संबद्धाः रज्ज्वादिभिदृढंबद्धाः सन्तः 'नीससंता' निःश्वसन्तः निश्वासं विमुश्चतः 'सीसावेढउरुयालवप्पडगसंधिबंधणतत्तसलागमइआकोडणाणि' शीवेष्टनोरुदारबप्पडसंधिबन्धनतप्तशलाकामूच्याकुट्टनानि-शीर्षावेष्टनं आर्द्रचर्मादिभिः शिरोबन्धनमूरुदारा जङ्घाविदारणं चप्पडगसन्धिबन्धन=' चप्पडग' इतिकाष्ठयन्त्रविशेषस्तेषां काष्ठयन्त्रविशेषाणां सन्धिस्थानेषु जानुकूपरादिषु बन्धनं, तथा तप्तानां शलाकानां लोहकीलकानां मूचीनां च-अतीतानामाकुट्टनानि-शरीरे प्रवेशनानि यानि तान्येतानि, तथा-' तच्छणविमाणणाणि' नक्षणविमाननानि-यासिभिस्तकंडग ) इनके वक्षस्थल की तथा पृष्ठभाग हड्डियां कंपित होने लग जाती हैं । (मोडणेहिं ) बार २ इन चोरों का वे कोतवाल लोग मर्दन करते हैं बार २ ऊँचे नीचे उठाते बैठाते हैं, इस तरह से बहुत दुःखित करते रहते हैं । (संवद्धा ) रज्ज्वादिक से ईन्हें बहुत ही दृढ़ता के साथ हाथ पैर आदि अवयवों में बांध देते हैं ( नीससंता) इस कारण जोर २ से हाँफने लग जाते हैं । (सीसावेढउरुयाल-वप्पडसंधिबंधणतत्तसलाग सूह आकोडणाणि) (सोसावेढ) गीले चमड़े आदि से इनका शिर बांध दिया जाता है, (उरुयाल ) ऊरुदार-जधाएँ इनकी इतनी अधिक चौड़ी करवाई जाती हैं कि जिससे उनका विदारण (तूट जाना) हो जाता है। (चप्पडगसंधिबंधणा) जानुकूपर (कोणी) आदि संधि स्थानोंमें एक प्रकारके काष्ठयंत्र बांध दिये जाते हैं तथा ( लोहसलाग ) शरीरमें तप्तलोहे की शलाईयों से दाग दिये जाते हैं और ( सूई आकोडणाणि ) गरम लोहेकी सूईयां उसमें प्रविष्ट की जाती हैं, तथा ( तच्छणविमाणणाणि ) वमूला आदिसे तेभनी छाती तथा पाना । ४५qा दागे छ, “ माडणेहिं " ते योशेर्नु તે કેટવાળે વારંવાર મર્દન કરે છે. તેમને વારંવાર ઊઠ બેસ કરાવે છે, અને मेरीते तेने गई हुम छ, “संबद्धा" तमना हाय माहि अवय वान हो२i माह 43 भरभूत रीते मांधी वामां आवे छे, "नीससंता" ते ॥रणे ते भिन्यास ia. 1य छे. “सीसावेढ" लीनां या माहिथा तभन शि२ ४ांधी छ, “ उरुयाल" तेमनी मटकी मधी पहाणी ४२वामा मा छे 3 ते २ तेभनु वि.२९५ थाय छ, “चप्पडगसंधिः बधणा" ननु प२ ( गुहा ) मा सांधावाजी व्यायामा ४ प्रानi ४।०४ मांधी वाम मा छ, तथा “ लोहसलाग” तपास सोढाना सनियामा परे शरी२ ५२ म वाम मा छ, भने “सूइआकोडणाणि" १२म अरेसी सोटानी सोयो शरीरमा वामां मारे छ, तथा “तच्छण विमा For Private And Personal Use Only Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३२६ प्रश्नव्याकरणसूत्रे क्षणानिबासीभिः काष्ठस्येव गात्रक्षोलनानि, विमानानि गालीपदानादिभिर्विविधरीत्याऽपमानकरणानि तथा ' खारकड्डयतित्तनावण जायणकारणसयाणि ' क्षारकटुकतिक्तनावणयातनाकारणशतानि = तत्र क्षाराणि सर्जीक्षारादीनि कटुकानिनिम्बादीनि तिक्तानि च-मरीचादीनि तेषां ' नावणं' इति मुखनासिकादौ प्रक्षेपणं, तदादीनि यानि यातनाकारणशतानि-विविधवेदनाकारणशतानि तानि 'बहुयाणि ' बहुकानि 'पावियंता' प्राप्नुवन्तः, 'उरघोडीदिण्णागाढपेल्लणअढिकसंभग्गसपंसुलिया ' उरोघोटीदत्तगाढप्रेरणसंभग्नास्थिकसपंशुलिकाः = तत्र उरसि-वक्षःस्थले दत्ताः स्थापिताः या घोटी 'घोडी ' इति प्रसिद्धं महाकाष्ठं तस्या गाढम् अत्यर्थ यत्प्रेरण-घर्षणपूर्वकं सञ्चालनं तेन संभग्नानि त्रुटितानि उनके शरीर को छीलते हैं और विमानन गाली आदि से उनको अपमानित करते हैं । (खारंकडुयतित्तनावणजायणकारणसयाणि) ( खार) मुख नासिका आदि में सर्जी क्षार आदि क्षार पदार्थों का ( कडुय) आदि कटुक पदार्थों का एवं (तित्त) मरीचि आदि तिक्त पदार्थों को चूरण (नावण) प्रक्षिप्त किया जाता है, (जायणकारणसयाणि ) इत्यादि रूपसे (कारणसयाणि) वेदना प्रदानके जितने भी सैकड़ों प्रकार हैं उन सबका उन द्रव्य हरण करनेवाले चोरोंपर प्रयोग किया जाता है । इस तरह (बहु. याणि) बहुत प्रकारकी घोरातिघोर वेदनाको (पावियंता) प्राप्त हुए वे जीव (उरघोडीदिण्ण गाढ पेल्लण अहिक संभग्गसपंसुलिया) (उरघोडी) जब उनके वक्षःस्थल पर बहुत अधिक बोझवाली काष्ट की घोड़ी (दिण्णगा. ढपेल्लण ) इधर से उधर खेचकर फिराई जाती है इससे (अट्ठिकसंभणणाणि" qixen माहियो तमना शरीरने छ। छ, भने । भाटिया तेभने अपमानित ४२ छ. “ खारकडुयतित्तनावणजायणकारणसयाणि" "खार" भुभ, ना3 भाभिi सामा२ मा क्षार युत पानी " कडुय" લીબળી આદિ કડવા પદાર્થોની, અને “તત્ત’ મરચાં આદિ તીખાં પદાર્થોની भूडी " नावण' नामi -पावे छे, “जायणकारणसयाणि ” त्यात પ્રકારની પીડા પહોંચાડવાની જે સેંકડો પદ્ધતિ છે, તે બધીને તે દ્રવ્ય २९५ ४२॥२॥ यो। ६५२ प्रय।। ४२वामां आवे छे, मा शत “ बहुयाणि" भने ४२ लय'४२मा नय४२ वेहनायो " पावियंता" ते सो मनुमने छ. " उरघोडीदिण्णगाढपेल्लणअट्टिकसंभम्गसपंसुलिया " " उरघोडी " न्यारे For Private And Personal Use Only Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० ३ सू० १४ चौराः किं फलं प्राप्नुवन्तीतिनिरूपणम् ३२७ सपंशुलिकानि पार्थास्थिसहितान्यस्थीनि येषां ते तथा उरसि महाकाष्ठस्य. चालनेन भग्नपार्थास्थिका इत्यर्थः, 'गलकालकलोहदंडउरउदरवत्थिपिट्ठिपरिपीलिया' गलकालककोहदण्डोरउदरबस्तिपृष्ठपरिपीडिताः-गल इव-मत्स्यभेदककण्टकवत् कालकलोहदण्ड: श्यामलोहदण्डस्तेनोरसि वक्षःस्थले, उदरे बस्तौ नाभ्यधोगुह्यप्रदेशे पृष्ठे च परिपीडिता आहता ये ते तथा, 'मत्थंतहिययसंचुणियंगुवंगा' मथ्यमानहृदयसञ्चूर्णिताङ्गोपाङ्गा:-तत्र मथ्यमानं महाकाष्ठादिभिर्विलोड्यमानं हृदयं वक्षःस्थलं येषां ते मध्यमानहृदयाः, तथा कठोरभूम्यादौ घर्षणादिना सञ्चूणितान्यङ्गानि-शिर उर उदर पृष्टवाहुद्वयचरणद्वयलक्षणाष्टाङ्गानि उपाङ्गानि च कर्णनासिका करचरणाकुल्यादीनि येषां ते सञ्चूर्णिताङ्गोपाङ्गाश्च येते तथा, एते पापा वेदनाः प्राप्नुवन्तीत्यग्रेण सम्बन्धः । 'केई' केचित् केचन 'अविराहिय-वैरिएहि' ग्गपंसुलिया ) उनकी पांसली सहित हड्डियां पीस जाती है तर, तथा ( गलकालकलोहदंड उरउदरबस्थिपिट्टपरीपीलिया ) ( गल) मत्स्य भेदक कंटक की तरह (कालकलोहदंड ) काले लोहे के दण्ड से ( उर वक्षस्थल, ( उदर ) पेट, (बत्थि ) बस्ति-नाभि के नीचे का गुह्यप्रदेश, एवं ( पिट्ठ) पृष्ठ इन स्थानों पर जब वे (परिपीलिया) आहत होते हैं तब, तथा ( मत्थंतहिययसंचुणियंगुवंगा) (मत्थंतहियय ) जब उनका हृदय महाकाष्ट आदि से मथित किया जाता है तब, तथा ( संचुगियं. गुवंगा ) कठोर भूमि के ऊपर घर्षण आदि से जब उनके अंग और उपांग अच्छी तरह चूर्णित हो जाते हैं तब, बहुत ही अधिक दुःखी होते हैं । शिर, उर, उदर, पृष्ठ, बाहुद्वय और चरणद्वय, ये आठ अंग हैं। तथा कर्ण, नासिका, कराङ्गुली एवं चरणांगुली आदि उपांग हैं। इस प्रकार ये (केइ ) कितनेक अदत्तग्राही चोर ( अविराहियवेरिएहिं) तमनी छाती ७५२ घ! मारे १४नवाणी यानी "दिण्णगाढपेल्लण' अचाने माम तम ३२वामा मावे छे, त्यारे “अद्विक संभग्गापंसुलिया" તેમની પાંસળીઓનાં હાડકાં પીસાઈ જાય છે, તથા “” માછલીને વીંધનાર टानी म “कालकलोहदण्ड " सोढाना १४ " उर" छाती "उदर" पेट, “ बत्थि” मस्ति-गुह्य प्रदेश, मने " पिट्ठ” पी वगैरे स्थान। ५२ न्यारे “परिपीलिया" तभने भा२ ५४ छ त्यारे, तथा " मत्थंत हिय य संचणियंगवंगा" " मत्थंत हियय" या तमना स्यनु भाडा माल द्वारा मयन ४२वामा भावे छे त्यारे, तथा “संचुणियंगुवंगा” ४३५ मीन ઉપર ઘસડવાને લીધે જ્યારે તેમનાં અંગ ઉપાંગોને સારી રીતે ચૂર થાય છે ત્યારે તેઓ ઘણા જ દુઃખી થાય છે. શિર, ઉર, ઉદર પૃષ્ઠ, બે હાથ અને બે પગ એ આઠ અંગ ગણાય છે. તથા કાન, નાક, હાથ પગનાં આગળ वगैरे अपांग उवाय छे. से प्रभार ते "केह" डेटमा महत्तग्राही-यो२, For Private And Personal Use Only Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३२८ प्रश्नव्याकरणसूत्रे अविराधितवैरिकैः निरपराधा एव वैरिणः शत्रवः निष्कारणवैरिण इत्यर्थः, तैः 'जमपुरिससंनिभेहिं ' यमपुरुपसन्निभैः परमाधामिकदेवसदशैः भयोत्पादकत्वात्तैरेवंभूतैः 'आणत्तिकिकरहिं ' आज्ञप्तिकिङ्करः राजनिदेशकारिभिः पुरुषैः पहया' प्रहतास्ते अदत्ताऽऽदायिनः 'तत्थ ' तत्र कारागारे ‘मंदपुण्णा ' मन्दपुण्या: भाग्यहीनाः 'चडवेलावद्धपट्टपोराच्छिवाकसलत्तवरत्तवेत्तपहारसततालियंगुवंगा' 'चडवेलाबद्धपट्टपोराच्छिवाकशालत्तावरत्रावेत्रप्रहारशतताडिताङ्गोपाङ्गाः, तत्रघडवेला-चपेटा ‘बद्धपट्ट' बर्धपट्ट ' बद्धपट्टः चर्मपट्टः · पोरा ' लौहकीलकाः, देशीशब्दोऽयम् 'च्छिवा' चिकणचर्मकशा 'चाबुक' इति भाषा प्रसिद्धा, देशी शब्दोऽयं, कशा: अश्वादिताडनचर्मयष्टिः, 'लया' लता लम्बाहरितक्षशाखायष्टिः 'छड़ी' 'कामडी' इति भाषा प्रसिद्धा 'वरत्त' वरत्रा-चर्ममयीरज्जुः 'वेत्त' वेत्रं वेत्रयष्टिः, एतेषां 'पहारसय ' प्रहारशतैः 'तालियंगुपंगा' ताडिताङ्गोपाङ्गाः ताडितान्यङ्गोपाङ्गानि येषां ते तथा, 'किविणा' कृपणाः दीनाः, विना अपराध के ही वैरी बने हुए-निष्कारण शत्रु भाव को प्राप्त हुए ऐसे ( आगति किंकरहिं ) राजनिदेशकारी पुरुषों के द्वारा कि जो (जमपुरिससंनिभेहिं) यमपुरुष-परमाधार्मिक जैसे होते हैं ( तत्थ ) उस कारागार में ( पहया ) आहत-दुःखि किये जाते हैं। वहां पर वे ( मंदपुण्णा) अभागे (चडवेलाबद्धपट्टपोराच्छिवाकसलत्तवरत्तवेत्तपहारसयतालियंगुवंगा) (चडवेला) थप्पड़ों के, (बद्धपट्ट) चर्म पट्टोंके, (पोरा) पोरलोहे के खीलों के, (छिवा) चिकने चमड़ा के कोड़ो के ( कस) चावुक के, (लत्त) लता-हरे वृक्षकी शाखा की छडी के, (वरत्त ) वरत्राचमड़े की रस्सी के, वेतों के ( पहारसय) सैकड़ो प्रहारों से (तालियंगु. वंगा) अंग उपांगों में ताडित किये जाते हैं। (किविणा ) दीनदशासं"अविराहिय वेरीएहि" विना qi: दुश्मन मानेश-विन२ शत्रु मनी मेठेसा, “जनपुरिससंनिभेहिं " यम व २१ "आणत्ति किंकरेहि " ०४ पुरुषो द्वारा, ते ॥२॥३|२मा “ पहया" प्रा२। वडे मी ४२॥य छे. त्या ते “ मंदपुण्णा " ममा सो “चडवेलाबद्धपदपोराच्छिवाकसलत्तवरत्तबेत्तपहारसयतालियंगुवंगा" "चडवेला" थाना " बद्धपट्ट." या पट्टामाना "पोरा" सोढाना भीमामाना, " छिवा" या यामाना १२॥ना, “कस' यामुना, "लत्त" Elan वृक्षनी जोमानी सोटरीमान “वरत्त" १२तना यामाना है.२iना भने नेतनी सोटरीमान,-"पहारसय.". से४ ५i। " तालियगुवंगा" तेभनi in पांगी ५२ भारवामां आवे छ. " किविणा" For Private And Personal Use Only Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० ३ सू०१४ चौराः किं फल प्राप्नुवन्तीतिनिरूपणम् ३२९ तथा ' लवंतचम्मवणवेयणविमुहियमणा' लम्बमानवमंत्रणवेदनाविमुखितमनसः= लम्बमानचर्माणि-गलच्चर्माणि यानि व्रणानिक्षतानि 'घाव' इति पसिद्धानि तेषां या वेदनाः-पीडाः ताभिः विमुखितं चौर्यकरणाद् विरक्तं मनो येषां ते तथा, 'घणकोट्टणनियलजुयलसंकोडियमोडिशाय' धनकुट्टननिगडयुगलसंकोटितमोटिताश्च-तत्र धनकुट्टनेन-लोहमयसुद्गरताडनेन निगडयुगलेन-शृङ्खलाद्वयबन्धनेनेत्यर्थः, संकोटिताः सङ्कोचिता मोटिताः प्रकीकृताश्च येते तथा 'कोरंति' 'क्रियन्ते राजगुरुपैरितिपूर्वेण सम्बन्धः। तथा निरुच्चाराः निरुद्धभूत्रपुरीपोत्सर्गाः, यद्वा-निरुच्चाराः स्वपीडामतीकारार्थमे कशब्दोच्चारणमात्रमपिकर्तुमशक्ताः, अत एव असञ्चरणा=गमनागमनवर्जिताः एकस्थानातिबद्धा एव 'पापा' पापा:-पापपन्न बने हुए तथा (लंयंतचम्मचगवेयगविहियमगा) (लंयंतचम्म) कोड़ो आदि की भार से शरीर की खाल खिंच जाने के कारण लटकते हुए चमड़े से युक्त (वण ) घावों की (धेयण ) वेदना से (विमुहियमणा) जिनका मन चौरी करने से विरक्त हो चुका है ऐसे, तथा (घणकोणनियलजुयलसंकोडियनोडिया य ) (घणकोहण लोहमय मुद्गरों की चोट से, एवं (नियलजुध) दो सांकलों द्वारा किये गये बंधनों के ( संकोडियमोडिया ) जिनका शरीर संकुचित होकर वक्रीभूत हो चुका है तथा (निरूच्चारा ) अपनी पीड़ा को प्रकट करने के लिये जो एक शब्द के उच्चारण करने में भी असमर्थ बन चुके हैं, अथवा-वेहद मार के कारण मल अनून का उत्सर्ग जिनका बंद हो चुका है और इसी कारण जो ( असंचरणा) एक ही स्थान में प्रतिबद्ध रहने के कारण जो चलने फिरने में असमर्थ बन चुके हैं ऐसे ये अदत्तग्राही ( पावा ) पापी मेवी हानामा आयसा तथा " लंबतचम्मवणवेयणविमुहियमाणा" " लंबंतचम्म" ॥२७॥ महिना प्रहारथी शरीरनी यामडी तरी पाथी १८४त. यामडी १७॥ “वण " बापानी येनाथी — विमुहियमणा" मना भन यो३। ४२वाथी पि२४त 45 या छ, त! “ घणकोहण नियलजुयल संकोडिय मोडियाय ""घणकोद्रण " दोमय भगानी योटथी मने “नियलजोयल" में सादा । पायेस धनाथी " संकोडियमोडिया" मन शरीर सया ने जी जयां छे. तथा “निरूच्चारा" पातानी बेहनाने प्रगट ४२वाने માટે એક શબ્દ પણ બેલવાને જે અસમર્થ છે, અથવા બેહદ મારને લીધે भनी भभूत्र माहिना उत्सना 34 4 25 2. अने " असंचરા” એક જ સ્થાનમાં પૂરાયેલ રહેવાને કારણે જે હલન ચલન કરવાને For Private And Personal Use Only Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - ३३० प्रश्नव्याकरणसूत्रे कारका अदत्तहारिणो जनाः ' एया अण्णा य एवमादीओ वेयणाओ' एताः पूर्वोक्ताः, अन्याश्च अन्यप्रकारा एवमादिकाः एवं प्रकारानानाविधा वेदनाः = दुःखानि 'पावंति ' प्राप्नुवन्ति ।। मू० १४ ॥ पुनस्ते कीदृशाः कीदृशं फलं लभन्ते ? तदाह-' अदतिंदिया' इत्यादि । मूलम्--अदतिंदिया वसट्टा बहुमोहमोहिया परधणम्मि लुद्धा फासिंदियविसयतिव्वगिद्धा इत्थगयरूवसदरसगंधइट्ररइमहियभोगतण्हाइया य धणतोसगा गहिया य जे नरगणा पुणरवितेकम्मदुवियड्डा उविणीया रायकिंकराणं तेसिं वह सत्थग-पाढयाणं विल उलीकारगाणं लंचसयगेण्हयाणं कूडवडमायाणियडि-आयरण-पणिहिवंचण-विसारयाणं बहुविहअलियसयजंपगाणं परलोगपरम्मुहाणं निरयगइ गामियाणं तेहि य आणत्तजीवदंडा तुरियं उग्घाडिया पुरवरेहिं सिंघाडगतियचउक्कचच्चरमहापहपहेसु वेत्तदंडलउडकट्ठलेट्रपत्थर-पणालिय पणोलिमुटिलत्तपादपण्हि जाणुकोप्परप्पहरसंभग्गमहियगत्ता अट्ठारसकम्मकारिणो पाइयंगुवंगा कलुगा सुकोट्टकंठगलतालु जिब्भा जायंता पाणियं विगयजीवियासा तण्हाइया वरागा तंपि य न लहंति वज्झपुरिसेहिं धाडियंता ॥सू०१५॥ जीव ( एया ) इन पूर्वोक्त वेदनाओं के तथा ( अण्णाय एवमाईओ) इनसे अतिरिक्त और भी नाना प्रकार की ( वेगणाओ ) वेदनाओं के ( पावंति ) प्राप्त होते हैं ।। सू-१४ ॥ अब ये अद्ताग्राही चोर कैसे होकर किस प्रकार के फलको भोगते असम 25 गया छ, मेवा ते महत्ताही “ पावा' ५५ ७॥ " एया" से पूरित वेदना तथा “ अण्णाय एयमाईओ' ते सिवायनी भी ५ भने ४२नी " वेयणाओ" वेना। " पावंति" पामे छ ।। सू.-१४ ।। હવે અદત્તાગ્રાહી-ચોર કેવા હોય છે અને કેવા પ્રકારનાં ફળ ભોગવે છે For Private And Personal Use Only Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ०३ सू०१५ कीदृशाश्चौराः कीदृशंफलं लभन्ते ? ३३१ टीका-' अतिंदिया' अदान्तेन्द्रियाः अवशेन्द्रियाः ‘चसट्टा' क्शार्ता शब्दादिविषया सक्तिपीडिताः ‘बहुमोहमोहिया' बहुमोहमोहिता प्रचुरऽज्ञानम्छिताः परधम्मि लुद्रा' परधने लुब्धाः परद्रव्यतृष्णान्त इत्यर्थः, 'फासिदियविसयतिब्बगिद्धा' स्पर्शेन्द्रियविषयतीव्रद्धाः स्पर्शेन्द्रियविषये स्त्र्यादौ गाढासक्ताः 'इत्थिगयरूबसद्दरसगंधइटरतिमहियभोगतण्हाइया य' स्त्रीगतरूपशब्दरसगन्धेष्टरतिमहितभोगतृष्णार्दिताश्च-तत्र स्त्रीगताः स्त्रीसम्बन्धिनो ये रूपशब्दरसगन्धास्तेषु इष्टा=अभीप्सिता या रतिः रमणं तथा स्त्री गत एव महितः = वाञ्छितो यो भोगः= विलासः तयो र्या तृष्णा तया अर्दिताः पीडिताः 'धणतोसगा' धनतोहैं ? यह कहते हैं- अदंतिदिया' इत्यादि । ___टीकार्थ-( अदतिदिया ) ये अदत्तग्राही चोर ( अदतिदिया ) ऐसे होते हैं कि इनकी इन्द्रियां इनके वशमें नहीं रहती है, ( वसट्टा) शब्दादिक विषयों में ये अधिकरूप में आसक्तिवाले होते हैं, ( वहुमोह. मोहिया) अज्ञानको सत्ता इनमें अधिकसे अधिक रहती है (परधणम्मिलुद्धा) परके द्रव्यमें इन्हें बहुत भारी तृष्णा रहती है। (फासिं. दियविसयतिव्यगिद्धा ) स्पर्शन इन्द्रियके विषयभूत स्त्री आदि पदार्थ में इनकी गाढ आसक्ति होती है। (इत्थिगयरूवसहरसगंधइट्टरइमहियभोगतहाइया य) (इत्थिगय) स्त्री संबंधी ( रूबसहरसगंधइट्टरइ ) रूप शब्द, रस, गंधमें इच्छानुसार रमण करनेकी तथा (महिय) स्त्रीके भोगनेकी वाञ्छा इनमें अधिक रहती है । परन्तु (भोगतण्हाइया ) उन भोगौकी पूर्ति नहीं हो सकने के कारण ये उनकी तृष्णासे रातदिन ते सूत्र२ मतावे छ- 'अदतिंदिया" त्याह __ -" अतिंदिया" ते महत्तामाही योर मेवा खाय छ भनी धन्द्रियो ६५२ तेभनी आभूतो नथी, “ वसट्टा" शाहि विषयोभा त पधारे प्रभामा भासत हाय छ, " बहुमोहमोहिया " तमना ५२ Alननी सत्ता पधारेभा पधारे याले छे, "परधणम्मि लुद्धा" ५२धननी तृ॥ तमनामा म पधारे डाय छे, “ फासिदियविसयतिव्यगिद्धा” २५. ન્દ્રિયને વિષયભૂત સ્ત્રી આદિ પદાર્થોમાં તેમની તીવ્ર આસક્તિ હોય છે, " इत्थिगयख्वसहरसगंधइगुरइनहियभोगतण्हाइया य " " इत्थिगय" al समाधी " स्वसहरसगंध इट्टरइ " ३५, शह, मने धमi Jछानुसार २भए " महिय '४२वानी तथा स्त्री। साथै २तिरमा ४२वानी वासना मनामा धारे डाय छे. ५५५ " भोगतण्हाइया" ते लोग पूरा नही थवाने २णे, तेमनी For Private And Personal Use Only Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३३२ प्रश्नव्याकरणसूत्रे षकाः परधनचौर्येण तुष्यन्ति येते तथा राजपुरुषैः 'गहियाय' गृहीताश्च ये नरगणाः चौरजनसमूहाः पूर्व कोट्टयालादिभिः प्राप्तदण्डाः 'पुगरवि ते ' पुनरपि ते ' कम्मदुब्बियड़ा' कर्मदुर्विदग्धाः अदत्तादानादिकर्भजनितकटुकफलज्ञानरहिताः चौर्यकर्माऽपराधेन देखि रायकिंकराणं ' तेषां प्रसिद्धानां निर्दयानां राजकिंकराणां राजपुरुषाणामधे 'उगीया' उपनीता= समीपं प्रापिताः कथं भूतानां राजकिंकराणामित्याह — वधसत्वगपाढयाणं ' वधशास्त्रकपाठकानां अधवन्धमारणघातनमात्रशिक्षाशिक्षितानां 'विलउलीकारगाणं' विलउली हीनदीनादिवचनै धौरादीनां निर्णयः देशी शब्दोऽयं, तत् कारकाणां 'लंचसयगेण्हयाणं ' लञ्चशतदुःखी होते रहते हैं । ( धगतोसणा ) यदि इन्हें संतोष प्राप्त होता है तो वह एक परके धनके अपहरण करनेसे ही होता है। परन्तु यह संतोष इनका स्थायी नहीं रहता है कारण जय (जेनरगणा ) ये अदत्तग्राही चौर लोक ( गहिया य ) राजपुरुषों द्वारा गृहीत पकड़ लिये जाते हैं, तब ( पुणरवि ते ) फिर भी वे विविध प्रकार के दंडों से इन्हें विशेष दुःख भोगना पड़ता है । तथा ( कम्मदुब्बियडा ) अदत्तादानादि कर्मजनित कटुक फल के ज्ञान से रहित बने हुए चौर्यकर्मरूप अपराधके कारण (तेसिं ) उन (रायकिंकरागं ) निर्दय राजपुरुषों के आगे जब (उवणीया ) ले जाये जाते हैं तब वे इन्हें प्राणदंड की आज्ञा देते हैं, तथा और भी इनके साथ क्या २ व्यवहार करते हैं यह बात सूत्रकार स्पष्ट नीचेके अवतरणों द्वारा करते हैं-राजपुरुष कैसे होते हैं ? पहले यह बात सूत्रकार कहते हैं- वधसत्यगपाढयाणं) वध, बंध, मारण, घातन, तृष्णाने ४२ तेवो रातदिन भी थय! ४२ छ. "धण तोसणा"तेने ५२५નનું અપહરણ કરવા સિવાય બીજા કોઈ કાર્યથી સંતોષ થતો નથી, પણ तेनात सतोष स्थायी डात नथी र यारे "ते नरगणा" ते सहतथाडी योरे। "गहिमाय" २०४ पुरुषो १२१ ५४15 लय छे त्यारे “ पुणरवि ते" शयी ५७५ तेभने मने प्रा२नी शिक्षा द्वारा धारे हो सोगOn ५3 छ, तथा “कम्म दुब्वियट्ठी” महत्ताहान माह मना ४४ परिणाम ज्ञानथी अज्ञानथी सेवा त योरोने, योशन शुनाने २ " तेसिं" ते "रायकिंकराणं" निय. २०० पुरुषो पासे न्यारे " उवणीया" वामां आवे छ ત્યારે તેમને મૃત્યુદંડની સજા થાય છે, તથા તેમની સાથે બીજા પણ કે વર્તાવ રાખવામાં આવે છે, તે વાતને સૂત્રકાર નીચેનાં, વાક્યો દ્વારા સ્પષ્ટ કરે છે-પહેલાં તે રાજપુરુષે કેવા હોય છે, તે વાત સૂત્રકાર બતાવે છે. " वधसत्थगपाढयाणं " १५, मध, भा२५], घातन, माहि विधामाना For Private And Personal Use Only Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ०.३ सू० १५ कीदृशाश्चौराः कीदृशं फलं लभन्ते ? ३३३ ग्राहकाणां नानाविधलश्चग्राहकाणां - रिश्वत खोर' इति भाषा प्रसिद्धानां तथा ' कूडकवडमायाणियडि-आयरणपणिहिवंचणविसारयाणं ' कूटकपटमायानिकत्याचरणप्रणिधिवञ्चनविशारदानां-तत्र कूटंभ्रमोत्पादनं, कपटं वेशभाषानानारूपधारणं माया चौरादीन् निग्रहीतुं भिक्षायत्यादिभिश्छलकरणं, भोजनादिभिरादरसत्कारकरणैर्वचनं निकृतिः तथा प्रणिधिवञ्चनं प्रणिधिना-छलेन एकाग्रचित्तेन वा वञ्चनं, यद्वा-प्रणिधीनां राजगुप्तपुरुषाणां यद्वञ्चनं तत्र विशारदा मागल्भा ये ते तथा तेषां बहुविहअलियसयजंपगाणं ' बहुविधालीकशतजल्पकानां चौरादीनां आदि की शिक्षा से ये राजपुरुष शिक्षित होते हैं (बिल उलीकारगाणं) दीन-हीन आदि वचनों को बोल कर चोर आदिको का निर्णय कराने वाले होते हैं, अर्थात्-ये राजपुरुष ऐसे निपुण होते हैं कि वोरों का पता बहु जल्दी लगा लेते हैं, इस प्रकार की उनकी बात चीत का ढंग होता है कि जिससे " यही चोर है" इस बात का उन्हें ज्ञान हो जाता है। (लंचसयगेण्याणं ) ये रिश्वतखोर-घूस खाने वाले होते हैं। तथा (कूडकवडमायाणियडि आयरणपणिहि-वंचणविसारयाणं )( कूड ) कूट मेंभ्रमोत्पादन में, ( कवड ) कपट में-वेश भाषा के नानारूप धारण करने में, (माया) माया में चोरोंको पकड़ने के लिये भिक्षावृत्ति आदिसे छल करने में, (नियडि आयरण ) निकृत्याचरण में-भोजनादि द्वारा आदर सत्कार से प्रतारणा करने में, तथा (पणिहिचणा) प्रणिधि-वचनमें कोई बहाने से ठगने में, अथवा राजा के गुप्तचर पुरुषों को ठगने में, (विसारयाणं ) बड़े विशारद-चतुर होते हैं । (बहुविहअलियसयजंपते २ खाय छ “ विलउलीकारगाणं " दीन-हीन माह पयनी मोदी ચોર આદિને નિર્ણય કરનાર હોય છે, એટલે કે તે રાજપુરુષે ચેરેને જલ્દી ધી કાઢવામાં નિપુણ હોય છે. તેમની વાતચીતની ઢબ એવી હોય છે કે थी “ मा भाणस यार छ,” थे. वात तेमने समय छे." लंच. सयगेव्हयाण " तेवो aiयीय डीय छ, तथा “ कूडकवडमायाणियडिआयरणपणिहिवंचणविसारयाणं " “कूड" 3 ४२वामा प्रभातपाइनमा, " कवड" ४५८मा-विविध देश सेवामi, " माया ” माया याराने ५४वाने भाटे लक्षावृत्ति मा ७१ पेसवामi, " नियडिआयरण " नित्यायरमा सोनाहा! मासा२थी प्रतारणा ४२पाम. तथा “ पणिहिवचणा" પ્રણિધિ વંચનમાં, કઈ પણ બહાને ઠગવામાં અથવા રાજાના ગુપ્તચરને गवामा, “ विसारयाणं " सारे निपुण डाय छे. " बहुविहअलियसयजंपगाणं " For Private And Personal Use Only Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३३४ प्रश्नव्याकरणसूत्रे 1 " भेदग्रहणाय नानाविध मिथ्याभाषिणं, ' परलोक परम्हाणं' परलोक पराङ्मुखानां= परलोकभयरहितानामित्यर्थः, 'निरयगहगामियाणं नरकगतिगामिकानामेवंभूतानां राजपुरुषाणां पुरत उपनीताः ' तेहि य' तैश्व राजपुरुपै: 'आणत्तजीवदंडा ' आज्ञप्त जीवदण्डाः = आज्ञप्तः = आज्ञापितः जीवदण्डः शूलारोपणादिकः येभ्यस्ते तथा आमृत्युदण्डा इत्यर्थः तथा ' तुरियं उग्वाडिया पुरवरेहिं सिंघाडगतियचकच चरमहापहप शृंगाटकत्रिकचतुष्कचत्वरमहापथपथेषु = तत्र - शृङ्गाटकः = त्रिको मार्गः त्रिकः यत्र मार्गत्रयसम्मेलनं भवति, चतुष्कः = चतुर्मार्गस्थानं चत्वरः= गाणं) चौरादिकों का भेद लेने के लिये अनेक प्रकार की सैकड़ों झूठीर बातें बनाने में बड़े चतुर होते हैं, (परलोकपरम्मुहानं ) परलोकका भय इन्हें बिलकुल नहीं होता है। जो मनमें आता है वही अच्छा मानकर करते रहते हैं । (निरयगहगामियाणं ) इसी कारण मरने पर ये नरकगति में जाते हैं । अब ये राजपुरुष इन्हें क्या २ दंड देते हैं ? सो सूत्र - कार प्रदर्शित करते हैं ( तेहिं य) ये राजपुरुष ( आणत्तजीयदंडा ) इन चोरों को शूलारोपण आदि मृत्युदंड देते हैं । ( पुरवरेहिं ) नगर के (सिंघाडगतियच उक्कचचरमहा हपहेसु) शृंगाटक, त्रिक, चतुष्क, चत्वर, महापथ एवं पथ इन सब मार्गों में ( तुरियं उग्वाडिया ) शीघ्र उन्हें दिखा २ कर यह घोषित करते हैं कि “ देखो भाईयों ! ये महाचोर हैं और आज ही इनको मृत्युदंड दिया जायगा। सिंघाडे जैसा तिकानों जो मार्ग होता है उसका नाम श्रृंगाटक, जहां तीन मार्गो का संमेलन है उसका नाम त्रिक, जिस रास्ते में चार रास्ता आकर मिलते हैं उस का 77 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ચાર આદિના ભેદ જાણવાને માટે અનેક પ્રકારની સે'કડા જુઠી વાતા મનાવી अढवामां ते निपुणु होय छे, “ परलोकपरम्मुहाणं " तेमने परसोनो २ मिसङ्कुल होतो नथी, तेमने मनमां आवे ते ४ सारु' भानीने रे छे. " निर. इगामियाणं ” તે કારણે મરીને તેએ નરકગતિમાં જાય પુરુષો તેમને કેવી કેવી સજા કરે છે, તે સૂત્રકાર ખતાવે છે ते हि य" છે. હવે તે રાજ (C << CC छे. ," ते रान्पुरुषो “ आणत्तजीयदंडा " ते योशेने शूझारोपणु आदि मृत्यु: हे पुरवरेह सिंघाडगतियचउक्कचच्चरमहा पपहे सु નગરના शृंगाटक, अतुष्ङ, यत्वर, महापथ भने पथ से गधा भार्गो पर “ तुरियं उम्घाडिया ” तेभने जडपथी मतावीने येवु लडेर ४२ छे “ लायो ! वो, આ મહાન ચાર છે, અને આજે જ તેને મૃત્યુઇડ આપવાના છે” શિંગોડા જેવા ત્રિકોણાકાર માગને શૃંગાટક કહે છે, જ્યાં ત્રણ રસ્તા મળે તે ત્રિક, જ્યાં ચાર રસ્તા મળે તે ચતુષ્ટ, જ્યાં અનેક માર્ગો મળે તેને ચત્વર કહે For Private And Personal Use Only Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनीटीका अ०३ सू० १५ कीदृशाश्चौराः कीदृशं फलं लभन्ते ! ३३५ अनेकमार्गसम्मेलनस्थान महापथः राजमार्गः पन्थाः सामान्यमार्गस्तेषु त्वरित शीघ्रमुद्घाटिताः जनसमक्षे प्रदर्शिताः ' इमे महाचौरा शीघ्रमद्यैववध्याः' इति जनसमक्षे प्रदर्शिताः, कथं भूताः ? इत्याह-'वेत्त-दंड-लउड-कट्टलेट-पत्थरपणालिय-पगोलियमुट्ठिलत्तपायपण्हि-जाणुकोप्परप्पहारसंभग्गमहियगत्ता' वेत्रदण्ड- लगुट- काष्ठ- प्रस्तर- प्रणाली-प्रणोदी मुष्टिलत्ता-पादपाणि- जानुकूपर-प्रहारसंभग्नमथितगात्राः, तत्र 'वेत्तदंड ' वेत्रदण्डः ‘लउड ' लकुटा यष्टिः 'कट' काष्ठं च-प्रतीतं 'लेटु' लेष्टुः-मृत्तिका खण्डं पत्थर' प्रस्तरश्च-पाषाणः 'पणालिय' प्रणाली:-प्रकृष्टा, नाली पुरुषप्रमाणदीर्घयष्टिः ‘पणोली' प्रणोदी =ताडनदण्डो, 'मुडो' मुष्टिः। इति भाषा प्रसिद्धः 'लता' पादः 'लात' इति भाषा प्रसिद्धः, ‘पादपण्हि' पादपाणि: चरणपश्चाद्भागः 'एडी' इति भाषा प्रसिद्धः, जानुः='घुटना' इति प्रसिद्धः 'कोप्पर' कूपरश्च-भुजमध्यग्रन्थिः 'कूणि' इति भाषा प्रसिद्धः, एतेषां प्रहारैः संभग्ग' संभग्नानित्रुटितानि, 'महिय' मथितानि च-सम्मदितानि 'गत्त' गात्राणि शरीराणि येषां ते तथा नाम चतुष्क, जहां अनेक मार्ग आकर मिले हों उसका नाम चत्वर, राजमार्ग का नाम महापथ एवं सामान्यमार्ग का नाम पथ है । (वेत्तदंड लउड-कट्ठ-लठ्ठ-पत्थर-पणालिय-पणोलिय मुहि-लत्त-पायू-पण्हि-जाणू कोप्परप्पहारसंभग्गमथितगत्ता) राजपुरुष इन चोरों को (वेत्तदंड ) वेतों के डंडों की मार से, (लउड ) लकड़ियों की मार से, ( कट्ठ) काष्ठों की मार से, (ले? ) मृत्तिकाके खंडोंकी मार से, ( पत्थर ) पत्थरों की मार से, (पणलिय ) पुरुषप्रमाणदीर्घ यष्टियों की मार से, (पणोलिय) प्रगोली-ताडन दंडों को मार से, (मुट्ठि) मुट्टियों-मुक्कों की मार से, ( लत्त) लातों की मार से, ( पायाम्हि ) एडियों की मार से, (जाणु) घुटनों की मार से तथा कोहनियों की मार से हड्डी पसली सब एक कर देते हैं-मतलब ये कि वे इन्हें जो इनके हाथ में आ जाता है उसी से छ. २०४मागने मा५५ भने सामान्य भागने ५५ ४ छ. “ वेत्तदंड-लउड -कद्र ले?-पत्थर-पणालिय पणोलिय-मुट्ठि-सत्त-पायू-पण्हि-जाणू-कोप्पर- पहारसंभग्गमथितगत्ता” २४ पुरुषो ने याराने नेतरनी सोटीसाथी, सामाथी aisiथी, भारीनi iथी पथ्थरीथी, “पणलिय" पुरुष भा५नी 1350थी, "पणोलिय" साथी, भुयाथी, सातोथी, मेथी, धुटायी तथा पोथी સારી રીતે મારે છે, એટલે કે તેમના હાથમાં જે સાધન આવે તેનાથી તે सो भने ४१ राम रीते भा२ भारे छ. “ अट्ठारसकम्मकारिणो" ते For Private And Personal Use Only Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३३६ प्रश्नव्याकरणसूत्रे 'अट्ठारसकम्म कारिणो' अष्टादशकर्मकारिणः अष्टादशचौरममतिकारकाः अष्टादशप्रकारैश्चौयं भवति तत्कारका इत्यर्थः । अथ चौरस्य चौर्यकर्मणश्च लक्षणमुक्त ग्रन्थान्तरे " चौरः १, चौरापको २, मन्त्री ३, भेदज्ञः ४, काणकक्रयी ५। ___ अन्नदः ६, स्थानदश्चैव ७, चौरः सप्तविधः स्मृतः ॥ १॥" चौरः चौर्यकारकः १, चौरापका-चौराय वस्तुसमर्पकः २, मन्त्री चौराय सम्पतिदायकः ३, भेदज्ञः='कुत्र कस्य गृहे कयारीत्या कस्मिन् समये चौरी कर्तव्ये -त्यादि भेदज्ञातारः ४, काणकक्रयी-चौरा नीतं बहुमूल्यवस्तुकाणकं हीनं कृत्वा यः क्रीगाति सः ५, अनद: चौराय-चौर्याय मन्नदायकः, ६, स्थानदा चौराय विश्रामार्थ स्वगृहादौ स्थानदायकः ७, इति सप्तविधश्चौरः । अथ चौर्यकर्म ययाघुरी तरह मारते हैं । (अट्ठारसकम्मकारिणो ) ये चौर अठारह प्रकार से जो चौर्यकर्म किया जाता है उसमें निपुण होते हैं। ग्रन्थान्तर मेंचोर और चोरी के लक्षण इस प्रकार कहे हुए हैं "चौरः १ चौरापको २ मंत्री ३, भेदज्ञः ४, काणकक्रयी ५। अन्नदः ६ स्थानदश्चैव, चौरः सप्तविधः स्मृतः ॥१॥" जो स्वयं चोरी करता है १, चोरों को वस्तु देता है २, चोरों को संमति देता है ३, किस समय किसके घर में किस रीति से कहां चोरी करनी चाहिये इत्यादि रूप से जो चोरों को चोरी करने का भेद देता है ४, चोरों के द्वारा लाई गई बहु मूल्य वस्तु को जो अल्पमूल्य देकर खरीदता है ५, जो चोरों के लिये खाने पीने की व्यवस्था करता है ६, तथा चोरों के लिये विश्रामनिमित्त जो अपने घर आदि में स्थान देता है७ ये सब चोर हैं। इस प्रकार ये सात तरहके चोर कहे गये हैं ॥१॥ ચાર જે અઢાર પ્રકારે ચોરી કરવામાં આવે છે તેમાં નિપુણ હોય છે. બીજા ગ્રન્થમાં ચર અને ચોરીનાં આ પ્રમાણે લક્ષણે બતાવ્યાં છે. ___ " चौर : १ चौरापको २ मंत्री ३ भेदज्ञः ४ काणकक्रयी ५ । ___अन्नदः ६ स्थानदश्चैव, चौरः सप्तविधः स्मृतः॥१॥" (१) २ पोते १ यारी रे छ, (२) २ याराने तुम। आपे छ, (3) रे याराने समति माघे छे, (४) ४यारे, आना ५२मा, ४४ रीते यारी કરવી જોઈએ ઈત્યાદિ પ્રકારે જે ચેરને ચેરી કરવાનું રહસ્ય બતાવે છે, (૫) ચેરે દ્વારા ચોરી લાવવામાં આવેલી કીમતિ ચીજોને જે ઓછી કીમતે ખરીદે છે, (૯) જે ચોરેને માટે ખાવા પીવાની વ્યવસ્થા કરે છે તથા (૭) જે ચોરોને પિતાના ઘરમાં આશ્રય આપે છે, તે બધા ચોર ગણાય છે, આ રીતે સાત પ્રકારના ચોર બતાવ્યા છે ! ૧ / For Private And Personal Use Only Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ0 सू० १५ कीदृशःश्चौराः कीदृशफलं लभन्ते ! निरूपणम् ३३७ भलनं १, कुशलं २, तर्जा ३, राजभागो ४, ऽवलोकनम् ५। अमार्गदर्शनं ६, शय्या ७, पदभङ्ग ८, स्तथैव च ॥१॥ विश्रामः ९, पादपतन १०. मासनं ११, गोपनं १२ तथा। खण्डस्य खादनं चैत्र १३, तथान्यन्मोहराजिकम् १४ ॥ २ ॥ पद्या१५, न्यु १६, दक १७ रज्जूनां १८, प्रदानं ज्ञानपूर्वकम् । एताः प्रमूतयो ज्ञेया अष्टादश मनीषिभिः ॥ ३ ॥ तत्र भलन='न भेतव्यं भवता तव पक्षेऽहमपि सम्मिलिष्यामी 'त्यादि वचनैः चोरी अठारह प्रकार की इस तरह से है"भलनं १ कुशलं २ तर्जा ३ । राजभागो ४ऽवलोकनम् ५ । अमार्गदर्शनं ६ शय्या । परभङ्ग ८ स्तथैव च ॥ १ ॥ विश्रामः ८ पादपतन १० । मासनं ११ गोपनं १२ तथा। खण्डस्य खादनं चैव १३ । तथान्यन्मोहराजिका १४ ॥२॥ पद्या १५ न्यु १६ दक १७ रज्जूनां १८ । प्रदानं ज्ञानपूर्वकम् । एताः प्रसूतयो ज्ञेया । अष्टादश मनीषिभिः॥ ३ ॥ भलन १, कुशल २, तर्जा ३, राजभाग ४, अवलोकन ५, अमार्गदर्शन ६, शय्या ७, पदभंग ८॥१॥ विश्राम ९, पादपतन १०, आसन११, गोपन १२, खंडवादन १३, मोहराजिक १४ ॥२॥ पद्यदान १५, अग्निदान १६, उदकदान १७, रज्जुप्रदान १८ ॥ ३ ।। " तुम डरो मत-मैं भी तुम्हारे पक्षमें मिल जाऊँगा" इत्यादि ચોરીના અઢાર પ્રકાર નીચે પ્રમાણે છે – "भलनं १, कुशलं २, तर्जा ३ राजभागो ४ ऽवलोकनम् । अमार्गदर्शनं ६ शय्या ७ पदभङ्गा८ स्तथैव च ॥ १ ॥ विश्रामः ९ पादपतन १० मासनं ११ गोपनं १२ तथा । खण्डस्य खादनं चैव १३ तथान्यन्मोहराजिका १४ ॥२॥ पद्या १५ ग्न्यु १६ दक १७ रज्जूनां १८ प्रदानं ज्ञानपूर्वकम् । एताः प्रसूतयो ज्ञेया अष्टादश मनीषिभिः ॥३॥ (१) मान, (२) शत, (3) dot (४) मा (५) Aqaन, (६) मान, (७) शया, (८) ५४ ॥१॥ (4) विश्राम, (१०) पा५तन (११) मासन, (१२) ।पन, (13) मान, (१४) भो ॥२॥ (१५) पहान, (११) निदान, (१७) ६४ान भने (१८) २०४४प्रदान it3 (१) " तमे २।। भा- ५ तमा२॥ पक्षमा भजी ४" मेरे प्र० ४३ For Private And Personal Use Only Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ३३८ www.kobatirth.org प्रश्नव्याकरणसूत्रे चौराणामुत्साहदानं १, कुशलं = सुखदुःखादि पृच्छा२, तर्जा = चौरस्य हस्तादिसङ्केत करणं ३, राजभागः = राजकरस्याऽपदानम् ४, अवलोकनं चौर्य कुर्वत - उपेक्षापूर्वक प्रेक्षणं ५, चौर्यमवलोक्याऽपि स्वामिनं प्रत्यकथनमित्यर्थः, अमार्गदर्शन = चौराणांरक्षार्थ मुन्मार्गप्रदर्शनं, चौरमार्गप्रच्छकानामन्यमार्गदर्शनं वा ६, शय्या - चौराय श य्यादानं७, पदभ==पशूनां सञ्चालनेन चौराणां गमनाऽऽगमनमार्गाङ्कितचरणचिह्नलुप्तकरणंद, तथैव विश्रामः = स्वगृहे निवासदानं९, शय्यादानमन्यत्राप्युपवेशनाद्यर्थं " Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्साह वर्धक वचनोंसे चोरोंका उत्साह अधिकबढाना इसका नाम भलन १ | चोरों के सुख-दुःख आदि के समाचार पूछना इसका नाम कुशल है २, हाथ आदि के संकेत से चोरों को इशारा करना इसका नाम तज है ३ । निर्धारित राजटेक्स का नहीं देना इसका नाम राजभाग है ४ । चोरी करते हुए चोर को उपेक्षापूर्वक देखना इसका नाम अवलोकन है, अर्थात् चोर को चोरी करते हुए देखकर के भी अपने मालिक से नहीं कहना - यह भी चोरी का प्रकार है ५। चोरों की रक्षा के अभिप्राय से अन्वेषण करने वालों को उन्मार्ग प्रदर्शन करना इसका नाम अमार्गदर्शन है ६ | चोरों के लिये सोनेको शय्या देना इसका नाम शय्या है ७। चोरों ने जहां चोरी की हो वहां उनके मार्ग में चरणचिह्न अंकित हो गये हो तो उन चिह्नों को नष्ट करने के लिये उन पर से पशुओं को निकालना कि जिससे वे नष्ट हो जायें और पहिचानने में न आने पावे, इसका नाम पदभङ्ग है ८ । अपने घर में चोरों को राजभाग छे, (५) योरी કહે કે ચારને ચોરી ચારીના જ ઉત્સાહ વર્ધક વચના દ્વારા ચારાને ઉત્સાહ વધારવાની ક્રિયાને મજ્જન કહે છે. (૨) ચારાને સુખ દુઃખ વગેરેના સમાચાર લાવનારને કુશજી કહે છે (૩) હાથ આદિના સંકેતથી ચારાને ઈશારા કરવા તેનું નામ તર્તા છે. (૪) નક્કી થયેલ રાજભાગ-રાજ્યના કર ન દેવા તેનું નામ કરતાં ચારને ઉપેક્ષાપૂર્વક જેવો તેને અયોઘ્ન છે, એટલે કરતા જોવા છતાં પણ પોતાના માલિકને નહીં કહેવું તે પણ પ્રકાર છે. (૬) ચારાની રક્ષા કરવાને માટે તેમની શોધ કરનારને ખાટો મા अताववो तेने अमार्गदर्शन उडे छे. (७) थोरीने सूवाने माटे पथारी देवी तेने शय्या उडे छे. (८) थोरोभे ज्यां योरी हरी हाय त्यां તેના ભાગ માં તેનાં પગલાં પડયાં થાય તે તે પગલાંના નાશ કરવાને માટે તેમના પર પશુઆને દોડાવવા કે જેથી તે પગલાં ભૂંસાઈ જાય અને ઓળખી ન શકાય. આ પ્રકારે પગલાંના નિશાનનો નાશ કરવાની ક્રિયાને પદ્મ કહે છે. (૯) For Private And Personal Use Only Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० ३ सू० ११ कीदृशाश्चौराः कीदृशफलं लभन्ते ! ३३९ शयनीयवस्तुदानमित्युभयोर्भेदः पादपतनं प्रणामादिना चौराणां सत्कारसम्मानकरणम् १०, आसनम् आसनदानं ११, गोपनं नाऽनेन चौयं कृतं स्वगृहे स्थापयित्वा नास्त्यत्रेति वा कयनेन चौर सङ्गोपनं १२, खण्डस्य खादनं-चौरेभ्योमिष्टानादिदानं १३, तथाऽन्यन्मोहराजिकम् लोकप्रसिद्धया परराष्ट्रे गत्वा वस्तु विक्रयः १४, तथा ज्ञानपूर्वकं='चोरोऽय' मिति बुद्धिपूर्वकं पाद्याग्न्युदकरज्जूनां प्रदान मार्गगमनश्रमापनोदार्थ पाचं पादाय हितमुष्णतैलजलादि, तस्य दानं १५, पाकाद्यर्थमग्निदानम् १६, उदकदान-पानार्थ जलदानं १७, तथा चोरीतगोमठहराना-विश्राम देना इसका नाम विश्राम है ९। शन्यादान और विश्राम में अन्तर केवल इतना ही है कि शय्यादान तो दूसरी जगह ठहरने पर भी दिया जा सकता है परन्तु विश्राम अपने घर में ही दिया जाता है ९ । चौरों के चरणों पर गिरकर उनका आदर सत्कार करना इसका नाम पादपतन है १० । बैठने को आसन देना यह आसनदान है ११ । “ इसने चोरी नहीं की है, घर में होने पर भी घर में चोर नहीं है " इस प्रकार कह कर चोर की रक्षा करना इसका नाम गोपन है १२ । चोरों के लिये खाने को मिष्टान्न आदि देना इसका नाम खण्ड खादन है १३ । नाका बंदी होने पर दूसरे स्थान में, अथवा लोक प्रसिद्धि से परराष्ट्र में एकदेशसे ले जाकद दूसरे देशमें बेचना इसका नाम मोहराजिक है १४ । “ यह चोर है " ऐसा जानकर भी उसे पद्य, अग्नि, उदक, रज्जु देना, पैरों की थकावट मिटाने के लिए गर्म जल तैल आदि का देना पद्य है १५ । भोजन बनाने के लिये अग्नि देना १६ । ચોરેને પિતાના ઘરમાં આશ્રય આપે તેને વિશ્રામ કહે છે. શય્યાદાન તથા વિશ્રામમાં તફાવત એટલે જ છે કે શય્યાદાન તે બીજી જગ્યાએ રહે તે પણ આપી શકાય છે. પણ વિશ્રામ પિતાના ઘરમાં જ અપાય છે. (૧૦) योराने य२णे नभीने तेनो मा६२ स४।२ ४२यो, तेथे पादपतन छ, (११) मेसथाने भासन मा५यु, तेने आसनदान ४ छ, (१२) “ ! भासे ચોરી કરી નથી, ઘરમાં ચોર છુપાવ્યો હોય છતાં પણ ચોર ઘરમાં નથી ” એ પ્રમાણે કહીને ચોરની રક્ષા કરવી, તેને જોવા કહે છે. (૧૩) ચોરેને भावाने भाटे भिष्टान्न पु, तेने खण्डखादन ४ छे. (१४) ना.धी डापा છતાં બીજી જગ્યાએ અથવા એક દેશમાંથી લઈ જઈને બીજા દેશમાં માલ वेययो, तेने मोहराजिक 3 छ. (१५) “ । यो२ छ" मेवी मण२ डापा छतi ५ तेने ५५, मनि, Ges (riel), २०१४ (३२) हे ते पान ચોરીના જ પ્રકારે છે, પગને થાક દૂર કરવાને માટે ગરમ પાણી, તેલ આદિ For Private And Personal Use Only Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे हिमादि बन्धनाथै प्रासादादिवारोढुं वा रज्जुदानम् १८, इत्येतान्यष्टादशवि. धानि प्रवत्यः चौर्यकरणानि । पुनः कीदृशास्ते परद्रव्यापहारिणः ? इत्याह-'पाइयंगुवंगा' पतिताङ्गोपारा-पातितानि-बोटितान्यङ्गानि हस्तपादादीनि, उपाङ्गानि च-अङ्गुलिकेशश्मश्यादीनि येषां ते तथा, कलुणा' करुणाः दीना:-पापमलिना इत्यर्थः 'सुकोढकंठगमतालुजिब्मा' शुष्कोष्ठकण्ठगलतालुजिह्वाः ओष्ठौ कण्ठः अक्षरोच्चारणस्थानं मस:-तदधो भागः तालुः प्रसिद्धं एतेषां समाहारः, जलं विना शुष्कमोष्ठकण्ठगलपालु जिहवं येषां ते तथा, 'तण्हा इत्ता' सृष्णादिताः पिपासाऽऽकुलिताःसन्तः 'पापियं जायंता' पानीयं याचमानः: ' विगयजीवियासा ' विगतजीविताशा जीवनाशारहिताः ' वराकाः मन्दपुण्याः ‘बझपुरिसेहिं घाडियंता' वध्यपुरुषैबीम के लिये जल देना १७, चुराई गई भैंस आदिको बांधने के लिये तथा मकान आदि की छत पर चढाने के लिये रस्सी देना १८। ये १८ प्रकारकी की चोरियां हैं ।। ३ ॥ __ (पाइयंगुवंगा) ये परद्रव्यापहारी चोर हाथ पैर आदि अंगों में तथा अंगुली, केश, इमश्रु दाढीमूछ आदि उपांगोंमें कभी भी अक्षत नहीं रहते हैं ! (कलुणा) ये सदा पाप से मलिन बने रहते हैं । तथा (सुक्कोट्ट कंठगलतालुजिम्मा ) पानी के विना ओष्ठ कंठ गला ताल तथा जिह्वा ये सब इसके शुष्क होते (मूकते ) रहते हैं । (तण्हाइया ) पिपासा से आकुलित होकर ये ( पाणियं जायंता) " पानी लाओ पानी लाओ" इस प्रकार याचना करते हुए (विगयजीवियासा ) कभी २ अपने जीवन की आशा से भी रहित हो जाते हैं। (वरागा) इन अभागों को (वन्झદેવાં તે ક્રિયાને પા કહે છે, (૧૬) ભેજન બનાવવાને અગ્નિ આપો, (૧૭) પીવાને માટે પાણી આપવું અને (૧૮) ચેરેલી ગાય, ભેંસ આદિને બાંધવા માટે અને મકાન આદિના છાપરા પર ચડવાને માટે દેરડું દેવું, એ ૧૮ (અઢાર) પ્રકારની ચોરી હોય છે. ૩ साथ--" पाइयंगुवंगा" ते ५२धनतुं अपड२६॥ ४२ ॥२॥ योर सोना હાથ પગ આદિ અંગ, તથા આંગળીએ, કેશ, નાક, કાન આદિ ઉપાંગે કદી या मक्षत (छेहाया विनाना) तi नथी. “ कलुणा” तेसो पायथी सही भलिन २३ छ, तथा “ सुकोद्रकंठगलवालुजिब्भा" तभना , ४४, गण, au तथा म प विना शु (सूया ) २२ 2. “ तण्हाइया" त२सथी व्याण थने ते खो " पाणियं जायंता" " ५ipl सापो, पाell, roll aat " की यायना ४२ता ४२॥ “विगय जीवियासा" या२४ तो पानी सा पछाडी हे छे. “वरागा" ते मियामाने “वन्झपुरिसेहि" १५स्थान For Private And Personal Use Only Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुर्शिनी टीका अ० ३ सू० १६ कीदृशाश्चौराः कोदशं फलं लभन्ते ? ३४१ ोटयमानाः-वध्ये वध्यस्थाने शूलारोपणस्थाने पुरुषैः तत्र नियुक्तैः राजपुरुषैः ध्राहयमाणाः यमाणाः नीयमाना इत्यर्थः, 'तं पि य न लहंति ' तदपि च न लभन्ते जलमात्रमपि पातुं न माप्नुवन्ति, किमन्य ? दित्यर्थः ॥ मू० १५ ॥ अपि च-तत्थ य ' इत्यादि। मूलम्-तत्थ य खरफरुस-पडह-घट्रिया-कूडग्गहगाढरुट्ठनिसिट्र परामट्ठा वज्झकरकुडिजुयनिवासिया सुरत्तकणवीरगढियविमुकुल कंठे गुणवज्झ-दूय-आविद्धमल्लदाममरण भयुप्पण्ण सेयआयतणेहुत्तप्पियकिलिण्णगत्ताचुण्गगुंडियसरीररयरेणुभरियकेसा कुसंभगुक्किण्णमुद्धया छिण्णजीवियासा घुण्णता वज्झपाणप्पिया तिलं -तिलं चेव छिज्जमाणासरीरविकत्तलोहिओ-लित्तकागणिमंसाणिखावियंता पावा खरकरसएहिं तालिजमाणदेहा वातिगनरनारिसंपरिवुडा पिच्छिज्जंता य नागरजणेण धज्झनेवत्थिया पणिज्जंति णगरमज्जेण किवणकलुणा अत्ताणा असरणा अणाहा अबंधवा बंधुविप्पहीणा विपिक्खंता दिसोदिसिमरणभयुविग्गा अघायणपडिदुवारसंपाविया अधण्णा मूलग्गविलग्गभिण्णदेहा,ते य तत्थ कीरति परिकप्पियंगुवंगा।सू०१६॥ टीका-'तत्थ य' तत्र च वध्यस्थाने 'खरफरुसपडघट्टिया' खरफरुषपटहघटिताःतत्र खरपरुषः शूलारोपणादि सङ्केतनचकत्वादत्यन्तकठोरो यः पटहः= 'ढोल' पुरिसेहिं ) वध्यस्थान पर नियुक्त हुए पुरुष जय ( घाडियंता) वध्यस्थान पर लेकर चलते हैं तो इन्हें वहां (तंपि य ) एक बिंदु जल भी पीने को (न लहंति) नहीं मिलता है । ऐसी इनकी दशा बन जाती है।सू०१५॥ फिर भी कहते हैं-- तत्थ य' इत्यादि। टीकार्थ-(तत्थ य खरफरुस पडघट्टिया) वहां वध्यस्थान पर एक ढोल पनियुत थयेस पुरुषो न्यारे “घाडियंता" वधस्थान त२३ १४ नय छे, त्यारे तभने त्यो “तंपि य” पावाने पाएन से टी ५४ " न लहंति "भगतुं નથી. તેમની એવી દશા થાય છેસૂ. ૧૫ quी सूत्र४२ ॥ एन ४२ छ-" तत्थ य" त्यादि. टी -“तत्थयखरफरुसपडपट्टिया' त्यां यथाने .मेsane २ छे. For Private And Personal Use Only Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३४२ प्रश्नव्याकरणसूत्रे इति भाषा प्रसिद्धस्तेन वाद्यमानेन सह राजपुरुषै नीयमानाः सन्तो घट्टिताः = वेष्ट्यादिभिस्ताडिताः मार्यमाणा इत्यर्थः, 'कूडग्गहगाढख्दनिसिद्धपरामट्टा ' कूटग्रह गाढरुष्ट निसृष्टपरामृष्टाः = तत्र कूटग्रहत्वात् = कूटेन उलप्रपञ्चेन चौरस्य परधनग्राहित्वाद गाढरुष्टे:- अतिक्रुद्धैः राजपुरुषैः निसृष्टा : अपहृतधनाः, निर्धना इत्यर्थः, पुनः परामृष्टा च = गृहीता ये ते तथा 'बज्झकर कुडिजुय निवसिया' बध्य करकुटीयुगनिवसिताः वध्यानां यत् करकुटोयुगं निन्द्यवस्त्रविशेषद्वयं तन्निवसितं परिधाषितं येषां ते तथा वध्यवज्रधारिण इत्यर्थः, 'सुरतकणवीरगदियविमुकुलकंठे गुणलज्झदूय आविद्धमलदामा ' सुरक्तकणवीरग्रथित विमुकुलकण्ठे Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रहता है और जब जिसका शूलारोपण का होता है तब वह बजता है अतः शूलारोपण आदि संकेत का सूचक होने से वह खरपरुब - अत्यंत कठोर माना गया है, जैसे ही वह बजाता है कि राजपुरुष उस वध्य व्यक्ति को साथ में लेकर चल देतें हैं । और रास्ते में वे उनचोरों को वेत्र - यष्टयादि से ताडित भी करते जाते हैं । ( कूडा हगाढ रुट्ट निसि परामट्ठा) ये राजपुरुष उन चोरों पर ( कूडग्गह ) छलप्रपंच से परधन को अपहरण करने के कारण ( गाढरुड) अत्यंत रुष्ट हो जाते हैं, और इसी से ( निसिड) अपहृत द्रव्य को छीन भी लेते है, और बाद में उन्हें (परा - मट्ठा) पकड़ लेते हैं (बज्झकर कुडि जुयनिवसिया ) जब वे शूली पर उन्हें चढाने के लिये ले जाते हैं तो इसके पहिले उन्हें वे वच्यपुरुषों को ( वज्झकर कुडिय) पहिराने के योग्य निंद्य दो वस्त्र ( निवसिया ) पहिरा देते हैं (सुरतकणवीरगहिय विमुकुल कंठे गुणवज्झ दूय आविद्ध ܕܕ = જ્યારે કોઇને શૂળી પર ચડાવવાના સમય થાય છે ત્યારે તે વગાડવામાં આવે છે. તેથી શૂલારાપણુ આદિ સ`કેત દર્શાવનાર હોવાથી તેને સરવણ અત્યંત કુઠાર કહેલ છે. જેવો તે ઢાલ વાગે છે, કે તે રાજપુરુષો તે વષ્ય વ્યક્તિને લઈને ઉપડે છે, અને રસ્તામાં તે લોકો તે ચોરેને સોટી, લાકડી આદિથી इटारे छे. कूडग्गहगाढ रुडुनिसिटू परामट्ठा " ते राभ्पुरुषो ते थोरो पर 4: CL कूडग्ग्रह " छपटथी परघननुं हर उखाने सीधे " गाढरुटु અત્યંત छोघे लराय छे, अने तेमनी पासेथी ते बोओ "निसिट्ठ ” ચોરેલાં દ્રવ્યને छीनवी पशु से छे, भने पछी तेभने “ परामट्ठा " पहडी से छे. " वज्झकरकुडिजुयनिवसिया " જ્યારે તેઓ તેમને શૂળીએ ચડાવવા લઇ જાય છે ત્યારે વધ્ય પુરુષાને પહેરાવવા वज्झकरकुडिय લાયક, એ નિંદ્ય વસો "निवखिया" तेभने डेशवे छे "सुरतकणवीरगद्दियविमुकुलकंठे गुणव 66 For Private And Personal Use Only " Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० ३ सू० १६ कीदृशाश्चौराः किदृशंफलं लभन्ते ? ३४३ गुणवध्यदूताविद्धमाल्यदामानः, तत्र सुरक्तैः कणवीरैः-पुष्पविशेषैः प्रथितं= गुम्फितं विमुकुलं-विकासितं कण्ठे गुण इव-कण्ठमूत्रमिव तथा वध सूचकत्वात् वध्यदतः वधचिन्हम् ,-आविद्धं-परिहितं माल्यदाम=पुष्पमाल्यं येषां ते तथा, 'मरणभयुप्पण्णसेयआयतणेहुत्तप्पिय किलिण्णगत्ता' मरणभयोत्पन्नस्वेदायतस्नेहोत्तपितक्लिनगात्राः, तत्र मरणभयादुत्पन्नेन स्वेदेन अस्वेदेन आयतः सर्वाङ्गे व्याप्तो यः स्नेहः= आर्द्रता तेनोत्तपितानि सन्तप्तानि क्लिनानि आर्टीकृतानि च गात्राणि-शरीराणि येषां ते तथा, मरणभयोत्पन्नप्रस्वेदार्टीभूतशरीरा इत्यर्थः, 'चुण्णगुंडियसरीरा' चूर्णगुण्डितशरीराः = ' चूना' इति भाषाप्रसिद्धचूर्णद्रव्यावगुण्ठितसर्वाङ्गाः, ' रयरेणुभरियकेसा' रजो रेणुभस्तिकेशाः रजोरेणुभिः धृलिभिर्भरिताः संभृताः केशा येषां ते तथा, 'कुसंभगुकिण्णमुद्धया' कुसम्भमल्लदामा ) ( सुरत्तकणवीरगहिय) कनेर के लालफूलों से गूंथी हुई (विमुकुल ) विकसित कंठे गुणकंठसूत्र तथा ( वज्झदूर ) वधसूचक होने से वध्यदूत-वधचिह्न स्वरूप ऐसी (आविद्धमल्लदामा ) फूलमाल जिनको पहिनाई जाती है (मरणभयुप्पण्णसेयआयतणेहु त्तप्पिय किलिण्णगत्ता ) (मरणभयुप्पण्णसेय ) मरण के भय से उत्पन्न हुए स्वेदपसीने से (आयतणेह ) इनके अंग गीले हो जाते हैं इससे इनका शरीर ( उत्तप्पिय ) जलने लगता है जिससे (किलिण्णगत्ता) इनका सब शरीर पसीने से झरता रहता है( चुण्णगुंडियसरीरा) इनके शरीर पर चूना लपेट दिया जाता है जिससे अधिक जलन होती है। तथा (रयरेणुभरियकेसा ) इनके केशों पर बाहर की धूलि उड़कर भर जाती है। कारण उनके पास उस समय ऐसे साधन नहीं होते हैं जिससे ज्झदूयाविद्धमल्लदामा " " सुरत्तकणवीरगहिय " रेनो सास सोमाथा थेदी “ विमुकुल" मा हेमा म२६५ २वी, “ वज्झदूय" ५५ सूय: पाथी-वध्यतयथित वी " आविद्ध मल्लदामा " दूसमा भने पडेशवामां आवे छे. " मरणभयुप्पण्णसेयआयतणेहुत्तप्पियकिलिण्णगत्ता " "मरणभयुप्पण्णसेय " भ२ना अयथी उत्पन्न थये। पसीनाथी “ आयतणेह " तभनi A1 Alli थाय छे, अयथी तमना शरी२ " उत्तप्पिय" ni सागे छ, भने ते रणे " किलिण्णगत्ता" तेभर्नु मामु शरीर ताण याय छ. “चुण्णगुंडिय सरीरा" तेभनय शरीर ५२ यूनो यो५७यो साय छ, था शरीरभ पधारे मात थाय छ, तथा " रयरेणुभरियकेसा " तेमना पाणमा બહારની ધૂળ ઉડીને ભરાય છે, કારણ કે તે સમયે વાળ ઓળવાનાં સાધન तभनी पासे खातi नथी. :" कुसुमगुक्किण्णमुद्धया " " कुसुमग" औसुभा For Private And Personal Use Only Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir D ३४४ प्रश्नव्याकरणसूत्रे कोत्कीर्णमूर्धनाः कुसुम्भकेनरागविशेषेण उत्कीर्णाः व्याप्ता मूर्धजाः केशा येषां ते तथा रक्तरागरञ्जितकेशधारिण इत्यर्थः, 'छिण्णजीवियासा' छिन्नजीविताशाः जीवनाशारहिताः 'घुण्णता' घूर्णमाना=मरणभयव्याकुलत्वात् 'वज्झपाणप्पिया वध्यप्राणप्रियाः अध्याहन्तव्या एव प्राणाः प्रियाः येषां ते तथा, ' तिलं तिल चेव छिज्जमाणा' तिलं तिलमिवछिद्यमानाः राजपुरुषैः प्रत्यङ्गोपाङ्गं त्रोटयमाना इत्यर्थः, ' सरीर विकत्तलोहिओलित्तकागणिमंसाणि खावियंता' शरीरविकृत्तलोहितावलिप्तकाकणी मांसानि खाद्यमानाः, तत्र-चौरस्येव शरीराद् विकृत्तानि खण्डितानि लोहिताबलिप्तानि यानि काकणी मांसानि-मांसखण्डानि तानि खाद्यमानाः राजपुरुषैः शस्त्रादिकर्तितस्वमांसखण्डानि खाद्यमाना इत्यर्थः, 'पावा' पपााः केश संस्कारित किये जा सकें (कुसुंभमुकिण्णमुद्या ) ( कुसुंभग) कुस्सुम्भ रंग से ( उकिण्णमुद्धया ) इनके केश रंजित कर दिये जाते हैं। (छिन्नजीवियासा ) ये विचारे अपने आपको मानने लगते हैं कि अब हम थोड़ी देर में ही मरने वाले हैं, अतः इनके जीवन की आशा टूट जाती है । (घुण्गंता ) मरणभय से व्याकुल होने के कारण इनका दिमाग चिक्कर खाने घूमने लग जाता है। ( वज्झपाणप्पिया ) इन्हें वध्य-मारे जाने वाले अपने प्राग ही बड़े प्रिय होते हैं । अर्थात् उस समय इन्हें कोई भी वस्तु प्रिय नहीं होती है, केवल अपने प्राण हो-जो कुछ देर बाद नष्ट हो जानेवाले हैं सबसे अधिक प्रिय लगते हैं । (तिलं तिलं चेव छिज्ज. माणा) राजपुरुष इनके अंगोपांगों को तिल तिल की तरह काट २ कर अलग २ कर डालते हैं। (सरीरविकत्तलोहिओलित्तकागणिमंसाणि खावियंता ) वे राजपुरुष ( सरीराविकत्त ) काटे गये इनके शरीर से निकले हुए ( लोहिओवलित्त ) लोही से लिप्त ऐसे ( कागणिमंसाणि) मांस के छोटे छोटे टुकड़ों को (खावियंता) उन्हें खिलाते हैं (पावा) २या “ उक्किण्णमुद्धया" तेमना वाण २७ नम आवे छ. “ छिन्नजीवियासा" ते मिया सम तय छ । ३. अभे थे। सभयना महमान छीमे, मेटले तेमनी सवानी माश! तूट नय छ घुण्णंता " भातना लयथी व्या थवाथी तमना भगत २५२ २७२ धूभा सागेछ "वज्झपाणप्पिया" તેને વધ્ય–જેને વધ થવાને છે તેને પિતાના પ્રાણ જ સૌથી વહાલા લાગે છે, એટલે કે તે સમયે તેને બીજી કઈ પણ ચીજ ગમતી નથી, પણ ચેડા સમય પછી જેને નાશ થવાને છે તે પ્રાણુ જ સૌથી વધારે પ્રિય લાગે છે. " तिलंतिलं चेव छिज्जमाणा" २० पुरुषो तो तेमन A Guiगाना तस त २१ २४८ ४२ छ " सरीरविकत्तलोहिओलित्तकागणिमंसाणिखादियंता " તે રાજપુરુષ લેહીથી ખરડાયેલા માંસના નાના ટુકડાઓ તેમને ખવ For Private And Personal Use Only Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनीटीका अ० ३ सू० १६ चौराः किं फलं लभन्ते ? पापिनः ‘खरकरसएहिं ताढिज्जमाणदेहा' खरकरशतैस्ताड्यभानदेशः अतिचिकणपाषाणभृतचर्मकोशशतैः 'कंकरभरे चाबुक' इति भाषाप्रसिद्धैः ताडयमानदेहा -ताडयमानशरीराः तथा 'शातिगतरनारिसंपरिचुडा' वातिक नरनारीसम्परिवृताः तत्र-वातिकैः-उच्छृालैः नरैनारीभिश्च संपरिद्रताः-युक्ताः मर्यादावर्जितनरनारीवृन्दवेष्टिता इत्यधः, पिच्छिज्जता य नागरजणेण ' नागरजनेन दृष्टुं समागतेन प्रेक्ष्यमानाः 'वज्झनेवस्थिया' वध्यनेपथ्यिका योग्यं नेपथ्यं येषां ते वध नेपयिकाः परिधृतघातपत्रवेपाः, 'गरमझेग' नगरमध्येन=पुरमध्यभागमार्गेण ‘पणिज्जति ' प्रणीयन्ते नीयन्ते 'किविणकलुणा' कृपणकरुणाः कृपणेष्वपि करुणा अतिदीना इत्यर्थः, 'अत्तागा' अत्राणा-त्राणवर्जिताः अनर्थनिवारकाभावात् 'असरणा' अशरणाः शरणहीना:-योगक्षेमकारिरहितत्वात् अतएव 'अगाहा ' अनाथा: नायवर्जिताः 'अबंधया' अवान्धवाःबान्धवरहिताः तथा ये बड़े अधिक पापी होते हैं। (खरकरलएहि ) अतिविकण पाषाणखंडों से भरे हुए ऐसे सैकड़ों कोड़ों की (तालिजमाणदेशा) इनके शरीर पर मारपड़ती है। तथा (वातिगमरनारिसंपरिचडा) मर्यादा वर्जित नरनारि गण से वेष्टित रहते हैं । (पिच्छिज्जता य नागरजणेण ) इन्हें देखने के लिये नागरिकजन आते हैं। (बझ नेवत्थिया) इनकी वेशभूषा वध्ययोग्य होती है । (णगरमझेण पणिज्जति ) राजपुरुष इन्हें नगर के भीतर से होकर ही निकालते हैं। (शिविषालुणा ) उस समय ये दीनों से भी अतिदीन होते हैं (अत्ताणा) अनर्थ को निवारण करने वाला कोई नहीं होने से इनकी कोई रक्षा करने वाला नहीं होता है, इसलिये ये अत्राण होते हैं, ( असरणा) योग, क्षेमकारी पुरुष से रहित होने के कारण ये अशरण-शरण हीन होते हैं। (अणाहा) अनाथ रक्षकके अभाव से ये अनाथ होते हैं, तथा (अवंधवा ) बंधुओं के अभाव से शवे ।", "पावा" ते प पायी जाय छ. "खरकरमप”ि भतिशय थि! पत्थना १४थी लरेसा ३४१२७मान। "तालिजमाणदेहा" तभनां शरी२ ५२ भा२ ५४ छ. तथा "वातिगनरनारिसंपरिखडा" माह २डित श्री पुरुषोना समूडथी तेमा वीट येस२७ छ. "पिच्छिज्जेता य नागरजणेण" तेमने नवाने भाट नागरि२०२!! ४२ 2. "वज्झनेवत्थिया" तेन पाषा वध्याने याय यछे. " णगरमझेण पणिज्जति" २२०० पुरुषो तेमने नमनी पथ्ये २७२ स य छे. "किविण कलुणा" त्यारे सीने भतिशय हीन४२मनुलवे छ. "अच्चाणा" ते યાતનામાંથી તેમને બચાવનાર કેઈ ન હોવાથી તે લેકે રાત્રાના રક્ષણવગરના હેયछे, " असरणा” भने । २।५ना 15 पुरुष न पाथी ते २५२२६१ डाय छे. "अणाहा" २६४ने असावे. तस। मनाथ जय छ, “अबंधवा" प्र.४३ For Private And Personal Use Only Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ३४६ www.kobatirth.org प्रश्नव्याकरणसूत्रे 'बंधुविप्पहीणा' बन्धुविप्रहीणाः =बन्धुवियुक्ताः, 'दिसोदिसि विपिक्खता' दिशो दिशं विमेक्षमाणाः एकरपा दिशोऽन्यां दिशं पश्यन्तः 'मरणभयुच्चिग्गा ' मरणभयोद्विग्नाः=मृत्युभयव्याकुला:='आघायणपडिदुवारसं वानिया' आवातनमतिद्वारसंभाविताः = आघातनमतिद्वारं = बध्यभूमिद्वारं तत्र संप्रापिता:नीता ये ते तथा, ' अघण्णा ' अधन्याः- भाग्यहीनाः अदत्तादायित्वात् 'सूलगविलग्गभिण्णदेहा शूलाग्र विलग्नभिन्नदेहाः, तत्र - शूलाग्रे विलग्नः = आरोपणेन संलग्नः भिनव देहो येषां ते तथा ' ते ' ते च = अदत्तादायिनः ' तत्थ ' तत्र घातनद्वारे वधबन्ध मारण निर्भर्त्सना लारोपणादि यातनास्थाने 'परिकप्पियंगुरंगा' परिकल्पिता ङ्गोपाङ्गाः कर्त्रीप्रभृतिशस्त्रेः कर्त्तितकर्णनासिकाश्रवयवाः ' कीरंति ' क्रियन्ते, दण्डविधायिराजपुरुपैरिति । सू० १६ ।। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ये बिना बंधु के होते हैं । ( बंधुविप्पहीणा ) बांधवजन होने पर भी वे इन्हें छोड़ देते हैं । इसलिये ये बन्धु हीन होते हैं (दिसोदिसं विपेक्खता) विचारे ये एक दिशा से दूसरी दिशा का ही अवलोकन करते रहते हैं और ( मरणभव्विग्गा ) मृत्यु के भय से व्याकुल बने रहते हैं। इस तरह की स्थिति संपन्न बने हुए इन अदत्तादायी जनों को वे राजपुरुष लाकर (आघायणपडिदुवार संपाविया) वध्यभूमि के द्वार पर उपस्थित कर दिये जाते हैं। क्यों कि (अण्णा) ये अदत्तग्राही जन अभागे होते हैं । (सूलग्गविलग्गभिण्णदेहा ) इन चोरों का शरीर शूल के अग्रभाग पर आरोपित कर देने के कारण छिन्न भिन्न हो जाता है । (ते प तत्थ ) वहां उस वध, बंध, मालण, निर्भर्त्सन, शूलारोपण आदि यातना के स्थान में उनके ( परिकप्पियंगुवंगा ) अंग एवं उपांग अर्थात् नाक कान आदिको कैंची आदि शस्त्रों से काट दिये जाते हैं ॥ लू - १६ ॥ ܕ मधुमो अलावे तेथे अमन्धु होय छे. " बंधुविष्पहीणा " मधुनो होय तो पशु तेभना द्वारा तेमनेो त्याग उशय छे, “ दिसोदिसं विपेक्खता " सेवी પરિસ્થિતિમાં તે બિચારા એક દિશા તરફથી ખીજી દિશા તરફ જોયા કરે છે. અને मरणभयुव्विग्गा મરણના ભયથી વ્યાકુળ બને છે. આ પ્રકારની સ્થિતિમાં મૂકાયેલા તે ચારાને રાજપુરુષા લાવીને घाण पडदुवार संपा विया " वधस्थाननां हरमाने हार पुरे छे. अशु अघण्णा " ते महत्तथाडी- थोर बोडो उमनसीम होय छे. “ सूलग्गविलग्गभिण्णदेहा " ते योशनां શરીર શૂળીના અણીદાર ભાગા પર ચડાવવાને કારણે છિન્ન ભિન્ન થઈ જાય छे. अने" ते य तत्थ ” त्यां ते वध, गंध, भारण, निर्लर्सन, शूझाशपशु આઢિ યાતના દેવાને સ્થાને તેમનાં परिकल्पयंगुवंगा " अगोपांगो, भेटले કે નાક, કાન આદિને કાતર આદ્ઘિ શસ્ત્રો વડે કાપી નાખવામાં આવે છે. ાસૂ.૧૬।। For Private And Personal Use Only 66 Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ०३सू०१७ अदत्तादायिनः यत्फलं प्राप्नुवन्ति तन्निरूपणम् ३४७ पुनरप्यदत्तादायिनो यथाफलं प्राप्नुवन्ति तदाह-' केइ ' इत्यादि । मूलम् केइ उल्लं बिज्जति रुक्खसालेहिं कलणाइ विलवमाणा । अवरे चउरंगधणि य बद्धा पव्वयकडगा पमुच्चंते दूरपातबहुविसमपत्थरसहा । अण्णे य गयचलणमिलण निम्मदिया कीरति । पावकारी अट्ठारस खंडिया य कीरति मुंडपरसुहिं । केइ उकित्तकण्णोहनासा उप्पाडियनयण - दसण वसणाजिब्भिदियं चिया छिण्णकण्णसिरा पणिज्जति । छिज्जंति य असिणानिव्विसया ठिपणहत्थपाया य पमुच्चंति।जाव जीवबंधणाय कीरंति । केइ परदव्वहरणलुद्धा कारग्गलनियल-जुयलरुद्धा चारगालये हयसारासयणविप्पमुक्का मित्तजण निरकिया निरासा बहुजण धिक्कारसदलजाइया अलजा अणुबद्ध खुहापरद्धा सीउण्ह तण्हवेयणदुघघट्टिया विवण्णमुहविच्छवियाविहलमालिण दुब्बला किलंता कासंता वाहिया य आमाभिभूवगत्ता परूढ नहकेसमंसुरोमामलमुत्तम्मि णियगम्मि खुत्ता तत्थेव मया अकामना बांधिऊण पाएसु कहिया खाइयाए छूढा, तत्थ य विग-सुणय-सियाल-कोलमज्जार-वंद संडासतुंडपक्खिगणविविहमुहसय-विगुत्तगत्ता कयविहंगा । केई किमिजाय कुहिय देहा अणि? वयणेहिं सप्पमाणा सुटुक्कयं जं मओ ति पात्रो तुटेण जणेण हयभाणा लज्जावणगा य हुंति सयणस्स वि य दीहकालं ॥ सू० १७॥ टीका-केइ केचित् अदत्तादायिनः महाकष्टानुभवनेन ' कलुणाइ विळवमाणा' करुणानि वचनानि विलपन्तः 'रुक्खसालेहि' वृक्षशाखासु 'उल्लं विज्जति' उल्लम्व्यन्ते रज्ज्यादिभिगर्लबन्धनेन वृक्षशाखासु आरोप्यन्ते इत्यर्थः । ' अवरे , अपरे केचनाऽदत्तादायिनः 'चउरंगधणियबद्धा' चतुरङ्गधणियबद्धाः = चतुर For Private And Personal Use Only Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे शानिनस्तावपादद्वयरूपाणि 'धणियं ' अत्ययं बद्धानि येषां ते तथा दबद्धहस्तपादाः, 'पन्चयकड गापाच्चंते ' पर्वतकटकात् प्रमुच्यन्ते-गिरिशिखरानिपात्यन्तेऽत एव 'दूरपातबहुविसमपत्थरसहा' दूरघातबहुविषमप्रस्तरसहाः = बहुविघमेषु= अत्यन्तविषमेषु निम्नोन्मतेषु मस्तरेषु-पापाणेषु यो दूरात् पातः निपतनं तं सहन्ते ये ते तथा भवन्ति । ' अण्णेय ' अन्ये च ‘गयचलणमलगनिम्मदिया कीरो' गजचरणमलननिर्मर्दिताः, तत्र – गजचरणेन-इस्तिपादेन यन्मलनंमर्दनं तेन निर्मर्दिताः सम्मर्दितशरीराः क्रियन्ते । तथा ' पावकारी 'पापकारिणः फिर वे अन्तग्राहो चोर जिल फल को पाते हैं-' केइ' इत्यादि । टीकार्थ-(क) किसनेक अदत्तग्राही मनुष्य ( कलुगाइ विलयमाणा) महाकष्टोको भोगनेके कारण करुणवचनों से विलाप करते हुए (रुक्खसा हिं) वृक्षोंकी शाखाओं में (उल्लं पिज्जति) रस्सी आदि से बांधकर लटका दिये जाते हैं । तथा ( अवरे ) कितनेक अदत्तग्राही मनुष्य ( चउरंग धणियपद्धा ) दोनों हाथ पैर खूब जकड़ कर बांधकर (पव्ययकडगा ) पर्वत की चोटी से ( पनुचते ) गिरा दिये जाते हैं, अतः वे (दूरपातवि. समपत्थरसहा) वहां से गिर कर नीचे ऊँचे पत्थरों पर बहुत दूरतक गुडकते आने के कारण शरीर में बहुत बुरी तरह छुल जाते हैं। इस तरह के महाभयंकर वेदना को सहन करते हैं । ( अण्णे य) कितनेक अदत्तपाही चोर ( गयचलगमलणनिमदिया) हाथी के पैरों के तले डाल कर मर्दित (कीरति ) करवाये जाते हैं। इस तरह उनके शरीर તે અદત્તાગ્રાહી ચેર જે ફળ પામે છે તેનું વધું વર્ણન કરે છે– "के" त्या साथ - "केई' या महत्तयाही भाणुसाने 'कलुगाइविलवमाणा" भडी४ मावाने ४०५१ क्यनाथी पिता५ ४२॥ " रुक्खसालेहिं " योनी जीमा ५२ " उल्लं बिज्जति" हो२९. माहिथी. piधीने टावी हेवाभा यावे छ. तथा “ अवरे" 23 महत्ताडी माणसाने “चउरंगधणियबद्धा " भन्ने हाथ ५गने भरपूत मांधी “पव्वकडगा" पतनी यथा “पमुच्चंते" नीय सेमी वामां मारेछ, तेथी " दूरपातविसमपत्थरसहा" त्यांथी या નીચા પથ્થર ગબડાવાને કારણે તેમના શરીર ખરાબ રીતે છોલાઈ જાય છે सन ते ते सो मति मय४२ वेदना सहन ४२ छ. तथा “ अण्णेय " सा महत्ताही याराने “गयचलणमलणनिमदिया, थान॥ ५नीय नाभान “ कीरति " ४२११ामां आवे छे. मेरीत थाना ५नीय ४५ For Private And Personal Use Only Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra = सुशिनी टीका अ०३०१७ अदत्तादायिनः यत्फलं प्राप्नुवन्ति तन्निरूपणम् ३४९ ' मुंडपरसुहिं ' मुण्डपरशुभिः भग्नधारकुठारैः ' अट्ठारसखंडिया ' अष्टादशस्थानेषु खण्डिता क्रियन्ते कर्ण - नयन - नासिको ए-कर-चरणानां द्वयं द्वयमिति द्वादश, जिहा - ग्रीवा-कण्ठ-पृष्ठ-वक्षः स्थल-गुह्येन्द्रियमिति षमिलित्वाऽष्टादशस्थानानि भवन्ति । तथा 'के' केचित् 'उकत्तकण्णोहनासा' उत्कृत्तकणैष्ठिनासा:= उत्कृत्ताः- छिन्नाः कर्णः ओष्ठः नासा नासिका च येषां ते तथा 'उप्पाडिनयणदसणवसणा उत्पाटितनयनदशनपणाः, तत्र उत्पाटितानि-उन्मूलितानि नयनानि दशना: दन्ताः कृपणा:- अण्डकोशा येषां ते तथा ' जिम्भिदियंचिया ' जिहेन्द्रियाञ्चिताः जिहवेन्द्रियं अश्चितं गमितम् - आकृष्टं येषां ते तथा आकृष्टजिहवेन्द्रियाः 'छिष्णकणसिरा' छिन्नकर्ण शिरा:= छिन्नकर्णनाड्यः, 'पणिज्जंति' प्रणीयन्ते = शूलाधारोपणाय वध्यभूमौ नीयन्ते । केचित् 'असिणा छिज्जेति ' हाथी के पैरों से मर्दित होने के कारण हडपसलियां चर-चूर हो जाती है और वे बड़े दुःखी होते हैं। तथा कितनेक ( पावकारी ) पापकारी अदत्तग्राही जन (मुंडपरसुहिं) भग्न धार वाले कुठारों से अट्ठारह स्थानों में - कर्ण २, नासिका २, नयन २, ओष्ठ २, कर२, चरण २, (१२) जिह्वा १३, ग्रीवा १४, कंठ १५, पृष्ठ १६, वक्षस्थल १७, एवं गुह्येन्द्रिय १८, मैं पड़ी बुरी तरह से खंडित कर दिये जाते हैं । तथा (केड) कितनेक चोरों के ( उक्कण्णोनासा) कान नाक एवं ओंठ काट दिये जाते हैं तथा ( उप्पाडियनयणदसणवसणा ) नेत्र फोड़ दिये जाते हैं। दांत और अंडकोश उखाड़ लिये जाते हैं । (जिभिदियंचिया ) जीभ खेचली जाती है। (छिण्णकण्णसिरा) कान की नसें तोड़ दी जाती हैं । एवं इस तरह की स्थिति में करके चोरों को वे राजपुरुष (पणिज्जंति) 66 www.kobatirth.org ܕܕ રાવાને કારણે તેમનાં શરીરનાં હાડકાં અને પાંસળીઓના ચૂરે ચૂરા થઇ જવાથી ते दो घड़ी थीडा अनुभवे छे तथा डेंटला " पात्रकारी" पाथी महत्तथाही Aika “żenyfe”” we queal (ysl)şeıslaual “ergizertifeur” widı? જગ્યાએ ઘણીજ ખરાબ રીતે મારવામાં આવે છે. તે અઢાર અગા આ प्रमाणे छे छान २, नासि २, नयन २, डोउ. २, हाथ २, ५०१ २, भूल, श्रीवा, ॐ, पृष्ठ, वक्षस्थल, भने गुह्येन्द्रिय, तथा " केइ " डेंटला थोरोना उक्त्त कण्णो नासा " अन, नाउ भने डोई अयी नामवामां आवे छे तथा “ उष्पाडियनयणदसणवसणा " यांगो छोडी नाथे छे, हांत गने गुप्त अंग ઉખેડી નાખે છે, जिम्भिदिपंचिया " જીભ ખેંચી કાઢવામાં આવે છે, छिष्णकण्णसिरा કાનની નસો તેડી નાખવામાં આવે છે. તેમની એવી हासत उरीने राज्पुरुषो ते योशेने “ पणिज्जंति " शूजी पर सडाववाने स (( ८८ 16 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३५० प्रश्न याकरणसूत्रे असिना-खङ्गेन छियन्ते खडशः क्रियन्ते । तथा 'निबिसिया' निविषयाः= विषयात् देशानिष्कासिताः क्रियन्ते । केचित् 'छिण्णहत्थपाया य ' छिन्नहरतपादाश्च ‘पमुपति' प्रमुच्यन्ते, राजकिङ्करैर्हस्तपादं लिया ।ज्यन्त इत्यर्थः । केचित् ' जावजीवगा य कीरति ' यावज्जिवबन्धनाश्च कितन्ते जीवनपर्यन्तं कारागारे बध्वन्ते । 'केइ परदबहरणलद्धा' केचित् परद्रध्यहरणलुब्धाःपापिनः 'चारगालये' चारकालये कारागारे ' कारग्गलनियलजुयलरुद्धा' कारानलानिगडयुः ०६द्धाःकारार्गलया कागार्गलया निगडयुगछेन-लाह. शु बलाद्वयेन रुद्धा-नियन्त्रिताः भवन्ति । कथंभूतः १ इत्याह - 'हयारी' हृतसाराः = अपहृतद्रव्याः । पुनः कीदृशाः 'सयगविप्पमुका ' जनवि. प्रमुक्ताः = स्वकीयज्ञातिविरहिताः “भिजणनिरकिया " मित्रजननिराकृताः शूली पर चढाने के लिये ले जाते हैं । कितनेक चोर उन राजपुरुषोंद्वारा (असिणा छिज्जति ) तलवारों से काटे जाते हैं (निविसया) कितनेक देश से बाहर निकाल दिये जाते हैं। और (छिण्णहस्थपायाय) कितनेक हाथ पैरों को काट कर यों ही (पमुच्चंति ) छोड़ दिये जाते हैं। तथा कितनेक (जावजीव बंधणा य कीरति ) जीवन पर्यंत कारावास में ही रख दिये जाते हैं । ( केइ परदव्वहरणलुद्धा) तथा परद्रव्यहरण करने में लुब्धक बने हुए कितनेक चोर ( करग्गलनियलजुयल रुद्वा) कारागार की अर्गला के साथ लोह की जंजीरों से जकड़कर ( नरमालये ) कारागार मेंदीद कर दिये जाते हैं। (यसारा ) इनकाय समत रूप से अपहर कर लिया जाता है। ( सयणविप्पमुका) इनके किसी भी स्वजन से इन्हें नहीं मिलने दिया जाता है । (मित्तजगनिरकिया ) इनके orय छे. ४८८॥ योर ते २० सेपछी २“ असिणा छिज्जति ” तपाथी ४५४ anय छ, “निविसया" देशमाथी isी ढपामा आवे छ, भने "छिण्ण हत्थर, २. य" साने थ41 पीनजाने "पमुच्चंति" छोडी भूवामां आवे छे. तथा “ जावज्जीवबंधणाय कीरति टने ७वे त्या सुधी रागडम पूरी रामे छे. “केइ परद-वहरणलुद्धा" (प२धननु अपहरण ४२वानी सालसा वापसा योगने “करग्गलनियलजुयलरुद्ध." राडना मांगनीया साथे वोढानी. सांगोथी मांधीन " चरगालये" (२।भारभा रावामां आवे छे. " हयसारा" तेभन सघणु द्रव्य ४४ ४२वामां मावे . “ सयण विप्पमुक्का" तेभाना आपा स्वराननी भुसात तेमनी साथे थवा देता नथी, “मित्तजणनिरकिया " तमना भित्री ५९५ For Private And Personal Use Only Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ०३सू०१७ अदत्तादायिनः यत्फल प्राप्नुवन्ति तन्निरूपणम् ३५१ मित्रस्त्यक्ताः । निरासा ' निराशाः = जीवनाद्याशारहिताः ‘बहुजणधिक्कारसहलज्जाइया ' बहुजनधिकारशब्दलज्जायिता: बहूनां जनानां धिक्कारवचनैः नायिताः=उज्जा प्राषिताः तथापि अलज्जाः = निर्लज्जाः धृष्टत्वात् ' अणुबद्धघुापरछ, ' अनुबद्धक्षुधापराद्धाः अनुबद्धक्षुधया सततबुभुक्षया अपराधाः पीडिताः 'उण्हतण्हवेयणदुघघट्टिया' शीतोष्णकृष्णावेदनादुपट्ट घट्टिताः , तत्र शीतेन उष्णेन तथा तृष्णया-पिपासया क्षुधयाच या दुर्घटाः= असह्याः वेदना :=पीडास्ताभिः - दुर्घट्ट अतिविकटम्-अतिशयेन घटिताः = पी. डिताः 'विवण्णमुहविच्छविया ' विवणमुखविच्छविकाः = तत्र विवणं मुख= विरूपयुक्तं मुखं ये ते तथा विच्छविकाः = कान्तिरहिता निस्तेजसः । “विहलमलिगदुला' विकलमलिनदुर्बला:-तत्र विफला कारागारे नियां ॥६ दनिष्टफलाः मलिना=किवदना दुर्वलाश्च शक्तिरहिता ये ते तथा 'किलता' मित्रजन भी इन्हें छोड़ देते हैं : (निरासा ) ये चोर वहां जीवत पर्यन्त रहने के कारण अपने जीवन की आशा छोड़ देते हैं। (बहुजणधिकार सद्दलज्जाइया ) अनेक जनों द्वारा धिक्कार के शब्दों से ये लजित किये जाते हैं । फिर भी इन्हें जैसी लज्जा आनी चाहिये वैसी नहीं आती है। कारण ये बहुत अधिक ६६६.न जाते हैं। ( अणुषद्धखुहापरद्धा) रातदिन ये क्षुधा से पीडित बने रहते हैं। (सीउण्हतण्हवेयणदुगदृघटिया) शीत, उष्ण, तृष्णा, क्षुधा जन्य असह्यवेदनाओंसे ये सदा (दुघघट्टिया) अत्यन्त दुःखित बने रहते हैं। ( विवण्णमुहविच्छविया ) इनका मुख सदा कुम्हलाया हुआ रहता है और कांति भी इनकी मलिन रहती है। (विहलमलिणदुव्यला) कारागार में बंद रहने के कारण ये (विहल ) अनिष्ट फलवाले होते हैं-अर्थात् जो ये चाहते हैं वह इन्हें नहीं मिलता તેમને ત્યાગ કરે છે. “જિ ” તે ચરે ત્યાં જીવન સુધી રહેવાના કારણે पोताना पानी ॥२॥ छ। हेछ. "बहुजणविकारसद्दलज्जाइया' भने । ધિકારના શબ્દથી તેમને શરમિંદા કરે છે, છતાં પણ તેમને એવી શરમ થતી નથી, ४।२९५ ते २४ १६ गया डाय छ, “अणुचद्वखुहापरद्धा " रात हिवस ते भूमथी पीउआया ४२ छे “सी उज्हतण्हवेयगदु६४ पट्टिया" 31, १२भी, क्षुधा तृषा यानी मसह येहनाथी ते सहा “दुघदृघाया" सत्यती २७ छ. “ विवा गमु विच्छविया " तेभनुं भुम सहा खान-GIA २७ छ भने तेभनी xiति ५ मसिन २३ छे. “विहलमालेणदुब्बला" १२॥डमा । २उपाने १२ तेम। “विहल " मनिष्ट २०१७॥ य छ, मे.ट तेथे। For Private And Personal Use Only Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३५२ प्रश्नव्याकरणसूत्रे क्लान्ताः लानाः ' कासंता' काशमानाः काररोगेण खू खू' इति शब्दायमानाः 'वाहिया य ' व्याधिताश्च-कुष्ठादिविविधरोगपीडोताः, 'आमाभिभूयगत्ता ' आमाभिभूतगात्राः आमैः = मुक्तानाऽपरिपाकजनितैरतीसारादी नानारोगैरभिभूतानी गात्राणि शरीराणि येषां ते तथा । 'परूढनहकेसांसुरोमा' प्ररूढनख शमश्रुरोमागः, तत्र प्ररूढाः । असंस्कारात् प्रद्धाः नखाः केशाः श्म श्रूणि=मुखजातानि 'दाही' इति भाषा मसिद्धानि रोमाणि च येषां ते तथा 'मलमुत्तम्मि णियगम्मि खुत्ता' निजके मलमूत्रे खुत्ता स्वकीये पुरीषमूत्रे खुत्ता'निमग्नाः 'खुत्ता' इति देशी शदः, कारागारे बद्धाः अन्यत्र गन्नुमशक्यत्वात् स्वकृत. मलमूत्रपुरीषपङ्कएव निमग्नास्तिष्ठन्त्यद तग्राहिण इत्यर्थः। तथा अकामगा' अकामकाः = मरणे छारहिताः 'तत्थेव मया तत्रैव कारागृहे मृताः सन्तः है । ( मलिण ) ये मलिन वदन एवं ( दुयला ) शक्तिविहीन बने रहते हैं। ( किलंता ) ग्लान रहते हैं । तथा ( कासना ) काशरोग से "खूखू" इस प्रकार का शब्द इनके सुख से निकलने लगता है। और ( वाहिया य ) कुष्ठादि विविध रोगों से ये पीडित होते हैं (आमाभिभूयगत्ता ) इनका शरीर अतिसार आदि नाना प्रकार के रोगों का घर बन जाता है । ( परुडमहकेसमंजुरोमा) नख, केश, तथा श्मश्रु-दाढी के बाल समारे नहीं जाने के कारण बहुत बढ़ जाते हैं। और (नियगम्मिमलमुत्तम्मि ) इनकी हालत अधिक गंभीर बन जाती है कि जिससे कारागार में बद्ध ये विचारे अन्य जगह जाने में असमर्थ होने के कारण अपने ही मलमूत्र में (खुत्ता) भरे हुए पड़े रहते हैं। तथा (अकामगा) नहीं इच्छा होने पर भी (तत्थेव) उसी में पड़े पड़े वहीं पर ( मया) २ वस्तुनी ४२७ ४२ ते पस्तु तेमने भगती नथी. “ मलिण " ते सो भलिन पहन वाण तथा "दुब्बला" शति विनान! 45 छ, “किलंता" सानियुटत २९ छ, तथा " कासंता" ५२सने २d “भू-भू” यो ४२i डाय छे. अने "६.हियाय " ते all id मा भने २ौथी पीdi जय . “आमाभिभूयगत्ता" तेभनi शरीर भतिसार माह विविध शगान ५२ मनी तय छ, “परूढनहकेसमंसुरोमा" नग, A तथा दीना पास नहीं पाता डावाथी घ २४ qधीय छ भने " नियगलम मलमुतम्मि" भनी डासत मेवी मीर थ६ नय छ , २मा पूरायेदाते લેકે બીજી જ યાએ જવાને અસમર્થ હોવાથી પિતાના જ મળમૂત્રમાં "खना" म २७ छ. तथा “ अकामगा" रिछा ना छतi ५५ " तत्थेव" त्यir ५७॥ ५४॥ " मया " भरीय छे. त्यार साह "बंधि For Private And Personal Use Only Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 46 सुदर्शिनी टोका अ० सू०१७ अदत्तादायिनः यत्फलं प्राप्नुवन्ति तन्निरूपणम् ३५३ , , f बंधिपाए कडिया' पादेषु वद्ध्वा कृष्टाः = रज्ज्वादिभिर्हस्तपाद उन्धनेन कृष्टाः = बहिर्निष्कासिता ' खाइयाए छूढा' खातायां छूढाः क्षिप्ताः गर्ते चाण्डालादिभिः मक्षिप्ताः क्रियन्ते । 'तत्थय' तत्र च विगणयसियालकोलमज्जारखंद संडासतुंड पक्खिगगविविहमुहसयविलुत्तगत्ता' वृक शुनक - शृगालकोल - मार्जार वृन्द-संडास तुण्डपक्षिगणविविधमुखशत विलुप्तगात्राः, तत्र ' विग ' काः = ' वरगडा ' इति भाषा प्रसिद्धाः, 'सुणय' शुनकाः = कक्कुराः 'सियाल ' शृंगालाः कोला : सूकराः मार्जाराः तेषां वृन्दं समूहस्तेन तथा संदेशतुण्डैः = संदेशयतांक्ष्णमुखतुण्डेः - पक्षिगयानां काकादीनां विविधमुखशतैश्च विलुतानि निःशेषेण खादितत्वाद् अलक्षितानि गात्राणि येषां ते तथा ककुक्कुरशृगालादिभिः विविधपक्षिगणैश्च भक्षितशरीरा: ' कयविडंगा ' कृतविभङ्गा:= वृकादिभिरेव खण्डशः कृताः । तथा ' के ' केचित् मृतेभ्योऽन्ये ' किमि - मर जाते हैं। बाद में (बंधिऊणपाएस ) रज्जु आदि से पैर बांधकर ( इन्हें चांडाल आदि जन ( कडिया) बाहर निकाल कर (खाइयाए छूढा ) किसी खड्डे में ले जाकर पटक देते हैं । ( तत्थ य) वहां फिर उनके कलेवरों को ( विगणयसिपालकोल मज्जार बंद संडासतुंड पक्खिगणविविहमुहसयवित्तगत्ता ) ( बिग) वृक- वगेरे, (सुणय ) शुनक - कुत्ते, ( सियाल) अगाल, ( कोल) सुअर, ( मज्जार बंद ) मार्जार-वन बिलाव आदि हिंसक जानवरों के ( वृन्द- समूह ) एवं ( संडासतुंडप - गण ) संडासी के जैसे तीक्ष्ण तुण्डवाले गृद्ध आदि पक्षियों के समूह (विविहमुहस ) नाना प्रकार के सैकडों मुखों से (विलुत्तगत्ता) तहस नहस कर डालते हैं जिससे 'यह शरीर किस का है' यह नहीं जाना जाता । (कविहंगा) इस प्रकार वृकादिक जानवरों एवं विविधप क्षिगणों से कितनेक इन अभागों के शरीर खाया जाकर खंड २ कर ऊपाणएसु "होरडां माहिथी पण गांधीने यांडास माहि सो तेभने “ कडिढया બહાર કાઢીને खाइयाए छूढा " अ भाडामा वर्धने ठी हे छे. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (6 "" 'तत्थ य त्यां तेमनां भुउढाने विगणयसियालकालमज्जारखं द संडास तुंड" विग " १३, (6 पक्खिगणविविह मुहसयत्रिलुत्तगत्ता " सुणय शुनईतरां, " सियाल " शियाण, " कोल " सुमर, "मजावंद " भरे नंगली मिसाडा, आदि हिंसा पशुओनो समूह भने “संडास 'ड गण साएसी देवी तीक्ष्शु यांयवाणा शीघ्र वगेरे पश्चीमोनो समूह " विविहमुहसय ” વિવિધ પ્રકારની સેંકડા સુખા દ્વારા fagnar" del mug, तेथी " या अनुं शरीर छे" ते लाशी शातु नथी. " कयविहंगा " मा रीते વરૂ આદિ જાનવરો તથા વિવિધ પક્ષીગણેા દ્વારા તે કમભાગીઓન શરીર प्र ४५ 6: For Private And Personal Use Only ܕܕ ܕܐ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे जाय कुहियदेहा ' कृमिजातकुथितदेहाः कृमिजातेन = रोगादि कारणात समूत्पन्नकृमिसमूहेन कुथितदेहाः दुर्गन्धयुक्तशरोराः 'अणिधयणेहि' अनिष्टवचनैः अप्रियवचनैः ‘सुटुकयं जं मोत्ति पा ' सुष्टुकृतं = शोभनं जातं यत् यस्मात् मृतोऽयं पापः = पापी इत्येवं रूपः 'सप्पमाणा' शप्यमानाःआक्रोश्यमानाः 'तुट्टेण जणेण हण्यमाणा ' तुष्टेन जनेन हन्यमानाः तेषां मारणेन प्रसन्नो यो जनस्तेन ताडयमानाः सन्तः ‘सयणस्स विय ' स्वजनस्यापि च किं पुनरन्पेषाम् 'दीहकालं ' दीर्घकालं यावत् 'लज्जावणगाय' लज्जापनकाः= लज्जालज्जारहिता इत्यर्थ ' हुंति' भवन्ति ॥ मू० १७ ॥ एवमिह लोके दुःखमाप्नुवन्तीत्युक्त, अथ परलोके किं भवती ? त्याह'मयासंता' इत्यादि मूलम्-मयासंता पुणो परलोगसमावण्णा नरए गच्छंति निरभिरामे अंगारपलित्तगकप्पअच्चत्थसीयवेयणा असायणो दिये जाते हैं । तथा ( केइ ) कितनेक अदत्तग्राही चोर जो मरने से बाकी बचे रहते हैं वे (किमिजायकुहियदेहा ) रोगादिक कारण के वश से अपने शरीर में उत्पन्न हुए कीड़ों से दुर्गधित शरीर वाले होकर (अणिदुवयणेहिं) लोगों के इस प्रकार के अप्रियवचनों से कि-(सुटुकयं जं मओत्ति पावो) भला हुआ जो यह पापी मर रहा है " अथवा मरे हुए सा हो रहा है " इस प्रकार ( सप्पमाणा ) गालियों से अपमानित होते हैं। तथा उनकी मृत्यु से प्रसन्न होने वाले मनुष्यों से ताडित होकर (सयणस्स वि य ) स्वजनोंसे भी और दूसरोंसे भी (दीहकालं ) बहुत समयतक (लज्जावगाय ) लज्जित (हुंति ) होते हैं । सू-१७॥ भवाय छ भने तना टु टु४४१ ४२१य छे. त॥ - केइ " 2.४ मत-- पाही यो। ने भातमाथी म छे तो " किमिजायकुहियदेहा" शाहि કારણથી તેમનાં શરીરમાં ઉત્પન્ન થયેલ કીડાઓથી દુર્ગંધ યુક્ત શરીરવાળા ". " अणिद्रवयरोहिं" योजना मा २i म.प्रय क्यनाथी " सपनाणा" ५५मानित थाय छ-" सुटुक यं जं मओत्ति पावो" " सा थ\ २ पापी मारीत भरी रह्यो छ” अथ! " भरेशान 21 स्थिति अनुभव ., तथा तमना भृत्युथी भु१. थन!! भास! !! भा२ पान “सयणसविय" स्वपन तथा मी साथी " दीहकालं" ai! समय सुधी 'लज्जावगाय" acron हुति" पामे छ । सू-१७॥ For Private And Personal Use Only Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुशिनी टीका अ० ३ सू० १८ अदत्तादायिनः परलोकगतिनिरूपणम् ३५५ दिण्णसयय दुक्खसयसमभिभूए । तओ विउठवटिया समाणापुणो वि पव्वज्जति तिरियजोणिं । तहिं पि निरओषमं-अणुभवंति वेयणं । ते अणंतकालेणं जइणाम कहिं वि मणुयभावं लहिंति णेगेहिं णिरयगइगमण तिरियभवसयसहस्सपरियट्ठएहिं तत्थ वि य भवंत णारिया नीयकुलसमुप्पण्णालोयवज्झातिरि. क्ख भूया य अकुसला कामभोगतिसिया जहिं निबंधंति निरयवत्तणी भवप्पवंचकरणपणोल्लि पुणो वि संसारावत्तणमिमूले धम्मसुइ विजिया अणज्जा कूरा मिच्छत्तसुइ पवण्णा य हुँति। एगंतदंडरुइणो वेटेंति कोसिगारकीडेव अप्पगं अट्ठकम्मतंतुघणबंधणेणं ॥ सू० १८ ॥ टोका- 'मयासंता' मृताः सन्तः 'पुणो' पुनमरणानन्तरं 'परलोग: समावण्णा' परलोकसमापन्नाः परलोकं प्राप्ताः 'नरगे गच्छंति' नरके गच्छन्ति । कीदृशे नरके ? इत्याह-निरभिरामे असुन्दरे, तथा 'अंगारपलित्त गकप्प, अच्चत्य सीयवेयणा आसायणो दिण्णसययदुक्खसयसमभिभूए । - अब सूत्रकार यह कहते हैं कि ये अदत्तग्राही चोर इस लोक में तो इस प्रकार के अनेक दुःखों को भोगते हैं परन्तु परलोक में भी इनकी कैसी दुर्दशा होती है सो कहते हैं- मयासंता' इत्यादि। ___टीकार्थ-ये अदत्तग्राही चोर जब (मयासंता) मर जाते हैं तथ (पुणो) उसके अनन्तर ( परलोगसमावण्णा ) परलोकमें जाकर (नरगे गच्छंति) नरक में उत्पन्न होते हैं । जो नरक (निरभिरामे ) सुन्दरता से रहित अर्थात् असुहावने हैं, तथा (अंगारपलित्तगकप्प) अतिप्रज्वलित अंगार - હવે સૂત્રકાર એ બતાવે છે કે તે ચરકે આ લેકમાં તે ઉપરોક્ત પ્રકારનાં દુઃખ અનુભવે છે પણ પરલોકમાં પણ તેમની કેવી દુર્દશા થાય છે– " मयासंता" त्यादि टीआय-त महत्ताही योर " मयासंता" भरीने " पुणो" ५छी " परलोग समावण्णा" ५२सभा ने " नरगे गच्छंति " नआतिभा पन्त थाय छ रे न२४॥२ " निराभिरामे" सुन्दरताथी २डित छ, तथा "अंगारपलित्त For Private And Personal Use Only Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३५६ प्रश्नब्याकरणसूत्रे अङ्गारमदीप्तककल्पाऽत्यर्थशोतवेदनाऽऽसदनोदोर्णसततदुःवशतसमभिभूते, तत्र ' अङ्गारपलित्तगप्प । प्रदीप्तकः = अतिमज्वलितो योऽङ्गारः = धूम रहितवह्निस्तेन कल्पं तत्सदृशम्-उष्णं, तथा 'अच्चत्यसीयवेयणा आसायणो' अत्यर्थ शीतं अत्यर्थ हिमकालोद्भवशीतं तयोर्वेदना तस्याः आसादनं-पापणं तेन ' उदिण्णसययपुक्खसय ' उदीर्णानि समुद्भतानि यानि सतत दुःख शतानि अनेकशतसंख्यकनिरन्तरदुःखानि, तैः । समभिभूए ' समभिभूतः= युक्तः यः स तथा तस्मिन् , यद्वा-उष्णशीतवेदना, सा कीदृशी ? इत्याह आशा तनेन-चिरकालानुवन्धिकटुक फलदायकाऽदत्ताऽऽदानजनिताऽशातवेदनीयकर्मणा उदीर्णा प्रकटिभूता तस्याः तज्जनितानि यानि सततदुःखशतानि तैः समभिभूतः व्याप्तो यः स तथा तस्मिन्नेवं भूते नरके अदत्ताऽऽदायिनो मृताः सन्तो गच्छ. न्तीति पूर्वेण सम्बन्ध ः। तत्र नरके गत्वा सन्तप्तलोहवालुका निकरप्रखरकठोरसूचीके जैसी उष्णता, और ( अच्चत्थसीय ) हिमकाल जैसा अत्यंत शीत है। यहां नारकियों को इस उष्णता और शीत की (वेयणा आसायणो. दिण्ण ) वेदना की प्राप्ति से उदीर्ण-उत्पन्न ( सययदुक्खसय ) निरन्तर सैकड़ों दुःख प्रास होकर (समभिभूए) दुःखित करते हैं। " आसा. दन " यह पद जो सूत्र में आया है उसका अर्थ एक तो प्राप्त होना हैजैसा कि अभी लिख दिया गया है। तथा दूसरा अर्थ इसका इस प्रकार से है-कि वे अदत्ताग्राही चोर जो वहां मर कर नारकी की पर्याय से उत्पन्न हो चुके हैं चिरकालानुबंधी-भव भव में कटुक फल दायक अदत्तादान के प्रभाव से उत्पन्न हुए अशात वेदनीय कर्म के द्वारा प्रकटी भूत वेदना से व्याप्त उन नरकों में निरन्तर सैकड़ों प्रकार के दुःखों को गकप्प" भति प्रतित म॥२॥ २ Y भने “ अच्चन्थसीय " भि २ मत्यत त छ. त्यांना२४ी ७वाने त ता भने शातनी " वेयणा आसायणो दिण्ण" येनानी प्राप्तिथी उत्पन्न थये “ सययदुक्खसय " से। । नि२त२ “ समभिभूए" भी ४२ छ. “आसादन " A 4. सूत्रमा ઉપયોગ થયે છે. તેને એક અર્થ તે “પ્રાપ્ત થવું” છે, જે સૂત્રમાં હમણાં જ અપાય છે. તથા તેને બીજો અર્થ આ પ્રમાણે છે–તે અદત્તગ્રાહી ચાર કે જે મરીને નારીની પર્યાયમાં ઉત્પન્ન થઈ ચુક્યો છે, ચિરકાલાનુબંધીભવભવમાં કડવા ફળ દેનાર અદત્તાદાનના પ્રભાવે ઉત્પન્ન થયેલ અશાતા વેદનીય કર્મ દ્વારા ઉત્પન્ન થયેલ વેદનાથી વ્યાપ્ત તે નરકમાં નિરંતર સેકડે દુખ ભોગવ્યા કરે છે. For Private And Personal Use Only Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदशिनी टीका अ० ३ सू० १८ अदत्तादायिनः परलोकगतिनिरूपणम ३५७ मुखदुस्तरमार्गसञ्चरणविविधवसामासयूयशोगित पूर्णनदीनिमज्जनपरमाधार्मिकसंतप्रशलाकाशरीरप्रवेशनविविधशस्त्रास्त्रभेदनच्छेदनताडनापक्षारणादिकानि विपुलानि घोराणि दुःखानि भुत्क्वा 'तओवि उव्वट्टिया समाणा, ततोऽपि नरकादुत्ताः सन्तः निस्सृताः सन्तः 'पुणो वि' पुनरपि 'तिरियजोणि पवज्जति तिर्यग्योनि पपधन्ते 'तहिपि तत्रापि 'निरयोवमं अणु भवंति वेयण' नरकोपमामनुभवन्ति वेदनां नरकसदृशमेवदुःखं प्राप्नुवन्ति । अथ 'ज इनाम' यदिनाम 'अणतकालेन'अनन्तकालेन-निगोद्भवा पेक्षया 'णेगेहिं' अनेकेषु-बहुषु 'निरयगतिगमणतिरियभवसयसहस्सपरियट्टएहि' नरकगतिगमनतिर्यग्भवशतसहस्रपरिवर्तेषु-नरकगतौ यानि पुनः पुनर्गमनानि तेषां तथा तिर्यग्भवानां तिर्यग्योनीनां च ये शतसहस्रपरि वर्ताः अनेकशतसहस्रसंभ्रमणानि तेषु अतिक्रान्तेषु सत्सु कहिं वि मणुवभावं लर्हिति ' कथभोगा करते हैं । इस प्रकार इस नरकों में शीतऔर उष्ण जन्य अनेक प्रकार की वेदनाएँ हैं जो नारकियों को व्यथित करती रहती हैं । (तओवि उव्वट्टिया समाणा) नरकों में जाकर वहां के विविध प्रकार के दुःखों को भोगते २ जब उन जीवों की एक सागर आदि अनेक सागर प्रमाणवाली भुज्यमान आयु वहां की जब समाप्त हो जाती है तब वे वहां से निकल कर पुनरपि (तिरियजोणिं पवज्जति ) तिर्यंचयोनि में जन्म धारण करते हैं । (तहिपि ) वहाँ पर भी वे (निरयांवमं) नरकोपम (वेयणं ) वेदना को दुःखों को ( अणुभवंति ) भोगते रहते हैं। (जइनामणेगेहिं णिरयगतिगमनतिरियभवसयसहस्सपरियट्टएहिं) यदि अनेक नरकगति तिर्यंचगति के लाखों भवोंको धारण करते २ व्यतीत हुए (अणंतकालेण ) निगोद की अपेक्षा अनंतकाल के बाद ( कहिं वि ) किमी तरह ( मणुयभावं) मनुष्ययोनि भी उन्हें (लहिति) प्राप्त हो गई ( આ પ્રમાણે તે નરકમાં શીત અને ઊષ્ણતા જન્ય અનેક પ્રકારની વેદनाम ना२ ७वाने या पायाच्या ४२ छ. " तओ वि उव्वट्टिया समाणा" નરકમાં જઈને ત્યાંનાં વિવિધ પ્રકારનાં દુઃખે ભેગવતાં ભેગવતાં તે જીવનું અનેક સાગર પ્રમાણુ આયુષ્ય ત્યાં પૂરું થાય છે ત્યારે તેઓ ત્યાંથી નીકળીને 4जी पाwi " तिरियजोणिं पवजंति "तिय य योनिमा म धारण ४२ छ. " तिहिं पि” त्या पर तेगो “ निरयोवन" न२४ समान" वेयण " वहनामा यो “ अणुभवंति" लागवे छ. “जइनामणेगेहि णिरयगतिगमनतिरियभवसयसहस्सपरियट्टएहि " ने भने न२४ गति, तिय यमतिना सामो लो धा२९ ४२०i Rai निगानी अपेक्षा ५सा२ थयेट “ अणंतकालेण " मनातtm पछी " काह वि" अ पशु रीते “ मणुयभावं" भनुष्यातिमा मना For Private And Personal Use Only Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे मपि मनुजभाव-मनुष्योनि लभन्ते-आप्नुवन्त्यपि चेत्तर्हि तत्थवि य' तत्रापि च भवन्ति-जायन्ते, 'अणारिया' अनार्याः=म्लेच्छाः शकयवनादयः कीदृशाः ? इत्याह-'नीयकुलसमुप्पण्णा' नीचकुलसमुत्पन्नाः ‘आरियजणे विलोयवज्झा' आर्यजनेऽपि लोकबाह्या यदि कदाचिन्मगधाधार्यदेशे समुत्पन्ना अपि लोकवर्जनीयाः श्वपाकादिकुलसंभूता भवन्ति जनैस्तिरस्कृता इत्यर्थः, पुनश्च 'तिरिक्ख भूया य ' तिर्यग्भूताश्च पशु तुल्या विवेकशून्यत्वात् 'अकुसला' अकुशलाः= वस्तुतत्वाऽनभिज्ञाः ' कामभोगतिसिया' कामभोगतृषिताः-तत्र कामौ शब्दरूप लक्षणौ भोगाः गन्धरसस्पर्शलक्षणास्तेषु वृषिताः आसक्ताः 'जहिं ' यत्र मनुष्य भवेऽपि लोकवाहाकुले 'निरयवत्तणी भवप्पवंचकरणपणोल्लि पुणो वि संसारावतो (तत्थवि य ) वहां पर भी वे ( अणारिया ) अनार्यमनुष्यों-म्लेच्छो शक यवन आदि पर्यायों में ही (भवंति ) उत्पन्न होते हैं । ( नीचकुलसमुप्पण्णा ) ये अनार्यजन नीचकुल के होते हैं । ( आरियजणेवि ) यदि कदाचित् मगध आदि आर्यदेश में उत्पन्न हुए तो ये वहां ( लोययज्झा) लोकवायजनों में-चाण्डाल आदि निंदित नीचकुलों में-उत्पन्नहोते हैं। वहां सदा ये तिरस्कृत होते रहते हैं। ( तिरियभूयाय ) विवेक शून्य होने के कारण ये तिर्यंच जैसे ही वहां बने रहते हैं ( अकुसला ) वस्तुतत्त्व से अनभिज्ञ रहते हैं। (कामभोगतिसया) शब्द, रूप लक्षण काम एवं गंध रस, स्पर्श लक्षण भोगों में आसक्त रहते हैं, (जहिं ) लोक बाह्य कुलों में मनुष्य भव प्राप्त कर लेने पर भी (निरियवत्तणी) नरकगमन के मार्गभूत, ( भवपवंचकरणपणोल्लि) भव परंपरारूप प्रवाह के "लहिति" म थाय तो ५५ " तत्थवि य" ते सो "अणारिया" मनाय" श्वेच्छ, श४, यवन यातिमा भवति " उत्पन्न थाय छे. " नीचकुल समुप्पण्णा" ते मनाया नीया गाना डाय छे. “ आरियजणेवि" ने तसा हाय मगध आदि माय भूमिमा म पामे छ तो तसा त्यां" लोयवज्झा"समानामा-यां माहि निहित नायगोमा उत्पन्न थाय छे. त्यां तो सह तिरस्कृत थया ४२ छ. “ तिरिय भूयाय" विवीन पाने કારણે તેઓ તે મનુષ્ય નિમાં હોવા છતાં પણ તિર્યંચ જેવાં જ હોય છે, 'अकुसला" वस्तु तथा तेम। ( नलिइ.) AM २९ छ, “ कामभोगतिसया " २५६, भ, २स, अध, २५श माह लागाभा असत २ छ. "ज" टोमा अगामा मनुष्य अप पान्या छतi ५५ " निरयवत्तणी" न२४ गमनना २४भूत " भवप्पवंचकरणपणोल्लि" ल५ ५२२५२१३५ प्रपा प्रतx, तथा For Private And Personal Use Only Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुर्शिनी टीका अ०३ सू० १८ अदत्तादायिनः परलोकगतिनिरूपणम् ३५९ तणेममूले' नरकवर्तनीः-नरकमार्गभूतानि भवप्रपञ्चकरणप्रणोदीनि भवप्रपश्चस्यजन्मपरम्परापवाहस्य करणं भवनं तस्य प्रणोदीनि = प्रवर्तकानि नरकगमनकारणानीत्यर्थः, तथा पुनरपि पुनश्च संसारावर्त नेमिमूलानि-तत्र संसारवर्ते-संसारभ्रमणे नेमिमूलानि रथचक्रपरिधिरूपाणि कर्माणीति गम्यते ' निबंधंति' निवघ्नन्ति चतुर्गतिसंसारपरिभ्रमणकारणानि महारम्भमहापरिग्रहरूपाणि कुर्वन्तीत्यर्थः । तथा 'धम्मसुइवज्जिया ' धर्मश्रुतिवर्जिताः = धर्मः = श्रुतचारित्रलक्षणस्तस्य श्रुतिः= श्रवणं तद् वर्जिताः 'अणज्जा' अन्याय्याः न्यायवर्जिताः ‘कूरा' कराः जीवोपघातकाः 'मिम्छत्त सुइपवण्णा य' मिथ्याव श्रुति प्रपन्नाश्व-मिथ्यात्वश्रुति-मिथ्यात्वपधाना “न प्राणिवधे दोषा नाप्यदत्तादाने दोपाः " इत्यादिरूप विपरीततत्त्वोपदेशिका या श्रुतिः= सिद्धान्तस्तां प्रपन्नाः तदङ्गीकारकाः 'हुति' भवन्ति । तथा एगंतदंडरुइणो' एकान्तदण्ड रुचयः = एकान्तम् अत्यन्त दण्डे हिंसादिके रुचिः = श्रद्धा येषां ते तथा केवलं परसन्तापोत्पादनपराप्रवर्तक, तथा (पुणोवि संसारावत्तणेममूले) बार बार चतुर्गतिरूप संसार में परिभ्रमण के नेमिभूत-रथचक्र के परिधिरूप ऐसे कर्मों का ही (निबं. धंति ) बंध करते रहते हैं। अर्थात्-नरक, नियंच, मनुष्य गतिरूप संसार में परिभ्रमण के कारणभूत ऐसे महारम्भ, महापरिग्रह रूप कर्मों को करते रहते हैं । तथा (धम्मसुइवज्जिया ) धर्मश्रुति से-श्रुतचारित्ररूप धर्म के श्रवण से वर्जित रहते हैं। (अणज्जा ) न्यायमार्ग से हीन होते हैं। (कूरा) क्रूर-स्वभाव के-जीवों का उपघात करने वाले होते हैं । (य) और (मिच्छत्त मुइपवण्ण ) " न प्राणिवध में दोष है और न अदत्तादान में दोष है " इत्यादि प्रकार से विपरीत तत्त्वोपदेशक मिथ्यात्वप्रधान श्रुति को-सिद्धांतकों अंगीकार करने वाले (हुति ) होते हैं। तथा (एगंतदंड-रुइणो ) इनकी श्रद्धा हिंसादिक पापकार्यों में ही अत्यंत रूपमें “ पुणोवि संसोरावत्तणेममूले" पावार याति३५ ससारमा परिश्रमाना नभिभूत-२थयन। परिधि३५ सेवा भनि। १ " निबंधति ” ५ मांधता રહે છે, એટલે કે નરક; તિર્યંચ, મનુષ્યગતિરૂપ સંસારમાં પરિભ્રમણના કાર१९३५ मेवा महा२ल, भडायरिय३५ ४ ४ ४३ . तथा “धम्म सुइवजिया” तयारित्र३५ धमना श्रवणथा रहित २ छ, ' अणज्जा" न्याय भागथी २हित डाय छ, “कूरा" २ स्वभावना-0वानी डिसा ४२ता डाय छ. "य" तथा "मिच्छत्त सुइपवण्ण” “प्राशियम होष नथी भने मह. ત્તાદાનમાં દેષ નથી” ઈત્યાદિ પ્રકારના વિપરીત તપદેશક મિથ્યાત્વ પ્રધાન सिद्धांताने २वीना२ " हुति" डाय छ, तथा “एगंतदंडरुइणो” (साहि For Private And Personal Use Only Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे घणा इत्यर्थः ‘कोसिगारकी डे' कोशिकारकीट इव 'अट्ठकम्मतंतुषणबंधणेणं' अष्टकर्मतन्तुधनवन्धनेन अष्टकर्मभिः ज्ञानावरणादिलक्षणैः तन्तुभिः = =सूत्रै रिव यद् घनंई बन्धनं तेन ' अप्पगं' आत्मानं ' वेडेंति ' वेष्टयन्ति । यथा कोशीकारकीटाः सूत्राणि मृजन्तस्तैरे व बन्धनभूतै वेष्टिताः भवन्ति तथैव अदत्तादायिनः स्वेनैव क्रियमाणैः ज्ञानावरणादि लक्षणैरष्टकर्मभिः सूत्रस्थानीयैबन्धनैध्यन्ते इति भावः ॥ मू० १८ ॥ अष्टविधकर्मभिर्वद्धाः सन्तः संसारसागरं वसन्तीति तमेव वर्णयन्नाह"एवं नरग' इत्यादि। मूलम् - एवं नरगतिरियनरअमरगमण - पेरंतचकवालं जम्मजरामरणकरणगंभीरदुक्खपक्खुभियपउरसलिलं संजोग विजोगवीचि-चिंतापसंगपसारिय वहबंधमहल्लविउलकल्लोल-- कलुणविलविय-लोभकलकलंतबोलबहुलं अवमाणणफेणं तिव्वखिंसण-पुलंपुलप्पभूय-रोगवेयग-पराभवविणिवाय-फरुलधरिसणरहती है । अर्थात् ये सदा परजोवोंको संताप पहुंचाने में ही परायण यने रहते हैं तथा ( कोसिगारकीडेव) कोशिकार कीडे की तरह वे ( अट्ठकम्मतंतुघणबंधणेण) आठकर्म रूप तन्तुओं के घनिष्ठ बन्धन से (अप्पाणं) अपने आपको ( वेडेंति ) वेष्टित करते हैं अर्थात् जिस प्रकार कोशिकार कीट सूत्रों का सर्जन करते हुए बंधनभूत उन्हीं सूत्रों से वेष्टित हो जाते है उसी तरह अदत्तग्राहीजन अपने द्वारा किये गये सूत्रस्थानीय ज्ञाना घरण आदि अष्ट कर्मों से जो कि आत्मा को दृढ़रूप वांधनेवाले हैं। बंधदशा को प्राप्त हो जाते हैं ॥ मू-१८ ॥ પાપકૃત્યમાં જ તેમને વધારે શ્રદ્ધા હોય છે, એટલે કે અન્ય જીવોને કષ્ટ पडयावाने ते सहा तत्५२ २७ छ. तथा “कोसिगारकीडेव" शेटानी म तो “ अदृकम्मतंतुघणबंधणेण” 8 भी तुमाना भरभूत मधनथी " अपाणं " पातानी नतने " वेति" पेटी से छे. मेटम રેશમન કી ( કેરોટ) તંતુઓનું સર્જન કરીને તે તંતુઓને પિતનાં શરીર ફરતા તેમાં લપેટીને તેમાં બંધાઈ જાય છે, તેમ અદત્તાદાન લેનાર માણસ પિતે કરેલા જ્ઞાનાવરણીય આદિ કર્મો કે જે આત્માને મજબૂત રીતે બાંધનારા છે, તે કર્મોરૂપ તંતુથી બંધનની સ્થિતિ પ્રાપ્ત કરે છે સૂ- ૧૮ For Private And Personal Use Only Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुर्शिनी टीका अ० ३ सू० १९ संसारसागरस्वरूपनिरूपणम् समावडिय-कठिणकम्मपत्थरतरंग-रिगंतनिच्चमच्चुभयतोयपटुं कसायपायालकलससंकुलं भवसयसहस्सजलसंचयं अपंतं उज्वेगजणयं अणोरपारं महब्भयं भयंकरं पइभयं अपरिमियमहिच्छ कलुसमइ वा उव्वेग उद्धाममाणाऽऽसापिवासा पायालं कामरइरागदोसबंधणबहुविहसकप्पविउलद गरयरयंधयारं, मोहमहावत्तभोगा माणगुप्पमाणुच्छलतबहुगब्भवासपञ्चोणियंतपाणियं पधावियवसण-समावण्णरुण्णचंडमारुय - समाहया मणुण्णवीचिवाकुलियभंगफुतनिकल्लोलसंकुल जलं पमायबहुचंडदुद्दसावयसमाहयउद्घायमाणगपूरघोरविद्धंसणस्थबहुलं अण्णाणभमंतमच्छपरिहत्थं अनिहुतिंदिय-महामगरतुरियचरियखोक्खुन्भमाणसंतावनिच्चयचलंतचवलचंचलअत्ताणा-स. रणपुवकम्मसंचयोदिण्णवजवेदिज्जमाणदुहलयविवागणंतजलसमूह, इरिससायगारवोहारगहिय - कम्मपडिबद्धसत्तकड्डिजमाण-निरयतलहुत्तसपणविसण्णबहुलं, अरइरइभयविसाय-सोगमिच्छत्तसल्लसंकडं अणाइसंताणकम्मबंधणकिलेस चिक्खिल्लदुसृत्तारं अमरनरतिरियनिरयगइगमणकुडिलपरिवविउलवेलं-हिंसालियअदत्तादाणमेहुणपरिग्गहारंभकरणकारावणा णुमोयण-अट्टविहअणिकम्मपिंडिरगुरुभाराकंतदुग्गजलोघदूरनिब्बोलिजमाणउम्मग्गनिमग्गदुल्लहतलं सरीरमणोमयाणिदुक्खाणि उप्पियंता सायासायपरितावणमयं उव्वुड्डनिब्बुड्डयंकरेंताच. उरंतमहंतमणक्यगंरुदं संसारसायरंअट्ठिय अणालंबणपइटाणमप्पमेयं चुललीइजोगिसयसहस्संगविलं अणालोगमंधया अणंतकालं जाणिच्चं उत्तत्थसुण्णभयसपणसंपउत्ता वसंति उव्विगवासवसहि ॥ सू० १९॥ For Private And Personal Use Only Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३६२ प्रश्नव्याकरणसूत्रे टीका-'एवम्' अमुना प्रकारेण आत्मनः कर्मभिर्वन्धनेन 'नरगतिरियनरअमर गमण पेरंतचक्कवालं' नरकतिर्यड्नराऽमरगमनपर्यन्तचक्रवालं तत्र 'नरकः, तिर्यङ्, नरः, अमरः,' इति चतुर्गतिषु गमनं = तदेव पर्यन्तचक्रवालबाह्यपरिधिमण्डलं यस्य स तथा तमेवम्भूतं संसारसागरं वसन्तीति वक्ष्यमाणेन सम्बन्धः । पुनः कथं भूतमित्याह-'जम्मजरामरणकरणगंभीरदुक्खपक्खुभियपउरसलिलं ' जन्मजरामरणकरणगम्भीरदुःखप्रक्षुभितप्रचुरसलिलं तत्र जन्मजरामरणादिभिः करणैः= साधनभूतैर्यद्गम्भीरदुःखम् अतिमहाक्लेशस्तदेव पशुभितं = अतिवेगव्याकुलितं मचुरं सलिलं जलं यत्र स तथा तम् , यथा समुद्रो विपुलजलराशिपूर्णो भवति तथैव समुद्ररूपः संसारोऽपि जलस्वरूपविविधदुःखव्याप्त इत्यर्थः, एवमेवाग्रेऽपि समुद्रधर्मान् रूपकाऽलङ्कारेण संसारेऽपि प्रदर्शयति पुनर्यथा- 'संजोगविजोग ये जीव ज्ञानावरण आदि अष्टविध कर्मों से बंधदशा को प्राप्त होकर संसार सागर में रहते हैं सूत्रकार अब वर्णन करते हैं 'एवं नरग' इत्यादि। टीकार्थ-(एवं) इस प्रकार अपनी आत्माको कर्मों के साथ एक क्षेत्रावगाहरूप बंधदशा से बांधने के कारण ये अदत्तग्राहीजन (नरगतिरियनर अमरगमणपेरंतचक्कवालं ) नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य एवं देवगतियों में परिभ्रमण रूप बाह्य परिधिमंडल वाले, तथा (जम्मजरामरणकरणगंभीर दुक्खपरखुभियपउरसलिलं ) जन्म, जरा, मरणजन्य अति महाक्लेशरूप प्रक्षुभित एवं प्रचुर जलवाले संसार सागर में ही चक्कर काटा करते हैं-परिभ्रमण किया करते हैं । सूत्रकार रूपकालंकार से इसी संसार તે જ્ઞાનાવરણ આદિ આઠ પ્રકારના કર્મોથી બંધનની દશા પ્રાપ્ત કરીને સંસાર સાગરમાં રહે છે. હવે સૂત્રકાર તેનું વર્ણન કરે છે – “ एवं नरग" त्याहि. Atथ-" एव" ते ते पोताना मात्भाने भनी साधे से क्षेत्रा॥९३५ माथी पांधवाने २0 ते महत्ताही माणसे “नरगतिरियनरअमरगमणपेरतचक्कवालं” न२४, तिय य, मनुष्य भने हे गतियोमा परिअभय३५ मा परिधिमवाणा, तथा “जम्मजरामरणकरणगंभीरदुक्ख पक्खुभियपउरसलिलं" म, १२, भ२१ ११न्य अतिशय मोटर ४०३५ પ્રશ્નભિત અને પ્રચુર જળવાળા સંસાર સાગરમાં જ ચક્કર લગાવ્યા કરે છેપરિભ્રમણ કર્યા કરે છે, સૂત્રકાર રૂપક અલંકારથી આ સંસારસાગરનું વર્ણન For Private And Personal Use Only Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ. ३ सू० १९ संसारसागरस्वरूपनिरूपणम् वीचि-चिंतापसंग पसारिय - बहबंधमहलविउलकल्लोलकलुणविलवियलोभकलकलंतबोलबहुलं' तत्र-'संजोगविजोगवाचि' संयोगवियोगा एव वीचयः तरङ्गा यत्र स तथा, समुद्रो यथा-जलतरङ्गयुक्त एवं संसारोऽप्यनिष्टसंयोगेष्टवियोग रूप-तरङ्गयुक्तः, तथा 'चिंतापसंगपसारिय' चिन्ताप्रसङ्गप्रसारितः शोकसम्ह विस्तृतः 'वहबंधभहल्लविउलकल्लोल' वधबन्धमहाविपुलकल्लोलाः, तत्र वधाः = यष्टयादि ताडनानि, बन्धाः रज्ज्वादि वन्धनानि तान्येव महान्तः सुदीर्घाः विपुलाः विशालाश्च कल्लोला: महातरङ्गा यत्र स तं, तथा ' कल्लुणविलवियलोहकलकलंतबोलवहुलं' करुणविलपितलोभकलकलायमानबोलबहुला करुणविलपित सागर का वर्णन करते हुए कह रहे हैं कि जिस प्रकार समुद्र का बाह्य परिधिमंडल होता है उसी तरह इस संसार रूप समुद्र का बाह्यमंडल चतुगतियों में परिभ्रमण करना रूप है। जिस तरह समुद्र अपार जलराशि से सदा परिपूर्ण रहता है, उसी तरह यह संसार भी जन्म जरा एवं मरण जन्य गंभीर दुःखरूप जल से पूर्ण भरा हुआ है। (संजोग विजोग वीचिं-चिंता पसंग-पसारिय-वह-बंध-महल्ल-विउल-कल्लोल कलुण-विलविय-लोभकलकलंतबोलबहुलं) इस संसार में (संजोग विजोग वीचिं) अनिष्ट संयोग एवं इष्टवियोग जीवों को प्रतिक्षण प्राप्त होते रहते हैं सो ये अनिष्टसंयोग इष्टवियोग ही इसमें वीचि-लहरों जैसे हैं । तथा ( चिंतापसंगपसारिय ) विविध प्रकार के शोक समूह से यह विस्तृत हो रहा है । ( बहबंध ) वध-यष्टयादि द्वारा बांधना ये ही जिसमें ( महल्ल) बड़ी २ ( विउल) विशाल ( कलोल ) कल्लोले हैं। કરતાં કહે છે કે-જેમ સમુદ્રનું બાહ્ય પરિધિમંડળ હોય છે, એ જ પ્રમાણે આ સંસાર રૂપી સમુદ્રનું ચતુર્ગતિમાં ભ્રમણ કરવા રૂપ બાહ્ય પરિધિમંડળ છે. જેમાં સમુદ્ર અપાર જળ રાશિથી સદા પરિપૂર્ણ રહે છે, તે જ પ્રમાણે આ સંસાર પણ જન્મ, જરા અને મરણ જન્ય ગંભીર દુઃખરૂપી थी पू३५३। सरसो छ. "संजोगविजोगवीचि-चिंता पसंग पसारियवहबंधमहल्ल विउलकल्लोलकलुणविलवियलोभकलकलंतबोलबहुल' " ससारमा "संजोगविजोगवीचि” मनिष्टना वियोग वान क्षणे क्षणे पास च्या કરે છે. તે અનિષ્ટ સંગ અને ઈષ્ટવિયેગે જ તેમાં વિચિ-લહેરે જેવો છે. तथा "चिंतोपसंगपसारिय" विविध प्रा२ना सभूश्री ते विस्तृत थ २स छे. “वहबंध" १५-यष्टी मा द्वारा मन भi " महल्ल" भाटी मोट " विउल " वि “ कल्लोल " भी समान छ. “कलुणविलविय " For Private And Personal Use Only Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे रोगदुःखादिजनितदीनविलापएव लोभमोहेन कलकलायमानः क कलशब्दयुक्तो यो बोल: ध्वनिः स बहुलो यत्र स तथेति संयोगादोनां पदानां कर्मधारयस्तं तथा 'अवमाणणफेणे' अपमाननफेनम् अपमानफेनयुक्तं शिवरिखसणपुलं पुलप्पभूयरोगवेयणपराभवविणिवायफल्सबरिसणसमावडियकठिणकन्मपत्थरतरंग. रिंगंतनिच्चमच्चुभयतोयपढे ' तत्र 'तिव्यखिसण' तीवखिंसनम् ती निन्दा तथा 'पुलंपुल' निरन्तरं प्रभूता-बहूला जायमाना या रोगवेयण' रोगवेदना:नानाविधाऽऽधिव्याधि-पीडास्ताः, तथा 'पराभवविणिवाय' पराभवः अनादरः, तस्य विनिपातः-विशेषेण प्रागं, तथा 'फरुसपरिसग' पहावर्षगानिकठोरवचनैः भर्त्सनानि च तानि 'समावडिय' समापतितानि=समापन्नानि येभ्यस्तान्येवम्भूतानि यानि 'कठिणकम्म' कठिनकर्माणि ज्ञानावरणादीनि क्लिष्ट (कलणविलविय ) रोग से एवं दुःखादि से जन्य करुण विलाप तथा (लोभ ) लोभ एवं मोह से जन्य जो ( कलकलंत ) कलकल शब्द, इन से युक्त ( बोल ) ध्वनियां ही जहाँ ( बहुलं) बहुलरूप में वर्तमान हैं ( अवमाणणफेणं ) अपमानरूप फेन से जो युक्त बना हुआ है, ( तिव्वखिसण पुलंपुल भूयरोग-वेयणपराभव-विणिवायफरुसरिसण-समावडियकठिणकम्म पत्थर तरंग रिंगंतनिच्चमुच्चुभयतोयपटुं) (तिव्यखिसण) तीव्र निंदाएँ तथा (पभूयरोगवेयण) निरंतर जायमान अनेक रोग वेद. नाएँ-नाना प्रकार की आधि व्याधि रूप पीडाएँ, ( पराभवविणिवाय) अनादर की विशेष रूप से प्राप्ति, तथा ( फसधरिसणसमावडिय) कठोर वचनों द्वारा निर्भसन-फटकारना, ये सब जिनके उदय से जीवों को प्राप्त होते रहते हैं, ऐसे ( कढिणकम्मपत्थर ) ज्ञानावरण आदि क्लिष्ट रोष तथा महिथी उत्पन्न येत ४२ विसा५ तथा " लोभ " म भने माथी भन्यो "कलकलंत" ' ४१४६' च्थी युक्त "बोल' भवान १ ल्या " बहुलं " पधारे प्रभामा विद्यमान छ, “अवमाणणफेणं" ५५भान३५ ५५थी २ युत छ, “तिव्यखिसणपुलपुलभूयरोगवेयणपराभव. विणिवायफरसरिसणसमावडियकठिणकम्मपत्थरतरंगरिगंतनिच्चमच्चुभयतोयपटु " " तिव्वखिसण "तीनिहाय तथा “पभूयरोगवेयण" નિરંતર ઉત્પન્ન થતી અનેક રોગ વેદનાઓ–વિવિધ પ્રકારની આધિ વ્યાધિ રૂપ घाम। " पराभवविणिवाय” भोटे मागे मना२नी प्राप्ति, तथा " फरुस धरिसणसमावडिय" ठौर क्या द्वारा निसनधि४२, से मधु रेमना यथी छवाने प्रास थया ४२ छे, मेवा " कढिणकम्मपत्थर" ज्ञानावर For Private And Personal Use Only Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सुदर्शिनी टीका अ० ३ सू० १९ संसारसागरस्वरूपनिरूपणम् , कर्माणि तान्येव ये प्रस्तराः सागरावाणरूपास्तैः कृत्वा 'तरंगरिंगंत ' तरङ्गरिङ्गत् = तरङ्गै= कल्लोलै: रिङ्गत्=चलत् ' निच्चमच्चुभयतोयपठ्ठे ' नित्यमृत्युभयतोयपृष्ठ = नित्यं = ुवं मृत्युभयं = मरणभयमेव तोयपृष्ठं=जलोपरितनभागो यत्र स तथा तं महापाषाणाद्याघातोत्थितमहातरङ्गचञ्चलजलौघमृत्युभयसङ्गलः सागरी यथा भवति तथा संसारोडापे भर्त्सनापमाननादि नानादुःखफलपदज्ञानावरणादि क्लिष्टकर्मपाषाणसमुत्थित पुनः पुनर्जन्मजरामरण भयतरङ्गव्याप्त इत्यर्थः । ' कसायपायाल - कलससंकुलं' कपायपातालकलशसङ्कलं = रूपायाः = क्रोधादयत्वारस्ते एव पातालकलशास्तैः सङ्कुलो यः स तथा तं, 'भवसय सहस्स जलसंचयं भवशतसहस्रजलसञ्चयं=भवशतसहस्राण्येवजलसञ्चयः = जलराशियेत्र स तथा तम् अनंत ' " Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कर्मरूप पाषाणों से उठी हुई, (तरंगरिंगंत ) तरंगों से जो चंचल बना हुआ है, तथा जो (निच्च मच्चुभय) अवश्यंभावी मृत्यु के भयरूप ( तोयपठ्ठे ) जलके उपरितन भाग से युक्त हो रहा है, अर्थात् जिस प्रकार समुद्र महापाषाणों आदि के आघात से उत्थित महातरंगों से चंचल तथा जल से भरा हुआ होने के कारण मृत्यु के भय से संकुल होता है उसी तरह संसार भी भर्त्सना अपमान आदि ननादुःखरूप फलको देने वाले क्रिष्टकर्मरूप पाषाणों से समुत्थित बारंबार जन्म, जरा, मरण, के भयरूप तरंगों से व्याप्त हो रहा हैं । ( कसायपायाल - कलससंकुलं ) तथा यह संसार सागर क्रोधादिक चार कषायरूप पाताल कलशों से युक्त है ( भवसयस हस्सजल संचय ) लाखों भवरूप जलसंचय से यह युक्त है | ( अनंतं) अनन्त संसारी जीवों की अपेक्षा यह अन्त " (6 " यहि सिट ३५ पाषाणोथी पेहा थयेस " तरंग रिंगंत " तर गोथी ने संयण અનેલ છે, તથા જે निच्चमच्चुभय अवश्य लावी ( ४३२ धनाश ) मृत्युना लय३यी “ तोयपट्टं " भणना उपरितन लागथी युक्त हो, सेवा संसार સાગરમાં તે પરિભ્રમણ કર્યા કરે છે- એટલે કે જેમ સમુદ્ર મહાપાષાણા આદિના આઘાતથી ઉત્પન્ન થયેલ તરગાથી ચંચળ ખનેલ હોય છે તથા પાણીથી ભરપૂર હાવાને કારણે તેમાં પડનારને માટે મેાતના પણ ભર્ટ્સના અપમાન આદિ વિવિધ દુઃખરૂપ ફળ પાષાણાથી ઉત્પન્ન થતાં, વારંવાર અનુભવાતા જન્મ, જરા, મરણુ આદિના ભયરૂપ તરંગાથી વ્યાપ્ત છે कसायपायलकलस संकुल સાગર ધ આદિ કષાયરૂપ પાતાળ કળશોથી યુક્ત છે. संचयं " साजो लव३५ भणस अयथी ते युक्त छे. ભય રહે છે તેમ સસાર દેનારા કલષ્ટ ક રૂપ તથા આ સસાર (6 अनंतं " For Private And Personal Use Only ' ܕܕ (6 भवसय सहरसजल મનન્ત સસારી Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३६६ प्रश्नव्याकरणसूत्रे , " " , अनन्तम् = संसारि जीवापेक्षया अन्तरहितम् 'उब्वेगजणयं ' उद्वेगजनकं = आधिव्याधि प्रभृतिदुःखशतयुक्तस्वात् ' अणोरपारं अनर्वाक पारम् अदृष्टपारं ' महभयं महाभयं = महाभयजनकं दुस्तरत्वात् भयङ्करं = कर्मप्रकृतिमहामत्स्य मकरा दिभिः व्याप्तत्वात, 'पहभयं प्रतिभयं प्रतिपाणिनं भयजनकं सकलपाणिमयो स्पादकत्वात् ' अपरिमिय महिच्छकलुसमति वाउरोग उम्ममाणासापिवासापायाले' अपरिमितमहेच्छाकलुवमतित्रायुवेगोदम्यमानाशापिपासापातालम्, तत्र अपरिमि ता= अपरिमाणा महती = विशाला चेच्छा-विषयाभिलापा, 'कलुस' कलुपा=मलिना या मतिः- बुद्धिः सा एव 'वायुवेग' वायुवेगस्तेन 'उद्धम्मम्माण ' उद्धम्यमाना= =प्रवर्द्धमाना या आशाः = अमाप्तार्थस्य प्राप्ति सम्भावनाः, पिपासाः प्राप्तार्थस्योपभोगवाच्छाः, एता एव पातालं यत्र स तथा तम् अपरिमितम हेच्छाम लिनबुद्धि Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रहित है | (उच्गजणयं ) आधि व्याधि आदि सैकड़ों दुःखों से युक्त होने के कारण यह उद्वेगजनक है। तथा (अणोरपारं ) यह अदृष्ट पार बाला है - इसका पार अदृष्ट है । (महम्भयं ) दुस्तर होने से यह जीवों को महाभय का जनक है । कर्मों की १४८ उत्तर प्रकृतिरूप महामत्स्य मकर आदि जलचर जीवों से यह व्याप्त है । समस्त प्राणियों के लिये भय का उत्पादक होने के कारण यह ( पइभयं ) हरएक जीव के लिये भय का जनक बना हुआ है । ( अपरिमियमहिच्छकलुसमतिवाउवेग उम्ममाणासापिवासापायालं ) ( अपरिमिय) अपरिमित तथा (महिच्छ) महता विषयाशारूप एवं ( कलुसमति ) मलिनबुद्धिरूप (बाउवेग ) वायु के वेग से (उद्धप्रमाण) प्रवर्द्धमान ऐसी (आसा) आशा - अप्राप्त अर्थ के प्राप्त करने की संभावनारूप तथा ( पिवासा) पिपासा - अर्थ का उप "" लवोनी अपेक्षाओ ते अन्तरहित छे. " उच्वेगजणय " व्याधिव्याधि माहि સેંકડો દુ:ખાથી યુક્ત હોવાથી તે ઉદ્વેગજનક છે. તથા " अणोरपार " ते असीम-अयार छे " महन्मय " हुस्तर होवाथी ते कवोने भाटे भड्डालय પેદા કરનાર છે. કમેોની ૧૪૮ ઉત્તર પ્રકૃતિરૂપ મહામત્સ્ય, મગર આદિ જળચર જીવાથી તે વ્યાપ્ત છે. સમસ્ત પ્રાણીઓને માટે તે ભય પેદા કરનાર होवाथी ते " पइभय " हरे लवने भाटे लयन छे " अपरिमिय महिच्छकलुसमति वा उवेगउद्धम्ममाणासापिवासापायाल " " अपरिमिय " अपरिभित तथा ' निहिच्छ ” भोटी विषय वासना ३५ अने " कलुसमति " भविन भति३य, “ वाउवेग ” " 66 વાયુના વેગથી उद्धम्ममाण ” વધતી જતી એવી " आसा माशा-मप्राप्त वस्तुने प्राप्त अश्वानी संभावना तथा "पिवासा " For Private And Personal Use Only Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुवशिनी टीका अ० ३ सू० १९ संसारसागरस्वरूपनिरूपणम् ३६७ वायुप्रवर्द्धमानाशातृष्णादिरूपाऽस्ताघपातालयुक्तमित्यर्थः । तथा-'कामरइरागदोसबंधणबहुविहसंकप्पविउलदगरयरयंधयारं ' कामरति-रागद्वेष-बंधन-बहुविधसंकल्पविपुलदकरजोरयान्धकारम् , तत्र - कामरतिः = शब्दादिष्वभिरुचिः, रागः = अनुकूलविषयेषु प्रीतिः, द्वेषः = तेष्वेवप्रतिकूलेष्वप्रीतिश्चेत्येतान्येव बन्धनानि वन्धकारणानि तथा बहुविधाथ संकल्पाः=मनः संकल्पा इत्येतेषां द्वन्द्वः ते कामरत्यादय एव विपुलदक रजांसि-विस्तीर्णजलकणिकाः तेषां यो रया वेगस्तद् रूपोऽन्धकारो यत्र स तथा तम् । कामरत्यादिरूपजलकणिका वेग समुत्पन्नान्धकारयुक्तमित्यर्थः । पुनः कीदृश ? मित्याह-' मोहमहावत्तभोगभममाणमुप्पमाणुच्छलंतबहुगब्भवासपच्चोणियत्तपापियं' मोहमहावर्त्तभोगभ्रमद्गुष्यदुच्छलगहुगर्भवासपत्यवनिवृत्तप्राणिकम् , तत्र-' मोहमहावत्त ' मोहमहावतः मोह एव महानाभोग करने की वाञ्छारूप ( पायालं ) पाताल से यह युक्त है, तथा ( कामरइरागदोस बंधण वहुविहसंकप्पविउलदगरयरयंधयारं ) ( कामरइ) शब्दादिक विषयों में अभिरुचिरूप कामरति, (राग ) अनुकूल विषयों में प्रीति रूप राग, एवं ( दोस ) प्रतिकूल शब्दादिविषयों में अप्रीति द्वेष, जो (बंधण ) बंध के कारण हैं, तथा ( बहुविह संकप्प ) बहुत प्रकार के जो मनः संकल्प हैं ये ही सब इस संसारसमुद्र में (विउल दगरय ) वीस्तीर्णदकरज-जलकण हैं। इनका ( रयंधयारं ) वेगरूप अंधकार इसमें सदा व्याप्त हो रहा है अर्थात्-कामरत्यादिरूप जलकणों के वेगों से समु. त्पन्न अंधकार से यह युक्त बना हुआ है ( मोह महावत्त-भोगभममाणगुप्पमाणुच्छलतबगब्भवास पच्चोणियपाणियं ) तथा ( मोहमहावत्त) मोहरूप महान आवर्त इसमें उठ रहे हैं। और इन आवर्तों में जहां पिपासा-प्रा चीन अपना ४२वानी ४२७१-३५ " पायाल' पाताथी ते युत छ, तथा “ कामरइरागदोसबधणबहुविहसंकप्पविउलदगरयरयंधयार" "कमरइ” हा विषयमा मनिझथि३५ भति, “ राग" मनु विषयोमा प्रीति३५ २२०, अने “दोस" प्रतिष शाहि विषयोमा मप्रीति३५ द्वेष, “बधण" मधनन ॥२॥ छ, तथा " बहुविहसंकप्प" भने। ४२२ मनःस४८यो छे से मया २॥ संसार सागरमा “विउलगरय" विस्ती मिन्दुसछ. "रयंधयार" तेभना ये॥३५ २५५४.२थी ते व्यास છે. એટલે કે કામરતિ આદિ રૂપ જળકના વેગથી ઉત્પન્ન થયેલ અંધકારથી ते युत . “मोहमहावत्तभोगभममाणगुप्पमाणुच्छलतबहुगब्भवासपच्चोणियत्तपाणिय " तथा " मोहमहावत् " भो ३५ महा भणी तमा उत्पन्न थया ४३ छ. मने ते मामा -ममi rni " भोग" विषय- २ " भम For Private And Personal Use Only Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकणसूत्रे वर्तः जलभ्रमस्तत्र भोगाः-विषया एव — भममाण' भ्रमन्तः ‘गुप्पमाण 'गुप्यन्तः व्याकुली भवन्तः, उच्छलन्ता-उत्पतन्तः ‘बहुगब्भवास' बहुषु = बहुविधेषु गर्भवासेषु-पशुपक्ष्यादिलक्षणेषु 'पच्चोगियत्त' प्रत्यवनिवृत्ताः-उत्पत्त्य निपतिताः 'पाणिय' प्राणिनो जीवाः समुद्रपक्षे मकरादयः, संसारपक्षे संसारिणो यत्र तत्तथा भूतं, तथा-पधावियवसणसमावण्णरुण्णचंडमारुय समाहयाऽमणुण्णवीचिवाकुलियभंगफुट्टतनिट्ठकल्लोलसंकुलजलं ' प्रधावितव्यसनसमापन्नरुदितचण्डमारुतसमाहतामनोज्ञवीचिव्याकुतितभङ्गस्फुटदनिष्टकल्लोलसंकुलजलम् , तत्र - पधाविय' प्रधावितानि- प्रणेतस्ततोगतानि यानि 'वसण' व्यसनानि कष्टानि तानि 'समावण्ण ' समापन्नाः प्राप्ता के प्राणिनः तेषां 'मण्ण' रुदितमेव 'चंडमारुय' चण्डमारुता प्रचण्डवायुस्तेन 'समाहय ' समाहताः परस्पर संघटिता याः 'अमगुण्ण ' अमनोज्ञा भयंकराः वीचयः दुःखपरम्परारूप तरङ्गास्तैः 'वाउलिय' व्या(भोग ) विषय-भोग ही ( भममाण ) भ्रमण कर रहे हैं, (गुप्पमाणे ) व्याकुल हो रहे हैं तथा (उच्छलंत ) उछल रहे हैं। एवं इस संसार समुद्र में ( बहुगम्भवास ) मनुष्य, पशु पक्षी आदि योनि रूप नाना प्रकार के गर्भो में संसारी जीव तथा सत्रुद्रपक्ष में मगरमच्छ आदि जलचर जीव आफर निपतित हो रहे हैं । ( पधाविय-वप्तण-समावण्ण रुण्णचंडमारुयसमाहयाऽमुण्णवीचि वाकुलियभंगफुटुंतनिट्ठकल्लोलसंकुलजलं ) तथा यह संसार समुद्र (पधाविय ) इधर उधर से संप्राप्त (वसणसमावण्ण) अनेक व्यसनों-दुःखोंसे पीडित हुए प्राणियोंके (रुण्ण) रुदनरूप (चंड भारुय) प्रचण्ड वायु से ( समाहय ) परस्पर संघर्ष को प्राप्त हुई (अमणुण्णवीचि) अमनोज्ञ दुःखों की परंपरारूप तरङ्गों से (वाकुलिय) माण" प्रम] ४६२छ, “ गुप्पमाण" व्या ४०० ४ २२स छ, तथा " उच्छलत ' Savil ॥ छे. अने ते ससा२ सागमा " बहुगम्भवास" મનુષ્ય, પશુ, પક્ષી આદિ નિરૂપ વિવિધ પ્રકારના ગર્ભોમાં પ્રાણીઓ-સંસા. રની અપેક્ષાએ જી તથા સમુદ્રની અપેક્ષાએ મગરમચ્છ આદિ જળચર છ આવી આવીને નિપતિત થઈ રહેલ છે. એટલે કે તેમાં જન્મ લઈ રહેલા छ. “पधाविय-धसण-झण्ण-चंड-मास्य-समाहयाऽमुण्णवीचि-वाकुलिय-भंगफुटुंत-निदृकल्लोल-संकुलजलं " तथ! -AL संसार समुद्र “ पधाविय " मी तहाथी पास “वसणसमावण्ण" भने (व्यसना) माथी पीdi प्राणीमानi " रुण्ण " २४न३५ " चंडमारुय" प्रय3 वायुथी “ समाहय " ५२:५२ AAdi “ अमणुण्णवीचि " अमना मनी ५२५२॥ ३५ तथा For Private And Personal Use Only Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ. ३ सू० १९ संसारसागरस्वरूपनिरूपणम् कुलित-विक्षोभितं तथा भङ्गैः तरङ्गैः सह संघटनेन ‘फुटुंत' स्फुटन्त-=पृथग् भवन्तो ये 'निट्ठकल्लोल' अनिष्टकल्लोलाः = दारुण दुःखमहातरङ्गास्तैः संकुलं =व्याप्तं जलं = जन्मजरामरणरूपं यत्र स तथा तम् । मोहमहावतनिपतितविषयोपभोगभ्रमणनिमग्नप्राणियुक्तं पशुपक्षिनरकनराऽमरादिविषमोन्नतावनतयोनि विभ्रमणतरङ्गभङ्गयुक्तं विविधदारुणदुःखदुःखितं पाणिरोदनाऽऽक्रन्दनरूपवायु समाघातपद्धदुःवतरङ्गयुक्तं पुनः पुनर्जन्ममरणरूपजल यत्र संसारसागरं वसन्तीति सम्बन्धः पुनः कीदृश ? मित्याह - ‘पमादबहुचंडदुद्रुसावयसमाहयउद्धायमाणगपूरघोरविद्धंसत्थबहुलं ' प्रमादबहुचण्डदुष्टश्वापदसमाहतोद्धावपूरघोर विध्वंसानबहुलं' तत्र-प्रमादबहुचण्डदुष्टश्वापदाप्रमदाः = मद्यविषयकषायनिद्रा विकथारूपास्ते एव बहुचण्डाः अतिशयरौद्राः 'दुट्ठसावय' दुष्टश्वापदा-हिंसक क्षुभित हो रहा है । एवं ( भंगफुटुंन ) तरङ्गों के साथ संघटन से पृथक हुई ऐसी (निट्ठकल्लोल ) अनिष्टकल्लोलों-दारुण दुःखरूप महातरंगों से ( संकुलं ) संकुल बना हुआ ऐसा (जलं) जन्म, जरा, मरणरूप जल इसमें भरा हुआ है । अर्थात् मोहरूप महा आवर्त में जहां विषयोपभोग की वाञ्छा से इतस्ततः भ्रमण करते हुए जीव निमग्न हो रहे हैं । तथा पशु, पक्षी, नरक, नर, अमर, आदि ऊँची नीची योनियों में परिभ्ररण रूप तरंगें इस में उठ रही हैं, और विविध दारुण आदि दुःखों से दुःखित हुए प्राणियों के रोदन-आक्रंदन रूप वायु के आघातों से जहां दुःखरूप महा तरंगें जन्म जरा मरण रूप जल को आलोडित कर रही हैं । (पमादबहुचंडदुट्ठ सावय समायउद्धायमाणगपूरघोरविद्धंसणत्थवहुलं ) तथा इस संसाररूप समुद्र में (पमाद ) मद्य, विषय, कषाय, निद्रा, विकथा, इन पांच प्रमादरूप (चंड) भयंकर ( दुट्ठसावय ) रौद्र "वाकुलिय" vil २ह्यो छे. अने “ भंगफुहत' तयानी सा2 24231. पाथी ही पडसी “निटूकल्लोल " अनिष्ट ear-ह.२९ दुः३५ महातगोथी " संकुल" व्यास "जल" भ, १२, भ२९ ३५ १५ तमा ભરેલું છે. એટલે કે મોહરૂપી મહાવમળમાં વિષયભોગની ઈચ્છાથી આમ તેમ ભ્રમણ કરતા જીવે ત્યાં ડૂબેલા છે. તથા પશુ, પક્ષી નાકી, નર, દેવ આદિ ઊંચી નીચી નિયામાં પરિભ્રમણરૂપ તરંગમાં તેમાં ઉછળી રહ્યા છે, અને વિવિધ દારુણ દુઃખોથી પીડાતા જીના આકંદ રૂપે પવનના આઘાતથી જ્યાં દુઃખરૂપ મહાતરંગો જન્મ, જરા મરણ રૂપ જળને ખળભળાવી રહેલ छ. “पमाद-बहु-चंड-दुदसावयसमाहयउद्घायमाणगपूरघोर विद्धसणत्थबहुल' " मा ससार ३पी सागरमा “पमाद" मध, विषय षाय. निद्रा मन विश्या, से पांय प्रभा४३५ी " चंड" लय ४२ "दुइसावय" रौद्र पावन डिस प्र. ४७ For Private And Personal Use Only Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे जन्तवः, तैः 'समाहय' समाहताः आघातं प्राप्ताः ये जीवास्ते 'उद्धायमाणगपूरघोर, उद्वापन्नः तितो विविषवेष्टासु, सपुद्रपझे मत्स्यादयः संसारपक्षे पुरुषादयः तेषां पूर:=पमूहः तस्य ये घोरा दारुणाः 'विद्रंसगत्थ' विध्वंसानर्थाः-विनाशरूमा अनर्यास्ते बहुला यत्र स तथा तम् । 'अण्णाणभमंतमच्छपरिहत्यअनिहुतिदियमहामगरतुरियचरिय खोक्खुब्भमाणसंतावनिच्चयचलंतचवलचंचल अत्ताणसरणपुचकम्मसंचयोदिण्णवज्जवेदिज्जमाणदुइसयविवागणंत जलसमूह' अ. ज्ञानभ्रमन्मत्स्यपरिग्रस्तानिभृतेन्द्रियमहामकरत्वरितचरितचोक्षुभ्यमाणसन्तापनित्यकचलच्चपलचश्चलावाणाशरणपूर्वक्रमसञ्चयोदीर्णा वद्यवेद्यमानदुःखशत विपाकघूर्णज्ज्लसमूहम् , तत्र-अण्णाणभमंतमच्छपरिहत्थ' अज्ञानभ्रमन्मत्स्यपरिग्रस्तम् = अज्ञानान्येव भ्रमन्तो मत्स्या: अज्ञानरूपमहामत्स्यास्तैः परिग्रस्तं व्याप्तम् . तथा '.अनिहुतिदियमहामगर ' अनिभृतेन्द्रियमहामकरा: अनिभृतानि अनुपशान्तानि यानि इन्द्रियाणि तान्येव महामकरास्तेषां यानि 'तुरियचरिय ' त्वरितचरितानि =शीघ्रसञ्चरणानि तैः 'खोक्खुब्भमाण' चोक्षुभ्यमाणः = अतिशयेन व्याकुली आकृतिवाले हिंसक जंतुओं द्वारा (समाहय ) आघात को प्राप्त करते (उद्धायमाणग) विविधचेष्टाओं में उछलते हुए समुद्रपक्ष में मत्स्यादिक, संसारपक्ष में पुरुषादि के (पूर ) समूह से जहां (घोर ) भयंकर ऐसे (विद्धंसणत्थबहुलं ) विनाशरूप अनेक अनर्थ उत्पन्न होते रहते हैं (अण्णाणभमंतमच्छपरिहत्थ-अनिहुर्ति दियमहामगर-तुरिय-चरिय खोक्खुब्भमाण-संतावनिच्चय-चलंत-चवल-चंचल-अत्ताणासरणपुब्धकम्मसंचयो दिण्णवज्ज वेदिज्जमाण-दुहसयविवाग-धुणंत-जलसमूहं ) तथा यहां संसार समुद्र ( अण्णाणभमंतमच्छपरिहत्य ) अज्ञानरूप घूमते हुए महामत्स्यो से व्याप्त हो रहा है और ( अनिहुतिंदियमहामगर ) अनुपशान्त इन्द्रियरूप महामकरों के (तुरियचरिय ) शीघ्र संचरणों से तुमे द्वारा “ समाहय" मापात पाभीन. “ उद्घायमाणग" विविध रीत Sonu (समुद्र५२) भत्त्याहि. ( ससा२५२ ) पुरुषादिना " पुर" सभथी ज्या "घोर" लय४२ सेवा “विद्धंसणत्थबहुलं " विना५३५ मने मनी उत्पन्न ४२॥ २९ छे. “ अण्णाण-भमंत-मच्छ परिहत्थ-अनिहुतिंदिय- महामगर तरिय-चरिय-खोक्खुब्भमाण-संताव-निच्चय-चलंत-चवलचंचल-अत्ताणासरणपुवकम्म-संचयो-दिण्णवज्ज-वेदिज्जमणि-दुहसय-वियाग-पुणंतजलप्तमूह " तथा मा संसार सागर "अण्णाणभमंत-मच्छ-परिहत्य " अज्ञान३५ घूमता महामस्याथा व्याप्त छ, भने “ अनिहुँतिदिय महामगर" 24नुपशान्त ( उपशान्त न थयेसी )न्द्रियो ३५ भामाशेना " तुरियचरिय" यी सनसनी For Private And Personal Use Only Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सुदर्शिनी टीका अ० ३ सू० १९ संसारसागरस्वरूपनिरूपणम् क्रियणीयः सः ' तथा ' संतापणिच्चय' सन्तापनित्यकः=सन्तापः =विविधाधि व्याधिवन्धुवियोगादि जातः सागरस्थवडवाग्निसन्तापरूपो दुःखसन्तापो नित्यं यत्र स सन्तापनित्यकः, अतएव - ' चलंतचवलचंचल' चलच्चपलचञ्चलः अत्यन्तमस्थिरः, सतत परिवर्तनशीलमित्यर्थः [: तम्, तथा 'अत्ताणासरण' अत्राणाऽशर णानां, अत्राणानामशरणानां 'पुण्बकम्मसंचय' पूर्वकर्मसञ्चयानां प्राणिनां उदीर्णम् = उदयमानं यत् ' वज्जं ' अवद्य = पापं तस्य यः 'वेदिज्जमाण ' वेद्यमानः उपभुज्यमानः 'दुइसयविवाग' दुःखशतरूपो विपाकः स एव घुर्णन् = भ्रमन् जल समूहो अत्र स तथा तम्, इड्डिरससायगारबोहारगहियकम्मपडिबद्धसत्तकड्डिज्ज माणनिरयतल दुत्तसण्ण विसष्णवहलं ' ऋद्धिरससातगौरवोपहारगृहीतकर्मप्रतिबद्धसत्त्वकृष्यमाणनिरयतलदुत्तसन्नविषण्णबहुलम्, तत्र 'इड्रिरससायगावोहार ' ऋद्धि रससातगौरव पहारा:= ऋद्धिरससानलक्षणानि गौरवाण्येव उपहारा:= जलचरविशेपास्तैः ' गहिय ' गृहीताः 'कम्मपडिबद्ध ' कर्मप्रतिबद्धाः = ज्ञानावर( खोक्रभमाण) यह अत्यंत क्षुभित बना हुआ है। (संतावणिच्चय) विविध व्याधि, बन्धु वियोग आदि जन्य दुःखरूप वडवाग्नि का इसमें नित्य संताप छाया हुआ है । और यह ( चलंतचवलचंचल ) निरन्तर परिवर्तन शील है । एवं इस समुद्र में (अत्ताणा सरण) त्राण एवं शरण रहित ऐसे प्राणियों के जिनके पास ( पुव्वकम्मसंचय) पूर्वकृत कर्मों का संचय मौजूद है (उदण्णवज्ज ) उदय में आया हुआ जो पापकर्म का (वेदिनमा दुहसचिवागं ) उपभुज्यमान जो दुःखशत ( सैकड़ों दुःख) रूप फल है वह फल ही वहां (धुणंतजलसमूह ) चलता हुआ जल भरा हुआ है : (इडिरस सायगार वोहारगहियकम्म पडिबद्ध सत्तकडिज्ज माणनिरयतलदुत्तमण्णविसण्णबहुलं ) ऋद्धि रससातरूप गौरव ही इस संसार समुद्र में (उबहार ) उपहार जलचर जन्तु विशेष भरे हुए हैं "खोक्खुभमाण" अत्यंत मणलगी ठेस छे, “ संतावणिच्चय " विविध व्याधि વ્યાધિ, ખંધુ વિયાગ આદિ જન્ય દુઃખરૂપ વડવાનલના સંતાપ તેમાં નિત્ય વ્યાપેલા હાય છે, અને તે 'चलंतच वलचंचल " निरंतर परिवर्तन शील છે, અને આ સંસારમાં अत्ताणावरण ત્રાણુ અને શરણ રહિત એવા જીવે छे बेमनी पासे " पुत्र्वकम्मसंचय " पूर्वे रेसा भेना समूह रहे छे, उदिण्णवज्ज" भने ? पायमेन उदय थयो छे ते पापभनि “वेदिज्जमाणदुहसयविवाग" लोगवा ३५ सेडो हुः “ सैकडो दुःख રૂપ જે ફળ छे, ते त्यां" घुणंतजलसमूह " वडेतां ण समान हे " इडिटर ससायगारवोहार - गहियक्रम्म-पडिबद्ध - सत्त - कढिज्जमाणनिर-यतल दुसण्ण-विसण्णबहुलं " ऋद्धि रससांत ३५ गौरव ४ मा संसार सागरमा “ उवहार (6 66 ܕܕ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only ܕ Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३७२ प्रश्नव्याकरणसूत्रे णादिलक्षणैः कर्मभिर्वद्धाथ ये 'सत्त' सत्त्वाः पाणिनस्तथा 'कड्रिज्जमाण' कृष्यमाणाः कृष्यकर्मवन्धनेन रज्जुबद्धकाष्टमिव नरकं प्रत्याकृष्यमानाः 'निरयतल' नरक एव तलं-पातालं ‘दुत्त' तद्भिमुखं 'सण्ण' सन्नाः नरकरूपपा. तालगमनाभिमुखत्वात् खिन्नाः तथा 'विसण्ण' विषण्णाश्च ' शोकातिशयं प्राप्ताः ये प्राणिनस्तै बहुलो यः स तथा तम् । तथा 'अरइरइभयविसायसोगमिच्छत्तसेलसंकडं ' अरतिरतिभयविषादशोकमिथ्यात्वशैलसंकटं = तत्र-अरतिः = धर्मेरुचिः रतिः विषयेषु रुचिः भयं-इहलोकादि सप्तभयानि विषादः अनिष्टसंयोगजनितदुःखं शोक-इष्टवियोगजनितदैन्यं मिथ्यात्वं च कुदेवकुगुरुकुधर्मश्रद्धालक्षणमित्येतान्येव शैलाः पर्वतास्तैः सङ्कटः विषमो यः स तथा तम् , अरत्यादि और इन उपहारों से इसमें (गहियकम्मपडिबद्धसत्त) ज्ञानावरण आदि कर्मों से बद्ध प्राणी गृहीत बने हुए हैं। तथा ( कडिज्जमाण) पूर्वकृत कर्मबंधन के द्वारा रज्जु बद्ध काष्ठ की तरह यहां वह प्राणिवर्ग नरक की और खेचा जा रहा है और (निरयतलदुत्त) नरकतक की ओर गमन करने में सन्मुख होनेकी वजह से यहां वह प्राणीवर्ग (सण्णविसण्णबहुलं) सन्न-खिन्न, एवं विषण्ण शोकातिशय को प्राप्त हो रहा है। तथा (अरइरइभयावसायसोगमिच्छत्तसेलसंकडं ) (अरइ) अरतिधर्ममें अरुचि, (रइ) रति-विषयों में रुचि, (भय) इहलोकभय, परलोकभय आदि सात भय, (विप्ताय) विषाद-अनिष्ट संयोग जनित दुःख, (सोग) शोक-इष्ट वियोग जनित दैन्यभाव, (मिच्छत्त ) मिथ्यात्वकुगुरु, कुदेव और कुधर्म की श्रद्धा, ये ही सब इस संसारसमुद्र में (सेल) पर्वत जैसे है सो इन पर्वतोंसे यह (संकडं) विषम बना हुआ है। उपहार ४१२२ रन्तु विशेष लरेस छे भने ते ७५४ाशयी तमा “ गहियकम्भपडिबद्धसत्त" ज्ञान॥१२ मा थी माये प्राली स५॥येत छ. तथा " कड्ढिज्जमाण" पूर्व ४२८i भी द्वारा, हो२९४थी iधेसा 18 म ते प्राणीमा न२४नी त२३ या २ा छ, भने “निरयलदुत्त” १२४ १२५ गमन ४२वाने मलिभुम डावाने २२ ते प्राणी। “सण्णविसण्णबहुलं " भिन्न भने मतिशय ४ युत थ रह्यो छ. तथा “ अरइ-रइभय-विसाय-सोगमिच्छत्त सेलसंकड” “ अरइ" भति-यममा मरुथि, "रइ” २ति-विषयोमा २ति, "भय " मानो लय, परसोनी लय माहि सात लय, “विसाय” विषाहमनिट सयानित हुम " सोग" \-5ष्ट वियो। नित हैन्यमाप, " मिच्छत्त" भिथ्यात्व. शुरु, अद्वेष भने सुधमनी श्रद्धा, मे मधु । ससा२।२भा “ सेल" ५१त २ छ, मे पताथी ते “संकडं " विषम For Private And Personal Use Only Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० ३ सू० १९ संसारसागरस्वरूपनिरूपणम् ३७३ दुःखैर्व्याप्तमित्यर्थः। तथा 'अणाइसंताणकम्मबंधणकिलेसचिक्खिल्लदुटुत्तारं अनादि सन्तानबन्धनक्लेशचिक्खिल्लदुष्कृत्तारम् , तत्र-अनादि आदि रहितः सन्तानः विस्तारो यस्य तत्तथाभूतं यत् कर्मवन्धनं तप एव 'किलेस' क्लेशः दुःखं तद्रूपमेव चिक्खिल्लं-कर्दमस्तेन दुष्टुत्तारः दुस्तरः यः स तथा तम् । तथा-'अमर नरतिरिय निरयगइगमणकुडिलपरिवट्टविउलवेल' ' अमरनरतियङ्नरकगतिगमनकुटिलपरिवर्तविपुलवेलं-तत्र - अमरनरतियङ्नरकचतुर्गतिषु-याद् गमनं तदेव कुटिला वक्रा परिवर्ताः गोलाकारा एव विपुला विस्तीर्णा वेला-समुद्रजलवृद्धिरूपा यत्र स तथा तं, नरकादि चतुर्गतिचक्रभ्रमणपरम्पराभिः समुद्रजलवृद्धिरूपाभिर्युक्तमित्याशयः। तथा ' हिंसालियअदत्तादाणमेहुणपरिग्गहारंभकरणकरावणाणुमोयण-अविहअणिटकम्मपिडियगुरुभरकंतदुग्गजलोघदूरनिवोलिज्जमाणउम्मग्गनिम्मग्गदुल्लहतल' हिंसाऽलीकादत्तादानमैथुनपरिग्रहारम्भकरणकारणानुमोदनाष्टविधानिष्टकमपिण्डितगुरुभाराकान्तदुर्गजलौघदूरनिवोल्यमानोन्मार्गनिमग्नदुर्लभतलम् , तत्र-'हिंसालियअदत्तादाणमेहुणपरिग्गहारंभ ' हिंसाऽलीकाऽदत्तादानतथा (अणाइसंताणकम्मबंधण किलेसचिक्खिल्लठुत्तारं ) जिसका विस्तार आदि से रहित है ऐसे कर्मबंधन जन्य क्लेशरूप (चिक्खिल्ल) कीचड से यह (दुटुत्तार) दुस्तर बना हुआ है तथा ( अमरनरतिरियनिरयगहगमगकुडिलपरिवहविउलवेलं ) देव, नर, तिथंच और नरक, इन चार गतियों में जो जीवोंका गमन है वही इस समुद्र को कुटिल गोलाकार विस्तर्ण वेला है, अर्थात् नरकादि चतुर्गतिरूप यह संसार है । इसमें जीवचक्र की तरह परिभ्रमण करते रहते हैं। यह परिभ्रमण की जो परंपरा है वही इस समुद्र की जल वृद्धि रूप वेला है। ( हिंसालिय अदत्तादान मेहुणपरिग्गहारंभकरणकरावणाणुमोयण) हिंसा, झूठ, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रहरूप आरम्भों का करना मनस छ. तथा “ अणाइ-संतण-कम्मबंधण-किलेसचिक्खिल्ल-दुडुत्तार " मनाहि मयधन ४न्य ४१३५ “चिक्खिल्ल" श्रीयस्थी ते "दादठुत्तारं" दुस्त२ मत छ, तथा “ अमरनरतिरियगइगमणकुडिलपरिवविउलवेलं " દેવ, નર, તિર્યંચ અને નરક, એ ચાર ગતિમાં જીવેનું જે ગમન થાય છે એ જ આ સંસાર સમુદ્રની કુટિલ ગેળાકાર વિસ્તીર્ણ વેલા છે, એટલે કે નરકાદિ ચાર ગતિરૂપ આ સંસાર છે. તેમાં ચકની જેમ પરિભ્રમણ કરે છે. આ પરિભ્રમણની જે પરંપરા છે તેજ આ સમુદ્રની જળ વૃદ્ધિરૂપ વેલા छ. “हिंसालिय-अदत्तादान-मेहुणपरिग्गहार भकरणकरावणाणुमोयण" हिसा, જૂઠ, અદત્તાદાન, મિથુન, પરિગ્રહરૂપ આરંભે કરવા, અને તેની અનુમોદના For Private And Personal Use Only Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे मैथुनपरिग्रहरूपा ये आरम्भाः व्यापारास्तेषां यानि करणकारणानुमोदनानि= करणं स्वयं, कारण अन्यैरनुष्ठापनम् , अनुमोदनं च कृतकारितादेः प्रशंसन मित्येतैः प्रकारैः 'अद्वविह ' अष्टविधं यत् 'अनिट्ठक्कम्मपिडिय' अनिष्टकर्मपिण्डितं-दुःखदकर्मसञ्चयः तदेवगुरुभारस्तेन ' अक्कंत' अक्रान्ता थे जीवास्तेषां दुर्गाण्येव-दुःखान्येव यो ' जलोघ' जलौघा जलपूरः तत्र दूर अत्यर्थ 'निवोलिज्जमाण' निवोल्यमानाः ब्रुड्यमानाः, 'उम्मग्गनिमग्ग ' उन्मग्ननिमग्नाश्च =दुखरूपजले उर्धाऽधो गम्यमानाः ये माणिनस्तैः ‘दुल्लहतल' दुर्लभतलंदुर्लभं दुष्याप्यं तलं यस्य स तथा तं-हिंसाऽलीकादिपञ्चास्रवनिताऽष्टविधकर्मभाराक्रान्तैः नानाविधदुःखरूपागाधजले निमज्जनोन्मज्जनं कुर्वद्भिर्जी वैर्दुष्पाराऽकराना अनुमोदन करना, इन पूर्वोक्त प्रकारों से जो (अविह अणिट्ठ कम्मपिडिय) दुःखद आठ प्रकारके कर्मोका संचय होता है, उस कर्म संचय रूप भार से (अकंत) आक्रान्त-भारी घने हुए तथा (दुग्गजलोघ) दुःख रूप जलसमूह में ( दूरनिब्बोलिज्जमाण ) अत्यन्त डूबते हुए तथा (उमग्गनिम्मग्ग) ऊय डूब करते हुए अर्थात् ऊँचे नीचे आते हुए ऐसे प्राणियों के लिये यह संसार समुद्र ( दुल्लहतलं) अलभ्य तलवाला है अर्थात् इस संसार समुद्र को पूर्वोक्त प्रकार के जीव पार नहीं कर सकते हैं । अर्थात् इस संसारसमुद्र का तल-थाह ऐसे जीवोंसे अप्राप्त है जो हिंसा, झूठ, अदत्तादान, भैथुन, परिग्रहरूप आरंभो के करना, कराना, एवं उनकी अनुमोदना में लगे हुए हैं, क्यों कि इन पूर्वोक्त प्रकारों से वे जीव दुःखद अष्टविध कर्मों का संवय कर लेते हैं इस कारण उन पर इसका बहुत भारी भार हो जाता है। इससे वे दब जाते ४२वी, में पूर्वरित ४ारे रे " अविहअणिठुकम्मपिडिय" मा ५२नi, मह नि! 'यय थाय छ, ते भसंयय३५ माथी " अकंत' 240xitमारे मनेस तथा दुग्गजलोघ " ३५ समां दुरनिव्वोलिजमाण " अत्यात मता, तथा “ उम्मग्गनिमग" पाणीमा ४२०i-2 नीय मावत सेवा प्राणीमाने भाटे मा संसार समुद्र "दुल्लहतलं" असल्य तaવાળો છે એટલે કે આ સંસારસાગરને પૂર્વોક્ત પ્રકારના છે. તરી શકતાં નથી. એટલે કે હિંસા, જૂહ, અદત્તાદાન, મિથુન, પરિગ્રહરૂપ આરંભ કરનાર, કરાવનાર અને તેમની અનુમોદના કરનાર ને આ સંસારસાગરને કિનારે પ્રાપ્ત કરે અશક્ય છે. કારણ કે પૂર્વોકત પ્રકારે તે છે આઠ પ્રકારનાં દુઃખદ કર્મોને સંચય કરે છે. તેથી તેમના પર તેમને ઘણે ભારે બોજો હોય છે. તેનાથી તેઓ દબાઈ જાય છે, અને વિવિધ પ્રકારનાં For Private And Personal Use Only Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० ३ सू० १९ संसारसागरस्वरूपनिरूपणम् ३७५ " न्तस्तलमित्यर्थः तमेवंभूतं संसारसागर' 'सरीरमणोमयाणि दुक्खाणि उप्पियंता' शरीरमनोमयानि दुःखानि उत्पिवन्तः = कायिकानि मानसिकानि च विविधानि दुःखानि आस्वादयन्तः अनुभवन्त इत्यर्थः, 'सायासायपरितावणमयं उड्डनिन्इयं करेंता ' साताऽसातपरितापनमयमुडननिडनकं कुर्वन्तः = सुखदुःखतापात्मकमुन्मज्जन निमज्जनमनुभवन्तः सातं = सुखं तदात्मकमुन्मज्जनमसातपरितापनं दुःखसन्तापस्तदात्मकं निमज्जनमनुभवन्तः ' चउरंतमहंत ' चतुरन्तमहान्तं = चतुरन्तं = नरकादि चतुर्विभागयुक्तं महान्तम् अनन्तं जन्ममरणादिदुःखयुक्तत्वात् । तथा 'अणवयगं ' अनवदयं अनन्तम्- अन्तरहितमित्यर्थः, 'रुदं रुद्रं सफल हैं और नाना प्रकार के दुःखोंको भोगा करते हैं. अतः यह दुःख समूह ही इस संसार समुद्र में अवाह जल भरा हुआ है । उसमें ही ये जीव बहुत अधिक रूप में बकियां लेते रहते हैं, उन्मग्न, निमग्न होते रहते हैं । फिर वे इसके अन्तस्तल को कैसे प्राप्त कर सकते हैं ? नहीं कर सकते । इसलिये सूत्रकार ने ऐसे जीवों के लिये इसका पार पाना थाह प्राप्त करना - दुःशक्य- असंभव कहा है । ( सरीरमणोमयाणी ) इस संसार सागर में पडे हुऐ जीव शारीरिक एवं मानसिक ( दुक्खाणि ) दुःखों का ही (उपयंता) अनुभव करते हैं। तथा (सायासायपरितावणमयं) सातासात परितापन रूप (उच्युडनिव्वुडयं) उन्मज्जन निमज्जन अर्थात् सातात्मक उन्मज्जन तथा असातात्मक एवं परितापात्मक निमज्जन (करेता) करने में तल्लीन हुए ये जीव ( चाउरंतमहंत ) नरकादि गति रूपचार विभागों से युक्त तथा जन्म मरणादि के अनन्त दुःखों से महान्, (अणवयग) अन्तरहिन (रु) समस्त प्राणियोंको भयजनक, દુઃખ ભોગવ્યા કરે છે. તેથી આ સંસારસાગરમાં દુઃખ સમૂહુરૂપ અપાર જળ ભરેલું છે. તેમાં જ તે જીવા વરવાર ડૂબકીઓ ખાધાં કરે છે. તે પછી તેએ તેના કિનારે તેા પહોંચી કેવી રીતે શકે? તે કારણે સૂત્રકારે એવા भवाने भाटे तेने पार पासवानुं अर्थ सशस्य मतान्युं छे. " सरीरमणोमया. णि " मा संसार सागरमा पडेला लवो शारीरि मानसिङ “ दुक्खाणि " दुःगोनो ४ " उभियंता " अनुभव पुरे छे. तथा " साया सायपरितावणमयं " સાતાસાત પિરતાપન રૂપ ' उब्बुडनिब्बुडये " ઉન્મજન નિમજ્જન એટલે 66 સાતાત્મક ઉન્મજન ( પાણીની ઉપર આવવું તે) તથા અસાતાત્મક અને પરિતાપાત્મક નિમજ્જન ( રૂમવું તે) " करेता " वामां तीन थयेस ते वे “ चाउरंतमहंत - નરકાદિ ગતિરૂપ ચાર વિભાગાવાળા તથા જન્મ भरणाहि दु:मोथी भड्डान, " अणवयग्गं " अन्तरहित, " रुद्द " गधां आशीमोने For Private And Personal Use Only Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याव पाणिभयजनक, 'संसारसायरं' संसारसागरं, वसन्तीत्यग्रेण सम्बन्धः कीदृशं संसारसागरमित्याह-' अट्टिय अणालंबणपइहाणं' अस्थिताऽनालम्बनप्रतिष्ठानम् =अस्थितानाम् संयमानुष्ठानरहितानां न विद्यते आलम्बनम् अवलम्बः प्रतिष्ठान रक्षाकरणं यत्र स तथा तं असंयमिनामाधारवर्जितं त्राणवर्जितं चेत्यर्थः, तथा 'अप्पमेयं ' अप्रमेयम् असर्वज्ञेनाऽपरिच्छेद्यं 'चुलसीयजोणिसयसहस्सगुविलं' चतुरशीतियोनिशतसहस्रगपिलं चतुरशीतिलक्षयोनिव्याप्तं योनिनाम संख्यातत्वेऽपि समवर्णगन्धरसस्पर्शानामेकत्वविवक्षणादुक्तसंख्यासामञ्जस्यं बोध्यं तत्र गाथा यथाऐसे ( संसारसायरं ) संसार सागर में (वसंति) वसते हैं, ऐसा सम्बन्ध कर लेना चाहिये । किस प्रकार के संसारसागर में बसते हैं सो कहते हैं-(अहि य अणालंघणपइट्ठागं) असंयमी जीवों के आलम्बन एवं रक्षा करने के साधनसे रहित (अप्प मेयं) कोल्हूका बेल चारों तरफ फिरनेसे पार नहीं पाता वैसे ही चतुर्गतिमें जन्ममरणसे पार नहीं पानेसे अप्रमेय, (चुलसीइजोणिसयसहस्तगविलं) चौरासीलक्ष जीव योनीयों से युक्त, (अगालोगं) प्रकाशवर्जित, एवं (अंधयारं) अंधकार से युक्त इस संसार में ( अणंतकालं जाब ) अनंतकाल तक (णिच्च) सदा (उत्तत्थ सुण्णभयसण्णसंपउत्ता) भयभीत बने हुए तथा किंकर्तव्यता से विमूढ हुए भय से एवं संज्ञा-आहार, परिग्रह एवं मथुन संज्ञाओं से सम्बद्ध बने हुए जीव ( उधिग्गवासवसहिं ) उद्विग्नों के वासस्वरूप इस संसार में (वसति) वसते हैं । जो अदत्तग्राही जीव हैं वे चतुर्गतिरूप तथा अनंत दुःखो से युक्त इस संसारसागर में अनंत काल तक परिभ्रमण करते रहते हैं। चौरासी लाख योनियां इस प्रकार से हैंभाट मय-४, २२वा “स'सारसायरं” ससा२ १२मा “ वसंति" पास ४२ छे. तेया वा प्रा२ना संसार सागरम से छ ? “ अद्रिय अणालंबण-- पहसाणं" मसयभी छवाने माघार २५वानी तथा तेभर्नु २क्ष ४२वाना साधनाथी २डित, “ अप्पमेयं” असज्ञानी अपेक्षा प्रभेय, “चुलसीइजोणिसयसहस्सगुविलं” योर्याशी atm योनियाथी युत, “ अणालोगं " प्र रहित, भने " अंधयारं" माथी युत । संसारमा “अणतकोलं. जाव" मनन्त ॥ सुधी “ णिच्च” सहा “ उत्तत्थसुण्णभयसण्णसंपउत्तो" ભયભીત બનેલ, તથા કિંકર્તવ્યતાથી વિમૂઢ બનેલ, ભય સંજ્ઞા, આહાર સંજ્ઞા, भैथुन सज्ञा, मने परिश्रय सभामाथी युक्त अनेस ! उबिगगावोसवसहिं " दिशोना-(भीयाराना) पास वा मा ससारमा “वसति" से छे. महत्ताहान લેનાર જી ચાર ગતિરૂપ તથા અનંત દુઃખોથી યુકત આ સંસાર સાગરમાં અનંત કાળ સુધી પરિભ્રમણ કર્યા કરે છે. ચેર્યાશી લાખ ચનિયે આ પ્રમાણે છે, For Private And Personal Use Only Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शनटीका अ० ३ सू० १९ संसारसागरस्वरूपनिरूपणम् 66 , पुढवि७ दग७ अगणि७ मारुय७, एक्केकसत्तजोगि लक्खाओ । वणपतेय अणते, दसचोदस जोणिलक्खाओ ॥ १ ॥ विगलिदिए दो दो, चउरो चउरो य नाश्य सुरेसु । तिरिए हुंति चउरो, चोदसलक्खा य मणुए " ॥ २॥ तथा ' अणालोग ' अनालोकं =प्रकाशवर्जितम् अन्धकारम् = अन्धकारयुक्तमेवसंसारसागरम् 'अनंतकाल जाव ' अनन्तकालं यावत् ' णिच्त्र' नित्यं सदा 'उत्तत्य सुष्णभय सण संपत्ता ' उत्त्रस्तशून्यभयसंज्ञासंप्रयुक्ताः = तत्र उत्त्रस्ताः= भयभीताः शून्याः = किं कर्तव्यविमूढाः, तथा भयसंज्ञासम्प्रयुक्ताः - भयेन संज्ञाभिव =आहार मैथुनपरिग्रहादिभिः सम्मयुक्ताः = सम्बद्धाः 'उच्चग्गवासवसहि ' उद्विग्नवासवसतिं = उद्विग्नानां वासो यत्र स तथा तं संसारं वसन्ति, अदत्तादायिनः चतुर्गतिलक्षणमनन्तदुःखं संसारसागरमनन्तकालं भ्रमन्तीत्यर्थः, इह वसेर्निरुपसर्गस्यापि सकर्मकत्वमार्षत्वात् ॥ सू० १९ ॥ “पुढवि७ दग७ अगणि७ मारुय७ एक्केक सत्तजोणिलक्खाओ । बणपतेय अणते, दस चोदस जोणि लक्खाओ ॥१॥ विगलिदिए दो दो, चउरो चउरो य नारयसुरेसु । तिरिएस हंति चउरो चोदस लक्खाय मणुए ||२||" इति । ૨૭૭ (१) पृथिवीकाय, (२) अष्काय, (३) तेजःकाय, (४) वायुकाय ( ५ ) इनकी सात सात लाख, प्रत्येक वनस्पति दश लाख, अनन्त (साधारण) वनस्पति चौदह लाख, दो इन्द्रिय, ते इन्द्रिय, चौ इन्द्रिय इनकी दो दो २ - २ लाख, नारकी तथा देव इनकी चार चार ४-४ लाख तथा तिर्यश्व पञ्चेन्द्रिय की चार ४ लाख और मनुष्य को चौदह १४ लाख | इस प्रकार ये सब मिल कर चोरासी ८४ लाख योनीयां होती हैं | सू. १९॥ For Private And Personal Use Only "" पुढवि ७ दग ७ अगणि ७ मारुय ७ एक्केक सत्तजोगि लक्खाओ । वणपत्ते य अणंते, दस चोदस जोणि लक्खाओ ॥ १ ॥ विगलिदिए दो दो चउरो चउरो य नारयसुरेसु । तिरिए हुति चउरो, चोइस लक्खाय मणुए || २ || इति । (१) पृथिवी डाय (२) अध्याय ( 3 ) तेःाय (४) वायुडाय मे हरेउनी सात सात લાખ, પ્રત્યેક વનસ્પતિની દસ લાખ અનન્ત (સાધારણુ ) વનસ્પતિની ચૌદ . લાખ કે ઇન્દ્રિની એ લાખ, ત્રીન્દ્રિની બે લાખ, ચતુરિન્દ્રિની બે લાખ, નારકી તથા દેવની ચાર ચાર લાખ તથા તિયાઁચ પંચેન્દ્રિની ચાર લાખ, અને મનુષ્યની ચૌદ લાખ. એ પ્રમાણે ખધી મળીને ચાયશી લાખ યાનિયા थाय छे. ॥ सू० १८ ॥ प्र० ४८ Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ३७८ www.kobatirth.org प्रश्नव्याकरणसूत्रे पुनरप्यदत्तादायिनः कीदृशाः सन्तः किं फलं प्राप्नुवन्तीत्याह - 'जहिं' इत्यादि Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मूलम् — जहिं जहि आउयं निबंधंति पावकम्मकारी बंधवजणसयण मित्तपरिवज्जिया अणिट्ठा भवंति अणादेजा दुव्विणोया कुट्टाणासण कुसेजा कुभोयणा असुइणो कुसंघयणकुप्पमाणा कुसंठिया कुरूवा बहुकोहमाणमायालोभा बहुमोहाधम्मसण्णसम्मत्तपभट्टा दारिदोवदवाभिभूया निच्चं परकम्मकारिणो जीवणत्थरहिया किविणा परपिंड तक्का दुक्खलद्धाहारा अरसविरसतुच्छकयकुक्खिपूरा परस्सपेच्छंता रिसिक्कारभोयणविसेससमुदयविहिं निदंता अप्पयंकयं तं च परिवयंता । इह य पुरेकडाई कम्माई पावगाई विमणसो सोएण उज्झमाणा परिभूया हुंति सत्तपरिवज्जिया य छोन्भा सिप्पकलासमय सत्थपरिवज्जिया जहाजायपसुभूया अचियत्ता निच्चं नीयकम्मोवजीविणो लोयकुच्छणिज्जा मोहमणोरहा निरास बहुला आसापास पडिबद्धपाणा अत्थोप्पायन कामसोक्खे य लोयसारेहुति अफलवंतगा य सुहुअवि उज्जमंता तद्दिवसुज्जुत्तकम्म कय दुक्ख संठ वियसित्थपिंडसंचयपराखीणदव्वसारा णिच्चं घणघण्णको सपरिभोगविवज्जिया रहियकामभोगपरिभोगसव्व सोक्खा परसिरि भोगोवभोगनिस्साणमग्गणपरायणा वरागा अकामिकाए विणियंति दुक्खं, णेवसुहं णेवणिव्वुई उवलंभति अच्चतविउल दुक्खसयसंपलित्ता परस्स दव्वेहिं जे अविरया || सू० २०॥ For Private And Personal Use Only • Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ०३ सू०२० अदत्तादायिनः कीदृशफलं लभन्ते ! ३७९ टका-'पावकम्मकारी' पापकर्मकारिणस्तेऽदत्तादायिनः 'जहि-जहिं आउयं निबंधति' यत्र यत्र आयुर्निबध्नन्ति यत्र यत्र ग्रामकुलादो आयुर्निबध्नन्ति तत्र तत्र समुत्पद्यन्ते इत्यर्थः । तत्र कीदृशा भवन्ती ? त्याह- बंधवजणसयणमित्तपरिवज्जिया' वान्धवस्वजनमित्रपरिवर्जिताः = तत्र वान्धवजनैः भ्रात्रादिभिः, स्वजनैः पुत्रादिभिः, स्नेहिजनरूपमित्रैश्च परिवर्जिताः रहितास्त्यक्ता वा भवन्ति, पुनः 'अणिहा' अनिष्टाः सकललोकस्याऽप्रियाः, तथा 'अणादेज्जा' अनादेयाः =अनादेयवचननामगोत्रादिमन्तः । तथा 'दुबिणीया' दुर्विनीताः = उद्धताः 'कुट्ठाणासगकु सेज्जा' कुस्थानासनकुशय्याः कुत्सितं स्थानं–कुग्रामवासादिरूप ये अदत्तग्नाही और भी क्या फल प्राप्त करते है ? इसी विषय को सूत्रकार पुनः स्पष्ट करते हैं -'जहिं जहिं ' इत्यादि।। टीकार्थ-(पावकम्मकारी) अदत्तादानरूप पाप कर्मकारीमनुष्य (जहिं२. आउयं निबंधति ) जिस२ पर्याय की आयु बांधते हैं वे उसर पर्याय में उत्पन्न होते हैं वहां पर उनकी स्थिति कैसी होती है ? सूत्रकार इसी घातको आगे के पदों द्वारा प्रकट करते हैं, वे कहते हैं कि ( बंधवजणसयणमित्तपरिवज्जिया) वे वहां भ्रातृ आदी बांधवजनों से, पुत्र आदि रूप स्वजनों से एवं स्नेहीजन रूप मित्रों से सदा परिवर्जित होते हैं। (अगिट्ठा ) कोइ भी लोग इनसे प्रीति नहीं करते हैं, तथा (अणादेज्जा) ये ऐसे गोत्रादि वाले होते हैं, की जिनका वचन कोइ नहीं मानते हैं यहां तक कि जिनका नाम लेना भी भले मनुष्य अच्छा नहीं समझते हैं । (दुविणीया ) दुर्विनोत-उद्धत होते हैं। ( कुट्ठाणासणकुसेज्जा) તે અદત્તગ્રાહી બીજું કયું ફળ પ્રાપ્ત કરે છે, તે વિષયનું સૂત્રકાર હજી પણ qधारे २५ष्टी४२ ४३ छ-" जहिं जहिं " त्याह ___Astथ-"पावकम्मकारी” महत्तहान३५ ५।५४ ४२नार मनुष्य "जहिं२ आउयंनिबंधति " 22 पर्यायनी मायु मांधे छ तेते पर्यायमा पनि थाय छे. त्यां તેમની કેવી હાલત થાય છે? સૂત્રકાર એ જ વાતને હવેના પદ દ્વારા પ્રગટ अरे छ. तेसो ४ - "बधवजणसयणमित्तपरिबज्जिया" तो ત્યાં ભાઈ આદિ બધુજનથી, પુત્ર આદિ સ્વજનેથી, અને નેહીજનરૂપ મિત્રોથી सहा त्यतयेदा २९ छे, " अणिट्ठा" ५५ सो तेमना प्रत्ये प्रीति पता नथी, तथा “ अणादेज्जा" ते गात्राहि पार सय छ । તેમની વાત કંઈ માનતું નથી, એટલું જ નહીં પણ તેમનું નામ લેવું તે પણ सा२॥ भाणसाने योग्य वातुं नथी. “ दुठ्विणीया" दुविनीत-द्धत डाय छ, "कुदाणासणकुसेज्जा." आभामा मर्नु २७४ाए डाय छ, भने तेमनी २णी For Private And Personal Use Only Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे मासनम्नीचावस्थानादिलक्षणं तथा कुत्सिता शय्या विषमभूम्यादिरूपा येषां ते तथा, 'कुभोयणा' कुभोजनाः क्रोद्रवादिकदन्नाशिनः ‘असुइणो' अशुचयः= शुचिवर्जिताः, 'कुसंघयणकुप्पमाणा' कुसंहनन कुप्रमाणा: कुसंहननाः सेवार्ताति संहननयुक्ताः कुप्रमाणाः कुत्सितं शरीरस्य प्रमाणं येषां ते तथा अतिदीर्घा अति. इस्वावेत्यर्थः, तथा ' कुसंठिया' कुसंस्थिताः कुत्सिता हुण्डादि संस्थानयुक्ताः 'कुरूवा' 'कुरूपाः 'बहुकोहमाणमायालोमा' बहुक्रोधमानमायालोभाः अतिक्रोधादियुक्ताः बहुमोहाः अतिकामाः ‘धम्मसण्णासम्मत्तपन्भट्ठा' धर्मसंज्ञासम्यक्त्वपरिभ्रष्टाः धर्मसंज्ञायाः श्रुतचरित्रलक्षणधर्मबुद्धेः सम्यक्त्वाच्च-जिनवचनरुचेः परिभ्रष्टाः स्खलिताः 'दारिदोववाभिभूया' दारिद्रयोपवाभिभूताः अत्यन्तदरिद्राः, अतएव ‘णिच्चं ' नित्यं सदा ‘परकम्मकारिणः= परगृहे कुग्रामों में इनका वास होता है, अवस्थान-रहन सहन इनकी नीच होती है, विषमभूमि आदि रूप इनकी शय्या होती है । (कुभोयणा ) को द्रव आदि कदन्न ( कुत्सितअन्न ) इनका भोजन होता है। (असुइणो) शुचिता-शारिरिक एवं आत्मिक पवित्रता इनमें होती नहीं हैं ये लोग पवित्रतासे सदा रहित रहते हैं। (कुसंघयणकप्पमाणा) इनका संहनन खराब होता हैं और शरीर इनका अतिदीर्घ या अति हस्व होता है। (कुसंठिया) संस्थान इनका हुण्डादि होता है । (कुरूवा) रूप भी इनका असुहावना होता है । (बहुकोहमाणमायालोभा ) बहुत ये क्रोधी होते है। मान, माया एवं लोभ की इनमें बहुत अधिकता रहती है । (बहुमो हा ) ये बहुत कामी होते हैं । (धम्मसण्णासम्मत्तपन्भट्ठा) श्रुतचारित्र रूप धर्मबुद्धि से एवं जिन वचनों में श्रद्धारूप सम्यत्क्व रुचि से ये सदा रहित होते हैं । ( दारिदो वद्दवाभिभूया ) दादिद्रय इनके घरों में सदा કરણી નીચ હોય છે. વિષમ ભૂમિ આદિ જગ્યા તેમની શય્યા બને છે. "कुभोयणा" अ६२॥ माह ४६न्न (५२२५ मन्न) तमनु लोन मने छे. " असुइणो" तेमनामा शारी२ि४ मने मानसि पवित्रता हाती नथी, ते सीमेश तेनाथी २हित य छे. "कुसंधयण कुप्पमाणा" तेभर्नु सनन ખરાબ હોય છે, એટલે કે તેમના શરીર કાંતે અતિશય ઊંચા અને કાંતે सतिशय नीयां खाय छे. " कुसंठिया" तमनi At मप्रमाणुसना डाय छ, " कुरूवा" तेभनु ३५ ५४ सुर खातुं नयी. " बहुकोहमाणामाया लोभा” तेसो ઘણું ક્રોધી હોય છે, અને માન, માયા અને લેભનું પ્રમાણ તેમનામાં વધારે साय छ. " बहुमोहा" ते भी डायछ. "धम्मसण्णासम्भत्तपन्भट्टा" श्रुत ચારિત્રરૂપ ધર્મબુદ્ધિથી તથા જિન વચમાં શ્રદ્ધારૂપ સમ્યકત્વ રુચિથી તે લેકે સદા २हित डायछे. दारिदोववामिभूया' तमना मा.सहा दारिद्रय २३छे.मने ते हरिद्रय For Private And Personal Use Only Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ०३ सू० २० अदत्तादायिनः कीदृशं फलं लभन्ते ! ३८१ नीचकर्मकारकाः 'जीपणत्यरहिया' जीवनार्थरहिताः जीवनस्य-मनुष्यजन्मनः अर्थः = प्रयोजनं धर्मध्यानादि समाचरणं तद्रहिताः, जीवनयापनहेतुद्रव्यहीना वा, कीविणा ' कृपणाः दीनाः 'परपिंडतकगा' परपिण्डतर्ककाः परदत्तभोजनगवेषकाः 'दुक्खलद्धारा' दुःखलब्धाहारा दुःखादुदरपूरकाः ' अरसविरसतुच्छकयकुक्खिपूरा' अरसविरसतुच्छकृतकुक्षिपूराः= तत्र अरसं-नीरसं-हिङ्ग्यादि. भिरसंस्कृतं विरसं-पुराणं तत्रापि पुच्छं–कुलस्थाधनं येन कनापि प्रकारेण प्राप्त तेन कृतः कुक्षिपूरः-उदरपूरणं यैस्तै तथा 'परस्स' परस्य अन्यस्य ' रिद्धिसकारभोयणविसेससमुदयविहिं । ऋद्धिसत्कारभोजनविशेषसमुदयविधि तत्र ऋदिः= सम्पत्तिः सत्कारसम्मान तथा भोजनं चेत्येतेषां ये विशेषाः प्रकाराः तेषां यः समुदयः उदयवर्तित्वं तस्य यो विधि विधानं स तथा तं 'पेच्छंता' प्रेक्षमाणाः= रहता है और यह दारिद्रय इनका सदा तिरस्कार करवाया करता है, इसी लिये ये ( णिचं ) सर्वदा ( परकम्मकारिणो) पर कर्मकारी होते हैं-दूसरोंके घरोंमें नीच कामों को करने वाले होते हैं, (जीवणत्थरहिया) मनुष्य जन्म के प्रयोजनभूत धर्मध्यानादि सदाचारों से रहित होते हैं, (किविणा ) दीन होते हैं, ( परपिंडतकगा ) परपिंड के ऊपर आश्रित रहा करते हैं परदत्त भोजन की इच्छा में रहते हैं, (दुक्खलद्धाहारा) षडी मुश्किल से अपने उदर की पूर्ति कर पाते हैं, ( अरसविरसतुच्छकयकुक्खिपूरा ) अरस-हिंग्वादि के वधार से रहित, विरस-पुरानाअति पुराना, उसमें भी तुच्छ-कुलत्यादि अन्न जो इन्हे बडी कठिनाईसे प्राप्त होता है उससे ही ये अपने उदर की पूर्ति करते हैं। (परस्सरिद्धिसकारभोयणविसेससमुदयविहिं पेच्छंता) दूसरोंकी ऋद्धितमना सहा ति२२४२ ४२२३ छ, तेथी तेथे। "णिच्चं" सहा “ परकम्मकारिणो " પારકાની નેકરી કરનાર હોય છે, બીજાનાં ઘરમાં નીચ કામ કરનારા હોય छ, “ जीवणत्थरहिया ” मनुष्य मन प्रयोन ३५ मध्यान भात सहायाराथी २हित य छ, “किविणा" हीनय छ, “ परपिंडतकगा" પરેપિડ ઉપર સદા આધાર રાખનાર હેય છે–પરદત્ત ભેજનની ઈચ્છા રાખનાર हाय छ, ,, दुक्खलद्धाहारा” भी भुवीथी. पोतानुं पेट भरी श छे. " अरसविरसतुच्छकयकुक्खिपुरा" १२स-4 माहिना १५२ २हित, विरसપુરાણું - અતિપુરાણું અને વળી તુચ્છ કળથી આદિ અન્ન, કે જે તેને ઘણી भुशी भणे छ, तेना ४ तेसो पोतार्नु पेट सरे छे. “परस्स रिद्धिसकारभोयणविसेससमुदयविहिं पेच्छंता" allonनी ऋद्धि- सपत्ति, संसार For Private And Personal Use Only Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३८६ प्रश्नव्याकरणसूत्रे ईर्ष्याबुद्धयापश्यन्तः, ततश्च ‘अप्पयं' आत्मानं ' कयंत ' कृतान्त-कर्तव्यं च 'निंदंता' निन्दन्तः निन्दां कुर्वन्तः, ' इह य पुरे कडाई कम्माई पावगाई' इह= लोके पुरा-जन्मान्तरे च कृतानि पापकानि-पापानि कर्माणि 'परिवयंता' परिवदन्तः निन्दन्तः ‘विमणसो' विमनसः दीनाः सन्तः 'सोएण डज्झमाणा' शोकेन दह्यमानाः=अभीष्टवस्तूनामप्राप्तिदुःखेन सन्तप्यमानाः सन्तः 'परिभूया. हुंति ' परिभूताः-जनैरनादृतादुःखमाप्ताश्च भवन्ति । तथा ' सत्तपरिवज्जिया य' सत्त्वपरिवर्जिताश्च मनोबलहीनाः 'छोभा' क्षौम्याः निस्सहायत्वात्परिभवनीयाः, 'सिप्पकलासमयसत्थपरिवज्जिया' शिल्पकलासमयशास्त्रपरिवजिता-तत्र शिल्पं संपत्ति, सत्कार, सन्मान, तथा भोजन, इनके विशेष प्रकारों की समुद्य विधिको ईर्ष्याभाव से देखते हैं और अपने भाग्यकी आत्माकी तथा अपने पापकारी कर्तव्य की निंदा करते हैं । हमने (इह य) इस संसार में (पुरे ) पूर्वभव में (पावगाई कडाई ) पापकर्म किये हैं उनका ही यह फल हमें भोगने को मिला है इस प्रकार ( परिवयंता) दूसरों से कहते हुए (विमणसो ) स्वयं दीन होकर (सोएण डझमाणा) शोक से जलते हुए (परिभूया ) दुःखी (हुति ) होते हैं अर्थात् अभीष्ट वस्तु की अप्राप्ति के दुःख से निरन्तर सन्तप्यमान होते हुए भीतर ही भीतर खेद खीन्न बने हुए ये दूसरों के द्वारा अनाहत होते रहते हैं एवं दुःखों को भोगते रहते हैं। तथा ( सत्तपरिवज्जिया य) मनोबल से रहित बने हुए ये (छोन्भा) निस्सहाय होनेके कारण हरएक व्यक्ति के द्वारा अनादरणीय होते रहते हैं । तथा (सिप्प ) चित्रादिको को સન્માન, તથા ભેજન, તથા તેના ભાગ્ય પ્રત્યે તેઓ ઈર્ષ્યા ભાવથી જોવે છે, તથા પોતાના ભાગ્યની, આત્માની તથા પિતાનાં પાપકૃત્યેની નિંદા કરે छ. 'अभे " इहय " २५! संसारमा " पुरे" पूर्व मपमi " पावगाई कडाई" પાપકર્મો કર્યા છે. એનું જ આ ફળ અમારે ભોગવવું પડે છે,’ એ પ્રમાણે "परिवयंता " मीतने उता “विमणसो" पोते हीन यधने " सोएण डज्झमाणा" शोथी जता " परिभूया" भी - " हुति" थाय छे. छत વસ્તુની પ્રાપ્તિ ન થવાના દુઃખથી નિરંતર સંતાપયુક્ત થઈને મનમાં ને મનમાં ઉદ્ધિમ બનીને તેને બીજા લોકો દ્વારા તિરસ્કૃત થયા કરે છે, અને દુઃખ मान्य॥ ४२ . तथा “ सत्तपरिवज्जिया य” मामाथी २हित मेi ते " छोड़भा " असहाय पाने ४२ ४२४ व्यति २॥ मना६२rjlu (तिरकृत) थया रे छ. तथा " सिप्प" भिडिनी स्यना ४२वान विज्ञानथी, “कला" For Private And Personal Use Only Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सुदर्शिनी टीका अ० ३ सू० २० अदत्तादायिन कोदशं फलं लभन्ते ? ३८३ चित्रादि विज्ञानं कला = धनुर्वेदादिका समयशास्त्रं = आर्हतादिकं, तैः परिवर्जिताः= रहिता: ' जहाजायपसुभूया' यथाजातपशुभूताः = यथा जाता = जन्मकाळे यादृशगुणविशिष्टास्तथैव स्थिता नतु शिक्षादिना विशेषतां प्राप्ताः एवंभूता ये पशवः= बलीवर्दादयस्तद्वद्भूताः = तत्सदृशाः 'अवियत्ता' अयं देशीशब्दः अमीतिका:= अमीतिकारकाः निच्च नीयकम्मोवजीविणो नित्यं नीचकर्मोपजीविनः = " ' सदा हिंसादित्युपजीविनः ' ळोयकुच्छणिज्जा ' लोककुत्सनीयाः = सर्वजनैर्निन्दनीयाः मोहमणोरहा ' मोघमनोरथाः = निष्फलमनोरथाः, • Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्कीर्ण करने रूप विज्ञान से, (कला) धनुर्वेद आदि रूप कलाओं से एवं ( समय सत्य) अर्हत प्रणीत शास्त्रों के अभ्यास से, (परि वज्जिया) रहित होकर (जहा जायपसुभूया ) यथाजात पशु जैसे बने हुए ये ( अवियत्ता) किसी के भी साथ प्रीति नहीं करते हैं क्यों कि ये (निच्च नीयकम्मोवजी विणो ) नित्य ही नीच कर्मोपजीवी होते हैं। यथा जात पशुभूतका वाच्यार्थ इस प्रकार है- उत्पन्न होते समय पशु जिन गुणों से युक्त रहता है आगे भी वह बडा होने पर भी शिक्षादिक की प्राप्ति से अपनी तरक्की नहीं कर सकने के कारण वैसा ही बना रहता हैं, इसी तरह ये अदत्तग्राही व्यक्ति भी होते है हेय और उपादेय के ज्ञान से विकल जैसे ये जन्मते समय में थे वैसे ही ये बड़े होने पर भी रहते हैं, अतः इन्हे यथा जात पशुभूत कहा गया है । (लोय कुच्छणिज्जा ) समस्तजन इनकी निंदा किया करते हैं। ( मोहमणोरहा ) इनके जितने भी मनोरथ होते हैं वे सब मोघ - असफल ही रहते हैं । ܕܙ धनुर्वेह आदि उसाध्योथी, मने" समयसत्य " अहुत प्रशीत शाखोना अभ्यासथी. " परिवज्जिया " रहित होवाने अश्शु " जहा जाय पसुभुया यथान्नत पशुना नेवा सागता तेथे “ अवियत्ता " अर्धनी पशु साथै प्रीति रामता नथी, अणु ऐ तेथे " निच्च नीयकम्मोवजीविणो " हमेशा नीथ भेपिवी होय छे. ' यथा जात पशुभूत 'नो वाग्यार्थ या प्रमाणे छेઉત્પન્ન થતી વખતે પશુ જે ગુણાથી યુક્ત હોય છે એ જ ગુણાથી યુક્ત માટુ થતાં પણ રહે છે તે માઢુ થાય તે પણ શિક્ષાદ્રિક ની પ્રાપ્તિ વડે પોતાની ઉન્નતિ કરી શકતું નથી. એ જ રીતે અદ્યાદાન લેનાર વ્યક્તિ પણ જન્મ સમયે હેય અને ઉપાદેયના જ્ઞાનથી જેટલી રહિત હાય છે એટલી જ મેાટી ઉમરે પણ તે જ્ઞાનથી રહિત રહે છે. તેથી તેને “ યથા छे" लोयकुच्छणिज्जा તેમના સઘળા મનોરથા અપૂર્ણ રહે છે. સઘળા લોકો તેમની નિંદા કરે निरास बहुला For Private And Personal Use Only " જાત પશુભૂત ” કહેલ છે, मोहमणोहरा " ૐ ઈચ્છિત વસ્તુ ન 66 Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे निराशबहुलाः = इष्टवस्तुमात्यभावादतिनिराशाः, ' आसपासपडिबद्धपाणा' आशापाशमतिबद्धमाणाः= आशैव पाशाः बन्धनं तेन प्रतिवद्धा-निरुद्वाः माणा येषांते तथा आशामाजीविनः, 'लोयसारे ' लोकसारे लोकसारभूते 'अत्थोप्पायणकामसोक्खे' अर्थोत्पादनकामसौरव्ये तत्र अर्थोत्पादन-द्रव्योपार्जन कामसौरव्य-इन्द्रियजनित सौरव्यं तत्र ' सुटुअवि उज्जमंता ' सुष्टु अपि उद्यमन्तः -उद्योगं कुर्वन्तः ' अफलवंतगा' अफलवन्तश्च-अभिलपितवस्तुपाप्तिरहिताः 'हुंति' भवन्ति । पुनः कीदृशा भवन्ति ? त्याह ' तदिव मुज्जुत्तकम्मकयदुक्खसंठविसिस्थपिंडसंचयपरा ' तदिवसोयुक्तकर्मकृतदुःखसंस्थापितसिस्थपिण्ड सञ्चयपराः, तत्र तदिवसेषु-तनदिनेषु उद्युक्तैः-उद्योगवद्भिः सद्भिः कर्मणा व्यापारेण कृते. नापि दुःखेन अतिक्लेशेन संस्थापितः = प्राप्तो यः सिक्थानाधान्यकणानी पिण्डस्तस्य सञ्चये परा:-तत्परा ये ते तथा सम्पूर्णदिनमुद्योगपराः सन्तोऽपि(निरास बहुला ) इष्टवस्तुकी प्राप्ति नहीं होने के कारण ये सदा निराश ही बने रहते हैं । (आसापासपडिबद्धपाणा ) फिर भी ये जो जीते हैं उसका कारण इनकी आशा है। इसी आशाकी पाश में ही इनके प्राग हो बंधे हुए रहते हैं। (लोयसारे) यद्यपि ये लोक में सारभूत माने गये ( अत्थोप्पायणकामसोक्खे ) अर्थार्जन एवं इन्द्रिय जनित सुख में (सुई अविउज्जमंता) अच्छी तरह से उद्यम शील रहते है, परन्तु फिर भी (अफलवंतगा) इन्हे अभिलषित वस्तुकी प्रप्ति नहीं होती है । उससे ये रहित (हुंति ) बने रहते हैं। (तद्दिवसुज्जुत्तकम्मकयदुक्खसंठवियसिथपिंडसंचयपरा ) (तद्दिवसुज्जत्त) प्रतिदिन उद्योग करते रहने पर भी ( कम्मकय ) किये गये काम से (दुक्खसंठविय ) मुश्किल से प्राप्त हुए (सिस्थपिंड संचयपरा ) धान्यभगवान ४।२णे रोमी सहा निराश १४ २७ छ. “आसपासपडिपद्धपाणो" છતાં પણ તેઓ જીવી શકે છે તેનું કારણ તેમની આશા છે. તે આશાના पाशमा तमना पY माये॥ २९ " लोयसारे" on तेम। खोजीमा सारभूत मनात “ अत्थोप्पायणकामसोक्खे " मान (धन भावामi) तथा धन्द्रिय नित सुममा “ सुठुअविउज्जमंता" सारी ते प्रयत्नशील २९ छ, पy “ अफलवंतगा" तेभने छित वस्तु भगता नथी. तेनाथी तेस २डित "हुति ॥ २७ छ. " तद्दिव सुज्जुत्तकम्मकयदुक्खसंठविय सिथपिंडसंचयपर।" " तद्दिव सुज्जुत्त” ४२२।०४ उद्यो४२वा छतi ५५ " कम्मकय'' ४२८४ामयी "दुक्खसंठविय" भुश्तीथी भणे " सिथपिंडसंचयपरा ” धान्यानो For Private And Personal Use Only Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० ३ सू० २० अदत्तादायिनः कोदृशं फलं लभन्ते ! ३८५ कठिनपरिश्रमेणापि दिनमात्राहारयोग्यमेवकथञ्चित् अन्नादिकं पाप्नुवन्तीत्यर्थः, 'खीणदब्यसारा' क्षीणद्रव्यसाराः दरिद्राः णिच्च धणधण्णकोसपरिभोगविवज्जिया' नित्यं धनधान्यकोशपरिभोगविवर्जिताः तत्र नित्यं सदा धन-गणिमादिकं धान्यं शाल्यादिकं कोशाः भाण्डागारास्तेषां परिभोगेन-उपभोगेन विवर्जिताः, रहिताः, तथा 'रहियकामभोगपरिभोगसव्वसोक्खा' रहितकामभोगपरिभोगसर्वसौख्याः =रहितं कामयोः शब्दरूपयोः भोगानां गन्धरूपस्पर्शानां परिभोगसौख्य-उपभोग जनित आनन्दः येषां ते तथा कामभोगसुखवर्जिता इत्यर्थः, 'परसिरिभोगोवभोगनिस्साणमग्गणपरायणा' परश्री भोगोपभोगनिश्वाणमार्गणपरायणाः, तत्रपरेपाम् अन्येषां श्रियाः सम्पत्तेः यौ भोगोपभोगौ-भोगः सकृत् सुज्यते यः सः आहार पुष्पादिरूपः, उपभोगश्च गृहवस्त्रादिलक्षणः तयोर्यनिश्राणं तस्य मार्गणं कणों के पिण्ड के संचय करने में ही लगे रहते हैं अर्थात् सम्पूर्ण दिन उद्योग में तत्पर रहने पर भी ये बडे कठिन परिश्रम से केवल उसी दिन के योग्य अन्नादि सामग्री को जिस किसी प्रकार से अर्जित कर पाते हैं । ( खीणव्वसारा ) द्रव्य रूप सार से रहित न होने के कारण ये दरिद्र होते हैं। ( णिच्चं धणधण्णकोसपरिभोगविवज्जिया) सर्वदा ये गणिमादि रूप धन, शाली आदि धान्य एवं भाण्डागार इनके परिभोग-उपभोगसे रहित होते हैं । (रहियकामभोगपरिभोगसव्वसोक्खा) शब्द एवं रूप स्वरूप कामके, गन्ध रस और स्पर्श स्वरूप भोगों के परिभोग के सुखों से रहित होते है, (परसिरिभोगोवभोगनिस्साणमग्गणपरायणा ) ( परसिरि) दूसरे व्यक्तियों की लक्ष्मी के (भोगोवभोग) भोग और उपभोग के (निस्साणमग्गणपरायणा ) आश्रय की वांछा में ही सदा लगे रहते हैं । जो एक बार भोगने में आते हैं ऐसे आहार, સમૂહને સંગ્રહ કરવામાં જ લાગ્યા રહે છે. એટલે કે આખો દિવસ મહેનત કરવા છતાં પણ તેઓ અતિ ભારે પરિશ્રમથી ફક્ત એ એક દિવસ ચાલે એટલી मान्न सामग्री भांड मांड पास ४२श छ. "खीण दव्वसारा" द्रव्य३५ सारथी २डित पाने सणे तसा दरिद्र डायछे." णिच्चं धणधण्णकोसपरिभोगविवज्जिया સર્વદા તેઓ સેનામહોર આદિ ધન, શાલી આદિ ધાન્ય અને વાસણના ભંડારની तेभना उपभोगयी २हित २ छ, “ रहियकामभोगपरिभोगसव्वसोक्खा ” २५४ અને રૂપ સ્વરૂપ કામના, ગંધ, રસ, અને સ્પર્શસ્વલ્પ પરિભેગના સુખેથી તેઓ २हित डायछ “ परसिरिभोगोवभोगनिस्साणमग्गणपरायणा"" परसिरि" तमा अन्य व्यक्तिमानी सभीन। " भोगवभोग" मग तथा उपभोगना " निस्साणमग्गणपरायणा” आश्रयनी पासनामां सह बीन २७ छ, रे For Private And Personal Use Only Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - ३८६ प्रश्नव्याकरणसूत्रे 6 , गवेषणं तत्र परायणाः परसम्पत्ति भोगाभिलाषका इत्यर्थः ' वरागा' वराकाः = दीना: ' अकामियाए ' अकामिकया=अनिच्छयाऽपि विणितिदुक्खं विनयन्ति दु:खं दुखं प्राप्नुवन्ति तथा 'णेव सुहं णेव गिब्युद्धं उवलमंति' नैत्रमुखं नैव निर्वृतिं मनः शान्तिमुपलभन्ते = प्राप्नुवन्ति, ते के? इत्याह- ' अच्छंतविउलदुक्खस यसपलिता' अत्यन्त विपुल दुःखशतसम्मदीप्ताः - अत्यन्तविपुलम् = अतिविस्तीर्ण यद दुखतं तेन सम्प्रदीप्ता: संतप्ताः 'परस्त दव्वेहिं जे अविरया ' परस्य द्रव्येषु ये अविरता:- निवृत्तिभावरहितास्तेऽत्र परत्र च नैव सुखं नैव शान्ति चोपलभन्ते इति सम्बन्धः सू० २० ॥ पुष्प आदि पदार्थ भोग और जो बार २ भोगने में आते हैं ऐसे गृह वस्त्र आदि पदार्थ उपभोग हैं । (बरागा ) ये सहा नवस्था संपन होते हैं । ( अकामियाए ) इनकी यह अभिलाषा नहीं होती है की हम दुःख भोगे परन्तु इन्हें विना इच्छा के भी ( विणिहुति दुःखं ) दुःख सहना पडता है। इन्हे ( णेत्र सुहं णेवणिव्वुई उवलभंति ) जीवनभर कभी भी सुख नहीं मिलता और न कभी निर्वृत्ति मनको शांति ही इन्हे प्राप्त होती है। कारण की ये (अच्यंत विउलदुक्खसयसंपत्ति ) अत्यंत विपुल सैकडो दुःखों से संतप्त होते रहते हैं । इन दुःखो से भी संतप्त होने का कारण यह है कि ये ( परस्स दव्वेहिजे अविरया ) परके द्रव्य को अपहरण करने रूप कुकृत्य से विरतिभाव धारण करने से रहित होते है। इसी कारण इन विचारों को न सुख मिलता है और न शांति ही मिलती है । सू० २० ॥ वरागा એક વાર ભાગવવામાં આવે છે એવા આહાર પુષ્પ આદિ ગણાય છે, અને જે વરંવાર ભોગવાય છે એવાં ઘર, વસ્ત્ર ઉપભાગ કહે છે. " तेथे। डुभेश हीन दृशाभां रहे छे, " अकामिया તેમને દુઃખ લાગવવાની ઈચ્છા હોતી નથી, પણ તેમને ઈચ્છયા વિના પણ “विणिहुति दुक्खं” दुःणेो सहुन वा पडे छे तेभने "णेत्र सुहं णेव णिव्वुई उवलअंति” खायु ं भवन उही पशु सुख भगतुं नथी, अने तेभने उही निवृत्ति - (भननी शांति) पशु प्राप्त थती नथी, अरण ते दो। “अच्चंत विउलदुक्खसयसंपलित्ता ’” અત્યંત વિપુલ, સેકડા દુઃખાથી દુઃખી થયા કરે છે, એ દુઃખાથી પણ દુઃખી થવાનું કારણ એ છે કે તેઓ દ परस्स वेहिं जे अवरिया " પરધનનું અપહરણ કરવા રૂપ કુકૃત્યથી વિરકત થઈ શકતાં નથી, તે કારણે તે ખિચારાને સુખ મળતું નથી અને શાંતિ પણ મળતી નથી ।। સૂ૦ ૨૦ ॥ For Private And Personal Use Only પદાથ ભાગ આદિ પદાર્થોને "" Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० ३ सू० २१ अध्ययनोपसंहारः ___३८७ एवमदत्तादानस्य चतुर्थ फलद्वारं निरूपितम् । साम्प्रतमध्ययनार्थमुपसंहरनाह -' एसो सो' इत्यादि। __मूलम् - एसो सो अदिण्णादाणस्स फलविवागो इहलोइयो परलोइओ अप्पसुहो बहुदुक्खो महब्भओ बहुरयप्पगाढो दारुणो कक्कसो असाओ वासप्तहस्सेहिं मुच्चइ, न य अवेयइत्ता अत्थिहुं मोक्खोत्ति, एवमाहंसु णायकुलनंदणो महप्पा जिणो उ वीरवरनामधेजो कहेसी अदितणादाणस्स फलविवागं एवं तं तइयंपि अदिण्णादाणं हर-दर-मरण-कलुस -तासण-परसंति भेज्जलोभमूलं एवं जाव चिरपरिचियमणुगतं दुरंतं तिबेमि ॥ सू० २१ ॥ ॥ तइयं अहम्मदारं सम्मत्तं ॥ टीका-- एसो सो' एषः सन्दर्शितस्वरूपः ‘अदिण्णादानस्य ' अदत्तादानस्य 'फलविवागो, फलविपाकः ' इहलोइओ' ऐहलौकिका मनुष्यभवापेक्षया 'परलोइओ' पारलौकिका नरकाद्यपेक्षया ' अप्पमुहो' अल्पसुख आपातमात्र इस प्रकार यह अदत्तादान के चौथे फल द्वार का निरूपण किया गया है, अब सूत्रकार इस अध्ययन के अर्थका उपसंहार करते हुए कहते है - 'एसो सो' इत्यादि। टीकाथ-(एसोसो) जीसका इस प्रकारसे स्वरूप प्रदर्शित कीया जा चुका है ऐसा (अदिण्णादाणस्स फलविवागो) अदत्तादानका यह फलरूप विपाक ( इहलोइओ) मनुष्य भवकी अपेक्षा तथा (परलोइओ) नरकादि गतियोंकी अपेक्षासे प्रदर्शित किया गया है । इससे हम यह बात भली भांती जान सकते है कि यह फलरूप विपाक (अप्पसुहो ) આ પ્રમાણે અદત્તાદાનના ચેથા ફલદ્વારનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું; હવે सूत्रा२ मा अध्ययनना मथन। ५सडा२ ४२di ४ छ-" एसो सो" त्यादि - " एसो सो"७५२प्रजरे २१३५ प्राट ४२वामा माव्युं ते “ अदिण्णादाणरस फलविवागो' महत्ताहाननी ते ३१३५ विघा " इहलोइओ" मनुष्यसवनी अपेक्षा तथा “परलोइओ" न२४६ तियानी અપેક્ષાએ બતાવવામાં આવ્યો છે. તેની મદદથી આપણે તે વાત સારી રીતે સમજી શકીએ છીએ For Private And Personal Use Only Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे सुखजनका, 'बहुदुक्खो ' बहूदुःख दुःखबहुलः ' महन्भओ' महाभयः महाभयजनकः 'बहुरयप्पगाढो' बहुरजः प्रगाढायचुरकर्मरजोभिः सम्भृतः 'दारुणो' दारुणः भीषणः 'ककसो' कर्कशः कठोरः ' असाओ' अशात: असुखोऽशातकर्मवेदनीयस्वरूपः इत्येवंविधफलविपाकः 'वाससहस्सेहिं' वर्षसहस्रः-पल्यो. पमसागरप्रमाणकालैः 'मुच्चइ ' मुच्यते-क्षीयते । तदेव व्यतिरेकमुखेनाह-'नय' न च तं फल-विपाकम् , ' अवेयइत्ता' अवेदयित्वा = अनुपभुज्य उपभोगं विनेत्यर्थः 'हु ' निश्चयेन ' मोक्खो' मोक्षः ‘अत्थि' अस्ति 'त्ति' इति शब्दः समाप्ति सूचकः । एतस्यार्थस्य साक्षात्ममाणभूतपरमात्मप्रतिपादितत्वेन प्रमाणयन्नाह-- 'एवमाइंसु ' इत्यादि। एचम्-उक्तरीत्या ' आहेसु ' ऊचुः ऋषभादि तीर्थङ्करगणधरादय । तथा केवल आपातमात्र सुख जनक है । (बहु दुक्खो ) जीवों के इससे वास्तविक सुख नहीं मिलता है किन्तु भयंकर से भयंकर दुःखो का ही यह प्रदाता है । ( बहुम्भओ) यह महा भयजनक है (बहुरयप्पगाढ़ो) प्रचुर कर्म रूपी रज से यह भरा हुआ है। ( दारुणो) बड़ा भीषण है । ( कक्कसो) कठोर है । ( असाओ) अशात कर्म वेदनीय स्वरूप है । इस तरह का यह फलविपाक ( वाससहस्सेहिं ) हजारों वर्षों में अर्थात् पल्योपम तथा सागरोपर प्रमाणकाल में ( मुच्चइ ) छूटता है । ( न य अवेयइत्ता हु मोक्खो अस्थि त्ति) विना इसका फल भोगे जीव इससे मुक्त नहीं होता है । इस अर्थ में प्रमाणता प्रतिपादन करने के लिये सूत्रकारइसमें साक्षात्प्रमाणभूतपरमात्म के द्वारा प्रतिपादितता प्रकट करते है, वे कहते हैं- ( एवमासु ) ऋषभ आदि ते ३८३५ . " अप्पसुहो" वक्ष सुमन छ. " बहुदुक्खो" અને તેનાથી વાસ્તવિક સુખ મળતું નથી, પણ તે ભયંકરમાં ભયંકર । ना२ छे. " बहुम्भओ" ते महा लय छ, “ बहुरयप्पगाढो” विधुर अभी २०४थी ते पूरी छ, “ दारुणो" भाष९ छ, “ कक्कसो" डोर छ, “असाओ ,, मतभवनीय २१३५ छे. या प्रा२नी मा विना " वाससहस्सेहि" । वर्षे मेटले पक्ष्यायम तथा सागरोयम प्रभार अणे छूटे छे. "नय अवेयइत्ता हु मोक्खो अस्थि ति" तेनुंण मागच्या વિના જીવ તેનાથી મુક્ત થતાં નથી. તે અર્થમાં પ્રમાણ ભૂતના પ્રતિપાદિત કરવાને માટે સૂત્રકાર તેમાં સાક્ષાત પ્રમાણભૂત પરમાત્મા દ્વારા પ્રતિપાદિતતા પ્રગટ કરે છે. તેઓ કહે છે For Private And Personal Use Only Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३८९ मुदर्शिनीटीका अ०३ सू० २१ अध्ययनोपसंहारः तदनुसारेणैव ‘णायकुलनंदणो' ज्ञातकुलनन्दनः सिद्धार्थकुलानन्दकरः ' महप्पा' महात्मा परमात्मरूपः 'जिणो' जिनो-रागद्वेष विजेता 'वीरवरनामधेज्जो' वीरवरनामधेय: प्रख्यातनामा भगवान् महावीरः 'अदिण्णादाणस्स' अदत्तादानस्य फलविवाग ' फलविपाक ' कहेसी' कथितवान् । एवं तं' तत् पूर्वोपदर्शित स्वरूपम् , ' तइयपि अदिण्णादाणं ' तृतीयमप्यदत्तादानं-'हर-दह-मरण-कलुस -तासण-परसंतिगिज्झलोभमूलं' हर-दह-मरण-कलुष-त्रासनपरसत्कग्राह्यलोभ. मूलम् , तत्र 'हर' इति हरण परद्रव्यापहरणं, 'दह' दहनंदाहः-हृदयसन्तापः, 'मरणं ' मृत्युः, 'कलुस' कलुष-मनोमालिन्यं, 'तासण' त्रासनंबासः-अकस्माद्भयम् ‘परसंतियगिज्झलोभ' परसत्कग्राह्यलोभः परवस्तुग्राहको लोभः, एतेषां मूलं-मूलकारणमिदमदत्तादानम् । एवं ' जाव' यावत्-यावच्छन्देन द्वितीयालीकतीर्थंकरों ने इस अदत्तादान का ऐसा ही फल कहा है तथा उन्हीं तीर्थकरों के अनुसार (णायकुलनंदणो ) ज्ञातकुलनंदन-सिद्धार्थ के कुलको आनंद कारक (महप्पा) परमात्मरूप (जिणो) रागवेष विजेता ( वीरवरनामधेजो) श्री भगवान महावीर ने भी (अदिण्णादाणस्स ) इस अदत्तादान का ( फलविवागं ) ऐसा ही फल (कहेसी) कहा है । ( एवं ) इस प्रकार (तं) पूर्वोपदर्शित स्वरूपवाला यह (तहयंपि) तीसरा अदत्तादान भी (हर-दह-मरण-कलुस-परसंतिगिज्जलोभमूलं ) (हर ) परद्रव्य का हरण करना, (दह ) हृदय में संताप पहुँचाना, ( मरण ) मृत्यु ( कलुस ) मनोमालिन्य (नासण) अकस्मात् भय होना, ( परसंतिगिज्झ लोभमूलं ) दूसरे की वस्तु का हरण कराने वाला लोभ, इन सबका मूल कारण यह अदत्तादान है। यहां पर " एवमासु" मव माहिती | 24॥ महत्ताहीनतुं मायूँ । ५१ ४ छ तथा ते ताप रोना प्रमाणे " णायकुलनंदणो" aliga ननसिद्धार्थना गुगने मानहाय " महप्पा" ५२मात्म ३५, “जिणो" रागद्वेष विता, “वीरवरनामधेजो” श्री भगवान महावी२ ५Y " अदिण्णादाणस्स" मा सत्ताहानतुं "फ ठविधाग" मे ३१ डिस. "एवं" मा प्रमाणे " तं" पूपिशित २५३५वा ते " तइयंपि" श्री महत्ताहान ५ " हर-दह-मरण-कलुस-तासग-परसंति गिज्झ लोभमूलं " " हर" ५२ यर्नु २९५ ४२. “ दह" यमा सत!५ ५ यावे!, “ मरण" मृत्यु, “ कलुस" भननी मसिनता, "णसण" ५४मात लय वो, " परसंतिगिज्झ लोभमूलं" For Private And Personal Use Only Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३९० व्याकरणसूत्रे " वचनाध्ययनोक्त विशेषणानि यथायोग्यानि संग्राह्याणि । चिरपरिचियं ' चिरपरि चितम् =अनादिकालादनुभूयमानम् ' अणुगयं ' अनुगतं = प्राणिनां पृष्ठतो लग्नम्, ' दुरंतं ' दुरन्तम् = दुःखावसानम्, 'त्तिवेमि' इति ब्रवीमि = एतद जम्बूस्वामिनं प्रति सुधर्मस्वामिवाक्यम् || म्रु० २१ ॥ इति श्रीप्रश्नव्याकरणस्य सुदर्शन्याख्यायां व्याख्यायां हिंसादि पञ्चाद्वारेषु अदत्तादानाख्यं तृतीयधर्मद्वारं समाप्तम् ॥ ३ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir " यावत् ' शब्द से द्वितीय अलीक वचन संबंधी अध्ययन में जो विशेपण कह गये हैं उनका यहाँ यथायोग्यरूप में संग्रह कर लेना चाहिये । यह अदन्तादान ( चिरपरिचियं ) अनादिकाल से जीवों के अनुभव में आ रहा है (अणुगयं ( मिथ्यात्व ) के कारण यह आत्मा के पीछे लगा हुआ है । ( दुरंतं) दुःखप्रद ही इसका परिणाम - फल है । ( तिवेमि ) ऐसा मैं कहता हूं। इस प्रकार से यह जंबू स्वामी के प्रति सुध सुधर्मा स्वामी ने कहा है || सू० २१ ॥ ॥ तीसरा आस्रव - ' अधर्म ' द्वार समाप्त ॥ ખીજાની વસ્તુનું હરણ કરાવનાર લાભ, વગેરે સઘળી ખાખતેનું મૂળ કારણુ या महत्ताहान छे, अड्डी " यावत् " शब्दथी अशी वयन विषेना श्रीम અધ્યયનમાં જે વિશેષણેાના ઉપયાગ કરાયા છે, તેમના સગ્રહુ અહીં યાગ્ય रीतेश्री सेवानी छे, या सत्ताहान " चिरपरिचियं " मनाहि अजथी भवना अनुलवभांभाषी २ड्यु' छे, (अणुरायं) मिथ्यात्वने अरणे ते आत्मानी पाछा सांगेसु छे, (दुरतं) तेनु इज-परिणाम दु:महायी छे, (त्तिबेमि) भेवु डु उड छु, या प्रमाणे सुधर्भास्वाभीगे स्वामीने उड्डयु', ॥ सु, २१ ॥ ॥ श्रीले सास्त्रव - 6 अर्धभ' द्वार समाप्त ॥ , For Private And Personal Use Only Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अथ चतुर्थमध्ययनम् । व्याख्यातं तृतीयमध्ययनं साम्प्रतं चतुर्थमारभ्यते अस्य च पूर्वेण सहायमभिसम्बन्धः । तृतीयाध्ययने यादृश नामादिनिर्देशपुरस्सरमदत्तादानस्वरूपमुक्तम् । अदत्तादानं च प्रायोऽब्रह्मासक्तचित्ताः कुर्वन्त्येवेति हेतोः सूत्रक्रम निर्देशानुसाराच्चाऽदत्तादाननिरूपणानन्तरमुचित प्राप्तमब्रह्मस्वरूपं नामादिनिर्देशपूर्वकं प्रदर्श्यते तस्येदमाद्यं सूत्रम् -'जंबू अवंभं च चउत्थं ' इत्यादि - तंत्र पूर्वेषामिवास्यापि 'यादृशं १ यन्नाम २ यथा चक्रुतं ३ यत्फलं ददाति ४ ये च कुर्वन्ति ५ इतिपञ्चभिरन्तद्वरैर्निरूपणं चिकीर्षु रादौ क्रमप्राप्तं यादृशद्वारमाश्रित्य अब्रह्मस्वरूपं निरूप्यते – 'जंबू अवभं ' इत्यादि । चतुर्थ अधर्मद्वार प्रारंभ - तृतीय अधर्मद्वार समाप्त हो चुका। अब चतुर्थ अधर्मद्वार प्रारंभ होता है । इस अदर्मद्वार के साथ इस प्रकार का संबंध है - तृतीयअधर्मद्वार में यादृशनामादि निर्देशपूर्वक जो अदत्तादानका स्वरूप कहा है सो इस अदत्तादान को जो अब्रह्ममें आसक्त चित्तवाले प्राणी होते हैं प्रायः वे करते ही हैं इस कारण से, तथा सूत्रक्रम के निर्देश के अनुसार से अदत्तादान के निरूपण के बाद अब्रह्मका स्वरूप नामादिनिर्देशक कहना यह अवसर प्राप्त हैं। अतः सूत्रकार उसे अधर्मद्वार में प्रदर्शित करते हैं। जिस तरह पूर्व अध्ययनों का निरूपण सूत्रकार ने " यादृशं १ यन्नाम, २ यथा च कृतं, ३ यत् फलं ददाति, ४ ये व कुर्वन्ति ५ " इन पांच अन्तर्द्वारों से किया है उसी तरह वे इसका भी ચેાથા અધમ દ્વારની શરૂઆત ત્રીજી અધદ્વાર પૂરૂં થયું, સવે ચેાથા અધદ્વારનું વર્ણન શરૂ થાય છે, આ અધમ દ્વારના આગળના અધર્મદ્વાર સાથે આ પ્રકારના સબંધ છે ત્રીજા અધ દ્વારમાં પ્રકાર નામે આદિના નિર્દેશ પૂર્ણાંક અદત્તાદાનનું સ્વરૂપ ખતાવવામાં આવ્યું છે. તે અદત્તાદાન જે અબ્રહ્મમાં આસકત પ્રાણીએ હાય તે સામાન્ય રીતે આચરે છે, એ કારણે તથા સૂત્રકમના નિર્દેશ પ્રમાણે અદત્તાદાનના નિરૂપણું પછી અબ્રહ્નનું સ્વરૂપ નામાદિના નિર્દેશ પૂર્વક કહેવું તે ચાગ્ય જ છે. તેથી સૂત્રકાર તેને આ અધર્મદ્વારમાં પ્રગટ કરે છે. જે રીતે आगणनां अध्ययनोनुं निश्या सूत्रारे " यादृशं "१ (वा अझरनुं ) "यन्नाम” २ (यां अयां नाभेो) “यथा च कृतं " 3 ( म्यारे उराय छे. ) " यत् फलं ददाति (अयु इज सापे छे ) " ये च कुर्वन्ति " ५ ( अणु ते आयरे छे ) या पांच અતારા દ્વારા કહ્યુ` છે, એ જ પ્રમાણે આ અધ દ્વારનું પણ નિરૂપણ કરવા For Private And Personal Use Only ܕܕ ४ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३९२ प्रश्नव्याकरणसूत्रे मूलम् –जंबू ! अबभं च चउत्थं सदेवमणुयासुरस्स लोयस्त पत्थणिज्जं पंकपणगपासजालभूयं इत्थीपुरिसनपुंसगवेदचिहं तवसंजमबंभचेरविग्धं भेदाययणबहुपमादमूलं कायरकापुरिससेवियं सुयणजणवजणिज्ज उड्ड-नरयतिरिय तिलोकपइटाणं जरामरणरोगसोगबहुलं वधबंधविघायदुविघायं दंसणचरित्तमोहस्स हेउभूयं चिरपरिचियं मणुगयं दुरंतं च उत्थं अहम्मदारं ॥ सू०१॥ टीकाः-हे जम्बूः ! 'चउत्थं ' चतुर्थ हिंसामृषाऽदत्तादानापेक्षया चतुर्थमास्रवद्वारम् 'अबभं च ' अब्रह्म अकुशलं कर्म तच्चेह मैथुनम्-अधर्महेतुत्वेन सकलानर्थजनकत्वात्। चकारः पुनरर्थः कीदृशं तदित्याह- सदेवमणुयासुरस्स लोयस्सपत्थणिज्ज' सदेवमनुजासुरस्य लोकस्य मार्थनीयं देवमनुष्यासुरलोकस्य प्रार्थनिरूपण करना चाहते हैं । अतः सर्व प्रथम वे क्रम प्राप्त "यादृश" इस द्वार को लेकर अब्रह्म के स्वरूप का निरूपण करते हैं- 'जंबूअबंभ' इत्यादि। ___टीकार्थ-श्रीसुधर्मा स्वामी जंबूस्वामी से कहते हैं कि हे जंबू ! (चउत्थं) हिंसा, मृषा एवं अदत्तादान इन तीन की अपेक्षा यह चतुर्थ आस्रव द्वार (अवंभं च ) अब्रह्म है। यह अब्रह्म अकुशल कर्म हैं और वह यहां स्वरूप से गृहित हुआ है। क्योंकि यह अधर्म का हेतु होने से सकल अनर्थों का जनक होता है। अब सूत्रकार इसी अब्रह्मका आगेके विशेषणों द्वारा विशेष स्पष्टीकरण करते हैं, वे कहते हैं कि-यह अब्रह्म-मैथुनसेवनरूप अकुशल कर्म भने छ. तेथी सोथी पसा ते अनुभ मावत " यादृश " ५ नामना द्वारने ने माना २१३५नुं नि३५४४ ४रे छे. “जंबू अबभ" त्याह ___ -श्री. सुधा स्वामी यू स्वाभान ४ छे ! “चउत्थ" હિસા, મૃષા અને અદત્તાદાન એ ત્રણની અપેક્ષાએ ચોથું અધર્મ દ્વાર " अबभं च" मग्री छ. ते मयाही अयोग्य इत्य छ भने ते ही भैथुन३ये જે ગૃહિત થયેલ છે, કારણ કે તે અધમનું કારણ હોવાથી સઘળા અનર્થનું ઉત્પાદક છે. હવે સૂત્રકાર એ જ અબ્રહ્મનું આગળ આવતાં વિશેષણો દ્વારા વિશેષ સ્પષ્ટીકરણ કરે છે, તેઓ કહે છે કે-તે અબ્રહ્મ-મૈથુન સેવનરૂપ પાપકર્મ For Private And Personal Use Only Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० ४ सू० १ अब्रह्मस्वरूपनिरूपणम् ३९३ नीयम् = अभिलषणीयम् | 'पंकपणापासजालभूयं' पङ्कपनकपाशजालभूतं = तत्र पङ्कः = कर्दमः - निमज्जनहेतुत्वात्, पनका - शैवाल - चरणन्यासमात्रेण स्खलनहेतुत्वाद, पाशः बन्धनविशेषः, जालं च प्रतीतं तद्भूतं तत्सदृशम् । तथा 'इत्थी पुरिसनपुंसग - वेदचिणं' स्त्री पुरुषनपुंसक वेदचिह्न= स्त्रीपुरुष नपुंसक वेदलक्षणं, तत्र स्त्री-वेद: = पुरुषाभिलापलक्षणः पुरुषवेदः स्त्रियोऽभिलाषलक्षणः, नपुंसकवेद:- उभयाभिलापलक्षणः । ' तवसंजमवं भवे रविग्यं तपःसंयमब्रह्मचर्यविघ्नः = तपः संयम ब्रह्मचर्य - विधातरूपम्, 'भेदाययणवहुपमादमूलं ' भेदायतनबहुप्रमादमूलं-भेद: = चारित्रविनाशः तस्य आयातनानि स्थानानि ये बहवः = अनेकविधाः ममादाः = मद्यविकथा दयः, तेषां मूलं कारणं यत्तत्तथा । 'कायरकापुरिस सेवियं' कातरका पुरुष सेवितं= कातराः = परीपदभीरवः, अतएव कापुरुषाः = धैर्यवर्जितास्तैः सेवितं यत्तत्तथा । ' सुयणजणवज्जणिज्जं ' सुजनजन वर्जनीयं = युजनजनाः = साधुजनास्तैः वर्जनियं (सदेव मणुधासुररस लोस्स पत्थणिज्जं) देव, मनुष्य, एवं असुर लोक द्वारा अभिलषणीय है चाहे देव हो चाहे मनुष्य हो या असुर हो कोई भी क्यों न हो सब ही इसे चाहते हैं। यह कर्म (पंकपण गपासज़ालभूयं) पंककर्दम, नकशैवाल - काई, पाश और जाल के जैसा है । तथा (हत्थीपुरिसनपुंसगवेद चिंधं ) पुरूष अभिलाष रूप स्त्रीवेद स्त्रीचाहनारूपपुरुष वेदउ भयकी वाञ्छारूप नपुंसकवेद, ये जिसके चिह्न हैं । यह (तवसं. जमवं भचेरविग्धं) तप, संगम, और ब्रह्मचर्य का विघातक है। (भैयाtयणबहुपमादमूलं ) चारित्र को विनाश करने वाले जो मद्य विकथादिक अनेक प्रमाद हैं उनका यह मूल कारण है । ( कायरका पुरिस सेवियं ) जो व्यक्ति कातर परीषद सहने में भीरू होते हैं, और इसीसे जिनका धैर्य नष्ट हो जाता है ऐसे व्यक्ति ही इसका सेवन करते हैं । तथा (सुघ " " सदेवमणुया सुरस पत्थणिज्जं " हेव, मनुष्य भने असुर सोओ द्वारा अलिपक्षीय છે. ભલે દેવ હોય, મનુષ્ય હાય કે અસુર હોય-દરેક તેને ચાહેછે. તે ક "पंकपणगपासलजालभूयं ” पहु-अहव, पन-शेवाण, पाश मनेन भेवु छे. तथा " इत्थी पुरिसनपु' सगवेदसिंघ" पुरुष अभिलाषा३प स्त्री वेट स्त्रीयाना३य पुरुष वेह, भने भन्नेनी थाडुना नपुंस वेढ लेना थिलो छे, ते " तवसं जमवं भचेर विग्धं” तप, संयम अने ब्रह्मयर्यनुं विद्यात छे "भेयाययण बहुपमादमूल" यास्त्रिना नाश उरनार ने मद्य, विझ्या माहि भने प्रभाह छे, " कायरका पुरिस सेवियं જે વ્યક્તિ કાયર-પરીષહે સહન કરવામાં ભીરુ હાય છે, અને તેથી જ જેમનું શ્રેય નષ્ટ થયુ' હાય છે એવી વ્યક્તિએ જ તેનું સેવન કરે છે, તથા 77 प्र० ५० For Private And Personal Use Only Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे -त्याज्यम् , 'उडनश्यतिरियतिलोकपइटाणं' ऊर्ध्व नरकतिर्यकत्रिलोकप्रतिष्ठानम् ऊर्चलोको नरकलोकस्तिर्यग्लोक श्चेत्येतद्रूपं यत् त्रैलोक्यं तत्र प्रतिष्ठानम् =अवस्थिति येन मैथुनेन यत्तत्तथा लोकत्रये चतुर्गतिभ्रामकमित्यर्थः, तथा 'जरा मरणरोगसोगबहुलं ' जन्मजरामरणरोगशोकाधनन्तदुःखसम्भुतम् , ' वध. बंधविधायदुविधायं ' वधबन्धविघातदुर्विघातम्-तत्र वधः हननं बन्धः रज्ज्वा. दिभिः संयमनं, विधाता मारणं चेत्येतैः दुविधातः=दुस्सह्यो विघातो-दुःखं यस्मिन् तत्तथा बधबन्धादिविविधदुःखजनकमित्यर्थः, 'दसणचरित्तमोहस्सहेउभूयं ' दर्शनचारित्रमोहस्य हेतुभूतं-दर्शनमोहस्य चारित्रमोहस्य च बन्धकारणम्-इदमब्रह्मजिनवचने शङ्काकासादिदोषोद्भावकत्वाद् दर्शनमोहस्य कारण, चारित्रभेदजनकत्वाच्चारित्रमोहस्येति भावः । तथा 'चिरपचियं ' चिरपरिचितं= णजणवज्जणिज्ज) जो साधुजन हैं वे तो इस कृत्य को सदा त्याज्य ही मानते हैं (उड नरयतिरियति लोकपड्डाणं ) इस मैथुन सेवन से जीवका परिभ्रमण उर्वलोक मध्यलोक एवं पाताललोक रूप त्रैलोक्य में होता हैं। (जरामरण रोगसोगमूलं ) यह कम जन्म, जरा, मरण, शोक आदि अनंत दुःखोंसे भरा हुआ है। (वधबंधविघायदुन्विघायं) इसमें वध, बंधन एवं मरण जन्य दुः सह दुःख भरे हुए हैं। (दसणचरित्तमो हस्स हेउभूयं ) दर्शन मोहनीय तथा चारित्रमोहनीय का यह हेतुभूत है। अर्थात-पह अब्रह्म जिनवचन में शंका कांक्षा आदि दोषों का जनक होने के कारण दर्शन मोहका और चारित्रका विनाशक होने से चारित्र मोहनीय कर्म के बंध को कारण माना गया है । (चिरपरिचियं) जीवों के साथ इसका परिचय चिरकाल से जन्म जन्मान्तरों में आसेवित होते रहने के कारण चला आ रहा है । इसीलिये ( अणुगयं ) यह " सुयणजणवज्जणिज्ज" पy सतपुरुषो तो मे इत्यने सहा त्य/qi योग्य भाने छ, ' उड्डनरयतिरियतिलोकपइट्टाणं" से भैथुनना सेवनयी सपने ઉર્વક અને પાતાળલેક, એ રીતે ત્રણલેકમાં પરિભ્રમણ કરવું પડે છે, "जरामरणरोगसोगमूलं " ते ४ सन्म, २१, भ२९, ४ मा मनात माथी मरेलु छ, “ वधबंधविधायदुविघायं " तेभा १५, ५धन भने भ२९ गन्य सह मे। लरेसा छ, “दसणचरित मोहस्स हेउभूय" ते शन મેહનીય તથા ચારિત્ર મોહનીયના કારણરૂપ છે, એટલે કે તે બ્રહ્મ જિનવચનમાં શંકા કાંક્ષા આદિનું જનક હોવાથી દર્શન મેહનીય અને ચારિત્રનું विनाश पाथी यात्रि भाडनीय मन धनुं ।२५ मनायु छ — चिरपरिचियं" ते भान्तथा सेवा पाने २ तेनो योनी सथे। For Private And Personal Use Only Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ. ४ सू० २ अब्रह्मनामानि तल्लक्षणनिरूपणं व ३९५ जन्मजन्मान्तरासेवितम् , ' अणुगयं' अनुगतम् = अनादिकालतः समनुगतम् , 'दुरंतं' दुरन्तम्-दुःखावसानम् , दुष्टफलमित्यर्थः । ' चउत्थं अहम्म दारं ' चतुर्थमधर्मद्वारम् आस्रवद्वारमब्रह्मेति नामकम् ॥ १॥ मू०॥ एवमब्रह्मस्वरूपमुक्तं साम्प्रतं ' यन्नामे' ति द्वितीयान्तद्वारमाश्रित्य तस्य नामान्याह ' तस्स य णामाणि ' इत्यादि-- मूलम्-तस्स य णामाणि गोणाणि इमाणि हुंति तीसंअबंभं १ मेहुणं २ चरंतं ३ संसग्गि ४ सेवणाहिगारो ५ संकप्पो ६ वाहणापदाण ७ दप्पो ८ मोहो ९ मणसंखोभो १० अणिग्गहो ११ विग्गहो १२ विघाओ १३ विभंगो १४ विन्भभो १५अहम्मो १६ असीलया १७ गामधम्मतत्ती१८ रती १९ रागचिंता २० कामभोगमारो २१ वेरं २२ रहस्सं २३ गुज्झं २४ बहुमाणो २५ बंभचेरं विग्यो २६ वावत्ती २७ विराहणा २८ पसंगो २९ कामगुणोत्ति ३० विय । तस्स एयाणि एवमाइणि नामधेजाणि हुंति तीसं ॥ सू० २॥ टीका-' तस्स य' तस्य च-अब्रह्मणो मैथुनस्थेत्यर्थः, 'गोणाणि' गौणानि-गुणनिष्पन्नानि ‘णामाणि' नामानि 'इमाणि इमानि वक्ष्यमाणानि जीवों के पीछे अनादिकाल से पड़ा हुआ है । ( दुरंतं ) इसका अवसान (अंत) बहुत ही अधीक कष्टप्रद होता है । (चउत्थं अहम्मदार) इस प्रकार यह चतुर्थे अब्रह्म नामका अधर्मद्वार है । सू० १ ॥ इस तरह सूत्रकार अब्रह्म के स्वरूप का प्रतिपादन कर अब " यन्नाम " नामक द्वितीय अन्तार से उसका प्रतिपादन करते हैं-- 'तस्स य' इत्यादि । टीकार्थ- ( तस्स य) उस अब्रह्म रूप मैथुन कर्मके (गोणाणि) यि२४थी पस्थिय याच्या मावे छे. तेथी “अणुगयं" ते मनutuथी योनी ॥७॥ ५ छ. “ दुरंतं" तेना नाश थव। भतिशय ४४२ छ. " चउत्थं अहम्मदारं " म प्रा२नुते याथुमब्रह्म नामर्नु अचमा छ. ॥ सू०१॥ - ઉપરોકત રીતે અબ્રહ્માના સ્વરૂપનું પ્રતિપાદન કરીને હવે સૂત્રકાર “જनाम" नामना ilon मन्तस्थिी तेनुं प्रतिपादन ४२ छ. “ तस्स य" त्या At-"तस्स य” ते माझ३५ भैथुन भनी “गोणाणि" गुयानुसार “णामाणि" For Private And Personal Use Only Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे 'तीस हुति' त्रिंशद् भवन्ति 'तंजहा' तानि यथा ' अभं ' अब्रह्म-अकुशलानुष्ठानम् १, 'मेहुणं' मैथुनं-मिथुनस्य-वीपुंसयुगलस्य कर्म मैथुनम् २, 'चरंत' चर-संसारव्यापकम् ३, 'संसग्गि' संसर्गि-स्त्रीपुंससम्बन्धसंजातम्४, 'सेवणाहि. गारौ' सेबनाधिकारः सेवनाया-चौर्यादिप्रतिसेवनायामधिकारः, मैथुनसेवी पायश्चोर्यादिषु प्रवृत्तो भवति५ । संकप्पो ' सङ्कल्पः = सङ्कल्पविकल्पजातत्वात् सङ्कल्पः ६, उक्तं चगुणनिष्पन्न (णामाणि) नाम (इमागि) ये (तीसं) तीस (हंति ) हैं। (तं जहा) वे इस प्रकार हैं-(अभं १, मेहुणं२, चरंतं३, संसग्गि ४, सेवणाहिगारो५, संकप्पो, वाहणापदाण ७, दप्पो८, मोहोर, मणसंखोभो१०, अणिग्गही ११, विग्गहो १२ विघाओ १३, विभंगो १४, विन्भमो १५, अहम्मो १६, असीलया १७, गामधम्मतत्ती १८, रत्ती १९, रागचिंता २०, कामभोगमारो २१, वेरं २२, रहस्सं २३, गुज्ज २४, बहुमाणो २५, बंभचेरविग्धो २६, वायत्ती २७, विराहणा २८, पसंगो २९, कामगुणो ३० त्ति वि य । तस्स एयाणि एवमाइणि नामधेज्जाणि तीसं. टुति ) यह कर्म अकुशलानुष्ठानरूप है, इसलिये इसका नाम अब्रह्म है १। स्त्री और पुरुष रूप मिथुन परस्पर मिलकर इसे करते हैं, इस. लिये इसका नाम भैथुन है २। यह समस्त संसार में व्यापक है इसलिये इसका नाम चरंत है ३ । स्त्री और पुरुषों के पारस्परिक संसर्ग से यह उत्पन्न होता है इसलिये इसका नाम संसर्गी है ४ । जो मैथुन सेवी होता है वह प्रायाचौर्यादिकुकर्मों में प्रवृत्त हो जाता है इसलिये इसका " इमाणि" “ तीसं" त्रास नाम “ हुंति" छ. “ तंजहा" ते मा प्रभाव छे." अबभं १, मेहुणं २, चरते ३, संसग्गि ४, सेवणाहिगारो ५, संकप्पो ६, पाहणापदाण ७ दुप्पो ८, मोहो ९, मणसंखोभो १०, अणिग्गहो ११, विमाहो १२, विधाओ १३, विभंगो १४, विभमो १५, अहम्मो १६, असीलया १७, गामधम्थतत्ती १८, रत्ती १९, रागचिंत्ता २०, कामभोगमारो २१, बेरं २२, रहस्सं २३ गुज्झं २४, बहुमाणो २५, बंभचेरविग्धो २६, वावती २७, विराहणा २८, पसंगो २९, कामगुणो ३० त्ति वि य । तस्स एयाणि एवमाइणि नामधेज्जाणि तीसं हुंति ' (१) मा ४ अशी मनुहान सपाथी तेन नाम “अब्रह्म” छे. (२) स्त्री भने पुरुषर्नु“ भिथुन" (ड) ५२२५२ भजीन तेनु सेवन ४३ छ, ते ७.२ तेनुं दाम “मैथुन" छ. (3) ते समस्त संसारमा व्या५४ पाथी तेनु नाम " चरंत ” छ (४) र मन पुरुषा १२स ५२सना साथी ते उत्पन्न थतु पाथी तेनुं नाम ,, संसर्गी" छ, ૫” મૈથુન સેવનાર હોય છે તે સામાન્ય રીતે ચોરી આદિ કુકર્મો પણ સેવવા For Private And Personal Use Only Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ०४ सू० २ अब्रह्मनामानि तल्लक्षणनिरूपणं च ३९७ काम ? जानामि ते रूपं, सङ्कल्पात् किल जायसे । न त्वां संकल्पयिष्यामि, ततो मे न भविष्यसि । १॥ 'वाहणा पदाणं ' वाधना पदानां--पदानां संयमस्थानानां बाधना वाधोत्पादकत्वात् ७ । 'दप्पो' दर्पःप्तजनैराचस्तित्वात् ८, मोहः मोहजननात्वेदमोहनीयकर्मादयसम्पाद्यत्वाद्वा मोहस्वरूपः १, मणसंखोभो ' मनः सङ्क्षोभः =चित्तव्याकुलतोत्पादकत्वात् १०, ' अणिग्गहो' अनिग्रहः-विषयेषु प्रवर्त्तमानस्यनाम सेवनाधिकार है ५। संकल्प विकल्पों से यह उत्पन्न होता है इसलिये इसका नाम संकल्प है ६ । कहा भी है-- "काम ! जानामि ते रूपं, संकल्पात् किल जायसे । न त्वां संकल्पयिष्यामि, ततो मे न भविष्यसि ॥ १ ॥ हे काम ! मैं तेरे स्वरूपको जानता हूं, तूं निश्चयतःमानसिक संकल्प से उद्भूत होता है । अतः में जब तेरा संकल्प ही नहीं करूँगा तो फिर तूं कैसे उत्पन्न होगा? ॥ ____यह संयम के स्थानों में बाधा का उत्पादक होता है इसलिये इसका नाम पद बाधना है ७ । जो मनुष्य दृप्त-मदोन्मत्त होते हैं-उन्हों के द्वारा यह आचरित किया जाता है अतः इसका नाम दर्प है। यह वेदरूप मोहनीय कर्म के उदय से उद्भूत होता है इसलीये इसका नाम मोह है ९। इसके निमित्त से चित्त में एक प्रकार की व्याकुलता उत्पन्न होती है इसलिये इसका नाम मनःसंक्षोभ है १० । जिस समय इसका दागे थे, तेथी तेनु ना " सेवनाधिकार" छ, ' ४५ विपाथी ते उत्पन्न थाय छे, तेथी तेनुं नाम “ संकल्प” छ, युं ५५ छ “ काम ! जानामि ते रूपं, संकल्पात् किल जायसे । न त्वां संकल्पयिष्यामि, ततो मे न भविष्यसि ॥ १॥" હે કામ! હું તારા સ્વરૂપને ઓળખું છું, તું અવશ્ય માનસિક સંકલ્પથી જ ઉત્પન્ન થાય છે, તે હું તારો સંકલ્પ જ નહીં કરું તે તું ક્યાંથી Grपन्न ४१ ॥२॥ (૭” તે સંયમનાં રથાનેમાં મુશ્કેલીઓ પેદા કરનાર છે, તેથી તેનું નામ "पबाधना" छ, '८' महोन्मत्त मनुष्य द्वारा १ ते सेवाय छ, तेथी तेनुं " दर्प" छ, '८' ते ६३५ मारनीय मनायथी उत्पन्न थाय छ, तेथी तेनु नाम “मोह" छ, १० तेने २0 चित्तमाम मानी व्याजता पन्न थाय छ तेथी तेनु नाम “ मनःसंक्षोभ" छ '१' न्यारे शरीरमा तेना For Private And Personal Use Only Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३९८ प्रश्नव्याकरणसूत्रे मनसोऽनिषेधः ११ । 'विग्गहो' विग्रहः विग्रहकारित्वात् १२, 'विधाओ' विघातःचारित्रविनाशरूपः १३, 'विभगो ' विभङ्गा-संयमादिगुणानां विशेषेण भञ्जकत्वात् १४, 'विन्भमो' विभ्रमः = अनुपादेयेष्वप्युपादेयत्वेन नानाविधभ्रान्तिजनकत्वात् १५, 'अहम्मो ' अधर्मः श्रुतचारित्रलक्षणधर्मप्रतिकूलत्वात् १६, ' असीलया ' अशीलता-चारित्र वर्जितत्वात् १७, 'गामधम्मतत्ती' ग्रामधर्मप्तिः प्रामधर्माः-शब्दादयः कामगुणास्तेषां तृप्तिः आसेवनम् १८, रत्ती' रतिः =अशुभरागः१९, रागचिन्ता-रागः-रागकारणत्वात् स्त्रीशृङ्गाररूपलाण्यादिः तस्य आवेग शरीर में जागृत होता है उस समय इन्द्रियां अथवा मन बेकाबू हो जाता है अतः इसका नाम अनिग्रह है ११। इसके पीछे ही भयंकरसे भयंकर विग्रह उत्पात खड़े होते हैं इसलिये इसका नाम विग्रह हैं १२॥ यह चारित्रका विघातक होता है । इसलिये इसका नाम विघात है१३ । संयम आदि गुणोंका यह विशेषरूपसे भंजक होता है इसलिये इसका नाम विभंग है १४। जो अनुपादेय पदार्थ होते हैं उनमे भी यह उपादेयरूपसे मानाप्रकार की भ्रान्ति का जनक होता है इसलिये इसका नाम विभ्रम है १५ । श्रुतचारित्र रूप धर्म से यह प्रतिकूल है इसलिये इसका नाम अधर्म है १६। इसमें चारित्र नहीं होता है इसलिये इसका नाम अशोलता है १७ । इसमें ग्रामधर्म जो शब्दादिक काम गुण हैं उनका सेवन होता है इसलिये इसका नाम ग्रामधर्म है १८। यह अशुभ रामरूप है इसलिये इसका नाम रति है १९ । इसमें स्त्रियों के श्रृंगार આવેગ જાગૃત થાય છે ત્યારે ઈન્દ્રિય તથા મન કાબૂમાં રહેતા નથી, તેથી तेनु नाम “अनिग्रह " छ '१२' तेने १२0 ४ सय ४२मा लय ४२ विड त्पात पनि थाय छ, तेथी तेनु नाम “विग्रह” छ, '१७' ते यात्रिनु विधात पायी तेनु नाम “विघोत” छ, '१४ सयम पाहि शुषोनु More नाश ४२ना२' हापाथी तेनु नाम “ विभंग" छ, '१५' २ मतुपा. દેય પદાર્થો હોય છે તેમાં પણ ઉપાદેયરૂપે વિવિધ પ્રકારની બ્રાન્તિ “બ્રમ” નું न पाथी तने “विभ्रम " ४ छ १६, श्रुतयारित्र३५ धनी १३६ हावाने धरणे तेने “ अधर्म" ४ छ '१७' तेनु सेवन ४२ना२मा यात्रि हातुं नथी, तेथी तेनु नाम “ अशीलता” छ, '८' तेभा आभयम रे Avale आम छे तेमनु सेवन थाय छे' तेथी तेनु नाम “ ग्रामधर्मतृप्ति " छ, “१८' छे अशुभ २॥२॥ ३५ लापाथी तेनुं नाम " रति ” छ '२०' तेमा સ્ત્રીઓને શ્રગારનું, તથા તેમનાં રૂપ લાવણ્ય આદિનું ચિન્તવન થાય છે, તેથી For Private And Personal Use Only Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ0 ४ सू० २ अब्रह्मनामानि तल्लक्षणनिरूपणं च ३९९ चिन्ता-चिन्तनम् २०, कामभोगमारः कामभोगमाररूपम्-कामरूपं, भोगरूपं, माररूपं, चेत्यर्थः २१, 'वेर' वैरं शत्रुत्वोत्पादकत्वात् २२, ‘ रहस्सं ' रहस्यम् -एकान्तसम्पादनीयत्वात् २३, ‘गुज्झं ' गुह्यं गोपनीयत्वात् २४, 'बहुमाणो' बहुमाना=बहु-अतिशयेन मानः आदरो यस्मिन् प्राणिनां सः२५,'बंभचेरविग्यो' ब्रह्मचर्यविघ्नं ब्रह्मचर्यस्य विघातकत्वाद् विघ्नः विघ्नभूतः २६, 'बावत्ती' व्यापत्तिः विनाशः आत्मगुणविनाशकत्वात् २७, 'विराहणा' विराधना-चारित्रधर्मस्य विराधकत्वात् २८, 'पसंगो' प्रसङ्ग स्त्रीपुंससंयोगः २९, कामगुणः = शब्दादिविषयभोगजनकत्वात् ३० “त्ति विय' इत्यपि च त्रिंशत्तमं नाम । का उनके रूप लावण्य आदि का चिन्तवन होता है इसलिये इसका नाम रागचिन्ता है २० । यह कामरूप, भोगरूप और भाररूप होता है इसलिये इसका नाम कामभोगभार हैं २१ । इसके निमित्त से जीवों में परस्पर शत्रुता उप्तन्न हो जाती है इसलिये इसका नाम वैर है २२ । यह कर्म एकान्त में किया जाता है इसलिये इसका नाम रहस्य है २३ । यह सदा गोपनीय होता है इसलिये इसका नाम गुह्य है २४। इसमें प्राणीयों को अतिशय आदर भाव-सेवन करने में लालसा-रहता है, इसलिये इसका नाम बहुमान है २५ । यह ब्रह्मचर्य व्रतका विघातक होता है इसलिये इसका नाम ब्रह्मचर्य विघ्न है २६ । आत्मगुणों का इसमें विनाश हो जाता है इसलिये इसका नाम व्यापत्ति है २७ । चारित्र धर्मका यह विराधक होता है इसलिये इसका नाम विराधनाहै २८ । इसमें स्त्री और पुरुष दोनों के शरीर को संयोग होता है इसलिये इसका नाम प्रसंग है २९ । शब्दादिक विषयों में यह भोगने की रूचिका जनक होता है इसलिये इसका नाम कामगुण है ३० । इस तेनु नाम " रागचिन्ता" छ, '२१' ते भ३५, ३५ भने भा२३५ डाय छे, तेथी तेनु नाम "कामभोगमार" छ '२२ तेने राणे ४वामा ५२२५२ दुश्मनाक्ट पेहो थाय छ, तेथीतेनु नाम "वैर" छ '२३ ते ४ तमा ४२॥तु उपाथी तेनु नाम “ रहस्य “छ, २४ ते सहा गोपनीय होय छे. तेथी तेनु नाम गुह्यं" छे, २५ तेना प्रत्ये प्राणीमाने अत्यत मालासाससा २ छ, तेथी तेनु नाम. “बहुमान" छ, '२६ ते ब्रह्मय प्रतनु विधात तोवनार' पाथी तेनु नाम" ब्रह्मचर्यविघ्न " छ २७ तेना सेवनथी मात्मशुगोनी नाश थाय छ, तेथी तेतुं नाम "व्यापति" छे (२८) ते यात्रियमन विरा५४ पाथी तेनु नाम "विराधना" छे. (२८) तेमां स्त्री तथा घुसपना शरीरनी सयोगाय छ, तेथी त नाम "प्रसंग” छ ३०' शहा विषयान। पागनी सचिनु न पाथी तेनुं नाम “कामगुण" छे, मा For Private And Personal Use Only Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ४०० प्रश्नव्याकरणसूत्रे , 'एयाणि ' एतानि = पूर्वोक्तानि ' एवमाईणि ' एवमादीनि = अब्रह्मेत्यादीनि तस्स ' तस्य = अब्रह्मण: ' नामधेज्जाणि ' नामधेयानि नामानि 'तीसं' त्रिंशद् 'हुति' भवन्ति ॥ सू० २॥ " एवमब्रह्मण: ' यत्रामे ' ति द्वितीयमन्तर्द्वारमुक्तम् । अथ तृतीयं चतुर्थचान्तद्वरिमनुक्त्वा साम्प्रतं ये च कुर्वन्ती' इत्येतत्पञ्चममन्तर्द्वारमाह- 'तं च पुण' इत्यादि मूलम् -- तं च पुण निसेविंति सुरगणा स अच्छरा मोहमोहियमई असुर-भुयग- गरुल- विज्जु-जलण-दीव उदहिदिसिपवण थणिय अणपन्निय-पणपन्निय-इसिवाइय-भूयवादूयं -कंदिय- महाकंदिय-कूदंड-पयंगदेवा, पिसायभूय-जक्खरक्खस- किपर- किंपुरिस-महोरग - गंधव्वा, तिरियजोइसविमाणवासि मणुयगणा जल यर - थलयर खयरा य मोहपडिबद्धचित्ता अवितण्हा कामभोगतिसिया तहाए बलवइए महईए समभिभूया गठिया य अतिमुच्छियाय अवभे असण्णा तामसेण भावेण अणुमुक्का दंसण चरितमोहस्स पंजरं पिव करेंति अण्णमण्णं सेवमाणा ॥सू०३ ॥ : टीका- 'तं च पुण' तच्चपुनरब्रह्म निसेर्विति' निषेवन्ते । के ते ? इत्याह- सुरगणाः=देवसमूहाः 'स अच्छा' साप्सरसः = अप्सरोभिः सहिताः ' मोहमहिय' मोहमोहितमतयः = मोहेन- मोहिता मतिः बुद्धिर्येषां ते तथा । पुनः - www.kobatirth.org 1 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir be प्रकार ये अब्रह्म आदि पूर्वोक्त तीस नाम इस चतुर्थद्वारके हैं || सू०२ ॥ अब सूत्रकार तृतीय चतुर्थ द्वार को न कह कर पंचम अन्तर्द्धारिको कहते हैं- लंच पुण' इत्यादि ० । " टीकार्थ :- (तंच पुण) इस चतुर्थ द्वार अब्रह्म का (सुरगणा) सुरगण की जिनकी ( मोह मोहियमई ) मति मोह से मोहित हो रही है ( स अच्छरा ) પ્રમાણે ચોથા અધમ દ્વારનાં અબ્રહ્મ આદિ ત્રીજા પૂર્વોક્તનામ છે ॥ સૂ॰ ૨ ॥ હવે સૂત્રકાર ત્રીજા તથા ખેંચાયા દ્વારનું વર્ણન ન કરતાં પહેલાં પાંચમાં अन्तर्द्धारिनु वार्डन उरे छे - “त च पुण " इत्यादि For Private And Personal Use Only टीडार्थ - "तं च पुण" ते थोथा द्वार३य भानु ं “सुरगणा” सुरगए है भनी “ मोहमोहियमई " मति मोड्थी मोहित थयेस होय छे" सअच्छ Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुर्शिनी टीका अ०४ सू० ३ मोहमययतिभिस्तत्सेवनप्रकारनिरूपणम् १०१ के ? इत्याह-'अमुर-भुयग-गरुल-विज्जु-जलण-दीव-उदहि-दिसि-पत्रण-थणिय अणपन्निय - पणपन्निय-इसिवाइय-भूयजाइय-कंदिय-महाकंदिय--कूहंड- पयंग देवा' तत्र असुराः असुरकुमाराः, 'भुयग' भुजगाः-नागकुमाराः 'गरुल' गरुडाः सुपर्णकुमाराः 'विज्जु' विद्युत् कुमाराः 'जलण' ज्वलनाः अग्निकुमाराः 'दीव ' द्वीपाः द्वीपकुमाराः ' उदधिकुमाराः 'दिसि' दिकुक्कुमाराः 'पवण' वायुकुमाराः ' थणिय' स्तनितकुमाराः, दशैते भवनपतिदेवाः । अणपन्निय पणपन्निय' अणपन्निकाः पणपन्निाः ' इसिवाइय' ऋषिवादिकाः ‘भूयवाइय' भूतवादिकाः ' कंदिय ' क्रन्दिताः ' महाकंदिय ' महाक्रन्दिताः 'कूहंड' कुष्माण्डाः ‘पयंग' पतङ्गाश्च ते च ते देवाः, एतेऽष्टौ व्यन्तरनिकायोपरिवर्तिनः। व्यन्तरदेवजातिविशेषाः । तथा 'पिसाय-भूय-जक्ख-रक्खस-किण्णर-किंपुरिस महोरग-गंधव्य-तिरिय-जोइस-विमाणवासि-मणुयगणा' तत्र 'पिसाय' पिशाचाः १ । भूय' भूताः २ । 'जक्ख ' यक्षाः ३, 'रक्खस ' राक्षसाः ४, 'किण्णर' किन्नराः५, 'किं पुरिस' किम्पुरुषाः६, ‘महोरग' महोरगा:७, ‘गंधव्व' गन्धर्वाश्च अप्साओं के साथ (निसेविति ) सेवन करते हैं । तथा ( असुर-भुयगगरूल-विज्जु -जलण - दीव-उदहि-दिसि-पवण-थणिय-अणपनियपणपन्निय-इसिवाइय-भूयवाइय-कंदिय-महाकंदिय-कूहंड पयंग-देवा) असुरकुमार, नागकुमार, सुपर्णकुमार, विद्युत्कुमार, अग्निकुमार, बीप. कुमार,उदधिकुमार,दिकुमार, वायुकुमार, स्तनितकुमार, ये१० दसभनवपति देव, तथा-अणपनिक, पणपन्निक, ऋषिवादिक, भूतवादिक, नंदित महान्द्रित कुष्मांड, पतंग, ये आठ व्यन्जर जातिके देव विशेष, (पिसाय भूय-जक्ख-रक्खस-किन्नर-किंपुरिस- महोरग-गंधय-तिरिय- जोइसविमाणवासि-मणुयगणा ) तथा पिशाच, भूत, यक्ष, राक्षस, किन्नर, रा" ५२-२२।। साथे " निसेविति" सेवन ४२ छ. तथा “ असुर, गरुल, विज्जु, जलण, दीवउदहि, दिसि, पवण, थणिय, अणपन्निय, पणपन्निय, इसिबाइय, भूयवाइस, कंदिय, महाकंदिय, कूहंड पयंग-देवा " असुरशुभा२, नागाभार સુપર્ણકુમાર, વિઘતમાર, અગ્નિકુમાર, દ્વીપકુમાર, ઉદધિકુમાર, દિકુમાર, વાયુકુમાર, અને સ્વનિતકુમાર, એ દસ ભવનપતિ દેવ, તથા અણપત્રિક, પણ પત્રિક વિવાદિક, ભૂતવાદિક, કદિત, મહાકદિત, અને પતંગ, તે આઠ વ્યન્તર calतना हेव, “ पिसाय, भूय, जक्ख, रक्खस, किन्नर, किंपुरिस, महोरग, गंधव्व, तिरिय, जोइस, विमाणवासि, मणुयगणा” तथा पिशाय, भूत, यक्ष, રાક્ષસ, કિંન્નર, કિં પુરુષ, મહારગ, ગંધર્વ એ આઠ વ્યન્તર દેવ તથા તિર્ય प्र० ५१ For Private And Personal Use Only Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४०२ प्रश्नव्याकरणसूत्रे ८, एतेऽष्टौ व्यन्तरभेदाः। तथा तिरिय-जोइस-विमाण-वासि' तिर्यग्ज्योतिर्विमानवासिन्ः-तिरश्चि-तिर्यग्लोके यानिज्योतिर्विमानानि तेषु निवासिनोऽसंख्याता ज्योतिष्काः ‘मणुय ' मनुजाः मनुष्याश्च तेषां गणाः समूहाः । तथा 'जलयर थलयर खह-चराय ' जलचर स्थलचर खेचराच, तत्र जलचराः = मत्स्यादयः, स्थलचराः गोमहिण्यादयः खेचराश्च-पक्षिणस्ते तथा, एते सर्वे मैथुन निषेवन्त इति पूर्वेण सम्बन्धः । कीदृशास्ते इत्याह- मोहपडिबद्धचित्ता' मोहप्रतिबद्धचित्ताः मोहेन=अज्ञानेन प्रतिबद्धंग्रसितं चित्तं येषां ते तथा 'अवितण्हा' अवितृष्णाः विषयलोलुपाः-प्राप्तकामोपभोगेनाप्यनुपशान्तचित्ता इत्यर्थः, 'काम भोगति सिया' कामभोगतृषिताः-अप्राप्तकामभोगेषु तत्प्राप्तिचिन्तापरायणाः, एतादृशास्ते 'बलबईए' बलवत्या प्रगाढ्या ' महईए' महत्या विशालया 'तण्हाए' तृष्णया-विषयवाञ्छया 'अभिभूया' अभिभूताः-अक्रान्ताः ‘गढिया किं पुरुष, महोरग,गंधर्व, ये आठ व्यन्तर देव, तथा तिर्यग्लोक में जितने ज्योतिषियों के विमान हैं उन विमानों में रहने वाले असंख्यात ज्यो. तिषी देव, तथा मनुष्यों का समूह, (जलयरथलयरखहचरा य ) मत्स्य आदि जलचर जीव, गोमहिषी आदि स्थलचर जीव, एवं आकाश में उड़ने वाले पक्षी, सब मैथुन सेवन करते हैं। क्यों कि ये सब (मोहपडिबद्धचित्ता) अज्ञान से ग्रसित है चित्त जिन्हों का ऐसे होते हैं । एवं (अवितण्हा) प्राप्त कामोपभोग में भी इनका चित्त शांत नहीं हो पाता है । कारण ( काम भोगतिसिया ) जो कामभोग इन्हें प्राप्त नहीं होते हैं उनमें उनकी प्राप्तिकी आज्ञासे चिन्ता से इनका चित्त चलायमान होता रहता है । ऐसा इसलिये होता है कि ये ( बलवईए) प्रगाढ एवं ( महईए ) विशाल ( तण्हाए ) विषयाभिलाषा से ( अभिभूया) आक्रान्त हो जाते हैं। इसीलिये ये (गढियाय ) विषयों के લોકમાં જેટલાં તિષીઓનાં વિમાન છે તે વિમાનમાં રહેતા અસંખ્યાત ज्योतिषष, तथा मनुष्यानो समूड, तथा “ जलयर, थलवर, खहचराय " મત્સ્ય આદિ જળચર છે, ગાય ભેંસ આદિ સ્થળચર જીવ, અને આકાશમાં ઉડતાં પક્ષીઓ, તે સૌ મિથુનનું સેવન કરે છે; કારણ કે તે સૌનાં ચિત્ત " मोहपडिबद्धचित्ता” अज्ञानथी १४४येai हाय छ, मन ,, अवितण्डा" કામગ ભોગવવા મળે તે પણ તેમના ચિત્તને શાંતિ મળતી નથી. કારણ " कामभोग तिसिया " भाग तेमने प्रात यता नथी तेनी वाससाथी तमतां वित्त सायभान २ छ. म यथानु ४।२९ गेछ । “ बलवईए" प्रसाद भने “ महईए” वि “ तण्हाए " विषयालिसापाथी “ अभिभूया" For Private And Personal Use Only Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४०२ सुर्शिनी टीका अ०४सू. ३ चक्रवादि वर्णनम् य' ग्रथिताश्च-विषयगुम्फितमानसाः, तथा ' अइमुच्छियाय ' अतिमूर्छिताश्च= अतिमोहातिशयमुपगताः 'अवंभे ओसण्णा' अब्रह्मणि अवसन्नाः मैथुने समासक्ताः, 'तामसेण भावेण अणुमुक्का' तामसेन भावेन अनुमुक्ताः, तामसेन भावेनअज्ञानमवर्तितेन परिणामेन अनुमुक्ता: आबद्धाः सन्तः, अत्र-- अन्नोन्नं सेव. माणा' इत्यग्रेण सम्बन्धः अन्योन्य परस्परं पुरुषैः सह स्त्रियः, स्त्रीभिः सह पुरुषा इत्यर्थः सेवमानाः= अब्रह्मसमाचरन्तः, 'दसणचरित्तमोहस्स' दर्शनचारित्रमोहस्य=' अत्र कर्मणः सम्बन्धमात्रविवक्षायां षष्ठो, दर्शनमोहनीयचारित्रमोहनीयरूपं द्विविधं कर्म ‘पंजर पिव' पञ्जरमिव करेंति' कुर्वन्ति-अब्रह्मसेविनो देवादयः खलु दर्शनमोहनीय चारित्रमोहनीयरूपपञ्जरे स्वात्मानं नयन्तीति भावः ॥सू०३॥ साम्प्रतं चक्रवादीन वर्णयति — भुज्जो असुरमुर' इत्यादि-- __ मूलम्-भुजो असुर-सुर-तिरिय-मणुय-भोगरति-विहार संपउत्ता य चकवट्टी-सुर-नरवाइ-सकया, सुरवरव्व देवलोए सेवन करने की आज्ञा से गुंफित मन होकर (अइमुच्छिया य) उन विषयों में अत्यंत मोहको प्राप्त होते रहते हैं और (अबंभे ओसण्णा) अब्रह्म के सेवन करने के लिये अत्यंत आसक्त हो जाते हैं। (तामसेणभावेणं अणुमुक्का ) तामसभाव से-अज्ञानप्रवर्तित परिणाम से-आबद्ध होकर परस्पर में एक दूसरे के साथ पुरुष के साथ स्त्री, और स्त्री के साथ पुरुष रमण करने लग जाते हैं। इस तरह ( अन्नोन्नं सेवमाणा) इस अब्रह्मरूप पापकर्मकों सेवन करने वाले ये देवादिक अपनी आत्मा को (दसणचरित्तमोहस्स पंजरं पि व करेंति )पंजर के जैसे दर्शन मोहनीय एवं चारित्र मोहनीय कर्म में निक्षिप्त कर देते हैं। अर्थात् इन कर्मों का बंध करते हैं ।। सू० ३॥ तेशी व्याकुल थाय छे. तेथी “ गढियाय " विषयानु सेवन ४२वानी भाशामा दीन ने “ अइमुच्छियाय,, तेभर्नु भन ते विषय प्रत्ये अत्यात भाडासत थया ४२ छ, भने “ अबंभेओसण्णा” ते भैथुनर्नु सेवन ४२वाने न्मत्यात भासत थाय छे. भावेण अणु मुक्का" तामस माथी--मज्ञान प्रतित ५.२९ मथीજકડાઈને પરસ્પરમાં-પુરુષની સાથે સ્ત્રી, અને સ્ત્રીની સાથે પુરુષ-રમણ કરવા ensil छ. या शेते “ अन्नोन्नं सेवमाण" २॥ माझा-यय ३५ ५।५४भर्नु सेवन ४२ना२ पाहि पोताना मात्माने "सणचरित्तमोहस्स पंजर पि व करेंति'પિંજરા જેવાં દર્શન મેહનીય અને ચારિત્ર મેહનીય કર્મમાં નાખી દે છે. मेरो त भनि। म मधे छ ॥ सू० ३॥ For Private And Personal Use Only Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ९०४ प्रश्नव्याकरणसूत्रे भरह-नग-गर-निगमजणवय-पुरवणदोणमुह-खेड-कब्बडमडंबसंवाहपट्टणसहस्स-मंडिय-थिमिय-मेयणियं एगच्छत्तं ससागरं मुंजिऊणवसुहं नरसीहा-नरवई-नरिंदा-नरवसहा मरुयवसभकप्पा अब्भहियं रायतेयलच्छीए दीपमाणा सोम्मा रायसतिलगा रवि-ससि-संख-वरचक-सोत्थिय-पडाग-जवमच्छकुम्मरहवर-भग-भवण-विभाण-तुरंग-तोरण-गोपुर-मणिरणय-नंदियावत्त-मुसल-लंगल-सुरइयवरकप्प रुक्ख मिगवइ -भद्दासण-सुरुइ-थूभ-वरमउड-सरिय-कुंडल-कुंजर-वरवसभदीव-मंदर-गरलज्झय-इंदकेउ-दप्पण--अट्रा-वय-चाव-बाणनक्खत्त मेह-मेहल-वीणा-जुग-छत्त-दाम-दामिणि कमंडलुकमल-घंटा-वरपोत-सूची-सागर कुमुदागर-मगर-हार-गागरनेउर-णग-णगर-वइर-किण्णर-मयूर-वररायहंस-सारस-चकोर. चकवाग-मिहुण-ग्रामर-खेडग-पव्वीसग-विपंचि-वरतालियंटसिरिया-भिसेय-मेयणि-खग्गं-कुस-विमल कलस-भिंगार-बद्धमाणगपसत्थउत्तमविभत्तवरपुरिसलक्खणधरा ॥ सू० ४ ॥ टीका-'भुज्जो' भूयः पुनरपि 'असुर-सुर-तिरिय मणुय भोगरइ-विहारसंपउत्ताय ' असुरसुरतियङ्मनुजभोगरतिविहारसंप्रयुक्ताश्च तत्र असुराः व्यन्तराः अत्र-असुरशब्देन व्यन्तरा गृह्यन्ते, सुराः यक्षाः, तिर्यञ्चा=अश्वरत्नगजरत्नादयः, ___अब सूत्रकार चक्रवर्ती आदि को का वर्णन करते हैं-'भुज्जो असुर०' इत्यादि। टीकार्थ:--(असुर-सुर-तिरिय मणुय भोगरइ विहारसंपउत्ताय ) असुरों - व्यन्तरदेवों, सुरो- यक्षों तिर्यचों-अश्वरत्न गजरत्न आदि वे सूत्र.१२ २४वती माहितुं वन ४२ छे–“ भुजो असुर " त्यादि "असुर, सुर, तिरिय मणुय, भोगरइविहारसंपउत्ताय " मसुरे।-य'तर हेवी, सुरे, यक्षो, तिय"या-24-२५२न, २०४२न, मा प्राणिमा, मनुष्य! भांति For Private And Personal Use Only Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org - सुदर्शिनी टीका अ०४ सू०४ चक्रवर्त्यादिवर्णनम् ४०५ मनुजाः = मनुष्या - मांडलिकादयश्च तेभ्यः- तत्सकाशाद ये भोगाः शब्दादयः, तेषु या रतिः =अनुरागस्तेन ये विहाराः = विविधमकारचेष्ठारूपाः क्रीडाः तैः सम्प्रयुक्ताः = सहिताः ये ते तथा के ते ? इत्याह- ' चकवड्डी ' चक्रवर्तिनः, कीदृशास्ते चक्रवर्तिनः ? इत्याह-' सुरनरवाइ सकया ' सुरजरपतिसत्कृता:= सुरैः=देवैः नरपतिभिः=नृपैश्च यद्वा 'पति' शब्दस्य प्रत्येकं सम्बन्धात् सुरपतिभिर्नरपतिभिचेत्यर्थः, सत्कृताः = सम्मानिताः, 'देवलोए' देवलोके 'सुरवर' सुरवरा इव महर्द्धिक देवा इव । देवलोके यथा देवाः सुखमनुभवन्तः ' भरहनगणगर निगमजणत्रय पुरवर दोणमुखेड कन्डम डंव संवाहपट्टणसहस्समंडियं ' तत्र ' भरह ' भरतस्य=भारतवर्षस्य सम्बन्धिनो ये नगाः = पर्वताः ' णगर ' नगराणि - अष्टादशकर वर्जितानि, 'णिगम ' निगमाः = वणिग्जननिवासाः ' जणवय ' जनपदा: - देशाः, पुरवराणि - राजधानीरूपाणि, 'दोणमुह' द्रोणमुखानि जलस्थलमार्गयुक्तानि ' खेड' खेटानि = धूलिमाकारमयानि ' कब्बड ' कर्वटानि = प्राणियों मनुष्यों -मांडलिक राजा आदि जनों के द्वारा संपादित शब्दादिक भोगो में अनुराग जन्य विविध प्रकारकी चेष्टारूप क्रीडाओं से युक्त ऐसे (चक्की) चक्रवर्ती भी इन कामभोगों से तृप्त नहीं होते हैं (सुरनरवहसक्कया) जो चक्रवर्ती सुरों से-देवताओं से, अथवा सुस्पतियोंइन्द्रों से एवं नरपतियों - राजाओं से विशेषरूप में सदा सन्मानित किये जाते हैं तथा ( देवलोए सुरवरव्व ) जिस प्रकार देवलोक में महर्द्धिक देव सुखोंकों भोगा करते हैं उसी प्रकार जो सुखोंको भोगते हैं। तथा जो ( भरहनग - नगर-निगम-जणत्रय - पुरवर- दोणमुह- खेडकवड -- मडंब संवाहपट्टण- सहस्स-मंडियं ) भारतवर्ष संबंधी हजारों १८ अठारह प्रकार के करों से रहित नगरों से वर्णिग्जननिवासभूत हजारों निगमों से, हजारों देशों से, राजधानियांरूप श्रेष्ठ पुरों से, जलमार्ग स्थलमार्ग રાજા આદિ લોકો દ્વારા સ'પાદિત શબ્દાદિક ભાગામાં અનુરાગ જન્ય વિવિધ अारनी येष्टाइप डीडामोथी युक्त सेवा " चक्कवट्टी " यवती पशु કામભાગોથી તૃપ્ત થતા નથી, “ सुरनरवइसकया " ने यवर्ती भानुं देवताओ વડે, સુરપતિએ ઇન્દ્રો વડે અને નૃપતિ વડે સત્તા વિશેષરૂપે સન્માન કરાય छे, तथा “ देवलोए सुखव्व ” દેવવેકમાં જેમ મહદ્ધિક દેવા સુખો ભોગવ્યા કરે છે, એજ પ્રમાણે જે સુખા ભાગવે છે, એવા ચક્રવતી આ પણ કામભોગોથી तृप्ति यामता नथी, तथा ने "भरह - नग - नगर-निगम जणवय- पुरवर - दोणमुहखेडकब्बड-मडव-संवाह-पट्टण - सहस्स– मंडिय' " लारतवर्षना उन्नरों पर्वताथी, અઢાર પ્રકારના કરેથી રહિત નગરથી, વિષ્ણુક લેાંકા રહેતા હોય એવાં હારા નિગમેથી, હજારો દેશેાથી, હજારો રાજધાનીરૂપ શ્રેષ્ઠ શહેરાથી, જળમાર્ગ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४०६ प्रश्नव्याकरणसूत्रे अल्पजन निवासस्थानानि ' मडंब ' मडंबा :- सार्धक्रोशद्वयग्रामान्तरशून्याः, संवाहाः = धान्यादिरक्षणदुर्गविशेषा ' पट्टण ' पत्तनानि सकलवस्तुप्राप्तिस्थानानि चेत्येतेषां यानि सहस्राणि तै: ' मंडियं ' मण्डिता या सा तथा तां 'थिमियमेयणियं' स्तिमितमेaatni = निश्चलमजां निरस्तसमस्तशत्रुजनादिभयरहितजनयुक्ताम्, ' एगच्छतं ' एकच्छत्राम् = इतर भूपतीनां तद्वशवर्त्तित्वादेकस्यैव राज्ञः स्वातन्त्र्येण प्राधान्यादेकमेव छत्रं यत्र सा तथा तां, तथा 'ससागरं ' ससागरां समुद्रसहित वसुहं ' वसुधां = पृथिवीं - भरतार्द्धादिरूपां 'भुंजिकण' भुक्त्वा इदं चक्रवर्त्तिनो " हजारों द्रोणमुखोसे से, धूलिप्राकारमय हजारों खेटों से, अल्पजननिवासभूत हजारों कर्बटों से, अढाईकोशतक ग्रामान्तरों से शून्य हजारों मडयों से, हजारों संवाहों से धान्यादिकों की जिनकेद्वारा रक्षा की जाती है ऐसे दुर्गविशेषों से एवं सकल वस्तुओं की प्राप्ति के स्थानभूत हजारों पसनों से मंडित (थिमिय मेयणियं ) तथा शत्रु आदि के भय से रहित होकर प्रजाजन जिसमें आनंद के साथ निवास कर रहे है ( एगच्छन्तं ) और जिस में किसी अन्य राजा कीस्वतंत्र आज्ञा नहीं चलती है- दूसरे राजाओं के होनेपर भी उसी एक के वशवर्ती होने के कारण स्वतंत्ररूप से अपनी आज्ञा नहीं चला सकते है - किन्तु उसी एक की आज्ञा के अनुसार ही अपनी आज्ञा चलाते हैं, ऐसी स्थिति वाला साम्राज्य जहाँ होता है उस साम्राज्य संपन्नभूमि को एकच्छवाली भूमि कही जाती है । ऐसी ( ससागरां ) आसमुद्रान्त - (वसुहं) पृथिवी को - भरतार्द्ध रूप भूमि को ( भुंजिऊण ) भोगकर के ( नरसीहा) जो સ્થળમાં વાણાં હજારો દ્રોણુમુખોથી, ધૂળના કિલ્લાવાળાં હજારો ખેટાથી, ઘેાડી વસ્તીવાળાં હજારો કટાથી, જ્યાંથી અહીં ગાઉ સુધી બીજા ગામા ન હોય તેવાં હજારો મડબાથી, હજારા સંવાહેાથી-( ધાન્યાદિની જેનાથી રક્ષા કરાય છે એવા દુર્ગા શેષા) અને સઘળી વસ્તુના પ્રાપ્તિ સ્થાનરૂપ હજારા પત્તનાથી યુક્ત, તથા " थिमियभेयाणियं " શત્રુ આદિ ભયથી રહિંત બનીને પ્રજાજના જેમાં આનંદપૂર્વક રહે છે, एगच्छत्त ” અને જેમાં ખીજા કાઈ રાજાની સ્વતંત્ર આજ્ઞા ચાલતી નથી-ખીજા રાજાઓ હાવાછતાં પણ તેઓ તે એકને જ “ ચક્રવતી રાજાને ” વશ હાવાને કારણે સ્વતંત્ર રીતે પેાતાની આજ્ઞા ચલાવી શકતાં નથી, પણ તે એકની આજ્ઞા પ્રમાણે તેમને વર્તવું પડે છે, એવી સ્થિતિવાળું સામ્રાજય જ્યાં હૈાય છે, એ પ્રકારનાં સામ્રાજયવાળી ભૂમિને એક છત્ર नाथेनी भूमि अंडे छे. सेवी " ससागर " समुद्रना अन्त सुधीनी " वसुहं " पृथ्वीने - भरतार्द्ध ३५ लूमिने " भुंजिकण " लोगवीने “ नरसीहा ” ने विशिष्ट 66 For Private And Personal Use Only Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुर्दाशनीटीका अ० ४ सू० ४ चक्रवयदि वर्णनम् } , माण्डलका स्थापेक्षयोक्तम् । अग्रे तु 'हिमवंतसागरं तं धीरा भोत्तूणभरहवासं ' इत्युक्तं तत् चक्रवर्त्तिपदप्राप्त्यनन्तरं समस्तभरत क्षेत्रभोक्तृत्वापेक्षया प्रोक्तमिति बोध्यत् चक्रवर्त्तिन एव विशिनष्टि, ' नरसीहा' नरसिंहाः - नरेषु सिंहा इव शौर्यादिमत्वात् ' नरवई' नरपतयः नराणां स्वामिकत्वात् ' नरिंदा' नरेन्द्राः = नरेषु इन्द्रभृतत्वात् ' नरवसहा' ननृषभाः = राज्यधुराधरणसामर्थ्यात् 'मरुयवसभकप्पा ' मरुजवृषभकल्पाः=मरुजाः= मरुदेशोत्पन्नाः वृषभाः = वलिवर्दाः, तत्कल्पाः = तत्समानाः ये ते तथा मरुदेशनुषभाहि शरीरसम्पच्या बहुभारवहन समर्था भवन्तीति 'तैः सहोपमानम् | ' अब्भहि यं ' अभ्यधिकम् - अत्यधिकं यथास्यात्तथा ' रायतेयलच्छीए दीप्पमाणा ' राजतेजोलक्ष्म्या दीप्यमानाः - राजप्रतापश्रिया देदीप्य माना: ' सोम्मा' सौम्याः = शान्तस्वरूपा : 'रायवंसतिलगा राजवंशतिलका:= राजकुलमण्डनभूताः, तथा ' रविः =सूर्यः १, 'ससि' शशी = चन्द्रः २, ' संख विशिष्ट शौर्यादि संपन्न होने के कारण नरों में सिंह की तरह होकर नरसिंह (Road) मनुष्यों के स्वामी होने के कारण नरों के पति (नरिंदा ) नरों में इन्द्र जैसे होने के कारण नरेन्द्र ( नरवसहा ) समस्त राज्य धुरा धारण करने में सामर्थ्यशाली होने के कारण मरुज वृषम जैसेमारवाड़ के बलीवर्द जैसे - मारवाड़ के बैल अपनी शरीररूपी संपत्ति से बहुत अधिक भार को वहन करने वाले होते हैं इसलिये उन के साथ यह सादृश्य घटित किया है। तथा ( अम्भहियं रायतेयलच्छीए दीपमाणा ) बहुत अधिकरूप में राजलक्ष्मी से देदीप्यमान, (सोम्मा ) शांतिस्वरूप और (रायवसतिलगा) राजकुल के मंडनभूत होते हैं एवं जो ( रविससिसंखवर चक्क ) रवि शशि शंख चक्र इत्यादि - लक्षणों के धारण करनेवाले, अर्थात्-रवि-सूर्य शशि- चंद्रमा तथा शंख, श्रेष्ठचक्र W For Private And Personal Use Only ४०७ (6 " "" શૌય આદિથી યુક્ત હાવાને કારણે નરામાં સિહુ જેવા હાવાથી નરિસંહ, नरवई ” भनुष्योना स्वाभी होवाने अरणे नृपति, " नरिंदा " नरोभां न्द्रि સમાન હાવાથી નરેંન્દ્ર, नरव सहा સમસ્ત રાજ્યરાનું વહન કરવાને સમ હોવાને કારણે નરવૃષભ અથવા મરુજવૃષભ જેવા, મારવાડના બળદ જેવા-“ મારવાડના અળદ મજબૂત હોવાને કારણે વધારે ભાર ઉપાડી શકે છે તેથી તેમની સાથે આ સરખામણી કરવામાં આવી છે તથા ' अमहियं - रायते यलच्छीए दीपमाणा " રાજલક્ષ્મી વડે બહુ જ વધારે દીપ્યમાન, सोम्मा शान्त स्व३५ सौभ्य, अने “ रायवंसतिलंगा” रावशोनी शरभात ४२नाश, भने ? " रविससिसंखवरचक्क સૂર્ય, ચન્દ્ર, ખચક્ર ઇત્યાદ્રિ લક્ષ્ણાને ધારણ કરનારા, એટલે કે સૂર્ય ચન્દ્ર, શ ́ખ, શ્રેષ્ઠ ચક્ર, 66 27 " 44 " Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir %3 ४०८ प्रश्नव्याकरणसूत्रे शङ्का प्रतीतः ३, 'वरचक्क' वरचक्र श्रेष्ठचक्रं ४, 'सोत्थिय' स्वस्तिका चतुष्कविशेषः ५, 'पडाग' पताका धजा ६, 'जब ' यवा स्वनामख्यातो धान्यविशेषः ७, 'मच्छ ' मत्स्यः प्रसिद्धः 'कुम्म' कूर्मः कच्छपः९, 'रहबर' रथवरःविशिष्ट स्थः१०, 'भग' योनिः११ 'भवण' भवनं यासादः१२ 'विमागा विमानं प्रतीतं १३, 'तुरंग' तुरङ्गः अश्वः १४, 'तोरण' तोरणं बहिरं १५, गोपुरं नगरद्वारं १६, मणिः चन्द्रकान्तादिकः १७, ' रयण' रत्नं कर्केतनादिकं १८, 'नंदियावत्त ' नन्द्यावर्त्तः = नवकोणस्वस्तीकविशेषः १९, ‘मुसल' मुसलं प्रसिद्धं २०, 'लांगलं' लागलं -हलं २१, 'सुरइयवरकप्परुक्ख' सुरचितवरकल्प वृक्षः मुरचितः सुष्टु कृतो यो वरः श्रेष्ठः कल्पवृक्षः अथवा सुरतिदः सुखप्रदः कल्पवृक्षः २२, 'मिगवइ ' मृगपतिः-सिंहः २३, ' भदासण' भद्रासन-सिंहासनं २४, 'सुरुइ ' मुरुचिः आभूपणविशेषः२५, 'थूम' स्तूपः-स्तम्माविशेषः २६, 'वरमउड' वरमुकुटं श्रेष्ठमुकुट २७, 'सरिय' मुक्तावली देशी शब्दोऽयं २८, 'कुंडल ' कुण्डलं-कर्णाभरणं २९, 'कुंजर' कुञ्जरः-दस्ती ३०, 'वरवसभ' वरवृषभ:३१, 'दोव' द्वीपः३२, मंदर' मन्द-मन्दराचल:३३, 'गरुल' गरुडः प्रसिद्धः३४, ‘झय' धनः-प्रतीतः३५, ' इंदकेऊ ' इन्द्रकेतुः= इन्द्रध्वनः३६, ' दप्पण' दर्पणः असिद्धः ३७ 'अट्टाक्य ' अष्टापदंद्युतफलकं ३८. 'चाव ' चापा-धनु:३९, बाग-प्रतीतः४०, ' नक्खत्त ' नक्षत्र ४१, 'मेह ' मेघः प्रसिद्धः ४२, 'मेहल' मेखला काश्ची ४३, वीणा प्रतीता ४४, 'जुग' युगंन्वृषभस्कन्धे स्थाप्यमानःशकटाङ्गविशेषः, 'जुहाडा' इति भाषा स्वस्तिक, पताका, यव मत्स्य, कूर्म, विशिष्ट रथ, योनि, भवन, विमान तुरंग, तोरण,गोपुर, चन्द्रकान्तादिकमणि,कर्केतनादिरत्न,नवकोणवाले स्वस्तिक, मुसल, लांगल, सुरचित-सुन्दर श्रेष्ठकल्पवृक्ष , सिंह, भद्रासन सिंहासन, सुरुचि इसनामको एक आभूषण विशेष, स्तूप,-स्तंभविशेष, श्रेष्ठमुकुट, मुक्तावली, कुंडल, कुंजर हाथी, सुन्दरबैल, द्वीप, मरदाचल, गरूड, ध्वजा, इन्द्रध्वजा, दर्पण, अष्टापद-यूतफलक, चाप-धनुष, बाण, नक्षत्र, मेघ, मेखला-कांची, वीणा, युग-गाड़ी का जुआ-जो बैलों के पति, पत!४, 44, मत्स्य, भ, विशिष्ट २५, योनी, भवन, विमान, तु२॥ તેરણ, ગેપુર, ચન્દ્રકાન્ત આદિ મણિ- કર્કતનાદિ રત્ન, નવકણ વાળા સ્વસ્તિક भुसा, Cine, सुश्थित सु४२ ४ ४३५१क्ष, सिंह. मद्रासन-सिंहासन, सु३थिमे माभूष, २४५-स्तन विशेष, श्रेष्ठ भुट, भुतापसी, ४५. ४२साथी, सु१२ १५०, दीप, महरायत, ३३, Mon, ४००, ४५, मा५४धूत ५४, धनुष्य. माणु, नक्षत्र, मेघ, भेगा-होरी, पी, युग-11-1 For Private And Personal Use Only Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० ४ सू० ४ चक्रवत्तलक्षणनिरूपणम् ૨૦૨ " प्रसिद्धं ४५, 'छत्त छत्र = प्रसिद्धं ४५, दाम - माला ४३, 'दामिणि' दामनी = रज्जुः ४८, 'कमंडलु ' कमण्डलु = जलपात्रविशेषः, मतीन:४९, कमलं = प्रतीतं " " " 6 , " ५० घण्टा = प्रतीता ५१, ' वरपोय ' वरपोतः नौका ५२, 'सई' सूची = वस्त्रसीवनसाधनं ५३, 'सागर' सागरा = समुद्र:५४ ' कुमुदागर' कुमुदाकरः= कुमुदवनं ५५, मगर मकर:५६, हारा=प्रतीतः ५७, 'गागर' इति स्त्रिय आभरणविशेषः ५८, नेउर' नूपुरं =पदभूषण ५९, 'ग' नगः= पर्वतः ६०, 'नगर' नगर प्रसिद्ध ६१, ' बहर बजे ६२, किण्णर किन्नराच्यन्तरदेव विशेष :६३, मयूरः = प्रसिद्धः ६४, 'वरथहंस' बरराजहंसः प्रशस्वराजहंसः ६५, सारसः = प्रसिद्धः - पक्षिविशेषः ६६, 'चकोर' चकोर:६७, ' चकरागमिहुण चक्रवाकमिथुनं = चक्रवाकयुगलं ६८, चामरं प्रतीतं ६९, खेडग खेटकं = ढाल' इति भाषा प्रसिद्धं ७०, 'पव्वीसग' इति वाद्यविशेषः देशी शब्दोयं ७१, 'विपचि विपञ्चीसप्ततन्त्रीवीणा ७२, ' वरतालियंट ' वरतालहन्तं प्रशस्तंतालव्यजनं ७३, सिरियाभिसेय श्रीकाऽभिषेकः = लक्ष्म्या अभिषेकः ७४, ' मेयणि ' मेदिनी= पृथ्वी ७५, 'खग्ग' खड्डः ७६ ' अंकुस ' अङ्कुशः = प्रसिद्धः ७७, ' विमलकलस' विमलकलश - उज्ज्वल कलश: - ७८, 'भिंगार' भृङ्गारः - पात्रविशेषः ' झारी ' इति भाषा प्रसिद्धः ७९, बद्धमाणग ' वर्धमानकः शरावः८०, चेत्ये 6 " " , ( , { कंधो पर रक्खा जाता है, छत्त-छत्र, दाममाला, दामनी - रस्सी, कमंडलु कमल, घंटा, नौका, सुई, समुद्र, कुमुदवन, मकर, हार, गागर,- स्त्रियोंका एक प्रकार का आभूषण, नूपुर- पदभूषण, पर्वत, नगर, वज्र, किन्नर जातिके व्यन्तरदेव, मयूर, प्रशस्त राजहंस, सारसपक्षी, चकोर, चक्रवाक का जोड़ा, चामर, खेटक - ढाल, पच्चीसग-इस नामका एक वाद्यविशेष, विपञ्ची-सात तार वाली वीणा, सुन्दरताडवृक्ष का पंखा, लक्ष्मी का अभिषेक, पृथिवी, खड-तलवार, अंकुश, उज्ज्वलकलश भृंगार, वर्द्धमानक- शराब, इन सब के चिन्हों को कि जो प्रशस्न चक्रवर्तित्व के सूचक धूसरी, छत्र, हाभमाझा, हामनी - रस्सी, उभउज, उभण, घट, नौअ, सोय, समुद्र, मुभुहवन, भगर, डार, जागर - स्त्रीगोनु मे प्रारनुं व्याभूषण, नूपुर - ञभर, पर्वत, नगर, वन, छिन्नर व्लतीना व्यांतर देव, भयूर,, प्रशस्त राहुंस, सारसपक्षी, यऔर, यहुवाउनु' लेडु, याभर, ढाल, पव्वीसगड वाद्यविशेष, વિપચી-સાત તાર વાળી વીણા, સુદર તાડવૃક્ષના પખા, લક્ષ્મીના અભિષેક, पृथिवी, तलवार, अङ्कुश, अनभव उणेश, भृंगार, वर्द्धमानः-शरा, भे અધાં ચિન્હો કે જે પ્રશસ્ત ચક્રવર્તિત્વના સૂચક અને શ્રેષ્ઠ હોય છે તથા જે प्र० ५२ For Private And Personal Use Only Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४१० प्रश्नव्याकरणसूत्रे तानि, ' पसत्थ ' प्रशस्तानि = चक्रवर्तित्वमुचकानि उत्तमानि = उत्कृष्टानि 'विभत्त' विभक्तानि = स्पष्टानि यानि ' वरपुरिसलक्खण ' वरपुरुपलक्षणानि - वरपुरुषाणांमहापुरुषाणां लक्षणानि हस्तरेखादिरूपाणि महत्वसूचकानि तानि धारयन्ति ये ते तथा सूर्यचन्द्रशचक्रादिरूपविशिष्टचक्रवर्तिलक्षणवन्तः तेऽपि कामभोगैरवितृप्ता एव मरणधर्म प्राप्नुवन्तीति सम्बन्धः ॥ सु० ४ ॥ पुनस्ते चक्रवर्तिनः कीदृशा? इत्याह-' बत्तीस ' इत्यादि - मूलम् - बत्तीस - रायवर - सहस्साणुजायमग्गा चउसट्टिसहस्स पवर जुवतीणयणकंता रत्तामा पउमपम्हकोरंटगदामचंपगसुतवियवरकणक - निघसवण्णा सुजाय सव्वंगंसुदरंगा महग्घवरपट्टणुग्गय विचित्त-रागएणी-पएणी निम्मिय-दुगुल-वरचीणपट्टकोसेन सोणीसुत्तकविभूसियंगावरसुरभिगंध-वरचुपणवासवरकुसुमभरिय-सिरियाकप्पियछेया-यरियसुकयरइयमालकडगंगय तुडियवर - भूस पिणद्वदेहा एगावलिकंठसुरइयवच्छा पालंच पलंबमाणसुकयपडउत्तरिजामुद्दिया पिंगलंगुलिया उज्जल नेवत्थरइयचिलगविरायमाणा तेपण दिवाकरोव्वदित्ता सारयनवत्थणिय - महर - गंभीर - निद्धघोसा उप्पण्ण समत्तरयणचक्करयणपहाणा नवनिहिवइणोसमिद्धकोसा चा एवं उत्कृष्ट होते हैं तथा जो रेखारूप में स्पष्ट झलकते थे और जो महापुरुषों के हस्त आदिकों में रेखादि रूप में पाये जाते हैं इन सब को धारण करने वाले होते हैं। ऐसे महाभाग्य शाली चक्रवर्ती भी कामभोगों से अतृप्त होकर ही मृत्यु को प्राप्त करते हैं। इस प्रकार का संबंध इस सूत्र की व्याख्या करते समय लगा लेना चाहिये ॥ सू०४ ॥ મહાપુરુષાના હાથ આદિમાં રેખાએ રૂપે જોવા મળે છે, તે બધાં ચિહ્નોને ધારણ કરનારા હોય છે. એવા મહાભાગ્યશાળી ચક્રવતી રાજાએ પણ કામભાગોથી અતૃપ્ત રહીને જ મૃળ્યુ પામે છે. એ પ્રકારનો સંબંધ આ સૂત્રની व्याख्या करती वजते समल सेवानो छे ॥ सू० ४ ॥ For Private And Personal Use Only Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुंद शनी टीका अ०४ सू०५ चक्रवर्तीलक्षणनिरूपणम् ४१५ उरताचाउराहिं सेणाहिं समणुजाइज्जमाणमग्गा तुरंगवई गयवई रहवई नरवई विउलकुला वीसयजसा सारयससिसकल सोम्मवयंणा, सूरा,तिलोक निग्गयपभावा लद्धसदा समत्त भरहाहिवा नरिंदा ससेलवणकाणणं च हिमवंतसागरं तं धीरा भोत्तूणं भरहवासं जियसत्तपवररायसीहापुव्वकडतवप्पभावा निबिटुसंचियसुहा अणेगवाससयमाउव्वंतो भजाहि य जयवयपहाणाहिं लालियंता अतुल सदफरिसरसरूवगंधे य अणुभवित्ता तेवि उवणमंति मरणधम्म अवित्तित्ता कामाणं ॥ सू० ५॥ टीका:- बत्तीसरायवरसहस्साणुजायमग्गा' द्वात्रिंशद् राजवरसहस्रानुयातमार्गाः द्वात्रिंशद् यानि राजवराणां राजप्रमुखानां सहस्राणि तैरनुयातः= अनुगतो मार्गों येषां ते तथा अनुगामि द्वात्रिंशत्सहस्रराजप्रमुखानामधिपतय इत्यर्थः, 'चउसद्विसहस्सपवरजुवतीणयणकंता ' चतुः--पष्टिसहस्रप्रवरयुवतिनयनकान्ताः-चतुःषष्ठिसहस्रपौढतरुणीनां नयनकान्ताः-नधनप्रियाः स्वामीन इत्यर्थः ‘रत्ताभा' रक्तामा रक्ता-विमलशोणीतबाहुल्याद् रक्तवर्णा आमा फिर वे चक्रवर्ती कैसे होते हैं सो कहते हैं-'घत्तीसरायवर.' इत्यादि। टीकार्थः- ( बत्तीसरायवरसहस्साणुजायमग्गा) जिनके पीछे २ पतीस हजार मुकुटबद्ध राजा चला करते हैं, अर्थात्-जो अपने अनुगामी ३२ हजार नरेशों के अधिपति होते हैं । (चउसद्विसहस्सपवर जुवतीनयणकता) तथा ६४ चोसठ हजार सर्वश्रेष्ठ युवती स्त्रियों के नयनों को जो आनंदप्रद होते हैं अर्थात् उनके स्वामी होते हैं, तथा (रत्ताभा)जिनके त पतिया ! राय छ तेनु सूत्र॥२ वधु १ न ४२- "बत्तीसरायवर" ध्याही . साथ-"बत्तीसरायवरसहस्साणुजायमगा" भनी पाछत्रीस र भुगटધારી સજાઓ ચાલે છે-એટલે કે જે તેમના અનુગામી બત્રીસ હજાર નૂપ तियांना अधिपति डायले " चउसद्रिसहस्सपवरजुवतीनयणकता" यास। હજાર સર્વશ્રેષ્ઠ યુવતીઓનાં નવનેને જે આનંદદાયી હોય છે, એટલે કે તેમના स्वामी जय छ, तथा " रत्तामा " मना शरी२नी मामा विभ २४तनी For Private And Personal Use Only Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ર rearraणसूत्रे } शरीरप्रभा येषां ते तथा विशिष्टलावण्यसंपन्ना इत्यर्थः, 'पउमपहकोरंटगदाम चंपगसुतवियवर कण गनिधसवण्णा पद्मपक्ष्मको रष्टवदाचम्पक सुतप्त - वरकनकनिकपवर्णाः, तत्र पद्मपक्ष्म = कमलकेसरः कोरण्टकदाम कोरण्टकपुष्पमाला चम्पकः = पुष्पविशेषः तथा सुबरकनकस्य = सुतप्तसुवर्णस्य यो निकष: = रेखा चेत्येतेषां वर्ण व वर्णो येषां ते तथा पद्मकेसर सुवर्णादिवद् भास्वरकान्तय इत्यर्थः, 'सुजायसव्वंगसुंदरंगा' सुजातसर्वाङ्गसुन्दराङ्गाः=सुजातानि= शोभनं पुष्टानि सर्वाङ्गेण = सर्वप्रकारेण सुन्दराण्यङ्गानि = अवयवा येषां ते तथा सुपुष्टशोभनाङ्गोपाङ्गसम्पन्नाः तथा महग्घवरपट्टणुग्गयविचिरागरणीपणीनिम्मिय दुगुलवरचीणपट्टको सेज्जसोगी सुतकविभूसियंगा ' महार्घत्ररपत्तनोगत - विचित्ररागेणीमैणीनिर्मित दुकूलवरचीन पकौशेय श्रोणी छत्रकविभूषिताङ्गाः = तत्र महार्घाणि = बहुमूल्यानि वरपत्तनोगतानि प्रधाननगरसमुत्पन्नानि तथा विचित्ररागाणि= अनेक विविधरङ्गरञ्जितानि एणी पैणी निर्मितानि पणी = मृगी श्रेणी " Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शरीर की आभा विमल शोणित की बहुलता से रक्तवर्ण की सी होती हैं, अर्थात् जो विशिष्ट लावण्य से युक्त होता हैं। तथा (पउनपम्हकोरंट गदामचंपगसुतवियवर कणकनिघसवण्णा) पद्मपक्ष्म- कमलकेशर, कोरण्टकदाम - कोरंटपुष्पों की माला, चम्पक-पुष्पविशेष, एवं तापे हुए सुवर्ण की रेखा इनके वर्ण के समान जिनका वर्ण होता है, अर्थात्पद्मकेशर तप्तसुवर्ण आदि के समान भास्वर कान्ति से जो युक्त होते हैं, तथा (सुजायसव्वंग सुंदरंगा) जिनके शारीरिक अवयव अच्छीतरह से पुष्ट एवं सब प्रकार से सुन्दर होते हैं ( महग्घवर पट्टग्गयवि चित्तराग एणी परणी निम्मियदुगुल वरचीणपट्टको सेज्ज सोणीमुत्तगविभूसियंगा ) तथा जिनका शरीर बहुमूल्य वस्त्रों से कि जो वस्त्र प्रधान नगरों के जो बने हुए होते हैं, विविध रंगों से रंगे रहते हैं, एणी प्रेणी - मृगी और 66 અધિકતાને લીધે રતાશ પડતી હોય છે, તથાં જે વિશિષ્ટ લાવણ્યથી યુક્ત હાય છે, તથા पउम-पम्ह कोरंट- गदाम - चंपग - सुतवियवर-कणक-निघसव्वण्णा" पद्मपक्ष्म-प्रभा प्रेशर, और उद्दाम - औरंट पुष्पोनी भाषा, यथाना ड्रेस, अने તપાવેલ સુવર્ણની રેખા જેવા જેમને વણુ હાય છે. એટલે કે જે પદ્મકેશર तप्त सुव माहिनां देवी सुंदर अंतिवाणा होय छे, तथा सुजायसव्वंगसुदरंगा " प्रेमनां शरीरनां गंगो सारी रीते पुष्ट भने हरे रीते सुंदर होय छे, 66 महावर पट्टणुग्गय-1 प-विचित्तराग- एणी-पएणी दुग्गुलवरचीण-पट्टकोसेज्ज सोणीसुतगविभूसियंगा ” तथा प्रेमनां शरीर महु ीमति वस्त्रोथी सुशोलित रहे छे. જે મુખ્ય શહેરામાં બનેલાં હોય છે, વિવિધ રંગોથી રંગેલાં ડાય છે, For Private And Personal Use Only Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० ४ सू० ५ चक्रवतीलक्षणनिरूपणम् च= मृगीविशेष एव तद्रोमनिमितानि यानि वस्त्राणि तानि, तथा दुकूलानि दुकूलो क्षविशेषः, तन्निमितानि वस्त्राणि, वल्कलमुलूखले जलेन सह कुदृयित्वा चूर्णीकृत्य मूत्राणि निर्माय उतानि दुकूलानीत्युच्यन्ते तानि । तथा वर चीनानि= चीनदेशोत्पन्नानि 'पट्ट' पट्ट सूत्रमयानि-मलयदेशविशेषसमुत्पन्नानि,कौशेयानि कृमिकोषमूत्रनीमितानि ' रेशमी ' इति प्रसिद्धानि वस्त्राणि तथा श्रोणीसूत्रक= कटिमूत्रकं ' कणदोरा' इति प्रसिद्धं चेत्यैतैः विभूषितानि=अलङ्कृतानि अगानि येषां ते तथा बहुमूल्यसुकोमलाऽतिसूक्ष्मतमरङ्गविरङ्गविविधवस्त्रकटिसूत्रसुशोभितशरीरा इत्यर्थः, वरसुरभिगंधवरचुण्णवासवरकुसुमभरियसिरया' वरसुरभिगन्धवरचूर्णवासवरकुसुमभृतशिरसा बरसुरभिगन्धा उत्तम सुगन्धयुक्तगन्धद्रव्यं, तथा वरचूर्णवासाः बराः श्रेष्ठाः चूर्णवासाः चूर्णरूपाणि गन्धद्रव्याणि, वरकुसुमानि च-चम्पक मालती प्रभृतीनि तै भृतानि व्याप्तानि शिरांसि-मस्तकानी मृगीविशेष के रोमों से निर्मित होते हैं उनसे मुशोभित रहते हैं । ये वस्त्र धोती के स्थानापन्न होते हैं। तथा जिम दुकूल-दुपट्टे-को ये ओढते हैं वह रेशमी होता है, एवं चीन देशका बना हुआ होता है। दुकूलवृक्ष के वल्कल को ओखली में जल के साथ पहिले मूसल से खूब कूटा जाता है, बाद में जब वह चूर्णरूप में हो जाता है तब उसके सूत्र तैयार किये जाते हैं और फिर उन्हें अच्छी तरह बुनकर यह दुकूल बनाया जाता है। ऐसे दुकूलों से एवं कटिसूत्र से जिनका शरीर सदा अलंकृत रहा करता है, अर्थात् जो बहुमूल्य, सुकोमल, अतिसूक्ष्मतमएवं रंगविरंगे अनेकविधवस्त्रों से, तथा कटिसूत्र से विभूषित शरीर रहते हैं ( वरसुरभिगंधवरचुण्णवासवरकुसुभभरियसिरया ) तथा उत्तम सुगंध युक्त गंधद्रव्यों से, श्रेष्ठचूर्ण वासों से चंपक, मालती आदि એણી પ્રણ-મૃગલી અને વિશિષ્ટ પ્રકારની મૃગલીની રૂંવાટીમાંથી બનાવેલાં હોય છે. તે વસ્ત્રો ધેતીની જગ્યાએ પહેરાય છે. તથા તેમના દુપટ્ટા રેશમી હોય છે, અને તે ચીનમાં બનેલા હોય છે. દુકૂલ-વૃક્ષની છાલને પાણી નાખીને પહેલાં ખાંડણીયામાં સાંબેલાથી ખૂબ ખાંડવામાં આવે છે, જ્યારે તેને ભૂકે થઈ જાય ત્યારે તેમાંથી તાર કાઢવામાં આવે છે, પછી તેને સારી રીતે વણીને તે હકૂલ-દુપટ્ટા બનાવવામાં આવે છે. એવા દુપટ્ટા અને કટિસૂત્રથી જેમનાં શરીર સદા આભૂષિત રહે છે, એટલે કે જેમનાં શરીર બહુ મુલ્ય, સુકોમળ. અતિશય બારીક અને રંગબેરંગી અનેક પ્રકારનાં વસ્ત્રોથી, તથા કટિસૂત્રથી विभूषित २४ छ, “वरसुरभि-गंधवर-चुण्णवासवर-कुसुम-भरियसिरिया" तथा ઉત્તમ સુગંધવાળા દ્રવ્યોથી, શ્રેષ્ઠચૂર્ણની સુગંધથી, ચંપક, માલતિ આદિ For Private And Personal Use Only Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्र येषां ते तथा परमसुगन्धिद्रव्यचन्दनचूर्णचम्पकादिकुसुमसम्भारसम्भृतमस्तका इत्यर्थः, 'कप्पियछेयायरियसुकयरइयमालकडगंगयतुडियवरभूसणपिणद्धदेहा' -कल्पितछेकाचार्यसुकृतरतिदमालाकटकाङ्गत्रुटितवरभूपणपिनद्ध देहाः = तत्र काल्पितानि = परिधृतानि छेकाचार्येण = शिल्पिवरेण सुकृतानि = मुष्ठु रचितानि रतिदानि = प्रेमजनकानि यानि माला कटकाङ्गादत्रुटितवरभूषणानि= माला सुवर्णमाला कटका:-कङ्कणानि ' कडा' इति प्रसिद्धानि, अङ्गदानि= केयूराणि त्रुटिताः बाहुरक्षिकाः, तथा वरभूषणानि-मुकुटकुण्डलादिनि च तैः पिनद्धः-व्याप्तो देहो येषां ते तथा मुकुटकेयूरकङ्कणादिविविधभूषणभूषितदेहा इत्यर्थः, 'एकावलिकंठसुरइयवच्छपालंबपलंघमाणसुकयपडउत्तरिजमुद्दियापिंगलंगुलिया ' तत्र-' एकावलिकंठसुरइयवच्छा' एकावलीकण्ठसुरचितवक्षस्काः एकावली-विविधमणिग्रथितहारः कण्ठे कण्ठपदेशे सुरचिता-परिधृता वक्षसि-वक्षः स्थले येषां ते तथा 'पालंबपलंबमाणसुकयपडउत्तरिज्जा' प्रालम्वप्रलम्बमान के पुष्पों से जिनका मस्तक सदा शोभित रहता है, अर्थात् परमसुगंधित द्रव्यों से चंदन के चूर्ण से चम्पकादि कुसुमों के संभार से जिनका मस्तक निरन्तर भरा रहता है। तथा (कप्पिय छेयायरिय-सुकय-रइय माल-कडंग गय-तुडिय-वर भूसणपिणद्ध देहा) जिनकी देह अच्छी तरह से पहिरे गये आभूषणों से, सुवर्ण की मालाओं से, कटकों कड़ों से, अंगदों-(भुजबंधों ) से, त्रुटितों से बाहुरक्षिकों से, एवं मुकुट कुंडल आदि उत्तम अलंकारों से, कि जो कारीगरों के द्वारा बहुत ही अच्छी तरह बनाये हुए होते हैं तथा प्रेमोत्पादक होते हैं इनसे इनकी देह व्याप्त रहती है (एगावलिकंठ सुरइय वच्छपालंबपलंघमाणलुकयपड उत्तरिज्ज પુખેથી જેમના મસ્તક સદા સુશોભિત રહે છે, એટલે કે અતિશય સુગંધયુક્ત દ્રવ્યથી, ચન્દનના ચૂર્ણથી, ચંપક આદિ પુપના સંભારથી જેમનાં भस्त सहा युटत २७ छ, तथा “कप्पिय छेयायरिय,-सुकय,-रइय,-माल, कडंग-गय, तुडिय, वर भूसणपिणबद्धदेहा" मनां शरी२ सारी रीते परेस भाभूषणाथी, सुवानी भाणायाथी. ४iमाथी, " अगदो' 'मधे!' થી, તૃતિથી-બાહુરક્ષિકેથી, અને મુગટ કુંડળ આદિ ઉત્તમ અલંકારથી આભૂષિત રહે છે. જે અલંકારે સારા કારીગરોએ સારી રીતે બનાવેલાં હોય छ तथा प्रेमात्५६ हाय छे. “एगावलि-कंठ-सुरइवच्छ-पालंय-पलंबमाण सुकय पडउत्तरिन्ज-मुद्दिया-पिंगलंगुलिया " तथा विविध भाग 3 ७२ रेमनी For Private And Personal Use Only Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ०४सू० ५ चक्रवर्तीलक्षणनिरूपणम् सुकृतपटोत्तरीयाः पालम्ववत्= आनाभिलम्बितकण्ठिकावत् प्रलम्बमानः, तथा मुकृतः शोभनरचनाविशेषयुक्तः पटः-शाटकः उत्तरीयम् उत्तरीयवस्त्रं च येषां ते तथा रचनाविशेषेण परिधृतशाटकोत्तरीया इत्यर्थः, 'मुहियापिंगलंगुलिया' मुद्रिकापिङ्गलाङ्गुलिका =मुद्रिकाभिः अङ्गुलीयकैः पिङ्गलाः स्वर्णादिमयत्वात् पीतकान्तयोऽङ्गुलयो येषां ते तथा 'उज्जलनेवत्थरइयचिल्लगविरायमाणा' उज्ज्वलनेपथ्यरतिदचिल्लगविराजमानाः = उज्ज्वलं-निमलं नेपथ्य-वेषः 'पोशाक' इति प्रसिद्धःरतिदं-आनन्दजनकं 'चिल्लगं ' इति वस्त्र चाकचिक्यं, तेन विराजमानाः-शोभमानाः, तथा ' तेएण दिवाकरोवदित्ता' तेजसा दिवाकरइव दीप्ताः= प्रतापेन सूर्यसदृशाः ' सारयनवस्थणियमहुरगंभीरनिद्वघोसा' शारदनवस्तनितमधुरगम्भीरस्निग्धघोषा: शारदं शरत्कालिकं यन्नवस्तनितं-नूतनमेघध्वनिः तद्वन्मधुरो गम्भीरः स्निग्धश्च हृदयाहादकरो घोपः शब्दो येषां ते तथा 'उप्पण्ण समत्तरयणचकरयणपहाणा ' उत्पन्नसमस्तरत्नचक्ररत्नप्रधाना=उत्पन्नानि प्राप्तानि मुद्दियापिंगलंगुलिया ) तथा कंठ में विविधमणियों से ग्रथित पहिरा हुआ हार जिनके वक्षस्थल पर लटकता रहता है, तथा नाभिप्रदेश पर्यंत कंठी के समान लटकते हुए उत्तरीयवस्त्रको एवं शोभन रचना विशेष से युक्त करके धोती को जो धारण करते है। स्वर्ण आदिकी बनी हुई अंगूठियों से युक्त होने के कारण जिनकी हाथों की अंगुलियां सदा पीली कांतिवाली बनी रहती हैं ( उज्जलनेवत्थ रइयचिल्लगविरायमाणा) उज्वल, आनंदजनक एवं चिलकतो हुई पोशाक से जो सदा विराजमान रहते हैं ( तेएण-दिवाकरोग्य दित्ता सारय-नवत्थणिय-महुर-गंभीरनिद्धघोसा) तथा जो अपने तेज से सूर्य के जैसे प्रतापशाली होते हैं। तथा जिनका शब्द शरत्काल के मेघ की नवीन ध्वनि के जैसा गंभीर और हृदयाह्लादक होता है (उप्पण्णसमत्तरयणचक्करयणपहाणा ) तथा ડોકમાં પહેરેલી હોય છે અને વક્ષસ્થળ પર લટકતે હોય છે. તથા નાભિપ્રદેશ સુધી કહીની જેમ લટકતાં ઉત્તરીય વસ્ત્રોને તથા સુંદર વિશિષ્ટ રચનાથી યુક્ત છેતીને જેઓ ધારણ કરે છે, સુવર્ણ આદિમાંથી બનાવેલી વીંટીઓથી યુક્ત હોવાને લીધે જેમનાં હાથની આંગળીઓ સદા પીળા તેજથી યુક્ત २ छ, “ उज्जलनेवत्थरइयचिल्लगविरायमाणा " Gor/qI, ' मानाय भने या पाषाथी या सहशमी २ डाय छ, “तेएण--दिवाकरोव्वदित्ता सारय-नवत्थणिय-महुर-गंभीर-निद्धघोसा" तथा रे पोताना तेथी सूर्य સમાન પ્રતાપશાળી હોય છે, તથા જેમના શબ્દ શરદઋતુના મેઘના નવીન पनिनावी गली२ मने हत्यमा मान ६ अन्न ४२नार डाय छ, “ उप्पण्ण For Private And Personal Use Only Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे समस्तरत्नानि चक्ररत्नानि च यस्ते तथा, अत एव प्रधानाः प्रधानभूताः चतुर्दश रत्नानि यथा “सेणावइ १ गाहावइ २ पुरोहियई तुरग ४ वड़ई५ गय६ इत्थी ७ । चकं ८ छत्तं ९ चम्मं १०, मणि ११ कागणि १२ खग्ग १३ दंडोय १४ ॥" छाया-सेनापति १ गृहपति २ पुरोहित ३ तुरग ४ वर्धकि ५ गज ६ स्त्रियः७। ___ चक्रं ८ छत्रं ९ चर्म १० मणि ११ काकिणी १२ खङ्गः१३ दंडश्च १४ ॥" इति चतुर्दशरत्नानि । तथा ' नवनिहिपइणो ' नवनिधिपतयः नवनिधिनां स्वामिनः । नवनिधयो यथा " नेसप्पे १ पंडुय २ पिंगले य ३ सव्वरयणे ४ तहामहापउमे ५। कालेय ६ महाकाले ७ माणवगमहानिहि ८ संखे ९॥ १ ॥” इति, छाया-नैसर्पः१ पण्डुकः२ पिङ्गलश्च ३ सर्वरत्नं ४ तथा महापद्मम् ५ । कालश्च ६ महाकाल:७ माणवकमहानिधिः८ शङ्खः९ ॥ १ ॥" 'समिद्धकोसा' समृद्धकोशा: परिपूर्णभाण्डागाराः, 'चाउरता' चतुरन्ताःत्रिष्वन्तेषु समुद्रः, चतुर्थेऽन्ते च हिमवान् पर्वतः, एवं चत्वारोऽन्ताः भूविभागाः जो प्राप्त समस्त रत्नों से एवं चक्ररत्न से पुरूषों में प्रधानभूत माने जाते हैं चक्रवर्ती जिन १४ चौदह रत्नों के अधिपति माने जाते हैं-वे रत्न ये हैं-(१) सेनापति, (२) गाथापति, (३) पुरोहित (४) तुरंग (५) वर्धकि, (६) गज, (७) स्त्री, (८) चक्र, (९) छत्र, (१०) चर्म, (११) मणि, (१२) काकिणी, (१३) खङ्ग (१४) दंड । ( नवनिहिपइणो ) तथा नवनिधियों के जो भोक्ता होते हैं, नवनिधियां इस प्रकार हैं-(१) नैसर्य, (२) पंडुक, (३) पिंगल, (४)सर्वरत्न, (५) महापद्म, (६) काल, (७) महाकाल (८) माणवक और (९) शंख । ( समिद्ध कोसा) भाण्डागार सदा हरएक वस्तु से भरपुर बना रहता है, तथा ( चाउरता) जो हिमवत् पर्वत समत्तरयणचक्करयणपहाणा" तथा रे प्राप्त थयेसां समस्त २त्नाथी भने ચકરનથી પુરુષમાં શ્રેષ્ઠ ગણાય છે. ચક્રવર્તિ જે ૧૪ “ચોદ' ના मधिपति भनाय छे, ते थोर तो नीचे प्रमाणे छे–(१) सेनापति, (२) यापति, (3) पुडित, (४) तु२, (५) 48, (६) , (७) स्त्री, (८) य, (E) छत्र, (१०) यमी, (११) माल, (१२) suffel, (१३) ५३२॥ भने (૧૪) દંડ. તથા તે ચક્રવર્તિ રાજાએ નવનિધિને ભેગવે છે. તે નવનિધિ नाये प्रभाव छ-(१) नैसय, (२) ५४ (3) वित, (४) सरत्न, ५ भ७५५, (६) १८, (७) महास, (८) भाव४ अने (८) ५. " समिद्ध. कोसा" तमना मा२ सहा ४२४ परतुथी १२५२ २७ छ, “ चाउरता" For Private And Personal Use Only Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ0 ४ सू० ५ चक्रवर्तीलक्षणनिरूपणम् येषां ते तथा हिमवत्समुद्रपर्यन्तपृथिवीशासकाः 'चाउराहिं सेणाहिं समणुजाइज्जमाणमग्गा' चतसृभिः सेनाभिः समनुयायमानमार्गाः-हस्त्यश्वस्थपदात्तिरूपचतुरङ्गसेनाभिः समनुयायमानः अनुगम्यमांनो मार्गो येषां ते तथा तदेव दर्शयति 'तुरंगवई-गयवई-रहबई-नरवई' तत्र 'तुरंगवई ' तुरङ्गपतयः ‘गयबई ' गजपतयः 'रहवई' रथपतयः ' नरवई' नरपतया पदाति सेनापतयः 'विउलकला' विपुलकुलाः = उच्चकुलाः, विश्रुतयशसः विख्यातकीर्तय · सारयससिसकलसोम्मवयणा' शारदशशिसकलसौम्यवदनाः शारदाः शरत्कालिको शशी-चन्द्रः कीदृशः सकला सम्पूर्णकलायुक्तः शरत्यूर्णिमाचन्द्र इत्यर्थः, तद्वत् सौम्यं-सुन्दरं, वदनं मुखं येषां ते तथा । ' मरा' शूराम्-शत्रुमर्दकाः ‘तिलोकनिग्गयपभावा' त्रैलोक्यनिर्गतप्रभावाः त्रिलोकव्यापिप्रभावसम्पन्नाः, 'लद्धसद्दा' लब्धशब्दाः= पर्यत तक की भूमि के शासक होते हैं, ( चाउराहिं सेणाहिं समणुजाहउन्नमाणमग्गा ) हस्ती, अश्व, रथ एवं पैदल सैन्य, इन चार अंगों वाली सेना से जो सदो अनुगम्यमान मार्गवाले होते हैं, अर्थात् वे (तुरंगवईगयवई रहबई :नरवई) अश्वपति, गजपति, रथपति, और नरपति होते हैं। (विरलकुला) तथा उनका कूल बहुत ऊँचा होता हैं, (वीसुयजसा) कीर्ति भी उनकी चारों दिशाओं में व्याप्त होती है, तथा ( सारयससि. सकलसोम्मवयणा ) उनकी मुख शरत्काल की पूर्णिमा के चन्द्रमा जैसा सौम्य होता है तथा वे ( सूरा ) अपने शत्रुओं के मर्दक होने से शूरवीर होते हैं, तथा (तिलोकनिग्गयपभावा ) उनका प्रभाव तीनलोक में व्याप्त रहता है, इसलिये वे (लद्धसदा ) उनकी प्रसिद्धि तीनों लोकों तमा सय ५३'त सुधाना प्रदेश ५२ शासन यावे छे. “चाउराहि-सेणाहिं समणुजाइज्जमाणमग्गा" तथा ते पति राजयो mमह, રથદળ, અને પાયદળ, એ ચતુરંગી સેના સહિત માર્ગ પર કુચ કરનારા હેય छ, असे “ तुरंगबई गयवई रहवई नरवई" ती मपति, पति, २०५ति मने नरपति डाय छे. “विउलकुला” तथा तेसो यांना होय छे. “ बिसुय जसा ' तेमनी गति या हिशामा येही हाय छे. तथा “सार यससिसकलसोम्मवयणा” तेमन भुम २२६ ऋतुनी धुभिान! यन्द्र समान सौम्य राय थे, तथा तेसो “सूरा" पोताना शत्रुमार्नु भईन ४२ना२ पाथी शूरवीर डाय छ, “तिलोक्कनिग्गयपभावा" तमनो प्रलाप रे डोमा व्यापत सय छे. तेथी " लद्धसद्धा" तेमात्री For Private And Personal Use Only Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे त्रिजगत्पसिद्धाः, 'समत्तभरहाहि वा' समस्तभरताधिपाः दक्षिणोत्तरभरताधिपतयः । नारदा' नरेन्द्राः, धीराः-संग्रामादिष्वातिहतशक्तिसम्पन्नाः ससेलवणकाणणं' सशैलवनकानन शैलैः पर्वतैःवनैः नगरदूरस्थैः, काननैः नगरसमीपस्थैः सह-सहितं यत्तत्तथाविधं 'हिमवंतसागरंतं ' हिमवत्सागरान्तं हिमवान् क्षुल्लहिमवत्पर्वतः सागरश्व-समुद्रः तदन्तं तावत्पर्यन्तं 'भरहवास' भारतवर्ष 'भोत्तूण' भुक्त्वा उपभुज्य 'जियसत्तू' जितशत्रवः पराजितसमस्तशत्रवः, पवररायसीहा' पवरराजसिंहाः पवरेपु-महापराक्रमेष्वपि राजसु मध्ये सिंहाः=सिंहसदृशाः, प्रवराश्वते राजसिंहा इति वा विग्रहः= 'पुव्वकडत त्रप्षभावा ' पूर्वकृततपःप्रभावात्= पूर्वजन्मकृततपो माहात्म्यात् ' निचिट्ठसंचियमुहा ' निर्विष्ट सश्चितसुखाःउपभुक्तसश्चितसुखराशयः । अणेगवाससयमाउन्वंतो' अनेकवर्षशतायुष्मन्तः, में हो जाती है, और वे (समत्तभरहाहि वा ) समस्त भरतखंड के अधिपति होते हैं, अर्थात्-५ म्लेच्छखंड और १ आर्यखंड इस प्रकार संपूर्णभरतक्षेत्र के स्वामी होते हैं, (नरिंदा) तथा वे मनुष्यों के इन्द्र माने जाते हैं ( धीरा ) तथा वे संग्राम आदि में अप्रतिहत शक्ति से संपन्न होते हैं (ससेलवणकाणणं च हिमवंतसागरंतं भोत्तूण भरहवास जियसत्तू पवररायसीहा ) तथा वे पर्वतों, वनों-नगर से दूर रहे हुए जंगलों, एवं काननों-नगर समीपस्थ जंगलों से युक्त तथा क्षुल्लकहिमवान् पर्वत और समुद्रपर्यंत प्रसूत ऐसे भारतवर्ष का उपभोग करके समस्त शत्रुओं को पराजित करने के कारण महापराक्रम शाली राजाओं के बीच में केशरी के समान चमकते हैं, और ( पुवकडतवप्प भावा निविट्ट संचियसुहा) पूर्वजन्म में आचरित तप के प्रभाव से वे सोभा प्रसिद्ध खाय छे, मने ते " समत्तभरहाहिवा" समस्त मरतमा અધિપતિ હોય છે, એટલે કે પાંચ મ્યુચ્છ ખંડ અને એક આર્યખંડ એ રીતે संपूर्ण मरतक्षेत्रमा मधिपति डाय छे. “ नरिंदा" तथा तेमने मनुष्योना छन्द्र गवामा न्यावे छे, “धीरा " ते सयाम माहिमा 401 शति यशवनार हाय छ, “ससेलवणकाणणं च हिमवंतसागरत भोत्तणभरहवासंजियसत्तू पवररायसीहा " तथा तेसो पता, -नाथी २ माainal, કાન-નગરની પાસેનાં જંગલોથી યુક્ત તથા હિમાલય પર્વતથી સમુદ્ર સુધી વિસ્તૃત એવા ભારત વર્ષને ઉપભેગા કરીને સઘળા શત્રુઓને માહિત કરવાને કારણે મહાપરાક્રમી રાજાઓની વચ્ચે કેશરી “” સમાન ચમકે છે, અને "पुब्बकडतवपभावा निविट्ट संचियसुहा" twi रेस तपना मा. For Private And Personal Use Only Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका भ० ४ सू० ६ बलदेववासुदेवस्वरूपनिरूपणम् ४१९ 'जणवयप्पहाणाहि' जनपदप्रधानाभिः जनपदेषु देशेषु प्रधानाभिः सर्वोत्कृष्टाभिः ' भज्जाहि ' भार्याभिः स्त्रीभिः 'लालियंता' लाल्यमानाः क्रीडयमानाः 'अतुलसहफरिसरसरूवगंधेय अणुभवित्ता' अतुलशब्दस्पर्शरसरूपगन्धांश्चाऽनुभवन्तः अनुपमशब्दादि विषयमुखान्यास्वादयन्तः । ते वि ' तेऽपि तादृशा अपि चक्रवर्तिनः, 'कामाणं अवितित्ता' कामानामवितृप्ताः कामभोगेषु तृप्तिरहिता एव, ' मरणधम्मं ' मरणधर्म-मृत्यु ' उवगमंति' उपनमन्ति प्रान्पुवन्ति म्रियन्ते इत्यर्थः ॥ मू०५॥ पुनः के इत्याह- 'भुज्जो' इत्यादि__ मूळम्-भुज्जो बलदेवा वासुदेवा य पवरपुरिसा महाबलपरक्कमा महाधणुवियट्टगा महासत्तसागरा दुद्धरा धणुधरानरवसहा रामकेसवा भायरो सपरिसा समुदविजयमाइयदसाराणं पज्जुण्ण-पयिवसंबअनिरुद्धा निसढउम्मुय-सारणगय सुमुहदुम्मुहादीणं जायवाणं अध्धुटाणविकुमारकोडीणं हिययदइया देवीए रोहिणीए देवीए देवईए य आणंदहियभासंचित सुख की राशिको भोगते हैं, तथा उनकी (अणेगवाससयमाउव्वंतो ) सैकड़ों वर्षों की आयु होती है (जणवयप्पहाणाहिं भज्जाहिं लालियंता) तथा वे समस्त देशों में सर्वोत्कृष्ट ऐसी ६४ चौसठ हजार स्त्रियों के साथ क्रीडा किया करते हैं ( अतुलसदफरिस रसरूवगंध य अणुभवित्ता ) और उनके साथ जो अनुपम शब्द, स्पर्श, रस, रूप, गंध आदि पांचो इन्द्रियों के विषयों से जन्य सुखों का आस्वादन करते रहते हैं ऐसे (ते वि ) वे चक्रवर्ती आदी भी ( कामाणं अवितित्ता मरणधम्म उवणमति ) कामसुखों से अतृप्त ही बने रहते हैं और अन्त में मरण को प्राप्त हो जाते हैं। सू०५ ॥ थी आते ४२८ सुमनी शशिन! अपने!! ४२ छ, तथा “ अणेगवाससयमाउव्वंतो" तभनु मायुष्य से 31 १५नु जाय छ, तथा “जणवयप्पहाणाहिलालियंता" समस्त देशमा अनुपम सेवी यासह १२ श्री। साथे ४७४ ४२ 2, अने “ अतुलसदफरिसरसरूपगंधेयअणुभवित्ता " तेमनी साथै अनुपम શબ્દ, સ્પર્શ, રસ, રૂપ, ગધ આદિ પાંચે ઈન્દ્રિયના વિષયથી જનિત સુખ मनुलवे छ. मेवात “ते वि” यति माह पशु “कामाणं" अवितित्ता मरणधम्म उवणमंति" आमनायी अतृH८ २ छ भने माते भ२५ पामे छ ॥सू.५॥ For Private And Personal Use Only Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४२० प्रश्नव्याकरणसूत्रे वनंदणकरा सोलसरायवरसहस्साणुजायमग्गा सोलसदेवी सहस्सवरणयणहिययदइया णाणामणिकणगरयणमौत्तियपवाल धणधण्णसंचया रिद्धिसमिद्धकोसा हय-गय-रहसहस्ससामी गामागर-णगर-खेड-कब्बड-मडंब-दोणमुह-पट्टणा-समसंबाह-सहस्सथिमिय निव्वुयप्पमुइयजणविविहसहस्सनिप्पज्जमाणमेइ णी सरसरियतलाग-सेलकाणण-आरामुजाणमणाभिरामपरिमंडियस्स दाहिण-वेयड्ड-गिरिविभत्तस्सलवणजलपरिगयस्सछविह-कालगुणकमजुत्तस्स अद्धभरहस्स सामिया धीरकित्ति पुरिसा ओहबला अतिबला अनिया ॥ सू०६॥ टीका:-'भुज्जो' भूयः पुनःबलदेवा वासुदेवाश्च तेऽपि मरणधर्मगुपनमन्तीति सम्बन्ध कीदृशास्ते इत्याह- पवरपुरिसा' प्रवरपुरुषाः प्रधानपुरुषा ' महाबलपरकमो' महाबलपराक्रमाः महाबला महापराक्रमाश्च तत्र बलं-मानसिकशक्तिः पराक्रमः कायिकशक्तिः। 'महाधणुवियट्टगा' महाधनुर्विवर्तकाः-शाङ्गादिधनुर्विकर्षकाः, फिर इस प्रकारके कौन होते हैं ? सो कहते हैं- भुज्जो बलदेवा' इत्यादि । टीकार्थ-(भुज्जो बलदेवा वासुदेवा य) देखो-फिर जो बलदेव और वासुदेव होते हैं वे भी काम से अतृप्त ही मरणधर्म को प्राप्त होते हैं; इस प्रकार से इस सूत्र की व्याख्या में संबंध लगा लेना चाहीये। अब ये घलदेव और वासुदेव कैसे होते हैं इसका वर्णन सूत्रकार करते हैं (पवरपुरिसा ) ये बलदेव और वासुदेव प्रवर पुरुष-प्रधानपुरुष होते हैं (महाबलपरकमो) इनकी मानसिक शक्ति तथा कायिकशक्ति अनोखी होती है(महाधणुवियदृगा) शाङ्ग आदि धनुष्य के ये विकर्षक होते ___जी Anty डाय छ ? तो ४ ॐ ॐ " भुजोवलदेवा" त्यादि Astथ - "भुज्जो बलदेवा बासुदेवा य” qvil रे । मने वासुदेव। डाय છે તેઓ પણ કામથી અતૃપ્ત રહીને જ મૃત્યુ પામે છે, આ પ્રમાણે આ સૂત્રની વ્યાખ્યામાં સંબંધ સમજવાનું છે. હવે તે બળદેવ અને વાસુદેવ કેવા હોય છે, ते सूत्रा२ १३ छ“पवरपुरिसा” ते व अने वासुदेव प्रवर ५३५. प्रधान पु३५ सय छ महाबलपरक्कमो” तेमनी मानसि भने शारी२ि४ शति महमुत डाय छे " महाधणुवियदृगा" ते! शाङ्ग मा धनुष्यन वि७५ For Private And Personal Use Only Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदशिनी टीका अ० ४ सू० ६ बलदेववासुदेवस्वरूपनिरूपणम् 'महासत्तसागरा' महासत्त्वसागराः = महावलस्य विशालवलस्य सागरा इव सागराः प्रभूतबलसम्पन्ना इत्यर्थः 'दुद्धरा ' दुर्धराः दुर्धर्षाः-शत्रुभिरनिवार्याः 'धणुधरा' धनुर्धराः शाङ्गीदिधनुर्धारिणः ' नरवसभा ' नरवृषभाः = पुरुषेषु श्रेष्ठाः 'रामकेसवा' रामकेशवा बलदेववासुदेवा ' भायरो' भ्रातरः 'सपरिसा ' सपर्षदः सपरिवाराः ' समुद्दविजयमादियदसाराणं ' समुद्रविजयादिदशा होणा-समुद्रविजय आदिर्येषां ते तथा ते च ते दशास्तेिषां ते च यथा समुद्रविजयो १ ऽक्षोभ्यः२ स्तिमितः३ सागरस्तथा ४ । हिमवान ५ चल चैव६ धरणः ७ पूरणस्तथा ८ ॥ अभिचन्द्रश्च९ नवमो वसुदेवश्च १० वीर्यवान् ।। तथा-'पज्जुष्णपयिवसंबअनिरुद्धनिसढउम्मुयसारणगयसुमुहदुम्मुहादीण' हैं-चढाने वाले होते हैं, (महासत्तसागरा) विशालबल के ये सागर होते हैं अर्थात् बहूत अधिकवल के ये अधिपति होते हैं, (दुद्धरा) शत्रुओं द्वारा ये अनिवार्य होते हैं (धणुधरा) शार्ङ्ग आदि धनुषों के ये धारणकरने वाले होते हैं, (नरवसभा) पुरुषों में श्रेष्ठ होते हैं (रामकेसवा) बलदेव की अपर संज्ञा राम और वासुदेव की केशव होती है । (भायरो) ये संबंध में भाई भाई होते हैं । (सपरिसा) परिवारसहित होते हैं। (समुद्दविजय मादियदसाराणं पज्जुण्ण पइव संब अनिरुद्धा निसढ उम्मय सारणगय सुमुहदुम्मुहादीणं जायवणं अधुट्ठाण वि कुमारकोडीणं हिययदइया ) तथा समुद्रविजय १, अक्षोभ्य २, स्तिमित ३, सागर ४, हिमवान् ५, चल ६, धरण ७, पूरण ८, अभिचंद्र ९ और वसुदेव इन समुद्रविजय आदि १० दशाों के लिये तथा प्रद्युम्न प्रतिवसांव, अनिरुद्ध, ( यवना।) डाय छ, “महासत्तसागरा" विशाम सागर हाय छ, એટલે કે ઘણા જ બળવાળા હોય છે, અથવા મેટા સિન્યના અધિપતિ હેય छ. “दुद्धरा" शत्रुमा द्वारा अपराजित हाय छ, “धणुधरा" शङ्गमाहि धनुष्याने पा२४५ ४२॥२॥ य छ, “ नरवसभा " ५३षामा श्रे०४ डाय छे. " रामकेसवा" जवनु भानु नाम राम भने वासुहेवर्नु भानु नाम शव डाय छे. “भायरो" तेथेमामानुं सग५] धरावे छ, भने “ सपरिसा " परिवार पाडाय छ. समुद्दविजयमादिय दसाराणं पज्जुण्ण पइव संबअनिरुद्धा निसढ नम्मुयसारणगयसुमुदुम्मुहादीणं जायवाणं अध्धुद्वाण वि कुमारकोडीणं हिययदइया " तथा (१) समुद्र विन्य, () माल्य, (3) स्तिमित (४) सा॥२ (५) भिवान, (६) यस, (७. ५२९५ (८) ५२९५ () अभिय'. मने (१०) वसुदेव, ते समुद्र विन्य मा १० शानि, तथा प्रधुम्न, For Private And Personal Use Only Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४२३ प्रश्नव्याकरणसूत्रे प्रद्युम्न - प्रतिवसांबाऽनिरुदनिपधोल्मुक-सारण-गज-मुमुखदुर्मुखादीनां 'जायवाणं' यादवानां = यदुवंशिनां 'अछुट्टाण वि ' अद्धचतुर्थानामपिसार्धतिसृणामपि 'कुमारकोडीणं ' कुमारकोटीनां 'हिययदइया' हृदयदयिताः= हृदयप्रियाः 'देवीए रोहिणीए देवीए देवईए य आणंदयियभावनंदणकरा' देव्या रोहिण्या: बलदेवमातुः देव्यादेवक्याः कृष्णमातुच आनन्दरूपो यो हृदयभावस्तस्य नन्दनकरा: वृद्धिकारकाः ‘सोलसरायवरसहस्साणुजायमग्गा' षोडशराजवरसहस्रानुयातमार्गाः = षोडशसहस्रसंख्यका राजवरा अनुमता भवन्ति मार्गे येषां ते तथा । तत्पदर्शितनीतिमार्गानुवर्तिन इत्यर्थः तदाज्ञाकारिण इति यावत् । सोलसदेवीसहस्सवरणयणहिययदइया ' पोडशदेवीसहस्रवरनयनहृदयदयिताः षोडशसहस्रदेवीनां वरनयनानां चारु लोचनानां सुन्दरीगां हृदययिताः= हृदयवल्लभाः, विशेषगमिदं वासुदेवापेक्षया । 'णाणामणिकणगरयणमोत्तियपनिषध, उल्मक, सारण, गज़, सुमुख, दुर्मुख ओदि साढातीन ३॥ करोड़ यादवकुमारों के लिये ये हृदय से अधिक प्यारे होते हैं । ( देवीए रोहिणीए देवीए देवईए य आणंदहिय भावनंदणकरा) देवी रोहणी के तथा देवी देवकी के आनंदरूप हृदयभाव को ये वृद्धि करनेवाले होते हैं, देवी रोहिणी ये बलदेव की माता तथा देवी देवकी ये कृष्णकी माता हैं। (सोलसरायवरसहस्साणुजायमग्गा) १६ सोल हजार राजा जिनके पीछे२ मार्ग में चला करते हैं, अर्थात् जिस प्रकार वे इन्हें नीतिमार्ग का प्रदर्शन करते हैं उसी नीतिमार्गका ये अनुसरण करते हैं, अथवा उनकी आज्ञानुसार चलते हैं। (सोलस देवीसहस्सवरणयणहिययदइया) १६ सोल हजार स्त्रियों के नयनों को और हृदयोंको ये अत्यंतप्रिय होते हैं, यह विशेषण वासुदेवकी अपेक्षा से कहा गया जानना चाहिये। (णाणामપ્રતિવસાબ, અનિરુદ્ધ નિષધ, ઉમુક. સારણ, ગજ, સુમુખ, દુર્મુખ આદિ સાડા ત્રણ કરોડ યાદવ કુમારને તે પ્રાણથી પણ અધિક વહાલા હોય છે, "देवीए रोहिणीए देवीर देवईए य आणंदहियभावनंहण करा" हेवी डी તથા દેવી દેવકીના હદયના આનંદમાં તેઓ વૃદ્ધિ કરનારા હોય છે. દેવી शcिell वनी माता तथा वा हेवी नी माता छ. “ सोलसरायरसहस्साणुजायमग्गा" १६ से १२ रातो तेमने मनुसरे छे, मेटले तेमना દ્વારા જે નીતિમાર્ગ તેઓ બતાવે છે, એ જ નીતિમાર્ગનું તેઓ અનુસરણ ४२ छ, अथवा तेमनी ॥ प्रमाणे ते या यावे. “सोलस देवीसहस्सवरणयणहिययदेइया " १६ सो र श्रीमान नयन तथा ६४यने तो सत्यत प्रिय साय . या विशेषण वासुदेवने मनुसक्षी मपाये छे. "णाणामणि For Private And Personal Use Only Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सुदर्शिनी टीका अ० ४ सू०६ बलदेववासुदेवस्वरूपनिरूपणम् ४१३ 1 + बालघणघणसंचया नानामणिकनकरत्नमौक्तिकमवालधनधान्यसञ्चयाः, तत्र नानाविधा मणय: = चन्द्रकान्तादयः कनकानि = सुवर्णानि रत्नानि = कर्केतनादीनि मौक्तिकानि = मुक्ताफलानि मवालानि = ' मूंगा ' इति प्रसिद्धानि धनानि गणिमादीनि, तत्र गणिमं - गणयित्वा यद्दीयते तद्वस्तु गणिममित्युच्यते नालिकेर पूगीफलादिकम् एवं धरिमं यत्तुलायां धृत्वा दीयते तत् सुवर्णरजतादिकम्, मेयंकुडवेन - मानविशेषेण 'पायली ' इति प्रसिद्धेन परिमीय यद्दीयते तत्, शालीगोधूमादिकम्, परिच्छेयं परीक्ष्य यद्दीयते तत् रत्नवखादिकम् धान्यानि शालियवा दीनि तेषां सञ्चयाःराशयो येषां ते तथा 'रिद्धसमिद्धकोसा' ऋद्धि समृद्धकोशा:= विविधसम्पत्तिपूर्णभाण्डागाराः 'हयगयरहसहससामी हयगजरथसहस्रस्वामिनः स्पष्टम् । "गामागरणगर खेड कब्बडमवदोणमुहपणाऽऽसमसंवाह सहस थिमियनिष्पमुइयजण विविह-सस्सनिष्फज्जमाणमेइणि सरसरियतलाणिकणग-रयण-मोतिय पवालघणघण्णसंचया) चन्द्रकान्त आदि नानो प्रकार के मणियों की, सुवर्ण की, कर्केतनादि रत्नोंकी, मुक्ताफलों की, मुंगाओं की, तथा धन-गणिमादि, तथा गणिम-गिनकर दी जानेवाली नालिकेर पूगीफल आदि वस्तुओं की, तथा घरिम-तुला से तौल कर दी जानेयोग्य सुवर्ण रजत आदि द्रव्योंकी, तथा मेय-कुडव 'पायली' नापके नामविशेष सेनापकर दिये जानेयोग्य शालि गोधूम आदि अनाजोंकी, तथापरिच्छेद्यपरीक्षा करके दी जानेयोग्य रत्न वस्त्र आदि चीजों की तथा धान्य शालि यब आदि धान्यों की इनके यहां राशि रहा करती है । तथा - (रिद्धसमिद्ध कोसा) विविध संपत्ति से इनका भाण्डागार (भंडार) पूर्ण भरा रहता है। तथा (हयगयरहसहस्सलामी ) हयों के घोड़ों के, हाथियोंके एवं रथों के ये स्वामी होते हैं। (गामागरण गरखेड कच्चडमडंबदोणमुहपट्टणासम कणगरयणमोत्तिय पवालघणघण्णसंचया " ચન્દ્રકાન્ત આદિ વિવિધ મણી मोनो, सुवर्णाना, मुतनाहि रत्नानो, साया भोतीनो, भुंगाखानी, तथा, ધન-ગણિમાદિન, (ગણિમ-ગણીને અપાતી નાળિયેર પૂગીફળ આદિ વસ્તુઓને) धरिभने। ( “ धरिम – त्रानवाथी लेणीने भायवा योग्य सुवर्ण, यांही आ द्रव्य ) भेय-फुडवनो ( " पायसी " ( भायु) साहिथी लरीने आपवा योग्य ચેાખા, ઘઉં આદિ અનાજ ) પરિચ્છેઢ—પરીક્ષા કરીને આપવા યેગ્ય રત્નવસ્ત્ર આદિ ચીજોને, તથા ધાન્યના ( ચેાખા જવ આદિ અનાજને ) તેમને ત્યાં ભંડાર ભરેલ હાય છે. તથા " रिद्धिसमिद्धकोसा " विविध संपत्तिथी તેમને! ભંડાર સદા ભરપૂર હાથી અને રથેના તેએ 66 રહે છે. તથા અધિપતિ હાય છે Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only ' " हयगयरह सहरससामी ” घोडा, (6 गामागरण गरखेड कडमडब Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४२४ प्रश्नव्याकरणसूत्रे ' गसेलकागणारामुन्नागमणाभिरामपरिमडियस्स । तत्र ग्रामाऽऽगरनगर खेटकर्बटमडंबद्रोणमुखपत्तनाऽऽश्रमसंबाहाः = तत्र ग्रामः = ग्रसते बुद्धयादि गुणानिति ग्राम पोदरादित्वात्समारस्य मकारः । अन्ये संवाहपर्यन्ताः पूर्वस्मिन् चक्रवत्तिसूत्रे व्याख्यातपूर्वाः, तेषां यानि सहस्राणि तैः, थिमिय ' स्तिमिताः= खचक्रपरचक्रभयरहिताः 'निब्बुय' निर्वृताः सुशान्तचित्ताः तथा 'पमुइय' प्रमुदिताश्च-अतिप्रसन्ना ये जनास्तैः, तथा 'विविसस्सनिप्पज्जमाणमेइणी ' विविधसस्यनिष्पद्यमानमेदिनी-विविधानि सस्यानि-धान्यानि तैःनिष्पद्यमाना सम्पद्यमाना या 'मेइणी ' मेदिनी पृथिवी तया तथा 'सर' सरांसि-जलाशयविशेषाः, 'सरिय' सरितः नद्यः ' तलाग' तडाकाः महाजलाशयाः सैल ' शैलाः पर्वताः काणण' काननानि सामान्यक्षोपेतानि नगरासन्नवर्तिवनानि, आरामाः उतामण्डपायुपेतानि,राज्ञामन्तः पुरंधानानि उद्यानानि-विविधपादपकुसुमसमुल्लसितसर्वजनविहारोसंघाहसहस्तथिमिनिब्बुधप्पमुइयजण-विविहसस्सनिष्फन्जमाणमेइणिसर सरियतलागसेलका गण आरामुज्जागमणाभिरामपरिमंडियस) ग्राम आकर, नगर, खेट, कवर, मडंब, द्रोगमुख, पत्तन, आश्रम, संवाह इन सबकी हजारों की संख्यासे स्वचक्र एवं परचक्र के भयसे रहित ऐसे तथा जिनका चित्त सदा सुशान्त बना हुआ रहता है ऐसे अति प्रमुदित मनुष्यों से तथा विविध प्रकारको धान्य राशि जिसमें उत्पन्न होती है ऐसी मेदनीसे, तथा मनोहर जलाशय विशेषोंसे, नदियोंसे, तलावों से, पर्वतों से, सामान्यवृक्षोंसे युक्त, एवं नगरके पास रहे हुए ऐसे काननों(वनों) से तथा लतामण्डप आदि से युक्त ऐसे राजाओं के अन्तःपुरके उद्यानों से, तथा अनेक प्रकार के वृक्षोंसे एवं कुसुमों से समुल्लसित एवं सर्व जनों के विहार योग्य ऐसे उपवनों से परिमंडित हुए, तथा ( दाणिवे. दोणमुहपट्टणासमसंवाह-सहस्स-थिमिय-निव्वुयप्पमुइयजणविविहसस्स निष्फज्जमाण मेइणिसर-सरिय-तलाग-सेल-काणण-आरामुज्जाणमणाभिरामपरिमंडियस्स" गाभ, ४२ न॥२, पेट, ४॥2, भ, द्रोभुम, पत्तन, पाश्रम, सवाई, વગેરે હજારોની સંખ્યામાં તેઓની સત્તા નીચે હોય છે. સ્વચક અને પરચકના ભયથી રહિત તથા સદા શાંત અને અતિ આનંદિત ચિત્તવાળા મનુષ્યોથી, તથા વિવિધ પ્રકારના ધાન્ય રાશિ (ઢગલા) જેમાં ઉત્પન્ન થાય છે એવી ભૂમિથી તથા મનહર જળાશયોથી , નદીઓથી, તળાવોથી, પર્વતાથી. સામાન્ય વૃક્ષોથી નગરની પાસે આવેલાં કાનનેથી, તથા લતામંડ૫ આદિથી યુક્ત એવાં રાજાઓનાં અન્તઃપુરનાં ઉદ્યાનોથી, તથા અનેક પ્રકારનાં વૃક્ષેથી, અને વિકસિત કસમાંથી શોભતાં અને સર્વે લેકોને ફરવાને વેગ એવાં ઉપવનેથી વીંટળાયેલા, તથા For Private And Personal Use Only Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सुदर्शिनी टीका अ० ४ सू० ६ बलदेववाजदेवस्वरूपनिरूपणम् पवनानि तानि च 'मगाभिराम' भनोऽभिरामाणि= मनोहराणि ते 'परिमंडियस्स' परिमण्डितस्य शोभितस्य दाहिणडूवेयगिरिनिभरस्स' दक्षिणार्ध वैताढ्य गिरिविभक्तस्य दक्षिणार्थे यो वैतादयः = तमामको गिरिः = पर्वतविशेषस्तेन विभक्तस्य कृतविभागस्य 'लवणजलपरिगयरस' लवणजलपरिगतस्य लवणजलेन = लवण समुद्रेन परिगतस्य = वेष्टितस्य 'छविकाल गुणक मजुलस' पडविधकाळ गुणक्रमयुक्तस्य-पविधस्य कालस्य वर्षा शरद हेमन्त शिशिरवसन्त ग्रीष्माभिधषड्ऋतुसमयस्य ये गुणाः कार्याणि नवलकुसुमविविधफलसमुदयादि रूपाणि, तेषां यः क्रमः यथोचितरूपेण भवनं तेन युक्तस्य समुपेतस्य एवंविधस्य 'अमरइस्स' अर्थ भरतस्य दक्षिण भरतस्य ' सामिया' स्वामिका: = अधिपतयः ' धीरा, धीराः शत्रुभिरपरिभवनीया: ' कित्ति पुरिसा कीर्तिपुरुषाः कीर्तिमधानाः पुरुषाः 'ओला' ओला= ओवेन प्रवाहेणाच्छिन्नं बलं येषां ते तथा अविच्छिन्न बला इत्यर्थः ' अबला' अतिबला : = अन्यबलान्यतिक्रान्ताः । ' अनिया ' अनिहताः = शत्रुशखाघातवर्जिताः एवंभूताः वलदेववासुदेवा अपि कामभोगवृप्ति रहिता एत्र मरणधर्ममुपनमन्तीति सम्बन्धः || ६ || सू० ॥ " , Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir " गिरिविभत्तस्स) दक्षिणार्ध में वैताढ्य पर्वतसे विभक्त हुए (लवणजलपरिगस्स ) लवण समुद्र से वेष्टित हुए तथा (छव्विहकालगुणकम्मतरस ) वर्षा, शरद, हेमन्त, शिशिर, वसन्त, ग्रीष्म, इन छह ऋतुरूप समय के नवीन पत्तों, कुसुमों, एवं फलों के आगमनरूप कार्यों के क्रम से युक्त बने हुए ऐसे ( अदभरहस्स) दक्षिण भरतके ये ( सामिया ) स्वामी होते हैं (धीरा) भी होते हैं अर्थात् शत्रुओं द्वारा अपरिभवनीय होते हैं। तथा ( किन्तिपुरिसा) कीर्ति ही है प्रधान जिन्होंकी ऐसे ये कीर्त्ति पुरुष होते हैं । ( ओहबला ) इनका बल कभी नष्ट नहीं होता है अतः ये ( अहवला) अविच्छिन्न बलवाले होते हैं, ८८ કસ 66 दाहिणगिरिविवत्तास" दक्षिणार्धभां वैताढ्य पर्वतथी विलात थयेस लवणजल परिगयास " दावायुसमुद्रश्री घेरापेक्षा तथा " छव्हिकाल गुणकमजुत्तस्सવર્ષો, શરત, હેમન્ત શિશિર, વસત અને ગ્રીષ્મ એ છએ ઋતુઆને અનુરૂપ નવીન પાન, ફૂલે, અને કળાના આગમનરૂપ કાર્યોથી યુક્ત બનેલ એવા अमरहस्य" दक्षिषु भारतनां तेथे “ सामिया " स्वाभी डे!य छे. " धीरा " તેએ ધીર હોય છે એટલે કે શત્રુ દ્વારા પરાજિત ડાય છે. તથા " कि. त्तिपुरिसा ” કીર્તિ જ પ્રધાન છે જેમની એવા કીતિપુરુષ હાય છે-કીર્તિ શાળી होय छे. " ओवला " तेमनुं जज उट्ठी नाश इवला "अविच्छिन्न जवाजा होय छे, तथा यामतु' नथी तेथी तेथे “अ. 6" प्र-५४ For Private And Personal Use Only " अहिया ” शत्रुभोनां शस्त्रोना Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४२६ प्रश्नव्याकरणसूत्रे पुनस्ते कीदृशाः ? इत्याह- 'अपराजियं ' इत्यादिमूलम्-अपराजिय सत्तुमद्दणा रिउसहस्समाणमदणा साणुकोसा अमच्छरी अचवला अचंडामियमंजुलप्पलावा हसिय गंभीरमहरभणिया अब्भुवगयवच्छला सरण्णा लक्खणवंजणगुणोववेया माणुम्माणपमाणपडिपुण्ण सुजायसव्वंग. सुंदरंगा ससिसोमगारा कंता पियदंसणा अमरिसणा पयंड दंडप्पयारगंभीरदरिसीणजा तालज्झया उविज्झगरुल के ऊबलवगगजंत-दरिय-दप्पियमुट्ठियचाणूरचूरगारिट्टवसभ घाइणो केसरिमुहविष्फाडगा दरिय नागदप्पमहणाजमलज्जुणभंजगा महासउणिपूयणरिपू कंसमउडमोडगा जरासंधमाणमहणा तेहिय अविरलसमसंहियचंदमंडलसमप्पभेहिसूरमइिकवयं विणिमुयंतेहिं सप्पडिदंडेहिं आयवत्तेहिं धरिज्जतेहिं विरायंता ॥ सू० ७ ॥ टीका:--' अपराजियसत्तुमद्दणा अपराजितशत्रुमर्दनाः = अपराजितान्अन्यैरनिर्जितान् शत्रून् मईयन्ति ये ते तथा प्रवलशत्रुविनाशका इत्यर्थः, अतएव दूसरों का बल इनके समक्ष टिक नहीं सकता है, इसलिये ये अतिबल वाले होते हैं, तथा ( अनिहया) शत्रुओं के शस्त्रके आघात से ये वर्जित रहते हैं, ऐसे ये बलदेव और वासुदेव भी कामभोगों की तृप्तिसे विहीन बनकर ही मरणधर्म को प्राप्त करते हैं । सू० ६ ।। फिर वे कैसे होते हैं सो कहते हैं-'अपराजिय' इत्यादि । टीकार्थ-( अपराजिय सत्तुमद्दणा ) जो बलभद्र और नारायण આઘાતથી તેઓ રહિત હોય છે. એવા એ બળદેવ અને વાસુદેવ પણ કામजान तृतिथी २हित मनीने 1-AGN टीने मृत्यु पामे छे ॥ सू० ६ ॥ तम॥ य तेनु वधु वन ४२०i ४3 छ- “ अपराजिय" त्या ... .. टीथ ---" अपराजिय सत्तुमद्दणा” ते २५म अने नाराया, २५५२ilord For Private And Personal Use Only Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुनिटीका अ. ४ सू. ७ बलदेववासुदेवस्वरूपनिरूपणम् ४२७ 'रिउसहरसमागमणा, रिपुसहस्रमानमथना:= रिपुसहस्राणां मानंा मध्नन्ति ये ते तथा शत्रुदविध्वंसकाः 'साणुकोसा ' सानुक्रोशा:- आश्रित रक्षकाः 'अमच्छरी' अमत्सरिणः = परशुभस्याद्वेषिणः --- परसुखेन सुखिन इत्यर्थः ' अचवला ' अचपळा : - मनोवाक्काय चपलतारहिता, अचण्डाः = अकारणक्रोधवर्जिताः 'मियमंजुलप्पलावा' मितमन्जुलपलापाः- मितः परिमितः सार्थकः मजुज्लः = मनोहरः प्रलापः = आलापो येषां ते तथा परिमितसत्यमधुरभाषिणः 'हसियगंभीरमहुरमणिया ' इसित गम्भीर मधुर भणिता:- हसितम् - हास्ययुक्तं गम्भीरं सारगर्भ मधुरं च भणितं = भाषणं येषां ते तथा 'अन्भुवगयवच्छला' अभ्युपगतवत्सला:-अभ्युपगतेषुसमीपमागतेषु वत्सलाः स्नेहयुक्ताः 'सरण्णा ' शरण्याः शरणे साधवः शरणागतरक्षकाः 'लक्खणवंजणगुणोववेया' लक्षणव्यञ्जनगुणोपेताः = तत्र लक्षणानि अपराजित शत्रुओं के मान को गलित कर देते हैं, अर्थात् प्रबल से भी प्रबल विरोधियों के वे विनाशक होते हैं, तथा (रिउसहस्समाणमद्दणा ) हजारों शत्रुओं के मान को जो देखते २ क्षणभर में नष्ट कर डालते हैं। एवं (साणुकोसा) अपने आश्रित व्यक्तियों की सदा रक्षण करते रहते हैं (अमच्छरी ) दूसरों के शुभ से जिनके चित्त में थोड़ा सा भी द्वेष नहीं जगता है, अर्थात परके सुखसे सुखी होते हैं (अचवला) मन, बचन एवं कायकी चंचलता से जो रहित होते हैं (अचंडा) विना कारण के जिन्हें क्रोध नहीं आता है (मियमंजुलप्पलावा) मित - सार्थक तथा मनोहर जिनका आलाप होता है, अर्थात् जो परिमित सत्य मधुरभाषी होते हैं। (हसियगंभीर महुर भणिया) जो हास्ययुक्त, सारगर्भित और मधुर भाषण करते हैं (अभुवयवच्छला) जो अपने निकट आये हुए प्राणियोंके साथ 99 66 શત્રુઓનું માનમન કરી નાખે છે, એટલે કે પ્રમળમાં પ્રખળ શત્રુને પણ તેએ નાશ १२नार होय छे, तथा “रिउ सहस्समाणमद्दणा " मरो शत्रुसोने मे लेत नेतामांक्षणुवारमां भडात १रे छे, सने से रीते तेमनुं मानमर्दन अरे छे, “साणुकोसा પોતાના આશ્રિતાનું સદા રક્ષણ કરે છે, अमच्चरी ” અન્યને લાભ થતા જોઈને જેમના ચિત્તમાં સહેજ પણ દ્વેષ થતા નથી, એટલે કે તેઓ પરના सुपे सुणी धनार होय छे, “अचवला ” भन, वयन अयानी ययगताथी ने रहित होय छे, " अचंडा " विना अरशु प्रेमने अध थतो नथी, मियमंजुलप्पलावा " भित-सार्थ तथा मनोहर नेमनां वयन होय छे, अथवा ने परिभित सत्य मधुर वाणी वाणा होय छे, “ हसियगंभीर महुरभणिया " ने हास्ययुक्त સારગર્ભિત અને મધુર ભાષણ કરે છે अब्भुवगयवच्छला " ने पोतानी પાસે આવતા પ્રાણીઓ તરફ્ સ્નેહાળ હોય છે, सरण्णा " शरणे भावेसनी 66 (( 66 For Private And Personal Use Only Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४२८ प्रश्नव्याकरणसूत्रे हस्तरेखादीनि सामुद्रिकशास्त्रोक्तानि, तथा व्यञ्जनानि चमपतिलकादीनि गुणाः= शौर्यादयस्तैरुपेताः युक्तः, 'माणुम्माणपमाणपडिपुण्या सुजायसव्वंगसुंदरंगा' मानोन्मानप्रमाणप्रतिपूर्णसुजातसर्वाङ्गसुन्दराङ्गाः = मानोन्मानः प्रमाणैः = तत्र मानं-शरीरभारः, उन्मानं-शरोरोच्छ्रयः, प्रमाण-समुचितशरीरावयववत्त्वं, तैः प्रतिपूर्णानि=सुजातानि=सुलुाया समुत्पन्नानि सर्वाण्यङ्गानि अवयवा यस्मिन् तदेवं विधं सुन्दरमङ्ग-शरीरं येषां ते तथा सकलसुलक्षणलक्षितसुपुष्ट सत्रमाणसुन्दरशरीरा इत्यर्थः 'ससिसोमागारा' शशिसौम्याकारा-चन्द्र-वत्सौम्याकृतिसम्पन्नाः, 'कता' 'कान्ताः कमनीयाः 'पियदसणा' प्रियदर्शना:-मनोजरूपाः 'अमरिसणा' अमर्षणः = अत्याचाराऽसहिष्णकः ' पयंडदंडप्प पारगंभीरदरिसणिज्जा' स्नेहशील होते हैं (सरण्णा) शरणागतकी रक्षा करते हैं ( लक्खणवंजग गुणोववेया) जो सामुद्रिक शास्त्रोक्त रेखा आदि शुभचिन्होंसे, तथा मषा तिलक आदि शुभ व्यंजनोंसे एवं शौर्यादिक सद्गुणांसे युक्त होते हैं माणुम्माणपमाणपडिपुण्णा सुजाय सव्वंगसुंदरंगा) शरीर भाररूप मानसे, शरीरकी ऊँचाई रूप उन्मानसे तथा समुचित शरीरावयवरूप प्रमाणसे, प्रतिपूर्ण, एवं सुन्दर रूपवाले समस्त अवयव जिसमें हैं ऐसे सुहावने शरीर से जो युक्त होते हैं अर्थात् उनका शरीर समस्त सुलक्षणों से युक्त, सुपुष्ट और प्रमाणोपेत होने से पूर्ण सुन्दर होता है, (ससिसोमागारा ) जिनको आकृती चंद्रमा के जैसी सौम्य होती है, ( कंता) जो सबके लिये बड़े प्रिय लगते हैं ( पियदंसणा) उनका दर्शन मन को बहुत अधिक आहाद जनक होता है ( अमरिसणा) जो अत्याचार को सहना बहुत ही बुरा मानते हैं-अर्थात्-जो अत्याचार को सहन नहीं २ २क्षा ४२ना खाय छ, “ लक्खणवंजणगुणोववेया" वो सामुद्रि ओत રેખા આદિ શુભ ચિન્હોથી તથા મષા તિલક આદિ શુભ વ્યંજનોથી અને शौर्या&ि सगुणेथी युत सय छ, “ माणुम्माणपमाण पडिपुन्नासुजायसव्वंगसुंदरगा” शरीरमा२ ३५ भानथी, शरी२नी या३५ भानथी, तथा समाएर શરીરવયવરૂપ પ્રમાણથી, પ્રતિપૂર્ણ અને સુંદર શરીરથી જે યુક્ત છે, એટલે કે તેમનું શરીર સમસ્ત સુલક્ષણે વાળુ, સુપુષ્ટ અને સપ્રમાણ હોવાથી સંપૂર્ણ शते सु४२ खोया छ, “ ससिसोमागारा" भनी ति यन्द्रमान २वी सौम्य सोय छे, “ कता" के सौने घणु र प्रिय दाणे छ. “ पियदसणा" भना शान भनने अत्यंत मानहाय खोय छे. " अमरिसणा" के सत्यायारोन સહન કરવું તે બહુજ ખરાબ ગણે છે એટલે કે અત્યાચારને સહન કરી શકતા For Private And Personal Use Only Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सुदर्शिनी टीका अ० ४ सू० ७ बलदेववासुदेवस्वरूपनिरूपणम् C , प्रचण्डः = दारुगोदण्डप्रचारः = दुष्टदमनाऽऽज्ञाविशेषस्तत्र गम्भीरदर्शनीयाः = गम्भीरं = दुष्टजनचित्तक्षोभोत्पादकं दर्शनीयं = स्वरूपं येषां ते तथा सत्पुरुषाणां कृते चन्द्रवत् प्रियदर्शनाः, दुर्जनानां कृतेषु कालसदृशा इति भावः 'तालज्झया' तालध्वजाः = तालः = तालवृक्षाङ्कितो ध्यजो येषां ते तथा तालध्वजा वलदेवाः, ' तालाङ्को मुसलीहली ' इत्यमरः, तथा उब्विज्झगरुल के ऊ उद्धिगरुडकेतवः - उद्विद्धः = अत्युच्छ्रितो गरुडकेतुः = गरुडाङ्कित ध्वजो येषां ते तथा वासुदेव: 'गज्जैतदरियदप्पिय मुद्वियचाणूरचूरगा' बलवद् गर्जद् हप्तदर्पितमष्टिकचाणूरचूरकाः तत्र बलवन्तं महाशक्तिसम्पन्नं गर्जन्तं= ' कोऽन्योऽस्मादृशो मल्लः, इति महाघोषं कुर्वन्तः तथा इप्तदर्पितं प्तेष्वपि दर्पितं = अतिगर्वयुक्तं मौष्टिकं चाणूरं च तत्तन्नामके मल्लं चुरयन्ति ये ते तथा = " - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only ४२९ कर सकते हैं - (पडदंडप्पयार गंभीर दरिसणिज्जा ) दारुण दंड के प्रचार में जिनकी आकृति बहुत भारी गंभीर बन जाती है, अर्थात् दुष्टों को दमन करने रूप आज्ञा में जिनकी आकृति दुष्टजनों के लिये चित्तमें कालकी तरह क्षोभोत्पादक बनती है और सज्जनोंके लिये चन्द्र की तरह प्रियदर्शन वाली होती है। (तालज्झया उब्विज्झगरुल के ऊथगलगज्जंतदरियदपिअमुद्विचाणूर चूरगा) तथा इनमें बलदेव की ध्वजा तालवृक्ष के चिह्न से अंकित होती है और वासुदेव की ध्वजा गरुड के चिह्न से अंकित रहती है और बहुत ऊँची होती है । बलदेव ने कृष्ण को मारने के लिये कंस द्वारा प्रवर्तित किये हुए मल्लयुद्ध में 'कौन हमारे जैसा पहलवान है' इस अभीमान से जो मदोन्मत्त बनकर घोषणा कर रहे एवं अत्यंत मद से उन्मत्त बने हुए थे-ऐसे मौष्टिक नामके मल्ल को नथी. " पर्यंड- दंडप्पयार-गंभीर - दरिसणिज्जा " हा 'उ प्रदान उश्ती वयंते જેમના દેખાવ ઘણા ગંભીર થઈ જાય છે. એટલે કે આજ્ઞા આપતી વખતે જેમના દેખાવ દુષ્ટ લોકોને માટે ઉત્પાદક બની જાય છે. અને સજ્જના માટે તેમની મુખાકૃતિ ચન્દ્રની જેમ प्रियद्दर्शनवाणी होय छे. “ तालज्झया उब्विज्झ गरुल केऊलग गज्जतदरियदप्पिय मुट्ठियचाणुरचूरगा" तेथेोभांना महेवनी ध्वन तासवृक्षनी निशानी वाणी होय છે. અને વાસુદેવની ધ્વજા ગરુડના નિશાનવાળી હાય છે અને ઘણી ઉં′′ચી હોય છે. કૃષ્ણને મારવા માટે કંસ દ્વારા કરવાયેલ મલ્લયુદ્ધમાં ખળદેવે મારા જેવા પહેલવાન કાણુ છે. ” એવા અભિમાનથી જે મદોન્મત્ત બનીને ઘોષણા કરી રહ્યો હતા એવા મૌષ્ટિક નામના મલને મારી નાખ્યો અને વાસુદેવ દુષ્ટોને શિક્ષા કરવાની યમદેવના જેવા ક્ષેાભ Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ४१० www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे । 6 महाचलमौष्टिक चाणूरादिमल्ळविध्वंसकाः कृष्णवधार्थं कंसेन प्रवर्तिते मल्लयुद्धे बलरामेण मौष्टिकाभिधाना मल्लो वासुदेवेन च चाणूराभिधानो मल्लो निहतः इति । 'रिसमवाइणो' रिष्टष्टपभघातिनः = रिष्टाभिधानकंसवलीवर्दघातकाः, केसरिमुहविकाडगा ' केसरिमुख विस्फाटकाः = इदं विशेषणं त्रिपृष्टकाभिधप्रथमवासुदेवापेक्षया बोध्यम् । स हि नगरोपद्रवकारि वनकानननिवासि महासिंह मुखं विदारितवान् ।' दरियनागदप्पमहणा' दृप्तनागदर्पमथना : = यमुना निवासि महाविषकालनागगर्व विनाशकाः, 'जमलज्जुणभंजणा ' यमलार्जुनभञ्जकाः = यमलार्जुननुक्षविनाशकाः तौ हि पितृवैरिणौ विद्याधरौ यमलार्जुन नामको वृक्षरूप विकुर्व्य पथि स्थितौ चूर्णितवन्तः । ' महासउणिपूयणरिऊ ' महाशकुनिपूतनारिपवः = महाशकुनिः पूतना च विद्याधरपल्यौ, तयोः रिपवः । वाल्यावस्थायां मारा, तथा वासुदेव कृष्ण ने चाणूर नामके मल्ल को मारा यही बात "" बलवग गज्जंत० " इस पद द्वारा प्रदर्शित की गई है। तथा ( रिट्ठवसभाणो ) जो कंस के रिष्ट नाम के मायावी क्लीवर्द के घातक थे तथा ( केसरिमुहविष्फाडगा) केशरी सिंह के मुख को भी फाड़ देते थे, यह विशेषण त्रिष्ष्ठ नारायण की अपेक्षा कहा गया जानना चाहिये, क्योंकि उन्हीं ने नगर में उपद्रव मचाने वाले जंगली सिंह के मुख को विदारित किया है। ( दरियनागदप्पमहणा ) तथा जिस नारायणने यमुना निवासी महाविषैले काली नामकसर्प का विनाश किया है तथा ( जमलज्जुण भंजणा ) नारायण ने पिता के वैरी दो विद्याधरों को की जिनका नाम यमल और अर्जुन था और जो मार्ग में वृक्ष का रूप अपनी विक्रिया से बनाकर खड़े हो गये थे उनको मारा है ( महासउणि पूयरिक) तथा जो विद्याधर की महाशकुनि एवं पूतना नामक दो .6 (6 કૃષ્ણે ચાર નામના મલ્લને માર્યાં એ જ વાત " बलवगगज्जंत " यह द्वारा તાવવામાં આવી છે. તથા रिट्ठवसभघाइणो " उसना रिट नामना માયાવી અર્લીવના ઘાતક હતા તથા 'केसरी मुह विष्फाडगा " सिंहना મુખને પણ ફાડી નાખતા હતા. તે વિશેષણ ત્રિપૃષ્ઠ નારાયણને અનુલક્ષીને વપરાયું છે, કારણ કે તેમણે નગરમાં ઉપદ્રવ મચાવનાર જંગલી સિહુના મુખને शीरी नाभ्यु तुं. “ दरियनागदप्पमहणा " तथा के नारायणे यमुनामा रहेता અતિશય ઝેરી કાળીનાગને વશ કર્યો છે, તથા जमलज्जुणभंजणा " नाराયણે તેમના પિતા યમળ અને અર્જુન નામના બે દુશ્મન વિદ્યાધરે, કે જે માર્ગોમાં પોતાની વૈકિય શક્તિથી વૃક્ષના રૂપ લઈ ઉભા થઈ ગયા હતા तेभने भार्या हता. " महासउणिपूयणरिक ” तथा ने विद्याधरनी महाशत्रुनि अने 66 For Private And Personal Use Only Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ०४ सू०७ बलदेववासुदेवस्वरूपनिरूपणम् कृष्णस्ते हतवानित्यर्थः 'कंसमउडमोडगा' कंसमुकुटमोटका: कंसमुकुटसञ्चूरकाः, कृष्णो हि चाणवधानन्तरं कुपितं कंसे युयुत्सं मुकुटदेशं गृहीत्वा सिंहासनादाकृष्य मुविनिपात्य जवान । तथा 'जरासंधमाणमहणा' जरासन्धमानमथनाः जरासन्धगविनाशकाः, जरासन्धघातका इत्यर्थः, कंसवधकुपितं राजगृहनगरपति जरासन्धाभिधानं युद्धायोद्यत हतवान् । पुनः कीदृशाः ? इत्याह-'तेहि य अविरलसमसंहिय चंदमंडलसमप्पभेहिं मूरमरीइ कवयं विगिम्मुयंतेहिं सप्पडि दंडेहिं आयवत्तेहि धरिज्जतेहिं विरायंता ' तत्र 'तेहिं ' तैश्वातिशयवद्भिश्छविराजमानाः, इति सम्बन्धः कीदृशै छत्रैः ? इत्याह -अविरलसमसंहितचन्द्रमण्डलसमप्रभैः अविरलानि घनानि-घनशलाकावखात् , समानि = तुल्यानि स्थूलत्वेन दीर्घत्वेन च शलाकास्त्रियों के रिपु थे क्यों कि बाल्यावस्था में कृष्ण ने इन दोनों को मारा था, तथा ( कंसमउडमोडगा ) कृष्ण ने कंस के मुकुट को चूर २ कर दिया था-अर्थात्-चाणूर मल्ल के वध करने के अनन्तर जब कंस युद्ध करनेकी इच्छावाला हो गया तो उसे मुकुट को पकड़ कर कृष्णने सिंहासन से नीचे खेंच लिया और जमीन पर पटक कर मार डाला, इसी तरह (जरासंघमाणमहणा ) कृष्णने-राजगृह नगर के अधिपति जरासंध नाम के राजाओं को मारा हैं, कंस के वध हो जाने के बाद जय जरासंध कुपित होकर युद्ध करने के लिये उद्यत हो गया था तो कृष्ण ने उसे बात की-बात में संग्राम भूमि मे नष्ट कर दिया था, तथा ( तेहिय अविरल समसंहियचंद मंडलसमप्पभेहिं सूरमरीइकवयं विणिमुयंते. हिं सप्पडिदंडेहिं आयवत्तेहिं धरिज्जंतेहिं विरायंता)जो अतिशय शाली छत्रों से विराजमान होते हैं अर्थात्-जिन छत्रों से बलदेव और वासुदेव सुशोभित होते हैं उन छात्रों की शलाईयां बहुत अधिक बनीभूत होती પૂતના નામની બે સ્ત્રીઓના દુશમન હતા અને તે કારણે બાળપણમાં તેમણે से मन्नने भारी ती, तथा “ कंसमउडमोडगा" ४० सन्। भुटना यूरे ચૂરા કરી નાખ્યા હતા. ચાણર મહલને કૃષ્ણ વધ કર્યા પછી જ્યારે કેસે કૃષ્ણ સાથે લડવાની ઈચ્છા બતાવી ત્યારે કૃષ્ણ તેને મુગટ પકડીને તેને સિંહા. સન ઉપરથી નીચે ખેંચીને જમીન ઉપર પછાડીને મારી નાખ્યો, આ રીતે " जरासंघमाणमहणा" ० २।४नाना २ सधन१५ यो હતે. કંસનો વધ થયા પછી જ્યારે જરાસંધ ફોધે ભરાઈને લડવાને તૈયાર थयो त्यारे ४० ४ घडीमा तनो रणभेहानमा वध यो उता. तथा " तेहि य अविरलसमसंहियच दमंडलसमपभेहिं सुरमरीइ कवयं विणिमुचतेहिं दडेहि बायवत्तेहिं धरिजंतेहिं विरायंता" तो घ! सनिया qui छत्राथी शोलत For Private And Personal Use Only Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४३२ प्रश्नव्याकरणसूत्रे नां समत्वात् द्वयोद्वयोः शलाकयोरन्तरालस्यापि समत्वाच, संहितानि-शलाकानां निम्नोन्नतरहितत्वात् , तानि तथा-चन्द्रमण्डलसमप्रभाणि वृत्तत्वेन चन्द्रमण्डल. समा प्रभा येषां तानि तथा तैः-तथा 'मूरमरीइकवयं विभिन्मुयंतेहिं ' सुरमरी चि कवचं विनिर्मुश्चद्भिः-पूरमरीचयः सूर्यकिरणास्त इस मरीचयः देदीप्यमानप्रभूत मणिरत्नैः सर्वतः खचितत्वात् , तेषां कवचमिव कवचंपरिकरःमण्डलाकारपरिणतत्वात् , तं विनिर्पश्चद्भिः असारयद्भिः, तथा 'सप्पडिदंडेहि' सपतिदण्डैः=अतिविशालस्वादेकेन दण्डेन धारणा शक्यत्वात्पतिदण्डसहितः 'आयवत्तेहिं ' आतपत्रैः= हैं, स्थूलता एवं दोर्घता में समान होती हैं तथा दो दो शलाकाओं का अन्तराल भी सम होता है तथा ये सब शलाकाएँ ऊँची नीची नहीं होने के कारण, अर्थात्-एक सी होने के कारण परस्पर में संहितमिली हुई होती हैं, इसलिये ये छत्र अविरल, सम और संहित होते हैं। तथा इन सब छत्रों की प्रभावृत्त-गोल-होने के कारण पूर्णचंद्र मंडल जैसी होती है । तथा-ये समस्त छत्र देदीप्यमान अनेक मणियों एवं रत्नों से जड़े हुए होने के कारण जिस किरण जाल को छोड़ते हैं वह ऐसा मालूम पड़ता है कि यह सूर्य की किरणों का ही जाल है, क्यों कि वह आसपास में मंडलाकार से परिणत बना रहता है। तथा इन छत्रों में विशाल आकारवाले होने के कारण भिन्न २ दंडे लगे रहते हैंएक ही दंडे के सहारे ये नहीं रहते हैं, क्यों कि एक ही दंडे से इनका अति विशाल होने के कारण संभालना अशक्य होता है। ऐसे धियહોય છે. એટલે કે જે છે બળદેવ અને વાસુદેવ ઉપર ધરવામાં આવે છે. તે છત્રેના સળિયાએ ઘણું જ પાસે પાસે હોય છે, જાડાઈ અને લંબાઈમાં સરખા હોય છે. તથા બે સળિયાઓ વચ્ચેનું અંતર પણ સરખું હોય છે. તથા તે સળિયા લાંબા ટૂંકા નહીં હોવાને કારણે, એક સરખા હેવાને કારણે પરસ્પર જોડાયેલ હોય છે, તેથી તે છત્ર અવિરલ, સમ અને સહિત હોય છે. અને તે સઘળાં છને પરીઘ ગેળ હેવાને કારણે તે પૂર્ણચન્દ્ર જેવાં લાગે છે. તથા તે છ પર અનેક તેજસ્વી મણીઓ અને રને જડેલાં હોય છે તેથી તેમાંથી જે કિરણ જાળ નિકળે છે તે સૂર્યની કિરણ જાળ જેવી લાગે છે, કારણ કે તે આસપાસમાં મંડલાકારે પથરાયા કરે છે. તે છે ઘણાં વિશાળ હોવાથી તેને આધાર આપવાને અનેક દંડા રાખ્યા હોય છે. એક જ દંડાને આધારે તે રહી શક્તા નથી, કારણ કે તે છ એટલાં વિશાળ હોય છે કે એક જ દંડા વડે તેને સંભાળવા અશક્ય થઈ પડે છે. એવા પ્રકારનાં છથી For Private And Personal Use Only Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० ४ सू० ८ बलदेववासुदेवस्वरूपनिरूपणम् ४३३ महाछत्रैः ‘धरिज्न तेहि ' धार्यमाणैः । विरायंता 'विराजमानाः। ये एतादृशास्तेऽपि काम भोगातृप्ता एव मरणधर्मशुपनमन्तीति योगः ॥ सु०७॥ पुनः कीदृशास्ते ? इत्याह- 'ताहिय ' इत्यादि मूलम्-ताहिय पवरगिरिकुहर-विहरण-समुद्धियाहिं निरुवहयचमरिपच्छिमसरीरसंजायाहिं अमइल-मियकमलविमुकुलुज्जलियरययगिरि-मिहरविमलससिकिरण-सरिसकहोयनिम्मलाहिं पवणाहयचवलचलिय–सललियनच्चियवीइपसरिय-खीरोदरपवर-सागरुप्पूर-चवलाहिं माणससरपसर-परिचियावास-विसय-वसाहिं कणगगिरि-सिहर-संसियाहि ओवाउप्पाय-चवल-जविय-सिग्घवेगाहिं हंसवधूयाहिं चेव नानामणिकणग-महरिह-तवणिज्जुज्जल-विचित्तदंडाहिं सललियाहिं नरवइसिरिसमुदयणगासणकराहिं वरपट्टणुग्गयाहिं समिद्धरायकुलसेवियाहि कालागुरुपवरकुंदुरुकतुरुक्क धूववासविसिहगंधुद्धयाभिरामाहिं चिल्लियाहिं उभओ पासंपि चामराहिं उक्खिप्पमाणाहिं सुहसीयलवायवीयियंगाअजिया अजियरहा हलमुसलकणगपाणी संखचक्रगयसत्तिणं दगधरा पवरुज्जलसुकय-विमलकोथुभ-किरीडधारी कुंडल उज्जोइयाणणा पुंडरीबणयणाएगावलिकंठ राइयवच्छा सिरिवच्छ सुलंछणा वरजसा सव्वोउय-सुरभि-कुसुमरइयपलंब-सोहंत माण छत्रों से ये विराजमान रहते हैं। ऐसे ये बलदेव और वासुदेव भी कामभोगों से अतृप्त बने रहते हैं और इसी स्थिति में मरणधर्म को प्राप्त करते हैं । सू०७॥ શોભતા બળદેવ અને વાસુદેવ પણ કામગથી અતૃપ્ત રહે છે એ સ્થિતિમાં भ२६ पामे छ. ॥ सू-७ । प्र५५ For Private And Personal Use Only Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४३४ प्रश्नव्याकरणसूत्रे वियसंत-विचितवणमाल रइयवच्छा अहसयविभत्तलक्खणपसत्थसुंदर - विराइयंगुवंगा मत्तगयवरिंद-ललिय - विक्रम विलसिय-गईकडिसुत्तकनील पीय-कोसेज्जवाससा पवरदित्ततेया सारयणवथणिय-महुरगंभीर--निद्धघोसा नरसीहा सीहविकमगई अत्थमिय पवररायसीहा सोम्मा वारवई पुण्ण चंदा पुवकयतवप्पभावा निविट्ठसंचियसुहा अणेगवास सयमाउठवतो भज्जाहियजणवयप्पहाणाहिं लालियंता अउल-सदफरिस-रसरूवगंधे य अणुभवित्ता ते वि उवणमंति मरणधम्म अवितित्ता कामाजं ॥ सू० ८॥ टीकाः-- 'ताहिय ' ताभिश्च वक्ष्यमाणविशेषणविशिष्टाभिश्चामराभिरुक्षिप्यमानाभिः सुख शीतलवातवीजितागावलदेववासुदेवाः, इति सम्बन्धः । कथम्भूताभिश्चामराभिः ? इत्याह-- 'पवरगिरिकुहरविहरणसमुद्धियाहिं ' प्रवरगिरिकुहरविहरणसमुद्धृताभिः प्रवरगिरिणां यानि कुहराणि गहराणि तेषु यद् फिर वे कैसे होते हैं सो कहते हैं-' ताहि य' इत्यादि। टीकार्थ:-- (ताहि य उक्खिप्पमाणाहिं चामराहिं सुहसीयलवाय वीइयंगा) इन वक्ष्यमाग विशेषणों से विशिष्ट ढोले गये चामरों की सुखप्रद शीतल वायु से जिनका अंग वीजित होता रहता है ऐसे बलदेव और वासुदेव भी काम से अतृप्त ही मरण को प्राप्त करते हैंऐसा संबंध यहां भी लगा लेना चाहिये। अब सूत्रकार चामरों के विशेषणो को स्पष्ट करते हैं -- ( पवरगिरिकुहरविहरणसमुद्धियाहिं ) जब चमरी गाय उत्तम पर्वतों को गुफाओं में विचरण करती हैं तब वह ७ तसा ॥ य छ तेनुं वधु वरान मरे 2-" ताहिय" ४त्याहि. 1-"ताहि य उक्खिप्प माणाहिं चामराहिं सुहसीयलवायवीइ यंगा' मा પ્રમાણેના વિરોષણોવાળા, ચામરોવડે ઢળવામાં આવતાં આનંદદાયક શીતળવાયુ વડે જેમના અંગે વાયુનું સેવન કરી રહેલાં છે એવા તે બળદેવ અને વાસુદેવ પણ કામગથી અતૃપ્ત રહીને જ મૃત્યુને પંથે પળે છે. એ સંબંધ અહીં પણ સમજી લેવો. હવે સૂત્રકાર ચામરેનાં વિશેષણેની સ્પષ્ટ કરે છે. " पवरगिरिकुहरविहरणसमुद्धियाहिं" ल्यारे यमरी आय उत्तर पचतानी For Private And Personal Use Only Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुशिनी टीका अ. ४ सू० ८ बलदेववासुदेवस्वरूपनिरूपणम् विहरणं = चमर्याख्यगवीनां विचरणं तस्मिन् काले समुद्धृताः कण्टकवृक्ष संलग्नभयाद् ऊर्थीकृता यास्तास्तथा, ताभिः, 'निरुवहयचमरिपच्छिमसरीरसंजायाहि 'निरुपहतचमरीपश्चिमशरीरसाताभिः = निरुपहतानां = नीरोगाणां चमरीणां-गो विशेषाणां पश्चिमशरीरे-पुच्छपदेशे साताभिः = समुत्पन्नाभिः 'अमइलसियकमलविमुकुलुज्जलियस्ययगिरिसिहरविमलससिकिरणसरिस कलयो यनिम्मलाहि । अमलिनसितकमलविमुकुलोज्ज्वलितरजतगिरिशिखर-विमझशशिकिरणसदृशकलधौतनिर्मलाभिः तत्र · अमइलसियकमल ' अमलिनसितकमलम् अमलिन अम्लानं शीतातपादिभिः यत् सितकमलं-श्वेतकमलं पुण्डरीक तच्च विमुकुल विकसित' तथा ' उज्जलियरययगिरिसिहर' उज्ज्वलितरजतगिरि शिखरम्-उज्ज्वलित भास्वर यद् रजतगिरिशिखरं तथा विमलशशिकिरणाः = विमला:-निर्मला ये शशिनः चन्द्रस्य किरणाश्च तत्सदृशाः कलधौतवत्-शुद्धरजतवनिर्मला:-धवलायास्तास्तथा ताभिः-अम्लानविकसितश्वेतकमलोज्ज्वलरजतपर्वतशिखरविमल चन्द्रकिरणशुद्धरजतवदुज्ज्वलाभिरित्यर्थः । तथा 'पवणाहयचवउस समय कण्टकमय वृक्षों में लग जाने के भय से अपनी पूंछ को ऊँचा उठा लेती है इसलिये यहां प्रकट किया रहा है कि जो चामर चमरी गायकी पूंछ में उत्पन्न होने के कारण प्रवरगिरि के कुहरों में भ्रमण काल के समय में ऊचे उठाये गये थे तथा (निरुवयवमरीपच्छिमसरीरसंजायाहिं ) जो निरुपहत-निरोग अवस्थावाली चमरी गायों की पूंछ में उत्पन्न हुए हैं, तथा ( अमइलसियकमलविमुकुलुज्जलिय रययगिरिसिहरविमलससिकिरणसरिसकलधोयनिम्मलाहिं ) जो शीत आतप आदिसे म्लान नहीं हुए विकसित श्वेत कमल के समान, भास्वर, रजत गिरि के शिखर के समान, निर्भलचंद्र की किरणों के समान, एवं शुद्ध चांदी के समान निर्मल होते हैं। तथा (पवणा ह्यचवल चलियसललिગુફાઓમાં ફરતી હોય છે ત્યારે કાંટાળાં વૃક્ષેમાં ભરાઈ જવાની બીકે તે પિતાની પૂંછડીને ઊંચી રાખે છે. તે કારણે અહીં એમ બતાવવામાં આવ્યું છે કે જે ચામર ચમરી ગાયની પૂછડીમાં ઉત્પન્ન થવાને કારણે ઉત્તમ પર્વતની ગુફાसोमा भ्रम ४२ती वमते यापेक्षा ता, तथा “निरुवहयचमरीपच्छिमसरीरसंजायाहिं " रे नीशी शरी२ वाणी यम आयनी पूछीमा Gurन ये छ, तथा “ अमइल-सियकमल-विमुकुलुज्जालिय-रययगिरिसिहरविमलससि-किरणसरिसकलधोयनिम्मलाहिं " रेशात, त५ महिना मान પડેલ વિકસિત વેત કમળ સમાન, ભાસ્વર, રજતગિરિના શિખર સમાન, નિર્મળ ચન્દ્રનાં કિરણે સમાન, અને શુદ્ધ ચાંદીના જેવાં નિર્મળ હોય છે, For Private And Personal Use Only Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org દ व्याकरणसूत्रे 1 " लचलियसललियन च्चियवीयपसरिय खीरोद्ग पवरसागरुप्पूरचवलाहिं ' पवनाहतचपलचलितसललितनर्तितवीचिमटत क्षीरोदकभवरसागरोत्पूरचपलाभिः = तत्र पवनेन = वायुना आहतः = घट्टितः, अतएव चपलं यथास्यास्तथा चलितः सलकितं =सविलसितं च नर्तितः = गतिविशेषं प्राप्तः, तथा वीचिभिः=तरङ्गैः प्रसृतः क्षीरोदकप्रवरसागरस्य = क्षीर सागरस्य य उत्पूरः- जलसमूहस्तद्वत् चपकाभिः = चञ्चलाभिः बहुलधवलतरङ्गयुक्तक्षीरसागरनीरप्रवाह वत्प्रतीयमानाभिः, अथ इंसवधूभिरुपमयन्नाह 'माणससरपसरपरिचियावासविसयवेसाहिं ' मानस सरः प्रसरपरिचितावास विशदवेषाभिः = मानससरसः प्रसरे = विस्तृतमदेशे परिचितः =अभ्यस्त आवास: = निरन्तरनिवासः अतएव विशद: वलश्च वेषो वर्णो यासां तास्तथाविधामिः कणगगिरिसिहरसंसियाहि कनकगिरिशिखरसंश्रिताभिः = सुमेरुतविहारिणीभिः अतएव 'ओवाउप्पायचबलजवियसिग्धवेगाहिं ' अबमच्चिइयपसरीयखीरोदगपवर सागरुप्पूरचवलाहि ) वायु से आहत होने के कारण अत्यंत चपल बने हुए और इसी से जो मानो विलाससहित होकर नृत्य कर रहा है, तथा तरहोने जिसे विशेष विस्तृत कर दिया है ऐसे क्षीरसागर के प्रवाह के समान जो चंचल हैं अर्थात् अत्यंत धवल तरंगों से युक्त क्षीरसागर के प्रवाह के जैसे जो दिखलाई दे रहे हैं। तथा ( माणससरपसरपरिचियावासविसघवेसाहिं ) जो हंसवधू के समान प्रतीत हो रहे हैं, हंसो मानसरोवर में रहती है- इसी विषय को लेकर मूत्रकार कहते हैं कि मानसरोवर के विस्तृत प्रदेश में अभ्यस्त निरन्तर निवास के बश से जिन हंसवधुओं का वर्ण धवल हो गया है, और ( कणगगिरिसिहरसंसियाहि ) जो सुमेरुपर्वत के तटों पर विहार करती हैं, तथा (ओवाउप्पायचबल जवियसिग्घवेगाहिं) 66 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir તથા पवणायचवल - चलिय - सललिय-नच्चियवीइ - पसरिय-खीरोद्गपवर-सागरुप्पूरचवला हि ” પવન આવવાને કારણે ચપલ બનેલ અને તે કારણે જાણે વિલાસી બનીને નૃત્ય કરતાં હાય તેવાં તથા તરંગાએ જેને વધારે વિસ્તૃત કરી નાખેલ છે એવાં ક્ષિર સાગરના પૂર સમાન જે ચંચળ છે.—એટલે કે સફેદ તર’ગાથી યુક્ત ક્ષીરસાગરના પ્રવાહ જેવા જે કોઈ દેખાઈ રહ્યાં છે, તથા 'माणससर-पसर - परिचियावासविसय- वेसाहि " ने सीमोना नेवा लागे છે, હુ'સલી માનસરોવરમાં રહે છે. તે વિષયને અનુલક્ષીને સૂત્રકાર કહે છે કે માનસરોવરના વિસ્તૃત પ્રદેશમાં હમેશાં રહેવાને કારણે ને હંસલીઓના રગ श्वेत थर्ध गयो हाय छे, भने- " कणगगिरिसिहरसंसियाहिं ” ने सुभेरु પર્વતનાં શિખરો પર વિહાર કરે છે, તથા ओवाउप्पायचवलज वियसिग्ध ८८ (C For Private And Personal Use Only Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० ४ सू० ८ बलदेववासुदेवस्वरूपनिरूपणम् ४३७ . - पातोत्पात चपल जवित शीघ्रवेगाभिः = अवपातः - ऊर्ध्वो भूयाधःपतनम्, उत्पातः = अधोभूत्वार्ध्वगमनं तयोः चपलः = चञ्चलः जवितः = वेगयुक्तः अतएव शीघ्रः वेगो = गतिर्यासां तास्तथा ताभिः 'हंसवधूयाहिं चेव' हंसवधूभिरिव = हंसी भिरिवहंसवत्प्रतीयमानाभिरित्यर्थः । पुनः कथम्भूताभिचामराभिः ? इत्याह--' णाणामणिकणगमहरिहतवणिज्जुज्ज विचितदंडाहिं ' नानामणि कनक महाईतपनीयोज्ज्वलविचित्रदण्डाभिः- तत्र नानाविधामणयः = चन्द्रकान्तादयः कनकं- पीतवर्ण सुवर्ण तथा महाई बहुमूल्यं यत् तपनीयं च = रक्तवर्ण सुवर्ण तैरेतैरुज्ज्वलाःभास्वराः विचित्रा: = मणिसुवर्णादीनां सम्मिश्रितकान्तिभिचित्र विचित्रा दण्डा यासां तास्तथा ताभिः विविधमणिखचितरक्तपीतसुवर्णदण्डयुक्ताभिः, यथा सुवर्णगिरिशिखरे स्थिता स्यः शोभमाना समुल्लसति तथा सुवर्णगिरिस्थानीय सुवर्णदण्डोपरिस्थिताभिः धवलत्वात् हंसी भिरितिभावः । तथा ' सललियाहिं ' सललि अवपात - ऊँचे जाने में जिन की गति बहुत अधिक वेग को लिये हो रही है ऐसी (हंसवधूयाहि चेव ) हंस वधूओं के समान जो चामर अपनी शुभ्रता के कारण ज्ञात हो रहे हैं। तथा (नाणामणिकणगमहरिह तवणिज्जुज्ञ्जल विचित्तदंडाहिं ) जिन चामरों के दंड चंद्रकान्त आदि नाना प्रकार की मणियों की कांति से पीतसुवर्ण की प्रभा से, एवं बहुमूल्य तपे हुए रक्तवर्ण वाले सुवर्णकी आभासे - इन सबकी परस्पर मिश्रित कान्ति च्छा से अधिक उज्जल और रंग बिरंगे मालूम दे रहें हैं, अर्थात् जिस प्रकार सुमेरुपर्वत के तट पर स्थित हँस कामनियाँ सुहावनी लगती हैं उसी प्रकार ये चामर भी सुवर्णगिरि के शिखर - तट जैसे दंडों पर स्थित होने के कारण अपनी धवलता के कारण हंसनियों के समान प्रतीत होते हैं ( सललियाहि ) ये चामर बेगाहिं ” अयेथी नीथे भाववामा भने नीथेथी अथे श्वासांनी गति धी अडथी होय छेत्री" हंसवधूयाहिं चेव " सवधूमो ( उससीओ) नेवां ચામરા પોતાની શ્વેતતાને કારણે લાગે છે. તથા " नाणामणि कणगमहरिहतवणिज्जुज्जलविञ्चित्तदंडाहिं " ? यामरोना हडे। यन्द्रान्त आदि विविध પ્રકારના મણીઓની કાંતિથી, પીતસુવણુની પ્રભાથી, અને તપાવેલા બહુમૂલ્ય વાન રક્તવર્ણના સુવર્ણની આભાથીએ બધાની પરસ્પર મિશ્રિત કાન્તિથી અધિક ઉજ્જવળ અને રગ બે રંગી લાગે છે, એટલે કે જેમ સુમેરુ પર્વતનાં શિખરી પર રહેલી હુ'સલીએ સુંદર લાગે છે એ જ પ્રમાણે તે ચામરા પણ સુવર્ણ ગિરિનાં શિખર જેવાં ઈંડા ઉપર આવેલ હોવાથી પાતાની શ્વેતતાને કારણે इसवी मेवां लागे छे " सललियाहिं " ते आमरो साहित्य वाणां तां For Private And Personal Use Only Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४३८ प्रश्नव्याकरणसूत्रे ताभिः = लालित्ययुक्ताभिः, 'नरवइ सिरिसमुदयप्पगासणकराहि' नरपति श्री समुदयप्रकाशकराभिः राजलक्ष्मी प्रकर्ष सूचिकाभिः, ' वरपट्टणुग्गयाहिं' वरपत्त नोद्गताभिः = शिल्पिप्रधाननगरनिमित्ताभिः, ' समिद्धरायकुलसेवियाहिं ' समृद्धराजकुलसेविताभिः = पितृपितामहादि परम्परया समागताभिः, तैः परिधृताभिरित्यर्थः, कालागुरुपवरकंदुरुकतुरुकधूत्वासविसिट्टगंधुद्ध्याभिरामाहि' कालागुरुपवरकुन्दुरुष्कतुरुष्कघूपविशिष्टगन्धोद्धृताभिरामाभिः = तत्र कालागुरुः कृष्णागुरुः प्रवरं प्रधान--सर्वोत्तमं, कुन्दुरुष्क-चीडाख्यगन्धद्रव्यं, तुरुष्क तुरुष्कदेशोद्भवं-सिहकाभिधगन्धद्रव्यं ' लोबान ' इति भाषा प्रसिद्धम् , इत्येतल्ल. क्षणा यो धूपाः धूपविशेषास्तेषां यो वासः-वासना तेन विशिष्ट विस्पष्टो गन्धः सः उद्धृतः परितो विसारी तेन अभिरामाः मनोज्ञा यास्तास्तथा तामिः, नानाविधधूपगन्धयुक्ताभिरित्यर्थः 'चिल्लियाहिं' देदीप्यमानाभिः देशीशब्दोऽयम्, लालित्य से युक्त थे। तथा ( नरवइसिरिसमुदयप्पगासणकराहिं ) जिनके ऊपर ये ढोरे जाते हैं उनकी ये राजलक्ष्मी के प्रकर्ष के सूचक होते हैं । तथा ( वरपट्टणुग्गयाहिं ) साधारण स्थानों में ये नहीं बनाये जाते हैं किन्तुजो शिल्पिप्रधान नगर होते हैं उन्हीं में ये निर्मित होते हैं । तथा (समिद्धरायकुलसेविद्याहिं ) बलदेव और वासुदेव पर जो चामर ढोरे जा रहे थे-वे उनकी वंशपरंपरा से चले हुए आ रहे थे। ( कालागुरुपवर कुंदुरुक्क तुरुकधूववासविसिट्टगंधुद्धृयाभिरामाहिं ) ये चामर कालागुरु उत्तम चीडा नामकगंधद्रव्य तथा लोबान को जलाकर उनकी गंध से वासित किये हुए थे, अतः इनकी चारों ओर सुगंध निकल कर फैल रही थी उससे ये बड़े मनोहर लगते थे। तथा (चिल्लियाहिं ) तथा " नरवइसिरिसमुदयप्पगासणकराहिं " भनी ५२ ते ढोगाय छ, तमनी शसभीनी विरताना ते सूय य छ. तथा “ वरपशुगयाहिं " साधाરણ સ્થાનેમાં તે બનતાં નથી પણ જે શિલ્પ પ્રધાન નગરે હોય છે, તેમાં १ ते याभरी मनापामा मावे छे. तथा “ समिद्धरायकुलसेवियाहिं " मर અને વાસુદેવ પર જે ચામર ઢોળવામાં આવતાં તે તેમની વંશપરંપરાથી यात्या मावता तi. “कालागुरु-पवरकुंदुरुक्क-तुरुक्क-धूववास-विसिट्ठ-गंधुद्ध्याभिरामाहि" ते सामरीने ! २२, उत्तम यी नामर्नु सुगधीहा२ द्रव्य, તથા લેબાનને ધૂપ દઈને તેમના ગંધથી સુગંધ યુક્ત બનાઝાં હતાં, તેથી તેમની સુગંધ મેર ફેલાઈ રહી હતી તેથી તે મનહર લાગતાં હતાં. તથા For Private And Personal Use Only Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४३९ सुदर्शिनी टीका ० ४ सू० ८ बलदेवयासुदेवस्वरूपनिरूपणम् 'उभओ पासंपि' उमयोरपि पार्श्वयोः, 'उक्खिप्पमाणाहि' उन्क्षिप्यमाणाभिः वीज्यमानाभिः सञ्चाल्यमानाभिरित्यर्थः, 'चामराहिं' चामराभिः बालव्यजनैः, चामरशब्दःस्त्रीलिङ्गोऽपि 'चामरं चमराऽपि च' इति मेदनी कोषात, 'मुहसीयलवाय' मुख शीतलवाताभिः सूत्रे लुप्तविभक्तिकं पदम् , सुखदः शीतलच वातःचायुर्यासां तास्तथा ताभिः 'वीइयंगा' वीजीताङ्गाः-वीजीतान्यङ्गानि येषां ते तथा 'अजिया' अजिताः अन्यैरपराजिताः 'अजियरहा' अजितरथा: अपराजितरथाः 'हलमुसलकणगपाणी' हलमुसलकनकपाणया= हलं च मुसलं च कनकं कनकाभरण वलय इत्यर्थः हस्ते येषां ते तथा हलमुसल कनक पाणयो वलदेवाः । वासुदेवाश्च 'संख चक्कगयसत्तिणंदगधरा ' शङ्ख चक्रगदाशक्ति नन्दनधराः शङ्ख =पाञ्चजन्याभिधाचक्र-सुदर्शनाख्यं, गदा कौमोदकी शक्तिः शस्त्रविशेषः, नन्दकश्च खङ्गः, एतान् धरन्ति ये ते तथा, वासुदेव विशेषणमिदं, 'पवरुज्जलमुकयविमलकोथुम किरीडधारी ' प्रवरोज्ज्वलसुकृतविमलकौस्तुभकिरीटधारिणः = प्रवरोज्ज्वलः = ये अपनी कान्ति से बहुत अधिक देदीप्यमान हो रहे थे। ऐसे ये (चामराहिं ) चामर कृष्ण और बलदेव की ( उभओ पासंपि) आज बाजू में-दोनों पार्श्वभागो में-ढोले जा रहे थे। (सुहसीयल वायवीइयंगा) इनसे निर्गत सुखद और शीतल वायु से इनका शरीर वीजा जाता था ( अजिया ) ये बलदेव और वासुदेव अन्य व्यक्तियों द्वारा अपराजित थे। ( अजियरहा ) इनके रथ को रोकने की किसी भी व्यक्ति में शक्ति नहीं थी, इसलिये ये अजित रथ थे। (हलमुसलकणगपाणी) बलदेव के हाथ में हल मुसल तथा सोने के आभरण अर्थात् कडे रहते थे। पांचजन्य नानका शंख, सुदर्शन नामका चक्र, कौमोदकी नामकी गदा, शक्ति नामका शस्त्र और नंदक नामकी तलवार, ये सब कृष्ण वासुदेव के पास रहते थे । अत्यंत भास्वर, ( पवरुज्जलसुकविमलको" चिल्लियाहिं " ते। तभनी अन्तिथी ध! ते२४२वी aunti sai. मेवा ते “चामराहिं " याम। ] अने 240वनी " उभयो पासंपि " भानु: मे पन्ने ५ वामां मावता उतi. “सुहसीयलवायवीईयंगा" તેનાથી ઉત્પન્ન થતે શીતળ અને સુખદ વાયુ તેમનાં શરીરપર વીંઝાતે હતે. " अजियो" ते मज मने वासुदेव on a द्वारा अ५२रित ता. " अजियरहा" मना २थाने शवानी d६ ५६ व्यतिमा न इती. तथी तथा मनितरथ ता. " हलमुसलकणगपाणी” जवना थमा , મુસળ અને સોનાનાં કડાં રહેતાં હતાં. પાંચજન્ય નામને શંખ, સુદર્શનચક, કદકી નામની ગદા, શક્તિ નામનું શસ્ત્ર અને નંદક નામની તલવાર એ બધું कृष्ण वासुदेव पासे २हेतु तु. “पवरुज्जलसुकय-विमल-कोथुभ-किरीडधारी" For Private And Personal Use Only Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४४० प्रश्नव्याकरणसूत्रे अतिभास्वरः सुकृतः मुष्ठु रचितो विमला स्वच्छो यःकौस्तुभो मणिविशेषस्तं तथा किरीटं-मुकुटं च धारयन्ति ये ते तथा इदमपि वासुदेव विशेषणम् । कुंडल उज्जो वियाणणा' कुण्डलोद्योतिताननाः-कुण्डलैः कर्णभूपणैः-उद्बोतित-प्रकाशितमाननं मुखं येषां ते तथा, 'पुंडरीयणयणा' पुण्डरीकनयनाः = कमलाक्षाः एगावलिकंठरइयवच्छा' एकावलीकण्ठरचितवक्षसः एकावलीकण्ठे रचिताः कण्ठावलम्बिनी सतीकृता वक्षसि वक्षःस्थले येषां ते तथा ' सिरियच्छसुलंछणा ' श्रीवत्ससुलाञ्छनाः श्रीवत्सः श्रीवत्सःस्वस्तिकविशेषः स एव शोभनं लाञ्छनं येषां ते तथा 'वरजसा' वरयशसः विश्रुतकीर्तयः ' सम्बोउयसुरभिकुसुमरइय-पलंब सोहंत-वियसंत--विचित्तवणमालरइय-वच्छा ' सर्वर्तुकसुरभिकुसमरचित-पलम्ब शोभमानविकसदावचित्रवनमाला रचितवक्षसः सर्वतुकैः सर्वतुगवैः सुरभिकुसुमैः= सुगन्धिपुष्पैः रचिताः निर्मिता पालम्बशोभमाना-प्रलम्बमानत्वेन सुशोभना थुकिरिडधारी ) अत्यन्त भास्वर अच्छी तरह से रचित, तथा स्वच्छ ऐसा कौस्तुभ रत्न तथा किरीट-मुकुट इन्हें कृष्ण वासुदेव धारण करते थे। नधा ( कुंडल उज्जोइयाणणा) इन दोनों भाईयों का मुख कर्णाभूषणों से सदा प्रकाशित रहता था। (पुंडरीयणयणा) इनके नयन पुंडरिक- (श्वतकमल ) जैसे शोभायमान थे । (एगावलिकंठरइयवच्छा) कंठ में जो ये एकावली हार पहिने हुए थे वह छाती तक लटकता था। (सिरिवच्छ सुलंछणा ) श्रीवत्स नामक स्वस्तिक विशेष चिह्न इनके वक्षस्थल में था ( वरजसा ) चारों तरफ इनकी कीर्ति फैली हुई थी, (सव्वोउयसुरभिकुसुमरइयपलंबसोहंतवियसंतविचित्तवणमालरइयवच्छा) इनके वक्षःस्थल पर जो वनमाला लटक रही थी वह समस्त ऋतु संबंधी सुरभितपुष्पों से गुंथी हुई थी, एवं बहुत लंबी थी, इसलीये बड़ी અત્યંત ભાસ્વર-સુંદર રીતે તૈયાર કરેલ, સ્વચ્છ કૌસ્તુભ રત્ન તથા કિરીટમુ12 वासुदेव धा२३ ४२॥ ता. तथा “ कुंडलउज्जोइयाणणा" ते भन्ने मानi भुम भूषणेथी सहा प्रशित २हेतi sai, "पुंडरीयणयणा" तमना नयन धुरी (स३४ ४) सु४२ तi. “एगावलीकंठरइयवव છા” કંઠમાં જે એક સરવાળો હાર પહેર્યો હતો તે છાતી સુધી લટકતા હતા. " सिरिवच्छसुलंछणा" तेमन! १क्षस्थ ७५२ श्री. रस नामर्नु स्वस्ति विशेष करते. "वरजसा" तेमनी श्रीति थामेर व्यापी हुती, " सव्वोउय-सुर. भिकसमरदय-पलंघ-सोहंत-वियसंत विचित्तवणमाल-रइयवच्छा" तेमना वक्षस्था પર જે પુષ્પમાળા લટકતી હતી તે બધી ઇતુઓનાં સુગંધિદાર ફૂલ વડે ગતી હતી. અને બહુ લાંબી હતી, તેથી તે ઘણી સુંદર લાગતી હતી, તથા For Private And Personal Use Only Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुर्शिनी टीका अ० ४ सू० ८ बलदेववासुदेवस्वरूपनिरूपणम् विकसन्ती-विकसायमाना विचित्रा नानारूपकुसुमग्रथितस्वाचित्ररूपा या वनमाला सा रचिता वक्षसि वक्षःस्थले येषां ते तथा, 'अठ्ठसयविभत्तलक्षणपसस्थ सुंदरविराइयंगुवंगा ' अष्टशतविभक्तलक्षणप्रशस्तसुन्दरविराजिताङ्गोपाङ्गा = अष्टशतविभक्तलक्षणैः-अष्टोत्तरशतप्रकारलक्षणैः प्रशस्तैः = लाघनीयैः सुन्दरैः-नयनाहादजनकैः विराजितान्यङ्गोपाङ्गानि येषां ते तथा अष्टशतशुभलक्षणलक्षित शरीरा इत्यर्थः, 'मतगयवरिंदललियविक्कमविकसियगई ' मत्तगनवरेन्द्रललित विक्रमविलसितगतया मत्तगजवरेन्द्रस्य ऐरावतस्येव ललितः-सुविलासः यो विक्रमः चक्रमणं-गमनं तद्वत् , विलसिता-विलासयुक्ताः गतिर्येषां ते तथा 'कडिसुत्तगनीलपीयकोसेज्जवासमा' कटिसूत्रकनीलपीतकौशेयवाससः = कटिमत्रकानि% कटिसूत्रप्रधानानि नीलपीतानि कौशेय वासांसिकौशेयवस्त्राणि 'रेशमीवस्त्र ' इति भाषा प्रसिद्धानि येषां ते तथा नीलाम्बराः बलदेवाः, पीताम्बराः वासुदेवाः इति बोध्य ‘पवरदित्ततेया' प्रवरदीप्ततेजसः = महातेजस्विनः, ' सारयणसुहावनी लगती थी, तथा विकसायमान थी, तथा विविध प्रकार के पुष्पों से ग्रथित होने के कारण वह रंग विरंगी थी, । ( अट्ठसयविभत्त. लक्खणपसत्थसुंदरविराइयंगुन्वंगा ) प्रशस्त-श्लाघनीय-एवं सुन्दर-नेत्रों को आह्लादजनक ऐसे एक सौ आठ (१०८) भिन्नरप्रकार के लक्षणों से जिनके अंग और उपांग सुशोभित होते थे, तथा ( भत्तगयवरिद ललियविक्कममविलसियगई ) ऐरावत के विलासयुक्त गमन के समान जिनकी गति विलास सहित होती थी, तथा ( कडिसुत्तगनीलपीयकोसेज्जवाससा) जिनके पहिरे हुए नीले पीले रेशमी वस्त्रों (पीत अम्बर धारी वासुदेव एवं नील अम्बर धारी बलदेव होते हैं ) पर कटिसूत्र बहुत ही अधिक सुहावना प्रतीत होता है-अर्थात् जिन के नीले पोले रेशमी वस्त्र और कटिसूत्र प्रधान होते हैं। तथा ( पवरदित्तत्तया ) जो વિકસિત હતી, તથા વિવિધ જાતનાં ફૂલમાંથી ગુ થેલી હવાથી રંગબેરંગી હતી. " असयविभत्त-लक्खणपसत्व-सुंदर-विराइयंगुव्वंगा" प्रशस्त-मापासाय અને સુંદર નેત્રને આનંદદાયક એવાં એક સે આઠ (૧૦૮) જુદા જુદા Hari A थी मन A Gin शालता उतi, तथा " भत्तगयवरि दललियविक्कमविलसियगई " भैरावना विकासयुक्त मन समान भनी गति विलासयुत ता, तथा “ कडिसुत्तगनीलपीयकोसेज्जवाससा " भये પહેરેલા વાદળી અને પીળાં વસ્ત્રો “પીતાંબર ધારી વાસુદેવ અને નીલાંબર ધારી मण" ५२ टिसूत्र सत्यात सु४२ सातुं तु. तथा “पवरदित्ततेया' २ महातेजस्वी ता तथा “सारयणव-थणिय-महुर-गंभीर-णिद्ध घोसा" For Private And Personal Use Only Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra કર प्रश्नव्याकरणसूत्रे वथणियमहुरगंभीरणिद्धघोसा शारदनवस्तनितमधुरगम्भीर स्निग्धघोषाः = = शारदं = शरत्कालिकं यन्नवस्तनितं = नूतनो मेघध्वनिः तद्वन्मधुरः - कर्णसुखकरः गम्भीरः स्निग्धः = स्नेहजनकः घोषः शब्दो येषां ते तथा, 'नरसीहा' नरसिंहा:= नरेषु सिहाइव, एतत्साधर्म्यमाह – 'सीहविकमगई ' सिंहविक्रमगतयः सिंहस्येव विक्रमः = पराक्रमः गतिश्च येषां ते तथा ' अत्थमियपवररायसीहा' अस्तमित मवरराजसिंहाः = अस्तमिता : =अस्तं प्रापिताः पराजिताः प्रवराः - विशिष्टाः राजसिंहाः शूरराजानो यैस्ते तथा । ' सोम्मा' सौम्याः = सौम्यरूपाः ' वारवई - पुष्णचंदा' द्वारावती पूर्णचन्द्राः = द्वारकापुर्थ्याः आढादकत्वात् पूर्णचन्द्र स्वरूपाः, 'पुव्यकयतवष्पभावा' पूर्वकृततपःप्रभावात् पूर्वभवकृततपो माहात्म्यात् 'निविसंचियसुहा' निविष्ट सञ्चितसुखाः = निविष्टानि लब्धानि सञ्चितानि पूर्वभवोपार्जितानि सुखानि यैस्ते तथा 'अणेगवाससयमा उच्वंती ' अनेक वर्षशतायुष्मन्तः वर्षसहस्राद्यायुष्काः, 'भज्जाहिय जाणवयप्पहाणाहिं ' भार्याभिश्च जनपदमहातेजस्वी होते हैं तथा ( सारयणवधणियम हुरगंभीरणिद्धघोसा) जिनका बोलना शरदकालीन नवीनमेघध्वनि के जैसा कर्णसुखकर एवं स्निग्ध-स्नेहजनक होता है, तथा ( नरसीहा) जो मनुष्यों के बीच में सिंह के जैसे होते हैं तथा (सीह विक्रमगई) जिनका पराक्रम और गमन सिंह के समान होता है, तथा (अत्थमियपवररायसीहा) जो अपने पराक्रम से- प्रवर राजसिंहों को अस्तमित- पराजित कर देते हैं। तथा जो ( सोम्मा ) सौम्यरूप होते हैं, एवं ( वारवईपुण्णचंदा) द्वारकापुरी के आह्लादक होने के कारण जो पूर्णचन्द्रस्वरूप होते हैं (पुव्वकयतवप्पभावानिविट्ठसंचियसुहा) तथा - जो पूर्वकृत तप के प्रभाव से पहिले भवों में उपार्जित सुखों को प्राप्त करते हैं, तथा ( अणेगवास सयमा उच्चता ) जो सैकड़ो वर्षों की आयुवाले होते हैं, तथा ( भज्जाहिय जणवयपहाणा www.kobatirth.org 9 "6 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir " જેમના શબ્દો શરદઋતુના મેઘધ્વનિ જેવા મધુર અને સ્નિગ્ધ-સ્નેહ જનક हता, तेथी " नरसोहा " ने भाणुसोनी वय्ये सिड समान हुता. तथा " सोहविक्कमगई ” भेमनी गति भने बेमनुं पराउन सिंडे समान देतां, तथा अत्यमिपररायसीहा ” જે પેાતાના પરાક્રમ વડે શ્રેષ્ઠ રાજસિહોને " મહાત अरता हुता. तथा ? “ सोम्मा " सौभ्य इता, भने “ वारवई पुष्णचंदा દ્વારિકાનગરીને ઘ્યાનદ આપનાર હાવાને કારણે જે પૂર્ણ ચન્દ્ર હતા, पुव्वकय तप्पभावा निविदुमचियसुहा " तथा के पूर्वे रेसां तपना प्रभावधी भाग ળના ભવામાં ઉપાર્જિત સુખા પ્રાપ્ત કરે છે. તથા " अगवास सयमावतो " જે સેંકડો વર્ષોંના આયુષ્ય વાળા હોય છે, તથા भज्जादियजणव पहाणाहि << 66 For Private And Personal Use Only - " Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुशिनी टीका अ० ४ सू० ९ अब्रह्मसेविस्वरूपनिरूपणम् .४४३ प्रधानाभिः देश रत्न रूपाभिः = 'लालियंता' लाल्यमानाः = विलास्यमानाः 'अतुलसदफरिसरसरूवगंधेयअणुभवित्ता' अतुलशब्दरसख्यगन्धाश्च अनुभूय 'ते वि' तेऽपि-ताशा अपि 'अवितित्ता कामाण' अविताः कामानांकामभोगेषु तृप्तिरहिता एव ' उवणमंति मरणधम्म' मरणधर्ममुपनमन्ति ।। सू० ८॥ पुनः केऽब्रह्मसेविनः १ इत्याह 'भुज्जो मंडलिय ' इत्यादि मूलम्-भुजो मंडलियणरवरिंदा सबला सअंतेउरा सपरिसा सपुरोहियाऽमच्चडंडणायगसेणावइ - मंतिणीइ - कुसला णाणामणि रयण-विउलधणधण्णसंचय-निहिसमिद्धकोसा, रज्जसिरिविउलमणुभवित्ता विकोसंता बलेणमत्ता ते वि उवणमंति मरणधम्म अवितत्ता कामाणं ॥ सू० ९ ॥ ___टोका-'भुज्जो' भूयः पुनरपि · मंडलिय परवरिंदा' माण्डलिकनर वरेन्द्राः मण्डलाधिपतयः (सबला) सवला: सेना सहिताः स अंतेउरा' हि लालियंता) जो जनपदप्रधानभूत देशों में रत्नरूप से मानी गई अर्थात्-सर्वोत्कृष्ट स्त्रियों के साथ आनंद करते हैं-वैषयिक सुखों को भोगते हैं ( तेवि ) ऐसे वे बलदेव और वासुदेव भी ( अतुलसहफरिसरसरूवगंधे य अणुभवित्ता ) अतुल शब्द, स्पर्श, रस रूप, एवं गंध रूप विषयोंका अनुभव करके भी ( अवितत्तकामाणं ) कामभोगों की तृप्तिसे विहीन ही (उवणमंतिमरणधम्मं ) मरणधर्मको प्राप्त करते हैं ।सू०८॥ अब सूत्रकार " और कौन अब्रह्मसेवी होते हैं " इस बात को कहते हैं-'भुज्जो मंडलियणरवरिंदा' इत्यादि। टीकार्थः-( भुज्जो मंडलिय परवरिंदा ) फिर जो मंडलाधिपति लालियंता" भुभ्य भुण्य देशमा २ल्लसमान ती मेट अनुपम श्रीया साथे भान ४२ छे वैषयि सुभाने लागवे छे “ ते वि" मे ते ५२ मने वासुदेव पY " अतुलसदफरिसरसरूपगंधे य अणुभवित्ता" અનુપમ શબ્દ, સ્પર્શ. રસ, રૂપ અને ગંધ રૂપ વિષયને ઉપભેગ કરવા छतi ५९ " अवितत्तकामाणं " भलोगोथी मतृप्त मेवी हासतम "उव. णमंति मरणधम्म" मृत्यु पामे छ । सू. ८॥ वे सूत्रा२ मताये छ है भी प्रासेवी आधु जाय छ ? "भुज्जो मंडलियणरवरिंदा" त्यादि E -"भुज्जो मॉडलियणरवरिदा" भने से भ य छ, ते व For Private And Personal Use Only Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ४४४ व्याकरणसूत्रे 6 सान्तः पुराः = सस्त्रीकाः सपरिसा सपरिषदः सपरिवारा: 'सपूरोहिया मच्चडंडणायग सेगाव मंतिणीइकुसला ' सपुरोहितामात्य- दण्डनायकसेनापति मन्त्रिनीतिकुशलाः = तत्र पुरोहिताः = शान्तिकर्मकारिणः अमात्याः मन्त्रिणः दण्डनायकाः = को पालादयः सेनापतयः मन्त्रिणश्च कीदृशास्ते १ इत्याह- नीतिकुशलाः नीवौ सामदामादि रूपायां कुशलाः = निपुणाः, तैः सहिताः 'णाणामणिरयण विउलघणघण्यसंचयनिद्दिसमिद्धकोसा' नानामणिरत्नविपुलधनधान्यसञ्चय-निधि समृद्धकोशाः = चक्रवर्तिवर्णने कृतव्याख्यानमिदम् । 'विउलं विपुलां = महतीं ' रज्जसिरिं ' राज्यश्रियं = राज्यलक्ष्मीम् ' अणुभवित्ता' अनुभूय उपभुज्य 'विको संता ' विक्रोशन्तः = अन्यान् पीडयन्तः ' बलेण मत्ता' बलेन मत्ताः - बलगचिंता:, ' ते वि' तेऽपि मांडलिकादयः, 'अवितत्ता कामाणं' कामानामवितृप्ताः= कामोपभोगेषु तृप्तिरहिता एव, 'उवणमंति मरणधम्मं' मरणधर्ममुपनमन्ति ॥ ०९ || Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir होते हैं, वे कैसे होते हैं ? सो कहते हैं - ( सबला ) सेना सहित होते हैं, ( सअंतेउरा ) अंतःपुरसे जो युक्त होते हैं, ( सपरिसा ) परिवार सहित होते हैं, ( सपुरोहिया मच्चंडडणायग से णावइमं तिणीइकुसला ) जिनके शांतिकर्म कराने वाले पुरोहित अमात्य, दंडनायक और सेनापति साम दान आदि रूप राजनीति में कुशल हुआ करते हैं। तथा( णाणामणिरयणविडलघणघण्ण संचय निहिसमिद्धकोसा ) नानामणियों से, रत्नों से, विपुल धन धान्य के संचय से और निधियों से जिन का कोश समृद्ध रहता है, तथा जो ( विउलं) विपुल ( रज्जसिरिं ) राज्यश्री को ( अणुभवित्ता) भोग करके (विक्कोसता ) दूसरे व्यक्तियों को रातदिन पीडित किया करनेवाले तथा (बलेण मत्ता ) अपने बल से गर्वित बने हुए ( ते वि) इस प्रकार के वे भी मांडलिक आदि राजा होय छे, ते उड़े छे-" सबला " तेथे। सेनायुक्त होय छे, 66 स अंतेउरा " w'a:yzell yra Eru 5, “aqftarı ":ulkure yoı Tıu b, “agòfem चंडणाग सेणा मंतिणीइकुसला " भेभना शांति उर्भ કરાવનારા પુરોહિત અમાત્ય દડનાયક અને સેનાપતિ સામ, દામ, આદિ રૂપ રાજનીતિ જાણકાર હાય છે. તથા णाणामणिरयणवि उलघणघण्णसंचयनिहिसमिद्धकोसा " विविध મણિયા, રત્ને, વિપુલ ધન-ધાન્ય આદિના સ`ચયથી તથા નિષિયાથી भेभनो जलनो सहा समृद्ध रहे छे तथा ? " विउलं ” विधुस " रज्जसिरिं ” शल्य लक्ष्मीनो " अणुभवित्ता " उपलोग पुरे छे, “ विक्कोसंता " मील बोअने शतद्विवस पीडनाश तथा "बलेण मत्ता " पोताना माथी गर्विष्ठ मनेला भेवा 46 " For Private And Personal Use Only Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुशिनी टीका अ०४ सू० ११. युगलिकस्वरूपनिरूपणम् ४४५ अथ युगलिकानामपि तदेव दर्शयति-'भुज्जो उत्तरकुरु ' इत्यादि मूलम्-भुजो उत्तरकुरु-देवकुरु-वणविवर-पायचारिणो नरगणा भोगुत्तमा भोगलक्खणधरा भोगसस्सिरीया पसत्थ सोमपडिपुण्णरूवदरिसणिजा सुजायसव्वंगसुंदरंगा रतुप्पलपत्तकंतकरचरणकोमलतला सुपइट्ठियकुम्मचारुचलणा आणुपुब्बसुसंहयंगुलया उपणय-तणु-तंब-निद्ध-नखा संठियसुसिलिदृगूढगोंफा एणीकुरुविंदवत्तावहाणुपुठवजंघा समुग्गनिमग्गगूढजाणू गयससणसुजायसंनिभोरू वरवारणमत्ततुल्लविक्कम विलासियगई वरतुरगसुजायगुज्झदेसा आइण्णहयोव्वनिरुवलेवा पमुइयवरतुरयसीहअइरेगबट्टिय कडीगंगावत्तगदाहिणावत्ततरंगभंगुररविकिरणबहियविकोसायंत - पम्ह – गंभीरवियडनाभी साहयसोणंदमुसलदप्पणनिगरियवरकणगछरु सरिसवरवइरवलियमज्झा उज्जगसमसंहियजच्चतणुकसिणनिद्ध आदिजलडहसुकुमाल मउयरोमराई, झसविहगसुजायपीणकुच्छी झसोदरा पम्ह वियडणाभी संनयपासा संगयपासा सुंदरपासासुजायपासामितमाइय पणिरइयपासाअकरंडुय कणगरुयग निम्मलसुजायनिरुवहयदेहधारी कणगसिलातलपसत्थसमतलउवइयवित्थिण्णपिहुलवच्छा जुयसण्णिभ - पीणरइय (अबितत्ता कामाणं ) कामभोगों में अतृप्त बने रहकर ही ( मरणधम्मं. उवणमंति ) मरणधर्म को प्राप्त करते हैं ॥ सू०९॥ "ते वि" ते मांडलिs माल ! ५ " अवितत्ताकामाणं " अमलागायी मतृप्त सीन । " मरण धम्म उवणमंति" मृत्यु पामे छ । सू. ६ ॥ For Private And Personal Use Only Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir દ प्रश्नव्याकरणसूत्रे पीवर पट्टसंठिय सुसिलिट्ठ विसिट्ठलट्ठसुणिचिय थणथिरसु विद्धसंधीपुरबरफलिहवट्टिय भुजा ॥ सू० १० ॥ टीका:--' भुज्जो' भूयः पुनरपि ' उत्तरकुरुदेव कुरुवगविवरपायचारिणो ' उत्तरकुरु - देवकुरु - वनवित्ररपादचारिणः = उत्तरकुरूणां देवकुरूणां च क्षेत्र विशेषाणां यानि वनविवराणि वनस्थली कंन्दरादिस्थानानि तत्र वाहनाभावात् पादैः = चरणैश्चरन्ति ये ते तथा, नरगणाः युगलिकाः, 'भोगुत्तमा' भोगोत्तमाः भोगप्रधानाः ' भोगलक्खणधरा ' भोगलक्षणधराः स्वस्तिकादि भोगसूचकलक्षणवन्तः, ' भोगसस्सिरिया ' भोगस श्रीका:= भोगशोभाशालिनः ' पसत्थसोम्म पडि पुण्णरुवदरिसणिज्जा' प्रशस्तसौम्यपतिपूर्ण रूपदर्शनीयाः प्रशस्तं सौम्यम् = अतिमनोज्ञं प्रतिपूर्णसुपूर्ण रूपम् = आकृतिर्येषां ते तथा 'सुजायांगसुंदरंगा' अब सूत्रकार " भोगभूमियों के जीवों की भी यही हालत होती हैं " यह कहते हैं - ' भुज्जो उत्तरकुरुदेवकुरु ० इत्यादि० | टीकार्थ :- ( उत्तरकुरुदेव कुरुवणविवरपायचारिणो.) उत्तरकुरु तथा देवकुरु ये भोगभूमियां हैं। इन भोगभूमियों में वाहन सवारी - के अभाव से पैरों से ही वहां की वनस्थलियों में कन्दरा आदि स्थानों मेंभ्रमण किया करते हैं । ( नरगणा) ये युगलिक मनुष्यगण ( भोगुत्तमा ) उत्तम भोगवाले होते हैं। (भोगलक्खणधरा) स्वस्तिक आदि जो भोगसूचक चिन्ह हैं उनसे ये विशिष्ट होते हैं। अतः वे (भोगस स्सि रीया) भोगों को भोगना इसी में ये अपनी शोभा मानते हैं। (पसस्थसोम्म पडिण्णवदरिसणिज्जा ) अतिमनोज्ञ पूर्णरूप से ये दर्शनीय હવે સૂત્રકાર “ ભાગ ભૂમિયાના જીવાની પણ એ જ હાલત હોય છે” ते तावे छे. " भुज्जो उत्तरकुरू देवकुरु" इत्याहि. 66 " नरगणा टीअर्थ - " उत्तरकुरूदेव कुरुवणविवरपायचारिणो" उत्तर पुरु तथा हेवपुरु, मे ભાગ ભૂમિયા છે. તે ભાગ ભૂમિયામાં વાહનને અભાવે પગપાળા જ મુસાફરી થઈ શકે છે. તે પ્રદેશમાં રહેતાં “ " युगसि। भोगुत्तमा ” उत्तम लोग विलास सेवनारा होय छे. " भोगलक्खणधरा " स्वस्ति आदि ने लोग સૂચક ચિહ્નો હાય છે તેમનાથી તેઓ યુક્ત હોય છે. તેથી તેઃ भागससिरीया " लोगोनेो उपलोग श्वासां पोतानी शोला माने थे. " पसत्थ सोम्म पडिपुण्णरुव दरिसणिज्जा " तेथे अतिशय मनोहर भने सर्वांग सुंदर होय छे. सुजायसवगसुंदरंगा " तेमना हरेक शारीरिक मग सुंदर भने 66 For Private And Personal Use Only Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ०४ सू०४ ९ १, युगलिकस्वरूपनिरूपणम् ४५७ सुजातसर्वाङ्गसुन्दराङ्गाः = सुपुष्टसुन्दराऽवयवाः 'रत्तप्पलपत्तकैतकरचरणकोमलतला' रक्तोत्पल पत्रकान्तकरचरणकोमलतलाः = रक्तोत्पलस्य पत्रमिव कान्तानि= मुन्दराणि करचरणानां कोमलानि तलानि येषां ते तथा रक्तकमलदलतुल्य सुकोमलसुरक्त हस्तपादतलाः ' सुपइट्टियकुम्मचारुचलणा ' सुपतिष्ठितकूर्मचारुचरणाः = सुप्रतिष्ठितौ = शोभनाकृतिको कूर्मवन-उन्नतस्वेन कच्छपपीठवत् चारू-सुन्दरौ चरणौ येषां ते तथा, तथा 'अणुपुब्बसुसंहयंगुलिया' अनुपूर्वसुसंहतालिका अनुपूर्व अनुक्रमेण-गुरुलघुक्रमेण सुसंहताः सुमङ्गठिता अझुल्या हस्तपादाङ्गुलयो येषां ते तथा गुरुलघुन्यूनाधिकदोषरहितालिकाः 'उण्णयतणुतंबनिद्धनखा ' उन्नततनुताम्रस्निग्धनखाः = तत्र उन्नताः = मध्योन्नताः तनवः प्रतला स्ताम्राः ताम्रवर्णाः स्निग्धाः सुकोमलाः कान्ति युक्ताश्च नखा येषां ते तथा, 'संठियसुसिलिगुढगोफा' संस्थित मुश्लिष्टगूढगुल्फाः = संस्थितौ= सम्यक् संस्थानवन्तौ मुश्लिष्टौ-पुष्टत्वात् सुसंहतो अतएव गूढो अलक्षितौ गुल्फौ= घुटिके येषां ते तथा 'एणीकुरुविंदवत्तावट्टाणुपुष्वजंघा ' एणी कुरूविन्दवत्ता बडे सुन्दर होते हैं । ( सुजायसव्वंगसुंदरंगा ) इनके प्रत्येक शारीरिक अवयव सुन्दर एवं पुष्ट होते हैं । (रत्तुप्पलपत्तकंतकर चरणकोमलतला) इनके हाथ और पैरों के तलिये रक्तकमल के पत्ते के समान लाल और कोमल होते हैं। (सुपइट्ठियकुम्मचारु वरणा) इनके दोनों चरण शोभन आकृतिवाले एवं कूर्म की पीठ की तरह उन्नत होने से बड़े सुहावने होते हैं (:अणुपुश्वसुसंहयंगुलिया ) हाथ और पैरों की अंगुलिया इनकी गुरू लघु के क्रम से सुसंगठित रहती हैं, अर्थात् इनके हाथ पैरों की अंगुलियां गुरु, लघु-तथा न्यूनाधिक दोष से रहित होती हैं। ( उण्णयतणुतंयनिद्धनखा ) नख इन्हों के मध्य में उन्नत, पतले और ताम्रवर्ण के होते हैं । तथा कोमल और कान्ति सहित होते हैं। (संठियसुसिलिट्ठगूढगोंफा ) इनके दोनों घुटने मुसंस्थान वाले, पुष्ट पुष्ट डाय छे. " रतुप्पलपत्तकंतकरचरणकोमलतला" तेमनी येणी तया પગનાં તળિયાં લાલ કમલ પત્ર સમાન લાલ રંગનાં અને કેમળ હેાય છે. "सुपइद्रियकुम्मचारुचरणा" तेभाना माने ५॥ सु२ घाटपात, तथा आयमानी भी उन्नत हावाथी ! शामित राय छे. "अणुपुव्वसुसंहयंगुलिया" तेमना હાથપગની આંગળીઓ સુસંગઠિત હોય છે. એટલે કે ગુસ્તા લઘુતા આદિ દેથી २खित डाय छे, संप्रभा जाय “ उण्णयतणुतंबनिद्धनखा" तमना नम मध्यमा उन्नत, पाता, ताप, अम अने अन्तियुक्त डाय छे. “ संठिय सुसिलिट्ठगूढगोंफा " तेमनी मने धूट सभा, पुष्ट भने सडत तथा For Private And Personal Use Only Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४४८ प्रश्नव्याकरणस्ने वृत्तानुपूर्वजङ्घाः तत्र-एणी हरिणी, तस्याश्वेह जङ्घा ग्राखा, ते इच, तथा कुरुविन्दः तृणविशेषः, 'वत्ता'-अयं-देशीशब्दः स्त्रीलिङ्गः सूत्रबलनकं मूत्रवेष्टनयन्त्रमित्यर्थः । ताकला'' तकली.' इति भाषा प्रसिद्धा, ते इव वृत्तेवर्नुले अनुपूर्व आनुपूर्येण-अनुक्रमेण ऊर्ध्वाध्वस्थूले जघे येषां ते तथा। ‘समुग्गनिसग्गग्ढजाण ' समुद्गनिमग्नगढजानवा समुद्गः सपिधानःपिटकस्तद्वत् निमग्नेपुष्टत्वादन्तः संलीने अत एव गूढे अलक्षिते जानुनी येषां ते तथा सुपुष्टत्वादनुपलक्ष्य जानुका इत्यर्थः, ‘गयससण सुजायसंनिभोरू' गजश्वसनसुजातसंनिभोरवः-गजश्वसनं = हस्तिशुण्डादण्डः सः सुजात-सुसंस्थानयुक्तः तस्यसंनिभेन सदृशे ऊरुगीजापरिभागी येषां ते तथा । 'घरवारणमत्ततुल्लनिकमविलासियगई ' वरवारणमत्ततुल्यविक्रमविलासितगतयः = गजेन्द्रः स चासौ मत्तः = होने से सहन तथा अलक्षित होते हैं । अर्थात् दिखलाई नहीं पड़ते हैं ( एणीकुरुविंद्वत्तावट्टाणु पुव्वजंघा ) इनकी दोनों जंघाएँ हिरणी की जंघाओं के समान तथा कुरुविंद तृणविशेष के समान एवं वत्ता-तकली के समान वृत्त-गोलरहोती हैं । और क्रमशः वे ऊपररस्थूल रहती हैं। ( समुग्गनिसग्गगूढजाणू) इनके दोनों जानु पिधान-ढक्कन-महित पिटारे के समान पुष्ट होने के कारण भीतर ही भीतर छुपे हुए होते हैं अर्थात् गहरे होते हैं इसीलिये गूढ रहते हैं। (गय-ससण-मुजायसंनिभोरू) सुसंस्थानयुक्त हस्तिशुण्डादंड के समान जिनकी दोनों उरूसाथलें होती हैं, अर्थात्-जानु के उपर का भाग जिनका सुसंस्थान युक्त हाथी के शुण्डादंड के समान होता है (वर-वारण-मत्त-तुल्ल-विक्कमविलासिय-गई) मदमत्त गजेन्द्र के सदृश जिनका विक्रम-पराक्रम और लक्षित य छ, मेटले नपरे ५७ती नथी. “ एणीकुरुविंदवत्ताव णुपुव्वजंघा" तेमनी मने पाये। ७२७॥नी याने धामा समान तथा पुरुविह (તૃણવિશેષ) સમાન અને તકલી સમાન ગોળ ગોળ હોય છે, અને તે ઉપર ordi धीमे धीमे पधारे 151 यती नय छ. “ समुग्गनिसग्गगूढजाणू' तेमना બને જાનુઓ ઠાંકણાથી યુક્ત પટારાના જેવાં પુષ્ટ હેવાને કારણે અંદરને म २ छुपाये॥ २ छ-मटोai डावाने २६0 भू८ २९ छ. "गयमसण-सुजायसनिभोरू" मना मने सायणा सुघटित स्तिशुड६४ समान હેય છે, એટલે કે જાનુની ઉપરને ભાગ સુવ્યવસ્થિત હસ્તિસૂંઢ જે હોય છે. “वर वारण-मत्त-तुल्ल-विक्कम-विलासिय-गई " महोन्मत्त रेन्द्रनारे જેમનું પરાક્રમ હેય છે, અને તેને અનુરૂપ જ જેમની વિલાસયુક્ત ગતિ For Private And Personal Use Only Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org " सुदर्शिनी टीका अ. ४ सू० १० युगलिकस्वरूपनिरूपणम् ४४९ , मदान्वितस्तेन तुल्यः सदृशी विक्रमः = पराक्रमः, तद्वदेव विलासिता = विलासयुक्ता गतिर्येषां ते तथा अत्र गजस्य पराक्रमेण गत्या च सादृश्यं प्रदर्शितम्, तथा ' वरतुरगसुजायगुज्झदेसा ' वरतुरगसुजातगुह्यदेशाः = वरतुरगस्येव प्रशस्ताऽश्वस्येव सुजातः सुसंस्थितः लघुत्वेन गुप्त इत्यर्थः, गुह्यदेशो येषां ते तथा ' आण्णहयोन्त्र निरुलेवा' आकीर्णहयइव = जातिमानश्व इव निरूपकेपा:= मललेपविवर्जिताः 'पमुइयवर तुरयसीहअइरेगवट्टियकडी' प्रमुदिततुरग सिंहातिरेकवर्तितकटयः = प्रमुदिताः = प्रहृष्टा वरतुरगाः = जात्यश्वाः सिंहाः = केसरिणस्तेभ्योऽतिरेकेण = आधिक्येन वर्तिता = वर्तुला कटिः = कटिप्रदेशो येषां ते तथा 'गंगावतगदाहिणाव तरंगभंगुररवि किरणवोहिया विकासात म्हगंभीरविडनाभी' गङ्गाऽऽवर्तकद क्षि गावर्त तरङ्गभङ्ग र विकिरणवोधितविकोशामानपद्मगम्भीरविकटनाभयः, तत्र गङ्गावर्तकाः = गङ्गा नधा जलभ्रमः, स च दक्षिणावर्तः तरङ्गभङ्गुरः तरङ्गे हुएः = वक्र तद्वत्, तथा रविकिरणैः = सूर्यकिरणैधितं विकासितं विकासावस्थां प्राप्नुवत् इत्यर्थः, अत एव - त्रिकोशाउसी अनुरूप ही जिनकी विलासयुक्त गति होती है, तथा (वर-तुरगसुजा गुज्झदेसा) प्रशस्त घोड़ेके गुह्य भाग के समान जिनका गुह्यभाग लघु होनेके कारण गुप्त रहता है। (आइणयोग्यनिरुव ठेवा) तथा जातिमान् अश्वकी तरह वह गुह्यभाग जिनका मलके लेपसे विवर्जित रहता है । (पमुइयवरतुरयसीय अइरेगवहियकडी) अत्यंत हर्ष संपन्न जात्यश्वकी तथा सिंहकी कटि से भी अधिक गोल जिनकी कटि होती है, तथा (गंगाव दाहिणात तरंगभंगुर रविकिरण बोहियवियोसायंत पम्हगंभीरवियनाभी) दक्षिणावर्त एवं तरहोसे भंगुर गंगा नदी के जलभ्रम - जलावर्त्त के समान, तथा -- सूर्य किरणों से मुकुलित अवस्था को छोड़कर विकासावस्था को प्राप्त हुए पद्म के समान गंभीर और विका सुन्दर जिनका होय छे, " वरतुरग -- सुजायगुज्झदेसा " तेमनेो शुद्ध भाग प्रशस्त घोडाना गुलाग समान बघु होवाने अरखे गुप्त रहे छे, “आइण्णहयोच्च निरूवलेवा ” लतवान घोडाना गुलागनी प्रेम तेभनो गुह्य लोग पशु भजन सेपथी रहित होय छे. " पमुइयवर तुरयसीय अइरेगवट्टियकडी અતિશય હે સપન્ન. જાતવાન ઘેાડા તથા સિંહની કટ કરતાં પણ જેમની કિટ વધારે गोण होय छे, तथा " गंगावत्तग- दाहिणवित्त तरंग-भंगुर - रविकिरण- बोहिय विको सायं तपम्हगंभीरविडनाभी " दृक्षिणुना पवनोथी तथा तरगोधी लंगुर ગંગા નદીના જલભ્રમ-જળ વમળ સમાન, તથા ખીડાયેલી અવસ્થાના ત્યાગ કરીને સૂર્યના કિરાને કારણે વિકાસાવસ્થાને પામેલ કમળા સમાન ગભીર >> Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only = Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir .. . प्रश्नव्याकरणस्ये यमानं मुकुलावस्थां विमुञ्चत् यत् पद्मं तद्वद् गम्भीरा विकटा = सुन्दरा च नाभि येषां ते तथा, 'साध्य सोणंद मुसलदप्पणनिगरियवरकणगछरुसरिसवरवहर बलियमज्जा' संहृतसौनन्दमुसलदर्पणनिगरितवरकनकत्सरुसदृशवरवज्र वलितमध्याः = तत्र संहृतं = संकोचितं सौनन्दं = त्रिकाष्ठिका ‘तिपाई ' इतिप्रसिद्ध मुसलं-प्रसिद्ध. दपणं = दर्पणगण्डः-दर्पणदण्डः निगरितवरकनकत्सरुः निगरितंसर्वथा शोधितम् , अतएव-वरकनक-जात्यसुवर्ण तस्य त्सरुः = खड्गमुष्टिश्चत्यतैः सदृशो वरवज्रवच्चवलितः = वक्रः कृशश्च मध्या-तनुमध्यभागो येषां ते तथा प्रतल कटय इत्यर्थः, 'उज्जगसमसंहियजच्चतणुकसिणणिद्धआदिज्जलडह मुकुमालमउयरोमराई ' ऋजुकसमसंहितजात्यतनुकृष्णस्निग्धाऽदेयलहड सुकुमालमृदुकरोमराजयः = तत्र ऋजुकाः अकुटिलाः समाः समुचित-प्रमागाः संहिता:-सुघनाः जात्यतनवः = स्वभावतोऽतिमूक्ष्माः कृष्णाः = कृष्णवर्णाः स्निग्धाः चिकण आदेयाः प्रशस्तालडहा:-सुन्दराः मुकुमालाः कमलबत्कोमलाः मृदुकाः= अति कोमलाः रोमराजयः रोम्णां श्रेणयो येषां ते तथा,": झसविहगसु. जायपीणकुच्छी ' झपविहगमुजातपीनकुक्षयः = झपविहगवत्-मत्स्यवत् पक्षिवच्च नाभिप्रदेश होता है । तथा-(साहय सोणंदमुसलदप्पणनिगरियवरकणग छरु सरिस वरवहर बलियमज्झा) जिनका मध्यभाग संकोचित तिपाई के समान, दर्पणदण्ड के समान, एवं शोधित जात्यस्वर्ण की खङ्गमुष्टि के समान, तथा उत्तम वज्र के समान वक्र और कृश होता है। तथा ( उजग-सम-संहिय-जच्च-तणु-कसिण-णिद्ध-आदिज्ज-लडह-सुकुमाल-मउय-रोमराई ) जिननी रोमराजि अकुटिल, समुचितप्रमाणोपेत, घनीभूत, स्वभावतःअतिसूक्ष्म, काली, चिकनी, आदेय, सुन्दर, कमल के समान कोमल और अत्यंत कोमल होती है । ( झसविहगमुजायपीणकुच्छी) तथा-जिनकी कुक्षि-उदर का एक देश मत्स्य की और पक्षी भने वि४८-सु४२ भनी नलि प्रदेश राय छ, तथा “ साहयसोणंदमुसल दुप्पणनिगरियवरकणगछरुसरिसवरवइरबलियमज्झा " मनो मध्य ला સચિત તિપાઈ સમાન, દર્પણ દંડ સમાન, તાવેલા સુવર્ણની તલવારની મૂઠ समान, तथा उत्तम. १०० समान १४ मने पाती हाय . "उज्जग-समसंहिय-जच्च-तणु-कसिण-णिद्ध-आदिब्ज-लडह-सुकुमाल-मस्य-रोमराई " तथा જેમની રેમરાજિ અકુટિલ, સમપ્રમાણુ, ઘનીભૂત કુદરતી રીતે જ અતિ સૂમ, કાળી, સુંવાળી, આદેય, સુંદર, કમળ સમાન કોમળ અને અત્યંત કમળ डाय छे. “झसविहगसुजायपीणकुच्छी” तथा रेमनी मुक्षि (४२ने मे For Private And Personal Use Only Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० ४ सू० १० युगलिकस्वरूपनिरूपणम् सुजाता=सुन्दरः पीनः पुष्टश्च कुक्षिः-उदरैकदेशो येषां ते तथा । तथा 'झपोयरा' झपोदराः-झपस्योदरवदुदरं येषां ते तथा कृशोदरा इत्यर्थः, पम्हरियडणाभी' पद्मविकटनाभयः पद्मवत् कमलकोषवत् विकटा-मुन्दरा नाभि येषां ते तथा, 'संनयपासा' सन्नतपार्थाः पुष्टत्वादधो नमत्पार्श्वभागाः 'संगयपासा' सङ्गतपार्थाः मुमिलितपार्श्वभागाः, अतएव 'सुंदरपासा' सुन्दरपार्थाः 'सुनायपासा' मुजातपार्थाः = सुसंस्थितपाचीः ‘मियमाश्यपीणरइयपासा' मितमात्रिकपीतरतिदपार्था:-मितौ-मानोपेतौ, मात्रिको = मात्रायुक्तौ-परिमाणसंपन्नौ पीनौसुपुष्टौ रतिदौ = रमणीयौ पार्श्वभागौ येषां ते तथा 'अकरंडुयकणगरुयगनिम्मलसुजायनिरुवहयदेहधारी ' अकरण्डुकनकरुचकनिमलसुजातनिरुप - हतदेहधारिणः = तत्र अकरण्डुकं = पुष्टत्वादनुपलक्ष्यपृष्ठपार्थाद्यस्थिकं तथा कनकरुचकनिमलं, कनकरुचकं सुवर्णाभरणं तद्वत् निर्मल सुजातं शोभनं निरुपहतं चम्नीरोगं देहं शरीरं धारयन्ति ये ते तथा । तथा · कणगसिलातलपसत्थसम की कुक्षि के समान सुन्दर और पुष्ट होती है। तथा (झसोयरा) जिनका उदर मत्स्य के उदर के समान कृश होता है । तथा ( पम्हवियडणाभी ) जिनकी नाभि कमल के कोष की तरह गंभीर होती है । तथा (संनयपासा ) पुष्ट होने के कारण जिनके दोनों पार्श्वभाग नीचे की ओर झुके रहते हैं इसीलिये (संगयपासा) जो परस्परमें मिले हुए जैसे प्रतीत होते हैं और बड़े सुहावने लगते हैं तथा (सुजायपासा) जिनके दोनों पोश्र्व भागोंका आकार भी बडा सुहावना लगता है, तथा (मियमाइय पीणरइय पासा ) वे दोनों पार्श्वभाग मान और प्रमाणसे युक्त और पीन पुष्ट होते हैं तथा रमणी होते हैं । तथा(अकरंड-कण-गरुयग-निम्मल सुजाय -निरुवहय-देहधारी) पुष्ट होने के कारण जिनकी रीढको और पार्श्वभाग की अस्थियां दिखलाई नहीं देती हैं, तथा जो सुवर्णाभरण के ભાગ) મત્સ્ય તથા પક્ષીની કુક્ષિ સમાન સુંદર અને પુષ્ટ હોય છે. તથા " झसोयरा” भनु ६२ मत्स्यना १२ समान श य छे. तथा “ पम्हवियडणाभी" भनी नालि मानवी समीर हाय छ, नश! “सनयपासा" पुष्ट डावाने रेमना मन्ने पाय ला नीयनी मामे अदा २ छ, भने तेथी "संगयपासा" मापसभा भजी गया हय मेवा लागेछ तथा घ! सु४२ सागे छ. तथा “ सुजायपासा" तेमनाने लामो ५७मान। मा.२ ५४ घो। सुद२ वा छ, तथा “मियमाइयपीनरइ-पासा" ते मन પર્ધભાગે પ્રમાણ અને માનથી યુક્ત-પ્રમાણસરનાં, અને પીન-પુષ્ટ અને २मणीय य छे. " अकरंडु-कण गरुयग निम्मल--सुजाय--निरुवय- देहधारी" શરીર પુષ્ટ હેવાને કારણે જેમની કરેડ તથા પાસળીનાં હાડકાં દેખાતાં નથી For Private And Personal Use Only Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ४२ प्राण्याकरण सू तउवयवित्थिष्ण पिहुलवच्छा 'कनकशिलातल - प्रशस्त समतलोपचित विस्तीर्ण पृथुलवक्षसः = कनकशिलातलं = सुवर्णशिलापट्टकमित्र प्रशस्तं समतलम् - अविषमं उपचितं - पुष्टं - विस्तीर्ण= विशालं तथा पृथुले स्थूलं वक्षःक्षः स्थलं येषां ते तथा 'जय संणिभ पीणरइय- पीवर - पउट्ट संद्विय-सुसिलिट्ठ - विसिद्धलट्ठ - मुणिचिय- पण थिर मुबंध, संधी ' तत्र ' जुयसंणिम ' युगसन्निभौ - युगकाष्ठतुल्यौ 'पीण' पीनौ स्थूलौ 'रइय' रतिदौ= रमणीयौ पीवरौ पुष्टौ 'पउट्ट' प्रकोष्ठौ हस्तमणिबन्धप्रदेशतथा 'संठिय' संस्थिताः = संस्थानविशेषयुक्ताः 'सुसिलिट्ठ' मुश्लिष्टाः सुमिलिताः 'विसिट्ठलट्ठ' विशिष्टलष्टा:= सुमनोहराः 'सुणिचिय' सुनिचिताः = सुसंगठिताः घनाः 'थिर ' स्थिरा=सुहाः सुबन्धाः शोभनावयवसन्निवेशयुक्ताः सन्धयः = अस्थि सन्धानानि येषां ते तथा 'पुरवरफलिह-ट्टियभुया पुरवरपरिघवर्तित भुजाः=पुरवरपरिववत्= नगरद्वार कपाटरोधनकाष्ठवद् वर्तितौ वर्तुलौ भुजौ = वाहू येषां ते तथा । एतादृशास्तेऽपि कामभोगैरतृप्ता एव मरणधर्ममुपनमन्तीतिसम्बन्धः || सू० १० ॥ 4 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समान निर्मल, सुन्दर रोगरहित शरीर के धारी होते हैं (कणगसिलातलपसत्थसमतल उचइयविस्थिणपिहुलवच्छा ) तथा जिनका वक्षस्थल सुवर्णशिला के पट्टक समान प्रशस्त एवं समतल वाला होता है उपचित-पुष्ट होता है, विस्तीर्ण होता है तथा पृथुल- थूल - मोटाहोता है (जयसंणीभपीण-रइयपीवर उडुठियमुसिलिगुवि सिद्वलद्वसुणिचिघणरबंध संधी) इनका मणिबंध प्रदेश जुआ के समान स्थूल, रमणीय और पुष्ट होता है। तथा इनके हाड़ों की संधियां संस्थानविशेष से युक्त, परस्पर अच्छी तरह मिली हुई, मनोहर, सुसंगठित, घनीभूत, सुदृढ़ एवं अच्छी अवयवों की रचना से युक्त होती है । (पुरवर फलिहवा ) इनके दोनों बाहु नगर के द्वार के उत्तम For Private And Personal Use Only - “ જેએ સૂવણના આભૂષણા જેવુ' નિમ`ળ, સુંદર અને નીરોગી શરીર ધરાવે छे, " कणगसिलातलप सत्य समतल उवइयवित्थिष्ण पिहुलवच्छा " તથા જેમની છાતીના ભાગ સુવર્ણ શિલા જેવા પ્રશસ્ત સમતલ, ઉપચિત-પુષ્ટ, વિસ્તીણુ विशाण तथा पृथुल - मोटो होय छे, “जुयस णिम-पीण - रइय- पीवर - उट्ठ- सठिय सुसिलिट्ठ - विसि - लट्ठ - सुणिचिय- घणथिर - सुबंधसंधी ” तेमना मला धूसरी नेवा સ્થૂળ, રમણીય અને પુષ્ટ હાય છે. તથા તેમનાં અસ્થિયાના સાંધા સુવ્યવસ્થિત परस्परस सारी रीते लेडायेस, मनोहर, सुसंगठित, घनीलूत, सुदृढ, मने अवयवोनी सुंदर स्यना वाजा होय छे " पुरवरफलिहवट्टियभुया " तेभनी અને ભુજા નગરના દરવાજાના ઉત્તમ ભાગળ જેવી ગાળાકાર હાય છે, એવા Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० ४ सू० ११ युगलिकस्वरूपनिरूपणम् पुनस्ते कीदृशाः ? इत्याह-'भुयगीसर' इत्यादि । मूलम्-भुयगीसर-विउल-भोग-आयाण-फलिह-उच्छृढदी. हबाहू-रत्ततलोवइय-मउय-मंसल-सुजाय-लक्खणपसत्थ-अच्छिदजालपाणी पीवर-सुजाय-कोमल-वरंगुली तंबतलिणसुइरुइल निद्धणखा निद्वपाणिलेहा चंदपाणिलेहा सूरपाणिलेहा संखपाणिलेहा चक्रपाणिलेहा दिसा सोवत्थियपाणिलेहा रवि ससि-संख-वरचक्कदिसा सोवत्थिय-विभत्त-सुरइय--पाणिलेहा वरमहिसवराहसीह-सहलरिसह नागवर-पडिपुण्ण-विउल-खंधा चउरंगुलप्पमाणकंबुवरसरिसगीवा अवटिय-सुविभत्त-चित्त समंसुउवचियमंसल-पसत्थ-सदल-विउल-हणुया ओयचिय सिलप्पवालबिंबफलसंनिभाऽधरोटा पंड्डुर-ससि-सकल-विमल संखगोखीर-फेणकुंददगरयमुणालिया घवल-दंतसेढी अखंड दंता अफुडियदंता अविरलदंता सुणिद्धदंता सुजायदंता एगदंतसेढिव अणेगदंता हुयवहानद्धंत-धोयतत्ततवणिज्जरततलतालुजाहा गरुलायय उज्जुतुंगनासा अवदालियपुंडरीय णयणा विकोसियधवलपत्तलच्छा आणामिय - चावरुइल किण्हन्भराइ-संठिय-संगयाययं-सुजाय-भूमगा--अल्लीणपमाणजुत्तसवणा सुस्सवणा पीयमंसलकवोलदेसभागा अविरुग्गय बालचंदसंठियमहानिलाडा उडुवइ-पडिपुण्ण-सोम्मवयणा छत्तागारुत्तमंगदेसा घणनिचिय सुबद्धलक्खणुण्णय-कूडागार निभपिडियम्ग-सिराहयवहनिद्धंत - धोयतत्ततवीणज्जरत्तकेसंत. परिघा (भोगल) के समान गोलरहोते हैं। ऐसे ये भोगभूमिके मनुष्य भी कामभोगोंसे अतृप्त होकर ही मरण धर्मको प्राप्त करते हैं ।सू०१०॥ તે ભેગભૂમિનાં લેકે પણ કામ ભેગી અવત રહીને જ મૃત્યુ પામે છે સૂબા For Private And Personal Use Only Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे केसभूमी सामलि-पोंडघण-निचियच्छोडिय-मिउविसय पसस्थसुहमलक्खणसुगंधिसुंदरभुयमोयगभिंग-नीलकज्जलपहिट्ठ भमरगण-निद्धनिउरंब-निचियकुंचिय - पयाहिणावत्तमुद्धसिरया सुजाय-सुविभत्त-संगयंगा-लक्खणवंजणगुणोववेया पसस्थबत्तीसलक्खणधरा हंसस्सराकोचस्सरा दंदुहिस्सरासीहस्सरा मेहस्सरा ओघस्सरा सुस्सरा सुस्सरनिग्घोसा बजरिसह नारायसंघयणा समचउरंससंठाणसंठिया घायउज्जो वियंगमंगा पसत्थछवी निरायंका कंकगहणी कवायपरिणामा सउणिपोसापिटुंतरोरुपरिणया पउमुप्पल--सारसगंध-साससुरभिवयणा अणुलोमवाउवेगा अवदायनिद्धकोसा विग्गहियउण्णाय कुच्छीअमयरसफलाहारी तिगाउय समुच्छियातिपलिओवमट्टितिया तिण्णिय पलिओवमाइं परमाउं पालइत्ता तेवि उवणमंति मरणधम्म अवित्तिता कामाणं ॥ सू० ११ ॥ टीकाः-'भुयगी-सर-विउल-भोग-आयाण-फलिह-उच्छूढदीवाहू' तत्र'भुयगीसर' भुजगेश्वरः सर्पराजस्तस्य यो विपुलो भोगः महान् कायः तद्वत् तथा ' आयाण ' आन-आदीयत इत्यादानम् आदेयः-मुन्दरो यः ‘फलिह' परिघा-कपाटरोधनकाष्ठं, स च 'उच्छूट' उत्तिप्तः स्वस्थानाद् वहिनि कासितः, तद्वत् 'दीह' दोर्षों बाहू येषां ते तथा भुजगतुल्यपरिघाल्यलम्बमान फिर ये भोगभूमि के जीव कैसे होते हैं ? इसी विषय को सूत्रकार पुनःस्पष्ट करते हैं-'भुयगीसर ० ' इत्यादि । टीकार्थः-- ( भुयगीसर-विउलभोग-आयाण-फलिह-उच्छूढदीह . पाहू ) सर्पराज के विपुल शरीर के समान तथा अपने स्थान से बहार किये हुए सुन्दर परिघा के समान, जिनकी दोनों भुजायें दीर्घ-लंबी તે ગભૂમિના જ કેવા હોય છે, તેનું સૂત્રકાર હજી વધુ સ્પષ્ટીકરણ ४३ छ " भुयगीसर " त्याहि. टी -'भुयगीसर-विउल-भोग-आयाणफलिह-उच्छूढदीह-शाहू" हेमनी ने ભુજાઓ સર્પરાજના વિશાળ શરીર જેવી, તથા તેના સ્થાનેથી બહાર કાઢવામાં For Private And Personal Use Only Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ----- - - सुदर्शिनी टीका अ० ४ सू० ११ युगलिकस्वरूपनिरूपणम् भुजाइत्यर्थः, 'रत्ततलोवइयमउयमंसलमुजायलकखणपसत्थअच्छिद्दजालपाणी' तत्र- 'रत्ततल' रक्ततलौ लोहितकरतलौ ‘उवइय' उपचितौ-पुष्टौ 'मउय' मृदुको-कोमलौ ' मसल ' मांसलौ अदृष्ट नाडी जालौ 'सुजाय ' मुजातीसुनिष्पन्नौ 'लक्खणपसत्थ' लक्षण प्रशस्तौ अनेक शुभलक्षणैः प्रकृष्टौ 'अच्छिद्दजालाअछिद्रजालौ = परस्परं मिलितत्वात् छिद्ररहिताङ्गुलिसमुदायवन्तौ पाणी = हस्तौ येषां ते तथा 'पीवरसुजायकोमलवरंगुलि ' पीवरसुजातकोमलवरागुलयः = मुपुष्टसुन्दरकोमलाइगुलिवन्तः ' तंतलिणसुइरुइलनिद्वणखा' ताम्रतलिनशुचिरुचिरस्निग्ध नखाः-ताम्राः = रक्ताः तलिनाः प्रतलाः शुचयः-निर्मलाः रुचिराः कान्तिमन्तः स्निग्धाश्च-चिक्कणा नखा येषां ते तथा, 'निद्वपाणिलेहा' स्निग्धपाणिरेखाः = चिकणहस्तरेखावन्तः 'चंदपाणिलेहा' चन्द्रपाणिरेखाः= चन्द्रः चन्द्राकारा पाणौ रेखा येषां ते तथा 'सरपाणिलेहा' सरपाणिरेखाः= होती हैं तथा-( रत्ततलोव इयमउयमंसलसुजायलक्खणपसत्य अच्छि हजालपाणी ) जिनके दोनों हाथ लोहित तलियों वाले, पुष्ट भरे हुएकोपलनासे युक्त, मांसल-पुष्टअदृष्टनाडीजालवाले, अच्छे रूप में निष्पन्न हुए, अनेक शुभलक्षगों से प्रशस्त एवं छिद्ररहित अंगुलियों वाले होते हैं तथा- (पीवरसुजायकोमलवरंगुली) इनकी जो अंगुलियां होती हैं वे सुपुष्ट, सुन्दर एवं कोमल होती हैं ! (तंबतलिणसुहरुइलनिदनखा) इन अंगुलियों के जो नख होते हैं वे ताम्र वर्णवाले होते हैं तलिनपतले होते हैं, निर्मल होते हैं, कान्तिमान होते हैं तथा स्निग्ध-चिकने होते हैं । ( गिद्धपाणिलेहा ) हाथों में जो रेखाएँ होती हैं वे भी चिकनी होती हैं। ( चंदपाणिलेहा ) तथा इनके हाथों की ये रेखाएँ कितनीकनो चन्द्राकार होती हैं ( सूरपाणिलेहा ) कितनीक सूर्य के आकार की होती परिधा (गणे! ) समान 4-airl डाय छ, तथा " रत्ततलोवइयमउग्रमंसल सुजाय-लक्खण-पसत्थ-अच्छिद-जालाणी" मना मनाथ दास थेगी, પુષ્ટ, કમળ. માંસલ-નસે તથા કેશવાહિનીઓની જાળ ન દેખી શકાય તેવા સુઘટિત, અનેક શુભ લક્ષણથી પ્રશસ્ત, અને છિદ્ર રહિત આંગળી વાળા हाय छ, तथा “ पीवर-सुजाय-कोमल-करंगुली" तमना थनी मांगजिये। सुपुष्ट, सुह२ भने म हाय छे. "तंबतलिणसुइरूइलनिद्धनखो" मांगजियोनी नम तामवाय छ ' तलिन-याताय छ. नि डाय छ, सुपमने न्ति युक्त डाय छे. “णिद्धपाणिलेहो" तेमन थमारे २मारा जय छत पण स्निग्ध, सुवाणी डाय छे. "चंदपाणिलेहा " तेमना 6५२नी ४सी३ २मामा:यन्द्रा२, " सूरपाणिलेहा" इसी सूय २, 32ी For Private And Personal Use Only Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्र सूर्याकारहस्तरेखावन्तः 'संखपाणिलेहा' शलपाणिरेखाः शङ्खाकारहस्तरेखावन्तः · चक्कपाणिलेहा' चक्रपाणिरेखाः चक्राकारहस्तरेखावन्तः ‘दिसासोवस्थियपाणिलेहा ' दिकस्वस्तिकपाणिरेखाः दिकस्वस्तिकः दक्षिणावर्तस्वस्तिकः-दक्षिणास्वस्तिकः तदाकारा पाणिरेखा येषां ते तथा 'रविससिसंग्ववरचक्कदिसा सोवत्थियविभत्तसुरइयपाणिलेहा' रविशशिशङ्खवरचक्रदिकस्वस्तिकविभक्तसुरचितपाणिरेखाः सूर्यचन्द्रशङ्खचक्रदक्षिणावर्तस्वस्तिकलक्षणाः विभक्ताः स्पष्टाः सुरतिदाः सुखदाः पाणिरेखाः हस्तरेखा येषां ते तथा 'वरमहिसवराहसीहसलरिसहनागवरपडिपुण्ण-विउल-खंधा ' वरमहिषवराहसिंहशादलऋषभनागवरप्रतिपूर्णी पुलस्कन्धाः = तत्र वरमहिषा:=पुष्टशरीरमहिषाः वराहाः शूकराः सिंहाः = प्रसिद्धाः शार्दूलाः व्याविशेषाः ऋषभाः वलीवर्दाः नागवराः प्रधानहस्तिनः तेपामिव प्रतिपूर्णः = परिणदो विपुलः विशालः स्कन्धो येषां ते तथा 'चरंगुलप्पमाणकंबुवरसरिसगीवा ' चतुरङ्गुलिप्रमाणकम्बुवरसदृशग्रीवाः - चतरालिप्रमाणा कम्बुबरेण-प्रधानशखेन सदृशी-तुल्या च ग्रीका-येषां ते तथा, 'अबटिय सुविभहैं, तथा ( संखपाणिलेहा ) कितनिक शंव के आकार जैसा होती हैं । (चक्कागिले हा ) कितनीक ऐसी होती हैं कि जिनका आकार चक्र के जैसा होता है । तथा (दिसासोत्थियपाणिलेहा ) कितनोक ऐमी होती है जो दक्षिणावर्त स्वतिक के आकार में रहती हैं । इस तरह इनके हाथों की सूर्य, चंद्र, शंख, चक्र तथा दक्षिणावर्तस्वतिक के आकार की ये रेखाएँ स्पष्ट होती हैं और सुख देनेवाली होती हैं । तथा-(वरमहिस वराह - सीहसलरिसहनागवरपडिपुण्णविउलखंधा ) इनके जो स्कंध होते हैं वे पुष्टशरीरवाले महिष, वराह, सिंह, बैल, प्रधान हाथी इनके स्कंधों के समान परिणद्ध-पुष्ट और विशाल होते है। तथा ( चउरंगुलप्पमाणकंधुवरसरिसगीवा) चार अंगुल प्रमाणवाले उत्तम शंख के समान इनकी ग्रीवा होती है। (अवद्विसुविभसचित्तसमंसू ) तथा " संखपाणिलेहा" भा४।२, “ चक्कपाणिलेहा " 2ी २२४१४१२. भने “ दिसासोत्थियपाणिलेहा " सी क्षिात स्वस्तिना 201२नी राय छे. तेमना हथिनी त यन्द्र।।२ माहिरेमा स्पष्ट भने सुमह डोय छे. तथा " वरमहिस-वराह-सीह-सफुलरिसह-नागवर-पडिपुण्ण-विउलखंधा " तेमना ! પુષ્ટ શરીર વાળા પાડા, વરાહ, સિંહ, બળદ અને ગજેન્દ્રના ઔધો જેવાં पुट मने निशाण सोय छे. तथा " चउरगुलप्पमाणकंबुवरसरिसगीवा" तेमनी श्रीवा यार सुख प्रभा] l उत्तम शमवी सोय छे. “ अवद्विय For Private And Personal Use Only Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सुदशिनी टीका ० ४ सू० ११ युगलिकस्वरूपनिरूपणम् ४५७ , तचित्तसमंत्र' अवस्थितविक चित्रश्नकाः - अवस्थितानि सम्यक्तया यथास्थानं जातानि सुविभक्तानि शोभना विभागेन स्थितानि चित्राणि शोभया विस्मयजनकानि श्मश्रूणि येषां ते तथा । 'उचचियमंसलपसत्य सद्दूलविउलहणुया ' उपचितमांसलमशस्ताशार्दूलविपुलहनुकाः = उपचितः पुष्टः अतएव मांसल : = मांसयुक्तः प्रशस्तः तथा शालस्येव विपुलट हनुः = ओष्ठाऽधोभागो येषां ते तथा 'ओसिलवाल विफलसंनिभाधरोडा ओयनिय शिलाप्रवालविम्बफलसनिभाधरोष्ठा = ओविय' इति विशिष्टपरिकर्मितं सुसंस्कृतं यच्छिलावा= विदुः तथा विफलं च ताभ्यां सन्निभः सदृशो रक्तोऽधरीष्ठो येषां ते तथा 'पंडुरससिसकल- विमलसंखगोखीर - फेणकुंददगरयमुणालिया - धवलदंतसेढी ' पाण्डुरश शिशकल विगलगोक्षीरफेन कुन्दद करजोमृणालिका धवलदन्ताश्रेणयः = तत्रपाण्डुरं=वेतं यत् शशिशकलं=चन्द्रखण्डं तथा विमलशङ्खः प्रतीतः गोक्षीरं = गोदुग्धं फेनः = नदी जलादिफेनः कुन्दं = श्वेतपुष्प विशेषः दकरजः = जलविन्दुः मृणालिका = इनकी दादी के जो बाल होते हैं वे अच्छी तरह से जहां जिन्हें उत्पन्न होना चाहिये यहां उत्पन्न होते हैं, अच्छी तरह विभागरूप से स्थित रहते हैं, और अपनी शोभा से विस्मयजनक होते हैं। तथा ( उबचियसत्यमचिहणुया) इनके होठों के नीचे का जो भाग होता है यह पुष्ट होता है, मांसल होता है, प्रशस्त-सुहावना होता है और सिंह की दादी के समान विपुल विस्तृत होता है। (ओयवियसिलप्पवालविचफलसंनिभघरोट्टा ) तथा इनके जो अधरोष्ट होते हैं वे अच्छी तरह परिकर्मित किये हुए मूंगे के समान और विम्बफल - कुंदरु के समान रक्त होते हैं ( पंडुरससिसकलविमल संखगो खीर फेण कुंददगारमुलियाघवलनसेडो ) तथा इनका जो दांतों की पंक्ति होती है वह शुभ्र चंद्रमा के खंड जैसी, निर्मल शंख जैसी, गाय के दूध जैसी, 33 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुभितचित्तसमंसू તથા તેમની દાઢીના વાળ જ્યાં જેમને ઉગવુ· જોઈ એ ત્યાં જ ઉગેલા હોય છે, સારી રીતે વિભાજિત હોય છે, અને તેમની શાભા “ उत्रचियमंसल सद्दूलविउल हणुया અદ્ભુત હોય છે, તથા તેમના હાડની નીચેના ભાગ પુષ્ટ, માંસલ, શેભિતા, અને સિંહની દાઢીના જેવે विभुतविस्तृत होय . आयवियसिलवाल फिर से निभावरोट्ठा " तेमना છે. '. અધર ડોડ સારી રીતે તૈયાર કરેલ પરવાળા જેવા તથા બિમ્બફળ-કુદરા જેવાં साझ डे!य छे. पंडुरसद्धि-कल-विमल-संख - गोखार - फेन कुंदबगरयमुणालिया धवलदंतसेढी " तेभनी त यति शुभ्र चंद्र भांडे लेवी, निर्माण शंस लेवी ગાયના દૂધ જેવી, નદી જળ આદિનાં ફીણ જેવી, શ્વેત પુષ્પ જેવી, જળનાં प्र ५८ For Private And Personal Use Only ܕ Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ** www.kobatirth.org नव्याकरणसूत्रे " कमलनालतन्तुश्च तद्वद्धवला दन्तश्रेणी-दन्तपक्तिर्येषां ते तथा अखंडदन्ताः = परिपूर्णदन्ताः ' अफुडियता' अस्फुटितदन्ताः अनुपहतदन्ताः अविरलदन्ताः= अच्छिद्रदन्ताः सुधनदन्ता इत्यर्थः ' सुगिद्धदंता ' सुस्निग्धदन्ताः 'अरुक्षदन्तवन्तः सुजायदन्ता' सुजातदन्ताः = सुसंस्थितदन्ताः एगदंत से डिब्बअगदंदा ' एकदन्तश्रेणिरिव अनेकदन्ताः येषां द्वात्रिंशहस्त अपि सुलिवादेकदन्तवद्दृश्यन्ते इत्यर्थः । ' हुबह नितोय तत्ततवणिज्जरच तळतालुजीदा हुतवह निर्मातधौततततपनीयरक्ततलतालुजिह्वा = दूतरहेन = दहिना निर्मात = तापितं धौतं = विशोधितं तप्तं च यतपनीयं सुवर्ण तेन तुल्यं रक्त रक्त तालु 3 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नदी जल आदि के फेन जैसी, श्वेतपुष्पविशेष जैसी, जल की बिन्दु जैसी, तथा मृणालिका कमल नाल के तन्तु जैसी धवल होती है ( अखंडता ) तथा इनके दांत परिपूर्ण होते हैं - ( अकुडिवदंना) तथा ये अस्फुटित दांतोवाले होते हैं- उबड़ खाबड़ इसके दांत नहीं होते हैं। और न टूटे फूटे ही होते हैं ( अविरलता ) तथा इनके दांत अच्छिद्र होते हैं - दूर २ नहीं होते हैं। अर्थात् परस्पर में एक दूसरे दांत के साथ मिले हुए रहते हैं । तथा ( सुद्धिना ) ये दांत इनके रूक्षा से विहीन होते हैं अर्थात् चिकने होते हैं (सुजाव देना) बहुत अच्छी तरहसे ये संस्थित-मडों में गढ़े हुए रहते हैं (एगदंन सेटिव्व अगदंना) यद्यपि ये दांत इनके बत्तीस ही होते हैं फिर भी परस्पर में सुष्टि होने के कारण एक दांत की तरह ही दिखते हैं तथा (हुयवहनितधोयतत्तवणिज तताउजी ह) जिनको तालु एवं जिला बह्नि से पाये गये 66 6 जिन्हु भेवा, तथा उभजनादाना तंतू देवी, धवस होय छे. " अखंडता " તેમના દાંત પરિપૂર્ણ હાય છે. આછા કે વધારે હાતા નથી अकुडियदता " તેમના દાંત અસ્ફુટિત હાય છે—પાલાણ વાળા હાતા નથી. અને તૂટેલા પણુ होता नथी. " अविरलद'ता તથા તે દાંત પાસે પાસે હાય છે. દૂર દૂર હાતા નથી. એટલે કે પરસ્પર એક બીજા સાથે અડકીને " રડેલા હૈય છે, તથા 66 सुवाणा होय छे. 'सुणिद्धता " तेभना में हांत उक्षताथी रहित गेटवे " सुजाता " ते घड़ी सारी रीते पेढांमां रडेला होय छे. " एगदंत सेटिव्व अगदता " ने तेमने मत्रीस हांत होय छे, छतां पशु परस्पर सेवी रीते અડોઅડ આવેલા હોય છે કે તે એક દાંત હોય તેવા દેખાય છે. તથા वर्द्धितोयतत्ततणिज्जरत्ततलतालुजोहा " भेमनुं ताज भने कल હૈય છે. તથા આગમાં તપાવેલ શુદ્ધ સુવર્ણુના જેવાં લાલ સપાટી વાળા For Private And Personal Use Only Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ०४ सू. ११ युगलि कस्वरूपनिरूपणम् जिहां येषां ते तथा 'गरुलायय उज्जुतंगनासा' गरुडायतऋजुतुङ्गनासा गरूडस्येव आयतान्दीघा ऋज्जी-सरला तुङ्गासमुन्नता नासा येषां ते तथा अवदालियपुंडरीय णयणा' अवदालितपुण्डरीकनयनाः विकसितसितकमलतुल्यनेत्राः 'विकोसियधवलपत्तलच्छा' विकोशितधवलपत्रलाक्षाः विकोसिते विकसिते प्रसन्ने सदा प्रमुदितत्त्वात्तेषां, धवले-श्वेते पत्रले-पक्ष्मवती च अक्षीणि नेत्रे येषा ते तथा। ' आणामिय चावरुइलकिण्हब्भराइसंठियसंगयाययसुजायभूमगा' आनामित चापरुचिरकृष्णाभ्रमनिसंस्थितसङ्गतायतसुजातभुवः = आनामितौ = वक्री कृती चापौ = धनुपी तद्वतचरे कृष्णाभ्रराजिसंस्थिते कृष्णमेघरेखासदृशे सङ्गतेसमुचिते आयते-दीर्चे सुजाते स्वभावतःसुन्दराकारे च भ्रुवो येषां ते तथा । 'अल्लीणपमाणजुत्तसवणा' आलीनप्रमाणयुक्तश्रवणाः = आलोनौ स्तब्धौ प्रमाणयुक्तौ समुचितपमाणो श्रवणौ कौँ येषां ते तथा एतावदेव न किन्तु ' सुस्सवणा' सुश्रवणाः = शब्दग्रहणशक्तिसम्पन्नफर्णयुक्ताः, 'पीणमंसलकबोलदेसभागा' पीन शुद्ध तप्त सुवर्ण के समानरक्त तलवाली होती है। तथा ( गरुलायग उज्जतुंगनासा) जिनकी नासिका गरुड़ की नासिका के समान दीर्घ, सरल और समुन्नत होती है। तथा ( अवदालियपुंडरीयणयणा ) जिनके नेत्र विकसित शुभ्र कमल के समान होते हैं। तथा-(विकोसियधवलपत्तलच्छा) जिनकी दोनों आंखे विकसित धवलवर्णोपेत, एवं पक्ष्मवाली होती हैं । (आणाभियचावरुइलाकण्हाभराइ संठियसंगयायसुजायभूनगा) तथा जिनको भोहे वक्रीकृत धनुष्य के समान रुचिर. कृष्णवपंक्ति के जैसी अत्यंतकालो, संगत-लंबी २ एवं स्वभावतःआकार में सुन्दर होती हैं (अल्लीणयमागजुतसवणा) तथा-जिनके दोनों कान स्तब्ध और समुचित प्रमाणवाले होते हैं ( सुस्सवणा) तथा-शब्दग्रहण करने की शक्तिसे संपन्न होने के कारण जिनके दोनों कान सच्चे अर्थ में सुप्रवण " गरुलायगउज्जतुंगनासा" भनी नासि ॥२नी यांय पी eist, सस भने उन्नत जाय छे. तथा “ अवहालियपुडरीयणयणा" भनां नयन विसित श्वेत ४७ पा जाय छ, तथा “ विकोसियधवलपत्तलच्छा " भनी मन मां विसित, श्वेता नी भने ५६भाजी डाय छे. "आणामिय चावरूडल किण्हन्भराइसठियसंगया यय सुजायभूमगा” तथा तेभनी भ्रमरी र धनुष्यना જેવી મનહર, કાળાં વાદળની પંક્તિ સમાન અત્યંત કાળી, અંગત–લાંબી भने स्वभावि रीतेभावाम सु४२ हाय छे. "अल्लीणपमाणजत्तसवणा" तथा मना मने पान स्तण्य मन प्रमाणुस२ना डाय छे. "सुन्सवणा" શબ્દ સાંભળવાની શક્તિવાળા હેવાને કારણે જે ખરા અર્થમાં સુશ્રવણ છે, For Private And Personal Use Only Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 1 प्रश्नव्याकरणसूत्रे मांसल कपोलदेशभागाः = पीनौ = पीवरी- मांसलौ= पुष्टौ च कपोल देशभागौ = कपोलौ येषां ते तथा 'अचिरुमय- वालचंद संटियमहानिलाडा ' अचिरोगत बाळचन्द्रसंस्थितगहाललाटा = अचिरोद्गकः=अष्टदिवसमात्रोदितः = अष्टमीतिथिस म्बन्धीत्यर्थः, अतएव बालचन्द्रः अपूर्णचन्द्रः अर्द्धवन्द्र इत्यर्थः तत्संस्थितं = तत्संस्थानयुक्तं तदाकारकं महत् = विशालम् अष्टाङ्गुलममार्ग ललाटं येषां से तथा अर्द्धचन्द्राकारललाटा इत्यर्थः । उदुवइपडिपुण्णसोम्मवयणा' उडुप तिप्रतिपूर्णसौम्यवदनाः = पूर्णचन्द्र दाहादकमुखाः छत्तागारुत्तमंगदेसा * छत्राकारोत्तमाङ्गदेशाः = छत्रचत्तोनतमस्तकाः 'घणनिचियसुबद्धल खणुष्णकूडागारनिभपिडियग्गसिरा' घननिचितसुबद्धलक्षणोन्नत कूटाकारनिभर्थिडिकाग्रशिरसः =घनवत्-लोहमुद्गरवनिचितं = सम्भृतं सुबद्धं = स्नायुभिः लक्षगोन्नतं = विशिष्टलक्ष णयुक्तं तथाकुटाकारनिभं प्रासादशिखरसदृशं वर्तुकत्वात् पिण्डिकेन अग्रशिरः = मस्तकाग्रभागो येषां ते तथा सुन्दरलक्षणयुक्त प्रविशाल वर्तुलस्तकाग्रभागा हैं ऐसे कानों से जो युक्त होते हैं। नथा- पोणम तलकबोल देस भागा) जिनके दोनों को पीवर, और मांसल होते हैं (अलिसंठियमहानिला ) तथा जिनका महाललाट अमी के अर्धचन्द्र के समान आकार का होता है अर्थात् आठ अंगुल प्रभाग आकार वाला होता है। (उपडि पुण्ण सोमवणा) तथा जिनका मुख, पूर्णचन्द्र के समान आल्हादकारक होता है। (छत्तासंगदेसा) तथामस्तक छत्र की तरह वृत्त-गोल और उन्नत होता है (वनिचित्रदलक्खणुण्णयकूडागारनिभपिंडियग्गसिरा ) तथा मस्तक का अग्रभाग लोहमुद्गर की तरह निचित- गाढ़ - मरा हुआ तथा स्नायुओं से अच्छी तरह जकड़ा हुआ, तथा अनेकविध विशिष्ट लक्षणों से युक्त तथा प्रसाद के शिखर के समान उन्नत तथा पिण्डिका - पिंडी के जैसा-गोल એવા કાન વડે જે યુક્ત હાય છે. पण सलकबोल सभागा " भेभना મને ગાલ પીવર, અને માંસલ હાય છે. હાદા' તથા જેમનાં વિશાળ લલાટ આઠમના એટલે કે આઠ આંગળ પહેાળા હોય છે. उडुवइप डिपुण्णसोम्मवयणा તથા જેમનું મુખ પૂર્ણચન્દ્રના જેવુ આહ્લાદ કારક હોય છે, छत्तागारुत्तमंगदसा " तेभनुं भाथु छत्रना भेषु गोज अने उन्नत होय छे. " घणनिचय सुबद्धल खणुण्णय कूडा गार पिंडियग्गसिरा" तथा तेमनां भस्तनो अथ लाग भगहળના જેવા નિશ્ચિત-ગાઢ-ભરેલા તથા સ્નાયુએ વડે સારી રીતે બધાયેલા; તથા અનેક પ્રકારનાં ખાસ લક્ષણાથી યુક્ત તથા પ્રાસાદની ટોચ જેવા ઉન્નત તથા પિ’ડીના 44 66 " Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अचिरुग्गयबालचंद संठियमहानि ચંદ્રના જેવા આકારના હોય છે " For Private And Personal Use Only " Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ०४सू० ११ युगलिकस्वरूपनिरूपणम् इत्यर्थः, ' हुतबहनिद्धंधोयत ततवणिज्जरत्त केस केसभूमी ' हुतबहनिर्मात धौततप्तत मनोयरक्त केशान्त केशभूमयः-तत्र हुनबहेन-बहिना निर्मातं-तापितम् अतएव-धौत-विशोधितं तप्तं च यत्तपनीयं-सुवर्ग तद्वद् रक्ताः-रक्तवर्णाः केशान्ताः केशसपीपस्था केशभूमीः मस्तकत्वचा येषां ते तथा तप्तसुवर्णसहशरक्तर्ण शिरस्त्वक् सन्पन्नाः। 'साप्रलिपोडवगनिवियच्छाडियमिउविसयपसत्यसुहुमलक्वणसुगंधसुंदरभुयमोयगभिंगनीलझज्जलपट्टि भमरगणनिद्धनिउरंबनिचिय कुंचियपयाहिणावत्त मुद्रमुदसिरया' शाल्मलीपोंडघननिचितघोटितमविशदप्रशस्तसूक्ष्मलक्षणसुगन्धसुन्दरभुतमोचकभृङ्गनीलकज्जलप्रहृष्टभ्रमरगणस्निग्धनिकुरुम्बनिचितकुश्चितप्रदक्षिणावर्त्तमूर्धशिरोजाः, तत्र-'सामलि' शाल्मलि-वृक्षविशेस्तस्य यत् 'पॉर्ड' फलं तच्च 'घणनिचिय' घणनिचितम् = आभ्यन्तरभागसंभृततयाऽति कठिनं तत् ' छोडिय' छोटितं-विदारितं तद्वत् 'मिड' मृदवः कोमलः 'विसय विशदाः-सुस्पष्टताः 'पसत्य' प्रशस्ताः श्रेष्ठाः 'सुहुम' सूक्ष्मातलाः 'लकवण ' लक्षणाः-शुभ लक्षणयुक्ताः सगन्धयः-सुरभिगन्धविशिष्टाः मनोहराः २ होता है। ( हुयवहनिद्धंतधोयतत्ततवणिज्जरत्तसंतकेसभूमी) तथा जिनकी केशान्तभूभि-मस्तक की त्वचा-अग्नि से तपाये हुए शुद्ध तप्त सुवर्ण जैसी रक्तवर्णवाली होती है ( सामलिपोंड्यणनिचयच्छोडियमिउविसयासत्यसुहमलावणसुगंधसुंदरभुयमोयणभिंगनौलकज्जलपहिभमरगगनि निउरंव निचियकुंचियपयाहिगावत्तनु इसिरया) तथा जिनके केश, शाल्मलिवृक्ष के-आं से भीतर से भरे हुए तथा कठिन बने हुए विदारित फल के समान मृदु होते हैं, शाल्मलो वृक्ष का फल जय पक जाता है तो वह कठिन हो जाता है, और उसकी भीतर की भरी हुई रुई बहुत अधिक चिकनी हो जाती है ! यह बड़ी नरम और चिकनी रहती है । इसलिये सूत्रकार ने उसके साथ बालों को उपमित किया है। वो गण गण डाय छे. “हुयवहनिद्धंतधोयनत्ततवणिज्जरत्तकेसंतकेसभूमि" तथा જેમની કેશાન્તભૂતિ-માથાની ત્વચા-અગ્નિથી તપાવેલા શુદ્ધ સુવર્ણ જેવા લાલ पानी डाय छे. “सामलिपो'डघणनिचयच्छोडियमिउविसयपसत्थसुहमलक्खणसुगंधसुंदरभुभोयगभिंगनीलकज्जलपहिडभमरगणनिद्धनिरंपनिचियकुचियपयाहिणावत्तमुद्धसिरया" તથા જેમના કેશ. શાલ્મલિ વૃક્ષના, (શીમળે ) અંદરથી કુંવાટીથી ભરેલા તથા કઠણ બનેલ કાપેલાં ફળ સમાન મૃદુ હોય છે. શીમળાનાં ફળ જ્યારે પાકે છે ત્યારે કઠણ થઈ જાય છે, અને તેની અંદર રહેલ રૂંવાટી ઘણી મુલાયમ થઈ જાય છે. તે ઘણી નરમ અને સુંવાળી રહે છે. તેથી સૂત્રકાર તે વાટી સાથે કેશની સરખામણી કરે છે. તેમના કેશ વિશદ-સુસ્પષ્ટ, પ્રશસ્ત For Private And Personal Use Only Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नध्याकरणसूत्र तथा ' भुयमोयग ' भुजमोचक:-कृष्णवर्णो रत्नविशेषः भिंग' भृङ्गाः-चूर्णिताङ्गारः 'कोलसा' इति भावा प्रसिद्धः, नीलः नीलमणिः, 'नीलम' इति प्रसिद्धः, कज्जलम् -अञ्जनं 'पहिट्ठभमरगण' प्रहृष्टभ्रमरगण-प्रमुदित भ्रमरसमूदृश्य, इत्येतैः सदृशाः स्निग्धाः कृष्णकान्तयः ‘निउरंव ' निकुरम्बाणि-समूहरूपाः निचिताःसंबद्धाः 'कुंचिय' कुश्चिताः कुटिलाः ‘पयाहिणावत्त' प्रदक्षिणावर्त्ताश्चन्दक्षिणावर्तयुक्ता — मुद्धसिरया ' मूर्धशिरोजा-मस्तककेशा येषां ते तथा । ' मुजायसुविभत्तसंगयंगा' मुजातमुविभक्तसंगताङ्गा : = सुनिष्पनासुस्पष्टसमुचितशरीरावयवाः, 'लक्खणवंजणगुणोववेया' लक्षणव्यञ्जनगुणोपपेताः = लक्षणानि = स्वस्तिकादीनि व्यञ्जनानि-मर्षातलकादीनि गुणानि-सौभाग्यादीनि तैरुपेताः 'पसस्थवत्तीसलक्खणधरा' प्रशस्तद्वात्रिंशल्लक्षणधरा ? =प्रशस्तानि यानि द्वात्रिंशल्लक्षणनि छत्र कमलादिरूपाणि येषां ते तथा, द्वात्रिंशल्लक्षणानि यथातथा उनके केश विशद-सुस्पष्ट, प्रशस्त-श्रेष्ठ, सूक्ष्म पतले, शुभलक्षणों से युक्त, अच्छी गंधवाले और मनोहर होते हैं । तथा इनका वर्ण कृष्णवर्ण नामक रत्नविशेष के जैसा, भुंग-चूर्णित कोलसा के जैसे, नीलनीलमणि जैसे, कज्जल-अंजन के जैसे और प्रमुदित भ्रमरों के समूह जैसे, काले होते हैं । ये केश मस्तक में विरले नहीं होते हैं-किन्तु समुदाय रूप में सघन रहते हैं। एक दूसरे से संबद्ध होते है, कुटिलधुंघराले होते हैं और दक्षिणावर्त वाले होते हैं। (सुजायलुविभत्तसंगयंगा ) इन के शारीरिक अवयव सुनिष्पन्न, सुस्पष्ट एवं समुचित संनिवे. शवाले होते हैं (लकवणवंजणगुणोक्वेया ) स्वस्तिक आदि लक्षणों से मषा, तिलक आदि व्यंजनों से एवं सौभाग्य आदि सद्गुणों से ये युक्त होते हैं। ( पसत्यवत्तीसलपवणधरा ) प्रशस्त वत्तीम लक्षणों को ये શ્રેષ્ઠ, સૂમ-પાતળાં, શુભલક્ષણ વાળાં, સુંદર ગંધવાળાં અને મનહર હોય છે. તથા તેમને રંગ કૃષ્ણવર્ણ નામના રત્ન જે. કોલસાની રજ જે, નીલમણી જેવ, કાજળ છે, અને પ્રમુદિત ભ્રમવૃન્દ જે કાળો હોય છે. તે કેશ મસ્તક ઉપર વિખરાયેલાં હતાં નથી પણ સમુદાય રૂપે સવન હોય છે, એક બીજા સાથે મળેલાં હોય છે, ગુંચળાં વાળાં હોય છે, અને દક્ષિણાવર્ત વાળા (ree त२५ ) डोय छे. "सुजायसुविभत्तसंगपंगा " तेभन शरी२i । सु७१, सुस्पट मने प्रमाणुसन सोय . " लक्खणवंजणगुणोववेया " स्वस्ति माहि साथी, भस, तिas मा व्यनाथी भने सौeuषय मा सगुणेथी तेथे युक्त डाय छ, “ पसत्थवत्तीसलक्खणधरा " For Private And Personal Use Only Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ0 ४ सू० ११ युलिकस्वरूपनिरूपणम् "छत्रं १ तामरसं २ धनू ३ रथवरो४ दम्भोलि ५ कूर्मा ६ ऽ कुशाः ७ । वापी ८ स्वस्तिक ९ तोरणानि १० य सरः ११ पञ्चाननः १२ पादपः १३ ॥ चक्रं१४ शङ्ख १५ गजौ १६ समुद्र १७ कलशौ १८ प्रासाद१९ मत्स्यौ२० यवौ२१ यूप२२ स्तूप२३ कमण्डलू२४ न्यबनिभृत् २५ सच्चापरो२६ दर्पणम् २७ ॥१॥ उक्षा२८ पताका२९ कमलाभिषेक३० मुद्दाम ३१ केकी ३२ घनपुष्पमाजाम् ।। ____ हंसस्सरा' हंसस्वराः-हेमवत्स्वरा:-स्निग्धत्वान् 'कोंचस्परा' क्रौञ्चम्वरा:कौश्चपक्षिवत्स्वराः-भूक्ष्ममृदुत्वात् , 'दुंदुहिस्सरा' दुन्दुभिवत्वराः-गम्भीरत्वात् धारण करने वाले होते हैं । प्रशस्त यत्तीस लक्षणों के नाम हम प्रकार हैं(१) छत्र, (२) कमल, (३) धनुष, (४) उत्तमरथ, (५) दम्मोलि-वज्र, (६) कूर्म-कच्छप, (७) कुश, (८) वापी, (९) स्वस्तिक, (१०) तोरण, (११) तालाब. (१२) पंचानन-सिंह, (१३) पादप, (१४) चक्र, (१५) शंख, (१६) गज, (१७) ममुद्र, (१८) प्रासाद, (१९) मत्स्य, (२७) यव, (२१) यूप-स्तंभ (२२) स्तूप, (२३) कमंडलु, (२४) अरनिभृत्-पहाड़-पर्वत, (२५) सुन्दर चामर, (२६) दर्पण, (२७) उक्षा-बैल, (२८) पताका, (२९) अभिषेकयुक्त लक्ष्मी (३०) सुताप-सुन्दरमाला (३१) केकी-मयूर और (३२) पुष्प (हंसस्सरा) इनका स्वर स्निग्ध होने से हंस के स्वर के समान होता है । ( कोंचस्सरा ) सूक्ष्म और मृद होने के कारण क्रौंचपक्षी के શ્રેષ્ઠ બત્રીસ લક્ષણે ધારણ કરનાર હોય છે. શ્રેષ્ઠ બત્રીસ લક્ષણોનાં નામ આ પ્રમાણે છે – (१) छत्र (२) भरा (3) धनुष (४) उत्तभरण (५) मासि-401 (6) में य। (७) २५ श (८) पापी (6) स्वस्ति (10) ता२६] (११) ताव (१२) ५याननसिड (१३) पा६५ (वृक्ष) (१४) २.४ (१५) २ (१६) २४ (१७) समुद्र (१८) आसा (16) मत्स्य (२०) यष (२१) यू५-२तम (२२) स्त५ (२३) ४ (२४) सपनिमत५७७ (२५) सुंदर याम२ (२६) ४५५ (२७) SAl-An६ (२८) पता। (२८) मलिषे युत सभी (३०) सुहाभस१२ भा॥ (39)ी भय२ (३२) ५५ ' हंसस्सरा” तेमने। २१२ मह डापाथी सना वो डाय छ, “ को चस्सरा" सूक्ष्म भने भून डावाथी सोय पक्षीना स्१२ को डाय छे, “दुदुहिस्सरा" ली२ पाथी मिना Aqr १, तामरसं-कमलम्२ । २ दम्भोलि:-वनम्५ । ३ पञ्चाननःसिंह १२ । ४ यूपः स्तम्भ२२ । ५ स्तूपः=' चोंतरा' इति भाषा प्रसिद्धाः२३ । ६ अवनिभूतपर्वतः२५ । ७ उक्षा बलीवर्दः२८। ८ कमलाभिषेका अविषेकयुक्ता लक्ष्मीः३० । ९ सुदाम-माला३१॥ १० केकी-मयूरः३२ । For Private And Personal Use Only Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे ' सीहस्सरा , लिहस्वराः-सिंहवत्स्वराः-अव्याहतपवर्धमानत्वात् , न तु खरवद् , हीनस्वराः, : मेघस्सना' मेघस्वशः मेघपत्स्वराः-दूरदेशव्यापित्वात् 'ओघस्सरा' ओघस्वरा.-, अत्रुटितस्वराः, 'मुस्सरा' सुस्वराः कर्णसुखजनकत्वात् 'सुस्सरनियोसा' मुम्बरनिर्घोषाः-मुस्वर:-प्रियः निर्घोषा-शब्दो येषां ते तथा मधुरभाषिण इत्यर्थः, 'वज्जरिसहनारायसंघयणा' वज्र - ऋषभ-नाराचसंहननाः, तत्र नाराचम्-उभयतो मर्कटबन्धः, ऋषभः तदुपरि वेष्टनपट्टः, वज्र कीलिका-उभयस्यापि भेदकमस्थि ॥ उक्तश्च " रिसहो उ होइ पट्टो, वज्ज पुण कीलिया बियाणाहि । उभो मकडधो नारायं तं पियाणाहि ॥ १॥" इति, स्वर के जैसा होता है। (दुंदुहिस्सरा ) गंभिर होने से दुंदुभि के स्वर जैसा होता है, (सीहस्सरा) अव्याहतरूप से प्रवर्धमान होने के कारण सिंह के स्वर जैसा, ( मेहमरा ) दूर २ देश तक में भी व्यात होने के कोरण मेघकी ध्वनि जैसा होता है । (ओघस्सरा) यह स्वर बीच में टूटना नहीं है, ( सुस्सरा) तथ कानों को सुखकारी होता है । तथा(सुन्सरनिग्धोसा) वे जो भी शब्द बोलते हैं वे भी बड़े प्रिय होते हैं, अर्थात् ये मधुरभाषी होते हैं (वज्जरिसहनारायसंबयणा) इनका वज्र ऋषभ नाराच संहनन होता है और (समच उरंगसंठाणमंठिया ) समचतुरस्त्र संस्थान होता है। जो संहनन उभयतः मर्कटबंधसे, ऋषभ- उसके उपर वेष्टनपट्ट से एवं वज्र-कीलीका से युक्त होता है उसका नाम वजऋषभनाराच संहनन है। यही बात गाथा द्वारा प्रदर्शित की गई है। वो डाय छ, “ सीहस्सरा ” मविरत प्रवध भान पाने 10 सिडना स्व२ रेवो, मर “ मेहस्सरा" ६२ ६२ सुधा सात पायी भेघना पनि २ सारे छ. “ ओघस्सरा" ते २१२ १२ये तूटते! नथी मने “ सुम्सरा" अन सुभह सा छे. तथा ' सुस्सरनिग्योसा" तसा ही मासे छ ते ५ प मधु२ राय छे मे.टवे भी मासा होय छे “ वज्जरिसह पारायसंचयणा" तेभर्नु ५म नराय सनन डोय छे भने “ समचउ. रंससंठाण संठिया " सभयो। स सस्थान डोय छे. सनन भने १२५ મર્કટ બંધથી, અષભ-તેના ઉપર લપટાયેલા પટ્ટથી અને વજી કાલિકાથી યુક્ત डाय छ तेतुं नाम वनऋषभनाराचसंहनन छ. मे ४ वात थ द्वारा દર્શાવવામાં આવી છે For Private And Personal Use Only Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० ४ सू० ११ युगलिकस्वरूपनिरूपणम् ४६५ ____ एवं रूपं संहननम्-अस्थिरचनाविशेषो येषां ते तथा । 'समचउरंससंठाण संठिया' समचतुरस्त्रसंस्थानसंस्थिताः = तत्र समाः = अन्यूनाधिकाः चतस्रः अस्रयः चतुर्दिग्विभागोपलक्षिताः शरीरावयवा यत्र तत् , समचतुरस्रत्वं च पर्यङ्कासनोपविष्टस्य दक्षिणस्कन्धाद वामजानुपर्यन्तं, तथा वामस्कन्धाद दक्षिण जानुपर्यन्तं समत्वं, तदेव संस्थानं = शरीररचनाविशेषः, तेन संस्थिता युक्ता स्ते तथा 'छाय उज्जोवियंगरंगा' छायोद्योतिताङ्गोपाङ्गाः - छायया = शरीर कात्या उद्योतिानि देदीप्यमानानि अपाङ्गानि येषां ते तथा देदीप्यमानशरोराः, 'पगत्यच्छची ' प्रशस्तछत्रया शुन्दराकृतयः - निरायंका' निरातङ्काः = रोगरहिताः ‘कंगहणी' कङ्कग्रहणाः शङ्कस्य पक्षिविश येव ग्रहण-गुदाशयो थेयां से तथा-नीरोगपर्चस्का 'कोयपरिणामा' कपोतपरिणामाः कपोततुल्या जैसे-"रिसहो उ होइ टोप, यजं पुण कीलिया वियाणाहि । उभओमबाटबंधो, नारायं तं विधाणाहि" ॥१॥ जिस संस्थान में चतुर्दिशाविभागोपलक्षित शारीरिक अवयव न्यूनाधिकतारूप दोष से वर्जित होते हैं-अर्थात्-पर्यासन से उपविष्ट पुरुष के दक्षिणरकंध से लेकर वामजानुपर्यत और वामस्कंध से लेकर दक्षिण जानु पर्यन जोसमानता रूप से शारीरिक अवयवों की रचना है उसका नास समचतुरस्त्रसंस्थान है । (छायउज्जोवियंगमंगा) इनके शारीरिक अवयव अपने शरीर की कांतिरूप छाया से सदा देदीप्यमान बने रहते हैं (पसत्थच्छवी) इनकी आकृति बड़ी मनोज्ञ सुन्दर होती है। (निरायंका ) इन्हें कोई भी रोग नहीं होता है। (कंकगहणी ) इनका गुदा. शय-गुह्यप्रदेश पक्षी के मुत्यभाग की तरह लेपरहित मलवाला होता है। (कवायपरिणामा ) इनका आहार कबूतर के आहार के परिपाक जैसा "रिसहो उ होइ पट्टो वज्जं पुण कीलिया वियाणाहि । उभओ मकडबंधो, नारायं तं वियाणाहि" ॥१॥ જે વાવસ્થામાં ચારે દિશાને અનુલક્ષીને શારીરિક અવયવે ન્યૂનતા અથવા અધિકતાના દોષથી રહિત હોય છે, એટલે કે પર્યકાસને બેઠેલા પુરૂષના જમણે ખભાથી લઈને ડાબા ઢીંચણ સુધી અને ડાબા ખભાથી લઈને જમણું ઢીંચણ સુધી રામાન રૂપે શારીરિક અવયવે ની જે રચના હોય છે તેને સમयतरससथान .“छाय रजोनियंगमंगा" तेमनां शरीरन मग तमना शरीरनी ति३५ छायाथी २६ -यमान मनी २७ छ “ पसत्यच्छवी " तेमनी माति घी मनोज्ञ-सुंदर होय छे. निरायंका " तमने इस थत नथी. " कंकगहणी" तेमनी सुहाशय-गुह्यमा पक्षीना शुखमासनीसम रोगडित भगवाणे होय छे. “ कवोयपरिणामा" तेभने। माडा२ ४भूतराना प्र० ५९ For Private And Personal Use Only Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४६६ प्रश्नव्याकरणसूत्रे ऽऽहारपरिपाकाः ‘सउणिपोसा' शकुनिपोसाः-शकुनेरिव-पक्षिग इव पोसः= अपानस्थानं निरूपलेपतया येषां ते तथा, निरूपलेपगुदाशयाः, 'पिटुं तरोरुपरिगया ' पृष्ठान्न रोसारिगताः = पृष्ठं = पृष्ठदेशः, अन्तरे = पृष्ठोदरयोरन्तराले पावित्यर्थः उरू = जङ्घ च, इत्येते परिणताः = सुदृढा येषां ते तथा 'पउमुप्पलसरिसगंधसाससुरभिवयमा ' पोत्पलसदृशगन्धश्वाससुरभिवदनाः-तत्र - पद्मं = कमलम् उत्पलं :- नीलकमलं च तत्सदृशो गन्धो यस्य स तथाभूतो यः श्वासः तेन मुरभि सुगन्धयुक्तं वदनं-पुरवं येषां ते तथा 'अणुलोभवाउवेगा ' अनुलोभवायुवेगाः = अनुकूलशरीरोद्भववायुवेगवन्तः ' अबदाय निद्धकेसा ' अबदातस्निग्धकेशाः = अबदाताः कान्तियुक्ताः स्निग्धाः-चिक्कणाः केशाः रोमाणि येषां ते तथा, 'विग्गहियउण्णयकुच्छी ' वैग्रहिकोन्नतकुक्षयः । वैग्रहिको-शरीरानुरूपौ उन्नतौ-पुष्टौ कुक्षी-उदरदेशी येषां ते तथा शरीरानु। पपुष्टोदराः 'अमयरसफलाहारी ' अमृतरसफाहारिणः । अमृततुल्यरस होता है । ( सउणिपोसा) पक्षी की तरह इनका अपानस्थान मल के उपलेप से रहित होता है । (पिटुंतरोरुपरिणया ) इनके पृष्ट और उदर के अंतराल-पार्श्वभाग एवं जंघाएँ सुदृढ़ होती हैं, (पउम्मुप्पलसरिसर्गधसाससुरभिवयणा ) पद्म-कमल, उत्पल-नील कमल, इनके जैसे गंधवाला इनका श्वास होता है । उस श्वास से सुगंध युक्त इनका मुख होता है । ( अणुलोभवाउवेगा ) इनकी शारीरिक वायु का वेग इनके अनुकूल ही रहता है-प्रतिकूल नहीं। (अवदायनिद्धकोसा) इनके केश-रोम अवदात कान्तियुक्त एवं चिकने होते हैं ( विग्गहियउण्णयकुच्छी ) इनके पेट के दोनों आजु बाजु के भाग शरीर के अनुरूप ही पुष्ट रहते हैं । ( अमयरसफलाहारी ) ये अमृत के जैसे रसमा २ व निषि होय छे. " सउणिपोसा" पक्षीनी म तेमनी गुप्तमा भगथी भ२७॥या विनानो सोय छे. “ पिटुंतरोरुपरिणयो" तमनी पाई भने GERनी मनो तथा पासेना मा भने घास भरपून होय छे. “पउ. म्मुप्पलसरिस गंधसास सुरभिवयणा" ५-3भा, मने ५- नीमा વધવાને તેમને શ્વાસ હોય છે. તે શ્વાસથી તેમનું મુખ સુગંધયુક્ત થાય છે. छ. "अणुलोमवाउवेगा" तमना शरीना वायुनो तेमने मनु । २९ छे-प्रतिष २तो नथी. " अवदायनिद्धकोसा" तेभन॥ शम महात-न्ति सुत भने मुसायम डोय छे. “ विगहियउण्णय कुच्छी " तेमना पटनी आY. माना न मा शरी२ने अनु३५ २४ पुष्ट २ . " अमय'सफलाहारी" For Private And Personal Use Only Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org - सुदर्शिनी टीका अ० ४ सू० ११ युगलिकस्वरूपनिरूपणम् ४६७ युक्तानि यानि फलानि तेषामाहारिणः, 'तिगउय समुच्छिया ' त्रि गव्यूत समुच्छ्रिताः = त्रि गव्यूतिपरिमागोन्नतशरीराः, तिपलिओचमडिया ' त्रिपल्योपमस्थितिका: = त्रिपल्योपमकालस्थितिमन्तः ' तिन्नि य पलि ओमाई परमाउं पालइत्ता ' त्रीणि च पल्योपमानि परमापि = परमायुष्यकालं पालयित्वा - उपभुज्य 'ते वि' तेऽपि - उत्तरकुरुदेव कुरु निवासिनो युगलिका मनुष्या अपि, ' कामाणं अत्रितित्ता ' कामानामवितृप्ताः - अवितृप्त कामभोगा एव ' उवणमंति मरणधम्मं ' मरणधर्ममुपनमन्ति इति पूर्ववत् ॥ ० ११ ॥ साम्प्रतं तेषां स्त्रीविषयेप्याह - ' पमया वि ' इत्यादिमूलम् – पमयाविय तेसिं हुंति सोम्मा सुजायसव्वंगसुंदरीओ पहाणमहिलागुणेहिं जुत्ता अइकंत - विसप्पमाण मउयसुकुमाल - कुम्मसंठिय· सिलिट्ठचलणा उज्जुमउयपीवर सुसंहतंगुलीओ अब्भुष्णाय । रइयतलिण-तंबसुइ-निद्धनखा रोमरहियवहसंटिय- अजहण्ण-पसत्थलक्खण- अकोप्प वाले फलों का आहार करते हैं। (तिगाउयसमुच्छिया ) तीन कोशका इनका शरीर होता है । ( तिपलिओ माई परमाउं पालहत्ता ) तीन पल्य की इनकी उत्कृष्ट आयु होती है । इस प्रकार की स्थिति से युक्त बने हुए ये उत्तर और देवकुरु के निवासो मनुष्य भी तीन पल्य की उत्कृष्ट अपनी आयु का भोग करके भी ( कामाणं अवितत्ता ) कामसुखों में अतृप्त बने रहते हैं । अर्थात्-तीन पल्य कालतक कामसुखोंको भोगते रहते हैं फिर भी इनकी काममुखों को भोगने की लालसा शांत नहीं हो पाती हैं । अन्त में ( ते वि) वे भी काम से अतृप्त ही मरण धर्मको प्राप्त करते हैं । सू०११ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir તે અમૃત જેવાં રસવાળાં કળાને આહાર કરે છે. “ तिगा उपसमुच्छिया " ऋ गावनुं तेमनुं शरीर होय छे. “तिपलिओमाई परमाउं पालइत्ता " शु પલ્યનું તેમનું ઉત્કૃષ્ટ આયુષ્ય હાય છે. આ પ્રકારની સ્થિતિ વાળા તે ઉત્તર કુરુ અને દેવકુરુ નિવાસી લોકો પણ ત્રણ પક્ષનું પેાતાનું આયુષ્ય ભોગવવા છતાં પણ काप्राणां अवितत्ता " अम लोगोथी अतृप्त रहे छे. भेटले ત્રણ પલ્ય કાળ સુધી કામ ભેગા ભોગવ્યા છતાં પણ કામભોગે ભાગવવાની तेभनी साससा शांत था शहुती नथी. छेवटे " ते वि " તેઓ પણ કામભોગાથી અતૃપ્ત રહીને જ મૃત્યુ પામે છે. ! સૂ-૧૧ ॥ (( For Private And Personal Use Only י, Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ઇટ प्रश्नव्याकरणसूत्रे जंघजुयला सुणिम्मिय सुणिगूढजानु मंसलपतत्थ-सुबद्धसंधी कयली-खंभाइरेग-संठियनिव्वणसुकुमालभउय-कोमल-अ. विरल-समसहियसुजायवट्टपीवरनिरंतरोरू अद्यावयवीइपट्ट संठियपसत्थ-विस्थिण्ण पिहल-सोणीषणश्यामप्पमाणदु. गुणिय-विसाल मंसल-सुबद्ध-जहणवर-धारिणीओ बज्जविराइयपसस्थलक्खणनिरोदरीओ तिवलिवलियतणुनमिय मझियाओ उज्जुय-समसंहिय-जच्च तणुकसिण निद्वआदे. ज्जलडहसुकुमालमउय सुविभत्तोमराईओ गंगावत्तगदाहिणावत्ततरंग-भंगुररविकिरणतरुणवोहिय विकोसायंतपउमगंभीर विगडनाभीओ अणुन्भडपसत्थसुजाय पीणकुच्छीओ सन्नयपासासंगयपासा सुंदरपासा सुजायपासा मियमाइय पणिरइयपासा अकरंडुयकणगरुयगनिम्मलसुजाय निरुवहय. गायलट्रीओ कंचणकलसप्पमाणसमसंहितलट्रचूचुय आमेलगजमल, जुयलवट्टियपओहराओ भुयंग-अणुपुत्व -तणुय गोपुच्छवट्टसमसंहिय-नमिय-आदेजलडहवाहातंबनहा मंसलग्गहत्था कोमलपोवरवरंगुलीया ॥ सू० १२ ॥ टीका-'तेसिं' तेषाम् = उत्तरकुरुदेवकुरुनिवासियुगलिकानां ‘पमयाविय' प्रमदा अपि च-स्त्रियोऽपि ' होति' भवन्ति । कीदृश्यो भवन्ति ? इत्याह ___ अथ सूत्रकार इन युगलिकों की स्त्रियों के विषय में कथन करते हैं ‘पमया वि य तेसिं' इत्यादि। टीकार्थ-(तेसिं) उन उत्तरकुरू निवासी युगलिकों की (पमयाविय) स्त्रियां भी (होति) ऐसी होती हैं। कैसी होती हैं ? सो कहते हैं-(सोम्मा) वे सूत्रा२ मे युलिनी श्रीमान न. छ “पमया वि य तेनि" त्याहि. टी -"तेसि” ते उत्तर शुरु गरे हेवा निवासी युगविहीनी "मयाविय" श्री ५ " होति " मेवा १ .छ, तखी वी डीय छ ? तो For Private And Personal Use Only Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ. ४ सू० १२ युगलिनीस्वरूपनिरूपणम् -'सोम्मा ' सौम्याः = सौम्यवदनाः 'मुजायसव्वंगसुंदरीओ' मुआतसर्वाङ्गसुन्दर्यः-मुजातानि=सुनिष्पन्नानि सर्वाण्यङ्गानि सुन्दराणि यासां तास्तथा 'पहाण महिला गुणेहि जुत्ता' प्रधानमहिलागुणैयुक्ताः हावभावविलासादि स्त्रीगुणैर्युक्ताः ' अतिकंतविसप्पमाणमउय-सुकुमालकुम्मसंठियसिलिट्ठचलणा' अतिकान्त विसर्पमाणमृदुकसुकुमारकूर्मसंस्थिता लष्टचरणाः अतिकान्तौ = अतिसुन्दरौं विसर्पन्तौ गमनक्रियायुक्तो मृदुकसुकुमारौ अत्यन्तकोमलौ कूर्मसंस्थितौ उन्मतत्वात् कच्छपपृष्ठतुल्यसंस्थानौ तथा श्लिष्टौ संमिलितौ चरणौ यासा तास्तथा — उज्जुमउयपीवरसुसंहयंगुलीओ' ऋजुमृदुकपीवरसुसंहतामुल्यः-तत्र-ऋजवः-सरलाः, मृदुकाः कोमलाः, पीचराः पुष्टाः सुसंहताः अन्तर रहिताः अङ्गुल्यो यासां ताः तथा सरलकोमलपीनसुसङ्गठितपादाङ्गुलिकाः ' अब्भुण्णयरइयतलिणतंबसुइनिधनखा' अभ्युग्नतरतिदतलिनताम्रशुचिस्निग्धनखाः = अभ्युन्नताः = मध्योन्नता रतिदाः= इनका मुख सौम्य होता है (सुजायसव्वंगसुंदरीओ) इनके समस्त अंग सुनिष्पन्न और सुन्दर होते हैं। (पहाणमहिलागुणेहिं संजुत्ता ) हाय, भाव विलास आदि प्रधान स्त्रियोचित गुणों से युक्त होती हैं (अतिकतविसपमाणमउयसुकुमालकुम्मसंठियसिलिट्ठचलणा) इनके दोनों चरण अतिशय सुंदर होते हैं, ममन क्रिया में थकते नहीं हैं, मृदुक सुकु मार-अत्यंत कोमल होते हैं, उन्नत होने के कारण कच्छप की पीठ के समान आकार वाले होते हैं एवं मुसंमिलित होते हैं। ( उज्जुमउयपीवरसुसंहयंगुलीओ) इन चारणों की अंगुलियां ऋजु-सरल, मृदुक-कोमल, पीवर-पुष्ट और सुसंहत-अन्तरहित होती है । (अन्भुण्णयरइयतलिणतंयसुइणिद्धणखा ) इन अंगुलियों के नख मध्यभाग में उन्नत, रतिद्४ छ । “सोम्मा” तमना भुम सौभ्य खाय छ, “ सुजायसव्वंग सुंदरीओ" तमन Avi म सुटित मने सु४२ सय छ. “ पहाण महिला गुणेहि संजुत्ता” &५, साप, विलास मा भुण्य भुभ्य स्त्रीयायित गुगवाणी डाय छे. “ अतिकतविसप्पमाणमउयसुकुमालकुम्मसंठियसिलिचलणा" तमना બંને ચરણ અતિશય સુંદર હોય છે. ચાલતા થાકતાં નથી. તે અત્યંત કમળ હોય છે, ઉન્નત હોવાને કારણે કાચબાની પીડના જેવા આકાર વાળા હેય छ भने सुसमिसित डाय छे. “ उज्जुमउय पीवरसुसंहयगुलीओ" ते यानी આંગળિયે આજુ-સરલ, કમળ, પુષ્ટ અને સુસંહત-અન્તરહિત હોય છે. " अब्भुण्णयरइय तलिणतंयसुइणिद्धणखा" ते Hinalयान! न५ भध्य माम उन्नत, रतिद्-भनाश, तलिन-पातणा, ताम्र-दादा, शुचि-२१२७ भने स्निग्ध For Private And Personal Use Only Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४७० प्रश्नव्याकरण सूत्रे मनोज्ञाः तलिना:-प्रतलाः ताम्राः ताम्रवर्णाः शुचयः स्वच्छा स्निग्धाः चिक्कणाः नखा यासां तास्तथा। 'रोमरहियवदृसंठियअजहण्णपसत्थलकरणअकोप्पजंघजुयला , रोमरहितवृत्तसंस्थितअजघन्यप्रशस्तलक्षणाऽकोप्यजङ्घायुगलाः = रोमररहित-निर्लोमकं कृतसंस्थितं वर्तुलाकारम् अजघन्यम्-उत्तम प्रशस्तलक्षणं सौभा. ग्यचिह्नयुक्तम् , अकोप्यं सर्वप्रियं च जङ्घायुगलं यासां तास्तथा, 'सुणिम्मियसुणिमूहनाणुमंसलपसत्थसुबद्धसंधी ' सुनिर्मितसुनिगूढजानुमांसलपशस्तसुबद्धसन्धयः तत्र सुनिमितौ-शोभनसंस्थानविशिष्टौ मुनिगूढौ = दुर्लक्ष्यौ जानुनोःजानुद्वयस्य मांसलौ=पुष्टौ प्रशस्तौ सुन्दराकारौ सुबद्वौ-मुढौ सन्धी-सन्धान स्थाने यासां तास्तथा 'कयलो-खंभाइरेग-संठिय-निधण-मुकुमाल-मउय कोमल अविरल - समसंहियवट्टपीवरनिरंतशेरू' कदलीस्तम्भातिरेकसं.स्थतनिव्रणसुकुमार मृदुककोमलाऽपिरलसमसंहितगृत्तपीवरनिरन्तरोरवः = तत्र कदली स्तम्भादतिरेकेण = अतिशयेन शोभनाऽऽरोहाऽवरोहसुपेशलसुकोमलत्वादिगुणप्रकर्षरूपेण संस्थितौ-सुन्दरसंस्थानवन्तौ निगौ = निरुपहतौ सुकुमारमृदुककोमलौ-अत्यन्तमनोज्ञ, तलिन-पतले, ताम्र-लाल. शुचि-स्वच्छ एवं स्निग्ध-चिकने होते हैं। (रोमरहिवसंठिय-अजहण्णपसत्यलक्खण-अकोप्पजंघजुयला) इनका जंघा युगल रोगरहित, वर्तुलाकार वाला अजधन्य-उत्तम सौभाग्यचिह्नों से युक्त एवं अकोप्पसर्वप्रिय होता है (सुगिम्मियप्सुणिगूढजाणु मंसलपसत्थसुबद्ध संधी ) इनकी दोनों जानु की संधियां शोभन संस्थान विशिष्ट, तथा सुनिगूढ होती है । पुष्ट और सुंदराकार से युक्त होती हैं । मजबूत होती हैं । ( कयलीग्वभाइरेगसंठियनिव्वण सुकुमाल मउय कोनल अविरल समसंहियवट्टपीवरनिरंतरोरु) इनकी दोनों जानु का उपरितन भाग कदली के स्तंभ से भी अधिक सुन्दर संस्थानवाला होता है । निर्ऋण-घाव आदि की निशानी से विहीन संवा डाय छे. " रोमरहियवदृसंठिय-अजहण्ण-पमत्थ-लक्षण-अकोप्प-जंघजयला" भनी भन्ने धा। राम २हित, गजा२, अजघन्य- उत्तम, सोमाय बिहीथी युत मने अकोप सवप्रिय डाय छ, "सुणिम्मिय-सुणिगूढ जाणुमंसलपसत्थ सुबद्धसंधी" तभनी अन्नधासाना सानेला सुडे, વ્યવસ્થિત તથા સુનિગૂઢ હોય છે. તે જંઘાઓ પુષ્ટ અને સુંદર આકારની डाय छ भने मात डाय छे. “कयली खंभाइ रेगसंठिय-निव्वण-सुकुमालमउय-कोमल-अविरल-समसंहियवद्दपी वरनिरंतरोरु" भनी मन्ने पायानी परन। मा तीन स्तमथा ५५१ धारे सु४२ मारने खाय छ, “निर्वण" पाप माहिनी निशानी बिनाना य छे; मत्य त म य , अविलर For Private And Personal Use Only Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० ४ सू० ४ १२ युगलिनीस्वरूपनिरूपणम् ४७ कौमला अविरलौ-परसरमिलितो समसंहितौ उचितपमाणयुक्तौ वृत्तौ वर्तुलौ पीव. रौ-पीनौ निरन्तरौ-परस्परसम्बद्धौ अरू जानूपरितनभागौ यासां तास्तथा 'अट्ठावधवीइ-पट्ट-संठियपसत्य वित्थिण्णपिडुलसोणी' अष्टापदवीचिपृष्ठ संस्थितप्रशस्तविस्तीर्ण थुल मोण्य: अष्टापदस्य-जूनविशेषस्य वीचय इव वीचया तर. झाकृतिरेखाः ताक यत् पट्ट-फलकः, तद्वत् संस्थिता= तत्संस्थानयुक्ता तदाकतिका प्रशस्ता विस्तीर्णा पृथुला-विशाला श्रोणि कटिभागा यासां तास्तथा 'वयणायामप्पमाणदुगुणियविसालमंसलसुबद्धजहणवरधारिणीओ' वदनायामप्रमागाद्विगुणितविशालमांतलसुबद्भजघनवरधारिण्यः = वदनस्य = मुवस्य यः आमः विस्तारस्तस्य यत् प्रमाणं तस्माद्विगुणितं चतुर्विंशत्यगुलमित्यर्थः, बिशालं तथा मांसलं-पुष्टं सुबद्धं शैथिल्यवर्जितं जघन्नवरं बरजघनं कट्याः पुरोभागं धारयन्ति यास्तास्तथा ' बज्जविराइयपसत्थलच्छणनिरोदरीओ' वत्र होता हैं । अत्यंत कोमल होता है । अविरल-परस्पर मिला हुआ होना है। समसंहित-उचितप्रभाग से युक्त होता है । घृत-वर्तुल-गोल होता है। पीवर-पीन-पुष्ट होता है । निरन्तर परस्पर संबद्ध होता है। ( अट्ठावयवीइपट्टमंठियपसविस्थिण्णपिहुलमोणी ) इनका कटिभाग तविशेष की वीचियों के समान तरङ्गाकृति रेग्वाओं से युक्त फलक के जले आकार वाला होता है, प्रशस्त होता है, विस्तीर्ण होता है तथा पृथुल विशाल होता है । ( वयणायामपमाणदुगुणियविमालमंसलसुबद्ध जहणवरधारिणीओ ) इनकी कटिका पुरोभाग-जघन प्रदेश-मुख के विस्तार के.प्रमाण से द्विगुणित होता है-अर्थात्-चौबीस अंगुलका होता है, विशाल-पृथुल, एवं मांसल-पुष्ट होता है। सुबद्ध-शैथिल्य विहीन- होता है । ( वजविराइयपसत्थलच्छणनिरोदरिओ) इनका ५२२५२ जायेद हाय छ, समसंहित-योग्य प्रमाणवाणी-प्रभासरनी हाय छ, आज हाय छ, पीवर-पुष्ट डाय छ, भने नि२-१२-५२२५२ मा राय छे. " अट्ठावयवीइप-संठिय-पसत्थ वित्थिण्ण-पिहुलमोणी" तेमनी टिभागात વિશેષની વીધિના સમાન તરંગાકૃતિ રેખાઓથી યુક્ત ફલકના જેવા આકારવાળો હોય છે, પ્રશસ્ત હોય છે. વિસ્તીર્ણ હોય છે તથા પૃથુરુ-વિશાળ होय छे. “वयणायामप्पमाणदुगुणिय विसालमंमलसुबद्धजरणवरधारिणीओ" તેમની કોટિનો આગળનો ભાગ જઘન પ્રદેશ–મુખને વિસ્તાર કરતાં બે ગણું માપનો હોય છે, એટલે કે વીસ આંગળને હોય છે. વિશાળ અને भांसद पुष्ट डाय छ, सुपर शैथिक्ष्य विडीन डाय छ, “ वज्जविराइय पसस्थलणनिरोदरीयो" तमना रन। माग 400 वो सु४२, मेटले है For Private And Personal Use Only Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५७२ प्रश्नव्याकरणसूत्रे विराजितप्रशस्तलक्षणं निरोदयः =यज्रवद् विराजितं = मध्यपतलं प्रशस्तलक्षणं शुभलक्षणविशिष्टम् अति प्रतलत्या निर्गतमिवोदर यासां तास्तथा कृशोदर्य इत्यर्यः तिवलिबलियतणुनमियमज्झियाओ' त्रिवलिबलिततनुनमितमध्यिकाः = त्रिव लिभीः = उदरस्थरेखात्रयरूपामिः वलित१: = वलनयुक्त २ = तनुनमित४ = किश्चिदवनताः४, मध्यं = मध्यभागः कटिप्रदेशो यासां तास्तथा — उज्जुयसम सहिय जच्चतणुकसिणनिद्वआदेज्जलडहसुकुमालमउयसुविभत्तरोमराईओ' तत्र 'उज्जुय' ऋजुकानि समसंडिय' समानि-तुल्यानि संहितानि = घनानि 'जच्च' जात्यानि-स्वाभाविकानि 'तणु' तनूनि-सूक्ष्माणि 'कसिण' कृष्णानि 'निद्ध 'स्निग्धानि-अस्माणि 'आदेज्ज ' आदेयानि-लाघनीयानि 'लडह' इति सुन्दारागि 'सुकुमालमउय' सकुमारमृदुकानि अत्यन्त कोपलानि ' सुविभत्त' सुविभक्तानि यथास्थानशोभितानि च यानि रोमाणि तेषां राजयः = पञ्जयो यासां तास्तथा — गंगावत्तगदाहिणावत्ततरंगभंगररविकिरणतरुणवोहित उदरभाग वज के जैमा सुन्दर, अर्थात्-मध्य में पतला होता है । शुभ लक्षणों से विशिष्ट होता है । तथा अतिपतला कृश-होने के कारण अनुदर-निर्गन उदर जैसा होता है - अर्थात् ये कृशोदरी होती हैं । ( लिबलिबलियतणुननियमझियाओ ) इन का मध्यभाग उदरप्रदेश त्रिवलियों से वलित-युक्त - होता है। और तनुनमित - कुछ झुका हुआ सा रहता है। ( उज्जुयसमसंहिय जच्चतणु कसिणनिद्धआदेजर हमकुमालमउयमुविभत्तरोमराईओ ) इन की रोमराजि ऋजु-सरल, सम एकसो सहित घनीभूत, जात्य स्वाभाविक, तनु-पतली, कृष्ण-काली, निद्र-स्निग्ध, चिकनी-रुक्षतारहित, आदेयलाघनीय, लजह-सुन्दर सुकुमारमृदुक-अत्यंत कोमल तथा सुविभक्त. यथास्थान शोभित होती है। (गंगावत्तग-दाहिणावत्त-तरंग-भंशुर-रवि. મધ્યમાં પાતળે હોય છે. અને શુભ લક્ષણવાળ હોય છે, તથા અતિશય પાતળે હોવાથી અનુદર-પેટ જ ન હોય તેવું હોય છે. એટલે કે તે સ્ત્રીઓ इशारी डाय छे. " तिलिवलियतणुनमियमज्ज्ञियाओ" तेमनी मध्यमानS२ प्रदेश (लियो पा होय छ, भने सडे जुडेसो २ . " उज्जुय समसंहिय-जच्च-तणु-कसिण-निद्ध-आदेज्ज-लडह-सुकुमाल-मउय-सुविभत्तरोमराईओ" तेभनी शभ *तु-सरस, सम- मे सरी, सहित-धनीभूत, जात्य-स्वालाविर; तनु-पाती, जी, सुपाती, आदेय-वभागुवा योग्य, लडह. सं२ सुभा२, मृदुक-मति म त सुविमत-यथास्थान शामित डाय छ, ( गंगावत्तगदाहिणावत्त तरंगभंगुररविकिरणतरुणबोहिय-अकोसायंतपउमगं For Private And Personal Use Only Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ०४ सू० १२. युगलिनीस्वरूपनिरूपणम् ४७३ अकोसायंतपउमगंभीर विगडना भीओ' गङ्गावर्तकदक्षिणावर्ततरङ्गमङ्गुर - रवि - करणतरुणबोधितविकोशायमानएमगम्भीरविकटनाभिकाः, तत्र गङ्गावर्तकः गङ्गानद्याजलभ्रमः, स च दक्षिणावर्तः तरङ्गभङ्गुरः- तरङ्गैः भगुरः वक्रश्च, तद्वत् , तथा रविकिरणः सूर्यकिरणे बोधितं विकासितं-विकासावस्थां प्राप्नुवदित्यथः, अतएव विकोशायमानं मुकुलावस्थां विमुञ्चत् यत् पद्म तद्वद् गम्भीरा विक्टा-सुन्दरा च नाभियाँसा तास्तथा। 'अणुब्भडपसत्थसुजायपीणकुच्छी' अनुगटप्रशहा जातपीनकुक्ष्यः अनुद्भट उद्भटरहितौ समो, प्रशस्तौ सुजातौ सुसंस्थिती पीनौ सुपुष्टौ कुक्षी-उदरोभपभागौ यासां तास्तथा 'संनयपासा' संनतपार्थाः = पुष्टत्वादधोनमत्पार्श्वभागाः, 'संगयपासा ' सङ्गतपार्धा:-सुमिलिपार्श्वभागाः, आरा · मुंदरपासा' सुन्दरपार्थाः = मनोहरपार्श्वभागाः, 'सुनायपासा ' सुजातपार्थाः सुसंस्थितपार्था, 'मियमाइयपीणरइयपासा' मितकिरण तरु गोहिय अकोनायतपउमगंभीरविगडनाभीओ) इनकी नाभि तरंगों से चक्र बने हुए ऐसे दक्षिणावर्तवाले गंगानदी के जलभ्रमभंवर के समान होती है। तथा सूर्य की किरणों के संपर्क से अपनी मुकुलिन अवस्था का परित्याग कर विकसित अवस्था को प्राप्त हुए पन के समान गंभीर होती है और विकट बड़ी सुन्दर होती है। (अणुभडपसत्थसुजायपीणकुच्छी ) इनके उदर के दोनों पार्श्वभाग अनुद्भटअनुल्वण-बराबर-एक से होते हैं । प्रशस्त-सुहावने होते हैं। सुजातअच्छे संस्थानवाले होते हैं । पीन-पुष्ट होते हैं । ( संनयपासा ) तथा पुष्ट होने के कारण इनके दोनों तरफ के वे पार्श्वभाग नीचे की ओर झुके हुए रहते हैं । ( संगयपासा ) वे दोनों उनके पार्श्वभाग परस्पर में संगत-मिले रहते हैं। अतएव वे ( सुंदरपासा ) बड़े सुन्दर होते हैं। तथा (सुजायपासा ) अच्छे संस्थान से युक्त कहे जाते हैं। (मियमा. भीरविगडनाभीओ" तेमनी नामि तरंगोथी १४ मने क्षियावत वाणा ગંગા નદીના જલબ્રમ–વમળ જેવી હોય છે, અને સૂર્યના કિરણોના સંપર્કથી પિતાની બીડાયેલી અવસ્થા છોડીને વિકસિત થયેલાં કમળના જેવી ગંભીર भने विकटा अत्यत मुंह२ सय छे. "अणुव्भडप सत्थसुजायपाणकुच्छी" તેમના ઉદરની બાજુના બને ભાગો (કુક્ષીઓ) એક સરખા હોય છે. प्रशस्त, पुष्ट भने सु ाय छे. “ संनयपासा" ते पन्ने पुक्षी पुष्ट हापाने राणे नीयनी पाणु असा २ छ. " संगयपासा, तेमनी ते मन्ने क्षी५२२५२मा सात- भणेसी डोय छ, तेथी ते "सुदरपासा" agी सु१२ खाय छे. तथा “ सुजायपासा" सुघटित राय छे. "मियमाइयपीणप्र. ६० For Private And Personal Use Only Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४७४ प्रश्नव्याकरणसूत्रे मात्रिक पीनरतिदपार्थाः-मितौ-मानोपेतौ मात्रिको परिमाणसम्पन्नौ पीनौ-सुपुष्टौ रतिदौ -- रमणीयौ पविभागौ यासां तास्तथा 'अरंडुयकणगरुयगनि म्मल सुजायनिरुवहयगायलट्ठी ' अकरण्डुकानसरुचकनिमलसुजातनिरुपहत गात्रयष्टयः तत्र अकरंडुका = पुष्टत्वादनुपलक्ष्यपृष्ठपार्थाद्यस्थिकाः, तथा कनकरुचकनिर्मला = सुवर्ण समानकान्तिमतीसुजाता निरुपहता = रोगरहिता च गात्रयष्टि र्यासां तास्तथा ' कंवणकलसप्पमाणसमसंहितलठ्ठचूचुय आमेलग जमल जुयल बट्टियपओहराओ' काश्चनकलशप्रमाणसमसंहितलष्टच्चकाऽऽमेलक यमलयुगलवर्तितपयोधराः-तत्र काञ्चनकलशप्रमाणो उन्नतत्वेन वर्तुलत्वेन च सुवर्ण घटाकरौ समौ-तुल्यौ संहिती-अनिपतितत्वेनाऽशिथिलौ लष्टचूचकामेलकौ-मनोहरकृष्णस्तनमुखशिखरे यमलौ-सहोत्पन्नौ युगलौ-युग्मौ वर्तितौ वर्तुलौ पयोधरौस्तनौ यासां तास्तथा 'सुयंगअणुपुमतणुयगोपुच्छचट्टसमसंहियनामिय आदेइयपीणरइयपासा ) इसीलिये उनके वे दोनों पार्श्वभाग मित-मान से युक्त, मात्रिक-प्रमाणसंपन्न, पीन-सुपुष्ट एवं रतिद-रमणीय लगते हैं। ( अकरंडयकणगरुयगनिम्मलसुजायनिस्वहयगायलट्ठी) पुष्ट होने के कारण उनकी न तो पीठकी हड्डियां दिखती है और न दोनों पार्श्वभागों की। इनका शरीर सुवर्ण के समान कान्तिवाला एवं रोगरहित होता है। ( कंचणकलसपमाण समसंहितलठ्ठचूचुय आमलग जमलजुयलवट्टिय. पयोहराओ ) इनके दोनों स्तन उन्नत और गोल होने के कारण सुवर्णनिर्मित घट के आकार जैसे होते हैं-कमती बढती नहीं । संहित अशिथिल होते हैं। नीचे की ओर झुके हुए नहीं रहते माम्हने उठे हुए रहते हैं । इनके दोनों चूचुक मनोहर एवं अत्यंत काले मुखवाले होते हैं। ये साथ २ उत्पन्न होते हैं । गोल रहते हैं, ( भुयंग अणुपुव्वतणुयरइयपासा " ते ४।२0 तेमनी मन्ने पुक्षी मितभात्रि सप्रमा, पीन-सुपुष्ट भने रतिद-२भागीय सागे छे. "अक डुयकणगरुयगनिम्मल सुजाय निरुवहयगायलद्री" તે પુષ્ટ હોવાને કારણે તેમની પીઠનાં હાડકાં દેખાતાં નથી અને છાતીને હાડકાં પણ દેખાતાં નથી, તેમના શરીર સુવર્ણની જેવી કાંતિવાળાં અને નીરોગી डाय छे. “ कंचण कलसप्पमाणसमसंहितलचूचुयआमेलगजमलजुयलवट्टिय पयोहराओ' तमना भन्ने स्तन गण मने उन्नत सापाने राणे, सोनाना ઘડા જેવા લાગે છે, અને સ્તન બરાબર સરખા હોય છે-નાના મેટા હોતા नथी,, संहित-अशिथिस डाय छे. नीयनी मानु नभेला उतां नथी पास ઉન્નત હોય છે. તેમની અને ડીંટીએ મને હર અને અત્યંત શ્યામ મુખવાળી હોય છે. તે બન્ને સાથે જ ઉત્પન્ન થાય છે અને ગોળાકારનાં હોય છે. For Private And Personal Use Only Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० ४ सू० १२ युगलिनीस्वरूपनिरूपणम् जलउडबाहा' भुजङ्गानुपूर्वतनुक गोपुच्छवृत्तसमसंहितननितादेयलडहवाहवा = भुजङ्गवत् = सर्पवत् आनुपूर्वेण तनुको = क्रमशः कृशो तथा गोपुच्छवद् वृत्तौ = वर्तुलौ समसहितौ समत्वयुक्तो मुगुंठितौ च नमिती=सुदीर्घलम्बमानौ आदेयौ= लाघनीयौ ' लडह' इति सुन्दरौ वाहू-भुजौ यासां तास्तथा 'तंबनहा ' ताम्रनखाः-रक्तवर्णनखसम्पन्नाः ‘मंसलग्नहत्था ' मांसलाग्रहस्ताः-मांसलौ-पुष्टौ अग्रहस्तौ-हस्ताग्रभागौ ' पोचा' इति प्रसिद्धौ यासां तास्तथा, तथा 'कोमल पीवरवरंगुलीया ' कोमल पोवरवराङ्गुलिकाः, तेऽपि मरणधर्ममुपनमन्तीतिवक्ष्यमाणेन सम्बन्धः ।। सू-१२॥ पुनस्ताः कीदृश्यः ? इत्याह-निद्धपाणि लेहा' इत्यादि-- मूलम् ---निद्रपाणिलेहा ससि-सूरसंखचकवर-सोत्थिय विभत्त - सुरइय-पाणिलेहा पीणुण्णय कक्खवस्थिप्पएस गोपुच्छवट्टसमसंहियनाभिय आदेज्जल उडवाहा ) इनकी दोनों भुजाएँ सर्प की तरह क्रमशः कृशहुई होती है। तथा गाय की पूंछ की तरह वर्तुल होती हैं । सम-एकसी तथा संहित-संगठित होती हैं । नमितघुटनों तक लंबी रहती हैं। आदेय-देखने में प्रशंसनीय एवं बड़ी सुहा. वनी लगती हैं । (तंधनहा ) इनकी अंगुलियों के नख लाल वर्ण वाले होते हैं । तथा ( मंगलग्गहत्या ) इनका पोंचा मांसल-पुष्ट होता है । तथा ( कोमलपीवरवरंगुलीया ) इनकी हाथों की अंगलियां कोमल पीवर-पुष्ट एवं वर-उत्तम होती हैं। ऐसी ये स्त्रियां भी कामभोग से अतृप्त ही भरणधर्भ को प्राप्त करती हैं । ऐसा संबंध आगे के वाक्य से जोड लेना चाहिये ।। सू०१२ ॥ " भुयंग-अणुपुव्व-तलुय गोपुच्छवट्ट-समसंहिय-नामिय-आदेज्जल-उडवाहा " તેમની બને ભુજાઓ સર્ષની જેમ ક્રમશઃકૃશ થતી જાય છે, તે ભુજાઓ आयनी पूछडी 24 पतु सम-४ सरी, तथा सहित-सुति, धु! सुधी ainी, मने पाय-प्रशस्त, अने शामिती लागेछ " तंघनहा" तेमनी भांजीमोना नम सास गना डाय छ, तथा “ मंसलगहत्था" तेमना पोया मांस -पुष्ट खाय छ, तथा 'कोमलपीवरवरंगुलिया" तमना थनी આંગળિયે પાવર-પુષ્ટ અને ઉત્તમ હોય છે. એવી તે યુગલિક છીએ પણ કામગથી અતૃપ્ત રહીને જ મૃત્યુ પામે છે એ સંબંધ આગળનાં વા साथे सभक सवा. ॥ सू० १२ ॥ For Private And Personal Use Only Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४७६ प्रश्नव्याकरणसूत्रे पडिपुण्णगल्लकवोल-चउरंगुल-सुप्पमाण-कंबुरसरिस-गीवा मंसल --संठिय -- पसस्थहणुया दालिमपुप्फप्पगासपीवरपलंब कोंचियवराधरा सुंदरोतरुट्टा दहिदगरय कुंदचंदवासंति मउल-अछिद्द - विमलदसणा रतुप्पलरत्तपउमपत्तसुकुमाल तालुजोहा कणवीर मउलकुडिल अब्भुण्णयउज्जुतुंगनासा सारयनवकमल- कुमुय--कुवलयदल निगर--तरिस- लक्षण पसत्थ-निम्मल--कंतनयणा--आनामिय-चावरु कण्हन्भराइसंठिय--संगयायय---सुजाय--तणु--कलिण---निद्धभूमगा अल्लीण--पमाण - जुत्तसवणा सुस्सवणा पणिमट्ट-गंडलेहा चउरंगुल - विसाल - समनिडाला कोमुईरयणियर - विमल पडिपुण्णा सोम्मवयणा छत्तुण्णयउत्तमंगा अविकल सुसि. णिद्ध दीह-सिरया छत्त २ ज्झय २ जुव३ थूभ ४ दामाण ५ कमंडलु ६ कलस ७ वावि ८ सोस्थिय ९ पडाग १० जव ११ मच्छ १२ कुम्भ १३ रहवर १४ मयर १५ अंक १६ थाल १७ अंकुस १८ अट्ठावय १९ सुपइठ २० अमर २१ सिरियाभिसेय २२ तोरण २३ मेइणि २४ उदधिवर २५ पवरभवण २६ गिरिवर २७ वरायंस २८ सुललियगय २९ वसभ ३० सीह ३१ चामर ३२ पसत्थ बत्तीसलक्खणधराओ हंससरिच्छगईओ कोइलमहुरागिराओ कंता सव्वस्स अणुमयाओ, ववगयवली-पलिय-वंगदुबण - वाहि देभिग्ग-सोयमुक्काओउच्चत्तेणय नरथोवूणमूसियाओ सिंगारागारचारुवेसा सुंदरथणजहणवयणकरचलणणयणा लावण्णरूवजोव्वणगुणाव For Private And Personal Use Only Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४७७ सुदर्शिनी टीका अ0 ४ सू० १३ युगलिनीस्वरूपनिरूपणम् वेया, णंदणवणविवरचारिणीओ ओव्वअच्छराओ उत्तरकुरुमाणुसच्छराओ आच्छेर गयेच्छणिजाओ तिणिपलि ओवमाइं परमाउं पालइत्ता ताओ वि उवणनंति मरणधम्म अतित्ता कामाणं ॥ सू०१३॥ यीका-'निद्धपाणिलेहा ' स्निग्धपाणिरेखाः = सुस्पष्टहस्तरेखाः । ससिसरसंखचक्कवरसोत्थियविभत्तसुविरड्यपाणिलेहा ' शशि--सूर्य-शङ्ख-चक्रवर स्वस्तिकविभक्तसुरतिदपाणिरेखाः = चन्द्रसूर्यशङ्खचक्रदक्षिणावर्तस्वस्तिकलक्षणाः विभक्ताः सुस्पष्टाः रतिदाः-सुखदाः पाणिरेखाः हस्तरेखा यांसां तास्तथा । ' पीणुण्णयकक्ववस्थिप्पदेसपडिपुण्णगलकबोला' पीनोन्नतकक्षवस्तिप्रदेशमतिपूर्णगलकपोलाः = पीनावुन्नतौ च कक्षौ = बाहुमूलौ बस्तिः = नाभ्यधोभाग स्तथा प्रतिपूर्णी गलकपोलौ यासां तास्तथा ' चउरंगुलमुप्पमाणकंबुबर सरिसगीवा' चतुरंगुलसुप्रमाणकम्बुवरसदृशग्रीवाः = चतुरंगुलप्रमाणा कम्युवर फिर वे कैसी होती हैं सो कहते हैं-'निद्धपाणिलेहा' इत्यादि। टीकार्थः-(निद्धपाणिलेहा ) इनके दोनों हाथों की रेखाएं स्निग्धसुस्पष्ट होती हैं। (समिसरसंखचक्कवरसोत्थियविभत्तसुविरइयपाणिलेहा) उनके हाथों में शशि-चंद्र रवि, शंख, चक्र और दक्षिणावर्त स्वस्तिक, इन आकार की रेखाएँ होती हैं । और ये सब रेखाएँ सुस्पष्ट रहती हैं, सुखद होती हैं। (पीणुण्णयकक्खवत्थिप्पदेसपडि पुण्णगलकवोला) इनकी दोनों कक्षाएँ-बाहुमूल-पीन-पुष्ट और उन्नत होता है। वस्ती नाभि का अधोभाग भी ऐआ ही होती है । तथा गला और कपोल ये दोनों इनके प्रतिपूर्ण-भरे हुए रहते हैं । ( चउरंगुलसप्पमाणकंबूवर ते युगतिर स्त्रीयानुं वधु वान ४२ छ-" निद्धपाणिलेहा" त्याहि. Astथ :-"निद्वपाणिलेहा" तेमना मन्ने खायनी २ स्नि५-सुस्पष्ट डाय छे. " ससिसूरसंखचक्कारसेात्थियविभत्तसुविरइयपाणिलेहा" तेभना खायामा ચંદ્ર,સૂર્ય,શંખ,ચક,દક્ષિણાવર્ત સ્વસ્તિક આદિના આકારની રેખાઓ હોય છે. ते ५धी २४ामे सु२५०८ भने सुमह डाय छे. “ पीणुण्णयकक्खवस्थिप्पदेसपडिपुण्णगलकवोला" तेमनी मन्ने सो पुष्ट मने उन्नत डाय छे. बस्तिનાભિની નીચેને ભાગ પણ એ જ હોય છે, તથા તેમનું ગળું અને ગાલ પ્રતિपू स२ डाय छे. “ चउरंगुलसुप्पमाणकंबरसरिसगीवा " तेमनी श्रीवा For Private And Personal Use Only Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir છ૭૮ प्रश्नव्याकरणसूत्रे सदृशी-प्रधानशङ्खतुल्या च ग्रीवा यासां तास्तथा ' मंसलसंठियपसत्थहणुया' मांसलसंस्थितपशस्तहनुकाः = मांसला-पुष्टः संस्थितः = सुसंस्थानयुक्तः आम्रफलाकारः प्रशस्त सुन्दरो हनु:-ओष्ठाधोभागो यासां तास्तथा । 'दालिमपुप्फप्पगासपीवरपलंघकोचिय वराधरा - दाडिमपुष्पमकाशपीवरमालम्बवराधरा-तत्र-दाडिमपुष्पपकाशः = दाडिमपुष्पसमपभो रक्त इत्यर्थः, पीवरः = पुष्टः मालम्बः = ईपल्लम्बमानः कुश्चितः = वलितः वरः = भशस्तोऽधरो यास तास्तथा' मुंदरोत्तरुट्ठा' सुन्दरोत्तरोष्ठा-सन्दरउत्तरोष्ठउपरितन ओष्ठो यासां तास्तथा ' दधिदगरयकुंदचंदवासंतिमउलअच्छिदविमलदसणा । दधिदकरजः कुन्दचन्द्र वासन्तीमुकुलाछिद्रविमलदशनाः तत्र-दधिदकरजः = जलबिन्दुः कुन्दा पुष्पविशेषः चन्द्रः प्रतीतः वासन्तीमुकुला वासन्तीनामक पुष्प कुड्मलश्च इत्येतेः सदृशाः शुक्लाः अछिद्राः अविरलाः सुमिलिता दशनाः दन्ताः यासां तास्तथा 'रत्तुप्पलरत्तपउमपत्तसुकुमालतालुजीहा' रक्तोत्पलरक्तपद्मपत्र मुकुमारतालुजिहाः सरिसगीवा ) इनकी गर्दन चार अंगुल की तथा प्रधान-उत्तम शंख के जैसी होती है । ( मंसलसंठियपसस्थहणुया ) इनके ओष्ठ का अधोभाग रूप दाढी मालल-मजबूत पुष्ट, संस्थित-आम्र फल के जैसी सुन्दर आकार वाली और प्रशस्त-सुहावनी होती है। (दालिमपुप्फप्पगासपीवर. पलंवकोचियवराधरा) इनका अधरोष्ठ दाडिम-अनार के पुष्य के समान लाल वर्ण वाला होता है। पीवर-मांसादि से भरा हुआ होने के कारण पुष्ट होता है। तथा प्रालम्ब-कुछ २ लम्बासा रहता है । कुश्चितवलित एवं प्रशस्त होता है । ( सुंदरोत्तरुट्टा ) जिनके ऊपर का ओष्ठ सुन्दर होता है। ( दधिदगरयकुंदचंदवासंतिम उलअच्छि इविमलदसणा) इनके निर्मल दाल-दही, जलबिन्दु, कुंदपुष्प, चन्द्र, वासन्ती पुष्पकी कली, इनके जैसे शुभ्र होते हैं । विरले नहीं होते हैं किन्तु अविरलपरस्पर में मिले हुए रहते हैं। (रत्तुप्पलरत्तपउमपत्तसुकुमालतालुजीहा) सा२ मinnी तथा उत्तम शमवी साय छे. “ मंसल संठियप सत्थहणुया" તેમના હોઠના નીચેના ભાગરૂપ દાઢી માંસલ મજબૂત, સંસ્થિત–આમ્રફળના सपा सु२ मारवाणी मने प्रशस्त सु२ डाय छे. “दालिगपुःफ पगासपीवरपलं बको चियवराधरा" भने। अचशष्ठ दाउमाना इसवी सास गनी, પુષ્ટ, તથા સહેજ લંબાયેલો રહે છે. તે અરેષ્ઠ કુંચિત વળે અને उत्तम डाय छे "सुंदरोत्तरुट्टा" तेमने। 8५२। 18 सुदर डाय छे. “ दधिदगरयकुंदचंदवासतिम उलअच्छिद्धविमलदसणा " तमना निमiतडी , જળબિંદુ, કુંદપુષ્પ, ચન્દ્ર અને વાસન્તી પુષ્પની કળી, જેવા સફેદ હોય છે. તે દાંત છૂટા છૂટા હતાં નથી પણ પરસ્પરમાં મળીને આવેલા હોય છે. " रत्तुप्पलरत्तपउमपत्त सुकुमालतालुजीहा " तेभर्नु त भने स साल For Private And Personal Use Only Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदशिनी टीका अ) ४ सू० ११ युगलिनीस्वरूपनिरूपणम् तत्र रक्तोत्पलं = रक्त कमलं तद्वत् रक्तपद्मपत्रवच्च सुकुमारंः तालुजिह्व यासां तास्तथा, ' कणवीरमउलकुडिल अध्भुणय उज्जुतुंगनासा ' करवीरमुकुलाऽ कुटिलाऽभ्युनतऋजुतुङ्गनासाः = करवीरमुकुलं = कर्णिकारकलिका तद्वत् अकु. टिला-अपना अभ्युन्नता अभितः उन्नता ऋषी-सरला तुङ्गा मध्योन्त्रता च नासानासिका यासां तास्तथा 'सारयनवकमलकुमुयकुवलयदलनिगरसरिसलक्खणप सत्य निम्मलकंतनयणा' शारदनवकमल कुमुदकुवलयदलनिकरसदृशलक्षणपशस्तनिर्मलकान्तनयनाः = शारदं = शरत्कालिकं यत् कमलं = सूर्यविकासिपा, कुमुदं चन्द्रविकासिपमं कुवलयदलं-नीलकमलपत्रं च तेषां निकरः-समूहः तेन सदृशे लक्षणप्रशस्ते-प्रशस्तलक्षणोपेते निर्मले उज्ज्वले कान्ते=गनोहरे च नयने यासां तास्तथा ' आनामिय चावरुड्ल किण्हब्भराइ संठिय संगया यय सुजायतणुकसिणनिद्धभूमगा ' आनामितचापरुचिरकृष्णाभ्रराजिसंस्थितसंगतसुजाततनु कृष्णस्निग्धभ्रवः-आनामितौबक्रीकृतौ चापौ = धनुषी तद्वत् रुचिरे कृष्णा भ्रराजिसंस्थिते-कृष्णोघरेखासदृशे संगते समुचिते आयते दीर्घ सुजाते स्वभातालु और जिह्वा जिनका रक्त कमल के समान, तथा रक्तपनपत्र के समान सुकुमार होती है । ( कणवीरमउलकुडिल अध्भुण्णयउज्जुतुंगनासा नासिका कर्णिकार कनेर-की कलिका-कली-के समान अकुटिल तथा अभ्युनत, ऋग्वी-सरल, और तुङ्ग-मध्य में उन्नत होती है। ( सारयनवकमल कुमुयकुवलयदलनिगरसरिसलक्खणपसत्थनिम्मलकतनयणा । जिनके दोनों नयन शरदकालसंधि सूर्यविकासी कमल के तथा चन्द्र विकासी पद्म के, कुवलय दल के, नील कमल के पत्रके समूह जैसे होते हैं । प्रशस्त लक्षणों से युक्त, निर्मल-उज्ज्वल, एवं कान्त-मनोहर होते हैं। (आनामियचाचरुहल किण्हाभराइसंठियसंगयाययसुजायतणुकमिणनिभूमगा) जिनकी दोनों भोहे वक्रीकृत धनुष ४७ वी तथा ale पत्र वा सुभा२ सय छ, “कणवीरम उलकुडिलअब्भु ग्णय उज्जुतुंगनासा " तेभनी नासिर उनी जी वी मधुदिसतया उन्नत, ऋज्वी-स२१ मत तु-मध्यम अची डाय छ, “सारयनवकमलकुमुयकुवलय - दलनिगर-सरिस - लक्खणपसत्य-निम्मल- कंतनयणा" જેમનાં બને નયન શરદઋતુના સૂર્ય વિકસિત કમળ તથા ચન્દ્ર વિકસિત પની પાંખડીઓ જેવાં તથા નીલકમલના પત્રસમૂહ જેવાં, પ્રશસ્ત લક્ષણેपाi, नि -Sarirqn, भने मनोड हाय छे. “ आनामियचावरुइलकिण्हभराइसठियसंगयाययसुजायतणुकसिण निद्धभूभगा” भन्ना ने- अभ। વકીકૃત ધનુષ્યના જેવી મહર, શ્યામ વાદળોના સમૂહ જેવી, સંસ્થિત, For Private And Personal Use Only Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४८० प्रश्नव्याकरणसूत्रे वतः सुन्दरे तनू प्रतले कृष्णे-कृष्णवणे स्निग्धे चिक्कणे भ्रुवौ यासां तास्तथा । ' अल्लीणपमाणजुत्तसवगा' आलीनप्रमाणयुक्तश्रवणाः = आलीनौ-स्तब्धौ प्रमाणयुक्तौ-समुचितप्रमाणौ श्रवणौ कौँ यासां तास्तथा एतावदेव न ? किन्तु “ सुस्सवणा' मुश्रवणाः = शब्दग्रहणशक्तिसम्पन्नयुक्ताः, 'पीणमट्ठगंडलेहा' पीनमृष्ट गण्डरेखा-पीना=पुष्टादृष्टा-ममृणा सुकुमारा गण्ड रेखा-कपोल पाली यासां तास्तथा 'चउरंगुलविसालसमनिडाला' चतुरंगुलविशालसमललाटा = चतुरंगुलं-चतुरंगुलप्रमाणं विशालं-विस्तीर्ण समं समतलं ललाटं यासां तास्तथा 'कोमुई रयनियरविमलपडिपुण्णसोम्मवयणा ' कौमुदी रजनीकर विमलपतिपूर्ण सौम्यवदना: कौमुदी-कार्तिकी पूर्णिमा तस्या यो रजनीकरः = चन्द्र तद्वत् विमलं-निर्मलं प्रतिपूर्ण सौम्यं सुभगं वदनं यासां तास्तथा कार्तिकीपूर्णचन्द्रवदनाः, 'छत्तुण्णयउत्तमंगा' छत्रोन्नतोत्तमाङ्गाः छत्रवत्समुछितमस्तकाः 'अकवि लसुमिणिद्धदीहसिरिया । अपिलमुस्निग्धदीघशिरोजाः = अकपिला = अपि केसमान रुचिर, कृष्णमेघराजि के समान, संस्थित, संगत-उचित आकारयुक्त, आयत-दीघ, सुजात-स्वभावतः सुन्दर, तनु-पतली, कृष्ण-कृष्णवर्णोपेत, और स्निग्ध-चिकनी होती हैं। (अल्लीणपमाणजुत्तमवण्णा ) आलीण-स्तब्ध एवं समुचित प्रमाण से युक्त इनके दोनों कान होते हैं । ( सुम्सवणा ) तथा ये दोनों ही कान शब्दग्रहण. करने की शक्ति से युक्त होते हैं। (पीगमट्टगंडलेहा ) इनकी कपोलपाली पीन-पुष्ट और मृष्ट-सकुमार होती है । (चउरंगुलविसाल समनिडाला ) इनका विस्तीर्ण ललाट चार अंगुल प्रमाणवाला होता है तथा सम-समतल होता है । ( कोमुईरयनियर विमल पडिपुण्ण सोम्मवय गा) इनका मुग्व कार्तिकी पूर्णिमा के चंद्रमंडल के समान निर्मल तथा पूर्ण होता है । मुभग होता है । ( छतुण्णयउत्तमंगा ) समुच्छित विस्तारित छत्र के समान इनका मस्तक उन्नत होता है ! (अविल सुसिणिद्धसात-सु31, मायत-Hial, सुनत-४६२ती रीते २५ सुंदर, तनु-पाती, ॥ शनी मने स्निग्ध-भुसायम हाय छे. "अल्लीणपमाणजुत्तसवण्णा" तमना मन्ने न २५ मने सप्रमाण डाय छ. “ सुस्सवणा" ते भन्ने आननी श्रवणशस्ति सरस डाय छे. “पीणमटूगंडलेहा" तमना पास पुष्ट मने सुमा२ डाय छे. " चउरगुलविसालसमनिडाला" तभनु विश ससाट या२ मा पडा भने समतस खाय छे. “कोमुई-रय-नियरविमल पडिपुण्णसोम्मवयगा" तेभर्नु भु५ आती पूनमना यन्द्रमा निम तया पूर्ण हाय छे. "छत्तण्णयउत्तमंगा" विस्ती छत्र समान उन्नत तभनु मस्त डाय छे. “ अकविलसुसिणिद्धदीहसिरया " तेमनां माथा ५२ना For Private And Personal Use Only Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - - सुदशिनी टीका अ. ४ सू० १३ युगलिमीस्वरूपनिरूपणम् शाः कृष्णा इत्यर्थः सुस्निग्धाः सुकोमलाः दीर्घाश्च शिरोजाः केशा यासा तास्तथा 'छत्त १ ज्झय २ जूव ३ थूम ४ दामणि ५ कमंडलु ६ कलस ७ वावि ८ सोत्थिय ९ पडाग १० जय ११ मच्छ १२ कुम्म १३ रहवर १४ मगर १५ अंक १६ थाल १७ अंकुस १८ अट्ठावय १९ मुपइट २० अमर २१ सिरियाभिसेय २२ तोरण २३ मेइणि २४ उदहिवर २५ पवरभवण २६ गिरिवर २७ घरायस २८ सुललियगय २९ वसभ ३० सीह ३१ चामर ३२ पसस्थ बत्तीसलक्रवणधराओ'छत्र १ ध्वज २ यूप३ स्तूप ४ दामनी५ कमण्डलु ६ कलश७ वापी ८ स्वस्तिक ९ पताका १० यव ११ मत्स्य १२ कूर्म १३ स्थवर १४ मकरा १५ ऽङ्कः १६ स्थाला १७ अशा १८ ऽष्टापद १९ सुप्रतिष्ठा २० ऽमर २१ श्रीकाभिषेक २२ तोरण २३ मेदिन्यु २४ दधिवर २५ प्रवरभवन २६ गिरिवर २७ वरादर्श २८ सुललितगज २९ वृषभ ३० सिंह ३१ चामर ३२ प्रशस्त द्वात्रिंशल्लक्षणधराः, तत्र-छत्त' छत्रं १ 'ज्ज्ञय ' ध्वजः २ 'जूव' यूपः दारूस्तम्भविशेषः ३ 'थूभ ' स्तूपः= 'चौतरा' इति भाषा प्रसिद्धः४, 'दामिणि' दामनी = रज्जु:-तदाकाररेखेत्यथैः ५. कमण्डलुः - प्रसिद्धः ६, दीहसिरया) इनके मस्तक के केश विलकुल काले होते हैं ! सुस्निग्धसुकोमल एवं दीर्घ-लंबे होते हैं। (छत्त १ ज्झय २ जूव ३ थूम ४ दामणि ५ कमंडलु ६ कलम ७ वावि ८ सोत्थिय ९पडाग १० जब ११ मच्छ १२ कुंभ १३ रहवर १४ मगर १५ अंक १६ थाल १७ अंकुस १८ अट्ठा. घय १९ मुपइदु २० अमर २१ सिरियाभिसे य २२ तोरण २३ मेइणि २४ उदहिवर २५ पवरभवण २६ गिरि वर २७ वरायंस २८ मुललियगय २९ वसभ ३० सीह ३१ चामर पसत्य बत्तीसलक्खणधराओ) ये इन प्रशस्त बत्तीस ३२ लक्षणों को धारण करती हैं-छत्र १ध्वजा २, यूप-स्तंभ २, स्तूप-चोतरा ४, दामनी-रस्सी ५, कमण्डलु पास तदन mi, सुरमा भने खini sय छे. " छत्त १ सय २ जूव ३ थूभ ४ दामणि ५ कमडलु ६ कलस ७ वावि ८ सोस्थिय ९ पडाग १० जव ११ मच्छ १२ कुंभ १३ रहवर १४ मगर १५ अंक १६ थाल १७ अंकुस १८ अद्रावय १९सुपइठ्ठ २० अमर २१ सिरियाभिसेय२२ तोरण २३ मेइणि २४ उदहिवर २५पवरभवण २६ गिरिवर २७ वरायंस २८ सुललियगय २९ वसभ ३० सीह ३१ चामर ३२ पसस्थवत्तीसलक्खणधराओ" ते युगतिर सतनाम मा પ્રમાણે ૩૨ (બત્રીસ) ઉત્તમ લક્ષણે ધારણ કરે છે– (१) छत्र (२) 4 (3) यू५-२० (४) २तू५-यमृतरे। (५) हमनी. २९, (६) ४४, (७) ४१२० (८) पायी (6) परितः (१०) पता For Private And Personal Use Only Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir মহাকাল 'कलस ' कलश:= घटः ७ 'वावि' वापी ८' सोस्थिय ' स्वस्तीकः९ 'पडाग' पताका १० 'जव' यवः ११ 'मच्छ ' मत्स्यः १२ 'कुम्म' कूर्म:-कच्छपः १३, रथवरः-प्रधानरथः १४ 'मगर' मकरः १५, अङ्कः-रत्नाकरचिह्नविशेषः १६, 'थाल ' स्थाल:=पात्रविशेषः १७ अङकुशः १८ 'अट्टावय' अष्टापदंगृतफलकं १९ 'सुपट्ट' सुप्रतिष्ठकं-स्थापनकं पात्रविशेषः २० अमरः- देवविशेषः २१ ‘सिरियाभिसेय' श्रीकाभिषेकः २२ तोरणं २३ ' मेइणि' मेदिनी-पृथ्वी २४ उदधिवरः २५ ' पररभवण' प्रवरभवनं २६ गिरिवरः २७ 'वरायंस ' वरादर्श: प्रशस्तदर्पणः २८ मुललियगय ' मुललितगजः २९ 'वसम' वृषभः ३०, सीह ' सिहः ३१ चामरं ३२ च इत्येतानि प्रशस्तानि द्वात्रिंशरलक्षणानि तेषां धरा यास्तास्तथाः, 'हंससरिच्छगईओ ' हंसमदृशगतयः, ' कोइलमहुरगिराओ' कोकिलमधुरगिरः कोकिलमधुरस्वराः, 'कंता' कान्ताः मनोज्ञाः, 'सदस्स अणुमयाओ ' सर्वस्याऽनुमताः - सवजनमियाः ववगयवलीपलिय६, कलश ७, वापी ८, स्वस्तिक ९, पताका, १०, यव, ११, मत्स्य १२, कूर्म-कच्छप १३, रथवर-प्रधानरथ १४, मकर १५, अंक-रत्न के आकार जैसा चिह्न १६, स्थाल-थाल १७, अंकुश १८, अष्टापद-तफलक १९, सुप्रतिष्ठक-टोणा २०, अमरदेवविशेष २१, अभिषेक करती हुई लक्ष्मी २२, तोरण २३, मेदिनी-पृथ्वी २४, उदधिवर-समुद्र २५, उत्तमभवन २६, उत्तमपर्वत २७, सुन्दर दर्पण २८, सुललितगज २९, वृषभ-चैल ३०, सिंह ३१, और चामर ३१ । (हंससरिच्छगई ) इनकी गतिचाल-हँस की गति जैसी होती है। (कोइलमहरगिराओ) उनकी वाणी-कोयल की वाणी जैसी मधुर होती है । (कंता) ये अत्यंत मनोज्ञ होती हैं । ( सव्वस्स अणुमयाओ ) समस्त जनों को प्रिय लगती हैं। (११) यव (१२) मत्स्य, (13) म-यो, (१४) उत्तम. २५ (1५) भार (१६) -२(नना २२ चिह्न (१७) थाण (१८) मधुश (१८) मष्टा५४gd५८४, (२०) सुप्रतिष्ठ-zin (२१) अभ२-वविशेष (२२) अनिये ४२तीसक्ष्मी (२३) तो२९५ (२४) मेहिनी-पृथ्वी, (२५) धिं१२-समुद्र (२६) उत्तम भवन (२७) उत्तम. ५'त (२८) सु४२ ४५९५ (२८) सुदर २४ (३०) वृषम (31) सिंह अने (३२) याभ२. "हंससरितगई" तेमनी याद सनी यास वा खय छ, “कोइलमहुरगिराओ" तेमनी वा छोयसनी पा रवी भीही डाय छ, “ कंता" ते सत्यात भनी २ डाय छ, भने " सव्वस्स अणुमयाओ" सघा वहिने प्रिय लागे छे. “ववगयवलो पलियवंग For Private And Personal Use Only Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुरर्शिनी टीका अ0 ४ सू. १३ युगलिनीस्वरूपनिरूपणम् वंगदुव्वणवाहिदोभग्गसोयमुकाओ' व्यपगतवलीपलित व्यङ्गदुर्वर्णव्याधिदौर्भाग्यशोकमुक्ताः व्यागता-अष्टा वली = चर्मशिथिलता तथा पलितं केशशुक्लत्वं व्यङ्ग–अङ्गविकलता दुर्वणः-वैरूप्यं व्याधिः शरीरव्यथा, दौर्भाग्यं वैधव्यं शोकःखेदश्च एर्मुक्ताः = रतिदा यास्तास्तथा 'उच्चत्तंग य नरथोवूगमूसियाओ' उच्चत्वेन च नरस्तोकेनोच्छिता: उच्चत्वेन शरीरोच्चत्वेन च नरेभ्यः पुरुषेभ्यो स्तोकोनं-किञ्चिन्यूनं यथास्यात्तथा उच्छूिनाः उच्चायास्ताः तथा-पुरुपप्रमाणात् किश्चिदल्पप्रमाणोन्नताः, 'सिंगाराऽऽगारचारुवेसा' शृङ्गाराऽऽगारचारुवेषाः, शृङ्गारस्य श्रृङ्गाररसस्य आगारमिव-गृहमिव चारुः सुन्दरः वेषः वस्त्रादिविभूषा यासां तास्तथा 'मुंदर थणजहणवयणकरचलणणयणा ' सुन्दरस्तन. जघनवदनकरचरणनयनाः = सुन्दराणि स्तन-जघन-बदन-कर-चरण - नयनानि यातां तास्तथा 'लावण्णरूपजोधणगोपवेया' लावण्य रूपयौवनगुणोपेता:लावण्यं = शरीरसौन्दर्यवैशिष्टयं निखिलावयवातिरेकिस्वरूपशोभाविशेषः रूपं ( क्वगवलीपलियवंगदुव्यगवाहिदो भग्ग सोयमुक्काओ) इनकी चमडी में शिथिलता कहीं नहीं आती है । वालों में सफेदी नहीं आती है। इनका कोई भी अंग विकल नहीं होता है । विरूपता इनमें बिलकुल नहीं होती है । व्याधि का इनमें अभाव होता है । वैधव्य रूप दौर्भाग्य से रहित होती हैं । शोक और खेद से वर्जित होती हैं । (उच्चत्तेण य नरशेयूण. मूसियाओ ) ऊबाई में ये मनुष्यों से कुछ ही कम होती हैं । ( सिंगारागारचारूवेसा ) शृंगाररस के घर जैसा इनका सुन्दर वेष-वस्त्रादि वेषभूषा होता है। (सुन्दर थगजहणवयणकरचलणणयणा) इनके स्तन, जघन, वदन, कर, चरण, और नयन सुन्दर होते हैं। ( लावण्णरूवजो. व्वणगुगोववेया ) इनमें लावण्य, रूप, यौवन एवं गुण असारण होते हैं। दुब्बणवाहिदोभग्गसोयमुक्काओ " तेमनी यामsli शिwिal आपती નથી, વાળ સફેદ થતા નથી, તેમને કઈ પણ અંગે ખેડ હેતી નથી, તેમનામાં વિરૂપતા બિલકુલ હોતી નથી, વ્યાધિ તેમને પડતી નથી કારણ કે તેઓ નીરોગી હોય છે, તેઓ વૈધવ્ય રૂપ દુર્ભાગ્યથી રહિત હોય છે. અને us मने मेथी २डित य छे. “ उच्चत्तेण य नरथोवूण मूसियाओ" भनुध्यो ४२di तेमनी या थोडी डाय छ. “ सिंगारागारचारुवेसा" तेमनी वेषभूषा श्रृंगार २सन॥ ५२ २वी खाय छे. ' मुंदरथणजहणवयणकरचलणणयणा" तमना स्तन, पा, पहन, ४२, न्य , अने नयन हर हाय छे. " लावण्णरूवजोवणगुणोववेया" तेमनामा १५५, ३५, योपन भने २१ For Private And Personal Use Only Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir બટર प्रश्नव्याकरणसूत्रे = = नासिका नयनाग्राकारः यौवनं तरुणावस्था, गुणाः = औदार्यमाधुर्य सौकुमार्यादयस्तैरुपेताः = युक्ता या स्वास्तथा, 'गंगवणविवरचारिणी ओव्यअच्छराओ' नन्दनवन विवरचारिण्यवाप्सरसः = नन्दनवनम देशसञ्चरणशीला अप्स - रस इव, उत्तरकुरु माणसच्छाओ ' उत्तरकुरूमानुपाप्सरसः = उत्तरकुरुषु मानुष स्वरूपा अप्सरसः 'अच्छरगपेच्छणिज्जाओ' आश्रर्य प्रेक्षणीया: = अद्भुतरूपत्वादाश्रर्येण प्रेक्षणीयाः, तिष्णि पलिओ माई परमाउं पालहत्ता ' त्रीणि पल्योपमानि परमायुः पालयित्वा ' ता अपि - उत्तरकुरुदेवकुरुवनविवरनिवासी नरगणप्रमदा शारीरिक विशिष्ट सौन्दर्य का नाम लावण्य है। यह लावण्य समस्त अवयवों के सौन्दर्य से भी परे स्वरूप की शोभा विशेष रूप होता है। नासिका, नयन, आदि की समुचित जो आकार रचना है वह रूप है । तरुण अवस्था का नाम यौवन है। औदार्य, माधुर्य सौकुमार्य आदि का नाम गुण है। (गंदणवणविवरचारिणीओग्य अच्छराओ उत्तरकुरुमाणसच्छराओ) नंदनवन में विचरनेवाली अप्सराओं के समान ये उत्तरकुरू की भूमि में मनुष्य रूपिणी अप्सराएँ हैं। (अच्छरगवेच्छणिजाओ) अद्भुतरूप शालिनी होने के कारण ये आश्चर्य से देखने योग्य होती हैं, अर्थात् - इनको देखने से मनुष्य को बहुत अधिक आश्चर्य होता है । कारण इनकी रूप संपत्ति ऐसी अद्भुत होती है जो मनुष्यों में और जगह नहीं पाई जाती है। (तिष्णिपलिओ माई परमाउं पालहत्ताताओ वि अवितित्ता कामाणं उवणमंति मरणधम्मं ) इनकी उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्य की होती है। इतने कालतक ये देवकुरु उत्तरकुरु અસાધારણ હોય છે. શારિરિક વિશિષ્ટ સૌને લાવણ્ય કહે છે. તે લાવણ્ય સમસ્ત અવયવાના. સૌ ઉપરાંત સ્વરૂપની વિશિષ્ટ શાભારૂપ હોય છે. નાસિકા, નયન આદિની સુડાળ આકાર વાળી રચનાને રૂપ કહે છે. તરુણુ अवस्थाने यौवन डे छे. उदारता, भाधुर्य, अभणता आदि गुण गाय छ, “ णंदणवणविवरचोरिणी ओव्वअच्छराओ उत्तरकुरूमाणसच्छराओ " નંદન થનમાં વિચરતી અપ્સરાએ જેવી તે ઉત્તરકુની ભૂમિમાં મનુષ્યરૂપિણી यासरायो छे. “ अच्छरगपेच्छणिजाओ " मद्भुत सौंदर्यवाजी होवाने अरणे તે સ્ત્રીઓ આશ્ચયથી જોવા જેવી હાય છે, એટલે કે તેમને જોઈ ને મનુષ્યને અત્યત આશ્ચય થાય છે કારણ કે તેમનું રૂપ એટલું બધુ અપૂર્વ હાય છે. કે તે રૂપ મનુષ્યામાં કાઇ પણ જગ્યાએ જોવા મળતું નથી. " तिष्णिपलि माई' परमाउ पालइत्ता ताओ वि अवितित्ता कामाणं उत्रणमंति मरणधम्म " તેમની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ ત્રણ પદ્મની ઢાય છે. એટલા સમય સુધી તે દેવકુ For Private And Personal Use Only Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुरशिनी टोका अ०४ सू० १.४ चतुर्थमन्तो निरूपणम् अपि, 'अवितित्ता कामाणं' अतृप्ता कामानाम् कामोपभोगेष्वतृप्ता एव 'उवणमंतिमरणधम्मं ' उपनमन्ति मरणधर्म-म्रियन्त इत्यर्थः ।। सू०१३ ॥ एतावताऽब्रह्माख्यचतुर्थाधर्मद्वारस्य ' ये च कुर्वन्ति' इति पञ्चममन्तरनिरूपितम् । साम्प्रतं पूर्वमनुक्तं ' यथाकृतम् । इति तृतीयमन्तर ' यत्फलं ददाति ' इति चतुर्थमन्तारं च वर्णयन्नाह–'मेहुण' इत्यादि मूलम्-मेहुणसन्नासं पगिद्धाय मोहभरिया सत्थेहि हणंति एकमेकं विसय-विस-उदीरएहिं अवरे परदारेहि हम्मंति विसुणिया धमनासं सयणविप्पणासं च पाउणंति परस्त दाराओ जे अविरया। मेहुणसण्णा संपगिद्धाय मोहभरिया अस्साहत्थी गवाय महिसा मिगाय मारिति एक्कमेकं । मणुयगणा बानरा य पक्खी य विरुझंति मि. ताणि खिप्पं भवंति सत्तु । समयधम्मे गणे य भिंदति पारदारी धम्मगुणरयाय बंभयारी खणेग उल्लोइंति चरिताओ। जसमंता सुव्वया य पावंति अजसकित्तिं । रोगत्ता वाहिया वटुंति रोयवाही, दुवेय लोए दुराराहगा भवंति इहलोए चेव परलोए परस्स दाराओ जे अविरया। तहेव केइ परस्स दारं गवेसमाणा गहिया य हयायबद्धारुद्धा य एवं जावगच्छंति विउल मोहाभिभूयसण्णा । मेहुण मूला य सव्वंति तत्थ तत्थ वत्तपुवा संगामा जणक्खयकरा निवासिनी स्त्रियां कामसुखों को भोगती रहती हैं। परन्तु फिर भी उनसे ये तृप्त नहीं होती हैं। इस तरह कामभोगों में अतृप्त बनकर ही ये अन्त में मृत्यु को प्राप्त हो जाती हैं ।। सू०१३ ॥ નિવાસિની લલનાઓ કામગ ભેગવ્યા કરે છે, છતાં પણ તેમનાથી તેઓ તૃમિ અનુભવતિ નથી. આ પ્રમાણે કામગથી અતૃપ્ત રહીને જ તેઓ મૃત્યુ पामेछ. ॥ सू. १३ ॥ For Private And Personal Use Only Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४६ नव्या कणसूत्रे सीयाए दोवईएयकए, रूपिणीए पउमावईए ताराए कंचणाए रत्तसुभद्दाए अहिन्निवाए सुवण्णगुलियाए किन्नरीए य सुरूव विज्जुमईए रोहिणीए य, अण्णे य माझ्या बहवो महिलाए सुव्वंति अइकंतासंगामा गाम धम्ममूला । अबंभसेविणो इहलोए तावनट्ठा परलोए य नहा महया मोहतिमिरंधयारे घोरे तसथावरसुहुम बायरेसु पजत्तमपजत्तसाहारणसरीरपत्तेय सरीरेसु य अंडय पोयय जराउय रसय संसेइम संमुच्छिम उब्भिज्ज उववाइएसु य नरग तिरियदेवमाणूससु जरामरणरोग सोगबहुलेसु पलिओमसागरोत्र माई अणादीयं अणवदग्गं दहिमदं चाउरंत संसारकंतारं अणुपरियहंांत जीवा महामोहवस संनिविट्ठा ॥ १४ टीका- 'मेहुण सण्णा संपविद्वाय ' मैथुनसंज्ञासम्प्रवृद्धाश्र - मैथुनाऽऽसक्ताः ' मोहभरिया' मोहनृताः = अज्ञानपूगः, 'विसयविसउदी र एहिं वपयविपोदीरकैः = इस तरह यहां तक सूत्रकार ने अब्रह्म नामके चतुर्थ द्वार का यह पांचवा अन्तर्द्वारि कहा, अब वे पूर्व में अनुक्त " यथा कृनम् " इस तृतीय अन्तर को और " यत्फलं ददाति" इस चतुर्थ अन्तर्द्वार को प्ररूपित करते हैं- 'मेहुणे सण्णा संपगिद्वाय ' इत्यादि० । टीकार्थ :- ( मेहुणसण्णा संपगिद्धा य) जो प्राणी मैथुन संज्ञा में आसक्ति से युक्त होते हैं अर्थात मैथुन में अत्यंत आसक्त रहते हैं वे આ રીતે મહીં સુધી સૂત્રકારે બ્રા નામના ચાથા અધમ દ્વારનું પાંચમુ' અન્તર્દ્વાર વર્ણવ્યું, હવે જેનું વર્ણન કરવાનું બાકી રાખ્યુ હતું તે " " यथा कृतम् ” नामना श्री अन्तर्द्धारनुं तथा " यत्फल' ददाति " ते यथा मन्तद्वरिनुं इषाणु रे छे - " मेहुणसन्ना- संपगिद्धा थ " त्याहि -- टीडार्थ ! — " मेहुणसण्णा संपगिद्धाय " ने वो मैथुनमा अत्यंत श्रासस्त रहे छे तेथे। “मोहभरिया " ते मैथुनय मना भोडथी लरपूर For Private And Personal Use Only Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुशिनी टीका अ० ४ सू० १४ चतुर्थमन्तधारनिरूपणम् शब्दादि विषयविषयस्य प्रवर्त कैः ‘सत्थेहिं ' शस्त्रैः 'एक्कमेवक' एकैकं = प्रत्येक 'हणंति' नन्ति। 'अवरे' अपरे केचित् 'परदारेहि' परदारैः परस्त्रीमिः ‘हम्मति' हन्यन्ते मार्यन्ते, 'परदारै-रित्यत्र कर्तरि तृतीया । यद्वा हेतौ तृतीया-परदारानिमित्तीकृत्य अन्यैबलवद्भिः पारदारिकैहन्यन्ते । 'विसुणिया ' विश्रुताः पारदारिकत्वेन प्रसिद्धाः सन्तः केचित् 'धगणासं ' धननाशं = ' सयणविप्पणासं' स्वजनविप्रणाश स्वजनवियोग ' पाउणंति ' प्राप्नुवन्ति, अयं भावः राजपुरुषास्तत्रागत्य परदारिकाणां धनं गृह्णन्ति, परदारिकं बद्धा दण्डनार्थ दण्डस्थानं नयन्ति च । यद्वा-परदारप्रसादनार्थ स्वकीयं पित्राद्युपार्जितं धनं परदारेभ्यः प्रय(मोहभरिया ) उस मैथुकरूप कर्म के मोहसे भरे हुए होने के कारण, अधवा-विवेक से विकल बने रहने के कारण (विसयविस उदीरएहिसत्थेहिं एक मेक्कं हणंति ) शब्दादि विषयरूप विषय के प्रवर्तक शस्त्रों से आपस में एक दूसरे को मार डालते हैं । ( अवरे ) कितनेक प्राणी (परदारेहिं हम्मति ) परस्त्रियों द्वारा मार दिये जाते हैं। अथवा परस्त्री को निमित्त करके अन्य बलशाली पारदारिक पुरुषों द्वारा मैथुनसंज्ञा में आसक्त मतिवाले व्यक्ति मार दिये जाते हैं । ( विसुणिया ) पारदारिक परस्त्री-लम्पट रूप से प्रसिद्ध हुए कितनेक मनुष्य (धणणासं) अपने धनके विनाश को और ( सयणविपणासं) आत्मीयजनों के विनाशको ( पाउणंति ) प्राप्त करते हैं। तात्पर्य इसका यह हे की परस्त्रीलंपट व्यक्ति के पास राजपुरूष आकर उसके धन को छीन लेते हैं। और बांधकर उसे दंड देने के निमित्त कारागार में ले जाते हैं। अथवा-परस्त्री को प्रसन्न करने के लिये पारदारिक मनुष्य अपने पिता आदि द्वारा उपानित पाने ४।२६, २५५१५ (4३४ हित मनी पाने ४२ 'विसयविसउदीरएहिं सत्थेहिं एकमेक हणंति " Avad विषय३५ विषन! प्रया२४ शस्त्रो १३ ५४२। म२ सीन में भी ने भारी नामे छ. “ अवरे" या दो। "परदारेहिं हम्मति" ५२त्री द्वारा वाय छे. अथवा ५२स्त्रीने २0 બીજા બળવાન પરસ્ત્રીગમન કરનારા પુરુષે દ્વારા મૈથુન સેવનમાં આસક્ત पुरुषाने भारी नापामा मावे छे. “ विसुणिया" ५२२६ ५८ गाता ३८८ पुरुषो “धणणासं" पाताना धनना नाश भने “ सयण विप्पणासं" मात्मीय बनानी नाश " पाउणंति "नात छ. तना लावा स छ પરસ્ત્રગામી પુરુષની પાસેથી રાજપુરુષો તેમનું ધન જપ્ત કરે છે, અને તેને બાંધીને શિક્ષા કરવાને માટે કેદખાનામાં લઈ જાય છે. અથવા પરસ્ત્રીને રીઝ. વવા માટે પરસ્ત્રીગામી પુરુષ પિતાના પિતા આદિ દ્વારા ઉપાર્જિત ધન તે For Private And Personal Use Only Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir • orterres , छन्ति, तत्र प्रतिबन्धकान् स्वजनानपि पारदारिका निघ्नन्तीति । के इत्याहपररसदाराओ जे अविश्या' परस्य दारेभ्यो येsबिरताः = परस्त्री प्रस्ङ्गाश्व विरताः परस्त्रीसङ्गपरायणाइत्यर्थः । तथा मेहुणसष्णासंपविद्धाय ' मैथुनसासम्म वृद्धाव ' मोहभरिया ' मोहभृताः = मोहग्रस्ताः ' अरसाहत्थोगवाय ' अश्वाः Eftaar nicea 'fter ' महिषाः ' मिगाय' मृगाच ' एकमेक्कं ' एकैकं - प्रत्येकं परस्परमित्यर्थः ' मारे'ति' मारयन्ति । ' मणुयगणा ' मनुजगणा 'वा नराय ' वानराव ' पवखोय' पक्षिणश्च ' विजयंति ' विरुध्यते= erect विशेषं - प्राप्नुवन्ति । तथा मैथुन सेवनात् 'मित्ताणि' मित्राणि ' खिप्पं ' शिमं शीघ्रं 'सत्तू ' शत्रवो भवन्ति, पुनश्च 'समयधम्मगणेयभिदति ' समयधर्मगणांच किये हुए द्रव्य को उसके लिये दे देते हैं, और जो इस विषय में उनके लिये कोई आत्मीय बंधू प्रतिबंधक होता है उसे बे मार डालते हैं। ( परस्सदाराओ जे अविरया ) यह सब कुकृत्य वे ही व्यक्ति करते हैं। जो पर की स्त्रीयों के सेवन करने रूप अकृत्य से विरत नहीं होते हैं। तथा - इसी तरह ( मेहूणसगासंपगिद्धा य) मैथुनसंज्ञा में आसक्त ( मोहभरिया ) मैथुनसंज्ञा से विमोहित मतिवाले अज्ञानी प्राणी ( अस्माहत्थी गवा य महिमा मिगा य ) अश्व, हस्ती, गाय, महिष, मृग हैं वे भी ( एकमेकं मारेंनि) आपस में एक दूसरे को मार डालते हैं। इसी तरह (मनुघगणा) मनुष्यगण ( वानराय) बंदर एवं (पक्खीय) पक्षी भी ( विरुति ) एक दूसरे का विरोध करते हैं तथा (मित्ताणिविप्पं भवति सत्तू ) इसी कर्म के सेवन से मित्रजन भी शीघ्र शत्रु बन जाते हैं। फिर जो पारदारिक परस्त्री में आसक्त होते हैं वे (समय) For Private And Personal Use Only - સ્ત્રીને આપી ૢ છે, અને તેના એ પરગમનના કૃત્યમાં જે કાઈ સંબંધીઓ माडीसी ३५ थाय छे तेभने भारी नाथे छे. " परस्सदाराओ जे अविश्या " જે લેક પરસ્ત્રીગમન રૂપ મુકૃત્યથી વિરક્ત થઈ શકતા નથી તે લેાકા જ આ : त्यो पुरे छे. तथा मे ४ : अभाले " मेहुणसण्णा संपगिद्धाय " मैथुन संज्ञाभां खासत, “माहभरिया " मैथुन सज्ञाभां विभोहित भनवाजा अज्ञानी ." अस्साहस्थी गवा य महिसा मिगा य अश्व, हाथी, गाय, लेंस, भृग, આદિ પ્રાણીએ પણ एकमेक' मारेति " यायसभां झडीने मेड जीलने भारी नाचे छे. से रीते " मणुयगणा " मनुष्यो, वानरा य " वानरो, " पक्खी य" मने पक्षी। पथ मेड जीलनेो विशेध पुरे छे. " मिताणित्रिपं भवंति सत्तू ” એ કમના સેવનથી મિત્રો પણ જલ્દી તેમના શત્રુ ખની જાય છે. વળી પરણીમાં આસક્ત લા 46 समय " पोताना सिद्धांतोनो, "C 66 Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुशिमी टीका अ० ४ सू० १४ धतुमन्तरनिरूपणम् भिन्दन्ति-समयान् = सिद्धान्तान् धर्मान्-श्रुतचारित्रलक्षणान-गणान-समसामा. चारिजनसमूहान् विनाशयन्ति 'परदारी' परदारिणः परस्त्रीसक्ताः। तथा 'धम्मगुणरयाय' 'धर्मगुणरताश्च = सदाचारपरायणाः 'बंभयारी ' ब्रह्मचारिणः 'खणेण ' क्षणे नैव =अल्पकालेनैव - बहु कालरक्षितादपि 'चरिताओ' चारित्रात् ' उल्लोद्वंति' उल्लोटयन्ति-निपतन्ति । 'जसमन्तो' यशश्विनः 'मुन्बया य सुघ्रताश्च = व्रतपरिपालकाः अपि ' अजसकित्ति' अयशःकीर्ति 'पाति' प्राप्नुवन्ति । 'रोगता' रोगार्ताक्षयादिरोगग्रस्ताः 'बाहिया' ध्यापिता: कुरादिपीडिताः 'रोयवाही ' रोगव्याधीन 'बडुति ' वर्धयन्ति तेन 'दुवेयलोए दुराराहगा भवंन्ति' द्वयोश्च लोकयोदुराराधकाः = आत्मविराधका अपने सिद्धान्तों को, (धम्मे ) श्रुनचारित्र रूप धर्मको, एवं (गणे य) समान सामाचारी वाले गण को (भिदंति ) नष्ट कर डालते हैं । तथा(धम्मगुणरया य) जो धर्मगुण रत-सदाचारपरायण (भयारी ) ब्रह्मचारी होते हैं वे भी (खणे णं ) क्षण भर में (चरित्ताओ) बहनकाल के सुरक्षित अपने चरित्र से इसी एक दुर्गुण के वश से ( उल्लोटति) निपतित हो जाते हैं। तथा (जसमंतो) जो यशस्वी एवं (सुन्वया य) व्रतों के आराधक होते हैं वे भी इसी कारण ( अजस कित्ति) अपकीर्ति को (पाति) प्राप्त करते हैं (परस्त दाराओ जे अविरया) इस परदार सेवन से जो प्राणी अविरत होते हैं वे (रोगत्ता ) क्षयादि रोगों से प्रस्त हो जाते हैं और ( वाहिया) कुष्ठ आदि व्याधियों से पीड़ित होते रहते हैं, इतना ही नहीं फिर आगे के लिये वे रोगों को और व्याधियों को बढा भी लेते हैं । इस तरह ( दुवे य लोए इहलोए परलोए चेव) " धम्मे " श्रुत या२३ ३५ धनी भने “गणे य" समान सामान्याशवाणा समूहानी " भिति" नाश 3री नामेछ. तय " धम्मगुणरया य"रोजी शमशु २तसहाया२ पराया, " बंभयारी " ब्रह्मयारी हाय छ, तया पाय "खणेण" क्षणवारमा " चरित्ताओ" ein समयी सुरक्षित राणेसा पोताना यात्रियों में से हुशुपने मचीन ने “ उल्लोटति" प्रष्ट Is तय छ तथा “ जसमंतो"२ यशस्वी भने “ सुव्यया य" तीन मा२.५४ हाय छ, तशा ५५१ मे आये " अजसवित्ति" असत "पाति" प्रास २ . "परस्सदाराओ जे अविरया " ५२२त्री मनमा । सतत मास २ छ ते! "रोगता " पाहिशन मा ५३. भने “वाहिया" ५४ माहि व्याधिस यी पीया ४२ मेटलं नाही પણ ભવિષ્યમાં તેમના તે રોગ અને વ્યાધિઓ વધતા જાય છે. આ રીતે तेमा " दुवेय लोए-परलोए चेव" भन्ने सभा मामा भने परसभा For Private And Personal Use Only Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे भवन्ति । कयोयोलोकयोः इत्याह इहलोए चेत्र परलोए' इहलोके चैव-इहजन्मनि परलोके च परजन्मनि । के ते? इत्याह–'परस्स दाराओ जे अविरया' परस्य दारेभ्यो येऽविरताः परस्त्रीपरायणाः । 'तहेब' तथैव — केइ' केचित् 'परस्स दारं गधेसमाणा' परस्य दारान् गवेषमाणाः = परस्त्रियमन्वेषयन्तः, 'गहिया य ' गृहीताश्च जनैः 'हयाय ' हताश्च ताडिताः 'बद्धरुद्वा य' बद्धरुदाश्व-रज्ज्मादिभित्र द्वाः सन्तः पञरादौ निरुद्धाच एवं ' जाव गच्छन्ति ' यावत्-अधोगति प्राप्नुवन्ति । अत्र यावत्पदग्रहणेन तृतीयाध्ययनस्थितः । गहियाय बद्धद्धा य ' इत्यारभ्य नरए गच्छंति गिरभिरामे' इत्येतदन्तः पाठोत्रबोध्य इति भूचितम् । के ते इत्याह-ये 'मोहाभिभूयतण्णा' मोहाभिभूतसंज्ञाः मोहे अज्ञानेन कामान्धतया वा अभिभूता-परीभूता नष्टा संज्ञा-सदसद्विवेकमज्ञा दोनों लोकों में-इस लोक और परलोक ( दुराराहगा ) आत्म विरोधक ( भवंति ) बनते हैं । तथा ( तहेव ) इसी प्रकार ( केइ परस्सदारं गवेसमाणा ) जो परस्त्री की गवेषणा करने में रत रहते हैं वे यदि उस कार्य को करते समय (गहिया य ) पकड़ लिये जाते हैं तो ( हयाय ) बहुत बुरी तरह ताडिन किये जाते हैं । और ) ( बद्ध रूद्धा य ) रस्सी आदि से बांधे जाकर पंजर आदि में बंध कर दिये जाते हैं। (एवं) इस तरह (जाव ) यावत् यहां यावत् शब्द से तृतीय अध्ययन में कथित “ गहिया य बद्धरुद्धाय" इस पाठ से लगाकर "नरए गच्छंतिणिरभिरामे ) यहांतक का पाठ लिया गया है। जिससे यह समझाया गया है कि अन्त में ऐसे जीवोंकी बडी दुर्दशा होती है और वे भर कर नरक में जाते हैं। क्योंकि (विउलमोहाभूयसण्णा) ऐसे मनुष्यों का विपुल अज्ञान से अथवा कॉमान्धता से मद सद्विवेक बिलकूल नष्ट होता " दुराराहगा' मात्मविश५४ " मवेति " मन छ. “ तहेव" 2 प्रभाग ' केइ परस्सादार गवेसमाणा " 2 ५२वीनी दीन २७ छ, तेमा २ ते आय ४२ती मते " गहिया य" ५४315014 तो " हयाय” पाणी 1 राम शते तेमने भावामा सावे छ, भने "वरुद्धाय" हो माहिया डीन ५४२ हिमां पूरी धाम मा छ. “ एव" सारीत " जाव " यावत्-२ यावत् १५४ पडे Not मध्ययनमा ४ “ गहियोय बद्धरुद्धाय” थी सन " नरए गच्छंति गिरभिरामे" सुधीन। पाठ सेवामा આવેલ છે. તેમાં એ સમજાવવામાં આવ્યું છે કે છેવટે તે જીવોની દશા બૂરી था छ भने ते! भरीने १२४मा तय छ, १२६१ "विउलमोहा. भूचमण्णा" એવા મનુબેને સદવિવેક, અજ્ઞાનથી અથવા કામાંધતા ને લીધે બિલકૂલ For Private And Personal Use Only Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० ४ सू० १४ चतुर्थमन्तरिनिरूपणम् येषांते तथा । तथा — मेहुणमूला य' मैथूनमूलाश्च स्त्री हेता एवेत्यर्थः 'तत्थ तत्थ' तत्र तत्र लोके शास्त्रे च 'वत्तधुन्या ' वृत्तपूर्वाः भूतपूषोः 'जनस्वयकरा' जन क्षयकरा-जनसंहारकारकाः-रामरावगादीनां 'संगामा' संघामाः सुवति' श्रूयन्ते । कस्याः कस्याः स्त्रियो-निमित्तं संग्रामा जाताः ? इत्याह_ 'सीपाए दोचईए कए' सीतायाः द्रौपद्याश्च कृते-सीताद्रौपदोनिमित्तमित्यर्थः एवं ' रुप्पिणीए पउमावई-ताराए कंवणाए रत्तसुभदाए अहिन्नियाए सुवण्णगुलियाए किन्नरीर य सुरूवविज्जुमईए रोहिणीए य' रुक्मिण्याः, पद्मावत्याः, तारायाः, काञ्चनायाः, रक्त प्रदायाः, अतिकायाः सुवर्णगुटिकायाः, किनश्चि जाता है। तथा (मेहुणमूला य तत्थ तत्थ वत्ताबा,जगन्वयकरा संगामा सुचंति ) लोक और शास्त्र में जितने भी पहिले राम रावण आदि के जनक्षय कारक संग्राम हुए सुने जाते है वे सब मैथुनमूलक ही हुए हैं । इन सब लोक और शास्त्र प्रसिद्ध यत्र तत्र हुए संग्रामों का मूल कारण एक स्त्री हुई है। ____ अब सूत्रकार इसी बात को विशेष स्फुट करते हैं किस २ स्त्री के निमित्त संग्राम हुए हैं इस विषक को कहते हैं-'सीयाए' इत्यादि। टीकार्य:-( सीयाए, दोवईए य कए ) सीता और द्रौपदी के निमित्त (रूपिणीए, पउनावई, तारार, कंवगाए. रतउभद्दा अहिनियाए सुवण्णालियार, किन्नए, सुरूव विजुमईए, रोहिणीए य ) सभी के निमित, पद्मावती के निमित्त, तारा के निमित्त, कांचना के निमित्त, रक्त सनद्रा के निनित, मुर्वा गुटिका के निमित्त, किन्नरा के निमित्त, नाश पाये। य छे. त! “ मेहुणनेला य तत्थ तत्थ वत्त मुल्वा जगक्खयकरा संगामा सुचंति " । सुटिमा राम २०१७ मा पस्येनभाणुसोनी क्षय કરનારા જે સંગ્રામે થયા છે. તથા શાસ્ત્રોમાં જે સંગ્રામે વર્ણવવામાં આવે છે તે બધાનું મૂળ કારણ મૈથુન જ છે. તે બધા લેકપ્રસિદ્ધ તથા શાસપ્રસિદ્ધ સ્થળે સ્થળે થયેલા સંગ્રામનું મૂળ કારણ કેઈ ને કોઈ સ્ત્રી જ હતી. હવે સૂત્રકાર એ બાબતનું વધુ સ્પષ્ટિકરણ કરે છે કયી કયી રત્રીઓને ४४२ साम! थय ते मताव छ-" सीयाए" त्याल. :-" सीयाए, दोवईए य कए " सीता मने पहीन रणे “ रुप्पिणीए, पउमावईए, ताराए, कंचणाए, रत्तसुभदाए, अहिन्नि गर सुवण्णगुलियाए,-किन्नरीए, सुरूवावज्जुमईए, रोहिणीए य” २४ान निमित्त, पद्मावतीने નિમિતે, તારામતીને નિમિત્તે. કાંચનાને નિમિત્તે, રક્તસમુદ્રાને નિમિત્ત, અહનિકાને નિમિત્તે, સુવર્ણ ગુટીકાને નિમતે, કિન્નરીને નિમિત્ત, સૌદર્યવતી For Private And Personal Use Only Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नण्याकरणसूत्रे सुरूपविशुन्मत्याः, रोहिण्याच, तत्तत्स्थानप्रसिद्धायाः कृते संग्रामा अभूवन् । आसां चरितं तु ततद्ग्रन्थेभ्योऽबसेयम् । अण्णे य एवमाइया बहनो महिलाकए' अन्ये चैयनादिकाः = एवं प्रकाराः बहवः-अनेके महिलाकृते स्त्रीनिमित्तं ' अतिकता' अतिक्रान्ताः भूतपूर्वाः ‘गामधम्ममूला ' ग्रामधर्ममूला:= मैथुन मूलकाः 'संगामा' संग्रामा जाता इति, 'मुवंति' श्रूयन्ते लोके शास्त्रे च । ते चाब्रह्मसेविनः ' इहलोए तापनहा' इहलोके तावनष्टाः = परस्त्रीगमनेनाऽऽस्मविराधका जाताः, 'परलोए य नट्ठा' परलोके च नष्टाः असद्गति प्राप्ताः केन केन प्रकारेण परलोको नष्टामवन्तीत्याह-इतो मृत्वा 'महयामोहतिमिरंधयारे' महामोहतिमिरान्धकारे-महामोह एव तिमिरान्धकारः गाढान्धकारो यत्र स तथा तस्मिन् घोरे-भयङ्करे एतादृशे नरके गच्छन्ति । ततो निःसृत्य 'तसथावरमुहुमवायरसु' त्रसस्थावरसूक्ष्मवादरेषु ' तथा 'पजतमयजत्तासरूप विद्युन्मती के निमित्त और रोहिणी के निमित्त संग्राम हुए हैं ( अण्णे य एवमाइया बहवो) तथा इसी तरह के और भी अनेक (अहकता) भूतपूर्व संग्राम ( महिलाकए ) इसी मैथुन सेवन निमित्तक हुए (सुव्वंति) लोक और शास्त्र में सुने गये हैं। :( अयंमसेविणो इहलोए तावनट्ठा परलोए य नट्ठा ) ये अब्रह्मसेवीजन इसलोक में तो नष्ट होते ही है, साथ २ में परलोक में भी नष्ट होते हैं, अर्थात् परस्त्री सेवन से जीव इसलोक में आत्मविराधक होकर परलोक में भी अस. इति को प्राप्त करते हैं। जब वे यहां से मरते हैं तब ( महया मोह तिमिरंधयारे ) महामोहरूप गाढ अंधकार से आच्छादित हुए (घोरे) भयंकर नरक में जाकर उत्पन्न होते है। वहां से जब वे निकलते हे तब विधु-भती निमित्त, भने डिमान निमित्त सामी या ता, “ अण्णेयपवमाइया बहवो" तथा ते ५२न! wlan ५] भने “अइक्कंता" भूत न सामी " महिलाकए " मे भैथुन सेवनने निमित्त थयार्नु " सुव्वंति" सोम तथा शालोमा सालवामां आवे छ.. ____“ अबंभसेविणो इहलोए तावनदा परलोए य नवो" ते भैथुनસેવી કે આ લેકમાં તે નાશ દુર્દશા પામે જ છે પણ પાકમાં પણ નષ્ટ થાય છે, એટલે કે પરસ્મસેવનથી લેકે આ લેકમાં આત્મવિરાધક થઈને પરલોકમાં પણ દુર્ગતિ પ્રાપ્ત કરે છે, જ્યારે તેઓ અહીંથી મરણ પામે छ त्यारे " महया मोहतिमिर धयारे" मडामा ३५ ॥८ माथी पाये। “पोरे" १५४२ १२७म ने Sya थाय छे. त्यांची नजाने तमा For Private And Personal Use Only Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - सुदर्शिनी टीका अ0 ४ सू० ४ १४ चतुर्थमन्तद्वारनिरूपणम् साहारणसरीरपत्तेयसरीरेसु' पर्याप्ताऽपर्याप्तकसाधारणशरीरसत्येकशरीरेषु च जन्ममरणं कुर्वन्ति । ततोऽपि निःसृत्य · अंड य पोयय जराउय रस यसंसेइम समुच्छिम उभिज्ज उववाइएमु य ' तत्र अण्डजाः पक्षि मत्स्यादयः 'पोयन' पोतना हस्त्यादयः 'जराउय ' जरायुजा-मनुष्यादयः, 'रस य' रसजा:-विकृतरसेषु समुत्पन्नाः 'संसेइम' संस्वेदिमा संस्वेदात् जाता यूका मत्कुणादयः 'संमुच्छिम' संमृच्छिमा:-संमछिन जाताः ददरादयः 'उभिज्ज' उद्भिज्जाः पृथिवीमुद्भिध जाता शलभादयः 'उवचाइय' औषपातिकाः देव नारकादयश्च, इत्येतेषु च 'नरगतिरियदेवमाणुसेमु' नरकतिर्यग्देवमानुशेषु कीदृशेषु ? इत्याह-' जरामरणरोगसोगबहुलेसु ' जरामरणरोगशोकबहुलेषु( तसथावरसुहुमावायरेसु) प्रस, स्थावर, सूक्ष्म, बादर इन कार्यों में, तथा (पजत्तमपज्जत्तसाहारणपत्ते य सरीरेसु य) पर्याप्तक अपर्याप्तक, साधारण शरीर, प्रत्येक शरीर इन पर्यायों में जन्म मरण करते हैं। वहां से भी निकल कर वे (अंड य पोयय जराउय रस य संसे हम समुच्छियउभिज्जउववाइएस्सु थ) अंडज जीवों में-पक्षी मत्स्य आदिकों में, पोतजजीवों में हस्ती आदिकों में, जरायुज में-जरा से पैदा होने वाले मनुष्य आदिकों में, रसज जीवों में-विकृत रसोंमें उत्पन्न होने वाले कृमि आदि जीवोंमें, संस्वेदिमोंमें पसीने से होनेवाले युका, मत्कुण आदि जीवोंमें, संमूछिम जन्मवाले दर्दुर ( मेढक ) आदि जीवों में, उद्भिज्ज जोवों में-पृथिवि को भेदकर उत्पन्न होने वाले शलभ आदि जीवों में औपपातिक जन्म धारी देव और नारकियों में उत्पन्न होते हैं। तथा वे (जरामरणरोगसोग. बहुले उ नरगतिरियदेवमाणु सेसु ) जरा, मरण, रोग, शोक बहुल, नरक, " तसथावरसुडुमवायरेसु" असाय, स्थाप२४।य, सूक्ष्माय मने मायोमा तथा “ पज्जत्तमपज्जत्तसाहारणसरीरपत्तेयसरीरेसु य " पर्याप्त, अर्यात, સાધારણ શરીર, પ્રત્યેક શરીર આદિ પર્યામાં જન્મ મરણ અનુભવે છે. त्यांथी ५ नीजीने ते " अंडय-पोयय-जराउय-रसय संसेइम-समुच्छियउन्भिज्ज उववाइएसु य ” ५० योमi-पक्षी भल्य भी, पाता છમાં હાથી આદિમાં જરાયુજમાં મનુષ્ય આદિકમાં રસજ જીવમાં वित रसोमा अन्न ना२ मि माहि वोमiसंस्वेदिमों मां-५२सेवाथा ઉત્પન્ન થનાર જૂ, માંકડ આદિ માં, સંમૂર્ણિમ જન્મવાળા દેડકા આદિ માં, ઉદ્ધિજજછમાં પૃથ્વીને ભેદીને ઉત્પન્ન થનાર તીડ આદિ માં, सीपति व मने नासीमामा उत्पन्न याय 2. तथा तेथे “जरामरणरोगसोगबालेसु नरगतिरियदेवमाणुसेसु” १२, भरा रोग भने विस For Private And Personal Use Only Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४९४ प्रश्नध्याकरणसूत्रे चोत्पद्यन्ते, तत्र — पलिओषमसगरोवमाई ' पल्योपसागरोपमानि = पल्योपम सागरो रमकालं यावत् केचित्परिभ्रमन्ति ! ये तु 'अणादियं ' अनादिकंआदिवजितं ' अणवदग्गं' अनवदनम् अनन्तं 'दीहमाद्धं ' दीर्धाऽध्यान-दीर्घ मार्ग' चाउरंतसंसारकंतारं ' चतुरन्तसंसारकान्तार = देवमनुष्यनारकतिर्यग्लक्षगचतुर्गतिकसंसारमहारण्यं, ' महामोहवससंनिविट्ठा जणा ' महामोहवशसंनिविष्टाननाः महामोहवशंगता अब्रह्म से विना जनाः ‘अणुपरियटृत्ति ' अनुपर्यटन्ति अनन्तकालपर्यन्तंपरिभ्रमन्ति ॥ मू० १४ ॥ पूर्वोक्तं निगमयन्नाह-' एसो सो ' इत्यादि मूलम्-एसो सो अवंभस्ल फलविवागो इहलोइओ परलोइओ य अप्पसुहो बहुदुक्खो महब्भओ बहुरयप्पगाढो दारुणो ककसो असाओ वाससहस्सेहिं मुच्चइ, नय अवेद. इत्ता अत्थिहुमोक्खो त्ति। एवमासु नायकुलनंदगो महप्या जियो उ वीरवर नाम धेना कहेसि य अबंभस्स-फलविवागं। तियं च देव ऐवं मनुष्यों में जन्मते हैं । इन में (पलिओवमलागरोवमाई) कितनेक जीव पस्योपमप्रमाण कालतक और कितनेक सागरोपम प्रमाण काल तक यूनते रहते हैं। और कितनेक ऐसे भी होते है जो ( महामोहवससंनिविट्ठा) महामोह के वशवर्ती होकर (अणादियं अणवदग्गं ) अनादि अनंत (दीहमद्धं ) उत्सणिो अवतर्पिणीरूप दीर्घ मार्ग युक्त ( चाउरंतसंसार तारं ) देव-मनुष्य नरक एवं तिर्यश्चतिरूप चारगतिवाले संसार कांतार में अनंतकालतक ( अणुपरियति ),परिभ्रमण करते रहते हैं। सू०१४ ॥ શોકમય નરક, તિર્યંચ, દેવ અને મનુષ્ય નિમાં જન્મ પામે છે, તેમાંના " पलिओवमसागरोवमाई" सा४ ७ पक्ष्या५म प्रभारी सुधी भने કેટલાક સાગરેપમ પ્રમાણે કાળ સુધી તે નિમાં ભ્રમણ કર્યા કરે છે. અને ४५४ ७ मे पाय छ रे " महामोहवससंनिविद्वा" भाभी ने माधान 28 “अणादियं अणवदग्गं " मनाहि मनत “ दीहमद्धं " सपिशी ARसपी ३५ वी भाग युत " चाउरतसंसारकंतार" द्वेष, मनुष्य, न२४ भने तिय य २२ या२ गतिमा संसार siतारमा मनत सुधी “ अणुपरियéति" परिझम या रे छ. ॥ सू. १४ ॥ For Private And Personal Use Only Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुशिनी टीका अ०४ सू० १५ अध्ययनोपसंहार : एयं तं अबंभपि चउत्थं सदेव मणुयासुरस्स लोगस्स पत्थणिज्ज एवं चिरपरिचियमणुगयं दुरंतं तिबमि ॥सू०१५॥ ॥चउत्थं अहम्नदारं समत्तं ॥ टोका-' एसो सो' एष सः पूर्वोक्तः 'अभस्स फलविवागो' अब्रह्मगः फलरिपाकः ' इह लोइओ' ऐहलौकिकः-मनुष्यभवापेक्षया, “ परलोइओ य' पारलौकियश्च नरकाद्यपेक्षया ' अप्पनुहो' अल्पमुखाः – क्षणमात्रसुखजनकत्वात् 'बहुदुक्यो' बहुदुक्ख:-प्रचुरदुःख हेतुत्वात् ' महन्भयो' महामयः-वधवन्धन जन्ममरणादिभयोत्पादकसात् 'बहुरयणगाढो' बहुरजः प्रगाढः-कर्मदलिकबहुत्वाम् ' दारूगो' दारूणः-चतुर्गतिसंसारभ्रामकत्वात् 'ककसो' कर्कशः दशविध अब इस पूर्वोक्त अब्रह्म विषय का उपसंहार करते हुए सूत्रकार कहते हैं- 'एप्लो सो' इत्यादि। टीकार्थ-(एमोसो) यह पूर्वोक्त (अबभस्स) अब्रह्म-कुशीर. सेवन का (फलविवागो) फलरूपविपाक (इहलोइयपरलोइओ य ) मनुष्य भव की अपेक्षा तथा नरकादि गति की अपेक्षा ( अप्पसुहो) क्षणमात्र सुख का जनक होने से अल्पगुखरूप है तथा ( बहुदुक्खो) प्रचुर दुःख का हेतु होने से महादुःखप्रद है, (महमओ) बक्ष, बंधन, जन्म, मरणादि के भय का उत्पादक होने से महाभय स्वरूप है। ( बहुरयप्पगाढो) ऐसे कर्म करने वालो को कर्मों की स्थिति और अनुभाग बहुत अधिक मात्रामें बंधाता है इसलिये वह बहुरजःप्रगाढरूप है। (दारूणा) चतुर्गति रूप संसारमें ऐसे जीवों का ही भ्रमग होता है-अतः હવે આ પૂર્વોક્ત અબ્રહ્મ વિષયને ઉપસંહાર કરતા સૂત્રકાર કહે છે– " एसो सो" त्यादि N:-" एसो सो” मा पूर्वरित “ अबभस्स" माझ पुयारित्र सेवनन। " फलविवागो” सविधा " इहलोइयपरलोइओ य' भनुष्य लqril अपेक्षा “ अप्पसुहो" क्षमात्र सुमनो ४४ पाने २) मा५सु५३५ छ, तथा " बहुदुक्खो" मत्यात दुमन हेतु उपायी महामह छ, " महमओ" वध, धन, सन्म, भ२९१ ६ सय Birs हवाथी महालय २१३५ छ, “ बहुरयप्पगाढो" मे भी ४२नारने भनी स्थिति અને અનુભાગ બહુ જ ધારે પ્રમાણમાં બંધાય છે તેથી તે બહુ જ પ્રગાઢ३५ छ. " दारणो' सेवा याने १ या२ गति ३५ ससारमा भ्रम ४२ For Private And Personal Use Only Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्र क्षेत्रवेदनाजनकत्वात् 'असाओ' आता असातवेदनीयः-कोत्पादकत्वात् वाससहस्सेहि वर्षसहस्रैः = अनेकपल्योपमसागरोपमादिकालोरूपभोगेन 'मुच्चइ ' मुच्यते । तदेव व्यतिरेकमुखेनाह-नय अवेदइत्ता' नवाऽवेदयित्वाउपभोगं विना न 'योक्खोति ' मोक्षोऽस्ति । ' एवं ' उक्तरीत्या 'आहंसु' ऊचुः= कथितवन्त भूतपूर्यास्तीर्थङ्करगणधरादयः । तथा-तदनुसारेणैव 'नायकुलनंदगो' ज्ञातकुलनन्दनः---सिद्धार्थ कुलानन्दकरः ' महप्पा' महात्मा परमात्मरूपः 'जिगो' चतुर्गतिरूप संसारमें भ्रमण करवानेका कारण होनेसे यह दारूग है। (ककसो) दश प्रकार को क्षेत्रवेदना का जनक होने से यह फलविपाक कर्कश है। (असाओ) असातवेदनीयरूप होने से यह असात है-अर्थात् असाता वेदनीय कर्म के उदप से यह उत्पन्न होता है इसलिये असातावेदनीयकर्म के द्वारा उत्पाद्य होने के कारण यह स्वयं असातस्वरूप है। अथवा इस प्रकार के कर्म करने वाले जीव जो फलविपाक भोगते है। उस समय वे असातावेदनीय कर्म का बंध करते है,-कारण फलविपाक भोगते समय उनकी आत्मा में दुःख शोक-ताप आदि भाव होते हैं इन भावों से जीव असातावेदनीय कर्म का आस्रव करता है । इस अपेक्षा से असातावेदनीय कर्म का उत्पादक होने से यह फलविपाक असातरूप माना गया है । (वाससहस्सेहि) यह फलविपाक जीव पल्यो पमकालतक भोगने से (मुच्चइ) छूटता है। (नयअवेदहत्ता अस्थि हु मोक्लो त्ति) इस फलविपाक का उपभोग किये विना यह नहीं छूटता है। પડે છે, તેથી ચાર ગતિવાળા સંસારમાં ભ્રમણ કરાવનાર હોવાથી તે દારુણ છે. " ककसो" इस प्रा२नी क्षेत्र वहनाना नापाथी ते सविया - हीर छ. " असाओ" मसात वहनीय ३५ पाथी त मसात-सेटो है અસતાવેદનીય કર્મના ઉદયથી તે ઉત્પન્ન થાય છે, તેથી અસાતા વેદનીય કર્મ દ્વારા ઉત્પાદ્ય હેવાને કારણે તે પોતે અસાતસ્વરૂપ છે. અથવા આ પ્રકારનાં કમ કરનારા છે જે ફલવિપાક ભેગવે છે, તે ભેગવતી વખતે અસાતાવેદનીય કમને બંધ બાંધે છે, કારણ કે ફલવિપાક ભેગવતી વખતે તેમના આત્મામાં દુઃખ શોક તાપ આદિ ભાવ હોય છે, તે ભાવથી જીવ અસાતાવેદનીય કર્મને આસ્રવ કરે છે. આ અપેક્ષાએ અસાતવેદનીય કર્મને ઉત્પાદક पाथी मा वि मसात३५ भान्या छ. “ वाममहासेहिं " २॥ ३३वि પપમ કાળ સુધી અચવા સાગરોપમ કાળ સુધી ભગવ્યા પછી જ જીવ "मुच्चड " तेनाथी भुत थाय छे. 'नय अवेदइ ता अस्थि हु मोक्खो ति" भाविपान पला५ या विना ते भुत थ४ शत नथी. "एवं" For Private And Personal Use Only Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ०४ सू० १५ अध्ययनोउपसंहारः जिनः वीरवरनामधेयः-प्रख्यातनामा भगवान् श्रीमहावीरोऽपि ' अबभम्स' अब्रह्मणः ' फलविवाग' फलविषाकं ' कहेसिय' कथितवांश्च एवं तं' एत त्तत्-उपदर्शित स्वरूपम् ' अवंभ ' अब्रह्म-अब्रह्मनामकं ' चउत्थं' चतुर्थमधर्मद्वारं ' सदेवषणुयासुरस्स लोगस्स' सदेवमनुजासुरस्य लोकस्य 'पत्थणिज्ज' प्रार्थनीयम्। एवं 'चिरपरिचिथं' चिरपरिचितम् , अनादि कालादनुभूयमानम् * अणुगयं ' अनुगतं प्राणिनां पृष्टतोलग्नं, दुरन्तं-दुःखावसानं च । 'ति बेमि' इति ब्रवीमि, एतद् जम्बूस्वामिनं प्रति सुधर्मस्वाभि वाक्यम् ।। सू० १५ ॥ इति श्रीप्रश्नव्याकरणस्य सुदर्शन्याख्यायां व्याख्यायां हिंसादि पश्चास्त्रबद्वारेषु अदत्तादानाख्यं चतुर्थमधर्मद्वारं समाप्तम् ॥ ३॥ (एवं ) इस प्रकार का कथन ( आहेसु) भूतपूर्व तीर्थकर गणधरादिक देवों का है। और इसी प्रकार से अब्रह्म के फलविपाक उन्ही तीर्थकरों के कहे अनुमार (नायकुलनंदणो) सिद्धार्थकुलको आनंद देनेवाले (महप्पा जिणो उ ) महात्मा जिनेन्द्र (वीरवरनामधेज्जा) वीरवरनेश्री वर्धमानस्वामी ने भी (अयंभस्स) अब्रह्म के (फलविवाग) फलविपाक को (कहेसिय ) कहा है ( एयंत ) यह वह ( अभं) अब्रह्म नाम का (चतुत्थं) चतुर्थ अधर्मद्वार ( देवमणुयासुरस्म लोगस्स) देव मनुष्य और असुर लोक इन सब के यह (पत्थणिज्ज) प्रार्थनीय है, अर्थात् इस अब्रह्म का ये देवादि सेवन करते हैं । ( एवं ) इस प्रकार यह (चिरपरिचियं ) जोवों के पीछे अनादिकाल से लगा हुआ चला आने के कारण (अणुगय) अनुभूयमान है और (दुरंतं) इसका अवसान (अन्त)से दुरन्त मा प्रा२- ४१- " आईसु" भूतपूर्व तीथ ४२ गधरा वार्नु छ. भने ते रीते मनाहाना सवियानुं श्थन ते तीथ ४२रीना प्रमाणे : "नायकुल. नंदणो" सिद्धार्थना गुणने मान देना२ " महापाजिणो उ" महात्मा जिनेन्द्र " वीरवरनामधेजा" वा२१२ श्री १५ भान स्वामी ५५५ " अबभन्स” भनझना " फलविवागं" ला " कहेसिय" ४९ छे. “ एयंत" सात बंभ" मप्र नामर्नु “चरत्थं " याथु मधमा२ “ देवमणुयाररस लोगस्स" ३५. मनुष्य, आने २५सु२ ते मधाने ते “ पत्वणिज " प्रार्थ गाय , मेटले पाहत महानु सेवन ४२ छ. “ एव" 240d 1 . चिरपरिचय " यानी पा७५ Aile Hथी यादयुं आवे छे. तेथी " अणुगय" मनुसूयप्र०६३ For Private And Personal Use Only Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे है नाना प्रकार के दुःखो का दाता है। (त्ति बेमि ) ऐसा हे जंबू ! मैं कहता हूं। इस प्रकार सुधर्मास्वामीने जंबूस्वामी को इसके विषय में समझाया है । सू०१५॥ ॥ चतुर्थ अधर्मद्वार समाप्त ।। भान छ, भने “ दुरंत " तेनुं अवसान दुत छ-नाना ॥२॥ दु: ॥३ छ. “त्तिवेमि" से है ! ९४ छु. २मा भूपाभीने सुधभवानी साना विषे समनव्यु छ. ॥ सू. १५ ॥ यो मासव (अ)वार समास थयु. For Private And Personal Use Only Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अथ पञ्चमाध्ययनम् । अथ चतुर्थास्रवद्वारसमाप्त्यनन्तरं पञ्चममास्रवद्वारं पारभ्यते, अस्य पूर्वेण सहायमभिसंबन्धः । अनन्तराध्ययनेऽब्रह्मस्वरूपं प्रोक्तं, तच्च परिग्रहे सत्येव भवतीति परिग्रहस्वरूपं निरूप्यते-'जम्बू' इत्यादि । मूलम्-जंबू ! एत्तो परिग्गहो पंचमो उ नियमा णाणामणिकणगरयण महरिह परिमल-सुपुत्तदार-परिजण-दासीदासभयग-पेस्स- हय-गय-गो--महिस-उट्ट-खर-अय-गवेलग-सीयासगड-रह-जाण-जुग्ग-संदण-सयणासण-बाहण-कुविय-धण-धन्नपाणभोयणाच्छायण-गंधमल्ल भायण-भवणविहिं चेव बहुविहियं भरहं गणगर-णियम-जनवय-पुरवर-दोणमुह-खेड-कब्बडमंडब-संबाह-पट्टण-सहस्सपरिमंडियं थिमियमणीयं एगच्छत्तं ससागरं भुंजिऊण वसुहं अपरिमियमेणंततहमणुगयमहिच्छसारनिरयमूलो, लोभकलिकसायमहक्खंधो, चिंतासयनिचिय विउलसालो, गारवपविरल्लियग्गविडवो, नियडितया पत्तपल्लवधरो, पुप्फफलं जस्त कामभोगा आयासविसूरणाकलहपकंपियग्गसिहरो नरवइसंपूजिओ, बहुजणस्स हिययदइओ, इमस्स मोक्खवरमुत्तिमग्गस्स फलिहभूओ चरिमं अहम्मदारं ॥सू०१॥ पांचवा आनवद्वार प्रारंभचतुर्थ आस्रवद्वार की समाप्ति के बाद अब पांचवा आस्रव द्वार प्रारंभ होता है । इसका पूर्व आस्रव द्वार के साथ इस प्रकार से संबंध है-चतुर्थ द्वार में जो अब्रह्म का स्वरूप कहा है वह अब्रह्म, परिग्रह के होने पर ही होता है इसलिये सूत्रकार इस द्वार में परिग्रह का स्वरूप પાંચમા આસવ-દ્વારને પ્રારંભ ચર્થે આવસ દ્વાર પૂરું કર્યા પછી હવે પાંચમા આસવ દ્વારનું વર્ણન શરૂ થાય છે. તેને આગળના આસ્રવાર સાથે આ પ્રકારને સબંધ છે ચેથા દ્વારમાં અબ્રહ્મનું જ સ્વરૂપ કહ્યું છે તે અબ્રહ્મ, પરિગ્રહ હેય તે જ થાય છે તેથી સૂત્રકાર આ દ્વારમાં પરિગ્રહના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરે છે For Private And Personal Use Only Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५०० प्रश्नव्याकरणस्चे टोका--'जबू' इत्यादि सुधर्मा स्वामी पश्चमात्रद्वारस्वरूपं जिज्ञासमानं जम्बूस्वामिनं प्रति पाह'जंबू ' हे जम्बूः । एत्तो' इतशतुर्थास्रवद्वारादनन्तरं परिग्गहो' परिग्रहःपरिग्रहण परिगृह्यते मूर्छारूपेण मूच्छापरिग्गहोवुत्तो इति वचनात् धर्मोपकरणं विनेत्यर्थ इति या परिग्रहः = परिग्रहतनाम वक्ष्यमागविशेषणानुरोधात् परिग्रहशब्दोऽत्र परिग्रहतरुपरको द्रष्टव्यः । ' पंचमो' पञ्चमआरयो ‘णियमा' नियमातु-निश्चयेन भवति, नान्यःकश्चनातः परः आस्रवः ! अयं परिग्रह कथम्भूतः? इत्याह-'णामामणि' इत्यादि । 'णाणामणि-कणग-रयण-महरिह-परिमलसपुत्तदार-परिजण-दासो-दास-भयग- पेस्स-हय-गय-गो-महिस-उद-खरनिरूपित करते हैं-'जंबू एत्तो' इत्यादि। टीकार्थ-श्री सुधर्मा स्वामी पांचवें आस्रव द्वार के स्वरूप को जानने की इच्छचाले श्री जंबूस्वामी से कहते हैं-(जंबू ) हे जम्बू! (एत्तो) चतुर्थ आस्रव द्वार के बाद (परिग्गहो पंचनो आसको णियमा) परिग्रह पांचवां आस्रव द्वार नियम से है। इसके बाद और कोईआस्रव द्वार नहीं है यह बात “नियम" शब्द से सूत्रकार ने प्रदर्शित की है ग्रहण करना' अथवा ' जो भू बुद्धि से ग्रहण किया जावे' वह परिग्रह है क्यों कि शास्त्र में मूछाको परिग्रह कहा है ऐसी इस परिग्रह शब्द की व्युत्पत्ति है। इस व्युत्पत्ति के अनुसार यह परिग्रह शब्द यहाँ परिग्रह रूप वृक्ष के अर्थ वाला जानना चाहिये क्यों कि इसे स्पष्ट करने के लिये जो सूत्रकार विशेषग इसी सूत्र में कह रहे हैं वे इसी बात की पुष्टि करते हैं। (णाणामणि-कणग-रयणमहरिय-परिमल-सपुत्तदार-परिजण-दासी-दास-भयग-पेस्स-हय-गो " जंबू एत्तो" त्याहि. પાંચમા આસવનું સ્વરૂપ જાણવાની ઈચ્છાવાળા જંબુસ્વામીને શ્રી સુધર્મા स्वामी ४ है-" जंबू" ! “ एत्तो" याथा व बा२ ५४ " परिग्गहो पंचमो सासवो णियमा" नियम प्रमाणे पायभु गाल द्वार परि. ગ્રહ આવે છે ત્યાર પછી બીજું કઈ પણ આસ્રવદ્વાર નથી તે બાબત "नियम " शपथी सूत्रारे तावेस छ. " मा २" अथवा रे ગ્રહણ કરાય તે પરિગ્રહ છે, એવી આ પરિગ્રહ શબ્દની વ્યુત્પત્તિ છે. તે વ્યક્તિ પ્રમાણે આ પરિહ શબ્દ અહીં પરિગ્રહરૂપ વૃક્ષના અર્થવાળે, સમજવાને છે કારણ કે તે વાતને સ્પષ્ટ કરવાને માટે સૂત્રકાર જે વિશેષણે. ॥ सूत्रमा ४ी २६॥ 2 ते ४२ पातने टे या छ. “णाणामणिकजय-रयण-मक्रिड्-परिमल-खपुत्तदार-परिजण-दासी-दास-भयग-पेस्स-हय-गो. For Private And Personal Use Only Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदशिनी टीका अ.५ सू०१ परिग्रहस्वरूपनिरूपणमू ___५०२ अय-गवेलग-सीयासगड-रह-जाण-जुग्ग-संदण-सयणा-सण-वाहण-कुवियधण-धन्न-पाण-भोयण-च्छायण-गंध-मल्ल-भायण-भवणविहि' नानामणिकनक-रत्न-महाई-परिमल-सपुत्रदार-परिजन-दासी-दास-भृतक-भैष्य-हयगज-गो-महिषो-ष्ट्र-खरा-ऽज-गवेलक - शिविका -शकट-रथ-यान-युग्यस्यन्दन-शयनाऽऽसन-वाहन-कुप्य-धन-धान्य-पान-भोजना-ऽऽच्छादन-गन्धमाल्य-भाजन-भवनविधिम् । तत्र- 'णाणामणि ' नानामणयः-नाना अनेक प्रकारा ये मणयः-चन्द्रकान्तादयः, 'कणग' कनक-सुवर्ण ‘रयणं' रत्नानि कतनादीनि, ' महरिह परिमल ' महार्ह परिमलाः - बहुमूल्यमुगन्धिपदार्थाः, तथा ' सपुत्तदार' सपुत्रदारा:-पुत्रसहिताः स्त्रियः, तथा 'परिण' परिजनःपरिवारः पौत्रादिरूपः, 'दासीदास' दासीदासं दास्यो दास्यश्च ‘भयग' भृतका कर्मकराः, ' पेस' प्रैष्याः-प्रयोजनेषु प्रेषणीयाः, ' इय' हयाः-अश्वाः 'गय ' गजाः 'गो' गावः ' महिस' महिषाः ‘उट्ट ' उष्टाः, 'खर' खराः गर्दभाः 'अय' अजाः 'गवेलग' गवेवकाः मेषाः, 'सीया' शिनिकाः, 'सगड' शकटानि गन्व्यः, 'रह' स्थाः 'जाण' यानानि यानपात्राणि 'जुग्ग' युग्यानि-गोलदेश प्रसिद्ध जम्पानविशेषाः ‘संदण' स्यन्दनाः-रथविशेषाः, · सयणासण' शयनासनानि-शय्या आसनानि च ' वाहण' वाहनानि-' तामनाम' इति देशी -महिस-उट्ठ-खर-अय-गवेलग-सीया-सगड-रह-जाण-जुग्ग-संदणसयणा-ऽऽसण-वाहण-कुविय-धण-धण्ण-पाण-भोयणच्छायण-गंधसल्ल-भायण-भवण-विहिं ) चन्द्र कान्त आदि विविध प्रकार के मणि, कनक-सुवर्ण, कर्केतनादि रत्न, बहुमूल्य परिमल-सुगंधित पदार्थ, पुत्रसहित स्त्रोजन, पौत्रादिरूप परिजन, दासी दास, भृतक-कर्मकर, प्रयोजन के अवसर पर भेजने योग्य प्रेष्य, हय-अश्व, गज-हाथी, गाय, महिष, ऊँट, खर-गधा, अज-बकराबकरी, गवेलक-मेष-मेंढा, शिविकापालखी, शकट-गाड़ी, रथ, यानपात्र, युग्य-गोलदेश प्रसिद्ध जम्पाविशेष स्पंदन-रथ, शय्या, आसन, वाहन-तामजान, कुप्य-गृह के उपकरण मइिस-उट-खर अय-गवेलग-सीया-सगड-रह-जाण-जुगा-संदण-सयणा- ऽऽसणपाहण-कुविय-धण-धण्ण-पाण-भोयण -च्छायण-गंध-मल्ल-भायण-भवण-विहिं " ચન્દ્રકાન્ત આદિ વિવિધ પ્રકારના મણિ, કનક-સુવર્ણ કકેતન આદિ રત્ન, બહુમૂલ્ય પરિમલ-સુગંધિત પદાર્થો, સપુત્ર સ્ત્રીજન, પૌત્રાદિરૂપ પરિજન, દાસहासी, मृत - ४।२१२, प्रयोगनने भाटे भोसयामा भावना२ प्रेष्य (६) य-म, 1-हाथी, आय, स , ४२-अधेडi, 4-५४२। मरी, गवत धेट, शिम-पासी, -गाई २५, यानपात्र, युज्य, सहन-२५ For Private And Personal Use Only Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५०२ प्रश्नव्याकरणसूत्रे " , ' I 6 - , भाषा प्रसिद्धानि, 'कुविय' कुप्यानि - गृहोपकरणानि आसन्दीप ल्यङ्कादीनि 'घण' धनानि - गणिमादीनि 'धन्न' धान्यानि - शाल्यादीनि, ' पाणपानानि दुग्धादीनि, ' भोषण भोजनानि - अशनादीनि , आच्छायग आच्छादनानि वस्त्रक स्वलादीनि, 'गंध' गन्धा - कोष्ठपुटादि सुगन्धिद्रव्यविशेषाः, 'मल्ल' माल्यानि = पुष्पदीनि 'गंध' गन्धाः कोष्ठपुटादि सुगन्धिद्रव्यविशेषाः, 'मल्ल' माल्यानि= पुष्पादीनि, 'भायण' भाजनानि - स्थली कटोरादीनि, 'भवण' भवनानि - प्रासादगृहादीनि, एतेषां द्वन्द्वः, तेषां यो 'विह्नि' विधिः-विधानम् - उपार्जनादि लक्षणं, तं ' चेव ' एव=अपि एव शब्दोऽप्पर्थकः, तमपि 'बहुविहियं' बहुविधिकम् - अनेकमकारम् ' भुंजिऊण भुक्तवान् उपभुज्य इत्यग्रेण संबन्धः, तथा भरदं ' भरतं = भरतक्षेत्रं च भुक्तता = कीदृशं भरतक्षेत्र मित्याह ? नगर ' इत्यादि । ' नगनगर निगमजण वय पुरवरदोगमुखेड कन्डम वसंवाहण पट्टणसहस्सपरिमंडियं नग-नगर-निगम जनपद - पुरवर-द्रोणमुख खेट-कर्बटमडम्ब -संवाह-पतन सहस्रपरिमण्डितम्, तत्र - ' णग नगाः पर्वताः ' गगर ' नगराणि करवर्जितपुराणि, 'निगम निगमाः वणिग्निवासस्थानानि, 'जणवय' जनपदाः = देशाः ' पुर वर' पुरवराणि= नगरश्रेष्ठानि राजधान्यादीनि, 'दोणमुह' कुरसी पलंग आदि, गणिमादिक धन, शाल्यादिक धान्य, दुग्धादिरूप पान, भोजन, वस्त्र, कम्बल आदि आच्छादन, कोष्ठपुट आदि सुगंधित द्रव्यविशेष, पुष्प, स्थाली कटोरा आदि भाजन, प्रासाद गृह आदि भवन, इन सब पदार्थों को उपार्जन आदि करने रूप (बहुविहियं चैव ) अनेक प्रनार की विधि को भी ( भुंजिऊण ) भोग करके, तथा ( नगनगर - निगमजणवय पुरवर - दोणमुह - खेड - कब्बड - मडंब-संवाह-पट्टणसहस्स परिमंडियं ) नग - - पर्वत, नगर- अष्टादश प्रकार के कर से रहित पुर, वणिजनों के निवास स्थानरूप निगम, जनपद-देश राजधानी आदि - } , For Private And Personal Use Only नग शय्या, आसन, बाहुन, मुष्य-रसी पक्ष यहि घरनुं राथ रथी, सोना भोर आदि धन, थाणा आदि धान्य, दूध आदि पेय द्रव्यो, लोन्न, वस्त्र, કામળ આદિ આઢવાનાં સાધના, પુટ આદિ સુગંધિત દ્રવ્યેા, પુષ્પ, થાળી વાટકા આદિવાસણા, પ્રાસાદ ગૃહ અને ભવન, એ સઘળા પદાર્થોનું ઉપાર્જન ४२वा३५ “ बहुविहियं चेव " ने अरे तेनो " भुंजिऊण " उपलोग दुरीने, तथा नगनगर निगम जणवय पुरवर दोणमुह - खेड- कब्बड मडंबसंवाह - पट्टण - सहस्स– परिमंडियं " નગ—પત, નગર અઢાર પ્રકારના કરથી રહિત શહેર, વેપારીઓના નિવાસસ્થાનરૂપ નિગમ, જનપદ “દેશ, રાજધાની "" Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदशिनी टीका अ०५ सू०१ परिमहस्वरूपनिरूपणम् द्रोणमुखानि जलपथ-स्थलपथगम्याः पुरविशेषाः, 'खेड' खेडानि-धूलीप्राकार युक्तानि, ' कब्बड' कटानि-कुत्सितनगराणि 'मडंब' मडम्बानि-दूर दूर वसति युक्ताः प्रदेशाः, 'संबाइ ' संवाहाः यत्र कृषका धान्यादिकमानीय स्थापयन्ति ते 'पट्टण' पत्तनानि-जलस्थल पथान्यतरपथयुक्तानि निवासस्थलानि, एतेषां द्वन्द्वः, एषां यत्सहस्रं तेन मण्डितं-शोभितं यत्तत्तादृशं, तथा 'थिमियमेय. णीयं' स्तिमितमेदिनीकं स्तिमिता = स्वचक्रपरचक्रभयवर्जिता, मेदिनी-भूमि यस्मिन् तत्तादृशम् , तथा 'एगच्छत्तं ' एकच्छत्रम्-एकराजकमित्यर्थः, चक्रवर्तिपदमाप्तेः प्राक माण्डलिकत्वे एतादृशं भरतक्षेत्रं परिभुज्येत्यर्थः, तथा 'ससागरं ' सागरसहिताम् ' वसुहं' वसुधां-समग्रां पृथ्वी च चक्रवर्तिपदप्राप्त्यनन्तरं भुक्त्वा, एतद्भोगेऽपीत्यर्थः, 'अपरिमियमणंततण्डमणुगयमहिच्छसारनिश्रेष्ठनगर, जलपथ, स्थलपथ इन दोनों से गम्य स्थान रूप पुरविशेष धूली प्राकार से युक्त खेड, कुत्सितनगररूप कर्बट, दूर दूर वसति से युक्त प्रदेशरूप मडंब, संवाह-जहां पर कृषकजन धान्यादि लाकर रखते हैं ऐसे प्रदेश, जल पथ तथा स्थलपथ इन दोनों मे किसी एक पथ से युक्त पत्तन, इन सब की हजारों की संख्या से मंडित, तथा (घिमियमेयणीयं ) स्वचक्र और परचक्र के भय से वर्जित भूमि से युक्त तथा (एगच्छत्तं ) एक राजा वाले, चक्रवति पद की प्राप्ति के पहिले माण्डलिकपनेमें नगनगरादि सहित (भरह ) भरतक्षेत्र को भोग करके, तथा (ससागरं वसुहं भुंजि ऊण ) चक्रवति पद की प्राप्ति के अनन्तर समुद्रसहित समस्त पृथ्वीनो षटखंड मंडित भरतक्षेत्र को भी भोग करके ( अपरिमियमणंतताहमणुगयमहिसारनिरयमूलो) अपरिमित-प्रमाण આદિ શ્રેષ્ઠ નગર, જળમાર્ગે તથા જમીનમાર્ગે પ્રવેશ કરી શકાય એવું શહેર ધૂળના કિલ્લા વાળું ખેડ, કુત્સિત નગર રૂપ કMટ જેની આસપાસ ઘણે દૂર સુધી ગામે ન હોય એવું મર્ડબ, સંબાહ-જ્યાં ખેડૂતે ધાન્યાદિ લાવીને રાખે એવા પ્રદેશે, જળમાર્ગ તથા સ્થળમાર્ગ એ બન્નેમાંથી એક માર્ગ વાળું પત્તન, सो पानी रानी सभ्याथी युक्त, तथा "थिमिय मेयणीय" स्वय भने ५२२५ मयथा २डित मूभिवा तथा “ एगच्छत्तं " मे २०१७, यति પદ પ્રાપ્ત કર્યા પહેલાં માંડલિક રાજા તરીકે પર્વ તથા નગર સહિત “મ” भारतक्षेत्र ५२ सत्ता मोवीन, तथा " ससागरं वसुहं भुजिऊण" यति ५४ પ્રાપ્ત કર્યા પછી સમુદ્ર સહિત આખી પૃથ્વીને-છ ખંડ વાળા ભરત ક્ષેત્રને ५ नागवाने “ अपरि-मियमणंत-तण्ह-मणुगय-महिसार-निरयमूलो" अपरि For Private And Personal Use Only Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - ५०४ प्रश्नव्याकरणसूत्रे रयमूलो' अपरिमितानन्ततृष्णानुगतमहेच्छासारनिरयमूलः, अपरिमिताप्रमाणरहिता याऽनन्ततृष्णा तयाऽनुगता या महेच्छा = अप्राप्तार्थाभिलाषरूपा तस्याः सारः स्थिरांशरूपो यो निरयो दुर्गतिः स एवं मूलं यस्य परिग्रहतरो यः सः तथोक्तः, पुनः कीदृशः परिग्रहतरुरित्याह- लोभकलिकसायमहकखंधो' लोभकलिकषायमहास्कन्धः-लोभः, कलि: युद्धम् , कषायः - क्रोधमानमायारूपश्च महान् स्कन्धो यस्य सः, यद्यपि कषाय ग्रहणेनैव लोभो गतार्थः, तथापि तस्य प्राधान्य ख्यापनार्थ पृथगुपादानम् । तथा 'चिंतासयनिचिय विउलसालो' चिन्ताशतनिचितविपुलशाला-चिन्ताशतानि निचितानि-एकत्रीकृतान्येव विपुलाः-विशालाः शाला:-शाखा यस्य सः 'चिन्ताशतरूपविपुलशाखासमन्वितः । तथा-'गारव पविरल्लियग्ग विडयो' गौरवपविरल्लियाग्रविटपः - 'गारव' गौरवाणि= ऋद्धिरसससातरूपाण्येव 'पविरल्लिय' विस्तारवन्तः, अयं देशीशब्दः ' अग्गविडव ' अग्र विटपा: शाखामध्यभागाग्रागि यस्य सः, तथा 'नियडितया पत्त पल्लवधरो' निकृतित्वकपत्रपल्लवधरः-निकृतिः-माया, सैव ' तयापत्तपल्लव' रहित-ऐसी अनंततृष्णा से अनुगत अप्राप्त अर्थ की अभिलाष रूप महेच्छा का सार-स्थिरांशरूप जो निरय-दुर्गति है वह दुर्गति ही जिस परिग्रहरूप तरु का मूल है ( लोभकलिकसायमहक्वंधो) तथा जिसके महान् स्कंध, लोभ-लालच, कलि-युद्ध एवं क्रोध, मान, माया, कषाय ये हैं । यद्यपि कषाय के ग्रहण से लोभ का ग्रहण हो जाता है फिर भी उसका जो यहां पृथक् रूप से ग्रहण किया गया है उसका तात्पर्य उसको प्रधानता दिखलाने का है। तथा (चिंतासयनिचियविरल सालो) जिसकी विशाल शाखाएँ एकत्रीभूत सेकड़ो चिन्तएँ हैं। तथा (गारवपविरल्लियरगविडवो) ऋद्धि रससातरूप गौरव ही जिसके विस्तार युक्त अग्रविटय हैशाखाके मध्यभाग एवं अग्रभाग हैं। (नियडितयापत्तपल्लबधरो) निकृतिમિત-પ્રમાણ રહિત તૃષ્ણાથી અપ્રાપ્ય વસ્તુ પ્રાપ્ત કરવાની અભિલાષા રૂપ મહેચ્છાને સાર-સ્થિરાંશરૂપ જે દુર્ગતિ છે તે દુર્ગતિ જ તે પરિગ્રહરૂપી વૃક્ષનું, भूण छ, "लोभकलिकसायमहक्खंधो" सोम,-सासय, सि-युद्ध अने होध, માન, માયા, કષાય આદિ તે વૃક્ષના મહાન સ્ક છે. જો કે કષાયમાં લેભને. સમાવેશ થઈ જાય છે છતાં પણ તેને અહીં અલગ રીતે ગ્રહણ કરવામાં मावेश छ तेना स्तुतेनी प्रधानता मतावानी तथा " चिंतासय निचिय विउल सालो" से मेत्रित यितास तेनी शापामा छे तथा “ गारव पविरल्लियमाविडवो” ऋद्विरस सात३५ गौरव ४ तेना विस्तार युत २५अविट५ छशामाना भध्य ला भने मला छे. " नियडितयापत्तपल्लवधरो" निति-- For Private And Personal Use Only Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५०५ सुदर्शिनी टीका २० ५ सू० १ परिग्रहस्थरूपनिरूपणम् स्वपत्रपल्लाः , तेपां धरः--धारकः । तथा 'जस्स' यस्य परिग्रहतरीः ' कामभोगा' कामाभोगा एव 'पुष्फलं' पुणफलानि । तथा- आयासविमरणाफलहपकंपियग्गसिहरो , आयासविमरणाकलहप्रकम्पिताग्रशिखर:-आयासः= शरीरश्रमः, विसरणा-मानसी पीडा, कलहः वचनभण्डनम्. एत एव प्रकम्पितमनशिखरम्-अग्रभागो यस्य सः, तथा 'नरवइसंपूजिओ' नरपतिसंपूजितःभूपतिपरिसेवितः, तथा - बहुजणस्स हिययदइओ' बहुजनस्य हृदयदयितःअनेकजनवल्लभः इत्यर्थः, तथा-अयं परिग्रह तरुः- इमस्स ' अस्य-प्रत्यक्षस्य 'मोक्खवरमुनिमग्गस्स ' मोक्षवर मुक्तिमार्गस्य-मोक्षस्य बर:-श्रेष्ठो यो मुक्तिरूपो निलों भतारूगो माग:-उपायस्तस्य ' फलिहभूओ' अगलाभूत -मोक्षस्यावरोधककाष्ठभूतो इतने, इत्येवं स्वरूपं 'चरमं अहम्मद्वारं ' चरममधर्मद्वारम् अन्तिममधर्मद्वामम् । एतत्कथनेन यादृशेति प्रथममन्तरद्वारमुक्तम् ।। मू० १॥ मायाचारी ही जिसकी छाल है, पत्र हैं और पल्लव हैं । (जस्स पुष्फफलंकाम भोगा) कामभोग ही जिसके पुष्प और फल हैं। (आयासविसूरणाकलहपकंपियग्गसिहरी ) आयास शारीरिक श्रम विभूरणा-मानसिक पीडा, और कलह,ये ही जिस के प्रकंपित अग्रभाग हैं (नरवइसंपूजिओ) तथा यह परिग्रहरूप वृक्ष भूपतियों द्वारा परिसेवित है, और ( बहुजणस्सहिययदइओ) अनेक जनों को अत्यंत प्यारा है, ( इमस्स मोक्खवर मुत्तिमग्गस्स फलिहभूओ) तथा यह परिग्रहरूप वृक्ष मोक्ष के श्रेष्ठ मुक्तिरूप-निर्लोभतारूप-मार्ग का अगला रूप है । (चरिमं अहम्मदार) ऐसा यह पांचवां अन्तिम अधर्मद्वार है। ___ भावार्थ-परिग्रह नान ममत्वभाव का है। इसकी दूसरी संज्ञा मूर्छा भी है । इस मू रूप सृष्णा का अन्त नहीं है। परिग्रह के भायायारी तेनी छोर पान मने पसव छ. " जस्स पुष्फफलं कामभोगा" मला १ तेन धु०५ अने ५०१ . “ आयास विसूरणाकलहपकंपियग्ग सिहरो ” सायास-शा॥२४श्रम, विसू२-भानसि पी भने ४१, को १ तेना anयमान समानी छे. “ नरवइ संपूजिओ" तथा मा परि ३५ वृक्षर्नु नपो सेवन ४२ छे. अने "बहुजणस्स हिययदइओ" ते मने आने मत्यात प्रिय लागे छ, “ इमस्म मोक्खवर मुत्तिग्गस्स फलिहभूओ" तथ! ! પિરિગ્રહ રૂપ વૃક્ષ એક્ષના શ્રેષ્ઠ મક્તિરૂપ- નિભતારૂપ માના આડે આંગजीया छ. “चरिम अहम्मदार " मे २॥ पाया गया द्वार .. ભાવાર્થ–મમત્વ ભાવને પરિગ્રહ કહે છે. તેનું નામ મૂચ્છ પણ છે. આ મૂર્છારૂપ તૃષ્ણને પાર જ હોતું નથી. પરિગ્રહના પંજામાં ફસાયેલ જીવ For Private And Personal Use Only Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५०६ प्रश्नव्याकरणसूत्रे फंदे में फँसा हुआ प्राणी अपनी अनंत तृष्णाओं की पूर्ति करने में ही लगा रहना है । उसकी कोई भी तृष्णा शांत नहीं होती हैं । यदि कदाचित् कोई तृष्णो शांत भी हो जाये तो दूसरी तृष्णा उसके समक्ष मुँह फाड़कर आ जाती है, और उसकी पूर्ति करने में यह लग जाते है । इस तरह करते २ यह प्राणी उनकी पूर्ति करने में आसक्ति से बंध होता जाता है और अपना विवेक खो बैठता है। विवेक का खो बैठना परिग्रह है। यहां पर सूत्रकार ने इस परिग्रहरूप पंचम आस्रव द्वार का वर्णन वृक्ष के रूपक से किया है। परिग्रही जीव छोटी, बड़ी, जड़, चेतन, बाह्य था आन्तरिक चाहे जो वस्तु हो, और कदाचित् न भी हो तो भी उसमें बंध जाता है। नाना प्रकार के मणि आदि पदार्थों को भरतखंड की पूर्ण विभूति को भोग करके भी परिग्रही जीव की तृष्णा अनवरत अशांत ही रहती है। इस वृक्ष की जड़, स्कंध, विशाल शाखाएँ, अग्रविटप, छाल. पत्र, पल्लव, पुप्प, फल, आदि क्या २ हैं यह सब विषय ही इस सूत्र में विवेचित किया गया है। इस तरह के कथन से सूत्रकार ने परिग्रह का यादृश नामका जो प्रथम अन्तर है उसका वर्णन किया है, क्यों कि इस द्वार में स्वरूप का कथन होता है, वह यहां पर अच्छी तरह से दिखला दिया गया है ।सू० १॥ પિતાની અનંત તૃણાઓ પૂરી કરવામાં જ મંડ્યા રહે છે. તેની કોઈ પણ તૃષ્ણા શાંત પડતી નથી. જો કે તૃષ્ણા શાંત પડી તે તેની જગ્યાએ બીજી તૃષ્ણ મોટું ફાડીને તૈયાર થઈ જાય છે, અને તે સંતોષવાને તે જીવ પ્રવૃત્ત થાય છે. આમ કરતાં કરતાં તેની પૂર્તિ કરવામાં આસક્તિથી બંધાઈ જાય છે અને પિતાની વિવેક બુદ્ધિ ગુમાવી દે છે. વિવેકને ઈ નાખવે તે પરિગ્રહ છે. અહીં સૂત્રકારે પરિગ્રહ નામના પાંચમા આસવ દ્વારનું વર્ણન પરિગ્રહને વૃક્ષનું રૂપક દઈને કર્યું છે. પરિગ્રહી જીવ, નાની, માટી, જડ, ચેતન, બાહ્ય કે આંતરિક ગમે તે પ્રકારની ચીજમાં આસક્ત બની જાય છે. વિવિધ પ્રકારના મણિ આદિ પદાર્થોને તથા ભરતખંડની સંપૂર્ણ સંમૃદ્ધિને ઉપગ કરીને પણ પરિગ્રહી જીવની તૃષ્ણા સતત અશાંત જ રહે છે. આ પરિગ્રહરૂપ વૃક્ષનાં भूग, 43, qिan A ll, मविट५, ७स, पान, १८६५; पु०५, ३० વગેરે શું શું છે, તે બધાનું વિવેચન આ સૂત્રમાં કરવામાં આવ્યું છે. આ પ્રમાણેના કથન વડે સૂત્રકારે પરિગ્રહના યાદશ (કેવા પ્રકારનું) નામના પહેલાં અંતર્ધારનું વર્ણન કર્યું છે, કારણ કે આ કારમાં સ્વરૂપનું કથન થાય છે. તે સ્વરૂપનું વર્ણન અહીં સુંદર રીતે કરવામાં આવ્યું છે. સુ-૧ / For Private And Personal Use Only Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५09 सुदर्शिनी टीका अ० ५ सू० २ परिग्रहस्य त्रिंशन्नामनिरूपणम् अधुना यन्नामेति द्वितिथमन्तरद्वारमाह मूलम्-तस्स नामाणि गोणाणि हंति तीसं, तं जहापरिग्गहो १, संचयो २, चयो ३, उवचयो ४, निहाणं ५, संभारो ६, संकरो ७ एवं आयारो ८, पिंडो ९. दव्वसारो १०, तहा महिच्छा ११, पडिबंधो १२, लोहप्पा १३, महट्टी १४, उवगरणं १५, संरक्षणाय १६, भारो १७, संपायुपायको १८, कलिकरंडी १९, पवित्थरो २०, अणत्थो २१, संथवो २२ अगुत्ती २३, आयासो२४, अविओगो २५, अमुत्ती २६, तण्हा २७, अणत्थगो २८, असत्थी २९. असंतोसे ३०, त्तिविय, तस्स एयाणि एवमादी नामधेजाणि हुंतितीसं ॥ सू० २॥ टीका-'तस्य य ' इत्यादि 'तस्स ' तस्य-परिग्रह नामक पश्चमाधर्मद्वारस्य च ' नामाणि ' नामानि 'इमानि-अनुपदं वक्ष्यमाणानि 'गोणाणि' गौणानि-गुणनिष्पन्नानि ' हुति' भवन्ति, कियत्संख्यकानि भवन्ति ? इत्याह- तीसं' त्रिंशत्संख्यकानीति, 'तंजहा' तद्यथा-' परिग्गहो' परिग्रहः - परिगृह्यते इति परिग्रहः--हिरण्य सुवर्ण धनधान्यादिः, १ 'संचयो' संचयः-धनधान्यादि राशीनां समूही करणम् २ 'चयो' चयः-एकैकमितिकृत्वाऽऽदानम् ३, “उवचयो' उपचयः-एकैकमितिकृत्वाऽऽदत्तानां धनधान्यादिनां राशिकरणम् ४, 'निहाणं ' निधानं भुम्यादौ अब " यन्नाम " इस द्वितीय अन्तार को सूत्रकार कहते है'तस्स नामाणि' इत्यादि। टीकार्थ-(तस्स ) इस परिग्रह के ( गोणाणि नामाणि तीसं हुंति) गुण निष्पन्न तीस नाम हैं। (तंजहा) वे इस प्रकार हैं-(परिगहो १, संचयो २, चयो ३, उवचयो ४, निहाणं ५, संभारो ६, संकरो ७, एवं वे " यन्नाम" से. ollot मन्तरिनुं सूत्र॥२ वन ४२ छ" तस्स नामाणि " त्यादि साथ-" तस्स" ! परियडना " गोणाणि नामाणि तीस हुँति " गुणानुसार त्रास नामी छे. “तं जहा" ते त्रीस नाभा मा प्रमाणे छ.-" परि. गहो १ संचयो २ चयो ३ उवचयो ४ निहाणं ५ संभारो ६संकरो ७ एवंआयारो ८ For Private And Personal Use Only Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५०८ प्रश्नव्याकरणसूत्र निधानरूपेण स्थापनम्५, 'संभारो' संभारः-संभ्रियते संभरण वा संभार:-कोष्ठादौ भरणमित्यर्थः ६, 'संकरो' संकरः-संकीर्यते सपिण्डयते इति, सङ्कः-सुवर्ण रजतादीन वह्मौ परिद्रव्य पाशकादियारणम् ७, ' एवं आयारो' एवमाचारःआयारों ८, पिंडो ९, दवसारो १०, तहा महिच्छा ११, पडिबंधो १२, लोहप्पा १३, महट्टी १४, उवगरण १५, संरक्खणा य १६, भारो १७, संपायुपायको, १८, कलिकरंडी १९, पवित्थरो २०, अणत्थो २१, संथवो २२, अगुत्ती २३, आयासो २४, अविओगो २५, अमुत्ती २६, तण्हा २७, अणत्थगो २८, आसत्थी २९, असंतोसे ३०, ति विय, तस्स एयाणि एवमाई नामधेज्जाणि हुंति तीसं ) हिरण्य, सुवर्ण, धन, धान्य आदि, पदार्थ ग्रहण किये जाते हैं इसलिये ये परिग्रह हैं अतः इसका प्रथम नाम परिग्रह है १ । धन धान्य आदिकी राशियां इसमें एकत्रित की जाती है अतः इस अपेक्षा इसका दूसरा नाम संचय है २ । परीग्रही जीव एक एक करके वस्तुओं का संग्रह या ग्रहण करता है, इस अपेक्षा इसका तीसरा नाम चय है ३ । उपचय शब्द का अर्थ वृद्धि है, क्रम क्रम करके कमाये गये धन धान्य आदि पदार्थो का इस उपचय में वर्धन होता है इसलिये इसका चौथा नाम उपचय है ४ । जमीन आदि में धनादिद्रव्य को परिग्रहि जीव गाड़ दिया करते हैं, ताकि चौर आदि से उसकी रक्षा होती रहे, इसलिये इसका पांचवा नाम निधान है ५, कोष्ठ आदि में जो वद्धित धान्य आदि पदार्थ भरकर रख दिये जाते हैं, पिंडो ९ व्वसारो १० तहा-महिच्छा ११ पडिबंधो १२ लोहप्पा १३ महट्टी १४ उवगरणं १५ संरक्खणाय १६ भारो १७ संपायुपायको१८ कलिकरंडी १९ पवित्थरो २० अणत्थो २१ संथवो २२ अमुत्ती २३ आयासो २४ अविओगो २५ अमुत्ती २६ तण्हा २७ अणत्थगो २८ आसत्थी २९ असंतोसे ३० ति वि य तस्स एयाणि एवमाई नामधेज्जाणि हूंति तीसं ' (१) डि२९य, सुवर्ण, धन, ધાન્ય આદિ પદાર્થો ગ્રહણ કરવામાં આવે છે તેથી તે પરિગ્રહ છે તેછી તેનું નામ “પરિગ્રહ છે (૨) ધન ધાન્ય આદિના ઢગલા તેમાં એકત્ર કરાતા पाथी तेनुं भी नाम 'सयय' छ. (3) परियडी व मे मे वस्तु. એને સંગ્રહ કરે છે અથવા તેને ગ્રહણ કરે છે, તેથી તેનું ત્રીજું નામ “ચય છે. (૪) ઉપચય શબ્દને અર્થ વૃદ્ધિ થાય છે. કેમે કમે કમાયેલ ધન ધાન્ય આથિ પદાર્થનું આ ઉપચયમાં વર્ધન થાય છે, તેથી તેનું ચોથું નામ “ઉપચય” (૫) ચેર આદિથી રક્ષણ કરવા માટે ધન આદિ દ્રવ્યને પરિગ્રહી લેકે દાટી દે છે. તેથી તેનું પાંચમું નામ “નિધાન” છે. (૬) કેડી આદિમાં વધેલ For Private And Personal Use Only Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० ५ सू० २ परिग्रहस्य त्रिजन्नामनिरूपणम् ५०९ एवम्-यथा धनप्राप्तिर्भवेदेवम् , आचारः-आचरणम् ८, ' पिंडो' पिण्डः धनधान्यादीनां समुदायः ९, 'दब्बसरो' द्रव्यसार:-द्रव्यागामेव सर्वोत्कृष्टपदार्थस्वेन परिज्ञानम् १०, 'तहा' तथा 'महिच्छा' महेच्छा-अपरिमितवाञ्छा ११, 'पडिबंधो ' प्रतिवन्धः-आसक्तिकारकः १२, · लोहप्या' लोभात्मा-लोभअतः इसका नाम संभार है । परिग्रही जीव धान्य आदि पदार्थों को कोष्ठ आदि में भरकर रख देता है-ताकि आवश्यकता पड़ने पर वे काम में लाये जा सके-इसलिये इसका छठा नाम संभार है ६। परिग्रही जीव सुवर्ण आदि द्रव्यके अधिक हो जाने पर उनका अग्नि में गलवाकर पाशा करवा लेता है, इसलिये इसका सातवां नाम संकर है । धन कमाने की लालसा से परिग्रही जीव ऐसा आचरण करताहै कि जिससेधन का लाभ अधिकमात्रा में होतारहे,इसलिये इसका आठवा नाम एवमाचार है ८ । पिण्ड इसका नाम इसलिये है कि इस में धन धान्यादि पदार्था का समुदाय पिण्डरूप से घर में रहा करता है ९ । परिग्रही जीव धनादि पदार्थो को ही सर्वोत्तम मानता है इसलिये इनका नौवां नाम द्रव्यसार है १० । परिग्रही जीव की इच्छाएँ आकाश की तरह अनंत हुआ करती हैं इसलिये इस का नाम महेच्छा है ११ । मणुष्यों में इस परिग्रह से ही पर के द्रव्यों में आसक्ति जगती है इसलिए इसका नाम प्रतिबंध है १२ । परिग्रही जीव में लोभ की मात्रा बहुत अधिक होती ધાન્ય આદિ પદાર્થ ભરીને રાખી મૂકાય છે, તેછી તેનું નામ “સંભાર છે. પરિગ્રહી જવ ધાન્યાદિ પદાર્થોને કોઠી આદિમાં ભરી રાખે છે કે જેથી જરૂર પડે ત્યારે તેને ઉપયોગ કરી શકાય, તેથી તેનું છઠું નામ “સંભાર ” છે (૭) પરિગ્રહી જીવ સુવર્ણ આદિ દ્રવ્ય વધી જાય છે ત્યારે તેને અગ્નિમાં ગળાવીને તેના પાશા પડાવી લે છે, તેથી તેનું સાતમું નામ “સંકર ” છે. (૮) ધન કમાવાની લાલસાથી પરિગ્રહી જીવ એવું આચરણ કરે છે કે જે આચરણથી ધન પ્રાપ્તિ વધુ પ્રમાણમાં થતી રહે, તેથી તેનું આઠમું નામ એqभाया२ . (८) तेनु नपभु नाम 'पिंड' मे ४२ छ । परिवही ०१ ધન ધાન્યાદિ પદાર્થોને જ પિંડરૂપે ઘરમાં રાખ્યા કરે છે. (૧૦) પરિગ્રહી જીવ ધનાદિ પદાર્થોને જ સર્વોત્તમ માને છે, તેથી તેનું દસમું નામ દ્રવ્યસાર” છે. (૧૧) પરિગ્રહી જીવેની ઈચ્છાઓ આકાશની જેમ અનંત હોય છે, તેથી તેનું નામ “મહેચ્છા” છે. (૧૨) આ પરિગ્રહને કારણે જ ५२ द्रव्यमा भासाने मासहित पहा थाय छे. तेथी तेनु नाम 'प्रतिबंध' છે. (૧૩) પરિગ્રહી જીવમાં લેભની માત્રા ઘણું જ વધારે હોય છે, તેથી તે For Private And Personal Use Only Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे स्वभावः १३, 'महट्टी' महातिः, महातःकारणत्वात् १४, ' उवकरणं ' उपकरण सामग्री १५, “संरक्षणय' संरक्षणा च-शरीरादीनां संरक्षणमित्यर्थः १६, 'भारो' भारः-अष्ट कर्मभारकारणम् १७, 'संपायुपायगो' संपातोपायक:-संपातानादुर्गतौ प्रस्थितानाम् उपायको मार्गभूतः१८, 'कलिकरंडो' कलिकरण्ड:-कलीनां= कलहानां करण्ड इवपात्रविशेष इव कलिकरण्डः १९, 'पवित्थरो' प्रविस्तरःधनधान्यादिविस्तारः २०, 'अणत्यो ' अनर्थः-अनर्थकारणत्वात् २१, 'संथवो' है, इसलिये यह परिग्रह लोभात्मा लोभ स्वभाव है १३ । इस परिग्रह से जीव को बड़ी से बड़ी आर्तियों का सामना करना पड़ता है अतः उन आर्तियों का करण हाने से यह परिग्रह महार्तिरूप है १४। इस परिग्रह के प्रभाव से ही विविध प्रकार की सामग्री जीव एकत्रित करता है अतः इसका नाम उपकरण है १५ । परिग्रही जीव अपनेशरीर आदि पदार्थों की रक्षा करने में विशेष सावधान रहता है । इसलिये इसका नाम संरक्षण है १६ । परिग्रही जीव के परिणामों की संक्लेशता के कारण अष्टविध कर्मों का बंध बहुत तीव्र होता है इसलिये इसका नाम भार है १७ । परिग्रही जीव का पतन दुर्गति में होता है अतः दुर्गति में पतन होने का यह मार्गभूत है इसलिये इसका नाम संपातोपायक है १८ । परिग्रही जीव के अनेक शत्रु उत्पन्न हो जाते है हर एक के साथ कलह आदि होने लगते हैं इसलिये यह परिग्रह कलहों का एक प्रकार का करण्डपिटारा है-इसलिये इसका नाम कलहकरण्ड है १९ । परिग्रही जीव अपने धन धान्य आदि पदार्थो का विस्तार करने પરિગ્રહ લેભાા લેભ સ્વભાવ છે. (૧૪) આ પરિગ્રહને લીધે અને મોટામાં મોટી આફતને સામને કરે પડે છે, તેથી એ આર્તિ (આફતો) નું કારણ હેવાથી તે પરિગ્રહ મહાતિરૂપ છે (૧૫) તે પરિગ્રહના પ્રભાવથી જ વિવિધ પ્રકારની साभश्री ५ त्रित ४२ छ, तेथी तेनु नाम' उपकरण ' छ. (१६) परियडी જીવ પિતાના શરીર આદિ પદાર્થોના રક્ષણ માટે વધારે સાવચેત રહે છે, तथी तेनु नाम 'संरक्षण' छे. (१७) परियडी पनी वृत्तिमानी मथितતને કારણે અષ્ટવિધ કર્મોને બંધ ઘણે જ તીવ્ર હોય છે, તેથી તેનું નામ 'भार' छे. परिडी 4 दुतिमा ५ छ. तिभा पतन ४२११ाना २३३५ हावाने १२ तेनुं नाम 'संपातोपायक' छ. (१८) परियडी अपना અનેક શત્રુઓ પેદા થાય છે. દરેકની સાથે તેને કલહ આદિ થયા કરે છે. તે કારણે ને પરિગ્રહ કલહોના એક પ્રકારના કરંડિયા જેવો હોવાથી તેનું નામ 'कलहकरण्ड' छ. (२०) परियड ७१ पोताना धन धान्य हि पदार्थाना For Private And Personal Use Only Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० ५ सू० २ परिग्रहस्य त्रिंशन्नामनिरूपणम् संस्तवः परिचयः-परिचयकारणत्वात् २२, 'अगुत्ती' अगुप्तिः तृष्णाया अगोपनम् २३, 'आयाभो' आयासः =दुःखम् , आयामहेतुत्वात्परिग्रहोऽ प्यायासःउक्तः २४, ‘अविओगो' अवियोगः-धनादरपरित्यागः२५ 'अमुत्ती' अमुक्तिः अनिलेभिता २६, 'तहा ' तृष्णा-धनादेराकाङ्क्षा २७, 'अणत्थगो' अनर्थकःअनर्थकारणत्वात् २८, 'आसत्थी' आसक्तिः-मूर्छा, तत्कारणत्वात् २९, में लगा रहता है इसलिये इसका नाम प्रविस्तर है २० । परिग्रह अनेक अनर्थों का कारण रहता है इसलिये इसका नाम अनर्थ है २१ । परिग्रही जीवको अनेक जीवों के साथ संस्तवपरिचय रहता है। इसलिये परिचय का कारण होने से इसका नाम संस्तव है २२ । इसमें तृष्णा का गोपन नहीं होता है-अतः इसका नाम अगुप्ति है २३ । परिग्रह की ज्वाला में जलते हुए जीव को बहुत अधिक आयासों दुःखों को भोगना पड़ता है इसलिये उनका हेतु होने से परिग्रह का नाम भी आयास है २४ । परिग्रही जीव में लोभ की अधिक से अधिक मात्रा होने के कारण वह धनादिक का परित्याग दान आदि सत्कृत्यों में भी नहीं कर सकता है इसलिये इसका नाम अवियोग है २५ । इस परिग्रही जीव में निर्लोभता नहीं होती है इसलिये इसका नाम अमुक्ति है २६ । धनादिक के आगमन-आय की आकांक्षा परिग्रही जीव के सदाकाल रहती है इस लिये इसका नाम तृष्णा है २७ । परिग्रह अनेक अनर्थों का कारण है इसलिये इसका नाम अनर्थक है २८ । मूर्छा का कारण होने से इसका विस्तार ४२१ामा वाग्य! २ छ, छेथी तेनु नाम 'प्रविस्तार' छे. (२१) परिअ मने मार्थानु २९ भने छे, तेथी तेनु नाम 'अनर्थ' छ. (२२) परियडी पनी मने अपनी साथे ' संस्तव' पश्यिय यतो २७ छ, तथा पश्यियनु ४।२९ डावाथी तेनुं नाम 'संस्तव ' छ. (२३) ते तृष्णानुं गोपन थतुं नथी, तथा तेनुं नाम ' अगुप्ति' छे. (२४) परियडनी //Hi ormal જીને ઘણું વધારે આયાસો- દર ભેગવવા પડે છે. તેથી તે આયાસના ४।२६४३५ पाथी पश्यितुं नाम ५९] " आयास” छे. (२५) परियडी જીમાં લેભની માત્રા વધારેમાં વધારે હોવાને કારણે તેઓ દાન આદિ सत्कृत्यामा धननी परित्याग ४२ शता नथी. तेथीतेनुं नाम 'अवियोग' छे. (२६) ते परियडी मा निमिता हाती नथी, तेथी तेनुं नाम 'अमुक्ति' છે. (૨૭) ધનાદિ પદાર્થો મેળવવાની આકાંક્ષા પરિગ્રહી જીવને સદાકાળ રહે છે, तथा तेनु नाम तृष्णा ' छ. (२८) पश्यि भने मनाने भाटे ४।२४३५ डाय छ, तेथी तेनु नाम 'अनर्थक ' छे. (२८) भू- 'मासति' नु ॥२५ For Private And Personal Use Only Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५१२ प्रश्नध्याकरणसूत्रे ' असंतोसेत्ति वि य ' असंतोषः ३०, इत्यपि च 'तस्स' तस्य-परिग्रहस्य 'एयाणि ' एतानि 'एवमादि' एवमादीनि-उक्तपकाराणि ' नामधेज्जाणि' नामधेयानि नामानि - हुंति , भवन्ति ' तीसं ' त्रिंशत् । परिग्रहत्य परिग्रहायसंतोषान्तानि त्रिंशन्नामधेयानि भवन्तीत्यर्थः । अनेन — यन्नामेती' द्वितीयमन्तरद्वारमुक्तम् ।।०२।। अथ यथा ये परिग्रहं कुर्वन्ति तानाह-तं चपुणे' इत्यादि मूलम्--त च पुण परिग्गहं ममायंति लोभघत्था भवणवर विमाणवालिगो परिग्गह रुईयी परिग्गहे विविहकरणबुद्धी देवनिकाया य असुरभुयगसुवन्नविज्जुजलण-दीव-उदहि दिसि-पवण-थणिय-अणपन्नियपणपन्निय इसियाइय भूयवाइय कंदिय महाकदिय कुहण्ड पतंग देवा पिसाय-भूय-जक्खरक्खर-किंनर किंपुरिस-महोरगगंधव्याय तिरियवासी। पंचनाम आसक्ति है २९ । परिग्रही जीव को जीवनभर सुखप्रद संतोष नहीं होता है अतः असंतोषका हेतु होने से इसका नाम भी असंतोष. है ३० । इस प्रकार इस परिग्रह के ये पूर्वोक्त प्रकार से तीस नाम हैं। इस तरह इस सूत्र द्वारा सूत्रकार ने “यनाम" यह द्वितीय अन्तरद्वार कहा है। भावार्थ---परिग्रह नामके पंचम आस्रव द्वार के कितने नाम गुण निष्पन्न हो सकते हैं यह बात सूत्रकार ने इस सूत्र द्वारा प्रदर्शित की है। परिग्रह से लेकर असंतोष पर्यन्त जो ये तीस नाम प्रकट किये हैं वे कहीं तो कारण में कार्य के उपचार से और कहीं कार्य में २ कारण के उपचार से बनाये गये हैं, ऐसा जानना चाहिये ॥ मू० २ ॥ डापायी तेनु नाम ' आसक्ति' छ. (३०) ५रीबडी ने वनभर सुमन सतिष थते! नथी, तेथी असताना १२१३५ हावाथी तेनु नाम 'असंतोष' છે. આ પ્રમાણે પરિગ્રહના પૂર્વોક્ત ત્રીસ નામ છે. આ રીતે આ સૂત્રદ્વારા सूत्रारे ‘यन्नाम' नामना भी मन्त२ द्वा२नु थन यु छ. ભાવાર્થ–પરિગ્રહ નામના પાંચમા આસવ દ્વારા ગુણ પ્રમાણે કેટલાં નામ હોઈ શકે છે તે બાબત સૂત્રકારે આ સૂત્રમાં દર્શાવી છે. પરિગ્રહથી લઈને અસંતોષ સુધીના જે ત્રીસ નામે પ્રગટ કર્યા છે તેમાનાં કેટલાક કારણમાં કાર્યના ઉપચારથી અને કેટલાંક કાર્યમાં કારણના ઉપચારથી બનાવવામાં आस छ, मेम समन्वानु छ । सू-१॥ For Private And Personal Use Only Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ०५सू० ३ यथा ये परिग्रहं कुर्वन्ति तन्निरूपणम् ५१३ विहा जोइसिया य देवा बहस्सइ चंदसूर सकसणिच्छरा राहुधूमकेउ बुहा य अंगारका य तत्ततवणिज्जकणगवण्णा जेयगहा जोइसियम्मि चारं चरंति, केऊय गइरइया अट्रावीसति विहा य नक्खत्त देवगणा णाणासंठाणसंठियाओ य तारगाओ, ठियलेस्साचारिणो य अविस्साममंडलगई। उपरिचरा-उड्डलोगवासी दुविहा वेमाणिया य देवा सोहम्मीसाण-सणंकुमार-माहिद-बंभलोगलंतक-महासुक्कसहस्सारआणयपाणय आणच्चुया कप्पवरविमाणवासिणोसुरगणा । गेवेज्जा अणुत्तरा य दुविहा कप्पातीया विमाणवाप्ती महिड्डिया उत्तमा सुरवरा एवं चेते चिउबिहातपरिसा वि देवा ममायति। भवण वाहणजाणविमाणसयणासणाणि य णाणाविहवस्थभूषणाणि य पवरपहरणाणि य णाणामणि पंचवण्णदिव्वं य भाषणविहिं नाणाविहकामरूववेउविब अच्छरगगसंघाए दीवसमुद्दे दिसाओ विदिसाओ चेइआणि य वणसंडे पबए गामनगराणि य आरामुजाणकाणणाणि य कूबसरतलायवाविदीहि य देवकुलसभप्पवावसहिमाइयाइं कित्तणाणि च पगिमिहत्ता परिम्गहं विउलव्वसारं देवा वि सइंदगा न तित्तिं न तुढेि उवलब्भंति, अचंत विउललोभाभिभूयसन्ना। वासहर इक्खुगारवट्टपव्वयकुंडलरुयगवरमाणुसुत्तरकालोदहिलवणसलिलदहपतिरतिकरअंजणकसेलदहिमुह ओवायुप्पायकंचणकविचित्तजमकवरसिहरिकूडवासी ॥सू०३॥ टीका-'तं च पुण परिग्गई' तं च पुनः परिग्रहं पुनः ' शब्दोऽत्र For Private And Personal Use Only Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे वाक्यालझारे, उपर्युक्तं त्रिवद्विधं परिग्रई समायति' ममायन्ते=परिग्रहममत्वं कुर्वन्ति, ममयं कुर्वन्तीत्याह - लोभवत्या ' लोभग्रस्ताः, के के च ते ? इत्याह-'भवणवरविमाणमासिगो' मानवरविमानवासिनः' भवन' इत्यत्र ' वासिनः' इत्यस्य सम्बन्धाद् भवनवासिनः भवनपतयः, अत आरभ्य यावद् वरविमानवासिनः अनुशरविमानवासिनः, भवनपतिवानव्यन्तर - ज्योतिष्कवैमानिकाश्चतुर्विधा अपि देवा इत्यर्थः, कीदृशास्ते ? इत्याह-'परिग्गहरुई ' ___ अब सूत्रकार जिस प्रकार से जो जीव इस परिग्रह को करते हैं उनका कथन करते हैं-' तं च पुण' इत्यादि। टीकार्थ- (तंच पुण परिग्गहं लोभघस्था मप्रायति ) इस उपर्युक्त तीस प्रकार के नाम वाले परिग्रह में लोभ से ग्रस्त हुए जीव ममत्व करते हैं । वे जीव कौन २ से हैं ? सूत्रकार अब इस बात को प्रदर्शित करते हैं-(भवणवरविमाणवामिणो ) भवनवासी देव, वानव्यन्तरदेव, ज्योतिष्कदेव और वैमानिक देव ये चारों प्रकार के देव परिग्रह में ममत्व करते हैं-अर्थात्-परिग्रह प्राप्त करके भी इन्हें संतोष नहीं होता है। (भवणवरविमाणवासिणो) यहां पर इस पद से भवनवासी और घरविमानवासी ऐसा शाब्दबोध होता है । भवनवासी शब्द से असुरकुमार आदि देव तथा वरविमानवासी शब्द से अनुत्तरविमानवासी देव अभिहित हुए हैं। इस तरह देवों के इन दो निकायों का वर्णनकथन-आने से इनके बीच के थानव्यन्तर और ज्योतिष्क इन दो હવે સૂત્રકાર એ પ્રગટ કરે છે કે કયા જીવ કઈ રીતે પરિગ્રહ કરે -"तं च पुण" त्यादि. टीय-"तच पुण परिगाह लोभघत्था ममाति" ५२ ४ बीस नाम વાળા પરિગ્રહમાં લેભને વશ થયેલ છે મમત્વ કરે છે. તે છે કયા કયા है? वे सूत्र॥२ ते शव छ. “भवणवरविभाणवामिणो" भवनवासी દેવ, વાનર દેવ, જયોતિષ્ક દેવ, અને વમાનિક દેવ, એ ચારે પ્રકારના દેવ પરિગ્રહમાં મમત્વ કરે છે–એટલે કે પરિગ્રહમાં પ્રાપ્ત કરવા છતાં પણ तमने सतोष यता नथी. " भवणवरविमाणवासिणो म मा ५४थी म. નવાસી અને ઉત્તમ વિમાનવાસી એ અર્થ સમજાય છે. ભવનવાસી' શબ્દથી અસુરકુમાર દેવ આદિ તથા “ઉત્તમવિમાનવાસી” શબ્દથી અનુત્તર વિમાનવાસી દેવ ગ્રહણ થાય છે. આ પ્રમાણે દેના તે બે નિકાયનું (પ્રકારનું ) વર્ણન આવવાથી તેમની વચ્ચેના વાનવ્યન્તર અને જતિષ્ક એ બે નિકા (જાતે) For Private And Personal Use Only Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुशिनी टीका ० ५ सू० ३ यथा ये परिग्रहं कुर्वन्ति तनिरूपणम् ५१५ परिग्रहरुचयः-परिग्रहे रुचिः-आसक्तिर्येषां ते तथोक्ताः, तथा 'परिग्गहो' परिग्रहे-परिग्रहविषये । विविहकरणबुद्धो ' विविधकरणबुद्धयः-विविधानि करणानि क्रियाः बुद्धिश्च येषां ते तथोक्ताः, परिग्रहोपार्जनमतय इत्यर्थः, एतादृशा इन्द्रसहिता देवाःपरिग्रहं परिगृह्य न तृप्ति, न तुष्टिमुपलभन्ते, इत्यत्रेण सम्बन्धः, तत्र 'देवनिकाया य देवनिकायाश्च वक्ष्यमाणा ता नेव भवनपत्यादीन् नामनिर्देशपुरस्सर माह- 'असुर' असुरा: असुरकुमाराः ‘भुयग' भुनगा नागकुमाराः 'सुवन्न' मुपर्णाः-मुपर्णकुमाराः, 'विज्जु' विधुतः-विद्युत्कुमाराः 'जलण' ज्वलना:अग्निकुमाराः 'दीव ' द्वीपा:-दीपकुमाराः 'उदहि' उदधिकुमाराः 'दिसि' दिशाकुमाराः 'पवण' पवनाः वायुकुमाराः 'थणिय' स्तनितकुमाराः, एते भवनपतयः ?, तथा-' पनि य 'अनपनि काः 'अप्रज्ञप्तिकाः ‘पणपनि य' पणपग्निकाः (पञ्चज्ञप्तिका ) ' इसिवाइ य ' ऋषिवादिकाः ‘भूययाइय' भूतवादिकाः ' कंदि य ' क्रन्दिताः 'महाकंदिय' महाक्रन्दिताः 'कुहंड' कुष्माण्डाः ' पतंगदेव ' पतंगदेवाः, एतेऽष्टौ व्यन्तरनिकायदेवाः २, असुराधारभ्य पतङ्गदेवपर्यन्तानामितरेतरयोगद्वन्द्वः । तथा ' पिसाय' पिशाचाः ‘भूय ' भूताः 'जक्व' यक्षाः ' रक्खस ' राक्षसाः ' किंनर ' किन्नराः 'किंपुरिस' किम्पुरुषाः निकायों का बोध स्वयं हो जाता है । इसलिये यहां चारों प्रकार के देव गृहीत हुए हैं । क्यों कि ये देव ( परिग्गहें विविह करणवुद्री) परिग्रह के विषय में इनकी विविध प्रकार की क्रियाएँ होती हैं, तथा उसमे इनकी बुद्धि भी सदा सचेष्ट रहती है । अर्थात् परिग्रह के उपार्जन करने में इनकी मति खूब निपुण होती है। इस तरह इन्द्रसहित ये चारों प्रकार के देवनिकाय परिग्रह को प्राप्त करके भी उसमें तृति से विहूने ही बने रहते हैं । ( देवनिकाया य-असुर-भुयग-सुवन-विज्जु-जलण -दीव उदहि-दिसि-पवण-थणिय-अणपन्निय-पणपन्निय-इसिवाइयभूयवाइय-कंदिय-महाकंदिय-कुहण्ड-पयंग-देवा पिसायभूय-जक्खને બોધ આપો આપ થઈ જાય છે. તે કારણે અહીં ચારે પ્રકારના દેવે अड अरे थे, १२५ ते हे। “ परिंग हरुई" परिभा थि-मासहित qा हाय छ, भने “परिगहे विविहकरण बुद्धी" परिइना विषयमा तभनी વિવિધ પ્રકારની ક્રિયાઓ થાય છે, અને તેમાં તેમની બુદ્ધિ પણ સદા સચેષ્ટ રહે છે. એટલે તે પરિગ્રહને પ્રાપ્ત કરવામાં તેમની બુદ્ધિ ઘણું જ નિપુણ હોય છે. આ રીતે ઈન્દ્ર સહિત તે ચારે પ્રકારના દેવનિકાય પરિગ્રહને પ્રાપ્ત કરીને ५ तेनाथी अतृस २७ छ. " देवनिकाया य-असुर-भुयग-सुवन्न-विज्जु-जलणदीवउदहि-दिसि-पवण-थणिय-अणपन्निय-पणपन्निय-इसिवाइय-भूयवाइय-कंदिय For Private And Personal Use Only Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्र 'महोरग' महोरगाः 'गंधव्या' गन्धर्वाश्च, एतेषां द्वन्द्वः । एतेऽष्टौ व्यन्तरभेदाः एते हि तिरियवासी' तिर्यग्वासिनः-मनुष्यलोकवासिनः, तथा 'पंचविहा' पञ्चविधाचन्द्रसूर्य-ग्रह-नक्षत्र-तारारूपाः, 'जोइसियाय' ज्योतिपिकाच देवाः, से के ? इत्याह-'बहस्सइचंद रसुक्कसणिच्छरा', बृहस्पतिचन्द्रसूरशुक्रशनैश्वराः, तथा 'राहुधूमकेउबुहा य' राहुधूमकेतुबुधाश्च तथा-'अंगारका य'अङ्गारकश्च 'मगलना मको गृहविशेष ' कीदृशः ? एषः ? इत्याह-' तत्तत वणिज्जकणगवण्णा' तप्ततरक्खस-किंनर-किंपुरिस-महोरग-गंधव्वा य तिरियवासी) अब सूत्रकार उन देवनिकायों को नामनिर्देश पूर्वक प्रकट करते हैं, उनमें वे सब से पहिले भवनपतियों के भेदों के नामों को कहते हैं-असुरकुमार, नागकुमार, सुपर्णकुमार, विद्युत्कुमार, ज्वलन -अग्निकुमार, द्वीपकुमार, उदधिकुमार, दिशाकुमार, वायुकुमार और स्तनितकुमार ये दश प्रकारके भवनपति हैं। तथा अप्रज्ञप्तिक, पञ्चप्रज्ञप्तिक, ऋषिवादिक, भूतवादि क्रंदित, महाक्रंदित कूष्मांड, पतंगदेव, आठप्रकार के ये व्यन्तर निकाय के देव है। तथा पिशाच, भूत, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, महोरग, गंधर्व ये आठ व्यन्तर देवों के भेद हैं । ये व्यन्तरदेवतिर्यग्लाक-मनुष्यलोक वासी हैं। तथा- (पंचविहा जोइसियाय देवा वहस्सइ चंद रसुक्कसनिच्छरा) चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र एवं तारा ये पांच प्रकार के ज्योतिषिक देव हैं । इन में जो ग्रह जाती के देव हैं उनके ये बृहस्पति चंद्र, सूर्य, शुक्र, शनैश्चर तथा.( राहुधूमकेउ बुहा य अंगारगा य ) राहु, धूम,केतु, बुध महाकंदिय-कुहण्ड-पयंग-देवा पिसायभूय-जक्ख-रखंस-किनर-किंपुरिस-महोरग गंधव्वाय तिरियवासी " वे सूत्रा२ ते देव नियोने नाम निर्देश सहित પ્રગટ કરે છે. તેમનામાંથી સૌથી પહેલા ભવનપતિના ભેદોનાં નામો બતાવે छे-सुभा२, नामा२, सुप भा२, विधुत्मा२. ४५सन मनमा२, દ્વીપકુમાર ઉદધિકુમાર, દિશાકુમાર વાયુકુમાર અને સ્વનિતકુમાર, એ દસ પ્રકારના ભવનપતિ છે. તથા અપ્રજ્ઞપ્તિક, પંચપ્રજ્ઞપ્તિક, ઋષિવાદિક, ભૂતવાદિક, કંદિત, મહાકંદિત, કુષ્માંડ, અને પતંગદેવ, એ આઠ પ્રકારના વ્યન્તર નિકાય हे। छ. तथा पिशाय, भूत, यक्ष, राक्षस, नि२, ठिपुरुष, महा२२॥ भने आध, मे मा ०यन्त२व तिया -मनुष्यतो पासी छ. तया “ पंचविहाजोइसियाय देवा वहस्सइ चंद सूर सुक्कसनिच्छरा" यन्द्र, सूर्य, बड, नक्षत्र અને તારા એ પાંચ પ્રકારના જ્યોતિર્ષિક દેવે છે, તેમાં પ્રહ જાતિના જે દેવે छ तेमना २५ति यद्र, सूर्य, शु, शनि तथा “राहुधुमकेउ-बुहा य भंगा For Private And Personal Use Only Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सुदर्शिनी टीका २०५ सू०३ यथा ये परिग्रहं कुर्वन्ति तन्निरूपणम् ५१७ " पनीय कनकवर्ण: = तप्तं यत्तपनीयकनक = तपनीयसुवर्ण तस्य वर्ण व वर्णोयस्य स - तथोक्तः - अग्नौ परितापनेन सुवर्णस्य यादृशो वर्गों भवति, तादृश वर्ण युक्त इत्यर्थः, आर्षत्वात्सूत्रे बहुवचनम् । तथा एभ्य इतरे ' जे गहा ' ये ग्रहाः सम्पतिकाल - प्रसिद्धा नेपच्युहर्षलादय:, ' जोइसम्म ' ज्यातिषि - ज्योतिश्चक्रे 'चारं चरंति' - परिभ्राम्यन्ति, ते ग्रहाः, तथा 'केउ य' केतवश्व-ज्योतिष्क विशेषा ये जगतः शुभाशुभनिमित्तमवलम्थ्योदयं प्राप्नुवति 'पुंछडियातारा' 'चोटीवाला तारा' इत्यादि नाम्ना भाषामसिद्धाः कीदृशा एते ? इत्याह ' गइरइया ' गतिरतिका:गमनशीला एकराशितोऽन्यराशौ गमनस्वभावाः । एते चन्द्रसूर्यग्रहात्रिविधाज्योतिष्कदेवा उक्ताः । तथा ' अट्ठावीसविहाय ' अष्टाविंशतिविधाच 'नक्खत्तदेवगणा ' नक्षत्रदेवगणा, कीदृशाः १ इत्याह - तथा 'नाणासंठाणसंठियाओय' और अंगारक - मंगल ये भेद हैं । यहअंगारक (तत्ततवणिज्जकणगवण्णा) तप्ततपनीय - तपाये हुए सुवर्ण के वर्ण के जैसा वर्ण वाला है। अर्थात्अग्नि में तपाने से सुवर्ण का जैसा रंग होता है वैसा ही इसका रंग है। तथा (जे य गहा जो हसियम्मि चारं चरंति ) इनसे अतिरिक्त जो इस समय में प्रसिद्ध नेपच्युल हर्षल आदि ग्रह हैं कि जो ज्योतिश्चक्र में परिभ्रमण करते हैं वे ग्रह तथा - ( केऊ य ) केतु ग्रह जो जगत के शुभ अशुभ निमित्त को लेकर उदित होता है और जिसे " पूंछडियातारा " चोटीवाला तारा" इत्यादि नाम से लोग कहा करते हैं ये सब ही ( गइरइया) गमनशील है - एक राशि से अन्यराशि पर गमन करने के स्वभाववाले हैं। ये उक्त ( तिविहा ) तीन प्रकार के चंद्र, सूर्य, ग्रहरूप ज्योतिषी देव तथा ( अट्ठावीसह विहा) अट्ठाईस प्रकार के ( नक्खत्त देवगणा ) नक्षत्र ( णाणासंठाणसंठियाओ) नाना 66 " रगाय રાહુ, ધૂમકેતુ, બુધ અને અંગારક-મંગળ એ પ્રકાશ છે. તે અગા२४ - मंगण " तत्ततवणिज्जकणगवण्णा ” તપાવેલા સુવર્ણના રંગ જેવા વણુवाणो हे तथा " जे य गहा जोइसियम्मि चार चरति" ते सिवायना डासना સમયમાં પ્રસિદ્ધ નેપચ્યુન, હર્ષલ આદિ ગ્રહેા કે જે જયાતિશ્ચક્રમાં પરિભ્રમણ ५रे छे ते श्रहे। तथा “ केऊय " तुथो ? भगतना शुभ अशुल निभित्त દર્શાવવાને ઉગે છે અને જેને પૂછડિયા તારાને નામે ઓળખે છે, એ બધા જ गहरइया " गमनशील छे-से राशिभांथी अन्य राशिभां गंभन उखाना स्वभाववाजा छे. ते उपरोक्त " तिविहा " नशु प्रहारना यन्द्र, सूर्य मने ગ્રહરૂપ ચૈાતિથી દેવ, તથા asar ’અડચાવીસ પ્રકારના 66 नक्खत नक्षत्र, " णाणासं ठाणसंठियाओ " विविध प्रारना સસ્થાનામાં 66 देवगणा ” Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५१८ प्रश्नव्याकरणसूत्र नानासंस्थानसंस्थिताश्च 'ताराओ' तारकाः, कथं भूतास्तारकाः ? इत्याइ'ठियलेस्सा ' स्थितलेश्याः-स्थिताः स्थिराः लेश्याः-दीप्तयः यासां ताः, नक्षत्रतारकाणामेकस्थानस्थितिमत्वात् , यद्वा - मनुष्यक्षेत्रान् बहिव्यवस्थितत्वात स्थितलेश्यावत्वं तापाम् , 'चारिणो य' चारिश्च य-संचरणाशीलाचन्द्रमूर्यग्रहाच, 'अविसंतमंडलगई' अविश्रान्तमण्डलगतय:-अविश्रान्ता-विश्रामवजिता मण्डलेन-चक्रवालेन गति येषां ते तथा सततपरिभ्रमणशोलाः सन्तीत्यर्थः, एते प्रकार के संस्थान से संस्थित ऐसे तारागण कि जिनकी (ठियलेस्सा) लेण्या-दाप्ति-स्थिर है। ये नक्षत्र और तारागण एक स्थान में स्थित हैं, अथवा मनुष्यलोक से बाहर ये अवस्थित हैं-गति रहित हैं-इसलिये यहां इन्हें स्थिर दोप्ति वाला कहा गया है । तथा (चारिणीय अवि. स्साममंउलगई ) संचरणशील चंद्र, सूर्य, ग्रह ये सब सतत परिभ्रमण शील हैं। तात्पर्य इसका यह है कि ये पांच प्रकार के ज्योतिषी देष मानुषोत्तर नामक पर्वत रूप जो मनुष्य लोक है उस मनुष्यलोक में सदा भ्रमण कीया करते हैं। उनका भ्रमण मेरुपर्वत के चारों और होता है। मेरु के समतलभूभाग से सातसौ नन्वे योजन नी ऊँचाई पर ज्योतिश्चक्र क्षेत्र का आरंभ होता है। जो वहां से ऊँचाइ में एक सौ दश योजन परिमाण है और तिरछा असंख्यात द्वीप समुद्र परिमाण है। उस में दश योजन को ऊँचाई पर अर्थात् उक्त समतल से आठ सौ योजन की ऊँचाई पर सूर्य के विमान है, वहां से अस्सी योजन की ऊँचाई पर अर्थात् समतल से आठ सो अस्सी योजन की ऊँचाई पर २८॥ ठियलेस्सा " स्थि२ तेवाणi ता छ, ते नक्षत्री अने ताराગણ એક જ સ્થાને રહેલા છે, અથવા તેઓ મનુષ્યલકની બહાર આવેલા છે–ગતિરહિત છે તે કારણે અહીં તેમને સ્થિર દીપ્તિ (તેજ) વાળા मतान्या छ तथा "चारिणो य अविस्साममंडलगई" सय२९४शीस यंद्र सूर्य, ગ્રહ એ બધા સતત પરિભ્રમણશીલ છે. તેનું તાત્પર્ય એ છે કે એ પાંચ પ્રકારના તિષદિવ માનુષેત્તર નામના પર્વતરૂપ જે મનુષ્યલેક છે, તે મનુષ્યલેકમાં સદા પરિભ્રમણ કર્યા કરે છે. તેમનું ભ્રમણ મેરુ પર્વતની ચારે તરફ થાય છે. મેરુને સમતલ ભૂભાગથી સાત નવું જનની ઊંચાઈ પર . તિક્ષકના ક્ષેત્રને આરંભ થાય છે. જે ત્યાંથી ઊંચાઈમાં એક દસ જન પરિમાણ છે અને તિરકસ ઊંચાઈ અસંખ્યાત દ્વીપ સમુદ્ર પરિમાણ છે. તેમાં દસ જનની ઊંચાઈએ એટલે કે ઉપરોક્ત સમતલ ભૂમિથી આઠ જનની ઊંચાઈ પર સૂર્યનાં વિમાન છે, ત્યાંથી એંસી જનની ઊંચાઈ પર અથવા સમતલથી આઠશે. એંસી એજનની ઊંચાઈ પર ચન્દ્રના વિમાન છે ત્યાંથી For Private And Personal Use Only Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका भ०५ सू०३ यथा ये परिग्रहं कुर्वन्ति तन्निरूपणम् ५१९ चंद्र के विमान हैं । वहां से बीस योजन पर की उंचाई तक में अर्थात् समतल से नवौ योजन की उँचाई तक में ग्रह, नक्षत्र और तारे हैं। चंद्र के उपर बोस योजन की ऊँचाई में पहिले चार योजन की ऊंचाई पर नक्षत्र हैं, इसके बाद चार चार योजन की ऊँचाई पर बुधग्रह, बुधग्रह से तीन योजन की ऊंचाई पर शुक्र, शुक्र से तीन योजन ऊँचे गुरु, गुरु से तीन योजन ऊचे मंगल और मंगल से तीन योजन ऊँचे शनैश्चर हैं । इस प्रकार यह चन्द्र के ऊपर का बीस योजन का क्षेत्र नक्षत्र आदिकों द्वारा घिरा हुआ रहता है। इस तरह इससे हमें यह बात जानने में देरी नहीं लगती है कि मनुष्य क्षेत्र में जो काल का-मुहूर्त-अहोरात्र-पक्ष, मास आदि का जितना भी व्यवहार होता है वह सबइस ज्योतिश्चक्र की चाल से ही होता है। यह ज्योतिश्चक्र की चाल उस ढाईद्वीपरूप मनुष्यक्षेत्र में अविश्रान्त रूप से ही होती रहती है । मनुष्य क्षेत्र के बाहर के ज्योतिरुक विमानस्थिर हैं । ये वहां स्वभावतः इधर उधर भ्रमण नहीं करते । इसी कारण से उनकी लेश्या और उनका प्रकाश भी एक रूप-स्थिर है। अर्थात् वहां राहु आदि की छाया पड़ने से ज्योतिष्कों का स्वाभाविक पीतवर्ण ज्यों का त्यों बना रहता है। और उदय अस्तन होने के कारण વસ જનની ઊંચાઈ પર એટલે કે સમતલથી નવસે જનની ઊંચાઈ સુધીમાં ગ્રહ, નક્ષત્રો અને તારા છે. ચન્દ્રથી ઉપરની વીસ જનની ઊંચાઈમાં પહેલાં ચાર એજનની ઊંચાઈ પર નક્ષત્ર છે, ત્યાર બાદ ચાર જનની ઊંચાઈ પર બુધ નામને ગ્રહ છે. બુધ ગ્રહથી ત્રણ જનની ઊંચાઈ પર શુક છે. શુકથી ત્રણ જન ઊંચે ગુરુ છે. ગુરુથી ત્રણ યોજન ઊંચે મંગળ છે, મંગળથી ત્રણ જન ઊંચે શનિ છે. આ પ્રમાણે ચન્દ્રની ઉપરનું વીસ જનનું ક્ષેત્ર નક્ષત્ર આદિ દ્વારા ઘેરાયેલું રહે છે. આ રીતે આપણને એ વાત સમજતા વાર લાગે તેમ નથી કે મનુષ્યક્ષેત્રમાં જે કાળને મુહૂર્ત, દિવસ રાત, ૫ખવાડિયાં, માસ આદિને-જે વ્યવહાર થાય છે તે સઘળો આ તિશ્ચકની ચાલથી જ થાય છે. તે તિશ્રકની ચાલ આ અઢીદ્વીપરૂપ મનુવ્ય ક્ષેત્રમાં અવિરત ચાલ્યા કરે છે. મનુષ્ય ક્ષેત્રની બહારનાં તિષ્ક વિમાન સ્થિર છે. તેઓ ત્યાં સ્વભાવિક રીતે જ આમ તેમ ભ્રમણ કરતાં નથી. એ જ કારણે તેમની લેડ્યા અને તેમને પ્રકાશ પણ સ્થિર છે. એટલે કે ત્યાં રાહુ આદિની છાયા પડવાથી જતિષ્કને સાધારણ પીળા રંગ એને અવે રહે છે. અને ઉદય અસ્ત ન થવાને કારણે તેમને પ્રકારા પણ એક સરખે For Private And Personal Use Only Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५२० प्रश्नव्याकरणसूत्रे पञ्चविधा ज्योतिषिक देवाः ३ । अथ वैमानिकानाह-' उवरिचरा' उपरिचराःतिर्यग्लोकस्योपरिवर्तिनः, : उडुलोगवाषिणो' ऊर्ध्वलोकवासिनः 'वेमाणिया य देवा' वमानिकाश्च देवा ' दुविहा' द्विविधाः द्विप्रकाराः, कल्पोपपन्न कल्पातीत भेदात् । तत्र-कल्पोपपना द्वादशधा, तानाह- सोहम्मी-साण-सणंकुमार-माहिंदबंभलोग-लंतग-महासक-सहस्सार-आगय-पाणय-आरण-च्चुया' सौधर्मेशान सनत्कुमारमाहेन्द्रब्रह्मलोकलान्तकमहाशुक्र-सहस्रारानतप्राणतारणाच्युताः, एते ' कप्पवरविमाणवासिणो ' कल्पवरविमानवासिनः-कल्पोपपन्नाः, 'सुरगणा' सुरगणाः । अथ कल्पातीतानाह-'गेवेज्जा' ग्रैवेयकाः ' अणुत्तरा' अनुत्तरा उनका प्रकाश भी एकसा स्थिर ही रहता है। इस प्रकार यह पांच प्रकार के ज्योतिषिक देवों के विषय में भावार्थ रूप से यत् किञ्चित् कथन किया हैं । अब सूत्रकार वैमानिक देवों के विषय में कहते हैं-( उवरिचिरा उड़लोगवासी वैमाणिया देवा दुविहा) तिर्यग्लोक हैं । ये वैमानिक के कार जो अलोक है उसमें ये देव रहते हैं । इनका नाम वैमानिक देव कल्पोपपन्न और कल्पातीत के भेद से दो प्रकार के होते हैं। इनमें कल्पोपपन्न बारह प्रकार के हैं, वे ये हैं-(सोहम्मी-साण-सणंकुमारमाहिद-भलोग-लंतग-महाप्लुक्क- सहस्सार-आणय-पाणय-आरण-s चुया ) सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लान्तक, महाशुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत । इन (कप्पवरविविमाणवासिणो सुरगणा ) कल्पवरविमानों में रहनेवाले:सुरगण कल्पापपन्न कहलाते हैं। (गेवेज्जा अणुत्तरा य दुविहा कप्पातीया विमाण જ સ્થિર રહે છે. આ પ્રમાણે પાંચ પ્રકારના તિષિક દેવને વિષે ભાવાર્થ રૂપે થોડું કથન કરવામાં આવ્યું છે, હવે સૂત્રકાર વૈમાનિક દેવ વિષે કહે છે" उवरिचरा उड्डलोगवासी बेमाणियादेवा दुविहा" तियानी 3५२ २ . લેક છે તેમાં તે દે રહે છે, અને તેમને વૈમાનિક કહે છે. તે વૈમાનિક દેના બે ભેદ છે-કપાતીત અને કલ્પપપન્ન તેમાંના કપપન્ન નીચે પ્રમાણે બાર प्रारना -" सोहम्मी-साण-सणंकुमार-माहिंद-बंभलोग-लंतग-महासुक-सहस्सार -आणय-पारण-आरणऽच्चुया" सौधमः, शान, सनभा२, भाडेन्द्र, प्रमा and, मांशु, सखार, मानत, प्राणुत, २०२५५ अश्युत. “ कम्पवरविमाणवासिणो सुरगणा” ४३५१२ विमानामा २सेना२ सुरगाने ४८पोपपन्न ४ . “गेवेज्जा अणुत्तरा य दुविहा कल्पातीया विमाणवासी महड्रिढया उत्तमा For Private And Personal Use Only Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुर्शिनी टीका अ०५ सू०३ यथा ये परिग्रहं कुर्वन्ति तन्निरूपणम् ५२१ चेति 'दुविहा' द्विविधाः ‘कणातीया ' कलातीताः ‘विमाणवासी' विमानवासीनः-अनुतरविमानमासिनः 'महड्डिया' महादिकाः ‘उत्तमा' उत्तमाःश्रेष्ठाः मुखराः सर्वदेवेषु प्रधानाः, ' एवं च' इत्युक्ताकारेण 'चउब्विहा' चतुर्विधाः-भवनपतियानव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकरूया, 'सररिसावि' सपरि पदोऽपि-न केवलमे ते किन्तु एषां परिषदोऽपीत्यर्थः, देवाः । ममायति' ममायन्ते ममत्वं कुर्वन्ति । कस्मिन् विषये ममत्वं कुर्वन्तीति तान्याह-'भवणवाहणजाणविमाणसयणानगाणि य ' भवनबाहनयानविमानशयनासनानि च, तथा 'नागावित वत्यभूत गागि य' नानाविधास्त्रभूषणानि च 'पारपहरणाणि य' वासीमहड़िया उत्तमा सुरवरा एवं चेते चउचिहा सपरिसा वि देवा ममायंनि ) कल्पानीत के दो भेद है (२) ग्रैवेयक विमानवासी और (२) अनुत्तर विमानवासी इनमें जो पांच अनुत्तर विमानां में-विजय, वैजयन्त, अपराजित और सर्वार्थ सिद्ध इनमें रहने वाले देव हैं वे महर्दिक कहलाते हैं और सब देवों में उत्तम-श्रेष्ठ-एवं प्रधान माने जाते हैं। कल्पोपपन्न देवों में स्वामिसेवक भाव होता है । कल्पातीत में नहीं। ये तो सभी इन्द्रवत् होने से अहमिन्द्र कहलाते हैं। मनुष्यलोक में किसी निमित्त पर कल्पोपपन्न देव ही आते हैं-कल्पातीत नहीं । इस प्रकार भवनपति, वानव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकरूप चारों प्रकार के देव अपनी २ परिषदासहित इन भवन आदि पदार्थों में ममत्व करते हैं। सूत्रकार अब इन्ही मनत्व के विषयभूत पदार्थों को कहते हैं - ( भवण-वाहण-जाणविमाण-सयणासणाणि) भवन, वाहन, यान, विमान, शयन, आसन तथा- (नागाविहवस्थभूसणणि य) सुरवरा एवं चउब्यिहा सपरिसा वि देवा ममयंति” ४६५ातातना मे से छे. (१) अवेय विमानवासी मने (२) मनुत्तर विभानवासी. तमनi विय, વૈજ્યન્ત, જ્યન્ત. અપરાજિત અને સવાર્થ સિદ્ધ એ પાંચ અનુત્તર વિમાનમાં રહેનાર જે દેવે છે તેમને મહદ્ધિક કહે છે, તે દેવ બધા દેવમાં શ્રેષ્ઠ ગણાય છે. મનુષ્યમાં કોઈ પણ નિમિત્તે કલ્પપપ દેવો જ આવે છે, કલ્પાતીત આવતા નથી. આ રીતે ભવનપતિ, વનવ્યતર, તિષ્ક અને વૈમાનિક, એ ચાર પ્રકારના દેવો પિત પોતાની પરિષદ સાથે તે ભવન આદિ પદાર્થોમાં મમત્વ રાખે છે. સૂત્રકાર હવે તે મહત્વના વિષય રૂપ પદાર્થો દર્શાવે છે– " भवण-वाइण-जाण -विमाण-सयणा-सणाणि " अपन, पाउन, यान, विमान, शयन, आसन, तथ! “ नाणाविहवत्थभूसणाणि य" विविध पत्रो, भूपये। प्र० ६६ For Private And Personal Use Only Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५२२ प्रश्नव्याकरणसूत्रे प्रवरप्रहरणानि चः-पवराणि-श्रेष्ठानि यानि प्रहरणानि-आयुधानि तानि च, तथा'नाणामणिपंचवष्णदिव्वं च भायणविहिं ' नानामणिपञ्चवर्णदिव्यं च भाजनविधिम्-नानामणीनां-चन्द्रकान्तमुर्यकान्तादिमणीनां ये पञ्चवर्णा स्तै दिव्यं श्रेष्ठ विविधभाजनसमूहम् , तथा-' नाणाविहकामरूबवेउब्धिय अच्छरगणसंधाए य" नानाविधकामरूपविकुर्विताप्सरोगणसंधातांश्च - नानाविधानि- अनेकप्रकाराणि यानि कामरूपाणि स्वेच्छारूपाणि तानि विकुर्वितानि येस्ते तथाभूता येऽप्सरोगणास्तेषां संधातास्तान-अप्सरः समूहानित्यर्थः, तथा 'दीवसमुद्दे' द्वीपसमुद्रान्, 'दिसाओ विदिसाओ' दिशाविदिशाः 'चेइयाणि' चैत्यानिवृक्षान् कल्पतरुरूपान् ' वनसंडे - वनपण्डानि-अनेकविधवृक्षसमूहान् ‘पन्चते ' पर्वतान् ‘गामनगराणि य' ग्रामनगराणि च, तथा 'आरामुज्जाणकाणगाणि य' आरामोधानकाननानि च--आरामाः-उपवनानि, उद्यानानि-पुष्पप्रधानवनानि,काननानि अरण्यानि,एतेषामितरेतरयोगद्वन्द्वः, तथा – ' कूवसरतलागवाविदीहिय देवकुलसभापवावसहिमाइयाई' कूपसरस्तड़ागवापीदीपिकादेवकुलसभाप्रपा नानाविध वस्त्र, आभूषण, (पबरपहरणाणि य ) श्रेष्ठ आयुध, ( नानामणि पंचवण्णदिव्वं य) चन्द्रकान्त, सूर्यकान्त आदि नानामणियों के पंचवर्णवाले श्रेष्ठ भाजन , तथा (नाणाविहकामरूववेउब्बियअच्छरग संघाए य ) नाना प्रकार के स्वेछानुसार जिन्हों ने रूपों को बनाया है ऐसी अप्सराओं का समूह (दीवस मुद्दे ) द्वीप, समुद्र (दिसाओविदिसाओ) दिशा, विदिशा, (चेझ्याणि ) कल्पवृक्षरूप चैत्यक्ष, (वनसंडे ) अनेक विध वृक्षसमुह ( पव्वए) पर्वत ( गामनगराणि य ) ग्राम, नगर, ( आरामृज्जाणकाणणाणि य ) आराम-उपवन, उद्यान-पुष्पप्रधानबन, कानन-अरण्य, ( कूवसरतलागवावीदीदियदेवकुलसभप्पवावसहि" पवरपहरणाणि य” श्रेष्ठ मायुधो, " नानामणि पंचवण्णदिव्य य" यन्द्रान्त, सूयन्त माहि विविध मणियोना पाय qgari Lal, तथ! “नाणाविह कामरूव-वेउब्धिय-अच्छरगणसंघाए य” भने २४ानुसार विविध ३५ो धारा ४ा छ मेवी २५०-३५२ मोनो समूह, “दीवस मुद्दे " al५, समुद्र दिसाओ विदिसाओ" हि विदिशामा, “ चेइयाणि" ४८५११३५ चैत्यवृक्ष, “वनसंडे " मने विध वृक्ष समूह, “ पब्वए " 'तो, " गामनगराणि य" मे। नगरी, "आरामुजाणकाणणाणि य" माराम स्थानों-34वन, धान, पु.५, प्रधान पन, आनन-२५२५५, “ कूवसरतलागवावीदीहियदेवकुलसभापवावसहि माइयाई" पा, सवि२, तायो,-1युत माशय, पाप, दी For Private And Personal Use Only Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दर्शिनी टोका अ०५ सू३ यथा ये परिग्रहं कुर्वन्ति तन्निरूपणम् बसत्यादिकानि, तत्र-कूपः-प्रसिद्धः, सरः-प्रसिद्धम् , तडागः-सपद्माऽगाधजलाशयः, वापी - आयतजलाशयविशेषः - दीपिका-चतुष्कोणजलाशयरूपा'देवकुलानि ' देवगृहाः-सभापसिद्धा, प्रयाः-पानीयशालाः, वसतयः सामान्यगृहाणि, एतान्यादौ येषां तानि तथोक्तानि, 'बहुकाई' बहुकानि बहूनि ' कित्तणानि च ' कीर्तनानि च " अयं देवो दिव्यदेवऋद्धि सम्पन्नः" इत्येवं प्रशंसा वाक्यानि च परिग्रहत्वेन ममायन्ते । ततश्च प्रकृतं परिग्गहं' परिग्रह, कोश परिग्रहम् ? ' विउलदब्बसारं' विपुलद्रव्यसारं विपुलानि द्रव्याण्येव सारो यस्मिस्तं तथोक्तं, ' परिगिहित्ता' परिगृह्य सइंदगा' सेन्द्रकाः-इन्द्रसहिताः 'देवा वि ' देवा अपि 'न तित्ति' न वृप्ति नैवेच्छाविनिवृत्तिं 'न तुहिँ' न तुष्टिम् नापि सन्तोषम् ‘उवलभंति ' उपलभन्ते प्राप्नुवन्ति, आकाक्षाया निरावाधत्वात् । अयं भावः-देवा हि महर्द्धयो वाञ्छितार्थलाभे समर्था दीर्घायुषश्व भवन्ति परन्तु तेऽपि परिग्रहविषये न संतोषं प्राप्नुवन्ति इतरेषां पुनः का कथा ?॥ माइयाई ) कूवां सर, तडाग-पग सहित अगाध जलाशय, वापी, दीधिका-चतुष्कोणवाली बावडी, देवकुल-देवगृह, सभा, प्रपा-प्याऊ, वसति-सामान्यघर, इत्यादि और भी बहुत सी वस्तुए हैं जिनमें इन देवों का ममत्व होता है। तथा (बहुयाई कित्तणाणि य) अनेक विध कीर्तनों में "यह देव दिव्य ऋद्धि संपन्न है" इत्यादि रूप प्रशंसा वाक्यों में इनका परिग्रहरूप से ममत्व होता है। (विउलदवसारंपरिंग्गरं परिगण्हित्ता सइंदगा देवा विन तित्ति न तुहिं अच्चत विउललोभाभिभूयसन्ना उवलभंति ) इस प्रकार विपुल सार वाले परिग्रह को ग्रहण करके इन्द्रसहित देव भी इच्छाविनिवृत्तिरूप तृप्ति को तथा संतोष रूप तुष्टि को आकांक्षा की निराबाधता के कारण प्राप्त नहीं कर पाते हैं । तात्पर्य इसका यह है कि महर्दिक देव यद्यपि इच्छित अर्थ के लाभ करने में समर्थ याभू वाडी, वस-वड, सभा, प्रा-हुपा, वसति-सामान्य घर, વગેરે વસ્તુઓમાં તથા એ સિવાયની બીજી પણ અનેક વસ્તુઓમાં દેવે મમ: त्व रामेछ. तथा “बहुयाई कित्तणाणि य” मने प्रारनी प्रशसामा " ॥ દેવ દિવ્ય દ્ધિ વાળા છે” ઈત્યાદિરૂપ પ્રશંસાના શબ્દોમાં તેમનું પરિગ્રહરૂપે भमत्य य छे. “ विउलब्बसारं परिग्गहं पगिण्हित्ता सइंदगा देवा वि न तित्तिं न तुर्द्वि अच्चंतवि उललोभाभिभूयसन्ना उवलभंति " A प्रमाणे विधुत સારવાળા પરિગ્રહને ગ્રહણ કરવા છતાં પણ ઈન્દ્ર સહિત દેવે પણ ઈચ્છામાંથી નિવૃત્તિ રૂપ તૃપ્તિને તથા સંતવ રૂપ તુષ્ટિને આકાંક્ષાની અપરિમિતતાને કારણે પ્રાપ્ત કરી શકતા નથી. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે મહદ્ધિક કે જે કે ઈચ્છિત વસ્તુ પ્રાપ્ત કરવાને સમર્થ તથા લાંબા આયુષ્ય વાળા હોય છે તે પણ તેઓ For Private And Personal Use Only Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir মশ্বসু पुर्वोक्ता देवाः कथम्भूता ? इत्याह - ' अच्चतविउललोभाभिभूयसण्णा' अत्यन्तविपुललोभाभिभूतसंज्ञाः -- अत्यन्तः-अतिशयः विषुलो यो लोभस्तेन अभिभूता संज्ञा संज्ञान मनो येषां ते तथोक्ताः संग्रहैकशीला इत्यर्थः, के ते देवाः ? इत्याह-वासहरइक्खुगार वट्ट पब्धयकुंडल-रुचग परमाणुसोत्तर-कालो. दधि लवण-सलिल-दहपति-रतिकर अंजणक-सेल-दहिमुह-वपातुप्पाय-कंचणक-चित्तविचित्त--जमक-वरसिहरकूडबासी , वर्षधरेषुकारवृत्तपर्वतकुण्डल रुचक वरमानुषोत्तरकालोदधिलवणसलिलहदपतिरतिकराञ्जनकशैलदधिमुखावपातोत्पात - काश्चनक - चित्रविचित्र - यमकवरशिखरकूटवासिनः तत्र – वर्षधराः-हिमवदादि पर्वताः, इषुकाराः धातकीखण्डपुष्करवरद्वोपाधयोः पूर्वापराईयो मर्यादाकारिणो दक्षिणोत्तरायताः पर्वतविशेषाः, वृत्तपर्वताः शब्दापाति विकटापातिगन्धापातिमाल्यवन्नामका वर्तुलवैढयपर्वताः, कुण्डला:- जम्बूद्वीपादेएवं दीर्घायुष्क होते हैं, परन्तु वे भी परिग्रह के विषय में संतोष से रहित ही रहते हैं। अतःजब इन देवों की यह दशा है तो फिर अन्य देवों की बात ही क्या कही जा सकती है। ये सब देव अत्यंत बहुत षडे लोभ से अभिभूत-युक्त संज्ञा-मनोवृत्ति वाले होते हैं, अर्थात्संग्रहशील होते हैं । (वासहरइक्खुगार वह पञ्चयकुंडलरूयगवरमाणुसुतरकालोदहीलवणसलिलदहपतिरतिकर अंजणकसेलदहिमुह ओवा युप्पायकंचणकविचित्तजलकवरसिहरिकूडवासी) तथा हिमवत् आदि घर्षधरों में, इषुकारो में घातकीखंड तथा आधे पुष्करबरद्वीप के पूर्वार्ध और पश्चिमा रूप दो भागों की मर्यादाकारी तथा दक्षिणोत्तर तक लंबे ऐसे पर्वतों में, वृत्तपर्वतो में शब्दापाति, विकटापाति, गन्धापाति तथा माल्यवान इन नामके वर्तुल वैताढय पर्वतों में, कुंडलों में ग्यारह जम्बू પરિગ્રહના વિષયમાં સતેષ રહિત જ રહે છે. તે જ્યારે એ દેવની એવી હાલત છે તે બીજા દેવેની તે વાત જ શી કરવી ! એ બધા દે અત્યંત सोमी वृत्तिना डाय छ, मेरो तसा सघशात जाय छे. “वासहरइक्खुगारवट्ट-पब्वय-कुंडल-रुयगवर-माणुसुत्तर-कालोदहि- लवणसलिल- दाहपति रतिकर-अंजणकसेलदहिमुहओवायुप्पायकंचणकविचित्त जमकवरसिहरि कूडवासी" તથા હિમવત આદિ વર્ષધરમાં ઈષુકામાં, ઘાતકી બંડ તથા અર્ધા પુષ્કવરવર દ્વીપના પૂર્વાર્ધ અને પશ્ચિમાર્થરૂપ બે ભાગોની મર્યાદા દર્શાવતા તથા દક્ષિણથી ઉત્તર સુધી લાંબા એવા પર્વમાં, વૃતપર્વતેમાં–શબ્દાપાતિ, વિકટાપાતિ, ગંધાપતિ, તથા માલ્યવાન એ નામના વર્તુલ વૈતાઢચ પર્વતમાં કુંડમાં-અગિયાર જંબુદ્વીપથી કુંડલા નામના દ્વીપની અંદર આવેલ કંડલા For Private And Personal Use Only Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ०५ सू०३ यथा ये परिग्रहं कुर्वन्ति तन्निरूपणम् ५३५ कादशकुण्डलनामकद्वीपान्तर्वर्तिनः कुण्डलाकाराः पर्वताः, रुचकवराः जम्बुद्वीपात् त्रयोदश रुचक वर नामक द्वोपान्तर्गत मण्डलाकाराः पर्वताः, मानुशोत्तराः मनुष्यक्षेत्रसीमाकारणोमण्डलाकारिपर्वताः, कालोदधिः-द्वितीयः समुद्रः, लवणःलवणसमुद्रः, सलिलाः सलिलानि सन्त्यासु सलिला, गङ्गादिमहानद्यः, ह्रदपतयःनदप्रधानाः पद्ममहापद्मादि महाहदाः, रतिकराः नन्दीश्वरनामकाष्टमद्वीपचक्रवाल विदिश्चतुष्टयव्यवस्थिताः सहस्रयोजनोच्छ्रिताः दशशतगव्यूतभूमिगतमूलभागाः, सर्वत्र समाश्चत्वारो झल्लरी संस्थानवन्तः पर्वताः, अञ्जनक शैलाः अञ्जनपर्वताः= नन्दीश्वरचक्रवालमध्यभागवतिनो दिक् चतुष्टयसंस्थिता अमनरत्नमयाश्चत्वारः पर्वताः, सर्वे कृष्णवर्णाः सन्ति । तथा-दधिमुखाः अञ्जनकचतुष्टय पार्श्ववर्ति पुष्करिणीषोडशमध्यभागवर्तिनः षोडशश्वेतपर्वताः, तथा-अवपातोत्पाता: द्वीप से वे कुंडलनामक द्वीप के अन्लवर्ती कुण्डलाकारवाले पर्वतों में, रुचकवरपर्वतों में-जंबूद्वीप से तेरहवां रूचकवर नामका जोद्वीप है उसके अन्तर्गत मंडलाकार पर्वतों में, मानुषोत्तर पर्वतों मेंमनुष्य क्षेत्र की सीमा करने वाले मंडलाकार पर्वतों में, कालोद्धि नामके द्वीतीयसमुद्र में, लवणसमुद्र, में गंगा आदि महानदियों में, नदप्रधानों में पद्म, महापद्म आदि महा हूदों में, रतिकरों में-जो नंदीश्वर नाम के आठवें द्वीप की चार विदिशाओं में स्थित हैं एक हजार योजन उचे है तथा एक हजार कोशतक जिनका मूलभाग पृथ्वी में है-अदृश्य है, और जो सर्वत्र सम हैं ऐसे झल्लरी के आकारवाले चार पर्वतों में, अंजनक गिरियों में नंदीश्वर द्वीप के मध्यभाग में रहे हुए, चार पर्वतों में कि जो अंजन रत्नमय होने से काले हैं और चारों दिशाओं में स्थित हैं दधिमूखों में-चारों अंजनगिरियों के पासमें रही हुई सोलह पुष्करिકાર પર્વતમાં, રુચકવર પર્વતમાં-જંબુદ્વીપથી તમે જે રુચકવર નામને દ્વીપ છે તેની અંદર મંડલકર પર્વતમાં, માનનુત્તર પર્વતમાં, મનુષ્ય ક્ષેત્રની સીમા કરનારા માંડલાકાર પર્વતમાં, કાલેદધિ નામના બીજા સમુદ્રમાં, લવણ સમુદ્રમાં, ગંગા આદિ મહા નદીમાં નદ પ્રધાનમાં-પા મહાપદ્મ આદિ મહા હદમાં, રતિકરમાં-નદીશ્વર નામના આઠમાં દ્વીપની ચાર વિદિશઓમાં રહેલ, એક હજાર જન ઊંચા તથા એક હજાર કોશ સુધીને જેને મૂળભાગ પૃથ્વીમાં છે-અદશ્ય છે, અને જે સર્વત્ર સમાન છે, એવા ઝાલરના આકારના ચાર પર્વતમાં, અંજનગિરિમાં-નંદીશ્વર દ્વીપના મધ્ય ભાગમાં આવેલ ચાર પર્વતેમાં કે જે અંજન રત્નમય હોવાથી કાળા છે. અને ચારે દિશાઓમાં ઉભેલા છે, દધિમુખમાં–ચારે અંજનગિરિની પાસે આવેલ For Private And Personal Use Only Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५२६ प्रश्नव्याकरणसूत्रे अवपतन्ति वैमानिका देवा येषु तेऽवपाताः, यत्रावपत्य वैमानिका देवा मनुष्यक्षेत्रेषु समागच्छन्ति, उत्पतन्ति येभ्यस्ते उत्पाताः, येभ्य उत्पत्य भवनपतयो मनुष्यक्षेत्रे समागच्छन्ति, अवपाताश्वोत्पाताधेति द्वन्द्वः, तिगिच्छकूटादयः पर्वता इत्यर्थः, तथा-काश्चनकाः उत्तरकुरुमध्ये देवकुरुमध्ये च प्रत्येकं पश्चानां महाइदादीनां प्रत्येकमुभयोः पार्श्वयोः दशदश काञ्चनकपर्वताः सन्ति, इति सर्व संकलनया द्विशतसंख्यकाः काञ्चनकपर्वता भवन्ति । तदा-चित्रविचित्रौ-निषध नामक वर्षधर समीपवर्तिनौ शोतोदाभिधानमहानद्युभयतटवर्तिनौ चित्रविचित्रकू. टाभिधानपर्वती, यमकबरौनीलबद्वर्षधर प्रत्यारान्नौ शोताभिधानमहानधुभयतटवर्तिनौ यमकवरनामको पर्वतो, शिवरिणः समुद्रमध्यवर्तिनो गोस्तूभादिपर्वताः,कूटाः चन्दनवनकूटादयः, एतेषां द्वन्द्वः, एपु वस्तुं शीलं येषां ते तथोक्ताः, देवाः परिग्रहे तृप्तिं न लभन्ते ।। मू०३॥ णियों के मध्यभाग में जो सोलह सोलह श्वेत पर्वत हैं उनमें, अबपातपर्वतों में-जहाँ उतर कर वैमानिक देव मनुष्य क्षेत्र में आते हैं उन स्थानों में (ये स्थान तिगिच्छकूट आदि नाम वाले पर्वत कहलाते हैं ) कांवनपर्वतों में-ये पर्वत उत्तरकुरु तथा देवकुरु के बीच में हर एक पांच महाइदों के प्रत्येक के दोनों कोनों पर दश दश हैं। इस तरह से ये दोनों दोसौ को संख्या में हैं उन पर्वतों में, चित्रविचित्र कूट नाम के पर्वतों में-ये दोनों पर्वत निषध नामके वर्षधर के समीप में हैं, तथा शीतोदा नामकी महानदी के दानों तट पर वर्तमान नील वर्षधर के पास रहे हुए तथा शीता महा नदी के दोनों तट परवर्तमान ऐसे यमः कवर नाम के पर्वतों में, शिखरी-समुद्रमध्यवर्ती गोस्तृभ आदि पर्वतों में, સોળ પુષ્કરણિનાં મધ્ય ભાગમાં જે સેળ સોળ વેત પર્વત છે તેમાં, અવ પાત પર્વતેમાં-જ્યાં ઉતરીને વૈમાનિક દેવે મનુષ્ય ક્ષેત્રમાં આવે છે એ સ્થા. ને માં, ઉત્પાત પર્વતમાં-જ્યાં ઉતરીને ભવનપતિ મનુષ્યક્ષેત્રમાં આવે છે તે સ્થાને માં (તે સ્થાને તિચ્છિકૂટ આદિ નામના પર્વતે કહેવાય છે) કાંચનક પર્વતેમ-તે પર્વતે ઉત્તરકુરુ તથા દેવકુની વચમાં દરેક પાંચ મહાહમાંના પ્રત્યેના બને ખૂણા પર દશ દશ છે, અને એ રીતે તે બને બસની સંખ્યામાં છે, તે પર્વતમાં, ચિત્રવિચિત્રકૂટ નામના પર્વમાં-એ અને પર્વતે નિષધ નામના વર્ષધરની પાસે છે, તથા શીતદા નામની મોટી નદીના બંને કિનારા પર આવેલા છે, નીલ વર્ષધરની પાસે આવેલ તથા શીતા મહાનદીના કિનારા પર આવેલ યમકવર નામના પર્વમાં શિખરી-સમુદ્રની વચ્ચેના ગેસ્તંભ આદિ For Private And Personal Use Only Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुदर्शिनीटीका भ० ५ सू. ३ यथा ये परिग्रहं कुर्वन्ति तन्निरूपणम् ५२७ तथा चन्दनवनकूट आदिकों में इनके वसने का स्वभाव होता है । ऐसे ये चारों प्रकार के देव परिग्रह में तृप्ति धारण नहीं करते हैं । भावार्थ-भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी एवं कल्पवासी, इस प्रकार से ये दोनों के मूल चार भेद हैं इनमें भवनपति देवों के असुरकुमार आदि दश भेद, व्यन्तरनिकाय के-पिशाच, भूत आदि सोलह भेद, ज्योतिष्क निकाय के सूर्य, चन्द्र आदि पांचभेद, तथा कल्पवासियों के कल्पोपपन्न और कल्पातीत ऐसे दो भेद हैं। सौधर्म ईशान आदि बारह कल्पों में रहने वाले कल्पोपपन्न, और नवग्रैवेयक तथा पंच अनुत्तर विमानों में रहने वाले कल्पातीत हैं। मनुष्यक्षेत्र में रहने वाले ज्योतिषी देव भ्रमणशील हैं तथा मनुष्यक्षेत्र से बाहिर के ज्योतिषी देव अवस्थित हैं । इन सब देवों के भवन, वाहन आदि विशिष्ट प्रकार का परिग्रह रहता है । उसके रहने पर भी इनकी भावना फिर अधिक परिग्रह की ओर संग्रहशील रहती है । इन सब देवों का हिमवन आदि पर्वतों में रहने का होता है । सब प्रकार की इन्हें सुखसामग्री प्राप्त रहती है फिर भी इनकी वाञ्छा परिग्रह की ओर से तृप्त नहीं होती है । संतोषवृत्ति इनके चित्त में नहीं जगती है ।। सू० ३॥ પર્વતમાં ચન્દનવનકૂટ આદિમાં વસવાને જેમને સ્વભાવ છે એ ચારે પ્રકારના દે પણ પરિગ્રહથી તૃપ્ત થતાં નથી. ભાવાર્થ—ભવનવાસી, વન્તર, જોતિષી અને કલ્પવાસી, એ રીતે દેવના મૂળ ચાર ભેદ છે. તેમાં ભવનપતિ દેના અસુરકુમાર આદિ દશ ભેદ , વ્યન્તર દેવના પિશાચ, ભૂત આદિ સેળ ભેદ, તિષી દેના સૂર્ય, ચન્દ્ર આદિ પાંચ ભેદ, તથા કલ્પવાસીઓના ક૯પપન્ન, અને કલ્પાતીત એવા બે ભેદ. સૌધર્મ, ઇશાન આદિ બાર કલ્પમાં રહેનાર કલ્પપપન્ન, અને નવયક તથા પાંચ અનુત્તર વિમાનમાં રહેનાર કલ્પાતીત દે છે. મનુષ્ય ક્ષેત્રમાં રહેનારા તિષીદેવ બ્રમણશીલ છે તથા મનુષ્ય ક્ષેત્રની બહારના તિષી દેવો સ્થિર છે. એ બધા દેવેને ભવન, વાહન આદિ વિશિષ્ટ પ્રકારને પરિગ્રહ રહે છે. તે બધી વસ્તુઓ હોવા છતાં પણ તેમની વૃત્તિ અધિક પરિગ્રહને માટે સંગ્રહશીલ રહ્યા કરે છે, તે બધા દેવોનું નિવાસસ્થાન હિમવાન આદિ પર્વતે છે. તેમને બધા પ્રકારની સુખસામગ્રીઓ મળે છે છતાં પણ પરિગ્રહ માટેની તેમની વાસના તૃમ થતી નથી. તેમના ચિત્તમાં સંતોષ વૃત્તિ જાગતી નથી સૂ. ૩ For Private And Personal Use Only Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ५३८ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only प्रश्नव्याकरणसूत्रे अथ मनुष्यपरिग्रहं वर्णयति - ' वक्खार' इत्यादि मूलम् - वक्खार अकम्मभूमीसु सुविभत्तभागदेसासु कम्मभूमीसु । जेत्रिय नरा चाउरंतचक्कवही वासुदेश बलदेवा मंडलिया इस्सरा तलवरा सेणावई इन्भा सेट्ठिया रडिया पुरोहिया कुमारा दंडणायगा गणणायगा माडंबिया सत्थवाहा कोडुंबिया अमच्चा एए अण्णे य एवमादी परिग्गहं संचिणंति - अनंतमसरणं दुरंतं अधुत्रमणिच्चं असासयं पावकम्मनेमं अवकिरियत्वं विणासमूलं वहबंध परिकिलेस बहुलमणंतसंकिलेस करणं । ते तं धणकणगरयनिचियपंडिया चे लोभघत्था संसारं अतिवर्यति सव्वदुक्खसंनिलवण | परिग्गहस्सेव य अट्टाए सिप्पसयं सिक्खए बहुजण कलाओ यावत्तरिसुनिउणाओ लेहादियाओ सउणरुआसाणाओ गणियप्पहाणाओ चउसट्ठि महि लागुणे रइजणणे सिप्पसेवं असिमसि किसिवाणिज्जं ववहारं अत्थसत्थं इसुसत्थं च्छरुप्पायं विविहाओ य जोगजुंजणाओ | अन्ने य एवमाइएसु बहुकारणसएसु जावजीवं नडिजए संचिति मंदबुद्धी परिग्गहासेव य अट्टाए करेंति पाणाणवहकरणं, अलियनियडि साइसंपओगे परदव्वअभिज्झं सपरदार-गमणा सेवणाए आयासविसूरणं कलहभंडणवेराणि य अवमाणविमाणणाओ । इच्छमहिच्छपिवाससतत तिसिया तहगेहिलोभघत्था अन्ताण अनिग्गहिया करेंति कोहमाणमायालोभे अकित्तणिज्जे । परिग्गहे चवे Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सुदर्शिनी टीका अ०५ सू० ४ मनुव्यपरिग्रहनिरूपणम् ५२९ हुति, नियमा सल्ला दंडा य गारवा य कसाया य सन्ना य कामगुणअण्गाय इंदियलेसाओ, सयणसंपओगा सचितावित्तमी सगाई दव्वाई अणंतगाई इच्छंति परिधेत्तुं सदेवमणुयासुरम्म लोए । लोभपरिग्गहो जिणवरेहिं भणिओ, नत्थि एरिसो पासो पडिबंधो अस्थि सव्वे जीवाणं सव्वलो ॥ सू० ४ ॥ टीका - ' वक्खार अकम्मभूमीसु' वक्षस्काराकर्मभूमिषु वक्षस्काराः = चित्रकूदादयो विजयविभागकारिणश्र, अकर्मभूमयः = हैमवतिका भोग्भूमयश्च तासु तथो तासु ये वर्तन्ते तथा 'सुविभतभागदेसासु' सुविभक्तभाग देशासु सुविभक्ता भागदेशा जनपदा यासु तास्तथोक्तासु 'कम्मभूमिसु कर्मभूमीसु -- कृष्यादि कर्मस्थानभूतेषु भारतादिषु ' जे वि य' येऽपि च नराः 'चाउरंतचकवट्टी' चा तुरन्तचक्रवर्तिनो वासुदेवाः बलदेवाः' मंडलिया ' माण्डलिका: ' इस्सरा' ईश्वराः 'तलवरा: ' तलवराः, ' सेणावई' सेनापतयः, 'इन्भा ' इभ्या: ' सेट्ठी 'श्रेष्ठिनः 1 प्र० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अब सूत्रकार मनुष्य के परिग्रह का वर्णन करते हैं - ' वक्खार इत्यादि ( वखार अम्मभूमीसु) विजय विभागकारी चित्रकूट आदि वक्षस्कारों में, अकर्मभूमियों में हेमबतिक आदि युगलिक धर्मवाले क्षेत्रों में, तथा (सुविभत्तभागदेसासु कम्मभूमीसु) सुविभक्त भाग देशवाली कर्म भूमियों में कृप्यादि कर्म के स्थानभूत भरत आदि क्षेत्रों में (जेविय नरा चाउरंत चक्कवट्टी वासुदेवाबलदेवा मंडलिया इस्सरा तलवरा सेणावईइन्भा सेट्ठिया रट्टिया पुरोहियाकुमारा दंडणायगा गणनायगा मांडविया सत्थवाहा को बिया अमच्चा एए अण्णेय एवमादी परिंग संचिति ) जो भी मनुष्य हैं, चातुरन्तचक्रवतीं हैं, હવે સૂત્રકાર મનુષ્યેાના પરિગ્રહનું વર્ણન કરે છે— ’” વિજય વિભાગકારી ચિત્રકૂટ આદિ વક્ષસ્કારામાં, અક ભૂમિયામાં હુમતિક આદિ યુગલિક ધર્મવાળાં ક્ષેત્રમાં, તથા " सुविभत्तभागदेसासु कम्मभूमीसु " सुविलत लाग हेशवाणी उमभूमियोमांखेती आदि उर्मना स्थान३५ भरत आदि क्षेत्रोभां " जेविय नरा चाउरंतचकवडी वासुदेवा बलदेवा मंडलिया इस्सरा तलवरा सेणावई इब्भा से ट्टिया रडिया पुरोहिया कुमारा इंडणायगा गणणायगा मांडविया सत्थवाहा को डुबिया अमच्चाए ए अण्णे य एवमादी परिग्गहं संचिणंति " ने मनुष्यो छे, यातुरन्त यवर्ति छे. 66 वक्खार " इत्याहि "L वक्खार - अकम्म भूमीसु " ६७ For Private And Personal Use Only 1 Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५३० प्रश्नव्याकरणसूत्रे 'रहिया ' राष्ट्रियाः 'पुरोहिया ' पुरोहिताः ' कुमारा' कुमाराः दंडणायगा' दण्डनायकाः ' गणनायगा' गणनायकाः 'माडंविया' माडम्बिकाः 'सत्थवाहा' सार्थवाहाः ' कुडंबिया' कौटुम्बिकाः, 'अमच्चा' अमात्याः, 'एए' एते चातुरन्तचक्रवाघमात्यान्ताः तथा ' अन्ने य एवमाई ' अन्ये च एवमादयः पूर्वोतेभ्यः इतरे च तत्सदृशा ये नराः 'परिग्गरं' परियाई 'संचिणंति' संचिन्वन्ति -परिग्रहस्य संचयं कुर्वन्तीत्यर्थः कीदृशं परिग्रहम् ? इत्याह- अणंतं ' अनन्तम्अपरिमाणत्वात् , 'असरणं' अशरण-रक्षणासमर्थत्वात् , 'दुरंत' दुरन्त पर्यवसानदारुणम् ' अधुवं' अध्रुवं-विनश्वरम् , 'अनिच्चं' अनित्यम् =अस्थिरम् , ' असासयं ' अशाश्वत-प्रतिक्षणं विशरणशीलम् , ' पावकम्मणेमं ' पापकर्मनेमंवासुदेव हैं, बलदेव हैं, माण्डलिक हैं, ईश्वर हैं, तलवर हैं, सेनापति हैं, इभ्य हैं, श्रेष्ठी हैं, राष्ट्रिय हैं, पुरोहित हैं, कुमार हैं, दंडनायक हैं, गणनायक हैं, माडम्पिक हैं, सार्थवाह हैं, कौटुम्बिक हैं, अमात्य हैं, तथा इनसे भिन्न जो और भी इन्हीं जैसे मनुष्य हैं वे सब परिग्रह का संचय करते हैं। अब सूत्रकार विशेषगों द्वारा परिग्रह में विशेषता प्रकट करते हैं वे कहते हैं कि यह परियह ( अणतं ) अपरिमित होने से अनंत है। ( असरणं ) रक्षा करने में असमर्थ होने से अशरणरूप है। (दुरंतं ) अन्त में इसका विपाक जीवों को बहुत ही भयंकर रूप में भोगना पड़ता है-इसलिये दुरन्तविपाक वाला होने के कारण यह दुरन्त है । ( अधुवं) विनश्वर स्वभाव वाला होने के कारण यह अध्रुव है। ( अणिच्चं) अस्थिर होने से यह अनित्य है । ( असासयं ) प्रतिक्षण खिरने का स्व. વાસુદેવ છે, બળદેવ છે, માંડલિક છે, ઈશ્વર છે, તલવર છે, તેના પતિ છે, ઈભ્ય छे, श्रेष्ठी छ, राष्ट्रिय छ, पुरोहित छ, भार छ, नाय , नाय छ, માડમ્બિક છે, સાર્થવાહ છે, કૌટુમ્બિક છે, અમાત્ય છે, તથા તે સિવાયના બીજા પણ તેમના જેવા જે લેકે છે તે બધા પરિગ્રહને સંચય કરે છે. હવે સૂત્રકાર વિશેષણ દ્વારા પરિગ્રહમાં વિશેષતા પ્રગટ કરવાને માટે र छ8-241 परियड "अणंत " मे डावाथी मत छ. "असरणं" २६॥ ४२वाने २५समय पाथी २१२२४३५ छ, “ दुरंत " वान तना વિપાક (ફળ) બહુ જ ભયંકર રીતે ભેગવવું પડે છે તેથી દુરન્ત વિપાકपा पाने २0 ते दुरन्त छे. “ अधुवं' ना१त २५मापन डोपाथी ते अधूप छ, “ अणिच्च ” मस्थिर पाथी ते अनित्य छ, “ असासयं" પ્રતિક્ષણ હાથમાંથી ખરી પડવાના સ્વભાવવાળ હોવાથી તે આશાશ્વત છે, For Private And Personal Use Only Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० ५ सू० ४ मनुष्यपरिग्रहनिरूपणम् पापकर्मणां विनष्टज्ञानावरणोयादिकर्मणां मूलमित्यर्थः, तथा 'अकिरियव्वं ' अबकरितव्यम् , त्याज्यम् , 'विणासमूलम् ' विनाशमूलम्-ज्ञानादिगुणनाशकारकम् , ' वहबंधपरिकिलेसबहुलं ' वधयन्धपरिक्लेशबहुलम्बधो-हिंसनं, बन्धोबन्धनम् , तज्जनिता परिक्लेशास्तापाः बहुलाः प्रचुरा यस्मिस्तं तथोक्तम् , तथा -'अणंतसंकिलेसकारणं' अनन्तसंक्लेशकारणम्-अनन्ता ये संक्लेशा दुःखानितेषां कारणम् । एतादृशं परिग्रहं चक्रवादयस्तद्भिन्नाश्च नराः संचिन्वन्ति । तेपूर्वोक्ताः 'लोभवत्था ' लोभग्रस्ताः तं धणकणग रयणनिचयं ' तं धन कनक रत्ननिचयं - पंडियाचेच ' पिण्डयन्तश्चैव संसारं-चतुर्गतिलक्षणम् , 'अतिवयंति' भाव वाला होने के कारण यह अशाश्वत है । (पावकम्मनेम ) ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का कारण मूल होने से यह पापकर्म का नेमभूत है। ( अवकिरियव्वं ) मुमुक्षुओं को छोड़ने योग्य होने के कारण यह अवकरितव्यं-त्याज्य है । ( विणासमूलं) ज्ञानादिगुणों के नाश का हेतु होने से यह विनाशमूल है । ( वहबंधपरिकिलेसबहुलं ) इसके भीतर वध-हिंसा, बंध-बंधन, और परिक्लेश-संताप ये सब बहुत अधिक रूप में हुए हैं। (अणंतकिलेसकारणं) इसीलिये यह जोवों को अनंतसंक्लेश कारण होता है। ऐसे इस परिग्रह को चक्रवर्ती जन आदि तथा इनसे भिन जो और मनुष्य हैं वे संचित करते रहते हैं। क्यों कि ये समस्त ही जन ( लोभघत्था ) लोभरूप कषाय से ग्रसित होते हैं । (तं घणकणगरयणनिचयं ) इसी कारण उस धन, कनक एवं रत्न के निचय को ( पंडियाचेव ) संग्रह करने में ही लगा रहा करते हैं । इसी कारण . “ पावकम्मनेमं" ज्ञाना१२jीय मा िन भूण ७।२९ वाथी ते ५५४ाना निमित्त ३५ छ, “ अवकिरियव्वं " भुभुक्षाने ते छ।3। योय होपाथी ते “ अवकरितव्यं " त्याrय छ, “विणासमूलं " ज्ञान गुण।। नाश ने भाटे ७६२९३५ डापायी ते विनाशभू छ. “ वहबंधपरिकिलेसकारणं " तेनी અંદર વધહિંસા, બંધ-બંધન, અને પરિકલેશ-સંતાપ. એ બધું વધારે प्रभाभा २७१ छ. " लोभघत्था " ते २णे ते ७वाने मनात सवेशસંતાપનું કારણ બને છે. એવા તે પરિગ્રહને ચકવર્તિ આદિ તથા તે સિવાયના બીજા જે માણસ હોય છે, તેઓ સંચય કરતા રહે છે, કારણ કે તે सपा ! “तं धणकणगरयणनिचयं " ते २0 ते। धन, न, भने रत्नना सभूलना “पांडियाचेव " संबड ४२वामा १ सीन २७ छ.. For Private And Personal Use Only Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५३२ प्रश्नव्याकरणसूत्रै अतिव्रजन्ति-प्राप्नुवन्तीत्यर्थः,कीदृशं संसारम् ? इत्याह—'सव्वदुक्खसनिलयणं' सर्वदुःखसंनिलयनम् सर्वदुःखानां संनिलयनम् आश्रयभूतम् । तथा-' परिग्गहस्स य अट्ठाए' परिग्रहस्य च अर्थाय-परिग्रहं लक्षिकृत्येत्यर्थः,, 'बहुजणो' बहुजनः जनसमुदायः 'सिप्पसय ' शिल्पशत-आचार्योपदेशगम्यमनेकविधं शिल्पं 'सि क्खते ' शिक्षते । तथा 'सुनिउणहओ ' सुनिपुणाः-शिक्षार्थिनां सुनैपुण्याधायकाः ' लेहाइयाओ ' लेखादिकाः-लेख आदौ यासां तास्तथोक्ताः, 'सउणरुयावसाणाओ' शकुनरुतावसानाः शकुनानां पक्षिणां रुतं जल्पितमवसानेऽन्ते यासां तास्तथोक्ताः, 'गणियप्पहाणाओ' गणितप्रधाना=गाणेतं प्रधानं यासु तास्तथोक्ताः, 'बावत्तरि' द्विसप्तति 'कलाओय' कलाश्च शिक्षते । तथा-' रतिजणणे' रतिजननान् रतिरागं जनयन्ति ये ते रतिजननास्तांस्तथोक्तान 'चउसर्टि च महिला गुणे' चतुः पष्ठिं च महिलागुणान् वात्स्यायन प्रोक्तान् नृत्यगीतादीन् , तथा 'सिप्पसेव' शिल्पसेवां-शिल्पेन सेवा तां तथोक्ताम् , येन शिल्पेन राजसेवा परिग्रही जीव (सव्वदुक्खसंनिलयणं ) समस्त दुःखों के आश्रयभूत इस (संसारं ) चतुर्गतिरूप संसार में (अतिवयंति) भटकते रहते हैं। तथा (परिग्गहस्सय अट्ठाए बहुजणो सिप्पसयं सिक्खए ) इस परिग्रह के निमित्त को लेकर ही बहुत से लोग कलाचार्य के उपदेश से प्राप्त होने वाले अनेक शिल्पों को सीखते हैं तथा (सुनिउणाओ लेहाउयाओ सउ. णरुयावसायाओ गणियप्पहागाओ बावत्तरिकलाओ ) अपने में अच्छी तरह से निपुणता बढाने वाली लेखकला से लेकर शकुनरुत पर्यय ७२बहत्तर कलाओं को जिने किमें गणितप्रधान होता है सीखते हैं तथा (रइजणणे चउसदि च महिलागुणे ) रागजनक नृत्य, गीत आदि स्त्रीयों से संबंध रखने वाली चौसठ कलाओं को कि जिनके प्रदर्शक वात्स्यायन ऋषि ४२२ परियडी ०१ “ सब्बदुक्खसंनिलयणं " समस्त माना पायाभूत मा " संसार” या२ गति ससा२मा “ अतिवयंति " 24॥ ४२ छ, तथा " परिग्गहस्सय अट्ठाए बहु जणो सिप्पसयं सिक्खए' परिअडने निमित्त ઘણા લોકે કલાચાર્યના ઉપદેશથી પ્રાપ્ત થતી અનેક કળાઓ શીખે છે, તથા "सुनिउणाओ लोहाइयाओ स ऊणरुयोवसायाओ गणियप्पहाणाओ बावत्तरिकलाओ" પિતાની નિપુણતા સારી રીતે વધારનારી લેખન કળાથી લઈને શકુનરુત સુધીની ૭ર તેર કલાઓ કે જેમાં ગણિત મુખ્ય હોય છે. તે બધી કળાઓ શીખે છે, तथा "रइजणणे चउसदिय महिलागुणे' २॥ 11 नृत्य, ild मा सीमा साथे સિંબંધ રાખનારી ચેસઠ કલાઓ શીખે છે. એ કલાઓના મદર્શક વાસ્યાયન ऋषि उता. तथा " सिप्पसेव" मेवी शि६५ विद्यार। शीमे छ रेने प्रभाव For Private And Personal Use Only Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुपशिनीटीका अ०५ सू० ४ मनुष्यपरिग्रहनिरूपणम् ५३३ ऽवसरो लभ्यते तत् शिल्पं शिल्पसेवा' इत्युच्यते, तथा · असिमसिकिसिवाणिज्ज' असिमषीकृषिवाणिज्यम् असिःखगाभ्यासः, मसिः मसिकृत्यमक्षरलेखनादि, कृषिः कर्षणम् , 'वाणिज्ज' वाणिज्यम्वणिक्कर्म, एतेषां समाहारद्वन्द्वः, तत् ' ववहारं ' व्यवहारं व्यवहारशास्त्रम् , तथा अत्थसत्थं ' अर्थशास्त्रम् , अर्थोंपायप्रतिपादकं कौटिल्यबाहस्पत्याधशास्त्रम् , 'इसुसत्थं' इषुशास्त्रम्-धनुर्वेद 'च्छरुप्पगयं ' त्सरुप्रगत-खङ्गमुष्टिग्रहणोपायं, तथा 'विविहाओ' विविधाः 'जोगजुंजणाओ य' योगयोजनाच-वशीकरणादिप्रयोगांश्च शिक्षते । तथा हुए हैं सीखते हैं। तथा (सिप्पसेवं ) ऐसी शिल्प विद्या को सीखते हैं कि जिसके बल पर उन्हें राजा की सेवा करने का अवसर प्राप्त हो जाता है। तथा असि, मषी, कृषि एवं वाणिज्यव्यापार, ( ववहारं ) व्यवहार शास्त्र इन कर्मों को सीखते हैं। तलवार वगैरह अस्त्र शस्त्रादि से आजीविका चलाना इसका नाम असिकर्म है। लेखन आदि करके जीवन निर्वाह करना इसका नाम मषीकर्म है । खेती किसानी करके जीविका चलाना इसका नाम कृषिकर्म है। व्यापार धंदा करना इसका नाम वाणिज्य कर्म है । जिससे लोक व्यवहार चलता है वह व्यवहारशास्त्र है। परिग्रही जीव ( अत्थसत्थं ) अर्थशास्त्र का भी अध्ययन करते हैं। इस अर्थ शास्त्र के प्रणेता कौटिल्य, बृहस्पति आदि हुए हैं । इसके अध्ययन से व्यापारिक क्षेत्र में व्यापारियों को पैसेकी आयके साधन कैसे२ क्यार होते हैं इस सब विषय का बोध हो जाता है। इसी परिग्रह की ममता से जीव ( इसुसत्थं ) धनर्वेद को (छरुप्पगय) तलवार आदि के चलाने की कला को तथा (विविहाओ जोगजुंजणाओ) वशीकरण आदि તેમને રાજાની સેવા કરવાની તક મળે તથા અસિ, મણી, કૃષિ અને વાણિજ્ય व्यापा२, "ववहार ” व्यव७.२ शान वगैरे अशी छ. तपा२ मा અસ્ત્ર શસ્ત્રાદિથી નિર્વાહ ચલાવે તેનું નામ અસિકમ છે, લેખન આદિ કરીને જીવન નિર્વાહ ચલાવે તેનું નામ મકર્મ છે. ખેતી કરીને નિર્વાહ ચલાવ તેનું નામ કૃષિકર્મ છે. વ્યાપાર રોજગાર કરે તેનું નામ વાણિજ્ય કર્મ છે. જેનાથી લોકવ્યવહાર ચાલે છે તે વ્યહારશાસ્ત્ર છે. પદિગ્રહી જીવ " अत्थसत्थं " मशानुं ५५ अध्ययन ४३ छ. ते अथाना प्रणेता કૌટિલ્ય, બૃહસ્પતિ આદિ થયા છે. તેને અભ્યાસ કરવાથી વ્યાપારના ક્ષેત્રમાં પૈસા કમાવવાના સાધને કેવાં કેવાં હોય છે, અને કયાં ક્યાં હોય છે. એ બધી બાબત વેપારીઓને જાણવા મળે છે. એ જ પરિગ્રહની મમતાથી જીવ " इसुसत्यं " धनु , “ छरुप्पगय" तलवार माहि १५२वानी xvl, तथा For Private And Personal Use Only Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 6 www.kobatirth.org ? प्रश्नव्याकरणसूत्रे 1 मुकारणसएमु ' अन्येस एवमादिकेषु बहुषु 4 " ; अन्ने एमाइए कारणश तेषु = शिल्पादिभिन्नेषु परिग्रहोपादानशतेषु ' जावजीवं' यावज्जीवं नडिज्जए ' निमज्जते = निमरनी भवति । तथा ' संचिति मंदबुद्धी ' संचिन्वन्ति मन्दबुद्धयः परिग्रहम् । तथा ' परिग्रहस्सेव य अट्ठा करेंति' परिग्रहस्यैव च अर्था कुर्वन्ति, 'पाणाणवहकरणं ' माणानां वधकरम् = परिग्रहं कर्तुं प्राणिनां वधं कुर्वन्तीत्यर्थः तथा--' अलियनिय डिसाइस पओगे' अलीकनिकृतिसाति संप्रयोगान् अधिकम् -असत्यम् निकृतिः- मधुरवचनादिभिराश्वास्य वञ्चनम् सातिसंप्रयोगः - विगुणद्रव्येषु द्रव्यान्तरं संयोज्य प्रशस्तगुणभ्रमोत्पादनम् एतेषां इन्द्रः, तांस्तथोक्तान, परदव्य अभिनं परद्रव्याभिध्याम्-परद्रव्येषु परधनेषु अनेकविध प्रयोगों को भी ( सिक्खए ) सीखते हैं । ( अन्नेसु य एवमासु ) तथा इसी तरह के और भी इन शिल्पादिकों से भिन्न अनेक ( बहुकारणery) परिग्रह के सैकड़ों कारणों में परिग्रह को अर्जन करने की लालसावाला प्राणी ( जावजीवं ) जीवन पर्यंत (नडिलए) मग्न होता रहता है । (संचिणंति मंदबुद्धी ) इसलिये इस कथन से यही निष्कर्ष निकलता है कि जो मंदबुद्धि होते हैं वे ही उत्कट परिग्रह का संचय करते हैं | तथा ( परिग्गहस्सेव य अट्ठाए पाणाणवहकरणं करेंति) परिग्रह के निमित्त ही प्राणी प्राणियों के प्राणों को वध करते हैं तथा (अलिनियsि - साह संपओगे ) इस परिग्रह को लक्ष्य करके ही वे (अलियं) असत्य भाषण करते हैं (नियडि) मधुर २ भाषणों से दूसरों को विश्वास दिलाकर फिर उन्हें ठगते हैं, ( साइसंपओगे ) ओछी कीमत की में बहुमूल्य वाली वस्तु को मिलाकर उसे अधिक मूल्यवाली बनादिया वस्तु Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir "" Fi " विविहाओ जोगजुजणाओ " वशीर आदि ने विध प्रयोगो પણ શીખે 'अन्नेसु य एवमाइएस' ” તથા તે કળાએ સિવાયના એ જ પ્રકારના ખીજા અનેક कारण ससु ” પરિગ્રહાના સેંકડા કારણેામાં પરિગ્રહને પ્રાપ્ત કરबानी सालसा वाजा व " जावजीवं " भाजु लवन " नडिजए " बीन रहे छे. “ संचिति मंदबुद्धी ” તેથી આ કથનથી એ જ ફલિત થાય છે તથા કે જે લેાકા મંદ”દ્ધિવાળા હાય છે તે જ ઉત્કટ પરિગ્રહના સચય કરે છે. 66 46 परिअडुने निमित्ते તથા परिग्गहस्सेव य अट्ठा पाणाणवहकरणं करें ति" પ્રાણી અથવા પ્રાણીઓના પ્રાણાના વધ કરે છે, તથા " अलिय - नियडि-साइ संपओगे" या परिग्रहुने लक्ष्य पुरीने ४ तेथे " अलियं " असत्य मोहो छे, “ नियडि " भीहां भीठां वयनोथी जीलमां पोताना अत्येविश्वास मा. वीने पाणथी तेने उगे छे. " साइपओगे " मोछी श्रीमतनी वस्तुनुं लारे કીમતની વસ્તુ સાથે મિશ્રણ કરીને તેને વધારે ભાવ ઉપજાવે છે, परदव्व (6 For Private And Personal Use Only Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुवर्शिनी टीका म० ५ सू० ४ मनुष्यपरिग्रहनिरूपणम् 'अभिज्झा' अभिध्या-आसक्तिस्तां तथोक्ताम् , तथा ' सपरदारगमणासेवणाए' स्वदारगमनसेबनायाम् ' आयासविमरणं ' आयासखेदं, स्वदारगमने आयासंशारीरं मानसं च श्रमम् , परदारासेवने खेदम्=परदारापाप्तौ मनः खेदं च कुवन्तीत्यर्थः, तथा ' कलहभंडणवेराणि य' कलहभण्डनवैराणि च तत्र-कलहोवाचिकं युद्धम् , भण्डनम्-परदोषोद्घाटनं गालीप्रदानं वा. वैरं चित्तेऽमर्षाऽनुबन्धः, तथा ' अवमाणविमाणणाओ' अपमानविमानने, अपमान-विनयध्वंसः, विमानना तिरस्करणम् , एतानि सर्वाणि परिग्रहस्यैवार्थाय कुर्वन्ति । तथा ' इच्छमहिच्छप्पिवाससकयतिसिया' इच्छामहेच्छापिपासासतततृपिताः, तत्र इच्छा-अभिलाषमात्रम् , महेच्छा-महाभिलापश्चक्रवर्त्यादिपदानां पिपासा-विषयसुखपानेच्छा, ताभ्यः तृषिता इव तृषिताः तथा 'तण्हागेहिलोभवत्था' तृष्णागृद्धिलोभग्रस्ताः, तृष्णा अप्राप्तद्वव्यस्य लाभेच्छा' गृद्धिः प्राप्तद्रव्यासक्तिः, लोभः चित्तविमोहनम् , तैकरते हैं । (परदव्यअभिज्झं) दुसरों के द्रव्य में आसक्ति भाव करते हैं। (सपरदारगमगा सेवणाए आयास विसरणं ) अपनी स्त्री के सेवन में शारीरिक एवं मानसिक परिश्रम करते हैं, परस्त्री के अप्राप्ति में मनखेद किया करते हैं। तथा (कलहभंडणवेराणिय) कलह-वाचिक युद्ध, भंडन -असभ्य शब्दों का प्रयोग-गाली देना आदि, वैर-चित्त में क्रोध करना तथा (अवमाणविमाणणाओ) दूसरों का अपमान करना, तिरस्कार करना ये सब बातें इस एक परिग्रह के निमित्त ही पापियों द्वारा की जाती हैं। तथा (ईच्छमहिच्छप्पिवाससययतिसिया ) परिग्रही जीव इच्छाओं से, बड़ी २ अभिलाषाओं से, एवं विषय सुखपान की कामनाओंसे सदा तृषित व्यक्ति की तरह तृषित ही बने रहते हैं। तथा (तण्हागेहिं लोभघस्था) तृष्णा-अप्राप्त-द्रव्य को प्राप्त करने की भावना, गृद्धि-प्राप्तद्रव्य में अभिझं " मीन द्रव्यमा मासति रामेछ. “सपरदारगमणासेवणाए आयासविसूरणं" पोताना स्त्रीन सेवकानशरीR मने मानसि परिश्रम अरे छ, गेने ५२वीनी मासिथी भनमा मह अनुभव छ. तथा "कलह भंडणवेराणिय" सह-पायुद्ध, मन-॥णे मानिसल्य शहोना पराग वैर-मनमा ५ ४२वो • तथा “ अवमाणविमाणणाओ" [ीन अपमान, તિરસ્કાર વગેરે બધી બાબતે એક પરિગ્રહને કારણે જ લેકો દ્વારા કરાય છે, तथा “ इच्छमहिच्छप्पिवाससयतिसिया” परियडी ०१ ४ायोथी, भारी મેટી અભિલાષાઓથી, અને વિષય સુખપાનની કામનાઓથી સદા ઝૂષિત માણसनी र तृषित १ २ह्या 3रे छ. तथा "तण्हागेहि लोभवत्था" तृ||--मप्राप्त દ્રવ્યને પ્રાપ્ત કરવાની ભાવના, ગૃદ્ધિ-પ્રાપ્ત દ્રવ્યમાં વધારે પડતી અસક્તિ અને For Private And Personal Use Only Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ५३६ www.kobatirth.org प्रश्नव्याकरणसूत्रे " स्ताः=व्याप्ताः, तथा ' अत्ताण अणिग्गहिया' आत्मनाऽनिगृहीताः = अवशीकृतास्मानः ' करेंति' कुर्वन्ति । किं कुर्वन्ति ? इत्याह- ' कोहमाणमायालो मे ' । क्रोधमानमायालोभान, कीदृशान् ? 'अकित्तणिज्जे' अकीर्तनियान्- अवाच्यान् । तथा ' परिग्गहे चेव ' परिग्रहे एव ' हुंति भवन्ति, 'नियमा नियमात्निश्वयतः कानि कानि भवन्ति ? त्याह 'सल्ला' शल्यानि = मायानिदानमिथ्यादर्शनरूपाणि त्रीणि, ' दण्डाय दण्डाव - दुष्प्रणिहितमनोवाक्कायरूपाः, ' गारवाय ' गौरवाणि च ऋद्धिरससातरूपाणि च ' कसाय सण्णा य ' कषाय संज्ञाथ, कषायाः = प्रतिताः, संज्ञाः = आहार मैथुनभयपरिग्रहादयः, तथा - ' कामगुणअहगा य' कामगुणाश्रवाश्च कामगुणाः शब्दादयस्त एव आश्रवाः - आश्रवद्वाराणि इंदिय ' इन्द्रियाणि = असंवृत्तानि इन्द्रियाणि 'लेसाओ' लेश्या: = अप्रशस्ता , 6 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir " अधिक आसक्ति, लोभ-लालच, इन सब से घिरे रहते हैं ( अत्ताणा अणिग्गहिया ) इन की आत्मा इनके वश में नहीं हो पाती है। और इस तरह ये परिग्रह की ममता में फँसकर (कोहमाणमायालो भे) क्रोध, मान माया और लोभ जैसी कषायों को कि जो (अकिन्तणिज्जे ) शब्दों से मकट नहीं की जा सकती हैं ( करेंति) करते रहते हैं । (परिग्गहे व हुति नियमा सल्ला, दंडा य गार वा य कसाय सण्णा य कामगुणअण्हगा य इंदिय साओ सयगसंपओगा सचित्ताचित्तमी सगाई दव्वाइं अनंतगाई परिधेतुं इच्छति इस परिग्रह में ही नियम से माया, मिथ्यादर्शन और निदान, ये तीन शल्य रहते हैं । मन, वचन और काय की दुष्टतारूप व्यापार रहता है । ऋद्धि रम सातरूप गौरव रहता है। अनंताबंधी आदि कषायें, आहार, भय, मैथुन, और परिग्रह ये चार संज्ञाऐं, 1 बोल, मे मधाथी घेरायेल रहे छे. " अत्ताण अणिग्गहिया " तेभनुं भन तेभना अणूभां होतुं नथी, मने या रीते परिभ्रडुनी भमतामा इसाधने " कोइमाण मायालो " ोध, भान, माया भने बोल भेवा उषायो ने "अकित्तणिज्जे " शो द्वारा प्रगटरी शाता नथी. " करें ति " तेभनुं सेवन उरे छे. " परिभाव हुति नियमा सला, दंडाय गारवा य कसाय वण्णाय कामगुणअण्ड. गाय इंदियलेसाओ सयणसंपओगा सचित्ताचित्तमीसगाई दव्वाई अणंतगाई परिघेतुं इच्छति આ પરિગ્રહમાં જ નિયમથી જ માયા, મિથ્યાદર્શન અને નિદાન, એ ત્રણ શક્ય રહે છે. મન, વચન અને કાયની દુષ્ટતારૂપ પ્રવૃત્તિ રહે છે. ઋદ્ધિ રસ સાતરૂપ ગૌરવ રહે છે. અનંતાનુબંધી આદિકષાયા, આહાર લય, મૈથુન અને પરિગ્રહ એ ચાર સ'જ્ઞાઓ, શબ્દાદિ વિષયરૂપ આસ્રવ, For Private And Personal Use Only Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुशिनी टीका म० ५ सू० ४ मनुष्यपरिग्रहनिरूपणम् लेश्याश्च भवन्ति । तथा - ' सयणसंपओगा ' वजनसंपयोगाः स्वजनैः पुत्रदा. रादिभिः सह संप्रयोगः-संयोगाश्च भवन्ति । ते चक्रवर्त्यादयः 'अणंतगाई' अनन्तकानि पर्यवसानरहितानि ' सचित्ताचित्तमीसगाई' सचित्ताचित्तमिश्रकाणि =तच सचित्तानि सजीवानि-पुत्रादीनि अचित्तानि-अजीवानि हिरण्यसुवर्णरत्नादीनि, मिश्रकाणि-सचित्ताचित्तरूपाणि हिरण्यसुवर्णाद्याभरणसहितानि पुत्रकलत्राशब्दादि विषयरूप आत्रव, इन्द्रियों की अनर्गल प्रवृत्तियां, कृष्ण, नील आदि अप्रशस्त लेझ्याएँ रहती हैं । अर्थात् परिग्रह पाप के सद्भाव में ही नियमतः मायादि शल्यों का सद्भाव जोवों में पाया जाता है। मन वचन आदि योगों की प्रवृत्ति इसी के होने पर अशुभ रूप में रहती हैं। गौरवों का अस्तित्व तथा कषायों की सत्ता एवं आहार आदि चार प्रकार की संज्ञाओं का सद्भाव इस एक परिग्रह की मौजूदगी में ही जीवों में पाये जाते हैं । इंद्रियों की स्वच्छंद प्रवत्ति एवं कृष्ण आदि अशुभ लेश्याओं का संबंध इसी परिग्रह से जीवों में पाया जाता है । तथा स्वजन आदि के साथ का संबंध भी इसी परिग्रह के ऊपर निर्भर है। चक्रवर्ती आदि सभी मनुष्य यही चाहते हैं कि हमारे पास अनंत सचित्त, अचित्त और मिश्र परिग्रहरूप द्रव्य बना रहे । पुत्र आदि सचित्त परिग्रह, हिरण्य, सुवर्ण, रत्न आदि अचित्त परिग्रह, एवं हिरण्य, सुवर्ण, रत्न आदि के आभरण सहित पुत्रादि मिश्र परिग्रह है। तात्पर्य इसका यही है कि चक्रयर्ती से लेकर छोटे से छोटो प्राणो यही चाहता रहता है कि ઈન્દ્રની અનર્ગલ પ્રવૃત્તિ, તથા કૃષ્ણ, નીલ આદિ અપ્રશસ્ત લેયાઓ રહે છે. એટલે કે પરિગ્રહ પાપની હાજરીમાં નિયમથી માયાદિ શલ્યને સદ્. ભાવ માં આવે છે. તે હોય તે મને વચન આદિ ગેની પ્રવૃત્તિ અશુભ રૂપે રહે છે. ગીરનું અસ્તિત્વ તથા કષાયની સત્તા, તથા આહાર આદિ ચાર પ્રકારની સંજ્ઞાઓ આદિને સદ્ભાવ એક પરિગ્રહની હાજરી હોય તે જ જીવમાં જોવા મળે છે. ઈન્દ્રિયની સ્વચ્છેદી પ્રવૃત્તિ અને કૃષ્ણ આદિ અશભ લેશ્યાઓનું અસ્તિત્વ આ પરિગ્રહને કારણે જ માં હોય છે. તથા સ્વજન આદિ સાથે સંબંધ પણ આ પરિગ્રહ પર આધાર રાખે છે. ચક્રવર્તિ આદિ સઘળા લેકે એ જ ચાહે છે કે અમારી પાસે અનંત સચિત્ત, અચિત્ત અને મિશ્ર પરિગ્રહરૂપ દ્રવ્ય કાયમ રહે. પુત્ર આદિ સચિત્ત પરિગ્રહ છે. હિરણ્ય, સુવર્ણ રત્ન આદિ અચિત્ત પરિગ્રહ છે. અને સુવર્ણ, રત્ન આદિના આભૂષણે સહિત પુત્રાદિ, તે મિશ્ર પરિગ્રહ છે. તેનું તાત્પર્ય એ છે કે ચક્ર For Private And Personal Use Only Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir অশ্বগন दोनि, 'दव्याई' द्रव्याणि 'परिधेत्तुं' परिग्रहीतुम् इच्छन्ति । 'सदेवमणुयामुरम्मि लोगे' सदेवमनुजासुरे लोके 'लोभपरिग्गहो' लोभपरिग्रहः लोभात्परिग्रहो लोभरूपो वा परिग्रही भवति, जिणवरेहिं ' जिनवरै 'भणिओ' भणितः प्रोक्तः 'नत्यि' नास्ति 'एरिसो ' ईदृशः परिग्रहसदृशोऽन्यः कश्चिदपि 'पासो' पाशः बन्धनम् , 'पडिबंधो' प्रतिवन्धः-प्रतिरोधः । अयं परिग्रहः 'सव्वलोए' सर्वलोके त्रिषु लोकेषु ' सब जीवाणं ' सर्वजीवानाम् सर्वप्राणिनाम् 'अत्थि' 'अस्ति विद्यते । सूक्ष्मजीवानामपि परिग्रहसंज्ञा भवतीति सर्वशब्दग्रहणम् ॥२.४॥ जो भी परिग्रहरूपवस्तु जितनी भी मात्रा में हमारे पास है वह ज्यों कि त्यो बनी रहे-नष्ट न हो, और उतनी मात्रा से भी फिर अधिक मात्रा में वृद्धिंगत हीती रहे तो अच्छी बात है ( सदेवमनुयालुरम्मि लोगे) देवलोक में, मनुष्यलोक में, तथा असुर लोक में ( लोभपरिग्गहो) लोभ परिग्रह-लोभ से परिग्रह अथवा लोभरूप परिग्रह-होता है। (जिगवरेहिं भगिओ) ऐसा जिनेन्द्र देवोंने कहा है । (नत्थि एरिसोपासो -पडिबंधो सन्चलोए सव्वजीवाणं अस्थि) इस परिग्रह के जैसा दूसरा और कोई भी पास-बंधन, तथा प्रतिबंध-प्रतिरोध-आत्मकल्याण रोधक पदार्थ नहीं है। यह परिग्रह तीनों लोकों में समस्त जीवों के है। प्रश्नसूक्ष्म जीवों के यह परिग्रह किस रूप में है ? उत्तर-यह परिग्रह उनमें परिग्रह संज्ञा रूप में है। इसी बात को कहने के लिये सूत्र में 'सर्व' शब्द का ग्रहण किया है। વર્તિથી લઈને નાનામાં નાને જીવ એ જ ચાહે છે કે જે કઈ પરિગ્રહરૂપ જેટલા પ્રમાણમાં અમારી પાસે છે તે તેમને તેમ રહે-નાશ ન પામે, અને छ ते ४२ता ५ मा पधारे। थत। २७ त सा३. “सदेवमनुया सुरम्मिलोगे" हेपटमi, मनुष्यसोभा तथा मसुरखोमi " लोभ परिग्गहो" सोम परिश-सोलथी परिभ अथवा सोम३५ परियड डाय छ “जिणवरेहि भणिओ" मे जिनेन्द्र वा ४९ छे." नत्थि एरिसो पासो पडिबंधो सव्वलोए सव्वजीवाणं अत्थि" मा परिबह रे भी ५५ मधन नथी, તથા પ્રતિરોધક–આત્મકલ્યાણ રેધક પદાર્થ નથી. આ પરિગ્રહ ત્રણે લોકમાં સઘળા જીવોને હોય છે. પ્રશ્ન–સૂમ માં આ પરિગ્રહ કેવી રીતે છે? ઉત્તર–આ પરિગ્રહ તેમનામાં પરિગ્રહ સંજ્ઞારૂપે છે. એ વાત દર્શાવવાને भाटे सूत्रमा 'सर्व' शहनी प्रयोगा ये छ. For Private And Personal Use Only Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० ५ सू० ४ मनुष्यपरिग्रहनिरूपणम् __ भावार्थ-अढाई द्वीप के भीतर ही मनुष्यों का निवास है, अतः सभी मनुष्य चाहे वे चक्रवर्ती आदी विशिष्ट व्यक्ति भी क्यों न हो इस परिग्रह संचय की तृष्णा से रहित नहीं हैं । सभी अपनी र योग्यता और पद के अनुसार इसके संचय में लगे रहते हैं। कोई भी जीव इस घात का विचार नहीं करता कि इस परिग्रह के संचय का अंतिम परिणाम कैसा होता है । जीव जीतने भी कष्टों को भोगता है वह इस परिग्रह के संचय निमित्त ही भोगता है, क्यों कि यह परिग्रह स्वयं अनंतक्लेशों का घर है । इस परिग्रह को लोभकषाय के आवेश में ही जीव संचित कीया करते हैं । यह महान् से महान् अनर्थों की जड़ कही गई है। पुरुष संबंधी ७२ बहत्तर कलाएँ तथा स्त्री संबंधी ६४ चौसठ 'कलाओं को प्राणी इसी परिग्रह के निमित्त सीखता है। असि, मषी, कृषि, आदि कर्म इसी के लिये मनुष्यों को करने पड़ते हैं। एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र को इसी की लालसा से बद्ध होकर हडपना चाहता है। मनुष्यों में दानवता का रूप इसी की कृपा से आता है। आदमीयतको भुलानेवाली यही एक चीज है। माया मिथ्या आदि शल्पों का घर यही एक परिग्रह है । इसकी ज्वाला में झलता हुआ माणो सदा हेय और उपादेय के विवेकसे विहीन बना रहता है । मन वचन और काय - ભાવાર્થ—અઢી દ્વીપની અંદર જ માણસને વસવાટ છે, સઘળા મનુષ્ય ભલે ચક્રવતિ આદિ વિશિષ્ટ વ્યક્તિ હોય તે પણ તેઓ પરિગ્રહ સંચયની તૃષ્ણા વિનાના હતા નથી. બધા પિત પિતાની યોગ્યતા અને પદ પ્રમાણે તેના સંયમ, પ્રયત્નશીલ રહે છે. કોઈ પણ જીવ એ વાતનો વિચાર કરતું નથી કે આ પરિગ્રહના સંચયનું આખરી પરિણામ કેવું હોય છે. જીવ જેટલાં કક્કો ભેગવે છે તે આ પરિગ્રહના સંચયને માટે જ ભેગવે છે, કારણ કે આ પરિ. ગ્રહ પિતે જ અનંત કલેશનું ધામ છે. આ પરિગ્રહને લેભ (કષાય) ના આવેગમાંજ જીવ સંચય કર્યા કરે છે. તે મોટામાં મોટા અનર્થોનું મૂળ ગણાય છે. પુરુષ સંબંધી ૭૨ બેતેરકલાઓ તથા સ્ત્રી વિષયક ૬૪સઠ કલાઓ માણસો આ પરિહને નિમિત્તેજ શીખે છે. અસી, મણી, કૃષિ આદિ કર્મો પણ તેને માટે લોકોને કરવા પડે છે. તેની લાલસાએ જ એક રાષ્ટ્ર બીજા રાષ્ટ્રને ગળી જવા માગે છે. મનુષ્યમાં દાનવતા તે પરિગ્રહને કારણે જ આવે છે, માનવતાને ભુલાવનારી તે એક ચીજ છે. તે પરિગ્રહ જ માયા મિથ્યા આદિ શનું ધામ છે. તેની જવાળામાં ફસાયેલ છે સદા હેય અને ઉપાદેયને વિવેકથી રહિત બની જાય છે. આ પરિગ્રહને કારણે જ મન, વચન અને કાયાની કુટિલ For Private And Personal Use Only Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५४० प्रश्नव्याकरणसूत्र 'ये यथा कुर्वन्तीति द्वार मुक्तम्' अथ परिग्रहो यादृशं फलं ददाति तदुच्यते'परलोगम्मि' इत्यादि___ मूलम्-परलोगम्मि य नहा तमपविट्ठा महयामोहमोहिय मई तमोसंधयोर तसथावर सुहुमबायरेसु पजत्तमपज्जत्तग एवं जाव परिय{ति जीवा लोभवनसंनिविद्या । एसो सो परिग्गहस्स फलविवागो इहलोइओ परलोइओ अप्पसुहो बहुदुक्खो की कुटिल प्रवृत्ति इसी परीग्रह के प्रभाव से जीवन को तहस नहस करती रहती है। कषायों की उत्कटता इसीके कारण जीवन में उतरती है । आहार आदि संज्ञाएँ इसी के प्रभाव से जीवन के पीछे पड़ी रहती हैं । गारव और इन्द्रिकों की स्वच्छंद प्रवृत्ति का कारण इसी परिग्रह की कामना है। कर्मों का अधिकरूप में आस्रव और कृष्णादि अशुभलेश्याओं का संबंध इसी परिग्रह के बल पर होता है । संसारका कोई भी प्रोणी यह नहीं जानता है कि मेरे पास जितना भी परिग्रह है उसका वियोग हो। भले ही मुनिजन इसकी कामना न करेंफिर भी प्रत्येक सचेतन व्यक्ति सचित्त आदि परीग्रह की पोट से बंधा ही रहता है। समस्तलोक में इस परिग्रह का अल्पाधिकरूप में साम्राज्य छाया हुआ है। यही आत्मकल्याण का निरोधक है। इसीलिये श्रावक जन इसका प्रमाण और मुनिजनमकल संयमी जीव-इसका सर्वथा परिहार कर देते हैं ।। सू०४॥ પ્રવૃત્તિ જીવનને બરબાદ કરે છે. તેને જ કારણે જીવનમાં કષાયની ઉત્કટતા ઉતરે છે. તેના જ પ્રભાવથી આહાર આદિ સંજ્ઞાઓ જીવનમાં પીછે પકડ્યા કરે છે. ગારવ (અભિમાન) અને ઈન્દ્રિની સ્વચ્છંદી પ્રવૃત્તિનું કારણ આ પરિગ્રહની કામના જ છે. આ પરિગ્રહને કારણેજ કર્મોને અધિક પ્રમાણમાં આસવ અને કૃષ્ણદિ અશુભ લેશ્યાઓને સંબંધ થાય છે. સંસારમાં કઈ પણ જીવ એ નથી ચાહતે કે તેની પાસે જેટલે પરિગ્રહ હોય તેને વિગ થાય. કદાચ મુનિજન તેની કામના ન કરે, તે પણ પ્રત્યેક સચેતન વ્યક્તિ સચિત્ત આદિ પરિગ્રહના સંચયથી બંધાયેલ રહે છે. સમ લેકમાં આ પરિ. પ્રહનું થડા કે વધુ પ્રમાણમાં સામ્રાજ્ય જામેલું છે. તે જ આત્મકલ્યાણનું નિરોધક છે. તેથી શ્રાવકોએ તેની મર્યાદા બાંધવી જોઈએ અને મુનિજનેએસકલ સંયમી જીવે-તેને તદ્દન ત્યાગ કરે જોઈએ . . ૪ For Private And Personal Use Only Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदशिनी टीका अ० ५ सू०५ परिग्रहो यत्फलं ददातितनिरूपणम् ५५१ महमओ बहुरयप्पगाढो दारुणो ककसो, असाओ वाससहस्सेहिं मुच्चइ, न य अवेदइत्ता अस्थि हु मोक्खोत्ति एवमाहंसु नायकुलनंदणो महप्पा जिणो वीरवरनामधेजो कहेलि य परिग्गहस्स फलविवागं। एसो सो परिग्गहो पंचमो नियमा नाणामणिकणगरयणमहरिह० जीव इमस्स मोक्खवरमुत्तिमग्गस्स फलिहभूओ ॥ सू० ५ ॥ ॥ चरिमं अहम्मदारं समत्तं ॥ 'टीका-' परलोगम्मि' इत्यादि जीवाःयाणिनः लोभवससंनिविट्ठा' लोभवशसंनिविष्टाः लोभवशेन परिग्रहे संनिविष्टाः अभिनिविष्टाः लोभवशपरिग्रहग्रहिलाः 'परलोगम्मि' परलोके जन्मोन्तरविषये चकारात् इहलोके च ' नट्ठा' नष्टाः-विनष्टाः सुगतिनाशात् सत्पथभ्रंशाच, तथा ' तमं ' तमः अज्ञानान्धकारं पविट्ठा' प्रविष्टा 'महया मोहमोहि पूर्व में 'ये यथा कुर्वन्ति ' यह द्वार कहा अब सूत्रकार परिग्रह जिस प्रकार का फल देता है इस विषय को कहते हैं- परलोगम्मि य' इत्यादि । टीकार्थ- (लोभवससंनिविट्ठा जीवा ) लोभ के वश से परिग्रह के वशवतीं बने हुए जीव ( परलोगम्मि य नट्ठा) अपने परभव को भी नष्ट कर डालते हैं । अर्थात् उनका यह लोक तो नष्ट हो ही जाता है, साथ में परभव भी उनका बीगड़ जाता है । क्यों कि ऐसे जीवों को सुगति की प्राप्ति नहीं होती है, तथा इसभव में वे सत्पथ से विहीन बने रहते हैं। तथा (तमपविट्ठा ) अज्ञानरूप अंधकार में प्रविष्ट होकर ___ 20201 " ये यथा कुर्वन्ति " ते भातार १ युं वे सूत्रा२ परियड ॐ ३०॥ मापे छे, ते पाये थे-" परलोगम्मिय" त्याह. टी -" लोभवससंनिविद्वा जावा " खोलने अधीन. ५४२ परिवहन तामे. थये । “ परलोगम्मि य नट्ठा" पाताना ५२सपने ५ नष्ट ४२ નાખે છે, એટલે કે તેમને આ લેક બરબાદ થાય છે જ, પણ સાથે સાથે તેમને પરભવ પણ બગડે છે કારણ કે એવા અને સુગતિ પ્રાપ્ત થતી નથી, मने 24 सभा त। सन्माथी २ ५ २. तथा “ तमपविट्ठा ” मसान For Private And Personal Use Only Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे यमई' महामोहमोहितमतयः-महामोहेन-प्रकृष्टोदयचारित्रमोहनीयेन मोहिता मतिर्येषां ते तथोक्ताः, 'तमोसंधयारे' तमिस्रान्धकारे, तमिस्रा रजनी तद्वद् योऽन्धकारो आज्ञानान्धकारस्तस्मिन् 'तस थावरसुहुमबायरेसु' सस्थावरसूक्ष्मबादरेषु तया ' पज्जत्तमपज्जत्तग एवं जाव' पर्याप्तापर्याप्तक एवं यावत् अत्रयावच्छब्दादिदं संग्राह्यम्-पर्याप्तापर्याप्तकसाधारणप्रत्येकशरीरेषु तथा-अण्डज पोतज -रसज-जरायुज-संस्वेदजोद्भिजोपपातिकेषु नारकतिर्यगदेवमनुष्येषु यथासम्भवं जरामरणरोगबहुलेषु पल्योपमसागरोपमाणि यावत् आनादिकमनवदग्रं दीर्घमध्वानं चातुरन्तसंसारकान्तारं 'परियटुंति' पर्यटन्ति । ' एसो सो' एप सः (मयामोहमोहियमई ) उनको मति प्रकृष्ट चारित्र मोहनीय कर्म के उदय से मोहित बनी रहती है। इससे वे न तो एकदेशरूप चारित्र अंगीकार कर सकते हैं और न सकलरूप चारित्र ही । अतः ऐसे प्राणी (तमोसंधयारे ) रात्रि के गाढ अंधकार जैसे अज्ञानान्धकार में ही पड़े रहते हैं । (तसथावर मुहुमयायरेसु ) और प्रस, स्थावर, सूक्ष्म, बादर इनमें तथा ( पज्जत्तमपज्जत्तग) पर्याप्तक अपर्याप्तक ( एवंजाव) इसी प्रकार यावत् शब्द से साधारण प्रत्येक शरीर इन जीवों में तथा अंडज, पोतज, रसज, जरायुज, संस्वेदज, उद्भिज्ज जीवों में एवं औपपातिक देव और नारकियों में (परियति ) जन्म मरण करते हैं। स्पर्शन, रसना, घाण, चक्षु और कर्ण ये पांच इन्द्रियां जिन जीवों में होती हैं वे बस हैं। बस नामकर्म के उदय से यह पर्याय जीवों को प्राप्त होती है। सिर्फ एक स्पर्शन इन्द्रिय जिन जीवों में होती है वे ३पी ४२मा प्रवेश परीने “ महया मोहमोहिय मई " तेमनी मति प्रष्ट ચારિત્ર મહનીય કર્મના ઉદયથી મેહિત થયેલી રહે છે. તેથી તેઓ અંશતઃ ચારિત્ર અંગીકાર કરી શકતા નથી અને સકલરૂપ (સંપૂર્ણ) ચારિત્ર પણ अभी१२ री शत नथी. तेथी सेवा वो " तमोसधयारे" रात्रिना गाढ म५४२ २३॥ २॥ज्ञाना-५२मा ५४या २६ छ, “ तसथावरसुहमवायरेसु” भने त्रस, स्था१२. सूक्ष्म, अरे मामा, तथा "पज्जत्तमपज्जत्ता " पर्या, अपर्या, “एवं जाव' के प्रमाणे यावत् २०७४थी साथ।२९ प्रत्येशरीर योम'; तथा २५४, पात।, २०४, सयुभ, सहन, अEिare wवामा भने यो५५तिः ३२ मने नारीमामा "परियति" परिश्रम કર્યા કરે છે. જન્મ મરણ કર્યા કરે છે. જે જીવેને સ્પર્શન, રસના, વ્રણ, ચક્ષુ અને કર્ણ એ પાંચ ઈન્દ્રિયે હેય છે તેમને બસ કહે છે સ નામ કર્મના For Private And Personal Use Only Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ०५ सू०५ परिग्रहो यत्फलं ददाति तनिरूपणम् ५४३ स्थावर हैं । स्थावर नाम कर्म के उदय से हि यह पर्याय जीवों को प्राप्त होती हैं । द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रियतक के जीव ही त्रस माने गये हैं । सूक्ष्म नाम कर्म के उदय से जीव सूक्ष्म होता है। सूक्ष्म और बादर ये दो भेद एकेन्द्रिय जीवों के होते हैं। बादर नामकर्म के उदय से जीव बादर पर्यायवाला होता है। बादर नामकर्म के उदय से जीवों को ऐसे शरीर की प्राप्ति होती है कि जो शरीर चर्म चक्षुओं का विषयभूत ता है। इसके विपरीत सूक्ष्म नाम कर्म होता है। जिन जीवों की अपनी योग्य पर्याप्तियां पूर्ण हो गई होती हैं वे पर्याप्तक जीव हैं। तथा जिनकी ये पर्याप्तियां पूर्ण जब तक नहीं होती हैं वे अपर्यातक जीव हैं। जिन अनंत जीवों का एक ही साधारण शरीर होता है वे साधारण जीव हैं और जिन जीवों का भिन्न २ शरीर होता है वे वे प्रत्येक जीव हैं । साधारण नामकर्मके उदयसे जीव साधारण और प्रत्येक नामकर्मके उदय से जीव प्रत्येक शरीर होता है। अंडेसे जो जीव उत्पन्न होते हैं वे अंडज कहलाते हैं। जैसे मयूर, कबूतर, आदि जीव जो किसी प्रकार के आवरण सेवेष्टि न होकर ही पैदा होते हैं वे पोनज हैं जैसे हाथी शशक, नेवला, चूहा शेर वगैरह जीव | आसव अरिष्ट तथा विगडे हुए आचार, मुरब्बा ઉદયથી જીવાને તે પર્યાય ( ચેાનિ ) પ્રાપ્ત થાય છે. જે જીવાને ફક્ત એક સ્પન ઈન્દ્રિય જ હોય છે, તેમને સ્થાવર કહે છે. સ્થાવર નામ કર્મના ઉદયથી જ તે પર્યાય જીવેાને પ્રાપ્ત થાય છે. દ્વીન્દ્રિયથી લઈ ને પચેન્દ્રિય સુધીના જીવાને જ ત્રસ ’ માનવામાં આવે છે. સૂક્ષ્મ નામ કર્મના ઉદયથી જીવ સુક્ષ્મ થાય છે. સૂક્ષ્મ અને પાદર એ બે ભેદ એકેન્દ્રિય જીવેાના હોય છે. માદર નામકર્મના ઉદયથી જીવ ખદર પર્યાયવાળા થાય છે. ખાદર નામ કમના ઉદયથી જીવાને એવા શરીરની પ્રાપ્તિ થાય છે કે તે શરીરો ચ ચક્ષુએ વડે જોઈ શકાય છે. તેનાથી ઉલ્ટુ સૂક્ષ્મ નામકમ છે જે જીવાની યાગ્ય પર્યાસિયા પૂરી થઈ ગઇ હોય છે તે જીવા પર્યાપક કહેવાય છે તથા તેમની તે પમિયે જ્યાંસુધી પૂરી થતી નથી ત્યાંસુધી તેઓ અપર્યાપ્તક જીવા છે. જે અનંત જીવાનું એકજ સાધારણ શરીર હોય છે, તે સાધારણ જીવા છે, અને જે જીવાનાં ભિન્ન ભિન્ન શરીર હાય છે, તે પ્રત્યેક જીવ કહેવાય છે. સાધારણ નામ કર્મના ઉદયથી જીવ સાધારણ શરીર થાય છે અને પ્રત્યેક નામકર્મીના ઉદ્મયથી જીવ પ્રત્યેક શરીર થાય છે. ઈંડાંમાંથી ઉત્પન્ન થતા જીવાને અંડજ કહે છે, જેવાં કે મેર કબૂતર આદિ જીવ જે જીવે કાઈ પણ પ્રકારના આવરણથી ઢંકાયા વિના જ જન્મે છે-એટલે કે બચ્ચાં રૂપે જન્મે છે. તેમને પાત જ કહે છે, જેમકે हाथी, ससतुं, नोजिया, उधर, सिंह वगेरे लवे. आसव, अरिष्टो, मगरेसां C For Private And Personal Use Only Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -- - - प्रश्नव्याकरणसूत्रे आदिमें जो जीव फुल न आदि उत्पन्न होते रहते हैं वे रसज जीव हैं। जो जीव जरायुसे वेष्टित होकर उत्पन्न होते हैं वे जरायुज हैं जैसे मनुष्य बंदर ओदि जीव । जरायु एक प्रकारका जाल जैसा आचरण होता है, जो रक्त और मांस से भरा रहता है। इस में पैदा होने वाला बच्चा लिपटा रहता है। जरायुज, अंडज और पोतज इन जीवों के गर्भ जन्म होता है। जो जीव पसीने से उत्पन्न होते हैं वे संस्वेदज हैं जैसे जू आदि जीवाजो जमीनको फोड़कर उत्पन्न होते हैं वे उद्भिज्जजीव हैं । जैसे शलभ (पतंगी या तीड) आदि जोव। देव और नारकी ये उपपात जन्मसे उत्पन्न होते हैं। इस कथनसे लियंचगति, मनुष्य गति,देवगति और नरक गतिइन चारो गतियों के जीवोंका ग्रहण हो जाता है। इन गतियों के जीवों में यथासंभव जरा, मरण और रोग की बहुलता रहती है। इन गतियों में जीव पल्योपमप्रमाण एवं सागरोपम प्रमाण काल तक परिभ्रमण किया करते हैं। परिभ्रमणका नाम ही संसार है। यह संसार कान्तार (अटवी) अनादि अनंतस्वभाववाला है। उत्सर्पिणी अवसर्पिणीरूपकाल ही इसमें बड़े लम्बे चौडे मार्ग हैं। तथा यह चतुर्गतिरूप है। ऐसे इस संसाररूप गहन वन में यह जोव परिग्रह के उपार्जन जनित पापसे पल्योपम तथा અથાણાં મુરબ્બા આદિમાં જે ફૂગ આદિ ઉત્પન્ન થાય છે તે જ જી કહે, વાય છે. જે જ જરાયુથી વીંટળાઈને પેદા થાય છે તેમને જરાયુજ કહે છે. જેમકે મનુષ્ય વાંદર આદિ છે. જરાય એક પ્રકારનું જાળ જેવું આવરણ હોય છે, જે રક્ત અને માંસથી ભરેલા રહે છે, તેમાં જન્મનારૂ બાલક વિટળાઈ રહે છે. જરાયુજ, અને પિતજ જીવને જન્મ ગર્ભમાં થાય છે, જે છ પરસેવાથી પેદા થાય છે તેમને સંવેદજ કહે છે, જેમકે જ આદિ છે. જે જ જમીનને ખેદીને ઉત્પન્ન થાય છે તેમને ઉદ્વિજ જીવે કહે છે જેમ કે તીડ આદિ જી. દેવ અને નારકી એ બંને ઉપપાત જન્મથી ઉત્પન્ન થાય છે. આ કથનથી તિર્યંચગતિ, મનુષ્યગતિ દેવગતિ, અને નરકગતિ એ ચારે ગતિના છ ગ્રહણ થઈ જાય છે, તે ગતિના જીવોમાં યથા સંભવ જરા રોગ અને મરણની અધિકતા રહે છે, તે ગતિમાં જીવ પપમ પ્રમાણ અને સાગરોપમ પ્રમાણ કાળ સુધી પરિભ્રમણ કર્યા કરે છે. પરિભ્રમણ એટલે જ સંસાર, તે સંસારકાન્તાર અનાદિ અનંત સ્વભાવવાળે છે. ઉત્સર્પિણી અસપિણીરૂપ કાળ જ જેમાં ઘણા લાંબા પહોળા માર્ગો છે. તથા તે ચારગતિરૂપ છે. એવા આ સંસાર રૂપ ગહન વનમાં આ જીવ પરિ. ગ્રહને કારણે ઉપાર્જિત પાપથી પોપમ તથા સાગરોપમ પ્રમાણ કાળ સુધી For Private And Personal Use Only Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टोका अ० ५ सू० ५ परिग्रहो यत्फलं ददाति तन्निरूपणम् ५१५ 'परिग्सहस्स ' परिग्रहस्य फलविवागो' फलविपाकः इहलोइओ' इहलौकिका, मनुष्यभवापेक्षया, 'परलोइओ' पारलौकिका, नरकतिर्यग्गत्याद्यपेक्षया 'अप्पसुहो' अल्पसुखः-अल्पंसुखं यस्मिन् स तथोक्तः, 'बहुदुक्खो' बहुदुःखः-बहूनि दुःखानि यस्मिन् स तथोक्तः, 'महब्भओ' महाभयः 'बहुरयप्पगाढो' बहुरजः प्रगाढा बहुरजः -प्रभूतकर्म प्रगाढं-दुर्भो यस्मिन् स तथोक्तः, दारुणो= रौद्रः, 'ककसो' कर्कशः कठिनः, 'अायो' अशातः-अशातवेदनीयरूपः अस्ति, एष परिग्रहः ‘वाससहस्सेहि' वर्षसहस्रः = अनेकपल्योपमसागरोपमकालैरुपभोगेन 'मुच्चइ ' मुच्यते । 'न अवेयइत्ता अत्थिहु मोक्योत्ति ' न अवे दयित्वा ऽस्ति खलु मोक्षः परिग्रहफलमनुपभुज्य नास्ति मोक्षः 'त्ति एवमासु' सागरोपम प्रमाणकालतक घूमना रहता है। ( एसो सो परिग्गहस्सफलविवागो) परिग्रह का यह फलविपाक ( इहलोइओ) मनुष्यभव की अपेक्षा तथा (परलोइओ) परलोक-नरक-तिर्यंच गति की अपेक्षा (अप्पसुहो) अल्पसुख वाला तथा (बहुदःखो) बहु दुःखवाला है। ( महमओ) महाभयंकर है । (बहुरयप्पगाढो) इसमें जो प्रभूत कर्मरूप रज का बंध होता है वह प्रगाढ-बड़ी मुश्किल से दूर किया जाय, ऐसे होता है। तथा ( दारूणो ) यह फलरूप विपाक दारूण-भयानक (ककसो) कर्कश-कटिन एवं(असाओ अशात अशात वेदनीयरूप होता है। (वासस. हस्सेहिं)इसी परिग्रह रूप पाप का फल अनेक पल्योपम एवं मागरोपम प्रमाण कालतक भोगने से (मुच्चइ) छूटता है। (अवेइत्ता) विना इसका फल भोगे उन जीवों को (न अस्थि मोक्खो ) मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती मन्या ४२ छ. “ एसो सो परिग्गहस्स फलविवागो” ! ! ५सवि. पा४ " इहलोइओ" मनुष्य अपनी अक्षा तथा :" परलोइओ" ५४ नति भने तिय यातिनी अपेक्षा " अप्पसुहो" भ६५सुम पाणे! तथा "बहुदुक्खो" पधारे दुःभवाण छ, “ महन्भो " मा मय'४२ छ, “ बहुरयप्पगाढो" तेभा २ विधुर भ३५ २०४ने। मध डाय छे ते ultd-मोड! भुवी निवा! ४४य तेवा-डाय छ, तथा " दारुणो" ते ५१३५ qिus हा३-मय'४२ “ कक्कसो" ४४१-6न, भने " असाओ" शत-शत वहनीय३५ छाय छे. “ वाससहस्से हिं " ते परिब ३५ ५।पर्नु ३॥ मने पक्ष्ये:५म भने सा॥२॥५म प्रभाए सुधा सागपायी “मुच्चइ” तमाथी टी श 2. “ अवेयइत्ता " तेनु ३० लाय. विन वाने “न अत्थी मोक्खो" भाक्षना प्राति यती नथा. “ति एवमासु" ते प्रतुं ४थन For Private And Personal Use Only Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे इत्येवमूचुस्तीर्थककरगणधरादयः, तथाः' कहेसिय' कथितवांश्च नायकुलनंदणो' ज्ञाककुलनन्दनः 'महप्पा' महात्मा 'जिणो' जिनः 'वीरवरनामधेजो' वीरवरनामधेयः । 'परिग्गहस्स' परिग्रहस्य ' फलविवागं' फलविपाकम् । ' एसो सो परिगहो पंचमो' एष सः पूर्वोक्तप्रकारः परिग्रहः पञ्चमः 'नियमा' नियमाद् विज्ञेयः, कथंभूतो विज्ञेयः ? इत्याह- नाणामणिकणगरयणमहरिह०' नानामणिकनकरत्नमहाई ०. 'जाव ' यावत् , अत्र यावच्छन्दादध्ययनप्रारंभपाठः, 'हिययदहओ' इत्यन्तं यावत्संग्राह्यः, 'इमस्स' अस्य प्रत्यक्षीभूतस्य ' मोक्खवरमुत्तिम. ग्गस्स' मोक्षवरमुक्तिमार्गस्य 'फलिहभूओ' परिघभूतोऽर्गलासदृशोऽस्ति ॥१॥ ॥ चरमम् अधर्मद्वारं समाप्तम् ॥ है। (ति एवमासु ) ऐसा इस प्रकार का कथन तीर्थकर एवं गणधरादिक देवों का है। तथा उन्हीं के कथनानुसार ( नायकुलनंदणो) ज्ञातकुलनंदन ( महप्पा ) महापुरुष (जिणो वीर वर नामधेज्जो ) प्रभु जिनेन्द्र देवने भी ( परिग्गहस्स ) परिग्रह का ( फलविवागं ) ऐसा ही फलरूप विपाक ( कहेसिय ) कहा है । ( एसो मो) इस तरह यह (परिगहपंचमो ) पंचम परिग्रह (नियमा ) नियम से (नाणामणिकणग रयणमहरिह० जाव) नानामणि कनक रत्न आदिरूप है। यहां पर यावत् शब्द से इस द्वार को प्रारंभ करते समय जो पाठ 'हिययदइओ' तक इस परिग्रहरूप वृक्ष के विषय में कहा है वह सब गृहीत किया गया है। यह परिग्रह (इमस्स मोक्खवरमुत्तिमग्गस्स) इस मोक्ष का जो निलोभतारूप श्रेष्ठ मार्ग है उसका (फलिहभूओ) अर्गला रूप है । सू०५॥ ॥परिग्रह नामका यह अन्तिमद्वार समाप्त हुआ। ताय । भने ४५२ मा वार्नु छ. तया तेमना ४थन प्रमाणे १ "नायकुलनंदणो " ज्ञात नहन “महप्पा " महापुरुष, “जीणो-वीरवरनामधेज्जो" प्रभु मिनेन्द्र देव पाणु " परिग्गहस्स' परियाउने। " फलविवागं" मेयो १५ ३वा " केहसिय" डा छे. “एसो सो ” मा शत ते “ परिग्गहो पंचमो” पायी परिश्र मास “ नियमा” नियमयी “नाणामणिकणगरयण महरिह० जाव". विविध मण, ४४, २त्न मा ३५ छ. मी यावत् शथी बारना प्रा२ ले " हिययदइओ" सुधीनारे ५।परिय७३५ वृक्षना વિષયમાં કહેવામાં આવેલ છે તે આ પાઠ ગ્રહણ કરાયેલ છે. આ પરિગ્રહ " इमस्स मोस्खवरमुत्तिमग्गस्स" भाक्षरे निमिता श्रेष्ठ भाग छ. तेना "फलिह भूओ" मानिया समान छे ॥ १-५॥ - પરિગ્રહ નામનું આ છેવટનું દ્વાર સંપૂર્ણ થયું ! For Private And Personal Use Only Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० ५ सू० ५ अध्ययनोपसंहारः છે. उक्तास्रवपञ्चक निगमनाय गाथापञ्चकमाह ' एएहिं ' इत्यादिमूलम्-एएहिं पंचहिं आसवेहिं रयमाचिणित्तु अणुसमयं । चउविहगइ परतं, अणुपरियति संसारं ॥ १ ॥ सव्वगई पक्खंदे, काहिति अणंतगे अकयपुण्णा । जेय न सुणंति धम्मं, सोऊण य जे पमायंति ॥२॥ अणुसिटुंपि बहुविहं, मिच्छद्दिट्टी य जे नरा अबुद्धीया। बद्धनिकाइयकम्मा, सुगंति धम्मं न य करेंति ॥३॥ किं सक्का काउंजे, जं नेच्छइ ओसहं मुहा पाउं । जिणवयणं गुणमहुरं, विरेयणं सव्वदुक्खाणं ॥ ४ ॥ पंचेव य उज्झिऊणं, पंचेव य रक्खिऊण भावेणं। कम्मरयविप्पमुक्का, सिद्धिवरमणुत्तरं जंति ॥५॥सू०६॥ ॥ इय पंच आलवदारा समत्ता ॥ छाया-एतैः पञ्चभिरास्रव रज आचित्यानुसमयम् । चतुर्विधातिपर्यन्तमनुपर्यटन्ति संसारम् ॥ १॥ सर्वगतिपस्कन्दात् , करिष्यन्ति अनन्तकान् अकृतपुण्याः । ये च न श्रृण्वन्ति धर्म, श्रुत्वा च ये प्रमाद्यन्ति ॥ २॥ अनुशिष्टमपि बहुविधं, मिथ्यादृष्टिका ये च नरा अबुद्धिकाः। बद्धनिकाचितकर्माणः, श्रृण्वन्ति धर्म न च कुर्वन्ति ॥ ३ ॥ किं शक्ताः कत्तुं ये, यन्नेच्छन्ति औषधं मुधा पातुम् । जिनवचनं गुणमधुरं, विरेचनं सर्वदुःखानम् मे ४ ॥ पञ्चैव च उज्झित्वा, पश्चैव च रक्षित्वा भावेन । कमेरजो विषमुक्ताः, सिद्धिवरामनुत्तरां यान्ति ॥ ५ ॥ टोका-एतैः = अनन्तरोपवर्णितस्वरूपैः पञ्चभिः = पश्चसंख्यकैरास्रवैः= प्राणातिपातदिरूपैः ‘रयं ' रजा ज्ञानावरणीयादि कर्ममलम् , आत्मनो मलिनकारकत्वात् 'अणुसमयं ' अनुसमयं = प्रतिक्षणम् ‘आचिणित्तु' आचित्य अब सूत्रकार उक्त इन पांच आस्रवों के विषय में पांच गाथाओं द्वारा संक्षिप्तरूप से उपसंहार करते हुए अपने विचार प्रदर्शित करतें હવે સૂત્રકાર ઉપરોક્ત પાંચ આસ વિષે પાંચ ગાથાઓ દ્વારા સંક્ષિપ્ત For Private And Personal Use Only Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५४८ प्रश्नव्याकरणसूत्रे आत्मप्रदेशैः सहोपचित्य 'चउविहगई परंत' चतुर्विधगतिपर्यन्तम् , चतुर्विधा= चतुःपकारा गतिः-नरकादिरूपा पर्यन्तो विभागो यस्य स तं तथोक्तं संसारम् 'अणुपरियमृति ' अनुपर्यटन्ति-परिभ्रमन्ति ॥ १॥ ये च प्राणिनोधर्म नश्रृण्वन्ति, तथा ये च श्रुत्वापि प्रमाद्यन्ति-प्रमादं कुर्वन्ति ते उभयेऽपि ' अक्रयपुण्णा' अकृतपुण्या:-याणातिपातादिपापपरायणत्वात् हीनपुण्या 'अनंतए अनन्तकान् असन्तान् 'सबगइपक्खंदे ' सर्वगतिपस्कन्दान्= नरकनिगोदादि चतुर्गतिभ्रमणानि 'काहिति' करिष्यन्ति ॥२॥ __ ये च मिथ्यान्टिकाःअबुद्धिकाः विवेकबुद्धिविकलाः बद्धनिकाचितकर्माणः हैं- 'एएहिं , इत्यादि। (एएहिं ) इन हिंसा आदिरूप ( पंचहिं )पांच ( आसवेहिं ) आसवों के आचरण करने से जीव ( अणुसमयं ) प्रतिक्षण (रयं आचिणित्तु) ज्ञानावरणीय आदि कर्ममल का बंद करके-आत्मप्रदेशों के साथ एक क्षेत्रावगाहरूप संबंध करके ( च उविहगइपेरंतं ) नरकादिरूप चार प्रकारकी गतिवाले (संसारं ) संसार में (अणुपरियति ) परिभ्रमण किया करते हैं ॥ १।। (जे य न सुगंति धम्मं ) जो प्राणी श्रुतचारित्ररूप धर्म का श्रवण नहीं करते है तथा (सोऊग य जे पमायंति ) जो सुनकर के भी प्रमाद पतित होते रहते हैं, ये दोनों ( अकयपुण्णा ) प्राणातिपात आदिकों में परायण रहने के कारण हीन पुण्यवाले हैं । (अनंतए सव्व. गईपक्खंदे काहिंति ) अतः अनंतरूप में नरकनिगोद आदि चारोगतियों में परिभ्रमण करते रहेंगे ॥ २ ॥ ( जे नरा निच्छादिट्ठी अबुद्धीया मनुउपसा मीने पोताना वियारे शारे छ-" ए ए हिं" त्या ___“ एएहि " डिंसा दि ३५ " पंचहिं " ते पाय “आसवेहि " मानवाने माय२॥थी । “अणुसमयं " प्रत्ये: क्षणे “ रयं आचिणित्तु " ज्ञानाવરણીય આદિ કર્મમલને બંધ બાંધીને-આત્મ પ્રદેશની સાથે એક ક્ષેત્રાવગાહરૂપ सम'५ ४0 " चउविहगइपेरं" न२४६ ३५ या२ गति वा “संसारं" ससारमा “ अणुपरियटुंति" परिभ्रम ४ा ४२ छे ॥१॥ ___जेय न सुणंति धम्म " 2 0 श्रुतयारित्र३५ मर्नु अपए ४२di नथी, तथा “ सोऊण य जे पमायति " Airlन परे प्रमामा मेला २ छ, ते मन्ने " अकयपुण्णा" प्रातिपात माहिमा बीन २२पाने १२२ पुन्यहीन डाय छ, “अनंतए सव्वगई पक्खंदेकाहिंति " तेथी मनन्त३थे न२કનિદ આદિ ચારે ગતિમાં પરિભ્રમણ કર્યા કરશે. રા For Private And Personal Use Only Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका २०५ सू० ५ अध्ययनोपसंहारः बद्ध = स्वात्मप्रदेशेषु संश्लेषितं, निकाचितं दृढ़त्तरं बद्धम् - उपशमनादिकरणानामविषयीकृतं कर्म यैस्ते तथोक्ताः, नराः गुरुणा बहुविधम् अनेकमकारम् विविधहेतुदृष्टान्तपूर्वकम् अनुशिष्टमपि = उपदिष्टमपिध में श्रुतचारित्रलक्षणं श्रृण्वन्ति किन्तु न च कुर्वन्ति न च समाचरन्ति ॥ ३ ॥ ५४२ " जे ' ये मनुष्याः सर्वदुःखानां = जन्मजरामरणादिरूपाणां 'विरेवणं 'विरेचनं=कोष्ठशुद्धिरूपविरेचनभिवविरेचनं निवारकं ' गुणमहुरं ' गुणमधुरं गुणैः= आत्मविकासिगुणैर्मधुरं मिष्टम्, एत्तादृशं 'जिणवयणं 'जिनवचनं वचनं - जिनवचनरूपम् ' आसहं ' औषधं 'मुहा ' मुधा = उपकारबुद्ध्या ' जं ' यत् ' नेच्छइ' नेच्छन्ति =नपिन्ति ते ' किं काउं ' किं कर्त्तुं 'सका ' शक्ता: =समर्था भवन्ति यादृष्टि होते हैं विवेक बुद्धि से विहीन होते हैं तथा (बद्धनिकाइयकम्मा) निचित कर्मों का बंध किए हुए होते हैं, ऐसे मनुष्य बहुविहं (अणुदिपि) गुरुओं द्वारा विविधहेतु तथा दृष्टान्त आदिसे बहुत प्रकार से सामझाये गये भी श्रुत चारित्ररूप (मं) धर्मको (सुगंति) सुन तो लेते हैं। परन्तु (नय करेंति) उसे अपने आचरण में नहीं लाते हैं ||३|| रोगी होकर भी जो रोग निवारणार्थ औषधि का पान नहीं करते हैं तो जैसे वे अपने रोग को दूर करने में समर्थ नहीं हो सकते हैं इसी तरह ( ये ) जो संसारी प्राणी (सव्व दुक्खाण विरेयणं (जरा, मरण आदि समस्त दुःखों को जड़मूल से उखाड देने वाले तथा (गुणमदुर) आत्मविकासी गुगो से मीठे ऐसे (जिगवणं ) जिनेन्द्र प्रभु के वचन रूप (ओसह ) औषध को (मुहा) उपकार बुद्धि से ( पाउं नेच्छइ ) नहीं पाते हैं वे ( कि काउंसक ) कुछ भी करने के लिये समर्थ नहीं हो सकते हैं । For Private And Personal Use Only << " जे नरा मिच्छादिट्टी अबुद्धीया " के मनुष्यो मिथ्यादृष्टि बाजा होय छे, विवेकुमुद्धि विनाना होय छे तथा " बद्धनिकाइयकम्मा " निश्ायित अर्माना अंध वाणा होय छे, मेवा मनुष्यो " बहुविहं अणुदिट्ठपि " गुरुभो દ્વારા વિવિધ હેતુ તથા દૃષ્ટાંતો આદિ દ્વારા બહુજ સમજાવવામાં આવે છે छतां श्रुतथास्त्रि३५ " धम्मं " धर्मनु “ सुणंति " श्रवणु तो मेरे छे, पशु नय करेंति " पशु तेने पोताना साथमा उतरता नथी ॥३॥ જેમ રાગી માણસ રોગના નિવારણ માટે ઔષધિ ન પીવે તે તેને રોગ દૂર કરવાને શક્તિમાન થતા નથી, એ જ પ્રમાણે “ચે ” જે સંસારી " सव्वदुक्खाणविरेयणं " ४रा, भरण आदि सगणां हुने निक्षूण डरनार तथा " गुणमहर" आत्मविअसी गुणोथी मधुर मेषां " जिणवयणं " किनेन्द्र भगवाननां पथन३५ “ ओसहं " औषधने "मुहा " ७५२ युद्धिथी “ पाउमच्छर " आप्त ईश्ता नथी, तो "कि काउंसका " परवाने समर्थ Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे अपि तु नैव किमपि । ये औषधं न पिवन्ति ते रोगनिवारणे कथमपि समर्था न भवन्तीति भावः । सूत्रे ' नेच्छइ ' इत्यत्रैकवचनमार्षत्वात् ॥ ४॥ भावेन अन्तःकरणेनः पश्चैव च प्राणातिपातायावद्वाराणि 'उझिऊणं' उज्झित्वा-त्यक्त्वा तथा पञ्चैव च प्राणातिपातादिविरमणलक्षणानि संवरद्वाराणि 'रविवऊण' रक्षित्वा-पालयित्वा कमरजोविषमुक्ताः सन्तः सिद्धिवरां-सिद्धीनां मध्ये वरा श्रेष्ठा सकलकर्मक्षयलभ्या भावसिद्धिस्तां तथोक्ताम् , अतएव अनुत्तरां सर्वोत्तमा 'जंति' यान्ति-अपुनरावृत्तिं सिद्धिगति गच्छन्तीत्यर्थः ॥५॥ इति श्रीविश्वविख्यात-जगवल्लभ-प्रसिद्धवाचकपञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापक-प्रविशुद्धगधगद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-बादिमानमर्दक-श्रीसाहूछत्रपतिकोल्हापुर राजपदत्त-'जैनशास्त्राचार्य' पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु-बालबह्मचारि -जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकरपूज्यश्री-घासीलाल - प्रतिविरचितायां दशमाङ्गस्य श्री प्रश्नव्याकरणमूत्रस्य सुदर्शन्याख्यायां व्याख्यायां हिंसादिपञ्चासत्रद्वाररूपः प्रथमो विभागः समाप्तः ॥ १॥ विरेचन औषधि जिस प्रकार कोष्ठ की शुद्धि कर देती है उसी प्रकार प्रभु के वचनरूपःऔषध भी कोष्टरूप आत्मा की शुद्धि विधायक होती हैं, इसलिये इन्हें विरेचक चर्ण के जैसा कहा है ॥ ४ ॥जी भव्य जीव (भावेणं पंचव उज्झिऊण) भावपूर्वक इन पूर्वोक्त प्राणातिपात आदि पांच आस्रव द्वारों को छोड़ करके और (पंचेव रक्खिऊण) प्राणातिपातोदिविरमणरूप पांच संवरद्वारों पाल करके (कम्मरयविप्पमुका) कर्मरूप रज से सर्वथा रहित हो जाते हैं, वे ( अनुत्तर सिद्धवर जति) अपुनरावृत्तिरूप सर्वोत्तम भावसिद्धि सिद्रिगति-को प्राप्त करते हैं ॥२॥ ॥ये पांच आसव- 'अधर्म' द्वार समाप्त हुए । || प्रश्नव्यारण मूत्र का प्रथम विभाग समाप्त ।। થઈ શકતા નથી જેમ વિરેચન ઔષધિ કોઠે સાફ કરી નાખે છે તેમ પ્રભુનાં વચનરૂપી ઔષધ પણ આત્મ રૂપી કોઠાની શુદ્ધિ કરનાર છે, તેથી તેને વિરેચન यूष समान ४ छ॥४॥ २ सय ४ो " भावेणं पंचेव उज्झिऊणं" मा ५४ ते हित प्राशातिपात माहि पांय मास वाशने छोडीने, “ पंचेव रखिऊण " प्रातिपाताल विरभए।३५ पाय सवारीनुं पासन शने “ कम्मरयविष्पमुक्का" ३५ २०४थी तदन २डित य छे. तेम। " अनुत्तर सिद्धिवर'जति " જ્યાંથી આ સંસારમાં પાછા આવવું પડતું નથી એવું સર્વોત્તમ ભાવસિદ્ધિસિદ્ધિગતિ–મેક્ષ-પ્રાપ્ત કરે છે, પા છે પાંચ આઅવદ્વાર સમાપ્ત છે છે પ્રક્ષવ્યાકરણ સૂત્રને પહેલે વિભાગ સમાપ્ત For Private And Personal Use Only Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -द्वितीयो भाग:-- अत्र प्रथमभागे पश्चास्रवा वर्णिताः, द्वित्तीयभागे तु तत्प्रतिपक्षभूतान् पञ्च संवरान भिधित्सुः। श्रीसुधर्मास्वामी तेषु प्रथममहिंसालक्षणसंवरद्वारं विवृण्वन् शिष्यमामन्त्र्येदमाह-'जम्बू ' इत्यादिमूलम् जंबू ! एत्तो संवरदाराइं पंच वोच्छामि आणुपुव्वीए । जह भणियाणि भगंवया, सव्वदुक्खविमोक्खणट्टाए ॥१॥ पढम होइ अहिंसा १, बितियं सच्चवयणं इति पण्णत्तं । दत्तमणुन्नाय३ संवरो य बंभचेर५ मपरिग्गहत्तं५ च ॥२॥ तत्थ पढमं अहिंसा, तसथावरसब्बभूयखेमकरी । तीसे सभावणाए किचिवोच्छं गुणुदेसं ॥३॥ ताणि उइमाणि सुव्वय ! महव्वयाई लोगहियसव्वयाई सुयसागरदेसियाइं तवसंजममहव्वयाइं सीलगुणवत्वयाई सच्चज्जकव्वयाइं नरगतिरियमणुयदेवगइविवजगाई सम्व. जणसासणगाई कम्मरयविदारगाइं भवप्लबविणासगाई दुहसयीवमोयगाई सुहसयपव्वत्तगाइं कापुरिसदुरुत्तराई सप्पुरिसनिसे वियाइं निव्वाणगमणमग्गसग्गप्पणायगाई संवरदाराइं पंच कहियाणि भगवया ॥ सू० १॥ द्वितीय विभाग प्रारंभप्रथम विभाग में पांच आस्रवों का वर्णन किया गया है। अब इस द्वितीय विभाग में इन पांच आस्रवों के प्रतिपक्षभूत पांच संवरों को कहने की कामनावाले श्री सुधर्मास्वामी सब से पहिले उनमें से अहिंसालक्षण संवरद्वार का विवेचन करने के निमित्त जबूस्वामी को मीनभागપહેલા વિભાગમાં પાંચ આવોનું વર્ણન કરાયું છે. હવે આ બીજા વિભાગમાં તે પાંચ આસ્રવોથી વિરૂદ્ધના પાંચ સંવરો વિષે વર્ણન કરવાની ચ્છિાવાળા શ્રી સુધર્માસ્વામી સૌથી પહેલાં તેઓમાંના અહિંસાલક્ષણ વરદ્વારનું For Private And Personal Use Only Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ५५२ टीका - जंबू' इत्यादि -- हे जम्बूः । - इतः परद्वाराणि पञ्च वक्ष्यामि आनुपूर्व्या यथा भणितानि भगवता सर्वदुःखविमोक्षणार्थाय ॥ १ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir C ari refसा, द्वितीयं सत्यवचनमिति मज्ञतम् । दनुज्ञातसंवरथ, ब्रह्मचर्यपरिग्रहत्वं च ॥ २ ॥ तत्र प्रथममहिंसा सस्थावर सर्वभूतक्षेमकरी । तस्या सभावनायाः, किञ्चिद् वक्ष्यामि गुणोद्देशम् || ३ || इति छाया । तत्र हे जम्बूः । इतः आस्रवद्वारकथनानन्तरं ' आणुपुच्चीए' आनुपूर्व्याअनुक्रमेण पञ्च संरदाराई ' संवरद्वाराणि, संत्रियते = निरुध्यते कर्म कारणं प्राणातिपातादिकं येनात्मपरिणामेन स संवरस्तस्य द्वाराणि उपायभूतानि = अहिंसादीनि 'बोच्च्छामि' वक्ष्यामि कथयिष्यामि । नाहं स्वयुद्धया वक्ष्यामि किन्तु भगवता महावीरेण सर्वप्राणिनां सम्यदुक्खविमोक्खगडाए सर्वदुःख + प्रश्नव्याकरणसूत्रे = For Private And Personal Use Only , संबोधन करके प्रथमसूत्र कहते हैं - 'जंबू ' इत्यादि० । टीकार्थ - (जंबू ) हे जंबू ! (एत्तो ) आनवद्वार कहने के बाद मैं अब ( आणुपुच्चीए) अनुक्रम से ( पंच संवरदाराई ) पांच संवादारों को ( वोच्छामि ) कहूंगा । जिस आत्मपरिणाम से कर्मों के आस्त्रव के कारणभूत प्राणातिपातादिक परिणाम रोक दिये जाते हैं उसका नाम संबर है। उसके उपायभूत द्वार अहिंसादिक परिणाम हैं। इन्हीं परिणामों का नाम संवर द्वार है । मैं इन संवरद्वारों का कथन अपनी बुद्धि के अनुसार नहीं करूँगा - किन्तु ( भगवया ) भगवान् महावीर ने (सव्वदुक्ख विमोक्खणट्टाए) समस्त प्राणियों के दुःखो को दूर करने के વિવેચન કરવાને માટે જખૂસ્વામીને સમેષીને પહેલું સૂત્ર કહે છે 'जंबू " " छत्यादि 16 (1 'जंबू " डे ४५ ! " एत्तो" भास्त्रवद्वार विषे वर्षान " पछी हवे हु "आणुपुत्रीए ” અનુક્રમે पंच संवरदाराई " पांयस वर द्वारा "वोच्छामि ” કહીશ. જે આત્મપરિણામથી કર્મોના આસ્રવના કારણભૂત પ્રાણાતિપાતાકિ પરિણામને રોકવામાં આવે છે તેનું નામ સંવર છે. તેના અહિંસા વગેરે પિરણામ છે. એ જ પિરણામેાને સંવરદ્વાર संवरद्वारोनुं वर्षान भारी मुद्धि प्रभा उरीश नहीं - याशु "भगवया महावीरे “ सब दुक्खविमोक्खणट्टाए " समस्त प्राणीमोनां हुो दूर उखाने ઉપાયરૂપ દ્વારા કહે છે. હું તે " ભગવાન Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra "" सुदर्शिनी टीकाअ० १ सू० १ पञ्चमसंवरद्वारनामानि ५५३ विमोक्षणार्थाय ' जह' यथा यद्रपाणि भणितानि तथैव वक्ष्यामि ॥ १ ॥ पंच संवर द्वाराणि वक्ष्यामीति प्रतिज्ञाय तन्नामान्याह - ' पढमं होइ अहिंसा' इत्यादि । पञ्चवर द्वारेषु' पढमं प्रथममहिंसा संवरद्वारं भवति, द्वितीयं सत्यवचननामकं, तृतीयं दत्तानुज्ञातग्रहणलक्षणं, चतुर्थ ब्रह्मचर्यं च पुनः पञ्चममपरिग्रहत्वं संवरद्वारम् ||२|| पञ्च संवरद्वारनामान्युक्तानि संप्रति प्रथममहिंसासंवरद्वारं वर्णयितुमाह - ' तत्थ पढमं अहिंसा' इत्यादि 4 , तत्थ तत्र संवरपञ्चकमध्ये प्रथमं संवरद्वारमहिंसा भवति, साहि 'तसथावरसन्भूय खेमकरी सस्थावर सर्वभूतक्षेभकरी सस्थावरादि सर्व लिये (जह ) जिस रूप से इनका ( भाणियाणी ) प्ररूपण किया है उसी तरह से मैं इनका प्ररूपण - वर्णन करूंगा ॥ १ ॥ अब वे पांच संवर द्वार कौन २ से हैं ? सूत्रकार उनका क्रमशः नामनिर्देश करने के लिये कहते हैं-' पढमं होइ अहिंसा' इत्यादि । उन पांच संवर द्वारों में से ( पढ़मं ) सब से पहिला संवर द्वार (अहिंसा होइ ) अहिंसा है | ( बितियं ) दूसरा संवर द्वार ( सच्चवणं) सत्यवचन है ( दत्तमणुन्नाय ) तीसरा संवर द्वार दन्तानुज्ञातग्रहण है। चौथा संवर द्वार ( बंभचेरं) ब्रह्मचर्य है । और पांचवा संवर द्वार ( अपरिग्गहत्तं ) अपरिग्रहत्व है || २ || इस प्रकार पांच संवर द्वारों के नाम कह कर अब सूत्रकार सर्वप्रथम अहिंसा रूप संवर द्वार को वर्णन करने के विये तीसरी गाथा कहते हैं - ( तत्थ ) इन पांच संवर द्वारों के बीच में ( पढमं ) पहिला संवरद्वार ( अहिंसा) अहिंसा भाटे " जह" ने शते तेनुं " भाणियाणि " પ્રરૂપણ કર્યું છે. એજ રીતે હું तेनुं प्रयाशु-वार्जुन उरीश. ॥१॥ હવે તે પાંચ સ'વરદ્વાર કયાં કયાં છે? તેના અનુક્રમે નામ નિર્દેશ उखाने भाटे सूत्रअर उडे छे - " पढमं होइ अहिंसा " इत्यादि ते पांथ संपद्वारोभां " " पढमं " सौथी पहेतु संवरद्वार " अहिंसा l'," fafazi " ullog 2192l? “gaggoj ” સત્ય વચન 'दत्तमणुन्नाय " त्रीभुं सवरद्वार हत्तानुग्रह छे, थोथु सवरद्वार " बंभचेर " ब्रह्मयर्य छे, अने पांयभु सवरद्वार " अपरिगत " अस्थित्व छे ॥२॥ આ પ્રમાણે પાંચ સંવરદ્વારાનાં નામ કહીને હવે સૂત્રકાર સૌથી પહેલાં સવરદ્વાર અહિંસાનું વર્ણન કરવાને માટે ત્રીજી ગાથા કહે છે. तत्थ એ भांन्य स'वरद्वाराभां “पढमं " पहेलु संवरद्वार " अहिंसा" अहिंसा छे. CC " प्र० ७० www.kobatirth.org " Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir %3 प्रश्नव्याकरणसूत्रे जीवानां कुशलकारिणी। 'तीसे' तस्या अहिंसायाः 'सभावणाए ' सभाबनाया: भावनापञ्चकसहितायाः ‘किंचि' किंचित् 'गुणुद्देस' गुणोद्देशं-गुणानां परिचयं हे जम्बूः । अहं त्वां प्रति 'वोच्छं' वक्ष्ये कथयिष्यामि ॥ ३॥ पूर्वोक्तमेवार्थ विशदयन्नाह- ताणि उ इमाणि' इत्यादि-' मुव्यय ' हे मुव्रत ! =शोभनव्रतशालिन् ! जम्बूः ! पानि संवरशब्देनोक्तानि ताणि उ' तानि तु इमानि वक्ष्यमाणानि सन्ति । तानि कीदृशानि ? इत्याह-' महन्वयाई ' महावत्तानि-करणत्रययोगत्रयेण यावज्जीवं सर्वविषयनिवृत्त्याऽणुव्रतापेक्षया वा महान्ति बृहन्ति यानि व्रतानि सावधविर तिलक्षणानि तानि तथोक्तानि, पुनः ' लोगहियसब्बयाई , लोकहितसव्रतानि-लोकेभ्यः पइजीवनिकायरूपेभ्यो है (तस थावरभूयखेमकरी) यह अहिंसात्रस और स्थावर आदि समस्त जीवों की कुशल कारिणी है। ( स भावणाए तीसे ) मैं उस पांच भावनाओं सहित अहिंसा के ( किंचि ) कुछ (गुणुद्देसं ) गुणों का परिचय हे जंबू ! तुमको (वोच्छं) कहूँगा ॥ ३ ॥ इसी पूर्वोक्त अर्थको सूत्रकार अब विशदरूपमें समझाते हैं-(मुच्चय !) हे शोभनव्रतशालिन् जळू ! जो संवर शब्द से कहे गये हैं (ताणिउइमाणि ) वे इस प्रकार से हैं—(महव्वयाई) ये महाव्रतरूप हैं-इन संवररूप महाव्रतों में हिंसा आदि पांचों पाप कृत, कारित, अनुमोदना तथा मन, वचन और काय से यावज्जीव-जीवनपर्यंत-छोड़ दिये जाते हैं, इसलिये ये बड़े व्रत कहलाते हैं । अथया अणुव्रती की अपेक्षा ये अहिंसा सत्य आदि संचररूप व्रत महाव्रत कहलाते हैं, अर्थात् इन " तसथावरभूयखेमकरी" ते माडिसा स, स्था१२ कोरे समस्त वार्नु ४८या ४२नारी छ.:" सभावणाए तीसे" भू! ते पाय लावना सडित माडिंसान! " किं चि" सा “ गुणुदेसं" गुणोनी पश्यिय हु तमने “वोच्छं" ही ॥3॥ એ જ પૂર્વોક્ત અર્થને હવે સૂત્રકાર લંબાણ પૂર્વક સમજાવે છે“सुव्वय !" हे सुंदर प्रतधारी भू ! २ सवरे। डामा माया छ " ताणि उ इमाणि " ते २0 ४ारे -“ महव्ययायं " ते मडावत३५ छ-ते સંવરરૂપ મહાવ્રતમાં હિંસા આદિ પાંચે પાપ મન, વચન અને કાયાથી કરવાનું, કરાવવાનું અને તેને અનુમોદવાનું જીવનપર્યત છોડી દેવામાં આવે છે. તે કારણે તે મહાવ્રતો કહેવાય છે. અથવા અણુવ્રતની અપેક્ષાએ અહિંસા, સત્ય આદિ સંવરરૂપ વ્રતને મહાવતે કહેવામાં આવે છે, એટલે કે તે મહા For Private And Personal Use Only Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org " सुदर्शिनी टीका अ० १ सू० १ पञ्चसंवरद्वारलक्षणनिरूपणम् ५५५ , हितानि हितकराणि यानि सदव्रतानि= श्रेष्ठतानि तानि तथोक्तानि तथा-सु'यसागरदेसियाई ' श्रतसागरदेशितानि श्रुतं = कल्पव्यवहारादिरूपं तदेव गंभीरस्त्वादिगुणैः सागरः श्रुतसागरस्तत्र देशितानि मोक्तानि यानि तानि तथोक्तान, तथा - ' तब संजमवयाई ' तपः संयमत्रतानि तपः - अनशनादि, पूर्वकर्मनिर्जरणफलम्, संयमः पृथिव्यादि संरक्षणलक्षणोऽभिनवकर्माग्रहणफलः, तद्रूपाणि यानि महाव्रतों में सर्व सामद्य योगों का त्याग जीवन पर्यंत कर दिया जाता है। इसीलिये ये संवर द्वार (लोग हियसव्वयाई ) लोकहित सबत हैंलोकहित के लिये सद्व्रत - श्रेष्ठ व्रत है अर्थात् सकाय, पृथिवीकाय, . अपकाय तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पति काय, इन छह निकाय रूप लोक का इनसे हित सता है, इसलिये ये सद्व्रत हैं अर्थात् इन संवरद्वारों में प्रवृत्त हुआ साधु सदा छह काय के जीवों की रक्षा करने में तत्पर रहता है, ऐसी वह कोई भी प्रवृत्ति नहीं करता है कि जिससे छह काय के जीवों की विराधना हो। ये संवर द्वार ( सुयसागरदेसिया ) श्रुतसागर देशित हैं- गंभीरत्वादि गुणों से सागर जैसे कल्पव्यवहारादिश्रुत में ये कथित हुए हैं । तथा ये संवर द्वार ( तवसंजम महव्यवाई ) तपः संयम महाव्रत रूप हैं - अनशन आदि जो बारह प्रकार की तपस्याएँ हैं उनका नाम तप है । ये तप पूर्वसंचित कर्मों की निर्जरा कराते हैं अर्थात - इनका यही फल है कि इनके आचरण से पूर्वसंचित कर्मों की निर्जरा होती है । पृथिव्यादि छह काय के जीवों की रक्षा करना इसका વ્રતામાં જીવન પર્યંત સર્વે સાવદ્યયોગોના ત્યાગ કરવામાં આવે છે. તેથી તે सवरद्वार " लोगहियसब्बयाई લાકહિત સદ્ભુત છે—લેહિતને માટે સત श्रेष्ठ व्रत छे, गोटो } नसाय पृथिवीाय, मयूडाय; तेन्हाय, वायुकाय, અને વનસ્પતિકાય એ છ નિકાયરૂપ લોકનુ તેનાથી હિત સધાય છે, તેથી તે સત છે. એટલે કે એ સવરદ્વારામાં પ્રવૃત્ત થયેલ સાધુ સદા પ્રકાયના જીવોની રક્ષા કરવાને તત્પર રહે છે, જેથી છકાયના જીવોની વિરાધના થાય वीय प्रवृत्ति ते उरतो नथा ते संवरद्वार " सुयसागरदेसियाइ ' શ્રુતસાગર દેશિત છે ગભિરતા આદિ ગુણાથી ‘કલ્પવ્યવહારદિશ્રુતમાં ’તેમને સાગર જેવાં કહેલ છે. તથા તે સ`વરદ્વાર " तव संजममहत्वयाई तयः સયમ મહાવ્રતરૂપ છે અનશન આદિ આર પ્રકારની જે તપસ્યાઓ છે તેને તપ કહે છે. તે તપ પૂર્વ સંચિત કર્મોની નિર્જરા કરાવે છે, એટલે કે તેનુ એજ ફળ મળે છે કે તે આચરવાથી પૂર્વસંચિત કમોની નિર્જરા થાય છે. પૃથિવીકાય આદિ કાયના જીવાનુ` રક્ષણ કરવું તેને સયમ કહે છે, તેમાં "" 66 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे व्रतानि तानि तथोक्तानि, तथा- 'सीलगुणवरव्बयाई ' शीलगुणवरव्रतानि= शील-चित्तसमाधिः गुणाः विनयादयः तैर्वराणि श्रेष्ठानि यानि व्रतानि तानि तथोक्तानि- ' सञ्चज्जवन्वयई' सत्यार्जवनतानि, तत्र-सत्यम् मृषावादर्जनम् , आर्जवम् मायावर्जनम् , तपाणि यानि व्रतानि तानि तथोक्तानि, तथा'नरगतिरियमणुथदेवगतिविवज्जगाई' नरकतिर्यङ्मनुनदेवगतिविवर्ज कानि नरकतिर्यङ्मनुनदेवाभिधाश्चतस्रोगतीविवर्जयन्ति मोक्षगतिपापकत्वेन यानि तानि तथोक्तानि, तथा- 'सयनिगसासगगाई' सर्वजिनशासनकानि=सर्वनिनः शिष्यन्ते -उपदिश्यन्ते यागि तानि तथोक्तानि, तथा-'कम्मरयवियारगाई' कर्मरजोनिनाम संयम है, इसमें प्रवृत्त साधु के नवीन कर्मों का आगमन रूक जाता है अर्थात् न धोन कर्मों के आस्रव का निरोध होना यहि इस संयम ना फल है। इसलिये ये संवरद्वार तपसंयम रूप महाव्रत हैं । तथा ये संवरद्वार-(सीलगुणवरब्बयाई ) शील गुणवर व्रतरूपहैं-चित्त की समाधि का नाम शील है, विनय आदि का नामगुण है । इनसे श्रेष्ठ जोबत हैं तदूपये संवर द्वार हैं ! (सच्चजकव्यायाई) सत्य-मृषावादका परित्याग, आर्जव-माया कात्याग, इन रूप जो व्रत हैं तदप ये संवरद्वार हैं । (नरगतिरियमणुयदेवाइविवजगाइ ) इनकी आराधना से आराधक जीव को मोक्षगति कीप्राप्ति होती है इसलिये ये संवर द्वार नरक, तिर्यश्च, मनुप्य और देव, इन चारों गतियों से अपने आराधक जीव को दूर कर देते हैं इसलिये ये नरक तिर्यक् मनुज देवगति विवर्जक हैं । ( सव्वजि णसासणग्गइं) इन संवरद्वारों का उपदेश अभीतक जितने भी जिन हो પ્રવૃત્ત થયેલ સાધુને નવાં કર્મોનું આગમન અટકી જાય છે. એટલે કે નવાં કર્મોના અસવને નિરોધ થવો એ જ આ સંયમનું ફળ છે, તેથી તે સંવર द्वार त५ सयभ३५ भारत छ. तथा ते सवा२-" सीलगुणवरव्वयाई" શીલગુણવરવ્રત રૂપ છે-શીલ એટલે ચિત્તની સમાધિ, વિનય આદિ ગુણે કહેपाय छ, तमना पडे श्रेष्रे प्रत छे ते ४२ना ने स१२वार छे. “ सच जवब्वयाई" सत्य-भूषाचाही परित्याग, मा-भायाना त्याग मे जाना २ व्रतो ते ते प्रधान ते सवार छ. " नरगतिरियमणुयदेवाइविवज्जगाई" तेमनी आराधनाथी माराध अपने मोक्षगति से थाय छ તેથી તે તે સંવરદ્વાર પિતાની આરાધના કરનાર જીવોને નરક, તિર્યંચ, મનુષ્ય અને દેવ એ શારે ગતિમાં જતા રોકે છે, તેથી તેઓ નરક, તિર્યચ. મનુધ્ય અને દેવગતિના વિવક છે. For Private And Personal Use Only Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० १ सू० १ पञ्चसंवरद्वारलक्षणनिरूपणम् ५५७ दारकाणि-कर्म-ज्ञानावरणाद्यष्टप्रकारक, तदेव जीवस्य गुण्ठनेन मालिन्यापादकत्वेन रना धूलिः, तद् विदारयन्ति=निवारयन्ति यानि तानि तथोक्तानि, तया-भासयविगासगाई' भाशतविनाशकानि = भवशतानि = जन्मशतानि विनाशयन्ति यानि तानि तथोक्तानि, भवपरम्पराविच्छेदकानीत्यर्थः, अत एव 'दुइसयविमोयगाई' दुःखशतविमोचकानि-दुःखशतानि विमोचयन्ति यानि तानि तथोक्तानि, तथा - ' मुहसयपवत्तगाई' सुखशतवर्तकानि-मुखशतानि प्रवर्तयन्ति यानि ताति तथोक्तानि, तथा-' कापुरिसदुरुत्तराई' कापुरुष चुके हैं उन सबने दीया है। (कम्मरयविदारगाई) ये संवरद्वार कर्मरज के विदारक हैं-ज्ञानावरण आदि आठ प्रकार की कर्मरूप धूलि को ये उडानेनष्ट करने वाले हैं । ज्ञानावरण आदि कर्मों को धूलि की उपमा इसलिये दी है कि धूलि जिस प्रकार मलिनता आदि करती है उसी प्रकार ये कर्भ भी जीव में व्यवहार नय की अपेक्षा से मलिनता करते हैं, अर्थात् ज्ञानादिक गुणों का आवरण आदि कर देने से जीव में अज्ञान आदि विभाव भावों के वर्धक होते हैं। ( भवसयविणासगाई ) ये संवरद्वार भवशतविनाशक हैं-अर्थात्-इनकी आराधना करने मे आरा. धक, जीवों के जो इनकी आराधना के विना सैकडों भव-जन्म-होने वाले थे वे सब नष्ट हो जाते हैं । ( दुक्खसयविमोयगाई ) भवपरंपरा इनके प्रभाव से विच्छिन्न हो जाती है, इसीलिये इन्हें दुःखशत विमोचक कहा है। (सुह सयपवत्तगोई ) जब सैकड़ों दुःख इनकी “सव्व जिणसासणग्गई" ४ सुधीमा रेसा बिनधथ६ यां ते मयां ते १२वारोनी अपहेश मान्य छे “ कम्मरयविदारगाइ" ते સંવરદ્વાર કમરજને નાશ કરનાર છે-જ્ઞાનાવરણ આદિ આઠ પ્રકારનાં કર્મપી, રજનો નાશ કરે છે. જ્ઞાનવરણ આદિ કર્મોને ધૂળ-રજની ઉપમા દેવાનું કારણ એ છે કે ધૂળ જેમ મલિનતા આદિ કરે છે તેમ એ કર્મો પણ જીવમા વ્યવહાર નયની અપેક્ષાએ મલિનતા કરે છે, એટલે કે જ્ઞાનાદિક આદિ ગુણોનું આવરણ કરી નાખવાથી જીવમાં અજ્ઞાન આદિ ઉલટા ભાવોનાં વર્ધક થાય છે. " भवसयविणासगाई" ते संव२६।२ म१शत विनाश छे-2 तेमनी આરાધના કરવાથી આરાધક જીવોના તેમની આરાધના કર્યા વિના જે સેંકડો भ१ थाना सता ते ५५! नट ५४ लय छे “ दुक्खसयविमोयगाइ'' तेमना પ્રભાવથી ભવોની પરંપરા છેદાઈ જાય છે, તે કારણે તેમને દુખ શત વિમે२४ व्या . “ सुहसयपवत्तगाई" ने तेमनी भा२.५नाथी से। For Private And Personal Use Only Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे दुरुत्तराणि- कापुरुषैः- कातरैः दुःखेन उत्तीर्यन्ते यानि तानि तथोक्तानि= कापुरुषैः प्रतिप-तुमशक्यानोत्यर्थः, तथा- 'सप्पुरिसनिसेवियाइ ' सत्पुरुषैनिषेवितानि-आश्रितानि, तया-'निबाणगमणमग्गसग्धपणायगाई' निर्वाणगमनमार्गस्वर्गप्रणायकानि=निर्वाण=मोक्षस्तस्य गमने मार्ग इव मार्गा यानि तानि निर्वाणगमनमार्गाणि, तथा स्वर्गे प्रकर्षेण नयन्ति जीवान् यानि तानि स्वर्गप्र. णायकानि, उभयोः कर्मधारयस्तानि तथोक्तानि, पञ्चसंवरद्वाराणि 'भगवया' भगवता महावीरेण 'उ' तु-निश्चयेन 'कहियाणि' कथितानि-पोक्तानि, अत इमान्यवश्यं श्रद्धेयानीति भावः ।। मू०१॥ इति प्रथमसंबरद्वार प्रस्तावना । आराधना से विनष्ट हो जाते हैं तो यह बात भी निश्चित हो जाती है कि ये सैकड़ों सुरखों के प्रवर्तक होते हैं। जब इनका इतना विशिष्ट प्रभाव है तो फिर क्या है हरएक प्रागी इनकी आराधना करने लगेगा. इसके लिये सूत्रकार कहते हैं कि ये संवरद्वार (कापुरिसदुरुत्तराई ) का पुरुष दुरुत्तर हैं-जो कायरपुरुष हैं-उनके द्वारा तो धारण करने के लिये अशक्य हैं । परन्तु ( सप्पुरिसनिसेवियाई ) सत्पुरुषों से ये सेवित-आचरित होते हैं, अर्थात् जो सत्पुरुष हैं-अन्तरात्मा जीव है-वे ही उन्हें धारण करते हैं। अधिक क्या कहा जाय ये संवरद्वार (निव्वाणगमणमग्ग-सग्गप्पयाणगाई ) मोक्ष के गमन में मार्गरूप है, अगर जीव में इतनी योग्यता नहीं हों तो स्वर्ग में प्रयाण कराने वाला जरूर होता है । इस प्रकार के (येपंच संवरदाराई कहियाणि) पांच मंवर द्वार भगवान महावीर ने कहे हैं। इसलिये प्रत्येक भव्य जीव को इन्हें अपनी श्रद्धा का विषय अवश्य बनाना चाहिये। ।०१।। દુઃખ નષ્ટ થઈ જાય છે તે એ વાત પણ નક્કી થઈ જાય છે કે તે સેંકડે સુખના પ્રવર્તક થાય છે. જ્યારે તેમને આટલે બધે વધારે પ્રભાવ છે તે દરેક પ્રાણી તેની આરાધના કરવા માંડશે. તેથી સૂત્રકાર બતાવે છે તે તે સંવ२वार " का पुरिसदुरुत्तराई" पुरुषहरुत्तर छ-२ आय२ ५३षो छ-मडि. सात्मा ७१ छ, तमना द्वारा त धा२१ २वाने माटे म४य छे. ५४५ " सम्पुरिसनिसेवियाई ५१ सत्पु३॥ १ तेतुं सेवन-मा-य२५ ४२राय छे. १५ शु । ते १२वार “ निव्वाणगमणमग्ग सग्गप्पयाणगाई" भाक्षशमनना भाग રૂપ છે, જે જીવમાં એટલી ગ્યતા હોય તે તે તેને માટે અવશ્ય સ્વગ" प्राति ४२११ना। नि: छे, मो मारना "पंच संवरदाराई कहियाणि "पांय સંવરદ્વાર ભગવાન મહાવીરે કહેલ છે. તે દરેક ભવ્યજીવે તેમને અવશ્ય પિતાની શ્રદ્ધાને વિષય બનાવવો જોઈએ. સૂ૧ ! For Private And Personal Use Only Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुवशिनी टीका भ.१ सू०२ प्रथमसंवरद्वारनिरूपणम् _ ५५९ अथ प्रथमसंवरनिरूपणायाह-'तत्थ पढम' इत्यादि-- मूलम्-तत्थ पढमं अहिंसा जा सा सदेव मणुया सुरस्त लोगस्स भवइ दोवो ताणं सरणं गई पइट्टा, निव्वाणं १, निव्वुई २, समाही३, संती४, कित्ती५,कंती६, रइय७, विरइय८, सुयंग९, तित्ती१०, दया११, विमुत्ती१२, खंती१३, सम्मत्ताराहणा१४, महंती१५, बोही१६, बुद्धी १७, धितीय१८, समिद्धी१९, रिद्धी२०, विद्धी२१, ठिई २२, पुट्टी२३, नंदा २४, भद्दा २५, विसुद्धी २६, लद्धी २७, विसिटुदिट्ठी२८, कल्लाणं.२९, मंगलं३०, पमाओ ३१, विभूई३२, रक्खा ३३, सिद्धवासो३४, अणासवो ३५, केवलीणठाणं ३६, सिवं ३७, समिई३८, सील ३९, संजमो४०,त्ति य, सीलघरो ४१, संवरोय४२, गुत्ती४३, ववसाओ ४४, उस्सओ४५, जन्नो४६, आयतणं४७, जंतण ४८,मप्पमाओ४९, अस्साओ५०, वीसासो५१, अभओ५२. सबस्त५३, वि अमघाओ, चोक्ख ५४, पवित्तो ५५, सुई ५६. पूया ५७, विमल५८, पभासा ५९, य, निम्मल ६० तरत्ति। एवमादीणि नियगुणनिम्मियाई पज्जवनामाणि होति अहिंसाए, भगवईए ॥ सू० २॥ टीका-' तत्थ ' इत्यादि 'तत्थ' तत्रतेषु पञ्चसु संवरद्वारेषु मध्ये 'पढम' प्रथमम् आद्यम् 'अहिंसा' अहिंसालक्षणं संवरद्वारं भवति । अहिंसा कीदृशी ? इत्याह-जा सा' या सा सुप्रसिद्धा-अहिंसा ' सदेवमणुयासुरस्स लोगस्स' सदेवमनुजासुरस्य इस प्रकार यह प्रथम संवर द्वार की प्रस्तावना है। अब सूत्रकार આ પ્રમાણે આ પ્રથમ સંવરદ્વારની પ્રસ્તાવના છે. હવે સૂત્રકાર પ્રથમ For Private And Personal Use Only Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir --- --- - -- - - ५६० प्रश्नव्याकरणसूत्रे लोकस्य 'दीवो' द्वीपो भवति, अयं भावः-संयोगवियोगचिन्तासन्तानवितान तरङ्गायमाणमोहमहावर्तपत कषायश्चापदकथितमध्यमानगात्राणामत्राणानां प्राणानामियमहिंसाऽऽश्वासस्थानरूपो द्वीपो भवति, तथा-'ताणं' त्राणम् , आपट्यो रक्षणात्त्राणस्वरूपाऽस्ति । तथा- सरण' शरणम्-विविदविपदव्याकुलानामाश्रयप्रथम संवर द्वार के निरूपण के लिये सूत्र कहते हैं-'तत्थ पढमं' इत्यादि। टीकार्थ-(तत्थ) उन पांच संवरद्वारों में से ( पढमं अहिंसा) पहिला संवरद्वार अहिंसा है। (जा सा सदेवमणुयामुरस्स लोगस्स. दीवो भवइ ) यह सुप्रसिद्ध अहिंसा देवलोक, मनुष्यलोक और असुरलोक के लिये एक द्वीप जैसी है । इसका तात्पर्य यह है कि संयोग और वियोग की सन्तानपरंपरारूप तरङ्गो से यह मोहमहावर्तरूप गत कि जिसमें समस्त संसारी जीव सर्वथा मग्न हो रहे हैं, व्याप्त हो रहा है उसमें पड़े हुए इन संसारी जीवों को कषायरूप श्वापद-हिंसक जानवर रातदिन दुःखित करते रहते हैं और उनके शरीर को मथते रहते हैं। वहां उनकी रक्षा करने वाला कोई नहीं है । इस तरह अशरणभूत हुए इन प्राणीयों की रक्षा करने वाली यह एक अहिंसा ही है। अतः यह अहिंसा उनके लिये आश्वासन के स्थानरूप एक द्वीप के जैसी है। तथा ( ताणं ) जीवों की यह आपत्ति विपत्ति से रक्षा करती है इसलिये यह त्राणरूप है । तथा ( सरणं ) अनेक विपदाओं से घिरे हुए जीवों स१२।२i नि३५४ने भाटे सूत्र ४ छ-" तत्थ पढमं” त्यादि ___ -"तत्थ" ते पांच सवारीमाथी पढम अहिंसा " पर स१२।२ यडिंसा छे. “जा सा सदेवमणुयासुरस्स लोगस्स दीवो भवइ " ते सुप्रसिद्ध અહિંસા વિલેક, મનુષ્યલોક, અને અસુરલેકને માટે એક દ્વીપ જેવી છે. તેને ભાવાર્થ એ છે કે સંગ અને વિયાગરૂપ સંતાન પરંપરા રૂપ મેજ વડે આ મોહ મહાવર્તરૂપ ખાઈ કે જેમાં સર્વે સંસારી જીવે સંપૂર્ણ રીતે મગ્ન થઈ ગયેલા છે, ડૂબી ગયા છે, તે સંસારી જીવોને કષાયરૂપ શ્વાપદ હિંસક પશ નિશદિન દુઃખી કરે છે અને તેમનાં શરીરને વાવ્યા કરે છે ત્યાં તેમનું રક્ષણ કરનાર કેઈ નથી. આ રીતે નિરાધાર એવાં તે પ્રાણીઓની રક્ષા કરનાર આ એક અહિંસા જ છે તેથી આ અહિંસા તેમને માટે આશ્રય રથાનરૂપ मे द्वीप समान छे. तथा “ ताणं" ते वार्नु मापत्ति-विपत्ति सामे रक्षण ४२. तेथी त ३५ छ. तथा “ सरणं " मने विपोथी धेशयेता वाने For Private And Personal Use Only Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० १ सू०२ प्रथमसंघरद्वारनिरूपणम् स्थानम् , ' गई' गतिः गम्यते-मोक्षार्थिभिराश्रीयते इति गतिः= प्राप्यस्थानं तथा-' पइट्टा' प्रतिष्ठा प्रतिष्ठन्ते-आसते यस्यां सर्वे गुणाः सा प्रतिष्ठा-सर्वगुणानामाधारस्वरूपा। साम्प्रतमहिंसायाः गुणनिष्पन्नानि षष्टिनामान्याह 'निवाणं' इत्यादि-निव्याणं ' निणि मोक्षः, तद्वेतुत्वात् १, 'निव्वुई 'निवृतिः स्वास्थ्यम्-कर्मव्याधिवर्जितत्वात् २, ' समाही ' समाधिः समता, समभावहेतुत्वात् ३, 'संती' शान्तिः द्रोहवर्जितत्वात् ४, ‘कित्ती' कीर्तिः यशः तद्धेतुत्वात् ५, को यह एक उत्तम आश्रय स्थान रूप है । तथा ( गई ) जो मोक्ष के अभिलाशी जीव हैं वे इसका आश्रय करते हैं इसलिये उनकी अपेक्षा यह गतिरूप है । तथा ( पइट्ठा ) संसार में जितने भी सद्गुण हैं उन सघ की प्रतिष्ठा-आधारभूत यही एक अहिंसा है, इसके अभाव में अन्य विद्यमान सद्गुणों की प्रतिष्ठा-कीमत-नहीं होती है। अब सूत्रकार इस अहिंसा भगवती के गुण-निध्पन्न साठ नामों को कहते हैं। उनमें पहिला नाम (निव्वाणं) निर्वाण-मोक्ष है । क्यों कि यह उसकी हेतुभून होती है १ । दूसरा नाम इसका (निवुई ) निवृत्ति है, निवृत्ति शब्द का अर्थ स्वास्थ्य है- कर्मों के आत्यंतिक अभाव होने से ही जीवों को प्राप्त होता है २ । अहिंसा का तीसरा नाम (समाही) समाधि है, समाधि का अर्थ समता है, यह अहिंसा समभाव की कारण होती है इसलिये कारण में कार्य के उपचार से इसे स्वयं समाधिरूप कह दिया है ३ । अहिंसा का चौथा नाम ( संति) शान्ति है, क्यों कि जहां द्रोह भाटते माश्रयस्थान३५ छ. तथा “ गई ” भाक्षना मलिषी रे જીવે છે તેઓ તેને આશ્રય લે છે, તેથી તેમની અપેક્ષાએ તે ગતિરૂપ છે, तथा " पइट्रा" संसारमा टसा सशुशु छ त मयाना साधा२ ३५ 21 से અહિંસા જ છે, તેના અભાવે બીજાં વિદ્યમાન સદ્દગુણોની કઈ પ્રતિષ્ઠા-કિંમત થતી નથી. હવે સૂત્રકાર આ અહિંસા ભગવતીન ગુણ પ્રતિપાદિત સાઠ નામે मतावे. तेभा प नाम " निव्वाणं" नि -मोक्ष छ. ४।२५ ते तेना ४॥२४३५ य छे. (१) तेनु भानु नाम “ निव्वुई " न छे, नियति શબ્દનો અર્થ સ્વાથ્ય થાય છે-કર્મોને અત્યંત અભાવ હોવાથી તે જીવેને थाय छे. (२) मडिसानुं त्रीन्नु नाम " समाही " समाधि छ, समाधिना मथ સમતા છે, આ અહિસા સમભાવનું કારણ હોય છે તેથી કારણમાં કાર્યના ઉપચારથી तेने २१य समाधि३५ ४उवाभा मावेश छे. (3) मङिसार्नु यो नाम "संती" શાન્તિ છે, કારણ કે જ્યાં દ્રોહને અભાવ હોય છે ત્યાંજ શાંત હોય છે. અહિप्र० ७१ For Private And Personal Use Only Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे - 'कंती' कान्तिः प्रसन्नता तद्धेतुत्वात् ६, 'रई य' रतिः=आनन्दस्तज्जनकत्वात् ७, 'विरई य' विरतिः विरागः सावद्यकर्मवर्जितत्वात् , ' सुयंग' श्रुताङ्गा श्रुतंश्रुतज्ञानाङ्गं कारणं यस्याः सा तथोक्ता, उक्तमपि-" पढमं नाणं तओ दया" इति ९, 'तित्ती' तृप्तिः संतोषः सर्वप्राणिसंतोषजनकत्वात् १०, दयामाणिरक्षा. उपमर्दनवर्जितस्यात् ११, 'विमुत्ती' विमुक्तिः- विरुच्यन्ते प्राणिनः सकलवधका अभाव होता है वहीं शांति होती है, अहिंसा में द्रोह का लेश भी नहीं होता है, इसलिये इसे शांति शब्द से व्यवहृत किया गया है ४ । (कित्ती ) यशकी हेतुभूत होने से इसका पांचवां नाम कीति है। अहिंसक जीव की कीर्ति का सर्वत्र विस्तार होता है यह बात सुप्रसिद्ध ही है ५। (कंती) प्रसन्नता की हेतुभूत होने से इसका नाम कान्ति भी है ६ । (रई य ) आनन्द की उत्पादक होने से इसका नाम रति है ७ । (विरई य) सावद्यकर्मों से वर्जित होने के कारण इसका नाम विरति भी है ८ । (सुयंग ) इस अहिंसा का कारण श्रुतज्ञान होता है इसलिये इसका नाम श्रुनाङ्ग है । क्योंकि ऐसा कहा है कि पहिले ज्ञान होता है बाद में दया ९ । (तित्ती) समरत प्राणियों के लिये यह संतोषजनक होती है इसलिये इसका नाम तृप्ति है १० । इस अहिंसा में प्राणियों की रक्षा होती है इसलिये प्राणियों के प्राणों के उपमर्दन कृत्य से रहित होने के कारण यह (दया) दयारूप है ११। इसके प्रभाव से प्राणी समस्त प्रकार के वध एवं बंधनों से छूट जाता है સામાં દ્રોહનું નામ માત્ર પણ હોતું નથી તેથી તેને શાન્તિ શબ્દથી વર્ણવેલ છે. (४) "कित्ती' यराना १२ ३५ पाथी तेनुं पायभु नाम प्रीति छ. माडिंस नाति सर्वत्र साय छे ते पात सुप्रसिद्ध छे. (५) “ कंती " प्रसन्नता ४१२९५३५ पाथी तेनु नाम अन्ति पY . (6) "रईय" न ४२नार पाथी तेनाम २ति छ. (७) “विरईय" सावध भौथी २डित वाथी तेनु नाम विरति पाप छ. (८) "सुयंग" मा डिसाने ४२) श्रतज्ञान थाय छे, तेथी तेनु નામ થતાંગ છે, કારણ કે પહેલા જ્ઞાન થાય છે, અને ત્યાર પછી દયા એવું लामे छे. (6) "तित्ती” समस्त प्राणीमाने भाटे ते संतोष नहाय છે તેથી તેનું નામ તૃપ્તિ છે. (૧૦) આ અહિંસાથી પ્રાણીઓની રક્ષા થાય છે, तेथी प्राणीमान प्रानुसा२ना त्यथी ते २खित पाथी ते " दया" या३५ છે. (૧૧) તેના પ્રભાવથી પ્રાણીઓ સમસ્ત પ્રકારના વધ અને બંધનમાંથી મુક્ત થાય છે, તેથી સકળ વધબંધનેથી પ્રાણીઓને મુકત કરાવનાર હોવાથી For Private And Personal Use Only Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ww सुशिनी टीका अ० १ सू० २ प्रथम सँवरद्वारनिरूपणम् ५६३ , " बन्धनेभ्यो यया सा तथोक्ता, -सकलवध वन्धनविमोचकत्वात् १२, ' ती ' शान्तिः = क्रोधादिनिग्रहकारकत्वात् १३, 'सम्मत्ताराहणा' सम्यक्त्वाराधना= सम्यक्त्रं सम्यग्बोधरूपमाराध्यते यया सा तथोक्ता, जिनशासनाराधनकारणत्वाद १४, ' मई महती सर्वधर्मानुष्ठानश्रेष्ठत्वात् १५, 'बोही' बोधि:- सर्वज्ञी - धर्ममाप्तिरूपत्वात १६, 'बुद्धी' बुद्धि:, परदुःखावबोधकत्वात् १७, 'धिई ' धृतिः, म्रियमाणजीवस्याभयप्रदायकत्वात् यद्वा - धृतिश्चित्तदार्यम्, अहिंसया चित्ते दाढस्य समुत्पद्यमानत्वात् १८, 'समिद्धी' समृद्धि, आनन्दजनकत्वात् इसलिये प्राणीयों की सकल वध बन्धनों से विमोंच का होने के कारण इसका नाम ( विमुक्ती) विमुक्ती है १२ । यह समस्त क्रोधादि कषायों की निग्रह कारिका है इसलिये इसका नाम ( खंती ) क्षान्ति है १३ | सम्यक् बोधरूप सम्यक्त्व इसके होने पर ही आराधित होता है, अर्थात् यह जिनशासन की कारण होती है इसलिये इसका नाम ( सम्मत्ताराहणा ) सम्यक्त्वाराधना है १४ | धर्मके समस्त अनुष्ठानों में यह श्रेष्ठ है इसलिये इसका नाम ( महती ) महती है १५ । सर्वज्ञप्रतिपादित धर्मकी प्राप्तिरूप होने से इसका नाम ( बोही ) बोधि है १६ । परदुःखों की अवबोधिका होने से, अर्थात् परकीय दुःखों को बतलाने वाली होने से इसका नाम ( बुद्धी) वृद्धि है १७ । मरते हुए जीवों को इसके प्रभाव से अभय की प्राप्ति होती है इसलिये इसका नाम (धिई ) धृति है । अथवा धृति शब्द का अर्थ चित्त की दृढता है, सो अहिंसा से चित्त में दृढ़ता उत्पन्न होती है यह बात निर्विवाद है १८ । आनन्द Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir "" તેનુ નામ विमुत्ती " विभुक्ति छे, (१२) ते समस्त अघादि उपायोनो નિગ્રહ કરનારી છે, તથી તેનું નામ खंती " क्षान्ति छे. (१३) सभ्ययोध રૂપ સમ્યકત્વ તે વિદ્યમાન હેાય તે જ આરાધાય છે, એટલે કે તે જિનશા " सम्मत राहणा સનની આરાધનાનાં કારણરૂપ હોય છે તેથી તેનું નામ સમ્યકવારાધના છે. (૧૪) ધર્મના સમસ્ત અનુષ્ઠાનામાં તે શ્રેષ્ઠ છે તેથી તેનું 64 For Private And Personal Use Only ܕܐ 66 નામ महती " भडती छे (१५) सर्वज्ञ प्रतिपादित धर्मनी प्रसिक्ष्य होवाथी તેનું નામ वही " अघि छे. (१६) परदु:मोनी भवमोधि होवाथी भेटले કે પારકાનાં દુઃખા ખતાવનારી હોવાથી તેનુ નામ "बुद्धी" बुद्धि छे (१७) भरतां लवोने तेना अलावधी अलयनी आप्ति थाय छे, तेथी तेनु नाम “धिई” ધૃતિ છે. અથવા ધૃતિ શબ્દના અર્થ ચિત્તની દૃઢતા છે. તે અહિંસાથી ચિત્તમાં રઢતા ઉત્પન્ન થાય છે તે વાત નિર્વિવાદ છે. (૧૮) આનંદની જનક હોવાથી Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५६४ प्रश्नव्याकरणसूत्रे १९, रिद्धी' ऋद्धिः, लक्ष्मीहेतुत्वात् २०, 'विद्धी' वृद्धिः, तीर्थङ्करादिपुण्यप्रकृतिपुञ्जसंपादकत्वात् २१, 'ठिई स्थितिः-साद्यपर्यवसितमोक्षस्थितिसम्पादकत्यात् २२, 'पुट्टी' पुष्टिः-पुण्यपुष्टिकारकत्वात् २३, 'नंदा' नन्दा-नन्दयति आनन्दयतीति नन्दा, स्वर्गापवर्गसुखप्रापकत्वात् २४, ‘भद्दा' भद्रा भन्दते-कल्याणं करोतीति भद्रा २५, 'विसुद्धी ' विशुद्धिः-पापमलविशोधकत्वात् २६, 'लद्धी' लब्धिः केवलज्ञानकेवलदर्शनादि लब्धहेतुत्वात् २७, 'विसिदिट्ठी' विशिष्टदृष्टिः प्रधानदर्शनमतमित्यर्थः, उक्तं चकी जनक होने से इसका नाम ( समिद्धी) समृद्धि है १९. । लक्ष्मी की हेतुभूत होने से इसका नाम (रिद्धी) ऋद्धि है २० । इसके प्रभाव से तीर्थकर आदि पुण्य प्रकृतियों का जीवों को बन्ध होता है इसलिये इसका नाम ( विद्वि) वृद्धि है २१ । इसके आचरण करने से मोक्ष में प्राप्त हुए जीवों की स्थिति आदि अनन्त होती है इसलिये इसका नाम (ठिई) स्थिति है २२ । पुण्य की पुष्टि का कारण होने से इसका नाम (पुट्ठी ) पुष्टि है २३ । स्वर्ग और मोक्षके सुख जीवों को इसकी कृपा से प्राप्त होते हैं अतः वे उन सुखों की प्राप्ति से वहां आनन्द करते हैं इसलिये इसका नाम ( नंदा) नन्दा है २४ । यह जीवों का कल्याण कराती है इसलिये इसका नाम (भद्दा) है २५ । पापमल का इससे विशोधन होता है इसलिये इसका नाम (विसुद्धी) विशुद्धी है २६ । केवलज्ञान, केवलदर्शन, आदि लब्धियां इसके ही प्रभाव से होती हैं, इसलिये इसका नाम (लद्धी ) लब्धि है २७ । (विसिदिंडी) अहिंसा तेनु नाम “ समिद्धी" समृद्धि छे. (16) सक्ष्मीना ४१२५३५ वायी तेनु नाम “रिद्धी" ऋद्धि छे. (२०) तेना प्रमाथी ताय ४२ माहि पुष्यप्रकृतियोनी वोने ५५ थाय छे तेथी तेनु नाम “ विद्धी ' (२१) तेनi माय२. ણથી મેક્ષ પ્રાપ્ત કરેલ જીવોની સ્થિતિ આદિ અનંત થાય છે, તેથી તેનું नाम “ ठिई " स्थिति छे (२२) पुश्यनी पुटिनु ते ॥२९५ पाथी तेनु नाम "पुट्ठी" पुष्टि छ. (२३) तेनी पाथी याने २१॥ मने भाक्षनां सुनो પ્રાપ્ત થાય છે, તેથી તે સુખની પ્રાપ્તિથી તેઓ ત્યાં આનંદ કરે છે. તે કારણે तेनु नाम “ नंदा " छे (२४) ते ७वानु ४८या ४२वे छे. तेथी तेनु नाम " भद्दा" मा . (२५) ५५भनी तेनाथी विशुद्धि थाय छ, तथा तेनु नाम “विसुद्धी" विशुद्धि छ. (२६) अवज्ञान, मा सन्धिमा तेना प्रमाथी १ योने पास थाय छ, तेथी तेनु नाम “लद्धी " सन्धि छ. (२७) " विसिद्ध दिट्ठी" अहिंसा प्रधान श°न छ तेथी तेनु नाम For Private And Personal Use Only Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० १ सू० २ प्रथमसंवरद्वारनिरूपणम् " किं तया पठितया, पदकौटया पलालभूतया । __ यत्र यत् न ज्ञातं, परस्य पीडा न कर्त्तव्या " ॥१॥ इति ॥ पदकोटिमित्तानेकशास्त्राध्ययनैःकिम् ? यत्र दया न वर्तते । दयावर्जितानि सकलान्यपि शास्त्राणि पलालभूतानीत्यर्थः २८, 'कल्लाणं ' कल्याणम् , कल्यं मोक्षस्तत्पापकत्वात् २९, मंगलम् दुरितोपशमनकारकत्वात् ३०, ‘पमोओ' प्रमोदा हर्षजनकत्वात् ३१, — विभूई विभूतिः-सकलसंपत्तिहेतुत्वात् ३२, 'रक्खा' रक्षा जीवरक्षणस्वभावात् ३३, 'सिद्धावासो' सिद्धावासः साद्यपर्य हो प्रधान दर्शन है इसलिये इसका नाम विशिष्ट दृष्टि है २८ । कहा भी है "किं तया पठितया, पदकोटया पलाल भूतया । यत्र यत् न ज्ञातं, परस्य पीडा न कर्त्तत्या ॥१॥ " पद कोटि परिमित अनेक शास्त्रों के अध्ययन से क्या लाभ हो सकता है जब कि जीव को इतना ही ज्ञान न हो पावे कि पर प्राणी को पीड़ा नहीं करना चाहिये ॥ १ ॥ दयोपदेश विहीन शास्त्र पलाल जैसे निःसार है २८ । मोक्ष-प्रदान कराने वाली होने से इसका नाम (कल्लाणं) कल्याण है २९ । पापों का-इससे उपशमन होता है इसलिये यह ( मंगलं ) मंगलरूप है ३० । हर्ष की जनक होने से यह (पमाओ) प्रमादरूप है ३१ । सकल संपत्तियों की हेतुभूत होने से इसका नाम (विभुई) विभुति है ३२ । (सक्खा) जीवों विशिष्ट दृष्टि छे. ५५ छ "किं तया पठितया, पदकोटया पलालभूतया । यत्र यत् न ज्ञातं, परस्य पीडा न कर्तव्या ॥ १॥ કટિ પદે વાળાં અનેક શાસ્ત્રોનો અભ્યાસ કરવા છતાં પણ જે જીવને એટલું પણ જ્ઞાન ન પ્રાપ્ત થાય કે બીજા પ્રાણીઓને પીડવા જોઈએ નહીં. તે તેનાં અધ્યયનથી શું લાભ ? ૧ છે દયાના ઉપદેશ વિનાનાં શાસ્ત્રો પહાલ જેવાં નિસાર છે. (૨૮) મોક્ષ भात शवनार डापायी तेनु नाम “ कल्लाणं" श्याएर छे. (२८) तेना 43 पापानी क्षय याय छे तथा ते " मंगलं” भन३५ छ. (३०) पनी न हावाथी ते “पमोओ" प्रमा३५ छे. (३१) स४॥ सपत्तिमान १२९३५ डोपाथी तेनुं नाम “ विभूई" विभूति छ. (३२) “ रक्खा" योनी रक्षा કરવાને તેને સ્વભાવ હોવાથી તેનું નામ રક્ષા છે. (૩૩) તેની આરાધના For Private And Personal Use Only Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ५६६ प्रश्नव्याकरणसूत्रे " ? वसितमोक्षगतिनिवासहेतुत्वात् ३४, 'अणासवो ' अनाश्रवः - कर्मागमननिरोधक - त्वात् ३५, 'केवलणं ठाणं 'केवलिनां स्थानम् - तेषामाश्रयभूतत्वात्, अहिंसकस्यैकेवलज्ञानं समुत्पद्यते इत्यर्थः ३६, सिवं शिवम् उपद्रववर्जितत्वात् ३७, ' समिई' समितिः- सम्यक्प्रवृत्तिः, तदूपत्वात् ३८, 'सील' शीलं समाधिः, तद्धेतुत्वात् ३९, 'संजमोति य संयमति च संयमः - हिंसा निवृत्तिस्तद्धेतुत्वात् ४०, 'सीलघरो' शोलगृहम् - शीलं - सदाचारी, यद्वा ब्रह्माचर्य, तस्य गृहं = की रक्षा करने का ही इसका स्वभाव है इसलिये इसका नाम रक्षा है ३३ । इसकी आराधना करते२ ही जीव सिद्धों के आवास में सिद्धिगति नामक स्थान विशेष में निवास करने लग जाता है इसलिये इसका नाम (सिद्धावासो) सिद्धावास है २४ । ( अणासवो) कर्मों के आगमन द्वार की यह निरोधिका है इसलिये इसका नाम अनास्रव है ३५ । ( केवलीण ठाणं) केवलज्ञानी - इसका आश्रय करते हैं इसलिये इसका नाम केवल स्थान है। अर्थात् जो अहिंसक होता है उसे ही केवल ज्ञान उत्पन्न होता हैं ३६ । अहिंसक जीव को कहा से भी किसी भी प्रकार के उपद्रव प्राप्त नहीं हो सकते हैं इसलिये उपद्रववर्जित होने से इसका नाम (सीव ) शिव है ३७ । सम्यक् प्रवृत्ति का नाम समिति है. यह अहिंसा समितिरूप होती हैं इसलिये इसका नाम ( ( समिई ) समिति है ३८ | शील-समाधि का यह कारण होती है इसलिये इसका नाम (सील) शील है ३९ । ( संजमो त्तिय) संयम - हिंसा की निवृत्ति होनारूप संयम की यह साधक है इसलिये इसका नाम संयम है । ४०। शील-सदाचार अथवा ब्रह्मचर्य की यह स्थान है इसलिये इसका नाम Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 66 अणा કરતાં કરતાં જ જીવ સિદ્ધોના આવાસમાં સિદ્ધિગતિ નામના સ્થાનમાં નિવાસ કરવા લાગે છે તેથી તેનું નામ सिद्धावासो” सिद्धावास छे. (३४) सवो " भेना आगमन द्वारनी ते निशेध छे, तेथी तेनुं नाम अनासव छे. ( 34 ) " केवलीण ठाणं " ठेवणज्ञानी तेनो आश्रय छे तेथा तेनुं नाम देवणी. સ્થાન છે એટલે કે જે અહિંસક હોય છે તેને જ કેવળજ્ઞાન પ્રાપ્ત થાય છે. (૩૬) અહિંસક જીવને કાઈ પણ સ્થળેથી કાઇ પણ પ્રકારના ઉપદ્રવ થઈ शता नथी. तेथी उपद्रव रहित होवाथी तेनुं नाम “सिव " शिव छे. (३७) સમ્યક્ પ્રવૃત્તિને સમિતિ કહે છે. આ અહિંસા સમિતિરૂપ હોય છે તેથી તેને " समिई " समिति से छे. (३८) शीस - समाधिना ते अरण्य होय તેથી તેનું નામ सील " शील छे. ( 35 ) " संजमोत्तिय " सयभ-हिंसाथी નિવૃત્ત થવા રૂપ સચમની તે સાધક છે, તેથી તેનું નામ સયમ છે. (૪૦) શીલ સદાચાર અથવા બ્રહ્મચર્યનું તે સ્થાન છે તેથી તેનું નામ " सीलघरो " 66 (6 For Private And Personal Use Only Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ. १ सू० ३प्रथमसंवरद्वारनिरूपणम् स्थानम् ४१, 'संवरो य' संवरश्च-कर्मागमकारणसंवरणात् ४२, 'गुत्ती' गुप्तिः जीवस्याशुभप्रवृत्तिनिरोधकत्वात् ४४, ‘ववसाओ ' व्यवसाय:-बि-विशिष्टोऽवसाया-अध्यवसायः आत्मपरिणामः ४४, उस्सओय ' उच्यछ्यश्च-द्रव्यभावो. प्रतिहेतुत्वात् ४५, 'जष्णो' यज्ञः-स्वर्गादिसद्गतिदायकलात् ४६, 'आयतणं' आयतनम्-गुणानामाश्रयः ४७, 'जयणं' यत्नः-निरवद्यानुष्ठानत्वात् ४८, 'अप्पमाओ' अप्रमादः-प्रमादर्जनम् ४९, 'अस्साओ ' आश्वासः-परतृप्तिहेतु(सीलघरो) शीलगृह है ४१। कमोंके आगमन भूत कारणों का वह निरोध कर देती है इसलिये इसका काम (संवरो)संबर है ४२ । इसके आचरण करने से जीवों की अशुभ प्रवृत्ति रुक जाती है इसलिये इसका नाम (गुत्ति) गुप्ति है ४३ । यह आत्मा का विशिष्ट प्रकार का एक परिणाम है इसलिये इसका नाम ( ववमाओ) व्यवसाय वि-अवसाय अध्यवसाय है ४४ । यह द्रव्य और भाव इन दोनों की उन्नति कराने वाली होती है इसलिये इसका नाम (उस्मओ य) उच्छय है ४९। स्वर्ग आदिः सदति की प्राप्ति जीवों को इसके सेवन करने से होती है इसलिये इसका नाम (जण्णो ) यज्ञ है ४६ । सभी सद्गुणों का यही एक आश्रयस्थानभूत है इसलिये इसका नाम (आयतणं) आयतन है ४७ । यह निरवद्य अनुष्ठानरूप है इसलिये इसका नाम (जयणं) यत्न है ४८ । इस प्रमाद असावधानताका परित्याग हो जाताहै इसलिये इसका नाम(अप्पमाओ)अ. શિલંગ્રહ છે. (૪૧) કર્મના આગમન રૂપ કારણોને તે નિરોધ કરી નાખે છે. तेथी तेनुं नाम " संवरो" स१२ छे. (४२) तेने मायवाथी वानी शुभ प्रवृत्ति -A2zी नय छ तथा तेनुं नाम " गुत्ति " गुप्ति छे. (४३) ते सामान विशिष्ट प्रारर्नु से परिणाम छ, तेथी तेनु नाम " ववसाओ" व्यवसायवि. भवसाय-अध्यवसाय छे. (४४) ते द्रव्य भने भाव, से पन्नेनी उन्नति ४२ना। छ तेथी तेनु नाम “ उप्सओय " उच्छ्य छे. (४५) तेना सेवनयी योने २१० मा सातिनी प्राति ८५ , तेथी तेनु नाम “ जण्णो" યજ્ઞ છે. (૪૬) સઘળા સદગુણેનું તેજ એક આશ્રયસ્થાન છે, તેથી તેનું નામ " आयतणं' भायतन छ (४७) ते निश्वधा अनुष्ठान३५ छे तेथी तेनु नाम "जयणं" यत्न छे. (४८) तेमा प्रमाह-असावधानताना परित्याग 25 तय छे, तेथी तेनु नाम " अप्पमाओ" प्रभाह छे. (४८) ५२ प्राणीमाने ते तृसिन। ४।२९१३५ सय छ, तथा तेनु नाम " असाओ" २मावास छ. (५०) For Private And Personal Use Only Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५६८ प्रश्नव्याकरणसूत्रे स्वात् ५०, 'वीसाओ' विश्वासःमाणिनां प्रतीतिजनकत्वात् , यद्वा-प्राणिप्राणस्याविरुद्धसमाचरणलक्षणः ५१, अभओ' अभया-निर्भयहेतुत्वात् ५०, 'सबस्सवि. अमाधाओ' सर्वस्यापि सकलपाणिगणस्य अमाघातः-मा लक्ष्मीः, सा च द्वेधाधनलक्ष्मीः प्राणलक्ष्मीश्च, तस्या घातो हननं माघातो, न माघातः अमाघात:अमारिः स्वपदद्वारा प्राणिनां प्राणवाणकरणात् ५४, 'चोक्ख' चोक्षा पवित्रादपि पवित्रा-कर्ममलापहारकत्वात् ५४, पवित्ता' पवित्रा आत्मनैर्महेलतुत्वात् ५५, प्रमाद है ४९। पर प्राणियों को यह तृप्ति का कारण होतीहै इसलिये इसकानाम ( अस्साओ) आश्वास है ५० । प्राणियों में यह प्रतीति उत्पन्न करा देती है इसलिये इसका नाम (वीसाओ) विश्वास है। अथवा प्राणियों के प्राणों के विरुद्ध आचरण इसमें नहीं होता है इसलिये भी इसका नाम विश्वास है ५१ । प्राणियो को यह भयरहित बनो देनी है। इसलिये निर्भय की हेतु होने से इसका नाम अभय है ५२ । दूसरे जीवों की मा-धन-लक्ष्मी और प्राणरूपलक्ष्मी का इसमें घात नहीं होता है इस लिये इसका नाम ( अमाघाय) अमाघात है। मा शब्द का अर्थ लक्ष्मी होता है-धन रूप लक्ष्मी और प्रागरूप लक्ष्मी के भेद से यह लक्ष्मी दो प्रकार की होती है । अहिंसा से इन दोनों का संरक्षण होता है यह घात प्रत्यक्ष है इसलिये इसका नाम अमाघात है ५३। यह अहिंसा पवित्र वस्तुओं से भी है अतिपवित्र है इसलिये इसका नाम (चोक्खा) चोक्षा है ५४ । इससे आत्मा के ऊपर जमा हुआ अनादिकाल का मैल-विभाव परिणति दूर हो जाती है। अतःआत्मा निर्मल-अपने स्वरूप में मग्न-हो प्राणीमामा ते प्रताति उत्पन्न ४२ छे, तेथी तेनु नाम "वीसाओ" विश्वास છે. અથવા પ્રાણીઓનાં પ્રાણોનાં વિરૂદ્ધનું આચરણ તેમાં થતું નથી, તેથી પણ तेनु नाम विश्वास छ. (५१) प्रासाने ते लय २डित 3रे : . तथा निયતાને માટે કારણભૂત હેવાથી તેનું નામ “એમ” છે. (૫૨) બીજાં જેની મા-ધન-લક્ષ્મી અને પ્રાણરૂપ લક્ષ્મીને તેમાં ઘાત થતું નથી, તેથી તેનું નામ " अमाघाय" अमाघात छ. 'मा' शन्नो मर्थ सभी थाय छ-चन३५ લક્ષ્મી અને પ્રાણરૂપ લક્ષમી, એ રીતે તેના બે પ્રકાર પડે છે. અહિંસાને એ બંનેનું સરક્ષણ થાય છે તે વાત પ્રત્યક્ષ છે. (૫૩) તે અહિંસા પવિત્ર વસ્તુઓ ४२i ५ पधारे पवित्र छ, तथा तेनु नाम " चोक्खा " चोक्षा छ. (५४) તેનાથી આત્મા ઉપર જામેલો અનાદિકાળને મેલ-વિભાવ પરિણતિ-દૂર થઈ જાય છે, તેથી આત્મા પિતાનાં નિર્મળ સ્વરૂપમાં મગ્ન થઈ જાય છે. તે કારણે For Private And Personal Use Only Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ०१ सू० २ प्रथम संवरद्वार निरूपणम् ५६९ 1 " f 1 सुई' शुचिः =भावसौचहेतुत्वात् २६, '' पूजा=भावचिना- प्राण्युपमर्दनरहितत्वात् ५७' 'विमल' चिमटा - मिध्यात्वावित्यादिमलवर्जितत्वात, ५८, प्रभासा य' प्रभासा च - प्रकाशरूपा केवलज्ञानज्योतीरूपत्वात्, सर्वप्राणिनां सुखप्रकाशत्वाच्च ५९, 'निम्मलतरा निर्मलतरा - सकलकर्म मलवर्जितस्वात् ६०, 'त्ति एवमादीणि' इत्येवमादीनि 'नियगुणनिम्मियाई' निजगुणनिर्मितानि= गुणलक्षितानि पञ्जवनामाथि पर्यागनामानि तत्तत्तद्धर्माश्रिताभिधानानि, हुति' भवन्ति ' अहिंसाए भगवईए ' अहिंसाया भगवत्याः ॥ ०२ ॥ जाती है इसलिये इस आत्माकी निर्मलता का कारण होने से इस अहिंसा का नाम (पा) पवित्र है ५५१ आव शुचिता का कारण होने से इसका नाम (सुई) शुचि है ६ | इस अहिंसा में प्राणियों के प्राणों का उपमर्दन नहीं होता है अतः यह भावपूजारूप होने से इसका नाम (पूया ) पूजाभावपूजा ॥ ५७ इसकी जो आराधना करते हैं वे मिश्रात्व अविरति आदिमों से वर्जित हो जाते हैं इसलिये इसका नाम (विमल ) विमला है ५८ । यह अहिंसा केवलज्ञानरूप ज्योति स्वरूप होने से ( पभासा य ) एक प्रकाशरूपा है। इसलिये इसका नाम प्रभास है ५९ । इसकी प्रादुर्भूत होते ही आत्मा से सकल कर्मों का अभाव हो जाता है अतः इसकानाम ( निम्मलतरा ) निर्मलतरा है ६० । ( एवमादोणि निगुणनिमिवाई पज्जवनानाणि होति अहिंसाए भगवईए) इस प्रकार इस अहिंसा भगवती के ये साठ नाम गुणानुसार हैं। ये नाम इस अहिंसा भगवती के पर्यायवाची तत्तद्धर्म की अपेक्षा को लेकर शब्द हैं | सू० २ ॥ 66 આત્માની નિર્મળતા માટે કારણભૂત હોવાથી તે અહિંસાનુ' નામ 66 पवित्ता " पवित्रता छे. (५) लाव शुचिताना अर३५ होवाथी तेनु " सुई " शुचि છે. (પ૬) આ અહિંસામાં પ્રાણીઓના પ્રાણાનું ઉપમન થતું નથી તેથી તે ભાવપૂજારૂપ હોવાથી તેનું નામ पूया " पूल लावपून छे. (५७) ने तेनी આરાધના કરે છે તે મિથ્યાત્વ, અવિરતિ આદ્ધિ મળેથી રહિત થઇ જાય છે, તેથી તેનું નામ " विमल " त्रिमला छे. (५८) या अहिंसा ठेवण ज्ञान રૂપ વ્યેતિસ્વરૂપ હાવાથી प्रभासाय એક પ્રકાશરૂપ છે, તેથી તેનુ નામ प्रभास है, (५) तेन प्रादुर्भाव थतां आत्मामाथी धीरे धीरे सघणा કાંના અભાવ થઇ જાય છે, તેથી તેનુ નામ निम्मतरा " निर्मलतरा छे. (१०) 'एवमादीणि नियगुणनिम्मयाई पज्जवतामणि होति अहिंसाए भगवईए આ પ્રમાણે આ અહિંસા ભગવતીના ગુણ પ્રમાણે સાડ઼ નામ છે. તે નામે આ અહિંસા ભગવતીના પર્યાયવાચી-તે તે ધની અપેક્ષાએ શબ્દ છે !સૂર " 16 ५० ७२ For Private And Personal Use Only ܕܕ Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५७० प्रश्नब्याकरणसूत्रे संमति अहिंसामाहात्म्यमाह मूलम्-एसा भगवई अहिंसा, जा सा भीयाणं पिव सरणं पक्खणिं पिव गयणं, तिसियाणं पिव सलिलं, खुहियाणं पिव असणं, समुद्दमझेव पोषवहणं, चउप्पयाणं च आसमपयं, दुहट्रियाणं च ओसहिबलं, अडवीमज्झे च सत्थगमणं, एत्तो विसिट्रतरिया अहिंसा जा सा पुढवीजल अगणि मारुयवणस्सइ - बीय -- हरिय -- जलचर--- थलचर-खहयर तस-थावर-सव्वभूयखेमकरी ॥ सू० ३॥ _टीका-'एसा भगवई ' इत्यादिएषा-जिनशासनप्रसिद्धा-अहिंसा भगवती या सा ‘भोयाणं पिव सरणं' भीतानामिव शरणम्=भय भीतानां प्राणिनां त्राणाथ गृहमिवास्ति, ‘पकवीणंपिच गयणं ' पक्षिणामित्र गगनम्-पक्षिणां गगनमिव, यथा पक्षिणां गमने गगनमाधारो भवति, तथैव सर्वधर्माणामियमहिंसाऽऽधारः। 'तिसियाणं पिब सलिलम्= __ अब सूत्रकार इस अहिंसा के माहात्म्य को प्रदर्शित करते है'एसा भगवई' इत्यादि। टीकार्थ-( एसा ) जिनशासन में प्रसिद्ध यह ( अहिंसा भगवई ) अहिंसा भगवती (जा सा ) जो वह अहिंसा (भीयाणं पिव सरणं ) भयभीत हुए प्राणियों की रक्षा करने के लिये घर जैसी है। (पक्खीणं पिव गगणं ) तथा जिस प्रकार पक्षियों को गमन करने में आधारभूत आकाश होता है उसी तरह समस्त धर्मों की आधारभूत यह अहिंसा ही है। (तिसियाण पिव सलिलं ) जिस प्रकार तृषित व्यक्तियों की 6 सूत्रा२ मा मरिसानु मान्य शांव छ–“ एसा भगवई " त्या. “एसा" MAAसनमा प्रसिद्ध ते" अहिंसा भगवई " भडिंसा माती, "जा सा” “भियाणं पिंव सणं" भयभीत गनेर प्राणी मानी २२॥ ४२. वा माटे ५२ समान छ, “पक्खीणं पिव गगणं " तथा भ पक्षीशान ગમન કરવામાં આકાશ આધારભૂત થાય છે, એ જ પ્રમાણે સમસ્ત ધર્મોને भाटे माधारभूत २ महिसास छ, “ ति सियाणं पिव सलिलं" म तर. For Private And Personal Use Only Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० १ सू० ३ अहिंसामाहात्म्यनिरूपणम् ૧૭૨ , तृषितामिव सलिलम् = जलम्, प्राणरक्षकत्वात्, 'खुहियाणं पिव असणं' क्षुधितानामिवाशनम् = क्षुधार्तप्राणिनां कृतेऽशनं भोजनमित्र, अन्नग्राणाः इति वचनात् । तथा - ' समुहमझे व पोहणं समृद्रमध्ये इव पोतवहनम् - यथा समुद्रमध्ये नौः प्राणिनां त्राणाय भवति, तथैव संसारसमुद्रमध्ये इयमहिंसा प्राणिनां त्राणाय पोतायते इति भावः । तथा - 'चउप्पयाणं च आसमपयं ' चतुष्पदानां च आश्रमपदम् - यथा चतुष्पदप्राणिनां कृते गोष्ठं विश्रामस्थानं तथैवाहंसापि सर्वप्राणिनां 66 प्राणरक्षा का साधनभूत जल होता है उसी प्रकार यह अहिंसा भी प्राणियों के प्राणों की रक्षा का एक साधन है । (खुहियाणं पिव असणं) अन्न ही प्राण है" इस उक्ति के अनुसार जिस प्रकार भूख से पीडित हुए प्राणियों के लिये भोजन एक मात्र आधारभूत होता है उसी प्रकार यह अहिंसा भी जीवों की रक्षा करने का एक सर्वोत्तम साधन है । ( समुद्दमज्झेव पोपवहणं ) समुद्र के बीज में नौका जिस प्रकार प्राणियों की रक्षा करने वाली होती है उसी प्रकार संसार समुद्र के बीच में पतित हुए प्राणियों की रक्षा करने के लिये यह अहिंसां ही एक सर्वोत्तम द्रढ नौका जैसी है। (चउप्पयाणं च आसमपयं ) चतुष्पद - जानवरों के लिये जिस प्रकार विश्रामस्थल गोष्ठ होता है उसी प्रकार यह भगवती अहिंसा भी सर्वप्राणियों के लिये सर्वोत्तम विश्रामस्थल है । (दुहट्ठियाणं च ओसहिबलं ) रोगग्रस्त व्यक्तियों को जिस प्रकार ओषधि का सहारा होता है उसी प्रकार कर्मरोगग्रस्त भव्य जीवों के સ્યાઓની પ્રાણરક્ષા માટે પાણી સાધનરૂપ અને છે, એ જ પ્રમાણે આ અહિંસા पशु प्राशुयाना आशु मथाववानु मे साधन छे. " खुहियाणं पिच असणं " “ અન્ન જ પ્રાણ છે ” તે કથન પ્રમાણે જેમ ક્ષુધાથી પીડાતા પ્રાણીએ માટે ભોજન જ એક માત્ર આધાર હોય છે એ જ પ્રમાણે આ અહિંસા પણુ लवानु' रक्षा खानु सर्वोत्तम साधन हे “ समुद्दमज्जेव पोय वहणं " સમુદ્રની વચ્ચે જેમ નૌકા પ્રાણીઓનુ રક્ષણ કરે છે તેમ સ ́સાર સાગરમાં ડૂબેલા પ્રાણીઓની રક્ષા કરવાને માટે આ અહિંસા જ મજબૂત નૌકા જેવી छे. " चउपयाणं च समपयं " अतुष्पह-लनवरोने भाटे भगोष्ठ (वाडे) વિશ્રામસ્થાન હોય છે એ જ પ્રમાણે આ ભગવતી અહિંસા પણ સમસ્ત आशीखाने भाटे सर्वोत्तम विश्रामस्थान छे. " दुहट्टियाणं व ओसहि बलं " રાણીને જેમ ઔષિધના સહારા હોય છે તેમ ક રોગગ્રસ્ત ભવ્ય વાને For Private And Personal Use Only Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकणसूत्र विश्रामस्थानम् । तथा- दुहहियाणं च ओसहिवलं' दुःखस्थितानां च ओषधिघलम्-रोगग्रस्तानां प्राणिनां कृते थथौषधम् तथैव कर्मरोगग्रस्तानां कृतेऽहिंसौषधम् , तथा- अडवीमज्झे च सत्यगमणं' अटवीमध्ये इव सार्थगमनम्-यथा-अटवीमध्ये सार्थेन सह गमनं सुखकरं भवति, तथैव मोक्षमार्गपस्थितानामहिंसा किम धिकम् ? 'एत्तो' इतः एभ्यः पूर्वक्तिभ्योऽपि अहिंसा — विसिट्टतरिया' विशिष्टतरिकाविशिष्टतरा । 'जा सा' या साहिंसा 'पुढवी-जल-अगणि-मारुय-वणस्सइबीय-हरिय-जलचर-थलचर-वहयर-तस-थावर-सव्यभूय-खेमकरी' पृथिवीजलाग्नि मारुत-वनस्पति-बोज-हरित-जलचर-स्थलवर-खेवर.त्रस-स्थायरसर्वभूतक्षेमकरी। पृथिव्यादिषट्कायजीवानां कल्याणकारी वरीवति दयाभगवती ॥मू-४।। अहिंसा ही एक परम औषधीरूप है । ( अडवोमज्झे वसत्थगमणं) जंगल के बीच में जिस प्रकार सार्थ-समुदाय के साथ चलना मुखपद होता है उसी प्रकार मोक्षमार्ग में प्रस्थित हुए मनुष्य को यह अहिंसा है अर्थात्-सार्थ का काम देती है । और अधिक क्या कहें- ( एत्तो) इस पूर्वोक्त उपमानों से भी (विसितरिया ) अहिंसा विशिष्टतर है। क्यों की (जा सा अहिंसा) यह जो अहिंसा है वह ( पुढधी जलअगणि-मारुय-वणस्सइ-बीय-हरिय-जलचर-थलचर खहयर तस-थावर सव्वभूयखेमकरी) पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति, धीज, हरित, जलचर, थलचर, खेचर, बस और स्थावर इन सब भूतों की-पृथिव्यादि छह काय के जीवों की-कल्याणकरी-रक्षा करने वाली है। भावार्थ-इस अहिंसा भगवती के समक्ष संसार के सभी विशिष्ट जड़ पदार्थ तुच्छ है । क्यों कि उनसे जीवों की यथार्थरूप में रक्षा नहीं भाट महिंसा १ मे भारी गोष५३५ छ. “ अडवीमझे वसत्य गमण १२ જંગલની વચ્ચે સાર્થ-સમુદાયની સાથે જવાનું સુખકારી હોય છે તે જ પ્રમાણે મેક્ષ માર્ગે પ્રયાણ કરતા મનુષ્યોને માટે અહિંસા સાથેની ગરજ સારે છે, पधारे शु ! ' एत्तो” पूर्व प्रथित माने ४२i पण "विसिद्रतरिया" महिंसा मधित२ छ १२९१ "जा सा अहिंसा" २२ मडिसा छ ते " पुढवीजलअगणि-मारुय-वणस्सइ-बीय -हरिय-जलयर- खयर - तस - थावर सव्वभूय- खेमकरी' पृथिवी, रस, मसि. वायु. वनस्पति, मीन, हरित, જલચર, થલચર, ખચર, ત્રસ, અને સ્થાવર તે બધા ભૂતની પૃથિવ્યાદિ છે કાયનાં છાની કલ્યાણકારી-રક્ષા કરનારી છે. ભાવાર્થ-આ ભગવતી અહિંસાની આગળ સંસારના સઘળા વિશિષ્ટ જડ પદાર્થો તુચ્છ છે કારણ કે તેમનાથી યથાર્થ રીતે છાની રક્ષા થતી નથી જે For Private And Personal Use Only Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० १सू० ४ अहिंसाधारकपुरुषस्वरूपनिरूपणम् अथ ये महापुरुषैरियमहिसोपलब्धा सेविता च तानाह- एसा भगवई' इत्यादि मूलम् - एसा भगवई अहिंसा जा सा अपरिमिय नाण दसणधरोहिंसीलगुण-विणय-तव-संजम नायगेहिं तित्थकरेहिं सव्वजगजीववच्छल्लेहिं तिलोगमहिएहिं जिणचंदेहिं सुट्ठ दिट्टा, ओहि जिणेहिं विण्णाया, उज्जुमईहिं विदिट्ठा विउलमईहिं विदिता, पुठवधरेहिं अधीया, वेउवीहिं पइ. ण्णा, आभिणिबोहियनाणीहिं सुयनााणीहि मणपज्जवनाणीहिं केवलणाणीहि आमोसहिपत्तेहिं खेलोसहिपत्तेहिं विप्पोसहिपत्तेहिं जल्लोसहिपत्तेहिं सब्बोसहिपत्तेहिं बीयबुद्धिएहिं कोहबुद्धीहिं पयाणुसारीहि संभिण्णसोपहिं सुयधरेहिं मणबलिएहि बयबलिएहि कायबलिएहिं नाणबलिएहिं दंसणबलिएहि चरित्तालिएहिं खीरासवेहि महुआसबेहि सप्पियासवेहिं अखीण महाणसिएहि चारणेहिं विज्जाहरेहिं चउत्थभत्तिएहिं छट्टभत्तिएहिं दसमभत्तिएहिं एवं दुवालसचउदससोलस--अद्धमास-मास--दोमास तिमात-चउमास. पंचमास छम्मासभत्तिएहि उक्खित्तचरएहिं एवं निक्खित्त चरएहि अंतचरएहि पंतचरएहिं लूहचरएहि समुदाणिहोती है। यदि यथार्थरूप में जीवों की रक्षा करने वाली-अभयप्रदान करने वाली यदि कोई सर्वोत्तम वस्तु है तो वह एक अहिंसा ही है ॥सू०३॥ अब सूत्रकार जिन महा पुरुषों ने इस भगवती अहिंसा की प्राप्ति યથાર્થ રીતે જેની રક્ષા કરનારી-અભયપ્રદાન કરનારી કઈ પણ સર્વોત્તમ વસ્તુ હોય તે તે એક માત્ર અહિંસા જ છે. જે સૂ-૩ ! હવે સૂત્રકાર જે મહાપુરુષેએ આ ભગવતી અહિંસાની પ્રાપ્તિ તથા સેવા For Private And Personal Use Only Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५७४ प्रश्नव्याकरणस्त्रे चरएहि अण्णगिलाइएहिं मोणचरएहि संसट्रकप्पिएहिं तज्जायसंसट्टकप्पिएहिं उवनिहिएहि सुद्धेसणिएहि संखादत्तिएहिं दिटुलाभिएहिं अदिठ्ठलाभिएहिं आयंबिलिएहिं पुटुलाभिएहिं आयंबिलिएहिं पुरिमड्डिएहिं एकासणिएहिं निविइएहि भिन्नपिंडवाइएहिं परिमियपिंडवाइएहिं अंतहारेहि पंताहारेहिं अरसाहारेहिं विरसाहारेहिलूहाहारेहिं तुच्छाहारेहिं अंतजीविहिं पंतजीविएहि लहजोविहिं उवसंतजीविएहिं पसंतजीविहिं विवित्तजीविहिं अखीरमहसप्पिएहिं अमज्जमसासिएहि पडिमट्ठाइएहिं ठाणुकडिएहि वीरासणिएहि सजिएहिं डंडायइएहिं लगंडसाईहि एगपसिएहिं आयावएहि अवाउडएहिं अणि?यएहिं अकंडुयएहि धुयकेसमंसुलोमनहेहि सव्वगायपडिकम्मविप्पमुक्केहि समणुचिन्ना, सुयधरविदियत्थकायवुद्धिणो धीरमइबुद्धिणो य जे ते आसीविसउग्गतेयकप्पा निच्छयववसाय पजत्तकयमइया णिच्चं सज्झायज्झाणा अणुबद्धधम्मज्झाणपंचमहव्वयघ. रित्तजुत्ता, समिया समिईसु, समियपावा,छविह जगवच्छला, निच्चमप्पमत्ता, एएहिं अन्नेहि य जा सा अणुपालिया भगवई ॥ सू० ४ ॥ टीका-' एसा भगवई ' इत्यादि 'एसा भयवई अहिंसा' एषा भगवती अहिंसा-एषा पूर्वोक्ता भगवती पूजनीया सर्वज्ञप्ररूपिताऽहिंसैव सम्यगहिंसाऽस्ति, न तु सर्वज्ञे तरकल्पिता । 'जा' की है, तथा सेवा की है उन महापुरुषों को प्रकट करते हैं-'एसा भगबई' इत्यादि। टीकार्थ- एसा भगवई अहिंसा) यह क्ति भगवति अहिंसा सर्वज्ञ द्वारा प्ररूपित अहिंसा-ही सची अहिंसाहै, सर्वज्ञ से भिन्न इतर ४१ छ ते महापुरुषाना नाम प्राट ४२ छे–“ एसा भगवई " त्यादि साथ-"एसा भगवई अहिंसा" मा पूर्वात सती अडिस-सज्ञ द्वा२॥ પ્રરૂપિત અહિંસા જ સાચી અહિંસા છે, સર્વજ્ઞ સિવાયના બીજા છમસ્થ For Private And Personal Use Only Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनटीका अ० १ सू० ४ अर्हिसाधारक पुरुषस्वरूपनिरूपणम् ५७५ या = जिनसिद्धान्तोक्ता अहिंसा 'सा' सा' अपरिमियनाणदंसणधरेहिं ' अपरिमितज्ञानदर्शनधारकैः 'सीलगुणविणयतवसंजमनायगेहिं " शीलगुणविनयतपः संयमनायकैः, शीलं चित्तसमाधानं तदेवगुणस्तं तथा विनयतपः संयमांश्च स्वस्य परेषां च नयन्ति मापयन्ति ये ते तैस्तथोक्तेः ' तित्थंकरेहि' तीर्थङ्करैः = चतुर्विधसंघनायकैः 'सत्रजगजीववच्छले हिं ' सर्वजगज्जीववत्सलै:-सकलप्राणिकारुण्योपेतैः = योगक्षेमकारिकत्वात्, ' तिलोग महिएहिं ' त्रिलोकमहितैः = त्रिलो कपूजितैः = तीर्थंकर नामकर्मणो जगत्पूजनीयत्वात्, 'जिगचंदेर्हि ' जिनचन्द्रैः= जिनानां सामान्य जिनानां मध्ये चन्द्रा इव तैः कारुणिकनिशाकरैरित्यर्थः, 'मुटुदिवा' सुष्ठु दृष्टा - केवलालोकैः कारणतः स्वरूपतः कार्यतश्च सम्यग विनिश्चिता, छद्मस्थ प्राणियों द्वारा कथित अहिंसा सच्ची अहिंसा नहीं है- इस तरह ( जा ) जिन सिद्धान्तोक्त जो अहिंसा है (सा) वह (अपरिमिथनाणदंसणधरेहिं ) अपरिमित - अनंत - ज्ञान और दर्शन के धारण करने वाले (सीलगुणवियतवसंजमनायगेहि ) शील रूपगुण विनय एवं तप, इनका स्वयं आचरण करने वाले और परको आचरण कराने वाले (तित्थंकरेहि) तीर्थकर - चतुर्विध संघ का नेतृत्व करनेवाले (सव्यजगजीववच्छले हि) समस्त जगत के जीवों के प्रतिवात्सल्यभाव रखने वाले और (तिलोग महिएहि ) तीर्थंकर नामकर्म जगत्पूज्य होने के कारण तीनों लोकों द्वारा पूजे जाने वाले, ऐसे ( जिणचंदे हि ) जिन चंद्रोने सामान्य जिनों की बीच में चंद्रमा के तुल्य तीर्थकर महाप्रभुओं ने यह अहिंसा भगवनी को पूर्वोक्त प्रकार से ( सुट्ठदिठ्ठा ) अपने केवलालोक से कारण स्वरूप को, एवं कार्य की अपेक्षा को लेकर अच्छी 66 22 જીવો દ્વારા કથિત અહિંસા સાચી અહિંસા નથી. આ રીતે जा निन सिद्धांतो ने अहिंसा छे " सा " ते " अपरिमियनाणदंसणधरेहि " अयરિમિત-અનંત–જ્ઞાન અને દર્શનના ધારક सीलगुणविणयत्व संजना यगेहिं શીલરૂપણુ, વિનય અને તપનું જાતે આચરણ કરનારા અને ખીજાને તેનું આચરણ કરાવનારા तित्थकरेहिं " तीर्थ ४२-तुर्विध संध नेतृत्व ५२नारा " सव्वजगजीववच्छले हिं " भगतना समस्त वो प्रत्ये वात्सव्यभाव रामनारा भने “ तिलोगमहिएहिं " तीर्थ १२ नाभउस गत्यूल्य होवाने अगे (C बोउ द्वारा पुन्ननारा, मेवा " जिणचं देहिं "भिनय द्रोणे - सामान्य निनोनी અંદર ચંદ્રમા સમાન તીર્થકર મહાપ્રભુએએ આ ભગવતી અહિંસાને પૂર્વક્તિ शेते " सुठु दिट्ठा " पोताना ठेवलासोथी अणु स्वइये, मने अर्यांनी अपेક્ષાએ સારી રીતે દેખી છે-નિશ્ચિત કરી છે. તેમણે તેના ખાદ્ય અને અભ્ય For Private And Personal Use Only Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे तत्र गुरूपदेशः, कर्मक्षयोपशमादि बाहयाभ्यन्तरं कारणमस्याः प्रमत्तभोगात्प्राणव्यपरोपगलक्षणहिंसापतिपक्षरूपं स्वरूपम् , स्वर्गापवर्गमाप्तितिलक्षणं च कार्यम् , इति । तथा-'ओहिजिणेहिं' अधिजिन-विशिष्टावधिज्ञानिभिः ‘विण्णाया ' विज्ञाता= भेदप्रभेदैविदिता, तथा ' उज्जुमईहिंवि' ऋजुमतिभिरपि-मननं मतिः-संवेदनमित्यर्थः, ऋज्वी सामान्यग्राहिणी मतिबुद्धियेषां ते ऋजुमतया अर्धतृतीयाइगुल. न्यूनमनुष्यक्षेत्रवति संज्ञि पश्चेन्द्रियमनोद्रव्यप्रत्यक्षीकरणहेतुमनःपर्यायज्ञानभेदवन्तस्तैरपि, दिवा' दृष्टा, तथा-' विउलमईहिं ' विपुलमतिभिः पर्यायशतोपेता चिन्तनीय घटादिवस्तुविशेषग्राहिणी मति बुद्धि येषां ते विपुलमतयस्तैः विदिता= तरह देखी है-निश्चित की है। उन्हों ने इसके बाह्य और आभ्यन्तर कारण गुरुपदेश, कर्मक्षयोपशम आदि कहे हैं। इसका स्वरूपप्रमत्तयोग से जो प्राणव्यपरोपगरूप हिंसा का स्वरूप है उससे विपरीत स्वरूप प्रकट किया है । तथा स्वर्ग और अपवर्ग की प्राप्ति होना इसका कार्य कहा है। ( ओहिजिणेहि विगाया ) विशिष्ट अवधि ज्ञानियों द्वारा यह अहिंसा भगवती भेद प्रभेदों सहित विदित हुई है। तथा ( उज्नुमईहिं विदिट्ठा ) ऋजुपति मनः पर्यय ज्ञानियों द्वारा यह प्रत्यक्ष रूप में देखी गई है। जो विषय को सामान्यरूप से जानता है वह ऋजुमतिमनः पर्यय है । यहां पर ऐसी आशंका नहीं करना चाहिये कि " जब ऋजुमति सामान्यग्राही है तब तो यह दर्शन ही हुआ उसे ज्ञान क्यों कहा क्यों कि यह सामान्यगाही है" इसका तात्पर्य इतना ही है कि वह विशेषोको जानता है पर विपुलमति जितने विशेषों को नहीं जानता। अर्धतृतीयअइगुल न्यून-अर्थात् ढाई अंगुल कम मनुष्य क्षेत्र में रहे ન્તર કારણ ગુરૂપદેશ, કર્મક્ષપશમ આદિ બતાવેલ છે. તેનું સ્વરૂપ-પ્રયત્ત ગથી જે પ્રાણ હરનાર હિંસાનું સ્વરૂપ છે તેના કરતાં ઉલટું સ્વરૂપ પ્રગટ કરેલ છે. તથા સ્વર્ગ અને અપવર્ગની પ્રાપ્તિ થવી તે તેનું કાર્ય કહેલ છે. "ओहिजिणेहि विण्णाया" विशिष्ट मधिज्ञानीया द्वारा भगवती मासा मह, प्रमेह सात सभरवाभा मावस छ. तथा " उज्जुमईहि विदिवा " *तुमति मनः पयज्ञानीया बारा ते पत्यक्ष ३ सेवामा सावेत છે. જે વિષયને સામાન્ય રીતે જાણે છે તે બાજુમતિ મનઃ પર્યાય છે. અહીં એવી શંકા ન કરવી જોઈએ કે “જે જજુમતિ સામાન્યગ્રાહી છે તે તે “ દર્શન” જ ગણાય. તેને જ્ઞાન કેમ કહ્યું? કારણ કે તે સામાન્યગ્રાહી છે” તેને ભાવાર્થ એટલે જ છે કે તે વિશેષોને જાણે છે પણ વિપુલમતિ જેટલા विशेषाने तो नथी. “ अधतृतीयअङ्गुलन्यून" मेट से मढी मांग For Private And Personal Use Only Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० ५ सू० ४ अहिंसागप्तमहापुरुषनिरूपणम् ५७७ विशेषतो दृष्टा, एते उभयेऽपि मनः पर्ययज्ञानिनः । तथा – 'पुयधरेहिं । पूर्वधरैः-उप्तादाग्रायणीयवीर्यादि चतुर्दश पूर्वधरैः( अधीया अधीता श्रुतनिवद्धा पठिता, तथा — वे उठवी हिं' वैकुर्विकैः चैकियलब्धिधारिभिः, 'पइण्या' प्रतीर्णा= निस्तीर्णा-आजन्मपरिपालितेत्यर्थः, तथा-' आभिणिबोहियनाणी हिं' आभिनिबोधिकज्ञानिभिः, अभि=अर्थाभिमुखः-अविपर्ययरूपत्वात् , नि-नियतोऽसंशयरूपत्वात् , बोधः =संवेदनम् अभिनिवोधः, स एव आभिनिवोधिकम् , ज्ञायतेऽनेनेनि ज्ञानम् , आभिनियोधिकं च तज्ज्ञानम्-आभिनियोधिकज्ञानम्-इन्द्रिय नोइन्द्रिय निमित्तो बोध इत्यर्थः, सोऽस्ति येषां तैस्तथोक्तैः, मतिज्ञानवद्भिरित्यर्थः, हुएसंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के मनोद्रव्यों को यह ऋजुमति साक्षात् जानता है । यह ज्ञान का मनापर्पयएक भेद है । ( विउलमहिं विदिया) मनः पर्यय ज्ञानका दुसरा भेदविपुलमति है । इस विपुलमति मनः पर्ययज्ञानवाला पदार्थी को ऋजुमति की अपेक्षा विशुद्धतर आदि रूप से जानता है । क्यों कि यह मति पर्यायशतोपेत होती है, तथा चिन्तनीय घटादि वस्तुओं में सूक्ष्मतर आदि रूप से वर्तमानधमों को जानती है। उन ऐसे विपुलमति मन पर्यय ज्ञानियों द्वारा यह भगवती अहिंसा ऋजुमति की अपेक्षा अधिक और विशेषरूप से विदित-ज्ञातदृष्ट हुई है । तथा (पुयधरेहिं अधीया) उत्य दपूर्व, अमायणीपूर्व, वीर्यप्रवाद आदि चतुर्दशपूर्व के धारी महात्माओं ने-श्रुतज्ञानियों नेश्रुत में निबद्ध हुई इस अहिंसा भगवती को पढा है। ( वेउव्वीहिवेइण्णा) वैक्रिपलब्धि धारो मुनिजनों ने इसे आजन्म पाला है। ( आभिणियोहियागोहि,मुधनाणीहि म गाजवनाणीहिं केवलनाणीहिं ) ઓછા મનુષ્યક્ષેત્રમાં રહેલ સંસી પચેન્દ્રિય જીનાં મનોદ્રને તે ત્રાજીમતિ साक्षात तो छे. मनः पयज्ञानना २ मे से छे. “ विउलमईहिं विदिआ" મન:પર્યવ જ્ઞાનનો બીજો ભેદ વિપુલમતિ છે આ વિપુલમતિ મનઃ પર્યાય જ્ઞાનવાળા પદાર્થોને જુમતિના કરતા વધારે વિશુદ્ધ રૂપે જાણે છે. કારણ કે મતિપર્યાય તે પિત હોય છે, તથા કલ્પનીય ઘટાદિ વરતુઓમાં સૂફમતર આદિ રૂપે વર્તમાન ધર્મોને જાણે છે. એવા તે વિપુલમતિ મન:પર્યજ્ઞાનીઓ દ્વારા આ ભગવતી અહિંસા ઋજુમતિના કરતાં અધિક અને વિશેષ રૂપે વિદિત -ज्ञात-४ १७ तथा पुयधरेहिं अधीया" ५६; २मश्रायणीपूर्ण, વીર્યપ્રવાદ આદિ ચૌદ પૂર્વના ધારક મહાત્માઓએ-શ્રુતજ્ઞાનીઓએ–શ્રતમાં थायेर आ लाती मडि सार्नु अध्ययन यु छ, “वेउव्वीहिं वेइण्णा" वैयारी भुमिनाये तेनुं मा पासन . ' आभिणिबोहियनाणीहिं सुयनाणी हिं, मणपज्जवनाणीहिं केवलनाणीहिं "न्द्रिय अन ना. प्र. ७३ For Private And Personal Use Only Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे तथा-' सुयनाणीहिं ' श्रुतज्ञानिभिः श्रुतम्-आचाराङ्गादि, तद्वेदिभिरित्यर्थः, तथा-' मणपज्जवनाणीहिं ' मनःपर्यवज्ञानिभिः-मनसो मन्यमानमनोद्रव्याणां पर्यवः परिच्छेदो मनः-पर्यवः, स एव ज्ञानम् , मनःपर्यवज्ञानम् , तदस्ति येषां ते तथोक्तास्तैः, नथा-' केवलनाणीहि ' केवलज्ञानिभिः केवलमेकमसहायमनन्तं परिपूर्ण यद् ज्ञानं तत्केवलज्ञानं, तदस्यास्ति येषां ते तथोक्ताः, तथा-' आमोसहिपत्तेहिं ' आमौंपधिप्राप्तः,-आमशः शरीरसंस्पर्शः, स एवौषधिः-सर्वरोगापहारित्वात्-तपश्चरणप्रभादो लब्धिविशेषस्ता प्राप्ता ये ते तथोक्तास्तैः, तथा'खेलोसहिपत्तेहिं ' लेष्णोपधिमाप्तः- लेष्मा एव ओषधिर्भवति यत्र लब्धौं सा इन्द्रिय और नो इन्द्रिय इनले उत्पन्न जो ज्ञान होता है उसका नाम आभिनियोधक ज्ञान है। 'अभि' और 'नि' ये दो उपसर्ग यह प्रकट करते हैं कि यह ज्ञान सन्मुख रखे हुए नियमित क्षेत्रवर्ती पदार्थ को ही जान सकता है। इस आभिनियोधिक ज्ञानियों द्वारा मतिज्ञानधारियों द्वारा, तथा आचारांग आदि श्रुत के जानने वालों द्वारा, तथा मनः पर्यवज्ञानियों द्वारा,-मनवाले-संज्ञि प्राणी-किसी भी वस्तु का चिन्तवन मनसे करते हैं । चितवन के समय चिन्तनीय वस्तु के भेद के अनुसार चितवनकार्य में प्रवृत्तमन भिन्न २ आकृतियों को धारण करता रहता है वे आकृतियां ही मन की पर्याये हैं, और उन मानसिक आकृतियों को साक्षार जानने वाला ज्ञान भनापर्यव ज्ञान हैं, इस मनः पर्यव ज्ञान को धारण करने वाले मुनिजनों द्वारा, तथा केवल ज्ञानियों द्वारा-असहाय, एक, अनन्त, परिपूर्ण यह केवल शब्द का अर्थ है, ऐसा जो ज्ञान होता हैं वह केवल ज्ञान है, यह ज्ञान जिस आत्मा में होता है उसका नाम केवलज्ञानि है ऐसे केवल ज्ञानि आत्माओं द्वारा न्द्रिय 43 Gura थयेटर ज्ञान छ तेनुं नाम शामिनिमाय ज्ञान छ “अभि" भने “ नि ('मेमने ७५स से प्रगट ४२ छे ते ज्ञान सन्भु रामेस નિયમિત ક્ષેત્રવતી પદાર્થને જ જાણી શકે છે. તે અભિનિધિક જ્ઞાનીઓ દ્વારા, મતિજ્ઞાનધારીઓ દ્વારા તથા આચારાંગ આદિ સૂત્રોના જાણકાર દ્વારા તથા મન પર્યય જ્ઞાનીઓ દ્વારા-મનવાળ-સંજ્ઞી પ્રાણી--કોઈ પણ વસ્તુનું મન વડે ચિતવન કરે છે. ચિત્તવનને વખતે જેનું ચિત્તવન કરવામાં આવે છે તે વસ્તુના ભેદ પ્રમાણે ચિન્તનકાર્યમાં પ્રવૃત્ત થયેલ મન જુદી જુદી આકૃતિને ધારણ કરતું રહે છે તે આકૃતિ જ મનની પર્યા છે. અને તે માનસિક આકૃતિને પ્રત્યક્ષ જાણનાર જ્ઞાન મન:પર્યવ જ્ઞાન છે, તે મનઃ પર્યય જ્ઞાનને ધારણ કરનાર મુનિઓ દ્વારા, તથા કેવળજ્ઞાનીઓ દ્વારા–અસહાય, એક. અનन्त, परिपूर्णते “ वर" शहना अर्था छ, मेरेशान छ तेने पण. For Private And Personal Use Only Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दर्शिनी टीका म० १ २) ४ अहिंसाप्राप्तमहापुरुषनिरूपणम् *लेष्मौषधिस्ता प्राप्ता अधिगता ये ते सैस्तथोक्तैः, तथा ' जल्लोसहिपत्तेहिं ' जल्लौषधिषाप्तैः. जल्ल:= शरीरसमुद्भवश्चमलः स एवौषधिस्तां प्राप्ता ये तैस्तथोक्तः, तथा 'विप्पोसहिपत्तेहि ' विग्रुडोपधिप्राप्तैः, विग्रुपः मुखविन्दवः, त एव ओषधिविडोपधिस्तां प्राप्तास्तैस्तथोक्तैः, तथा- सव्योसहिपत्तेहिं सर्वम् कर्णवदननासिकानयनजिहासमुद्भवं मलं तदेव ओषधिस्ताम्प्राप्तास्तैस्तथोक्तैः, तथा-'बीयबुद्धिएहिं ' बीजबुद्धिकः, बीजमिव विविधार्थाधिगमरूपमहातरुजननाद् बुद्धिर्येषी ते बीजबुद्धयस्तैस्तथोक्तैः, अयं भावः-उत्पादव्ययधौव्ययुक्तं सदित्यादिवदर्थप्रधान पदमर्थपदं, तेनैकेनापि वीजभूतेनाधिगतेन येऽन्यं प्रभूतमप्यर्थमनुसरन्ति ते बीजबुद्धय- उच्यन्ते, तथा — कोहबुद्धिएहि ' कोष्ठबुद्धिकैः-कोष्ठप्रक्षिप्तधान्यमिव येषां मूत्रार्थी मुचिरमपि तिष्ठतस्ते कोष्ठ बुद्धयस्तैस्तथोक्तः, “पयाणुसारीहि' पदानुसारिभिः पदेन सूत्रावयवेन एकेनोपलब्धेन तदनुकूला ने पदशतान्यनुसरन्ति ये ते पदानुसारिणस्तैस्तथोक्तैः, तथा 'संभिन्नसोएहिं । संभिन्नश्रोतोभिःसंभिन्नानि समानार्थग्राहीणि श्रोतांसि इन्द्रियाणि येषां ते संभिन्नश्रोतसस्तैस्तथोक्तैः, 'ये एकतरेणापीन्द्रियेण सर्वेन्द्रिय:गम्यान् विषयान् अवगच्छन्ति ते संभि(समणुचिन्ना ) सेवित हुई है, ऐसा संबन्ध आगे से जोड़ लेना चाहिये । तथा (आमोसहिपत्तेहि, खेलोसहिपत्तेहिं, जल्लोसहिपत्तेहिं, विप्पोसहिपत्तेहिं, सब्योसहिपत्तेहिं, बीयबुद्धिएहिं, कोबुद्धिएहिं, पयाणुसारी हिं, संभिन्नसोएहिं ) आमशौषधिलब्धि जिन्हें प्राप्त हो चुकी है, लेष्मौषधि लब्धि जिन्हें प्राप्त हो चुकी है, जल्लोषधि लब्धि जिन्हें प्राप्त हो चुकी हैं, विप्रुडोषधि लब्धि जिन्हें प्राप्त हो चुकी है, सर्वोषधि लब्धि जिन्हें प्राप्त हो चुकी है, तथा बीजवुद्धि लब्धि-बीज समान वुद्धि वाली लब्धि जिन्हें प्राप्त हो चुकी है, कोष्ठ बुद्धिलब्धि जिन्हें प्राप्त हो चुकी है, पदानुसारी लब्धि जिन्हें प्राप्त हो चुकी है, संभिन्नश्रोतस लब्धि जिन्हें प्राप्त हो चुकी है, उनके द्वारा सेवित हुई है, तथा ज्ञानी छ. मेवा अवशानी सामागो द्वारा “ समणुचिन्ना" सेवायेही छवोसमध भागात पाय साये डी सेवानी छ. तथा " आमोसहिपत्तेहि, खेलोसहिपत्तेहिं, जल्लोसहिपत्तेहि, विप्पोसहिपत्तेहि, सव्वोसहिपत्तेहि, बीयबुद्धिएहिं, कोदबुद्धिएहि, पयाणुसारीहि, संभिन्नसोएहि” गाभशी पधिसन्धि જેમને પ્રાપ્ત થઈ ગઈ છે. જલ્લૌષધિલબ્ધિ જેમને પ્રાપ્ત થઈ ગઈ છે, વિપ્રો. વધિલબ્ધિ જેમને પ્રાપ્ત થઈ ગઈ છે, તથા બીજભૂદ્ધિ લબ્ધિ-બીજના સમાન બુદ્ધિવાળી લબ્ધિ જેમને પ્રાપ્ત થઈ ગઈ છે. કેન્ડબુદ્ધિ લબ્ધિ જેમને પ્રાપ્ત થઈ ગઈ છે. પદાનુસારી લબ્ધિ જેમને પ્રાપ્ત થઈ ગઈ છે, સંભિન્નશ્રોતસ લબ્ધિ જેમને પ્રાપ્ત થઈ ચુકી છે, તેઓ વડે (અહિંસા સેવાયેલ છે. તથા For Private And Personal Use Only Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - ५८० प्रश्नव्याकरणसूत्रे नश्रोतस उच्यन्ते, तथा- सुयधरेहि श्रुतधरैः-आचाराङ्गादित्रधारकैः, तथा'मणवलिएहिं ' मनोवलिंकः-दृढ मनस्कैः नानाविधपरीपहोपसर्गसंपातेऽपि येपां मनो धर्मात्किञ्चिामात्रमपि न चलति तैरित्यर्थः, · वयवलिए हिं' वचोवलिकः= वाग्बलयुक्तः दुर्वादिसापिदार्थनिराकरणसमर्थवागोवलोपेतैरित्यर्थः, 'कायबलिएहि ' कायवलिः परीयहोपप्तर्गसहन समर्थकायबलयुक्तरित्यर्थः 'नाणवलिहिं ' ज्ञानबलिकैः-ज्ञानेन मत्यादिना बलिनस्तैस्तथोक्तैः-दृढज्ञानयुक्तरित्यर्थः, ‘दंसणबलिएहि दर्शनवलिका-दर्शनं-नि शङ्कितादितत्त्वश्रद्धानरूपं, तेन बलवन्तस्तैस्तयोक्तैः, 'चरित्तवलिएहिं ' चारित्रबलिक, चारित्रं-स्टकायसंयमः, तद्रूपं यद्वलम् , तद्वद्भिरित्यर्थः, तथा 'खीरासवे हिं' श्रीरात्रौः क्षीराखवलब्धिधरैः, येषां वचनमाकर्ण्यमानं मनः शरीरसुखोत्पादनाय प्रभवति ते क्षीराबवा उच्यन्ते, तथा 'महुआसवेहिं मध्वात्रौः शर्कराद्यपेक्षयापि मधुरं द्रव्यं मधु शहद' इति भाषाप्रसिद्धं, दिव वचनम् आस्रवन्ति=णिस्सरयन्ति ये ते मध्यावास्तैस्तथोक्तैः, तथा 'सप्पि. आसवेहिं' सर्पिरास्रवैः मर्पिः अत्यन्तसुरभियुक्तं स्नेहयुकां च घृामिव वचनमात्र वन्ति-निस्सारयन्ति ये सपिरानवास्तैस्तथोक्तः, तथा अक्खीणमहाणसिएहि' अक्षीणमहानसिकः-महानसम् अन्नपाकस्थानं, तदाश्रितत्वादन्नमपि महानसमुच्यते अक्षीणं महानसं येषां ते अक्षीणमहानसिकास्तैन्तथोक्तैः, येषामसाधारणान्तरायक्षयो. पशमादल्पमात्रमपि पात्रपतितमन्नं गौतमादीनामित्र लक्षसंख्य केभ्योऽपि दोयमानं ( सुयधरेहिं ) जो आचरांग आदि श्रुत के धारक हैं उनके द्वारा सेवित हुई है तथा ( भणयलिएहिं, क्ययलिएहिं, काययलिएहिं ) जो मनबल से युक्त हैं, वाग्बल से युक्त हैं, कायबल से युक्त हैं उनके द्वारा सेवित हुई है । तथा ( नागबलिएहिं, दसणबलिएहिं चरित्तवलिएहिं ) मत्यादिक ज्ञान से जो बलिष्ठ हैं, दर्शनबलिक हैं. चारित्रवलिक है उनके द्वारा सेवित हुई है, तथा (खीरासवेहिं, महुआसवेहिं, सप्पियासवेहि, अ. खीणमहाणसिएहिं ) क्षीरास्त्रवलब्धिधारी हैं, मध्यानवलब्धिधारी हैं अक्षीणमहानस ऋद्धिधारी हैं, उनके द्वारा सेवित हुई हैं, तथा ( चार"सुयधरेहिं ” माया माद सूत्रना या पा२४ छ तेमना दास ते सेवा. ये छ, तथा " मणबलिएहि, बयबलिएहि, कायबलिएहि" भनोमा છે, વામ્બળ વાળી છે, અને કાયાળવાળા છે તેમના દ્વારા તે સેવાયેલ છે, તથા " नाणबलिएहिं, दंषणबलिएहि, चरितबलिएहिं " भत्याहि शान मसिष्ठ છે, જે દર્શનકળયુક્ત તથા ચારિત્રબળયુક્ત છે તેમના વડે તે સેવાયેલ છે, तथा “खोरासहि, महुआसवेहि, सपियासवेहि, अखीणमहाणसिएहि " क्षीराख લબ્ધિધારી, મધ્યાગ્નવલબ્ધિધારી, સર્પિરાસ્ટવલબ્ધિધારી. અક્ષણમહાન ઋદ્ધિधारी द्वारा सेवायस छ, तथा " चारणेहिं विज्जाहरेहिं" यसद्धि धारी For Private And Personal Use Only Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शनटीका अ०५ सू० ४ अहिंसाप्राप्त महापुरुषनिरूपणम् ५८१ स्वयमेवामुक्त न क्षीयते ते अक्षीणमहानसा उच्यन्ते । तथा 'चारणेहिं' चारणै:= चरणं - गमनं तद्विद्यते येषां ते चारणाः चरणमिहविशिष्टमाकाशगमनागमनंगृह्यते, ते द्विविधाः विद्याचारणाः जङ्घाचारणाश्च तत्र - विद्याबलेन समुप्तन्नाकाश गमनागमनलब्धिमन्तो विद्याचारणाः। इयं लब्धिर्निरन्तरपष्ठपष्ठतपश्चरण कर्तुर्जायते । तथा ये मुनयचारित्रतपोविशेषप्रभावेण जयोपरि हस्तस्थापनमात्रेण गगनगमनागमनलब्धिसंपन्ना भवन्ति ते जङ्घाचारणा उच्यन्ते । इयं लब्धिर्निरन्तराष्ट्रमाष्टमतपञ्चरणकर्तुर्जायते । तत्र - विद्याचारणा जम्बूद्वीपाषेक्षयाऽष्टमं नन्दीश्वरनामद्वीपं जङ्घाचारणाथ त्रयोदशं रुचकवरद्वीपं गन्तुं समर्था: । विद्याचारणाः प्रथमो - प्रातेन मानुषोत्तरं पर्वतं गच्छन्ति द्वितीयेनोत्पातेन नन्दीश्वरम्, प्रतिनिवर्तमान एकेनैवोत्पातेन स्वस्थानमागच्छन्ति । तथा मेरुं गच्छन्तः प्रथमेनोत्पातेन नन्दनवनं गच्छन्ति, द्वितीयेनोत्पातेन पण्डकवनम्, ततः प्रतिनिवर्तमाना एकेनोत्पातेन स्वस्थानमा गच्छन्ति । जङवाचारणा हि एकेनोप्लातेन जम्बूद्वीपापेक्षया त्रयोदशंरुचकरद्वीपं गच्छन्ति । प्रतिनिवर्तमाना एकेनोत्पादेन नन्दीश्वर मायान्ति द्विती येन स्वस्थानम् | यदि पुनर्मेरुशिखरं जिगमिपवस्तदा प्रथमेनोत्पातेन पण्डकत्रनमधिरोहन्ति । प्रतिनिवर्त्तमानाच एकेनोत्पातेन नन्दनवनमागच्छन्ति, द्वितीयेन स्वस्थानम् । तथा ' विज्जाहरेहिं ' विद्याधरैः, रोहिणीमज्ञप्त्यादिविद्याधारकैः= तथा ' चउत्थभत्तिएहिं ' चतुर्थभक्तिकैः = एकोपवासकारकैः, ' छद्वभत्तिएहिं ' षष्ठभक्तिकैः, उपवासद्वयकार के', 'अट्टमभत्तिएहिं ' अष्टमभक्तिके:-उपवासत्रयकारक:, तथा - ' दसमभत्तिएहिं दशमभक्तिकैः = उपवासचतुष्टयकारकै:, ' एवं णेहिविज्जाहरेहिं ) चारणऋद्विधारी हैं, रोहिणीप्रजप्त आदि विद्या के धारी हैं उनके द्वारा सेवित हुई है। तथा (उत्थभत्तिएहि, छट्टभत्तिएहि, अट्ठमभत्तिएहिंदसमभत्तिएहिं एवं दुवालस- चउदस- सोलस-अद्धमास मास - दोमास-तिमास - चउमास - पंचमास - छम्मास भत्तिएहिं ) चतुर्थभक्तिक - जो एक उपवास करने वाले हैं, षष्ठिभक्तिक- दो उपवास के करने वाले हैं, अट्टम भक्तिक- तीन उपवास करने वाले हैं, दसभक्तिक- चार उपवास રાહિણીપ્રજ્ઞપ્તિ આદિ વિદ્યાના ધારક દ્વારા જે સેવાયેલ છે, તથા चउत्थभत्तिएहि, छट्टभत्तएहिं अट्ठमभत्तिएहि, दसमभत्तिपहिं एवं दुबालस- चउदस - सोलस - अद्धमास-मास - दोमास - तिमास - चउमास - पंचमास - छम्मास भरिएहिं " थतुर्थलडित ने मेड उपवास डरनार छे, षण्डतिले मे उपवास २नार छे, અઠ્ઠમભક્તિક-ત્રણ ઉપવાસ કરનારા, દસમભક્તિક-ચાર ઉપવાસ કરનારા, એજ प्रभा द्वादृश-पांथ उपवास, यतुर्दश-छ उपवास, षोडश-सात उपवास, भने 66 For Private And Personal Use Only Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५८२ प्रश्नव्याकरणसूत्रे दुवालस-चउदस-सोलस-अद्धमास-मास-दोमास-तिमास- चउमास - पंचमास छम्मासभत्तिएहि' एवं द्वादशचतुर्दश षोडशाईमास मासद्विमासत्रिमासचतुर्मासपश्चमासषण्मासभक्तिकैः= द्वादशादि षण्मासान्तभक्ततपश्चरणयुक्तैः, तथा-'उक्खित्तचरएहिं' उत्क्षिप्तचरकैः उत्क्षिप्तं गृहस्थेन स्वप्रयोजनाय पाकपात्रादुधृतमन्यपात्रास्थापितमेवान्नादिकं चरन्ति अभिग्रहविशेषात्तद्वेषणाय गच्छन्तीति-उत्क्षि चरकास्तैः दायकेन पूर्वमेवपाकभाजनादुद्धृतस्य गवेषकैरित्यर्थः, तथा 'निक्खीत्तचरएहिं ' निक्षिप्तचरकैः-निक्षिप्तं गृहस्थेन स्वार्थ पाकपात्रादुद्धृत्यान्यपात्रे स्थापितमन्नादिकं चरन्ति-तथाविधाभिग्रहवशात्तद्वेषणाय गच्छन्तोति निक्षिप्त चरकास्तैः पाकपात्रोद्धृतान्यपात्रस्थापिताहारग्रहणाभिग्रहवद्भिरित्यर्थः । तथा'अंतचरएहि ' अन्तचरकैः अन्तं नीरसं तक्रमिश्रितं पर्युषितं च वल्लचणकाद्यन्नंचरन्ति गवेषयन्ति, ये ते तथा तैस्तथोक्तैः अन्ताहारग्रहणाभिग्रहवद्भिरित्यर्थः । तथा-' पंतचरएहि ' प्रान्तचरकैः प्रान्त-पुराणकुलत्थालचणकाद्यन्नं चरन्ति= गवेषयन्ति ये ते तथा तैस्तथोक्तः बान्ताहारग्रहणाभिग्रहवद्भिरित्यर्थः । तथा'लूहचरएहि' रूक्षचरकैः= रूक्षभोजनग्रहणाभिग्रहवद्भिः, तथा-' समुदाणचरएहि' समुदानचरकैः उच्चावचकुलेषु सामान्यरूपेण भिक्षाग्रहणशीलैः, तथा-'अण्णगिलाइएहिं ' अन्नग्लायकैः-अन्नेन अभि यह विशेषात् पर्युपितान्नभोजनेन ग्वायकालानिमापन्न कृश इत्यर्थस्तैः । तथा-' मोणचरएहि' मौनचरकैः मौनंमौनव्रतं तेन चरन्ति थे ते मौनव्रतकाः, तथाविधाभिग्रहवशाद् भिक्षाविशुद्धिप्रश्नाके करने वाले हैं, इसी तरह द्वादश-पांथ उपवास, चतुर्दश-छह उप वास, षोडश-सात उपवास, एवं अर्द्धमास, मास, द्विमास, त्रिमास, चतुर्मास,पञ्चमास, षण्मासभक्तिक-छ महीने के उपवास करनेवाले हैं उनके द्वारा यह सेवित हुई है, तथा (उक्वित्तचरएहिं, एवं निक्खिचरएहिं, अंतचर ए हैं, पंतचरएहिं, लूहचरएहिं, समुदाणिचरएहिं, अण्णगिलाइएहिं, मोणचरपहिं) उक्षिप्तचरक हैं, निक्षिप्तचरक, अंतचरक हैं, प्रान्त चरक हैं, रूक्षचरक हैं, समुदानचरक हैं, अन्नग्लायक हैं, मौनचरक हैं, A भास, भास, मे भास, ए मास, या२ भास, पाय मास, मने षण्मासभक्तिक-७ भासना 6वास ४२नारा द्वारा ते सेवाय छ. तथा 'उक्खित्तचरएहिं, एवं निक्खितचरएहिं, अंतचरएहिं, पतघरपहि, लूहचरपईि, समुदायचरएहि, अण्णगिलाएहिं, मोणवरएहि " रे सितय२४ छे, निक्षिप्तय२४ छ, જે અંતચરક છે, ને પ્રાન્તચરક છે, જે રૂલ્ચરક છે, જે સમુદાનચરક છે, જે मनसाय छ, के भौनय२४ छ. ते साना द्वारा ते सेवाये छ. तथा "संस For Private And Personal Use Only Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० ५ सू० ४ अहिंसाप्राप्तमहापुरुषनिरूपणम् ५८३ तिरिक्तं मौनमास्थाय संचरणशीलाः, तथा-' संसट्टकप्पिएहिं ' संसृष्टकल्पिकैः'संमृष्टेन हस्तेन भाजनेन च दीयमानमन्नादि ग्राह्य' मित्येवरूपः कल्प आचारो येषां ते संमुष्टकल्पिकास्तैस्तथोक्तैः, तथा- तज्जायसंसट्ठकप्पिएहिं ' तज्जातसंसृ. घटकल्पिकैः यत्प्रकारं देयद्रव्यं तजातेन-तत्प्रकारेण द्रव्येण संसृष्टे इस्तभाजने ताभ्यां दीयमानं ग्राह्यमित्येवरूपाकला समाचारो येषां ते तज्जातसंसृष्टकल्पिकास्तैस्तथोक्तैः, तया ' उवनिहियएहिं ' उपनिहितकैः-उपनिहित दायकेन स्वयं भोक्तुं समीपे स्थापितम् , तेन चरन्ति ये ते उपनिहितकास्तैस्तथोक्तैः तथा 'सुद्धेसणिएहिं ' शुढेपणिकैः-शङ्कादिदोषपरिहारतः पिण्डग्रहणं शुद्धषणा, तद्वन्तः शुढेष णिकास्तैस्तथोक्तः, तथा' संखादत्तिएहि ' संख्यादत्तिकै संख्याप्रधानाभिः पश्चषादिपरिणामवतीभिः दत्तिभिः सकृद्भक्तादिपात्रपातलक्षणाभिश्चरन्ति ये ते संख्यादत्तिकास्तैस्तथोक्तः, तथा 'दिट्ठलाभिएहि दृष्टिलाभिकैः=ष्टस्य दृष्टिगोचरीभूतस्यैवान्नपानादेः लाभो येषां ते दृष्टिलाभिकास्तैस्तथोक्तैः, तथा'अदिट्ठलाभिएहि । अदृष्टलाभिकैः अदृष्टस्यापि पाकगृहमध्यान्निर्गतस्य कर्णात् श्रुतस्य भक्तादेरदृष्टाद्वा पूर्वमनुपलब्धाद् दायकाद् लाभो येषामस्ति तेऽदृष्टलाभिकास्तैस्तथोक्तैः, तथा ' पुट्ठलाभिएहि पृष्टलाभिकैः पृष्टस्य हे साधा ! किं ते दीयते इत्यादि रूपेण प्रश्नविषयी कृतस्य यो भिक्षापाप्तिरूपी लाभस्तदाग्रहग्रहिलैः, तथा-'आयविलिएहि' आचामाम्लिकैः आचामाम्लचतयुक्तैः, तथा'पुरिमड्रिएहि ' पूर्वाद्विकैः पारणायामपि पूर्वार्द्वदिनेऽशनपानादि पत्याख्यानशीलैः, तथा-' एक्कासणिएहिं ' एकाशनिकैः, पारणायामपि एकाशनव्रतधारिभिः, उनके द्वारा सेवित है। तथा ( संसहकप्पिएहिं, तज्जायसंसद्वकप्पिएहिं, उवनिहिएहिं, उद्धेसणणिएहिं, संखादत्तिएहि, दिट्ठलाभिएहिं, अदिट्ठलाभिएहिं, पुटुलाभिएहिं, आयंबिलिएहिं, पुरिमडिएहिं ) संसृष्टकल्पिक हैं, तज्जातसंमृष्टकल्पिक हैं, उपनिहितक हैं, शुद्धषणिक हैं, संख्यादत्तिक हैं, दृष्टिलाभिक हैं, अदृष्टिलाभिक हैं, पृष्ट लाभिक हैं, आचामाम्लव्रतयुक्त हैं, पूर्वार्दीक हैं, उनके द्वारा यह अहिंसा पाली गई है। तथा (एक्कासणिएहि, निविइएहिं, भिन्नपिंडवाइएहिं, परिमियपिंडवाइएहिंटुकथिएहिं, नजायसंसट्ठ कप्पिएहिं, उवनिहिएहिं, सुद्धेसणणिएहिं, संखादत्तिएहि दिदुलाभिएहिं, अविट्ठलाभेएहिं, पुट्ठालाभिएहि, आयंबिलिएहिं पुरिमट्टिएहिं ” સ સિન્ટ કલ્પિક છે તજજાત સંસષ્ટ કલ્પિક છે, ઉપનિહિતક છે, શુદ્ધષણિક સંખ્યાત્તિક છે દૃષ્ટિલાભિક છે, અદૃષ્ટલાભિક છે, પૃષ્ટતા-ભિક છે, આચામામ્સ બત યુક્ત છે. પૂર્વાદ્ધિક છે, તેમના દ્વારા આ અહિંસા પાળવામાં આવે છે તથા " एकासणिएहिं, निविइएहिं, भिन्नपिंडवाइएहिं, परिमियपिंडवाइएहिं, अंताहारेहि, HEEEEEEELLE For Private And Personal Use Only Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे तथा-' निधिइएहि ' निर्विकृतिको विकृतिभ्यो घृतादि पदार्थेभ्यो निर्गता ये ते निवृतिकास्तैस्तथोक्तैः-विकृतिप्रत्याख्यानशीलैरित्यर्थः, तथा 'भिण्णपिंडवाइएहिं ' भिन्नपिण्डपातिकैः-भिन्नस्य-त्रुटितस्य पिण्डस्य सक्त कादिरूपस्य मोद. कस्य स्वतो भिन्नात् पिण्डात् यः पातः-पात्रे पतनं येषां ते भिन्नपिण्डपातिकास्तैस्तथोक्तैः, तथा परिमियपिंडवाइएहिं ' परिमितपिंडपातिकैः-परिमितो द्रव्यादिः पिण्डपातो भक्तादिलाभो येषामस्ति, ते परिमितपिंडपातिकास्तैस्तथोक्तः, तथा-'अंताहारेहिं ' अन्ताहाः अन्तं नीरसं तक्रमिश्रितपयुषितं च बल्ल चणकाधनमाहरन्ति ये ते तैः, तथा-'पंताहारेहिं । प्रान्ताहारैः पान्त-पुरातन कुलस्यवल्लचगकाद्यन्नम् आहरन्ति ये ते तैः, तथा-' अरसाहारेहि ' अरसाहारी =अरसो रसवर्जित आहारो येषां तेऽरसाहारास्तैस्तथोक्तैः-हिमादि संस्कार वर्जिताहारग्रहणवद्भिः, तथा-' विरसाहारेहिं । विरसाहारैः-विरसं-विगतरसं पुराणधान्यौदनादि आहरन्तीति विरसाहारास्तैः, 'लूहाहारेहिं ' रूक्षाहारः-रूक्षं घृतादिवर्जितमाहरन्तीति रूक्षाहारास्तैस्तथोक्तैः, तथा ' तुच्छाहारेहिं ' तुच्छाहा तुच्छं-बदरीचूर्णादिकं कुलत्थ कोद्रबादिकं च आहारन्ति ये ते तुच्छाहारास्तैः, तथा-' अंतजीदोहिं' अन्तजीविभिः-अन्तेन जीवन्ति ये तेऽन्तजीविनस्तैः, 'पंतजीविहिं ' प्रान्तजीविभिः · लहजीविहिं ' रूक्षजीविभीः ' तुच्छजीविहिं ' तुच्छजीविभिः, तथा ' उवसंत्तजीविहिं ' उपशान्तजीविभिः-अशनादीनां प्राप्तावअंताहारेहिं, पंताहारेहिं, अरसाहारेहि, विरसाहारेहि, लूहाहारेहिं. तुच्छाहारेहिं, अंतजीविहिं, पंतजीविहि, लूहजीविहि, तुच्छजीविहिं, उवसंतजीविहिं, पसंतजीविहि, विवित्तजीविहिं, अखीरमहुसप्पिएहिं, अमज्जमंसासिएहिं) एकाशनिक हैं, विकृतिप्रत्याख्यानशील हैं भिन्नपिंडपातिक हैं, परिमितपिंडपातिक हैं, अन्ताहार वाले हैं, प्रान्ताहार वाले हैं, अरसाहार वाले हैं, विरसाहार वाले हैं, रूक्ष आहार करने वाले हैं, तुच्छा हार वाले हे, अंतजीवो हैं, प्रान्तजीवी हैं, रूक्षजीवी हैं, तुच्छ जीवी हैं, उपशान्त जीवी हैं. प्रशान्त जीवी हैं, विविक्त जीवी हैं, अक्षौर मधुसपंताहारेहिं. अरसाहारेहिं, रिसाहारेहि, लूहाहारेहिं, तुच्छाहारेहि, अंतजीविहि, पंतजीविहि, लूहजीविहि, तुच्छ जीविहि, उवसंत जीविहि, पप्तत्थजीविहिं विवित्तजीविहिं, अबीरमहुस प्पिाह, अमज्ज मंसासिएहि ॥२ शनि छ, વિકતિ પ્રત્યાખ્યાનશીલ છે, ભિન્નપિંડ પાતિક છે, પરિમિતપિંડ પાતિક છે, અન્તહાર વાળા છે, પ્રાન્તાહાર વાળા છે, અરસાહારવાળા છે, વિરસાહાર વાળા છે, રૂક્ષ આહાર કરનારા છે, તુચ્છ આહાર કરવા વાળા છે, અન્તજીવી છે, પ્રાન્તજીવી छ, ३१०वी , तुर७०वी छ, उपशान्ती छे, प्रशान्त छ, विवित For Private And Personal Use Only Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org " सुदर्शिनी टीका अ०१ सू०४ अहिंसाप्राप्त महापुरुषनिरूपणम् ५८५ प्राप्तौ च सत्यापन्या जीवन्ति ये ते उपशान्तजीविनस्तैस्तथोक्तैः वहिवृत्यावदनचक्षुरूपादीनामम्लानत्यमुपशान्त तथा संतजीविधि प्रशान्तजीविभिः - अन्तर्वृत्या क्रोधादीनामुपशमनं प्रशान्तत्वम् । तथा--' विवित्तजीविहिं' विविक्तनीविभिः=विविक्तै पवर्जितैरन्नादिभिर्जीवन्ति ये ते विविक्तजीविनस्तस्तथोक्तः, तथा-' अवीरमहुस पिएहिं ' अक्षीरमधुसर्पिष्कै -क्षः कीरं = दुग्धं, मधुशर्करादिमधुरन्स, सर्पिः घृतम्, एतानि न सन्ति अशनतया येषां तेऽक्षीरमधुसfreeस्तैस्तथोक्तः, तथा-' अज्जमंसा सिएहि ' अमद्यमांसाशिकैः मद्यमांसं च येहा नातीति भावः मांसाहारव ने कैनथा- 'ठाणाइपूर्ति स्थानातिगः=स्थानं= कायोत्सर्गादिकमतिशयेन गच्छन्ति = प्राप्नुवन्ति ये ते स्थानातिगाः कायोत्सर्गकारिणस्तैः 'पडिमट्टाइएहिं प्रतिमास्थायिकैः - प्रतिमया = एकरात्रिक्यादिकया कायोत्सर्गविशेषेणैव तिष्ठन्तीत्येवं शीला ये ते प्रतिमास्थायिनस्तैस्तथोक्ते:, तथा 'ठाणुशर' स्थान उस्कुटुकैः = स्थानमुकुटुकं येषां ते स्थानोत्कटुकास्तैस्तथोक्तैः, तथा-' वीरामणिएहिं ' वीरास निकैः = सिंहासनोपविष्टस्य विन्यस्तपा दस्य अपनीतसिंहासनस्येव यदवस्थानं तद् वीरासनं, तदस्ति येषां ते वीरासनिकास्तै:, तथा-' णेस ज्झिएहि ' नैषधिकैः, निषद्या- समपुततयाऽवस्थानं तया चरन्ति ये ते नैपकिस्तैस्तथोक्तैः तथा डंडा एहि ' दण्डायत्तिकै दण्डा इव भून्यस्ततया आयतं शरीरं दण्डायतं तदस्ति येषां ते दण्डायतिकास्तैस्तथोक्तैः, दण्डासनकारिभिरित्यर्थः तथा ' लगंड साइएहिं ' लगण्डशायकैः = लगण्डं वक्र काष्ठं, तद्वत् मस्तकस्य पार्नीनां ' एड्डी' इति लोकमसिद्धानां च भुविलगनेन fire हैं, मांसाशिक (मद्यमांसादिक का सेवन नही करनेवाले) हैं. उन्होंने उनका सेवन किया है तथा जो (ठाणाइएहि, पडिमट्टाइएहि, ठrgasoft वीरासणिएहि, जेसज्जिएहिं डंडाईएहि. लगण्ड साईएहि, एगपासगेर्हि, आयावएहि, अप्पावडेहि अणिभएहि, अंकुड्डयएहि, घुयके समंसलोमन हेहिं, सन्चगायपडिकम्म विप्पक्केहिं समणुचिन्ना) स्थानानिग हैं, प्रतिमास्थापिक है, स्थानोत्कुटिक हैं, वीरासनिक हैं, नैषधिक हैं, दण्डातिक हैं, लगण्डशायिक हैं, एकपार्श्वक हैं; आतापक हैं; अप्रावृत " , , , Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only 1 જીવી છે, અક્ષીર મધુ સર્પષ્ટ છે . અમદ્યમાંસાશિક છે, તેમણે તેનું સેવન કર્યું छे तथा ने 'ठाणाइप, पडिमट्ठाइएहि, ठाणुकडिएहि, वीरास णिहिं, सज्जिएहि, गणलाई एगपालगेहिं आयावहिं, अप्पावडेहि, अहिमपहिं अंकड़roft, के समसलोमनहिं, साडिकम्मविष्य मुक्केहिं समशुचिन्ना " स्थानातिज छे, प्रतिभास्थायि छे, स्थानात्पुटिङ छे, वीरासनिङ छे, नैषधि छे, छे, डायति छे, सगुडशायि छे, भेउ पार्श्व छे, गताय हे सप्रावृत्त प्र ७४ Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे पृष्टस्य चालगनेन ये शेरते ते लगण्डशायिनस्तैः, तथा-' एगपासिगेहिं ' एकपाविकः-एक एव पार्थो भूमौ शयनावस्थायां येषां ते एकपाश्चिका:- एकपार्श्वशायिनस्तैः, तथा ' आयावएहिं ' आतापकै आतपन्ति ये ते आतापकाः-शीतोष्णाद्यातापनाकारिणस्तैः, तथा-' अवाउडएहिं ' अपावृतैः हेमन्ते प्रावरणरहितैरित्यर्थः, ' अण्डियएहिं ' अनिष्ठीवकैः मुम्ब लेष्मणामपरिष्ठापकैरित्यर्थः, तथा 'अकंडुयएहिं ' अकण्डूयक गात्रकण्डूयनाकारकैरित्ययः, तथा-'धुयकेसमंसू. लोमनहेहिं । धृतकेशश्मश्रुलोमनः-धूताः संस्कारापेक्षयात्यक्ताः केशाः *म. श्रूणि=' दाढी' इति प्रसिद्धानि-लोमानि-रोमाणि नखाः यैस्ते तथोक्तास्तैः, संस्कारवर्जितकेश मथुरोमनखधारिभिरित्यर्थः, तथा-' सव्वगायपडिकम्मविप्पमु. केहि ' सर्वगात्रप्रतिकर्मविप्रमुक्तैः सर्वगात्राणां यत्पतिकर्म संस्कारग्तेन विमुक्ता. स्तैः सर्वविधगात्रसंस्कारवर्जितैः, आभिनियोधिकज्ञानिनमारभ्य सर्वगात्रप्रतिकर्मविप्रमुक्तैरनेकमहापरुषैरियमहिंसा भगवती, 'समणुविण्णा' समनुचीर्णा=आसेविता। हैं, अनिष्ठीवक हैं,अकण्डूयक हैं, धूत केशश्मश्रुनखवाले (संस्काररहित केश श्मश्रुनखरोमवालेने) हैं, तथा सर्वपात्रप्रतिकर्म विमुक्त है ऐसे इन आभि नियाधिक ज्ञानियों से लेकर सर्वगात्रप्रतिकर्म विमुक्त तक के अनेक महापुरुष के यह आहे.सा भगवती आसेवित हुईहै।आमीषधि आदि का अर्थ इस कारहै-तपश्चरण के प्रभाव से मुनिजनी को ऐसी लब्धिउत्पन्न हो जाती है किजिससे उनके शरीर का स्पर्श ही समस्त रोगों का अपहारक हो जाता है । इस लब्धि के धारी जो मुनिजन होते हैं वे आमौषधि प्राप्त कहे जाते हैं। इसी तरह तपश्चरण से श्लोप्रोषधिलब्धि प्राप्त होती है। इसी लब्धिी में मुनिजनों का श्लेष्मा ही (कफ औषधि का काम करता है। जल्ल नाम शरीर से उत्पन्न हुए मैल का है। जिनका मैल ही औषधि છે, અનિષ્ઠીવક છે, અક ડૂયક છે, તકેશશ્મશ્ર નખવાળા છે, તથા સર્વગાત્ર પ્રતિકર્મ વિમુક્ત છે, એવા તે આભિનિબેધિક જ્ઞાનીઓથી શરૂ કરીને સર્વગાત્ર પ્રતિકર્મ વિભક્ત સુધીના અનેક મહાપુરુષે દ્વારા ભગવતી અહિંસાનું સેવન थयुं छे. " अमशोषधि" पोरेन। अर्थ नीय प्रमाणे छ * તપસ્યાના પ્રભાવથી મુનિજનેને એવી લબ્ધિ પ્રાપ્ત થાય છે કે જેના પ્રભાવથી તેઓના શરીરને સ્પર્શ જ સમસ્ત રોગોને નાશ કરે છે આ सन्धि २ अनि सय छ तेभने “ अमशैषधि प्राप्त ” मुनि उपाय छे. से प्रमाण तपश्चर्याना प्रभावथी 'लेष्मौषधिलब्धि' प्राप्त थाय छे. मा લબ્ધિથી મુનિજનાનું શ્લેષ્મા જ ઔષધિનું કામ કરે છે. શરીરમાંથી ઉત્પન્ન થયેલ મેલને “ના” કહે છે, જેમને મેલ જ ઔષધિની ગરજ સારે છેતેઓ For Private And Personal Use Only Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका ४० १ ० ४ अहिंसाप्राप्तमहापुरुषनिरूपणम् ५८७ का काम देता है वे जल्लोषधि प्राप्त मुनिवर हैं। मुख से निर्गत थूक की छोटी २ बिन्दुओं का नाम विगुंड हैं । तपस्या के प्रभाव से ये मुख की बिन्दुएँ जिनकी रोगों को नष्ट करदेती हैं वे मुनिजन वि डोषधि प्राप्त कहे जाते हैं । मुनिजनों की विशिष्ट तपस्या के अनुष्ठान से कर्ण, वदन, नाप्तिका, जिह्वा और नयन इन सब इन्द्रियों का मैल औषधि का काम देता है। इस लब्धि का नाम सयौं षधि लब्धि है । यह लब्धि जिन मुनिजनों को प्राप्त होती है उनका नाम सौंषधि लब्धि प्राप्त है। जिस प्रकार बीज से विशाल काय तरु उत्पन्न हो जाता है उसी तरह जिस एक पद वाली बुद्धि से विविध अर्थों का बोध मुनिजनों को हो जाता है । इसका नाम बीजबुद्धि है। यह बुद्धि भी विशिष्ट तपस्या के प्रभाव से ज्ञानावरणीय कर्म के विशिष्ट क्षयोपशम से मुनिजन प्राप्त करते हैं । तात्पर्य इसका इस प्रकार है कि जैसे मानों इस लब्धि के धारी मुनिजन को " उत्पाद व्यय ध्रौव्ययुक्तं सत्" ( तत्त्वार्थ सूत्र २९ वां सूत्र ) इस सूत्र का बोध हो गया, ऐसे पद अर्थपद कहलाते हैं, बीजभूत इस एक ही अर्थपद के अवगत होने पर वे अपनी बुद्धि के प्रभाव से अन्य और भी विशेष अर्थ का बोध कर लिया करते हैं। जिस “જલ્લૌષધિ પ્રાપ્ત” મુનિવરે કહેવાય છે. મોઢામાંથી નીકળતા ધૂકનાં નાનાં नानां मियाने विद्युड' ४ छ. तपस्याना प्रभावथा मन भुगना रे मिन्दुम शेगाना ना ४२॥ नामे छ तेवा मुनिश्रीने 'विठुडौषधि प्राप्त ' કહે છે. મુનિજનની વિશિષ્ટ તપસ્યાના આચરણથી, કાન, મુખ, નાક, જીભ અને આખે એ બધી ઈન્દ્રિયેને મેલ ઔષધિ જેવું કામ આપે છે. આ साधने" सौषधिलब्धि " ४ छ. म स मुनिश्रीने प्राप्त थाय छ તેમનું નામ “સર્વોષધિલબ્ધિપ્રાપ્ત” છે. જેમ બીજમાંથી વિશાળકાય વૃક્ષ ઉત્પન્ન થાય છે, એ જ પ્રકારે જે એક પદ વાળી બુદ્ધિથી મુનિજનોને વિવિધ मथेन। माघ थाय ते, तेनुं नाम 'बीजबुद्धि' छे. ते भुद्धि र विशिष्ट તપસ્યાના પ્રભાવથી જ્ઞાનાવરણીય કર્મના વિશિષ્ટ પશમથી મુનિજને પ્રાપ્ત ४२ छ तेनु ता५य मे छे 3- मे सन्धित पा२४ मुनिवरने “ उत्पादः व्ययध्रौव्ययुक्तं सत् ” “तत्त्वार्थसूत्र २८ भुसूत्र" 21 सूत्री माय थर्ड ગયે, એવા પદને યથાર કહે છે, બીજભૂત આ એક જ અર્થપદને બોધ થતાં તેઓ પોતાની બુદ્ધિના પ્રભાવથી વળી બીજા વિશેષ અર્થને પણ બંધ કરી લીધા કરે છે. જેમ કેષ્ઠ-જેઠીમાં નાખેલું અનાજ લાંબા સમય સુધી For Private And Personal Use Only Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे प्रकार कोष्ठ-कोठी में प्रक्षिप्त अनाज बहुत समयतक मुरक्षित रहा करता है उसी प्रकार प्राप्त इस लब्धि के प्रभाव से अवगत सूत्र और अर्थ ये दोनों बहुत समय तक मुनिजनों को धारणारूप में स्थिर रहते हैं-वे उन्हें विस्मृत नहीं होते। यह बुद्धि जिन मुनिजनों को प्राप्त हो जाती है वे कोष्ठवुद्धि के धारी मुनिजन हैं। सूत्रावयव रूप एक ही पद के उपलब्ध होने पर जो सैकड़ों पदों का अनुसरण कर लेते हैं वे मुनि जन पदानुसारी लब्धि के धारी कहे जाते हैं । जिस लब्धि से एक ही किसी इन्द्रिय से मुनिजन सर्वेन्द्रियगम्य विषयों को जान लेते हैं उस लब्धि का नाम संभिन्ननोतस् है । यह लब्धि जिन मुनिजनों को प्राप्त होती है वे मुनिजन संभिन्नश्रोता हैं । आचारोग आदि सूत्रों के पाठी जो मुनिजन होते हैं वे श्रुतधर कहे जाते हैं । अनेक प्रकार के परीषह और उपसर्गों के आने पर भी जिन मुनिजनों का मन धर्म से थोड़ा सा भी विचलित नहीं होता है उनका नाम मनोबलिक है । जो मुनि जन अपनी वाणी के द्वारा दुर्वादियों द्वारा प्ररूपिन मिथ्याप्ररूपणाओं को ध्वस्त करने में समर्थ बनते हैं उन मुनियों को वचोबलिक कहा जाता है। जो मुनिजन कठिन से कठिन परीषह और उपसर्गो को सहन करनेमें शक्ति शाली होते हैं वे काययलिक हैं । मत्यादि ज्ञान से जिनका સુરક્ષિત રહે છે તેમ પ્રાપ્ત થયેલી આ લબ્ધિના પ્રભાવથી અવગતસૂત્ર અને અર્થ તે બને ઘણા સમય સુધી મુનિજનેને ધારણ રૂપે સ્થિર રહે છે–તેમને તે ભૂલતું નથી. આ બુદ્ધિ જે મુનિજનેને પ્રાપ્ત થાય છે તેઓ કોષ્ટબુદ્ધિના ધારક યુનિવરે છે. સૂત્રના અવયવરૂપ એક જ પદ ઉપલબ્ધ થતાં જેઓ સેંકડો પદનું અનુસરણ કરી લે છે, તેવા મુનિજનેને પદાનુસારીલબ્ધિના ધારક કહેવાય છે. જે લબ્ધિના પ્રભાવથી કઈ એક જ ઇન્દ્રિય વડે નિજન સર્વેન્દ્રિયગમ્ય વિષયને જાણી લે છે તે લબ્ધિનું નામ મિત્રોત છે. આ લબ્ધિ જે મનિજનેને પ્રાપ્ત થાય છે તે મુનિજન સંમિત્રતા કહેવાય છે, આચારાંગ આદિ સૂત્રોનું પઠન કરનારા જે મુનિજન હોય છે તેમને બુતપર કહે છે. અનેક પ્રકારના પરીષહ અને ઉપસર્ગો નડવા છતાં પણ જે નિજનેનું મન ધર્મમાંથી તલભાર પણ વિચલિત થતું નથી તેમને મનોવૃઢિજ કહે જે મુનિજને દુર્વાદીઓ દ્વારા પ્રરૂપિત મિથ્યા પ્રરૂપણનું ખંડન કરવાને સમર્થ થાય છે તે મુનિવરેને વોષ્ઠિર કહે છે. જે મુનિજને આકરામાં આકરા પરીષહ અને ઉપસર્ગોને સહન કરવાને શક્તિમાન હોય છે તેઓ For Private And Personal Use Only Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० १ सू० ४ अहिंसा शप्तमहापुरुषरूिपणम् .. ५८६ आत्मबल चढ़ाबड़ा होता है वे ज्ञानबलिक हैं । निःशंकित आदि अपने अंगों से युक्त जिनका तत्त्वश्रद्धानरूप दर्शन होता है और इस दर्शन से जिनकी आत्मा बलिष्ठ बनी रहती है वे दर्शनवलिक हैं। षटूकाय के जीवों का संरक्षण करना इसका नाम संयम हैं, इस संयमरूपचारित्र के बल से जिनकी आत्मा बलशाली होती है वे चारित्रवलिक हैं। जिनके मुख से निकला हुआ वचन सुनते ही मन और शरीर को सुखोत्पादक होता है वे क्षीरास्रवलब्धि के धारी मुनिजन हैं। मिसरी आदि मिष्ट द्रव्य से भी अधिक मिष्ट-मधु शहद होता है, शहद जसा मीठा जो वचन निकालते हैं बोलते हैं वे मध्वानव लब्धि के धारी मुनिजन कहलाते हैं। सर्पिरास्रवलब्धि के प्रभाव से मुनिजनों का वचन अत्यंतसुरभियुक्त एवं स्नेहयुक्त घृत के जैसा बोलने पर सुनने वालों को लगता है। महानस शब्द का अर्थ भोजन बनाने का स्थान है, उसके आश्रित होने से भोजन को भी महानस कहते हैं ! जिनमुनिजनों को यह अक्षीणमहानस नामकी लब्धि उत्पन्न हो जाती है उनके असाधारण, अन्तराय के क्षयोपशम से अल्पमात्र भी पात्रपतित अन्न गौतमादिक ऋषियों की तरह एक लाख व्यक्तियों को दे देने पर भी जब तक वह स्ययं न खालेवे कायबलिक उपाय छ भत्या ज्ञानथी रेनु सात्म५७१ वृद्धि पान्यु डाय छ તેમને જ્ઞાનવહિ કહે છે, નિશક્તિ આદિ અંગે વડે યુક્ત જેમનું તત્ત્વશ્રદ્ધાનરૂપ દર્શન હોય છે અને એ દર્શનથી જેમને આત્મા બળવાન બનેલા હોય છે તેવા મુનિવરોને નવસિ કહે છે. છકાયના જીવોનું રક્ષણ કરવું તે સંયમ કહેવાય છે તે સંયમરૂપ ચારિત્રના બળથી જેમને આત્મા બળવાન હોય છે તેમને વારિત્રગટ કહે છે જેમના મુખમાંથી નીકળેલ વચન સાંભળતાં જ મન અને શરીરને સુખ થાય છે તેમને ક્ષાત્રવેટિવ ધારી મુનિ કહેવાય છે. સાકર વગેરે મિષ્ટ દ્રવ્ય કરતાં પણ વધારે મિષ્ટ મધ હોય છે મધ જેવાં મીઠાં વચન જે બેલે છે તેવા મુનિજનેને વાસ્રાઝારિઘ ધારક કહેવાય છે. સપિરાસ્ત્રવેલબ્ધિના પ્રભાવથી મુનિજનનાં વચન અત્યંત સુરભિवा तथा स्नि५ धान 24 श्रोतानाने वाले छ महानस शहनी अथ ભોજન બનાવવાનું સ્થાન છે, તેનું આશ્રિત હોવાથી ભેજનને પણ મહાનસ કહે છે. જે મુનિજનોને આ બક્ષીનામના નામની લબ્ધિ ઉત્પન્ન થાય છે તેમના અસાધારણ અન્તરાયના ક્ષપશમથી સહેજ પણ પાત્રમાં પડેલું અન્ન ગૌતમાદિ ઋષિયોની જેમ એક લાખ વ્યક્તિઓને આપી દેવા છતાં પણ જ્યાં સુધી તેઓ પોતે ખાઈ લેતા નથી ત્યાં સુધી પૂરૂં થતું નથી. તેને ભાવાર્થ For Private And Personal Use Only Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे तबतक समाप्त नहीं होता है । तात्पर्य इसका यह है कि इस लब्धि धारी मुनिजनों के पात्र में दिया थोड़ा भी अन लाखों मुनिजन भी उससे आहार कर ले में परन्तु वह तबतक समाप्त नहीं होता है कि जबतक वह लब्धि धारी उसे स्वयं नहीं खा लेता है । इसी प्रकार इसके दाता के विषय में भी समझ लेना चाहिये । यह लब्धि गौतमादि ऋषिजनों को थी । चारणलब्धि का यह मतलब है कि जिस लब्धि के प्रभाव से आकाश में मुनिजनों का आना जाना होता है। चरण-गमन-यह गमन जिनके होता है उनका नाम चारण है । इस लब्धि के धारी मुनिजन दो प्रकार के होते हैं-(१) विद्याचारण (२) जंघाचरण । जिन्हें विद्या के बल से यह आकाश में गमनागमनरूपलब्धि उत्पन्न होती है वे विद्याचारण मुनिजन है । यह लब्धि उन मुनिराजों को उत्पन्न होती है जो निरन्तर षष्ठ षष्ठ की तपश्चर्या करते रहते हैं। तथा जो मुनि चारित्ररूप तपविशेष के प्रभाव से ऐसी लब्धि संपन्न बन जाते हैं कि वे जंघा के ऊपर हाथ रखते ही आकाश में उड़ जाते हैं, इसी लब्धि का नाम जंघा चारण है । यह लब्धि उन मुनिराजों को प्राप्त होती हैं जो निरन्तर अष्टम अष्टम की तपस्या करते हैं। इनमें जो विद्याचारण मुनिजन होते हैं वे इसके बल पर जंबूद्वीप की अपेक्षा से आठवां એ છે કે આ લબ્ધિધારી મુનિવરોનાં પાત્રમાં પડેલ અન્ન, તેમાંથી લાખો મુનિજને આહાર લે તે પણ જ્યાં સુધી તે લબ્ધિધારી મુનિ પોતે જ તે ખાઈ જતા નથી ત્યાં સુધી તે સમાપ્ત થતું નથી. આ પ્રમાણે તેના દાતાને વિષે પણ સમજી લેવું આ લબ્ધિ ગીતમાદિ ઋષિજનેને પ્રાપ્ત થયેલ હતી. " चरणलब्धि" मेवा प्रा२नी सन्धि छेना प्रमाथी मुनिजना मा. शमा म१२ ४१२ री छे, चरण-मन-त गमन- ते भर्नु डाय छ भने चारण ४३ छ. म सधारी मे ४२ना मुनिन छ (१) विद्याचरण (२) जंघाचरण भने विधाना प्रमाथी २४शमा आमनागमत३५ લબ્ધિ પ્રાપ્ત થાય છે તેઓ “વિદ્યાચારણ” મુનિજન કહેવાય છે. આ લબ્ધિ નિરંતર છઠ, છઠની તપસ્યા કરનાર મુનિજનેને પ્રાપ્ત થાય છે. તથા જે મુનિયે ચારિત્રરૂપ તપ વિશેષના પ્રભાવથી એવી લબ્ધિયુક્ત થઈ જાય છે કે તેઓ જંઘા પર હાથ મૂકતા જ આકાશમાં ઉડી જાય છે, એ લબ્ધિનું નામ નંધાचारण छ. नि२०१२ २५3म.. २५मनी त५९॥ ४२॥२ मुनिनाने ! धि પ્રાપ્ત થાય છે તેમાં જે વિદ્યાચારણ મુનિજન છે તેઓ તેને પ્રભાવથી જબૂદ્વીપની અપેક્ષાએ આઠમે જે નંદીશ્વર નામને દ્વિીપ છે ત્યાં સુધી જઈ For Private And Personal Use Only Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुर्शिनी टीका अ०१ सू०४ अहिंसापाप्तमहापुरुषनिरूपणम् जो नंदीश्वर नाम की द्वीप है वहां तक आ जा सकते हैं । तथा जोजंघाचारण मुनिजन हैं वे तेरहवां द्वीप जो रुचकवर द्वीप हैं वहां तक आ जा सकते हैं । विद्याचरण प्रथम उडान में मानुषोत्तर पर्वत तक चले जाते हैं, और दूसरी उडान में नंदीश्वर द्वीप तक, फिर वे जब वहां से होते हैं तो एक ही उडान में अपने स्थान पर वापिस आजाते हैं। तथा मेरु पर जाते हुए वे प्रथम उत्पात से नंदनवन तक जाते हैं और द्वितीय उत्पात से पण्डक वनतक जाते हैं, फिर वे जब वहां से वापिस होते हैं तो एक ही उत्पात में अपने स्थान पर आ जाते हैं। जंघाचारण जो मुनिजन होते हैं वें जंबूद्वीप की अपेक्षा एक ही उडान में तेरहवें रुचकवर द्वीप में पहुँच जाते हैं, और वहां से वापिस होते.समय एक ही उडान में नंदीश्वरद्वीप में आ जाते हैं । और दूसरी उडान में अपने स्थान पर आ पहुंचते हैं। यदि वे सुमेरुपर्वत पर जाने के अभिलाषी होते हैं तय प्रथम उत्पातमें पंडकवन में जाते हैं । फिर वापिस होते समय एक ही उत्पात से नंदनवन में और द्वितीय उत्पातमें अपने स्थान पर आ जाते हैं। रोहिणी प्रज्ञप्ति आदि विद्याओं के जो धारण करने वाले होते हैं वे विद्याधारक हैं । एक उपवास का नाम चतुर्थभक्त, दो उपवास का नाम षष्ठभक्त, तीन उपवासका नाम अष्टभक्त, चार उपवास का नाम दशઆવી શકે છે, તથા જે બંધારણ મુનિજને છે તેઓ તેરમે ચકવર નામને દ્વીપ છે ત્યાં સુધી જઈ આવે શકે છે. વિદ્યાચારણ પહેલાં ઉડ્ડયનમાં માનત્તર પર્વત સુધી ચાલ્યા જાય છે, બીજા ઉડ્ડનમાં નંદીશ્વર હપ સુધી જાય છે. પછી જ્યારે તેઓ ત્યાંથી પાછા ફરે છે ત્યારે એક જ ઉડ્ડયનમાં પોતાના સ્થાને આવી જાય કરે તથા મેરુ જતાં તેઓ પહેલા ઉઠ્યનમાં નંદનવન સુધી જાય છે. અને બીજા ઉદ્યને પડક વન સુધી જાય છે. પછી જ્યારે તેઓ ત્યાંથી પાછા આવે છે. ત્યારે એક જ ઉયનમાં પોતાના સ્થાને આવી જાય છે. જંઘા. ચરણ મુનિજન જંબુદ્વીપની અપેક્ષાએ એક જ ઉદ્ઘનમાં તેરમાં રુચકવર દ્વીપમાં પહોંચી જાય છે, અને ત્યાંથી પાછા ફરતા એક જ ઉયને તેઓ - નંદીશ્વર દ્વીપમાં આવી જાય છે. અને બીજાં ઉયને પિતાને સ્થાને પહોંચી જાય છે. જો તેઓ સુમેરુ પર્વત પર જવાની ઈચ્છા કરે તે પહેલાં ઉત્પાતથી પંડક વનમાં જાય છે, પછી પાછા ફરતી વખતે એક જ ઊત્પતે નંદન વનમાં અને બીજો ઉત્પાતે પિતાનાં સ્થાનમાં આવી જાય છે. રોહિણી પ્રાપ્તિ આદિ વિધાઓ ધારણ કરનારને વિવાદાર કહે છે. એક ઉપવાસને ચતુર્થભક્ત, બે ઉપવાસને ષષ્ઠભક્ત, ત્રણ ઉસવાસને અષ્ટમભક્ત, ચાર ઉપવાસને દશમભક્ત, - For Private And Personal Use Only Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५९२ प्रश्नव्याकरणसूत्रे मभक्त, पांच उपवास का नाम द्वादशभक्त, छह उपवास का नाम चतुर्दश भक्त, सात उपवास का नाम षोडशभक्त, है । इन उपवासों को जो मुनिजन करते हैं वे चतुर्थ भक्तिक आदि मुनिजन हैं। इसी तरह जो अर्धमास आदिके उपवासों को करते हैं वे अर्धमास आदि भक्ति हैं। जो मुनिजन इस प्रकार का अभिग्रह विशेष धारण कर लेते हैं कि हम उसी आहार को लेवेंगे कि जो आहार गृहस्थ ने अपने प्रयोजन के लिये पाकपात्र से उठाकर दुसरे पात्र में नहीं रखा होगा। इस प्रकार का अभिग्रह बद्ध होकर जो आहार की गवेषणा करने के लिये अपने स्थान से बहिर्गमन करते हैं वे उत्क्षिप्त चरक मुनिराज हैं। तथा जो इस प्रकार का अभिग्रह करके आहार लेने के लिये अपने स्थान से जाते हैं कि में वही आहार ग्रहण करूँगा जो गृहस्थ ने अपने लिये पाक पात्र से निकाल कर दूसरे पात्र में रखा होगा। इस प्रकार के अभिग्रह को धारण कर जो आहार की गवेषणा करने के लिये अपने स्थान से बाहर भ्रमण करते हैं वे निश्चितचरक है । तथा जो मुनिजन अन्तनीरस, तछाछमिश्रित और पर्युषित (बासी) वल्ल, चणक-चना ओदि પાંચ ઉપવાસને દ્વાદશભક્ત, છ ઉપવાસને ચતુર્દ શભક્ત, સાત ઉપવાસને પોડષભક્ત, કહે છે. એ ઉપવાસે કરનાર જે મુનિજના છે તે ચતુર્ભૂક્તિક આદિ મુનિજના કહેવાય છે. એ જ પ્રમાણે જે અમાસ આદિ સમયના ઉપવાસે કરે છે તેમને ધમાસમ આદિ કહે છે. જે મુનિજન એવા પ્રકારના અભિગ્રહ ધારણ કરે છે કે અમે એવા જ આહાર લઈશું કે જે ગૃહસ્થેપાતાના ઉપયેગને માટે રાંધવાના વાસણમાંથી લઈ ને બીજા પાત્રમાં નહી* રાખ્યા હોય. આ પ્રમાણે અભિગ્રહ બાંધીને જે આહારની શેાધમાં પેાતાને સ્થાનેથી બહાર નીકળે છે તેમને ક્ષારદ મુનિરાજ કહે છે. તથા જે મુનિરાજ એવા પ્રકારના અભિગ્રહ ધારણ કરીને પેાતાને સ્થાનેથી આહાર લેવા નીકળે છે કે “ હું એવા જ આહાર વહેરીશ કે જે ગૃહસ્થે રાંધવાનાં પાત્ર માંથી પેાતાના ઉપયોગ માટે ખીજા પાત્રમાં કાઢી રાખ્યા હાય. આ પ્રકારના અભિગ્રહ કરીને જે આહારની શેાધ કરવાને માટે પેાતાને સ્થાનેથી મહાર नीउणे छे ते सुनिन्न निक्षिप्तचरक हेवाय छे तथा ने मुनिरान अन्तनीरस, छाशमिश्रित भने पर्युषित-वासी वल, थाउ-या आदि भाडार सेवाना अलिश्रड धारण उरीने तेनी शोध उरे छे तेथे अन्तचरक छे. तथा " For Private And Personal Use Only Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० १ सू०५ अहिंसाप्राप्तमहापुरुषनिरूपणम् ५९३ आहार लेने का अभिग्रह धारण कर उसकी गवेषणा करते हैं वे अन्तवरक हैं । तथा प्रान्तचरक वे मुनिराज हैं जो पुराने वल, चणक एवं कुली आदि अन को लेने का अभिग्रह बद्ध होकर गोचरी करते हैं। तथा जो रूक्ष भोजन ही मैं लूंगा, इस प्रकार की प्रतिक्षा धारण करते हैं। जो ऊँचे नीचे कुलों में सामान्य रूप से भिक्षा ग्रहण करने के स्वभाववाले होते हैं वे समुदानचरक हैं अन्नलायक - अन्नसे, अर्थात् afra faशेष के कारण वासी अन्न खाने से ग्लान अर्थात् कृशदुपले जो है वे अवग्लायक हैं। भिक्षा विशुद्धि के सिवाय जो मौनव्रतको धारण कर आहार के लिये जाते हैं वे मौनचरक साधु हैं। तथा जिनका ऐसा कल्प होता है कि जो आहार हमें संसृष्ट-भरे हुए हाथ और भाजन - पात्र से दिया जावेगा बही मैं लूंगा वे संसृष्ट कल्पिक हैं। तथा - तज्ज्ञानसंसृष्ट कल्पिक वे मुनिजन हैं जो इसप्रकार का नियम लेते हैं कि जिस प्रकार का द्रव्य देने योग्य है वह उसी प्रकार के द्रव्य से संसृष्ट हस्त भाजन से दिया जावेगा तो ही लेगें । जो इस प्रकार का नियम धारण करते हैं कि दाता ने जिस आहार को अपने आप अपने पास खाने के लिये रखा होगा वही हम लेगें। इस प्रकार के अभिग्रह वाले પ્રાન્તવ મુનિરાજ તેમને કહે છે કે જેએ જૂનાં વાલ, ચણા, કળથી આફ્રિ અન્ન લેવાને અભિગ્રહ કરીને ગોચરી કરે છે. તથા જે એવી પ્રતિજ્ઞા ધારણ रे छेडे हु' ३क्ष (यु) लोक्न ४ शितेभने रूक्षचरक उडे छे. એક સરખી રીતે ઊંચા તથા નીચા કુળમાં ભિક્ષા ગ્રહણ કરવાના સ્વભાવવાળા छे तेथे समुदानचरक छे. अन्नलायक - मास अलिश्रहने भो वासी भन्न ખાવાથી ગ્લાન એટલે કે કુશ-દુઃખા પડી ગયેલાં હેાય તેમને અન્નગ્લાયક કહે છે. ભિક્ષા વિશુદ્ધિના સિવાય, જે સાધુ મૌનવ્રત ધારણ કરીને આહારને માટે જાય છે તેમને મૌનર કહે છે. તથા જેમના એવા નિશ્ચય-ધારણા होय छे " ने आहार अभने संसृष्ट-लरेसा हाथ तथा भाजन पात्रमांथी महेशवाशे ते अर्धशु" मेवा भुनियाने संसृष्टकल्पिक डे छे. तथा જે મુનિજને એવા પ્રકારના નિયમ કરે છે કે વહેારાવવાનું જે દ્રવ્ય હોય તે એજ પ્રકારના દ્રવ્યથી ભરેલ પાત્રમાંથી વહેારાવવામાં આવશે તેા જ લઇશ, ते भुनिनाने तज्जातसंसृष्टकल्पिक डे छे. ने भुनिनो मेव। नियम धारण કરે છે કે દાતાએ પેાતે જ પાતાને ખાવા માટે જે આહાર પેાતાની પાસે राज्यो होय ते ? हुं साश मा अमरना अलियड धारी भुनियो। उपनि प्र० ७५ For Private And Personal Use Only Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे उपनिहितक हैं। शंका आदि दोषों के परिहार से शुद्ध आहार का ग्रहण करना इसका नाम शुढेषणा है। इस शुढेषणा से जो संपन्न होते हैं वे शुद्वैषणिक हैं। अर्थात् शंका आदि दोषों से रहित शुद्ध आहार को ग्रहण करने का जिनका अभिग्रह होता है वे शुद्वैषणिक हैं। संख्याप्रधानवाली दत्तियों से जो गोचरी के लिये जाते हैं अर्थात् दाता के हाथ से देते समय साधु के पात्र में भक्तान आदि का जो एक बार अविच्छिन्नरूप से गिरना उसे दत्ति कहते हैं, इस प्रकार की पाँच छ आदिदत्तियों के लेने का अभिग्रह जिन्हें होता है वे संख्यादत्तिक हैं। जिन साधुओं को ऐसा नियम होता है कि हम उसी आहार को लेंगे जो हमारे दृष्टि गोचर होगा। इस प्रकार के नियमवाले साधु दृष्टिलाभिक कहे जाते हैं । तथा अदृष्टलाभिक वे साधुजन हैं जो पाकगृह के भीतर से निकले हुए ऐसे भोजन को कि जो दृष्टि में तो आया नहीं है केवल कान से ही उसका नाम सुन लिया है उसे लेने का नियम धारण करते हैं। अथवा-पूर्व में अनुपलब्ध दाता से ही मैं भिक्षा लूगा' इस प्रकार का जो नियमविशेष रखते हैं वे अदृष्टलाभिक मुनि हैं। 'हेसाधो! मैं आप के लिये क्या , अर्थात् आपके लिये किप्त वस्तु की इस समय चाहना है ' इस प्रकार दाता के द्वारा प्रश्नविषयीकृत वस्तु હિરા કહેવાય છે. શુષણ એટલે શંકા આદિ દે િરહિત શુદ્ધ આહાર ગ્રહણ કરે તે આ શુષણયુક્ત મુનિજને વણિક કહે છે એટલે કે શંકા આદિ દેથી રહિત શુદ્ધ આહાર ગ્રહણ કરવાને જેમને અભિગ્રહ છે તેઓ શુદ્ધષણિક છે, સંખ્યા પ્રધાનવાળી દરિયેથી જે ગેચરીને માટે જાય છે એટલે કે દાતાને હાથથી આપતી વખતે સાધુના પાત્રમાં ભક્તપાન આદિનું ધારાવળી તૂટયા વિના એક વખતમાં જેટલું પ્રવાહી રેડાય તેને દત્તિ કહે છે, આ પ્રકારની પાંચ, છ આદિ દત્તિ લેવાને જેમને અભિગ્રહ હેય છે તેમને સંસ્થાત્તિ કહે છે. જે સાધુઓને એ નિયમ હોય છે કે જે આહાર અમારી નજરે પડશે તે જ આહાર અમે લઈશું, એવા નિયમ ॥ साधुगाने दृष्ठिलाभिक ४ छ. तथा अष्ठिलाभिक भुनिशन तेभने કહે છે કે જેઓ રસોડામાંથી બહારકાઢવામાં આવેલ એવું ભોજન સ્વીકારે છે કે જે નજરે પડયું હોતું નથી પણ તેનું નામ જ કણે પડ્યું હોય છે. અથવા “અગાઉ જેની પાસેથી દાન ગ્રહણ ન કર્યું હોય એવા દાતા પાસેથી જ દાન ગ્રહણ ४२" मेवा भनिने अदृष्टलाभिक ४९ छ. “ भुनि ! हुँ मापने भाट शु आY " मेटले " मा५ मत्यारे शी १२तु सेवा भाग छो" मा For Private And Personal Use Only Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० १ सू०४ अहिंसाप्राप्तमहापुरुषनिरूपणम् ५५५ को लेने का जिनके अभिग्रह होता है वे पृष्टलाभिक मुनि हैं जो आचामालव्रत (आयंबिल ) से युक्त होते हैं वे आचाम्लिक मुनि हैं । पारणा के दिवस भी जो पूर्वार्द्ध के समय खाने पीने का त्याग कर देते हैं वे पुरिमडूपूर्वार्द्धक मुनि हैं । तथा जो पारणा के दिन भी एकाशनव्रत के धारी होते हैं वे एकाशनिक हैं । जो घृत आदि पदार्थरूप विकृतियों से विहीन ही भोजन लेते हैं वे निर्विकृतिक मुनि हैं । 'पात्र में गिरने पहिले जो भिक्षा की वस्तु सक्तुकादि रूप मोदक आदि पिण्ड अर्पित करते समय बीच में ही फूटकर पात्र में पड़ेगी उसे ही मैं लूंगा' इस प्रकार जो नियम धारण करते हैं वे भिन्नपिंडपातिक मुनि हैं । ' इतनी ही वस्तु - भक्ष्यपदार्थ खाने योग्य हम भोजन में खावेंगे ' ऐसा नियम जिन साधुओं के होता है वे परिमितपिंडपातिक मुनि हैं। नीरस, तक (छाछ)मिश्रित और पर्युषित वल्ल चणक आदि अन्न का जो आहार करते हैं वे अन्ताहारी मुनि हैं । पुरानीं कुलधी, बल्ल, चना आदि अन्न का जो आहार करते हैं वे प्रान्ताहारी मुनि हैं । जो रसवर्जित आहार लेते हैंअर्थात् जो मुनि हिंग आदि के बधार से वर्जित आहार को लेने के नियमवाले होते हैं वे अरसाहारी हैं। जिनमें रस नहीं होता ऐसे પ્રમાણે દાતા દ્વારા પ્રશ્નવિષયીકૃત વસ્તુ લેવાને જેમને અભિગ્રહ હોય છે તેમને પ્રથ્રુસ્રામિત્ર મુનિ કહે છે. જે મુનિ આચામાલવત યુક્ત હેાય છે તેમને आचामालिक सुनि उडे छे. पारणाने दिवसे पाशु ने पूर्वाद्ध મધ્યાહ્ન પહેલાં भाषायीवानो त्याग उरे छे तेभने परिमनु-पूर्वार्द्धक भुनि उहे छे. तथा ने પારણાને દિવસે પણ એકાસન વ્રત ધારી હોય છે તેમને જ્ઞાાનિષ્ઠ કહે છે. જે ઘી આદિ પદાર્થરૂપ વિકૃતિયાથી રહિત ભેાજન લે છે તેમને નિવૃિત્તિ સુનિ કહે છે “ પાત્રમાં પડયા પહેલાં જે ભિક્ષાની વસ્તુ-મસ્તુ કાદિરૂપ મેદક આદિપિંડ અર્પણ કરતી વખતે વચ્ચેજ ભાંગી જઈ ને પાત્રમાં પડશે તેને જ હું લઈશ આ પ્રકારને નિયમ ધારણ કરનાર મુનિને ખ્રિવિંદાતિજ્ઞમુનિ हे छे. "आरसी वस्तु जाद्य पदार्थ -हु लोभनमा आाशि " એવા नियम धारण ४२नार भुनिनाने परिमितपिंडपातिक उडे छे. नीरस, छाशમિશ્રિત, અને પષિત વાસી વાલ, ચણા આદિ અન્નને આહાર કરનાર મુનિજનાને અન્તાહારી કહે છે. જૂની કળથી, વાલ ચણા આદિ અન્નના આહાર કરનાર મુનિઓને પ્રાન્તાદાત્ત કહે છે. જે રસહિત આહાર લે છે એટલે કે જે મુનિ હિંગ આદિના વઘારથી રહિત આહાર લેવાના નિયમવાળા હોય છે " For Private And Personal Use Only Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्र पुराने धान्य ओदन आदि अन्न से निष्पन्न हुए आहार को लेनेका जिनका नियम होता है वे विरलाहारी मुनि हैं । वृतादि के संबंध से वर्जित हुए रूखे लूखे आहार को लेने का जिनका नियम होता है वे स्क्षाहारी मुनि हैं । बदरी फल बोर के पिसे हुए चूर्ण आदि का, तथा कुलथी कोद्रव आदि से बने हुए आहार का जो सेवन करते हैं वे तुच्छाहारो मुनि हैं। इसी तरह अन्त आहार से जो जीते हैं वे अन्तजीवी, प्रान्त आहार से जो जीते हैं वे प्रान्तजीवी, रूक्षाहार से जो जीते हैं वे रूक्षजीवी, तुच्छाहार से जो जीते हैं वे तुच्छजीवी मुनि है। अशन आदि की प्राप्ति होने पर अथवा नहीं होने पर जिनकी बाहिरी चेटा में-मुख में चक्षुरादि इन्द्रियों में म्लानता नहीं आती है वे उपशान्तजीवी मुनि हैं। तथा अन्तरंग में जिन साधुओं के आहार आदि की अप्राप्ति में क्रोधादि कषायों का उपशमन रहता है वे प्रशान्तजीवी भुनि हैं । दोपवर्जित अन्नादि के खाने से हो जो अपना जीवन निर्वाह करते है ये विविक्तजीवी मुनि है । क्षीर-दुग्ध,मधु-शर्करा आदिमधुरद्रव्य और सर्पि-धृत,इनपदार्थोका जो आहार नहीं करते हैं वे अक्षीरमधुसर्पिष्क मुनि हैं । मद्य और मांस का आहार नहीं करने अमद्यमांसाशिक मुनि कहलाते है ।जो अतिशयरूप તેમને રસાહાર કહે છે. જેમાં રસ હોતું નથી એવા જૂના ધાન્ય, ચેખા આદિ અન્નમાંથી તૈયાર થયેલ આહાર લેવાના નિયમવાળા મુનિઓને વરસાણા કહે છે. ઘી વિનાને લુખે આહાર લેવાને જેમને નિયમ છે તેમને કાણા મુનિ કહે છે. બેર આદિ ફળોનું ચૂર્ણ આદિતધા કળથી કેદરા વગેરેમાંથી બનેલા આહારનું જે સેવન કરે છે તેમને તુઝlહારી કહે છે, એ જ પ્રમાણે અન્ત આહારથી જે જીવે છે तभने अन्तजीवी, प्रान्त माडाथी २७ छ भने प्रान्तजीवी, ३क्ष माहीરથી જે જીવે છે તેમને દક્ષનીચી અને તુચ્છ આહારથી જે જીવે છે તેમને તુચ્છકીવી મુનિ કહે છે. ભેજન આદિ પ્રાપ્ત થાય કે ન થાય છતાં પણ જેમની મુખમુદ્રામાં, ચક્ષુરાદિ ઈન્દ્રિમાં પ્લાનતા દેખાતી નથી તેમને ૩૫शान्तजीवी भुनि ४ छ. तथा मन्त२ मा ? साधुयाने AISहिनी मप्रा(Avi धादि पायार्नु उपशमन २ छ तेस। प्रशान्तजीवी भुमि छ, दोषा २डित भन्नाहि मान पाता। न निवड साये छ तेभने विविक्तजीवी भुनि ४ छ. क्षी२-६५, मधु-सा४२ माहि मधुर द्रव्य तथा सर्पि ત એ પદાર્થોને જે આહાર નથી કરતા તેમને ક્ષીરમપુલર્જિક મુનિ કહે છે. મદ્ય અને માંસને જે આહાર કરતા નથી તેમને સમાનતાશિ મુનિ For Private And Personal Use Only Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० १ सू०४ अहिंसाप्राप्त महापुरुषनिरूपणम् ५९७ कोत्सर्ग आदि तपश्चरण करते हैं वे स्थानातिग मुनि हैं। एक रात्रिकी आदि प्रतिमावारण कर कार्योत्सर्ग विशेषरूप में ही रहते हैं वे प्रतिमास्थायी मुनि हैं। जिनका स्थान उत्कुटुक होता है, अर्थात् जो उत्कुट आसन से बैठते हैं वे स्थानोत्कुटुक हैं। सिंहासन पर बैठे हुए व्यक्ति का कि जिसके दोनों पैर नीचे टिके हुए हों जब वे सिंहासन नीचे से हटा लिया जाता है तो वह उस समय उसी स्थिति में - अर्थात्- अपनी पूर्व की स्थिति में ही रहे तो उस आसन का नाम वीरासन है। इस आसन को जो आचरित करते हैं वे वीरासनिक मुनि हैं। जिस आसन में दोनों पुत समानरूप से जमे रहते है उस आसन का नाम free है। इस निषया से जो बैठते हैं वे नैपधिक है। दंड की तरह जिनका शरीर भूमिपर आयत - लंबा- जिस आसन में रहता है - उसका नाम दंडायत आसन है । इस आसन को जो आचरित करते हैं वे दण्डायतिक हैं । अर्थात्-जिस में जमीन पर दंड की तरह लंबा होकर सोया जाता है उस आसन को जो मुनि करते हैं वे दण्डायतिक मुनि कहलाते है। जिस आसन में दोनों पैरों की एड़ी और मस्तक का पृष्ठभाग जमीन पर लगा रहता है, तथा पीठ का भाग जमीन से उठा કહે છે. જે અતિશય પ્રમાણમાં કાર્યોત્સર્ગ આદિ તપશ્ચરણ કરે છે. તેમને स्थानातिग मुनि छे ? मे शत्रिनी आदि प्रतिभा धाराशु ने अयो. ત્સના વિશેષરૂપમાં રહે છે તેમને પ્રતિમાસ્થાચી મુનિ કહે છે. જેમનું સ્થાન उत्कुटु' होय छे, गोटसे है ? उत्टुङ आसने मेसे छे तेभने स्थानोरकुटुक સુનિ કહે છે. સિંહાસન પર બેઠેલ વ્યક્તિ કે જેના બન્ને પગ નીચે ટેકવેલા હાય, તેની નીચેથી સિંહાસન ખસેડી લેવામાં આવે છતાં પણ તે જો પોતાની એજ સ્થિતિમાં એટલે કે પોતાની અગાઉની સ્થિતિમાં રહે તે તે આસનને વીરાસન કહે છે. આ આસનનું સેવન કરનાર મુનિને વીસનિષ્ઠ કહે છે, જે આસનમાં અને પુત સમાન રીતે દૃઢ રહે છે તે આસનનું નાથ નિષદ્યા છે. આ નિષદ્યાથી જે બેસે છે તેને નૈવ કહે છે દંડની જેમ જેમનું શરીર જમીન પર આયત-લખાયેલ સ્થિતિમાં જે આસનમાં રહે છે તે આસનને दंडायत आसन डे छे. या आसन उरनारने दण्डायतिक भुनि उहे छे. भेटले કે જેમાં જમીન પર દંડની જેમ લાંખા થઈ ને સૂઇ જવાય છે, તે આસન જે મુમિન કરે છે તેમને ઙાયતિન્દ્ર મુનિ કહે છે જે આસનમાં અન્ને પગની એડી તથા મસ્તકનેા પાછળના ભાગ જમીન પર લાગી રહે છે તથા પીઠના For Private And Personal Use Only Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे तथा-' सुयधरविदितत्थकायबुद्धिणो' भूतधरविदितार्थकायबुद्धयः श्रुतधराःश्रुतज्ञानिनस्तैत्रिदितो ज्ञातोऽर्थकः यः तत्त्वज्ञानराशिः श्रुतसमूहो यया सा श्रुतधरविदितार्थकाया, तादृशी बुद्धियेषां ते तथोक्ताः, तथा- धीरमइबुद्धिणो रहता है-उस आसन को लगडासन कहते हैं। इस आसन से जो मुनि शयन करते हैं वे लगंडशायी मुनि हैं । सोते समय जो एक ही करयट से सोते हैं-करवट नहीं बदलते है-ऐसे मुनि एक पाश्चिक हैं। जो साधुजन, शीत, उष्ण आदि की आतापना लेते हैं वे आताप मुनि हैं। हेमन्त ऋतु में जो प्रावरण से रहित होते हैं वे अप्रावृत मुनि हैं। जो मुनि अपने मुख के लेष्मा के अपरिष्ठापक होते हैं वे अनिष्ठीवकमुनि हैं । जो मुनि शरीर में खुजली चलने पर भी उसे नहीं खुजाते हैं वे मुनि अकण्डूयक है । तथा जो अपने केशों का मूछ दाढी आदि के बालों का-तथा नखों का संस्कार नहीं करते हैं-जैसे हैं वैसा ही उन्हें रखे रहते हैं ऐसे मुनि धृतकेशश्मश्रुलोमनखवाले कहलाते हैं यह जिन कल्पिक मुनियोंका तथा जो मुनि अपने समस्त शरीर का संस्कार नहीं करते हैं वे मुनि सर्व, गात्रप्रतिकर्मविमुक्त हैं । तथा ( सुयधरविदियत्थकायबुद्धिणो ) श्रुतज्ञानियों द्वारा तत्त्वज्ञानराशिरूप श्रुतसमूह जिसके प्रभाव से विदित होता है ऐसा जिन्हों की बुद्धि है तथा (धीरमहबुद्धिणो) अवग्रहादिरूपमति ભાગ જમીનથી અદ્ધર રહે છે, તે આસનને લગુડાસન કહે છે. તે આસને જે મુનિ શયન કરે છે તેમને ઢાંકરાચી મુનિ કહે કહે છે. સૂતી વખતે જે मे ५४थे शयन रे छे-५४४३२वता नथी-तेवा भुनिय! एकपार्श्विक ४९. पाय छे. २ मुनिजना शीत, सभी माहिनी मातापना से छे तेमने आतोજ મુનિ કહે છે, હેમન્ત તુમાં જે પ્રાવરણથી રહિત હોય છે. તેમને अप्रावृत्त भुनि छ. रे मुनि पोताना भुपना दोभाना અપરિડાયક હોય છે તેમને નિઃ8ીવ કહે છે જે મુનિ શરીરમાં ખુજલી શળ આવવા છતાં પણ તેને ખજવાળતા નથી તેમને અwદૂચ મુનિ કહે છે. જે મુનિ પોતાના કેશના-મૂંછ, દાઢી આદિના વાળના તથા નખના સંસ્કાર (છેદન) કરતા નથી, જેવા હોય તેવા જ તેને રહેવા દે છે, એવા મુનિઓને धृतकेशश्मश्रुलोमनखा है. तथा मुनि पोताना मस्त शरीरन २४२ ४२॥ नथी ते भुनियाने सर्वगोत्रप्रतिकर्मविमुक्त तथा “ सुयधर विदियस्थकायबुद्धिणो" श्रुतज्ञानी व तत्वज्ञानराशि श्रुतसभूना प्रसाथा विहित पाय छे सेवा भनी भुद्धि तथा “ धीरमइबुद्धिणो" भनी For Private And Personal Use Only Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ. १ सू० ४ अहिंसाप्राप्तमहापुरुषनिरूपणमू य' धीरमतिबुद्धयश्व-धीरा-स्थिरामतिः अवग्रहादिका, बुद्धिः श्रोत्पत्तिक्यायेषां ते तथोक्ताः, तथा 'जे ते 'थे ते, 'आसीविसउग्गतेयकप्पा' आशीविषो. ग्रतेजः कल्पाः आशीविषाः सास्ते च ते उग्रतेजसः घोरविषधराश्च आशीविपोग्रतेजसस्तत्तल्याः ये ते आशीविपोग्रतेजः कल्पाः । तथा 'निच्छयववसायप-ज्ज त्तकयमईया ' निश्चयव्यवसायपर्याप्तकृतमतया निश्चयः वस्तुनिर्णयो, व्यवसायाउद्यमः पुरुषकारइति यावत् तद्विषये पर्याप्ता-परिपूर्णा कृता-विहिता मतिर्बुद्धियस्ते तथोक्ताः सकलवस्तुनिर्णायका इत्यर्थः तथा-' णिच्च सज्झायज्ज्ञाणा' नित्यं स्वाध्यायध्यानाः-नित्यं-सर्वदा स्वाध्यायो-वाचनादिकम् , ध्यानं दुर्ध्यानतश्चित्तनिरोद्धरूपं येषां तथोक्ताः, अतएव ' अणुवद्धधम्मज्झाणा' अनुबद्धधर्मध्याना:अनुबद्ध-धाराप्रवाहन्यायेन निरन्तरं धृतं धर्मध्यानम्-आज्ञाविचयापायविचयविपाकविचयसंस्थानविचयरूपं यैस्ते, तथा-'पंचमहब्बयचरित्तजुत्ता' पश्चमहाव्रतचारित्रयुक्ताः पञ्चमहाव्रतानि-आणातिपातादिविरमणलक्षणानि तद्रूपं यच्चारित्रं तेन एवं औत्पत्तिकी आदि बुद्धि जिनकी धीर-स्थिर है, तथा (जे ते आसी विसउग्गतेयकप्पा ) जो सर्प के समान उग्रतेज वाले है, (निच्छुयवव. सायपज्जत्तकयमइया ) निथयवस्तुनिर्णय करने में एवं उद्यम-पुरुषार्थ करनेमें जिन्होंने अपनी बुद्धि को परिपूर्ण बना लिया है, अर्थात् जो अच्छी तरह से समस्त वस्तुओं का निर्णय करने वाले हैं तथा (निच्चं सज्झायज्झाणा ) जो नित्य ही वाचनादिरूप स्वाध्याय में एवं आर्चरौद्ररूप दुर्ध्यान से चित्त निरोधरूप ध्यान में मग्न रहते हैं, इसीलिये (अणुबद्धधम्मज्झाणा) धारा प्रवाह न्याय से जिनका निरन्तर आज्ञाविचय, अपायविचय, संस्थानविचय रूप धर्मध्यान होता रहता है, तथा ( पंचमहन्वय चरित्तजुत्ता ) जो प्राणातिपातादि विरमणरूप पंचमहाव्रतों से अपाहि३५ मति मने मौत्पत्तिsी मा मुद्धि धीर-स्थि२ छे, तथा “जे ते आसी विसउग्गतेयकप्पा" सपना समान 3 तेvan छ, “निच्छय यवसाय पज्जत्तकयमइया" निश्चयवस्तु निर्णय ४२वामा भने धम-५२षार्थ કરવામાં જેમણે પિતાની બુદ્ધિને પરિપૂર્ણ બનાવી લીધી છે, એટલે કે જે सारी समस्त वस्तुमानो निष्णु य ४२॥२ छ, तथा “निच्चं समायज्झाणा" रे नित्यायना३ि५ स्वाध्यायमा भने मात्रौद्र३५ दुनिभायी वित्तनिरोध३५ ज्ञानमा दीन २७ छ, तेथी " अणुबद्धधम्मज्जाणा" धारा प्रवाह ન્યાયથી જેમનું નિરન્તર અજ્ઞાવિચય, અપાય વિચય, સંસ્થાન વિયરૂપ ધર્મ ध्यान २या ४२ छ, तथा “पंचमहन्वयचरित्तजुत्ता" के प्रतिपाताल १२ For Private And Personal Use Only Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - ६०० प्रश्नव्याकरणसूत्रे युक्ता येते तथा-'समियासमिईसु ' समिताः समितिपु-ईर्यादिपञ्चसमितिभिर्युक्ता इत्यर्थः, तथा-' समियपावा ' शमितपापाः शमितं-शान्तं पापं आणातिपातादिरूपं येषां ते तथोक्ताः, तथा 'छबिहजगवच्छला' षड्विधजगद्वत्सलाः षड् जीवनिकायहिता इत्यर्थः, तथा-येते ' णिच्चमप्पमत्ता' नित्यमप्रमत्ताः सर्वदा प्रमादरहिताः सन्ति, 'एएहिय' एतैश्च पूर्वोक्तगुणविशिष्टैः, तथा-' अण्णेहि य' अन्यैश्च अनुकूललक्षणैगुणवद्भिर्या सा-जगत्मसिद्धा एपा भगवती अहिंसा 'अणुपालिश' अनुपालिता- वाङ्मनःकाययोगैराराधितेत्यर्थः ॥ सू-४ ।। युक्त बने हुए हैं, तथा ( समिइसुसमिया ( जो ईर्या आदि पांच समितियों से युक्त हैं और इसी कारण से ( समिइपावा ) जिन्हों के प्राणातिपादिरूप पार शांत हो चुके हैं, तथा ( छव्विह जगवच्छला) जो सदा छहकाय के जीवों की रक्षा करने में वत्सल भाववाले होते हैं तथा (णिञ्चमप्पमत्ता) जो पांच प्रमादों से नित्य रहित होते हैं (एएहिं) ऐसे इन पूर्वोक्त गुणों से विशिष्ट महात्माजनों द्वारा तथा ( अण्णेहिय ) इस प्रकार के लक्षणों से युक्त अन्य गुणवालों द्वारा ( जा सा भगवई ) यह जगत्प्रसिद्ध भगवती अहिंसा ( अणुपालिया ) मन, वचन, और काय, इन तीन योगों की एकाग्रता से अच्छी तरह आराधित की गई है। ___ भावार्थ-अहिंसा तत्व को यद्यपि प्रत्येक सिद्धान्तकारोंने अपने २ सिद्धान्तानुसार अपनाया है। परन्तु इस तत्व का बाहिरी स्वरूप विवेचन करते हो वे रह गये हैं । अन्तरंग स्वरूप विवेचन उनकी दृष्टि भए३५ पाय मानतोयी युत थयेछ, त५॥ “ समिइ सुसमिया "२ या साल पांय समितियोथी युत छ भने से ०४ ४२४थी. “ समिइपावा" भना प्रातिपाता३ि५ ५।५ शान्त २४ गयां छे, तथा “ छव्विहजगवज्छल! "सहा ७४ायन। वानी २क्षा ४२वामा पत्सस भाव पणा हाय छ, तथा" णिच्चमप्पमत्ता" २ सही पाय प्रमाहोथी २हित डाय छ “एएहि" सेवा से पूर्वोत गुणेथी युद्धत भडामा २॥ तथा “ अण्णेहिय " ! ५४२ना गुणेथी यु: मन्य गुणुयानो वा “ जा सा भगवई " 240 २४॥विध्यात सती माडिस! " अनुपालिया" मन, वयन, अने. आय, ये યોગેની એકાગ્રતાથી સારી રીતે આરાધવામાં આવી છે. ભાવાર્થ—અહિંસા તત્વને છે કે દરેક સિદ્ધાન્તકાએ પિત પિતાના સિદ્ધાન્તાનુસાર અપનાવેલ છે, પણ આ તત્વને બાહ્ય સ્વરૂપનું જ વિવેચન તેમણે કર્યું છે. અન્તરંગ સ્વરૂપ વિવેચન તેમની નજરે ન પડ્યું. તેનું પરિ. For Private And Personal Use Only Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ. १ सू० ४ अहिंसाप्राप्तमहापुरुषनिरूपणम् ६०१ में नहीं आया। इसका कारण केवल यही दुआ कि उनको अन्तरंग दृष्टि इस महनीय ता तक गहराई के साथ नहीं पहुंच पाई। इसके वास्त. वि अन्तरंग स्वरूप का विवेचन यदि हमें कहीं मिलता है तो वह एक बीतराग परंपरा में ही मिलता है। इनका कारण यहाँ यह हुआ कि जिन तीर्थकर ग गधर आदिकों ने इस तत्व का विवेचन किया वे बहुत ही बड़ी सूक्ष्मदृष्टिवाले थे। ज्ञान के पूर्ण विकास से वे इतने अधिक विज्ञानी पन चुके थे कि प्रत्येक पदार्थ अपनी समस्त अवस्थाओं के साथ उनके उस विशिष्ट शान में दर्पण में प्रतिबिम्ब को तरह प्रष्ट रूप से प्रतिविम्बिन झलमल्ला रहला था। अत: इस प्रकार के ज्ञान से उन्होंने अहिंसा भावनी के वास्तविक स्वरूप का दर्शन किया है तभी जाकर उन्होंने अपने सिद्धान्तो में इसका सूक्ष्मातिसूक्ष्म विवेचन किया है। यह विवेका छनथों से नहीं हो सका। यही बात सूत्रकारने अपने इस सूत्र द्वारा प्रदर्शित की है वे कहते हैं कि इस अहिंसा भाभवनी के दर्शन उन महापुरुषोंने किये है कि जो अपरिमित केवल ज्ञान और दर्शन के अधिपति थे। शील, विनय, तप और संयम से जिन्होंने अपनी आत्मा को मिलकुल 'सौटंची के ' सोने जैसा बना लिया था। जिनके पास राग द्वेष जैसे विशाल योधा पछाड़ खाकर सर्वथा विनष्ट हो चुके ણામ કેવળ એ જ આવ્યું કે તેમની અન્તરંગ દષ્ટિ આ મહાન તત્વમાં ઉંડાણથી પ્રવેશી નથી. તેના વાસ્તવિક અતરંગ સ્વરૂપનું વિવેચન આપણને વીતરાગ પરંપરા સિવાય અન્ય સિધ્ધાતેમાં રળતું નથી. તેનું કારણ એ છે કે જે તીર્થકર, ગણધર આદિએ આ તત્ત્વનું વિવેચન કર્યું છે તેઓ બહુ જ દીર્ઘદૃષ્ટિવાળા હતા. જ્ઞાનના પૂર્ણ વિકાસથી તેઓ એટલા બધા વિજ્ઞાની બની ગયા હતા કે પ્રત્યેક પદાર્થ તેની સમસ્ત અવસ્થાઓ સહિત તેમના એ વિશિષ્ટ જ્ઞાનથી જેમાદર્પણમાં પ્રતિબિંબ દેખાય તેમ સ્પષ્ટરૂપે દેખાતા હતા, તેથી એ પ્રકારનાં જ્ઞાનથી તેમણે ભગવતી અહિંસાના વાસ્તવિક સ્વરૂપનું દર્શન કર્યું હતું, તેથી જ તેઓએ પિતાના સિદ્ધાન્તમાં તેનું સૂફમમાં સક્ષમ વિવેચન કર્યું છે. આ વિવેચન છઘ વડે થઈ શકયું નહીં એ જ વાત સૂત્રકારે પિતાના આ સૂત્ર દ્વારા પ્રદર્શિત કરી છે. તેઓ કહે છે કે આ ભગવતી અહિંસાનાં દર્શન તે મહાપુરુષોએ કર્યા છે કે જેઓ અનન્ત જ્ઞાન અને દર્શનના અધિપતિ હતા, જેમણે શીલ, વિનય, તપ અને સંયમ દ્વારા પિતાના આત્માને “સે ટચના” સેના જે વિશુદ્ધ બનાવ્યું હતું. જેમની પાસે રાગદ્વેષરૂપી સમર્થ યદ્રા ભ ભેગા થઈને તદ્દન નષ્ટ થયા હતા. ત્રણેક જેમની प्र०७६ For Private And Personal Use Only Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६०२ - प्रश्नव्याकरणसूत्रे अथ ये-अहिंसारूपमथमसंगरद्वार पालयितुमुद्यतास्तेषां यद्विधेयं तदाह मूलम्-इमंच पुढवी-दग-अगणि-मारुष-तरुगण-तसथावरसव्वभूयसंजयदयट्टयाए सुद्धं उंछं गयेसियव्यं अकयमकारियमणाहुयमणुदिठं अकीयकडं नवकोडिहिं परिसुद्धं दसहिं यदो. सेहिं विपमुक्कं उग्गम उप्पायणेसणासुद्धववगयचुय चइयचत्तदेहं च फासुयं च न निसिजक हापयोयणक्खासु ओवणियं न तिगिच्छामंतमूलभेसज्जकजहेउं न लकवणुप्पाय सुमिणजोइ. सनिमित्त कहकुहकप्पउत्तं न विडंभगाए न विरक्खणाए न वि सासणाए न विडंभणरक्खणसासणाए भिक्खंगवेसियव्वं, न वि वंदणाए न विमाणणाए न विपूयणाए न विवंदणमाण णपूयणाए भिक्खं गवेसियत्वं, न विहीलगाए न विनिंदणाए थे। तीन लोक जिनकी चरण सेवा कर अपने आपको धन्य मानता था। उन्हीं के आदेशानुसार उनकी शिष्यप्रशिष्य परंपरा में हुए मनः पर्यय और अविधिज्ञानधारियों ने इस अहिंसा भगवती को भेद प्रभेदों से जाना, और उसे विशेषरूप से देखा । पूर्वधरों ने इसे श्रुतनिबद्ध किया। वैक्रियलब्धिधारियों ने इस भगवती का आजन्म पालन किया । एवं आभिनिबोधिक ज्ञानियों से लेकर सर्वगात्रप्रतिकर्म विमुक्तादि अनेक महापुरुषों ने इस अहिंसा भगवती को अपनी २ शक्ति के अनुसार बहुतही अच्छी तरह से पाला है ॥ सू०४ સેવા કરીને પોતાની જાતને ધન્ય માનતા હતા. એમના જ આદેશ પ્રમાણે તેમની શિષ્ય-પ્રશિષ્ય પરંપરા થઈ ગયેલ મનઃ પર્યાય અને અવધિજ્ઞાનીઓએ આ ભગવતી અહિંસાને ભેદ-પ્રભેદે સહિત જાણી અને તેનું વિશેષરૂપે દર્શન કર્યું. ક્રિય લબ્ધિધારીઓએ આ ભગવતીનું જીવનપર્યત પાલન કર્યું. અને આભિનિબે ધિક જ્ઞાનીઓથી લઈને સર્વગાત્ર પ્રતિકર્મ વિમુક્તા આદિ અનેક મહાપુરૂષોએ આ ભગવતી અહિંસાનું પિત પિતાની શક્તિ પ્રમાણે ઘણી જ सारी शते पासन थुछे. ॥ सू. ४॥ For Private And Personal Use Only Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० १ सू० ५ अहिंसापालककर्तव्यनिरूपणम् न वि गरिहणाए नवि होलणानिंदणा गरिहणाए भिक्खं गवेसियव्वं, न वि भेसणाए न वि तज्जणाए न वि तालणाए न वि भेसणतज्जणतालणाए भिक्खं गवेसियवं, न वि गारवेणं न वि कुहणाए न वि वणीमगयाए न वि गारवकुहणवणीमगयाए भिक्खं गवेसियत्वं, न वि मित्तयाए न वि पत्थणाए न वि सेवणाए न वि.मित्तयपत्थणसेवणाए भिक्खं गवेसियव्वं, अण्णाए अगड्डिए अदुट्टे अदीणेअविमणे अकलुणे आविसाई अपरितंतजोगी जयणघडणकरणचरियविनय गुणजोगसंपउत्ते भिक्खू भिक्खेसणाए णिरए । इमं च णं सव्वजगजीवरक्खणदयट्टणाए पावयणं भगवया सुकहियं अत्तहियं पेच्चा भवियं आगमेसिभदं सुद्धं नेयाउयं अकुडिलं अणुत्तरं सव्वदुक्खपावाणविउसमणं॥५॥ टीका-'इमं च पुढवी' इत्यादि 'पुढनीदगअगणिमारुयतरुगणतसथावरसव्वभूयसंजमदयद्वयाए । पृथ्वीदकाग्निमारुततरुगणत्रसस्थावर सर्वभूतसंयमदयार्थ, तत्र-पृथिवी-प्रसिद्धा, दक= पानीयम् , अग्निः, मारुतो-चायुः, तरुगणः वनस्पतिसमूहः, प्रसाः-द्वीन्द्रियादयः, स्थावराः पृथिव्यादिपञ्चकम् , एतेषां सर्वभूतानां सर्वमाणिनां संयमो रक्षणं ___ जो इस अहिंसारूपप्रथमसंवरद्वार को पालन करने के लिये उद्यत हैं उन्हें क्या करना चाहिये सो कहते हैं-'इमं च ' इत्यादि ! टीका-(पुढवी-दग-अगणि-मारुय-तरुगग-तस-थावर-सव्वभूय संजभ दयट्ठाए ) पृथिवी, दक-जल, अग्नि, वायु, वनस्पति समूह, द्वीन्द्रियादिक पांच स्थावर, इन सब प्राणियों की रक्षा निमित्त दयारूप જેઓ આ અહિંસારૂપ પ્રથમ સંવરદ્વારનું પાલન કરવાને માટે તૈયાર थया छे तमो शु ४२ ते --- “ इमच" ध्या साथ-(पुढवी, दा, अगणि, मारुय, तरुगण ,तस,थावर,समभूय,संजमदयट्टाए) पृथिवी, ६४, , नि, वायु, वनस्पति समू, द्वन्द्रियाहि त्रस, पृथिવ્યાદિક પાંચ થાવર, એ બધા પ્રાણીઓની રક્ષા નિમિત્ત દયારૂપ પ્રજનને For Private And Personal Use Only Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे तिनिमिचा या दकाया तस्या अर्थ अयोजन तस्मै, ' इमं च ' इदं च-वक्ष्यमाण 'सुद्धं ' शुद्ध निर्दोषं 'उछ' उञ्छ-स्तोकं स्तोकं ग्रहणरूपमशनादिकं ' गवेसयव्यं ' गवेषितव्यम् , यथा-लूतानक्षेत्रात्कगादानं तथैव साधुनाऽपि गृहस्थार्थ निष्पादितमन्नादिकस्तोकं स्तोकं गवेषणीयमिति भावः कीदृशम्-उच्छं गवेषितव्यम् ? इत्याह-'अकयं ' अकृतं साधु निमित्त मनिष्पादितम् , 'अकारियं' अकारितम्-अन्यद्वारा न कारितम् , तथा-'अगाहूयं ' अनाहतम्-गृहस्थेन साधोरनिमन्त्रणपूर्वकं दीयमानम् , ' अणुद्दिटुं' अनुद्दिष्टम् औद्दे शिक्षादि दोपवर्जितम् , तथा-'अकीयकडं' अक्रीतकृत-साधूनां कृते मूल्येनानिष्पादितम् । एतदेव वर्णयन्नाह-'नवकोडोहिं ' नकोटिभिः, न हन्ति १, न घातयति २, घ्नन्तं प्रयोजन के लिये ( इमं च ) इस वक्ष्यमाण (सुद्धं उंछं गवेसियव्वं) शुद्ध-निर्दोष, आहार आदि को उंछ थोड़े २ रूप में गवेषगा करना चाहिये, अर्थात् जिस प्रकार काटे गये खेत से कगों का आदान किया जाता है उसी प्रकार साधु को गृहस्थ ने अपने लिये बनाये हुए भोजन आदि में से थोड़ी थोड़ी मात्रा में उसके यहां से आहार आदि लेना चाहिये। आहारादि ( अकयं ) साधु के निमित्त उसने नहीं बनाया हो और (अकारियं) न दूसरों से उसने बनवाया हो (अमाहुयं ) बुलाकर-अर्थात्-निमंत्रण करके जो न दिया जाय, (अणुट्ठि) औद्देशिक आदि दोषों से जो जित हो, तथा (अफीयकडं ) साधुओं के निमित्त मूल्य देकर जो नहीं खरीदा गया हो तथा (नव कोडिहिंपरिसुद्धं ) नवकोटियों से अर्थात् नौ प्रकार से जो परिशुद्र हो, अर्थात् जिस आहार में साधु के निमित जीवों को हिंमा नहीं हुई हो, न भाट (इमं च ) इसवक्ष्यमाण, (सुद्धं उंछ गवेसियव्वं ) शुद्ध, निषि माड२ આદિની શેડા થોડા પ્રમાણમાં ગવેષણા કરવી જોઈએ, એટલે કે જેમ વણાયેલ ખેતરરમાંથી કણેનું આદાન કરાય છે, એ જ પ્રમાણે સાધુએ, ગૃહસ્થ દ્વારા પિતાને માટે બનાવાયેલ ભેજન આદિમાંથી થોડાં થોડાં પ્રમાણમાં આહાર माह सेवनध्य. तेथे ते २६ ( अकयं) साधुने माटे मनाय i न नही, मने (अकारियं) ulonनी पासे मनावराच्या डावा मे नही. ( अणायं) मासावीने मेट ते निमत्रीने रे न अपाय, (अणुविद्र) मोहशिमहिषाथी रे हित डाय, तथा (अकीयनडं ) साधुने भाट भूक्ष्य मापाने ते भरी हायसन य, त। ( नवकोडिहि परिसुद्धं ) नोटीस વડે-નવ પ્રકારે જે પરિશુદ્ધ હોય, એટલે કે તેણે સાધુને નિમિત્તે બીજા પાસે હિંસા For Private And Personal Use Only Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीकाअ० १ ० ५ अहिंसापालककर्त्तव्यनिरूपणम् ६०५ नानुजानाति ३, न पचति ४, न पाचयति ५, पचन्तं नानुनानाति ६, न क्रीणाति ७, न क्रापयति ७, क्रीणन्तं नानुजानाति ९, इत्येता नवकोटयः, आभिः 'परिसुद्धं ' परिशुद्धं, तथा-'दसहिं य दोसेहिं' दशभिश्च दोषैः-शङ्कितादिदशदोषैः 'विप्पमुक्कं' विषमुक्तम्, 'उग्गमउप्पायणेसणासुद्धं' उद्गमोत्पादनषणाशुद्धं-आधाकर्मादयः पोडष उद्गमदोषाः, धाच्यादयश्च पोडश उत्पादनादोषाः, तद्रूपाया एषणा=गवेषणा, तया शुद्धम् , तथा--' वगयचुयचइयचत्तदेहं च' व्यपगतच्युतत्याजितत्यक्तदेहं च-तत्र व्यपगताः स्वयं पृथग्भूता आगन्तुका पियी लिकादयः, च्युताः मृताः स्वतः परतोवा दातव्यबस्त्वाश्रिताः उसने साधु के निमित्त दूसरों से हिंसा कराई हो २, और न साधु के निमित्त हिंमा करने वाले की अनुमोदना की गई हो ३ । तथा साधु के निमित्त जो स्वयं न पकाया हो ?, दूसरों से नहीं पकवाया गया हो २ और न जिसमें पकाने वाले की अनुमोदना की गई हो ३, तथा साधु के निमित्त जो पैसा देकर न खरीदा गया हो १, न दूसरों से खरीदवाया गया हो २ और न जिसमें खरीदने वाले की अनुमोदना की गई हो ३ । इस प्रकार की इन नव कोटियो से विशुद्ध आहार आदि की गवेषणा साधु को करनी चाहिये । (दसहिय दोसेहिं विप्पभुकं ) जो आहार शंकिन आदि दश दोषों से परि वर्जित हो (उग्गम उपायणेमणासुद्धं) उद्गम, उत्पादनरूप एषणा-गवेषणा से शुद्ध हो-आधाकर्म आदि सोलह उद्गमदोष हैं, धात्री आदि सोलह उत्सदना दोषों हैं। इन बत्तीस दोषों से जो रहित हो तथा (ववगयचुयचइयचत्तदेहं ) ( व्यपगत ) जिस કરાવી ન હોય, કે આધુને નિમિત્તે હિંસા કરવાની અનુદના થઈ ન હોય, તથા સાધુને નિમિત્તે જે તેણે જાતે બનાવ્યું ન હોય, બીજા પાસે બનાવરાવ્યું ન હોય, કે જેને પકવવાની અનુમોદના અપાઈ ન હોય તથા સાધુને નિમિત્તે જે પૈસા આપીને ખરીદ કર્યું ન હોય, કે બીજા પાસે ખરીદ કરાવાયું ન હોય, કે ખરીદનારને ખરીદવાની અનુમોદના કરાઈ ન હોય, એ રીતે નવા ४ारे विशुद्ध मा.२ माहिनी साधु गवेष९४१ २वी . ( दसहिय दोसेहि विप्पमुकं) 2 241७२ शति माह इस होषाथी २डित डाय, (उपगमउ पायणे सणा. सुद्ध) दम, उत्पाहन॥३५ मेष गवेषणाथी शुद्ध डाय,-माथाभ माह से ઉમે દોષ છે, ધાત્રી આદિ સોળ ઉત્પાદનો દેશ છે એ બત્રીસ થી જે રહિત हाय, तथा (ववगयचुयचइयचत्तदेह) (व्यात) माडामाथी ही मालि 94 ते २१ २६ ॥ जय, तथा (चुय) । २१५ चव गया For Private And Personal Use Only Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६०६ प्रश्नव्याकरणसूत्र पृथिवीकायिकादयः 'चइय' त्याजिताः दातव्यपदार्थात् दायकेन भृत्यादि द्वारा पृथक्कारिताः, अथवा 'चत्ता' स्वयमेव दायकेन त्यक्ताः पृथकृता देहाः= जीवशरीराणि यस्मादाहारातत् तथोक्तम् , अतएव 'फासुयं च ' प्रासुकं चव्यपगतजीवं च, एतादृशम्-आहारमशनादिकं गपेषितव्यम् । तथा कीदृशं भैक्षं न गवेषितव्यम् ? इत्याह-'न निसिन्जकहापयोयणक्खासु ओवणीयं' न निषद्य कथापयोजनाख्याश्रुतोपनीतं, तत्र-निषद्य आसने उपविश्य यत् कथाप्रयोजनधर्मकयानिमित्तम् आख्या श्रुतम् आख्यान प्रतिवद्वशास्त्रं, तेन तथाविधकथाकरणेन, यत् उपनीतम्-धर्मकथाकर्ने दायकेन दातुमानीतमशनादिकं, तन्न गवेषितव्यमित्यग्रेण सम्बन्धः । तथा-' न तिगिच्छामनमूलभेमज्जकज्जहेर्ड' न चिकित्सामन्त्रमूलभैषज्य कार्य हेतु = चिकित्सा-रोगनिवारणलक्षणा, मन्त्रा आहार से पिपीलिकादिक जीव स्वयं अलग हो गए हों तथा (चुय) जीव स्वयं चच गये हों अथवा अग्न्यादि के संयोग से चवगये हों, ( चश्य ) दाता ने भृत्यादि द्वारा पृथक करा दिये हों, ( चत्त ) स्वयं दाना ने पृथक् कर दिये हों, (फासुयं च) प्रातुक ऐसा अशन आदि मुनिजनों को कल्प्य है और ऐसे ही आहार की उन्हें गवेषणा करनी चाहिये । तथा जो ऐसा न हो उसकी उन्हें गवेषणा नहीं करनी चाहिये, इसी विषयको अब सूत्रकार " न निलिज्ज" इत्यादि पदो द्वारा प्रकट करते हैं, वे कहते हैं कि (न निसिजक कहापोयणक्वासु ओवणीयं) आसन पर बैठ कर धर्म कथा सुनाते समय यदि कोई दाता उन मुनिजन के पास देने के लिये अशनादि देय द्रव्य लाया हो तो वह उन मुनिजनों को कल्पता नहीं लेना है । तथा-(न तिगिच्छामंतमूलभेसजकजहेउ) जिस भक्ष्य की प्राप्ति में मुनि को चिकित्सा-रोगनिवारण के निमित्त हाय अथवा अनि माहिना सयोगथी नाश पाभ्या हाय, ( चइय) हाताने नोदि द्वा२१ २ ४२१व्या खाय, (चत्त) हाताते तेभने २मस यो डाय, ( फासुयंच ) प्रासुक व मा.२ मा मनिसाने ४८ छ भने सेवा જ આહારની તેમણે ગષણા કરવી જોઈએ, તથા જે આહાર એવો ન હોય તેની ગવેષણ તેમણે કરવી જોઈએ નહીં. એ જ વિષયને હવે સૂત્રકાર “ मिसिन्ज" त्याहि हो । प्रगट ४३ छ. तेरी यारे छे (न निसिज्जकहायओयणकखासुओवणीयं ) भासने मेसीन ४ा सावता मते ने કે દાતા તે મુનિને આપવાને માટે અશનાદિ દેવદ્રવ્ય લાવ્યું હોય તે તે निनाने ५६५ता नथी, तथा (नतिगिच्छामंत मूल भेसज्जकजहेउ) २ આહારની પ્રાપ્તિ માટે મુનિને ચિકિત્સા-ગ નિવારણ માટે ઈલાજ, મંત્ર For Private And Personal Use Only Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुशिनी टीका अ०१ सू० ५ अहिंसापालककर्तव्यनिरूपणम् ६०७ भूतादिनिग्रहलक्षणः, मूलम् वृक्षवल्ल्यादीनां, भैषज्यं द्रव्यसंयोगरूपम् , एतच्चतुष्टयरूपं कार्यमेव हेतु यत्र तत्तथो भैक्षं न गवेषितव्यमित्यग्रंण सम्बन्धः । तथा-'न लकवणुप्पायमुमिण जोइस निमित्तकहकुहकप्पउत्तं' न लक्षणोत्पात स्वम ज्योतिष निमित्त कथाकुहक प्रयक्त-तत्र-लक्षणं-स्त्रीपुरुषादि लक्षणं, उत्पाताः =भुकम्पादिशास्त्राणि, स्वमः-स्वमशास्त्रम् , ज्योतिष नक्षत्रादि शुभाशुभसूचक शास्त्रम् निमित्तं भूतभविष्यदादि सूचकं शास्त्रम् , कथा-कामकथा सूचकं शास्त्रम्, कुहकं-परेषां विस्मयोत्पादकप्रयोगः, एभिः प्रयोगैर्विस्मितेन दायकेन प्रयुक्त इलाज, मंत्र-भूतादि ग्रह के निग्रह निमित्त उपायभूत मंत्र का प्रयोग, मूल-वनौषधि, एवं भैषज्य-अनेक औषधि मिश्रित दवा, ऐसी भिक्षा मुनिजनों को कल्प्य नहीं होती है । तथा न लक्खणुप्पायसुमिणजोइसनिनित्तकहकुहकप्पउत्तं ) जिस भिक्षा की प्राप्ति मुनि को लक्षणों के स्त्री पुरुष आदि के चिह्नादिकों के-दिखाने का प्रदर्शन करना पड़े, भूकंप आदि के शास्त्र का कथन करना पड़े, स्वप्नशास्त्र का, जोतिषशास्त्र का, निमित्त शास्त्र का, काम कथा सूचक शास्त्र का, तथा दूसरों के लिये आश्चर्योत्पादक प्रयोगों का सहारा लेना पड़े, ऐसी भिक्षा मुनिजन के लिये कल्प्य नहीं है । तात्पर्य इसका यह है कि दाता को उनके हस्त आदि की रेखाओ से प्रसन्न करके, भूकंप आदि का शुभाशुभफल कथन करके, काम वर्द्धक कथाओं को कह करके, सप्न शास्त्र का प्ररूपण करके, ज्योतिषशास्त्र में अपनी विद्वत्ता का प्रदर्शन करके तथा आश्चर्यकारी प्रयोगों को दिखा करके यह कहना कि मैं यहुत ભૂતાદિગ્રહના નિગ્રહને માટે ઉપાયભૂત મંત્રને પ્રગ, મૂળ-વનૌષધિ, અને ભિષજ્ય-અનેક ઔષધિ મિશ્રિત દવા, આદિ બતાવવું પડે એવો આહાર મુરિ नाने ४८ नही तथा (नलक्खणुप्पाय सुमिणजोइसनिमित्त कह कुहकप्पउ ) જે ભિક્ષાની પ્રાપ્તિ માટે મુનિને સ્ત્રી-પુરુષ આદિના ચિહ્નાદિકને બતાવવાનું પ્રદર્શન કરવું પડે. ભૂકંપ આદિના શાસ્ત્રોનું કથન કરવું પડે, સ્વમ શાસ્ત્ર, તિષશાસ્ત્ર, નિમિત્ત શાસ્ત્ર, કામકથા સૂચક શાસ્ત્ર, તથા બીજાને માટે આશ્ચર્યોત્પાદક પ્ર વગેરેની મદદ લેવી પડે એવી ભિક્ષા મુનિજનને કલ્પ નહીં તેનું તાત્પર્ય એ છે કે દાતાને તેમના હસ્ત આદિનિ રેખાઓ વડે ખુશ કરીને, ભૂકંપ આદિનું શુભાશુભ ફળ કહીને, કામવર્ધન કથાઓ કહીને, સ્વપ્ન શાસનું પ્રરૂપણ કરીને, જ્યોતિષશાસ્ત્રમાં પિતાની વિદ્વતા બતાવીને, તથા આશ્ચર્યકારક પ્રણે બતાવીને પિતે બહુ જ મહાન વિદ્વાન છે એવી છાપ For Private And Personal Use Only Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६०८ प्रश्नव्याकरणसूत्रे भैक्षं न गवेषितव्यम् । तथा-' न वि डंभणाए' नापि दम्भनया-मायाप्रयोगेण भैक्षं गवेपितव्यम् , एवं ' नवि रक्खणाए' नापि रक्षणया=दायकवस्तुरक्षणेन, 'न वि सासणाए' नापि शासनया शिक्षणेन तव पुत्रपौत्रादिक शिक्षयिष्यामीति कथनेन समुदायेनाह–'न विडंभगरक्तखणसासगाए' नापि दम्भनवड़ा भारी विद्वान हूं अत: मुझे यह अच्छी तरह अच्छी भिक्षा देगा, इस प्रकार के उपायों का जिस भिक्षा की प्राप्ति में सहारा लेना पडे वह भिक्षा मुनि को कल्प्य नहीं कहीं गई है, अर्थात् इस प्रकार की क्रिया से मुनि को भिक्षा लेने का प्रयत्न नहीं करना चाहिये । तथा (न विडंभणाए ) मायाचारी का सहारा लेकर भी भिक्षा वृत्ति मुनि को नहीं करनी चाहिये, अर्थात् जिस भिक्षा की गवेषणा करने में माया का प्रयोग करना पड़े ऐसी भिक्षा भी मुनिजन को कल्प्य नहीं है । ( नवि रक्षणाए, न वि सासणाए, न विडंभण रकवणसासणाए भिखं यवेसियचं ) इसी तरह जिस भिक्षा की गवेपणा करने में-प्राप्ति करने में-दायक को वस्तु के संरक्षग का भार अपने ऊपर आया हो, अर्थात्-दाता यद कहे कि “ महाराज! आप इस वस्तु को देखे रहना मैं अभी आकर आपको भिक्षा देता हूं-इस प्रकार दाता अपनी वस्तु के संरक्षण करने का भार मुनि को सौंपता हो और पीछे आकर भिक्षा देता हो तो वह भिक्षा मुनि को कल्प्य नहीं है । इसी तरह जीस भिक्षा की प्राप्ति में मुनि को यह भाव जगे कि “ मैं इस दाता के पुत्र पौत्र પાડીને દાતા પાસેથી સારા પ્રમાણમાં સારી ભિક્ષાની આશા રાખવી, વગેરે ઉપાયને જે ભિક્ષામાં સહારે લેવું પડે તેવી ભિક્ષા સાધુઓને કલ્પ નહીં. એટલે કે એ પ્રકારના ઉપાયથી સાધુઓએ ભિક્ષા લેવાના પ્રયત્ન કરવા म नही. तथा (नविउमणाए) भायान्याशनी म न पा भुनिये ભિક્ષાવૃત્તિ કરવી જોઈએ નહીં. એટલે કે જે ભિક્ષાની પ્રાપ્તિ માટે માયાને प्रयोग ४२३ वी भिक्षा मुनि नान ४८ नही. (न विरक्खणाए, न विसासणाए, न विभण रक्खण सासणाए भिक्खं गवेसियव्वं) से प्रमाण જે ભિક્ષાની પ્રાપ્તિમાં, દાતાની વસ્તુના સંરક્ષણને ભારે પિતાના પર આવ્યો હોય, એટલે કે દાતા એમ કહે કે “મહારાજ ! આપ આ વસ્તુનું ધ્યાન રાખજે હું આપને ભિક્ષા આપુ છું” આ રીતે દાતા પિતાની વસ્તુના સંરક્ષણની જવાબદારી મુનિને સેપે અને પછી આવીને ભિક્ષા અર્પણ કરે તે તે ભિક્ષા મુનિનેકપે નહીં. એ જ પ્રમાણે જે ભિક્ષાની પ્રાપ્તિમાં મુનિના મનમાં એવો ભાવ જાગે કે “ હું આ દાતાના પુત્ર, પૌત્ર આદિને ભણાવીશ તે મને For Private And Personal Use Only Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शनी टीका भ० १ सू० ५ अहिंसापालककर्तव्यनिरूपणम् रक्षणशासनेन ' भित्तख' भैक्षं 'गवेसियवं' गवेषितव्यम् । तथा-'न वि वंदणाए' नापि वन्दनया-नापि प्रशंसया "दिग्व्यापिनो भवद्गुणाः पूर्वश्रुताः, परमयभवानस्माभिःप्रत्यक्षीकृतः' इत्येवं रूपया, वन्दनशब्दोऽत्र प्रशंसावाचका, 'न वि माणणया' नापि माननया आसनादि प्रदानेन ' न विपूयणाए ' नापि पूजनया-दायकाय किंचिद्वस्तुप्रदानरूपया एतदेव समुदायेनाह-न वि वंदणमाणणपूयणाए ' नापि वन्दनमाननपूजनया 'भित्तखं गवेसियत्वं ' भैक्षगवेषितआदि को पढ़ा दंगा तो मुझे इसके यहां से भिक्षा मिलती रहेगी" ऐसे विचार से जो भिक्षा प्राप्त हो तो वह भिक्षा भी मुनि को नहीं लेनी चाहिये । इसी तरह जिस भिक्षा को प्राप्ति में युगपत् दंभन, रक्षण और शासन इनका प्रयोग करना पड़ता हो उस तरह से भी मुनि को निक्षा की गवेषा नहीं करनी चाहिये । तथा ( न वि वंदणाए, न विमाणणाए, न वि पूयणाए, न वि वंदणमाणणपूपणाए, न वि हीलणाए, न वि निंदणाए, न वि गरिहगाए, नवि होलगा निंदणा गरिहणाए भिक्खं गवेसियवं) जिस भिक्षा की गवेषगा करने में साधु को दाता की “आप की गुणराजि दिगन्ततक फैली हुइ है- आपकी प्रशंसा मैं ने पहिले से ही सुन रखी है परन्तु साक्षात्कार आप का आज ही हुआ है। इस प्रकार से वंदना-प्रशंसा करनी पडे ऐसी भिक्षा साधु को कल्प्य नहीं हैं। यहां वंदन शब्द प्रशंसार्थक है । जिस भिक्षा की प्राप्ति में दाता को आसन आदि का प्रदान पूर्वक सन्मान करके अर्थात् आसनादि प्रदान द्वारा दाता को प्रसन्न करके भिक्षा की प्राप्ति करनी पडे-ऐसी भिक्षा भी साधु को लेनो उचित नहीं है। इसी तरह दाता તેને ત્યાંથી ભિક્ષા મળ્યા કરશે,” એવા વિચારથી જે ભિક્ષા પ્રાપથાય તે ભિક્ષા પણ સાધુને કલ્પનહીં વળી જે ભિક્ષાની પ્રાપ્તિમાં યુગપત, દંભ, રક્ષણ અને શાસનને પ્રગ ४२व ५ से मारनी भिक्षानी प्राति भनिन ४६ नही तथा (न वि वंदणाए, न विमाणणाए, न वि पूयणाए, न वदणमाणणपूणयाणए, न वि हीलणाए न वि निदणाए, न वि गरिहणाए, न वि हिलणा निंदणा गरिहणाए भिक्खं गवेसियवं)२ भिक्षानी प्राति भाटे साधुन हातानी " मापनी गुशिगन्त સુધી વ્યાપેલ છે, મેં આપની પ્રશંસા પહેલેથી જ સાંભળી હતી પણ આપને સાક્ષાત્કાર તે આજે જ થ” એ રીતે વંદણા–પ્રશંસા કરવી પડે એવી ભિક્ષા સાધુને કપે નહીં. અહીં વંદન શબ્દ પ્રશંસાના અર્થમાં વપરાય છે. આસનાદિ આપીને દાતાનું સન્માન કરવું પડે અથવા તે રીતે તેમને પ્રસન્ન કરવા પડે તે પ્રકારની ભિક્ષા પણ સાધુને કપે નહીં. વળી દાતાને પોતાની તરફથી प्र०७७ For Private And Personal Use Only Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६१० प्रश्नव्याकरणसूत्रे व्यम् । तथा-' नवि हीलगाए ' नापि हीलनया = " वं जात्या नीचोऽसि कथं या भिक्षादीयते" इत्यादि दायक जात्युद्घाटनरूपाचमाननया 'नवि निंदणाए नापि निन्दनया = " त्वं कृपणोऽसि, वनीपकोऽसि " इति दायकदोषोद्घाटनया, नव गरिहणाए ' नापि गर्हणया = जनसमक्ष दायकनिन्दया, समुदायेनाह - 'न वि होलगनिंषण गरिहणाए ' नापि होलननिन्दनगर्हगया 'भिक को अपनी और से कुछ वस्तु देकर उससे भिक्षा की चाहना रख भिक्षा की गवेषणा करने का तरीका उचित नहीं है । अर्थात् इस तरीके से भिक्षा की चाहना करना योग्य नहीं है। इसी तरह युगपत् - एक ही दाता के प्रति वन्दन, मानन और पूजन का प्रयोग कर के साधु को भिक्षा की गवेषणा करना योग्य नही है । तथा दाता की जातिका उद्घाटनरूप अवमानना करके कि " तुम तो जाति में नीच हो भिक्षा कैसे दोगे " इस प्रकार से कहकर के उसे भिक्षा देने के लिये : ऋजु करना और फिर भिक्षा कि गवेषणा निमित्त उसके यहां जाना यह भी साधु का भिक्षा प्राप्ति का तरीका साधु समाचारी के योग्य नहीं है । इसी तरह तुम कृपण हो वनीपक हो" इस प्रकार से दाता के दोषों को उद्घाटन करना और फिर उसे भिक्षा देने के लिये ऋजु करना यह भी साधु के लिये भिक्षा की गवेहणा करने का तरीका कल्प्य नहीं है। जनता के समक्ष दायककी निन्दा करके, तथा एक ही साथ एक ही ( दाता दायक के प्रति हीलना, निन्दना तथा गर्हणा करके भिक्षा की गवेषणा " (6 કોઈ વસ્તુ આપીને તેની પાસેથી ભિક્ષા મેળવવાની આશા રાખીને ભિક્ષાની ગવેષણા કરવી તે યુક્તિ પણ સાધુને માટે મેગ્ય નથી. એટલે કે આ યુક્તિથી ભિક્ષા મેળવવાની ઈચ્છા રાખવી તે ચેગ્ય નથી. વળી યુગપત્-એક જ દાતા પ્રતિ વન્દન, માનન, પૂજન, આદિના પ્રયોગ કરીને ભિક્ષાની ગવેષણા કરવી તે સાધુને માટે ઉચિત નથી. તથા દાતાની જાતિના ઉલ્લેખરૂપ તિરસ્કાર કરીને El. d. तु તા નીચ છે, ભિક્ષા કેવી રીતે દઈશ” આ રીતે કહીને તેને ભિક્ષા અર્પણ કરવાને માટે ઋજુ કરવા અને પછી ભિક્ષાની પ્રાપ્તિ માટે તેને ત્યાં જવુ, એ ભિક્ષા પ્રાપ્તિના ઉપાય સારા આચાર વાળા સાધુને માટે ઉચિત નથી. એ જ પ્રમાણે “ તમે કંજુસ છે. વનીપક છે ” એ રીતે દાતાના દોષા જાહેર કરીને પછી તેને ભિક્ષા દેવા માટે ઋજુ કરવા એ ઉપાય પણ સાધુને ભિક્ષાપ્રાપ્તિ માટે કલ્પતા નથી, લેાકેાની સમક્ષ દાતાની નિન્દા કરીને તથા એક સાથે દાતાની હિલના (તિરસ્કાર ) નિન્દા, તથા ગણા કરીને ભિક્ષાની गवेषणा रवी ते साधुने भादे उचित नथी. सेन प्रभाग ( न वि भेसणाए, ८८ ور For Private And Personal Use Only " Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ. १ सू० ५ अहिंसापालककर्त्तव्यनिरूपणम् ६११ 6 6 गवेसियन्वं ' भैक्षं गवेपितव्यम् । तथा ' नवि भेसणाए ' नापि भीषणया = दायकभयोत्पादनया, ' न वि तज्जणाए ' नापि तर्जनया - " ज्ञास्यसि रे दुष्ट ! इत्यादि तिरस्काररूपया 'न वितालगाए' नापि ताडनया = वपेटादिदानरूपया, समुदायेनोच्यते न वि भेसणतज्जणता लगाए नापि भीषणतर्जन ताडनया भैक्षं गवेषितव्यम् । तथा 'नवि गारवेणं' नापि गौरवेण ' अहं क्षत्रियोऽस्मीत्याद्यभिमानेन ' न वि कुहणाए ' नापि कुहनया क्रोधेन, नवव णिमगयाए' नापि वनीपकतया - याचकरच्या, समुदायेनाह - 'न विगारव - कुहणवणिमगयाए' नापि गौरवकोधवनीपकतया भैक्षं गवेषितव्यम् । तथा'नवि मित्तयाए' नापि मित्रतया=दायकेन सह मैत्री भावोत्पादनेन, 'न विपस्थणाए नापि प्रार्थनया, "यूयं दायकाः, याचकरक्षकाः वयं याचकाः, करना साधु को योग्य नहीं है । इसी तरह ( न वि भेसणाए, नवितजणाए, न वि तालणाए, न वि भेसण-तजण-तालगाए भिक्खं गवेसियां) दायक ( दाता) को भय का उत्पादन करके, दुष्ट मैं तुझे बतलाऊँगा " इस प्रकार दाता का तिरस्कार करके, दायक (दाता) को मारपीट करके, तथा एक ही साथ एक ही दायक (दाता ) के साथ भीषणा, तर्जना और ताडना करके भिक्षा की गवेषणा नहीं करनी चाहिये । तथा - ( न वि गारवेणं न वि कुहणाए, न वि वणीमगयाए नवि गारवहणवगीमगवाए भिक्खं गवेसिव्वं ) " मैं क्षत्रिय , 64 " इत्यादि अभिमान रूप गौरव से, क्रोध से, एवं याचक वृत्ति से, तथा एक ही साथ गौरव क्रोध एवं याचक वृत्ति से भी भिक्षा की गवेषणा नहीं करनी चाहिये । ( न वि मित्तयाए न वि पत्थणाए न वि सेवणाए न वि मित्तय- पत्थण- सेवणाए भिक्खं गवेसियन्वं ) तथा (6 न वि तज्जणाए, न वि तालणाए, न वि भेसण - तज्जण-तालणाए भिक्खं गवेसियब्व ं ” हाताने लय मतापीने “रे हुष्ट हुँ तने मताची दृशि " मे રીતે દાતાના તિરસ્કાર કરીને, દાતાને માર મારીને તથા એક સાથે દાતા પ્રત્યે ભીષણા તર્જના અને તાડના કરીને ભિક્ષાની ગવેષણા કરવી જાઇએ નહીં તથા न विगारवेणं, न वि कुहणाए, न वि वणीमगयाए न वि गारवकुणaftaare भिक्खं गवेसियव्व " " હું ક્ષત્રીય છું ” ગૌરવથી, ક્રોધથી, અને યાચક વૃત્તિથી તથા એક સાથે ગૌરવ, ક્રોધ અને યાચક વૃત્તિથી પણ ભિક્ષાની ગવેષણા કરવી જોઇએ નહી. न वि मित्तयाए, न विपत्थणाए, न वि सेवणाए, न वि मित्तय- पत्थण- सेवणाए भिक्ख गवे. सियव्व ” तथा हातानी साथै मित्रता इरीने, "आय हाता हो, याथमेना આદે અભિમાનરૂપ (L For Private And Personal Use Only Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६१२ प्रश्नव्याकरणसूत्रे दीयतामस्मभ्य " नित्यादिरूपया, 'नवि सेवणया' नापि सेवनया-नापि सेवावृत्त्या, समुदायेनाह- न वि मित्तयपत्यण सेवणार ' नापि मित्रता प्रार्थना सेवनया भैक्ष गवेषितव्यम् । तहि कथं गवेषितव्यम् ? इत्याह-' अण्णाए' अज्ञात्तः धनिकोऽयं प्रजितः' इति दायकजनैरज्ञातः, ' अगड़िए ' अगृद्धाः= आहारादिषु गृद्धभाववर्जितः, 'अदुढे' अद्विष्टः-आहारेषुदायकेषु वा द्वेषभाववर्जितः, 'अदीणे' अदोना-दीनतावर्जितः, 'अविमणे' 'अविमनाः अलाभादिप्रयुक्तमानसिकविकाररहितः, 'अकलुणे' अकरुणः स्वदुःखापदर्शकः 'अविसाई' अविषादी दायक-दाता के साथ मित्रता करके, " आप दाता हैं-याचकों के संरक्षक हैं, हम याचक हैं अत:आप हमें भिक्षा दीजिये " ऐसी दाता से प्रार्थना करके. तथा दाता की सेवा वृत्ति करके भिक्षा की गवेषणा नहीं करनी चाहिये । इसी तरह इन तीनों बातों को एक साथ किसी दाता के साथ प्रयुक्त करके भिक्षा की गवेषणा साधु को नहीं करनी चाहिये । किन्तु (अण्णाए अगडीए अदुढे अदीणे अविमणे अकलुणे अविसाई अपरितंतजोगी-जयण-घडण-करणचरिंय विनय गुणजोग संपउत्ते भिक्खू भिक्खेसणाए गिरए ) अज्ञात-दायक (दाता) जनों से " यह साधु धनिक थे और धनिक अवस्था से दीक्षित हुए हैं। इस रूप से अज्ञात बनकर अगृद्ध-आहार आदि में गृद्धभाव से वर्जित होकर, अद्विष्ट-आहार अथवा दाता में द्वेषभाव से विहीन होकर, अदीन-दीनता के भाव से रहित होकर, अविमना-भिक्षा के नहीं मिलने पर मानसिक विकार से સંરક્ષક છે, અમે યાચક છીએ, તે આપ અમને ભિક્ષા આપે ” એવી દાતાને પ્રાર્થના કરીને તથા દાતાની સેવાવૃત્તિ કરીને ભિક્ષા પ્રાપ્ત કરવી જોઈએ નહી. એ જ રીતે એ ત્રણે બાબતેને દાતા પાસે એક સાથે પ્રયોગ કરીને સાધુએ मिक्षानी गवेष! ४२वी नेम नाही. ५४ " अण्णाए अगइिढए अदुढे अदीणे अविमणे अकलुणे अविसाई अपरितंकजोगी जयणघडणकरणचरियविनयगुण जोगसंपउत्ते भिक्खु-भिक्खेसणाए णिरए” अज्ञात-"-AL साधु पनि तi અટલે કે ધનિક સ્થિતિમાંથી દીક્ષિત થયેલ છે” એ વિષે દાતાઓથી અજ્ઞાત २डीने. अगृद्ध-मा.२ माहिमा गृद्ध लायी २डित मनाने, अद्विष्ट- २२ मथवा हाता प्रत्ये द्वेष भाव २हित ने, अदीन-हीनताना माथी २डित थने, अविमना-मिक्षा न भ! छत ५५५ मानसि विजयी २हित १४ने अकरण-35 ५४४ प्रारे पाताना भने ४ ५५ रीते प्रशद नडी शन, For Private And Personal Use Only Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org , सुदर्शिनी टीकाअ० १ सू० ५ अहिंसापालककर्त्तव्य निरूपणम् ६१३ अपरितंत } " ; 'भिक्षालाभो भविष्याति न वे ' त्यादि विषादरहितः, तथा जोगी' अपरितान्तयोगी = अलाभादिषु तन्तनादादि शब्दवर्जितः, तथा-' जयणघडण करणच रियरिणयगुणजोगसंपत्ते यतनघटन करणचरितविनयगुणयोग - संप्रयुक्तः, तत्र यतनं प्राप्तेषु संयमयोगेषु उद्यमः, घटनम् = अप्राप्तसंयमयोगमाप्तिचेष्टनम् एतद् द्वयं कुरुते यः स यतनघटनकरणः, तथा - 'चरितविनयः सेवितो येन स चरितविनयः, तथा-गुणयोगेन - समाधिगुणयोगेन संप्रयुक्तो यः स-गुणयोगसंप्रयुक्ताः एतेषां कर्मधारयः, एतादृशो ' भिक्खु ' भिक्षुः साधुः भिक्खेसणानिरए भिक्षैषणानिरतः = भिक्षागवेषणायां निरतो भवेदिति सम्बन्धः, एवम्भूतेन भिक्षुणा भैक्षं गवेषितव्यमिति भावः । अथोपसंहरन्नाह - ' इमं च ' इत्यादि - ' इमं च णं सव्वजगजीवरकखणदयट्टयाए पावयणं' इदं च खलु 'पावयणं प्रवचनं ' सव्वजगजीवरक्खणदयद्वयाए सर्वे ये जगज्जीवाः षड्जीवनिकायाः, तेषां रक्षणरूपा या दया-अनुकम्पा तदर्थ - सर्वजगज्जीवरक्षणदयार्थम् ' भगवया ' भगवता महावीरेण 'सुकहियं ' सुकथितं न्यायावाधितत्वात्, रहित होकर, अकरुण - अपने दुःख को किसी के पास किसी भी रूप में प्रकट नहीं करके, अविषादी - “भिक्षा का लाभ मुझे होगा या नहीं होगा " इस प्रकार के विषाद भाव को छोड़ करके अपरितंत जोगीभिक्षावृत्ति नहीं मिलने पर तनतनाने की वृत्ति का परित्याग करके, तथा - यतनघटनकरण प्राप्त संयम में उद्यमशील तथा अप्राप्त: संयम की प्राप्ति करने में निरन्तर चेष्टाशील, ऐसा साधु कि जो चरित विनय-विनय से युक्त वना हुआ है, तथा गुणयोगसंप्रयुक्त-समाधिगुण के योग से जो युक्त हो रहा है ऐसा होकर भिक्षु-मुनि भिक्षैषणा मेंभिक्षा की गपेषणा करने में निरत होवे । (इमं च णं पावयणं ) यह प्रवचन ( सवजगज्जीवरक्ख गदयहाए ) षडू निकायरूप जगत के जीवों की रक्षणरूप दया के निमित्त ( भगवया सुकहियं ) भगवान् 1 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 66 अविषादी - “ भने लिक्षानो साल भगशे में नहीं भजे " से प्रहारना विषाह लावने छोडीने, अपरितंतजोगी- लिक्षा नहीं भजता तनतनाव नी वृत्तिनो परि ત્યાગ કરીને, તથા यतनघटनकरण-आप्त संयममा उद्यमशीन तथा प्राप्त સયમની પ્રાપ્તિ કરવામાં નિરન્તર પ્રયત્નશીલ, એવા સાધુ કે જે ત્રિનય विनयधी युक्त थयेक्ष छे, तथा गुणयोगसंप्रयुक्त सभाधि गुगुना योगयी मे ચેગથી જે યુક્ત થયેલ છે, એવા થઈ ને ભિક્ષુ “મુનિ ભિક્ષાની ગવેષણા કરવાને પ્રયત્નશીલ थाय. " इमंच णं पावयणं " मा प्रवथन " सव्वजगज्जीव रक्खणदयढाए જગતના કાયના જીવોની રક્ષારૂપ યાને નિમિત્તે " भगवया सुकहिय' " For Private And Personal Use Only Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६६४ प्रश्नव्याकरणसूत्रे 'अत्तहियं ' आत्महितम्-आत्मनां जीवानां हित-हितकारणात् , 'पेच्चाभावियं' प्रेत्यभाविक-प्रेत्य = जन्मान्तरे भवति-शुभफलतया परिणमतीत्येवं शीलम् , तथा-' आगमेसि भई' आगमिष्यद् भद्रम्-भाविकल्याणजनकम् 'सुद्धं ' शुद्धं-निदोपम् ' नेयाउयं' नैयायिक-न्याययुक्तम् ' अकुडिलं' अकुटिलम् ऋजुमोक्षप्रापकत्वात् , ' अणुत्तरं ' अनुत्तरम्-सर्वप्रधानत्वात् , तथा-'सबदुक्वपावाण' सर्वदुःखपापानां — विउसमणं । ब्युपशनम् उपशमकारकमिदं प्रवचनमिदं प्रवचनमिति पूर्वेण सम्बन्धः ॥ मू०५॥ महावीर ने कहा है-इस कथन में किसी भी तरह से युक्ति और शास्त्र से बाधा नहीं आती है । ( अत्तहियं ) यह जीवों का हितकारक है और ( पेचाभावियं ) परभव में शुभ फलरूप से यह परिणमता है। इसीलिये (आगमेसिभई ) भविष्यकाल में यह कल्याणजनक है। ( मुध्धं ) भगवान द्वारा प्रतिपादित होने के कारण इसमें किसी भी तरह से कोई पूर्वापरविरोधरूप दोष नहीं आता है-इसलिये शुद्धनिर्दोष है, तथा (नेयाउयं ) न्याययुक्त है । ( अकुडिलं ) इसकी आरा. धना करने से जीव मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं इसलिये यह अकुटिलऋजु है । ( अणुत्तरं ) समस्त सिद्धान्तों में इसकी प्रधानता होने से यह अनुत्तर है । तथा ( सव्वदुक्खपावाणविउसमणं ) समस्त दुःखों का और पापों का यह उपशमकारक है। भावार्थ-सूत्रकार इस सूत्र द्वारा यह प्रकट कर रहे हैं कि जो अहिंसारूप संवरद्वार को पालन करने के लिये उद्यत हैं उनका यह ભગવાન મહાવીરે કહેલ છે–આ કથનમાં કોઈ પણ પ્રકારે-યુક્તિ અને શાસ્ત્રથી पांधी मावत नथी. “ अत्तहिय" ते ७३नु तिता छ भने “पेच्चा भावियं " ५२ममा शुभ ३१३५ ते पशिशुभे छे. तेथी “ आगमेसिभई " भविष्यमा તે કલ્યાણજનક છે. “શુદ્ધ ભગવાન દ્વારા પ્રતિપાદિત હોવાથી તેમાં કઈ પણ પ્રકારે કઈ પૂર્વાપર વિરોધરૂપ દોષ આવતું નથી તેથી શુદ્ધ-નિર્દોષ છે, तथा " नेयाउय' न्याययुत छ. " अकुडिलं " तेनी आराधना ४२वाथी ७१ भाक्षने प्राप्त ४२ छे ते ॥२६ ते अकुटिल- छे, ( अणुत्तर) समस्त सिद्धान्तोमाते भुज्य बाथी ते अणुत्तर-सर्वोत्तम छे. तया " सव्वदुक्खपावाण विउसमणं " समत्तानो तथा पापातुं ते ७५शमन ४२ना२ . ભાવાર્થ –સૂત્રકાર આ સૂત્ર દ્વારા એ પ્રગટ કરે છે કે જેઓ અહિંસા રૂપ સંવરદ્વારનું પાલન કરવા તત્પર છે, તેમનું એ કર્તવ્ય છે કે છકાયના For Private And Personal Use Only Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० १ सू० ५ अहिंसापालककर्तव्यनिरूपणम् ५१५ कर्तव्य है कि छहकाय के जीवों की रक्षा करें। क्यों कि यह लोक इन्हीं जीवों से भरा हुआ है अतः अपनी प्रत्येक प्रवृत्ति संयमित रखने से छहकाय के जीवों की रक्षा होती है। मुनिजन इस अहिंसा महावत के पालक होते हैं अतः उनके लिये प्रभु का आदेश है कि वे ऐसे उच्छ आहार आदि की गवेषणा करने में निरत रहें कि जो शुद्ध हो, अकृत, अकारित, अननुमोदित, अनाहूत, अनुद्दिष्ठ, अक्रीतकृत, कयकोटिविशुद्ध, शंकितादिदोषवर्जित, आधाकर्मादि दोषों से विहीन एवं जीवजन्तु रहित हो । ऐसा ही आहारादि उन्हें उनकी सामाचारी के अनुसार कल्पित कहा गया है। इससे विपरीत उनके अहिंसामहाव्रत के प्रतिकूल कहा गया है। इसलिये उन्हें उपाश्रय में दाता द्वारा देने के लिये लाये गये आहार को कभी नहीं लेना चाहिये। चिकित्सा आदि करके जिसभिक्षा की प्राप्ति हो वह भी उन्हें वर्जनीय कही गई है। कारण मुनिजन सिंहवृत्ति के धारक होते हैं और अयाचकवृत्ति वाले होते हैं, इस प्रकार के व्यवहार से प्राप्त भिक्षा में सिंहत्ति का संरक्षण नहीं होता है । भिक्षा की गवेषणा में दंभ का आचरण नहीं होना चाहिये, दायक (दाता) की वस्तु के रक्षण का प्रश्न नहीं होना चाहिये और न कोई एसी बात ही होना चाहिये कि जिससे मुनि के જીની રક્ષા કરે. કારણ કે આ લોક એ જ જીવથી ભરેલ છે, તેથી પિતાની દરેક પ્રવૃત્તિ સંયમિત રાખવાથી છકાયના જીની રક્ષા થાય છે. મુનિજન આ અહિંસા મહાવ્રતના પાલક હોય છે, તેથી તેમને માટે ભગવાનને આદેશ છે કે તેઓ એવા કચ્છ આહાર આદિની ગવેષણ કરે કે જે શુદ્ધ હોય, અકૃત, અકારિત, અનમેદિત, અનાહત, અનુદિષ્ટ, અકીતકૃત, નવકેટિ વિશુદ્ધ શકિત આદિ દેષ રહિત, આધાકમોદિ દેથી રહિત અને જીવજતુ રહિત હોય. એ આહાર જ તેમની સમાચારી અનુસાર તેમને માટે કપે તે કહેલ છે. તેનાથી ઉલટો આહાર અહિંસા મહાવ્રતને પ્રતિકૂળ ગણુ છે. તેથી તેમણે ઉપાશ્રયમાં દાતા દ્વારા અપરણ કરવા માટે લેવાયેલ આહાર કદી લેવું જોઈએ નહીં. ચિકિત્સા આદિ કરીને જે ભિક્ષાની પ્રાપ્તિ થાય તે પણ તેમને માટે ત્યાજ્ય ગણેલ છે, કારણ કે મુનિજન સિંહવૃત્તિના ધારક હોય છે તથા અયાચક વૃત્તિ વાળા હોય છે. આ રીતે મેળવેલ આહારમાં સિંહવૃત્તિ તથા અયાચકવૃત્તિનું સંરક્ષણ થતું નથી ભિક્ષાની ગષણામાં દંભનું આચરણ થવું જોઈએ નહીં, દાતાની વસ્તુના રક્ષણને પ્રશ્ન ઊભે થે જોઈએ નહીં કે કેઈ વાત ન બનવી જોઈએ કે જેથી મુનિના આચારવિચારમાં અન્ડર પડે. For Private And Personal Use Only Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६१६ नव्याकरणसूत्रे आचार विचार में अन्तर पड़ता हो । मैं तुम्हारे पुत्र को पढा दूंगा, आप के गुण दिगन्ततक व्यापक हो रहे हैं आप बड़े दानी हैं, मैं ने आप को आज ही देखा है वैसे तो आपकी कीर्ति कई बार सुन चुका हूं, बातें ऐसी हैं जो मुनि की आत्मा को हीन बनाती हैं उसे अपने कर्तव्य से गिराता हैं । इन सब बातों से जो आत्मा का पतन होता है। वह सबसे बड़ी हिंसा है। इसीलिये मुनि को इस प्रकार के व्यवहार से प्राप्त होने वाली भिक्षा की गवेषणा करने का निषेध किया गया है। तथा दाता के प्रति मुनि को ऐसा भी व्यवहार नहीं करना चाहिये कि जिससे उसकी आत्मा में क्लेश भाव जगे, जैसे- 'तूं कृपण है, बनीपकयाचक है तूं क्या भिक्षा देगा, नीच व्यक्ति जो होते हैं वे भिक्षा नहीं देते हैं" इत्यादि अपमान जनक शब्दों में एक तो भाषा समिति नहीं पलती है, तथा ऐसे व्यक्तियों में जिस किसी प्रकार से भिक्षा देने का जोश जागता है जो उस भिक्षा में शुद्धि का बाधक होता है, भिक्षा देते समय जिस आत्मा में संक्लेश जगे वह भिक्षा मुनिजनों को अग्राह्य कही गई है। जिस प्रकार फूल को बाधा न पहुँचाकर उससे भ्रमर रस पी लेता है उसी प्रकार दाता को किसी भी प्रकार का संक्लेशन न "L 6. હું તમારા પુત્રને ભણાવીશ. આપના ગુણે દિગન્ત સુધી ફેલાયેલ છે, આપ મોટા દાતા છે, આપની કીર્તિ તે મે ઘણીવાર સાંભળી છે પણ આપને જોવાનો લાભ તો આજ જ મળ્યા ” આ બધી વાતે એવી છે કે જે મુનિના આત્માને હીન મનાવે છે. તેને પોતાની ફરજ ચૂકાવે છે. આ બધી વાતાથી આત્માનું જે પતન થાય છે તે સૌથી માટી હિંસા છે, તે કારણે એવા પ્રકારના વ્યવહારની પ્રાપ્ત થતી ભિક્ષા ગ્રહણ કરવાના મુનિને માટે નિષેધ છે તથા મુનિએ દાતા પ્રત્યે એવા વ્યવહાર પણ ન કરવા જોઈએ કે જેથી તેના श्यात्माभां उसेश थाय, हा. त. તું કૃપણુ છે, વનીપક યાચક છે, તું શુ ભિક્ષા આપી શકવાના છે, જે નીચ વ્યક્તિ હાય છે તે ભિક્ષા દેતી નથી.” ઈત્યાદિ અપમાન જનક શબ્દોમાં એક તા ભાષા સમિતિનું પાલન થતું નથી, તથા એવી વ્યક્તિઓમાં ગમે તે રીતે ભિક્ષા આપવાના જીસ્સા પેદા થાય છે, જે તે ભિક્ષાની શુદ્ધિમાં આધક થાય છે. ભિક્ષા દેતી વખતે દાતાના આત્માને કલેશ થતા હોય તે એવી ભિક્ષા મુનિજનાને માટે અગ્રાહ્ય (ન સ્વિકારવાને યાગ્ય ) દર્શાવેલ છે. જેમ ફૂલને નુકશાન પાંચાડ્યા વિના ભમરા તેમાંથી રસપાન કરે છે તેમ દાતાને કોઇ પણ પ્રકારના કલેશ પહોંચાડયા વિના તેમની For Private And Personal Use Only Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir %3DMRIma सुदर्शिनी टीका अ०१ सू०६ भावनास्वरूपनिरूपणम् अहिंसायाः पश्च भावना भवन्तीति ताः प्रतिपादयन् प्रथमामीर्यासमितिरूपां भावनामाह-'तस्स इमा' इत्यादि मूलम्-तस्हा इमा पंच भावणाओ पढमस्स वयस्स हुंति, पाणाइवायवेरमाणं परिरक्षणट्टयाए । पढम-ठाण-गमण गुणजोगजुंजणजुगंतर-निवइयाए दिट्टीए इरियत्वं कीडपयंगतसथावरदयावरण निच्चं पुप्फफलतयपवालकंदमूलदगमट्टियवीयहरिय परिवजणए सम्भ, एवं खु सम्वे पाणा ण हीलियब्वा न नदियवा न गरहियव्वा न हिंसियव्वा न छिंदियात्रा न भिंदियव्या न बहेशला न यं दुक्खं च किंचिलब्भा पावडं जे एवं इरिशासमियजोगेण भाविओ भवइ अंतरप्पा असवलमसंकिलिटुनिव्वणचरित्तभावणाए अहिंसए संजए सुसाहू ॥ सू०६॥ पहूँचाकर उससे मुनिजन मात्रा में भिक्षा लेते हैं। इसी तरह और भी कौन २ सी प्रवृतियां भिक्षा की गवेषणा करने में बाधक होती हैं-वे सब इस सूत्र में प्रदर्शित की गई हैं, । मुनि को भिक्षा की गवेषणा करते समय अज्ञात, अगृद्ध, अद्रिष्ट, अदीन, अविमन, अकरुण, अविषादी और अपरितांनयोगी आदि स्थिति वाला रहना चाहिये। तभी जाकर पूर्णरूप से अहिंसा महावतरूप संवरद्वारपलता है ।।।सू ० ५॥ પાસેથી મુનિજન પરિમિત પ્રમાણમાં ભિક્ષા ગ્રહણ કરે છે એ જ પ્રકારે બીજી કઈ કઈ પ્રવૃત્તિ ભિક્ષાની ગવેષણ કરવામાં બાધક થાય છે તે બધું આ સૂત્રમાં બતાવ્યું છે, ભિક્ષાની ગવેષણ કરતી વખતે મુનિએ અજ્ઞાત, भगृद्ध, विष्ट, मदीन, भविभन, ५४२, भविषादी, अने. २०५रिततिया આદિ સ્થિતિ વાળા રહેવું જોઈએ. ત્યારે જ પૂર્ણ રીતે અહિંસા મહાવ્રતરૂપ સંવરદ્વારનું પાલન થાય છે. જે સૂપ છે प्र० ७८ For Private And Personal Use Only Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ६१८ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे टीका--' तस्स ' इत्यादि । ( तस्स ' तस्य प्रसिद्धस्य ' पढमस्त वयस्स' प्रथमस्य व्रतस्य = अहिंसा व्रतस्य 'इमा पंच ' इमाः पञ्च ' भावणाओ ' भावनाः=भाव्यते वास्यते आत्मा याभिस्ताः ईर्यासमित्यादयः 'हंति भवन्ति । किमर्थ पञ्च भावना भवन्ती ? - त्याह 'पाणाइवाय वेरमणपरिरक्खणट्टयाए ' माणातिपात विरमण परिरक्ष णार्थाय = प्राणातिपातविरमणलक्षणस्य प्रथममहाव्रतस्य परिरक्षणार्थाय । तत्र इन व्रतों को स्थिर रखने के लिये प्रत्येन व्रत की पांच २ भावनाएँ हैं सो अब सूत्रकार अहिंसाव्रत की जो पांच भावनाएँ होती हैं उनमें सब से पहिली ईर्ष्या समितिरूप पहिली भावना को प्रकट करते हैं' तस्स इमा' इत्यादि० । टीकार्थ - ( तस्स) उस प्रसिद्ध ( पढमस्स वयस्स) प्रथमव्रत की (इमा पंच भावणाओ हूंति ) ये ईर्यासमिति आदि पांच भावनाएँ होती है। क्यों कि इन भावनाओं से ( पाणाइवाय वेरमणपरिकखण्डाए) प्राणातिपातविरमण रूप जो अहिंसा व्रत है उसकी अच्छी तरह रक्षा होती है । तात्पर्य कहने का यह हैं कि अत्यन्त सावधानी के साथ विशेष २ प्रकार की अनुकूल पट्टत्तियों का सेवन न किया जाय तो स्वीकार करने मात्र से ही व्रत आत्माको अपने रूप नहीं बना सकते हैं, अर्थात् वे आत्मा में चिरस्थायी नहीं रह सकते हैं, निर्दोषरूप से सावधानी के साथ उनका पालन नहीं हो सकता है वे यथार्थरूप में आत्मा में नहीं उतर सकते । ग्रहण किये हुए व्रत जीवन को यथार्थरूप से अपने रूप में रंग सके- अपनी अटल छाप आत्मा पर जमा सकें इसलिये प्रत्येक व्रत के For Private And Personal Use Only 64 એ પાંચ નતાને સ્થિર રાખવા માટે પ્રત્યેક વ્રતની પાંચ પાંચ ભાવના છે. હવે સૂત્રકાર અહિંસાત્રતની જે પાંચ ભાવના છે તેમાંની સૌથી પહેલી य समिति यहि सा यांग भावना प्रगट उरे छे" तरस इमा " इत्यादि "" तरस ते प्रसिद्ध "पढमस्स वयस्स" प्रथम व्रतनी "इमा पच भावणाहुति " समिति आहि या पांथ लावनाओ होय छे. अशशु ते भावनाओ थी “ पाणा इवाय वेरमणपरिरक्खणडोए " आशुतियात विरमधुप પ્રાણાતિપાત વિરમણરૂપ જે અહિંસાવ્રત છે તેની સારી રીતે રક્ષા થાય છે. કહેવાના ભાવ એ છે કે અત્યંત સાવધાનીથી ખાસ ખાસ પ્રકારની અનુકૂળ પ્રવૃત્તિયાનું સેવન ન કરાય તે સ્વીકાર કરવા માત્રથી જ વ્રત આત્મામાં ચિરસ્થાયી રહી શકતું નથી નિર્દોષ રીતે સાવધાનીથી તેનુ પાલન થઈ શકતું નથી. તે યથાર્થ રૂપે આત્મામાં ઉતરી શકતાં નથી. ગ્રહણ કરાયેલ ત્રતા જીવનને યથાર્થ રીતે પોતાના રંગે રંગી શકી-પેાતાની અટલ છાપ આત્મા પર જમાવી શકે-આત્મામાં ઉંડાણુથી પ્રવેશી શકે, તે માટે પ્રત્યેક વ્રતને અનુકૂળ Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनीटीका अ० १ सू. ६ भावनास्वरूपनिरूपणम् 'पढमं ' प्रथमम् ईयर्यासमिति भावनामाह- ठाणगमणगुणजोगजुंजणजुगंतरनिवइयाए ' स्थानगमनगुणयोगयोजनघुगान्तर-निपातिकया- ठाण' स्थानम् = उपवेशनमित्यर्थः, 'गमण' गमनं-चलनम् , तत्र गुणा सस्थावरोपघातवर्जनरूपः, तस्य योगः सम्बन्ध स्तं योजयति करोति या सा स्थानगमनगुणयोगयो. जना, तथा युगान्तरे-युगप्रमाणभूभागे निपतति या सा युगान्तरनिपातिका, अनुकूल पड़नेवाली थोडी बहुत प्रवृत्तियां स्थूल दृष्टि से विशेष रूप में गिनाई गई हैं । जो भावना के नाम से प्रसिद्ध हैं। यदि इन भावनाओं के अनुसार बराबर बर्ताव किया जाय तो गृहीत व्रत उत्तम औषधि के समान प्रयत्नशील के लिये सुंदर परिणाम कारक सिद्ध होते हैं। यही बात “ परिरक्षणढाए " इस पद द्वारा यहाँ ध्वनित की गई है। इन पांच भावनाओं में जो (पढम ) पहिली ईर्यासमिति नामकी जो भावना है वह इस प्रकार है ( ठाणगमणगुण जोगनुंजणजुंगंतर निवइयाए ) स्व पर को क्लेश न हो इस प्रकार यत्न पूर्वक गमन करना इसका नाम ईयर्यासमिति है। इसी का विशेष खुलाशा सूत्रकार इसपद द्वारा कर रहे हैं-स्थान-बैठना और गमन-चलना इनमें जिसके द्वारा इस प्रकार को प्रवृत्ति होनी चाहिये कि जिससे बस और स्थावर जीवोंका उपचातक न हो, इस गुणरूप संबंध को जो जोड़ने ने वाली हो तथा जिससे युगप्रमाण भूमिभाग का अवलोकन हो रहा हो, अर्थात् चलते २ साधु अपने आगे की युगप्रमाण भूमि का આવનારી ઘેડી ઘણી પ્રવૃત્તિ સ્થલ દૃષ્ટિથી વિશેષ રૂપે ગણાવવામાં આવેલ છે, જે ભાવનાને નામે પ્રસિદ્ધ છે. જે તે ભાવનાઓ પ્રમાણે બરાબર વર્તન કરાય તે ગ્રહણ કરાયેલ વત પ્રયત્નશીલ વ્યક્તિને માટે ઉત્તમ ઔષધિ સમાન आय सा५४ सिद्ध थाय छे. 2. २१ पात “ परिरक्खणदाए" ५४ द्वारा मही शविवाभा मापी छ. मे पाय लावनामामा " पढम" ५डी ईर्यासमिति नामनी भावना छ ते २ प्रमाणे छे “ ठाणगमणजोगजुजणजुगंतरनिवइ. જાણ” પિતાને કે પરને કલેશ ન થાય તે પ્રમાણે જતન પૂર્વક ગમન કરવું તેનું નામ સમિતિ છે. તેનું વધારે સ્પષ્ટીકરણ સૂત્રકાર આ પદ દ્વારા કરે છે-સ્થાન-બેસવું અને ગમન-ચાલવાની ક્રિયામાં તેમના દ્વારા એ રીતની પ્રવૃત્તિ થવી જોઈએ કે જેથી ત્રસ અને સ્થાવર જીની હત્યા ન થાય, આ ગુણ રૂપ સંબધને જે જોડનારી હોય તથા જેથી યુગ પ્રમાણ ભૂમિભાગનું અવલેકન થતું હોય એટલે કે ચાલતી વખતે પોતાની આગળથી યુગ પ્રમાણ ભૂમિનું For Private And Personal Use Only Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३२० प्रश्नव्याकरणसूत्रे अनयोः कर्मधारयः, तया, 'दिहीए' दृष्टया, 'जीडपयंगतसथावरदयावरेण' कीटपतंगत्रसस्थावरदयापरेण, तत्र-कीटा: क्षुद्रजन्तयो नीला 'लट ' शङ्खादयः, पतङ्गाः मसिद्धाः, इत्यादयः, बसस्थानराश्च केन्द्रियाः, तेषु दयापरस्तेन, तथा'पुष्फफलतयपवालकंदमूलदगमष्टियवीयहरियपरिवज्जिएण' पुष्पफलत्वकू-पवालकन्दमूलदकमृत्तिकाबीजहरितपरिवर्जितेन-तत्र-पुष्पं फलं च प्रसिद्धम् , त्वक्पुष्पफलादीनां त्वचा, प्रथाला पत्राहुरः, कन्दः, मूरणादिका, मूलम् = मूलकं 'दगं' दकं जलम् , मृत्तिका, बीजम् , हरितः हरितकायः, एते परिवर्जिता येन स तेन, मुनिना 'निच्चं ' नित्यं ' सम्मं ' सम्यक् यतनापूर्वकम् , ईरियव्वं ' ईरितव्यं-मार्गे गन्तव्यम् । एवं-खु' एवं अमुना प्रकारेण प्रवर्तनेन खलु तस्य मुनेः 'सव्वे ' सर्वे पाणाः 'प्राणाः प्राणिनः, न हीलियचा न हीलयितव्याः जिससे अच्छी तरह अवलोकन कर चल रहा हो ऐसी (दिठ्ठीए) दृष्टि से (कीडपयंगतसथावरदयावरेण पुप्फफलशयपवालकंदमूलदगमहियवीयहरियपरिवजणए णिच्चं सम्मं ईरियव्वं ) लट शंख आदि क्षुद्र जन्तुरूप कीटों के ऊपर तथा पतंगों आदि जानवरों के ऊपर, एवं एकेन्द्रिय स्थावर जीवों के ऊपर दया रखने में तत्पर बने हुए, तथा पुष्प, फल' त्वक्-छाल, प्रवाल,-कोपल-पत्राकुर, पूरण आदि कंद मूल दकसचित्त जल, मृत्तिका-मचित्तमिट्टी, बीज और हरितकाय, इन सब सचित्तपदार्थों को अपने और पर के उपयोग में लाने का जीवनपर्यंत परित्याग कर बुकने वाले ऐसे मुनिजनों को देख २ कर सदा यतना पूर्वक मार्ग में गमन करना चाहिये। ( एवं सु) इस तरह यतनापूर्वक दृष्टि से देख देख कर चलने वाले युनिजन के (सव्वेपाणा) समस्त पाणी (ण हीलिघव्वा ) अवज्ञा के विषयभून नहीं बनते हैं । ( न निदि थी सारी रीते Aqdi: परीने साधु यासता खाय वा “ दिदुए " दृष्टिथी "कीडपयगतसथावरदयावरेण पुप्फफलतयपबालकंदमूलद्गमट्टियवीयहरियपरिवज्जणएणिञ्च सम्म ईरियव्वं'' सट माह क्षुद्र सन्तु३५ श्रीडा ०५२ તથા પતંગિયાં આદિ જતુઓ ઉપર, અને એકેન્દ્રિય સ્થાવર જેની ઉપર દયા રાખવાને તત્પર બનેલ, તથા પુષ્પ, ફળ, ત્વ-છાલ, પ્રવાલ-કેપળ-પત્રકુર, સૂરણ આદિ કંદમૂળ, આ બધા સચેત પદાર્થોને પિતાના કે બીજાના ઉપગમાં લેવાનો આજીવન પરિત્યાગ કરી નાખ્યો હોય એવા મુનિજનેને भशा ने यतना पू: २स्ता ५२ यातj . “ एवं खु" मा शते यतनापू न०१२ १३ नेने यातना२ मुनिरनन " सब्वे पाणा" For Private And Personal Use Only Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ०१ सू०६ भावनास्वरूपनिरूपणम् नावज्ञातव्या भवन्ति, मुनिः प्राणि माणसंरक्षणपरत्वातान्नावज्ञा विषयीकरोतीति भावः, एवमग्रेऽपि सर्वत्र वाक्यरचना कायौ । 'न निदियच्या ' न निन्दितव्या भवन्ति-परपीडावर्जनपरत्वात् , ' न गरहियव्या' न गर्हितव्याः भवन्ति-- लोकसमक्षं दोषोद्घाटनपूर्वकं गर्दा विषयभूता न भवन्तीत्यर्थः, तथा-'न हिंसियया' न हिंसितव्याः-पादाक्रमणादिना न हन्तव्याः, भवन्ति, एवं 'न छिदि. यव्या' न छेत्तव्याः वङ्गादिना, 'न भिदियमान भेगष्याः - कुन्तादिना, 'न वहेयव्या' न व्यथनीयाः पीडोत्पादनादिना भवन्ति । तथा – 'न भय दुक्खं च लब्भा पावेउं' न भयं दुखं च लभ्याः पापयितुम् , दुःखं भयं च पापयितुं योग्या न भवन्तीति भावः । एवम् अनेन प्रकारेण 'इरिया समिइजोगेण ' ईर्यासमितियोगेन ' भाविओ' भाविनो-चासितो भवति 'अंतरप्पा' अन्तरात्मा =जीवः, सावितात्मा-भवतीत्यर्थः, कीदृशो भवति ? इत्याह-'असवलमसंकिलिहनिव्वणचरित्तभावणाए' अशवलासंक्लिष्ट निणचारित्रभावनयाः, अशवला= यब्वा) निंदा के विषयभूतनहीं बनते हैं। (न गरहिमच्या ) लोगों के समक्ष दोपोद्घाटन पूर्वक गर्दा के विषयभून नहीं बनते हैं। (न हिलियब्धा) पादादि द्वारा आक्रमिक होकर हिंसा के विषयभूत नहीं बनते हैं, (न छिदियवा ) छेदन करने के विषयभूत नहीं बनते है, ( न भिदियव्वा ) भेदन करने के विषयभूय नहीं बनते हैं। ( न-वहेयन्या) पीडो त्पादनादि द्वारा व्यथा कष्ट पहूँचाने के योग्य नहीं बनते हैं। (न भयं दुक्खं च किंचि लम्मा पावेउ) और न किसी भी तरह से भय और दुःख को पास कराने के योग्य बनते हैं। ( एवं ) इस प्रकार (ईरियासमियजोगेण ) ईर्या समिति के योग से (भाविभो अंतरप्पा) वासित हुआ अन्तरालमा-जीव-भावितात्मा कहलाता है और यह( असवलमसंकिलिट्ठनिव्वण चरित्त भावशाए ) अशवल-मलिनता रहित समस्त on “ण हीलयव्वा' मज्ञान विषाभूत जनता नथी " न निदियत्वा' निहाना विषयभूत मानना नथी, “ न गरहियवा" सोनी समक्ष होषोद्धाटन गहना विपभूत मनता नथी. “न हिसियख्वा" पाहत मित ने सान! विषयभूत मनता नथी, " न छिदियवा" छन ४२वाना विषयभूत न। नधी, “न भिदियव्वा " मेन १२वान विषयामत मनता नथी, “न वहेयव्या" पीst Gपा मावि व्यथा पायावाने योज्य मनता नथी. "न भयं दुक्खं च किचिलब्भा पावेउ” भने ४ ५५५ असारे लय भने प्राप्त पाने योग्य जनता नथी. — एवं" मा सारे "ईरियासमियजोगेण" ध्यासमितिना योगथी "भाविओ अंतरप्पा" यात मात्मा-०१-मावितात्मा अपाय छ भने ते “असबलमसंकिलिनिवणचरित. For Private And Personal Use Only Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir દરર प्रश्नव्याकरणसूत्रे मालिन्यरहिता, असंक्लिष्टा-विशुद्धधमानमनःपरिणामयुक्ता, निव्रणा=अक्षता या चारित्रभावना तया हेतुभूतया 'अहिंसए' अहिंसकः - सभावनाया अहिंसायाः परिपालकत्वात् , 'संजए' संयतः सम्यग्जीवरक्षायतनोधतत्वात् , 'मुसाहू' मुसाधुः मोक्षसाधको मुनिर्भवति ।। मू० ६ ॥ तथा विशद्धयमान मनःपरिणाम से युक्त ऐसी हेतुभूत अखंड चारित्र भावना के प्रभाव से (अहिंसए) अहिंसक होता हैं, अर्थात् भावनासहित अहिंसा का परिपालक होने के कारण वह हिंसावृत्ति से रहित होता है ।तथा ( संजए ) अच्छी तरह से जीव रक्षा की यतना में उद्यत होने के कारण संजत होता है । और ( सुसाहू ) ऐसा होने के कारण ही वह साधु-सच्चा साधु-मोक्ष साधक मुनि-होता है। ___ भावार्थ--इम सूत्र द्वारा सूत्रकार ने अहिंसावत की रक्षा और स्थिरतो के निमित्त पांच भावनाओं में से ईर्था समिति नामकी प्रथम भावना कही है,। इस भावना में उन्हों ने वह प्रकट किया है कि अहिंसावत का आराधक प्राणी यदि भावना का निमित्त नहीं मिलता है तो उस व्रत का गहराई के साथ परिपालन नहीं हो सकता है। अहिंसा आदि व्रतों के रंग में आत्मा को रंग देनेवाली ये भावनाए ही हैं । इसलिये सच्चे अर्थ में अहिंसक बनने के लिये मुनि को सबसे पहिले ईयाँ समिति का पालन करना चाहिये । इस समिति के पालन करने से भावणाए " अशघल-सिनत! २डित तथा विशुद्ध मनः परिणामयी .युत सेवा तुभूत मक्षत-यारित्रमापनाना प्रभावी ' अहिंसए” मसि थाय छ, એટલે કે ભાવનાપૂર્વક અહિંસાના પરિપાલક હોવાથી તે હિંસાવૃત્તિથી રહિત भने छ. तथा " संजए " सारी ते ०१ २क्षानी यतनामi ५२ पाने ४२ सयत थाय छे. मने “ सुसाहू " मेवा थाने १२0 ते सुसाधु-सायो साधु-भीम साथ मुनि-थाय छे. ભાવાર્થ—-આ સૂત્ર દ્વારા સૂત્રકારે અહિંસા વતની રક્ષા અને સ્થિરતાને માટે જે પાંચ ભાવના છે તેમાંની ઈર્યાસમિતિ નામની પહેલી: ભાવના બતાવી છે. આ ભાવનામાં તેમણે એ પ્રગટ કર્યું છે કે અહિંસા વ્રતના આરાધક પ્રાણને જે ભાવનાનું નિમિત્ત ન મળે તે તે વ્રતનુ સૂફમ રીતે પાલન થઈ શકતું નથી. અહિંસા આદિ વ્રતોના રંગમાં આત્માને રંગી દેનારી આ ભાવનાઓ જ છે. તેથી સાચા અર્થ માં અહિંસક બનવાને માટે મુનિએ સૌથી પહેલાં ઈસમિતિનું પાલન કરવું જોઈએ. આ સમિતિનું પાલન કરવાથી ત્રસ For Private And Personal Use Only Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० १ सू०७ भावनास्वरूपनिरूपणम् द्वितीयाँ मनोभावनामाह मूलम् - बीयं च मणेण पावएण पावगं आहम्मियं दारुणं निसंसं वहबंधपरिकिलेस बहुलं जरामरणपरिकिलेससंकि लिहूं, न कयात्रि मणेण पावएणं पावगं किंचि विझायव्वं एवं मणसमिइजोगेण भाविओ भवइ अंतरप्पा असबलमसंकिलिहनिव्वणचरित भावणाए अहिसएसजए सुसाहू ॥सू०७॥ टीका--' वीयं च ' इत्यादि । 'बीयं च ' द्वितीयां च पुनर्भावना मनः समितिरुघामाह - ' पावणं ' For Private And Personal Use Only ६२३ त्रस स और स्थावर जीवों की रक्षा होती रहती है। उठने बैठने में गमन करने में साधु ' जीवों की विराधना न हो' इस बात की विशेष साबधानी रखता | युगप्रमाण भूमिका अवलोकन करता हुआ आगे २ के मार्ग में बढ़ता रहता है । इस तरह उसके द्वारा न कोई प्राणी हीलायतथ्य होता है न निन्दितव्य होता है न गर्हितव्य होता है, और न हिंसितव्य होता है। न छेशव्य होता है, न व्यथितव्य होता है और न दुःख को प्राप्त कराने के योग्य ही होता है । इस प्रकार ईयसमिति के योग से भावितात्मा बना हुआ मुनिजन अपने अहिंसावत को निर्दोष रीति से पालन करता हुआ सच्चा अहिंसक बन जाता है। तथा इस प्रकार की प्रवृत्तिशाली होने के कारण वह सुसाधु-मोक्ष को साधन करने वाला मुनि इस अर्थ को चरितार्थ करता है | सू०६ ॥ " अब सूत्रकार इसव्रत की दूसरी भावना जो मनोगुप्ति है उसे प्रकट અને સ્થાવર જવાનું રક્ષણ થાય છે. ઉડવા બેસવામાં તથા ગમન કરવામાં વધારે જીવાની વિરાધના ન થાય ' તેનું મુનિ વધારે ધ્યાન રાખે છે. યુગ પ્રમાણ ભૂમિનું અવલોકન કરતા કરતા સાધુ માર્ગે આગળ વધે છે. આમ થવાથી તેના દ્વારા કાઈ પ્રાણી હીલયિતવ્ય, નિન્દિતવ્ય, ગહિતવ્ય, અને હિ’સિ તવ્ય થતુ નથી. તેનું છેદન થતુ નથી કે તેને વ્યથા પહેાંચતી નથી, તથા દુઃખને પામતું નથી. આ રીતે ઇયસમિતિના ચાગથી ભાવિતાત્મા બનેલ મુનિજન પેાતાના અહિં‘સવ્રતનું નિર્દોષ રીતે પાલન કરતા કરતા સાચા અહિંસક થઇ જાય છે. તથા આ રીતે પ્રયત્નશીલ હોવાને કારણે તે સુસાધુ-મેાક્ષને साधनाश भुनि, मे अर्थने यरितार्थ हरे छे ॥ सू--६ ॥ હવે સૂત્રકાર આ વ્રતની મનેતિ નામની ખીજી ભાવના છે તેનું સ્પ Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६२४ সন্ধ पापकेन अशुभेन ‘मणसा' मनसा 'पायगं' पापकम् =अशुभं भवति, 'अहम्मियं ' अधार्मिकं दुर्गतिजनकत्वात् , दारुणं--विषमम् , तीव्रदुःखजनकत्वात् , 'निसंस' नृशंसम् आत्महितघातकत्वात् , तथा-' बहबंधपरिकिलेसबहुलं' वधबन्धपरिक्लेशबहुलम् , तत्र-वधो-मारणम् , बन्धः-निगडादिबन्धः, तज्जनितः परिक्लेशः परितापस्तेन बहुलं व्याप्त-संभृतम् , प्रतिसमयमसह्य संतापजनकत्वात् , तथा - ' मरणभयारकिलेससंकिलिष्टुं ' मरणभयपरिक्लेशसंक्लिट्रम्-मरण-प्राणवियोगस्तस्य यद् भयं तज्जनितो यः परिक्लेशः-परमसन्तापस्तेन संक्लिष्टं संव्याप्तम्, नरकनिगोदाधनन्तदुःखजनकत्वात्, एतादृश-विशेषणविशिष्टं करते हैं-'बीयं च' इत्यादि । टीकार्थ-(धीयं ) दुसरी मनोगुप्ति नामकी भावना इस प्रकार से है (पावएण मणेण ) अशुभ मन से अशुभ होता है-अर्थात्-अशुभमन से जीव पाप का उपार्जन करता है। यह पाप ( अहम्नियं ) दुर्गति का जनक होने से अधर्म रूप है। (दारुणं ) तीव्र दुःखों का उत्पदक होने से दारुण-विषम अर्थात्-कष्टकारक होता है । तथा (निसंस) इसमें आत्मा के हितका घात होता है इसलिये नृशंस है। (वहबंधपरिकिलेनवहुलं ) वध, बंधन और इनसे उत्पन्न परिक्लेश-परितापसे यह सदा भरा रहता है । अर्थात् प्रति समय यह अमात्य संताप का जनक होता है। (मरणभयपरिकिलेससंकिलिटुं) मरग के भय से जनित परम संताप से यह व्यात रहा करता है। अर्थां-पाप से जीव नरक निगोद आदि के अनंत दुःखों को भोगा करता है। इसलिये यह टी४२५ ४२ छ-" बीयं च" त्यादि - "बीय' भी मनाति नामनी लाना मानी छ-"पावएण मणेण " मशुम भनथी मशुम थाय छ-मे मशुम भनथी ०१ पापर्नु अपारी ४२ छ । ५५ " अहम्भियं" हुतिन न वाथी २५५३५ छ. " दारुणं" तीन मार्नु प६४ पाथी ६२४-वि५म. ट है ४४४२४ हाय छे. तथा "निसंसं" तेमा मात्माना हितनो धात याय छ तेथीते नशस छ. “ वहबंधपरिकिले सबहुलं" १५, धन भने तेमना हो . ભવેલ પરિકલેશ-પરિતાપથી તે સદા ભરેલ રહે છે, એટલે કે પ્રતિસમય તે मसहा सता५ पहा ४२ना२ डाय . " मरणभयपरिकिलेससंकिलिट" મરણના ભયથી ઉત્પન્ન થયેલ પરમ સંતાપથી તે વ્યાપ્ત રહ્યા કરે છે. એટલે કે પાપથી જીવ નરક નિગેટ આદિના અનંત દુઃખને ભેગવ્યા કરે છે. તે For Private And Personal Use Only Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० १ सू०७ भावनास्वरूपनिरूपणम् पापं-पापेन मनसा भवति, अतएव-तत् ' कयावि' कदापि कस्मिन्नपि काले 'किंचि वि ' किंचिदपि-स्वल्पमपि 'पावगं' पापकम् अशुभं न 'झायव्वं ' ध्यातव्यं न चिन्तनीयमित्यर्थः । एवम् अमुना प्रकारेण · अंतरप्पा' अन्तरात्मा जीवः ‘मणसभिहजोगेणं' मनः समितियोगेन भावितो भवति । भावितात्मा कीदृशो भपति ? इत्याह -- अशवलसंक्लिष्टनिव्रणचारित्रभावनया हेतुभूतया अहिंसकःसंयतः सुसाधुर्भवति । एषामर्थो द्वितीयभावना व्याख्यायां द्रष्टव्यः ॥७॥ पाप नरक निगोद आदि दुर्गतियों के अनंत दुःखों का जनक होने से उनसे सदा भरा रहता है ऐसा कहा गया है । इस प्रकार के विशेषणों से विशिष्ट पाप यह जीव पापयुक्त मन से करता है। ऐसा समझ कर ( कयावि किंचि वि) किसी भी काल में कुछ भी थोड़ा सा भी (पावएणं मणेणं ) पापकारी मन से (पावगं ) पाप-अशुभ (न झायव्वं) नहीं विचरना चाहिये। ( एवं मणसमिइजोगेण अंतरप्पा भाविओ भवइ ) इस प्रकार से अंतरात्मा-जीव मनःसमिति के योग से भावित होता है । ( असबलमसंकिलिट्ठनिव्वणचरित्तभावणाए अहिंमए संजएसुसाहू ) यह भावित आत्मा मलिनता से रहित तथा विशुद्धयमान मनःपरिणाम से युक्त ऐसी हेतुभूत चारित्र भावना के प्रभाव से अहिंसक होता है। और संयत होता है । और ऐसा होने के कारण ही वह सच्चा साधु-मोक्ष साधक मुनि-कहलाता है । भावार्थ-मन को अशुभ ध्यान से बचाकर शुभ ध्यान में लगाना કારણે તે પાપ નરક વિગેદ આદિ દુર્ગતિના અનંત દુઃખોનું જનક હોવાથી તેનાથી સદા ભરેલ રહે છે એમ કહેવામાં આવ્યું છે. આ પ્રકારના વિશેષपोथी युक्त ५.५ मा ७१ पापयुक्त भनथी ७३ छ. से समलने " कयावि किचि वि" ५५ जे सडा पण “पावएणं मणेण" ५५ भनथी " पावगं" ५।५-२५शुन " न झायव्य" विया२ मे नही " एवं मणसमिइजोगेण अंतरप्पा भाविओ भवइ" -40 अरे भतरात्मा-७५ मनः सभिः तिना योगथी मावित थाय छे. “ असबलमसंकिलिटुनिव्वणचरितभावणाए अहिंसए संजए सुसाहू" ते मावित मामा भासिनताथी २डित तथा विशुद्ध મના પરિણામથી યુક્ત એવી હેતુભૂત ચારિત્ર ભાવનાના પ્રભાવથી અહિંસક થાય છે અને સંયત બને છે. અને એવું થવાથી જ તે સાચે સાધુ–મેક્ષ સાધક મુનિ કહેવાય છે. ભાવાર્થ-મનને અશુભ ધ્યાનથી બચાવીને શુભ ધ્યાનમાં લગાડવું તેને प्र ७९ For Private And Personal Use Only Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे तृतीयां वचनसमितिरूपां भावनामाह-'तइयं च ' इत्यादि । मूलम्-तइयं च-चईए पावियासाए पावर्ग अहम्मियं दारुणं निसंसं वहबंधपरिकिलेसबहुलं जरामरणपरिकिलेससंकिलिहं न कयावि वईए पावियाए पावर्ग किचि वि भासियव्वं, एवं वइसमिइजोगेण भाविओ भवइ अंतरप्पा असबलमसं. किलिनिव्वणचरित्तभावणाए अहिंसओ संजओ सुसाह॥८॥ मनोगुप्ति है। शुभ ध्यान में लगाने का उपदेश इस लिये दिया जाता है अथवा मन को शुभ ध्यान में इसलिये लगाया जाता है कि मन स्वयं अशुभ बनने न पावे । अशुभ ध्यान के संपर्क संबंध से मन अशुभ वन जाता है। और अशुभ मन से पाप का ही उपार्जन होता है । पाप से जीवों को नाना प्रकार के कष्टों को भोगना पड़ता है। क्यों कि पाप स्वयं एक अधर्म है। अधर्म होने से ही वह आत्मा के हित का घातक बनता है। और इसी कारण से जीवों को नाना प्रकार के दुःखों को देता है। इस प्रकार विचार कर जो मुनिजन अपने मन को अशुभ ध्यान में किसी भी समय नहीं लगता है उससे बचता रहता है ऐसा वह मुनि उस मनः समिति से भाषित बनकर अपने अहिंसा व्रत को निर्दोष रूप से पालन करता हुआ आदर्श अहिंसक बन जाता है । और इस प्रकार की प्रवृत्ति करने के रंग में रंगा हुआ वहसच्चे अर्थ में साधुपद को सार्थक करता है ॥ सू०७ ॥ મનગુપ્તિ કહે છે શુભ ધ્યાનમાં લગાડવાને ઉપદેશ એ માટે અપાય છે. અથવા મનને શુભ ધ્યાનમાં તે કારણે લગાડાય છે કે મન પિતે જ અશુભ બનવા પામે નહીં અશુભ ધ્યાનના સંપર્કથી મન અશુભ બની જાય છે, અને અશુભ મનથી પાપનું જ ઉપાર્જન થાય છે. પાપથી જેને વિવિધ પ્રકારનાં કળે ભેગવવાં પડે છે. કારણ કે પાપ પતે જ એક અધર્મ છે. અધર્મ હેવાથી જ તે આત્માના હિતનું ઘાતક બને છે, એને એજ કારણથી જીવેને વિવિધ પ્રકારનાં દુઃખ દે છે. આ પ્રમાણે વિચાર કરીને જે મુનિજન પિતાના મનને કદી પણ અશુભ ધ્યાનમાં લગાડતા નથી, તેનાથી બચતા રહે છે, એવા તે મુનિ તે મન સમિતિથી ભાવિત બનીને પિતામાં અહિંસાવતનું નિર્દોષ પાલન કરીને અહિંસક બની જાય છે, અને તે રીતની પ્રવૃત્તિ કરવાના રંગે રંગાયેલ તે મુનિ સાચા અર્થમાં સાધુના પદને સાર્થક કરે છે સુ, ૭. For Private And Personal Use Only Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदशिनी टीका अ० १ सू०४ भावगस्वरूपनिरूपणम् टीका-' तइयं च ' इत्यादि। ' तइयं च ' तृतीयां च भावनां वचनसमितिरूपामाह-वईए पावियाए' वाचा पापिक्या सावद्यभाषणरूपयेत्यर्थः पापकमाधार्मिकं दारुणं नृशंसं वध. ___ अब सूत्रकार इस अहिंसावत की तीसरी वचन समितिरूप भावना का प्रतिपादन करने के लिये मूत्र कहते हैं-' तइयं च ' इत्यादि । ____टीकार्थ-(तइयं) वचनसमिति रूप तृतीय भावना इस प्रकार से है(पावियाए वईए) सावद्यभाषणरूप वाणी से (पावगं) जीव पाप का बंध करता है। यह पाप (अहम्मियं दारूणं निसंसंवह बंधपरिकिलेसबहुलं जरामरणपरिकिलेससंकिलिलु भवइ) अधर्मरूप है क्यों कि इससे जीवो को दुर्गति की प्राप्ति होती हैं तथा इससे तीबदुःखों को जीव भोगते हैं इसलिये यह दारूण-विषम है । आत्माके हितका इससे घात होता है इसलिये यह नृशंस है। बध, बंधन और इनसे जन्य परिक्लेश-परिताप से यह पाप सदा भरा रहता है । जरा और मरण के भय से जनित संताप से यह सदा व्याप्त रहता है। ऐसा विचार कर जो मुनि (न कयावि वईए पावियाए किंचिवि पावगंभासियवं) इस पाप वाणी को सावद्यभाषणरूप वचन को-किसी भी समय थोड़ा सा भी नहीं बोलते है वे इस वचनसमिति के योग से भावितात्मा बन जाते हैं। ( एवं वय હવે સુત્રકાર આ અહિંસાવતની વચન સમિતિ નામની ત્રીજી ભાવનાનું प्रतिपादन ४२वाने भाटे सूत्र -" तइय' च" त्यादि ___tE-" तइय" क्यनसमिति३५ श्री लावना 24! प्रमाणे छ“ पावियाए वईए” सा भा५५३५ पाणीथी “ पावगं" ७१ पापन! ५५ मांधे छे. ते ५५ “ अहम्मिय दारुणं निसंसं वबंधपरिकिलेसबहुलं जरामरण परिकिलेससंकिलिटुं भवइ ” म ३५ छ तेनाथी याने तिनी प्राति થાય છે. તથા તેનાથી જીવ તીવ્ર દુઃખે ભેગવે છે તેથી તે દારુણ-વિષમ છે. તેનાથી આત્માના હિતને ઘાત થાય છે તેથી તે નૃશંસ છે. વધ, બંધન અને તેના વડે ઉત્પન્ન થયેલ પરિકલેશ-પરિતાપથી તે પાપ સદા ભરેલ રહે છે. જરા અને મરણના ભયથી જનિત સંતાપ વડે તે સદા વ્યાપ્ત રહે છે. એ विया परीने मुनि “ न कयावि वईए पावियाए किंचिवि पावगं भासियव" આ પાપવાણીને સાવધ ભાષણરૂપ વચનને-કોઈ પણ કાળે ડું પણ બેલતા Hथी, ते २ पयनसमितिना योगी सावितात्मा मनी नय छे. “ एवं For Private And Personal Use Only Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૨૨૮ प्रश्नव्याकरणसूत्रे बन्धपरिक्लेश बहुलं जरामरणपरिक्लेश संक्लिष्टं भवति, अतएव न कदापि वाचा पापक्या पापकं किंचिदपि भावितव्यम् । एवं वाक्समितियोगेन भावितो भवति अन्तरात्मा । भावितात्मा कीदृशो भवति ? इत्याह – अशवला संक्लिष्ट - निर्वणचरित्रभावनया हेतुभूतया - अहिंसकः संयतः सुसाधुर्भवति । एषामर्थो द्वितीयभावनाव्याख्यायां द्रष्टव्यः ।। सू० ८ ॥ समिजोगेण भाविओअंतरप्पा असबलमसंकि लिट्ठनिव्वणचरितभावणाए अहिंसओ संजओ सुसाह भवइ ) इस प्रकार वचन समिति के योग से भावितात्मा बना हुआ अंतरात्मा - जीव-अशबल, असंक्लिष्ट एवं निर्व्रण निरतिचार चारित्र की भावना से अहिंसक और संयतवन जाता है । और सच्चे रूप में साधु-मोक्ष को साधन करने वाले - इस नाम को चरितार्थ कर लेता है । भावार्थ - सावद्य भाषण नहीं करना इसका नाम वचन समिति है। सावध भाषण करने से पाप का बंध होता है ! पाप अधर्म होने से विविध प्रकार के दुःखों का दाता होता है। वध बंधन आदि विविधकष्ट जीव को इसी के उदय से भोगने पडते हैं। इसलिए साधु का कर्तव्य है कि वह कभी भी कहीं पर भी किञ्चित् रूप में भी असत्य भाषण नहीं करें। ऐसा विचार कर जो मुनि इस पापवाणी से निवृत्त हो जाते हैं वे ही अपने अहिंसावत को निर्दोष रूप में पालते हैं। इस प्रकार अपने अहिंसा को पालन करने वाले साधु ही सच्चे साधु-मोक्षको साधन करने वाले कहलाते हैं ॥ सू०८ ॥ वयसमिइजोगेण भाविओ अंतरपा असबलमसंकिलिनित्रणचरित भावणाए अहिंसओ संजओ सुसाहू भवई " આ પ્રકારે વચન સમિતિના ચેાગથી ભવિ— તાત્મા અનેલ અતરાત્મા-જીવ-અશખલ, અસંકિલષ્ટ અને નિત્રણચારિત્રની ભાવનાથી અહિંસક અને સયત અની જાય છે, અને સાચા અર્થમાં સાધુમાક્ષને સાધનારા-એ નામને ચરિતાર્થ કરી લે છે. ભાવા —સાવદ્યભાષણ ન કરવું તેનું નામ વચન સમિતિ છે. સાવદ્ય ભાષણ કરવાથી પાપના 'ધ બંધાય છે. પાપ અધમ હોવાથી વિવિધ પ્રકારના દુઃખનું જનક છે. તેના ઉદયથી વધ બંધન આદિ વિવિધ પુષ્ટ જીવને ભાગવવાં પડે છે. તેથી સાધુનું કર્તવ્ય છે કે તે કદી પણ, કાંય પણ, ઘેાડા પ્રમાણમાં પણ અસત્ય ભાષણ ન કરે. એવા વિચાર કરીને જે મને આ પાપવાણીથી નિવૃત્ત થઈ જાય છે તે જ પોતાના અહિંસાવ્રતનું નિર્દોષ રીતે પાલન કરે છે. આ પ્રમાણે પોતાના અહિ'સાવ્રતનું પાલન કરનાર સાધુ જ सान्था साधु-मोक्षने साधन अरनार साधु-उडेवाय हो ॥ सू. ८ ॥ For Private And Personal Use Only Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० १ सू० ९ भावनास्वरूपनिरूपणम् १२९ चतुर्थीमेपणा भावनामाह-' चउत्थं ' इत्यादि । मूलम् चउत्थं आहारएसणाए सुद्धं उंछं गवेसियव्बं. अण्णाए अकहिए आसिटे अदीणे अकलुणे अविसाई अपरितंतजोगी जयणघडणकरणचरियविनयगुणजोगसंपउत्ते भिक्खू भिक्खेसणाए जुत्ते समुदाणेऊण भिक्खायरियं उंछं घेत्तूणं आगए गुरुजणस्त पासं गमणागमणाई यारपडिकमणपडिकंते आलोयण दायणं च दाऊण गुरुजणस्स गुरुसंदिस्स वा जहोवएसं निरइयारं च अप्पमत्ते पुणरवि अणेसणाए पयते पडिक्कमित्ता पसंते । आसीणसुह निसपणे मुहत्तमेत्तं च झाणसुहजोगनाणसज्झायगोवियमणे धम्ममणे अविमणे सुहमणे अविग्गहमणे समाहियमणे सद्धासंवेगनिज्जरमणे पवयणवच्छल्लभावियमणे उठेऊण य पहले तुटेजहराइणियं निमंतइत्ता य साहवे भावओ य विइपणे गुरुजणेणं उबविटे संपमाजिऊण ससीसं कायं तहा करयलं अमुच्छिए अगिद्धे अगरहिए अणझोववण्णे अणाइले अल्लुद्धे अणत्तट्ठिए असुरसुरं अचवचवं अदुयमविलंवियमपरिसाडियं आलोयभायणे जयमप्पमत्तेण वगयसं. जोगमणिगालं विगयधूमं अक्खोवंजणवणाणुलेवणभूयसंजमजायामायानिमित्तं संजमभारवहणट्टयाए भुजेज्जा पाणधारणट्टयाए संजएणं समियं । एवमाहारसमिइ जोगेण भाविओ अंतरप्पा असबलमसंकिलिनिव्वणचरित्तभावणाए अहिंसए संजए सुसाहू ॥ सू०९॥ For Private And Personal Use Only Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६३० प्रश्नव्याकरणसूत्रे टीका -'चउत्थं ' चतुर्थी भावनामेपणारूपामाह - ' आहारएसणाए । आहारैषणया ' सुद्धं ' शुद्ध-निर्दोष 'उंछ' उञ्छंभेक्षं गवेसियव्वं ' गवेषित व्यम् । यथा-लूनान्नक्षेत्रात्कणादानं, तथैव साधुनापि गृहस्थार्थं निष्पादितमन्नं स्तोकं स्तोकं एवेषणीयमिति भावः । कीदृशः सन गवेषयेत् ? इत्याह-'अण्णाए' अज्ञातः-'धनिकोऽयं प्रवजितः' इत्यादिरूपेण दायकैरज्ञातः, ' अकहिए' अकथितः= धनिकोऽहं प्रबजितः ' इत्याद्यप्रकटितः, 'असि?' अशिष्टाः= उग्रवं. शीयोऽयं भोगवंशीयोऽय' मिति दायकायापतिबोधितः, तथा-'अहीणे' अदीनः अब सूत्रकार चौथी एषणा समितिरूप भावना को कहते हैं - 'चउत्थं ' इत्यादि। टीकार्थ-(आहार एसणाए सुद्धं उंछ गवेसियव्वं ) साधु आहारए. षणा से शुद्ध-निर्दोष उछ-धोडा थोडा लेने रूप भिक्षा की गवेषणा करे। तात्पर्य इसका यह है कि जैसे-लूने गये क्षेत्र से कणों का आदान होता है उसी तरह साधु को भी गृहस्थ के लिये निष्पादित अन्न की स्तोक २ अल्प २ रूप में गवेषणा करनी चाहिये । जयव ह भिक्षा की गवेषणा करे तब उसे (अण्णाए ) अज्ञात होना चाहिये-दाता उसे यों न समझेकि यह धनिक होकर प्रवजित हुआ है, इत्यादिरूप से दाता से उन्हें अपरिचित रहना चाहिये। ( अकहिए ) अकथित होना चाहिये-में धनिक था गरीब नही था फिर भी दीक्षित हुआई इस प्रकार का अपना परिचय उसे दाता को नहीं देना चाहिये । (असिडे) अशिष्ट रहना चाहिये-यह साधु उग्रवंशीय है, भोगवंशीय है, इस रूप से दाता के वे सूत्रा२ मे ५९। समिति नामनी याश्री मान सताये छे “च उत्थ' याls --" आहारएसणाए सुद्ध उंछं गंवेसियव्व" साधु मारेषशायी શ-નિર્દોષ ૩૪ થોડી થોડી માત્રામાં ભિક્ષાની ગવેષણ કરે. તેનો ભાવાર્થ એ છે કે જેમ લણવેલ ખેતરમાંથી કણનું આદાન થાય છે, એ જ રીતે સાધુએ પણ ગૃહસ્થને માટે તૈયાર કરેલ અગ્નિ છેડી ડી માત્રામાં ગષણા ४२वी नसे. न्यारे ते लक्षानी गये। ४२ त्यारे तो “अण्णाए" અજ્ઞાત રહેવું જોઈએ. દાતાને તે વાતની ખબર ન પડવી જોઈએ કે તે ધનિક સ્થિતિમાંથી દીક્ષિત થયેલ છે. આ પ્રકારે તેણે દાતાથી અપરિચિત રહેવું म. “ अकहिए " मथित २२ नये-“हु पनि हो । न હતે છતાં પણ મેં દીક્ષા લીધેલ છે” એ પ્રકારને પિતાને પશ્ચિય તેણે हाताने हेवन नही " अतिट्रे" अशिष्ट २३ न. " - साप ઉગ્રવંશીય છે, ભેગવંશીય છે,” તે પ્રકારે દાતા આગળ તેણે પ્રગટ થવું For Private And Personal Use Only Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुवशिनी टीका अ० १ सू०९ भावनास्वरूपनिरूपणम् =दीनतावर्जितः । अकलुणे' आरुणः व्यगृत्तिरहितः, 'अविसाई ' अविषादी 'भिक्षालाभो भविष्यति न वे 'त्यादि विषादवनितः, तथा-' अपरितंतजोगी' अपरितान्तयोगी-अलाभादिषु तन्तनाादि शब्दवर्जितः, तथा-'जयणघडण करण चरिय विनयगुणजोगसंपउत्ते ' यतन घटनकरणचरितविनयगुणयोगसंप्रयुक्तः, तत्र यतनं-प्राप्तेषु संयमयोगेषु उद्यमः, घटनं अप्राप्ति संजन-योगमाप्तिचेष्टनम् , एतद्वयं कुरुते यः स यतनघटनकरणः, तथा-चरितः सेवितो विनयो येन स चरितविनयः, तथा गुणयोगेन=समाधिगुणयोगेन संप्रयुक्तो यः सः-गुणयोग संप्रयुक्तः, एतेषां कर्मधारयः, एतादृशो - भिक्खू ' भिक्षुः-साधुः ‘भिक्खेसणाए' प्रति उसे प्रकटित नहीं होना चाहिये । (अदीणे ) अदीन होना चाहिये दीनता के भाव से रहित रहना चाहिये अपने व्यवहार से दाता के प्रति उसे दीनता का भाव प्रकट नहीं करना चाहिये । ( अकलुणे ) अकरुण-ओछीवृत्ति से रहित होना चाहिये। उमकी वृत्ति ऐसी न हो कि जिस से वह दाता के दृष्टि में ओछी प्रतीत हो । ( अविसाई) विषाद से उसे रहित होना चाहिये-भिक्षा का लाभ होगा या नहीं होगा इस प्रकार का विषाद उसे नहीं करना चाहिये । (अप. रितंतजोंगी) अपरितांतयोगी-अलाभ आदि की अवस्था में उसे तनतनाट नहीं करना चाहिये । ( जयण-रडण-करण-चरिय विनयगुणजोगसंपउत्ते ) प्राप्त संयमयोग में उद्यम करना इसका नाम यतन है इस यतन को तथा अप्राप्त संयमयोग को प्राप्ति में चेष्ठा करना इसका नाम घटन है, इस बटन को जो करने वाला है वह यतन घटन करण है तथा विनयगुण को पहिले से जिसने आचरित किया है एवं समाधिनये नाही. “ अदीणे " महीन २३ नो-हीनताना माथी २डित २२७ જોઈએ-પિતાના વ્યવહારથી દાતા આગળ તેણે દીનતાનો ભાવ પ્રગટ કરે नये नाही. " अकलणे" ५४२।७५-छी वृत्तिकी २डित य श., तेनी वृत्ति मेवी नावाने हातानी दृष्टि साछी एय, "अविसाई" તેણે વિષાદ રહિત રહેવું જોઈએ. ભિક્ષાલાભ મળશે કે નહીં એવો વિષાદ तणे ४२३ मध्ये नाही. “ अपरितंतजोगी" परततयोगी-मसाल माहि अवस्थामा पए तरी तनतनाट न वो नये. " जयण, घडण-करण-चरिय -विनयजोगसंप उत्ते" आत सयम योगमा यम ४२३॥ तेने 'यतन' डे छ. या यतनने तथा अप्रास सयम योगनी प्रतिनी शेष्टा ४२वी तेने धटन४९ छे. घटनने रे ४२नार छे ते यतनघटनकरण छ. तथा विनयगुणने પહેલેથી જ જેમણે આચર્યો છે તથા સમાધિગુણના રોગથી જે યુક્ત બનેલ For Private And Personal Use Only Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्रव्याकरणसूत्र भिक्षेषणायां 'जुत्ते' युक्तः संलग्नः ' समुदाणे ऊग' सादानीय भिक्षार्थमनेकगृहेषु भ्रमित्या 'भिक्खाचरियं उंछ' भिक्षाचर्यामुच्छाम्-अल्पाल्पग्रहणरूपां भिक्षां. 'घेत्तूण' गृहीत्वा गुरुजनस्य 'पास' पाच-समीपं आगए ' समागतः गमणागमणाइयारपडिकमणपडिक्कंते । गमनागमनातिचारपतिक्रमणप्रतिक्रन्त := गमनागमनातिचाराणां प्रतिक्रमणेन ईपिथिकीप्रायश्चित्तेन प्रतिक्रान्तः-निवर्तितपापः, ' गुरुजणस्स' गुरुजनस्य ' ' गुरुसंदिट्ठस्स' गुरुसन्दिष्टस्य-गुरुणा नि. र्दिष्टस्य रत्नाधिकस्यान्यमुनेरन्तिके वा 'जहोवएस ' यथोपदेशम्-उपदेशानतिक्रमेण · निरझ्यारं ' निरतिचारं च ' आलोयणा दायणं च दाऊण' आलोचना दानं च दत्त्वा यथा यथा सिक्षा गृहीता तथा तथा सर्व समालोच्य · अप्पमत्ते' अप्रमत्तः-प्रमादवर्जितः 'पुणरवि' पुनरपि चागामिकाले 'अणेसणाए' अनेवगुण के योग से जो युक्त बना हुआ है वह विनयगुण संप्रयुक्त कहलाता है ऐसा (भिक्खू ) साधु (भिक्खेसणाए जुत्ते ) भिषणा में संलग्न होकर वह ( समुदाणेऊण ) भिक्षार्थ अनेक घरों में घूमें, और वहां से (भिक्खायरियं उंछं) अल्प अल्प रूप में भिक्षा (घेत्तण) ग्रहण करके फिर वह (गुरुजणस्स पास आगए ) अपने गुरुजन के पास में आवे । (गमणोगमणाइयारपडिक्कमणपडिकते आलोयण दायणंच दाऊण ): और वह गमनागमन के अतिचारों के प्रतिक्रमण से ईर्यापथिकी प्रायश्चित्त से प्रतिक्रान्न बने इस तरह निवर्तितपाप होकर वह (गुरुजणस्स ) गुरुजन के (वा) अथवा (गुरुसंदिट्टम्स ) गुरु से संदिष्ट अन्य रत्न त्रयाधिक मुनि के (जहोवएस) उपदेश के अनुसार जहां २ से भिक्षा उसने ली है उस उस प्रकार से सबकी (निरहयारं) निरतिचार. आलोचना करे आलोचना करके (अप्पमत्ते) प्रमाद वर्जित, बना हुआ तथा छे ते विनयगुए) सप्रयुटत' उपाय छे. मेव! “ भिक्खु " साधु " भिक्खे सणाए जुत्ते" लिक्षानी मेषामा ' समुदाणेऊण" लिक्षाने भाटे भने घरे इरे, मने त्यांथी “ भिक्खायरिय " अ५ ८५ मात्रामा निशा 'घेत्तण अड) ४ीन ते “ गुरुजणस्स पास आगए" पोताना शुरुनानी पांसे भावे, " गमणागमणाइयारपडिक्कमणपडिकंतआकोयणवायणं य दाऊण” भने ते ગમનાગમનના અતિચારેને પ્રતિકમણ વડે ઈર્યાપથિકી પ્રાયશ્ચિત્તથી પ્રતિકાન્ત थाय अने से शत पानी निवृत्त थन ते "गुरुजणस्स " शुरुनने "वा" अथवा “गुरुसंदिगुस्स" शुरुका निटि अन्य २नत्रयधारी भुनिनी “जहोवएसं" ઉપદેશ પ્રમાણે જ્યાં જ્યાંથી તેણે ભિક્ષા મેળવી હોય તે તે પ્રકારે તે સૌની "निरइयार " निरतियार मालोयना ४२. मासोयना धरीने " अप्पमत्ते" For Private And Personal Use Only Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - -- सुदर्शिनी टीका अ० १ सू०९ भावनगस्वरूपनिरूपणम् णायाम् उद्गमादिदोषरूपायाम् , “पयए' प्रयतः प्रयत्नवान-तद्गतदोषपरिहारे उद्यमवानित्यर्थः, 'पडिक्कमित्ता' प्रतिक्रन्य-कायोत्सर्ग कृत्वा 'पसंते ' प्रशान्तः आहारेऽनातुरः तथा-' आसीण मुहनिसण्णे' आसीनसुनिपण्णः, तत्र-आसीनः= उपविष्टः, सुखनिषष्णः गमनागमनजनितपरिश्रममवेदयन् सुखपूर्वकं स्थितः, पुनः कीदृशः ? 'मुहुत्तमेत्तं च ' मुहूर्तमात्रं च, ' झाणसुभजोगनाणसज्झायगोवियमणे' ध्यानशुभयोग ज्ञानस्वाध्यायगोपितमनाः, तत्र ध्यान-धर्मध्यानादिलक्षणम् , शुभयोगः संयमव्यापारः, ज्ञानम् भगवदुपदिष्टमोक्षहेतुनिरवद्यसाधुवृत्तिपरिचिन्तनम् , तथा-स्वाध्यायः-मूलमूत्रपरिगुणनम् , एतैर्गोंपितं = विषयान्तरगमनेन निरुद्ध मनो येन सः, अतएव 'धम्ममणे ' धर्ममनाः श्रुतचारित्रलक्षणधर्मयुक्ताः, तथा' अविमणे ' अविमनाः अरसविरसादिलामेऽपि विषादभितचित्तः, तथा ' मुह(पुणरवि अणेसगाए पयए) आगामी काल में उद्गमादि दोष रूप अनेषणा में प्रचत्नशील बना हुआ-अर्थात-एषणागत दोषों के परिहार में सदा सावधान बना हुआ वह मुनि (पडिझमित्ता) कायोत्सर्ग करके ( पसंते ) प्रशान्त बने-आहार में आतुर न बने (आसीणसुहनिसणे) बैठ जावे और भिक्षा के निमित्त गमनागमन में होने वाले परिश्रम का कुछ भी ख्याल न करे प्रत्युन सुखपूर्वक-अच्छी तरह से परें। (मुहत्तमेतं च झागलु भजोगनाणसज्झाय गोवियपणे ) उगमय वह एक मुहूर्ततक धर्मव्यानादिरूप ध्यान से, शुभयोग से, भगवान के द्वारा कथित मोक्ष की हेतुभूत निरवद्य साधुवृति के विचार से, तथा मूलसूत्र के परिगुणन से विषयान्तर में जाते हुए अपने मन को रोके और श्रुतचारित्ररूप धर्म से युक्त अपने मन को रखे। इस तरह (धम्मनग्गे) धर्म मार्ग चाला तथा (अविमणे ) अविमन-अरम विरस आदि आहार प्रभा २डित मने तथा " पुणरवि अणेसणाए पयर" भविष्य मा દેષરૂપ અનેષણમાં પ્રયત્નશીલ બનીને-એટલે કે એણુગત દેના ત્યાગમાં सावधान मनाने ते भनि “ पडिकमित्ता" अयोसरीने "पसंदे" प्रशान्त मने-माहारने माट मातुर न भने. " आसीणसुहनिसण्णे" मेसी लय भने ભિક્ષાને નિમિત્તે ગમનાગમનમાં થતાં પરિશ્રમને સહેજ પણ વિચાર ન કરે प्रत्युत सुप ४-५२०१२ रीते मेसे "मुहत्तमेत्तं च झाण सुमजोगनर्माणसमाय. गोवियमणे" ते समये ते मे भुत सुधा मध्यानाहि३५ ध्यानथी, शुभ ગથી, ભગવાન દ્વારા કથિત સેક્ષની હેતુભૂત નિરવઘ સાધુ વૃત્તિના વિચારથી, તથા મૂળસૂત્રના પરિગુણનની બહારના વિષયમાં પોતાના મનને જતા रोमन पोताना भनने तयारित्र३५ धर्ममा पशवे. २ रीते "धम्ममगे" धर्म मनवाणा तथा “ अविमणे" विमन-मरस, नीरस माहिमा प्रातिमा प्र८० For Private And Personal Use Only Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे मणे' मुखमनाः संयमानुरक्तचित्तः, नथा-'अविग्गहमणे' अविग्रहमनाः-संक्लिष्टमनोभाववर्जितचित्तः, तथा-' समाहियमणे' समाहितमनाः समाहितं रागद्वेषराहित्येन आत्मनि सम्यगुपनोतं मनो येन सः, उपशान्तचित्त इत्यर्थः, तथा'सद्धासंवेगनिज्जरमणे ! श्चद्धासंवेगनिर्जरामना, तत्र-श्रद्धा जिनमताभिरुचिः, संवेगः=मोक्षाभिलापः, निर्जरा कर्मक्षपणं च मनसि यस्य सः, तत्वार्थश्रद्धानान्मोक्षरुचिस्ततो निर्जरा, तद्वानित्यर्थः, तथा-' पत्रयणवच्छलुभावियमणे' प्रवचनवात्सल्यभावितमनाः प्रवचनानुरागरञ्जितचित्तः, 'उठेऊण य' उत्था य च 'पहढे' महप्टः-अतिशयामुदितः, अतएव-' तुढे ' तुष्टः 'जहाराइणियं' यथारालिक यथापर्यायं लघु पर्यायानुसारेण ' साहवे ' साधून समानसमाचारिकान् मुनीन् 'भावओ' भाषतः-अन्तःकरणेन नतूपर्युष रितया — निमंतइत्ता य ' निमन्त्र्य= आहारग्रहणार्थ संप्रार्थ्य अनन्तरं ' गुरुजणेणं ' गुरुजनेन 'विइण्णे य' वितीर्णेच= के लाभ में भी विषाद से विहीन चित्त वाला, (सुहमणे ) सुखपनसंयम में अनुरक्त चित्त वाला, तथा ( अविग्गहमणे ) संक्लिष्ट मनोभाव से वजितः हायवाला, और ( समाहियमणे ) रागद्वेष से रहित होने के कारण उपशान्त मनवाला तथा (सद्धा संवेगनिज्जरमणे) अद्धातत्वार्थ-श्रद्धान, संवेग-मोक्ष में रुचि और निर्जराकर्मक्षपण इनमें मन रखनेवाला, (पवयणबच्छल्लभाविद्यमणे) प्रवचनानुराग से जिसका चित्त अनुरंजित बना हुआ है ऐसा वह साधू ( उठेऊण य) अपने स्थान से उठकर ( पहढे ) अतिशय प्रमुदित एवं (तुढि) संतुष्ट होता हुआ ( जहागइणियं साहवे ) यथापर्याय-बडे छोटे के क्रमानुसार साधुओं से भावपूर्वक (निमंतहत्ता य) आहार ग्रहण करने के लिये प्रार्थना करे। इसके बाद (गुरुजणेणं विणणे य ) गुरुजनों बड़ो का ५५ विषा६ २डित थिl, "सुहमणे " सुगमन-सयममा अनु२४॥ चित्त qtणा, तथा “ अविग्गहमाणे " समिट मनाला २डित (यवाणा, मने " समाहियमणे ' रागद्वेष २डित बाने सीधे ५Alन्त मनपाणी, तथा "सद्धा संवेगनिज्जरमणे " श्रद्धा-तत्वा भी श्रद्धा, सवेग-भोक्षनी रुचि भने नि। भक्षपमा मन रामनार "पवयणवच्छल्लभावियमणे" प्रययनानुराशीनु वित्त मनुति मन्यु छ मेवा ते साधु ऊठेऊणय' पोताना स्थानथी हीने " पहष्टे" अतिशय मान हित भने “ तुदि” संतुष्ट थने “जहाराइणियं. साहवे', यथा पर्याय-नाना भाटाना उभ प्रमाणे साधुमाने भावपूर्व “ निमंतइत्ताय" मा.२ ७९] ७२वाने माटे विनाति ४२ त्या२ मा “गुरुजणेणं विइण्णेय" शुरुमनी 4 मायेस माहार " तमे लोसन रो" मेवी माज्ञा For Private And Personal Use Only Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुवशिनी टीका अ० १ सू०९ भावनास्वरूपनिरूपणम् दत्ते सति 'भुङव त्वमशनादिक ' मित्यनुज्ञाते वा सति, 'उपविटे' उचितासने उपविष्टः सन् ‘ससीसं कायं ' सशीर्ष कायं-सपूर्ण शरीरं, तथा='करयलं' करतलं च ' संपमज्जिऊग ' संगमाज्य 'अनुच्छिए' अमूछितः आहारविषये मूछारहितः ' अगिधे ' अगृद्धः-अमाप्तरसेऽप्यासारहितः, ' अगढिए ' अग्रथितः रसानुगताकाङ्क्षारूपतन्तुजालैरनावद्धः, तथा-' अगरहिए ' अगर्हितः आहारविपयै अकृताहारगर्हः, अकृतदाहगईश्थेत्यर्थः, तथा-'अणझोपवण्ये ' अनध्युपपन्नः= रसविषये लोलुपतावर्जितः, तथा-' अणाइले' अमाविला अालुपः 'अलुद्धे' अलुब्धो-लोभरहितः, तथा ' आतहिए' अनात्माथिका-नकेवलमात्मस्वर्थीपरमार्थकारीत्यर्थः, असुरसुरं' मुरमुरशब्दरहितम् , ' अचवचवम् ' चपड़ चपड़ दिया हुआ आहार “ तुम भोजन करो" इस प्रकार आज्ञा मिलने पर वह साधु ( उवविठे ) उचित आसन पर बैठ कर (ससीसं कायं करयलं सपज्जिऊण) मस्तक से लेकर अपने समस्त शरीर को और करतल को अच्छी तरह प्रमार्जित करे । प्रमार्जित करके (अमुच्छिए ) आहार के विषय में अमूछि बना हुआ वह साधु ( अगिद्धे ) अप्राप्त रस में आकांक्षा से रहित, तथा (अगढिए ) रसानुगत आकांक्षा रूप तन्तुजाल से, अनाबद्ध तथा (अगरहिए)-आहार के विषय में अथवा दाता के विषय में नहीं करने से रहित और (अगझोपवण्णे) रस के विषय में लोलुपता से विहीन बन कर आहार करें। उस समय वह (अणाइले ) अनाविल-अकलुए और ( अलुद्धे) अलुब्ध-लोभरहित होकर (अणतहिए ) अनात्मार्थिक-केवल आत्मस्वार्थी न बनता हुआ आहार करते समय वह ( असुरासुर) सुर सुर भात ते साधु “ उत्रविद्वे" योग्य मासन ५२ मेसीने “ससीसं कार्यकरयलं सपमज्जिऊण" शि२थी ने पोताना आमा शरीरने तथा जान सारी शते प्रभाजित ४ीने “ अमुच्छिए " म।।२ना विषयमा मभूति नान ते साधु “ अगिद्ध" Kात २सनी २ixiक्षायी २हित तथा “अगढिए " २सानुगत 24क्षा३५. तन्तुथी भानामा-भुत तथा “ आरहिए " माडी२ना विषयमा हाताना विषयमा गई ४२वानी जियाथी २हित तथा “ अणज्झोववण्णे” २सनी मतमा दुयता २डित मनीने मा.२ ४२३ नये. ते समये ते “ अणाइले " मनाविस-४देश २डित अने" अलुढे " मदुग्धसोलरहित / “अणदिए” मनात्मार्थि-Pाभस्वार्थी न मने था।२ ४२ती मते ते " असुरसुर” "सुर सु२॥ श न रे "अचवचवं" For Private And Personal Use Only Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ६३६ व्याकरणसूत्रे • शब्दरहितम् ' अद्दु ' अद्भुतम् - नातिशीघ्रम् ' अविलंबियं ' अविलम्बितम् = नातिगन्दम् 'अपरिपाडियं' अपरिशाटितम् - परिशाटनवर्जितम्, बिन्द्वापातयजित्यर्थः, तथा - ' आलोयभायणे ' आलोकभाजने = प्रकाशयुक्तपात्रे ' जयं ' यतं = यतनापूर्वकम् ' अप्पमत्तेण ' अप्रमत्तेन - सावधानेन 'ववगयसंजोगं' व्यपगत संयोगम् = संयोजनादो परहितम् अधिकलवणादियुक्तवस्तुनोऽल १ लवणादियुक्तवस्तुनि संमेलनंसंयोगस्तद्रहितमित्यर्थः, ' अजिंगालम् ' अनङ्गारम् अङ्गारदेोपवर्जितं रागरहितमित्यर्थः, तथा - 'विगयधूमं ' विगतधूमं धूमदोषवर्जितं द्वेपरहितमित्यर्थः, तदुक्तम्'रागेण सइंगालं दोसेण सधूमगं वियागादि' इति, तथा-'अक्खोवंजणवणाणुलेवणभूर्य' अक्षोपाञ्जनव्रणानुलेपनभूतम्-तत्र अक्षस्य =शकटधुरः, उपाञ्जनम् - - [-तैलाभ्यञ्जनम् तथा - 'वणाणुलेवण' व्रणानुलेपनं त्रस्य= स्फोटकस्य अनुलेपन पधलेपनम् तयोर्भूतं = सदृशं यत्तत्, तथा संजमजायामायानिमित्तं संययात्रा मात्रा निमित्तं 1 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शब्द न करे (अचवचलं ) चपड चपड शब्द न करे । (अनुयं ) न बहुत जल्दी जल्दी (अविशेषियं ) न बहुत धीरातथा (अपरिसाडियं) खाते समय आहार के सीध को जमीन पर नहीं गिराता हुआ (आलोयभावणे) प्रकाशयुक्त पात्र में (जयं) घतना पूर्वक ( अप्पमत्तेणं ) बड़ी सावधानी के साथ ( ववमय संजोग ) संयोजनादि दोषरहित- अर्थात्अधिक लवण आदि से युक्त वस्तु को अल्प लवण आदि से युक्त वस्तु के साथ न मिलाकर (अणिगालं च ) अंगार दोष रहित आहारसामग्री में राग रहित तथा (विजयधूमं ) धूम दोषरहित - देवरहित (अक्खोवंजगवणाणु लेवणभूयं ) जिस प्रकार शकर की धुरा में तैल का लगाना भारवहन के निमित्त ही किया जाता है और दूसरे किसी प्रयोजन के लिये नहीं किया जाता है तथा व्रण- घाव पर मरहमपट्टी आदि का (6 13 ચપડ પડે शब्द न उरे. “ अद्दुयं ” वधारे अडपथी जाय नहीं, ‘अविलंबिय' " वधारे धीभेथी माय नहीं तथा " अपरिसाडियं " जाती वमते महारना पहार्थने भीन पर पड़वा दीघा विना " आलोयभायणे " प्राश वाजा यात्रभां " जयं " यतना पूर्व " अप्पमत्तेनं" घड़ी सावधानीथी “ बयगयसंजोगं " सयोन्नाहि दोष रहित भेट में पधारे भीठा आदि बाजी वस्तुने थोडा भीठा याहि वाणी वस्तु साथै त्रर्या विना " अणिगालं च" अगार होष रहित भाडार सामग्रीमा राम रहित तथा " विगयधूमं " धूभ दोष रहित द्वेष रहित " अक्खोवंजणपणाणुलेवणभूयं " प्रेम गाडानी घरीभां તેલનું સિંચન ભારવહનને માટે જ કરાય છે. પણ બીજા કોઈ કારણે કરાતુ For Private And Personal Use Only Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० १ सू० ९ भावनास्वरूपनिरूपणम् संयमयात्रा-संयमपरिपालनं सैव मात्रा-आलम्बनं तन्निमित्तं तद्धेतोः संयमयाजानिर्वाहार्थमेवेत्यर्थ, तथा-' संजमभारवहणट्टयाए' संयमभारवहनार्थतया संयमभारवहनार्थम् , तथा-' पाणधारणट्ठयाए ' प्राणधारणार्थतया प्राणधारणार्थ च 'संजए णं' संयतः खलु — समियं ' सम्यक्-यतनापूर्वक समिकं वा-समभावेन, 'मुंजेज्जा' भुञ्जीत । यथा अक्षस्योपाञ्जनं भारवहनार्थमेव विधीयते, नान्यप्रयोजनार्थम् , यथा च व्रणानुलेपनं तन्नित्यर्थमेव विधीयते, तथैव-संयमयात्रानि हार्थ-संयमभारवहनार्थ प्राणधारणार्थ च साधुर्भुनीत, न तु शरीरबलवृद्धयर्थ रूपलावण्यवृद्धथै चेत्याशयः । एवम्-अमुना प्रकारेण आहारसमितियोगेन भावितो भवति अन्तरात्मा। भावितात्मा कीदृशो भवति ? इत्याह-अशवलासंक्लिष्टनिव्रणचरित्रभावनया हेतुभूतया अहिंसकःसंवतःसुसाधुर्भवति । एषां पदानामर्थो द्वितीयभावनायां व्याख्यातस्ततोऽवगन्तव्यः ॥ सू० ९ ॥ प्रयोग उसकी निवृत्ति के लिये किया जाता है उसी तरह ( संजमजायामाया निमित्तं ) संयमयात्रा के निर्वाह के लिये ( संजमभार वहण. द्वाए ) संयम रूप भार को ढोने के लिये और (पाणधारणठ्याए ) प्राण धारण के लिये (संजएणं ) संयत-मुनि (समिय) यतना पूर्वक समभाव से (भुजेज्जा) आहार करे। किन्तु शारीरिक बलवृद्धि के लिये तथा रूपलावण्य की वृद्धि के लिये नहीं करे। (एवमाहारसमिइजोगेण भाविओअंतरप्पा असबलमसंकिलि निव्वणचरित्त भावणाए अहिंसए संजए सुसाहू) इस प्रकार का आहार समिति के योग से अंतरात्मा भावित हो जाता है। भावित हुआ वह अन्तरात्मा अशबल, असंक्लिष्ट एवं निव्रण (निरतिचार)चरित्र की भावना के कारण अहिंसक और संयत बन जाता है, और सच्चे रूप में साधु-मोक्ष को साधन करने वाले इस नाम को चरितार्थ कर लेता है। नथी से प्रभाणे " संजमजायामायानिमित्तं " सयभयात्राना निवाडने भाट " संजमभारवहणढाए " सयभ३४ी मारनु पाउन ४२वाने भाटे मने "प्राणधारणटाए " प्राणधाराने भाटे " संजएणं" सत-मुनि “समिय" यतना पू'४ सममाथी "भुजेज्जा" माहा२ ४२. पण शारी२४ पm धारवाने भाटे तथा ३५सा१९यनी वृद्धिने माटे न ४२. " एवमाारसमइजोगेण भावेण अंतरप्पा असबलमसंकिलिट्टनिब्याणचरित्तभावणाए अहिंसए संजए सुसाह " આ રીતે આહાર સમિતિના ચેગથી અંતરાત્મા ભાવિત થયે જાય છે. ભાવિત થયેલ તે અત્તરાત્મા અલબેલ, અસલિષ્ટ અને નિર્વાણ ચારિત્રની ભાવનાને કારણે અહિંસક તથા સંયત બની જાય છે, અને સાચા અર્થમાં સાધુ મોક્ષને સાધન કરનારને નામને ચરિતાર્થ કરે છે. For Private And Personal Use Only Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -- - - प्रश्नव्याकरणसूत्रे ___ भावार्थ-इस सूत्र द्वारा सूत्रकार ने एषणा समिति नाम की चतुर्थ भावना का स्पष्टीकरण किया है। इसमें वस्तु का गवेषण, उसका ग्रहण तथा उपयोग, इत तीन बातों का विचार किया जाता है । उंछ आहार की गवेषणा करते समय साधु को अज्ञात, अकथित आदि रूप में रह कर ही विचरना चाहिये । आहार प्राप्त होगा या नहीं होगा' इस प्रकार के संदेहयुक्त विचार से उसे विषाद भावसंपन्न नहीं होना चाहिये । अपने छारा गृहीत संयम की जिस प्रकार रक्षा हो ऐसा ही प्रयत्न उसको करते रहना चाहिये तथा जो संयम भाव प्राप्त नहीं हुआ है उसकी प्राप्ति में उसका सनत उद्योगी रहना चाहिये । भिक्षा का लाभ न होने पर उसके चित्त में ग्लानि का भाव नहीं जगना चाहिये । और न क्रोधादि के आवेश में आकर तनतनाट करना चाहिये। भिक्षा प्राप्ति के निमित्त उसे अनेक गृहस्थों के घर पर जाना अनिवार्य है। वहां से वह अल्परूप में प्रत्येक घर से भिक्षा ले। जब देखे की भिक्षा की पूर्ति हो गई है तो वह वापिस उपाश्रय में आवे और गुरु के समक्ष प्राप्त भिक्षा को रखकर गमनागमनजन्य अतिचारों की प्रतिक्रमण करके शुद्धि करे । फिर गुरु के पास अथवा गुरुनिर्दिष्ट अन्य और रत्नाधिक मुनि के समीप जिस २ प्रकार से उसने गोचरी ભાવાર્થ-આ સૂત્ર દ્વારા સૂત્રકારે મિતિ નામની સાથે ચોથી ભાવનાનું સ્પષ્ટીકરણ કર્યું છે. તેમાં વસ્તુના ગપણ, તેનું ગ્રહણ, તથા ઉપ ગ, એ ત્રણ વાતને વિચાર કરાયો છે. ઉંછ આહારની ગવેષણ કરતી વખતે સાધુએ અજ્ઞાત, અકથિત, આદિ રૂપમાં રહીને જ વિચરવું જોઈએ. આહાર પ્રાપ્ત થશે કે નહીં થાય” એવા સંદિગ્ધ વિચારથી તેણે વિષાદ કર જોઈએ. નહી. પિતે ગ્રહણ કરેલ સંયમની જે પ્રકારે રક્ષા થાય એ જ પ્રયત્ન તેણે કરતા રહેવું જોઈએ તથા જે સંયમ ભાવ પ્રાપ્ત થયું નથી તેની પ્રાપ્તિ માટે પ્રયત્નશીલ રહેવું જોઈએ, ભિક્ષા પ્રાપ્ત ન થતા તેના મનમાં ગ્લાનિને ભાવ ઉત્પન્ન થ જોઈએ નહીં. અને ક્રોધાદિના આવેશમાં આવીને તનતનાટ કરે જોઈએ નહીં ભિક્ષા પ્રાપ્તિને માટે અનેક ગૃહસ્થને ઘેર જવું તે તેને માટે અનિવાર્ય ગણાય છે. ત્યાંથી પ્રત્યેક ઘરેથી તે થોડી થોડી ભિક્ષા ગ્રહણ કરે. જ્યારે ભિક્ષાની પ્રાપ્તિ પૂર્ણ થઈ ગયેલી લાગે ત્યારે તે ઉપાશ્રયમાં આવીને ગુરુની સમક્ષ પ્રાપ્ત થયેલ ભિક્ષાને મૂકીને ગમનાગમન જન્ય અતિચારેની પ્રતિક્રમણ કરીને શુદ્ધિ કરે. પછી ગુરુની પાસે અથવા ગુરુનિર્દિષ્ટ બીજા કોઇ ત્રિરત્નધારી સાધુની પાસે તેણે જે જે પ્રકારે ગોચરી પ્રાપ્ત કરી For Private And Personal Use Only Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदशिनी टीका अ० १ सू०९ भावनास्वरूपनिरूपणम् भिक्षा प्राप्त की है उसकी आलोचना करें। इस तरह प्रमाद वर्जित घनकर वह आगामी काल में इस बातकी विशेष सावधानी रखे की जिससे उद्गमादि दोषों का आहार में परिहार (निवारण) होता रहे। कायोत्सर्गकरके वह आहार में अनातुर बनकर शांति-सुखपूर्वक बैठ जावे। और जबतक आहार करने का समय न आवे इसके पहिले अपने मन को ध्यान, शुभयोग, ज्ञान, और स्वाध्याय में लगावे। किसी भी प्रकार का संक्लिष्ट भाव अपने मन में न आने देवे । याद में जब आहार का समय आ जावे तब उठकर यथापर्याय अर्थात् बडे छोटों के क्रम से समस्त साधूजनों को योग की अवक्रतापूर्वक आहार के लिये आमंत्रित करे ! गुरुजन जब भोजन करने की आज्ञा प्रदान करें तब अपने सशीर्ष शरीर आदिका प्रमार्जन कर, अमूच्छित आदि भाव संपन्न बनकर यतनापूर्वक आगमोक्त विधि के अनुसार आहार करें। आहार करते समय इस बात का वह ध्यान रखे कि यह आहार में शरीर में बलवृद्धि के निमित्त अथवा कांति आदि बढाने के निमित्त नहीं कर रहा हूं किन्तु संयमयात्रा के निर्वाह के निमित्त संयमभार वहन करने के निमित्त, और प्राणधारण के निमित्त ही कर रहा है। इस प्रकार आहारसमिति के योग से यह जीव वासित हो जाता है-तो वह अपने गृहीत व्रत के अहिंसा अतिचार आदि दोनों से रक्षित करता हुआ सच्चा अहिंसक संयत હોય તેની આચના કરે. આ રીતે પ્રમાદ રહિત બનીને તે ભવિષ્યમાં તે વાતની વધારે કાળજી રાખે કે જેથી ઉદ્રમાદિ દેને આહારમાં ત્યાગ થતો રહે. કયેત્સર્ગ કરીને આહાર માટે આતુર બન્યા વિના તે શાંતિથી બેસી જાય. અને આહાર કરવાનો સમય ન થાય ત્યાં સુધી પોતાના મનને ધ્યાન, શુભયોગ, જ્ઞાન અને સ્વાધ્યાયમાં લીન કરે, કઈ પણ પ્રકારને સંકિલષ્ટભાવ પિતાના મનમાં થવા દે નહીં. પછી જ્યારે આહાર કરવાનો સમય થાય ત્યારે ઉઠીને પર્યાય પ્રમાણે એટલે કે મોટા-નાનાના કમમાં સમસ્ત સાધુઓને વિનય પૂર્વક આહારને માટે આમંત્ર, ગુરુજન જ્યારે ભોજન લેવાની આજ્ઞા આપે ત્યારે પિતાના શિર શરીર આદિનું પ્રમાર્જન કરીને, અમૂચિત આદિ ભાવયુક્ત બનીને યતના પૂર્વક આ ક્ત વિધિ પ્રમાણે આહાર કરે આહાર કરતી વખતે તેણે તે વાતનું ધ્યાન રાખવું કે હું આ આહાર શરીરમાં બળ વધારવા માટે કે રૂપ વધારવા માટે કરતા નથી પણ સંયમયાત્રાના નિર્વાહ માટે સંયમભાર વહેવાને માટે, અને પ્રાણધારણને માટે જ કરું છું. આ પ્રમાણે આહાર સમિતિના ચગથી તે જીવ વાસિત થઈ જાય છે તે તે પિતે For Private And Personal Use Only Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नध्याकरणसूध अथ पञ्चमी निक्षेपभावनामाह- पंचमं ' इत्याहमलम-पंचमं पीढफलग सेज्जा संथारगवत्थपत्तकंबलदंडगरयहरण चोलपट्टगमुहपत्तिगपायपुंछणाद्धि, एयपि संजमस्स उबवूहणट्टयाए वायातवदंसमसगसीयपरिरक्खणट्ठयाए उवगरणं रागदोसरहियं परिहरियव्वं, संजएणं निच्चं पडिलेहण पप्फोडणापमज्जणाए अहो य राओ य अप्पमत्तेण होइ सययं निक्खियव्वं च गिहियव्वं च भायण भंडोवहि उवगरणं । एवं आयणभंडणिक्खेवणासमिइजोगेण भाविओ भवइ अंतरप्या असबलमसंकिलिट्ठनिव्वणचरित्त भावणाए अहिंसए संजए सुसाहू ॥ सू० १०॥ टका-पंचमं' इत्यादि__'पंचमं ' पञ्चमीमादाननिक्षेपसमित्तिरूपां भावनामाह - पीढफलगसेज्जा संथारगवत्थपत्तकंबलदंडगरयहरणचोलपट्टगमुहपोत्तियपायपुंछणाई ' पीठफलकशय्यासंस्तारकवस्त्रपात्रकम्बलदण्ड करजोहरणचोलपट्टकमुखपोतिकापादपोञ्छनादि, तत्र-पीठं-काष्ठमयं 'पाट ' इति प्रसिद्धमासनम्- ' फलकः= 'बाजोट' पन जाता है । और सुसाधु नामको सफल करता है। ॥ सू०१॥ अब सूत्रकार पांचवी जो निक्षेपभावना है उसे प्रकट करने के लिये सूत्र कहते हैं-'पंचमं ' इत्यादि। टीकार्थ-(पंचम) पांचवीं भावना आदान निक्षेपसमितिरूप है वह इस प्रकार है (पीढफलगज्जासंथारगवत्थपत्तकंबलदंडगरयहरणचोलગ્રહણ કરેલ અહિંસાવતનું અતિચાર આદિ દેથી રક્ષણ કરતે થક સાચે અહિંસક સંત બની જાય છે અને સુસાધુ નામને સફળ કરે છેસૂલા હવે સૂત્રકાર પાંચમી જે નિક્ષેપ ભાવના છે તેનું વર્ણન કરવાને માટે डे -“ पंचमं " त्या Ast-" पंचमं " पांयी मापना आदाननिक्षेपसमिति नामनी छे ते भा प्रभारी छे-पीढ फलग सेज्जासंथारगवस्थपत्तकवल दंडगरयहरणचोलपट्टगमुहपत्तिग For Private And Personal Use Only Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ०१ सू०१० भावनास्वरूपनिरूपणम् इति प्रसिद्धः, शय्या शरीरप्रमाणलक्षणा, संस्तारका सार्द्धहस्तद्वयप्रमाणआसनविशेषः, वस्त्रं, पात्रं, कम्बलश्च प्रसिद्धाः, दण्डकारोगिभिवृद्धैश्च गमनागमानर्थ रक्षिता यष्टिा, रजोहरणं, चोलपट्टकः, तथा-मुखपोतिका-सदोरमुखवस्त्रिका, पादपोञ्छनं-प्रमाणिका, एतान्यादौ यस्य तत् , इत्यादिकम् , 'उवगरणं' उपकरण साधोरस्ति । ' एयंपि' आडारवदेतदपि पीठफलकादिकं ' संजमस्स,' संयमस्य-सप्तदशविधस्य ' उबबूयणट्टयाए ' उपबृंहणार्थम्-पोषणार्थम् भवति । अतः 'वायातवदंसमसगसीयपरिरक्षणट्ठयाए ' वातातपदंशमशकशीतपरिरक्षणार्थ 'संजएणं ' संयतेन मुनिना ' रागदोसरहियं ' रागद्वेषरहितं यथा स्यात्तथेदम् उपकरणं 'परिहरिय' परिधर्तव्यम् धारणीयमित्यर्थः । तथा 'निच्चं' नित्यं तेषां यथायोग्यं 'पडिलेणा पफोडणापमज्जणाए' प्रतिलेखना पस्फोटनाममार्जनासुतत्र-प्रतिलेखना-उभयकालं प्रत्युपेक्षणा, प्रस्कोटना=यतनया विधूननम् ,ममार्जना पदृगनुहपत्तिगपायपुंछणाइ) पीठ-पाट, फलक-बाजोट-शय्या शरीरप्रमाणविछौना, संस्तारक-अढाईहाचप्रमाणआसनविशेष, वस्त्र, पात्र, कम्बल, दण्ड-रोगी अथवा वृद्ध साधुओं द्वारा अपने पास गमनागमनार्थ रक्खी हुई लकड़ी, रजो हरण, चोलपट्टक, मुखपोतिका-सदोरकमुखवस्त्रिका और पादप्रोञ्छन-प्रमार्जिका इत्यादि उपकरण साधु के हैं। ( एयंपिसंजमस्स उचहणट्टयाए ) आहार की तरह ये भी सतरह प्रकार के संयम का पोषण के लिये हैं। इसलिये इनका (वायातवदंसमसग सीयपरिरक्खणट्टयाए संजएणं रागदोसरहियं परिहरियव्वं ) वात-(पवन) आतप-धूप, दंश, मशक एवं शीत से रक्षित होने के लिये मुनि को रागद्वेषरहित होकर धारण करना चाहिये । तथा (निच्च ) नित्य ही (पडिलेहणा पफोडणा पमज्जणाए) इन उपकरणों में से भाजन भाण्ड पायपुंछणाइ” पीठ-पाट, फलक-माने, शय्या-AN२॥ प्रभाशुर्नु पाथ२८ संस्तारक-मढ़ी थन! मापर्नु सासनविशेष, पत्र, पात्र, ४५८, दण्ड-रोगी અથવા વૃદ્ધ સાધુઓ દ્વારા પિતાની પાસે આવવા જવા (ટેકા માટે) રાખેલી all, २०२४, यास५४७, मुखपोत्तिका २सडित पत्ति, भने पाही-छन. प्रभााि त्याहि साधुना ७५४२ । छे. 'एयपि संजमस्स उववृहणद्वयाए " આહારની જેમ એ પણ સત્તર પ્રકારના સંયમના પિષણ માટે છે. તેથી તેમને " वायातवदंसमसगसीयपरिरक्खणद्वाए संजएणं रागदोसरहिय परिहरियव्व" વાત-પવન, આતપ, તડકે , દંશ, મશક અને શીતથી રક્ષણ પામવાને માટે મુનિએ રાગદ્વેષ રહિત થઈને તેમને ધારણ કરવા જોઈએ. તથા “નિશ” હમેશા " पडिलेहणापमज्जगाए" को 8५४२ माथी lar eis मने उपधिनी प्रति. प्र० ८१ For Private And Personal Use Only Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६४२ प्रश्नव्याकरणसूत्रे रजोहरणादिभिः संमार्जना, तामु कृतासु-प्रतिलेखनादिकरणानन्तरमित्यर्थ' अहो य राओ य ' अहश्च रोत्रौ च ' भायणमंडोवहिउवगरण ' भाजनभाण्डो. पध्युपकरणं-तत्र-भाजन-पात्रम्, भाण्डम्-उन्दकम् , उपधिःवस्त्रम् , एतत्त्रितयरूपं यदुपकरणं तत् , ' अप्पमत्तेणं ' अप्रमत्तेन सता 'सययं' सततं-निरन्तरं 'निक्खिव्वं ' निक्षेप्तव्यं-स्थापनीयं 'गिहियव्वं ' ग्रहीतव्यं च ' होइ' भवति एवमादानभाण्डनिक्षेपणासमितियोगेन भावितो भवति अन्तरात्मा-जीवः । भाविताऽन्तरत्मा कीदृशो भवति ? इत्याह-अशवलासंक्लिष्टनिव्रणचारित्र भावनया हेतु. भूतया अहिंसकः संयतः सुसाधुर्भवति, एतेषामर्थः पूर्वमुक्तः, तत एवावगन्तव्याम्१. और उपधि की प्रतिलेखना प्रस्फोटना प्रमार्जना कर लेने पर-प्रतिलेखना दोनों समय प्रत्युपेक्षणा प्रस्फोटना, प्रमार्जना-रजोहरणादि से पुंजना करके (अहोय राओ य) दिन में और रात्रि में (भायण भंडोवहीऊवगरणं ) भाजन-पात्र, भाण्ड उन्दक, और उपधि-वस्त्र। इन उपकरणों को जमीन पर रखना पडता है, उठाना पडता है। सो ऐसी स्थिति में साधु का यह कर्तव्य है कि वह इन सबको धरते उठाते (सययं ) निरन्तर (अप्पमत्तेणं ) अप्रमत्त रहे । (निक्खियत्वं गिहियव्वं होइ) इन उपकरणों को जब भूमि पर धरे तब उसकी प्रमार्जना करे फिर धरे, उठावे तब उन उपकरणों की प्रमार्जना करके उठावे। इस तरह करने से जीवों की विराधना नहीं हो सकती है। यही साधु की अप्रमत्त अवस्था है। (एव) इस तरह ( आयाण भंडनिक्खवणासमिइजोगेण ) आदान भाण्डनिक्षेपणासमिति के योग से (अंतरप्पा ) जीव લેખના પ્રસ્ફોટના પ્રમાર્જના કરી લીધા પછી–પ્રતિલેખન-બને સમય પ્રત્યુપેसया, प्रीटना-यतन माय२७, प्रमार्जना-२०१२ माहिथी ५ वगेरे ४ा पछी " अहोय राओय" हिवसे तथा रात्र "भायण भंडोवहिउवगरणं " लालन-पात्र, भाण्ड-६४ मने उपधि-१२०, ५४२ ने भीन 6५२ રાખવા પડે છે, તથા ઉપાડવા પડે છે. તે એવી પરિસ્થિતિમાં સાધુનું એ तव्य छ त से अधाने देता, भूता “ सयय" निरंतर “ अप्पम णं" सभासी २९ निक्खियव्य गिहियव्व होइ" से 6५४२णाने न्यारे भान પર મૂકે ત્યારે તેની પ્રાર્થના કરે અને ફરીથી ત્યાંથી ઉઠાવે ત્યારે તે ઉપકરણની પ્રમાર્જના કરીને ઉઠાવે, આ પ્રમાણે કરવાથી જીવેની વિરાધના થઈ शती नथी. मे ४ साधुनी अप्रमत्त अवस्था छ. “एवमा शत “आयाणाभंड निक्खेवणासमिइजोगेण " माहान is नि:५९! समितिना योगथी " अं. For Private And Personal Use Only Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० १ सू० ११ अध्ययनोपसंहारः सम्प्रतं सूत्रकारः प्रथमसंवरद्वारमुपसंहरन्नाह-' एवं ' इत्यादि मूलम्-एवमिणं संवरदारं सम्म संवरियं होइ, सुप्पणिहियं, इमेहिं पंचहिं वि कारणेहि मणवयणकायपरिरक्खिएहि, णिच्चं आमरणंतं च एस जोगो णेयम्बो धिइमया मइमया अणासवो अकलुसो अच्छिद्दो अपरिसाइं असंकिलिहो सुद्धो सव्वजिणमणुण्णाओ । एवं पढमं संव्वरदारं फासियं पालियं सोहियं तीरियं किट्टियं आराहियं आणाए अणुपालियं भवइ । एवं णायमुणिणा भगवया पण्नवियं परूवियं पसिद्धं सिद्धं सिद्धवरसासणमिणं आवियं सुदेसियं पसत्थं पढमं संवरदारं समत्तं त्ति बेमि ॥ सू-११॥ टीका-' एवमिणं' इत्यादि 'एवमिणं ' एवम्--उक्तक्रमेण इदम्-अहिंसालक्षणं 'संवरदारं' संवरद्वारम् = संवरस्य अनाश्रवस्य द्वारम् उपायः ' सम्म' सम्यक् 'संवरियं' संवृतम्-संसे(भाविओ भवइ) वावित बना हुआ वह जीव हेतुभूत अशबल, असंक्लिष्ट, निव्रण (निरतिचार ) चारीत्र की भावना से अहिंसक संयत बन जाता है। और सच्चेरूप में अपने साधुपद को सार्थक कर लेता है। निर्जन्तु भूमि पर उपकरणों का धरना और उठाना इसका नाम आदानभाण्डनिक्षेपणा समिति है। इस समिति के योग से आत्मा-मुनि अपने अहिंसा महाव्रत की रक्षा और स्थिरता करता रहता है ॥॥ सू० १० ॥ अब सूत्रकार प्रथम संवर द्वार का उपसंहार करते हुए कहते हैंतरप्पा" ७५ " भाविओ भवइ " साक्ति मनी orय छे. सावित मनेर त જીવ હેતુભૂત અશબલ, અસંકિલg, નિત્રણ ચારિત્રની ભાવનાથી અહિંસક સંયત બની જાય છે. અને સાચા અર્થમાં પિતાના સાધુ પદને સાર્થક કરે છે. ભૂમિ પર ઉપકરણને મૂકવા તથા ઉપાડવા તેનું નામ આદાન ભાંડ નિક્ષેત્ર પણ સમિતિ છે. આ સમિતિનાયેગથી આત્મા મુનિ–પિતાના અહિંસા મહાવ્રતની રક્ષા તથા સ્થિરતા કરતા રહે છે કે સૂ-૧૦ છે वे सूत्रा प्रथम स१२वारा उपसार ४२i -"एवमिण" त्यात For Private And Personal Use Only Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे पितं सत् ‘सुपणिहियं ' मुमणिहितं सुरक्षितं ' होइ' भवति । ' मणबयणकायपरिरक्खिएहि मनोवचनकायपरिरक्षितैः-योगत्रयपरिरक्षितैः 'इमेहिं पंचहि वि कारणेहिं' एभिः पञ्चभिरपि कारणैः पूर्वोक्ताभिः पञ्चभिर्भावनाभिः 'णिच्च' नित्यम् 'आमरणतं ' आमरणान्त-मरणपर्यन्तं च ' एसजोगो' एष योग अहिंसालक्षगसंवररूपव्यापारः - धिइमया' धृतिमता-स्वस्थचित्तेन ' मइमया' मतिमता हेयोपादेयमेधायुक्तेन — नेयच्चो' नेतव्यः बोढव्यापरिपालनोय इत्यर्थः । कीट शोऽयं योगः ? इत्याह-अयं योगः- अणासवो' अनाश्रवः-नृतनकर्मागमनरहितत्वात् 'अकलुसो' अकलुपः अशुभाध्यवसायरहितत्वात् , 'अच्छिदो' अच्छिद्रःछिन्नपापस्रोतत्वात् , अपरिस्साई ' अपरिस्रावी विन्दुरूपेणापि कर्मजलप्रवेशरहि'एवमिण' इत्यादि टीकार्थ | ( एवमिण संवरदारं सम्मं संवरियं सुपणिहियं होइ) उक्त क्रमसे यह अहिंसारूप प्रथम संवरद्वार सेवित किये जाने पर सुरक्षित हो जाता है। (मणवयणकायपरिरक्खिएहिं ) इसलिये मन वचन और काय इन तीनों योगों से अच्छी तरह सुरक्षित किये गये (इमेहिं पंचहिं वि कारणेहिं) इन पूर्वोक्त पांच भावनारूप कारणों से (निच्चं ) नित्य (आमरणंतं ) मरणपर्यंत-जीवन भर तक (एस जोगो) इस अहिंसारूप संवरद्वार का (धिइमया) स्वस्थचित्त से युक्त एवं (मङ्मया) हेयोपादेय की बुद्धि से संपन्न होकर मुनि को (नेयन्यो) परिपालन करना चाहिये । क्यों कि यह अहिंसारूप संवर योग (अणासवो) नूतन कर्मागनन को रोकने का कारण होने से अनावरूप है । (अकलुसो) अशुभ अध्यवसाय से रहित होने के कारण अकलुष रूप है। (अच्छि दो ) इससे पापका स्रोत नष्ट हो जाता है इस कारण से यह टी-"एवमिणं संवरदार सम्म संवरिय सुपणिहिय होइ' l प्रमाना કમથી આ અહિંસારૂપ પ્રથમ સંવરદ્વારનું સેવન કરવાથી તે સુરક્ષિત થઈ જાય छ “मणवयणकायपरिरक्खिएहि" तेथी मन, क्यन भने य त्रो योगाथी सारी सुरक्षित राय " इमेहि पंचहि विकारणेहि" ये पूरित पांय भावना३५ आशाथी "निच्चं " । " आमरणतं " भ२५ त-मान, "एसजोगो” मा माडिंसा३५ सपरवान " धिइमया" स्वस्थ चित्तथी मने " मइमया " यो पायिनी मुद्धिथी युद्धत ने मुनिये “नेयव्यो” परियासन ४२ . ॥२५ मा डिंसा३५ सपश्योग " अणासवो नवा भगमनने २।४वाने १२ भूत वाथी ने मनाश्रव ३५ छ. " अकलुसो" मशुल मध्यवसायथी २डित डावाने पारणे मनुष३५ छे. “अच्छिद्दो' तेनाथी पापना प्रवाह ना पामे छे ते ॥ो ते मछिद्र३५ छ. " अपरिस्साई " For Private And Personal Use Only Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० ५ सू०११ अध्ययनोपसंहारः तत्वात् , ' असंकिलिट्ठो' असंक्लिष्टः-असमाधिभाववर्जितत्वात् ' सुद्धो' शुद्धःकर्ममलवर्जितत्वात् ' सव्वजिणमणुण्णाओ' सर्वजिनानुज्ञातः-सकलप्राणिहितकारकत्वात् सर्वेषामहंतामनुमतश्चास्ति । एवम्-उक्तप्रकारेण 'पहमं संवरद्वारं ' प्रथमं संवरद्वारं, , फासियं स्पृष्टं कायेन, ' पालियं' पालितं सततमुपयोगेन सेवितम् , ' सोहियं ' शोधितम्-अतिचारवर्जनेन, 'तीरियं ' तीरित-तीरं प्रापितं पूर्णरूपेण सेवितम् , 'किट्टियं' कीर्तितम् अन्येषामुपदिष्टम् , तथा 'आराहिय' आराधित-त्रिकरणत्रियोगैः सम्यगाचरितम् , ' आणाए ' आजया-सर्वज्ञवचनेन, 'अणुपालियं ' अनुपालितं च भवति । एवम् उक्तरूपं संवरद्वारं केन कथितम् ? अच्छिद्ररूप है । ( अपरिस्साई ) एक विन्दु मात्र भी कर्मरूप जल का इस में प्रवेश नहीं हो सकता है अतः उससे रहित होने के कारण यह अपरिस्रावी है । (असंकिलिट्ठो) असमाधिरूप भाव से यह वर्जित होता है इसलिये असंक्लिष्ट है। तथा (सुद्धो) कर्ममल से सर्वथा विहीन होने के कारण यह शुद्ध है। इसीलिये यह (सव्वजिणमणुण्णोओ) समस्त अर्हत भगवंतों को अनुमत-मान्य हुआ है क्यों कि इसीसे सकल प्राणियों का हित हुआ है। (एवं पढमं संवरदारं ) उक्त प्रकार से प्रथम संवरद्वार को (फासियं) जो अपने काय से स्पर्श करते हैं (पालियं) निरन्तर ध्यान पूर्वक इसका सेवन करते हैं (सोहियं ) अतिचारों से इसे रहित बनाते हैं (तीरियं ) पूर्णरूप से इसे अपने जीवन में उतारते हैं (किटियं ) दूसरों को इसे धारण करने का उपदेश देते हैं तथा (आराहियं) तीन करण तीन योगों से जो इसे अच्छी तरह आचरित करते हैं (आणाएअणुपालियं भवइ ) सर्वज्ञ के वचन એક બિન્દુ જેટલા પણ કર્ણરૂપી જળને તેમાં પ્રવેશ થઈ શકતો નથી, તેથી तनाथी २हित जापान ४।२६ ते ५५रित्रावी छ, “असंकिलिछो" असमाधि३५ माथी ते २डित राय छ तेथी ते मसटि छे. तथा “ सुद्धो" भाभाथी सवथा २डित डावाने आणे ते शुद्ध छे. तेथी ते “ सव्वजणमणुप्रणाओ" समस्त मत मानाने मान्य थयेर छे, ॥२७ है तनाथी सपा प्रासानु हित थयु छे. “ एवं पढमं संवरदारं " x आरे प्रथम सवारने“फोसिय" ने पोताना शरीरथी २५ ४२ छ “पालिय', निरन्तर ध्यानपूर तेनुं पालन ४३ छे “सोहियं” अतियाशथी तेने २डित मना छ " तीरियं" पू शत नेने पाताना वनमा तारे छ, “किहिय" भने ते पाणयान। पढेश मा छ, तथा " आराहियं " अY ॥२६१ त्र योगोथी २ तेने सारी रीते मायरे छे “आणाए अणुपालियं भवइ " सपना For Private And Personal Use Only Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे इत्याह-'गायमुणिणा' ज्ञातमुनिना-प्रसिद्धक्षत्रियवंशोद्भवेन मुनिना भगवता महावीरेण 'पण्णवियं ' प्रजापितम्-शिष्येभ्यः सामान्यतया कथितम् , 'परूवियं मरूपितं भेदानुभेद पदर्शनपूर्वकं कथितम् , 'पसिद्धं ' प्रसिद्धम्-प्रख्यातम् , सिद्धं -प्रमाणप्रतिष्ठितम् , 'सिद्धवरसासणं' सिद्धवरशासनम्-सिद्धानां-निष्ठितार्थानां वरशासन-प्रधानाज्ञानारूपम् , ' इणं' इदम् ' आघवियं' आख्यातं सर्वतो भावेन कथितम् , 'सुदेसियं' सुदेशितम्=सदेवमनुजासुरायां परिषदि मुष्ट्रपदिष्टं 'पसत्थं के अनुसार ही पालते हैं । ( एवं ) इस प्रकार उक्त रूप यह संवर द्वार (णायमुणिणा) प्रसिद्ध क्षत्रिय वंश में उत्पन्न हुए मुनि (भगवया) भगवान महावीर ने (पण्णवियं) प्रज्ञापित किया है-शिष्यों के लिये सामान्यरूप से कहा है। (परूवियं) प्ररूपित किया है-भेदानुभेद प्रदर्शन पूर्वक कथित किया है। इसलिये यह (पसिद्ध) प्रसिद्ध है-आचा र्यादिकी परंपरा से इसका पालन करना इसीरूप में चला आ रहा है। सथा (सिद्ध) सिद्ध है-इसमें किसी भी प्रमाण से बाधा नहीं आती है अतः प्रमाणप्रतिष्ठित है। तथा (सिद्धवरसोसणमिणं ) जो सिद्ध हो चुके हैं-कृतकृत्य बन चुके हैं-उनका यह वर शाशन रूप है सो इसी को (आवियं ) प्रभु महावीर ने कहा है। और (सुदेसियं) इसका उपदेश उन्हों ने देव, मनुज एवं असुरों सहित परिषदा में अच्छी तरह दिया है । (पसत्थं ) यह प्रथम संवर द्वार समस्त प्राणियों का हितकारक होने से मंगलमय है। (पढमं संवरदारं समत्तं ) इस तरह का क्यन प्रमाणे पाणे छ, “एवं" मा प्रमाणे प्रमाणना २१३५ ते स'१२६२ "णायमुणिणा'' प्रसिद्ध क्षत्रिय शमा उत्पन्न थयेस मुनि “भगवया" लगवान महावीरे “ पण्णवियं " ज्ञापित ४२ छ-शिष्याने माटे सामान्य ३५ ४युं छे “ परूवियं " ५३पित ४२६ छ-महानुले मतापीने ४७ छे. तेथी ते "पसिद्धं " प्रसिद्ध छ-मायायाहिनी ५२५२॥ २२१ शते तेनु ासन ४२वानुं यायु मावे छ मे सिद्ध " सिद्ध थये थे-तेमां 5 પ્રમાણુથી બાધા (મુશ્કેલી) આવતી નથી તેથી તે પ્રમાણપ્રતિષ્ઠિત છે. તથા " सिद्धवरसासणमिणं " रे सिद्ध 45 गयां छे, कृतकृत्य मनी गयो छ-तेभर्नु ते श्रेष्ठ शासन ३५ छे ४।२४५ 3 ते “ आघवियं " मडावीर प्रभु ४३ छे. "सुदेसिय" तेनो पहेश तेभो हेव, भान५ भने असुरे। सहितनी परिषहोमा सारी रीते सापेक्ष छ. “ पसत्थ " . प्रथम पवार समस्त प्राgl. मान भाटे हितसाधडपाथी भागमय छे. “ पढम संवरदारं समत्तं " । For Private And Personal Use Only Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनीटीका अ०५ सू० ४ अध्ययनोपसंहारः 'प्रसस्तं' प्रशस्त-सर्वप्राणिहितकरत्वान्मगुलमयम्, पढम संवरदारं' प्रथमसंवरद्वार 'समत्त 'समाप्तम्, 'त्तिबेमि' इति ब्रवीमि-अस्यार्थःपूर्वमुक्तः ॥ सू० ११ ॥ ॥ इति प्रथमं संवरद्वारं समाप्तम् ॥ ॥ इति श्री विश्वविख्यात-जगवल्लभ - प्रसिद्धवाचकपञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापक-प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक- वादिमानमर्दकश्रीशाहू छत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त . ' जैनशास्त्राचार्य' पदभूषितकोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य- जैनधर्मदिवाकरपूज्यश्री घासीलालबतिविरचिता श्री प्रश्नव्याकरणसूत्रसुदर्शन्या ख्यायां व्याख्यायां संवरात्माके द्वीतीये-भागेऽहिंसानामकं प्रथमं संवरद्वारं समाप्तम् ॥ १ ॥ यह प्रथम संवर द्वार समाप्त हुआ! (त्ति बेमि) हे जंबू। जैसा में ने भगवान महावीर के मुख से इसे सुना है वैसा ही यह मैंने तुम से कहा है-अपनी कल्पना से इसमें कुछ भी नहीं कहा है। ___ भावार्थ-प्रथम संवरद्वार का उपसंहार करते हुए सूत्रकार कहते हैं कि इस संवरद्वार को प्रत्येक मुनिजन के लिये अच्छी तरह उपयोग पूर्वक पांचभावनाओं सहित यावजीव पालन करना चाहिये । इसके पालन करने में यदि कोई परीषह और उपसर्ग आवे तो उन्हें धैर्यपूर्वक सहलेना चाहिये, क्यों कि यह संवर द्वार नवीन कर्मों के आस्रव को रोकता हैं। इसके पालन करने से अशुभ अध्यवसाय उत्पन्न नहीं होने पाते हैं। पापों का स्रोत इसके प्रभाव से बंध हो जाता है। यह प्रा२नु प्रथम सप२६॥२ सपू यु. “त्तिबेमि" ! रे में ભગવાન મહાવીરના મુખેથી સાંભળ્યું છે એવું જ તે મેં તમને કહ્યું છે– મારી કલ્પનાથી તેમાં મેં કંઈ પણ કહ્યું નથી. ભાવાર્થ–પ્રથમ સંવરદ્વારને ઉપસંહાર કરતાં સૂત્રકાર કહે છે કે આ સંવરદ્વારનું પ્રત્યેક મુનિએ સારી રીતે ઉપયોગ પૂર્વક પાંચ ભાવનાઓ સહિત જીવનપર્યત પાલન કરવું જોઈએ. તેનું પાલન કરતાં જે કોઈ પરીષહ તથા ઉપસર્ગ નડે તે વૈર્યથી તેને સહન કરી લેવા જોઈએ, કારણ કે આ સંવરદ્વાર નવીન કને આસ્રવ થતો રેકે છે. તેનું પાલન કરવાથી અશુભ અધ્યવસાય ઉત્પન્ન થવા પામતો નથી. તેના પ્રભાવથી પાપના પ્રવાહથી બંધ થઈ જાય છે For Private And Personal Use Only Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६४८ अपरिस्रावी आदि विशेषणों वाला है। अर्हत भगवंतों ने इसे अपने जीवन में उतार कर ही समस्त जीवों को इसे धारण-सेवन करने का आदेश दिया है । भगवान महावीर ने भी ऐसी हो इस प्रथम संवरद्वार की प्रशंसा की है। और तीर्थकर परंपरा के अनुसार ही उन्हों ने इसे पालन करने आदि का आदेश दिया है। तथा इसका देवमनुषादि सहित परिषदा में उपदेश दिया है, अतः यह प्रमाणप्रतिष्टित है। और मंगलमय है । सू० ११ ॥ ॥ इस प्रकार यह प्रथम संवरद्वार समाप्त हुआ। તે અપરિસ્સાવી આદિ વિશેષણ વાળું છે. અહંત ભગવાને તેને પોતાના જીવનમાં ઉતારીને જ સમસ્ત જીવને તેને ધારણ કરવાને તેનું સેવન કરવાને આદેશ આપે છે ભગવાન મહાવીરે પણ આ પ્રથમ સરકારની એવી જ પ્રશંસા કરી છે અને તીર્થંકર પરંપરા અનુસાર જ તેમણે તેનું પાલન કરવા આદિને અદેશ દધે છે તથા તેને દેવ, મનુષ્યાદિ સહિતની પરિષદમાં ઉપદેશ આપે છે, તેથી તે પ્રમાણભૂત છે અને મંગળમય છે કે સૂ-૧૧ આ રીતે આ પ્રથમ સંવરદ્વાર સમાપ્ત થાય છે. For Private And Personal Use Only Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सत्यवचनं नाम द्वितीयं संवरद्वारम् ॥ गतं प्राणातिपातविरमणं, सम्मति सत्यवचनं भारभ्यते । अस्य पूर्वाध्ययनेन सहायं संम्बन्धः-पूर्व पाणातिपातविरतिरभिहिता, सा तु अलीकवचनविरत्यैव संभवति, इत्येनेन संयन्धेनायातं सत्यवचनाख्यं द्वितीयमध्ययनं प्रारभ्यते, तस्येदमादिमं सूत्रम्-'जंबू एत्तो वितियं च ' इत्यादि____ मूलम्-जंबू ! एत्तो विइयं च सच्चवयणं सुद्धं सुइयं सिवं सुजायं सुभासियं सुकहियं सुब्वयं सुदिढे सुपइडियं सुपइट्टियजसं सुसंजमियवयणदुइयं सुरवरनरवसभपवर-बलवग सुविहिय-जण-बहुमयं परमसाहुधम्मचरणतवनियम-परिग्गहिय सुगइ-पहदेसगं च लोगुत्तमं च वयमिणं विजाहरगगणगमणविजाणसाहगं सम्गमग्गसिद्धिपहदेसगं अवितहं तं सच्चं उच्चुयं अकुडिलं भूयत्थं अस्थओ विसुद्धं उज्जोयगं पभासगं भवइ, सव्वभावाण-जीवलोगे अविसंवाइजहत्थमहुरं पच्चक्खं सत्यवचन नामक द्वितीय संवरद्वार प्रारंभ--- प्राणातिपातविरमण नाम का संवरद्वार कहा जो चुका है। अब सत्यवचन नामका द्वितीय संवरद्वार प्रारंभ होता है। इसका पूर्व अध्ययन के माथ संबंध इस प्रकार से है-जपतक अलीकवचनों से जीव की विरति नहीं होगी-तबतक प्राणातिपात का विरमण संभव नहीं हो सकता । इसी संबंध को लेकर सूत्रकार ने इस द्वितीय सत्यवचन नामक अध्ययन को प्रारंभ करते हैं। इसका यह प्रथमसूत्र है સત્ય વચન નામનું બીજા સંવરદ્વારને પ્રારંભ પ્રાણાતિપાત વિરમણ નામનું પહેલા સંવરદ્વારનું વર્ણન પૂર્ણ થયું. હવે સત્યવચન નામના બીજા સંવરદ્વારના વર્ણનની શરૂઆત થાય છે. તેને આ પ્રકારે આગળના અધ્યયન સાથે સંબંધ છે. જ્યાં સુધી અસત્ય વચનોથી જીવની વિરતિ થતી નથી ત્યાં સુધી પ્રાણાતિપાતનું વિરમણ સંભવી શકતું નથી. એ સંબંધને દર્શાવીને સૂત્રકારે આ દ્વિતીય સત્યવચન નામના અધ્યયનને धान ४२ छ. तेनुं पडे सूत्र मा प्रभारी छ-"जंबू! एत्तो बिइयच". For Private And Personal Use Only Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६५० प्रश्नव्याकरणसूत्रे देवयं च जंतं अच्छेरकारगं अवस्थेतरेसु बहुएसु माणुसाणं सच्चेणं महासमुद्दमज्झे वि चिट्ठति, न निमजति मूढाणिया वि पोया सच्चेण य उदगसंभमंमि वि न वुड्डंति, न य मरंति याहं च ते लन्भंति, सच्चेण य अगणि संभमंमि विन डझति उज्जुगा मणुस्सा । सच्चेण य तत्ततेल्लतउलोहसीसकाई छिव्वंति, धरेंति न डझंति मणुस्सा। पव्वयकडगाहिं मुच्चंते न य मरंति सच्चेण य परिग्गहिया असिपंजरगया समराओ वि णिइंति अणहाय सच्चवाई, वहबंधाभिओगवेरघोरेहिं पमुच्चंति य, अमित्तमम्झाहिं निइंति अणहाय सञ्चवाई । सा देवाणि य देवयाओ करेंति सच्चवयणे रयाणं ॥सू०१॥ टीका-'जंबू' इत्यादि सुधर्मा स्वामी जंबू स्वामिनं प्रत्याह-हे जम्बूः ! ' एत्तो' इतः-प्रथमसंवरद्वारानन्तरम् - विइयं च ' द्वितीयं खलु संवरद्वारं 'सच्चवयणं ' सत्यवचनम् सयो-मुनिभ्यो गुणेभ्यः पदार्थेम्यो वा हितम्-उपकारकं सत्यम् , उक्तंच'जंबू ! एत्तो बिइयं च' इत्यादि। टीकार्थ-श्री सुधर्मा स्वामी जंबूस्वामी से कहते हैं (जंबू!) हे जंबू ! ( एसो) इस प्रथमसंवरद्वार के बाद यह (पिइयं च ) दूसरा संवर द्वार सत्य नामका है सो मैं इसे कहता हूं, तुम सुनो-(सच्च वयणं) " सद्भ्यो हितं " सत्यं अर्थात् सत् का मुनिजन का अथवा गुणों का या पदार्थों का जो वचन हित-उपकारक होता है वह सत्य वचन है। कहा भी है___ -श्री सुधर्भावामी. भू स्वाभान छ “जंबू !" भू ! "एत्तो" मा ५सा स१२६२ ५छी " बिइयच" भाग सत्य नामर्नु सप२वार छ तेतुं हुं वन ४३ छु ते तमे सiel. " सञ्चवयण " " सद्भ्यो हित," : સત્ય એટલે કે સત નું મુનિજનનું અથવા ગુણોનું અથવા પદાર્થોનું જે વચન હિત-ઉપકારક હોય છે. તે સત્યવચન ગણાય છે કહ્યું પણ છે For Private And Personal Use Only Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० २ सू० १ सत्यस्वरूपनिरूपणम् ६५१. " सच्चे हियं सयामिह संतो मुगउ गुणा पयस्था वा " छाया - सत्यं हितं सतामिह, सन्तो मुनयो गुणाः पदार्था वा " इति सत्सु तिष्ठतीति वा, सत्यम्, सत्यं च तद्वचनं च सत्यवचनम्, परमाणत्राणपरायणं हितकरं सुखावहमनुद्वेगजनकं सुधावत्स्वादीयं वचनं सत्यवचनमित्यर्थः । कीदृशं सत्यवचनम् ? तदाह- 'मुद्धं ' शुद्धं - निर्दोषत्वात्, ' सुचियं ' शुचिकं पवित्रत्वात्, ' सिवं ' शिवं = मोक्षजनकस्वाम्, ' सुजायं ' सुजातं - शुभविवक्षया समुत्पन्नत्वात्, 'सुभासियं' सुभाषितम् " सच्चे हियं सयामिह, संतो मुणउ गुणा पयत्था वा " । संतों का हित जिससे होता है वह सत्य मुनि होते हैं या गुण अथवा पदार्थ होते हैं । सत्य की दूसरी व्युत्पत्ति इस प्रकार से भी है (6 सत्सु तिष्ठतीति सत्यं सत्यं च तद्वचनं च सत्यवचनं " जो वचन सज्जन पुरुषों में रहता है वह सत्यवचन है । यह सत्यवचन पर के प्राणों के प्राण करने में परायण होता है, सब के हितकारी होता है, सुखदायक होता है, उद्वेगजनक नहीं होता है, और सुधा के जैसे स्वादीय- अत्यंत मधुर होता है । ( सुद्धं ) सत्यवचन में किसी भी प्रकार का दोष नहीं होता है अतः निर्दोष होने से यह शुद्ध है (सुइयं) इसमें किसी भी प्रकार की अपवित्रता नहीं होती है अतः यह पवित्र होने से शुचिक है । (सिवं ) इस वचन से जीवों को मोक्ष की प्राप्ति होती है इसलिये मोक्षजनक होने से यह शिवरूप है। ( सुजायं ) हार्दिक शुभ भावना से प्रेरित होकर ही ऐसा वचन बोला जाता है " " सच्चं हि यं सयामिह, संतो मुगउ गुणा पयत्था वा સતનું હિત જેનાથી થાય છે તે સત્ય છે, મુનિ અથવા ગુણુ અથવા પદાર્થ मे अारनां सत्य छे. सत्यनी जील व्युत्पत्ति या प्रमाणे पशु छे " सरसु तिष्ठतीति सत्यं सत्यं च तद्वचं च सत्यवचनं " समन पुरुषोमां ने वयन રહે છે તે સત્યવચન છે. તે સત્યવચન અન્યનાં પ્રાણેાનું રક્ષણ કરવાને સમથ હાય છે, બધાને માટે હિતકારી હોય છે, સુખદાયક હોય છે, ઉદ્વેગજનક हातुं नथी, अमृत नेतुं अतिशय भीठु होय छे. “ सुद्ध ं ” सत्यवयनभां । પણ પ્રકારને દોષ હાતા નથી, તેથી નિર્દોષ હેાવાથી તે શુદ્ધ છે. “ 'सुइय' તેમાં કોઇપણ પ્રકારની અપવિત્રતા હોતી નથી તેથી તે પવિત્ર હોવાથી શુચિક छे. " सिव " ते वयनथी लवोने मोक्षनी प्राप्ति थाय छे, तेथी भोक्षन होवाथी ते शिव३५ छे. “ सुजाय " डा शुल भावनाथी प्रेराईने मे વચન ખેલાય છે, તેથી શુભ ભાવનામાંથી ઉદ્ભવેલ હાવાથી તે સુજાત છે. For Private And Personal Use Only ܕ Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६५२ प्रश्नव्याकरणसूत्रे प्रमोदजकत्वात् , तथा ' मुकहिय' सुकथितम्-वोतरागप्रतिपादितत्वात् , 'सुव्वयं' सुव्रतं-सर्वत्रतप्रधानत्वातू , तथा-'सुदिटुं सुदृष्टम्-अतीन्द्रियार्थदर्शिभिरपवर्गादिहेतुतया दृष्टत्वात् , ' सुपइद्वियं ' मुमतिष्ठितम्-समस्तप्रमाणैरुपपादितत्वात् , 'मुपइट्ठियजसं' मुमतिष्ठितयशः-सुप्रतिष्ठितं यशो यस्य तत्, लोकत्रयप्रसिद्धत्वात् , तथा- 'मुसंजमियवयणवुइयं ' मुसंयमितवचनोदितं-मुसंयमित-सम्यगूनियन्त्रितं यद्वचनं तेनोदितं कथितम् , निर्दोषवचनैः कथितमित्यर्थः, तथा ' मुरवर नरवसभपवरबलवगसुविहिय जणबहुमयं ' ' सुरवरनरकृषभप्रवरवलवत्सुविहितजनबहुमतम् -- मुरवराणाम् -- इन्द्रादीनां, नरषभाणां = चक्रवा . अतः शुभ विवक्षा से समुत्पन्न होने के कारण यह मुजात है। (सुभा. सियं) यह प्रमोद का जनक होता है इसलिये यह सुभाषित हैं (मुफहियं) इसका प्रतिपादन वीतराग आत्माओं ने किया है इसलिये यह सुकथित है (सुव्वयं) सर्वव्रतों में इसकी प्रधानता मानी गई है इसलिये यह सुव्रतरूप है। (सुदिढे ) अतीन्द्रिय अर्थों को जानने वाले सर्वज्ञ प्रभुओं ने इसे अपवर्ग (मोक्ष) आदि के हेतु रूप से देखा है इसलिये यह सुदृष्ट है। (सुपइडिय) समस्त प्रमाणो द्वारा उपपादित होने से यह सुप्रतिष्टित हैं। (सुपइट्ठियजस ) तीनों लोकों में इस वचन का यश सुप्रसिद्ध है इसलिये यह सुप्रतिष्ठिन यशवाला है । (सुसंजमियवयणघुइयं ) इसे सत्यवचन को वे ही मनुष्य बोल सकते हैं कि जिनका वचन सुसंयमित होता है अच्छी तरह से नियंत्रित होता है। (सुरवरनरवसभपवरबलवगसुविहियजणबहुमयं) यह वचन इन्द्रादिक उत्तम देवों को, " सुभासिय" ते अभी उत्पन्न ४२नाई पाथी सुभाषित छ. “ सुकहिय" વીતરાગ આત્માઓએ તેનું પ્રતિપાદન કર્યું છે, તેથી તે સુકથિત છે. "सुव्यय" स तोम ते भुथ्य मनायुं छे तेथी ते सुबत छे. " सुदिट्ठ" અતીન્દ્રિય અર્થોને જાણનાર સર્વજ્ઞ પ્રભુએ તે અપવર્ગ આદિના હેતુરૂપથી मयुं छे, तेथी ते सुदृष्ट छे. “सुपइटिय" समस्त प्रभा द्वारा तेनुं प्रति. पाइन थये जापाथी ते प्रमाणभूत-सुप्रतिष्ठित छ. “सुपइद्वियजस” त्रो લોકમાં આ વચનને યશ સુપ્રસિદ્ધ છે તેથી તે સુપ્રતિષ્ઠિત યશવાળું છે. " सुसंजमियवयणबुइय" 24सत्य ययन से भासे मोदी श छ भनां चयन सुसयमित खाय छे-सारी ते नियत्रित डाय छे. “ सुरवर नरवसभपवरवलवगसुविहियजणबहुमयं " यनन्द्र माहि उत्तम देवाने For Private And Personal Use Only Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ २ सू० १ सत्यस्वरूपनिरूपणम् , 6 दोनां, प्रवरबलवताम् - वासुदेवमतिवासुदेवादि योद्धपुरुषाणां, तथा-सुविहितजनानां महापुरुषाणां च बहुमतं समतं यत्तत्, तथा-' परमसाहुधम्मचरणं' परमसाधुधर्मचरणम् = परमसाधूनां = उत्कृष्टक्रियावत मुनीनां धर्मचरणं धर्मानुष्ठानं यत्तत्, तथा - 'तबनियमपरिग्गहियं तपो नियमपरिगृहीतम् - तपो नियमाभ्यां परिगृहीतम् अङ्गीकृतं यत्तत्तथा तपोनियमौ हि सत्यवादिनामेव भवतो नेतरेषाम्, तथा - ' सुगइपथ देसगं ' सुगतिपथदेशकं = सुगतेः पन्थाः सुगतिपथः, तस्य देशकम्, प्रज्ञापकम्, च=पुनः ' इणं ' इदं ' लोगुत्तमं ' लोकोत्तमं - लोकेषु = लोक - त्रयेषु उत्तमं= श्रेष्ठम् ' वयं ' व्रतम् अस्ति । तथा इदं सत्यवचनं 'विज्जाहरगगगमण विज्जाण' विद्याधरगगनगमनविद्यानां विद्याधराणां या गगनगमनविद्यास्तासां ' साहगं साधकं - सत्यवादिनामेव विद्याः सिध्यन्तीत्याशयः, तथा - ' सगमगसिद्धिपदेसगं ' स्वर्गमार्गसिद्धिपथदेशकं = स्वर्गमागि सिद्धिपथयोर्देशकं= निर्देशकं यत्तत्तथा, तथा-' अवित ' अवितथं = मिथ्याभावरहितं यत् तं तत् चक्रवर्ती आदि श्रेष्ट पुरुषों को, बलदेव, प्रतिवासुदेव आदि सुभटयोद्धाओं को और महापुरुषरूप सुविहितजनों को बहुमान्य हुआ है। ( पर साधम्मचरणतवनियमपरिग्गहियसुगइ पहदेसगं च इणं लोगतमं च वयं ) उत्कृष्ट क्रिया शाली मुनिजनों का यह धर्माचरण-धर्मानुष्ठान है। तथा तप और नियमों से ये परिगृहीत होता है अर्थात्तप और नियम सत्यवादी के ही होते है । इतर जीवों के नहीं। सुगति के पत्र का यह प्रज्ञापक-निर्देशक होता है। और तीनों लोकों में यह सत्यवचन श्रेष्ठ व्रत हैं। तथा यह सत्यवचन (विज्जाहरगगण-गमणविज्ञाणसाहगं) विद्याधरों की गगन में गमन करने वाली जो विद्याएँ हैं उनका साधक है । ( सग्गमग्गसिद्धिपहदेसर्ग) स्वर्ग के मार्ग का और सिद्धि के पथ का प्रदर्शक है। (अवित ) अवितथ - मिथ्याभाव For Private And Personal Use Only ६५३ 66 ચક્રવર્તી આદિ શ્રેષ્ઠ પુરુષાને વાસુદેવ, પ્રતિવાસુદેવ આદિ સુભટોને અને મહાપુરુષ સુવિહિત જનાને બહુ જ માન્ય છે. परसाहुधम्मचरणतव नियमपरिगहियसुगइपदेसगं च इर्ण लोगुत्तमं च वयं " श्रेण्ड डियाशाणी भुनिम्नानु તે ધર્માચરણ-ધર્માનુષ્ઠાન છે. તથા તપ અને નિયમેથી તેઓ પરિગૃહીત થાય છે એટલે કે તપ અને નિયમ સત્યવાદીએ માટે જ શકય હોય છે અન્યને માટે નહીં. સુગતિના માર્ગનું તે પ્રજ્ઞાપક-નિર્દેશક હોય છે, અને ત્રણે લેકમાં આ સત્ય વચન શ્રેષ્ઠ વ્રત છે. તથા આ સત્યવચન " विज्जाहारगगणगमण विज्जा साहगं" विद्याधरोनी आअशमां गमन दुखानी के विद्याओ। थे, तेभनुं साध छे. " सभामग्गसिद्धिपहदेसगं " સ્વના માર્ગનું પ્રદશક છે. Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org દુષ્ટ प्रश्नव्याकरणसूत्रे 4 , 1 , 3 -- सच्चं ' सत्यम्=सत्यवचननामकं द्वितीयं संवरद्वारम् । पुनः कीदृशम् ? इत्याह' उज्जुयं ' ऋजुकम् - सरलभावप्रवर्तकत्वात् तथा 'अकुडिलं ' अकुटिलं-कुटिलभाववर्जितत्वात् तथा-' भूयत्थं ' भूतार्थम् = वास्तविकम्, तथा 'अस्थओ ' अर्थतः - परमार्थतः विशुद्धम्, तथा जीवलोके 'सव्वभावाणं सर्वभावानां - जीवादिसकलपदार्थानाम् ' उज्जोयगं ' उद्योतकं प्रकाशकम् अतएव 'पमासगं ' प्रभाषकं प्रतिपादकं भवति, पुन: ' अविसंवाद ' अविसंवादि अविरुद्धवादि, तथा 'जहत्यमहुरं ' यथार्थमधुरम्, यथार्थमिति कृत्वा मधुरं यथार्थमधुरं वास्तविकमधुरमित्यर्थः, तथा 'पच्चक्खं देवयं च ' प्रत्यक्षं दैवतं च सत्यं प्रत्यक्ष देव इत्यर्थः । एतादृशे 'जं यत् सत्यम् ' तं तत् ' अच्छेरकारगं ' आश्रर्यकारकं भवति, 1 ; Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८८ से रहित है | ( तं सच्च) ऐसा सत्यवचन नामका द्वितीय संवरद्वार (उज्जु) सरल भाव का प्रवर्तक होने से ऋजुक हैं। तथा (अकुडिलं ) इसमें भावों की कुटिलता नहीं होती है इसलिये कुटिल भावों से वर्जित होने के कारण यह अकुटिल है (भूयत्थं ) यथार्थ अर्थ का इसके द्वारा प्रतिपादन होता है इसलिये यह भूतार्थ है । (अत्यओ विसुद्ध ) परमार्थ दृष्टि से यह विशुद्ध है इसलिये यह अर्थतो विशुद्ध है। तथा - ( सव्वभावाणं उज्जोय गं ) जीवलोक में यह समस्त जीवादिपदार्थों का प्रकाशक है इसलिये यह (पभासगं भव) उनका प्रतिपादक (प्रभावक) भी है । यह सत्यवचन (अविसंवाह) अविरुद्ध रूपसे अपने स्वरूपको कहने वाला है इसलिये (जहत्थमहुरं) वास्तवोकरूप में मधुर है। और ( पचकखं देवयं च ) प्रत्यक्ष देव है - साक्षात् देव जैसा है (जंतं) जो यह सत्यवचन 5 ८८ अवितहं ” अवितथ-भिथ्यालावधी रहित छे. “ तं सच्चं " आवु सत्य नामनुं जीन्तु संवरद्वार " उज्जुयं " सरस भावनु अवर्त होवार्थी ऋलुङ छे. तथा अकुडिलं ” તેમાં ભાવાની કુટિલતા હૈાતી નથી તેથી કુટિલ ભાવાથી रहित होवाने भरणे ते कुटिल छे. " भूयत्थ " यथार्थ अर्थनु तेना द्वारा प्रतिपाहन थाय छे तेथी ते लूतार्थ छे, " अत्थओ विसुद्ध " परमार्थ दृष्टिथी ते વિશુદ્ધ છે. તેથી તે अर्थतोविशुद्ध " छे. तथा " सव्वभावाणं उज्जोयगं " लवसेोऽभां ते समस्त लवाहि पार्थोनुं ते अाश छे तेथी ते " पभासगं भवइ" तेभनुं प्रतियाह पशु छे, मा 66 CL For Private And Personal Use Only સત્યવચન अविसंवाइ અવિરૂદ્ધરૂપે પોતાના સ્વરૂપને કહેનારૂં છે. તેથી ધ जहत्यमहुर " वास्तवि રીતે મધુર છે, અને " पच्वक्खदेवयं च " પ્રત્યક્ષ દેવ છે-સાક્ષાત્ हेव लुंछे " जं त" मा भे सत्यवचन छे ते " अच्छेरकारगं अवत्थं " Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir % 3D सुदर्शिनी टीका अ० २ सू० १ सत्यस्वरूपनिरूपणम् 'माणुस्साणं ' मनुष्याणां कुत्र ? 'बहुएसु' बहुकेषु-अनेकेषु ' अवत्थंतरेसु' अवस्थान्तरेषु = अवस्थाविशेषेषु । तदेवाश्चर्यकारित्वमाह-'सच्चेणं' सत्येन ' महासमुद्दमज्झे वि' महासमुद्रमध्येऽपि 'चिट्ठति ' तिष्ठन्ति, न निमज्जन्ति=न डन्ति, ' मूढाणिया वि' मूढानीका अपि-मूढाः नियतदिग्गमनं प्रति मूढता प्राप्ता-अनीका:-नाविकाः येषां ते तथोक्ताः अपि 'पोया' पोता = नावः 'सच्चेण य ' सत्येन च 'उदगसंभमम्मि' वि ' उदकसंभ्रमेऽपि-आ. वर्तेऽपि ' न बुड्डुति ' व अडन्ति, तथा-तत्रस्था जना अपि ' नय मरंति' न च म्रियन्ते, ' थाहं ' स्ताग्य-तलं च ते 'लम्भंति' लभन्ते । तथा-'सच्चेण य सत्येन च 'अगणिसंममम्मि वि अग्निसंभ्रमेऽपि मालामालासंकुलेऽप्यनले 'उज्जुगा' ऋजुकाः सत्यवादिनो ' मणुस्सा ' मनुष्या 'न डझंति' न दह्यन्ते न दग्धा भवन्ति । तथा-' मणुस्सा' सत्यवादिनो मनुष्याः 'सच्चेण य' है वह (अच्छेरकारगं अवत्यंतरेसु बहुएसु माणुसाणं) अनेक अवस्थाओं में मनुष्यों के लिये आश्चर्य पैदा करने वाला है, जैसे-(सच्चेणं महासमुद्दमझे वि चिट्ठति न निमज्जति मुढा णियाविपोया) जिननौकाओं के नाविक जन जब नियत दिशाओं में जाने के ज्ञान से विकल हो जाते हैं तब उनकी वे नौकाएँ महासमुद्र के बीच में भी इस सत्य के बल पर ही तैर जाती हैं डूबती नहीं है। (सच्चेण य उदगसंभमंमि वि न घुडंति न य मरंति, थाहं च ते लम्भंति ) सत्य के प्रभाव से, जल की भमर में फंसे हुए भी मनुष्य न डूबते हैं और न मरते हैं प्रत्युत उन्हें वहां भी थाह मिल जाती है। (सच्चेण य अगणि संभमंमि वि न डझंति उज्जुगा मणुस्सा) सत्य का ही ऐसा प्रभाव है कि जिससे ज्वालाओं से धधकती हुई अग्नि में भी ऋजुक सत्यवादो-मनुष्य जलता तरेसु बहुए माणुसाणं " भने अवस्थामा भनुष्याने भाटे याश्चय पहा ४२नार छ, म “सच्चेणं महासमुहमज्झे वि चिट्रति न निमज्जति मूढा णियावि पोया" के नौसाना नापि न्यारे नियत शाम पाना ज्ञानथी રહિત થાય છે ત્યારે તેમની તે નૌકાએ મહાસમુદ્રની વચ્ચે પણ આ સત્યના प्रभावी मती । म छ. “ सच्चेण य उदगसंभम मि विन बुडति न य मरति, थाहं च ते लम्भांति" सत्यना प्रभावी पाण!qभम साये મનુષ્ય પણ ડૂબતાં નથી કે મરતાં નથી. એટલે કે ત્યાં પણ તેને રક્ષણ મળી तय छे. “ सच्चेण य अगणिसंभमंमि वि न डझंति उज्जुगा मणुस्सा " सत्यना જ એ પ્રભાવ છે કે જવાળાઓ વડે પ્રજ્વલિત અગ્નિમાં નાજુક-સત્યવાદી For Private And Personal Use Only Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे सत्येन च ' तत्ततेल्लतउलोहसीसगाई' :तप्ततैलत्रपुलौहशोशकानि, तैलं प्रसिद्धम् अपुरङ्गम् , लौहम् अयं, शीशकं प्रसिद्धम् , तप्तानि-उत्कलित्तानि यानि तैलअपुलौहशीशकानि तानि तथोक्तानि छिवंति ' स्पृशन्ति, 'धरेति' धारयन्ति हस्ते किन्तु तेन ' न डझंति ' न दह्यन्ते । तथा- 'सच्चेण परिग्गहिया' सत्येन परिगृहिता मनुष्याः, : पव्ययकड गाहिं' पर्वतकट केभ्यः पर्वतपदेशेभ्यः 'मुच्चंते' मुच्यन्ते पात्यन्ते, तथापि ' न य मरंति' न च म्रियन्ते । तथा- सच्चाई' सत्यवादिनः 'असिपंजरगया वि' असिपञ्जरगता अपि-चतुर्दिक्षु खङ्गहस्तशत्रुपुरुषपरिवेष्टिता अपि सर्वतः खगषु पतत्स्वपीत्यर्थः; 'अणहाय य ' अनधा एवअक्षतशरीराएव 'समराओ ' समरात , 'णियंति' निर्यान्ति-निर्गच्छन्ति। तथा 'सच्चवाई ' सत्यवादिनः पुरुषाः ‘वहबंधाभिभोगवेरघोयेहि वधबन्धाभियोग नहीं है। (सच्चेण य मणुम्मा तत्तनेल्लतउलोहसीसगाई) सत्य से मनुष्य तप्त उबलते हुए तैल को, पिवले हुए रोगे को, लाल हुए लोहे को गले हुए शीशे को (छि ति) छू लेते हैं, अर्थात्-शीतल करता है(धरेंति) उन्हें हाथमें ले लेता है, परन्तु (न डझंति ) ये उनसे जलते नहीं हैं। (पव्ययकड. गाहिं मुच्चते न य मरंति सच्चेणं परिग्गहिया ) सत्यवादी मनुष्य को यदि पर्वत के ऊपर से भी नीचे धकेल दिया जावे तो भी वह सत्य के प्रभाव से मरता नहीं है-सर्वथा पच जाता है। इसी तरह जो (सच्चबाई ) सत्यवादी मनुष्य होते हैं वे (असिपंजरगया) चारों ओर से युद्ध में तलवारों को लिये हुए अपने शत्रुओं द्वारा धेर भी लिये जावें तो भी वे ( अणहाय ) अक्षत शरीर ही (णिइंति ) चाहे कितनी ही सलवारों के बार उन पर पड़ रहे हों, और वे उस युद्धभूमि में सुरक्षित निकल आते हैं। और (वहबंधाभिओगवेरघोरेहिं पमुचंति य ) भास पणती नथी. " सच्चेण य मणुस्सा तत्ततेलतउलोहसीसगाई" सत्यथी માણસ ઉકળતા તેલને, લાલચોળ લેઢાને અને ઓગાળેલ સીસાને પણ સ્પર્શ ४३ श छ. “धरेति” भने डायमा सो छ ५५ " न डझति" ते तेनाथी हाता नथी. "पव्वयकडगाहिं मुच्चंते न य मरति सच्चेण परिग्गहिया" સત્યવાદી મનુષ્યને જે પર્વતના ઉપરથી નીચે ધકેલી દેવામાં આવે તે પણ સત્યના પ્રભાવથી મરતે નથી–તેને વાળ પણ વાંકો થઈ શકતું નથી. मा शत “ सच्चवाई " सत्यवाही मनुष्य। डाय छ “ असिपंजरगया" युद्धमा ચોમેરથી હાથમાં તલવાર ધારણ કરેલ શત્રએ વડે ઘેરાઈ જાય તે પણ '. अणहाय" मक्षत २०१३ १४ णिति" मे तरक्षी तसवाना ॥ तेना પર પડવા છતાં પણ તે રણમેદાનમાંથી સુરક્ષિત બહાર આવે છે. અને તે For Private And Personal Use Only Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुवशिनीटीका अ० २ सू० १ सत्यस्वरूपनिरूपणम् वैरघौ रैः- वधो धातः बन्धा-निगड़ादि बन्धः, 'अभिओगो' अभियोग:-अपराधारोपः, वैरघोरः घोरशत्रुता; एतेषामितरेतरयोगद्वन्द्वः, एभ्यः ‘पमुच्चंति' प्रमुच्यन्ते, च= पुनः 'अमित्तमज्झाहिं' अमित्रमध्यात्-शत्रुमध्यात्= अणहा य' अनघाश्च-अक्षतशरीराश्च, 'निइंति' निर्यान्ति-निर्गच्छन्ति । उक्तमपि " सत्येनाग्निर्भवेच्छीतोऽगाधाम्बुधिरपि स्थलम् । नासिश्छिनत्ति सत्येन सत्यान्न दशते फणी ॥ इति। तथा 'देवयाओय' देवताश्च 'सच्चवयणे रयाणं' सत्यलचने रतानां= सत्यवादिनां मणुष्याणां 'सादेव्याणि' सादिव्यानि-सांनिध्यानि करेंति' कुर्वन्ति। वध-धात, बंध निगड़ (वेडी)आदिबंधन अभियोग अपराधारोप, एवं घोर शत्रुता. इनसे भी बच जाते हैं। (अमित्तमझाहिणिइंति अणहा य सच्चवाई ) यदि कदाचित् ये शत्रुओं के बीच में आ भी जावें तो भी शत्रु उनका कुछ भी विगाड नहीं कर पाते हैं-उनके बीच से वे अनअक्षत शरीर ही निकल आते हैं। कहा भी है "सत्येनाग्निर्भवेच्छीतोऽगाधाम्बुधिरपि स्थलम्। नासिछिनत्ति सत्येन, सत्यान्न दशते फणी॥" सत्यवादी पुरुषों के समक्ष अग्नि शीतल हो जाती है, अगाधसमुद्र भी स्थल जैसा हो जाता है, तलवार की धार भोथरी हो जाती है और फणी-सर्प उसे डस नहीं पाता है। ___ अधिक क्या कहा जाय (सच्चवयणे रयाणं) जो सत्यवचन में रत होते हैं उन सत्यवादी मनुष्यों का (देवयाओ य) देवता (सादि“वह बंधाभिओगवेरघोरेहिं पमुंचंति य” १५-धात, मध-नि1 मा मधन, અભિગ-અપરાધારેપ, અને ઘેર શત્રુતા એ બધાથી પણ બચી જાય છે " अभित्तमज्झाहिणिइति अणहाय सञ्चवाई " हाय ते शत्रुमानी १-ये यात्री જાય તે પણ શત્રુ તેને કાંઈ ઈજા કરી શકતા નથી–તેમની વચ્ચેથી તે અક્ષત શરીરે જ બહાર નીકળી જાય છે. કહ્યું પણ છે– __" सत्येनाग्निर्भवेच्छीतोऽगाधाम्बुधिरपि स्थलम् । नासिच्छिनत्ति सत्येन सत्यान्न दशते फणी॥" સત્યવાદી પુરુષે પાસે અગ્નિ શીતળ થઈ જાય છે, અગાધ સમુદ્ર પણ સ્થળ સમાન થઈ જાય છે, તલવારની ધાર બૂઠી થઈ જાય છે અને સર્વે તેને ડંસ દઈ શકતું નથી. वधु शुई " सचवयणे रयाणं " सत्य क्यानभा सीन २ छ ते सत्यवाही मनुष्यानु "देवयाओय" देवता “ सादिव्वाणि करेंति " सांनिध्य प्र८३ For Private And Personal Use Only Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६५८ प्रश्नव्याकरणसूत्रे सत्यवादिनां वचनमनन्यथाकत देवास्तत्सान्निधौ तिष्ठन्तीति भावः । उक्तमपिप्रियं सत्यं वाक्यं हरति हृदयं कस्य न जने । गिरं सत्यां लोकः मतिपदमिमामर्थयति च ॥ सुरा सत्याद् वाक्याद् ददति मुदिताः कामितफलम् । अतः सत्वाद् वाक्याद् व्रतमभिमत्तं नास्ति भुवने ।। १ ॥” इति ।। सू०१॥ व्वाणि करेंति) सान्निध्य करते है, अर्थात् सत्यवादी के वचनों को अनन्यथा-सत्य करने के लिये देव उनके निकट रहते हैं। कहा भी है "प्रियं सत्यं वाक्यं हरति हृदयं कस्य न जने, गिरं सत्यां लोकः प्रतिपदमिमामर्थयति च । सुरासत्या वाक्याद् ददति मुदिताःकामितफलम् , अतःसत्याद् वाक्याद् ब्रतमभिमतं नास्ति भुवने ॥१॥ प्रिय सत्य वचन किम सहृदय व्यक्ति के हृदय को हरण नहीं कर लेता है। अर्थात् सबके हृदय को हरण कर लेता है। लोक हर एक समय हर एक बात में इस सत्य वचन के ही अभिलाषी होते हैं। सत्यवचन से देवता भी प्रसन्न रहते हैं, और वे सत्यवादी के इच्छित मनोरथ की पूर्ति करते रहते हैं। इसलिये सत्यवचन के समान अभिमतव्रत लोक में और कोई नहीं है। भावार्थ--सूत्रकार ने इस द्वितीय संवर द्वार में सत्यवचन रूप महाव्रत के स्वरूप का कथन किया है। क्यों कि प्रथम संघरद्वार के साथ સેવે છે, એટલે કે સત્યવાદીના વચનેને અનન્યથા–સાચા પાડવાને માટે દેવો તેમની પાસે રહે છે. કહ્યું પણ છે– " प्रियं सत्यं वाक्यं हरति हृदयं कस्य न जने, गिरं सत्यालोकः प्रतिपदमिमामर्थयति च । सुराः सत्याद वाक्याद् ददति मुदिताः कामितफलम् , अतः सत्याद् वाक्याद् व्रतमभिमतं नास्ति भुवने ॥ १॥" પ્રિય સત્યવચન કઈ સહદથી વ્યક્તિનું મન હરતું નથી ! એટલે કે સૌનાં મનને હરી લે છે. જોકે દરેક વખતે દરેક વાતમાં આ સત્ય વચનના જ અભિલાષી હોય છે. સત્ય વચનથી દેવતા પણ પ્રસન્ન રહે છે અને તેઓ સત્યવાદીનાં ઈચ્છિત મનોરથે પૂરા કરે છે. તે કારણે સત્ય વચન જેવું શ્રેષ્ઠ વચન જગતમાં બીજું કંઈ પણ નથી. ભાવાર્થ-સૂત્રકારે આ બીજા સંવરદ્વારમાં સત્ય વચન નામના મહાત્ર તના સ્વરૂપનું વર્ણન કર્યું છે. કારણ કે પ્રથમ સંવરદ્વાર સાથે તેને ઘાડ For Private And Personal Use Only Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ०२ सू१ सत्यस्वरूपनिरूपणम् ६५२ इसका धनिष्ट संबंध है और वह इस प्रकार से है कि जब तक जीव अलीक (असत्य) वचनों से निवृत्त नहीं होता तबतक वह प्राणातिपात विरमण रूप प्रथमसंवरद्वार का आराधक नहीं बन सकता है। यह सत्यवचन शुद्ध, शुचिक, शिव, सुजात आदि अनेक विशेषणों से संपन्न होता है। सत्यवादी की सर्वत्र प्रतिष्ठा होती है । इन्द्रादिक देवों को, तथा चक्र. वर्ती आदि श्रेष्ठ पुरुषों को सत्यवचन बहुमान्य होते हैं । समस्त विद्या. ओं की सिद्धि इन्हीं सत्यवचनों से होती है। स्वर्ग, मोक्ष की सिद्धि के यह पथ प्रदर्शक होता हैं। सत्य होकर भी जो अप्रिय होते हैं वे वचन सत्यवादि को वोलने योग्य नहीं होते हैं। किन्तु प्रिय सत्यवचन ही सत्यवादी बोला करते हैं । सत्यवादियों के समक्ष संसार की समस्त शक्तियां नतमस्तक हो जाया करती हैं अर्थातु-शिर जुकाता है। मनसा वाचा कर्मणा जो इस सत्य की आराधना में लीन होते हैं वे इस भव में तो सुखी होते ही हैं परन्तु परभव में भी उन्हें सुखों की प्राप्ति होती हैं । तप नियम से सब सत्यवचन से ही शोभित और फलप्रद होते हैं। परिणामों में जिनके जितनी अधिक सरलता होगी ऊन के वचनों में उतनी अधिक सत्यता होगी । सत्यवादियों के देवता तक सेवक होते हैं । सत्य में सावद्यभाषण का सर्वथा परित्याग ही जाता है। इन वचनों સંબંધ છે. તે આ પ્રકારે છે. જ્યાં સુધી જીવ અસત્ય વચનોથી મુક્ત થત નથી ત્યાં સુધી તે પ્રાણાતિપાત વિરમણરૂપ પ્રથમ સંવરદ્વારને આરાધક બની શકતો નથી. આ સત્ય વચન શુદ્ધ, શુચિક, શિવ, સુજાત આદિ અનેક વિશેપણથી યુક્ત હોય છે. સત્યવાદીની હંમેશ પ્રતિષ્ઠા થાય છે. ઈન્દ્રાદિક દેવને તથા ચકવતી આદિ શ્રેષ્ઠ પુરુષોને સત્યાચન બહુ માનને ચેાગ્ય લાગે છે. એ સત્ય વચનથી જ સઘળી વિદ્યાઓ સિદ્ધ થાય છે. સ્વર્ગ, મોક્ષની પ્રાપ્તિમાં તે માર્ગદર્શક હોય છે. સત્ય હોવા છતાં પણ અપ્રિય લાગે તેવાં વચને સત્યવાદીઓએ બોલવાં જોઈએ નહીં, પણ સત્યવાદી પ્રિય સત્ય વચન જ બેસે છે. સત્યવાદીઓ આગળ સંસારની સમસ્ત શક્તિઓ માથું નમાવે છે. મન, વચન અને કાયાથી જે આ સત્યની આરાધનામાં લીન રહે છે તેઓ આ ભવમાં તે સુખી થાય છે પણ પરભવમાં પણ તેમને સુખની પ્રાપ્તિ થાય છે. તપ નિયમ એ સૌ સત્ય વચનથી જ લે છે અને ફળદાયી નિવડે છે. પરિ ણામાં જેમની જેટલી વધારે સરળતા હશે તેટલી તેમનાં વચમાં વધારે સત્યતા હશે. દેવતા પણ સત્યવાદીઓની સેવા કરે છે. સત્યમાં સાવધ ભાષણને સર્વથા પરિત્યાગ થઈ જાય છે. આ વચનેથી જીવને સૌથી મટે આધ્યાત્મિક For Private And Personal Use Only Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे मूलम् ---तं सच्चं भगवं तित्थयरसुभासियं दसविहं चोदसपुव्वीहिं पाहुडत्थविइयं, महरिसीण य समयप्पइन्नं, देविंदनरिंदभासियत्थं वेमाणियसाहियं, महत्थं, मंतोसहि विजासाहणत्थं, चारणगणसमणसिद्धविजं, मणुयगणाणं वंदणिज्जं, अमरगणाणं अञ्चणिज्जं, असुरगणाणं पूणिजं, अणेगपाखंडिपरिग्गहियं, जं तं लोगम्मि सारभूयं, गंभीरयरं महासमुदाओ, थिरयरगं मेरुपव्वयाओ, सोमयरगं चंदमं. डलाओ, दित्तयरं सूरमंडलाओ, विमलयरं सरयनहयलाओ, सुरभियरं गंधमायणाओ, जे वि य लोगम्मि अपरिसेसा मंतजोगा जवा य विजा य जंभगा य अत्थाणि य सत्थाणि य सिक्खाओ आगमा य सव्वाइं विताई सच्चे पइट्ठियाइं॥२॥ ___टीका-'तं ' इत्यादि 'तं' तत्-पूर्वोक्त महामहिमान्वित भगवं' भगवत्-पूज्यं 'सच्च ' सत्यंसत्यनामकं द्वितीय महाव्रतं ' तित्थयरसुभासियं ' तीर्थकरसुभाषितं ' दसविहं ' से जीव को सब से बड़ा आध्यात्मिक दृष्टि से यह लाभ होता है कि उसके नवीन कर्मो का आगमन रूक जाता है और संचित कर्मों की निर्जरा होने लगती है। इसीलिये वीतरागप्रभु ने इन्हें उपादेय कहा है और महाव्रत की कोटि में रखा है । सू० १ ।।। 'तं सच्चं भगवं' इत्यादि। . टीकार्थ-(तं सच्चं तित्थयरसुभासियं ) पूर्वोक्त महिमा से सम. न्वित वह सत्य नामका द्वितीयमहाव्रत तीर्थकर प्रभु के द्वारा कहा गया દષ્ટિએ લાભ એ થાય છે કે તેનું નવા કર્મનું આગમન અટકી જાય છે, અને સૂચિત કર્મોની નિર્જરા થવા માંડે છે. તે કારણે વીતરાગ પ્રભુએ તેમને ઉપદેય તરીકે બતાવ્યાં છે અને મહાવ્રતની કટિમાં મૂક્યાં છે તે સૂઇ ૧ . “ त सब भगव" त्याहि-- . -"त सञ्च भगवं तित्थयरसुभासिय" पूर्वोत माडिमाथी युत ते सत्य नाम मनु महानत ती ४२ प्रमु२॥ १४ अपाये छे. ते " दसविह" ६० For Private And Personal Use Only Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिी टीका अ० २ सू० २ सत्यस्वरूपनिरूपणम् दशविधं स्थानाङ्गस्य दशमस्थाने प्रोक्तम् । तथाहि “जगश्य १ सम्मय २ ठवणा ३, नाम ४ रूवे ५ पडुच्च सच्चे ६ य। ववहार ७ भाव ८ जोगे ९ दसमे ओवम्मसच्चे य १० ॥ छाया-जनपद १ संमत २ स्थापना ३ नाम ४ रूपं ५ प्रतीत्यसत्यं ६ च । व्यवहार ७ भाव ८ योगः ९ दशममौपम्यसत्यं च १० ॥ इति।। तत्र-जनपदसत्यम्-यथा बङ्गदेशे गौरिति 'गाभी' शब्देन व्यपदिश्यते ॥ १ ॥ संमतसत्यम्-संमतं च तत्सत्यं च-संमतसत्यम् = लोकसंमत्या प्रसिद्धं, तथाहि-कुमुदकुघलयोत्पलतामरसानां समानेऽपि पङ्कसंभवे सर्वसम्मतमरविन्दमेव पङ्कजम् ।। २ ।। स्थापनासत्यम्- यथा-एक संख्यायाः पुरतो विन्दुद्वयस्थापनेन है। यह (दसविहं ) दश प्रकार होता है, इसके ये दश प्रकार स्थानांम के दशम स्थान में इस प्रकार कहे हैं जनपदसत्य १, संमतसत्य २, स्थापनासत्य ३, नामसत्य ४, रूपसत्य ५, प्रतीत्यसत्य ६, व्यवहारसत्य ७, भावसत्य ८, योगसत्य ९, और उपमासत्य १०॥ तत्तद्देशवासी मनुष्यों के व्यवहार में जो शब्द रूढ हो रहा है वह जनपदसत्य है जैसे वंगाल में गाय को “ गाभी" कहते हैं। अतः " गाभी' यह शब्द जनपदसत्य है १। बहुत मनुष्यों को समति से जो शब्द साधारण में रूढ़ हो उसे सम्मतिलत्य कहते हैं, जैसे कुमुद, कुवलय, उत्पल तथा तामरस इनमें पंक संभावता की समानता होने पर भी सर्वसम्मति से अरविन्द को ही पंकज मानना, अर्थात् कुवलय, उत्पल आदि सब ही पंकज हैं फिर भी पंकज शब्द अरविन्द में ही रूढ़ हुआ है। इसलिये अरविन्द को ही पंकज मानना यह सम्मत. પ્રકારનું છે. તેના તે દશ પ્રકાર સ્થાનાંગનાં દશમાં સ્થાનમાં આ પ્રમાણે કહેલ છે. (१) न५४ सत्य (२) संमत सत्य (3) स्थापना सत्य (४) नामसत्य (५) ३५सत्य (६) प्रतात्य सत्य (७) व्यवहार सत्य (८) मावसत्य (6) यो सत्य भने (१०) उपभासत्य. (૧) દેશવાસી મનુષ્યના વ્યવહારમાં જે શબ્દ રૂઢ થઈ ગયા હોય તે દેશવાસી માટે જનપદ સત્ય છે. જેમકે ગાયને બંગાળામાં “ગાશી ” કહે छ तेथी “ गाभी” श६ १०५४ सत्य छ. (२) पधारे भासोनी संभतिथी જે શ દ સાધારણ રીતે રૂઢ થાય તે સંમતિ સત્ય કહેવાય છે. જેમકે કુમુદ કુવલય, ઉત્પલ, તથા તામરસ તેઓમાં પંક સંભવતાની સમાનતા હોવા છતાં પણ અરવિંદને જ પંકજ માનવું, એટલે કે કુવલય, ઉત્પલ, આદિ બધાં પંકજ છે છતાં પણ પંકજ શબ્દ અરવિંદમાં જ રૂઢ થયેલ છે. તે કારણે અરવિંદને જ For Private And Personal Use Only Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे शतम् , विन्दुत्रयस्थापनेन सहस्रं भवति ।। ३ ॥ इति स्थापनासत्यम् ।। नामसत्यम् यथा-कुलमबर्द्धयन्नपि कुलबद्धन इत्यादि ॥ ४ ॥ रूपसत्यम्-यथा--साधुरूपधारणेन साधुरिति ।। ५ ॥ प्रतीत्यसत्यम्-यथा मध्यमां प्रतीत्य आश्रित्य अनामिका इस्वा, कनिष्ठिकामाश्रित्य तु दीर्घा । इति प्रतीत्यसत्यम् ।। ६॥ व्यवहारसत्यहैं २॥ भिन्न वस्तुमें भिन्न वस्तुके आरोप करनेवाले वचनको स्थापना सत्य कहते हैं, जैसे एक के आगे दो बिन्दुओं की स्थापना करके उसे १०० कहना, तथा विन्दुबय की स्थापना करके उसे एक हजार कहना३ । दूसरी कोई अपेक्षान रखकर केवल व्यवहार के लिये किसी का संज्ञाकर्म करना इसका नाम नामसत्य है-जैसे किसी लड़के को कुलवर्धन रखलेना। कुल वर्धन का तात्पर्य होता है-कुल को बढाने वाला, परन्तु व्यवहार चलाने के लिये जो संज्ञाकम किया जाता है-नाम रखा जाता है-उसमें इसकी अपेक्षा सापेक्ष नहीं हुआ करती है, इसी का नाम नामसस्य है ४ । पुद्गल के रूपादिक अनेक गुणों में से रूप की प्रधानता को लेकर जो वचन कहा जाता है उसे रूप सत्य कहते हैं-जैसे के शोंको काला कहना, अथवा रूप स्वरूप धारण को मुख्यता को लेकर जो वचन कहा जाता है वह भी रूपसत्य है- जैसे-साधु के स्वरूप को धारण करने वाले व्यक्ति को साधु कहना ५ । किसो विवक्षित पदार्थ की अपेक्षा से दूसरे पदार्थ के स्वरूप का कथन करना इसे प्रतीत्यसत्य या आपेक्षिकसत्य પંકજ માનવું તે સંમત સત્ય છે. (૩) ભિન્ન વસ્તુમાં ભિન્ન વસ્તુને આરોપ કરનાર વચનને સ્થાપના સત્ય કહે છે. જેમકે એકની સામે બે બિન્દુઓની સ્થા પના કરીને તેને સે (૧૦૦) કહેવા તથા ત્રણ બિન્દુઓની સ્થાપના કરીને હજાર (૧૦૦૦) કહેવાં. (૪) બીજી કોઈ પણ અપેક્ષા રાખ્યા વિના ફક્ત વ્યવહારને માટે જ કોઈને કોઈ સંજ્ઞા આપવી તેને નામ સત્ય કહે છે. જેમકે કુળને વધારે નહીં છતાં પણ કોઈનું નામ કુળવર્ધન રાખવું. કુળવર્ધનને અર્થ થાય છે કુળને વધારનાર, પણ વ્યવહાર ચલાવવાને માટે જે નામ રાખવામાં આવે છે તેમાં કોઈ અપેક્ષા સાપેક્ષ થતી નથી, તેનું જ નામ નામ સત્ય છે. (૫) યુગલનાં રૂપાદિક અનેક ગુણેમાંથી રૂપની પ્રધાનતાને લીધે જે વચન કહેવાય તેને રૂપસત્ય કહે છે, જેમકે વાળને કાળાં કહેવાં, અથવા રૂપ-રવરૂપ ધારણની મુખ્યતાને લઈને જે વચન કહેવામાં આવે છે તે પણ રૂપસત્ય છે. જેમ કે સાધુનાં સ્વરૂપને ધારણ કરનાર વ્યક્તિને સાધુ કહેવાં તે રૂપસત્ય છે. (૬),કોઈ વિવક્ષિત પદાર્થની અપેક્ષાએ બીજા પદાર્થના સ્વરૂપનું કથન કરવું તેને પ્રતીત્ય સત્ય અથવા આપેક્ષિક મૃત્ય કહે છે. જેમ કે વચલી આંગળીના કરતાં For Private And Personal Use Only Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदशिंनी टीका अ०२ सू० २ सत्यस्वरूपनिरूपणम् सत्यम् - यथा गिरिगततृणादेर्दहनेऽपि घटगत - जलस्य गलनेऽपि गिरिर्दयते घटो गलतीति व्यवहारो भवति ॥ ७ ॥ भावसत्यम्-यस्मिन् वस्तुनि यस्य धर्मस्याधिक्यम् , तदपेक्षया सत्यम्-भावसत्यम् , यथा व्यवहार-पञ्चवर्णसंभवेऽपि वकः शुक्लः शुको हरित इत्यादि।।८॥ योगसत्यम्-योगेन वस्तुसंयोगेन सत्यं-योगसत्यम् यथा-छत्रयोगाच्छत्री दण्डयोगाद् दण्डीति ॥ ९॥ औपम्यसत्यम्-उपमा सत्यम्-यथा-चन्द्रवन्मुखम् , समुद्रवत्तडाग इत्यादि ॥ १० ॥ इति । तथा 'चोद. कहते हैं जैसे मध्यमा की अपेक्षा अनामिका अंगुली को इस्त्रकहना और फनिष्ठिका अंगुली की अपेक्षा दीर्घ कहना ६ । नैगम आदि नयों की प्रधानता से जो वचन बोला जाता है उसे व्यवहार सत्य कहते हैं, जैसे पर्वत के ऊपर की घास आदि के जलने पर ऐसा कहना कि पर्वतजल रहा है, घटसे जल के निकलने पर ऐसा कहना कि घड़ां गल रहा है, यह सब व्यवहार सत्य है, क्यों कि व्यवहार में ऐसे वचनों को सत्य माना गया, है ७ । जिस वस्तु में जिस धर्म की अधिकता हो उसको लेकर जो वचन कहा जाय वह भावसत्य है, जैसे पांचों वर्णो की संभवता होने पर भी बगले को शुक्ल कहना, तोते को हरा कहना। वस्तु के संयोग से जो वचन बोला जाता है वह योगसत्य है, जैसे छत्ता के संबंध से पुरुष को छत्री कहना, दण्ड के संबंध से दण्डी कहना ९। दूसरे प्रसिद्ध सदृश पदार्थ को उपमा कहते हैं, इसके आश्रय से जो वचन बोला जाता है वह उपभासत्य है, जैसे चन्द्र के समान मुख, समुद्र के समान तडाग होता है, ऐसा वचन कहना। (चोदस पुब्बीहिं અનામિકા આંગળીને નાની કહેવી અને ટચલી આંગળીની અપેક્ષાએ તેને માટી કહેવી. (૭) નૈગમ આદિ નાની પ્રધાનતાથી જે વચન બોલવામાં આવે છે તે વચનને વ્યવહાર સત્ય કહે છે. જેમ કે પર્વત ઉપરનાં ઘાસ આદિને આગ લાગે તે પર્વત સળગી રહ્યો છે તેમ કહેવું, ઘડામાંથી પાણી ટપકતું હોય તે ઘડે ટપકે છે તેમ કહેવું, એ બધાં વ્યવહાર સત્ય ઉદાહરણ છે, કારણ કે વ્યવહારમાં એવાં વચનોને સત્ય માનવામાં આવે છે. (૮) જે વસ્તુમાં જે ધર્મની વિશેષતા હોય તેને લઈને જે વચન કહેવાય તે ભાવ સત્ય છે જેમ કે પાંચે વર્ણોની સંભવિતતા હોવા છતાં પણ બગલાને સફેદ કહેવા, પિપટને લીલા કહેવા તે ભાવ સત્ય છે. (૯) વસ્તુના સંયોગથી જે વચન બોલાય છે તે ચગસત્ય છે જેમકે છત્રીના સંબંધથી પુરુષને છત્રી કહેવું, દંડના સંબંધથી દંડી કહેવું ૧૦) બીજા પ્રસિદ્ધ સદશ પદાર્થને ઉપમા કહે છે, તેને આશ્રય લઈને જે વચન બોલાય છે તે ઉપમ સત્ય છે. જેમ કે ચન્દ્રમાના સમાન મુખ, समुद्रनायु ता य छ, सेवा पयन ४ा ते उपभा सत्य छे “ चोहस For Private And Personal Use Only Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६६४ प्रश्नव्याकरणसूत्रे सोहि' चतुर्दशपूर्विभिः । पाहुडत्यविइयं' प्राभृतार्थविदितम्-पूर्वगतांशविशेषाभिधेयतया सत्यवादपूर्वनाम्ना ज्ञातम् , तथा-' महरिसीणं यं' महर्षीगां च 'समयपइण्णं ' समप्रदत्तं समयेन-सिद्धान्तेन प्रदत्त-वितीर्ण, महर्षिभिः सिद्धान्तरूपतया गृहीनमित्यर्थः, तथा 'देविंदनरिंदभासियत्थं' देवनरेन्द्रभाषितार्थम् देवानाम्-इन्द्रादीनां नरेन्द्राणां चक्रवर्तिप्रभृतीनां भाषितः प्रतिभापितोऽर्थः प्रयोजन यस्य तत् , तथा-'वेमाणियसाहिये' वैमानिकसाधितं वैमानिक वेमानिकदेवैः साधित-साधनाविषयीकृतं, सेवितमित्यर्थः, तथा-' महत्थं ' महार्थस्-महान् अर्थः प्रयोजनं यस्य तत् , तथा ' मंतोसहिविज्ञासाहणत्थं ' मन्त्रौषधिविधासाधनार्थम्= मन्त्रीपधिविधान साधनमा प्रयोजनं यस्य तत् , तेन विना नसिद्धयभावात् , तथा-' चारणमणसमणसिद्धज्जि ' चारणगणश्रमगसिद्धविद्यम्=चारणगणानां= पाहडत्यधिइये ) इस सत्य को चतुर्दश पूर्वधारियों ने प्राभूतार्थ रूप से विदित किया है अर्थात् पूर्वगत अंशविशेष की अभिधेयता से सत्यवादपूर्व इस नाम से जाना है, (महरिसीण य समयपहाणं ) हर्षियों ने इसे सिद्धान्तरूप से स्वीकार किया है, (देवनरिंदभासियत्यं ) इन्द्रादिकों के लिये तथा चक्रवर्ती आदि ( राजाओं ) के लिये इसका प्रयोजन उपादेयरूप से कहा गया है. (वेमाणिय साहियं) वैमानिक देवों ने इस सत्य को अपनी साधना का विषयभूत बनाया है अर्थात् इसका सेवन किया है (महत्थं) यह महान् अर्थ-प्रयोजन वाला है ( मंतोसहिविज्जापाहणत्वं ) मन्त्रऔषधि ऐवं विद्याओं का साधन इसका प्रयोजन है क्यों कि सत्य के विनामंत्रादि सिद्ध नहीं होते है, (चारणगणसमणसिद्धविज्ज ) इसी के प्रभाव से इसी चारणगणों को आकाशगा पुब्बीहिं पाहुडस्थविइयं " 24॥ सत्यने यो पूधाशमा आताथ३ विहित કર્યું છે એટલે કે પૂર્વગત અંશવિશેષની અભિધેયતાથી સત્યવાદ પૂર્વ એ नामथी तथु छ. “ महरिसीणं य समयपइण्णं " भडपियोगे तेने सिद्धांत३थे २वायु छ " देवनरिंद भासियत्थं " न्द्राहियोन तथा यस्ता मति नरेन्द्रोने भाट तेनुं प्रयोशन उपाय३थे वायु छ, “ वेमाणियसाहिय " વૈમાનિક દેએ આ સત્યને પિતાની સાધનાને વિષય બનાવ્યું છે એટલે કે तेनु सेवन थुछे, “ महत्थं " ते महान म-प्रयोना छ. " मंतो सहिविज्ञासाहणत्थं " ते मत्र-मौषधि भने विद्यासानु साधन तेनुं प्रयोगन छ ४।२४ है सत्य विना भत्राहि सिद्ध यतi नथी, "चारणगणसमणसिद्ध विज्ज" तेना प्रमाथी या२१ गणाने माशामिनी विद्यानी तथा श्रमणाने For Private And Personal Use Only Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir gefilterer o२ सू० २ सत्यस्वरूपनिरूपणम् ६६५ , ' , विद्याचारणादीनां श्रमणानां च सिद्धविद्या-आकाशगामिनी वैक्रियादि रूपा च यस्मात्तत्तथोक्तम्, तथा-' मणुयगणाणं ' मनुजगणानां ' वंदणिज्जं ' वन्दनीयं = स्तवनीयम् तथा-' अमरगणाणं' अमरगणानां देवानाम् ' अच्चणिज्जं ' अर्चनीयम् = सत्कारयोग्यम्, तथा-' अमुरगणाणं च ' असुरगणानां च 'पूयणीयं ' पूजनीयं = प्रशंसनीयम्, तथा 'अणेगपाखंडिपरिग्गहियं अनेकपाखण्डि - परिगृहीतम् = अनेकधर्मानुयायीभिरपि स्वीकृतं 'जं ' यत्सत्यं ' तं ' तत् ' लोकम्मि' लोके ' सारभूयं ' सारभूतं = सारभूतं = सर्वप्रधानत्वात् पुनस्तत्सत्यं कीहशम् ? इत्याह-' गंभीरयरं महामुद्दाओ' गंभीरतरं महासमुद्रात्, अक्षोभ्यत्वात्, तथा-' थिरयरगं मेरुपध्वयाओ' स्थिरतरकं मेरुपर्वतात् = निश्चलस्यात्, तथा-'सोम्पयरगं चंद मंडलाओ' सौम्यतरकं चन्द्रमण्डलात् संतापशमनहेतुत्वात्, तथा - 'दित्यरं सुरमंडलाओ ' दीप्ततरं सूरमण्डलातू यथावद्वस्तु प्रकाशकत्वात्, मिनी विद्या की तथा श्रमणों को वैक्रियादिरूप विद्याओं- लब्धियों की सिद्धि होती है । (गाणं बंदणिज्जं ) मनुष्यों के लिये यह सल वंदनीय है, ( अमरगणाणं अच्चणिज्जं ) अमरगणों के लिये यह अर्चनीय है, तथा (असुरगणाणं पूर्याणिज्जं ) असुरगणों के लिये यह पूजनीय प्रशं सनीय है ( अगपाखंडिपरिग्गहियं ) अनेक धर्मानुयायियों ने भी इसको स्वीकार किया है। (जं तं लोगमि सारभूयं) ऐसा यह सत्यव्रत लोक में सर्वप्रधान होने से सारभूत है । ( गंभीर वरं महासमुदाओ ) यह सत्य अक्षोभ्य होने से महासमुद्र की अपेक्षा अत्यंत गंभीर है । ( freej Haramiओ) निश्चल होनेसे मेरुपर्वत की अपेक्षा अत्यंत स्थिर है ( सोम्पयरगं चंदमंडलाओ ) संताप के शमन का हेतु होने से चंद्रमंडल की अपेक्षा अत्यंत सौम्य है । ( दित्तघरं सूरमंडलाओ ) यथावत् वस्तु का प्रकाशक होने से यह सत्य सूर्य मंडल की अपेक्षा अधिक वैठियादिश्य विद्याओ-सम्धिनी प्राप्ति थाय छे. " मणुयगणाणं वदणिज्जं મનુષ્યને માટે આ સત્ય વંદનીય છે તથા असुरगणाणं पूर्याणिज्जं " मसुरशोने भाटे ते पुन्नीय-प्रशंसनीय छे " अणेगपाखंडि परिगहिये " मनेऊ धर्मोना अनुयायीओ पशु तेनो वीर ये छे, "ज तं लोगग्मि सारभूयं" मेवु या सत्यव्रत सभां सर्व प्रधान होवाथी सारभूत हे " गंभीरयर महासमुदाओ આ સત્ય અક્ષ।ભ્ય હાવાથી સમુદ્ર કરતાં પણ વધારે ગંભીર छे. " थिरयर' मेरूपव्वयाओ " निश्चल होवाथी ते भेरुपर्वत उरतां पशु वधारे स्थिर छे. " सोम्मयगं चंद्रमंडलाओ " संताप शमन ४२नार होवाथी यन्द्र. भांडण इश्तां पशु वधारे सौम्य छे, " वित्तयर' सूरमंडलाओ વસ્તુના સાચા સ્વરૂપનું પ્રકાશક હોવાથી આ સત્ય સૂર્યમંડળ કરતાં પણ વધારે સ્થિર છે. 66 "" प्र ८४ For Private And Personal Use Only " 57 Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ६६६ saster सूत्रे 1 तथा - 'विमलयरं सरयनहयलाओ' बिमलतरं शरनभस्तलात् शरत्कालिकं गगनतलादप्यधिकं निर्मलं, मालिन्यरहितत्वात् तथा-' सुरभियरं गंधमायणाओ ' सुरभितरं गन्धमादनात् गन्धमादन पर्वतात् अयं हि नोलवद् वर्षधर पर्वतस्य दक्षिणदिशि, मेरोर्वायव्यकोणे, शीतोदानद्युत्तरकुलवर्तिनो गंधिलावतीनाम्नोऽष्टमविजयस्य पूर्वदिशि तथा उत्तरकुरूणां सर्वोत्कृष्टभोगभूमिक क्षेत्रात् पश्चिमदिशि महाविदेहक्षेत्रस्थो गजदन्त संस्थानसंस्थितो गन्धमादननामा वक्षस्कारपर्वतोऽस्ति । गन्धेन स्वयं माद्यति मदयति वा स्वनिवासिदेवदेवीनां मनांसीति गन्धमादनः । यथा विध्यमाणानां संचूर्ण्यमानानाम् उत्कीर्यमाणानां विकीर्यमादीप्त है | ( बिमलयरं सरयनयलाओ ) मलिनता से विहीन होने के कारण शरत्कालिक आकाशतल की अपेक्षा अधिक निर्मल है । तथा . ( सुरभियरं गंधमायणाओ ) जनों के हृदयों को आकर्षण करने वाला होने के कारण यह सत्य गंधमादन नामक पर्वत की अपेक्षा अत्यन्त सुगन्धित है । यह गंधमादन नाम का वक्षस्कार पर्वत नीलवर्षधर पर्वत की दक्षिणदिशा में, मेरु के वायव्यकोण में, शीतोदानदी के उत्तर तट पर रहे हुए गन्धवती नामक अष्टमविजय की पूर्वदिशा में, तथा उत्तरकुरु के सर्वोत्कृष्ट भोगभूमिक क्षेत्र से पश्चिमदिशा में महाविदेहक्षेत्र में है । इसका संस्थान आकार- गजदंत जैसा है अर्थात् - गजदंत के आकार में यह स्थित है । अपनी गंध से स्वयं को सुगंधित करता है तथा अपने ऊपर रहने वाले देवदेवियों के मन को मदोमत बना देता है उसका नाम गंधमादक है ऐसा यह पर्वत है । जैसे पिसते हुए, फैले हुए, अथवा एक वर्तन से दूसरे वर्तन + Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir " विमलयरं सरयनहयलाओ " મલિનતાથી રહિત હોવાથી તે શરદઋતુનાં भा}ाशतण ४२तां पशु वधारे निर्माण छे. " सुरभियरं गंधमायणाओ " भालुસેનાં ચિત્તનું આકષ ણ કરનાર હાવાથી આ સત્ય ગધમાદન નામના પત કરતાં પણ અધિક સુગન્ધિત છે. તે ગન્ધમાદન નામના વક્ષસ્કાર પર્વત નીલવધર પર્વતની દક્ષિણ દિશામાં, મેરુ, વાયવ્ય કોણમાં, શીતેાદા નદીના ઉત્તર કિનારે રહેલ ગન્ધિલાવતી નામના અષ્ટવિજયની પૂર્વ દિશામાં, તથા ઉત્તર કુરુના સર્વોત્કૃષ્ટ ભાગભૂમિક ક્ષેત્રની પશ્ચિમ દિશામાં મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં છે. તેને આકાર ગજદત જેવા છે એટલે કે તે ગજતના આકારે ઉભા છે. પેાતાની ગંધવડે જે પોતે વાસયુક્ત અને છે અને પોતાની ઉપર વાસ કરતા દેવદેવીઆનાં મનને જે મદોન્મત્ત કરી નાંખે છે, તેનું નામ ગંધમાદન છે. For Private And Personal Use Only Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ. २ सू० २ सत्यस्वरूपनिरूपणम् णानां भाण्डाद् भाण्डान्तर वा संहियमाणानां कोस्टपुटानां यावत्तगरपुटादीनां मनोज्ञा उदारा गन्धा अभिनिःस्रवन्ति, तदपेक्षयाऽप्युदारगन्धयुक्तोऽयं पर्वतः । ततोऽप्यधिकतरसुरभिमत्सत्यमिति भावः, जनानां हृदयावर्जकत्वात् । तथा'जे वि य' येऽपि च ' लोगम्मि' लोके 'अपरिसेसा ' अपरिशेषाः सकलाः 'मंतजोग, मन्त्रयोगाः-मन्त्राः-हरिणैगमेषिदेवादि मन्त्राः-योगा वशीकरणादिप्रयोजना द्रव्यसंयोगाः, 'जवा य' जपाश्च-मन्त्रविद्याजपनानि 'विज्जा य' विद्याश्च-रोहिणीप्रज्ञाप्त्यादयः, 'जंभका य.' जम्भकांच-तिथंग्लोकवासिनोऽन्न जम्भकादि भेदेन दशविधा देवविशेषाः ‘अत्थाणिय ' अस्त्राणि च-बाणादीनि 'सस्थाणिय' शस्त्राणि च खानि 'सिमवाओ य' शिक्षाश्च-कलाग्रहणादोनि 'आगमा य' आगमाश्च सन्ति । ' सबाई वि ताई' सर्वाण्यपि तानि 'सच्चे' सत्ये 'पदहियाइं ' प्रतिष्ठितानि, सत्यमाश्रित्यैव सर्वाणि तिष्ठन्तीति भावः ॥२॥ में रखे जाते हुए सुगंधित तगर आदि द्रव्यों की मनोज्ञ उदार गंध चारों ओर फैलाति है उससे भी अधिक उदार गंध से युक्त यह पर्वत है। इस पर्वत से भी अधिकतर सुगंधि संपन्न यह सत्य है। (जे वि य लोगम्मि अपरिसेसा मंतजोगा जवा य विज्जा य जनगा य अत्याणि य सत्याणि य सिक्खाओ आगमा य सम्वाई विताई सच्चे पइट्ठियाई) तथा लोक में जो भी समस्त मन्त्र-हरिणैगमेषिदेवादिमंत्र, और योग वशीकरण आदि प्रयोजनवाले द्रव्यसंयोग हैं, मंत्रविद्या के जाप हैं, रोहिणीप्रज्ञप्ति आदि विद्याएँ हैं, तिर्यग्लोकवासी अन्नमुंभक पानजंभक आदि दशप्रकार के देवविशेष हैं, बाणादिक अस्त्र, खङ्ग आदि शस्त्र, कलाग्रहण आदि शिक्षाएँ और आगम हैं वे सब इस सत्य के ही आश्रय से हैं। એવો તે પર્વત છે. જેમ ઘસાતા ફેલાતા અથવા એક પાત્રમાંથી બીજા પાત્રમાં રેડાતા સુગંધિત તગર આદિ દ્રવ્યની મને જ્ઞ ઉદાર ગન્ધ ચારે તરફ ફેલાય છે, તે કરતાં પણ વધારે ઉદાર ગંધવાળો આ પર્વત છે. તે પર્વત કરતાં પણ धान पधारे सुधियुत मा सत्य छे. “जे विय लोगम्मि अपरिसेसा मंत. जोगा जवाय विज्जा य जंगमाय अस्थाणिय सत्थाणिय सिक्खाओ आगमा य सव्वाई विताई सच्चे पइद्रियाई" तथा समारोह म-हरिभाषा દેવાદિ મંત્ર, અને ગ-વશીકરણ આદિ પ્રયોજનવાળા દ્રવ્યસંગ છે, મંત્રવિદ્યાના જાપ છે, રેહિણીપ્રાપ્તિ આદિ વિદ્યાઓ છે, તિર્યગ્લેકવાસી અબ્રજભક, પાનક, આદિ દશ પ્રકારના દેવ વિશેષ છે, બાણદિ અસ્ત્ર, તલવાર આદિ શસ્ત્ર, કલાગ્રહણ આદિ શિક્ષાએ અને આગમ , તે બધું આ સત્યને જ આવે છે For Private And Personal Use Only Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्र ___ सत्यमपि कीदृशं न बक्तव्यं, कीदृशं वक्तव्य ? मित्याह- सच्चंपिय' इत्यादि मूलम् --सच्चं पिय संजमस्त उरोहकारगं किंवि न वतव्यं, हिंसासावज्जसंपउत्तं,भेयविकहकारगं, अणथवाय कलहकारगं, अणज्जं, अववायविवायसंपउत्तं वेलं, ओजधेज्जबहुलं निल्लज्जं, लोयगरहणिज्ज, दुदिट्ट, दुस्सुयं, भावार्थ-यह सत्य तीर्थकरो का सुभाषित है। इसे व्यवहार दृष्टिसे जनपद सत्य आदि के भेद से यह दश प्रकार का कहा है। पूर्वधरों ने इस सत्य को सत्यप्रवाहपूर्व के नाम से अभिहित किया है। ऋषियों ने इसे सिद्धान्त का रूप दिया है। देवेन्द्र नरेन्द्र आदि कों के भाषण का महत्व इसी सत्य के सहारे माना गया है। मंत्र औषधि आदि विधाओं की साधना सत्य के प्रभाव से सफलित होती है। आकाशगोमिनी विद्या-चारणऋद्धि-एवं वैक्रियलब्धि ये, सब इसी सत्य के प्रभाव से जीवों को प्राप्त होती हैं। मनुष्य, देव एवं असुर, सब के लिये यह वंदनीय है। अनेकधर्मानुयायियों ने भी इसे मान्य किया है । समस्त वस्तुओं में यह एक सारभून-श्रेष्ठ-वस्तु है । इसका प्रभाव अनिवचनीय है। महासमुद्र आदि की अपेक्षा भी यह गंभीरतर आदि धर्मों वाला है। लोक में जितने भी मंत्र योग आदि हैं वे सब इसी सत्य के सहारे टिके हुए हैं ।। मू० २ ॥ ભાવાર્થ—આ સત્ય તીર્થકરોનું સુભાષિત છે. વ્યવહાર દૃષ્ટિએ જનપદ સત્ય આદિના ભેદથી તે દશ પ્રકારનું બતાવ્યું છે, પૂર્વધરેએ આ સત્યને સત્યપ્રવાહ પૂર્વના નામથી ઓળખાવ્યું છે. ઋષિઓએ તેને સિદ્ધાન્તનું રૂપ આપ્યું છે. દેવેન્દ્ર નરેન્દ્ર વગેરેના ભાષણની મહત્તા આ સત્યની મદદથી જ મનાયેલ છે. મંત્ર ઔષધિ આદિ વિદ્યાઓની સાધના આ સત્યના પ્રભાવથી જ સફળ થાય છે. આકાશગામિની વિદ્યા–ચારણદ્ધિ અને વૈકિયલબ્ધિ એ બધું આ સત્યના પ્રભાવથી જ જેને પ્રાપ્ત થાય છે. માનવ, દેવ અને અસુર સૌને માટે તે વંદનીય છે. અનેક ધર્મના અનુયાયીઓએ પણ તેને માન્ય કર્યું છે સમસ્ત વસ્તુઓમાં તે એક સારભૂત-શ્રેષ્ઠ વસ્તુ છે. તેને પ્રભાવ અવર્ણનીય છે. મહાસાગર આદિનાં કરતાં પણ તે વધારે ગંભીરતા આદિ ગુણેવાળું છે. જગતમાં જેટલા મંત્ર ચેગ આદિ છે તે બધા આ સત્યને આધારે જ ટકેલાં છે રા For Private And Personal Use Only Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ०२ सू० ३ सत्यस्वरूपनिपणम् अमुणिय । अप्पणो थवणा परेसिं निंदा-न तंसि नेहावी, ण तंसि धण्णो न तंसि पियधम्मो, न तंसि कुलोणो, न तंसि दाणवई, न तंसि सूरो, न तंसि पडिरूवो, न तसि लहो, न पंडिओ, न बहुस्सुओ, न वि य तसि तबस्सी, ण यावि परलोगणिच्छियमईऽसि, सव्वकालं जाइकुलरूववाहिरोगेण वावि जं होइ वज्जणिज्जं दुहओ उवचारमइकंतं एवंविहं सच्चंपि न वत्तव्वं । अह केरिसयं पुणाइ सच्चं तु भासियध्वं ? जं तं दबोहि पज्जवेहि य गुणेहि कस्मेहि बहुविहेहिं सिप्पेहि आगमेहि य नामक्खाय निकाय उवसग्गतद्धियसमालसंधिपयहउ-जोगिय-उणाइ-किरिया-विहाण धाउसरविभत्तिवन्नजुत्तंतिकल्लं दसविहंपि सच्चं जह भणियं तह य कम्मुणा होइ । दुवालसविहा होइ, भाला वयणं पि य होइ सोलसविहं । एवं अरहंतमणुन्नायं समिक्खियं संजएणं य कालम्मि वत्तव्वं । इमं च अलिय-पिसुणफरुस-कडुय-चवल-वयणपरिरक्खणटयाए पावयगं भगक्या सुकहियं, अत्तहियं, पेञ्च भावियं, आगमेसिभदं, सुद्धं नेयाउयं, अकुडिलं, अशुत्तरं,सव्वदुक्खपावाणविउ समणं सू० ३॥ टीका-'सच्च पि य ' सत्यमपि च तत् 'संजमस्स ' संयमस्य ' उवरोहकारगं' उपरोधकारकं-बाधकं भवेत् , तत् 'किं वि' किमपि न वत्तत्वं ' न वक्तव्यम् । किं भूतं तत्-सत्यं यन्न वक्तव्यम् ? इत्याह- हिंसा सावज्जसंपउत्तं' किस प्रकार का सत्य नहीं बोलना चाहिये और किस प्रकार का કેવા પ્રકારનું સત્ય બોલવું ન જોઈએ અને કેવા પ્રકારનું બેલિવું જોઈએ? For Private And Personal Use Only Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६७० प्रश्नव्याकरणसूत्रे घोलना चाहिये ? इस यात को सूत्रकार कहते हैं-'सच्चपि य' इत्यादि । टीकार्य-(सच्चं पि य संजमस्स उवरोहकारगं किंवि न वत्तव्वं ) सत्य होने पर भी जो वचन संयम का बाधक हो वह मुनिजन को थोडा सा भी नहीं बोलना चाहिये। सत्य होने पर भी जो वचन संयम के यायक होते हैं वे इस प्रकार से हैं-(हिंसासावज्जसंपउत्तं) हिंसा और सावध जो वचन हैं वे सत्य होने पर भी संयम के बाधक होने के कारण नहीं बोलना चाहिये । हिंसा का तात्पर्य यहां प्राणिवध से और सावध का तात्पर्य पापयुक्त संलाप से है। इन सहित जो वचन होते हैं वे हिंसासावद्य संप्रयुक्त वचन हैं। जिन सत्यवचनों से प्राणियों के प्राणों का वध होता हो, तथा जिनसे पोप में जीवों की प्रवृत्ति होती हो ऐसे वचन सत्यमहावनी के लिये कभी भी भाषण करने योग्य नहीं है। (भेयविकहकारगं) इसी तरह जो सत्यवचन चारित्र के ध्वंसक हो, राजकथा आदि से संबंध रखते हों, तथा (अणथवायकलहकारगं) जिन सत्य वचनों को कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता हो अर्थात् जो निरर्थक हो, जिन सत्य वचनों से परस्पर में वाद विवाद और कलह बढता हो, तथा ते पात सूत्र४२ मतावे छे-“ सच्चं पि य" त्यादि. ___“सच पि य संजमस्स उवरोहकारगं किं वि न वत्तव्वं " सत्य डापा છતાં પણ જે વચન સંયમમાં બાધક હેય તે મુનિજને જરા પણ બોલવું જોઈએ નહીં. સત્ય હોવા છતાં પણ જે વચન સંયમમાં બાધક હોય છે તે भा प्रभाग -" हिंसा सावजसंपउत्तं " हिंसा भने सावध रे पयन छ તે સત્ય હોવા છતાં પણ સંયમનાં બાધક હોવાથી બાલવાં જોઈએ નહીં. હિંસા એટલે આ જગ્યાએ પ્રાણિવધ સમજે અને સાવધ અર્થ પાપયુક્ત સંલાપ છે. હિંસા અને સાયુકત જે વચને છે તે હિંસા સાવદ્ય સંપ્રયુક્ત વચન કહેવાય છે. જે સત્ય વચનેથી પ્રાણીઓનાં પ્રાણને વધ થતું હોય તથા જે વચનેથી પાપમાં જીની પ્રવૃત્તિ થતી હોય એવાં વચન સત્યમહાप्रतीने भाटे ही ५ मावाने योय होत नथी, “ भेयविकहकारगं" એ જ પ્રમાણે જે સત્ય વચન ચારિત્રના ઘાતક હેય, રાજકથા આદિ સાથે समय रामत डाय, तथा “ अणथवायकलह कारग" २ सत्य यनान કઈ પ્રયજન સિદ્ધ થતું ન હોય એટલે કે જે નિરર્થક હય, જે સત્ય क्यनाथी ५२२५२मा पाविवाह भने स तो लोय तथा " अणज्ज रे For Private And Personal Use Only Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० २ ० ३ सत्यस्वरूपनिरूपणम् N " " ' , हिंसासावद्य संप्रयुक्तं, तत्र - हिंसा = प्राणिबधः सावद्यम् = पापयुक्त संलापादि, ताभ्यां संप्रयुक्तं सहितं यत्तत् पुनः किंभूतम् ? ' भेयविकहकारकं भेदविकथाकारकम्, भेदः चारित्रभेदः, विकथा = राजकथादिः, तत्कारकं यत् तत् तथा( अणत्थवायकलहकारकं ' अनर्थवादकलहकारकम् = तत्र - अनर्थो = निरर्थको यो वादः सोऽनर्थवादः = निष्प्रयोजनो जल्पः, कलहो-विग्रहः, तत्कारकं यत्तत्, तथा - ' अणज्जं अन्याय्यम् = न्यायवर्जितम् तथा 'अववायविवायसंपतं ' अपवाद विवादसंप्रयुक्तम् अपवाद = परदूषणकथनं, विवाद: वाकलहः, ताभ्यां संप्रयुक्तं यत्तत्, तथा ' वेलंवं विडम्बकं परविडम्बनाकारकम् तथा-'ओज'वेज्ज बहुलं' ओजो धैर्यबहुलम् - ओजः = अहंकारः, आवेशो वा धैर्य = धृष्टता, ताभ्यां बहुलं व्याप्तम् अत एव निल्लज्जं ' निर्लज्जं=लज्जा रहितम्, पुनः 'लोगगरहणिज्जं ' लोकगर्हणीयम् = साधुजननिन्दितम् येन सत्येन परस्य हिंसा मर्मोंद्घाटनादिकं वा भवेत्तत् ' दुद्दिदु ' दुर्दृष्टम् = असम्यग्दृष्टम्, 'दुस्मृयं ' दुःश्रुतम् = • , 1 3 ( अणज्जं ) जो न्यायानुकूल न हों, (अववायविवाय संपतं ) अपवाद, विवाद से युक्त हों वे भी नहीं बोलना चाहिये । पर के दूषणों का कहना यह अपवाद है, वाक्कलह का नाम विवाद है । इसी तरह (वेलंब) जो पर की विडम्बना के कारक हों तथा (ओजघेज्जबहुलं ) जिन सत्य वचनों के बोलने में बोलने वोले का अहंकार भाव ज्ञात होता हो अथवा आवेश प्रकट होता हों, धृष्टता ज्ञात होती हो ऐसे वचन भी नहीं बोलना चाहिये । तथा ( निल्लज्जं ) जिन सत्यवचनों के बोलने में लज्जा जाती हो और ( लोकगरहणिज्जं ) साधुजन जिन वचनों की निंदा करते हो ऐसे वचन सत्य होने पर भी नहीं बोलना चाहिये । तथा (दुद्दि) जिन सत्य वचनों से परप्राणी की हिंसा अथवा मर्मका उद्घा न्यायानुण न होय, “ अवायविवायसंपत्तं " अयवाह, વિવાદથી યુક્ત હાય તે પણ બેલવાં જોઈએ નહિ. પારકાં ાને કહેવાં તે અપવાદ છે અને वाशीना उसने विवाह उडे छे, शो ४ प्रमाणे " वेलवं " ? परनी विडमना मु२नार हाय तथा " ओजघेज्जबहुलं " ने सत्य वयनो मोसवार्थी मोसनारनो અહંકાર ભાવ જણાતા હાય અથવા આવેશ પ્રગટ થતા હાય, ધૃષ્ટતા જણાતી होय, भेषां वचन पशु न मोसवां लेभे तथा " निलज्ज " ने सत्य वयन मोसवामी बन्न नती होय भने “ लोयगरहणिज्जं " સાધુજન જે વચનાની નિંદા કરતાં હાય એવાં વચન સત્ય હોય તે પણ ખેલવાં જોઈએ નહીં, तथा " दुद्दिट्टै ” ने सत्य वयनथी पर आदीनी हिंसा थती होय, अथवा For Private And Personal Use Only Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे असम्यक् श्रुतम् , तथा-' अमुणियं ' अज्ञातम्-असम्यग्ज्ञातम् , एतादृशं सत्यमपि न वक्तव्यमिति भावः। पुनः कीदृशं सत्यं न वक्तव्यम् ? इत्याह-'अप्पगो थवणा' आसनः स्तवना-प्रशंसा यत्र भवेत्तत् , स्वस्तुतिरूपं यत्सत्यं तत्र वक्तव्यमित्यर्थः । तथा-परेसिं निंदा' परेषां निन्दा- अन्येषां विपये सत्याऽपि नि. न्दा यस्मिन् भवेतन वक्तव्यमिति भावः, कथम् ? इत्याह-'न तंसि मेहावि' न त्वमप्ति हावी-अपूर्वश्रुतदृष्टग्रहणशक्तियुक्तः प्राज्ञो मेधावीत्युच्यते, एतादृशस्त्वं नासि तथा-'तंसि धणो' न त्वमसि धन्य धनवान् , धन्यवादयानं वा, ‘ण तलिपिषधम्मो' न त्वमसि मियधर्माधर्मपरायगाः, तथा-' न तंसि कुलीनो' न समलि कुलीना-उच्चकुलीन: उच्चकुल जातः, न तंमि दागवई ' टन होता हो वेट ककन हैं और ( दुस्प्लुयं ) जो अच्छी तरह से सुने गये हो वे दुःश्रुन वचन हैं, तथा (अमुणियं) जो अच्छी तरह से जानने में नहीं आये हो वे अप्सम्यक ज्ञात वचन हैं, इन दुईष्टादि वचनों को चाहे ये वचन सत्य भी हो तो भी नहीं बोलना चाहिये । ( अप्पणो थवमा परेनिमिदा) इसी तरह जिन सत्यवचनों में आत्मप्रशंसाआत्मश्लाघा भरी हो, और जिन सत्ययचनों में पर की निंदा होती हो वे सत्यवचन भी नहीं बोलना चाहिये, किस प्रकार नहीं घोलना चाहिये सो कहते हैं-(न तंगी मेहावी) तुम मेधावो नहीं हो, अर्थात् जो व्यक्ति अर्व, अशुत एवं अदृष्ट पदार्थ को ग्रहण करने की शक्ति से युक्त होता है उसका नाम मेघावी है ऐसे मेघावी तुम नहीं हो, तथा (ण तंभि धणो) तुम धनवान् या धन्यवाद के पात्र नहीं हो, (न तसि पियधम्मो ) तुम प्रियदर्माधर्मपरायण-नहीं हो, ( न तसिभभ भूस! तो जाय तवां या 2 पयन छ भने " दुश्मयं ' से ५२१५२ सामान य ते दुःश्रुतक्यन उपाय छे, तथा “ अमुणिय" જે બરાબર જાણવામાં આવ્યું ન હોય તેના વિષે વચન બોલવાં તે અસમ્યક જ્ઞાત વચન છે, એ દુષ્ટ આદિ વચને સત્ય હોય તે પણ બોલવાં જોઈએ नही. " अप्पणो थवणा परसेनिंदा " ये प्रमाणे सत्य क्यनाम समप्रशंसा આત્મકલાઘા-ભરી હોય તથા જે સત્ય વચમાં બીજાની નિંદા થતી હોય તે સત્ય લચન પણ બોલવાં જોઈએ નહીં. કઈ રીતે બેલવાં ન જોઈએ તે હવે छे-“न तलि मेहावी" तमे मेधावी नथी. ले व्यठित , मत भने અદૃષ્ટ પદાર્થને ગ્રહણ કરવાની શક્તિવાળી હોય છે તેને મેધાવી કહે છે. તથા "ण तं सि धो" तमें धनवान या धन्यवाहने पात्र नथी. “न तं सि पियधम्मो” तमे धम ५२या नथी, “ न तं सि कुलीणो” तमे सुशीन नथी. For Private And Personal Use Only Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० २ सू० ३ सत्यस्वरूपनिरूपणम् ६७३ न त्वमसि दानपतिः-दाता, 'न तंसि दो' न समसि शूरः पराजामशाली, 'न तंसि पडिवो ' न त्वमसि प्रतिरूपान्सुन्दरः, 'न तंसि लठ्ठो' न त्वमसि लष्टः सौभाग्यवान् , 'न पंडिओ' न पण्डितः विद्वान् त्वमसि, न च त्वं 'बहुस्सुओ' बहुश्रुतः बहुविद्योऽसि, 'न विय तसि तवत्सी' नापी च त्वमसि तपस्वी 'ण यावि परलोणिच्छिमईऽसि' परलोके निश्चिता संशयरहिता मतिर्यस्य सःपरलोकनिश्चितातिश्रापि त्वं नासि । मेधादिनितान् प्रत्यपि एवरूपा निन्दा न कतव्येति भावः । किं बहुना, 'जाइकुलरूववाहिरोगेण वा वि' जातिकुलरूप व्याधिरोगेण वाऽपि-वा=अथवा जातिवंशः, कुलं-पितवंशः, रूपं सौन्दर्य, व्याधिः-चिरस्थायि कुष्ठादिः, रोगः शीघ्रयातो ज्वरादिः, एतेषामितरेतरयोगद्वन्द्वः, तेन कारणेनापि जात्यापि कारणमवलम्व्यापि जं' तत् ' सव्वकालं' कुलीणो) तुम कुलिन नहीं हो, (न तसि दाणवई ) तुमदानपति-दाता नहीं हो, (म तंति सूरो) तुम पराक्रमशाली नहीं हो, (न तंसिपडिस्पो ) तुमप्रतिरूप-सुन्दर-नहीं हो, (न तंसि लट्ठो) तुम लष्टसौभाग्य संपन्न नहीं हो, (न पंडिओ) तुम पंडित नहीं हो (न बहुस्सुओ) तुम बहुश्रुत-अनेक विद्याओं के वेत्ता नहीं हो, और (न वि य तंसि तबस्सी) न तुम तपस्वी हो । और (न यावि परलोगणिच्छियमई सि) न तुम परलोक में संशय रहित मतिवाले ही हो,” इस प्रकार के वचन अविवेकी व्यक्तियों से नहीं कहना चाहिये, क्योंकि इस प्रकार के वचनों से उनकी निंदा होती है । (सव्वं कालं जाइकुलरूववाहिरोगेण जं होह वज्जणिज्ज ) इसी तरह जाति-मातृवंश, कुल-पितृवंश, रूपसौंदर्य, व्याधि-चिरस्थायी कुटादि, तथा शीघ्रधातक ज्वरादि रोग, इन 'न तंसि दाणवई ” तमे हात की, 'न तसि सूरो" तभे पराभी नयी “न तंसि पडिस्वो।' तमे सुह२ नयी “न तंसि लट्रो" तमे सष्ट सोमाय नथी, "न पंडिओ" तभे ५डित नथी, “ न बहुस्सुओ" तमे महशत-मने विद्यासान! १४.२ नथी, भने “ न बि य त सि तवरसी" तभे 1५२०ी नी, मने “ न यावि परलोगिणच्छियमईसि” तमे ५२४ने વિષે સંશયરહિત મતિયાળ નથી” પ્રકારનાં વચન માણસેએ બલવાં જોઈએ નહીં કારણ કે તે પ્રકારનાં વચનેમાં તેમની “શ્રોતાની નિંદા થાય थाय छे. “ सव्य काल जाइकुलं रूववाहिरोगेण जं होइ वज्जणिज्ज" मे २५ પ્રકારે જાતિ-માતૃવંશ, કુળ-પિતૃવંશ રૂપ-સૌદર્ય, વ્યાધિ-કાયમી કેઢ વગેરે તથા શીવ્રઘાતક જવરાદિ રોગ એ બધાં કારણેને લઈને પણ કદી એવાં प्र ८५ For Private And Personal Use Only Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्रव्याक ६७४ प्रश्नव्याकरणसूत्रे सर्वकालं सर्वदा 'वजणिज्ज'' वर्जनीय त्याज्यं लोके 'होइ' भवति, एवं विहं ' एवंविधं ‘दुहओ' उभयतः लोकतः शास्त्रतश्च, 'उवयारमइकंत' उपचार मतिक्रान्त व्यवहारविरुद्धं 'सच्चंपि' सत्यमणि ' न वत्तव्यं ' न वक्तव्यम् । ___ 'अह' अथ 'केरिसयं' कीदृशं तु 'पुणाई' पुनः 'सच्चं भासियव्यं' सत्यं भापितव्यम् ? आह-जं तं' यत्तत् 'दब्वेहि ' द्रव्यैः त्रिकालवर्तिभिः पुद्गलादिभिः ‘पज्जवेहिं , पर्यथैः नवपुराणादिभिः क्रमवर्तिभिर्धमः, च-पुनः 'गुणेहिं ' गुणैः सहभूतैर्गादिभिः, 'कम्मेहिं' कर्मभिः कृष्यादि व्यापारैः, सब कारणों को लेकर भी कभी ऐसे बचा नहीं कहना चाहिये कि तुम्हारा मातृवंश अच्छा नहीं है, पितृवंश तुम्हारा शुद्ध नहीं है, तुममे सौंदर्य नहीं है, तुम व्याधि संपन्न हो- कुष्ठी आदि हो । तात्पर्य-इसका यही हैं कि मातृवंशादि से विहीन तथा कुष्टादि संपन्न व्यक्तियों से ऐसे धचन नहीं कहना चाहिये । क्यों कि इस प्रकार के वचनों से उन्हें दुःख होता है। (दुहओ उवयारमइकतं) इसी तरह जो वचन लोक तथा आगम, ऐसे दोनों की अपेक्षा व्यवहार विरुद्ध हों (एवंविहं सच्चं पिन वत्तव्यं ) ऐसे वचन सत्य होने पर भी नहीं बोलना चाहिये । (अहकेरिसयं पुणाई लच्चं तु भासियव्वं ) अब सूत्रकार यह कहते है कि साधुजनों को-महावताराधक संयमी जनों को-किस प्रकार के सत्यवचन घोलना चाहिये-(जं तं ) जो वचन ( दबेहिं ) त्रिकालवी पुदलादि द्रव्यों से (पज्जवेहिं) नवीन पुरानी आदि क्रमवर्ती पर्यायों से (गुणेहिं) द्रव्य के साथ अविना भाव रूप संबंध रखने वाले वर्णादि गुणों વચન ન કહેવાં જોઈએ કે “તમારે માતૃવંશ સાર નથી, તમારા પિતૃવંશ શદ્ધ નથી, તમારામાં સૌંદર્ય નથી, તમે વ્યાધિયુકત કોઢ વગેરે રોગયુક્ત-- છે ” તેનું તાત્પર્ય એ છે કે જેને માતૃવંશ આદિ હીન હોય, કોઢ આદિ ગોથી જે યુક્ત હોય તેને તેવાં વચને કહેવાં જોઈએ નહીં, કારણ કે તેવાં क्यनाथी तेने म थाय छ-" दुहओ अवयारमइक्कंत" मे ४ प्रभार पयन सो तथा भाभ, मानेनी अपेक्षा व्यवहार वि३४ हाय "एवं विह सच्चंपि न वत्तव्वं" मे क्यन सत्य डाय तो ५ मांस नही “ अहकेरिसय पुणाइ सच्चंतु भासियव्वं ” वे सूत्र.२ मे पतावे छ । સાધુજને એ-મહાવ્રતારાધક સંયમીજને કેવા પ્રકારનાં સત્યવચન બોલવા नमे. “जं तं" ने क्यन “दव्वेहिं" ति पुरादि द्रव्योथी “पज्जवेहिं" नवी जुनी मादि भक्तो पर्यायाथी “ गुणेहिं " द्रव्यनी साथै मदिनाला१३५-५.५ रामना२ दि गुपथी "कम्मे हि " प्यादि व्यापार ३५ For Private And Personal Use Only Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टोका अ० २ सू० ३ सत्यस्वरूपनिरूपणम् ६७५ तथा-' बहुविहेहि सिप्पेहिं ' बहुविधैः शिल्पैः= आचार्याधिगतैः चित्रकर्मादिभिः क्रियाविशेषैः, 'आगमेहि' आगमैः सिद्धान्तैश्च युक्तं सत्यं वक्तव्यम् । पुनः कीदृशं सत्यं वक्तव्यम् ? इत्याह-' नामकवाय निकाय उवसग्गतद्धियसमाससंधि पयहेउजोगियउणाइकिरियाविहागधाउसरविभत्तजुत्त ' नामाख्यातनिपातो - पसर्गतद्वितसमाससन्धिपदहेतुयौगिकोणादिक्रियाविधानधातुम्वरविभक्तियुक्तं-- तत्र-नाम-व्युत्पन्नमव्युत्पन्नं च द्विविधं, तत्र-व्युत्पन्न-जिनदत्तजिनदासादि, अव्युत्पन्न-डित्थडवित्यादि, आख्यातम्-क्रियापदं भूतभविष्यद्वर्तमानरूपम् , से (कम्मेहिं) कृष्यादि व्यापाररूप कर्मों से (बहुविहेहिं सिप्पेहिं ) आचार्याधिगत चित्रकर्मादिरूप क्रिया विशेषों से, तथा (आगमेहिय ) आगम-सिद्धान्तों-से युक्त हों ऐसे सत्यवचन बोलना चाहिये । ( नामक्खायनिवाय उवसग्गतद्धियसमाससंधियहे उजीगिय उणाइकिरिया विहाणघाउसरविभत्तिवनजुत्तं ) इसी तरह, नाम, आख्यात, निपात, उपसर्ग, तद्धित, समास, सन्धि, पद, हेतु, योग, उगादिप्रत्यय, क्रियाविधान, धातु, स्वर, विभक्ति और वर्ण इनसे युक्त हो (तिकल्लं दसविहं पिसच्चं) त्रिकाल विषयाला जनपद सत्य आदि दस प्रकार का भी सत्यवचन बोलना चाहिये। व्युत्पन्न और अव्युत्पन्न के भेद से नाम दो प्रकार का होता है। जिनदत्त, जिनदास आदि नाम व्युत्पन्न नाम हैं, और डिस्थ, डवित्थ आदि नाम अव्युत्पन्न नाम हैं। आख्यात नाम क्रियापद का है। यह भूत भविष्यत् और वर्तमान के भेद से तीन प्रकार का होता है, जैसे-अभवत्, भविष्यति और भयति । अर्थ में थी, " बहुविहेहिं सिप्पेहिं " मायाधिगत मिहि३५ जियाविशेषाथी, तथा “ आगमेहिय' माम-सिद्धांताथी युवा हाय का सत्यपयन माi as. " नामक्खायनिवाय-उवस'गतद्धिय-समाससंधिपयहे उजोगिय--उणाइ किरियाविहाणधाउसरविभत्तिवन्नजुत्तं " से प्रभारी नाम, ध्यात, निपात, उपस, तद्वित, सभास, सन्धि, ५४, उतु, योग, &, प्रत्यय, (यादि. धान, धातु, २१२, विति, मने माथी युत आय "तिकल्लं दसविह पि सच्च " aिson विषयाज ४५६ सत्य माहि १२५ ४।२i ५५ સત્યવચન બોલવાં જોઈએ. વ્યુત્પન્ન અને અવ્યુત્પન્ન ભેદથી નામ બે પ્રકારનાં डाय छ. जिनहत, निहास याहि व्युत्पन्न नाम छे, मने डित्थ, डवित्थ આદિ અવ્યુત્પન્ન નામ છે. આખ્યાત નામ ક્રિયાપદનું છે. તે ભૂત ભવિષ્ય અને तभानना महथी त्रय प्रा२न छ, म अभवत् (थये। ) भविष्यति (20) For Private And Personal Use Only Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૬૭. प्रश्नव्याकरणसूत्रे 1 निपाता:- अर्थद्योतकाः खलु वादयः उपसर्गाः प्रवरादयः तद्धिता:- अपत्याद्यर्थाभिधायकप्रत्ययान्ताः शब्दाः, यथा - नाभेरपत्यंनाभेयः ऋषभः, सिद्धार्थस्या पत्यं सैद्धार्थो महावीरः ' इति समासः अनेकपदानामेकीकरणम् स चाव्ययीभावादिभेदादनेकविधः सन्धिः वर्णान्तं संघ नाम्, यथा 'श्रावकोऽत्रे ' -त्यादि, ' 9 विशेषता के द्योतक जो होते हैं वे निपात हैं जैसे खलु इव आदि शब्द, प्र, परा आदि उपसर्ग कहलाते हैं । इनके संबंध से एक ही धातुके अर्थ में भिन्नता आ जाती है, जैसे 'हृ' धातु के साथ जब 'प्र' उपसर्ग का संबंध होता है तब उसका अर्थ प्रहार हो जाता है, और जब 4 आ ' का संबंध होता है तब आहार हो जाता है, इत्यादि । अपत्य आदि अर्थ के अभिधायक जो प्रत्यय है वे प्रत्यय वाले शब्द यहां तद्विन शब्द से गृहीत हुए हैं जैसे- “ नाभेः अपत्यं पुमान् नाभेयः " यहां नाभि शब्द से तद्धित प्रत्यय होने पर नाभेय बनता है तथा सिद्धार्थ शब्दसे अणू प्रत्यय होने पर 'सैद्धार्थ' बनता है, ये तद्धित शब्द हैं। इसी प्रकार और भी तद्धित शब्द जान लेना चाहिये । परस्पर संबंध रखने वाले दो वा दो से अधिक पदों की बीच की विभक्ति का लोप करके मिले हुए अनेक पदों का नाम समास है । समास अव्ययी भाव आदि के भेद से अनेक प्रकार का होता है। संधि शब्द का अर्थ मेल होता है-अर्थात्-वर्णों की (6 39 26 21 BTT " 64 अने भवति (छे ). भे शम्हो अर्थभां विशेषताने हर्शाचे छे नेभने निपात કહે છે. જેમ કે खलु इव" यहि शब्द " प्र " परा " साहि ઉપસર્ગો છે, તેમના ઉપયાગથી એક જ ધાતુના અર્થમાં ફેર પડી જાય છે, प्रेम " हृ " धातु साथै न्यारे " * ઉપસર્ગ મૂકવામાં આવે છે ત્યારે तेनो अर्थ " ' થઈ જાય છે, અને જ્યારે તેની આગળ પ્રહાર સગ મૂકવામાં આવે ત્યારે તેના અર્થોં “આહાર થઈ જાય છે, અપ્રત્ય આદિ અને દર્શાવનાર જે પ્રત્યયેા છે તે પ્રત્યયવાળા શબ્દોને અહી " तद्धित शब्दथी उडेल छे, प्रेम - " नाभेः अपत्यं पुमान् नाभेयः " " नामि" शब्दने તન્દ્રિત પ્રત્યય લાગવાથી " नाभेय " शब्द जन्यो छे, तथा ' सिद्धार्थ ' शहने ' अण्' प्रत्यय लागता " सौद्धार्थ " भने छे, ते तद्धित शब्दो छ. આ પ્રકારે જ ખીજા તદ્ધિત શબ્દો પણ સમજી લેા પરસ્પર સ'ધ રાખનાર એ કે એવી વધારે પદોની વચ્ચેની વિભક્તિને લેપ કરીને જોડાયેલાં અનેક પદોને સમાસ કહે છે. અવ્યયી ભાત્ર આદિ ભેદથી સમાસ અનેક પ્રકાरना छ, 'स ंधि' शब्डनो अर्थ 'लेडा' थाय छे भेटले मे पानी व्यति For Private And Personal Use Only 64 29 Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० २ सू० ३ सत्यस्वरूपनिरूपणम् पदं सुबन्तं तिङन्तं च-यथा--' जिनः भवति' इत्यादि, हेतुःसाध्याविनाभूतत्वलक्षणः, यथा-' पर्वतोऽयं वह्निमान् धूमा' दित्यादि, यौगिकं योगनिष्पन्नं पदं 'पद्मनाभो नीलकान्तः' इत्यादि-उणादिः उणादिप्रत्ययनिष्पन्नं पदम् , 'करोति चित्रकार्यमिति कारू:' सानो तिस्वधर-कार्यमिति सोधुः' इत्यादि. क्रियाविधानं = कृदन्तप्रत्ययनिष्पन्नं 'पाठकः, पाचकः, पाकः' इत्यादिरूपं पदम् , धातवः क्रियावाचिनो वादयः, स्वरा= अकारादयः षड्जादयः, अति समीपता होने पर उनके मेल से जो ध्वनि में विकार होता है उसका नाम संधि है-जैसे 'श्रावकः अत्र' ऐसी स्थिति में 'श्रावकोऽत्र ' ऐसी संधि होती है, इस संधि का नाम पूर्वरूप संधि है। सुबन्त और तिङ्गन्त को पद कहते हैं, जैसे-'जिनः' यह सुबन्त पद है ओर · भवति' यह तिङन्त पद है। जो साध्य के साथ अविनाभाव संबंध से बंधा होता है उसका नाम हेतु है, जैसे धूमवाला होने से यह पर्वत अग्निवाला है, यहां पर साध्य-अग्नि है और उसके बिना नहीं होने वाला धूम है। योग से जो शब्द निष्पन्न होते हैं वे यौगिक शब्द हैं, जैसे पद्मनाभ, नीलकान्त आदि शब्द । उणादि प्रत्यय से जो शब्द बनते हैं वे उणादि हैं, जैसे-कारु (शिल्पी) साधु आदि शब्द । धातु के अन्त में प्रत्यय लगाकर जो शब्द बनते हैं वे कृदन्त हैं, जैसे-पाठक, पाचक, पाक आदि शब्द । क्रिया के बाचक जो भू आदि शब्द हैं वे धातु कहलाते हैं। दूसरे वर्णो की सहायता के विना जिनका उच्चारण होता है ऐसे સમીપતા હોય ત્યારે તેમના જોડાણથી દવનિમાં જે વિકાર ઉત્પન્ન થાય છે तेने सन्धि छ. म " श्रावकः अत्र" नी “ श्रावकोऽत्र" से प्रा. २नी सन्धि थाय छे, म सन्धिने पूर्व ३५ सन्धि ४ छ. सुबन्त भने तिङ्गन्त ने ५४ ४ छ, 'जिनः " ते सुमन्त ५४ छ भने " भवति" ते તિગન્ત પદ , જે સાધ્યની સાથે અવિનાભાવ સબંધથી બંધાયેલ હોય છે. તેને હેતુ કહે છે. જેમ કે ધૂમવાળે હોવાથી આ પર્વત અગ્નિવાળે છે, અહીં સાધ્ય અગ્નિ છે, અને તેના વિના ન પેદા થનાર ધુમાડે છે. ગણી જે શબ્દ બને છે તેમને યૌગિક શબ્દ કહે છે. જેમ કે પદ્મનાભ, નીલકાन्त, माहि यौगि शो छ " उणादि" प्रत्यययी २ शाही पने छ ते " उणादि ” उपाय छे, म ४१२ (शिल्पी) साधु मा श६ धातुने અને પ્રત્યય લગાડીને જે શબ્દ બને છે તેને કૃદન્ત કહે છે, જેમકે પાઠક, પાચક. પાક આદિ શબ્દ કિયાના વાચક “મૂ” આદિ જે શબ્દો છે તેમને ધાતુ કહે છે. બીજાં વર્ષોની મદદ વિના જેનું ઉચ્ચારણ થાય છે એવાં “a” For Private And Personal Use Only Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ક૭૮ प्रश्नव्याकरणसूत्रे वा, विभक्तयः स्वादयस्तिवादयश्च, वर्णाः = कवर्गादयः, एभिर्युक्तं ' तिकलं' त्रैकाल्यं त्रिकालविषय 'दसविहं पि' दशविधमपि जनपदादिरूपं 'सच्चं' सत्यं वक्तव्यम् । तथा यत्सत्यं 'जह ' यथा येन प्रकारेण 'भणिय' भणितम् उच्चारित ' तह य ' तथा च तेनैव प्रकारेण 'कम्मुगा' कर्मणापि-कार्येणापि परिणतं ' होइ' भवति, तत्सत्यं वक्तव्यमिति भावः, तथा-'दुवालसविहा' द्वादशविधा प्राकृत संस्कृतमागधपिशाचसौरसेनोपभ्रंशभेदातू पइविधा, सा पुनः गद्यपद्यभेदाद् द्विविधेति द्वादशविधा 'भासा' भाषा होइ' भवति, तथा'वयणं पि य' वचनमपि च 'होई' भवति 'सोलसविहं' पोडशविधत्वमेवं विज्ञेयम्अकार आदि शब्द, अथवा षडज आदि स्वर स्वर कहलाते हैं। 'सु, औ, जस, आदि विभक्तियां तथा 'तिए, तस, झी' आदि प्रत्यय ये सव विभक्तियां कहलाती हैं, और कवर्ग आदि वर्ग कहलाते हैं। (जहभणियं तह य कम्मुणा होइ) तथा जो सत्य जिस प्रकार से कहा गया है वह सत्य उसी प्रकार से कार्य से भी परिणत हो जाता है ऐसा सत्य बोलना चाहिये। तात्पर्य इसका यह है कि जिस सत्य को, बोलने वाला व्यक्ति कार्य रूप में परिणत कर सके ऐसा सत्य बोलना चाहिये । (दुवालसविहा होइ भासा) भाषा वारह प्रकार की होता है-वह इस प्रकार से प्राकृत, संस्कृत, मागधी, पैशाची, सौरसेनी और अपभ्रंश । यह छहों प्रकार की भाषा गद्य और पद्य के भेद से बारह प्रकार की हो जाती है। (वयणं पिय होइ सोलसविहं) वचन के सोलह प्रकार होते हैं, वे इस प्रकार से हैं७२ मा २७-अथवा षड्ज याहि १२ने २१२ ४ छ, “ सु, औ, जस्” मा विमतियो तथा “तिप् तर झी" या प्रत्यय ये सौने विमतियो छ छ; ( सुरातीमा मे, ने, थी, ना, नी, नू, ना, मां 2 विमतिना प्रत्यया छ) सने 'क ख' मादि वर्गा उपाय छ "जहमणियं तहय कम्मुणा होइ" तथा रे सत्य रे रे वायु डाय ते सत्य ते ४ ॥२ કાર્યમાં પણ પરિણમતું હોય તેવું સત્ય બોલવું જોઈએ, તેનું તાત્પર્ય એ છે કે જે સત્યને બેલનાર વ્યક્તિ કાર્ય રૂપે અમલમાં મૂકી શકે તેવું સત્ય मात , “दुवालसुविंहा होइ भासा " भाषा मा२ जानी जय छ ते मा प्रमाणे -प्राकृत, २४त, भागधी, पैशाची, सौरसे-1, मने अपभ्रश આ છ પ્રકારની ભાષા ગદ્ય અને પદ્યના ભેદથી બાર પ્રકારની થઈ જાય છે, "वयणं पिय होइ सोलसविह" क्यनना सो ५४२ डाय छे, ते नीय प्रमाणे छे. For Private And Personal Use Only Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टोका अ० २ सू० ३ सत्यस्वरूपनिरूपणम् ६७९ " वयणतियं लिंगतियं कालतियं तह परोक्खपच्चक्खें । उवणीयाइचउक्कं अज्झत्थं चेव सोलसमं मे" ___ छाया-वचनत्रिकं लिङ्गत्रिकं कालत्रिकं तथा परोक्ष-प्र-त्यक्षम् । उपनीतादि चतुष्कमध्यात्मं चैव षोडशम् ॥ इति, तत्र-वचनम् = एकवचनं द्विवचन बहुवचनं च, यथा-'घटः घटी घटाः ' ' भवति, भवतः भवन्ती' त्यादि । त्रिलिङ्गम्स्त्रीपुंनपूसकरूपम् , यथा-'प्रकृतिः आत्मा मनः' इत्यादि। कालत्रिकं भूतभविष्यद् वर्तमानरूपम् , यथा 'अभूद् , भविष्यति, भवति इति । तथा--परोक्षम्-भूतानघतनकालिकमिन्द्रियागोचरम्-यथा-ऋपभो बभूवे ' त्यादि । प्रत्यक्षम्-वर्तमा"वयणतियं३ लिंगतियं६ कालतियं तहपरोक्ख १० पच्चक्खं ११ । उवणीयाइ चउक्कं १५, अज्झत्थं चेव सोलसमम् ॥१॥" एकवचन, द्विवचन और बहुवचन ३। पुंल्लिंग, स्त्रीलिंग और नपुंसकलिंग ६। भूतकाल, भविष्यत्काल और वर्तमानकोल ९ इस प्रकार ये सब वचन के वचन. लिङ्ग और काल तीन तीन होते हैं, इस तरह वचन के ये नौ भेद हो जाते हैं ९ । 'घटः, घटो, घटाः' ये घट शब्द के एकवचन, द्विवचन और बहुवचन है ३। इसी तरह " भवति भवतः भवन्ति " इनमें भी जानना चाहिये ३। 'प्रकृतिः, आत्मा, मनः, ये शब्द के तीन लिङ्ग हैं, प्रकृतिः स्त्रीलिङ्ग, और मनः, यह नपुंसकलिङ्ग है ६। अभूत्, भविष्यति भवति ये तीन काल हैं 'अभूत्' यह भूत काल है, 'भविष्यति' यह भविष्यत् काल है और 'भवति' यह वर्तमान काल है ९ । भूतकालीन एवं अनद्यतनकालीन वचन इन्द्रिय के अगोचर होता " वयणतियं ३ लिंगतियं ६ कालतियं ९ तह परोक्ख १० पच्चक्ख ११ । उवाणीयाइचउक्कं १५ अज्झत्थं चेव सोलसमं ॥ १ ॥ એકવચન, દ્વિવચન અને બહુવચન ૩, પુલિગ, સ્ત્રીલિંગ અને નપુંસકલિંગ ૬, ભૂતકાળ, ભવિષ્યકાળ અને વર્તમાનકાળ ૯, આ રીતે તે બધા વચનના પ્રકારે, લિંગ (જાતિ) અને કાળ ત્રણ ત્રણ હોય છે. આ રીતે વચनना ते न लेह य छ; "घटः, घटो, घटाः ते 'घ' शहना मे वयन, द्विवयन. मने मययन छ 3 मे प्रमाणे " भवति भवतः भवन्ति " मे ३पोमा ५ समपार्नु छ 3, " प्रकृतिः आत्मा मनः " ते त्राणे ही धी જાતિ( લિંગ) ના શબ્દો છે. પ્રકૃતિ સ્ત્રીલિંગ છે આત્મા પુલિંગ છે અને મનઃ નપુંસકલિગ છે ૬, વર્તમાન, ભૂત અને ભવિષ્ય એ ત્રણ કાળ છે “ - भूत् " ते सूत४.७५ छ, “भविष्यति" ते लविण्या छ भने " भवति " ते વર્તમાનકાળ છે ૯, ભૂતકાલીક અને ભવિષ્યકાલીન ચિને ઈન્દ્રિયને અગોચર For Private And Personal Use Only Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ६८० www.kobatirth.org " प्रश्नव्याकरणसूत्रे " नकालिकमिन्द्रियगोचरम् - यथा - मुनिरयं शाखं पठतीत्यादि । तथा - उपनीतादि चतुष्कं वचनम्, तत्र - उपनीतवचनम् - गुणारोपणवचनम्, यथा-' रूपवानयं मनस्त्री स्वादि! अपनी तवचनं= गुणापनयनवचनम्, यथा-' दुःशीलोऽयं दुर्वचनो so ' मित्यादि । उपनीतापनीतत्रचनम् = कंचिद् गुणमारोप्य कोऽपि गुणोऽपनीयते येन वचनेन तदुपनीतापनीतवचनम्, यथा-' रूपवानयं किन्तु दुःशीलः ' इत्यादि । एतद्विपर्ययेण अपनीतोपनीतवचनमपि भवति । येन वचनेन पूर्वे कमपि गुणमपनीय पश्चादपरः कोऽपि गुण उपनीयते तदपनीतोपनीतवचनम्, यथादुःataisi किन्तुरूपar' नित्यादि । तथा पोडशं वचनम् -' अज्झत्थं' अध्याहै, जैसे " ऋषभो बभूव" यह वाक्य परोक्ष अर्थको विषय करनेवाला होने से परोक्ष माना जाता है १० । जो वाक्य वर्तमान काल को विषय करता है वह प्रत्यक्ष वाक्य माना जाता है जैसे " मुनिरयं शास्त्र पठति " यह प्रत्यक्ष वाक्य है ११ । उपनीतवचन १२, अपनीत अवचन १३, उपनीतानीतवचन १४ और अपनीतोपनीतवचन १५, इस प्रकार ये उपनीतादि चार हैं । इनमें जो वचन गुणों का आरोपण करता है वह उपनीत वचन है-जैसे “ यह मनस्वी अच्छे रूप वाला है १ । जो वचन गुणों का अपनयन करता है वह अपनीत वचन है- जैसे यह दुःशील है २ । जो वचन किसीगुणको आरोपित करके किसी गुण का अपनयन करता है वह उपनीतापनीतवचन है, जैसे यह रूपवाला तो है परन्तु दुःशील है ३ । इसी तरह जो किसी गुण का अपनयन करके गुण का आरोपक होता है वह वह अपनीतोपनीतवचन है, जैसे यह दुःशील २। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir होय छे, प्रेम" ऋषभो बभूत्र "" ऋषभ थ गयो " या वाड्य परीक्ष અને વિષય કરનારૂ હાવાથી પાક્ષ મનાય છે ૧૦ જૈ વાકય વમાન કાળને વિષય કરે છે તે પ્રત્યક્ષ મનાય છે “ મુનિ આ શાસ્ત્ર વાંચે છે. ૧૧ (१२) उपनीतक्यन, ( 13 ) अपनीतवयन, (१४) उपनीतापनीतवयन अने (૧૫) અપનીતેાપનતવચન એ રીતે ઉપનીતાદિ ચાર વચન છે. ગુણાનું આરેાણ કરનાર વચનને ઉપનીત વચન કહે (૧) તેમાં આ છે. જેમ કે મનસ્વી સારા રૂપવાળા છે ” (૨) જે વચન ગુણાનું અપનયન उरे छे ते अपनीत वयन छे, प्रेम है " मा दुःशीस छे " ( 3 ) ने वचन अर्ध गुणानुं આપણુ કરીને ાઈ ગુણનું અપનયન કરે છે તે ઉપનીતાપની ત વચન છે, જેમકે “તે રૂપાળા છે પણ દુઃશીલ છે” એ જ રીતે જે વાકય કોઇ ગુણનું અપનયન કરીને કોઇ ગુણનું આરેપણ કરતુ હાય તે અપનીતેાપનીત વચન છે For Private And Personal Use Only " Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुदर्शिनी टीका अ. २ सू० ३ सत्यस्वरूपनिरूपणम् ६८१ स्मम् आत्मानमधिकृत्य यद्वचनं तदध्यात्मवचनम् यथा - ज्ञानस्वरूपोऽपमात्मे त्यादि । इति षोडशविधं वचनम् । एवम् उक्तस्पं सत्यम् ' अरहन्तमणुण्णाय' अर्हदनुज्ञातम्-तीर्थङ्करोपदिष्टं 'समिक्खियं' समीक्षितं पर्यालोचितं सदेव 'संजएण' संयतेन-साधुना ' काळे य, काले च अबसरे समागते एव 'वत्तव्यं' वक्तव्यम् । भगवदाज्ञावहिर्भूतं स्वयमपर्यालोचितं वचनं साधुनाऽवसरं विना न वक्तव्यमिति भावः । अयोपसंहारमाह=' इमं च' इत्यादि ' इमं च ' इदं च-पूर्वैरनन्ततीर्थकरमणधरैः प्रोक्तमिदं प्रत्यक्ष ‘पावयणं' प्रवचनम् , 'अलिय-पिसुणफरूस-कडुय-- ववलवयणपरिरकापणट्ठयाए ' अलीकपिशुन-परुष-कटुक-चपलबचनपरिरक्षणार्थ-तत्र अलीकम् असद्भूतार्थ पिशुनं-परतो है परन्तु अच्छे रूप वाला है ४। वचन का सोलहवां भेद वह है, जो अध्यात्म होता है, जो आत्मा को अधिकृत करके बोला जाता है जैसे “ यह आत्पा ज्ञान स्वरूप है" इत्यादि १६ । (एवं अरहंत मणुण्णायं) इस प्रकार इन सोलह तरह के वचनों को बोलने में तीर्थकर प्रभु की आज्ञा है । और जो वचन ( समिक्खियं ) पर्यालोचित हैं अर्थात् अच्छी तरह से विचार करके निकाले गये हो ऐसे वचन (संजएण) साधु को (कालम्मि) अवसर आने पर (वत्तव्वं ) बोलने चाहिये, परन्तु जिन वचनों को बोलने की प्रभु की आज्ञा नहीं है और जो अपोलोचित हों ऐसे वचन साधु को नहीं बोलना चाहिये। अब इसका उपसंहार करते हुए सूत्रकार कहते हैं-(इमं च पावणं) पूर्वकालिक अनंत तीर्थकरों के द्वारा कहा हुआ यह प्रत्यक्षीभून प्रवचन (अलिय-पिसुणफरूस-कडुय-चबलवयणपरिरक्षणयाए ) अलीक, पिशुन, परुष, म " 21 शीर तो छ पण सुदृ२ ३५वाण छ(१६) क्यनना સેળ ભેદ તે છે કે જે અધ્યાત્મ હોય છે, જે આત્માને ઉદ્દેશીને બોલાય छ. म " A! मात्मा ज्ञान:५३५ छे" त्यादि, " एवं अरहंत मणुण्णाय" આ રીતે તે સેળ પ્રકારનાં વચને બોલવાની તીર્થકર પ્રભુની આજ્ઞા છે. અને २ पान " समिक्खियं” पर्यायित छ-सारी रीते पियार सुरीने याशया साय, शोवां वयन " संजएण" साधुसे “कालम्मि" अस२ मावता "वन" मालवास, पजे क्या सोसवानी लगवाननी माज्ञा નથી, અને જે અપર્યાચિત હોય તેવાં વચન સાધુએ બાલવા જોઈએ નહીં. हवे तेनी ५सा२ ४२०i सूत्रा२ ४ --- ' इमंच पावयणं " पूर्व जामीन अनत ती २॥ द्वारा पायेस प्रत्यक्षीभूत प्रवन, “अलिय-पिसुणफरूस-कडुय-चवल-वयण-परिरक्खणद्वयाए” मी-असत्य, पिशुन,५२५ For Private And Personal Use Only Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६८२ प्रश्नव्याकरणसूत्रे दोषसूचकं,परुष-परमर्मोद्धाटकं,कटुकम्-उद्वेगजनकम् चपलम् असमीक्ष्य प्रोक्तं यद् वचनं तस्मात्-मुनीनां परिरक्षणार्थम् , अर्थात्-मुनिभिरीदृशं वचनं न वाच्यमिति हेतोः ' भगवया ' भगवता 'सुकहियं ' सुकथितम् । कथम्भूतं प्रवचनं मुकथितम् ? इत्याह-' अत्तहियं ' आत्महितम् आत्मनो हितकारकम् , 'पेच्चाभावियं ' प्रेत्य भाविक-जन्मान्तरेऽपि शुभफलदायकम् , अतएव 'आगमेसिभ' आगमिष्यद् भद्रम्-भविष्यत्कल्याणकारकम् , तथा-' सुद्ध' शुद्धं निर्दोषत्वात् , पुनः 'नेयाउयं ' नैयायिक-न्यावयुक्तम् , वीतरागभाषितात , तथा-' अकुडिलं' अकुटिलम् ऋजुभावजनकत्वात् , ' अणुत्तरं । अनुत्तरम् सर्वश्रेष्ठत्वात् , तथा-सव्वदुक्खपावाणं' सर्वदुःखपापानां सकलदुःवजनकज्ञानावरणीयाधष्टविधकर्मणां 'विउसमणं' व्युपशमनम् सर्वथाप्रशमनकारकम् । एतादृशं प्रवचनं भगवता कथितमित्यर्थः ।। मू-३॥ कटुक, चपल, वचनों से मुनिजकों की रक्षा होती रहे इस अभिप्राय से (भगवया) भगवान ने (सु कहियं ) अच्छी तरह से प्रतिपादित किया है। असद्भूत अर्थ को कहने वाला बचन अलीक, पर दोष सूचकवचनपिशुन. पर के मर्मका उद्धाटक वचन परुष, उद्वेग को पैदा करने वाला वचन कटक, और विना विचारे बोला गया वचन चपल कहलाता है। यह प्रवचन (अत्तहियं) आत्मा का हितकारक है तथा (पेचाभावियं ) जन्मान्तर में भी शुभफल का देनेवाला है। (आगमेसिभदं) इसीलिये इसे भविष्यत् में कल्याणकारक कहा गया है। (मुद्धं ) इस प्रवचन में किसी भी प्रकार का पूर्वापरविरोधरूप दोष नहीं होने से ये शुद्ध हैं । ( नेयाउयं ) यह वीतराग द्वारा भाषित होने के कारण न्याययुक्त है। तथा (अकुडिलं ) इससे ऋजुभाव उत्पन्न हो जाता है इसलिये यह अकुटिल है। (अणुत्तरं ) इस के जैसा उत्तम और कोई કર, કડવાં, ચપલ વચનથી મુનિજનેનિ રક્ષા થયા કરે તે ઉદેશથી " भगवया " लगवाने “ सुकहियं" सारी रीते प्रतिपाइन युछ असहभूत मथने ४ना क्यन अलीक, ५२होष सूय क्यन पिशुन, न भने मुसो पातु वयन परुष, देश पहा ना२ १यन कटुक भने विद्यार्या विना मासायेस क्यन चपल ४उपाय छे. मा प्रययन "अत्तहियं ” मामाने माटे डिता२४ छ तथा “पेच्चाभावियं " समांतरभा ५९ शुभ ३॥ ना३ छे. " आगमेसिभ" ते २0 तेने भविष्यमा ४३या ४१२४ ४ाव्यु छ. “ सुद्धं" આ પ્રવચનમાં કોઈ પણ પ્રકારે પૂર્વાપરવિરોધરૂપ દેષ નહીં હોવાથી તે शख२. “ नेयाउयं" ते वीतराग द्वारा उपाये। पाथी न्याययुक्त छे. तथा "अकुडिल" तेनाथी अनुभाव-स२पता-पन्न थाय छ तथा ते मटिस छ, “ अणुत्तर" तेनार श्रेष्ठ मा ६५ नयी तेथी ते अनुत्तर छ. For Private And Personal Use Only Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सुदर्शिनी टीका अ२ सू० ३ सत्यस्वरूपनिरूपणम् ६८३ नहीं है इसलिये यह अनुत्तर है। और यह (सव्वदुक्खपावाणं विउसमणं) अनेकविध दुःखों के देने वाले ज्ञानावरणीयादि अष्टप्रकार के कर्मों का सर्वथा उपराम करने वाला है । ऐसे विशेषणों से विशिष्ट इस प्रवचन को भगवान ने कहा है । 61 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भावार्थ- सूत्रकार ने इस सूत्र द्वारा यह प्रकट किया हैं कि सत्य होने पर भी किस प्रकार के वचन नहीं बोलना चाहिये और किस प्रकार के वचन बोलना चाहिये। उन्हों ने कहा है कि जिन सत्यवचनों से संयम में बाधा आवें वे वचन कभी नहीं कहना चाहिये, क्यों कि ऐसे वचन सत्य होने पर भी असत्य के जैसे होने से हेय त्याज्य हैं । जिन सत्य वचनों से हिंसा हो जावे, पाप में जीवों की प्रवृत्ति हो जावे, चारित्र से भ्रष्ट हो जावे, अथवा अपने चारित्र में किसीप्रकार की बाधा उपस्थित हो जावे, राजकथा आदि का प्रसंग जिनमें होवे, जो प्रयोजन शून्य हों, जिनसे कलह उत्पन्न हो जावे, न्यायानुकूल जो न हों, अपवाद विवाद से जो युक्त हो, पर की विडम्बनाकारक हो, जिनके बोलने में अपनी आत्मप्रशंसा भरी हो, अथवा किसी प्रकार का आवेश भाव झलकता हो, सुनने वालो को जिनमें अपनी धृष्टता प्रकाशित અને તે सव्वदुक्खपावाणं विसमणं " અનેક પ્રકારનાં દુઃખા દેનાર જ્ઞાનાવરણી આદિ આઠ પ્રકારનાં કર્મોના સથા ઉપશમ કરનાર છે, એવાં વિશેષણાથી યુક્ત આ પ્રવચન ભગવાન મહાવીર દ્વારા કથિત છે. કે लेह थे, હેય છે. , ભાવાર્થ:-સૂત્રકારે આ સૂત્ર દ્વારા એ સ્પષ્ટ કર્યુ છે કે સત્ય પણ કેવા પ્રકારનાં વચન એલવાં જોઈએ, તેમણે એ બતાવ્યું છે વચનોથી સંયમમાં બાધા નડે, તેવા વના કદી પણ ન ખેલવાં કારણ કે તેવાં વચનેા સત્ય હોય તો પણ અસત્ય જેવાં હોવાથી જે સત્યવચનાથી હિંસા થઈ જાય જીવાની પાપમાં પ્રવૃત્તિ થાય, ચારિત્રમાં ભ્રષ્ટતા આવે, અથવા પેાતાના ચારિત્રમાં કોઈ પ્રકારની બાધા ઉપસ્થિત થાય, જેમાં રાજકથા આદિનું વર્ણન આવે, જે પ્રયાજન વિનાનું હોય, જેનાથી કલહુ પેદા થાય, જે ન્યાયાનુકૂળ ન હોય, જે અપવાદ વિવાદથી યુક્ત, પારકાની વિડખના કરનાર હાય, જે ખાલવામાં આત્મશ્લાઘા થતી હોય, અથવા કેઇ પ્રકારના આવેશ ભાવ જણાતા હાય, જેમાં સાંભળનાર આગળ પોતાની For Private And Personal Use Only હોય તા જે સત્ય Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्र होती हो, जिनके बोलने में लजा की भी लाज जाती हो, लोक में जो निन्दित माने जाते हों, पर के मर्म को जो छेदते हों, दुर्दृष्ट, दुःश्रुत एवं जो अज्ञात हों ऐसे सत्यवचन भी नहीं बोलना चाहिये । तथा भाषासमिति के विरोधी होने से ऐसे वचन भी नहीं कहना चाहिये कि जो दूसरों की निंदा कारक हों, कर्णकटु तथा दुःखप्रद हों, जैसेतू महामूर्ख है, मेघावी नहीं है, धर्मप्रिय नहीं है इत्यादि। तथा जो द्रव्य जैसा है, जैसे आकार का है, जिस क्षेत्र काल आदि से संबंध रखता है, ऐसा ही उसका प्रतिपादन करनेवाला अविसंवादी वचन जो होता है वह वचन द्रव्य से युक्त कहलाता है, इसी प्रकार उस द्रव्य में जो पर्यायें हो रही हों, अथवा- जिस पर्याय से वह युक्त हो-उस पर्याय का प्रदर्शक वचन पर्याय से युक्त वचन कहलाता है। गुणों की अपेक्षा को लेकर जो वचन बोला जाता है वह गुण से युक्त वचन कहलाता है । कृष्यादि व्यापारों को लेकर जो वचन कहे जाते हैं वे कर्मयुक्त वचन कहलाते हैं। " ये शिल्पी है ये चित्रकार हैं " इत्यादि जो क्रियाविशेषों को लेकर जो वचन कहे जाते हैं वे बहुविधशिल्पयुक्त वचन कहलाते हैं। तथा सिद्धान्त के अनुसार जो वचन कहे जाते हैं वे सिद्धान्तयुक्त वचन कहलाते हैं । इसी तरह नाम आदि से युक्त जो ધૃષ્ટતાનું પ્રદર્શન થતું હોય, જે બેલવામાં લાજ લેખાતી હોય, જગતમાં જે નિદાપાત્ર મનાતાં હોય, બીજાના મર્મને જે છેદતાં હોય, દુખ, દુઃશ્રત, અને જે અજ્ઞાત હેય એવાં સત્યવચન પણ બોલવાં જોઈએ નહીં. તથા ભાષાસમિતિના વિરોધી હોવાથી એવાં વચને પણ ન બોલવાં જોઈએ કે જે બીજાની નિન્દાકારક હોય, કર્ણકટુ તથા દુખપ્રદ હોય જેમ કે “તું મહામૂર્ખ છે, મેધાવી નથી, ધર્મપ્રિય નથી ” ઈત્યાદિ, તથા જે દ્રવ્ય જેવું છે જેવા આકારનું છે, ક્ષેત્ર કાળ આદિ સાથે સંબંધ રાખે છે, એવું જ તેનું પ્રતિપાદન કરનારાં અવિસંવાદી જે વચને હોય છે તે વચને દ્રવ્યયુક્ત કહેવાય છે એ જ પ્રમાણે તે દ્રવ્યમાં જે પર્યાયે થઈ રહી છે, અથવા જે પર્યાયથી તે યુક્ત હોય, તે પર્યાયને દર્શાવનારૂં વચન પર્યાયયુક્ત વચન કહેવાય છે. ગુણોની અપેક્ષાએ જે વચન બોલાય છે ને ગુણયુક્ત વચન કહેવાય છે, કૃધ્યાદિ વ્યાપારની અપેક્ષાએ જે વચન બોલાય છે તે કર્મયુકત क्यन ४वाय छे. " तसा शिपी छ, तेसो मित्रा२ छ” त्याहि ठियाવિશેની અપેક્ષાએ જે વચન કહેવાય છે તે બહુવિધ શિલ્પયુક્ત વચન કહેવાય છે. એ જ પ્રમાણે નામ આદિથી યુક્ત જે વચન કહેવાય છે તે For Private And Personal Use Only Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुदर्शिनी टीका अ० २ सू०४ प्रथमभावनास्वपनिरूपणम् संपति सत्यवचनस्य पञ्च भावनाः प्रतिपादयन् पूर्व समितियोगलक्षणां प्रथमां भावनामाह-' तस्स इमा' इत्यादि मूलम्-तस्स इमा पंच भावणाओ बीयस्स वयस्स अलियवयण-बेरमण-परिरक्खणट्टयाए । पढमं सोऊण संवरटुं परमटुं सुट्ठ जाणिऊण न वेगियं, न तुरियं, न चवलं न कडुयं, न फरुसं, न साहसं, न य परस्त पीलाकर सावज्ज सच्चं च मियं च गाहगं च सुद्धं संगयमकाहलं च समीक्खियं संजएण कालम्मिय वत्तव्वं । एवं अणुवीइ. समिइजोगेण भाविओ भवइ अंतरप्पा संजयकरचरणनयणवयणो सूरो सच्चज्जवसंपण्णो ॥ सू०४ ॥ टीका- तस्स ' तस्य प्रसिद्धस्य ‘बीयस्स वयस्स' द्वितीयस्य व्रतस्य इमाः वक्ष्यमाणाः पञ्च ' भावणाओ' भावनाः ‘अलियवयणवेरमणपरिरक्षणवचन कहेजाते हैं वे नामादियुक्त वचन कहलाते हैं। इस प्रकार के ये सत्यवचन संयम आदि के बाधक नहीं होते है। ऐसे वचन सव्यव्रती बोल सकता हैं। तथा वह प्राकृत आदि भेद से बारह प्रकार की भाषा और एकवचन आदि के भेद से सोलह प्रकार का वचन भी बोल सकता है। इस प्रकार के वचन बोलने में प्रभु की आज्ञा है। ऐसे वचन बोलने में किसी भी जीव को बाधा नहीं पहुँचती है ।। मू०३ ॥ ___ अब सूत्रकार सत्यवचन की पांच भावनाओं को कहने के अभिप्राय से सर्वप्रथम वे अनुविचिन्त्य समिति नाम की प्रथम भावना નામાદિયુક્ત વચન કહેવાય છે, પ્રકારનાં તે સત્યવચને સંયમ આદિમાં બાધક થતાં નથી. એવાં વચન સત્યવતી બોલી શકે છે. તથા તે પ્રાકૃત આદિ ભેદથી બાર પ્રકારની ભાષા અને એક વચન આદિ ભેદથી સળ પ્રકારના વચન પણ બોલી શકે છે, આ પ્રકારનાં વચન બોલવાની પ્રભુની આજ્ઞા છે, એવાં क्यने यासाथी ४५Y ने साधा पडेयता नथी ।। सू. 3 ॥ હવે સૂત્રકાર સત્યવચનની પાંચ ભાવનાઓ દર્શાવવાને માટે સૌથી પહેલાં તેઓ અનુવનિ સમિતિ નામની પહેલી ભાવનાનું વર્ણન કરે છે For Private And Personal Use Only Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६८६ प्रश्नव्याकर णसूत्रे याए ' अलीकवचनविरमणपरिरक्षणार्थम्-मृपावादविरमणव्रतपरिरक्षणार्थ सन्ति । तासु ' पढमं ' प्रथमां समितियोगलक्षणां भावनामाह-'सोऊण' श्रुत्वा-सुगुरु समीपे समाकर्ण्य, तथा-' परमहूँ ' परमार्थ-परमतत्त्वं पथप्नभावनारहस्यं ' संवरहें' संवरार्थ-संवरस्य-मृषावादविरतिलक्षणस्य अर्थ प्रयोजनं-मोक्षलक्षणम् , अथवा-संवरः कर्मनिरोधएव अर्थः प्रयोजनं यस्य स तं तथोक्तम् , यद्वा-संवरस्य= प्रस्तुतसंवराध्ययनस्य अर्थवाच्यं 'मुटु' सुष्टु-सम्यक जाणिऊण' ज्ञास्या न-नैव 'वेगियं' वेगितं नदीप्रवाह बढेगयुक्तं वचनं वक्तव्यमित्यग्रेण सम्बन्धः, तथा-न नैव ' तुरिय' खरितं-वात्यावत् त्वरायुक्तं वचनचाञ्चल्यात् , न-नैव कहते हैं-' तस्स इमा' इत्यादि। टीकार्थ-(तस्स बीयस्स वयस्स इमा पंच भावणाओ ) उस प्रसिद्ध द्वितीय महाव्रत की ये वक्ष्यमाण पांच भावनाएँ ( अलियवयणवेरमण परिरक्खणट्टयाए ) उस अलीकवचन विरमणरूप सत्यव्रत की रक्षा के लिये हैं। उनमें (पढमं ) प्रथम भावना इस प्रकार है- (परमटुं संवरहें सोऊण) सुगुरु के समीप प्रथम भावना के रहस्य को कि जो रहस्य मृषावाद विरतिरूप प्रयोजन वाला है, अथवा कर्मनिरोधरूप संवर ही जिसका प्रयोजन है, अथवा इस प्रस्तुत संवराध्ययन के वाच्यार्थ को सुनकरके (सुदु जाणिऊण ) अच्छी तरह जान करके (न वेगियं ) नदी के प्रवाह की तरह वेगयुक्त वचन साधु को नहीं बोलना चाहिये इस प्रकार "वत्तव्यं" शब्द का संबंध सब के साथ लगा लेना चाहिये। (न तुरियं ) वात्या-वधूरे-की तरह स्वरायुक्त वचन चंचलता से युक्त " तस्स इमा" त्या: - " तस्स बीयस्स वयस्स इमा पंच भावणाओ" ते प्रसिद्ध मlad भारतनी मा वक्ष्यमाए पाय लावना “ अलियवयणवेरभणपरिरक्खजदयाए" ते मली-मसत्य-विरमा ३५ सत्यव्रतनी परिक्षाने भाटे छे. तमा " पढमं” पडेशी लापन मा प्रमाणे छ-" परमटुं संवरद सोऊण " ससुरु પાસે પહેલી ભાવનાનું રહસ્ય કે જે મૃષાવાદ વિરતિરૂપ પ્રજનવાળું છે, અથવા કર્મ નિરોધરૂપ સંવર જ જેનું પ્રયોજન છે, અથવા આ પ્રસ્તુત सध्ययननी पाया सजीन “सुठुजाणि ऊण" सारी रीते आणीने न वेगिय " नहीना पानी मवेशयुत पयन साधुणे माता જોઈએ નહીં આ રીતે “વક્તવ્ય” શબ્દને સંબંધ બધા સાથે જોડી લે. " न तुरियं" पात्या-१५२।-नी रे (परायुत " न चवलं " घोनी पति For Private And Personal Use Only Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनीटीका अ० २ सू. ४ प्रथमभावनास्वरूपनिरूपणम् १८७ 'चवलं ' चपलं हयगमनवच्चपलभावसमन्वितम् , न नैव कडुयं ' निम्बवत् कटुकम् अर्थतः, न नैव — फरुसं' परुषं-कठोरं-पाषाणवस्कठोरभावयुक्तं, तथा नम्नैव ' साहसम्'- उन्मत्तवत् अविचारितं, तथा-' न य ' न च ' परस्स' परस्य पीडाकर-दुःखजनक 'सावज्जं ' सावधं-सपापं वचनं वक्तव्यम् । उक्तदोषदुष्टं वचनं न वक्तव्यमित्यर्थः। तर्हि कीदृशं वचनं वक्तव्यम् ? इत्याह-'सच्चं च-सद्भूतार्थत्वात् ‘हियं च-परिणाममुखजनकत्वात् , ' मियं ' मित च, परिमिताक्षरत्वात् , तथा-' गाहगं' ग्राहक श्रोतुरर्थप्रतीतिजनकत्वात् , प्रीतिजनकत्वाश्च, ' सुद्धं ' शुद्ध-वेगितत्वादिदोषरहितत्यात , तथा- संगयं ' संगतम्= युक्तियुक्तत्वात् , ' अकाहलं ' अाहलं-मन्मनाक्षररहितत्वातू , च-पुनः ' समिक्खियं ' समीक्षितं-पूर्व बुद्धया पर्यालोचित्तत्वात् , एतादृशं वचनं ' संजएण' (न चवले) घोड़े के गमन की तरह चपलभाव से युक्त (न कड्डयं) नीम की तरह अर्थतः कटुक, इसी तरह (फरुसं) पाषाण की तरह कठोर (न साहसं) उन्मत्त के वचन की तरह अविचारित, और (न य परस्स पीलाकरं ) पर को पीडाजनक (सावज्जा) सावधपापयुक्त ऐसे वचन नहीं बोलना चाहिये। किन्तु जो वचन (सच्चं च) सद्भूत अर्थ को विषय करने वाले होने से सत्य हों, (हियं च ) परिणाम में सुखजनक होने से हितकारक हों, (मियं च ) परिमित अक्षरों से युक्त होने से जो मित हों, (गाहगं च ) श्रोता को अर्थ की प्रतीति एवं प्रीति के कराने वाले होने से ग्राहक हों, (सुद्ध) वेगित्वादि दोषों से रहित होने से शुद्ध हो, तथा (संगयं) संगतयुक्ति युक्त हों, ( अकाहलं ) अकाहल हो मन्मन अक्षर से रहित हों, (समिक्खियं ) समीक्षित हों-बुद्धि से पहिले जिनका विचार अच्छी तरह कर लिया २५५:१मा युत पयन, “न कडुय" नाभन यु टले ४९४, मे ४ ते “ फरुसं" ५८०२ २ १२ “ न साहसं." Sभित्तन पयन र अवियारी, भने “न य परस्स पीलाकर" भीतने पी31118 "सावज्जा" सावध-५१५युत पयन मस नहीं. ५५५ रे क्यन "सच्चं च" यथार्थ मथने विषय ४२॥२ डापाथा सत्य डाय, “हिय च " परिणाम सुमन हवाथी ति।२४ हाय " मिय च" पलिभित सक्षशवाणु वाथी २ भित डाय, “ गाहग च" श्रोताने अर्थनी प्रतीति भने प्रीति रावनार डापाथी आ लाय, " सुद्ध” गित्व मा ५२हित पाणी शुद्ध छाय, तथा " संगय" सात-युस्तियुत आय, “अकाहल" मास डाय-भन्मन पक्ष। विनानु राय, “ समिक्खिय" सभीक्षित खाय-मुद्धिथा न पडदा For Private And Personal Use Only Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६८८ प्रश्नव्याकरणसूत्रे संयतेन साधुना 'कालम्मि य' काले च=अवसरे 'वत्तव्य' वक्तव्यम् । एवम् अनेन प्रकारेण · अणुवीइ समिइजोगेण' अनुविचित्यसमितियोगेन अनुविचित्य पर्या लोच्य या समितियोगेन=भागारूपासमितिः, तस्या योगेन ‘भाविओ' भावितःअन्तरप्पा' अन्तरात्मा जीवः-' संजयकरचरणनयणवयणो' संयतकरचरणनयनवदनः संयतं = सम्यग्यतनायुक्त करचरणनयनवदनं यस्य स तथोक्तःसन् समाहितेन्द्रियः सन्नित्यर्थः, 'मरो' शूरः पराक्रमशाली, 'सच्चज्जवसंपन्नो' सत्याजैवसंपन्नः-सत्यम् अमृषा आर्जवम्-ऋजुता, ताभ्यां संपन्नो-युक्तो भवति । इत्येषापथमा भावना ।। मू-४ ॥ गया हो ऐसे हों, ऐसे ही वचन साधु को अवसर आने पर-जब तब नहीं किन्तु बोलने का जब समय उपस्थित हो तब बोलना चाहिये। ( एवं ) इस प्रकार ( अणुवीइसमिइ जोगेण) अनुविचिन्त्य भाषासमिति के योग से-विचार कर बोलने रूप भाषासमिति के संबंध से (भाविओ अंतरपा) भावित हुआ जीव (संजयकरचरणनयणवयणो) अच्छी तरह यतना से युक्त कर-हाथ, चरण-पैर, नयन-नेत्र एवं वदन-मुख वाला बनकर, अर्थात् समाहित इन्द्रियों याला होकर (सूरो ) पराक्रमशाली बन जाता है, अर्थात् सत्यमहाव्रत की आराधना में आये हुए उपसर्गों और परीषहों को जीतने में शक्तिशाली हो जाता है। तथा ( सच्चज्जवसंपन्नो भवइ ) सत्य और ऋजुता से संपन्न बन जाता है। भावार्थ--अहिंसा व्रत की तरह सत्यव्रत की भी पांच भावनाएँ हैं। उनमें पहिली भावना अनुविचिन्त्य भाषा समिति है। विचारસારી રીતે વિચાર કરી લીધું હોય, એવાં વચને જ સાધુએ અવસરે ગમે ત્યારે નહીં, પણ બેલવાને સમયે ઉપસ્થિત થાય ત્યારે બેલવાં જોઈએ. " एवं" 20 ५४२ : अणुवीइ समिइ जोगेण" अनुविचिन्त्य भाषा समितिमा योगथी - विया२ अरीन पासवा३५ लाषा समितिना सथी " भाविक्षो अंतरप्पा" भावित अनेस ७१ "संजयकरचरणनयणबयणो ” सारी शते યતનાયુત હાથ, પગ, નેત્ર અને મુખવાળા થઈને, અથવા સમાહિત ઈન્દ્રિयोवा न " सरो" भाजी मनी नय छ मेरो सत्य महाવતની આરાધનામાં નડેલ ઉપસર્ગો અને પરીષહને જીતવાને સમર્થ બની જાય छ, तथा “ सच्चज्जवसंपन्नो भवइ" सत्य मने तुताथी युवत मनी तय छे. ભાવાર્થ—અહિંસાવ્રતની જેમ સત્યવ્રતની પણ પાંચ ભાવનાઓ છે. તેમાં પહેલી ભાવના અનુંવિચિન્ય ભાષાસમિતિ છે. વિચારપૂર્વક બોલવું તેને અનુ For Private And Personal Use Only Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुवशिमी टीका अ० २ सू० ५ द्वितीयभावनास्वरूपनिरूपणम् ६९ अथ क्रोधनिग्रहरूपां द्वितीयां भावनामाह--' वीर्य कोहो ' इत्यादि मूलम्-बीयं कोहोणसेवियवो, कुद्धो चंडिकिओ माणुसो अलियं भणेज, पिसुणं भणेज, फरसं भगेज, अलियं पिसुणं फरुसं भणेज, कलहं करेज, वेरं करेज, विगहं करेज, कलहं वेरं विगहं करेज, सच्चं हणेज, सीलं हणेज, विणयं हणेज सच्चं सीलं विणयं हणेज, वेलो भवेज, वत्थु भवेज्ज, गम्मो भवेज्ज, वेसो वत्थु गम्मो भवेज्ज, एवं अन्नं च एवमाइयं पूर्वक बोलना इसका नाम अणुविचिन्त्य भाषण है । यह भाषा समितिरूप है। सत्य में और भाषा समिति में कुछ भेद कहा गया है वह यह है कि हरएक के साथ संभाषण व्यवहार में विवेक रखना तो भाषा समिति है। और अपने समशील साधु पुरुषो के साथ संभाषण व्यवहार में हित मित और यथार्थवचन का उपयोग करना सत्यव्रतरूप यतिधर्म है । इस भावना से इस सत्यव्रत की स्थिरता होती है । बोलते समय साधु को वेग ले, त्वरा से और चपलता से नहीं बोलना चाहिये। और न विना विचारे ही बोलना चाहिये । बोलने का जब समय आवे तब ही सत्य, हिल, मित वचन बोलना चाहिये। अविचारित और अस्पष्ट वचन नहीं बोलना चाहिये। इस तरह की वचन प्रवृत्ति में सावधान बना हुआ साधु सत्यत्रत को सुशोभित करता हुआ प्रत्येक अपनी कर चरण आदि की प्रवृत्ति को यतनापूर्वक करता रहता है।सू०४॥ વિચિત્ય ભાષણ કહે છે. તે ભાષાસમિતિરૂપ છે. સત્યમાં અને ભાષા સમિતિમાં કેટલાક ભેદ બતાવવામાં આવ્યા છે. તે એવા પ્રકારના છે કે દરેકની સાથે વાતચીતમાં વિવેક રાખે એ તે ભાષાસમિતિ છે. અને પિતાનાં સમશીલ સાધુજને સાથે વાતચીતમાં હિત, મિત અને યથાર્થ વચનને ઉપયોગ કરે તે સત્યવ્રતરૂપ યતિધર્મ છે. આ ભાવનાથી તે સત્યવ્રત દૃઢ થાય છે. બોલતી વખતે સાધુએ વેગથી ત્વરાથી અને ચપલતાથી બોલવું જોઈએ નહીં. વિના વિચાર્યું પણ બેલવું જોઈએ નહીં જ્યારે બેલવાને અવસર આવે ત્યારે જ સત્ય, હિત, મિત વચન બોલવાં જોઈએ. અવિચારિત અને અસ્પષ્ટ વચન બલવાં જોઈએ નહીં. આ પ્રકારની વચન પ્રવૃત્તિમાં સાવધાન બનેલ સાધુ સત્ય વતને સુશોભિત કરતા, પિતાની કરણ ચરણ અદિની પ્રત્યેક પ્રવૃત્તિને યતનાપૂર્વક કરતા રહે છે સૂo ૪ છે. For Private And Personal Use Only Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे भणेज्ज, कोहग्गिसंपलितो, तम्हा कोहो न सेवियम्यो । एवं खंतीइ भाविओ भवइ अंतरप्पा संजयकरचरणनयणवयणो सूरो सच्चज्जवसंपन्नो ॥ सू० ५ ॥ टीका-बीयं ' द्वितीयां भावनामह-'कोहो ' क्रोधः शमादिअक्षान्ति= अक्षान्तिपरिणतिरूपो 'न सेवियव्यो' न सेवितव्यः । कथं न सेवितव्यः? इत्याह -'कुट्टो' क्रुद्ध =क्रोधयुक्तः, 'चं डकिओ' चाण्डिक्यितः चाण्डिक्यं रौद्ररूपत्वं संजातमस्य चाण्डिक्यितः रौद्ररूपयुक्तः ' माणुसो मानुषः ' अलियं ' अलीकम् असत्यं ' भणेज्न' भणेत्=भाषेत, तथा-'पिसुण ' पिशुन-परदोषसूचकं वचनं भणेत् , 'फरुसं' परुपं परमर्मोद्धाटकं भणेत् , तथा-'अलियं पिमुणं फरुसं' अलीकं पिशुनं परुषमेतत्त्रितयमपि भणेत् । तथा-कलहं-बाग्युद्धं 'करेज' कुर्यात् , 'वेरं ' वैरं-शत्रुतां ' करेज्ज ' कुर्यात् , ' विगहं ' विकथां-विगतार्थी अब सूत्रकार क्रोधनिग्रहरूप द्वितीयभावना को प्रकट करते हैं'वीयं कोहो' इत्यादि, टोकार्थ-क्रोध निग्रहरूप जो द्वितीय भावना है उसमें (कोहो न सेवियवो) क्रोध का सेवन नहीं किया जाता है। क्यों कि जो ( कुद्धो मणुसो ) क्रोधयुक्त पुरुष होता है वह (चंडकिओ) रौद्ररूप से युक्त बन जाता है। ऐसा मनुष्य ( अलियं भणेज ) झूठ बोल देता है (पि. सुणं भज्ज) पर के दोषो के सूचक वचन बोल देता है (फरूसंभणेज) दूसरों के मर्मको छेदने वाले वचनों को कह देता है, तथा ( अलियं पिसुणं फरूसं भणेज ) अलीक, पिशुन और परुष, इन तीनों तरह के वचनों का भी प्रयोग कर देता है । (कलहं करेज्ज ) परस्पर में वाग्युद्ध - હવે સૂત્રકાર કોનિગ્રહરૂપ બીજી ભાવનાનું સ્પષ્ટીકરણ કરે છે. "बीय कोहो" त्या टी -बोधनियह३५ रे भी भावना छ तम " कोहो न सेवियव्वो" डोधन सेवन न ४२ मे २९१ 2 "कुद्धो मणुसो” ओधी पुरुषो डाय छे ते! " चंडक्किओ" शैद्र३५१७॥ मनी तय छ. येवो भनुष्य " अलिय भणेज्ज" मोसी नांजे छ. “ पिसुणं भणेज्ज" मीलन होप. ही वयनी मोसी ना छ “ फरस भणेज्ज" भी सीनां ममन छेड़ना क्यनेो माली नय छ, तथा “ अलियौं पिसुणं फरुस भणेज्ज' असत्य पिशुन भने ५५, से ये प्रा२ना क्यानो प्रयोग ४२नाणे. “ कलई For Private And Personal Use Only Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० २ सू० ५ द्वितीय भावनास्वरूपनिरूपणम् ६९१ शास्त्रविरुद्धां कथां वार्तां कुर्यात्, ' कलहं वेरं विगहूं ' कलहं वैरं विकथां च कुर्यात्, तथा-' सच्चं ' सत्यं = सद्भूतार्थं 'होज्ज ' हन्यात् = नाशयेत्, 'सील' शीलं = सदाचारं हन्यात्, 'विजयं ' विनयं विनीतभावं हन्यात् । तथा-क्रोधयुक्तो मानवः ' वेसो ' द्वेष्यः - सर्वेषामप्रियो ' भवेज्ज ' भवेत् तथा - ' वत्थं ' वास्तु = गृहं, दोषगृहं = दोषपात्रं ' भवेज्ज' भवेत्, तथा - ' गम्मो ' गम्यः अनादरस्थानं भवेत् तथा - ' बेसो वत्युं गम्मो द्वेष्यो वास्तुगम्य एतत्त्रितयोऽपि भवेत् । ' एयं ' एतत्=पूर्वोक्तम्, 'अन्नं ' अन्यच्च ' एवमाइयं ' एवमादिकम् = ' , को भी ठान देता है, (वेर करेज्जा ) दूसरों से शत्रुता भी कर लेता है, तथा ( विगहं करेज्जा ) जो कथा शास्त्र से विरुद्ध होती है उसे भी कह देता है । तथा ( कलहं वेरं विगहं करेज्ज) कलह वैर और विकथा, इन तीनों को भी करता है। तथा ( सच्चं हणेज्ज ) सत्य - सद्भूत अर्थ का अपलाप कर देता है। तथा ( सीलं हणेज्ज ) शील-स - सदाचार नष्टकर देता है, (वियं हणेज्ज) विनीत भाव को धिक्कार देता है । तथा ( सच्चं सीलं विषयं हणेज्ज ) सत्य शील और विनय, इन तीनों को नष्ट कर देता है । तथा (वेसो भवेज्ज ) जो मानव क्रोध से युक्त होता है वह दूसरो को अप्रिय बन जाता है, ( वत्युं भणेज्ज ) द्वेष पात्र बन जाता हैं और ( गम्मो भवेज्ज) सब के अनादरणीय होता है । (वेसो वत्युं गम्मो भवेज्ज) यह दूसरों को अप्रिय द्वेषपात्र और अनादर इन तीनों का स्थान बन जाता है। इन पूर्वोक्त वचनो को तथा ( एवं अन्नं च एवमाइयं) इसी प्रकार के और भी दूसरी तरह के असत्य 4: करेज्ज ” परस्परमां वाग्युद्ध पशु वहोरे हे " वेर' करेज्जा " मील बोअ साथै शत्रुता परे छे, तथा “ विगहूं करेज्जा ” તથા જે કથા શાસ્ત્રની विरुद्ध होय छे ते पशु अरे छे. तथा " कलह, वेरं विगहं करेज्ज "" उसले, वैर याने विस्था मे त्र उरे छे तथा "सच्चं हणेज्ज" सत्य - यथार्थ' अर्था अपलाय उरी नाचे छे, “ सील हणेज्ज " शीस-सहायारनो नाश नाथे छे, " विषय हणेज्ज ” विनीत लावने धिरे छे, तथा सच सीलं विणयं हज्ज ” सत्य, शील भने विनय से त्राने नष्ट हरी नाथे छे. तथा भवेज्ज " ? मानव अधयुक्त भने छे ते मीलने सप्रिय थाय छे, 66 वत्थु भवेज्ज " द्वेषपात्र मनेो मने " गम्मो भवेज्ज " जघाने भाटे मनाहश्यात्र मने छे. dar arr गमो भवेज्ज " ते जीनने अप्रिय द्वेषपात्र भने मना દરપાત્ર એ ત્રણેનું સ્થાન બને છે. એ પૂર્વોક્ત વચના તથા एवं अन्न च " 66 वेसो 66 For Private And Personal Use Only Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे एवं जातीयं वचनं ' कोहग्गिसंपलित्तो' क्रोधाग्निसंपदीप्तो नशे ‘भणेज्ज' भणेत् कथयेत् , ' तम्हा' तस्मात् कारणात् । कोहो न सेवियचो' क्रोधो न सेवितव्यः। एवम् अनेन प्रकारेण' खंतोइ' क्षान्त्या-उपशमेन ' भाविओ' भावितः ' अंतरप्पा' अन्तरात्मा जीवः संयतकरचरणनयनवदनः शूरः सत्याजवसंपन्नो भवति ॥ ५ ॥ इति द्वितीया भावना ॥२॥ वचनों को (कोहग्गिसंपलित्तो भवेज ) क्रोधाग्नि से संतप्त हुआ मनुष्य कह दिया करता है। (तम्हा कोहो त सेवियन्यो ) इसलिये क्रोध का कभी भी संयमीजन को सेवन नही करना चाहिये। (एवंखंतीइ भाविओ अंतरप्पा ) इस प्रकार क्षान्तिपरिणति से वासित हुआ जीव (संजयकरचरणनयणवयणो) संयत कर, चरण, नयन वदन वाला हो जाता हैं और (सूरो) अपने सत्यव्रत की आराधना में पराक्रमशाली होता हुआ (सच्चज्जवसंपन्नो भवइ) सत्य और आर्जव इन दोनों से संपन्न बन जाता है। भावार्थ-सूत्रकार ने इस सूत्र द्वारा सत्यव्रत की दूसरी भावना का वर्णन किया है। वह भावना क्रोध निग्रह रूप है। क्षान्तिपरिणति क्रोध की होती है। मनुष्य पर जब इसका आवेश आ जाता है तो उसकी आकृति बदल जाती है उसका रूप रौद्र हो जाता है। इस स्थिति में उस का वचन व्यवहार सत्यधर्म से प्रतिकूल हो जाता है ! वह इसके आवेश में यहा तद्वा वोलने लग जाता है । उसको इस बात का एवमाइयं " स १२नां भी पशु मसत्य क्यन। “कोहगिसंपलित्तो भवेज्ज" धनियुस्त मनुष्य मादी तय छ “ तम्हा कोहो न सेवियन्वो" ते ४२ सयभी सोओथे ४ही. ५ ओघ ४२ मे नही. “एवं खंतीइ भाविओ अंतरप्पा" मा रीते क्षान्तिपरिणतिथी मावित थये ७५ " संजय करचरणनयणवयणो" सयत, थ, ५१, नयन, पहनवाजे थ/ नय छ भने "सूरो" पोताना सत्यवतनी साराधनामा प्रराम “सञ्चज्जवसंपन्नो भवइ" सत्य અને આર્જવ, એ બનેથી યુક્ત બની જાય છે. | ભાવાર્થ –-સૂત્રકારે આ સૂત્રકાર સત્યવ્રતની બીજી ભાવનાનું વર્ણન કર્યું છે. તે ભાવના કોનિગ્રહરૂપ છે. જ્ઞાતિ પરિણતિથી ઉલટી પરિણતિ કોધની હોય છે, મનુષ્ય પર જ્યારે તેને આવેશ આવે છે ત્યારે તેની આકૃતિ બદ. લાઈ જાય છે, તે રૌદ્રરૂપ ધારણ કરે છે, આ પરિસ્થિતિમાં તેનાં વચને તથા વ્યવહાર સત્ય ધર્મથી પ્રતિકૂળ થઈ જાય છે. તે તેના આવેશમાં ગમે તેવું For Private And Personal Use Only Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० २ सू०६ तृतीयभावनास्वरूपनिरूपणम् १९३ अथ तृतीयां लोभनिग्रहरूपां भावनामाह-'तइयं लोहो' इत्यादि । मूलम्-तइयं लोहो न सेवियत्वो, लुद्धो लोलो भणेज्ज अलियं । खेत्तस्स वेत्थुस्स वा कएण लुद्धो लोलो भणेज्ज भान नहीं रहता है कि इन हमारे वचनों से दूसरे प्राणियों के प्राणों पर क्या बीतेगी । झूठ बोलने में उसे थोडा सा भी संकोच नहीं होता। दूसरे की चुगली करने से वह नहीं चुकता-पर के ऊपर असत्यदोषारोप करने से वह पीछे नहीं हठता। हर किसी के साथ कलह करता रहता है। शत्रुता करने में वह बड़ा निपुण होता है । शास्त्र विरुद्ध बोलने की इसे थोड़ी सी भी चिन्ता नहीं होती। जो पदार्थ जिस रूप में होता है उसे उस रूप में कहने में इसे शर्म आती है। विनीतभाव को इसकी दृष्टि में कोई कीमत नहीं होती है । जब यह क्रोधरूपी अग्नि से संतप्त हो उठता हैतब इसकी परीस्थिति पूर्वोक्त प्रकार से तो होती है परन्तु इससे अधिक भी कभी २ बन जाती है । ऐसी स्थिति में इसका कोई हितैषी नहीं रहता है। सब ही इसका अनादर करने लगते हैं। इसलिये इस क्रोध का परिहार करना चाहिये । इस प्रकार विचार कर जो मुनिजन क्षान्ति परिणति से इम क्रोध को जीतते हैं अर्थात् क्रोध नहीं करते हैं वे ही इस द्वितीयभावना से अपने अन्तःकरण को वासित कर सत्यव्रत को स्थिर बना लेते हैं ।। सू० ५॥ બોલવા લાગે છે. તેને તે વાતનું પણ ભાન રહેતું નથી કે મારાં વચનથી બીજા પ્રાણીઓના જીવને કેટલું દુઃખ થાય છે. અસત્ય બોલવામાં તેને જરા પણ સંકોચ થતું નથી. બીજાની નિંદા કરતાં પણ તે અટકતું નથી–અન્યની ઉપર અસત્ય ષારોપ કરતા તે પાછો હઠતે નથી. હરકેઈ સાથે તે કલહ કરતે રહે છે. દુશ્મનાવટ કરવામાં તે નિપુણ હોય છે. શાસ્ત્રવિરૂદ્ધ બોલવામાં તેને જરા પણ દુખ થતું નથી. જે પદાર્થ જે રૂપે હોય છે તે રૂપે તેને કહેવામાં તેને શરમ લાગે છે. તેની દષ્ટિએ વિનીત ભાવની કઈ કીમત હતી નથી. જ્યારે ક્રોધરૂપી અગ્નિથી સંતપ્ત થઈ જાય છે ત્યારે તેની હાલત પૂર્વોક્ત પ્રકારની તે થાય જ છે પણ તેનાથી અધિક પણ કઈ કઈ વાર બને છે એવી સ્થિતિમાં તેને કઈ હિતેષી રહેતો નથી. સૌ તેને અનાદર કરવા માંડે છે. તેથી તે કોઇને ત્યાગ કરે એઈએ. આ રીતે વિચારીને જે મુનિજન ક્ષાતિ પરિણતિથી એ કોધને જીતે છે, એટલે કે ક્રોધ કરતા નથી, તેઓ જ આ બીજી ભાવનાથી પિતાના અંતકરણને ભાવિત કરીને સત્યવ્રતને સ્થિર કરી લે છો સૂપ For Private And Personal Use Only Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे अलियं १, कित्तीए लाभस्स वा कएण लुद्धो लोलो भणेज्ज अलियं २, इड्डीए सोक्खस्स वा कएण, लुद्धो लोलो भणेज्ज अलियं ३, भत्तस्स पागस्स वा कएण, लुद्धो लोलो भणेज्ज अलियं ४, पीढस्त फलगस्स वा कएण, लुद्धो लोलो भणेज्ज अलियं ५, सेज्जाए संथारगस्स वा कएण, लुद्धो लोलो भणेज्ज अलियं ६, वत्थस्स पत्तस्स वा कएण, लुतो लोलो भणेज्ज अलियं ७, कंबलस्स पायपुंछणस्स वा कएण, लुद्धो लोलो भणेज्ज अलियं ८, सोसस्स सोसणीए वा कएण, लुद्धो लोलो भणेज्ज अलियं ९, अन्नेसु एवमाइसु बहुसु कारणसएसुलुद्धो लोलो भणेज्ज अलियं १० तम्हा लोहो न सेवियवो, एवं मुत्तीए भाविओ भवइ अं. तरप्पा संजयकरचरणनयणवयणो सूरोसच्चज्जवसंपन्नो॥६॥ टाका-' तइयं ' तृतीयां भावनामाह- लोहो न सेवियब्यो' लोभो न सेवितव्यः । लोभसेवनेन किं भवेत् ? इत्याह-'लुद्धो ' लुब्धो लोभयुक्तो नरो 'लोलो' लोला=वश्वलापन् 'अलियं ' अलीक-फूटभवन भणेज्ज' भणेत्= कथयेत् । केन निमित्तेन लुब्धोऽलीकं भणेत् ? इत्याह- खेत्तस्स' क्षेत्रस्य __ अब सूत्रकार तृतीय भावना जो लोभनिग्रह रूप है उसे प्रकट करते हैं-'तथं लोहो' इत्यादि । टीकार्थ-( तइयं ) लोभ निग्रहरूप तृतीय भावना इस प्रकार से है(लोहो न सेवियव्यो) लोभ सेवन करने योग्य नहीं है। क्यों कि (लुद्धो लोलो अलियं भणेज्ज) लोभ के सेवन करने से प्राणी लुब्ध कहलाता है, और वह लोभ युक्त बना हुआ मनुष्य चञ्चल चित्त होकर वे सूत्र वोलनिय नामनी श्री भावना वर्णन ४२ छ “तइयं लोहो" ७. --" तइयं " सोनिश्र३॥ त्री लावना ॥ प्रभारी छ-" लोहो न सेवियव्वो" साल सेवन ४२वाने योग्य नथी. ४२६३ ॐ “लुद्धो लोलो अलियं भणेज्ज" होलन सेवन ४२वाथी ll यु"५ ४उपाय छ, भने ते बोलत भनुष्य यया. चित्तवाणी नेट क्यान मोदी श , “खेत्तस्स वत्थुस्स For Private And Personal Use Only Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० २ सू०५ तृतीयभावनास्वरूपनिरूपणम् ६९५ f , " 6 'वस्थुस्स ' वास्तुनः=वासभूमे व 'करण' कृतेन कृते इत्यर्थः अत्र हेस्वर्थे तृतीया एवं सर्वत्र ज्ञेयम् । लुब्धो लोलोऽलीकं भणेत् ॥ १॥ तथा कित्तीए कीर्ते: ' लाभस्स ' लाभस्य वा कृते लुब्धो लोलोऽलीकं भणेत् ॥ २ ॥ 'इडीए' ऋद्धेः-संपत्तेः ' सौक्खस्स' सौख्यस्य वा कृते लुब्धो लोलोऽलीकं भणेत् ॥ ३ ॥ भक्तस्य पानस्य वा कृते लुब्धो लोलोलीकं भणेत् ॥ ४ ॥ पीठस्स ' पीठस्य फलगस्स ' फलकस्य वा कृते लुब्धो लोलोऽलीकं भणेत् ॥ ५ ॥ तथा'सेज्जाए ' शय्यायाः ' संथारगस्स ' संस्तारकस्य वा कृते लुब्धो लोलोऽलीकं भणेत् । ६ । 'वत्थस्स' वस्त्रस्य = चोलपट्टादे: ' पत्तस्य ' पात्रस्व वा कृते लुब्धो कूट वचन बोल सकता है (खेत्तस्स वत्थुस्स वा कण लुद्धो लोलो अलिय भणेज्ज) कूटवचन - झूठवचन बोलने के निमित्त ये उसे होते हैं - वह लोभी मनुष्य चञ्चलचित होता हुआ खेत अथवा निवासभूमि- गृह के निमित्त झूलवचन कह सकता है ( कित्तीए लाभस्स वा कण लुद्धो लोलो अलियं भणेज्ज ) अपनी कीर्ति अथवा लाभ के निमित्त असत्यभाषण कर सकता है (इडीए सोक्खस्स वा कएण लुद्धो लोलो अलियं भणेज्ज) ऋद्धि-संपत्ति अथवा सौख्यके निमित्त असत्यवचन बोल सकता है । (भत्तस्स पाणस्स वा कएण लुद्रो लोलो अलियं भणेज्ज ) आहार अथवा पानी के निमित्त असत्यवचन कह सकता है ( पीढस्स फलगस्स वा कण लुद्धो लोलो अलियं भणेज्ज ) पाट अथवा बाजोठ के निमित्त असत्यवचन कह सकता है; ( संज्जाए संवारगस्स वा कएण लुद्धो लोलो अलियं भणेज्ज ) शय्या अथवा संस्तारक के लिये वह लोभ चलचित्त होकर असत्य बोल सकता है ( वत्थस्स पत्तस्स वा करण वा करण लुडो लोलो अलियं भणेज्ज " तेनेड्रंट वयन-असत्य वथन मोझवानां નિમિત્ત આવાં હાય છે તે લાભી મનુષ્ય ચંચલ ચિત્ત થતા ખેતર અથવા निवासभूमि-घरने निमित्ते असत्य वयन अड्डी शडे छे. " कित्तीए लाभस्स वा कण लुद्धो लोलो अलियं भणेज्ज ” ते पोतानी डीर्ति अथवा सालने भाटे અસત્ય મેલી શકે છે इड़िए सोक्स व करण लुद्धो लोलो अलिय भणेज्ज " ऋद्धि संपत्ति अथवा सुमने भाटे ते असत्य वयन मोदी श छे 66 (C भत्तर पाणस्स वा कण लुडो लोलो अलियं भणेज्ज " भाडार अथवा पालीने भाटे ते असत्य वथन उडी शडे छे " पीढम्स फलगरस वा करण लुट्टो लोलो अलियं भणेज्ज " पाट अथवा इसने निमित्ते ते असत्य वयन मोझी शडे छे. 16 संजोए संयोगस्स वा कएण लुद्धो लोलो अलियं भणेज्ज " સસ્તાર માટે તે લેાભી ચ'ચલ ચિત્ત થતાં અસત્ય એલી શકે For Private And Personal Use Only " शय्या अथवा છે. (( वत्थास Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे लोलोऽलीकं भणेत् ॥७॥ 'कंबलस्स' कम्बलस्य 'पायपुंछ गस्स' पादपोन्छनस्य वा कृते लुब्धो लोलोऽलीकं भणेत् ॥८॥ तथा 'सीसस्स' शिष्यस्य 'सीसणोए' शिष्याया वा कृते लुब्धो लोलोऽलीकं भणेत् ॥९॥ ‘अन्नेसु' अन्येसु 'एबमाइएमु' एवमादिकेषु एवं प्रकारेषु बहुषु कारणशतेषु प्राप्तेषु लुब्धो लोलोऽलोक भणेत ॥ १० ॥' तम्हा' तस्मात् कारणात् लोभो न सेवितव्यः । एवम्-अमुना प्रकारेण 'मुत्तीए' मुक्या-निर्लोभतारूपया भावितः 'अंतरप्पा' अन्तरात्मा जीवः संयतकरचरणनयनवदनः शूरः सत्यार्जवसंपन्नो भवति ॥ सू०६ ॥ ॥ इति तृतीया भावना ॥ लुद्धो लोलो अलिय भणेज्ज ) इसी तरह वस्त्र अथवा पात्र के लिये चंचल चित्त बना हुआ वह लोभी झूठ वचन बोल सकता है (कंबलस्स पायपुंछणस्स वा कएण लुद्धो लोलो अलियं भणेज्ज ) कम्बल अथवा पादपोंछन के निमित्त को लेकर वह चंचल चित्त बना हुआ लोभी मृषावादि कह सकता है (सीसस सीसणीए वा कएण लुद्धो लोलो अलियं भणेज्ज) शिष्य अथवा शिष्या के निमित्त लुब्ध वह चंचलचित्त होकर मृषाभाषण करता है ( अन्नेसु एवमाइएसु बहुसु कोरणसएसु लुद्धो लोलो अलियं भणेज्ज ) इसी तरह और भी इनसे सैकड़ों कारणों को निमित्त करके वह लोभी चंचल चित्त होकर झूठ बोल सकता है (तम्हा लोहो न सेवियन्यो ) इसलिये लोभ सेवन करने योग्य नहीं है। ( एवं मुत्तीए भाविओ अंतरप्पा) इस प्रकार निर्लोभतारूप तृतीय भावना से बासित हुआ अंतरात्मा-जीव (संजयकरचरणनयनवयणो) अपने कर, चरण, नयन और मुखकी प्रवृत्ति को यत्नावार से संयमित पत्तस्स वा कएण लुद्धो लोलो अलिथं भणेज " से प्रभारी पर पात्रने भोट यस वित्त थयेस तसाली मसत्य वचन मालीश छ. "कंबलस्स पायपंछणस्न बा कएण लुद्धो लोलो अलियं भणेज्ज" स पाया भाट त यस वित्त पनेस सोनी भूषापा ४ीश छे “सीसम्स सीसणीए वा कएण लुद्धो लोलो अलिचं भणेज्ज" शिष्य अथवा शिष्याने निमित सुध यस यित्त भृपा॥५९, ४२श त. “ अन्नेसु एवमाइएसु बहुसु कारण मएस लडो लोलो अलिय भणेज्ज" २ रीते 21 सिवायन से होने नमित्त तेली यायित्त ने सत्य मानी श छे. " तम्हा लोहो न सेवियवो "तथी सोन सेवन. ४२वायोग्य नथी. “ एवं मुत्तीए भाविओ अंतरप्पा” मा शत निमिता३५ त्री भावनाथी भावित बनेर मतरात्मा-८०१ "संजयकरचरणनयणवयणो" पोताना डाथ, ५, नयन अने भुभनी प्रवृत्तिने यतनाव संयमित ४३ से छ. मने "सूरो" पाताना सत्यव्रतना पासनमा For Private And Personal Use Only Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १९७ दर्शिनी टीका म० २ स० ७ चतुर्थीभावनास्वरूपनिरूपणम् अथ चतुर्थी धैर्यभावनागह-' चात्थं इत्यादि-- __ मूलम्-चउत्थं न भीइयव्वं, भी खु भया अइंति लहुअं, भीओ अविनिज्जओ मणूसो, भीओ भूएहिं घिप्पड़, भीओ अन्नं पि हु मेसेज्जा; भीओ तवसंजमं पि हु मुएज्जा, भीओ य कर लेता है और ( सूरो) अपने सत्यव्रत के पालन में पराक्रमशाली बन कर (सच्चजवसं नो भवइ ) सत्य और आर्जव धर्म से संपन्न हो जाता है। भावार्थ-सूत्रकार ने इस सूत्र द्वारा सत्यव्रत की तृतीय भावना को कहा है। इस तृतीय भावना का नाम लोभनिग्रह है। लोभ के निग्रह करने के लिये विचारधारा इसमें प्रकट की है। 'लोभ ही पाप का बाप है ' ऐसा ख्याल कर लोभ के फंदे में नहीं फंसना चाहिये। जो लोभी होता हैं वह लुब्धक कहलाता है। लोभी का चित्त हरएक वस्तु की प्राप्ति के निमित्त चंचल हो उठता है। लोभी व्यक्ति अपनी स्वार्थसिद्धि के निमित्त झूठ बोल सकता है । खेत, मकान, ऋद्धि, सुख, भक्त, पान आदि को निमित्त लेकर असत्य भाषण करता है। अतःलोभ का निग्रह करना ही उचित है इस प्रकार भावना भा कर जो इस लोभ को परित्याग से अपनी आत्मा को वासित बनाता है वह अपने सस्यमहाव्रत को स्थिर कर लेता है । उसकी प्रत्येक प्रवृत्ति संयमित होती है ।। सू ० ६॥ पराभशाप पनीने '. सच्चज्जवसंपन्नो भव" सत्य सन मा भथी યુક્ત થઈ જાય છે. ભાવાર્થ-સૂત્રકારે આ સૂત્રમાં સત્યવ્રતની ત્રીજી ભાવનાનું વર્ણન કર્યું છે. આ ત્રીજી ભાવનાનું નામ લેયનિગ્રહ છે. તેને નિગ્રહ કરવાને માટે વિચારધારા આમાં પ્રગટ કરી છે. “લાભ જ પાપને બાપ છે.” આવે વિચાર કરીને લેભની જાળમાં ફસાવું જોઈએ નહીં, જે લેભી હોય છે તે લુખ્યક કહેવાય છે. લેભીનું ચિત્ત દરેક વસ્તુની પ્રાપ્તિ માટે ચંચલ થઈ જાય છે. લોભી વ્યકિત પિતાનો સ્વાર્થ સાધવાને માટે અસત્ય બોલી શકે છે. ખેતર, મકાન, સંપત્તિ સુખ, આહાર, પાણ આદિને નિમિત્તે પણ તે અસ ત્યવચને લે છે. તેથી તેભનો નિગ્રહ કરે તે જ સેવ્ય છે એવા પ્રકારની ભાવના સેવીને જે આ લેભના પરિત્યાગથી પિતાના આત્માને વાસિત બનાવે છે. તેઓ પોતાના સત્ય મહાવ્રતને સ્થિર કરી લે છે તેમની દરેક પ્રવૃત્તિ सयभित य छ। सू० ६॥ For Private And Personal Use Only Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १९८ प्रश्नव्याकरणसूत्रे भरं न नित्थरज्जा, सप्पुरिसनिसेवियं च मग्गं भीओ न समत्थो अणुचरिडं। तम्हा न भीइयव्वं भयस्त वा वाहिस्स वा रोगस्स वा जराए वा मच्चुरस वा अन्नरस वा एवमाइयस्स । एवं धिज्जेण भाविओ अंतरप्पा संजयकरचरणनयणवयणो सूरो सच्चज्जवसंपन्नो ॥ सू०७॥ टीका-'चउत्थं ' चतुर्थी भावनामाह-' न भीइयव्वं ' न भेतव्यं भयं न कर्तव्यम् । कथं भयं न कर्तव्यम् ? इत्याह-' भीयं' भीतं भययुक्तं प्राणिनं खलु ' भया' भयानि 'लहुयं ' लघुकं शीघ्रम् ' अइंति' आयन्ति प्राप्नुवन्ति, तथा ' भीओ' भीतः ‘मणुसो ' मनुष्यः 'अवितिज्जओ' अद्वितीयः=असहायो भवति, अयं भावः-भीतो मनुष्यो न कस्यापि सहायको भवति, न कोऽपि तस्य सहायको वा भवति । तथा-' भीओ' भीतो मनुष्यः ‘भूएहिं ' भूतैः= प्रेतैः । धिप्पइ ' गृह्यते, भूताविष्टो भवतीत्यर्थः । तथा-भीतः 'अन्नं पि' अन्यमपि ' मेसेज्जा ' भीपयते । तथा-भीतः । तवसंजमं पि ' तपः संयममपि___ अब सूत्रकार चौथी भावना जो धैर्य भावना है उसे कहते हैं'चउत्थं' इत्यादि। टीकार्थ -( च उत्य ) वह चौथी धैर्य भावना इस प्रकार से है (न भीइयव्वं ) भय नहीं करना चाहिये । क्यों कि (भीयंखु भया अइंति लहुअं ) जो भययुक्त होता है उस प्राणी के पास निश्चय से भय शीघ्र आते हैं। (भीओ अवितिज्जओ मणूसो ) तथा जो भय से डरता है ऐसा मनुष्य अद्वितीय होता है-वह न किसी की सहायता कर सकता है और न कोई दूसरा मनुष्य उसका ही सहायक होता है। (भीओ भुएहिं घिप्पड़ भीत मनुष्य को भूत पकड़ लेते हैं। भीओ अन्नं पि हु भेसेज्जा) भय से भीत हुआ मनुष्य दूसरों को भी भययुक्त वे सूत्र४।२ ये थी धैर्य लापन नामजी माना विडे -" च उत्थं " त्यादि टीर्थ–'चउत्थं" ते याथी धैय भावन! २५॥ प्रभा छे.."न भीइयव्व' मय भवन नहीं. ४.२६५ "भीयं खु भया अइति लहुअंरे भी हाय छेते व्यक्ति पासे यास मय शी मावे छ. " भीओ अवितिज्जओ मणूसो" तथा यथी ७२ छे वो मनुष्य द्वितीय हाय छ-ते धने. મદદ કરી શકતો નથી અને કેઈ બીજે મનુષ્ય તેને સહાયક થતું નથી. " भीओ भूएहिं धिप्पइ " अयमीत मनुष्यने भूत ५४ी से छे. “ भीओ अन्नं पि हु भेसेन्जा" मयनात भनुष्य मी सोने ५५ लयलीत ४२ छ, तया“ भीआ For Private And Personal Use Only Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सुदर्शिनी टीका अ०२ सु०७ चतुर्थी भावनास्वरूपनिरूपणम् ६९९ ' 1 तपः संयमं चापि ' मुएज्जा ' मुञ्चति परित्यजति । तथा-भीतः ' भर 'भारम् = कार्यभार ' न नित्थरेज्जा' न निस्तारयति=न निर्वाहयति । तथा 'सम्पुरिसनिसेवियं सत्पुरुषनिषेवितं च ' मग्गं ' मार्गं भीतो न ' समत्यो ' समर्थः = पर्याप्तः ' अणुचरिउं ' अनुचरितुम् सत्पुरुषासेवितं मार्ग भयत्रस्तो न गन्तुं शक्नोतीति भावः । ' तम्हा ' तस्माद् हेतोः ' भयस्स वा ' भयस्य भीते f ' वाहिस्स ' व्यावे:=क्रमेण प्राणापहारिणः कुष्ठादे व ' रोगस्स' रोगस्य = शीघ्रतया प्राणापहारिणो ज्वरादे व ' जराए' जरायाः वा मच्चुस्स ' मृत्यो of ' अन्नस्स ' अन्यस्य = एभ्य इतरस्य वा एवमाइयस्स ' एवमादिकस्य - एवं Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बना देता है, तथा ( भीओ तवसंजमं पिहुमुएज्जा) वह तप संयम का भी परित्याग कर देता है । ( भीओ य भरं न तित्थरेज्जा ) भीत मनुष्य शक्ति से इतना अधिक विहीन बन जाता है, अर्थात् उसमें इतनी अधिक मानसिक दुर्बलता आ जाती है कि जिसकी वजह से वह किसी कार्यभार को वहन नहीं कर सकता, अर्थात् किसी भी काम को वह पूरा नहीं कर सकता । ( सप्पुरिसनिसेवियं च मग्गं भीओ न समत्थो अणुचरिडं ) सत्पुरुष जिस मार्ग का सेवन करते आये हैं उस मार्ग पर चलने के लिये भी वह बिचारा समर्थ नहीं हो सकता हैं। ( तम्हा न भीइयव्वं भयस्स वा वाहिस्स वा रोगरस वा ज़राए वा मच्चुस्स वा अन्नरस वा एवमाइयस्स ) इसलिये कीसी भी प्रकार के भय के, क्रम २ से प्राणों को अपहरण करनेवाली व्याधि के, अथवा कुष्ठादिके, शीघ्रता से प्रागों का अपहरण करनेवाले ज्वर आदि रोग के, वृद्धावस्था के, तथा मृत्यु के अथवा इन्हीं जैसी अन्य और कोई तवसंजमं पिहुमुएज्जा” ते तप संयमना पशु परित्याग उरी हे छे “भीओ य भरं न तित्थरेज्जा” भयलीत भाणुसो भेटसा गधा शक्तिहीन था लय छे, गोटो } तेनाभां 22 એટલી બધી માનન્તિક દુળતા આવી જાય છે કે જેના કારણે તે કાઈ પણ કાયના એજો ઉડાવી શરતે નથી. એટલે કે કોઈ પણ કામને તે પૂરું કરી શકતા નથી. " सप्पुरिस निसेवियं च मर्ग भीओ न समत्थो अणुचरिउ ” सत्पुरुषो ने भार्गनु' सेवन કરતા આવ્યા છે, તે માર્ગે ચાલવાને પણ તે સમ ખની શકતા નથી. 66 'तम्हा न भीइयव्वं भयम्स वा वाहिस्सवा रोगस्स वा जराए वा मच्चुरस वा अन्नरस वा एवमाइयस्स તેથી કોઇ પણ પ્રકારના ભયથી, ક્રમે ક્રમે પ્રાણાને હરી લેનાર વ્યાધિના, અથવા કુષ્ટાદિના, શીવ્રતાથી પ્રાણ હરી લેનાર જવર આઢિ રાંગના, વૃદ્ધાવસ્થાના તથા મૃત્યુના અથવા તેમના જેવી કોઈ પણ પ્રકા For Private And Personal Use Only Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७०० प्रश्नव्याकरणसूत्र विधस्य भव्यजनकस्य वस्तुनो वशात् न ' भीइयव्वं ' भेतव्यम् एवम् अनेन प्रकारेण · धिज्जेण' धैर्येण · भाविओ' मावितः 'अंतरप्पा' अन्तरात्मा जीवः संयतकरचरणनयवदनः शूरः सत्याजवसंपन्नो भवति ॥ ७ ॥ ॥ इति चतुर्थी भावना ॥ अथ पञ्चमी मौनभावनामाह- पंचमं ' इत्यादि मूलम्-पंचमं हासं न सेवियत्वं । अलियाई असंतगाई जंपति हासइत्ता परपरिभवकारणं च हासं, परपरिवायप्पियं च हासं, परपीलाकारगं च हासं, भेयविमुत्तिकारगं भयजनक वस्तु के वश से नहीं डरना चाहिये । ( एवं धेज्जेण भाविओ अंतरप्पा संजय करचरणनयणवयणो सुरो सच्चज्जवसंपन्नो भवइ ) इस प्रकार धैर्य से भावित हुआ जीव अपने कर, चरण, नयन एवं यदन की प्रवृत्ति को संयमित रखता हुआ सत्यत्रत के पालन में पराक मशाली बन जाता है और सत्य एवं आर्जव भाव से संपन्न हो जाता है। भावार्थ-सूत्रकार ने इस सूत्र द्वारा सत्यत्रत की चौथी भावना कहा है। इस भावना का नाम धैर्यभावना है। इस भावना में धैर्य के अभाव में क्या २ हानि होती है और धैर्य रखने से क्या २ लाभ होते हैं, इन सब बातोंका विचार किया जाता है । इन विचारों से आत्मा जब धैर्य शाली बन जाती है तो वह अपने द्वारा गृहीत सत्यव्रत को पूर्णरूप से सुरक्षित रखति हुइ स्थिर बना लेती है ।। मू०७॥ २नी लयन वस्तुन। नयथी ४२ मे नही, “ एवं धेज्जेण भाविओ अंतरप्पा संजयकरजरणनयणवयणो सूरो सच्चज्जवसंपन्नो भवई' ४२ धैर्य थी ભાવિત થયેલ જીવ પિતાના કર, ચરણ, નયન, અને વદનની પ્રવૃત્તિને સંયમિત રાખીને સત્યવ્રતના પાલનમાં પરાક્રમશાળી બની જાય છે અને સત્ય તથા આજેલના ભાવયુક્ત બની જાય છે. ભાવાર્થ–સૂત્રકારે આ વ્રત દ્વારા સત્યવતની થી ભાવના બતાવી છે. તે ભાવનાનું નામ પૈર્યભાવના છે. આ ભાવનાનું વર્ણન કરતાં ધર્યના અભાવે કયી કયી હાનિ થાય છે. અને હૈયે રાખવાથી કયા કયા લાભ થાય છે તે બધાને વિચાર કરી છે. આ વિચારથી આત્મા જ્યારે ધર્યવાન બને છે ત્યારે તે પોતે ગ્રહણ કરેલ સત્યવ્રતને સંપૂર્ણ રીતે સુરક્ષિત અને સ્થિર मनावी छ ॥ सू० ७ ॥ For Private And Personal Use Only Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० २ सू० ८ पञ्चमीभावनास्वरूपनिरूपणम् ७०९ हासं, अण्णापणजणियं च होज्ज हासं, अपणोण्णगमणं च होज मम्म, अण्णोण्णगमणं च होज्ज कम्मं कंदप्पभिओगगमणं च होज्ज हासं, आसुरियं किब्बिसत्तणं च जणेज्ज हासं, तम्हा हासं न सेवियध्वं । एवं मोणेण य भाविओ भवइ. अंतरप्पा संजयकरचरणनयणवयणो सूरो सच्चज्जवसंपन्नो ॥ सू० ८ ॥ टीका-'पंचमं ' पश्चमी भावनामाह-' हास' हास्यं नोकषायमोहोदयासनिमित्तमनिमित्तं वा विवृतवर्णपुरस्सरं मुखव्यादान हास्यम् , न 'सेवियब्वं' सेवितव्यम् । किमर्थ न सेवितव्यम् ? इत्याह-'हासइत्ता' हासयितारः-परिहासकारिणः 'अलियाई' अलिकानि सद्भूतार्थगोपनरूपाणि 'असंतगाई' असत्कानि= अब सूत्रकार पंचमी मौन भावना को कहते हैं-'पंचम , इत्यादि । टीकार्थ-(पंचमं ) पांचवी मौन भावना इस प्रकार है। (हासं न सेवियत्वं ) इस भावना में हास्य के सेवन का परित्याग कर दिया जाता है । जब जीव को हास्यनो कषाक मोह का उद्य होता है तब वह हास्य का निमित्त मिले अथवा न भी मिले तो भी वह हीही करता हुआ हँसने लग जाता है । हँसते समय उसका मुख खुल जाता हैं दांत स्पष्ट दिखलाइ देने लगते है। संयमी जन को इस हास्य का सेवन नहीं करना चाहिये । क्यों कि (हासइत्ता) जो परिहास करने वाले व्यक्ति होते हैं वे ( अलिअई असंतगाई जंपंति ) सद्भूत ये सूत्रा२ पायमी मौनमा मत है-" पंचमं " त्याह eltथ - पंचमं” पांयमी भौनसावन मा प्रमाणे छे–“हासं न सेवियब्वं ” भावनामा स्यना परित्या॥ ४२राय छे. न्यारे अपने 'हास्यनोकषाय' भाडनी य थाय छे त्यारे ते हास्यतुं निमित्त भणे न भणे છતાં પણ તે “હી-હી” કરતે હંસવા મંડી જાય છે. હસતી વખતે તેનું મુખ ઉઘડી જાય છે અને દાંત સ્પષ્ટ રીતે દેખાય છે. સંયમી જને આ હાસ્યનું सेवन ४२ मे नही २५ है “ हासइत्ता " परिडास ४२॥२ व्यति डाय छे ते “ अलिआई असंतगाई जंपति” यथा मन छुपानार भने For Private And Personal Use Only Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७०५ reaterणसूत्रे } असद्भूतार्थानि वचनानि 'जंपंति' जल्पन्तियते । हास्यकारिणो द्वितीयमहाव्रतनाशका भवन्तीत्यर्थः । कीदृश हास्यम् ? इत्याह - ' परपरिभवकारणं - परापमानहेतुकं च हास्यं भवति । तथा - 'परपरिवायप्पियं' परपरिवादप्रियं = परपरिवादः = अन्यदूषणाविधानं प्रिय इष्टो यस्मिंस्तत्तादृशं च हास्यं भवति । तथा-' परपीलाकारगं ' परपीडाकारकं च हास्यं भवति । तथा-' भेयविमुत्तिकारणं भेदविमूर्तिकारकं - भेदः = चारित्रभङ्गः: विमूर्तिः = विकृतनयनवदनादित्वेन विकृतशरीराकृतिस्तयोः कारकं च हास्यम् । 'अण्णोष्णजणियं च होज्ज हार्स ' अन्योन्यअर्थको गोपन करने वाले एवं असद्भूत अर्थ को प्रकट करने वाले वचनों को बोला करते हैं । सत्यमहाव्रत में सद्भूत अर्थका प्रकाशन और असद्द्भुत अर्थ का प्रकट करना हेय कहा है, अतः हास्य में जब इस प्रकार की परिस्थिति रहती हैं कि उसमें असद्भूत अर्थ का प्रकटन और सद्भूत अर्थ का गोपन होता है, तो द्वितीय महाव्रत का संरक्षण इस अवस्था में कैसे हो सकता है नहीं हो सकता, इसलिये हास्य का त्याग कहा गया है । ( परपरिभवकारणं च हासं ) हास्य पर के अपमान का कारण होता है। (परपरिवायप्पियं च हास') होस्य में पर के दूषण का कथन करना प्रीय लगता है । ( परपीलाकारगं च हासं) हास्य में इस बातका भी ध्यान नहीं रहता है कि इस हास्य से अन्य को कष्ट हो रहा है । ( भेयविभुत्तिकारगं च हास) हास्य चारित्र के भंग का हेतु हो जाता है। इसमें नयन वदन आदि शारीरिक अवयव विकृत बन जाते हैं । ( अण्णोष्णजणिय च होज्ज हासं ) हास्य અસદ્ભૂત અને પ્રગટ કરનારાં વચને મેલ્યા કરે છે. સત્યમહાવ્રતમાં સદ્ભૂત અર્થનું ગેાપન તથા અસદ્ભૂત અર્થનું પ્રકાશન હેય ગણાવેલ છે. તા હાસ્યમાં જ્યારે એવા પ્રકારની પરિસ્થિતિ રહે છે કે તેમાં અસદ્ભૂત અર્થ પ્રગટ કરાય છે અને સત્કૃત અર્થનું ગેપન કરાય છે, તે એ પરિસ્થિતિમાં દ્વિતીય મહાવ્રતનું રક્ષણ કેવી રીતે થઈ શકે ? થઇ શકે જ નહીં માટે હાસ્યના પરિત્યાગ उरवो लेहो मेस सूत्रारे मतान्युं छे. " परपरिभवकारणं च हासं હાસ્ય અન્યના અપમાનનું કારણ બને છે. " परपरिवायप्पिय' हास " हास्यभां અન્યનાં દૂષણૢાનું કથન કરવું પ્રિય લાગે છે. " परपीलाकार व हासं " હાસ્યમાં તે વાતનું પણ ભાન રહેતું નથી કે તે હાસ્યથી કાઈ બીજાને કષ્ટ थ रधुं छे. " भेयविमुत्तिकारगं च हासं " हास्यने सीधे यरित्रनो झोप થાય છે. તેમાં નયન, વદન આદિ શરીરના અવયવા વિકૃત થઈ જાય છે. " अण्णोष्णजणियं च होज्ज हासं " हास्य में से पधारे माणुस अन्योन्य भण "" For Private And Personal Use Only Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुर्शिनी टीका अ० २ सू० ८ पञ्चमीभावनास्वरूपनिरूपणम् ७०३ अनितं-परस्परकृतं च भवति हास्यम् , तथा हास्ये 'अण्णोण्णगमणं ' अन्योन्यगमनं-परस्पराधिगमनीयं च ' मम्म' मम-प्रच्छन्नपारदार्यादिदुचेष्टितं भवति । तथा-' अण्णोण्णगमणं' अन्योन्यगमनं-परस्परविज्ञेयं च ' कम्म' कर्म लोकनिन्दादिरूपं होज्ज' भवति । हास्येन पच्छन्नमपि कर्म प्रकाशितं भवतीति भावः। तथा-'कंदप्पाभिभोगगमणं' फन्दाभियोगगमनम् कन्दः कान्दर्पिका देवविशेषा हास्यकारिणो भण्डप्रायाः, अभियोगाः आज्ञाकारिणो देवाः, तेषु गमनं गमनकारणम् तत्तद्देवविशेषेषत्पत्तिकारणं च भवति हास्यम् । हास्यकारी साधुश्चारित्रलेशाद्देवत्वं प्राप्तोऽपि तत्र कान्दर्पिकेषु आभियोगिकेषु देवेघृत्पद्यते न तु महर्दिकेषु इत्यर्थः। तथा-' आसुरियं ' असुरत्वं 'किव्विसत्तणं' किल्विषत्वं चाण्डालप्रायदेवविशेषत्वं च 'जणेज्ज' जनयेत् 'हासं' हास्यम् । यतो हास्या दीदृशो गतिर्भवति जीवस्य, ' तम्हा' तस्मात् ' हास' हास्यं न सेवितव्यम् । आपस में दो आदि जन मिलने से होता है। (अण्णोण्णगमणं च होज्ज मम्म) इस हंसी में परदाररमण आदि दुश्चेष्टायें प्रच्छन्न रहा करती हैं। तथा ( अण्णोण्ण गमणं च होज्ज कम्म) इसी हंसी में परस्पर में होनेवाले दुष्कृत्यों से उनकी लोक में निंदा होती है उसे बाहर वे अपने मुख यद्यपि नहीं कहा करते हैं फिर भी आपस की हँसी से ही उनका दुष्कृत्य लोकों के समक्ष प्रकाशित हो जाता है। (कंदप्पाभिओगगमणं ) तथा हास्यकारी साधू चारित्र के लेश से यदि देवगति में उत्पन्न होवे तो भी वह भांड जैसे कान्दर्पिक तथा आज्ञाकारी आभियोगिक देवों में उत्पन्न होता है महर्द्धिक देवों में नहीं। ( आसुरिवं किब्बिसत्तणं घजणेज्ज हासं ) यह हास्य चांडालप्राय अमुरदेवों में किल्बिषजाति के देवों में उत्पत्ति का कारण होता है। (तम्हा हासन सेवियव्वं ) इसपाथी थाय छे. “अण्णोण्णगमणं च होज्ज मम्म” से हास्यमा ५२६॥२२भए। माहिदुश्येष्टाया प्रसन्न २९ती हाय छे. तथा “ अण्णोण्णगमणं च होज्ज कम्मं " 24t (२यमा मन्योन्य यता त्याने सीधे तेनी मा नि थाय છે, તેને તેઓ પોતાનાં મુખથી બહાર કહ્યા કરતાં નથી તે પણ અન્યની सी-भ०१४थी ४ तेभर्नु हुकृत्य हो। समक्ष २ थ/ नय छे. “ कंदप्पाभि ओगगमणं " तथा २५४२ साधु ने देवतिभा पन्न थाय तो ५५ ચારિત્રતાની ન્યૂનતાને કારણે તેઓ ભાંડ જેવા કાંદપિંક તથા આજ્ઞાકારી આભિयोगि वामा पनि थाय छ, भदि वोभा नहीं. " आसुरिय किब्वि. सत्तणं च जणेज्ज हास" ते हास्य यांस मातिमा असुरवामा विveतिना हेवामा उत्पत्तिनुं ॥२६ मने छ. " तम्हा हासं न सेवियव्वं" ते For Private And Personal Use Only Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे एवम् अनेन प्रकारेण हास्यवर्जनरूपेण, 'मोणेण' मौनेनन्धचनसंयमेन 'भाविओ' भावितः 'अंतरप्पा' अन्तरात्मा जीवः संयतकरचरणनयनवदनः शूरः सत्यार्जवसंपन्नो भवति ॥ सू ० ८ ॥ लिये जब हास्य से जीव की ऐसी गती होती है कि वह इस हास्य का सेवन नही करे। ( एवं ) इस प्रकार (मोणेण य भाविओ अतरप्पा संजय करचरणनयणवयणो सूरो सच्चजवसंपन्नो भवइ ) हास्यवर्जनरूप मौन से-वचन संयम से-भावित हुआ जाव अपने कर, चरण, नयण और वदन-मुख की प्रवृत्ति को संयमित बनाता हुआ सत्यव्रत के पालन में पराक्रमशाली बन जाता है और सत्य एवं आर्जवभाव से संपन्न हो जाता है। ___ भावार्थ-सूत्रकार ने इस सूत्र द्वारा पाँचवी मौन भावना का स्वरूप कहा है। मौन भावना का तात्पर्य हास्य का परित्याग करना है । हांसी करने वाला प्राणी झूठ वचन का प्रयोग भी प्रसंगवश करता है । तथा इस कृत्य से दूसरों का अपमान भी होता है। हास्य मनोविनोद का कारण होता है सही परन्तु संयमी के लिये हास्य से मनोविनोद करने की क्या आवश्यकता है । हास्य से दूसरों के मनों में चोट पहुँचे इससे और अधिक अशोभनीय घात क्या हो सकती है। अध्यात्म के मार्ग में हँसी मजा करने का सर्वथा परित्याग कहा है । हास्य में पर के दूषणों का कथन प्रिय लगता है। यह हास्य नो કારણે--હાસ્યથી જીવની એવી ગતિ થાય છે તેથી જીવનું તે કર્તવ્ય છે કે તે હાસ્યનું सेवन न ४२. “ एवं " 20 रे “ मोगेण य भाविओ अंतरप्पा संजयकरचरणनयणवयणो सूरो सच्चज्जवसंपन्नो भवइ” हास्य त्याग३५ भौनयी क्यन સંયમથી ભાવિત થયેલ જીવ પિતાના કર, ચરણ, નયન અને વદનની પ્રવૃત્તિને સંયમિત કરીને સત્યવ્રતના પાલનમાં પરાક્રમશાળી બની જાય છે અને સત્ય તથા આર્જવ ભાવથી યુક્ત બની જાય છે. ભાવાર્થ-સૂત્રકારે આ સૂત્રધારા પાંચમી મૌન ભાવનાનું સ્વરૂપ બતાવ્યું છે. મૌન ભાવનાનું તાત્પર્ય હાસ્યને પરિત્યાગ છે. હાંસી કરનાર માણસ પ્રસંગ વશાત અસત્ય વચનને પ્રવેગ પણ કરે છે, તથા તે કૃત્યથી બીજાનું અપમાન પણ થાય છે. હાસ્ય-મને વિનેદને માટે કારણ જરૂર હોય છે. પણ સંયમીને હાસ્યની મદદથી મને વિનાદ કરવાની શી આવશ્યકતા છે? હાસ્યને કારણે અન્યનાં દિલમાં ચોટ લાગે તેનાથી વધારે ખરાબ વાત બીજી કઈ હોઈ શકે ? અધ્યાત્મ માર્ગમાં હંસી મજાકનો સર્વથા ત્યાગ બતાવ્યું છે. હાસ્યમાં બીજાનાં For Private And Personal Use Only Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० २ सू० ९ अध्ययनोपसंहारः द्वितीयं संरद्वारमुपसंहरन्नाह - ' एवमिणं ' इत्यादि - मूलम् - एवमिणं संवरस्स दारं सम्मं संचरियं होइ सुप्पणिहियं इमेहिं पंचहिं वि कारणेहिं मणत्रयणकायपरिरक्खिएहिं निच्चं आमरणतं च एस जोगो णेयव्वो धिइमया मइमया अणासवो अकलुसो अच्छिदो अपरिस्सावी असंकिलिट्ठो सव्वजिणमणुन्नाओ । एवं बीयं संवरदारं फासियं पालियं सोहियं तीरियं किट्टिये अणुपालियं आणाए आराहियं भवइ, एवं कषाय के उदय से होता है। जिससे चारित्र का भंग होता है । दूसरे व्यक्तियों की गुप्त चेष्टाएँ भी इस हास्य के द्वारा प्रकट हो जाया करती हैं। यद्यपि चारित्र का इससे पूर्णरूप से भंग नहीं भी होता है तो भी साधु इसके प्रभाव से महर्दिक देवों में उत्पन्न नहीं होता है। कान्दर्पिक आभियोगिक आदि देवों में ही उत्पन्न होता है, अतः हास्य का सेवन करना सत्यवती के लिये सर्वथा त्याज्य है, ऐसा समझ कर जो इसका परित्याग कर देता है वह सत्यवती अपने व्रत को पूर्णरूप से स्थिर कर पालन करता है । इस प्रकार हास्य जन्य दोषों का विचार कर हास्यव जनरूप वचनसंयम से अपनी आत्मा को भावित करके साधु अपने व्रताराधन में पराक्रमशाली बन जाता है और गृहीत सत्यव्रत को पूर्णरूप से सुरक्षित कर स्थिर बना लेता है | सू० ८ ॥ For Private And Personal Use Only ७०५ દૂષણા જાહેર કરવા તે પ્રિય લાગે છે, તે હારય નાકષાયના ઉદયથી થાય છે, જેના કારણે ચારિત્રનો ભગ થાય છે, બીજી વ્યકિતઓની ગુપ્ત ચેષ્ટાઓ પણુ તે હાસ્ય દ્વારા પ્રગટ થયા કરે છે. ભલે તેનાથી ચારિત્રના પૂર્ણતઃ ભંગ થતા ન હોય, તે છતાં પણ સાધુ તેના કારણે મહર્ષિંક દેવામાં ઉત્પન્ન થતા નથી. કાન્તર્ષિક, અભિયોગિક આદિ દેવામાં જ ઉત્પન્ન થાય છે. તેથી હાસ્યનું સેવન કરવું તે સત્યવ્રતીને માટે સધા ત્યાજ્ય છે, એવુ' સમજીને જે તેના પરિત્યાગ કરે છે, તે સત્યવ્રતી પાતાના વ્રતને સપૂર્ણ રીતે સ્થિર કરે છે. અને તેનું પાલન કરે છે. આ રીતે હાસ્યમાંથી ઉદ્ભવતા દેષોના વિચાર કરી હાસ્ય વનરૂપ વચનસયમથી પેાતાના આત્માને ભાવિત કરીને સાધુ પેાતાના વ્રતની આરાધનામાં સમથ ખની જાય છે અને ગ્રહણ કરેલ સત્યવ્રતનું સ ́પૂર્ણ રીતે सुरक्षित ने स्थिर मनावी से छे ॥ सू० ८ ॥ प्र८९ Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ७०६ प्रश्नव्याकरणसूत्रे नाय मुणिणा भगवया पन्नवियं परुवियं पसिद्धं सिद्ध वरसा सणमिणं आघवियं सुदे सियं पसत्थं । बीयं संवरदारं समत्तत्ति बेमि ॥ सू० ९ ॥ ॥ इय पण्हावागरणे बीयं संवरदारं समत्तं ॥ , टीका 4 एवं ' पूर्वोक्तप्रकारेण 'इणं ' इदं ' सेवरस्स ' संवरस्य ' दारं ' द्वारं = सत्यवचनं नाम द्वितीयं द्वारमित्यर्थः, ' सम्मं ' सम्यक् संचरियं ' संच रितं सत् 'हो' भवति, ' सुप्पणिहियं ' 'सुप्रणिहितं = समाराधितम् । तथा-'इमेहिं ' एभिः 'पंच' पञ्चभिरपि ' कारणेहिं ' कारणैः भावनाभिः कीदृशैः कारणैः ? इत्याह- 'त्रणकाय परिरक्विएहिं मनोव वनकायपरिरक्षितैः=मनोवाकायपरिरक्षितपञ्चभावनाभिरित्यर्थः, ' निच्चं ' नित्यम् ' आमरणं च ' आमरणान्तं मरणपर्यन्तं च ' एस जोगो' एप योग:त्यवचनरूपो योगः 'यन्त्रो' १, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इस प्रकार सत्यव्रत की स्थिरता के निमित्त पांच भावनाओं को कहकर अब सूत्रकार इस द्वितीय संवरद्वार का उपसंहार करते हुए कहते हैं - ' एवमिगं, इत्यादि । टीकार्थ - ( एवं) पूर्वोक्त प्रकार से (इणं) यह (संत्ररदार) सत्यवचन नामक द्वितीय संरद्वार ( सम्मं - संचरियं) अच्छी तरह से पाले जाने पर (सुप्पणियं ) सुरक्षित (होइ ) हो जाता है । इमेहि पंचहि वि कारणेहिं मraणकापपरिरक्खिरहिं ) इसलिये मन वचन और काय इन तीन योगों से अच्छी तरह सुरक्षित किये गये इन पांच भावनारूप कारणों से (निच्च ) सदा (आमरणंतं च) जीवन भरतक (एसजोगो) यह सत्यवचनरूप योग (धिमया मइमया) स्वस्थचित्त से एवं यो ܕܐ " ભાવનાઓ વર્ણવીને હવે આ રીતે સત્યવ્રતની સ્થિરતાને માટેની પાંચ सूत्रार मा जीन संवरद्वारने। उपसंहार ४२ हे छे" एवमिणं " इत्यादि टीअर्थ --" एवं " पूर्वेति प्रारे "" 50" 211 संसार " सत्य बयन नामनुं णीज्नु संवरद्वार “सम्म संचरियं " सारी शेते पणाय तो CC 66 ܕܕ सुप्पणिहियं " सुरक्षित " होइ " थहा लय है. " इहि पंचहि वि कारणेहि मणका परिरक्खि हि " ते अशे भन, वचन अने आय से ये योगोथी સારી રીતે સુરક્ષિત કરાયેલ આ પાંચ ભાવનારૂપ કારણે થી निच्चं " लवन पर्यन्त " एसजोगो च ८८ સદા " " आमरणं तं 66 'धिइमया मइया મુનિજનાએ “ यन्त्रो ” पासून ४२वा योग्य छे. अर આ સત્યવચનરૂપયેગ સ્વસ્થ ચિત્ત અને અેયાપાદેયના વિવેકથી યુક્ત થયેલ આ સત્યમહાવ્રત For Private And Personal Use Only Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org " सुदर्शिनी टोका अ०२ सू ९ अध्ययनोपसंहारः 6 ; " " , , नेतव्यः = पालनीयः ' धिमया' धृतिमता ' महमया' मतिमता मेधाविना कथंभूतोऽयं योगः ? इत्याह--' अणासवो ' अनाश्रवः ' अकलुसो अकलुपः अच्छिदो ' अच्छिद्रः ' अपरिसावी' अपरिस्रावी 'असंकिलिट्टो' असंक्लिष्ट: 'सव्वणिमण्याओ सर्वजिनानुज्ञातच । एवम् = एतादृशमिदं 'वीयं द्वितीयं संवरदारं ' संवरद्वारं ' फासियं स्पृष्टं' पालियं ' पालितं ' ' सोहियं' शोधितं 'तीरियं ' तीरितं ' किद्रियं कीर्त्तितम् ' आराहियं ' आराधितम् 'आणाए' आज्ञया यथावत् ' अणुपालियं ' अनुपालितं ' भवति । एवम् = अमुना प्रकारेण 'णापादेय के विवेक से युक्त हुए मुनिजन को ( णेयच्वो ) पालन करने योग्य है, क्योंकि यह सत्य महाव्रतरूप योग ( अणासयों) नूतनकर्मों के आलव को रोकने वाला होने से अनाव रूप है, ( अकलुसो ) अशुभ अध्यवसाय से रहित होने के कारण अकलुषरूप हैं (अच्छिद्दो) पाप का स्रोत इससे बंद हो जाता है इसलिये अच्छिद्ररूप है, (अपरिस्सावी) एक बिन्दुमात्र भी कर्मरूप जल इसमें प्रविष्ट नहीं हो सकता है इसलिये यह अपरिस्रावी है, (असंकिलिहो) असमाधिरूप भावसे यह वर्जित होता है इसलिये असंष्टि है । ( सम्बजिणमणुष्णाओ ) इसीलिये यह समस्त भूत, भविष्यत्, और वर्तमान काल के तीर्थकरों को मान्य हुआ है । ( एवं ) इस उक्त प्रकार से (बीयं) द्वितीय संवर द्वार को जो मुनिजन ( फासियं ) अपने शरीर से स्पर्श करते हैं, (पालियं ) निरन्तर ध्यानपूर्वक इसका सेवन करते हैं, (साहियं) अतिचारों से इसे रहित बनाते हैं, (तीरियं ) पूर्णरूप से इसे अपने जीवन में उतारते हैं, (किहिये ) दूसरों को इसे धारण करने का उपदेश देते Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only ؤمن (E " 66 ३५ योग “ अणासवो ” नवां उर्भाना आसवने रोडनार होवाथी अनावश्य अकलुसो " अशुल अध्यवसायरहित होवाथी अम्बुषइप " अच्छिद्दो ” पायनो खोत तेनाथी ५ध थर्म लय छे तेथी छिद्र३५ छे, " अपरिस्सावी " भेड બિન્દુ પણ કરૂપી જળ તેમાં પ્રવેશી શકતું નથી, તેથી તે અપરિસાવી છે, ' असं कि लिट्टो " असमाधि३य लावथी ते रहित होय छे तेथी ते संष्टि छे. " सव्वजिणमणुष्णाओ " तेथी ते समस्त भूत, भविष्य भने वर्तमानअजना तीर्थ पुरो भान्य रेल छे. " एवं " म उ ते अक्षरे " बीय' " मील संवरद्वारने ने मुनिन्दन “ फासिय " पोताना शरीरथी स्यर्शे छे, " पालिय " निरन्तर ध्यानपूर्व तेनु सेवन अरे छे, " सोहिय " अतियारोथी રહિત બનાવે છે, " तीरिय " पूर्ण रीते तेने पोताना वनभां उतारे छे. खाना उपदेश आये थे, तथा 46 'अणुपा " किड्डिय " मन्यने तेनुं सेवन Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७८ प्रश्नध्याकरणसूत्रे यमुणिणा' ज्ञातमुनिना भगवता महावीरेण ' पणधियं ' प्रज्ञापितं 'परूवियं ' मरूपितं 'पसिद्धं ' प्रसिद्धम् ' सिद्धवासासणमिणं' सिद्धवरशासनमिदम् 'आघ वियं ' आख्यातं ' सुदेसियं ' सुदेशितं ' पसत्थं ' प्रशस्तं ' वीयं संवरदारं' द्वितीयं संवरद्वारं ' समनं ' समाप्तम् । एपां सर्वेषां पदानां व्याख्या प्रथमसंवरद्वारोपसंहारे द्रष्टव्या । ' तिबेमि' इति ब्रवीमि-अस्यार्थः पूर्वमुक्तः ॥मू-९।। ॥ इति श्री विश्वविख्यात-जगबल्लभ - प्रसिद्धवाचकपञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापक-प्रविशुद्धगद्यपद्यनेकग्रन्थनिर्मापक- वादिमानमर्दकश्रीशाहू छत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त 'जैनशास्त्राचार्य' पदभूपितकोल्हापुरराजगुरु-वालब्रह्मचारि-जैनाचार्य- जैनधर्मदिवाकरपूज्यश्री घासीलालबतिविरचितायां श्री प्रश्नव्याकरणमूत्रस्य सुदर्शन्या ख्यायां व्याख्यायां संवरात्माके द्वीतीये-भागे सत्यवचननामकं द्वितीय संवरद्वारं समाप्तम् ।। २ ॥ हैं तथा ( अणुपालियं ) त्रिकरण त्रियोगों से जो इसका अच्छी तरह से आचरण करते हैं वे ( अगाए आराहियं भवह ) इमकी आराधना सर्वज्ञ भगवान् के वचनों से ही करते हैं ऐसा जानना चाहिये । (एवं) इस प्रकार से यह उक्तरूप संवरद्वार ( णायमुणिणा) प्रसिद्धक्षत्रियवंश में उत्पन्न हुए मुनि भगवान महावीर ने (पण्णवियं ) प्रज्ञापित किया है शिष्यो के लिये सामान्य रूप से कहा है । (परूवियं) प्ररूपित किया हैभेदानुभेदप्रदर्शन पूर्वक कथित किया है । इसलिये यह (पसिद्धं) प्रसिद्ध है-आचार्यादिपरंपरा से इसका पालन इसी रूप से चला आ रहा है अतः निर्दोष है । तथा ( सिद्धवरसासणमिणं ) भूतकाल में जितने भी सिद्ध हो चुके हैं उनका यह उत्कृष्ट शासनरूप है सो ( आघवियं ) लिय" ४ि२ योगाथा मा तभनु सारी रीते माय ४२ छ त। " अणाए आराहिय भवइ" तनी माराधना सज्ञ मशवानना क्यनाथी ४२ छ आम सभा, "एवं" मा ४२ मा (१ व्या प्रमाणेनु) स१२द्वार “णायमुणिणा" प्रसिद्ध क्षत्रिय शमत न्भेसा भडावीर लगवाने " पण्णवियं " प्रशापित ४यु छ. शिष्याने भाटे सामान्य ३ छे. 'परू. पविय " प्र३पित ४यु छ. महानु वान व्यु छ. तेथी ते “ सिद्धं" પ્રસિદ્ધ છે. આચાર્યાદિ પરંપરાથી તેનું આ રૂપેજ પાલન થતું આવ્યું છે, तेथी ते निषि छ तथा “सिद्धवरसासणमिय" भूतमा २८॥ सिद्धो ५६ या छ तेभनय कृष्ट शासन३५ qजी " ओधवियं" ते ४थन लगवान For Private And Personal Use Only Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७०९ सुदशिनीटीका भ० २ सू० ९ अध्ययनोपसंहार इसी का कथन भगवान महावीर प्रभुने किया है और (सुदेसियं) ऐसा ही उपदेश इसका उन्होंने देव, मनुज एवं असुरों सहित परिषदा में दिया है । ( पसत्यं ) यह द्वितीय संवरद्वार समस्त प्राणियों का हितकारक होने से प्रशस्त-मंगलमय है । ( बीयं संवरदारं समतं ) इस तरह का यह द्वितीय संवरद्वार समाप्त हुआ। (त्तिबेमि ) हे जंबू मैंने जैसा यह श्री महावीर प्रभु के मुख से सुना है उसी तरह का यह तुमसे कहा है । अपनी तरफ से इसमें कुछ भी कल्पित करके नहीं कहा है। ____ भावार्थ-दूसरे संवर द्वार का उपसंहार करते हुए सूत्रकार कह रहे हैं कि इस द्वितीय संवरद्वार को कि जिसका नाम सत्यमहानत है जो मुनिजन इन कथित पंच भावनाओं की दृढ़ता पूर्वक पालते हैं-जीवन भरतक-इसके अनुसार अपनी कर, चरण आदि की प्रवृत्ति को करते रहते हैं उनके अशुभ अध्यवसाय रुक जाते हैं, नवीन कर्मों का बंध होता नहीं है । पापों का स्रोत इसके प्रभाव से उनका रुक जाता है यह अपरिस्रावी आदि विशेषणों वाला है । त्रिकालवर्ती समस्त अरिहंत भगवंतों ने इसका स्वयं पालन किया है, और जीवों को इसके पालने का उपदेश आदेश उन्हों ने परिषदा में दिया है। भगवान महावीर ने भावारे अरेस छ भने " सुदेसिय" तेभो तेन ॥ प्रमाणे १ पदेश हेव, मनुष्य भने असु। सहितनी परिवहोमा माया छ. “पसत्थं " ॥ દ્વિતીય સંવરદ્વાર સઘળા પ્રાણીઓનું હિત કરનાર લેવાથી પ્રશસ્ત-મંગળમય छ. " बीय संवरदार समत्तं " An vilage'१२६।२ सभात थयु " तिबेमि" છે જબ! મે જેવું મહાવીર પ્રભુના મુખેથી સાંભળ્યું છે, મારી તરફથી તેમાં કલ્પિત કાંઈ પણ ઉમેરીને તે કહેવાયું નથી. ભાવાર્થ-બીજા સંવરદ્વારને ઉપસંહાર કરતાં સૂત્રકાર કહે છે-સત્ય મહાવ્રત નામના બીજા સંવરદ્વારનું જે મુનિજન ઉપરોક્ત પાંચ ભાવનાઓને જીવન પર્યત દૃઢતાપૂર્વક પાલન કરે છે, તેના પ્રમાણે પિતાની કર ચરણ આદિની પ્રવૃત્તિ કર્યા કરે છે તેમના અશુભ અધ્યવસાય અટકી જાય છે, તેમને નવાં કમેને બંધ બંધાતું નથી, તેના પ્રભાવથી તેમને પાપને સ્ત્રોત અટકી જાય છે, તેથી તે અપરિસ્ત્રાવી આદિ વિશેષણવાળું છે. ત્રિકાલવર્તી સમસ્ત અરિહંત ભગવાને તેનું પિતે પાલન કર્યું છે, અને તેના પાલનને પરિ કદમાં જીવોને ઉપદેશ આપે છે ભગવાન મહાવીરે પણ તેમના પ્રમાણે જ For Private And Personal Use Only Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७२० प्रश्नध्याकरणसूत्र भी उन्हीं के अनुसार इस द्वितीय संघरद्वार की प्रशंसा की है स्वयं भी इसका पालन किया है । अतः यह मंगलमय है । निर्दोष है। बाधावर्जित है । इसे धारण कर प्रत्येक संज्ञी पर्याप्त पंचेन्द्रिय मनुष्य को अपना जीवन सफल बनाना चाहिये । इस प्रकार जंबू स्वामी से श्री सुधर्मा स्वामी ने कहा ॥ सू-९ । ॥द्वितीय संवरद्वार समाप्त ॥ આ બીજા સંધરદ્વારની પ્રશંસા કરી છે અને જાતે પણ તેનું પાલન કર્યું છે તેથી તે મંગળમય છે, નિર્દોષ છે, બાધારહિત છે, તેને ધારણ કરીને પ્રત્યેક સંજ્ઞી પર્યાતિ પંચેન્દ્રિય મનુએ પિતાનું જીવન સફળ બનાવવું જોઈએ. આ પ્રમાણે શ્રી સુધર્માસ્વામીએ જંબૂરવામીને કહ્યું એ સૂત્ર ૯ છે બીજું સંવરદ્વાર સમાપ્ત For Private And Personal Use Only Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अथ तृतीय संवरद्वारं प्रारभ्यते पूर्वस्मिन्नध्ययरे मृषावादविरमण नामकं द्वितीयं संवरद्वारं प्रोक्तम्, तचादसादानविरमणं विना न संभवतीत्यतः क्रमप्राप्ते तृतीयेऽध्ययनेऽदत्तादानविरमनामकं तृतीय संवरद्वारमभिधीयते - 'जंबू ' इत्यादि -- मूलम् - जंबू ! दत्तमणुन्नायसंवरो नाम होइ तइयं सुव्वय ! महत्वयं गुणव्वयं परदव्वहरणपडिविरइकरणजुत्तं अपरिमियमणततण्हाणुगय-महिच्छमणत्रयणकलुस - आयाणसुनिग्गाहियं, सुसंजमियमणहत्थयायनि हुयं निहुयं निग्गंथं, णेट्टियं, निरुत्तं, निरासवं, निव्भयं विमुत्तं उत्तमनरवसभ-पवर - बलवगसुविहियजणसंमयं - परमसाहुधम्मचरणं, जत्थ य गामागरनगर-निगम - - खेड - कब्बड ---मडंब - दोणमुह---संवाह-- पट्टणा समयं व किंचि दव्वं मणिमुत्त - सिलप्पवाल कंस दूस-रयय वरकणग- रयणमाई पडियं पम्हट्टं विष्णठ्ठे न कप्पड़ कस्सइ कहेउं वा गेण्हेउं वा अहिरन्न सुवण्णापूर्ण समले कंचणेणं अपरिग्गहसंबुडेणं लोगम्मि विहरिय || सू० १ ॥ टीका- ' सुव्यय ' सुशोभनं व्रतं = चारित्रपालनरूपं यस्य तत्संबुद्धौ हे 'सुव्रत ! -शोभनतशालिन् ! 'जंबू ' हे जम्बू ! इदं प्रारभ्यमाणं ' तइयं तृती तृतीय संवरद्वार प्रारंभ पूर्व अध्ययनमें मृषावाद विरमण नाम का जो दूसरा संवरद्वार कहा गया है, अदत्तादानविरमण के बिना नहीं हो सकता है, इसलिये सूत्रकार क्रमप्राप्त इस तृतीय अध्यय में अदत्तादानविरमण नाम का ત્રીજા સવરદ્વારના પ્રારંભ આગળના અધ્યયનમાં મૃષાવાદ વિરમણુ નામના બીજા સવરદ્વાર વિષે જે કહેવામાં આવ્યુ' તેનુ' પાલન અદત્તાદાન વિરમણુ વિના થઇ શકતુ નથી. તેથી સૂત્રકાર અનુક્રમે આવતા આ તૃતીય અધ્યયનમાં અનુત્તાદાન વિરમણ For Private And Personal Use Only ܕ Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे यमध्ययनं 'दत्तमणुनायसंवरो' दत्तानुज्ञातसंबर: दत्त दायकैर्वितीर्णम् अन्नपानादिकम् , अनुज्ञातं आतिहारकपोठफलकादिकं च ग्राह्यमित्येवंरूपः संबरो-दत्तानुज्ञातसंवरो नाम ' होइ भवति । ' महव्वयं ' महाव्रतमिदम् , तथा- गुणव्वयं' गुणत्रतं गुणानाम् ऐहिकपारलौकिकोपकाराणां कारणभूतं व्रतं-गुणवतम् । कीरशमिदम् ? इत्याह-' परदबहरणपडिविरइकरणजुत्तं ' परद्रव्यहरणप्रतिविरतिकरणयुक्तं परेषां यद् द्रव्यं धनं तस्य यद् हरणम् आदानं, तत्पति या विरतिः विरमणं तस्याः कारणम्-आचरणं, तेन युक्तं सहितम् , परद्रव्यादानविमुखकारकमित्यर्थः, तथा--' अपरिमियमणंततण्हाणुगयमहिच्छमणवयणकलुसआयाणमुनिग्गहिंयं' अपरिमितानन्ततृष्णानुगतमहेच्छमनोवचनकलुपादानसुनिगृहीतम्-अपरितीसरा संवरद्वार कहते हैं-'जंबू' इत्यादि । ___टीकार्थ-(सुव्वय ) हे शोभन व्रत शालिन जंबू! (तइयं ) यह प्रारभ्यमाण तृतीय अध्ययन ( दत्तमणुन्नायसंवरो) दत्तानुज्ञात संवर नाप्रका है । इस दत्तानुज्ञात ( दिया हुआ) में दाता के द्वारा वितीर्ण अन्नपान का तथा अनुज्ञात पीठफलक आदि के लेने का विधान किया गया है। यह ( महत्वयं ) दत्तानुज्ञातसंवर महावत है । ( गुणव्वयं) तथा गुणव्रतहै-इह लोक संबंधी तथा परलोकसंबंधी गुणो का यह कारणभूत व्रत है । अथवा समस्तव्रतों का यह उपकारक है इसलिये गुणव्रत है ( परदव्वहरणपडिविरइकरणजुत्तं ) इस व्रत के आराधन से जीव का आचरण दूसरों के द्रव्य को ग्रहण करने की प्रवृत्ति से सर्वथा विरक्त होता है ( अपरिमियमणंततण्हाणुगयमहिच्छमणवयणकलुसआयाणसुनिग्गहियं ) तथा इस महाव्रत की आराधना से, विद्यमाननामना alan A२६।२र्नु न ४२ छ-" जंबू" त्यादि. टी---" सुब्वय" शालनमती ! “ तइयं " 24t N३ ४२४ त्री अध्ययन " दत्तमणुन्नायसंवरो" इत्तानुज्ञान १२ नामनु छे. वृत्तानुज्ञात (દીધેલું) માં દાતા દ્વારા વિતર્ણ અન્નપાન તથા અનુજ્ઞાત પડિક્લક આદિલેવાનું विधान ४२ छे. ते " महब्वयं" इत्तानुज्ञान स१२ महानत वाय छे. " गुणव्वयं " तथा शुशनत छ-मास भने परसो समधी गुणेनु २९ભત આ વ્રત છે, અથવા સમસ્ત વ્રતને માટે તે ઉપકારક હોવાથી તેને शरावत द्यु . " परव्वहरणपडिविरइकरणजुत्तं" २प्रतनी माराधना કરવાથી અન્યનું દ્રવ્ય ગ્રહણ કરવાની પ્રવૃત્તિથી છે સર્વથા વિરક્ત રહે છે. " अपरिमियमणंत तण्हाणुगयमहिन्छ मणवयणकलुस-आयाणसुनिग्ग'यं” न०४२ ચડતા દ્રવ્યને પ્રાપ્ત કરવાની જે અસીમ તથા અક્ષય સ્પૃહા-લાલસા થાય છે For Private And Personal Use Only Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० ३ सू० १ अदत्तादानविरमणस्वरूपनिरूपणम् ७१३ मिता=परिमाणरहिता, अनन्ता=अक्षया या तृष्णा-स्पृहा-विद्यमान व्याव्योच्छा, तयाऽनुगते ये महेच्छे-अविद्यमानद्रव्यलाभविपये महेच्छायुक्ते मनोवचने मनोवा णी च, ताभ्यां यत् कलुपंपरधनविषयत्वेन पापरूपम् आदानं ग्रहणं तत्सुनिगृहीतं -सुनियन्त्रितं यत्र तम् , तथा-' सुसंजामियमणहत्थपायनिहुयं' सुसंयमितमनोह. स्तपादनिभृतं-सुसंयमितेन सम्यगनियन्त्रितेन मनसा हस्तौ पादौ च परद्रव्यादानव्यागारात् निष्टतौ-उपरतौ यत्र तत् । उक्तविशेषणद्वयेन परद्रव्यादाने मनोवाकायनिरोधः प्रदर्शितः । पुनः कथंभूतगिरम् ? इत्याह-निग्गथ' निग्रन्थ-निर्गतो बाह्याभ्यन्तरो ग्रन्थो यस्मात्तत् , बाह्यभ्यन्तरग्रन्धिरहितगियः, तथा- डिर्ग' द्रव्य के अव्यय होने की जो अपरिमित एवं अक्षय स्पृहालालसा होती है वह, तथा इस स्पृहा-लालसा-से जो बड़ी २ और अविद्यमान द्रव्य के लाभ विषयक इच्छाओं की परंपरा चलती है कि जिससे मनवचन की पर धन को लेने ग्रहण करने की जो कलुषित प्रवृत्ति होती रहती है वह सुनियन्त्रित हो जाती है । तथा जय मन की परधन को हरण करने की कलुषित विचारधारा सुनियन्त्रित हो जाती है फिर (सुसंजमियमणहत्य पायनिहुयं ) उस मन के नियन्त्रित होते ही परद्रव्य के ग्रहण करने के निमित्त जो हाथ पैरों का व्यापार होता है वह भी उपरत-बंद हो जाता है । इस तरह इन दोनों विशेषणों से यह कहा है कि इस महाव्रत के सेवन करने से, परद्रव्यहरा करने के लिये जो मनवचन और काय का व्यापार पहिले होता था वह सर्वथा बंद हो जाता है । ( अदत्तादानविरम गसंवर ) यह दत्तानुज्ञात संवर कैसा है सो कहते हैं-( निग्गंथं ) इस महाव्रत की आराधना से बाह्य और તથા તે લાલસાથી બીજા અવિદ્યમાન દ્રવ્યની પ્રાપ્તિ માટેની મોટી મોટી ઈચ્છાઓની જે પરંપરા ચાલે છે કે જેથી મન વચનની પારકાનું ધન લેવાની જે દેષપૂર્ણ પ્રવૃત્તિ ચાલુ રહે છે તેનું આ મહાવ્રતની આરાધનાથી નિયણું થાય છે, તથા જ્યારે પારકાનું ધન હરી લેવાની મનની કલુષિત વિચારધારા सुनियत्रित 25 गय छ त्यारे ' सुसंजमियमणहत्थपायनिहुयं " ते मनन નિયમન થતાં જ પારકાનુ દ્રવ્ય ગ્રહણ કરવા માટે હાથ–પગની જે પ્રવૃત્તિ ચાલે છે તે પણ બંધ પડી જાય છે. આ રીતે એ બને વિશેષણેથી એ દર્શાવવામાં આવ્યું છે કે આ મહાવ્રતનું સેવન કરવાથી પદ્રવ્ય લેવાને માટે મન, વચન અને કાયાની જે પ્રવૃત્તિ પહેલાં ચાલતી હતી તે તદ્દન બંધ પડી જાય છે. " अदत्तादानविरमणसंवर" । हुत्तानुज्ञात २ छेते हुवे हे छ“ निग्गंथ " ! महायतनी साराधनाथी माह अने यन्त२ परियड ६२ प्र० ९० For Private And Personal Use Only Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir % 3Aw ७१४ प्रश्नध्याकरणसूत्र नैष्ठिकं सर्वधर्मप्रकर्षपर्यन्तवत्ति, निरुत्तं ' निरुक्तं-सर्वज्ञैरुपादेयत्वेन निरुक्तम् , अव्यभिचरितं वा तथा-निरासवं ' निराश्रवं-कर्मादानरहितम् , ' निभयं ' निभयं नृपादिभयरहितं ' विमुत्तं' विमुक्तं लोभदोषादिरहितम् , तथा-' उत्तमनखसभ-पवरबलबग-सुविहियजणसंमयं' उत्तमनरवृषभ-प्रवरवलवत्सुविहितजनसम्मतम-उत्तमाः उत्कृष्टा ये नरकृषभाः-नरश्रेष्ठाः जिनाः तथा-प्रवरवलवन्तः= चक्रवर्तिवासुदेवादयः, सुविहितजनाः साधुलोकास्तेषां संमतम्-अभिमतं यत्तत्तथा तथा-' परमसाहूधम्मचरणं' परमसाधुधर्मचरणं परमसाधूनाम्-उत्कृष्टपतस्विना धर्मचरणं-धर्मपालनम् यत्तत्तथा, एतादृशमिदं दत्तानुज्ञातसंगरद्वारम् । अत्र तृतीये आभ्यन्तर परिग्रह दूर हो जाता है, अर्थात् यह व्रत बाह्य और आभ्यन्तर की ग्रन्थि से रहित होता है तथा (णेट्ठियं ) समस्तधर्मों के प्रकर्षपर्यन्त यह रहता है, एवं (निरुत्तं ) सर्वज्ञ प्रभुने इसे उपादेयरूप से कहाहै, अथवा यह अव्यभिचरित है, अर्थात् जितना भी सकल. संयमी का धर्म है उसके साथ यह अविनाभावी है । (नीरासवं) इसमें नवीन कमों का आदान नहीं होता है । ( निभयं ) नृपादि का भय इसके आचरण में साधु को नहीं रहता है इसलिये यह निर्भय है। (विमुत्तं ) लोक दोष आदि से यह रहित होता है । ( उत्तमनरवसभ, पवरबलबग-सुविहिग्रजणसंमयं ) उत्कृष्ट जो नरवृषभ-जिनदेव हैं तथा बलदेव वासुदेव आदि जो प्रवरबलवंत व्यक्ति है, तथा सुविहितजन जो साधु लोक हैं, इन सब के लिये यह मान्य है । तथा ( परमसाहुधम्मचरणं ) परमसाधुजनों-उत्कृष्टतपस्विजनों का यह धर्माचरणरूप हैं । (अदत्तादानविरमण ) ऐसा यह दत्तानुज्ञातसंवरद्वार है। इस થઈ જાય છે. એટલે કે આ વાત બાહ્ય અને આભ્યન્તરની ગ્રથિી રહિત डाय छ, तथा “णेट्ठियं " ते समस्त धर्भातुं ५४ पर्यन्त छ, भने “ निरुत्तं" સર્વજ્ઞ પ્રભુએ તેને ઉપાદેયરૂપે બતાવ્યું છે, અથવા તે અવ્યભિચરિત છે, એટલે है सयभान रेखi तव्यो छे तेनी साथे ते सुसात छ. " निरासवं" तेनाथी नवीन ४ मधाता नथी. “ निभयं " तेने मायरपामा साधुने नयाहिनो लय तो नथी तथा ते निलय छे. “ विमुत्तं' बोल, हो५ माहिथी ते २डित डाय छे. " उत्तमनरवसभ, पवरबलवग-सुविहिय जणसंमयं" श्रेष्ठ નરવૃષભ-જિનદેવ છે, તથા બળદેવ વાસુદેવ આદિ જે પ્રબળ બળવાન પુરુષે છે, તથા સુવિહિત જન જે સાધુલેક છે, તે સૌને માટે તે માન્ય છે. તથા " परमसाहुधम्मचरणं " रे ५२म साधुन! See d५२वीनाने भाटे ते ધર્માચરણરૂપ છે, એવું આ અદત્તાદાન વિરમણ-દત્તાનુજ્ઞાત સંવરદ્વાર છે. આ For Private And Personal Use Only Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुशिनीटीका अ० ३ सू० १ अदत्तादानविरमणस्वरूपनिरूपणम् संवरे साधुभिः किं कर्तव्यम् ? इत्याह-' जत्थ य ' यत्र च-तृतीयसंवरद्वारे 'गामागर-नगर-निगम-खेड-कब्बड-मडंब-दोणमुह-संबाह-पट्टणासमगयं च प्रामाकर-नगरनिगम-खेट-कर्बट-मडम्ब-द्रोणमुख-संबाध-पत्तनाश्रमगतं चग्रामाकरनगरनिगमखेटकर्बटमडम्बद्रोणमुखसंबाधपट्टनाश्रमाणां व्याख्या पूर्वमुक्ताः, तद् गतं च ‘किंचिदव्यं ' किंचिद्र्व्यं - किमपिद्रव्यम् , तदेवाह-'मणिमुत्तसिलप्पवालकंस - दूस-रयक - वरकणग - रयणमाई ' मणिमुक्ताशिला-प्रवाल कांस्य-दृष्य -रजत-चरकनक- रत्नादि- मणिः-पद्मरागादिः, मुक्ता-मुक्ताफलं, 'शिला ' बहुमूल्यपाषाणावण्डम् , प्रवाल-विद्रुमः ' मूंगा' इति भाषापसिद्धः, 'कसं ' कांस्यं– कांसा' इति प्रसिद्धम् । ' दृष्यं ' वस्त्रविशेषः, रजतं'चान्दी' इतिभाषाप्रसिद्धावरकनकं = धात्वन्तरापेक्षया श्रेष्ठं सुवर्ण, रत्नकर्केतनादिकम् आदि यस्य तत्तथाभूतं द्रव्य 'पडियं' पतितं-वस्त्राञ्चलादेः, 'पम्हटुं प्रस्मृत=कुत्रापि विस्मृतं 'विप्पणटं' विप्रणष्टं गवेषकद्भिरपि न प्राप्तम् , तथाभूतं मणिमुक्तादिकं तृतीय संवरद्वार में साधुजनों को क्या करना चाहिये इसके लिये सूत्रकार कहते हैं-( जत्थ य ) इस तृतीय संवरद्वार में (गामागरनगरनिगमखेडकब्बड मडंब दोणमुहसंवाहपट्टणासमगयं च ) साधुजनों को ग्राम, आकर, नगर, निगम, खेट, कर्वट, मडम्ब, द्रोणमुख, संबाह, पट्टन, आश्रम, इन स्थानों में, रही हुई ( किंचि व्वं ) कुछ भी वस्तु ( मणिमुत्तसिलप्पवालकंमदूसरयकवरकणगरयणमाई ) मणि, मुक्ता, शिला, प्रवाल, कांस्य, दृष्य-वस्त्रविशेष, रजत-चांदी, सुवर्ण, रत्न आदि वस्तु (पडियं ) किसी की गिर गई हो, ( पम्हई ) भूली हुई हो, (वि. प्पणटुं) ढूंढने पर भी नहीं मिली हो, (न कप्पइ कस्सइ कहेडं वा गेતૃતીય સંવરદ્વારમાં સાધુજનોએ શું કરવું જોઈએ તે બતાવવા માટે સૂત્રકાર -"जत्थ य" मा श्रीon :१२वारमा “गामागारनगरनिगम खेडकब्बड मडबदोणामुहसंबाहपट्टणसमगयं च” साधुरीनामे प्राम, नगर, मा७२ निगम, मेट, ४५°2, म, द्रोणुभुस, साड, पट्टन, माश्रम, ये स्थानमा २डली " किंचि दव्यं ” । ५५५ परंतु “ मणिमुत्तसिलप्पवालकंसदूसरयकवर कणगरयणमाई" माण, मुश्ता, शिक्षा, प्राण, iस्य, इप्य मे ४ानु पन, २०४त-माहि, सुपारी २त्न माहि पस्तुओ। “ पडियं" ! ५ी गई हाय, “ पम्हटुं" / भूदी आयु डाय, “ घिप्पण?" vai garl नहाय, " न कप्गइ कस्सइ कहेउँवा गेण्हेउवा " तेने सेवानुसयत अस. For Private And Personal Use Only Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे द्रव्यं न ' कस्सइ ' कस्यापि संयतस्याऽसंयतस्य वा ' कहेउ' कथयितुं वा, 'गे ण्हेउ' स्वयं ग्रहीतुं परेण ग्राहयितुं वा 'न कप्पई' न कल्पते, साधोनिवृत्तित्त्वात् । परद्रव्यं दृष्ट्वा साधुना किं कर्तव्यम् , ? इत्याह-'अहिरनसुवण्णएणं' अहिरण्यसुवर्णकेन-हिरण्यसुवर्णवर्जकेन 'समले१कंचणेण' समलेष्टुकाश्चनेन=समःतुल्यः लेष्टुः-मृत्खण्डं काञ्चनं सुवर्णं च उपेक्षणीयतया यस्य तेन तथोक्तेन= मृत्खण्डे सुवर्णे च समभाववतेत्यर्थः, 'अपरिग्गहसंवुडेण' अपरिग्रहसंवृतेन= नास्ति परग्रहो यस्य सोऽपरिग्रहः, अन एव संवृतः ममत्वभाववर्जितस्तेन तथोतेन साधुना ' लोगम्मि' लोके मर्त्यलोके 'विहरियव्वं' विहर्त्तव्यम् , साधुभिरुक्तरीत्या विहरणीयमिति भावः ॥ मू० १ ॥ ण्हेउं वा)और न स्वयं लेना चाहिये उसको संयत अथवा असंयत से लेने के लिये नहीं कहना चाहिये। क्यों कि इस प्रकार की प्रवृत्ति मुनिमार्ग में कल्पित नहीं कही है। कारण कि साधु (अहिरण्णसुव्वण्णेणं) हिरण्य और सुवर्ण इन सब से निवृत्तिवाला होता है साधु को न हिरण्य की चाहना होती है और न सुवर्ण की । ( समलेढुकंचणेणं ) उसकी दृष्टि में तो उपेक्षणीय होने के कारण मृत्खंड मिट्टी का ढेला और कांचन दोनों बराबर होते हैं । अर्थात् वह इन दोनों में समभाव वाला होता है। (अपरित्रहसंबुडेणं ) इस तरह ममत्वभाव से वर्जित होने के कारण अपरिग्रह से युक्त होते हैं साधु को इस प्रकार का होकर इस लोक में विचरना चारिये। ___ भावार्थ-संसार में निर्भय होकर विचरण करने के लिये सब से उत्कृष्ट साधन यदि कोई है कि जिससे लोगों की दृष्टि का आकर्षण हो યતને કહેવું ન જોઈએ, અને તે લેવી જોઈએ નહીં. કારણ કે એવા ५४२नी प्रवृत्ति भुनीमाभा लयित की नथी. २७ से साधु “ अहिरण्ण सुव्वण्णेणं " डि२९य भने सुवरण मे मधानी निवृत्ति हाय छ. साधुन (२एयनी ४२ हाती नथी । सुवानी ४२७ हाती नथी. “ समलेठुकंचणेण" તેની દષ્ટિએ ઉપેક્ષા પાત્ર હોવાથી માટીનું ઢેકું અને કાંચન અને સમાન छ मेरो भन्नेमा ते समभावाणी य छे. “ अपरिग्गहसंबुडेणं " 21 રીતે મમત્વભાવથી રહિત હોવાથી તે અપરિગ્રહી હોય છે. સાધુએ એ પ્રકારે અપરિગ્રહવત યુક્ત બનીને આ લેકમાં વિચરવું જોઈએ. ભાવાર્થ–સંસારમાં નિર્ભય થઈને ફરવાને માટે જે કંઈ સર્વશ્રેષ્ઠ સાધન હિોય કે જેનાથી લેકેની દકિટ આકર્ષાય અને સાધુત્વ પર વિશ્વાસ જામે તે For Private And Personal Use Only Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० ३ सू० १ अदत्तादानविरमणस्वरूपनिरूपणम् ७१७ और साधुत्व पर विश्वास-श्रद्धा जमे-तो वह एक अपरिग्रहत्व का ही सिद्धान्त है । इसमें अन्तरंग और बहिरंग, इन दोनों प्रकार के परिग्रह का सैधान्तिक दृष्टि से परित्याग होता है । साधु के पास-निर्ग्रन्थ मुनि के पास इन दोनो प्रकार के परिग्रह का अभाव होता है। बाहिरी दृष्टि में जो कुछ उसके पास में है वह सब संयमधर्मोपकरण है, परिग्रह नहीं है । सूकनार ने यही बात साधु के लिये इस तृतीय संवरद्वार में समझाई है। पूर्व अध्ययन में द्वितीय अध्ययन में मृषावाद का नौको टियों से साधु को जो त्याग करना कहा है वह तबतक पूर्णरूप से पालित नहीं हो सकता कि जबतक अन्तरंग और बहिरंग का त्याग नहीं हो जाता । अपरिमित अनंत तृष्णाओं पर अंकुश करने वाली यही एक अपरिग्रहता है । मन, वचन और काय की परके द्रव्य को आदान (गृहण) करने की प्रवृत्ति पर रोक लगा देने वाली यही अपरिग्रहता है। इस अपरिग्रहता की छत्रच्छाया में पलने वाला साधु नवीन कर्मों के बंध से रहित हो जाता है, तथा सबका विश्वासपात्र बन जाता है। उसे किसी भी प्रकार का किसी का भय नहीं रहता है । ग्राम आकर आदि किसी भी स्थान में भूली हुई, पड़ी हुई, रखी हुई, किसी भी तरह की वस्तु वह न स्वयं लेता है और न दूसरों से उसे लेने को कहता है। તે એક માત્ર અપરિગ્રહત્યને સિદ્ધાંત જ છે. તેમાં આંતરિક તથા બાહ્ય એ બને પ્રકારના પરિગ્રહને સિદ્ધાતિક દૃષ્ટિએ પરિત્યાગ થાય છે. સાધુની પાસે નિર્ગસ્થ મુનિની પાસે આ બન્ને પ્રકારના પરિગ્રહને અભાવ હોય છે. બાહ્ય રીતે જોતાં તેમની પાસે જે કંઈ હોય છે તે બધું સંયમ ધર્મોપકરણ છે, પરિગ્રહ નથી. સૂત્રકારે એ જ વાત સાધુને માટે આ ત્રીજા સંવરદ્વારમાં સમજાવી છે. આગળના અધ્યયનમાં બીજા અધ્યયનમાં મૃષાવાદને નવ પ્રકારે ત્યાગ કરવાનું સાધુઓને જે કહેવામાં આવ્યું છે તેનું અંતરંગ તથા બહિરંગ પરિ ગ્રહને ત્યાગ ન થાય ત્યાં સુધી પાલન થઈ શકતું નથી. અપરિમિત-અનંત તૃષ્ણાઓ પર અંકુશ રાખનાર આ એક અપરિગ્રહતા જ છે. આ અપરિગ્રહતા જ, મન, વચન અને કાયાથી અન્યનું દ્રવ્ય પડાવી લેવાની પ્રવૃત્તિ પર બ્રેક (અંકુશ) નું કામ કરે છે. આ અપરિગ્રહતાની છત્રછાયામાં રહેતે સાધુ નવાં કર્મોનાં બંધથી રહિત બની જાય છે તથા સૌને માટે વિશ્વાસપાત્ર બની જાય છે. તેને કેઈનો પણ કોઈ પણ પ્રકારને ભય રહેતો નથી. પ્રામ, આકર આદિ કોઈ પણ સ્થાનમાં ભૂલથી રહેલી, પડી રહેલી, મૂકી રાખેલી કઈ પણ પ્રકારની વસ્તુ તે પિતે લેતે નથી કે લેવાનું બીજાને કહેતા નથી. આ વ્રતને લીધે For Private And Personal Use Only Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७१८ प्रश्नव्याकरणसूत्रे पुनर्मुनिकर्त्तव्यमाह-- 'जंपिय ' इत्यादि मूलम्-जं पि य होजा हि दव्वजायं खलगयं खेत्तगयं रन्नमंतरगयं वा किंचि पुप्फफलतयप्पवालकंदमूलतणकटसकराइं अप्पं वा बहुं वा अणुं वा थूलं वा न कप्पइ उग्गहे अदिण्णम्मि गेण्हेउ । जे हणि हणि उग्गहे अणुपणाविय गेण्हियवं. बजेयवो य सव्वकालं अचियत्तघरप्पवेसो अचियत्तभत्तपाणं अचियत्तपीढफलगसेज्जासंथारगवत्थपायकंबल-दंडग-रयहरण--निसेज्ज चोलपट्टग मुहमोत्तियपायपुंछणाइभायणभंडोवहिउवगरणं। परपरिवाओ परस्स दोसो परववएसेण जंच गेहति, परस्स नासेइ जंच सुकयं दाणस्त य अंतराइयं, दाणविप्पणासो पेसुण्णं चेव मच्छरियं च ॥२॥ टीका-'जं पि य' यदपि च ' होज्जा' भवेत् , हि-निश्चितं 'दव्वजायं' द्रव्यजातं, तदेवाह= 'खलगयं' खलगत-खलं धान्यराशीकरणभूमिस्तत्र गतं= स्थितं, तथा-'खेतगयं' क्षेत्रगतम् क्षेत्रस्थितं 'रनमंतरगयं' अरण्यान्तर्गत वनान्तः स्थितं वा । किंचि ' किश्चित्-किमपि 'पुप्फफलतयप्पवालकंदमूलईस व्रत से साधु की आत्मा समस्त वस्तुओं में असारता के दर्शन कर लेने से ढेला और कांचन में समान बुद्धि वाला बन जाता है । सू-१ ।। सूत्रकार पुनः मुनिजन के ही कर्तव्य को कहते हैं-' जपि य' इ० टीकार्थ-(जंपि य होज्जा हि दव्वजायें ) जो कुछ भी द्रव्य हो चाहे व ( खलगयं ) खलिहान में पड़ा हो चाहे ( खेत्तगयं) खेत में पड़ा हो, या ( रनमंतरगयं वा) जलग में पड़ा हो ( किंचि) સાધુને આત્મા સમસ્ત વસ્તુઓમાં અસારતાનું દર્શન કરી લેવાથી સોનું અને માટીના ઢેફાને સમાન ભાવે જેનાર બની જાય છે . સુ ૧ / सूत्रा२ शथी भुनिननi xतव्या शवि थे-“ जपि य" त्यात --" जपि य होज्जा हि दब्बजाय" २ ४ ५५ द्रव्य आय, मवे त “खलगय" मा ५७यु डाय मसे “खेत्तगय" ते मेतरमा ५७यु डाय, " रनमंतरगय वा" सनी ५४२ ५७यु डाय. " किं चि" मे ते For Private And Personal Use Only Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ०३ सू०२ अदत्तादानविरमणस्वरूपनिरूपणम् ७९ तणकट्ठसकराइ ' पुष्पफलत्वक् प्रवालफन्दमूलतृणकाष्ठशर्करादि, तत्र-पुष्पफले प्रतीते, त्व-त्वचा, प्रवालोऽङ्कुरः, कन्दा मरणादिः, मूलम्-मूलकादि, तृणं काष्ठं च प्रतीतम् , शर्कराः= कंकर' इति भाषा प्रसिद्धाः, एतान्यादौ यस्य तत्तथोक्तं द्रव्यम् अप्पं ' अल्प-स्तोकं वा 'वहुं' बहु-प्रचुरं वा ' अणुं' अणु= आकारेण सूक्ष्मं वा 'थूलं' स्थूलम्-आकारेण बृहद् वा, तत् 'न कप्पइन कल्पते ' उग्गहे ' अवग्रहे 'अदिण्णे' अदत्ते तत्तद्वस्तुस्वामिनिदेशमप्राप्येत्यर्थः, 'गेण्हेउं' ग्रहीतुम् , किन्तु 'जे' यद् ग्राह्यं भवेत् , तत् 'हणि हणि' अहन्यहनिम्मतिदिनम् 'उग्गह' अवग्रह-तत्स्वामिनिदेशम् , ' अगुण्णवि य' अनुज्ञाप्य प्राप्य 'गेण्डियव्वं ' ग्रहीतव्यम् । तथा 'सव्यकालं' सर्वकालं सर्वदा 'अचियत्तवरप्पवेसो ' अप्रीतिकारकगृहप्रवेशः 'वज्जेयधो' वर्जितव्यः तथाकुछ भी हो जैसे ( पुष्फफलतयप्पबालकंदमूलतणकट्ठसकराइ ) चाहे वह वस्तु पुष्परूप में हो, फलरूप में हो, छालरूप में हो, प्रवाल-कोंपल रूप में हो, सूरण आदि कंद रूप में हो, मूलक आदि रूप में हो, तृण काष्ठ आदि के रूप हो चाहे कंकर आदि के रूप में भी क्यों न हो । ये सब वस्तुएँ वहां ( अप्पं वा) थोड़ी हो या ( बहुं वा ) बहुत हो ( अणुं वा ) आकार से छोटी हो या (थूलं वा) बड़ी हो, किसी भी तरह से वह इन वस्तुओं को (न कप्पइ उग्गहे अदिण्णम्मि गेण्हेउ ) विना उनके मालिक की आज्ञाप्राप्त किये किसी भी रूप में लेना नहीं कल्पता है। तथा (जे) जो वस्तुएँ साधु के लिये ग्राह्य हैं वे भी ( हणि हणि ) प्रतिदिन ( उरगहे अणुणावि य ) उनके स्वामी की आज्ञा प्राप्त कर ही (गेण्हियवं ) ग्रहण करने योग्य हैं । तथा ( वज्जेयव्यो य सव्वकालं द्रव्य हाय, “ पुप्फफलतकप्पबालकंदमूलतणकटुसक्राइ" ससे ते वस्तु ०५३ હોય, ફલરૂપે હય, છાલરૂપે હોય. પ્રવાલ-કુંપળના રૂપમાં હોય, સૂરણ આદિ કદરૂપે હોય, મૂળ આદિ રૂપમાં હોય, તૃણુ કાષ્ઠ આદિરૂપે હોય, ભલે કાંકરા माहिथे डाय, ते ॥धी वस्तुमा त्यो “ अप्पं बा" थोडाय "बहुं वा" १धारे डाय, “ अणु वा" मा नानी डाय " थूलग वा” मोटी जाय, आ६ ५ रीते थे परतुमाने “ न कप्पइ उग्गहे अदिण्णम्मि गेण्हे उ” तेना માલિકની આજ્ઞા લીધા વિના કોઈ પણ રીતે તેને ગ્રહણ કરવાનું મુનિને કલ્પતું નથી. તથા “” વસ્તુઓ સાધુઓને ગ્રહણ કરવા યોગ્ય છે તે પણ " इणिहणि " प्रतिनि “ उग्गहे अणुणा वि य " तमना भासिनी आज्ञा सपने "गेण्हियव्व " अड] ४२१। योग्य छे. तथा वज्जेयधो य सव्व. For Private And Personal Use Only Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७२० प्रश्नव्याकरणसूत्रे ' अचियत्त भत्तपाणं' अप्रतीतिकारकभक्तपानं वर्जितव्यम् अविश्वासभाजनस्य भक्तपानं न ग्राह्यमित्यर्थः, तथा-' अचियत्तपीढफलग सेज्जासंधारगवत्थपायकंबलदंड गरओहरण नि से ज्जचोलपट्टगमुहपोत्तियपायपुंणाइभायणभंडोव दिउवगरणं' अमतीविकारकपीठफलशय्या संस्तारकवस्त्र पात्र कल्वलदण्ड करजोहरण निषद्याचोलपकसदोरकमुखात्रिका पादपोञ्छनाविभाजनभाण्डोपध्युपकरणं वर्जितव्यम्, अविश्वासभाजनस्य पीढफलकादिकं न पीढफलकादिकं न ग्राह्यमित्यर्थः तथा ' परपरि बाओ' परपरिवादः काक्वा परदोपप्रकटनम् वर्जितव्य 'परस्स' परस्य 'दोसो' दोषश्च वर्जनीयः, परोक्षे निंन्दा, प्रत्यक्षे दोपकथनम् इत्युभयं च , अचियत्तघरपवेसो) जो अपनी प्रतीति- विश्वास नहीं करता हो उसके घर पर साधु को सर्वदा नहीं जाना चाहिये, तथा (अचियत्तभत्तपाणं ) जो अपनी प्रतीति नहीं करता हो उसके यहां से साधु को भक्तपान नहीं लेना चाहिये। इसी तरह ( अचियत्तपीढफलग सेज्जासंथारगवत्थपायकंबल दंडगरओहरण निसेज्जचोलपहगमुहपोत्तियपाय पुंछणाइ ) जो व्यक्ति अपने ऊपर विश्वास नहीं रखता हो उसके द्वारा प्रदत्त - ( दिया हुआ) पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक, वस्त्र, पात्र, कम्बल, दण्डक, रजोहरग, निषया, चोलपट्टक, सोरकमुखवस्त्रिका, पादमोञ्छन आदि, तथा ( भायण भंडो वहि उवगरणं ) भाजन, भांड, उपधि, ये सब उपकरण नहीं लेना चाहिये । (परपरिवाओ ) तथा कालरूप से साधु को पर के दोषों को प्रकट नहीं करना चाहिये । तथा ( परस्सदोसो) परोक्ष में निंदा करना और साम्हने दोषों को कहना ये दोनों 66 का' अचिजत्तघर पवेसो " ? घताना विश्वास न उरतो होय, तेना घरे સાધુએ કદી જવું જોઈએ નહીં, તથા अचियत्तभत्तपाणं " ने पोताना पर વિશ્વાસ ન મૂકતા હોય તેને ત્યાંથી સાધુએ આહાર પાણી સ્વીકારવા लेह नहीं मे ४ रीते " अचियत्तपीढफलग से ज्जासंथारगवत्थपायकंबलदंडगरओहरनिसेज्जचोलपट्टगमुपोतियपाय पुछणाइ" के व्यक्ति योताना पर विश्वास न राजती होय तेना द्वारा अपायेंस थी, इस शय्या, सस्ता, वस्त्र, पात्र इंञण, उडे, रोहरागु, निषद्या, योसपट्टए, छोरासहित भुडपत्ति, पाह प्रोर छन् આદિ તથા भायणमंडोव हि वगरणं लाभन, ( यात्रा भांड, उपाधि, मे घां साधनो सेवा हाये नहीं. " परपरिवाओ " तथा આએ બીજાના દેષો પ્રગટ કરવા જોઇએ નહીં. તથા રીતે નિંદા કરવાની તથા સામે જ દેધા કહેવાની પ્રવૃત્તિ સાધુએ છેડવી (( "" अगडानी प्रेम साधु "C परस्तदोसो " परीक्ष For Private And Personal Use Only Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सुदर्शिनी टीका अ० ३ सू०२ अदत्तादानविरममस्वरूपनिरूपणम् ७२१ " वर्जनीयम् । तथा-' पाचवरसेण' परव्यपदेशेन वालग्लानादीनां निमित्तेन 'जंच' यच्च = अशनादिकं 'गेव्हेइ' गृहाति-वैयायकारकः, तदन्येनोपभोक्तव्यम् । बालग्oानादिनिमित्तमानीतं वस्तु यद्यवशिष्टं भवेत्, तथा तद् वस्तु स्वामिनिदेशेन संभोक्तव्यमित्यर्थः, 'परस्स' परस्य तथा 'जं च ' यच्च 'सुकयं' सुकृतं= पुण्यादिकं ' नासेर' नाशयति, अपहनुते, येन वचनादिना परकृतपुण्यादेरपद्युतिभवति, तद् वर्जितव्यमित्यर्थः, तथा - ' दाणस्स य' दानस्य च अतराइयं अन्तरायिकम् = येन वचनादिना दानान्तयो भवेत्तद् वर्जनियम्, तथा-' दाणविष्वणासो ' दानविमणाशः येन वचनादिना दानस्य विनाशो भवति, तद् वर्जनीयम्. तपा- 'पेसुन्नं चैत्र' पैशुन्यं = परोक्षे परदोषाविष्करण 'चुगली' इति भाषा प्रसिद्धं वै 'मच्छतिं च ' मात्सर्यम् = ईर्ष्या च वर्जनीयम् ।। ०२ बातें भी माधु को छोड़ देनी चाहिये । तथा-(परवचए सेण जं च गेव्हंति) बाल ora आदि के निमित्त से जो अशन आदि वैयावृत्यकारक साधु लाया हो वह दूसरे साधुओं को अपने उपयोग में नहीं लेना चाहिये । तात्पर्य इसका यह है कि बाल ग्लान आदि अवस्थापन साधुजन के लिये जो वस्तु लाई गई हो वह उनके उपयोग से यदि बच जाय तो वह उस वस्तु के स्वामी की आज्ञा लेकर ही दूसरे साधुओं को अपने उपयोग में लानी चाहिये । तथा ( परस्स जं च सुकयं ) जिस बचन से दूसरे के खत आदि पुण्यकर्मा का अपह्नुव होता हो ऐसा वचन साधु को त्याग कर देना चाहिये। तथा ( दणस्स अंतराइये ) जिस वन से दान में अंतराय हो जाये तो ऐसा वचन भी नहीं कहना चाहिये | तथा ( दाविपणास ) जिस बचन से दान का विनाश होता हो ऐसा aur भी नहीं बोलना चाहिये । तथा ( पेसुष्णं ) साधु को परववएसेण जंच रोहंति " माददान आहिने निमित्ते २ આહાર આદિ વૈયાવૃત્યકારક સાધુ લાવ્યા હોય તે મીજા સાધુઓએ પેાતાના ઉપયાગમાં લેવા જોઈએ નહીં. તેનું તાત્પર્ય એ છે કે ખાસ પ્લાન આદિ અવસ્થાપન્ન સાધુજનને માટે જે વસ્તુ લાવવામાં આવી હોય તે તેઓએ વાપર્યા પછી વધે તે તે વસ્તુના માલિકની આજ્ઞા લઇને જ ખીજા સાધુએએ તેને પાતાના ઉગમાં લેવી જોઈ એ. તથા परस्स जं च सुकयं" के वयનાથી ખીજાનાં સુકૃત આદિ પુન્યકર્મોને નાશ થતા હોય તેવાં વચનેા સાધુએ એલવ જેઈએ નહી, એટલે કે તેવા વા માલવાનું સાધુએ અધ કરવુ જાઈ એ. તથા दाणte अंतराइयं" के वयनथी छानमा अंतरानडे भेवां વચના પણ કહેવાં જોઈ એ નહી. તથા 'दाणविणासो "मे वचनोथी हाननेो विनाश थतो होय ते वयना पशु मोसवां से नहीं, तथा "पेसु लाखे तथा "4 46 63 प्र ९१ ܐ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only " Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७२२ प्रश्नध्याकरणसूत्रे कीदृशो मुनिरिदं व्रतं नाराधयती ? त्याह-'जे वि य' इत्यादि मूलम्--जे वि य पीढफलगसज्जासंथारगवत्थपायकंबल. दंडगरयहरणनिसेज्ज चोलपदगमुहपोन्तियपाय पुंछणाइ भायण भंडोवहिउवगरणं असंविभागी असंगहरुई, तबतेणे य वइतेणे य रूवतेणे य आयारतेणे य भावतेणे य सहकरे झंझकरे कलहकरे वेरकरे विकहकरे असम्ाहिकरे सया अप्पमाणभोई सययं अणुबद्धवेरे य निच्चरोसी से तारिसए नाराहए वयमिणं ॥ सू०३॥ टीका-'जे विय' योऽपि च मुनिः 'पीढफलमसेज्जासंथारंगवत्थपायकंबलचोलपट्टगस्यहरणमुहपोत्तियपायधूछणाइभायण भंडोबहिउवगरणं । पीठफलकशय्यासंस्तारकवस्त्रपात्रकम्बलचोलपट्टकरजोहरणमुख वत्रिकापादपोन्छनादि - भाजनभाण्डोपध्युपकरणम् एषणागुणावेशुद्धिलब्धं पोठकलकादिकं लब्ध्वेति गम्यते, तस्य असंविभागी-अविभागकारो-आचार्यग्लानादिभ्यः पीठफलकादीन् अविभज्यैव स्वार्थबुद्धया स्वयमुपभोक्ता भवति स इदं व्रतं नाराधयतीत्यग्रेण किसीकी चुगली नहीं करना चाहिये। तथा (मच्छरियं) साधु को इर्ष्याभाव का भी परित्याग कर देना चाहिये ॥५-२॥ किस प्रकार का मुनि इस व्रत की आराधना नहीं कर सकता है इस यात को कहते हैं-'जे वि य' इत्यादि। टीकार्थ-(जे वि य) जो मुनि एषगागुण की विशुद्धि से प्राप्त पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक, वस्त्र, पात्र, कंचल, दंड, रजोहरण, निषद्या, चोलपट्टक, सदोरकमुखवत्रिका, पादप्रोग्छन आदि, तथा भाजन, भांड, उपधि, इन सब उपकरणों को प्राप्त करके उनका विभाग ण्णं " साधु नी याडी ४२वी न नाडी तथा “मच्छरियं " साधुसे ध्यासापनी ५४ परित्या ४२२! न मे ॥ -२ ॥ કેવા મુનિ આ વ્રતની આરાધના કરી શકતા નથી તે વાત હવે સૂત્ર१२ ४ छ-"जे वि य” त्यात टी-"जे वि य" २ भुनि अषण! शुनी विशुद्धिथी प्रास थयेट पी3 ३४४, शय्या सत्ता२४, १२, पात्र, ४८, ४ २०२५, निपया, यासप, होश સહિતની મુહપત્તિ, પાદપ્રેછન આદિ તથા ભજન, ભાંડ, ઉપાધિ એ બધાં For Private And Personal Use Only Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ०२सू० ३ किडग्मुनिअदत्तादानादिवतं नाराधयति ७२३ सम्बन्धः । तथा-' असंगहरुई' असंग्रहरुचिः- न संग्रहे रुचिर्यस्य स तथोक्तःगच्छोपग्रहकरस्य एषणादोपर हितस्य लभ्यमानस्य वखपात्रादिकस्य स्वार्थपरायणत्वेन - ' मम प्रचुरं वस्त्रपात्रादिकं विद्यते किमन्येषां चिन्तया' इति विचिन्त्य संग्रहबुद्धिवर्जित इत्यर्थः । अत्र सूर्छया संग्रहकरणं निषिद्धम् । तथा 'तवतेणे' तपः स्तेनः तपश्ररः यथा स्वभावतः कृशशरीरकञ्चिदनगार दृष्ट्वा कश्वित्पृच्छति - ' भो मुने ! यो मासक्षपणको मुनिः श्रूयते स भवानेव ' तदा स स्वमानाद्यर्थमाह – ' साधवः क्षपका एव भवन्ति ' अथवा तूष्णीमास्ते, स तपःनहीं करता है - अर्थात् आचार्य, ग्लान आदि मुनिजनों को इन पीठ, फलक आदि का विभाग न करके स्वार्थबुद्धि से जो स्वयं इनका उपभोक्ता होता है, वह साधु इस व्रत की आरचना नहीं कर सकता है । तथा ( असंगहरुई) जिसकी संग्रह में रुचि नहीं होती है, अर्थात् जो साधु स्वार्थ में परायण होने के कारण इन पीठ फलक, वस्त्र, पात्र आदि उपकरणों को कि जो अपने गच्छ के उपकारक और एषणादोष से विशुद्ध हैं मिलते हुए भी इस भावना से कि मेरे पास तो ये वस्त्र पात्रादि उपकरण हैं मुझे दूसरों की चिन्ता से क्या काम है विचार से संग्रह करने की बुद्धि से वर्जित होता है वह साधु इस व्रत का आराधक नहीं हो सकता है। मूर्च्छा भाव से ही संग्रह करने का निषेध है | तथा जो साधु ( तवतेणे य ) इसी तरह जो तपः स्तेन है, अर्थात् जैसे कोई साधू स्वभावतः कृश शरीर हो और कोई दूसरा इस प्रकार पूछे कि हे मुने ! जो मास क्षपण आदि करने वाले तपस्वी मुनिઉપકરણેને પ્રામ કરીને તેના વિભાગ કરતા નથી એટલે કે આચાર્ય, ગ્લાન આદિ મુનિજનાને માટે એ પીઠ, ફલક આદિના વિભાગ કર્યા વિના સ્વા બુદ્ધિથી પાતે જ તેના ઉપભોગ કર્યા કરે છે, તે સાધુ આ વ્રતની આરાધના पूरी शतो नथी. तथा “ असंगहरुई " भेनी समां रुचि होती नथी, એટલે કે જે સાધુ સ્વાથ પરાયણ હાવાથી એ વસ્ત્ર, ફૂલક, પાત્ર, વસ્ત્ર, આફ્રિ ઉપકરણેા, કે જે પેાતાના ગચ્છના ઉપકારક અને એષણાદોષથી રહિત છે. તેની પ્રાપ્તિ થવા છતાં પણ “ મારી પાસે તે આ વસ્ત્ર. પાત્રા ઉપકરણ છે મારે બીજાની ચિન્તા શા માટે કરવી જોઈએ ? ? એવી ભાવનાથી સગ્રહ કરવાની બુદ્ધિથી રહિત થઇ જાય છે, તેવે! સાધુ પણ આ વ્રતના આરાધક થઇ શકતા નથી. મૂર્છાભાવથી જ સુગ્રહ કરવાનો નિષેધ છે. તથા જે સાધુ " तवतेणेय " मे भरीते तपचोर छे, हाणला तरी आई साधु સ્વાભાવિક રીતે જ દુબળા શરીર વાળા હોય અને તેને જોઇને બીજું કેઈ એમ પૂછે કે' હું મુનિ ! માસખમણુ થ્યાદિ કરનાર મુનિજન વિષે સાંભળવામાં આવ્યું इस For Private And Personal Use Only ܕܪ Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir aanemiak. - प्रश्नव्याकरणस्त्रे स्तेनः प्राच्यते, 'वइतेणे' वचः स्तेनः वाक्चौरः-यथा-कंचित् न्याख्यातार साधुमवलोक्य कश्चित् पृच्छति-'व्याख्यानवाचस्पति यः श्रुतः स भवानेर' इति पृष्टः स ब्रूते-मुनयस्तादृशा भवन्त्येव ' यद्वा मौनमास्ते, इत्येव यः परस्य ख्याति स्वात्मनि स्थापयति स वास्तेनः, 'रूबतेणे य' रूपस्तेनश्च-एतद्विषयेऽपि पूर्ववघोजना कर्तव्या । तथा 'आयारे चेव' आचारे साधुसमाचार्यादि राज सुने जाते हैं वे आप ही हैं क्या ? इस प्रकार सुनकर वह भपने मान के निमित्त ऐसा कहे कि साधु तो तपस्वी ही होते हैं, अथवा सुनकर चुप रहे, इस प्रकार से वर्तन करने वाला वह मुनि तपश्चौर(तप का चोर ) कहा जाता है ! (तप का चोर) तपश्चौर-मुनि इस व्रत की आराधना करनेवाला नहीं होता है। इसी तरह (वइतेणे) व्याख्यान करते हुए किसी मुनिराज को देखकर कोई उससे इस प्रकार पूछे कि जो व्याख्यानवाचस्पति मुनिराज सुने जाते हैं वे आप ही है क्या ? इस प्रकार सुनकर वह मुनिराज उसके समाधान निमित्त यह कह दे कि महानुभाव! भुनिजन तो व्याख्यानवाचस्पति ही होते हैं, अथवा कुछ न कह कर चुप रहे इस प्रकार का व्यवहार करनेसे वह मुनि वचन का चोर वचस्तेन-माना जाता है, क्यों कि उसने पर की ख्यातिको अपने में स्थापित किया है, इस तरह से पद कि ख्यातिको आने में स्थापित करने वाला साधु वाक् चौर कहा जाता है। इसी तरह (रूवलेणे ) रूपस्तेन की भी व्याख्या जान लेनी चाहिये, अर्थात्-विशिष्ट रूप છે તે શું આપ જ છે ?” આ પ્રકારને પ્રશ્ન સાંભળીને તે પોતાના માનને માટે એવું કહે કે “સાધુ તે તપસ્વી હોય જ છે અથવા તે વાત સાંભછીને મૌન રહે, એ પ્રકારનું વર્તન કરનાર મુનિને તપોર કહે છે. તપર મુનિ આ વતની આરાધના કરી શક્તા નથી. એ જ રીતે "वइतेणे" ज्यान ४२ता 5 मुनिराने ने तेमने 21 प्रमाणे પૂછે કે વ્યાખ્યાન વાચસ્પતિ જે મુનિરાજ ગણાય છે તે શું આપ જ છે ? આ પ્રમાણે સાંભળતા તેના સમાધાન માટે એમ કહે છે કે “હે મહાનુભાવ ! મુનિજન તે વ્યાખ્યાન વાચસ્પતિ જ હોય છે અથવા તેને કંઈ પણ જવાબ ન આપતાં ચૂપ રહે, એવા પ્રકારના મુનિને વર્તન-વચનર કહેવાય છે, કારણ કે તેણે બીજાની ખ્યાતિનું પિતાનામાં આરોપણ કર્યું છેઆ રીતે પારકાની ખ્યાતિનું પિતાનામાં આરોપણ કરનાર સાધુને વચનોર डिवायछ, यर प्रमाणे "स्वतेणे" ३५स्तेन-३५यारी व्याच्या ५५ सम. જવી. એટલે કે વિશિષ્ટ રૂપયુક્ત કઈ સાધુની ખ્યાતિ સાંભળીને કે For Private And Personal Use Only Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका ० २०३ कि मुनिदन्तादानादिकं व्रतं नारायघति ७२५ " विषये स्तेन: चौरः, यथा स य: ' उत्कृष्टाचारवान् साधुः श्रूयते स भवानेव ?' तदा वक्ति 'साधुस्तु - उत्कृष्टाचारवान् भवन्त्येव' मौनं वा समालम्वते इत्येवे स्वात्मनि अविद्यमानामुत्कृष्टाचारवतां स्थापयन्साधुराचारस्तेनो भवति, तथा'भावतेणे य' भावस्तेनश्च भावस्य = श्रुतज्ञानादि विशेषस्य स्तेनः - चौरो भाव संपन किसी साधु की ख्याति सुनकर कोई रूपवान् मुनि से ऐसा पूछे कि महाराज ! जिनकी रूप में ख्याति हम सुन रहे हैं वे आप ही है क्या ? तो इस प्रकार की बात सुनकर वह ऐसा कहे कि साधुजन तो विशिष्टरूप शाली होते ही हैं, अथवा कुछ न कहे- चुपचाप रह जावे, तो "मौनं सम्मतिलक्षणं " के हिसाब से पर के विशिष्ट रूपशालित्व का अपने में आरोप करने की भावना से वह रूपस्तेन कहलावेगा । इस तरह जो साधु रूपस्तेन होता है वह इस व्रत को नहीं पाल सकता है। इसी तरह (आयार तेणे) जो साधु समाचारी आदिके विषयमें स्तेन होता है वह आचारस्तेन कहा जाता है, जैसे किसी साधुकी आचार विषय में उत्कृष्ट ख्याति सुनकर दूसरा कोई ऐसा पूछे कि भो मुने ! जिन 'साधुराजकी आचार में विशेष ख्याति सुनी जाती हैं क्या वे आपही है ?, इस प्रकार सुनकर वह साधु प्रत्युत्तर रूप में ऐसा कहे कि महानुभाव ! साधु तो उत्कृष्ट आवार वाले होते ही हैं, इस प्रकार कहने वाला साधु आचारस्तेन कहलाता है, क्यों कि इस तरह की स्थिति से उसने માણસ કોઇ રૂપવાન મુનિને એવું પૂછે કે વિષે જેની ખ્યાતિ સાંભળી છે તે મુનિ શું આપ વાત સાંભળીને તે એવું કહે છે કે સાધુજન છે ” અથવા કંઇ પણ જવાબ ન આપે ત માનીને બીજાના વિશિષ્ટ રૂપનું પેાતાની અંદર આરાપણુ કરવાની ભાવનાથી તે રૂપચાર કહેવાય છે આ રીતે જે સાધુરૂપચાર હોય છે તે આ વ્રતને पाणी राउतो नथी, या रीते "आयारतेणे" ने साधु समायारी आदि मागतभां ચાર હાય છે તે આચાર ચાર કહેવાય છે. જેમ કે કોઈ સાધુની આચારની ખાખતમાં ઉત્કૃષ્ટ ખ્યાતિ સાંભળીને બીજી કઈ વ્યક્તિ તેને એવું પૂછે કે હું મુનિ ! જે મુનિરાજની આચારમાં ખાસ ખ્યાતિ સભળાય છે, તે શું આપ પોતે જ છે ?” આ પ્રમાણે સાંભળીને જે મુનિ એવા પ્રત્યુત્તર વાળે કે મહાનુભાવ ! સાધુએ તેા ઉત્કૃષ્ટ આચારવાળા જ હોય છે’” અ.મ કહેનાર સાધુને આચારચાર કહેવાય છે કારણ કે આ પ્રકારની પરિસ્થિતિમાં તેણે પોતાનામાં જે “ મહારાજ ! અમે રૂપને "" તે જ છે ? આ પ્રકારની વિશિષ્ટ રૂપયુક્ત હાય જ મૌનને સ`મતિનું લક્ષણ ". For Private And Personal Use Only Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्र स्तेनः, कस्यापि श्रुतविशेषस्यापूर्व व्याख्यानं कस्यापि मुखादुपश्रुत्य जनसमक्षे खकीयत्वेन तं ख्यापयन् साधुर्भावस्तेन उच्यते । तथा यः साधुः ‘सहकरे' शब्दकरः प्रहररात्रिगमनानन्तरं यो महता महता शब्देन भाषते स शब्दकर उच्यते । ' झंझकरे ' झञ्झाकरः येन कार्येण गणस्य भेदा भवति तत्कार्यकारी 'कलहकरे' कलहकरः वाचिकभण्डनकारी ' वेरकरे ' वैरकरः परस्परशत्रुभावोत्पादकः, तथा-'विकहकरे' विकथाकरः च्यादिकथाकारी, 'असमाहिकारगे' असमाधिकारकः-स्वपरचित्तोद्वेगकारकः, तथा- सया' सदा 'अप्पमाणभोई' अपने में अविद्यमान उत्कृष्ट आचारवत्ता स्थापित की है अतः जो ऐसे आचारस्तेन होते हैं उनसे इस महाव्रत की आराधना नहीं हो सकती है, ( भावतेणे ) जो श्रुतज्ञान आदि भाव की चोरी करता है वह भावस्तेन कहलाता है, जैसे किसी के मुख से किसी साधु का श्रुत विशेषसंबंधी अपूर्व व्याख्यान सुनकर कहता है कि यह व्याख्यान तो मेरा ही दिया हुआ है, इस प्रकार का भावस्तेन साधु भी इस महाव्रत की आराधना नहीं कर सकता है। इसी तरह (सहकरे) जो साधु एक प्रहर रात्रि के चले जाने के बाद बड़े जोर २ से बोलता हैं उसका नाम शब्दकर है । ( अझकरे ) जिस कार्य से गण में भेद हो जाय उस काम को करने वाला साधु झंझाकर है। (कलहकरे) आपस में जो वाक्कलह कर बैठता है उसका नाम कलहकर है, ( वेरकरे ) परस्पर में जो शत्रुता का उत्पादक होता है वह वैरकर है, (विकहकरे ) स्त्री आदि विकथाओं को करनेवाला साधु विकथाकर है, (असमाहिकरे) અવિદ્યમાન છે તે ઉત્કૃષ્ટ આચારવત્તાનું આરોપણ કર્યું છે. તેથી જે સાધુઓ એવાં આચાર ચાર હોય છે તેમનાથી આ મહાવ્રતની આરાધના થઈ શકતી नथी. 'भावतेणे"२ श्रुतज्ञान माहि मावनी यारी ४ ते भावयो२ ४उपाय છે. જેમ કે કેઈન મેઢે કઈ સાધુનું કઈ શાસ્ત્ર સંબંધી અપૂર્વ વ્યાખ્યાન સાંભળીને જે સાધુ એમ કહે કે આ વ્યાખ્યાન તો મેં જ આપેલું છે. આ પ્રકારને ભાવાર साधु पात्र मातनी २२राधना ४२री २४तो नथी. मे २८ प्रमाणे “सहकरे" १४४२જે સાધુ એક પ્રહર રાત્રિ પ્રસાર થયા પછી ઘણા જોરથી બોલે છે તેને શબ્દકર छ, “ झंझकरे” ले यथा समूडमा सहभाय थाय ते आय ४२नार साधु ॐआ४२ ४उपाय छ, "कलहकरे ' सा५सम 2 41५४१६ ४३ मेसे छे तेने ४१९४२ ४ छ, “ वेरकरे' मा५समा ३२ पहा ४२११ना२ सय ते ३२. ४२ ४७ , " बिकहकरे " श्री मा qिया। ४२नार साधुने विया४२४ For Private And Personal Use Only Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दशिनी टीका ० ३ स्०४ कोमुनिरवत्तादानाविव्रतमाराधयति अप्रमाणभोजी द्वात्रिंशकवलाधिकाहारी, 'सययं ' सततं निरन्तरम् 'अणुबद्धवैरे ' अनुबद्धवैरः अव्यवच्छिन्नवैरभावः, च=पुनः निच्चरोसी' नीत्यरोपी सदाकोपशीलः, ' से तारिसए ' स तादृशः साधुः 'नाराहए' माराधयति ' इणं' इदम्-पूर्वोक्तं, व्रतम् अदत्तादानविरतिस्वरूपम् ॥ मू०३॥ कः पुनरिद व्रतमाराधयितुं समर्थः ? इत्याह--'अह केरिसए' इत्यादि मूलम् अह केरिसए पुणाई आराहए वयामिणं ? जे से उवहि भत्तपाणसंगहणदाणकुसले अच्चंत बाल दुब्बल गिलाण वुड्डखवगपवत्तयआयरिय उवम्झाए सेहे साहम्मिए तवस्सिकुलगणसंघे य चेइयट्रे निजरठ्ठी वेयावच्चं अणिस्सियं दसविहं बहुविहं करेइ, नय अवियत्तस्स घरं पविसइ, न य अचियत्तस्स भत्तपाणं गिण्हइ, न य अचियत्तस्म सेवइ पीढफलग--सेज्जा-संथारग--वत्थपाय-कंबल--दंडगर ओहरण-निसज्जयोलपट्टगमुहपोत्तियपायपुंछणाइ .- भायण अपने और पर के चित्त में उद्वेगभाव पैदा कर देने वाला साधु असमाधिकारक है, (सया अप्पमाणभोई) सदा बत्तीसग्रास से अधिक भोजन करने वाला साधु अप्रमाणभोजी कहलाता है ( सययं अणुवद्धबेरे य) जिसका वैर भाव कभी भी शांत न हो वह साधु समतानुबद्ध वैर कहलाता है, (निच्चगेसी ) जो नित्य ही कुपि स्थिति में रहता है यह नित्यरोपी कहलाता है। (से तारिमए) इस प्रकार तपस्तेन आदि विशेषणवाला साधु (इणं वयं राहए ) इस महाव्रत की आराधना नहीं कर सकता है ।। ३ ॥ छ, “ असमाहिकरे " पोताना तथा अन्यना वित्तमा । पहा ४२०१२ साधुने असमाधि४।२४ ४ छ, “सया अपमाणभोई " सह. पत्रीश आणियां ४२तां qधारे मा २ अनार साधुने प्रभाव से छे, “सययं अणुबद्भवेरेय" જેની વેર ભાવના કદી પણ શાન્ત ન થાય તે સાધુને સતતાનુબદ્ધ વૈર કહેपाय छे. “ निच्चरोसी" ने हमेशा ओघमा १ २ छ तेन नित्योपी । छ, " से तारिसए" 20 शते त५या२ मा विशेष पाणी साधु" इणवय नाराहए " मा महाबतनी आराधना ४२१ शत! नथी ॥ ३॥ For Private And Personal Use Only Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - ७२८ प्रश्नव्याकरणसूत्रे भंडोवहिउवगरण, नय परिवाय परस्स अंपइ, न यावि दोसे परस्म गेण्हइ, पर ववएसेण वि न किचिं गेण्हइ, ण य वि. परिमाणइ कंचिजगं, ण यावि मासेइ दिण्णसुन, दाऊण य काऊण य ण होइ; पच्छाताविए, संविभाग-लीले, संगहो वाहकुसले, से तारिसए आराहेइ वयमिणं ॥ सू०४॥ टीका-'अह' अथेति प्रश्ने, केरिसए' कीदृशः साधुः 'पुणाई' 'वयमिणं' व्रतमिदम् अदत्तादाननिरमगरूपमिदं वाम् , ' आराहए' आराधयति ? इति प्रश्न सति पाह-'जे से ' यः सः 'उहिमत्तपाणसंगहणदाणकुसले' उपधिभक्तपानसंग्रहणदानकुशला अत्र उपधिः अस्त्रपात्रादिः, भक्ताने मसिद्धे तेषां संग्रहणे आदाने साधमिकेभ्यो दाने च कुशलो विधिज्ञो मुनिः। 'अच्च तबाल दुब्बलगिलागवुड खापवत्तय आयरिय उज्झाए सेहे साहम्मिए तस्सि कुल गण संधे य' अत्यन्त बालदुर्व ग्लानद्धपासक्षपकप्रवत्तकाचार्योपाध्याये शैक्षे अब सूत्रकार इस महावत की आराध ग करने के लिये कैसा साधु समर्थ हो सकता है ? यह कहते हैं-'अर केरिसए' इत्यादि। टीकार्थ (अर केलिए पुणाई वनिणं आराहए ? ) कैसा साधु इम अत्तादानविरमणरूप महाबन की आराधना कर सकता है ? इसके उत्तर में कहते हैं (जे से ) जो साधु ( उवहिभत्तगण संगहणदाणकुसले ) उपधि पत्र भ आदि, एवं भक्तपान, इनको अपने सार्मिक साधुओं के लिये लेने में और उन्हें इन वस्तुओं के देने में कुशलविधिज्ञ-होता है, तथा ( अच्चंतवालयलगिलाणबुडखवगपवत्तय आयरिय उवज्झाए ) जो संघ में अयंत वाल हैं--आठ वर्ष के હવે આ મહાવ્રતની આરાધના કરવાને માટે કે સાધુ સમર્થ श छ ते सूत्र.२ तावे छे “ अह के रिसए" त्यादि टी2-"अह् केरिसए पुणाईवयमिणं आराइए?" l साधु मा महत्ताहान વિરમણરૂપ મહાવ્રતની આરાધના કરી શકે છે? તેના જવાબધાં સૂત્રકાર કહે छ-"जे से" २ साधु “ उवहिभत्तपाणसंगहणाणकुसले" ५धि, १४, પાત્ર આદિ અને આહાર પાણી, પિતાના માર્મિક સાધુઓને માટે લેવામાં भने नभने ते वस्तुमे देवाम -विधिन-डाय छ, तथा “ अच्चंतबाल दुष्टबागलाणवुद्ध खगपवत्तयआयरिय ग्यमाए " २ रे सभा अत्यात બાળ છે–આઠ વર્ષના બાળ સાધુ છે, તથા જે દુર્બલ છે-કમજોર હોવાથી For Private And Personal Use Only Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्या सुदर्शिनी टीका भ) ३ सू०४ कोमुनिरदत्तादानादिवतमाराधयति? ७२२ साधर्मिके तपस्विकुलगणसवे, तत्र अत्यन्तवाला चष्टवषोयोवालः, अत्यन्त दुर्वलः कृशाङ्गत्वेन स्वकार्यकरणाक्षमः, 'गिलान ' ग्लानः व्याध्यादिना भिक्षाटनादावसमर्थः, 'बुडू वृद्धः स्थविर ज्ञानवृद्धः, पर्यायवृद्धः, वयोवृद्धश्च, 'खवग'. क्षपका-मासक्षपणाग्रतपाकारित्वेन प्रवचनप्रभावकः, ‘पवत्तय' प्रवर्तकःप्रशस्तयोगेषु यथायोग्यतया साधून प्रवत्तयतीति प्रवत्तकः, आचार्यः गणनेतायो हि शास्त्रानुसारेण स्वयमाचरति, अन्याश्चाचार यति स आचार्यः, तदुक्तम् " आचिनोति च शास्त्राणि, आचार ग्राहयत्यपि । स्वयमाचरते यस्मात्तस्मादाचार्य उच्यते " इति। उपाध्यायः-उप-समीपे आगतान्-शिष्यान् सूत्रार्थमध्यापयति यः स उपाध्यायः, एनेषां समाहारद्वन्द्वः, तस्मिन्, तथोक्ते, तथा ' सेहे' शैक्षे-नवदीक्षिते साधी, तथा- साहम्मिए ' सार्मिके श्रुतलिङ्गप्रवचनैः समानश्रद्धावान् बालक साधु हैं तथा जो दुर्घल हैं-कम जोर होने से जो अपने कार्य करने में अक्षम है, जो ग्लान हैं-व्याधि आदि के निमित्त को लेकर जो भिक्षावृत्ति आदि करने में असमर्थ हैं, जो वृद्ध हैं-स्थविर-जरा से जर्जरित शरीर वाले हैं ज्ञान की अपेक्षा दीक्षापर्याय की अपेक्षा और आयु की अपेक्षा जो वृद्ध-घडे हैं, जो क्षपक हैं मासक्षपक आदि उग्र तपस्या करने वाले हैं, जो प्रवर्तक हैं-प्रशस्त-योगोंमें साधुजनो को उनकी योग्यता के अनुसार प्रवृत्ति कराने वाले हैं, जो आचार्य हैगण के नेता हैं-अर्थात्-साधु संबंधी आचार को जो स्वयं पालते हैं, और दूसरे साधुओं से पलाते हैं, जो उपाध्याय हैं-अपने पासमें आये हुए साधुओं को-शिष्यजनों को जो सूत्र पढाते हैं, जो (सेरे) शिष्य हैं-नव दीक्षित साधुजन हैं, जो (साहम्मि ) साधर्मिक है-श्रुत लिङ्ग और प्रवचन-प्ररूपणा इनको लेकर जिनकीश्रद्धा समान है जो જે પિતાનાં કામ કરવાને અસમર્થ છે, જે પ્લાન છે વ્યાધિ આદિ ને કારણે જે ભિક્ષાવૃત્તિ આદિ કરવાને અસમર્થ છે, જે વૃદ્ધ છે- વિર–જરાને કારણે જર્જરિત શરીરવાળા છે. જ્ઞાનની અપેક્ષાએ દક્ષા પર્યાયની અપેક્ષાએ અને આયુની અપેક્ષાએ જે વૃદ્ધ મેટાં છે, જે ક્ષેપક છે મા ખમણ આદિ ઉગ્ર તપસ્યા કરનાર છે, જે પ્રવર્તક છે- શરત યોગમાં સાધુજનોને તેમની યોગ્યતા અનુસાર પ્રવૃત્તિ કરાવનાર છે, જે આચાર્ય છે–ગણના નેતા છે એટલે કે સાધુના આચારેને જે જાતે પાળે છે અને બીજા સાધુઓ પાસે પળાવે છે, જે ઉપાધ્યાય છે–પિતાની પાસે આવેલા સાધુઓને-શિષ્યજનને જેઓ सूत्री लाव छ, रे " सेहे " शिष्य छ-नवदीक्षित साधुमे। छ, २ "सा For Private And Personal Use Only Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७३० प्रश्नव्याकरणसूत्रे साधर्मिक उच्यते, तस्मिन् , तथा-'तपरिस कुलगासंघे य' तपरिपकुलगणसंधे च, तत्र-तपस्वी-विकृति बर्जकः, चतुर्थभक्तादिकारी वा, कुलम् = एकगुरुकशिष्यसमूदायरूपम् , गणः कुलसमुदायः,संघागमायरूपः, एतेषां समाहारद्वन्द्वा, तस्मिंस्तथोक्ते च, अत्र सर्वत्र विषयाथै सहमी, तेन तत्तद्विषयक मित्यर्थः, 'चेहयढे ' चैत्यार्थ:--चैत्यं ज्ञानं 'वितीसंज्ञाने ' इत्यस्मात् संपदादित्वाद् भावे विपि 'चित्.' संज्ञानं सम्यशूझान, चिदेव चैत्यं, स्वाथें प्यञ् , तदेव अर्थः-प्रयोजनं यस्य स तथोक्तः सम्यग जानाभिशापीत्यर्थः. तथा-'निजट्टो' निर्जरार्थी(तवरिसकुलगासंधे य) तपस्नी हैं-विकृति (निगग) के त्यागी हैं अथवा चतुर्थ भक्त आदि तपस्याओं के करने वाले हैं. तथा जो एक ही गुरु के शिष्यों का समुदाय है वह कुल है, कुल के समुदाय का नाम गण है, गणसमुदाय को संघ कहते हैं सो इम सयको (चेइयट्टे ) सम्यक् ज्ञान की प्राप्ति का अभिलाषी तथा (निज्जरही) कर्मों की निर्जरा का इच्छुक मुनि ( अणिस्सियं ) इहलोक और परलोक संबंधी आकांक्षा रहित होकर ( दसविहं ) दश प्रकार की (बहुविहं ) भक्तपान आदि विविध प्रकार से (धेयावच्च करेइ) वैधावृत्त्य करता है-- उनकी सहायता करता है वह इस महोवतको पाल सकता है। __ यहां जा चेइयडे' पद पाया है उसकी छाया चित्यार्थ' ऐसी है। संज्ञानार्थक चित् धातु से “संपदादित्वात् " इस सूत्र छारा भाव में क्विा ' प्रत्यय होने पर चित् ऐसा शब्द बन जाता है, इस का अर्थ संज्ञान-सम्यग्ज्ञान-होता हैं। फिर स्वार्थ में 'स्य' प्रत्यय होने पर हम्मि" सायमि छ, रे "तबस्सि कुलगणसंधे य" १५२वी. छ, विति-"विगय" ના ત્યાગી છે, અથવા ચતુર્થભકત આદિ તપસ્યા કરનાર છે, તથા જે એક જ ગુરુને શિષ્ય સમુદાય “ગુરુ છે, કુલના સમુદાયને ગણ કહે છે, ગણના सहायने सच छ. तो ये सौनी “ चेइयट्रे" सभ्यशाननी प्राप्लिन। भमिलाषी तथा “ निज्जरठ्ठी" ना नि भाटे उत्सु भनि 'अणि स्सियं" मासी मने परसो साधी मxiक्षा तिने "दसविहं" इस २नी “ बहुवियं" भाडा२ ५९ मा प्ररे “ वेयावच्च करे" વૈયાવૃત્ય કરે છે–તેમની જે સાધુ સહાયતા કરે છે તે આ મહાવ્રત પાળી શકે છે. ___महीने "चेइय?" ५४ माव्यु छ तेनी छाया "चैर शर्थ" छ. सहा. नाक 'चित ' धातुथी " क्वि" प्रत्यय सात 'चित्' । २५४ मनी oनय छ, तेन। म सज्ञान-सन्म शान-थाय छे. छ. स्यामा व्यञ्' પ્રત્યય લાગતા ચૈત્ય શબ્દ સિદ્ધ થઈ જાય છે. તે ચિત્ જય છે એ For Private And Personal Use Only Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुद शनीटीका अ० ३ सू० ४ को निरस्ताहानादिवतमाराधयति ७३१ कर्मनिर्जराभिलाषी, 'अणि स्वयं ' अनिश्रितं की यादिनिरपेक्षम् इहलोकपरलोकाद्याशंसारहितमित्यर्थः, 'बहुविई ' बहुविधम् = भक्तपानादिभिर्बहुप्रकराक, 'दसविहं' दशविधं आचार्यादिदशविधस्थानकं, 'वेयावच्चं वैयावृत्य भक्तपानादिभिः साहाय्यं 'करेइ ' करोति । ननु अत्यन्तवालदुर्बलादि सङ्घान्तानां चतुर्दशानां वैयावृत्वस्थानतया प्रथमचैत्य शब्द सिद्ध हो जाता है-तब चित् ही चैत्य है ऐसा अर्थबोध होता है । यह दैत्य-सम्यग्ज्ञान-हो जिसका प्रयोजन है वह चैत्यार्थ है, इस प्रकार का अर्थ होने से इसका तात्पर्य यह होता है कि जो साधु सम्यग्ज्ञ,न की अभिलाषा वाला है। " अणिस्सियं " यह पद क्रियाविशेषण के रूप में प्रयुक्त हुआ है। जिसका सारांश है कि वह साधु इन बाल आदि मुनिजनों का वैयाकृत्य करते समय यह भावना न रखे कि मुझे कीर्ति आदि की प्राप्ति अथवा इहलोक संबंधी सुखों आदि की प्राप्ति इनकी सेवा करने से होगी । " यहुविध " यह वैयावृत्य का विशेषण है जो यह कहता है कि वैयाकृत्य तप भक्तपान आदि से अनेक प्रकार का है। शास्त्रों में यावृत्य के भेद दस कहे हैं । कारण आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, तपस्वी, शैक्ष, ग्लान, साधर्मिक, कुल,गण और संघ ये दस स्थान सेवाके हैं । इसलिये इनकी सेवा रूप यह वैयाघृत्य भी दश प्रकार का कहा गया है। शंका-इस "अमचंतयाल" आदि पद में तो अत्यंतवाल से અર્થ થાય છે. તે ચિત્ય-સભ્ય જ્ઞાન જ જેનું પ્રજન છે તે ચૈત્યાર્થ છે, તે પ્રકારને અર્થ થવાથી તેનું તાત્પર્ય તે થાય છે કે જે સાધુ સમ્યગુ ज्ञाननी भनिसाषा वा छ. " अणिस्सिय " PAL ५४ डियाविशेषणुना ३५मां વપરાયું છે. તેનું તાત્પર્ય એ છે કે તે સાધુ તે બાલ આદિ મુનિઓનું વૈયાનૃત્ય કરતી વખતે એવી ભાવના ન રાખે કે મને કીતિ આદિની પ્રાપ્તિ અથવા मास तथा ५२ संधी सुभानी प्रति तमनी सेवाथी थशे. "रहविधं" તે વિયાવૃત્યનું વિશેષણ છે જે એ બતાવે છે કે વૈયાવૃત્ય તપ આહાર પાણી આદિ અનેક પ્રકારનાં છે. શાસ્ત્રોમાં વૈયાવૃત્યના દસ ભેદ બતાવ્યા છે. કારણ मायाय, अ५८याय, स्थविर, त५२वी, सक्ष, सान. सामि, पुस, Y અને સંઘ એ દશ સેવાના સ્થાન છે. તેથી તેમની સેવારૂપ આ વૈયાવૃત્ય પણ દશ પ્રકારનું કહેલ છે. श-~-20 " अच्छतवाल" माह पमा सत्यत माथी सन ५ For Private And Personal Use Only Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - - प्रश्नध्याकरणसूत्र मुक्तत्वाद् दविधं यावृत्यमिति कथनं कथं न विरुध्यते ? अत्रोच्च, वैयाहत्त्यस्य स्थानं दशविधं व्याख्यापनप्ति (श. २५ उ. ७) व्यवहारसूत्र, उ. १०) पागमेषु सर्वत्र प्रसिद्धं, तत्रैव तद्वहिभूतानामन्तर्भावः, तथाहि-अत्यन्तबाल दुर्वरुयोग्लीनेसमावेशः, तयोस्तत्संनिहितत्वेनोक्तत्वाद् भक्तानानयनादावक्षमत्वेन तत्साश्याच्च । क्षपक-प्रवर्तकयोराचार्थे संनिवेशः,तयोस्तत्संनिहितत्वेनोक्तत्वातलेकर संघ तक चौदह वैयावृत्य के स्थान होते हैं अतः वैयावृत्य के स्थान होने से वैयावृत्य भी चौदह प्रकार का ही होना चाहिये फिर यहां जो उसमें दश विधता प्रकट की है सो यह कथन परस्पर में क्या विरुद्ध नहीं है ? अवश्य विरुद्ध है। उत्तर-शका ठीक है, परन्तु विचार करने पर इसका समाधान अच्छी तरह से हो जाता है-वैयावृत्य के ये दशपकार के ही स्थान व्याख्याप्रज्ञप्ति ( श. २५ उ. ७) व्यवहारसूत्र ( उ. १०) आदि आगमों में सर्वत्र प्रसिद्ध हैं। इनमें ही इनसे बहिभूत भेदों का अन्तर्भाव हो जाता है। जैसे जो साधु अत्यन्तबाल एवं दुर्बल हैं इन दोनों का समा. वेश ग्लान साधुओं में हो जाता हैं क्यों कि ये उन्हीं जैसे होते हैं इसीलिये उनका पाठ उनके साथ रखा है। जिस प्रकार ग्लान साधु भक्तपान आदि के लाने में असमर्थ होता है उसी प्रकार से ये भी हैं। इस तरह इनमें परस्पर में सहशता आने से इन दोनों का समावेश ग्लान में हो जाता है । इसी तरह से जो क्षपक और प्रवर्तक हैं उनका સુધી વૈયાવૃત્યનાં ચૌદ સ્થાને થાય છે, તે તે બધાં વૈયાવૃત્યનાં સ્થાન હોવાથી વૈયાવૃત્ય પણ ચૌદ પ્રકારનાં થવાં જોઈએ. છતાં અહીં તેનાં દસ પ્રકાર બતા વ્યા છે તે તે કથન શું પરસ્પરમાં વિરોધાભાસ દર્શાવતું નથી? અવશ્ય વિરોધાભાસ દર્શાવે છે. ઉત્તર--શંકા બરાબર છે પણ વિચાર કરતાં તેનું સારી રીતે સમાધાન થઈ જાય છે. વૈયાવૃત્યનાં એ દશ પ્રકારનાં જ સ્થાન વ્યાખ્યાપ્રજ્ઞપ્તિ (શ. ૨૫ 6-७) व्यवहारसूत्र (6-१०) माह मागभामा सर्वत्र प्रसिद्ध छ. तेमनाમાંજ તેમનાથી બાહ્ય ભેદેને સમાવેશ થઈ જાય છે. જેમ કે જે સાધુ અત્યંત બાલ અને દુર્બળ છે તે બંનેને સમાવેશ ગ્લન સાધુઓમાં થઈ જાય છે, કારણ કે તેઓ તેમના જેવાં જ હોય છે તેથી તેમને પાઠ તેમની સાથે રાખે છે જેમ લાન સાધુ આહાર પાણી આદિ લાવવાને અસમર્થ હોય છે તેમ તેઓ પણ અસમર્થ છે. એજ રીતે તેની વચ્ચે પરસ્પરમાં સમાનતા આવવાથી તે બંનેને સમાવેશ “લાન માં થઈ જાય છે. એ જ રીતે જે For Private And Personal Use Only Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुशिनी टोका अ०३ सू) ४ कोमुनिरदत्तादानादिवतमाराधति? ७३३ प्रवचनप्रभावकत्वेन तत्सादृश्याच्च । एवं च वैयावृत्त्यस्य-आचार्यादि स्थानभेदेन दविधत्वकथनमविरुद्धम्। ___ यत्तु-' चेइय? ' इत्यस्य व्याख्यानम्--" चैत्यानि-जिनप्रतिमाः, एतासां योऽर्थः प्रयोजनं यस्य स तथा, तत्र" इति टीकान्तरे लभ्यते तद्भ्रान्तिमूलकम् , वैयावृत्त्यस्य जिन प्रतिमा प्रति विधानाभावात् । जिनपतिमाया अपि वैयावृत्य स्वीकारे व्याख्याप्रज्ञप्त्याद्यागमेषु वैया वृत्त्यस्य दशविधत्वप्ररूपणं विरुध्यतेतहणेन वैयावृत्यस्यैकादशसंख्याऽति प्रसङ्गात् । अन्तर्भाव आचार्य में कर दिया जाता है । जिस प्रकार आचार्य प्रवचन के प्रभावक होते हैं उसी प्रकार से ये दोनों भी होते हैं, अतः उनके जैसे इन्हें प्रभावक होने से परस्पर में इनमें सदृशता आ जाती है यही बात प्रकट करने के लिये सूत्रकार ने इन दोनों का पाठ आचार्य के पास रखा है। इस तरह से विचार करने से वैयावृत्य के स्थान दस ही प्रकार के सिद्ध होते हैं, इसलिये इनके भेद से वैयावृत्य में दशविधत्व कथन विरुद्ध नहीं है ऐसा जानना चाहिये। __ तथा-जो "चेहय?" इस पदका व्याख्यान-" चैत्यानां अर्थः प्रयो. जनम् यस्य सः चैत्यार्थः" चैत्य जिन प्रतिमा है प्रयोजन जिसको ऐसा साधु" ऐसा कहते हैं-उनका यह व्याख्यान भ्रान्ति मूलक है। कारण जिन प्रतिमा के प्रति वैयावृत्य करने का विधान नहीं है। यदि यह विधान माना जावे तो फिर व्याख्याप्रज्ञप्ति ओदि आगमों में जो वैयावृत्य के ये पूर्वोक्त दश भेद माने गये हैं उनमें विरोध आता है, क्यों ક્ષપક અને પ્રવર્તક છે તેમને સમાવેશ આચાર્યમાં કરી દેવાય છે. જેમ આચાર્ય પ્રવચનના પ્રભાવક હોય છે તેમ તેઓ બંને પણ હોય છે, તથા તેમના જેવા તેઓ પ્રભાવક હોવાથી પરસ્પરમાં તે બાબતની અમાનતા આવી જાય છે. એ જ વાત પ્રગટ કરવાને માટે સૂત્રકારે તે બંનેને પાઠ આચાર્ય સાથે કર્યા છે. આ રીતે વિચાર કરતાં વૈયાવૃત્યનાં દસ પ્રકારનાં જ સ્થાન સિદ્ધ થાય છે, તેથી તેમના દને કારણે વૈયાવૃત્યમાં દશ વિધતાનું કથન વિરૂદ્ધ પડતું નથી એમ સમજવું જોઈએ. तथा- २ " चेइय?" ॥ पहनुं व्याज्यान “चैत्यानां अर्थः प्रयोजनम् यस्य सः चत्यार्थः” चैत्य - प्रतिभा छे. तेनु प्रयोग ने मेवासाधु" એવું જે કહે છે. તેમનું તે કથન બ્રાન્તિમૂલક છે. કારણ કે જિન પ્રતિમાનું વૈયાવૃત્ય કરવાનું વિધાન નથી. જે આ વિધાન માની લેવામાં આવે તે વ્યાખ્યાપ્રજ્ઞપ્તિ આદિ આગમેમાં વૈયાવૃત્યનાં જે પૂર્વોક્ત દસ ભેદ બતાવ્યા છે For Private And Personal Use Only Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir মঙ্গাব্দ किच-ज्ञानादिगुणरहिताया जडात्मिकाया जिनपतिमायाभक्तपानादि माय्यानपेक्षणान्नास्ति चैयात्यस्थानप्राप्तियोग्यता, अत एव-वैयावृत्त्यदशविधवपतिपादकागविरोधवारणार्थमाचार्ये जिनमतिमायाः समावेशनमपि भ्रान्तिमूलकमेव । इह चैत्यशन्दस्य ज्ञानार्थकत्वमागमानुकूलम् , वैयावृत्त्येन श्रुतादिज्ञानं जायते लभ्यते वर्धते च, तथा तीर्थकरनामगोत्रकर्मोपार्जितं भवति। तीर्थकरत्वं च केवलज्ञानानान्तरोयकम् , अतः ज्ञानार्थी वैयावृत्त्यं करोतीत्यर्थः सम्यगेब, उक्तकि जिन प्रतिमा वैयावृत्य नामका एक और ग्यारहवां भेद उत्पन्न हो जाता है। दूसरी बात एक यह भी है कि जो जिन प्रतिमा होती है उसमें वैयावृत्य के स्थान प्राप्ति की योग्यता हो नहीं है, क्यों कि उसमें ज्ञानादिगुण तो कोई है ही नहीं वह तो जड़ पत्थर की बनी हुई होती है, उसे भक्तपान आदि द्वारा सहायता पहुंचाने रूप वैयावृत्य की क्या आवश्यकता है ? । तथा जो वैयावृत्य में दशविधत्व का प्रतिपादन करने वाला आगम है उसमें विरोध न आवे इस अभिप्राय से प्रेरित होकर जो आचार्य में जिन प्रतिमा का समावेश करते हैं उनका ऐसा करना भी भ्रान्तिमूलक ही है । चैत्य शब्द में ज्ञानार्थकताको यह हमारी मान्यता आगमनुकूल है, क्यों कि वैयावृत्य से श्रुतज्ञान की प्राप्ति होती है, और उसकी वृद्धि होती है। तीर्थकर नाभगोत्र कर्मका उपार्जन होता है तीर्थंकर प्रकृति का बंध जिस जिव के हो जाता है वह अवश्य ही केवलज्ञान का अधिकारी बन जायगा। क्यों कि यह प्रकृति केवल તેમાં વિરોધ આવી જાય છે, કારણ કે જિન પ્રતિમા વૈયાવૃત્ય નામને એક અગ્યારમે ભેદ ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. અને બીજી એક એ પણ વાત છે કે જે જિન પ્રતિમા હોય છે તેમાં વૈયાવૃત્યના સ્થાન પ્રાપ્તિની રેગ્યતા જ નથી, કારણ કે તેમાં જ્ઞાનાદિ કઈ ગુણ તે છે જ નહીં–તે જડ પથ્થરની બનેલી છે, તે આહાર પાણી દ્વારા તેને સહાયતા પહોંચાડવાની શી આવશ્યકતા છે? તથા વૈયાવૃત્યમાં દશવિધાતાનું પ્રતિપાદન કરનાર જે આગમ છે તેમાં વિરોધાભાર ન લાગે તે અભિપ્રાયથી પ્રેરાઈને જે આચાર્યમાં જિન પ્રતિમાને સમાવેશ કરે છે, તેમનું તે પ્રમાણે કરવું તે પણ બ્રાન્તિમૂલક જ છે. ચિત્ય શબ્દમાં જ્ઞાનાર્થકતાની અમારી આ માન્યતા આગમનલ છે, કારણ કે વૈયાવૃત્યથી શ્રુતજ્ઞાનની પ્રાપ્તિ થાય છે, અને તેની વૃદ્ધિ થાય છે. તથા તીર્થ કર નામોત્ર કર્મનું ઉપાર્જન થાય છે. તીર્થંકર પ્રકૃતિને બંધ જે જીવને બધાય છે તે અવશ્ય કેવળ જ્ઞાનને અધિકારી બનશે. કારણ કે તે કેવળરા For Private And Personal Use Only Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुपर्शिनी टीका अ० ३ सू० ४ कोमुनिरदत्तादानाविधतमागधयति ? ७३५ चोसराध्ययनभने-" वेयावच्चेणं भंते ! जीवे कि जणयइ ? वेयापचेणे तित्थयर नामगोयं कम्मं निबंधइ ॥" ( उत्त०अध्य, २९) टीकार्थ-'न य' न च 'अचियत्तस्य' अमीति कस्स-भीतिरहितस्य प्रतीतिरहितस्य वा साध्यागमनमनिच्छत इत्यर्थः, 'घरं ' गृह 'पविसइ' प्रविशति, न च अप्रतीतिकस्य ' भत्तपाणं' भक्तपानं 'मेण्हइ' गृह्णाति, न च अनीतिकस्य अप्रतीतिकस्य वा पीठफलकशय्यासंस्तारकास्त्रपाइकम्बलदण्डकम्बलरजोहरणनिषद्याचोलपट्टकसदोरक मुग्ववत्रिका पादमोञ्छनादि भाजनभाण्डोपध्युपकरणं, ज्ञान की अविना नाविनी है। तीर्थकर प्रकृनि नियमतः केवलज्ञान को उत्पन्न करनेवाली होती है, इसलिये ज्ञानार्थी होकर वैधावृत्य करता है ऐसा अर्थ हमारा निर्दोष ही है। उत्तराध्ययन सूत्र में यही बात कही है-" यावच्चेणं भंते! जीवे किं जगया ? वेयावच्चेणं तित्थयर नामगोयं कम्मं निबंधइ" ( उत्तराध्य. अ. २९ घोल ४३) तथा जो साधु (न य अचियत्तम्स घरं पविसइ) साधु के अपने घर पर आने से अग्रीति अथवा अप्रतीति-अविश्वास घाला होता है वह अचियत्त कहलाता है-ऐसे व्यक्ति के घर में साधु प्रवेश नहीं करता है, तथा (न 7 अचियत्तसा भत्तपाणं गिण्हइ ) उस अप्रीति और अप्रतीति-अविश्वास वाले के घर से भक्त पान नही लेता है, और ( न य अचियत्तस्स पीढ फलगसेज्जासंथारगवत्थपायकंबल दंडग रओहरण निसज्ज चोलपगमुहपोत्तियपायपुंछणाइमायणभंडीवहि उवर्गरणं सेवइ ) न उब अप्रीति और अप्रतीति वाले के पीठ,फलक,शय्या, નની અવિનાભાવિની પ્રકૃતિ છે. તીર્થકર પ્રકૃતિ સવાભાવિક રીતે જ કેવળજ્ઞા નને ઉત્પન્ન કરનારી હોય છે, તેથી જ્ઞાનાર્થી થઈને વૈયાવૃત્ય કરે છે એ અમે દર્શાવેલે અર્થ નિર્દોષ જ છે. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્રમાં એ જ વાત કરી छ-" यावच्चेणं भंते ! जीवे कि जणयह ? वेयावच्चेणं तित्थयरमगोय कम्म निबंधइ " { उत्तराध्य. २५. २८ मारा ४३ ) तथा साधु "न य अचियत्तरस पर पविसई" साधु पाताने ३२ भापायी यति सप्रीति -424 मविश्वास વાળા થાય છે તે અચિયત્ત કહેવાય છે–એવી વ્યક્તિના ઘરમાં સાધુ પ્રવેશ ४२ता नथी, तथा “ न य अचियत्तस्स भत्तपाणं गिण्हइ" ते मप्रीति भने अविश्वासाना घरेथी भाडा२५ वेता नथी, भने “ न य अचियत्तस्स पीढफलग सेज्जासंथारगवत्थपायकंबलदंडगरजोहरणनिसेज्जचोलपट्टगमुहपोत्तिय पायपु. छणाइभायणभंडोवहिउागरण सेवइ " ते मप्रीति भने अविश्वास-पाजाना For Private And Personal Use Only Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्या 'सेवई' सेवते, न च 'परस्स' परस्य 'परिवाय' परिवाद-निन्दा 'जपइ' जल्पति, 'न यावि' न चापि परस्य 'दोसे' दोषान् 'गेण्हइ ' गृह्णाति. परदोषदर्शी न भवतीत्यर्थः, तथा- परववएसेणवि' परव्यपदेशेनापि बालग्लानादिनिमित्ते नापि स्वार्थमन्याथै वा ' न किंचि' न किश्चिद् औषधभैषज्याद्यपि, 'गेण्हइ' गृह्णाति, तथा ' ण य' न च ' विपरिणामेइ' विपरिणमयति-धर्माद् गुर्वादिभ्यश्च विमुखी करोती 'कंचि जणं ' कश्चिदपि जनं शिष्यादिकम् । 'न यावि' न चापि ' णासेइ नाशयति । दिण्णमुकय ' दत्तसुकृतम् , दत्तम् अभयदानादिकं, सुकृतं व्रतप्रत्याख्यानादिकं अपि तु तदनुमोदयतीत्यर्थः, परकृतं शुभकृत्यं न प्रच्छादयन्ति, तथा-' दाऊग य ' दत्त्वा च देयं वस्तु, 'काऊण य' कृत्वा च संस्तारक, वस्त्र, पादकंबल, दंडक, रजोहरण, निषद्या, चोलपट्टक, सदो रकमुखवत्रिका, पादप्रोग्छन आदि तथा भाजन, भाण्ड, उपधि, उपकरण, इनका सेवन करता है, (न य परिवायपरस्स जंपइ) दूसरों की निंदा नहीं करता है, (न यावि परस्स दोसे गेण्हइ) दूसरों के दोषों को नहीं देखता है, (पर ववएसेणवि न किंचि गेण्डइ ) बाल, ग्लोन आदि के निमित्त से लाये हुए औषध, भैषज्य आदि कुछ भी वस्तु अपने अथवा दूसरे के काम में नहीं लेता है, (ण य विपरिणामेइ कंचि जणं ) धर्म से तथा अपने गुरुजनों से जो शिष्यादिकों को विमुख नहीं करता है, (ण यावि णासेड दिण्ण सुकयं) दत्त-अभय दानादिक का, सुकृत-व्रत प्रत्याख्यान आदि का जो नाश नहीं करता हैं किन्तु उनकी अमोदना ही करता है, अर्थात् परकृत शुभकृत्यों को जो आच्छादित नहीं करता है (दाऊण य काऊण य ग य पच्छात्ता. पी8, ५६४, शया सता२४, ५७, ५. ६५१, ४, २० , यासप४४, દેરા સાથેની મુહપત્તિ, પાદપૂંછન આદિ તથા ભાજન, ભાંડ, ઉપાધિ मा ७५४२५५० सेवन ४२तो नी, "न य वि परिवायपरस्स जंपइ" alloril नही तो थी, "न या वि परस्स दोसे गेहह" मीतना होषाने तो नथी, " परववएसेण वि न किंचि गेण्हइ" , खान महिने निमित्त લાવેલા ઔષધ, ભૈષજ્ય, આદિ કઈ પણ વસ્તુ પિતાના અથવા બીજાના ઉપयोगमा ने नथी, " " य विपरिणामेइ किंचि जणं" २ शिष्याहिने भयो ४ ५३४नाथी (भु ४२ः नथी, ‘ण ग्रावि णारेइ दिण्ण सुकय” हत्तઅભયદાનાદિકનું સુકૃત–વત પ્રત્યાખ્યાન આદિને જે નાશ કરતું નથી પણ તેની અનુમોદના જ કરે છે, એટલે કે અન્ય વડે કરાયેલ શુભકૃત્યને જે ઢાંક नयी " दाऊणय काऊणय ण य पच्छात्ताविए होइ' उय परतुने ने भने For Private And Personal Use Only Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुर्दाशनीटीका अ० ३ सू० ४ कोमुनिरदत्तादानाविव्रतमाराधयति ! ७३७ वैयावृत्यादिकार्य, ‘ण होइ' न भवति ' पच्छानादिए ' पश्चात्तापिका श्चात्तापकारी । तथा- संविभागसीले ' संविभागशील:-लब्धभक्तादेः संविभागकारी ' संगहोवग्गहकुसले ' संग्रहोपग्रहकुशलः, तत्र-संग्रहः-शिष्यादिपरिवर्द्धनम् , उपग्रहः तेषामेव भक्तश्रुतादिदानपूर्वकमुपष्टम्भनम् , तत्र कुशलो दक्षो भवति, ' से तारिसे ' स तादृशः साधुः । इण' इदम् = अदत्तादानविरमणरूपं 'वयं' व्रतम् ' आरा हेइ ' आराधयति, नान्यः ॥ सू०४॥ विए होइ) देववस्तु को देकर एवं वैयावृत्य आदि कार्य को करके जो पश्चात्ताप नहीं करता है, ( संविभागसीले) लब्ध भक्तादिक का जो संविभागकारी होता है, और (संगहोवरगहकुसले ) शिष्यादि के परिधर्द्धन में और उनके भक्त श्रुत आदि दानपूर्वक उपष्टंभन में दक्ष होता है, ( से तारिसे ) ऐसा वह साधु ( इणं वयं आराहेइ) इस अदत्तादानविरमणरूप व्रत को आराधित करता है, दूसग नहीं । ___ भावार्थ- सूत्रकार ने इस सत्र द्वारा यह समझाया है कि किस प्रकार का कार्य करने वाला साधु इस महाव्रत का आराधक होता है। उनका कहना है कि जो साधु पीछे के दूसरे सूत्र में कही गई बातों के अनुसार आचरण करता है वही साधु इस महानत का आराधक बनता है, वे बाते इस प्रकार से हैं जो साधु उपधि और भक्तपान के संग्रहण एवं दान करने में दक्ष होता है, अत्यंत बाल, दुर्वल, ग्लान, वृद्ध, क्षपक, प्रवर्तक, आचार्य, उपाध्याय आदि का वैयावृत्य करता है। वैयावृत्य माय ४रीने से पश्चात्ता५ ४२ता नथी, “संविभागसीले " प्रास माहिना र सविनागरी हाय छ, भने “संगहोवग्गहकुसले" शिष्याहिना પરિવર્ધનમાં અને તેમના ભક્ત થત આદિ દાન પૂર્વક ઉપષ્ટભનમાં દક્ષ डायले “से तारिसे " मेयो ते साधु “ इणं वयं आराहेइ ' 20 महत्ताहान વિરમણરૂપ વ્રતનું આરાધન કરી શકે છે, બીજાં કરી શકતાં નથી, ભાવાર્થ –સૂત્રકારે આ સૂત્ર દ્વારા સમજાવ્યું છે કે કેવું કાર્ય કરનાર સાધુ આ મહાવ્રતને આરાધક થાય છે. તેમનું એવું કથન છે કે જે સાધુ આગળ બીજા સૂત્રમાં બતાવેલ વાત અનુસાર આચરણ કરે છે તે જ સાધુ આ મહાવતને આરાધક બને છે તે વાતે આ પ્રમાણે છે--જે સાધુ ઉપધિ અને ભક્તપાન (આહારપાણી) ને સંગ્રહ અને દાન કરવામાં દક્ષ હોય છે, અત્યંત બાળ, દુર્મલ, ગ્લાન, વૃદ્ધ ક્ષેપક, પ્રવર્તક, આચાર્ય ઉપાધ્યાય આદિની વૈયાવંશ-વૈયાવૃત્ય કરે છે અપ્રીતિક જનને ત્યાંગેચરને માટે જતા નથી, તેના દ્વારા प्र ९३ . For Private And Personal Use Only Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७३८ प्रश्नव्याकरणसूत्रे अप्रीतीकजन के घर पर गोचरी के लिये नहीं जाता है, उनके द्वारा प्रदत्त पीठ फलक आदि का उपयोग नहीं करता है। दूसरों कि निंदा नहीं करता हैं, पर के दोषों की तरफ दृष्टिपात नहीं करता हैं, पर के व्यपदेश से अपने लिये तथा दूसरों के लिये कुछ भी वस्तु नहीं लेता है, गुर्वादिक से उनके शिष्यादिकों का भेद नहीं कराता है, अभयदानादिक को दे करके, वैयावृत्य को करके जो पीछे से पछताता नहीं है, संग्रहशील होता है-संविभागारी होता है, शिष्यादि संपत्ति बढाने में कुशल होता है ऐला साधु ही महाव्रत का आगधक होता है। वैयावृत्य जो आचार्य आदि की करता हैं-उममें उसका अभिप्राय अपने में ज्ञानवृद्धि और कर्मो की निर्जरा होने का होता है । वैयावृत्य आचार्य आदि दस प्रकार के स्थान सेव्य होने के कारण इस प्रकार का है। सूत्र में यद्यपि चौदह प्रकार के वैयावृत्य से स्थान प्रकट किये हैं पर अत्यंत बाल और दुर्बल इन साधुओं का अन्तर्भाव ग्लान में एवं क्षपक और प्रभावक साधुओं का अन्तर्भाव आचार्य में कर दिया जाता है, इसलिये इस प्रकार से ये दस ही होते हैं। मुख्य रूप से जिसका कार्य आचार और व्रत ग्रहण कराने का होता है वह आचार्य है, मुख्यरूप से जिसका कार्य मूल सूत्र का अभ्यास कराने का होता અપાયેલ પીઠ, ફલક આદિને ઉપયોગ કરતા નથી. અન્યની નિંદા કરતું નથી અન્યના દે તરફ નજર નાખતે નથી બીજાનું નિમિત્ત બતાવીને પિતાને માટે તથા અન્યને માટે હેઈ પણ વસ્તુ લેત નથી, ગુર્નાદિક સાથે તેમના શિષ્યાદિકમાં ભેદભાવ પડાવતે નથી, અભયદાન આદિ દઈને, વિયાવૃત્ય કરીને જે પાછળથી પસ્તા નથી, સંગ્રહશીલ હોય છે-સંવિભાગકારી હોય છે, શિષ્યાદિરૂપ સંપત્તિ વધારવામાં કુશળ હોય છે, એ સાધુ જ આ મહાવ્રતોને આરાધક થઈ શકે છે. તે આચાર્ય આદિની જે વિયાવંચ કરે છે તેમાં તેને હેત પિતાના જ્ઞાનની વૃદ્ધિ તથા કર્મોની નિર્જરા કરવાને જ હોય છે. વૈયાવૃત્ય આચાર્ય આદિ દસ પ્રકારનાં સેવાને પાત્ર સ્થાન હોવાથી દસ પ્રકારનું છે. સૂત્રમાં જે કે ચીઢ પ્રકારનાં વૈયાવૃત્યને સ્થાન બતાવ્યાં છે પણ અત્યંત બળ અને દુર્બળ સાધુઓને સમાવેશ પ્લાનમાં. અને ક્ષેપક અને પ્રભાવક સાધુએને સમાવેશ આચાર્ય માં કરી દેવામાં આવેલ છે, તેથી આ રીતે તેના દસ પ્રકાર જ થાય છે. મુખ્યત્વે જેનું કાર્ય આચાર અને વ્રત ગ્રહણ કરાવવાનું હોય છે તે આચાર્ય કહેવાય છે. મુખ્યત્વે જેનું કાર્ય મૂળ સૂવને અભ્યાસ For Private And Personal Use Only Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सुदर्शिनी टीका ० ३ ० ५ उपसंहारः अथोपसंहारमाह-' इमं च ' इत्यादि । मूलम् - इमं च परदव्वहरणवेरमणपरिरक्खणट्टयाए पावयणं भगवया सुकहियं अन्तहियं पेच्चाभावियं आगमेसिभदं सुद्धं नेयाउयं अकुडिलं अणुत्तरं सव्य दुक्खं पावाणं विउसमणं॥ सू०५॥ " Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टीका--' इमं च ' इदं च पूर्वैरनन्ततीर्थंकरगगधरैः प्रोक्तमिदं प्रत्यक्षं , 6 पावयण प्रवचनं परदाहरण वेरमपरिरक्खगट्टयाए ' परद्रव्यहरणविर - मणपरिरक्षणार्थ = परद्रव्यहरण विरमणस्य=अद्यादानविरमणव्रतस्य परिरक्षणार्थं = ७३९ है वह उपाध्याय है, जो विगय आदि के त्यागरूप तपों को तपता है वह तपस्वी है, जो नवदीक्षित होकर शिक्षण प्राप्त करने का उम्मीदवार होता है वह शक्ष है, रोग आदि से जिसका शरीर क्षीण हो गया हो वह ग्लान है, एक ही दीक्षाचार्य का शिष्यपरिवार कुल है, जूदे २ आचार्यों के शिष्यरूप साधु यदि परस्पर सहाध्यायी होने से समानवाचना बाले हो तो उनका समुदाय गण हैं, गण का समुदाय संघ कहलाता है । जो प्रव्रज्याधारी होता है वह साधु है | श्रुतलिंग और प्रवचन में जो समान हों वे साधर्मिक हैं | सू० ४ ॥ अब सूत्रकार इस प्रकरण का उपसंहार करते हुए कहते हैं' इमं च ' इत्यादि टीकार्थ - ( इमं च परदव्य हरण वेरमणपरिवखट्टयाए पावयणं भगवा सुकहियं । पूर्व में अनंत तीर्थकरों एवं गणधर देवों द्वारा कहा For Private And Personal Use Only કરાવવાનું હોય છે તે ઉપાધ્યાય કહેવાય છે. જે વિગય આદિના ત્યાગરૂપ તપે કરે છે તે તપરવી કહેવાય છે, જે નવદીક્ષિત થઈને શિક્ષણ પ્રાપ્ત કરવાને માટે ઉમેદવાર હાય છે તેને શૈક્ષ કહે છે. રાગ આદિથી જેનું શરીર ક્ષીણ થઇ ગયું હોય તેને પ્લાન કહે છે. એક જ દીક્ષાચાČના શિષ્ય પરિવારને કુલ કહે છે, જુદા જુદા આચાર્યના શિષ્યરૂપ સાધુ જે પરસ્પર સહાધ્યાયી હોવાથી સમાન વાચનાવાળા હોય તો તેમના સમુદાયને ગણ કહે છે. ગણના સમુદાયને સંઘ કહે છે. જે પ્રત્રજ્યા ( દીક્ષા ) ધારી હોય તે સાધુ કહેવાય છે. શ્રુતલિંગ અને પ્રવચનમાં જે સમાન હોય તે સાર્મિક કહેવાય છે. ! સૂ૦ ૪૫ हुवे सूत्रअ२ मा अरानो उपसंहार उरता हे छे - " इम च" इत्याहि. टीअर्थ - - " इम च परदव्वहरण वेरमणपरिरक्खट्टयाए पावयणं भगवया सुकहियं ” पूर्वे अनंत तीर्थ उरी भने गणुधरे। द्वारा उहेवायेस मा प्रत्यक्षी " Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७४० प्रश्नव्याकरणसूत्रे रक्षणनिमित्तं ' भगवया' भगवता 'सुरुहियं ' मुकथितं-सविस्तरं प्ररूपितम् । कथं भूतं प्रवचनं भगवता सुकथितम् ? इत्याह-'अत्तहियं ' आत्महितम्-आत्मनो हितकारकम् , तथा-'पेच्चाभावियं ' प्रेत्यभाविक-जन्मान्तरेऽपि शुभफलदायकम्, अत एव-'आगमेसिभ' आगमिष्यद् भद्रं भविष्यकाले-कल्याणकारकम् , तथा 'सुद्ध' शुद्ध निर्दोषत्वात् , पुन:-'नेयाउयं ' नैयायिकम् , वीतरागभाषि तत्वाव-तथा-'अकुडिलं' अकुटिलम्=ऋजुभावजनकत्वात् 'अणुत्तरं अनुत्तरम्-सर्व श्रेष्ठत्वात् , तथा 'सव्वदुक्खपाराण' सर्वदुःखपापानां सकलदुःखजनकज्ञानावरणीयायष्टविधकर्मणां 'विउसमणं ' व्युपशमनं सर्वथा प्रशमनकारकम् । एतादृशं प्रवचनं भगवता सुकथितमित्यर्थः ॥ मू०५॥ ___ अस्य तृतीयव्रतस्य पञ्चभावनाः प्रतिपादयन् सम्प्रति विविक्तवसतिवासाभिधां प्रथमां भावनामाह--' तस्स इमा' इत्यादि। मूलम्-तस्स इमा पंचभावणाओ तइयस्स वयस्स हुंति, परदबहरणवेरमणपरिरक्खणटुयाए । पढमं देवकुलसभा-प्पवागया यह प्रत्यक्षीभूत प्रवचन, परद्रव्यविरमणरूप महाव्रत की परिरक्षा के निमित्त भगवान ने विस्तारपूर्वक प्ररूपित किया है । यह प्रवचन (अत्तहियं) आत्मा का हितकारक है, (पेच्चाभाषियं) जन्मान्तर में भी शुभफल का प्रदाता है, इसीलिये यह (आगमेसिभदं ) भविष्यत् काल में कल्याण कारक कहा गया है। ( सुद्धं ) यह निर्दोष होने से शुद्ध है, (नेयाउयं ) वीतराग प्रभु द्वारा भाषित होने से न्यायसंपन्न है, (अकुडिलं ) ऋजुभावका जनक होनेसे अकुटिल है, (अणुत्तरं) सर्वश्रेष्ठ होनेसे अणुत्तर है तथा (सव्यदुक्खपावाणं विउसमणं) सकल दुःखजनक ज्ञानावरणीय आदि अष्टविध कर्मों का सर्वथा प्रशमनकारक है॥ सू०५ ॥ ભૂત પ્રવચન. પદ્રવ્ય વિરમણરૂપ મહાવ્રતની પરિરક્ષાને નિમિત્તે ભગવાને विस्तार५४ प्र३पित ४२८ छ. मा अवयन “ अत्तहिय" मात्भानु हित२४ छ, “पेच्चाभाविय" भन्मान्तरमा ५ शुल गर्नु हुनछे, तेथी ते " आगमेसिभ " सविण्यामा ४क्ष्या १२४ मतावामा माव्यु छ. “ सुद्ध' ते निषि पाथी शुद्ध छे, “ नेयाउय" वीत। प्रसुद्वारा प्रथित पाथी न्याययुरत छ, “अकुडिलं "नुभावनुन पाथी टिम छ, “ अणुत्तरं" सर्वश्रेष्ठ पाथी अनुत्त२ छ तथा “ सव्वदुक्खपावाणं विसमण" स४॥ દુખ જનક જ્ઞાનાવરણીય આદિ આઠ પ્રકારનાં કર્મોનું સર્વથા પ્રશમનકારક છે. સૂપ For Private And Personal Use Only Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ०३ सू०६ 'विविक्तवसतिवास'नामकप्रथमभावनानिरूपणम् ७४१ बसहरुक्खमूल-आराम-कंदराऽऽगर-गिरिगुहा-कम्मंतुजाण-जाणसाला-कुवियसाला-संडव-सुन्नघर-सुसाणलेण आवणे अन्नम्मि य एवमाइयम्मि दग-मट्टिय-बीय-हरिय--तलपाण असंसत्ते अहाकडे फासुए विवित्ते पसत्थे उवस्सए होइ विहरियव्वं । आहाकम्मबहुले य जेसे आसि य संमजिओसित्तसोहिय छाण दुमणलिंपण अणुलिंपण जलगभंडचालणं अंतोवाहि मज्झे य असंजमो जत्थ वट्टइ, संजयाणं अट्टा वज्जेयत्वे हु उवस्सए से तारिसे सुत्तपरिकुटे । एवं विविक्त वासवसहि समिइ जोगेण भाविओ भवइ अंतरप्पा, निच्चं अहिगरणकरणकारावण पावकम्म विरए दत्तमणुण्णाय उग्गहरुई ॥ सू०६॥ टीका-' तस्स ' तस्य प्रसिद्धस्य ' तइयस्स वयस्स' तृतीयस्य व्रतस्य अदत्तादानविरमणनामकतृतीयव्रतस्य ' इमा' इमाः-वक्ष्यमाणाः ‘पंच भावणाओ' पञ्चभावनाः 'परदव्वहरणवेरमणपरिरक्खणट्ठयाए ' परद्रव्यहरणविरमणपरिरक्षणार्थाय अदत्तादानविरमणव्रतस्य रक्षानिमित्तं ' हुंति' भवन्ति । तासु 'पढम' प्रथमां-विविक्तवसतिवासलक्षणां भावनामाह-साधुभिः क्वविहर्तव्यमिति, अब सूत्रकार इस तृतीय व्रत की पांच भावनाओं को समझाने की इच्छासे सब से प्रथम विविक्तवसतिवास नाम की पहिली भावना को प्रकट करते हैं--'तस्स इमा' इत्यादि । ___टीकार्थ-(तस्स) उस प्रसिद्ध (तइयस्स वयस्स) तृतीय अदत्तादान विरमण व्रत की (इमा) ये वक्ष्यमाण (पंच भावणाओ हुंति ) पांच भावनाएँ हैं। ये भावनाएँ (परदब्वहरण वेरमणपरिरक्खणट्टयाए) इस હવે સૂત્રકાર આ ત્રીજા વ્રતની પાંચ ભાવનાઓ સમજાવવાને માટે સૌથી प्रथम वितसितवास नामनी पडदा मानाने अट ४२ छ-"तस्स इमा". ___ -" तस्स" ते प्रसिद्ध " तइयस्स वयस्स" alaa. महत्ताहान वि२मधु मतना “इमा' मा प्रमाणे “ “पंच भावणोओ ति" पाय मा१. नाय छे. मे लाना “ परदब्वहरणबेरमणपरिरक्खणट्टयाए " ! महत्त. For Private And Personal Use Only Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૭૪ર प्रश्नब्याकरणसूत्रे तदेव स्पष्टयति- देवकुल-समा-प्पका-सह-रुक्खमूल-आरामकंदराऽऽगर-- गिरिगुहा-कम्मंतु-ज्जाण-जाणसाला-कुवियसाला-मंडय-मुन्नघर--सुसाण-लेण आवणे ' देवकुलसमाप्रपाऽऽअथवृक्षमूलारामकन्दराऽऽरगिरिगुद्दाकर्मान्तोद्यानयानशाला कुप्यशालामण्डपशून्यगृहश्मशानलयनापणे-तत्र-देवकुलम् व्यन्तरादि देवगृहम् , सभा-सभागृहं यत्र समय समये मन्त्रणार्थ जना आगत्य संमिलन्ति तत् , प्रपा-पानीयशाला, आवसथा परिव्राजकगृहम् , क्षमूलं-प्रसिद्धम् , आरामः माधवीलतादिपरिमण्डितोरमणीयो यनविशेषः, कन्दरा-दरी, आकरो-लौहाद्यु. त्पत्तिस्थानम् , गिरिगुहा-प्रतीता, कर्मान्तः सोहाकारादिशाला 'कारखाना' 'मील' 'जीण' इत्यादि नाम्ना प्रसिद्धं स्थानम् । उद्यानम्-उपवनम् , यानअदत्तादान विरमण ब्रत की परिरक्षा के निमित्त कही गई हैं ( पढम ) उनमें प्रथम भावनो इस प्रकार है-इस प्रथम भावना का नाम विविक्तवसतिवाम है ! इसमें साधुओं को कहां निवास करना चाहिये यह प्रकट किया गया है, (देवकुलसभा-प्पवा-वसह-रुक्खमूल-आराम-कंदरागारगिरिगुहा-कम्मंतु जाण-जाणसाला-कुवियताला-अंडव-जुन्नघर-सुसा. ण-लेण-आवणे) देवकुल में-पन्तर आदि देवों के स्थान में, सभा में-जहां पर मंत्रणा के लिये आकर समय २ पर मनुष्य एकत्रित होते हैं ऐसे स्थान में, प्रपा में-पानीयशाला में, आवमय में-परिव्राजकों के घरों में, वृक्षमूल में-तरु के नीचे में, आराम -माधवीलता आदि से परिमंडित रम्यवन में, कन्दरा में-गुफा में, आकर में-लोहादिक धातु ओं के उत्पत्ति स्थान में, गिरिगुहा में-पर्यत की गुफा में, कर्मान्त मेंलोहकार आदि की शाला में, कारखाना-धील-इत्यादि नाम से प्रसिद्ध हान विभाग प्रतनी परिक्षाने भाटे मतावामा आधी 2. " पढम" तमांनी પહેલી ભાવનાનું નામ “વિવિકતવસતિવાસ” તેમાં સાધુઓએ ક્યાં વાસ કરે ते मताव्यु छ. " देवकुल सभा-पवा-सह-रुक्खमूल-आराम--कंदरागार-गिरिगुहा-कम्मतु-ज्जाण-जोणताला-कुवियसाला-मंडव सुन्नघर-सुताण-लेण-आवणे" દેવકુલમાં–વ્યન્તર આદિ દેવનાં સ્થાનમાં, સભામાં જ્યાં મંત્રણાને માટે આવીને વખતોવખત માણસો એકડા થાય છે એવા સ્થાનમાં, પ્રપામાં-પાનીયશાળમાં. આવસથમાં-પરિવ્રાજકનાં ઘરમાં, વૃક્ષમૂળમાં-ઝાડની નીચે, આરામમાં-માધવી લતા આદિથી આચ્છાદિત રમ્યવનમાં, કન્દરામાં-ગુફામાં, આકરમાં-લેતું આદિ ધાતુઓની ખાણમાં, ગિરિગુહામા–પર્વતની ગુફામાં. કર્માન્તમાં-લુહાર આદિની શાલામાં, કારખાના-મીલ આદિ નામે પ્રસિદ્ધ સ્થાને માં, ઉદ્યાનમાં-બાગમાં, For Private And Personal Use Only Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ०३ सू०६ 'विविक्तववतिवाल'नामकप्रथमभावनानिरूपणम् ७४३ शाला स्थादिगृहम् , कुप्यशाला गृहोपकरणशाला, मण्डपः विश्रामस्थानम् , शून्यगृह-प्रसिद्धं, श्मशानम्-प्रसिद्धम् , लयनं गृहम् , आपण पण्यस्थानम् , ' हाट' इति भाषा प्रसिद्धम् , एषां समाहार द्वन्द्वस्तस्मित्तथोक्ते, अर्थात्-देवकुलादिरूपेऽष्टादशविधे, तथा-' अन्नमिय ' अन्यस्मिंश्च 'एबमाइयंमि' एवमादिक एवं विधे कथं भूते ? इत्याइ-' दगमट्टिय-बोय-हरिय-तस पाण असंसत्ते' दकमृत्तिका बीजहरितसमागसंसक्ते-दकम् जलम् , मृत्तिका-प्रतोता, वीजानिशाल्यादीनि, हरितानि-यूादीनि असमाया-दीन्द्रियादयः, तैररांसक्ते-हिते, पुनः कीदृशे ? 'आहाकडे' यथावते इस्थेन स्वार्थ निर्मिते 'फासुए ' प्रामुके =निदोषे विविक्ते स्वीपशुपण्ड करहिते, अत एव- पसत्थे ' प्रशस्ते श्रेष्ठे साधुनिवासयोग्ये ' उक्स्राए' उपाश्रये-साधुभिः 'विश्यव्यं' विहर्त्तव्यं= आश्रयितव्यं ' होइ' भवति । एतादृशे उपाश्रये साधुभिर्निवासः कर्तव्य इत्यर्थः। स्थान में, उद्यान में-उपवन में, यानशाला में-स्थादि गृह से, कुप्यशाला में-गृहोपकरण रखने के स्थान में, मंडप में-विश्राम स्थान में-शून्य गृह में-सूने घर में, इमशान में-मरघट में, लवन में-पर्वत की तलहटी में निर्मित पाषण घर में, आपण में-हाट में (अनमि य एवमाइयमित) तथा इसी तरह के दूसरे स्थान में कि जो (दशमट्टिय-बीय-हरिय-तसपाण असंसत्ते) जल, मृत्तिका, बीज, दूर्वा, द्वीन्द्रियादिक ब्रस, इन से रहित हो, तथा ( अहाकडे ) जिस गृहस्थ ने अपने निमित्त बनवाया हो, एवं जो ( फालुए) निर्दोष हो, तथा (विवित्त ) स्त्री, पशु, पंडक से रहित हो और ( पसतो) प्रशस्त-साधजनों के निवास योग्य हो ( उवस्सए) ऐसे उपाश्रय में (होइविहरियव्यं ) साधुओं को रहना चाहिये। (अहाયાનશાલામાં રથાદિ ગૃહમાં, કુખ્યશાલામાં-ગૃહપકરણ રાખવાની જગ્યામાં, મંડપમાં વિશ્રામ સ્થાનમાં, શૂન્યગૃહમાં-સૂના ઘરમાં, સ્મશાનમાં (મરઘરમાં, स्यानमां-पतनी तोटीमा स्येस पाषाधमां, मामा-मां, " अन्नम्मि य एवमाइयम्मि" तथा से ४ ४२न मन्य स्थानमा ? " दगमट्टिय-बीय -हरिय-तसपाणअसंसत्ते" ४ माटी, . दूर्वा, द्विन्द्रीया िस मे पाथी २हित हाय, तथा “ अहाकडं "2 -पोतान मा पनाव२०व्यु डाय, मने “ फासुए” निषि हाय, तथा “ विवित्त " श्री, पशु, ५४४थी २हित डेय, भने “ पसत्थे” प्रशस्त-साधुनाना निवासने भाट योज्य डाय " उवस्सए " सेवा उपाश्रयमा “ होइ विहरियव्वं ” साधुमसे २ न. "अहाकम्मबहुले य जेसे” भने उपाश्रय माया मga डाय For Private And Personal Use Only Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७४४ प्रश्नव्याकरणसूत्रे । ' यत्र - ' " अथ कथम्भूते उपाश्रये साधुभिर्न वस्तव्यम् ? इत्याह- ' आहाकम्मबहुले ' आधाकर्मबहुल:=आधानम्-आधातया, अर्थात् साध्वर्थं यत्पट्कायो पमर्दनरूपं कर्म तेन बहुलो व्याप्तो 'जे' यः एवं विध उपाश्रयो ' से ' स वर्जयितव्यः । अनेन अदतादानविरमणलक्षणमूलगुणाशुद्धेः परिहारः उक्तः स दोपत्र सत्युपभोगेन मूलगुणहानिर्भवतीति भावः । तथा 'जस्थ ' अतो ' अन्तर्भागे 'बाहि बहिर्भागे, 'मज्झे य' मध्ये च ' आसियसम्मज्जि ओसित सोहियछाणदुमण लिंपण अणुलिंपण जलगभंडचालण ' आसक्ति संमार्जितोत्सिक्तशोधितछाणधवलनलेपनानुलेपनज्वलनभाण्डचालनम् - तत्र - आसिक्तम् = आसेचनम् = उदकादिच्छोटनमित्यर्थः, सम्मार्जितम् = शलाका हस्तेन मार्जन्येत्यर्थः, कच वरसंशोधनम्, शोधितं = भित्त्यादि संलग्नजालाद्यपनयनेन शुद्धीकृतं ' छाण' छाणं छगणनंगोमयेन संस्करणम्, दुमणं धवलनं-सेटिकादिना मित्यादेरुज्ज्वलीकरणम्, कम्मबहुले य जे से) और जो उपाय आधाकर्म बहुल हो - साधु के निमित्त कायमर्दनरूप कर्म से व्याप्त हो उसमें साधु को नहीं वसना चाहिये । क्यों कि ऐसे उपाश्रय में रहने से साधु के इस अदत्तादान - विरमणरूपमूलगुण की शुद्धि नहीं रहती है। और नहीं रहने से इस मूलगुण की शुद्धि रहती हैं। तात्पर्य इसका यह है कि सदोपवसति के उपभोग से साधु के मूलगुणों की हानि होती है यही बात "अहाकम्म बहुलेय जे से" इस सूत्रांश द्वारा प्रदर्शित की गई है। तथा (जस्थ अंतो बहिं मज्झे य) जो उपाश्रय भीतर में बाहिर में और मध्यभाग में (आसिम ओमित्त सोहिय छाण- दुमणलिंपण- अणुलिंपण-जल ' भंड चालणं) पानी से छिड़का हुआ हो, बुहारु-संमार्जनी से जहां का कूडा कचरा साफ कर दिया गया हो, भीत आदि पर लगे हुए जाले जहाँ उतार दिये गये हों, जो गाय के गोबर से लीपा गया हो, चुने आदि से ८८ વાત 66 સાધુને નિમિત્તે કાય મનરૂપકથી વ્યાસ હાય, તેમાં સાધુએ રહેવું જોઇએ નહીં. કારણ કે એના ઉપાશ્રયમાં રહેવાથી સાધુના આ અદત્તાદાન વિરમણુરૂપ મૂળ ગુણાને હાનિ થાય છે, એ જ अहाकम्म - बहुले य जेसे " मा સૂત્રાંશ દ્વારા પ્રગટ કરેલ છે. તથા जत्थ अंतो वहिं मज्झे य" ने उपाश्रय અંદર, બહાર અને મધ્ય ભાગમાં “ आसियसंमज्जिओसित्तसोहियछाण दुमण लिंपणअणुलिंपणजल भडचालणं " पाशुी छांटेस होय, सावरणीयी त्यांना કચરા સાફ કર્યો હાય, દીવાલ આદિ પર લાગેલાં જાળાં જ્યાંથી ઉતારી લીધાં ડૅાય, જે ગાયનાં છાણથી લીંપેલ હોય, ચુના વગેરેથી જેની દીવાલે For Private And Personal Use Only Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ. ३ सू०६ 'विविक्तवसति' नामकप्रथमभावनानिरूपणम् ७४५ 'लिंपणं' लेपनम् मृत्तिकामिश्रितगोमयादिना रन्ध्रादिपूरणेन सकरलेपनम् , 'अणुलिंपणं' अनुलेपनम्-शोभार्थ पुनः पुनर्लेपनम् , ज्वलनं शोतापनोदनाय वह्नः प्रज्वलीकरणम् , भाण्डचालनम् गृहस्थितभाण्डानामपरत्र स्थापनम् , उपलक्षणमेतदन्यवस्तूनामपि, एतेषां समाहारद्वन्द्वः, एतद्रूपः-' असंजमो' असंजमः जीव. विराधनारूपः साधुनिमित्तं 'बट्टइ' वर्तते ' से तारिसे ' स तादृशः 'सुत्तपरिकुटे' सूत्रपरिक्रुष्टः-आगमनिषिद्धः, 'हु' निश्चयेन ' उवस्सए' उपाश्रयः ' संजयाण संयतानाम् ' अहा' अर्थाय — वज्जेययो' वर्जितव्यः। संयमिभिरेतादृशे जीवविराधनायुक्ते उपाश्रये न कदापि बस्तव्यमिति भावः । प्रथमभाचनामुपसंहरन्नाह-एवं' एवम्-उक्तरूपेण 'विवित्तवासबसहिसमिइजोगेणं' विविक्तवासबसतिसमितियोगेन-विवक्ता-स्त्रीपशुपण्डकरहिता जनरहिता वा या जिसकी भीते पोतकर उज्ज्वल कर दी गई हों, जिसमें छेद वगैरह गोबरमिश्रित मिट्टी से पूर दिये गये हों, तथा जो यार २ सुन्दर दिखाने के निमित्त गोमयादि मिश्रित मृत्तिका से लीपा गया हो, जहां शीत को दूर करने के लिये अग्नि जल रही हो और जहां से रक्खे हुए गृहस्थजनों के वर्तन उठा २ कर दूसरी जगह रखे जा रहे हों इस प्रकार का (असंजमो वट्टइ) जीवविराधना रूप असंयम जहां साधु के निमित्त हो रहा हो ( से तारिसे ) इस प्रकार का जो (सुत्तपरिकुटे ) आगम से निषिद्ध है ( उचस्सए) वह उपाश्रय (संजयाणं अट्ठा) साधुओं के लिये ( वज्जेयव्यो) वर्जनीय है, अर्थात् इस प्रकार के उपाश्रय में साधु को नहीं वसना चाहिये। अब सूत्रकार प्रथम भावना का उपसंहार करते हुए कहते हैं--(एवं ) उक्तरूप से इस ( विवित्तवासवसहिसमिइजोगेण) विविक्तवासवसतिसमिति के योग से - स्त्री पशु पंडक से ઉજવળ બનાવવામાં આવી હોય, જેમાંનાં છિદ્રો આદિ છાણમિશ્રિત માટીથી પૂરી દીધાં હોય, તથા જે સુંદર દેખાય તે માટે વારંવાર છાણ આદિ મિશ્રિત માટીથી લીંપવામાં આવેલ હોય, જ્યાં શીત દૂર કરવાને માટે અગ્નિ બળ હાય, અને જ્યાંથી ગૃહસ્થોનાં વાસણ ઉપાડી ઉપાડીને બીજી જગ્યાએ મૂકવામાં आवत हाय, 1 रन" असंजमोवइ " ०१ विराधना३५ असयम ल्या साधुने निभित्ते य रह्यो हाय, " से तारिसे " 20 प्रा२र्नु रे “ सुत्त. परिकुटे" भागमद्वारा निषिद्ध छ, " उवस्सए" ते उपाश्रय " संजयाणं अदा" साधुआन माटे "वज्जेयव्वो” पनिीय छ भेटले ते ना पाश्रयमा સાધુએ રહેવું જોઈએ નહીં. હવે સૂત્રકાર પહેલી ભાવનાને ઉપસંહાર કરતા ४९ छे-" एवं" ५२ ह्या प्रमाणे । “ विवित्तवानवसहिसमिइजोगेण " For Private And Personal Use Only Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७४६ प्रश्नव्याकर णसूत्रे वासवसति =निवासस्थानं तद्विषया या समितिः सम्यक प्रवृत्तिस्तया यो योगः= सम्बन्धस्तेन ‘भाविओ' भावितः-वासितः 'अंतरप्पा' अन्तरात्मा जीवः 'निच्चं' नित्यं सदा ' अहिगरणकरणकारायणपावकम्मविरए ' अधिकरणकरणकारणपापकर्मविरतः-अधिक्रियते-अधिकारी क्रियते दुर्गतावात्मा येन तदधिकरणम्-आसिञ्चनादिरूपं सावधानुष्ठानम् , तस्य यत्स्वयकरणमन्यतो वा कारणम् -उपलक्षणादनुमोदनं च तदेव पापकर्म-तस्माद् विरतो-निवृत्तो यः सः तथोक्ता, तथा- दत्तमगुण्णाय उग्गहरुई' दत्तानुज्ञातोद्ग्रहरुचिः तत्र-दत्तस्य = दात्रा वितीर्णस्य एषणीयस्य अनुज्ञातस्य जीर्थकरगणधरैर्दत्ताज्ञस्य देवकुलादेः उद्ग्रहे= ग्रहणे रुचिः प्रीतिर्यस्य स तथोक्तः अदत्ताननुज्ञातवसतेरपरिभोक्तेत्यर्थः, 'भवइ' भवनि ॥ मू०६॥ रहित ऐसे एकान्त निवास स्थान में वसने रूप समिति के संबंध से (भाविओ अंतरप्पा) भवित जीव (निच्च) सदा (अहिगरणकरण कारावणपावकम्मविरए) आसिंचनादि सावधानुष्ठान के करने, कराने और उसकी अनुमोदनारूप पापकर्म से निवृत्त बना रहता हैं । तथा (दत्तमणुण्णाय उग्गहरुई ) दाता से वितीर्ण, एवं तीर्थकर गणधर आदि देवों द्वारा वसने के लिये अनुज्ञात हुए ऐसे देवकुल आदि स्थान के ग्रहण में प्रीतिवाला होने से वह दत्तानुज्ञात वसति के ग्रहण की रुचि वाला अर्थात् अदत्त अननुज्ञात वसनि का अपरिभोक्ता होता है। भावार्थ-प्रदत्तादानविरमणबत की रक्षा और सुस्थिरता के निमित्त सूत्रकार इस सूत्र द्वारा इसकी पांच भावनाओं में से विविक्तवासवसति नाम की प्रथम भावना का स्वरूप प्रकट करते हुए कहते हैं વિવિક્તવાસવસતિ સમિતિનાં વેગથી સ્ત્રી, પશુ, પંડકથી રહિત એવા એકાન્ત निवास स्थानमा सवा३५ समितिना समयी “ भाविओ अंतरप्पा" मालित 4 " निच्च" सहा “ अहिगरणकरणकारावणपावकम्मविरए " भासिंयना સાવદ્ય અનુષ્ઠાન કરવાથી, કરાવવાથી અને તેની અનુમોદનારૂપ પાપકર્મથી નિવૃત્ત य/ लय छे. तथा " दत्तमणुण्णायउग्गहरुई " हातानी विती, भने ती ४२ ગણધર આદિ દેવેદ્વારા વસવાને માટે અનુજ્ઞા મળેલ એવાં દેવકુલ આદિ સ્થાન ગ્રહણ કરવામાં પ્રતિયુક્ત હેવાથી તે દત્તાનુજ્ઞાત વસતિને ગ્રહણ કરવાની રુચિવાળો એટલે અદત્ત અનનુજ્ઞાત વસતિને ઉપભેગ કરનાર બને છે. ભાવાર્થ—અદત્તાદાન વિરમણ વ્રતની રક્ષા અને સુસ્થિરતાને નિમિત્તે સૂત્રકાર આ સૂત્ર દ્વારા તેની પાંચ ભાવનાઓમાંથી “વિવિકતવાસવસતિ” નામની પહેલી ભાવનાનું સ્વરૂપ પ્રગટ કરતાં બતાવે છેકે સાધુઓએ દેવકુલ આદિ For Private And Personal Use Only Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुशिनी३ अ०३ टीका सू०६ विविक्तप्रसति'नामकप्रथमभावनानिरूपणम् ७४७ कि साधु को देवकुल आदि स्थानो मे जो कि उसके निमत्त को लेकर नहीं बने हुए होते हैं ठहरना चाहिये या किसी उपाश्रय में। यह उपा. श्रय साधु के निमित्त बना नहीं होना चाहिये, गृहस्थ ने इसे अपने निमित्त बनाया हो ऐसा होना चाहिये । साधु के निमित्त बनाने में साधु को सावद्यानुष्ठान कराने रूप असंयम का दोष लगता है। स्त्री पशु पण्डक से इस स्थान को वर्जित होना चाहिये। तथा 'साधु महाराज आ रहे हैं' इस ख्याल से साधु का निमित्त लेकर वह पानी से छिड़का हुआ नहीं होना चाहिये, वहां के जाले वगैरह उतारे हुए नहीं होना चाहिये । गोवर आदि से लीप पोत कर उसे साफ सुथरा किया गया नहीं होना चाहिये । उसमें की शीत को दूर करने के लिये वहां अग्नि वगैरह जलाकर उसे गरम किया हुआ नहीं होना चाहिये, इत्यादि जिस रूप से आगम में साधु के लिये निवास योग्य वसति रहने के लायक कही गई है वह उस रूप का होना चाहिये। तभी जाकर यह प्रथम भावना पल सकती है। और इस तरह की प्रवृत्ति करने वाला साधु अपने अदत्तादानविरमणव्रत की रक्षा और सुस्थिरता कर सकता है। सूत्र में जो अधिकरण शब्द आया है उसका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ "दुर्गति में जाने योग्य आत्मा जिसके बल पर बनता है" સ્થાને, કે જે તેમને નિમિત્તે બનાવ્યાં હતાં નથી, તેમાં વસવું જોઈએ અથવા તે કઈ ઉપાશ્રયમાં વસવું જોઈએ. તે ઉપાશ્રય સાધુને નિમિત્તે બનાવેલ હેવાં જોઈએ નહીં, પણ ગૃહસ્થ પિતાને નિમિત્તો જ તે બંધાવેલાં હોવા જોઈએ. સાધુને નિમિત્ત બનાવવામાં સાધુને સાવધ અનુષ્ઠાન કરાવવા રૂપ અસંયમને દોષ લાગે છે. સ્ત્રી, પશુ પંડથી તે સ્થાન રહિત હોવું જોઈએ. તથા “સાધુ મહારાજ પધારવાના છે” એવા ખ્યાલથી સાધુને નિમિત્તે તેના પર પાણી છંટાવ્યું હોવું જોઈએ નહીં, ત્યાંના જાળાં વગેરે ઉતારેલ હોવાં જોઈએ નહીં છાણ આદિથી લીંપીને તેને સ્વચ્છ અને સુઘડ બનાવ્યો હોવો જોઈએ નહીં. ત્યાંની શીતને દૂર કરવા માટે ત્યાં અગ્નિ વગેરે સળગાવીને તેને ગરમ કરેલ હવે જોઈએ નહીં, ઈત્યાદિ પ્રકારે જે રીતે આગમમાં સાધુને માટે ગ્ય નિવાસ બતાવવામાં આવેલ છે તે પ્રકારનું તે નિવાસસ્થાન હોવું જોઈએ. ત્યારે આ પહેલી ભાવના સફળ થાય છે અને તે પ્રકારની આ પ્રવૃત્તિ કરનાર સાધુ પિતાના અદત્તાદાન વિરમણવ્રતની રક્ષા અને સુસ્થિરતા રાખી શકે છે. સૂત્રમાં જે અધિકરણ શબ્દ આવ્યું છે તેને વ્યુત્પત્તિ પ્રમાણે મળ અર્થ “જેના પ્રભાવથી આત્મા દુર્ગતિમાં જવાને પાત્ર બને છે” તે પ્રમાણે થાય છે. આ For Private And Personal Use Only Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७४ प्रश्नव्याकरणसूत्रे द्वितीयां भावनामाह-बीयं ' इत्यादि : मूलम्-बीयं आरामुज्जाणकाणणवणप्पदेसभागे जं किंचि. इक्कडं वा कढिणगं वा जंतुगं वा परमेरकुच्चकुसडब्भप्पलालभूयगवल्लयपुप्फफलतयप्पवालकंदमूलतणकट्ठसकराइं गेण्हइ सेज्जोवहिस्स अट्टा, न कप्पइ उग्गहे अदिण्णम्मि गेण्हिडं, जे हणि हणि उग्गहं अणुपणविय गेण्हियव्वं । एवं उग्गहसमिइजोगेण भाविओ भवइ अंतरप्पा णिच्चं अहिकरणकरणकारावणपावकम्मविरए दत्तमणुण्णाय उग्गहरुई ॥ सू०७॥ टीका-बीयं द्वितीयाम् अनुज्ञातसंस्तारकग्रहणरूपां भावनामाह तत्र-'आरामुज्जाणकाणणवणप्पदेसभागे ' आरामोधानकाननवनप्रदेशभागे-तत्र-आरामः = इस प्रकार है। आसिश्चनादिकर्म ऐसे ही है, क्यों की ये सावद्यानुष्टान हैं। करना, कराना और अनुमोदना करना इनका व्रतादि के विचार में समानकोटि का स्थान कहा गया है, अतः साधु के लिये आसिश्चनादि कर्म यदि साधु के निमित्त को लेकर किये जा रहे हैं तो वह भी सावधानुष्टानरूप असंयम का भागी धनता है ! अतः साधु को ऐसे सावद्यानुष्टानरूप असंघमभावसे दूर रहनेका प्रभुका आदेश है ॥सू० ६॥ अब सूत्रकार द्वितीयभावना को प्रकट करते हैं-'बीयं आरामुजाण' इत्यादि। टीकार्थ-(बीयं ) इस व्रत की दूसरी भावना अनुज्ञातसंस्तारकग्रहण रूप है । वह इस प्रकार है-(आरामुज्जाणकाणणवणप्पदेसभागे) સિંચનાદિ કર્મ એવાં જ છે, કારણ કે તે સાવદ્ય અનુષ્ઠાન છે. કરવું, કરાવવું અને અનુમોદના આપવી એ ત્રણેનું ત્રતાદિકના વિચારમાં સમાન કેટિનું સ્થાન આપ્યું છે, આસિંચનાદિ કર્મ જે સાધુને નિમિત્તે કરવામાં આવતાં હોય તે તે સાધુને માટે પણ સાવદ્યાનુષ્ઠાનરૂપ અસંયમના ભાગીદાર બને છે. તેથી પ્રભુને એ આદેશ છે કે સાધુઓએ તેવાં સાવદ્યાનુષ્ઠાનરૂપ અસંયમ ભાવથી ६२ २ ॥ सू० ६ ॥ हवे सूत्र.२ मील भावनाने प्रगट ४२ छ-"बीय आरामुज्जाण" त्याहि. टी--" बीय" मा तनी भी लापन"अनुज्ञात सस्ता२४ अड ३५ छ, ते मा प्रमाणे छ-" आरामुज्जाणकाणणवणप्पदेसभागे” साराभ For Private And Personal Use Only Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुदर्शिनी टीकाअ०३ सू.9 'अनुज्ञातसंस्तारकग्रहण' नाम २ भावनानिरूपणम् ७४९ माधबीलतादिपरिमण्डितवनविशेषः, उद्यानम्-उपवनम् , काननं सामान्यक्षोपेतं वनम् , वनम् नगरदूर वर्त्तिवनम् , एतेषां यः प्रदेशः स्थानं तस्य यो भागः-एक देशस्तत्र स्थितं ' इक्कड ' 'ढाडूंण' इति भाषा प्रसिद्धं तृणविशेषं वा-अथवा 'कढिणगं' कठिनक= रोइस' इति भाषा प्रसिद्धं तृणविशेषः वा, यद्वा-जंतु गं' जन्तुकं जलाशयोत्पन्नतृणविशेषम् , वा-अथवा 'परमेरकुच्चकुसडब्भप्पलालम्यग बल्लयपुप्फफलतयप्पवालकंदमूलतणकटसक्कराई' परमेरकूर्चकुशदर्भपलालमूयकव खजपुष्पफलत्वकमवालकन्दमूलतृणकाष्ठशर्करादि, तत्र-पराः तृणविशेषः, मेराःमुञ्जसरिकाः कूर्चानि येस्तृणविशेषः भित्तो सेटिकावलेपनार्थ कूर्चा (कूँची) निर्मीयन्ते ते तृणविशेषाः कुशा:- इस्वाकारास्तृणविशेषाः, दर्भाः दीर्घाकाराः कुशाएव दर्भा उच्यन्ते, पलाला=' पुआल ' इति भाषाप्रसिद्धः, मूयका' मोतिगा' इति भाषा प्रसिद्धस्तृणविशेषः, वल्वजः-दर्भजातीयशृणविशेषः, पुषफल. त्वभवाळकन्दमूलतृणकाष्ठशर्कराः प्रतोताः, एता आदौ यस्य तत्तथोक्तं 'जं आराम-माधवीलता आदि से परिमंडित वनविशेष में, उद्यान-उपवन में, कानन-सामान्य वृक्षों से युक्त वन में, वन-नगर से दूरवर्ती जंगल में, अर्थात् इन स्थानों के प्रदेशों के एकदेश में, स्थित (जं किंचि) जो कुछ (इकई वा ) ढाहूंण-तृणविशेष, अथवा (कढिणगं वा) कठिनक-रोइस नामक तृणविशेष, अथवा (जंतुगं वा) जंतुक-जलाशय मेंउत्पन्न हुए जंतुक नाम के तृणविशेष, (पर-मेर-कुच्च-कुस-डब्भप्पलाल-मूयग-वल्लय-पुप्फ-फल-तय-प्पवाल-कंद-मूल-तण-कट्ठसकराई ) पर नाम के तृणविशेष, कुश नामक तृणविशेष, दर्भनामक तृणविशेष, पलाल नामक तृणविशेष, मोतिंग नामक तृणविशेष, वल्वज-दर्भ-जाति का तृणविशेष, पुष्प, फल, त्वक्-छाल, प्रवालમાઘવલતા આદિથી આચ્છાદિત વનમાં, ઉદ્યાન-બાગમાં, કાનનસામાન્ય વૃક્ષોથી યુક્ત વનમાં, વન-નગરથી દૂર આવેલા જંગલમાં, એટલે કે તે સ્થાને प्रदेशमांना ये देशमा, स्थित “जं किंचि " | " इक्कड वा" ढामे २ घास, अथ“कठिणगं वा " हिन-रास नामनु मे प्रातुं धास अथवा "तुगं वा" तु४-४ाशयमा पेहो थयेस तु नामर्नु घास "पर, मेर, कुच, कुस, डब्भ, प्पलाल, मूयग, वल्लय, पुप्फ, फल, तय, पवाल, कंद, मूल, तण, कट्ठ, सकराई" ५२ नामर्नु घास, मेर-मुं नामर्नु ઘાસ, કુશ નામનું ઘાસ, દર્ભ નામનું ઘાસ પેલાલ નામનું ઘાસ, મેતિંગ નામનું घास, १६-मन तनुं घास, पुष्प, ३७, (१५-छात, प्रवास-पण, For Private And Personal Use Only Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७५० प्रश्नव्याकरणसूत्रे किंचि' यत्किंचित् ‘सेज्जोवहिस्स' शय्योपधेः-शय्योपकरणस्य 'अट्ठा ' अर्थायहेतवे 'गेण्हइ ' गृहाति, तत् ' उग्गहे ' अवग्रहे आज्ञायाम् ‘अदिण्णे' अ. दत्ते अदत्तायाम् , अर्थात् तत्तद्वस्तु स्वामिन आज्ञायामप्राप्तयां सत्यां 'गेण्हिउं' ग्रहीतुं साधूनां 'न कप्पइ ' न कल्पते, 'जे' यत्-यस्मात् कारणात् ' हणिहणि' अहन्यहनि प्रतिदिनम् ' उग्गहं' अवग्रहम् अणुण्णविय' अनुज्ञाप्य याप्य तत्तद्वस्तु साधुभिः 'गेण्डियव्वं ' ग्रहीतव्यं भवति । उपसंहरनाह-एवम् अनेन प्रकारेण 'उग्गहसमिइजोगेण' अवग्रहसमितियोगेन-अवग्रहः शय्योपध्यर्थ तृणाधादानस्य तत्तत्स्वामिन आज्ञा तत्र या समितिः सम्यक्प्रवृत्तिस्तया यो योगः-संबन्धस्तेन भावितो यासितः ' अंतरप्पा' अन्तरात्मा जीवो नित्यम् , ' अहिकरकोंपल, कन्द, मूल, तृण-सामान्य तृणविशेष, काष्ठ-लकड़ी, शर्कराकंकड, इनमें से जिस किसी पदार्थ को जो (सेज्जोवहिस्स अट्टाए गेण्हइ ) शय्योपकरण के निमित्त लेता है, परन्तु ( उग्गहे अदिण्णम्मि गेण्हिउ न कप्पइ) इन २ वस्तुओं के स्वामी यदि उन २ वस्तुओंको लेने की आज्ञा नहीं देते हैं तो साधुको इन वस्तुओंका लेना नहीं कल्पता है (जे) इसलिये जो (हणि हणि उग्गहं अणुण्ण वि य गेण्हिशवं) प्रतिदिन उन २ वस्तुओं को लेने के लिये उन२ वस्तुओंके स्वामी की आज्ञा साधु को लेनी चाहिये, और आज्ञा प्राप्त हो जाने पर ही उन२ वस्तुओं को लेना चाहिये। ( एवं उग्गहसमिइजोगेण भाविओ अंतरप्पा निच्चं अहिकरण, करण कारावणपावकम्मविरए दत्तमणुण्णाय उग्गहरुई भवह) इस प्रकार से अवग्रहसमिति के योग से-शय्योपधिके निमित्त तत्तद्वस्तुओं के स्वामी की आज्ञा प्राप्तकर तृणादि को के लेने में सम्यक् प्रवृत्ति के साथ संबंध ४४, भूग, तृ-सामान्य घास, ४०४-८४i, १४२१-४४३, ते मामाथी । ५] पार्थ ने रे " सेज्जोवहिस्स अट्ठाए गेहइ " शय्या मनाववाना साधन तरी छ, ५ “ उग्गहे अदिण्णम्मि गेण्हिउ न कप्पइ" ते ते वस्तुमाना માલિક જે તે તે વસ્તુઓ લેવાની રજા ન આપે તે સાધુઓને તે વસ્તુઓ देवी ४६५ती नथी. “जे" तेथी२ "हणि हणि उग्गहं अणुण्णविय गेण्हियवं" प्रतिદિન તે તે વસ્તુઓ લેવાને માટે તે તે વસ્તુઓના માલિકની મંજૂરી સાધુએ खेवन, भने भारी भन्या पछी ०४ ते ते परतु मे देवी . “ एवं उग्गह समिइजोगेण भाविओ अंतरप्पा निच्चं अहिकरण, करणकारावरणपावकम्म विरए दत्तमणुण्णाय उग्गहरुई भवइ" मा प्रभारी सवय समितिना योगयीશપધિને નિમિત્તે તે તે વસ્તુઓના માલિકની આજ્ઞા મેળવીને તૃણાદિકોને For Private And Personal Use Only Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टोका अ०३ सू०७ 'अनुशातसस्तारकगृहण'नामर भावनानिरूपणम् ७५१ णकरणकारावणपावकम्मविरए ' अधिकरणकरणकारणपापकर्मविरतः तत्र अधि. करणम्-अननुज्ञातेकडादीनामादानरूपं सावाकर्म तस्य यत्स्वयं करणम् अन्यतश्व कारणम् उपलक्षणादनुमोदनं च, एतद्रूपं यत्पापकर्मतस्माद् विरतो-निवृत्तो यः स तथोक्तः, तथा- दत्तमणुण्णायउग्गहरुइ' दत्तानुज्ञातावग्रहरुचिः-दत्तस्य-वस्तु स्वामिना वितीर्णस्य, अनुज्ञातस्य-ग्रहणार्थ कथितस्य तीर्थकरगणधरैराज्ञप्तस्य वा तृणादिवस्तुनः उद्ग्रहः ग्रहणं, तस्मिन् रुचिः अभिप्रायो यस्य स तथोक्तः, 'भवइ ' भवति ॥ सू०७॥ से, भावित हुआ जीव सदा सावधानुष्टान के करने, कराने और उसकी अनुमोदनाजन्य पापकर्म से निवृत्त बना रहता है । तथा दाता से वितीर्ण एवं तीर्थकर गणधर आदि देवों द्वारा ग्रहण करने के लिये कथित इक्कड आदि वस्तु के ग्रहण करने के अभिप्राय वाला होता है। इस तरह उसकी अनुज्ञात संस्तारक ग्रहणरूप द्वितीय भावना सध जाती है। भावार्थ-सूत्रकार ने इससूत्र द्वारा इस व्रत की अनुज्ञात संस्तारक ग्रहण नामक दुसरी भावना का उल्लेख किया है । इसमें यह स्पष्ट किया गया है कि साधु का कर्तव्य है कि वह शय्योपकरण के निमित्त आराम आदि स्थानों के किसी भी भाग से जो इक्कड आदि वस्तुए लेवे वह उनके स्वामियों की आज्ञा प्राप्त कर ही लेवे। अन्यथा उसे अदत्तादान ग्रहण करने का दोष लगेगा जो इस मूलगुण की अशुद्धि का कारण बनेगा। अतः जो शय्या संस्तारक के निमित्त इक्कड आदि तृणविशेषों લેવાની સમ્યફ પ્રવૃત્તિના વેગથી, ભાવિત થયેલ જીવ સદા સાવવાનુષ્ઠાન કરાવવાના અને તેની અનુમોદના કરવાના પાપકર્મથી નિવૃત્ત રહ્યા કરે છે. તથા દાતા વડે વિતીર્ણ અને તીર્થકર ગણધર આદિ દેવ દ્વારા ગ્રહણ કરવાને યોગ્ય કહેલ ઈક્કડ આદિ વરતુ ગ્રહણ કરવાના અભિપ્રાયવાળા થાય છે. આ રીતે તેની અનુજ્ઞાત સંસ્તારકગ્રહણરૂપ બીજી ભાવના સાધ્ય બને છે. - ભાવાર્થ-સૂત્રકારે આ સૂત્રદ્વારા આ વ્રતની “અનુજ્ઞાત સંતારક ગ્રહણ નામની બીજી ભાવનાનું સ્પષ્ટીકરણ કર્યું છે. તેમાં એ સ્પષ્ટ કરવામાં આવ્યું છે કે સાધુનું તે કર્તવ્ય છે કે તે શવ્યાના સાધન નિમિત્તે આરામ આદિ સ્થાનોના કઈ પણ ભાગમાંથી ઈક્કડ આદિ જે વસ્તુઓ લે તે તેના માલિકની રજા મેળવીને જ લે. નહીં તે તેમને અદત્તાદાન ગ્રહણ કરવાને દેષ લાગે છે, જે આ મૂલગુણની અશુદ્ધિનું કારણ બનશે. તેથી શય્યા સસ્તારકને નિમિત્તે ઈકડ આદિ પ્રકારના તૃણ વિશેષને પ્રાપ્ત કરવાને માટે જે સાધુઓ તેના માલિકની For Private And Personal Use Only Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७५२ प्रश्नव्य करणसूत्रे अथ तृतीयां भावनामाह-' तइयं ' इत्यादि मूलम्-तइयं पीढफलगसेज्जासंथारगट्याए रुक्खा न छिदियन्वा, न य छेयण भेयणेण य सेजा कारियठवा, जस्सेव उवस्सए वसेज्जा, सेज तत्थेव गवेसेज्जा, न य विसमं समं करेज्जा, न य निवायपवायउस्सुगत्तं, न डंसमसगेसु खुभियव्वं, अग्गीधूमो य न कायव्वो। एवं संजमबहुले संवरबहुले संबुडबहुले समाहिबहुले धीरे काएण फासयंते सययं अज्झागजुत्ते समिए एगे चरेज्ज धम्मं, एवं समिइजोगेण भाविओ भवइ अंतरप्पा निच्चं अहिकरणकरणकारावणपावकम्मविरए दत्तमणुन्नाय उग्गहरूई ॥ सू० ८॥ ___टीका-'तइयं तृतीयां शय्यापरिकर्मवर्जनरूपां भावनामाह-तत्र-पीढफलगसेज्जासंथारगट्टयाए' पीठफलकशय्यासंस्तारकार्यतायै-तत्र-पीठंबाजोट' को प्राप्त करने के लिये उनके स्वामीयों की आज्ञा प्राप्तकर उन २ वस्तुओं को लेता है वह इस द्वितीय भावना का पालक होता है। इस तरह के विचार से जो साधु अपनी प्रवृत्ति करता है वह अधिकरण करण कारण पापकर्म से निवृत्त बनकर इस व्रत को इस भावना द्वारा स्थिर करने वाला हो जाता है ।। सू०७॥ ___ अथ सूत्रकार इस व्रत की तृतीय भावना को कहते हैं-'तइयं पीढफलग.' इत्यादि। टीकार्थ-( तइयं) इस व्रत की तीसरी भावना शय्यापरिकर्मवर्जनरूप है। वह इस प्रकार से है-(पीढफलगसेज्जा संथारगट्टयाए) આજ્ઞા લઈને તે વસ્તુઓ ગ્રહણ કરે છે તેઓ આ બીજી ભાવનાના પાલક હોય છે. આ પ્રકારના વિચારથી જે સાધુ પિતાની પ્રવૃત્તિ કરે છે તે અધિકરણ કરણુકારણ પાપકર્મથી નિવૃત્ત થઈને આ વ્રતને આ ભાવના દ્વારા સ્થિર કરનાર બની જાય છે. આ સૂટ ૭ છે. हवे सूत्रा२ २॥ प्रतनी ची भावना मताव छ-"तइय पीढफलग" त्यादि टी--" तइय" म! प्रतनी श्री मान " शय्यापरिभवन" नामनी छ त २ा प्रमाणे छ-" पीढफलगसेज्जासंथारगट्टयाए " पी3-माले, For Private And Personal Use Only Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ३ सू०८ शय्यापरिकर्मवजन'नामकतृतीयभावनानिरूपणम्७५३ इति भाषा प्रसिद्ध, फलाः= पाट' इति भाषा प्रसिद्धः, शय्या शरीरप्रमाणा, संस्तारकाः सार्द्धहस्तद्वयपमाण आसनविशेषः, तदर्थ स्क्वा' वृक्षाः 'छिदियव्या' छेत्तव्य । ' न य' न च ' छेयणभेयणेण ' छेदनभेदनेन छेदनं तद्भूम्याश्रितक्षाणां कर्तनम् , भेदन गापाणादीनां द्विधाकरणम् , अनयो समाहारः तेन तथोक्तेन च ' सेज्जा' शय्या ' न कारियना' न कारयितव्या परः । तथा ' जस्रोष' यस्यैव गृहपतेः ' उपस्सए' उपाश्रये असतो 'वसेज्जा' वसेत् , । तत्थेव । तत्रैत्र 'सेन्ज' शय्यां---शयनीयं 'गवेसेज्ना' गवेषयेत्कुर्यादित्यर्थः । च-पुनः 'नय वि समंसा करेजा' विषमां भूमि समां कुर्यात् । 'न य ' न च 'निवायपवायउस्सुगत्तं ' निवातप्रवातोत्सुकत्वम्-निवातं-निर्वातस्थानम् , पातं अष्टमायुयानम् , तत्र-उत्सुकत्वम् उत्सुकतां ' न करेज्जा' पोट-बाजोट, फलक-पाट, शण्या-शरीरप्रमाण, संस्तारक-ढाई हाथप्रमाग आसनविशेष, साधु संबंधी इन वस्तुओं को बनवाने के निमित्त (रूखा न छिदियचा ) वृक्षों को नहीं काटना चाहिये। और (न य छेयण-भेयणेण सेज्जा कारियव्या) न उनके छेदन, भेदन से शय्या करवानी चाहिये । वृक्षों का कटवाना इसका नाम छेदन है और उनका फडवाना इसका ना भेदन है। तथा (जस्सेव उवस्सए वसेज्जा सेज्जतथेव गवेसेज्जा) जिस गृहपति के ( उवस्सए) उपाश्रय में-वसतिस्थान में साधु (बसेज्जा) बसे-रहे, (तत्थेव) वहीं पर अर्थात्-उसी मकान मालिक से अथवा उसी वस्ती से (सेज्जं गवेज्जा) शय्या की गवेषणा करे न य विसमं समं करेजमा) वहां की भूमि को यदि वह विषम-ऊंची नीदी हीये नो उसे सम-एकसी न करे, और (न य निवाय पोय उस्सुगर ) न वह निर्यात स्थान की तथा प्रवात स्थान की ५४-पाट, शल्या-शरीरप्रमाण, सस्ता२४-२ढी हायना भानुं से मासन, माहि साधुने ७५ये थी मनावाने भ.2 “ रुक्खा न छिदियव्वा" वृक्षोने ४५i ने नही, अने “ न य छेयण भेयणेण सेज्जो कारियव्वा" तभन છેદાવી ભેદાવીને શય્યા કરાવવી જોઇએ નહીં. વૃક્ષોને કપાવવા એટલે તેમનું छन भने तभने सपा तेनु नाम लेहन छ, तथा “ जस्सेव उवस्सए वसेज्जा सेज्ज तत्व गवेसेज्जा" २ तिना “ उवस्सए” उपाश्रयमा वसतिस्थानमा साधु " वसेजा" पसे-२७, “तत्थेव" त्यांत भानमा पासेथी अथवा ते पस्तीमाथी “सेज्ज गवेसेजा" शय्यानी गवेषा ४२ " न य विसर्ग समं करेजा" न त्यांनी भीन विषम-थी नीयी डाय तो तेने मेसरजी न अने “ न य निवाय पवाय उस्सुगत्तं" For Private And Personal Use Only Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७५४ प्रश्नव्याकरणसूत्रे न कुर्यात् । अयं भावः-शीतत्तौं निर्वातस्थानस्य ग्रीष्मत्तौं सवातस्थानस्य वाञ्छां न कुर्यात् । इति । ' न य ' न च ' उसमगेसु ' दंशमशकेषु सत्सु 'खुभियव्वं ' शोभितव्यम् , दंशमशकादीनामुपद्रवे सत्यपि शोभो न कर्तव्य इति भावः। तथा' अग्गीध्मो य' अग्निधूमश्च-दंशमशकादीनां निवारणार्थमग्निधूमो वा 'न कायव्यो ' न कर्तव्यः । एवम्-उक्तरूपेण 'संजमबहुले ' संयमबहुला संयमः षट् कायरक्षणलक्षणः, स बहुल:=प्रचुरो यस्य सतथोक्तः, तथा-संवरबहुले' संवर बहुल:=संवरयाणातिपातायास्रबद्वारनिरोधः, स बहुल: प्रचुरो यस्य सतथोक्तः, तथा-" संबुडबहुले ' संतबहुलः संहतं कषायेन्द्रियजयः, तद् बहुलं प्रचुरं यस्य स तथोक्तः, तश- समाहिबहुले' समाधिबहुल: समाधिः-चित्तस्वास्थ्य, स बहुलः प्रचुरो यस्य स तथोक्तः, एतादृशो 'धीरे धी: अक्षोभ्यः 'कारण' कायेन 'फासयंते' स्पृशन्-परीपहान् सहमानइत्यर्थः, तथा-'सययं' उत्सुकता-भावना रखे अर्थात् शीतऋतु में निर्वातस्थान की और ग्रीष्म ऋतुमें हवादार स्थान की इच्छा न करे । तथा-(न डंसमसगेसुखुभियव्वं ) ठहरे हुए स्थान में दंशमशक आदि का उपद्रव होवे लो उससे उसको क्षुभित नहीं होना चाहिये। और (अग्गी धूमो न काययो) न उस स्थान पर उन दंशमशक आदि को भगाने के निमित्त अग्नि वा धूआँ करवाना चाहिये। (एवं) इस प्रकार की प्रवृत्ति रखने से ( संजमबल्लुले) षट्काय रक्षगरूप संयम की प्रचुर मात्रा से युक्त संयम बहुल, तथा (संबर बहुले ) प्रागात्तिपात आदि आत्रय द्वार के निरोध रूप संवर की प्रचुर मात्रा से सहित होने के कारण संवर बहुल, तथा ( संवुडबहुले ) कषाय और इन्द्रियों के जीतने रूप संवृत की प्रचुर मात्रा से रहित होने के कारण संवृतबहुले, तथा તે નિર્યાત સ્થાનની કે પ્રવાતસ્થાનની ઉત્સુકતા રાખે નહીં, એટલે કે શિયાળામાં પવન વિનાના સ્થાનની અને ઉનાળામાં હવા આવે તેના પાનની તેણે ઈચ્છા ४२वी नही. तथा “न डंसमसगेसु खुभियव्यं" तेमने थालमान स्थानमा iस, भ२०२ माहिनी ५२ डाय तो तथा तेणे क्षोम पाम नही. मने “ अग्गी धूमो न कायव्यो” तमाशे ते iस, भ२७२ पाहिने नसा। भाटे ते स्थानमा मनि धुमा! ४२ २ नही. " एवं" मा ५२नी प्रवृत्ति रामपाथी " संजम बहले" ७४१५ २१५३५ सयभनी सत्यत मात्राथी युत सयभमत तथा “संबरबहुले" प्रातिपात मानपान नि२।६३५ सरनी घणी मात्राथी युक्त हावाने १२२ १२माइस, तथा 'संबुडबहले" કષાય અને ઇન્દ્રિયોને જીતનાર સંવૃતની અતિ અધિક માત્રાથી મુક્ત હોવાને For Private And Personal Use Only Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org , " सुदर्शिनी टीका अ०३ भू०८ ' शय्यापरिकर्मवर्जन' नामक तृतीय भावना निरूपणम् ७५५ सततम् - निरन्तरम्, ' अज्झष्पज्झाणजुत्ते ' अध्यात्मध्यानयुक्तः = त्रात्मानमधिकृत्य अध्यात्मम्=आत्मालम्बनरूपं यद्ध्यानं तेन युक्तः = समन्वितः, तथा - ' समिए ' समितः समितिभिर्युक्तः ' एगे एकः = एकाकी रागद्वेषरहितः, 'धम्मं धर्म= श्रुतचारित्रलक्षण' चरेज्ज' चरेत् = आचरेत् । उपसंहरन्नाह - ' एवम् ' प्रकारेण 'सिज्जासमिजोगेण शय्यासमितियोगेन भावितोऽन्तरात्मानित्यम्, 'अह्निकरण करणकरावणपावकम्मचिरए' अधिकरणकरण कारणपापकर्मविरतः - अधिकरणं= शय्यापरिकल्पनार्थं वृक्षादीनां छेदनमेदनरूपं यत्सावद्यं कर्म, तस्य यत्स्वयं करणम्, अन्यतश्च कारणं उपलक्षणत्वादनुमोदनं च तद्रूपं यत्पापकर्म ततो विरतो= निवृत्तो यः स तथोक्तः, तथा - दत्तानुज्ञालावग्रहरुचिः = दत्तानुज्ञातैषणीय पीठफळकादेरुपभोगकारी भवति ॥ ८ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( समाहिबहुले ) चित्त की स्वस्थतारूप समाधि की प्रचुर मात्रा से सहित होने के कारण समाधि बहुल, बना हुआ वह साधु ( फासयंतेकाएणधीरे ) परीपड़ों को सहते हुए शरीर से धीर - अक्षोभ्य बना रहता है। तथा ( सययं अज्झष्पज्जाणजुत्ते ) निरन्तर आत्मावलम्बन रूप ध्यान से युक्त बना हुआ वह साधु ( समिए) पांच समिति के पालन से (एंगे ) अकेला रागद्वेष रहित होकर (धम्मं चरेज्ज) श्रुतचारित्ररूप धर्म का आचरण करता रहता है ( एवं ) इस प्रकार से ( सेज्जास मिजोगेण ) शय्या समिति के योग से (भाविओ अंतरप्पा ) भावित जीव ( निच्च) नित्य ( अहिकरणकरणकारणपावकम्महुआ fare) व्यापरिकल्पनार्थ वृक्षादिकों के छेदन भेदन रूप सावध अनुछान के करने दूसरों द्वारा कराने तथा अनुमोदना रूप पापकर्म से निवृत्त CC " अर्‌गे स ंवृतमहुल, तथ! समाहिबहु ” ચિત્તની સ્વસ્થતારૂપ સમાધિથી अत्य ंत प्रभाणुभां युक्त होवाने अरणे सभाधिणडुस, मनेस ते साधु " फासयंते काएणधीरे” परीषहोने सहन उस्ता उस्तां शरीरथं धीर-क्षोलरहित रहे छे तथा " सय अज्झपज्जाजुत्ते ” निरंतर आत्भावसन ध्यानथी युक्त मनेब ते साधु " समिए " यांथ समितिना भासनशी “ एगे " भेडो रागद्वेष रहित थाने " धम्मं चरेज” श्रुतथास्त्रिय धर्मनु भयर अर्या ४३ छे " एवं " या रीते "सेज्जा समिइ जोगेण" शय्यासभितिना योगथी “भाविओ अतरप्पा" लावित थयेस 1 " निच्च" नित्य " अहिकरण करणकारण पावकम्मविरए" शय्याપરિકલ્પનાથે વૃક્ષાતિના છેદન ભેનરૂપ સાવદ્ય અનુષ્ઠાન કરતાં, ખીજા પાસે કરાવતાં તથા અનુમેદનારૂપ પાપકર્મથી નિવૃત થઇ જાય છે. તથા दत्तम् (4 For Private And Personal Use Only Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७५६ प्रश्नव्याकरणसूत्रे हो जाता हैं । तथा ( दत्तमणुष्णाय उग्गहरुई भवइ ) दत्तानुज्ञातावग्रहरुचिवाला- दत्तानुज्ञातैषणीय पीठ फलक आदिका उपभोगकारी होता है। भावार्थ- सूत्रकार ने इस सूत्र द्वारा व्यापरिकर्मवर्जन नामक तीसरी भावना का स्पष्टी करण किया है। उन्हों ने इस में यह समझाया है कि जो साधु इस भावना को भाता है- सेवन करता है-उसका कर्तव्य है कि वह अपने निमित्त काटे गये वृक्ष से बने हुए पीठ फलक आदि के उपभोग करने का परित्याग कर देवे । तथा जिस गृहपति के यहां वह ठहरे वहीं पर अर्थात् उसी मकान मालिक से अथवा वस्ती से वह अपनी शय्या की गवेषणा करें। यदि वहां की भूमि नीची ऊँची होवे तो वह उसे सम न करे। यदि गर्मी के समय में किसी गृहपति की वसती में ठहरने का अवसर प्राप्त हुआ हो और वहां हवा आने का साधन न हो तो वह सवात स्थान की चाहना न करे तथा यदि शीतऋतु में किसी गृहपति के यहां या किसी उपाय आदि में ठहरने का मौका आ गया होवे और वह स्थान सवात हो तो उसे निर्वातस्थान की कामना नहीं करनी चाहिये । दंशमशक पीडित करें भीतौभी उसे क्षुभितचित नहीं होना चाहिये और न उन्हें भगाने का उसे कोई उपाय ही विचारना या करना चाहिये। इस तरह से वह गुण्णायाहरु भवइ " દત્તઃ'નુજ્ઞાતાવગ્રહ રુચિવાળો-દત્તાનુજ્ઞાતૈષણીય પીઠ, ફલક આદિનો ઉપભોગકર્તા બને છે. ભાવા—સૂત્રકારે આ સૂત્રદ્વારા શય્યાપરિક વન નામની ત્રીજી ભાવનાનુ સ્પષ્ટીકરણ કર્યું છે. તેમણે તેમાં એ સમજાવ્યું છે કે જે સાધુ આ ભાવનાનું સેવન કરે છે, તેનું કર્તવ્ય એ છે કે તે પેાતાને નિમિત્તે કપાયેલ વૃક્ષમાંથી બનાવેલ પીડ, ફલક આદિનો ઉપભાગ કરવાને પરિત્યાગ કરે. તથા જે ગૃહપતિને ત્યાં તે ઉતરે ત્યાં જ એટલે કે એ જ મકાનમાલિક પાસેથી અથવા વસ્તીનાંથી તે પાતાની શમ્યાની ગવેષણા કરે. જો ત્યાંની જમીન ઊંચી નીચી હોય તેા તેને સમતલ ન કરે. જો ઉનાળાની ઋતુમાં કોઇ ગૃહપતિના આવાસમાં થાભવાની જરૂર પડી હોય અને ત્યાં હવા આવવાની વ્યવસ્થા ન હાય તા તે હવા આવે તેવા સ્થાનની ઇચ્છા ન કરે તથા જે શિયાળામાં કોઇ ગૃહપતિને ત્યાં અથવા કાઈ ઉપાશ્રય આદિમાં ઉતરવાના અવસર આવે અને તે સ્થાનમાં પવન આવતા હાય તે તેણે પત્રન ન આવે એવા સ્થળની ઇચ્છા જોઈએ નહી. ડાંસ, મચ્છર આદિ સતાવે તે પણ તેણે ચિત્તમાં ક્ષોભ પામવેા જોઈએ નહીં. અને તેને નસાડવાના તેણે વિચાર કે ઉપાય કરવા જોઇએ For Private And Personal Use Only Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ ३ सू०९ 'अनुज्ञातभक्त' नामकचतुर्थी भावना निरूपणम् ७५७ चतुर्थी भावनामाह--' चउत्थं ' इत्यादि । मूलम् - चउत्थं साहारणपिंडवायलाभे सइ भोक्तव्वं, संजएण समियं, न सागसूवाहियं, न खद्धं, न वेगियं, न तुरियं, न घवलं, न साहस, न य परस्स पीलाकरं सावज्जं । तह भोत्तव्वं जइसे तइयं वयं न सीयइ साहारणपिंडवायलाभे सुहुमं अदिण्णादाणविरमणवयनियमणं, एवं साहारणपिंडवायलाभे समिइजोगेण भाविओ भवइ अंतरप्पा णिच्चं अहिकरणकरणकारावणपावकम्मविरए दत्तमणुन्नाय उग्गहरुई || सू०९ ॥ टीका- ' चउत्थं ' चतुर्थीम् अनुज्ञातभक्तादिभोजनलक्षणां भावनामाहतत्र - 'साहारण पिंडवायलाभे ' साधारणपिण्डपातला साधारण:-कल्पनीय उसाधु संयम बहुल आदि होकर परीषह और उपसर्गों से अडोल बनता हुआ श्रुत चारित्र रूप धर्म की आराधना में सावधान बन जाता है । इस तरह शय्यापरिकर्मवर्जन रूप शय्यासमिति के योग से भावित आत्मा शय्यापरिकल्पनार्थ वृक्षादिकों के छेदन भेदन आदि रूप सावध कर्म के करने कराने और अनुमोदनाजन्य पापकर्म से बच जाता है । और इस तृतीय भावना का पालक हो जाता है || सू० ८ ॥ अब सूत्रकार चौथी भावना को प्रदर्शित करते हैं---' चत्थं साहारण०' इत्यादि 이 टीकार्थ - (उत्थं ) चौथी भावना अनुज्ञातभक्तादि भोजनरूप है जो इस प्रकार है - ( साहारण पिंडवायला भे सह) उच्च नीच कुल से નહી. આ રીતે તે સાધુ સયમખડુલ, સવરખડુલ આદિ થઈને પરીષહો તથા ઉપસર્ગો સામે અચળ બનીને શ્રુતચારિત્રરૂપ ધર્મની આરાધનામાં સાવધાન બની જાય છે. આ રીતે શય્યાપરિક વજ્રનરૂપ શય્યાસમિતિના ચેાગથી ભાવિત આત્મા શય્યા પરિકલ્પનાથે વૃક્ષાદિના છેદન ભેદન આદરૂપ સાવદ્ય કમ કરા વવાથી અને અનુમોદનાજન્ય પાપકમથી બચી જાય છે અને આ ભાવનાના પાલક થઈ જાય છે. ! સૂ॰ ૮ । हवे सूत्रभर योथी लावना अतावे छे -" चउत्थं साहारण " इत्यादि. “ चउत्थं ” थोथी लावना अनुज्ञात लताहि लोटन ३५ छे. ते या प्रभा छे " साहारण पिंडवायलाभे सह ” ઉચ્ચ નીચ કુળમાંથી ક૨ે તેવી ભિક્ષા તથા For Private And Personal Use Only Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे च्चावचकुलग्राह्यो यः पिण्डपातः भिक्षा, उपलक्षणाद् वस्त्रपात्राघन्योपधिरपिगृह्यते, तस्य लाभः = दायकात्माप्तिस्तस्मिन् — सइ ' सति 'संजएण' संयतेन= सोधुना ' भोत्तव्वं भोक्तव्यम् = परिभोक्तव्यं । ' भोक्तव्यम् ' इत्यग्रेऽपि सर्वत्र योज्यम् , कथं भोक्तव्यम् ? इत्याह- सभियं ' सम्यक् = अदत्तादानं यथा न भवति तथेत्यर्थः । सम्यक्त्वमेवाह-' न सागम्बहियं ' न शाकम्पाधिकं भोक्तव्यम् । शाकम्पाधिके भोजने कृते सति प्रमाणादधिकाहारो भवति, तेनादत्तादानदोषापतिर्भवति, तथा ' खद्धं ' प्रचुरं भोक्तव्यम् । ' न वेगियं' न वेगितं वेगयुक्तं वेगेन ग्रास मुखे प्रक्षिप्य भोक्तव्यम्, 'न तुरियं त्वरितं त्वरायुक्तं ग्रासस्य गिलने शीघ्रतां कृत्वा भोक्तव्यम् । तथा-न 'चवलं ' चपलं हस्तग्रीवादिकाय, कल्पनीय भिक्षा तथा व्रतपात्र आदि उपधि का लाभ होने पर (संजएणं भोत्तव्वं मुनि को उसे अपने खाने आदि के उपयोग में लेना चाहिये । साधु को आहार किस प्रकार से कैसा लेना चाहिये सूत्रकार अब इस बात को कहते हैं-(समियं) अदत्तादान का दोष न लगे इस प्रकार से यतना रखते हुए (न साग सूवाहियं) शाक और दाल को अधिकता के साथ भोजन नहीं करना चाहिये-अर्थात्-शाक और दाल की अधिकता वाला भोजन प्रमाण से अधिक खा लिया जाता है, इसलिये बत्तीस ग्रास लेने की अपेक्षा भोजन में अधिकता आने से साधु को अदत्तादान दोष की आपत्ति आती है। (न खद्धं ) उचित मात्रा में भी दाल शाक के साथ प्रचुर मात्रा में आहार नहीं करना चाहिये। तथा (न वेगियं) जल्दी२ उतावली के साथ भी भोजन नहीं करना चाहिये । तथा (न तुरियं) त्वगयुक्त होकर ग्रास के गिलने में १२ पात्र मा पधिन। साल तi "संजएणं भोत्तच्छ” भुनिये ते पाताने માટે ખાવા આદિના ઉપયોગમાં લેવું જોઈએ. હવે સૂત્રકાર એ વાત બતાવે છે કે મુનિએ ભજન કેવી રીતે ખાવું જોઈએ અને કેવું ન ખાવું જોઈએ. "समियं " मत्तानन दोष नागे ते प्रमाणे यतन पू: " न सागसूवहियं " શાક અને દાળની અધિકતા વાળું ભેજન કરવું નહી, એટલે કે શાક અને દાળની અધિકતા વાળું ભેજનું પ્રમાણમાં વધારે ખવાય છે, તે કારણે બત્રીશ पास ४२०i मान धारे देवाथी साधुने महत्तहान ५ न छ. " न खलु " પ્રમાણમાં દાળ શાકની સાથે વધારે પ્રમાણમાં પણ આહાર લેવો જોઈએ નહી, તથા "न वेगियव्वं" न ही ५थी पान २ नही, तथा “न तु. रिय"१२१ सहित उजिये। गणे तापामा ५ अरीन ५७ लोन नही ४२७ For Private And Personal Use Only Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० ३ सू०९ 'अनुज्ञातभक'नामकचतुर्थीभावनानिरूपणम् ७५९ चालनरूपचापल्ययुक्तं भोक्तव्यम् । न साहसम्-अप्रतिलेखितं भोक्तव्यम् , तथा'न य' न च 'परस्स ' परस्य एकेन्द्रियादेः ' पीलाकरं' पीडाकर ' सावज्ज' सावय सचित्तं भोक्तव्यम् , एवमुपलक्षणाद्वपात्रादिपरिभोगोऽपि ग्राह्यः। तर्हिकथं भोक्तव्यम् ? इत्याह | ' तह भोक्तव्यं' तथा भोक्तव्यं 'जह' यथा 'से' तस्य संयतस्य ' तइयं ' तृतीयं 'वयं ' व्रतं अदत्तादानविरमणरूपं 'नसीयइ' न सीदति-न नश्यति यथा-अदत्तादानविरमणरूपं व्रतं न विनश्येत्तथा भोक्तव्यमित्यर्थः, 'साहारणपिंडवायलाभे साधारणपिण्डपातलामे सति ' मुहुमं' सूक्ष्म दुनिरीक्षम् ,-पूर्णरूपेणेत्यर्थः, ' अदिण्णादाणविरमणवयनियमणं' अदत्तादानविरशीघ्रता करके भोजन नहीं करना चाहिये। तथा (न चवलं) हाथ, गर्दन आदि अवयवों को चलाते हुए भोजन नहीं करना चाहिये । तथा न साहसं अप्रतिलेखित भोजन नहीं करना चाहिये। और (न य परस्स पीलाकरं सावज्ज) एकेन्द्रियादिक जीवों को पीडा कारक सावद्य-सचित्त-भोजन न करना चाहिये। इसी तरहसे वस्त्र पात्रादिकके परिभोग में भी यही बात समझ लेनी चाहिये । तो फिर कैसे भोजन करना चाहिये ? इस बात को अब सूत्रकार प्रकट करते हैं, वे कहते हैं कि (से) उस संयत को ( तह भोत्तव्यं ) इस प्रकार से भोजन करना चाहिये कि (जह ) जिससे (तइयं वयं) अनत्तादानविरतणरूप तीसरा व्रत ( न सीयइ ) नष्ट न होवे (साहारणपिंडवायलाभे ) इस तरह पूर्वोक्त साधारण कल्पनीय-पिंडपात-भिक्षा की प्राप्ति होने पर (सुष्टुमं) सूक्ष्म रूप से अर्थात्-पूर्णरूप से (अदिण्णादाणविरमणवयनियमण) इस नये. तथा "नचवलं" साथ, 31 मा अवयवान सात auqan ५५ न ४२ मे नही. तथा “नःसाहसं" मप्रति सेभित सोन न ४२७ नये नही. मने "न य परस्स पीलाकर साबजं" मेन्द्रिय मावाने પીડા કારક સાવદ્ય-સચિત્ત–ભજન ન કરવું જોઈએ. એ જ રીતે વસ્ત્ર, પાત્ર આદિના પરિભેગમાં પણ એ જ વાત સમજી લેવી. તે પછી કેવું ભેજન કરવું જોઈએ? તે વાતને પ્રગટ કરતાં સૂત્રકાર કહે છે કે “રે” તે સંતે "तह भोत्तव्व '' 2AL प्रभा - ४२ ने मे. “ जह" या " तइयं वयं" महत्ताहीन वि२भए ३५ वी त “न सीयइ, नट न थाय “साहारणपिंडवायलाभे " 20 शत पूर्वात साधारण पनीय विपात-भिक्षानी प्रति तi " सुहुमं " सूक्ष्भ३५ 22, ५९३३ " अदिण्णादाणविरमणवयनियमण" महत्तान विरम त ५२ नियत्र-मधि।२ For Private And Personal Use Only Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७६० प्रश्नव्याकरणसूत्रे मणव्रतनियमनम् अदत्तादानविरमणव्रतस्य यनियमनं-नियन्त्रणं तद् भवति । एवम् अनेन प्रकारेण ' साहारणपिंडवायलाभसमिइजोगेण ' साधारणपिण्डपातलाभसमितियोगेन-साधारणपिण्डपातलाभे या समितिः- सम्यक्प्रवृत्तिः तस्या योगेन-सम्बन्धेन भावितोऽन्तरात्मानित्यं सदा अधिकरणकरणकारणपापकर्मविरतः =अधिकरणस्य अननुज्ञातभक्तादिभोजनलक्षणसावद्यकर्मणोयत्करणं कारणमुपलक्ष. णत्वादनुमोदनं च तदेव यत्पापकर्म ततो विरतो-निवृत्तः, दत्तानुज्ञातावग्रहरुचि भवति । एतद् व्याख्या पूर्वअद्विज्ञेया । म ९ ॥ अदत्तादानविरमण व्रत पर नियंत्रण-अधिकार हो जाता हैं। (एवं) इस प्रकार से (साहारणपिंडवायलाभे) साधारणपिंडपातलाभ में (समिइजोगेण ) सम्यक् प्रवृत्ति के संबंध से (भाविओ अंतरप्पा) भावित अन्तरात्मा (निच्च ) नित्य-सदा (अहिकरण करणकारावणपावकम्मविरए) अननुज्ञात भक्तादि भोजनरूप सावद्यकर्मके करने, कराने और उसकी अनुमोदनारूप पापकर्मसे विरत हो जाता है । और (दत्तमगुण्णाय उग्गहरुई भवइ) दत्तानुज्ञात अवग्रह में रुचिशाही हो जाता है। भावार्थ-सूत्रकार ने इस सूत्र द्वारा अदत्तादानविरमण व्रत की चौथी भावना को कहते है। इस का नाम अनुज्ञातभक्तादि भोजन है। साधु के लिये दाता द्वारा कल्पनीय शिक्षा अथरा उपधि की प्राप्ति हो जाने पर उसे किस तरह से अपने उपयोग में लाना चाहिये इसका इसमें विचार किया गया है। आहार के विचार में साधु को दाल शाक की अधिकता के साथ में आहार करने का त्याग कहा गया य य . “ एवं24[ प्रारे " साहारण पिंडवायलाभे" साधा२६ मिक्षानी प्राप्ति थतi " समिइजोगेण" सभ्य प्रवृत्तिन। योगी, “ भाविओ अं. तरप्पा” मावित भतरात्म! " निच्चं" नित्य “ अहिकरणकरणकारावणपाव कम्मविरए " मननुज्ञात extiler ३५ सायम ४२१ाथी, ४२११पाथी, भने तेनी मनुमहिना ३५ ५।५४ थी भुत थ जय छे. माने "दत्तमणुण्णाय. सग्गहरुइ भवइ " त्तानुज्ञात अपयमा रुथिवानी 2014 छ. ભાવાર્થ–સૂત્રકારે આ સૂત્ર દ્વારા અદત્તાદાન વિરમણ વ્રતની ચોથી ભાવનાનું સ્પષ્ટીકરણ કર્યું છે. તે ભાવના અનુજ્ઞાત ભક્તાદિ ભેજન નામની છે. દાતા દ્વારા સાધુને કહેશે તેવી ભિક્ષા અથવા ઉપધિની પ્રાપ્તિ થઈ જાય ત્યારે તેને કેવી રીતે તે પિતાના ઉપયોગમાં લેવી જોઈએ તે બાબતને આ ભાવનામાં વિચાર કરવામાં આવ્યું છે. વધારે દાળ શાક સાથે આહાર લેવાને સાધુએ For Private And Personal Use Only Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुशिनी टीका अ०३ सू० ५ पञ्चम ‘विनय ' भावनानिरूपणम् पञ्चमी भावनामाह-- पंचमं ' इत्यादि मूलम्-पंचमं साहम्लिएसु विणओ पउंजियवो । उवगरण पारणासु विणओ पउंजियव्वो, वायणपरियणासु विणओ पउंजियन्यो । दाणग्गहणपुच्छणासु विणओ पउंजियव्वो। निक्खमणपवेसणासु विणओ पउंजियव्यो । अण्णेसु य एवमाइएसु वहसु कारणसएसु विणओ पउंजियब्बो । बिणओ वि तबो, तवो विधम्मो, तम्हा विणओ पउंजियव्वो गुरुसु सासु तवलिससु य । एवं विणएण भाविओ भवइ अंतरप्पा निच्चं अहिकरणकरणकारावणपापकम्मविरए दत्तमणुण्णा य उग्गहरुई ॥ सू० १०॥ है, क्यों कि ऐसा आहार प्रमाण से अधिक कर लिया जाता है, जिससे अदत्तादान का दोष आता है। आहार करते समय इस बात का विशेष ध्यान रखना योग्य है कि हाथ, पैर, गर्दन आदि अवयव अनावश्यक रूप से न चलें । आहार करते समय आहार जल्दी २ से न किया जावे। ग्रास जल्दी २ से न गिला जावे । एकेन्द्रियादिक जीवों को बाधाकारी आहार-सचित्त आहार न लिया जावे। तात्पर्य कहने का यह है कि अदत्तादानविरमणत नष्ट न हो इस प्रकार से साधु को आहार करना चाहिये। इस तरह की प्रवृत्ति से इस व्रत पर पूर्ण रूप से नियंत्रणकाबू हो जाता है। वह साधु अननुज्ञात मक्तादि भोजन रूप सावधकर्म के करने,कराने और अनुमोदनारूप पापकर्म से विरत बन जाता है ।सू०९॥ ત્યાગ કરવું જોઈએ એવું તેમાં દર્શાવ્યું છે, કારણ કે તે આહાર વધારે પ્રમાણમાં લેવાય છે તેથી સાધુને અદત્તાદાનને દેષ લાગે છે. આહાર કરતી વખતે એ વાતનું ખાસ ધ્યાન રાખવું જોઈએ કે હાથ, પગ ડેક આદિ અવય બીન જરૂરી રીતે હાલે ચાલે નહીં. આહાર કરતી વખતે ઝડપથી આહાર લેવો જોઈએ નહીં, કેળિયે જલ્દી ગળાની નીચે ઉતરે નહીં. એ કેન્દ્રિયાદિજીને પીડાકારી આહાર-અચિત્ત આહાર લેવે જોઈએ નહીં. એ કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે અદત્તાદાન વિરમણ રૂપ નષ્ટ ન થાય તે પ્રકારે સાધુએ આહાર કરે જોઈએ . આ પ્રકારની પ્રવૃત્તિથી આ વ્રત પર સંપૂર્ણ રીતે અંકુશ આવી જાય છે. તે સાધુ અનyજ્ઞાન ભક્તાદિ ભેજનરૂપ સાવધ કર્મ કરતા, કરાવતા અને અનમેદના થતાં પાપકર્મથી મુક્ત થઈ જાય છે ! સૂ. ૯ ! प्र० ९६ For Private And Personal Use Only Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७६२ प्रश्नव्याकरणसूत्रे टीका---'पंचम' पश्चमी विनयभावनामाह- साहम्मिएसु' सार्मिकेषु पर्यायज्येष्ठं 'विणओ' विनयः । पउंजियव्यो' प्रयोक्तव्या-करणीयः । तथा। उवगारणपारणामु' उपकारगपारणयो तत्र-उपकारणं स्वपरयोरुपकारकरणं, तत्र-स्वस्य संयमपालनेन, परस्य ग्लानाद्यवस्थायां वैयारत्यादि करणेन, पारणा तपसः पारणा श्रुतस्य पारगमले वा पारणा. तयोःविनयः प्रयोक्तव्या-द्वयोरपि मृदुस्वाभावतमा स्थातव्यमित्यर्थः, तथा- बायणपरियट्टणासु' वाचनापविननयोधाचना सूत्रग्रहणम् , परिवर्तना-तस्यैवगुणनम् , तयोः विनयः बन्दनादिल अब सूत्रकार पांचवीं भावना को करते हैं-'पंचम साहम्मिएसु' इत्यादि। ___टीकार्थ-(पंचमं ) इस बल की पांचवीं भावना विनय है-जिसका स्वरूप इस प्रकार से है-(साहम्मिए विषयो पजियव्यो) अपने समान धर्मवालों में जो दीक्षा पर्याय की अपेक्षा ज्येष्ठ हैं उनमें विनय वृत्ति रखनी चाहिये। तथा ( उवगारणपारणासु विणओ पजियव्यो) स्व और पर के उपकार करने में और पारणा करने में विनय रखना चाहिये, संयम की आराधना करना यह निज का उपकार करना है और ग्लान आदि अवस्था में अन्य साधु का वैचात्य आदि करना यह पर का उपकार करना है, तपस्या का पारणा करना अथवा श्रुत के पार पहूँचना यह पारणा है इन दोनों स्थितियों में मृदु स्वभाव से रहना यही उपकारण पारणा का विनय करना है। इसी तरह (वायणपरियदृणासु ) सूत्र की वाचना में और उसके परिवर्तन करने में स्वाध्याय वे सूत्र।२ पायी भावना मतावे -" पंचमं साइम्मिएसु" त्याह " पंचम" मा प्रतनी पायभी माना विनय छ, २४ २५३५ २१॥ प्रभारी छ.-" साहम्मिएसु विणओ पजियव्यो" पोतानी सभी सीमारे દક્ષા પર્યાયની અપેક્ષા એ મેટા હોય તેમના પર વિનયવૃત્તિ રાખવી જોઈએ. तया " स्वगारणपारणासु विणओ उउंप जिययो" स्व भने ५२न। ५४॥4 કરવામાં અને પારણાં કરવામાં વિનય રાખવો જોઈએ. સંયમની આરાધના કરવી તે પિતાને ઉપર ઉપકાર કર્યો ગણાય છે અને ગ્લાન આદિ અવસ્થામાં અન્ય સાધુઓનું વૈયાવૃત્ય-વૈયાવંચ-કરવી તે પરના ઉપર ઉપકાર છે. તપનું પારણું કરવું અથવા કૃતને પાર પહોંચવું તે પણ પારણું છે. એ બને સ્થિતિમાં મૃદુ સ્વભાવથી રહેવું તે જ પારણાને વિનય કરવાની રીત छ. १ शते “ वायणपरियणासु" सूत्रनी वायनामा भने तेनु परिवर्तन ४२वाभां-स्वाध्याय ४२वामा साधु “विण पजियचो , 41 For Private And Personal Use Only Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सुदर्शिनी टोका अ०३ सू०१० 'विनय' नामकपञ्चमभावना स्वरूपनिरूपणम् ७६३ क्षणः प्रयोक्तव्यः । तथा-' दागग्गहणपुच्छणासु' दानग्रहणपच्छनासु दानं लब्धस्थानादे ग्लानादिभ्यो वितरणत्, ग्रहणम् परेण दीयमानस्यैवान्नादेर्यहणम्, प्रच्छना = विस्मृतमुत्रार्थविषये प्रश्नः, एतासु ' विणओ ' विनयःदान ग्रहणयो गुर्वा ज्ञालक्षणः, मच्चनायां वन्दनादिरूपः प्रयोक्तव्यः । तथा -- निक्खमणपवेसणासु' निष्क्रमणमवेशनयोः = गमनागमनयोः विनयः = गमने आवश्यकीरूपः आगमने नैषेधिकीरूपः प्रयोक्तव्यः, किं बहुना ' अण्सु य' अन्येषु च ' एवमाइएस' एवमादिकेषु = एवंविधेषु बहुषु ' कारणसरसु' कारणशतेषु विनयः प्रयोक्तव्यः । कस्मात्कारणाद् विनयः प्रयोक्तव्यः ? इत्याह- ' विणओवि विनयोऽपि तपः- न केवलमनशनादिकमेव करने में साधु को ( विणओ पउंजियब्वो) वन्दनादिरूप विनय करना चाहिये । तथा ( दाणगहणपुच्छणासु विणओ पउंजियो) दान मेंदाता द्वारा दिये हुए अन्नादि को का ग्लान आदि साधुओं के लिये वितरण करने में - दाता द्वारा दिये गये अन्नादिक के लेने में गुरु की आज्ञा प्राप्त करना रूप विनय, प्रच्छना में विस्तृत हुए सूत्रार्थ को गुर्वादिकों से पूछने में - वंदनादि रूप विनय भाव रखना चाहिये । तथा (निक्मणपवेसणासु) निष्क्रमण और प्रवेशन में-गमन और आगमन में - विणओ पउंजियव्वो) आवश्यकी रूप और नैषेधिकी रूप विनय करना चाहिये अर्थात्-गमन में आवश्यकरूप और आगमन में नैषेधिकरूप विन भाव साधु को रखना चाहिये। ( अण्णेसु एवमाइएस सुबह कारणेस इसी तरह के और भी बहुत से सैकडों कारणों में (विणओ पर जियव्वो) विनय भाव का आचरण करते આદિ કરીને વિનય દર્શાવવા જોઈ એ. તથા 66 दाणगहण पुच्छणा विणओ पउंजिय०त्रो" हानसां-ढाता द्वारा अपायेस अन्नाहितुं सान आहि साधुगोमां વિતરણ કરવામાં વિનય રાખવા જોઇએ. ગ્રહણ કરવામાં–દાતા દ્વારા અપાયેલ અન્ન આદિ લેવા માટે ગુરુની આજ્ઞા પ્રાપ્ત કરવા રૂપ વિનય પાળવા જોઈએ. પ્રચ્છનામાં—ભૂલાઈ ગયેલ સૂત્રા ગુરુ આદિને પૂછતી વખતે વદણા આદિ રૂપ વિનય ભાવ રાખવા જોઈએ. તથા " निक्खमणपवेसणासु " निष्कुभालु भने પ્રવેશનાં ગમન અને આગમનમાં "विणओ पउजियब्वो ” सावरियडी ३५ નૈષધિકી રૂપ વિનય ભાવ સાધુએ રાખવા જોઇએ, એટલે કે ગમનમાં આવસ્થિકી રૂપ અને આગમનમાં નૈષધિકી રૂપ વિનય ભાવ સાધુએ રાખવા જોઈ એ. अणे सुमाइए बहुसु कारणेसु " मा प्रानी अन्य सेडो मामताभां " विणओ पर जियवो" विनय लाव मायरवो लेहये. अणु ॐ " विणओ 66 " Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७६५ प्रश्नव्याकरणसूत्र तः अपि तु विनयोऽपि आभ्यान्तरतपोभेदेषु पठितः, तथा-' तवो वि' तपोऽपि 'धम्मो ' धर्मः न केवलं संयमएव धर्मः, किन्तु तपोऽपि धर्मः, तस्य चारित्रांशत्वात् , ' तम्हा' तस्मात् 'गुरुमु ' गुरुषु 'साहुसु' साधुषु ' तवस्सिमु य ' तपस्विषु च विनयः प्रयोक्तव्यः । एवं विनयेन भावितोऽन्तरात्मा नित्यमधिकरणकरणकारणपापकर्मविरतोअधिकरणस्य = अविनयरूपसावद्यकर्मणो यत्करणं कारणमुपलक्षणत्वादनुमोदनं च, एतद्रूपं यत्पापकर्म. ततोविरतो-निवृत्तो दत्तानुज्ञातावग्रहरुचि भवति । एतदू व्याख्यापूर्वमुक्ता । मू०१० ॥ रहना चाहिये । क्यों कि (विणओ वि तवो) यह विनय भी आभ्यंतर तप है-केवल अनशन आदि ही तप नहीं हैं। तथा ( तयो वि धम्मो) चारित्र का अंश होने से तप भी धर्म है, केवल संघम ही धर्म नहीं है। ( तम्हो विणओ पउंजियच्चो गुरुसु साहुसु तवस्सिसु य) इसलिये गुरुजनों के विषय में, साधुजनों के विषय में और तपस्वी जनों के विषय में विनय धर्म का व्यवहार अवश्य ही करना चाहिये । (एवंविणएण भाविओ अन्तरप्पा निच्च अहिकरणकरणकारावणपावकम्मविरए दत्तमणुण्णाय उग्गहरुई भवइ) इस प्रकार विनय धर्म से भावित जीव नित्य अविनयरूप सावद्यकर्म के करने, कराने और उसकी अनुमोदनारूप पापकर्म से निवृत्त हो जाता है और दत्तानुज्ञात अपग्रह में रूचिवाला बन जाता है। भावार्थ-सूत्रकार ने इस सूत्र द्वारा अदत्तादानविरमण रूप की पांचवी भावना का स्वरूप प्रदर्शित किया है इस भावना का नाम विनय वि तवो" मा विनय पा सभ्यत२ त५ छ; उपवास माह त५ नथी. " तवो वि धम्मो” यात्रिने। म पाथी त५ ५ ५ , ४ सयम ११ धर्म नथी. " तम्हा विणओ पजियन्वो गुरुसु तवस्सिसु य” ते २णे शु२१. જને પ્રત્યે, સાધુજને પ્રત્યે, અને તપસ્વીજને પ્રત્યે વિનય ધર્મને વહેવાર अवश्य २०४३ नये. “ एवं विणएण भाविओ अंतरप्पा निच्च अहिकरण करणकारावणपावकम्मविरए दत्तमणुण्णाय उग्गहराई भवइ'' मा प्रारे विनय ધર્મથી ભાવિત જીવ નિત્ય અવિનયરૂપ સાવદ્ય કમ કરતાં, કરાવતાં અને તેની અનુમોદનારૂપ પાપકર્મથી નિવૃત થઈ જાય છે અને દત્તાનુજ્ઞાત અવગ્રહમાં રુચિવાળા બની જાય છે. ભાવાર્થ–સૂત્રકારે આ સૂત્ર દ્વારા અદત્તાદાનવિરમણ વ્રતની પાંચમી ભાવનાનું સ્વરૂપ દર્શાવ્યું છે. તે ભાવનાનું નામ “વિનય ભાવના” છે. દીક્ષા For Private And Personal Use Only Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुदशिनी टीका अ० ३ सू० ११ अध्ययनोपसहारः अध्ययनमुपसंहरति-' एवमिणं' इत्यादि । मूलम्-एवमिणं संवरस्सदारं सम्मं चरियं होइ सुपणिहियं, इमेहिं पंचहिं वि कारणेहिं मणवयणकायपरिरक्खिएहिं निच्चं आमरणंतंच एसो जोगो नेयम्वो धिइमया मइमया अणासवो अकलुसो अच्छिद्दो अपरिस्सावी असंकिलिट्टो सुद्धो सवजिणमणुण्णाओ। एवं तइयं संवरदारं फासियं पालियं सोहियं तीरियं किट्टियं सम्मं आराहियं आणाए अणुपालियं भवइ। एवं नायमुणिणा भगवया पण्णवियं परूवियं पसिद्धं सिद्धि. भावना हैं । अपने से जो दीक्षा पर्याय में ज्येष्ठ हैं, उन साधुओं में विनय धर्म का पालन करना तथा स्वयं संयम के पालन करने में और पारणा में मृदु स्वभाव रखना, इत्यादि विनय संबंधी जितनी भी क्रियाए हैं उन्हें मोक्षमार्ग के साधनों में यथायोग्यरूप से पालन करते रहना उनके प्रति अविनयरूपता का भाव चित्त में नहीं आने देना यह विनय भावना है। तात्पर्य यह है कि ज्ञानादि मोक्षमार्ग और उसके साधनों के प्रति योग्यरीति से बहुमान रखना यह विनयधर्म है। इस धर्म से भावित हुआ अंतरात्मा अविनय रूप मावध कर्म के करने कराने, और उसकी अनुमोदना जन्य पापक्रिया से विरक्त हो जाता है और इस भावना का पालक बन जाता है ॥ मू० १०॥ પર્યાયમાં જે પિતાનાં કરતાં મોટા હોય તેમના પ્રત્યે વિનયમનું પાલન કરવું, તથા નિજ સંયમનું પાલન કરવામાં તથા પારણામાં મૃદુ સ્વભાવ રાખવે, ઈત્યાદિ વિનય સંબંધી જેટલી ક્રિયાઓ છે તેમનું મોક્ષમાર્ગનાં સાધનમાં એગ્ય રીતે પાલન કરતા રહેવું, તેમના પ્રત્યે અવિનય ભાવને ચિત્તમાં પ્રવેશવા ન દેવે તે વિનય ભાવના ગણાય છે. તેનું તાત્પર્ય એ છે કે જ્ઞાનાદિ ક્ષમાર્ગ અને તેનાં સાધને પ્રત્યે એગ્ય રીતે બહુમાન રાખવું તે વિનય ધર્મ છે. આ ધર્મથી ભાવિત થયેલ આત્મા અવિનયરૂપ સાવધ કર્મ કરતા, કરાવતા અને તેની અનુમોદનાથી પરિણમતી પાપ ક્રિયાથી બચી જાય છે, અને આ ભાવનાને पास पनी 14 छ, ॥ सू. १० ॥ For Private And Personal Use Only Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra व्याकरणसूत्रे वरसासणमिणं आघवियं सुंदेसिवपसत्थं तइयं संवरदारं समत्तं त्तिभि ॥ सू० ११ ॥ www.kobatirth.org "L " टीका - एवं पूर्वोक्तप्रकारेण ' इणं ' इदं ' संवरस्स ' संवरस्य ' दारं ' द्वारम् अदत्तादानविरमणनामकं तृतीयं द्वारमित्यर्थः ' सम्मं सम्यक् ' चरियं ' चरितं सत् ' होइ' भवति 'सुपणिहियं सुप्रणिहितं समाराधितम् । तथा-' इमेहि ' एभिः ' पंचहि ' वि=पञ्चभिरपि ' कारणेहिं कारणैः =भावनाभिः, की दृशैः कारणैः ? इत्याह- ' मणत्रयणकायपरिरक्खिएहिं ' मनोवचनकायपरिरक्षितैः= मनोवाक्कायैः परिरक्षितैः,मनोवाक्काययोगयुक्ताभिः पञ्चभावनाभिरित्यर्थः, 'निच्च' नित्यम् ' आमरणंतं च ' आमरणान्तं मरणपर्यन्तं च : एस जोगो' एष योग:अदत्तादानविरमणरूपो योगः 'पोयच्त्रो' नेतव्यः - पालनीयः घिड़मया ' धृतिमता ' मइया ' मतिमता । कथं भूतोऽयं योगः ? इत्याह-' अणासो ' अनाअब सूत्रकार इस अध्ययन का उपसंहार करते हुए कहते हैं' एवमिणं ' इत्यादि० | 6 टीकार्थ - ( एवं ) पूर्वोक्त प्रकार से ( इणं ) यह ( संवरस्स दारं अदन्तादानविरमण नाम का तृतीय संवरद्वार ( सम्मं चरियं) अच्छी तरह से पाले जाने पर (सुपणिहियं ) सुरक्षित ( होइ ) हो जाता है। इसलिये (मणवयणकायपरि रक्खिहिं ) मन, वचन, काय इन तीन योगों से अच्छी तरह सुरक्षित कीये गये (इमेहिं ) इन ( पंचहिं विकारणेहिं ) पांच भावना रूप कारणों से (निच्चं ) सदा (आमरणतं च) जीवन भर तक ( एस जोगो ) यह अदत्तादानविरमण रूप योग (धिइमया मइमया) चित्त स्वस्थता से तथा हेयोपादेय की विवेकता से हे छे" एवं मिणं " वे सूत्र मा अध्ययननो उपसंहार उरतां त्याहि સદા ગુરૂપ ॥ इय पण्हावागरणे तइयं संवरदारं समत्तं ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ܐܕ ܕ (1 टीअर्थ - " एवं " पूर्वोस्त अक्षरे " इणं " म हान विरभ नामनुं त्रीभुं सवरद्वार " समं चारिय" यावे तो " सुपणिहियं " सुरक्षित था भय छे. तेथी " मणवयणकायपरिरक्खि हिं મન, વચન અને કાયાના ચોગોથી સારી રીતે સુરક્ષિત કરાયેલ इमेहि" म पंचहिं वि कारणेहिं " यांय लावनाईप अरोथी " निरुचं " वन पर्यंत " एसजोगो 36 " आमरणं तं च 19 આ અદત્તાદાન વિરમयोग " धिमया मझ्मया " वित्तनी स्वस्था तथा हेयोपादेयना विवेश्थी For Private And Personal Use Only संवररसदार' અદત્તા सारी रीते पाणवाभां ܕܐ " Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० ३ सू० ११ अध्ययनोपसंहारः ७६७ स्रव नूतनकर्मागमनरहितत्वात् , ' अकलुसो' अकलुषः = अशुभाध्यवसायरहि. तत्वाद् , ' अच्छिद्दो' अच्छिद्रः छिन्नपापस्रोतस्त्वात् 'अपरिस्साबी' अपरिस्रावी-बिन्दुरूपेणापि कर्मजलप्रवेशरहितत्वात् , ' असंकिक्लिट्ठा ' असंक्लिष्टाः असमाधिभाववर्जितत्वात् , 'मुद्धो' शुद्धः-कर्ममलवर्जितत्वात् , 'सव्वनिणमणुण्णाओ' सर्वजिनानुज्ञातः सकलपाणिहितकारकत्वात्सर्वेषामर्हतामनुमतश्चास्ति । एवम् ए. तादृशमिदं । ' तइयं तृतीयं संवरद्वारम् ' फासियं ' स्पृष्टं कायेनाचरितं, 'पालियं ' पालित-सततमुपयोगेनसेवितं ' सोहियं ' शोधितं अतीचारवर्जनेन शुद्धी युक्त हुए मुनिजन को (नेयम्यो ) पालन करने योग्य है । क्यों कि यह अदत्तादानविरमण रूप योग ( अणासयो ) नूतनकर्मों के आगमन से रहित होने के कारण अनास्रवरूप है, (अकलुसो) अशुभ अध्यवसाय से वर्जित होने के कारण अकलुष है, ( अच्छिद्दो) पाप का स्रोत इससे छिन्न हो जाता है अतः अच्छिद्र है ( अपरिस्सावी) विन्दुरुप से भी कर्मरूपजल इसमें प्रवेश नहीं कर सकता है इसलिये यह अपरिस्रावी है । ( असंकिलिट्ठो) असमाधिभाव से वर्जित होने के कारण यह असंक्लिष्ट है। ( सुद्धो) कर्ममल से रहित होने के कारण शुद्ध है (सव्वजिणमणुण्णायो समस्त प्राणियों का इससे हित होता है इस लिये समस्त अरहंत भगवंतो को यह मान्य हुआ है। ( एवं ) ऐसा यह ( तइयं ) तृतीय संवर द्वार है । इस संवरद्वार को जो ( फासियं) अपने शरीर से आचरित करते हैं, ( पालियं ) निरन्तर उपयोग पूर्वक इसे सेवित करते हैं ( सोहियं ) अतिचारों से इसे रहित करते हैं युश्त भुनिनाने " नेयव्वो” पान ४२१॥ योग्य छे. या महत्ताहान विभ) ३५ यो! “ अणासवो" नवा ना मामानयी २डित सापाने ॥२ भनाभ१३५ छ, “ अकलुसो" अशुल अध्यायथी २हित जापाने अरहो मनुष छ, “अच्छिहो" पापन। स्रोततेनाथी छिन्न ३४ नय छ तेथी मछिद्र छ, “अपरिस्सावी'' म ३५ ार्नु मिड ५५ तेमा प्रवेश शतुं नयी तेथी ते ५५रित्रावी छे, " अस किलिट्ठो” असमाधि भाव २हित पाने २६ ते अस'सिट छ, “ सुद्धो” ४' भगथी २डित पाने ४२ ते शुछे, “सब. जिणमणुण्णाओ" समस्त प्रामानुं तेनाथी ४८या थाय छ, ते ॥२समस्त 24° पानाने ते मान्य थयेस छ, “ एवं” मे " तइय" । तृतीय सवार 2. २॥ १२वाने "फासिय" पोताना शरीरथी सायरे छ, “पालिय” नि२'त२ ७५या पूर्व नेनु सेवन ४२ छ, “सोहियं" मतियाराथी तन हित ४२७. “ तीरियं” पूर्ण ३५थी तेनु सेवन ४२ छ. "किहिय" तेनुं For Private And Personal Use Only Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७६८ प्रश्नव्याकरणसूत्रे 6 " , कृतं ' ' तीरियं ' तीरितं=तीरं प्रापितं पूर्णरूपेण सेवितं, 'किट्टियं कीर्त्तितम् - अन्येषामुपदिष्टम्, ' आराहियं ': आराधितम् त्रिकरणत्रियोगैः - सम्यगाचरितम्, आणाए ' आज्ञया सर्वज्ञवचनानुसारेण 'अणुपालियं ' अनुपालितं भवति । 'एवम् अमुना प्रकारेण ' नायमुणिणा' ज्ञातमुनिना = ज्ञाताख्यप्रसिद्धक्षत्रिय वंशोद्धवेन मुनिना भगवता महावीरेण ' पण्णवियं प्रज्ञापितं - शिष्येभ्यः सामान्यतया कथितं, ' परूवियं ' प्ररूपितं भेदानु भेदमदर्शनपूर्वकं कथितं, 'पसिद्धं ' प्रसिद्धं= जिनवचने प्रख्यातं ' सिद्धवरसासणमिणं सिद्धवरशासनमिदं, सिद्धानां निष्ठि तार्थानां वरशासनं - प्रधानाज्ञारूपम्, 'आधवियं' आख्यातं = सर्वतोभावेन कथितं, ( तीरियं) पूर्णरूप से इसका सेवन करते हैं ( किट्टियं ) दूसरों को इसके पालन करने का उपदेश देते हैं, ( सम्मं ) तीन करण तीन योगों से इस की भली प्रकार से ( आराहियं ) अनुपालना करते हैं ( आणाए अणुपालियं भव) उन के द्वारा यह योग तीर्थकर प्रभु की आज्ञानुसार ही पालित होता माना जाता है । ( एवं ) इस प्रकार से ( णायमुणिणा भगवया) ज्ञातनामक प्रसिद्ध क्षत्रियवंश में उत्पन्न हुए मुनिराज भगवान महावीर ने ( पण्णवियं ) शिष्यों के लिये इस विषय का सामान्यरूप से समझाया है । ( परुवियं) बाद में भेद प्रभेद पूर्वक उसका कथन किया है । इसीलिये (पसिद्धे ) जिनवचन में यह प्रख्यात हुवा है अर्थात् जिनवचन के अनुसार ही आचार्य परंपरा से इसका पालन करना इसी रूप से चला आ रहा है। तथा ( सिद्धवरसासणमिणं ) भूतकाल में जितने भी सिद्ध हो चुके हैं उनका यह प्रधान आज्ञारूप शासन है । ( आघवियं) ऐसा भगवान् महावीर प्रभु मे यासन उरवाना अन्यने उपदेश आये छे. " सम्मं " शु शुभ योगोथीं 66 " तेनुं सारी रीते “ आराहिय " अनुपालन मेरे छे, “ आणाए अणुपालि भइ " તેમના દ્વારા આ યાગનું, તીથંકર પ્રભુની આજ્ઞા અનુસાર પાલન થાય છે शुभ मानवामां आवे छे. " " एवं " मारे " णायमुणिणा भगवया જ્ઞાત નામના પ્રસિદ્ધ ક્ષત્રિય વંશમાં ઉત્પન્ન થયેલ મુનિરાજ ભગવાન મહાવીરે “ पण्णविय' ” शिष्याने भाटे या विषय सामान्य ३ये समव्यो छे, " परूविय" त्यार माह लेह प्रलेह सहित तेनुं प्रथन ड्यु छे. तेथी “ पसिध्धे " निनवચનમાં તે પ્રખ્યાત થયેલ છે એટલે કે જિનવચન અનુસાર જ આચાર્ચ પર પરાથી તેનું આ રીતે પાલન કરવાનું ચાલ્યું આવે છે. તેથી सिद्धवरसासणमिणं " भूतप्राणमां भेटला सिद्धो यह गया छे तेभनुं या मुख्य भाज्ञा રૂપ શાસન છે. " आघविय " मेवु भगवान भडावीरे सर्व लावथी तेने For Private And Personal Use Only ܕ Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदशनीटीका अ० ३ सू०११ अध्ययनोपसंहारः ७६९ 'सुदेसियं ' सुदेशित-सदेवमनु नामुरायां पर्पदि सुष्ट्रपदिष्टम् ‘पसत्य' प्रशस्तंसर्वप्राणिहितकरत्वान्मङ्गलमयं तइयं संसदारं ' तृतीयं संवरद्वारं ' समत्तं' समाप्तम् । 'त्तिबेमि' इति ब्रवीमि । अस्यार्थः पूर्वमुक्तः ॥ मू. ११ ॥ इति श्रीविश्वविख्यात-जगदूवल्लभ-प्रसिद्धवावकपञ्चदशभाषाकलितललितकला पालापा-प्रविशुद्वगवगवनैकग्रन्थनिर्मापक-बादिमानमर्दक-श्रीशाहूछत्रप. तिकोल्हापुरराजमहत्त- जैनशास्त्राचार्य ' पदभूपित-कोल्हापुरराजगुरु-बालयमचारि-जैनाचार्य-जयमदिवाकरपूज्यश्री-घासीलालप्रतिविरचितायां दशमाङ्गस्य श्री प्रश्नव्याकरणसूत्रा र सुदर्शन्यास्थायां पाख्यायां संवरात्माके द्वितीयेभागेऽदत्तादान विरमणनामकं तृतीयं संवरद्वारं समाप्तम् ॥ सर्व भाव से इसके विषय में कहा है और (सुदेसियं ) देवों, मनुजों तथा असुरों से युक्त परिषदा में इसका उपदेश दिया है । ( पसत्यं ) सर्वप्राणीयों का हितकारक होने से मंगलमय है ( तइयं संवरदारं समत्तं ) यह तृतीय संवर द्वार समाप्त हुआ (त्ति बेमि ) ऐसा मैं कहता हूं। अर्थात् हे जंबू ! इस तृतीय संवर द्वार का जैसा कथन मैंने साक्षात् भगवान महावीर के मुख से सुना है वैसा ही मैंने तुम से कहा हैअपनी तरफ से इसमें मैंने कुछ भी मिश्रित नहीं किया है। भावार्थ---इस तृतीय संबर द्वार का उपसंहार करते हुए सूत्रकार समझा रहे है कि इन तीय मंबर द्वार का जो मुनिजन तीन करण तीनयोग से सुरक्षित की गई पांच भावनाओं से जीवन भर पालते हैंविषे युं छे भने 'सुदेसिब "व, मनुष्य भने असुथी युद्धत परिपामा तेन। ५३२हीयो छ “ पसत्थं " A प्रामानुं जितना२ पाथी ते भासमय छ, “ तइयं संबरदारसमत्तं " 24t तृतीय सव२६।२ समास थयु, त्तिबेमि” ई. मेटलो है ! म तृतीयस १२वारर्नु કથન જે પ્રમાણે સાકાત ભગ ન મહાવીરના મુખે સાંભળ્યું હતું તે જ પ્રમાણે તમને કહું છું–મારા તરફથી તેમાં કંઈ પણ ઉમેરવા આવ્યું નથી. ભાવાર્થ -- આ બીજા વરદ્વારને ઉપસંહાર કરતા સૂત્રકાર સમજાવે છે. કે આ ત્રીજા સંવરદ્વારનું જે મુનિજન ત્રણ કરણ ત્રણ રોગથી સુરક્ષિત કરવામાં આવેલ પાંચ ભાવનાઓ સહિત પાલન કરે છે તે પ્રમાણે પિતાની દરેક प्र९७ For Private And Personal Use Only Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७७० प्रश्नव्याकरणसूत्रे इसके अनुसार अपनी प्रत्येक प्रवृत्ति पर अंकुश रखते हैं उनके अशुभ अध्यवसाय रुक जाते हैं, नवीन कर्मों का उनको बंध नहीं होता है और संचित कर्मों की निर्जरा होती रहती है। पापों का स्रोत इसके प्रभावसे बंध हो जाता है। यह अपरित्राची आदि विशेषणांवाला है। त्रिकालवर्ती समस्त अरिहंत भगवंतोंने इसका पालन कियाई । उन्हां के अनुसार भगवान महावीर प्रभु ने भी इसका उन्हीं की मान्यतानुसार स्वरूपादि प्रदर्शन द्वारा कथन किया है। अपनी परिषदा में आये हुए समस्त जीवों को इसी प्रकार से इसका विवेचन किया है, अतः यह मंगलमय है इसे धारण कर प्रत्येक जीव को-समस्त संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त मनुष्यों को-अपना जन्म सफल बना लेना चाहिये। इस प्रकार जंबू स्वामी को इस तृतीय संवर द्वार के विषय में सुधर्मास्वामी ने समझाया है ॥ सू० ११ ॥ ॥ तृतीय संवरद्वार समाप्त ॥ પ્રવૃત્તિ પર અંકુશ મૂકે છે, તેમના અશુભ અયવસાય અટકી જાય છે, તેમને નવાં કર્મોને બંધ બંધાતું નથી, અને સચિત્ત કર્મોની નિર્જરા થતી રહે છે. તેના પ્રભાવથી પાપને સ્ત્રોત બંધ પડી જાય છે તે અપરિસ્ત્રાવી આદિ વિશેષણથી યુક્ત છે. ત્રિકાલવતી સમસ્ત અરિહરએ તેનું પાલન કરેલ છે. તેમના પ્રમાણે જ ભગવાન મહાવીરે તેનું તેમની માવંતા અનુસાર સ્વરૂપાદિ પ્રદર્શન દ્વારા કથન કર્યું છે. પિતાની પરિષદમાં આવેલ સમસ્ત છે સમીપ એ જ પ્રકારે તેનું વિવેચન કર્યું છે, તેથી તે મંગલમય છે. તેને ધારણ કરીને પ્રત્યેક જીવે–સમસ્ત પંચેન્દ્રિય પ્રર્યાપ્ત મનુએપિતાને જન્મ સફળ કરે જોઈએ. આ પ્રમાણે સુધર્મા સ્વામીએ જંબૂસવામીને આ ત્રીજા સંવરद्वार विष समन्तव्युछ. ॥ सू. ११ ॥ છે તૃતીય સંવરદ્વાર સમાપ્ત For Private And Personal Use Only Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ अथ चतुर्थ संवरद्वारं प्रारभ्यते ॥ व्याख्यातं तृतीयमदत्तादानविदमणनामकं संवरद्वारम् । अथ ब्रह्मचर्य नामकं क्रमप्राप्तं चतुर्थ संवरद्वारमभिधीयते । अस्य पूर्वेण सहायमभिसंवन्धः-पूर्वत्रादत्ता. दानविरमणमुक्तं' तच्च मैथुनविरमणमन्तरेण न संभवतीत्यनेन संबन्धेनायातमिदं चतुर्थ संवद्वारम् । तस्येदमादिमं सूत्रम्-'जंबू ' इत्यादि । मूलम्-जंबू ! एत्तो य बंभचेरं उत्तमतवनियमनाणदंसण. चरित्तसमंतविणयमूलं जम नियमगुणप्पहाणजुत्तं हिमवंतमहंततेयमंतं पसत्थगंभीरथिमियमञ्झं अजवसाहुजणाचरियं मोक्खग्गं विसुद्धसिद्धगइनिलयं सासयमव्वाबाहमपुणब्भवं पसत्थं सोम्मं सुहं सिवमचलमक्खयकरं जइवरसारक्खियं सुचरियं सुभासियं नवरि मुणिवरेहिं महापुरिसधीरसूरधम्भियधिइमंताण य सया विसुद्धं भवं भव्वजणाणुचरियं निस्संकियं निब्भयं नित्तुसं निरायासं निरुवलेवं निव्वुइघरं नियमनिप्पकंपं तव चतुर्थ संवर द्वार प्रारंभतृतीय अदत्तादान विरमण नामक संवरद्वार का व्याख्यान हो चुका, अब क्रम प्राप्त चतुर्थ ब्रह्मचर्य नामका संवरद्वार का व्याख्यान प्रारंभ किया जाता हैं। इसका पूर्व संवरद्वार के साथ इस प्रकार से संबंध है-जबतक मैथुन विरमण नहीं होगा तब तक तृतीय संवरद्वार की संभवता नहीं हो सकती, इसलिये उसके अनन्तर सूत्रकार अब इस चतुर्थ संवरद्वार को प्रारंभ कर रहे हैं। उसका यह सर्व प्रथम सूत्र है-'जंबू' इत्यादि । ચોથા સંવરદ્વારનો પ્રારંભ ત્રીજા અદત્તાદાન વિરમણ નામના સંવરદ્વારનું વર્ણન પૂરું થયું, હવે અનુક્રમે આવતા ચોથા બ્રહ્મચર્ય નામના સંવરદ્વારનું વર્ણન શરૂ કરવામાં આવે છે. તેને આગળના સંવરદ્વાર સાથે આ પ્રમાણે સંબંધ છે-જ્યાં સુધી મિથુન વિરમણ થાય નહીં ત્યાં સુધી ત્રીજું સંવરદ્વાર સંભવિત થઈ શકતું નથી, તેથી તેનું કથન કર્યા પછી હવે સૂત્રકાર આ ચેથા સંવરદ્વારની શરૂઆત रे छ. तेनुं सौथी ५७ सूत्र 20 प्रमाणे छ-" जंवू " त्या For Private And Personal Use Only Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ०७२ प्रश्नव्याकरणसूत्रे संजममूलदलियणिभं पंचमहव्वयसुरक्खियं समिइगुत्तिगुत्तं झाणवरकवाड सुकयरकखण मज्झष्पदिष्णफलिहं सन्नद्धवद्रोच्छइय दुग्गइपहं सुगइपहदेसगं च लोगुत्तमं च वयमिणं पउमसरतलागपालिभूयं महासगडअरगतुंबभूयं महाविडिमरुक्खक्खंधभूयं महानगरपागारकवाडफलिहभूयं रज्जुपिणोव्य इंदकेऊ त्रिसु गगुणसंपिषद्धं ॥ सू० १ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टीका - - ' जंबू' हे जम्बूः । एतो य' इत= अदत्तादानविरमणसंवरद्वारसमाप्त्यनन्तरं च 'बंभवेरं ' ब्रह्मचर्यं नाम चतुर्थं संवरद्वारमभिधीयते । तत्किं स्वरूपमित्याह-' उत्तमतवनियमनाणदंसणचरितविणयमूलं ' उत्तमतपोनियमज्ञानदर्शनचारित्रविनय मूलम् = तत्र उत्तमाः प्रधानाः ये तपो नियमज्ञानदर्शनचारित्रविनयाः तत्र - तपः = अनशनादिकं द्वादशविधम्, नियमा=अभिग्रहादयः, ज्ञानं पदार्थानां विशिष्ट रोधः, दर्शनम् = तचश्रद्धानरूपम्, चारित्रं = सावद्ययोगविरतिलक्षणम्, विनयः = अभ्युत्थानादिलक्षणः, एतेषां द्वन्द्वः तेषां मूलमिवमूलं कारणं यत्तत्तथोक्तम्, टीकार्थ -- (जंबू) हे जम्बू ! (एतो य) अदत्तादानविरमण नामक संवरद्वार की समाप्ति के अनन्तर अब मैं ( बंभचेरं) ब्रह्मचर्य नामक चतुर्थ संवर द्वार को कहता हूं । उसका स्वरूप इस प्रकार है - ( उत्तमतवनियमनादं सगचरितविणयमूलं ) अनशन आदि बारह प्रकार के उत्तमतपों का उत्तम अभिग्रह आदि रूप नियमों का, पदार्थों का विशिष्टबोध रूप उत्तमज्ञान का; पदार्थों का श्रद्धानरूप उत्तमदर्शन का सावद्ययोग विरतिरूप उत्तम चारित्र का, और अभ्युत्थान आदि रूप उत्तम विनय का, मूल की तरह यह ब्रह्मचर्य मूल कारण है, तथाटीडार्थ -- “ जंबू " डे ! एत्तो य અદ્યત્તાન વિરમણ નામના सबरद्वारनी सभाप्ति पछी हवे हु“ बंभचेर " श्रह्मर्य' नामना थोथा संव२દ્વારનું વર્ણન કરૂં. તેનું સ્વરૂપ આ પ્રમાણે છે. “ उत्तमतवनियमनाणदंसणचरित्त विणयमूलं " अनशन आदि मार प्रानां उत्तम तय, उत्तम अभिश्रद्ध आदि રૂપ નિયમેનુ, પાદાર્થોના વિશિષ્ટ ધરૂપ ઉત્તમ જ્ઞાનનું, પદાર્થોના શ્રદ્ધાન રૂપ ઉત્તમ દર્શીનનું સાવદ્યયેગ વિરતિરૂપ ઉત્તમ ચારિત્રનું, અને અભ્યુત્થાન આદિ રૂપ ઉત્તમ વિનયનું, મૂળની જેમ આ બ્રહ્મચ મૂળકારણ છે. તથા (( ܙܕ For Private And Personal Use Only Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ०४ सू० १ ब्रह्मचर्यस्वरूपनिरूपणम् ET तथा - 'जम नियमगुणप्पहाणजुत्तं ' यमनियमगुणप्रधानयुक्तम् तत्र - यमाः = प्राणाति पातविरमणादयः, नियमाः=अभिग्रहादयस्ते च ते गुणप्रधानाः = गुणमुख्या:-- गुणानां मध्ये यमा नियमाश्च सर्वतः श्रेष्ठ इत्यर्थः, तैयुक्तम्, तथा 'हिमवंतमहंततेयमतं ' हिमवन्महत्तेजस्वि = हिमवानिव = पर्वतविशेष इव मदद = विशालं तेजस्वि च यत्तत्तथोक्तं, अयं भावः - यथा हिमवान् सकलपर्वतापेक्षया महान तेजस्वी च वर्तते, तथैवेदं ब्रह्मच सकलवतापेक्षया विशालं तेजस्त्रिचेति । उक्तं च" व्रतानां ब्रह्मचर्यहि निर्दिष्टं गुरुकं व्रतम् । तज्जन्यपुण्यसंभार, संयोगाद् गुरु रुच्यते || १ ||" इति । } , तथा -- ' पसत्थगंभीरथिमियमज्यं प्रशस्तगंभीर स्तिमितमध्ये प्रशस्तं शुभं गम्भीरम् = अगाधम् स्तिमितं- स्थिरं च मध्यम् - अन्तः करणं यस्मिन् सति तत्तथो(जमनियम गुणप्पहागजुत्तं ) यह प्राणातिपात विरमण आदि यमों से एवं अभिग्रह आदि नियमों से कि जो समस्तगुणों में श्रेष्ठ माने गये हैं युक्त है, तथा (हिमवंत महंततेयमतं ) जो हिमवान् पर्वत की तरह विशाल और तेजस्वी है, अर्थात् जिस प्रकार हिमवान् पर्वत सकल पर्वतों की अपेक्षा महान और तेजस्वी माना जाता है, उसी प्रकार यह ब्रह्मचर्य व्रत भी सकलवतों की अपेक्षा विशाल तेजस्वी व्रत माना गया है। कहा भी है " व्रतानां ब्रह्मचर्यं हि निर्दिष्टं गुरुकं व्रतम् । तज्जन्य पुण्यसंभार, संयोगाद् गुरुरुच्यते ॥ १ ॥ व्रत में सब से बड़ा व्रत ब्रह्मचर्य है । क्यों कि ब्रह्मचर्य के पालन करने से जो पुण्यसमूह प्राप्त होता है उसी के संबंध से गुरु माना जाता है । अर्थात् - इसी ब्रह्मचर्य का पालक ही सच्चा गुरु कहलाता है । तथा - (पसत्यगंभीरथिमियमज्झ ) इस ब्रह्मचर्य के सद्भाव से पालन 66 (( जमनियम गुण पहाणजुत्त" प्राणातिपात विरभम् आहि यमोथी भने अलिગ્રહ આદિ નિયમે માંથી, કે જે સર્વ ગુણામાં શ્રેષ્ટ મનાય છે. યુક્ત છે. તથા हिमवंतमहंत मंत ” જે હિમાલય પર્વતની જેમ વિશાળ અને તેજસ્વી છે, એટલે કે જેમ હિમાલય પર્યંત સઘળા પતા કરતાં મહાન અને તેજસ્વી મનાય છે તેમ આ બ્રહ્મચર્ય વ્રતને પણ સઘળાં વ્રતાના કરતાં વિશાળ તેજસ્વી વ્રત માનવામાં આવે છે. કહ્યું પણ છે— (6 aarai ब्रह्मचर्यं हि निर्दिष्टं गुरुकं व्रतम् । तज्जन्यपुण्यसंभार, - संयोगाद् गुरुरुच्यते ॥ १ ॥ વ્રતામાં સૌથી માટું વ્રત બ્રહ્મચય છે. કારણ કે બ્રહ્મચર્યના પાલનથી જે પુન્ય સમૂહ પ્રાપ્ત થાય છે—તેના કારણે તેને ગુરુ મનાય છે. એટલે કે આ બ્રહ્મચર્યના પાલક જ સાચા ગુરુ કહેવાય છે. તથા " पसत्थगंभीरथि - For Private And Personal Use Only Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७४ प्रशव्याकरणसूत्रे क्तम् , ब्रह्मचारिणोऽन्तःकरणं प्रशस्ततागाम्भीर्यस्थैर्ययुक्तं भवतीति भावः । तथा - ' अज्जवसाहुजणाचरिय' आर्जवसाधुजनाचरितम्-आर्जवेन्सरलभावे संलग्ना ये साधुजनास्तैराचरितम् । तथा ' मोक्खमग्गे ' मोक्षमार्गः-मोक्षस्थानप्रापक इत्ययः तथा 'विसुद्धसिद्धिगइनिलये ' विशुद्धसिद्धगतिनिलयः विशुद्धा रागादिदोपवजितत्वान्निर्मलाया सिद्धिः कृतकृत्यता, सैव गम्यमानत्शन गतिस्तस्या निलयोगृहम् सिद्धिगतिप्रापकत्वात्सिद्धिस्थानमित्यर्थः, तथा 'सासयं ' शाश्वत साद्यपर्यवसितशिवसुःवजनकत्वात् , ' अव्वाबाहं ' अव्यावाधं शारीरिकमानसिकदुः खवर्जितत्वात् 'अपुणब्भवं' अपुनर्भवम्=पुनर्जन्मप्रतिरोधकत्वात् , ' पसत्थं' प्रशस्तम्-निर्मलत्वात् , तथा- सौम्भं ' सौम्यम्--सकलजनमनोमोदजनकत्वात् , कर्ता का अंतःकरण शुभ, गंभीर-अगाध, एवं स्थिर हो जाता है । तथा ( अजवसाहुजगाचरियं ) यह ब्रह्मचर्य, आर्जव में-सरल भाव में-संलग्न बने हुए साधुजनों के द्वारा आचरित किया जाता है । तथा-(मोक्ख मग्गे ) यह ब्रह्मचर्य अपने पालनकर्ता को मोक्ष स्थान की प्राप्ति कराने वाला होता है तथा ( विलुद्धसिद्धिगइ निलये ) यह ब्रह्मचर्य विशुद्धरागादि दोषों से वर्जित होने के कारण निर्मल-जो कुतकृत्यता रूप गति है उसका घर है-सिद्धि गति का प्रापक होने से सिद्धि का स्थान है तथा (सासयं) साद्यपर्यवसित शिव सुख का जनक होने से यह ब्रह्मचर्य शाश्वत है ( अब्वायाहं ) शारीरिक एवं मानसिक दुःखों से रहित होने के कारण यह ब्रह्मचर्य अव्यायाध-बाधा से रहित है। ( अपुणन्भवं । इसके प्रभाव से संसार में जीव का पुनर्जन्म नहीं होता, उसका यह प्रतिरोधक है इसलिये यह अपुनर्भवरूप है । (पलत्थं निर्मल मियमज्झ" ते ब्रह्मययन! पासनथी तेनुं पासन ४२ना२नुं मत:४२९१ शुल, आली२, माध, मने स्थिर नय छे. तया "अज्जवसाहुजण चरियं" આ બ્રહ્મચર્ય, આર્જવ, સરલ ભાવમાં લીન થયેલ સાધુજને દ્વારા આચરવામાં भाव छ. तथा “ मोक्खमग्गे" ! ब्रह्मय, तेनुं पासन ४२नारने मोक्षनी प्राति १२ ।य छ. तथा “ विसुद्धसिद्धिगइनिलये " २al प्रायः विशुद्ध રાગાદિ દેથી રહિત હોવાને લીધે નિર્મળ-કે કૃતકૃત્યતા રૂપ ગતિ છે તેનું ५२ -सिद्धिगति प्रात ४२२वाना२ पाथी सिद्वनुं स्थान थे, तथा “ सासयं" आयमी शिव सुमनु न पायी २ प्रययं यत छ “ अब्बावाह" શારીરિક અને માનસિક દુઃખોથી રહિત હોવાને કારણે આ બ્રહ્મચર્ય અવ્યાमाघ-माधाथी २डित छ, “ अपुणब्भय" तेना प्रमाथी संसारमा वने પુનર્જન્મ લે પડતો નથી. તેનું તે પ્રતિરોધક છે તેથી તે અપુનર્ભવરૂપ છે. For Private And Personal Use Only Page #824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० ४ सू० १ ब्रह्मचर्यस्वरूपनिरूपणम् तथा-' सुहं ' सुख-सुखस्वरूपत्वात् , 'सिवं' शिवम् निरुपद्रवत्वात् , तथा' अयलं ' अचलम्-स्पन्दनादिवनितत्वात् , तथा — अक्खयकरं ' अक्षयकरम् अक्षयो मोक्षस्तत्करम् भववीजाङ्घराजननात् , तथा-' जइवरसारक्खियं ' यतिवरसंरक्षितम्-यतिवरैः= मुनिप्रधानैः तीर्थङ्करगणधरादिभिः संरक्षितं परिपालितम् , तथा ' सुचरियं ' मुचरितम्-शोभनानुष्ठानम् , तथा-' मुणिवरेहिं ' मुनिवरैःतीर्थंकरादिभिः 'नयरि ' केवलं 'मुभासियं ' सुभाषितं सुष्ठु प्रतिपादितम् , च =पुनः-इदं ब्रह्मचर्य ' महापुरिसवीरमरधम्मियधिमंताण ' महापुरुषधीर शूरधामिकधृतिमताम्-महापुरुषाः=पुरुपश्रेष्ठाः, धीरशूराः-धीराणां मध्ये शूराः अत्यन्तसाहससंपन्नाः, धार्मिकाः धर्मपरायणाः, धृतिमन्तो-धैर्यवन्तः, एषां कर्मधारयः, तेषां तथोक्तानाम् ‘सया' सदा-कुमारादिसर्वावस्थासु ' सुविसुद्धं ' मु. होने से यह प्रशस्त है । ( सोम्म ) समस्त मनुष्यों के मन को प्रफुल्लित करने वाला होने से यह सौम्य है । ( सुहं ) सुखस्वरूप होने से यह एक सुख है । (सिवमयलमक्खयकरं ) उपद्रव रहित होने से यह शिवरूप है । स्पन्दनादि क्रिया से वर्जित होने के कारण यह अचल है। भवरूप बीज के अंकुरका उत्पादक नहीं होने से अक्षय-मोक्ष का कारक है अतः यह अक्षयकर है- (जइवरसारक्खियं ) मुनिप्रधान-तीर्थकर एवं गणधर आदि देवों द्वारा पाला गया होने से यह गतिवर संरक्षित है । ( सुचरियं ) शोभन आचार रूप होने से यह सुचरित है । ( नपरि मुनिवरेहिं सुभासियं ) केवल मुनिवरों-तीर्थंकरों द्वारा ही यह अच्छी तरह से प्रतिपादिन्द किया गया है। तथा यह ब्रह्मचर्य ) महापुरिसधीर-सूर- धम्मिय-धिइमंताण य सया विसुद्धं ) महापुरुषों का, धीरों के “ पसत्य" नि पाथी ते प्रशस्त छ. “ सोम्म ” सभ२त. मनुष्यामा भनने प्रदित ४२न॥२ पाथी ते सौम्य छे. “ सुह" सुम३५३५ हापाथी ते मे सु . “सिवमयलमक्खयकर" ५। २डित हवाथी ते शिवરૂપ છે સ્પન્દનાદિ ક્રિયાથી રહિત હોવાથી તે અચળ છે. ભવરૂપ બીજના અંકુરનું ઉત્પાદક નહીં હોવાથી તે અક્ષય-મેક્ષકારક છે, તેથી તે અક્ષયકર "जइवरसारक्खिय” भुनिप्रधान-तीय ४२ भने गधरे। माह हो द्वारा जायेस पाथी ते यतिव२ स२क्षित छ. “ सुचरिय" सुदृ२ माया२३५ ते सुयरित छ. “ नवरिं मुनिवरेहिं सुभासिय” व मुनिपश-तीय। ६।२।४ तेनुं सारी राते प्रतिपादन रायुछे तथा “ महापुरिस-धीर-सूरभम्मिय-धिइमंताण य सया विसुद्ध' " महापुरुषो, धीशनी १२ये ५५ धीर For Private And Personal Use Only Page #825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७७६- - प्रश्नव्याकरणसूत्रे विशुद्ध-निर्दोषम् , एषामेव ब्रह्मचर्य तिदोषं भवतीति भावः, तथा-' भव्वं भन्यं कल्याणरूपम् , ' भव्यजणाणुचरियं' भव्यजनालुचरितम् भव्यजनसमारीधितम् , तथा- निस्संकियं ' निःशङ्कितं, ब्रह्मचारी हि विषयस्पृहाशून्यत्वाजनानां मध्ये निःशङ्कनीयो भवतीति ब्रह्मचर्यमपि निश्शङ्कितम् , तथा — निब्भयं' निर्भय, ब्रह्मचारिणो हि निर्भया भवन्ति, निर्भयताकारणत्वात् ब्रह्मचर्यमपि निर्भयम् तथा-'नित्तुपं ' निस्तुषं-विशुद्धमित्यर्थः, यथा-तुपनिर्गतं तण्डुलं शुभं भवति भी बीच में धीर कहे जाने वाले शूरों का अत्यंत साहससंपन्न व्यक्तियों के, धार्मिक पुरुषों के, और धैर्यशाली पुरुषों को यह सदा-कुमार आदि अवस्थाओं में भी सुविशुद्ध-निर्दोष रहता है। (भचं) यह ब्रह्मचर्य कल्याणरूप है । ( भन्यजणाणुचरियं ) भव्यपुरुषों द्वारा यह आराधित कियो हुआ है । ( निस्संकियं) यह ब्रह्मचर्य निश्शंकित होता है । क्यों कि ब्रह्मचारी विषयलालसा से शून्य होने के कारण मनुष्यों के भीतर किसी भी तरह से शंकास्पद नही होता है अतः यह प्रभाव उसके ब्रह्मचर्य का ही है इसीलिये यहां पर सूत्रकार ने निशंकित वृत्ति का कारण होने से ब्रह्मचर्य को भी निश्शंकित कहा है। इसी तरह यह ब्रह्मचर्य (निभयं ) निर्भय होता है। क्यों कि ब्रह्मचर्य को पालन करने वाले पुरुष रत्न सर्वत्र निर्भय रहा करते हैं, अतः निर्भयता का कारण होने से ब्रह्मचर्य को निर्भय विशेषण से सूत्रकार ने विशिष्ट किया है । तथा यह ब्रह्मचर्य (नित्तुस ) निस्तुष है-तुषविहीन तण्डुल जिस प्रकार शुभ्र होता है उसी प्रकार यह ब्रह्मचर्य भी विषय लालसा તરીકે ઓળખાતા શ્રેરે, અત્યંત સાહસયુક્ત વ્યક્તિઓ, ધાર્મિક પુરુ, અને બૈર્યશાળી પુરુષને તે સદા કુમાર આદિ અવસ્થાઓમાં પણ સુવિશુદ્ધ નિર્દોષ २ छ. “ भव्य " 24! प्रहाय त्या३५ छे. " भव्वजणाणुचरिय" भव्य पुरुषो ।२॥ तेनुं १२॥धन. थाय छे " निस्संकिय” २मा ब्रह्माययनित હોય છે, કારણ કે બ્રહ્મચારી વિષય લાલસા રહિત હોવાથી મનુષ્યમાં કોઈ પણ પ્રકારે શંકાને પાત્ર થતો નથી. આ તેના બ્રહ્મચર્યને જ પ્રભાવ હેવાથી અહીં સૂત્રકારે નિશક્તિ વૃત્તિનું કારણ હોવાથી બ્રહ્મચર્યને પણ નિશક્તિ छा है. मे प्रमाणे मा प्रायः “ निम्भय'" निमय काय छे. ४।२६५ है બ્રદાચર્યનું પાલન કરનાર પુરુષે સર્વત્ર નિર્ભય રહી શકે છે. તેથી નિર્ભયતાનું કારણ હોવાથી બ્રહ્મચર્યનું સૂત્રકારે નિર્ભય વિશેષણ લગાડ્યું છે. તથા मा प्राय " नित्तुसं" निस्तुप-तुप विडीन (त। विनाना) या જેમ શુભ્ર હોય છે તેમ આ બ્રહ્મચર્ય પણ વિષય લાલસા રૂપી તુષ વિહીન For Private And Personal Use Only Page #826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सुदर्शिनी टीका अ०४ सू०१ ब्रह्मचर्य स्वरूपनिरूपणम् ७७७ तथवेदं ब्रह्मचर्यम शुभ्रमिति भावः तथा-' निरायासं निरायासं= से हाजनकम्, 'निरुवलेवं ' निरुपलेपम् - विषयस्नेहवर्जितम् तथा ' निव्बुड़घरं ' नि " ईति गृहम् = निवृतेः = चित्तसमावेः गृहं स्थानम्, 'नियम निष्पकं नियमनिष्प्र कम्पं नियमेन निश्चयेन, निष्प्रकम्पं अविचलम् - निरतिचारत्यात्, तथा ' तव - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only " - रूप तुप से विहीन होने के कारण बिलकुल शुभ्र - पवित्र है । (निरायासं) इसके पालन करने से किसी भी प्रकार का पालनकर्त्ता को आयासअर्थात् कष्ट नहीं उठाना पड़ता है इसलिये खेद का अजनक होने से यह निरायासरूप है | ( निरुवलेवं ) वैषयिक पदार्थों को ओर ब्रह्मचारी के जिस में थोड़ा सा भी स्नेह - रागभाव नहीं होता है, अतः विषय स्नेहवर्जित होने से यह ब्रह्मचर्य निरुपलेप है । ( निव्यु ३ घरं ) ब्रह्मचारी के हि चित्त की स्वस्थता रहती है, क्यों कि विषयों की ओर उसकी लालसा नहीं जाती हैं, अतः उस संबंध को लेकर उसके चित्त में असमाधिरूप आकुल व्याकुल परिणति नहीं रहती है इसलिये यह ब्रह्मचर्य चित्तसमाधि का एक घर है । (नियमनिप्पकंप) अतिचारों से विहीन होने के कारण यह ब्रह्मचर्य नियम से निश्चय से निष्प्रकम्प - अविचलित होता है। तात्पर्य यह है कि गृहस्थों के ब्रह्मचर्य व्रत में अतिचार लग सकने के कारण उनका वह ब्रह्मचर्य विचलित नहीं होता है परन्तु सकल संयमी जनों का ब्रह्मचर्य अतिचारों से विहीन होता है, इसलिये यह यहां अविचलित कहा गया है । (तवसंजमहोवाथी तहन शुभ पवित्र छे. " निरायास " तेनु पावन उवाथी पासन કર્તાને કોઇ પણ પ્રકારને આયાસ-ખેદ એટલે કે કષ્ટ ઉઠાવવા પતું નથી तेथी हनन होवाने अराशे ते निरायास३५ छे." निरुवलेवं " वैषयि પદાર્થોની તરફ બ્રહ્મચારીના ચિત્તમાં જરી પણ સ્નેહ-રાગભાવ થતા નથી, तेथी विषयस्नेह रहित होवाथी प्रायर्यंने निरुपयेय छे. " निब्बुइघर' બ્રહ્મચારીના ચિત્તની સ્વસ્થતા રહે છે, કારણ વિષયાની પ્રત્યે તેને લાલસા થતી નથી. તે સ ંબંધને લીધે તેના ચિત્તમાં અસમાધિરૂપ આકુળ વ્યાકુળતાના રૂપ પરિણિત રહેતી નથી. તેથી આ બ્રહ્મચર્ય ચિત્ત સમાધિનું એક ઘર છે, “ नियम निष्पकंप " मतियारोथी :डित होवाने अरोमा ब्रह्मर्य व्यवश्य નિશ્પકમ્પ-અવિચલિત હોય છે તેનુ તાત્પર્ય એ છે કે ગૃહસ્થાના પ્રાચ વ્રતમાં અતિચાર લાગી શકે છે તે કારણે તેમનું બ્રહ્મચર્ય અવિચલિત હતું નથી, પશુ સકળ સ’યમીજનાનું બ્રહ્મચય અતિચારોથી રહિત હોય છે, તે प्र० ९८ " Page #827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७७८ प्रश्नव्याकरणसूत्रे संजममूलदलियणिभं' तपः-संयममलदलिकनिभमतपः संयमयोः मूलदलिकंमूलद्रव्यम्-मूलधनमित्यर्थः, तस्य निभं सदृशं यत्तत्तथा, तथा--- पंचमहव्वयमुरक्खियं ' पञ्चमहाव्रतसुरक्षितं पञ्चमहावतानां मध्यस्थितत्वेन सुष्टुरक्षितमिव यत्ततथोक्तम् , तथा ' समिइगुत्तिगुतं' समितिगुप्तिगुप्तम्-समितिभिः ईयर्यासमित्यादिभिः, गुप्तिभिः मनोगुप्त्यादिभिश्च गुप्तम्-रक्षितम् , तथा-'झाणवरकगर कयरक्खणं' ध्यानवरमेव-धर्मध्यानमेव कपाटम्-तेन सुष्ठ-शोभनतया कृतं रक्षणं यस्य तत् , तथा-' अज्झप्पदिणफलिहं' अध्यात्मदत्तपरिघम् अध्यात्ममेव सद्भावएव कपाटदृढीकरणाथै दत्तः परिधः-अर्गला रक्षायें यस्य तत् , तथा-'संनद्धबदोच्छइयदुग्गइपहं । संनद्धवद्धावच्छादितगतिपथम्-संनदोबद्धआन्छादितश्च अर्थात् सर्वतो निरुद्रो दुर्गतिपयो दुर्गतिमार्गों येन तत्तथोक्तम् , तथा-' मुगइपमूलदलियणिभं ) तप और संयम का यह ब्रभवयं मूल धन जैसा है। (पंचमहव्वयसुरक्खियं ) जिस प्रकार पांच गुरुयों के बीच में रहा हुआ पुरुष सुरक्षित रहता है उसी प्रकार यह ब्रह्मवर्थ भी पांच महावतों के याच में स्थित होने के कारण सुरक्षित के जैसा है। (समिगृत्तिगुत्त) ईर्यासमिति आदि पांच समितियों से एवं मनोगुप्ति आदि तीन गुप्तियों से भी इसकी मदा रक्षा होती रहती है इसलिये यह समिति और गुप्तियों से भी गुप्त-सुरक्षिन कहा गया है। तथा (झाणवरकवाड सुकयरखणं ) इसकी रक्षा सदा धर्मधान रूप मजबूत किवाड़ों से भी बहुत अच्छी तरह होती रहती है (अज्झांदणगफलिहं इसकी रक्षा के निमित्त इन किवाडों में मजबूती लाने वाला अर्गला जैसा अध्यात्म-सद्भाव वहां काम करता है। (सनाबद्धोच्छइयदुग्गइपहं ) यह ब्रह्मचर्य अपने पालक के दुर्गतिमार्ग को सर्वथा रोक देता है, (सुगइ४।२४ तेने मी अपियसित शव्यु छ. “ तबसंजममूलदलियणिभं” त५ मने सयममा ब्रह्मयर्थः भूगधन समान छ. "चमहब्वयसुरक्खियं" જે રીતે પાંચ પુરુષેની વચ્ચે રહેતે પુરુષ સુરક્ષિત રહે છે, તે જ પ્રમાણે मा प्रभय ५४ पांय महाप्रतानी पश्ये २हेत वाया सुरक्षित छ. “ समिइगुत्तिगुत्तं "झा ध्यो समिति मावि पाय समितिमाथी बने भनेःशुति माह ત્રણ ગુપ્તિથી પણ તેનું સદા રક્ષણ થતું રહે છે, તે કારણે તે સમિતિ અને गुलियोथी या गुत-सुरक्षित वायुछे. तथा " झाणवर कवाडसुक्य रक्खणं " તેનું રક્ષણ હંશા ધયે ધ્યાનરૂપી મજબૂત કમાડેથી પણ ઘણું સારી રીતે शते थया ४२ छे “ अण्झप्पदिण्णफलिहं" तेनी २क्षाने निमत्त ते मामा મજબૂતી લાવનાર આગળીયા જેવું અધ્યાત્મ-સાવ ત્યાં કામ આપે છે. " सन्नद्धबद्धोच्छइयदुनाइपहं” मा प्राय तेनु सेवन ४२नारन गतिमाने For Private And Personal Use Only Page #828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टोका अ०४ सू० १ 'विनय' ब्रह्मचर्य' स्वरूपनिरूपणम् ७ঙé - हदेसगं च ' सुगतिपथदेशकं च सुगते : = स्वर्गापवर्गस्य पन्थाः - सुगतिपथस्तस्य देशकं दर्शक यत्तत् तथा-' लोगुत्तमं च ' लोकोत्तमं च लोकत्रयश्रेष्ठश्च 'वयमिर्ण' व्रतमिदम् इदं ब्रह्मचर्यरूपं व्रतं 'पउमसरतलागपालियभूयं' पद्मसरस्तडागपालिभूतम् -पद्मप्रधानः सरस्तडागः-पद्मसरस्तडागः, पद्मसरस्तडागइव सुखदत्वेन प्रमोदकत्वेन इरत्वेन च समुपादेयत्वाद् धर्मोऽपि पद्मसरस्तडागः, तस्य पालिभूतंरक्षकत्वेन पालिकल्पं यत्तत्, तथा महासगड अगर तुंबभूयं महाशकटारकतुम्बभूतम् -महाशकटस्य=अरका इव-अराइव अरकाः क्षान्तादयोगुणास्तेषां तुम्बभूतम्, आधार भूतम् तथा - 'महाविडिमरुवकसंघभूयं महाविटपवृक्षस्कन्धभूतम् - महान्तो विटपाः शाखा 3 पदेसगं च ) और उसे स्वर्ग और अपवर्गरूप सुगति के मार्ग को दिख लाता रहता है । इसीलिये ( वयमिणं ) यह व्रत (लोगुत्तमं च ) लोक य में श्रेष्ठ है । तथा यह व्रत ( पउमसरतलाम पालिभूयं ) पद्मप्रधान सरोवर और तडाग की पालि जैसा है, अर्थात् सुखद होने के कारण, प्रमोद कारक होने के कारण, और मन को हरण करने वाला होने के कारण जैसे पद्मप्रधान सरोवर और तडाग समुपादेय होते हैं उसी प्रकार सुखदाता प्रमोदक और मनोहर होने के नाते धर्म भी समुपादेय होता है अतः धर्म भी पद्मप्रधान सरोवर और तडाग जैसा है । उस धर्म रूप सरोवर और तडाग का यह रक्षक होने के कारण पालि-पाल जैसा है। तथा ( महासगडअरगतुंषभूर्य) महाशकट के आरों के समान क्षान्त्यादिक गुणों का यह तुम्बभूत आधारभूत है। तथा (महामिभूयं ) महाशाखा शाली वृक्ष के समान आश्रितों सतर शेठी हे छे. “सुगइपदेसगंच" अने तेने स्वर्ग भने अपर्णा ३५ सुगतिना भार्ग दर्शाव रहे छे. तेथी "वयमिणं " यावत “ लोगुत्तमंच "त्र सोभां श्रेष्ठ छे. तथा मा मत " पउमसरतला गपालिभूयं " उभणोथी युक्त सरोवर અને તળાવની પાળ જેવુ છે. એટલે કે સુખદ હાવાને કારણે, પ્રમેાદ્યકારક હાવાને કારણે, અને મનેહુર હાવાતે કારણે જેમ પદ્મપ્રધાન સરોવર અને તળાવ સમુપાદેય હોય છે તે જ પ્રકાર સુખદાતા, પ્રમેક અને મનહર હાવાને કારણે ધમ પણ સમુપાદેય હાય છે. તેથી ધમ પદ્મયુક્ત સરોવર અને તળાવ જેવા છે. તે ધરૂપ સરોવર અને તળાવનું તે (બ્રહ્મચર્ય રક્ષક होवाथी पानेवु छे. तथा “ महासगडअरगतुंबभूयं " महा शउट-गाडा-नी ધરીના સમાન ક્ષાન્ત્યાદિ ગુણ્ણાનુ' તે તુમ્મભૂત છે. તથા महाविमरुवखक्खंधभूयं ” भड्डा शाभावाणा वृक्षनी प्रेम माश्रितोनु परभ सुमारी होवाथी 66 For Private And Personal Use Only Page #829 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ornaणसूत्रे यस्य स महाविटपः, स चासौ वृक्ष आश्रितानां परमोपकारकत्वसाधर्म्याद धर्मस्तस्य स्कन्धभूतं यत्तत्तथोक्तम्, अयं भावः यथा-स्कन्धोवृक्षशाखाऽऽधारभूतस्तथैवब्रह्मच धर्मशाखाssधारभूतम् । तथा महानगरपागारकवाडफलिहभूयं ' महानगरप्राकारकपाटपरिघभूतम्-प्रदानगरभित्र महानगरं विविधसुखहेतु साधर्म्याद धर्मः, तस्य रक्षकत्वात् प्राकाररूपं, कपाटरूपं परिघभूतम् = अर्गलारूपम्, यत्तत्तथोक्तम् तथा - ' रज्जुपिणोव्त्र इंदकेऊ ' रज्जुपिनद्धइव इन्द्रकेतु: - यथा - रज्जुबद्धहन्द्रध्वजो महोत्सवे सर्वोपरि वर्तमानः परमशोभां जनयति तथैवेदं सर्वव्रतश्रेष्ठं ब्रह्मचर्यम् । तथा-' त्रिसुद्धणेगगुणसंपिणद्धं = विशुद्धानेकगुणसंपनद्धं विशुद्धा as कगुणास्तैः संपिनद्धं संग्रथितमिदं ब्रह्मचर्यमस्ति ।। सू० १ ॥ , का परम उपकारी होने से धर्म का यह स्कंध जैसा है । अर्थात् जिस प्रकार स्कंध वृक्ष की शाखाओं का आधारभूत होता है उसी प्रकार यह ब्रह्मचर्य भी धर्म की शाखाओं का आधारभूत है। तथा ( महानगर पागारकवाड फलिहभूयं ) महानगर के समान विविध सुखों का हेतुभूत होने के कारण धर्मरूप नगर का यह रक्षक होने से प्राकार जैसा, कपाट जैसा और अर्गला जैसा है। तथा ( रज्जुपिणोव्यइंदकेऊ ) जिस प्रकार रज्जु बद्ध इन्द्रध्वज महोत्सव में सर्वोपरि वर्तमान होता हुआ परम शोभा को विस्तारता है उसी तरह यह ब्रह्मर्यव्रत भी सर्वव्रतों में श्रेष्ठ है और परम शोभा का जनक होता है । तथा (विशुद्धगगुणसंपिण) विशुद्ध अनेक गुणों से यह ब्रह्मचर्य अच्छी रीति से ( संपिषद्धं ) ग्रथित-युक्त है । 66 તે ધર્મના સ્કધ જેવુ' છે. એટલે કે જેમ થડ વૃક્ષની શાખાઓને માટે આધાર રૂપ હોય છે એ જ પ્રકારે બ્રહ્મચર્ય પણ ધર્મની શાખાઓના આધાર ३५ छे. तथा महानगर पागार कवाड फलिहभूय " महानगरना समान विविध સુખાનું હતુભૂત હોવાને કારણે ધર્મનગરનું તે રક્ષક હોવાના પ્રાકાર જેવું, जाट मेवु भने भसा नेवु छे तथा “रज्जुपिणोव्वईदकेऊ” प्रेम २००० ( દોરડુ') અખ્ત ઇંદ્રિધ્વજ મહાત્સવમાં સર્વોપરિ દેખાતા પરમ શેશભાને વિસ્તાર છે તે જ પ્રમાણે આ બ્રહ્મચર્ય વ્રત પણ સવવ્રતામાં શ્રેષ્ઠ છે અને પરમ शोलानु भन होय छे तथा " विसुद्धणेगुगुणसंपिणद्ध " विशुद्ध मने शुशोथी या ब्रह्मर्य सारी रीते “ संपिणद्धं " श्रथित-युक्त छे. For Private And Personal Use Only Page #830 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - - सुदर्शिनी टीका अ0 ४ सू० २ ब्रह्मचर्य स्वरूपनिरूपणम् पुनरपि ब्रह्मचर्यमाहात्म्यमाह-'जम्मिय भग्गे ' इत्यादि। मूलम्-जम्मि य भग्गे होइ सहसा सव्वं सेभग्गमहियचुपिणयकुसल्लियपल्लहपडिय-खंडियपरिसडियविणासियं विणयसोलतवनियमगुणसमूहं तं बंभं भगवंतं गहगणणक्खत्ततारगाणं घ जहा उडुबई मणिमुत्तसिलप्पवालरत्तरयणागरणं च जहा समुद्दो, वेरुलिओ चेव जहा मणीणं, जह मउडो चेव भूसणाणं वस्थाणं चेव क्खोमजुयलं अरविंदं चेव पुप्फजेंद्र गोसीसं चेव चंदणाणं हिमवंतो चेव ओसहीणं सीतोदा चेव निन्नगाणं उदहीसु जहा सयंभूरमणोख्यगवरो चेव मंडलिगपव्वयाणपवरे भावार्थ-इस सूत्र द्वारा सूत्रकार चतुर्थ संवरद्वार का विवेचन कर रहे हैं । इसमें नौ कोटि से अब्रह्म का पूर्ण त्याग हो जाता है, इसलिये यह ब्रह्मचर्य महाव्रत कहलाता है । व्रत का तात्पर्य यही है कि दोषों को समझ कर उनके त्याग का नियम करने के बाद फिर से उनका सेवन नहीं करना । ब्रह्मचर्य व्रत को परिपालन करने के लिये अतिशय उपकारक कितने ही गुण हैं, जैसे आकर्षक स्पर्श, रस, गंध, रूप, शब्द और शरीरसंस्कार आदि में न फंसना, त्रुटियों को हटाने के लिये ज्ञानादि सद्गुणों का अभ्यास करना, एवं गुरुकी आधीनता के लिये गुरुकुल में वास करना । इस सूत्र में इसी ब्रह्मचर्य महावत के गुण गौरव का व्याख्यान सूत्रकार ने किया है । सू० १ ॥ ભાવાર્થ–આ સૂત્ર દ્વારા સૂત્રકાર ચોથા સંવરદ્વારનું વિવેચન કરે છે. તેમાં નવ પ્રકારે અબ્રહ્મને સંપૂર્ણ ત્યાગ થઈ જાય છે. તેથી તે બ્રહ્મચર્ય મહાઘત કહેવાય છે. વ્રતનું તાત્પર્ય એ છે કે દેને સમજીને તેમના ત્યાગને નિયમ કર્યા પછી ફરીથી તેનું સેવન ન કરવું. બ્રહ્મચર્ય વ્રતનું પરિપાલન કરવાને માટે અતિશય ઉપકારક કેટલાક ગુણો છે, જેમાં કે આકર્ષક સ્પર્શ, રસ, ગંધ, રૂપ શબ્દ અને શરીર સંસ્કાર આદિમાં ફસાવું નહીં, ત્રુટિને દૂર કરવા માટે જ્ઞાનાદિ સદ્દગુણેને અભ્યાસ કરવો, અને ગુરુની આધીનતાના સેવનને માટે ગુરુકુલમાં વાસ કરે. આ સૂત્રમાં એ જ બ્રહ્મચર્ય મહાવ્રતના ગુણ ગૌરવનું વર્ણન સૂત્રકારે કર્યું છે. ૧ For Private And Personal Use Only Page #831 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्र एरावण इवकुंजराणं सीहो जहा लिगाण पवरो सुपन्नगाणं च वेणुदेव धरण जहा पण्णग इंदराया कप्पाणं चेव बंभलोए, सभासु य जहा भवे सुहम्मा ठिईसु लवसत्तमव्यपवरा दाणाणं चेव अभओ दाणं किमिराओ चेव कंबलाणं संघयणे घेव बजरिसभे संठाणे चेव समचउरसे झाणेसु य परं सुक्कन्झाणं नाणेसु य परमकेवलं तु सिद्धं लेसासु य परमसुक्कलेसा तित्थकरो चेव जहा मुणीणं वासेसु जहा विदेहे गिरिराया चेव मंदरवरे वणेसु जहा गंदणवणं पवरं दुमेसु जहा जंबू सुदंसणा वीस्सुयजसा जीयानामेणं अयं दीयो, तुरगवई गयवई रहवई नरवई जह वीसुए चेव राया रहिए चेव जहा महारहगए एवमणेगगुणा अहीणा भवंति एगम्मि बंभचेरे ॥ सू० २ ॥ टीका-'जम्मि य' इत्यादि । 'जम्मि य' यम्मिश्च ब्रह्मचर्ये 'भग्गे' भग्ने-विराधिते सति 'सब्बं ' सर्व ‘विणयसीलतबनि यमगुणसमूई' विनयशीलतपोनियमगुणसमूहः-विनयो गुरुपतिपत्ति लक्षणः, शील-सदाचारः, तपः अनशनादिकं द्वादशविधं, नियमा=अभिग्रहः, गुणसमूहः-जानादिगुणसमुदायः, एषां समाहारे विनयशीलतपोनियमगुणसमूहं क्रियाज्ञानं चेतिद्वयमपीत्यर्थः, सहसा सटिति 'संभग्गमहियचुणिय कुसल्लियपल्लहपंडिय खंडियपरिसडियविणासियं संभ फिर ब्रह्मचर्य का माहत्म्य कहते हैं--'जम्मिय भग्गे' इत्यादि० । टीकार्थ-(जम्मिय भग्गे) जिस ब्रह्मचर्य के विराषित होने पर ( सव्वं विणयसीलतवणियमगुणसमूहं ) समस्त विनय, शील, तप, नियम और गुण समूह-अर्थात्-क्रिया और ज्ञान ये दोनों ही (सहसा) इकदम (संभग्गमहिय-चुणिय-कुसल्लिय-पलट-पडिय-खंडिय-परिस वे सूत्रा२ प्राय भडात्म्य ४ छ- “ जम्मिय भगगे" 5. 21st-- “जम्मिय भग्गे" रे ब्रह्मय विराधन! तi " सव्व विणय सीलतवणियमगुणसमूह " समस्त विनय, शाश, त५, नियम भने गुसभूड मेरो लिया भने ज्ञान मने " सहसा" मयान " संभग्गमहियचुग्णियकुसलिय-पल्लठ्ठ-पडिय खंडिय-परिसडिय-विणासिय होइ” टेवा पानी For Private And Personal Use Only Page #832 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - - सुदर्शिनीटीका अ० ४ सू० २ ब्रह्मचर्य स्वरूपनिरूपणम् ग्नमथितचूर्णितकुशल्यितपर्यस्तपतितखण्डित-परिशटितविनाशितम्-तत्र 'संभग्ग' संभग्न-घट इत्र, 'महिय' मथितं दधीव बिलोडितं ' चुणिय' चूर्णितं चणकवत् पिष्टम् ' कुसल्लिय' कुशल्यितम्-शु-कुत्सितम्-अन्तः प्रविष्टतोमरादि शल्यमिव शल्यं, यत् प्रविष्टं सत् , केनाप्युपायेन न निःसरति तत्कुशल्यं, तत्संजातं यस्येति कुशल्यितं दुष्टशल्ययुक्तं, यथा वक्रतया प्रविष्टेन शल्येन शरीरं विदारितं भवति, तथैव विनवादिकं विदारितं भवति, ‘पल्लह' पर्यस्त पर्वतशिखराद् स्थूलपाषाणखण्ड इव स्वस्थानाचलितम् , 'पडिय' पतितम् प्रासादशिखरात्कलश इवाधोनिपतितम् ' खंडिय' खण्डितम्-दण्ड इव विभागेन च्छिन्नम् , 'परिसडिय' परिटितं = कुष्ठापहताङ्गमिवविगलितम् , 'विणासियं' विनाशितं विनष्टम् , 'होइ' भवति । अथोपमया ब्रह्मचर्यस्य माहात्म्यं वर्ण्य ते-' तं बभं भगवंतं ' इत्यादि । 'त' तत्-प्रसिद्धं 'भगवंत' भगवद्-सर्वोत्कृष्टैश्वयंशालि 'बभं' ब्रह्म-ब्रह्मचर्य — गहगणनवखत्ततारगाणं च ' ग्रहगणनक्षत्रतारकाणां च, ग्रहगणः =मङ्गलादिः, नक्षत्राणि अश्विन्यादयः, तारकाः प्रसिद्धाः, आसां मध्ये 'जहा' डिय विणासियं होइ) घटकी तरह संभग्न टुकडे २ हो जाते हैंनष्ट हो जाते हैं, दधि की तरह बिलोडित-अस्तव्यस्त हो जाते हैं, चना आदि की तरह-चूर्णित-पिसे जाते हैं, कुशल्य-टेढे-वक बाण से विदारित हुए शरीर की तरह विदारित हो जाते हैं, पर्वत की चोटी से पतित पाषाणखण्ड की तरह अपने स्थान से च्युत हो जाते हैं, पतित प्रासाद की छत से गिरे हुए कलश की तरह अधोनिपतित हो जाते हैं, फाडे गो दंड की तरह खंडित होते जाते हैं, परिशस्तिकुष्ठादि से उपहत अंग की तरह गलित हो जाते हैं, और विनाशितविनष्ट हो जाते हैं । (तं बंभ भगवंतं ) सर्वोत्कृष्ट ऐश्वर्यशाली प्रसिद्ध यह ब्रह्मचर्य (गहगणनक्खत्ततारगाणं च जहा उड्डुबई ) मंगल आदि જેમ ટુકડે ટુકડા થઈ જાય છે, –નષ્ટ થઈ જાય છે, દહીંની જેમ વિડિતઅસ્તવ્યસ્ત થઈ જાય છે, ચણા આદિની જેમ ચૂરેચૂરા થઈ જાય છે, કુશલ્યવકબાણથી વીંધાયેલ શરીરની જેમ વિધારિત થઈ જાય છે. પર્વતના શિખર પરથી પાષાણુખંડની જેમ પિતાને સ્થાનેથી ભ્રષ્ટ થઈ જાય છે, પતિત-મહેલની છત ઉપરથી પડેલા કલશની જેમ અધોનિપતિત થઈ જાય છે. ચીરાયેલ લાકડીની જેમ ખંડિત થઈ જાય છે, પરિશટિત-કઢ આદિથી ઉપડત અંગની જેમ शासित 45 नय छ भने विनष्ट था तय छे. “ तं बंभं भगवतं " सर्वोत्कृष्ट मेवयजी प्रसिद्ध छ प्राय " गहगणनक्खत्ततारगाणं च जहा उडुवई" For Private And Personal Use Only Page #833 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे यथा 'उडुबई' उडुपतिः चन्द्रः सर्वश्रेठस्तथैवतानां मध्ये सर्वश्रेष्ठमस्ति । तथा'मणिमुत्तसिलप्पवालरत्तरयणागराणं' मणिमुक्ताशिलामवालरतरत्नाकराणां मणयः चन्द्रकान्तायाः, मुक्ताफलानि-शिलापवालानि विद्रुमाणि, रक्तरत्नानि यारागादीनि तेषामाकरा उत्पत्तिभूमयः, ये ते तथा, तेषां मध्ये 'जहा' यथा 'सउदो' समुद्रः, श्रेष्ठस्तथैवेदं व्रतानां मध्ये श्रेष्ठम् , एवं वत्र संयोज्यम् । तथा-'जह चेव' यथा चैव · मगीण' मणीनां मध्ये वेरुलिओ' वैडूर्य वै यमणेः । 'जह चेव' यथा चैत्र 'आभूसगाणं ' आभूषणानां मध्ये ' मउडो' मुकुटंः । 'वर ' वस्त्राणां मध्ये 'खोमजुरलं चेव ' क्षौमयुगमिव । ' अरविंद चेव ' अरविन्दमिव कमलमित्र 'पुष्फजेटुं' पुष्पज्येष्ठम्-पुष्पेषु अरविन्दं श्रेष्ठमित्यर्थः । गोसीसं चेव ' गोशीर्ष हरिचन्दनमिव ' चंदणाणं ' चन्दनानां मध्ये 'हिमवंतो चेव' हिमवानिव 'ओस. ग्रहो में, अश्विनी आदि नक्षत्रों में, और ताराओं में जैसे चंद्रमा सर्व श्रेष्ठ माना जाता है उसी तरह सर्व व्रतों में श्रेष्ठ माना गया है। तथा ( मणिमुत्तमिलप्पवालरत्तरय गागराणं च जहा समुद्दो) चन्द्रकान्त आदि मणियों की, मुक्ताफलों की, मूगों की और पद्मराग आदि रक्तरत्नों की उत्पत्ति स्थानों में जैसे समुद्र श्रेष्ठ होता है उसी तरह यह बत भी सर्वव्रतों में श्रेष्ठ माना गया है । तथा-(जह वेव मणीणं वेरुलियो ) जैसे मणियों में वैडूर्यमणि, (जह चेव आभूमणाणं मउडो) आभूषणों में जैसे मुकुट, (वत्थाणं खोमजुयलं चेव) वस्त्रों में जैसे क्षौम युगल, ( अरविंदंचेव पुष्फजेट्टं ) पुष्पों में जैसे अरविंद (कमल)( चंदणाणं गोसीसं चेव ) चंदनों में जैसे हरिचंदन, (ओसहीर्ण हिमवंतो चेव ) औषधियों की उत्पत्ति के स्थानों में जैसे हिमवान् મંગળ આદિ ગ્રહમાં, અશ્વિની આદિ નક્ષત્રમાં, અને તારાઓમાં જેમ ચં. ન્દ્રમાં સર્વશ્રેષ્ઠ મનાય છે એજ પ્રમાણે સર્વવતમાં શ્રેષ્ઠ માનવામાં આવ્યું છે. तथा " मणिमुत्तसिलप्पवालरतरयणागराणं च जहा समुद्दो" यन्द्रान्त माह મણિઓની, મેતીની, મૂંગાની અને પશ્ચરાગ આદિ રક્તરની ઉત્પત્તિ કરવાના સ્થાનમાં જેમ સમુદ્ર શ્રેષ્ઠ મનાય છે. એ જ પ્રમાણે આ વ્રત पान सर्व ब्रतोभा श्रेष्ठ भताय छ तथा “ जहचेव मणीणं वेरुलिओ" भ भलिभामा वैडूर्य भएी, "जह चेव आभूमणाणं मउडो " भाभूषणमा भ मुगुट "वत्थाणं खोमजुयलं चेव" सोमा रेभ क्षौमयुर "अरविंदं चैव पुप्फजे?' " जपामा म भवि, “ चंदणाणं गोसीसं चेव" यहनामा म हेरियन. For Private And Personal Use Only Page #834 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुशिनी टीका अ०४ सू.) २ ब्रह्मचर्यस्वरूपनिरूपणम् हिणं' ओषधीनाम् ओषयुत्पत्तिस्थानानां मध्ये हिमवान पर्वत इव । 'सीतोदा चेव ' सीतोदेव-स्वनामख्याता महानदी 'निनग,नां' निम्नगानाम्-नदीनां मध्ये । 'उदहोसु ' उदधिपु-समुद्रेषु 'सयंभूरमणो' स्वयंभूरमणः समुद्रः ' रुयगवरो चेव ' रुचकवर इव-यथा रुचकबरः रुचकाभिधानत्रयोदशद्वीपवर्तीपर्वतविशेषः, 'मंडलिकपव्ययाणं ' माण्डलिकपर्वतानां मानुषोत्तरकुण्डलवररुचकवरा. भिधानां गध्ये 'पवरे' प्रवरः श्रेष्ठः । ' एरावण इव' ऐराणा इव 'कुंजराणं' कुचराणां मध्ये, यथा हस्तिनां मध्ये ऐरावतः प्रवर इत्यर्थः । 'जहा' वथा ' सीहो' सिंह: 'मिगाणं ' मृगाणाम् अरण्यपशूनां मध्ये पवरो' प्रवरः यथा'सुपण्णगाणं च ' सुपर्णकानां सुपर्णकुमाराणां मध्ये ' वेणुदेवे ' वेणुदेवः प्रवरः यथा च 'पग इंदराया ' पन्नगेन्द्रराजः, 'धरणे' धरणो धरणेन्द्रो नागकुमाराणां मध्ये प्रवरः, तथैवेदं ब्रह्मचर्य व्रतानां मध्ये प्रवरम् । तथा-'कप्पाणं' कल्पानां देवलोकानां मध्ये 'बंभलोए चेव' ब्रह्मलोक इत्र-पञ्चमो देवलोकः पर्वत, (निक्षगाणं लीतोदा चेव ) नदियों में जैसे सीतोदा नदी, ( उद हीसु जहा सयंभूरमणो) सन्द्रों में जैसे स्वयंभूरमणसमुद्र, (मंडलिगपचयाण स्यगव चेव ) मांडलिक पर्वतों में जैसे रुचक वरपर्वत, (पघरे) श्रेष्ठ माना जाता है, उसी प्रकार समस्तवतों में यह वत श्रेष्ठ माना गया है । तथा (कुंजराणं एरावण इव ) हाथीओं में जैसे ऐरावत हाथी श्रेष्ठ होता है (मिगाण जहा सीहो पवरो) अगों के बीच मेंजंगला जानवरों में-जैसे सिंह श्रेष्ट होता है (उपन्नगाणं च वेणुदेवे सुपर्णकुमारों में जैसे वेणुदेव श्रेष्ठ होला है, (जहा पन्नग इंदरायाधरणे) पन्नों का इन्द्रराज धरणेन्द्र जैले नागकुमारों में श्रेष्ठ होता है, (कप्पाणं चेव बंभलोए ) कल्पों में जैसे पांचवा ब्रह्मलोक प्रवर होता है, “ओसहीणं हिमवतो चेव " मौषधियाना उत्पत्ति स्थानमा हिमालय पर्वत, " निन्नगाणं सीतोदा चेव" नहीयामा समशीतोहानी, उदही सुजहा संयंभमणो" समुद्रीमा म २५ भू२भए समुद्र " मंडलिगपव्ययाणरुयगवरो चेव" मावि तोमा म २५४१२ ५त, “पवरे" श्रेष्ठ भनाय छ, तारे सध तामi - प्रायव्रत श्रेष्ठ भनाय छ तथा “ कुंजराणं एरावण इस” हाथीमामा म मेरावत हाथी श्रेष्ठ २.छ, “मिगोणं जहा सीहो पवरो" भगानी पय- सी जनरेनी वय्ये-म सिड श्रेष्ठ डाय ते, " सुपन्नगाणं च वेणुदेवे" सुपर मारामा रेभ. येशुढेव श्रेष्ठ डाय छ, “जहा पन्नग इंदराया धरणे” पन्नगाने न्द्ररान रणेन्द्र म नागभाशमा श्रेष्ठ डाय छ, “कप्पाणं व बंभलोए" योमा म पाया For Private And Personal Use Only Page #835 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नण्याकरणसूत्रे क्षेत्रस्य महत्त्वादिन्द्रयस्याति शुभपरिणामत्वाच्च प्रवरः । ' सभामुय' सभामु= प्रतिभवनविमान भाविनीषु सुधर्मसभोत्पातसभाऽभिषेकसभाऽलंकारसभाव्यवसायसभासु च मध्ये 'जहा ' यथा' मुहम्मा ' सुधर्मा सभा प्रवरा ‘भवे ' भवति तथैवेदं ब्रह्मचर्य व्रतेषु प्रवरं भवति । तथा-'ठिइसु' स्थितिघु-आयुष्केषु मध्ये 'लचसत्तमधलवसप्तमेव अनुत्तरदेवभवस्थितियथा प्रवरा । ' दाणाणं चेव अभओदाणं ' दोनानां मध्ये अभयदानमिवेदं ब्रह्मचर्य प्रवरम् । — कंवलाणं' कम्बलानां मध्ये ' किमिराओ चेव ' कृमिराग इव-कृमिरागकम्पल इव कमेः= रक्तकीट विशेषस्य राग इस रागो यस्य कम्बलस्य भवति स कम्बलः कृमि राग कम्बल प्रोच्यते, रक्तकम्बल इत्यर्थः, तथा-'संघपणे' संहनने-पहननमध्ये वज्रऋषभादीनां षण्णां संहननानां मध्ये 'बजरिसभे' वऋपभं संहननं प्रवरम् 'संठाणे' संस्थाने पविधसंस्थानमध्ये यथा “ सय व उरंसं ' समचतुरखं संस्थान (सभासु जहा सुहम्मा भवे ) सभाओं में जैसे सुधर्मा सभा श्रेष्ठ होती हैं, अर्थात् सुधर्मा सभा उत्पात सभा, अभिषेकसभा, अलंकारसभा, व्यवसायसभा, इन सभाओं में जैसे सुधर्मा सभा सब से श्रेष्ट मानी जाती है उसी प्रकार यह ब्रह्मचर्यचन भी समस्त व्रतों में श्रेष्ट माना जाता है । तथा (ठिईसु जहा लवसत्तमव्यपवरा ) आयुओं में अनुत्तरविमानवासी देवों की जैसे आयु उत्तम मानी जाती है और (दाणाणं चेव अभयो दाणं ) दानों के बीच में जैसे अभयदान श्रेष्ठ माना जाता है उसी तरह यह ब्रह्मचर्यव्रत भी समस्तवतों में प्रधान व्रत माना जाता है । तथा ( कंवलाण किमिराओ चेत्र ) कंबलो में जैसे रक्त कम्बल, (संघयणे चेववज्जरिसभे) छह संहननों में जैसे वज्रऋषभसंहनन, (संठाणे चेव समच उरंसे ) छह संस्थानों में जैसे समचतुरप्रो श्रेष्ठ हाय छ, “ सभासु जहा सुहम्मा भवे" समभ सुधर्मा સભા શ્રેષ્ટ હોય છે, એટલે કે સુધર્માસભા, ઉત્પાદસમા, અભિષેક સભા, અલકારસભા. વ્યવસાય સભા, એ સભાઓમાં જેમ સુધર્મા સભાને શ્રેષ્ઠ માનવામાં આવે છે, એ જ પ્રકારે આ બ્રહ્મચર્ય વ્રતને પણ સર્વે તેમાં શ્રેષ્ઠ માનવામાં भाव छ. तथा “ ठिइसु जहा लवसत्तमव्यपवरा" मायुध्यामा म अनुत्तर विभानवासी हवानुं मायुष्य म उत्तम भनाय छ, भने “दाणाणं चेवअभभोवाणं " हमारेभ. मलहान मनाय छ, मे १ मा २॥ प्रायय प्रत पर समस्त प्रतीमा श्रेष्ठ मनाय छे. तथा “कंबलाणं किमिराओ चे" भणामा २५ २४त उभ संधयणे चेव वज्जरिसभे” ७ साउननामा म 44 सडनन, “संठाणे चेव समचउर से"७ स्थानोमा २१ अभयतुरस For Private And Personal Use Only Page #836 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir فرق सुदर्शिनी टीका अ० ४ सू०२ ब्रह्मवयस्वरूपनिरूपणम् पवरं तथैव व्रतानां मध्ये इदं ब्रह्मचर्य प्रवरम्। तथा-' झाणेसु य' ध्यानेषु चध्यानमध्ये यथा 'परमसुकज्झाणं' परमशुक्लध्यान-शुक्लथ्यानस्य चतुर्थपादरूपं प्रवरम् , तथा-नाणेमु य ' ज्ञानेषु च यथा परमकेवलं तु परिपूर्णविशुद्ध केवलज्ञानं अर्थात्-सायिकज्ञानं सिद्ध-प्रवरत्वेन प्रसिद्धम् , तथैवेदं ब्रह्मचर्य व्रतानांमध्ये प्रसिद्धम्-तथा-'लेसासु य ' लेश्यासु-कृष्णाद्यासु च यथा, 'परमसुक्कलेस्सा' परमशुक्ललेश्या-शुक्लध्यानस्य तृतीयभेदवर्तिनी प्रवरा । 'तित्थकरो चेव' तीर्थकरश्चैव 'जहा' यथा ' मुणीणं ' मुनीनां मध्ये प्रवरः ‘वासेसु' वर्षेषु क्षेत्रेषु ' जहा' यथा 'विदेहे' विदेहः-महाविदेहक्षेत्र प्रवरम् , तथैवेदं व्रतंव्रतानां मध्ये प्रवरम् । यथा जम्बूद्वीपे 'मंदरवरे' मन्दरवरो 'गिरिराया' गिरिराजो-मेरुपर्वतश्चैव पर्वतानां मध्ये पवरः, 'वणेसु ' वनेषु 'जहा' यथाससंस्थान प्रवर माना जाता है-उसी प्रकार यह ब्रह्मचर्य व्रतों में प्रधान बत माना जाता है। इसी तरह (झाणेसु वरं सुकन्झाणं ) चार ध्यानों में जैसे परम शुक्लध्यान शुक्लध्यानका चौथा भेद, उत्तम होता है और (नाणेसु य परमकेवलं सिद्धं) आभिनियोधिक आदि पांच ज्ञानों में जैसा केवलज्ञान उत्तम होता है (लेसासु य परममुक्कलेसा) कृष्ण आदि छह लेश्याओं में जैसे परमशुक्ल लेश्या-शुक्लध्यान के तीसरे (पाये) पादमें होनेवाली लेश्या-उत्तम होती है (जहा मुणीणं तित्थयरो) मुनियों के बीच में जैसे तीर्थकर सर्वोत्तम होते हैं, तथा (वोसेसु जहा विदेहे ) क्षेत्रों में जैसे विदेहक्षेत्र सब से उत्तम क्षेत्र होता है, उसी तरह व्रतों में यह ब्रह्मचर्य व्रत सबसे प्रधान व्रत हैं। तथा-(मंदरवरे गिरिराया) जैसे जंबूद्वीप में पर्वतों के मध्य में मंदर वर गिरिराज श्रेष्ठ है, સસ્થાન જેમ શ્રેષ્ઠ મનાય છે તેમ આ બ્રહ્મચર્ય વ્રત પણ સઘળા વ્રતમાં भुज्य भनाय छ. मे ४ प्रमाणे “ झाणेसु वर सुक्कझाणं" या२ ध्यानामा म ५२५ शुखध्यान। था। मे उत्तम उय छ, भने “ नाणेसु य परमकेवलं सिन" मालिनिमाधि माहि पांय ज्ञानामा भ ज्ञान उत्तम डाय छ, “लोसासु य परमसुक्कलेसा " ए मा७ि वेश्यागमा म शुभदावेश्या-शुसध्यानना श्री ५६मां-पायामा थनारी वेश्या-उत्तम लायछ. "जहा मुणीणं तिस्थयरो" भुनियानी ये रेभ तिथ ४२ सर्वोत्तम डाय छ, “वासेसु जहा विदेहे " क्षेत्रामा म वि क्षेत्र सर्वोत्तम छे, मे १ प्रमाणे २५॥ प्राय प्रत सघi प्रतामा प्रधान व्रत छ. तथा “मंदरवरे गिरिराया" २. pluभा ५ मा २२।२८ म ४२१२ श्रे४ छ, “वणेसु जहा गंदण For Private And Personal Use Only Page #837 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्र 'गंदणवणं ' नन्दनवन ‘पवर' प्रवरं 'दुमेसु' द्रुमेमु-क्षेषु — जहा' यथा'सुदंसणा' सुदर्शना-सुदर्शनाख्या 'जंबू' जम्बूः त्रीविङ्गः वृक्षविशेषः, सा 'विस्मयजसा ' विश्रुतयशाः-यशसा विख्याता । जम्बा किं नाम यशः ? इत्याइ --'जीय ' यस्याः 'नामेणं' नाम्ना अयं 'दोवे ' द्वीपो जस्बूद्वीपोऽस्ति, तथैवेदं ब्रह्मचर्य व्रतानां मध्ये विख्यातम् । तथा-' जहा चेव ' यथा चैव 'तुर. गवई ' तुरगपतिः अश्वसेनायुक्तः ‘गयवई ' गजपतिःगजसेनायुक्तः 'रहबई' रथपतिः रथसेनायुक्तः ' नरवई ' नस्पतिः नरसेनायुक्तो ‘राया' राजा विश्रुतः, 'जहा चेव' यथा चैव ' रहिए' रथि के रथारोहिमध्ये 'महारहगए' महारथगतः महारथारोही विश्रुतः । तथैव व्रतानां मध्ये इदं व्रतं विश्रुतम् प्रसिद्धम् एवम् एवम्प्रकाराः 'अणेगगुणा' अनेकगुणाः प्रवरत्वविश्रुतत्वादयोऽने के गुणा 'एगम्मि बंभचेरे ' एकस्मिन् ब्रह्मचर्ये 'अहीणा' अधीनाः स्वाधीनाः भवन्ति, एकस्मिन् ब्रह्मचर्य समाराधिते सति सर्व गुणाः समागत्य तस्मिन् पुरुषे समावि(वणेसु जहा गंदणवर्ण पवरं ) वनों में जैसे नंदनवन श्रेष्ठ है, (दुमे सु जहा सुदंसणा जंबूविस्तुयजसा ) वृक्षो में जैसे जंबू वृक्ष प्रसिद्धयश संपन्न है कि (जीयनामेण अयं दीवो ) जिसके नाम से यह द्वीप जंबु. द्वीप कहलाता है, उसी प्रकार व्रतों में ब्रह्मचर्य व्रतश्रेष्ठ है । तथा (तुरगवई, गयवई, रहबई, नरवई, राया जहाचेव रहिए महारहगए, एवमणेगगुणा एगम्मि यंभवेरे अहीणा भवंति ) जैसे अश्व सेनायुक्त, गजसेनायुक्त, रथसेनायुक्त, नरसेनायुक्त, राजा प्रसिद्ध होता है, तथा रथारोहियों के बीच में महारथारोही प्रख्यात होता है, उसी तरह व्रता में यह ब्रह्मचर्यत्रत प्रख्यात है। इस तरह प्रवरत्व, विश्रुतत्व आदि अनेक गुण एक इस ब्रह्मचर्य में अधीन होते हैं, अर्थात् एक ब्रह्मचर्य के आराधित कर लेने पर समस्तगुण आकार उस पुरुष में आश्रित हो वणं पवर" पनीमा रेभ ननयन श्रेष्ठ छे, “ दुमेसु जहा सुईसणा जंबू विस्सुयजमा" वृक्षामा भ वृक्ष प्रसिद्ध यश सपन्न छ, “ जिय नामेण अय दीवो"ना नामयी माद्वीपी५ ४ाय छ, र प्रमाणे मतमा प्राय प्रत श्रेष्ठ छ. तथा "तुरगवई, गयवई, रहगई, नरवई,राया, जहा चेव रहिए महारहगए, एवमणेगगुणा एगम्मि बंभचेरे अहीणा भवंति "भ હયદળવાળે, ગજદળવાળે. રથદળવાળે અને પાયદળવાળો રાજા પ્રસિદ્ધ હોય છે તથા રથાહિની વચ્ચે મહારાહી પ્રખ્યાત હોય છે, એ જ પ્રમાણે તેમાં પણ બ્રાચર્ય વ્રત પ્રખ્યાત છે. આ પ્રમાણે શ્રેષ્ઠતા, વિશ્રતત્વ, આર્દિ અનેક ગુણ આ એક બ્રહ્મચર્યને આધીન હોય છે, એટલે કે એક બ્રહ્મચર્ય For Private And Personal Use Only Page #838 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदशिनी टीका अ० ४ सू० ३ ब्रह्मचाराधनफलम् शन्तीत्यर्थः । अयमाशयः-व्रतानां मध्ये ब्रह्मचर्य व्रतं सर्वतः श्रेष्ठम् । अतस्तदाराधकाः सर्वतः श्रेष्ठा भवन्तीति ॥ सू० २ ॥ मूलम्-जम्मि य आहियं वयमिणं सच्चं सीलं तवो य विणयो य संजमो य खंत्ती गुत्ती मुत्ती, तहेव इहलोइय परलोइयजसो य कित्ती य पञ्चाओ य, तम्हा निहुएणं बंभघेरं चरियव्वं सवओ विसुद्धं जावज्जीवाए जावसेयट्टी संजओत्ति, एवं भणियं वयं भगवया । तं च इमं-"पंचमहव्वयसुव्वयमूलं समणमणाइलसाहुसुचिणं । वेरविरामणपज्जवसाणं सव्वसमुदमहोदहितित्थं ॥ १॥ तित्थगरेहि सुदेसियमगं नरगतिरिच्छविवज्जियमग्गं । सत्वपवित्तसुनिम्मियसारं सिद्धिविमाणअवंगुयदा।। २ ॥ देवनरिंदनमंसियपुज्जं सव्वजगुत्तममंगलमग्गं । दुद्धरिसं गुणनायगमेकं मोक्खपहस्स वडिंसगभूयं” ॥ ३ ॥जेण सुद्धचरिएणं भवइ सुबंभणो सुसमणो सुसाहू सुइसी सुमुणी सुसंजए स एव भिक्खू , जो सुद्धं चरइ बंभचेरं ॥ ३॥ जाते है । इसलिये व्रतों के बीच में यह ब्रह्मचर्यव्रत सर्व श्रेष्ठ प्रत है, अतः इसके आराधकजन भी सर्वतःभेष्ठ होते है। __ भावार्थ-इस एक ब्रह्मचर्य महाव्रत के आराधित होने पर समस्त सद्गुण स्वयं आराधितहो जाते हैं और इसके विनष्ट होनेपर वे समस्त सद्गुण नष्ट हो जाते हैं। अतःसमस्त व्रतोंमें यह व्रत सर्वश्रेष्ठ है। सू०२।। વતને આચરવાથી સમસ્ત ગુણ પુરુષમાં આવી જાય છે. તે કારણે તેમણે આ બ્રહ્મચર્યવ્રત સર્વ શ્રેષ્ઠ વ્રત છે, તેથી તેની આરાધના કરનાર વ્યક્તિ સર્વ શ્રેષ્ટ હોય છે. ભાવાર્થ—આ એક બ્રહ્મચર્ય વ્રતની આરાધના કરવામાં આવે તે સમસ્ત સદ્દગુણ તેની જાતે જ આરાધિત થઈ જાય છે અને તેને નાશ થતા તે સમસ્ત સદૂગુણને નાશ થઈ જાય છે. તેથી સઘળાં તેમાં આ વ્રત સર્વશ્રેષ્ઠ છે સુરા For Private And Personal Use Only Page #839 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७९० प्रश्नध्याकरणसरे टीका-'जम्मि य ' इत्यादि 'जम्मि य ' यस्मिंश्व-ब्रह्मचर्ये आराधिते 'इणं ' इदं प्रव्रज्या--लक्षणं 'वयं व्रतम् ' आराहियं ' आराधितं भवति । तथा पुनरपि यदाराधितं भवति, तदाह- सच्चं ' सत्यं ' सील 'शीलं साधाचारः-' तयो य ' तपश्च ‘विणओ य' विनयश्च 'संजमो य ' संयमश्च, तथा- खंती ' शान्तिः 'गुत्ती ' गुप्ति:मनोगुप्त्यादिका, 'मुत्ती' मुक्तिः-निर्लोभता ' तहेव ' तथैव 'इहलोइय परलो. इय ऐहलौकिकपारलौकिकं 'जसो य' यशश्च-यशः एकदिग्गामिनीख्यातिः 'कित्तीय ' कीर्तिश्च सर्वदिग्गामिनीप्रसिद्धिः, ' पञ्चओ य' प्रत्ययश्व= साधुरयम्' एवं रूपो विश्वासः, एतत्सर्वं ब्रह्मचर्ये समाराधिते भवतीति भावः । 'तम्हा' तस्माद् हेतोः 'निहुएणं ' निभृतेन-निश्चलभावेन बंभचेरं' ब्रह्मचर्यं 'चरि 'जम्मिय' इत्यादि। टीकार्थ--(जम्मिय आराहिए) जिस ब्रह्मचर्य व्रत के आराधित कर लेने पर ( इणं वयं आराहियं ) यह प्रव्रज्यारूपव्रत आराधित हो जाता है तथा-(सच्चं सोलंतवो य विणयो य संजमो य खंति, गुत्ती, मुत्ती, तहेव इहलोइय, परलोइय, जसो य कित्ती य पच्चओ य ) सत्य, शील-सदाचार, ( मुनि का आचार ) तप,विनय, संयम, क्षान्ति मनोगुप्ति आदि तीन गुप्तियां, निर्लोभतारूप मुक्ति, तथा इहलोक संबंधी, और परलोक संबंधी यश-एक दिशामें फैलानेवाली प्रसिद्धि, कीर्तिसब दिशा में फैलाने वाली प्रसिद्धि, तथा-प्रत्यय-" यह साधु है" इस रूप विश्वास, ये सब आराधित हो जाते हैं। (तम्हा) इसलिये (सवओ विसुद्धं) नौ कोटि-त्रिकरण त्रियोग से निर्मल बनाकर (निहु. "जम्मिय "त्याह थि-" जम्मिय आराहिए" प्राय व्रतनु सेवन ४२१ाथी " इणं वयं आराहिय" ! प्रप्रया३५ मत माराधित 45 नय छे, तथा “ सच्चं सील तवो य विणयो य संजमो य खंत्ती, गुत्ती, मुत्ती इहलोइय, परलोइय जसो य कित्ती य पच्चओ य" सत्य, शीस, साया२, ( भुनिनो माया२) त५, विनय, સંયમ, શાંતિ, મને ગુપ્તિ અદિ ત્રણ ગુપ્તિ, નિર્લોભતારૂપ મુક્તિ, તથા આલેક સંબંધી તથા પરલેક સંબંધી યશ-એક દિશામાં ફેલાનાર પ્રસિદ્ધિ, કીર્તિસઘળી દિશાઓમાં ફેલાનાર પ્રસિદ્ધિ, તથા પ્રત્યય-“આ સાધુ છે” એ પ્રકારને विश्वास, मे मां माराधित ५४ य छ. " तम्हा" तथा " सबओ. विसुद्ध" न१ ॥२-त्रि४२९५ वियागथी नि मनावीन “निहुएणं " For Private And Personal Use Only Page #840 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका म० ४ सू०३ ब्रह्मचर्याराधनफलम यव्वं ' चरितव्यम्-आसेवितव्यम् कीदृशं ब्रह्मचर्यमासेवितव्यम् ? इत्याह'सम्बओ विसुद्धं ' सर्वतो विशुद्धम् ? मनः प्रभृति त्रिकरणत्रियोगनिर्मलं, कियकालमासेवितव्यम् ? इत्याह-'जावज्जीवाए' यावज्जीवया प्रतिज्ञया यावज्जीवतया वा जीवनपर्यन्तमित्यर्थः, तथा-'जावसेयहि संजओत्ति ' यावत् श्वेतास्थि संयत, इति, श्वेतानि दुष्कर तपः करणाद्रुधिराभावेन शुक्लानि अस्थीनि यस्मिस्तत्-श्वेतास्थि-अस्थिपञ्जरप्रायं शरीरं तत्र संयतः प्रतिबद्धो जीवो यावद् भवेत् , मरणपर्यन्तमित्यर्थः । अयं भावः-साधुना दुश्वर तपश्चरणादिना स्वशरीर रुधिर विशोष्य मरणावधि ब्रह्मचर्य पालनीयमिति । अथवा यावच्छ्रेयोऽथि संयतः' इतिच्छाया, श्रेयो मोक्षस्तदर्थयितुं शीलं यस्य स श्रेयोऽर्थी, स चासौं संयतश्चेति कर्मधारयः अयं भावः-साधुर्याक्कालं मोक्ष न प्राप्नोति, तावत्कालं तेन ब्रह्मचर्य पालनीयमिति । ' एवं ' इत्येवं ' भणिय ' भणितं ' भगवया' भगवता महाएणं) निश्चलभाव से ( बंभचेरं ) इस ब्रह्मचर्य महाव्रत का (जावजीवाए ) जीवनपर्यन्त (चरियव्वं ) पालन करना चाहिये । ( जाव सेयढि. संजयो त्ति) यावत् श्वेतास्थि संयतः अर्थात् चाहे भले ही दुश्वर तपश्चरण आदि द्वारा अपने शरीर का खून सूक जाने से श्वत हड्डियां ही उसमें अवशेष रह गई हो तपतक । अथवा यावत् श्रेयोऽथि संयत-अर्थात्साधु को जबतक मुक्ति की प्राप्ति न हो जावे तबतक इस महाव्रत का अवश्य पालन करते रहना चाहिये। " जाव सेयष्टि संजओ" इसकी एक तो श्वेतास्थिसंयनः" ऐसी संस्कृत छाया होती है और दूसरी" श्रेयोऽधिसंयतः " ऐसी भी होती है । ( एवं भणियं वयं भगवया) इस प्रकार से इस व्रत का भगवान महावीर ने जो कि अन्तिम तीर्थ निस भावथा “बभचेर" मा प्राययं भडानतर्नु “जावज्जीबाए " न. ५यन्त चरियव्वं " पासन ४२वु नये. जाव सेयट्ठिसंजओत्ति " ' योवत् श्वेतास्थिसंयतः" मेट २ त५श्च२ मा बारा पोताना शरीन साली સૂકાઈ જવાથી સફેદ હાડકાં જ તેમાં બાકી રહ્યા હોય એવી સ્થિતિમાં પણ मा प्रतर्नु पासन ४२२. यावत् श्रेयोऽर्थि संयत-मेटलेल्या સુધી સાધુને મોક્ષની પ્રાપ્તિ ન થાય ત્યાં સુધી આ મહાગ્રતનું પાલન કરતાં हे म. “जाव से यदृिसंजओ" तेनी शस्त छाया 'श्वेतास्थिसंयतः " याय छ, भने मी " श्रेयोऽर्थिसंयतः” मेवी ५ छाय. थाय छे. “ एव' भणिय वयं भगवया" २ मा मन्तिम तीर्थ ४२ भगवान महावीर मा प्रतर्नु For Private And Personal Use Only Page #841 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - प्रश्नव्याकरणसूत्रे वीरेण चरमतीर्थकरेण । ' तं च ' तच्चतम् ' इमं ' इदम् अग्रे-वक्ष्यमाणस्वरूपमस्ति । तदाह तिसृभिर्गाथामिः__ 'पंचमहब्बय' इत्यादि । . 'पंचमहव्वयसुव्वयमूलं पञ्चमहाव्रतसुव्रतमूलम् पञ्च-पञ्चसंख्यकानि यानि महावतानि-माणातिपातविरमणादि लक्षणानि, तान्येव सुव्रतानि तेषां मूलम्= कारणम् इदं ब्रह्मचर्यवतमस्ति । तथा-इदं ब्रह्मचर्यव्रतं, 'समणं' शमनं-चित्त. सम धिजनकं, तथा-' अनाविलसाधुसुचीर्णम्= अनाविलाः =: अकलुषा:-निर्मलचारित्रा ये साधवस्तैः सुचीर्ण-समाराधितम् , तथा-' वेरविरामणपज्जवसाणं' वैरविरमणपर्यवसानम् वैरं त्रु मावस्तस्य विरमण-निवृत्तिः पर्यवसानेऽन्ते यस्य तत् , ब्रह्मचर्य हि वैर विनिवार्य परमप्रीतिमुपजनयतीति भावः । उक्तं च सप्पो हारायए तास, विसं चावि सुहायए । बंभचेरप्पभावेणं, रिऊ मित्तायए सया ॥ १ ॥ छाया -सों हारायते तस्य विषं चापि सुधायते । ब्रह्मचर्यप्रभावेण रिपुर्मित्रायते सदा ॥ १ ॥ इति । कर हुए हैं कथन किया है । (तं च इमं ) इस महाव्रत का स्वरूप तीन गाथाओं से कहते हैं (पंचमहन्वयमुव्वयमूलं ) यह ब्रह्मचर्य महाव्रतरूप सुव्रतों का मूलकारण है, (समणं ) चित्तसमाधि का जनक है, (अगाइलसाहु पुचिण्णं) निर्मल चारित्रधारी साधुओं द्वारा अच्छी तरह आराधित किया हुआ है ( वेरविरामणपज्जवमोणं ) वैरविरोध का यह अंत करके परम प्रीती का जनक होता है । कहा भी है "सप्पो हरायए तस्स, विसं चावि सुहायए । बंभचेरप्पभावेणं, रिऊ मित्तायए सया ॥ १ ॥ ४यन यु छ. "तंच इमं” । महानतर्नु २१३५ त्रा थामे द्वारा 3 छे. "पंचमहव्वयसुव्वयमूलं " मा प्रायः मानत प्रातिपात विरभ माहि पाय मानत३५ सुबतार्नु भूष४।२७५ छ. “समणं" (यत्त समाधिनुं न छ, “ अणाइल साह सुचिण्णं" नि यस्त्रिधारी साधुमे। द्वारा सारी रीते १२धित थयेव छ," वेरविरामणपज्जवसाणं" ३२ विरोधने। અન્ત લાવીને તે પરમ પ્રીતિનું જનક થાય છે. કહ્યું પણ છે "सप्पो हारायए तस्स. विसं चावि सुहायए। बंभचेरप्पभावेणं, रिऊ मित्तायए सया ॥१॥ For Private And Personal Use Only Page #842 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका म०४ स०३ ब्रह्मचाराधनफलम तथा-' सब्बर मुहमहोदहितित्थं । सर्व मुद्रमहोदधिलीर्थम् -सर्वे च ते समुद्राः सर्व समुद्रास्तेषु महान उदधिःयाभूरमणः समुद्रातत्तुल्य विशालत्वात्संसारोऽपि महोदधिस्तस्य तीर्थ मव-पारगमनाय नौके व यत्तत्तथाऽस्ति ॥ १ ॥ __'तित्थगरेहिं ' इत्यादि-'तित्यगरेहिं 'तीर्थकरैः जिनैः ‘सुदेसियमगं' सुदेशितमार्गम्-सुदेशिता सुदर्शितः मार्गः=गुप्त्यादि तत्पालनोपायो यस्मिंस्ततथा, तथा-'नरगतिरिच्छविवज्जियमग्गं' नरकतिर्यविवर्जितमार्ग-नरकस्य नरकगतेः, तिरमा तिर्यगतेश्च विवर्जित-प्रतिरोधितो मार्गो गायेंज तादृशम् । तथा-' सयपवित्रसुनिम्मियसारं' सर्वपवित्रसुनिर्मितसारं सर्वपवित्राणि-सर्वाणि पावनानि मुनिश्तिानि-सुविहितानि साराणि-प्रधानानि येन तत्तथा, सकलव्रत सर्प उसके लिये हार जैसा बन जाता है और विष भी सुसाधु जैसा हो जाता है-जो नौ कोटि से शुद्ध ब्रह्मचर्य व्रत का पालक होता है। यह ब्रह्मचर्य का ही प्रभाव है जो शत्र भी मित्र बन जाता है। (सव्वसमुदमहोदहितित्थं) समस्त समुद्रों में अंतिम स्वयंभूरमणसमुद्र एक बहुत विशाल समुद्र है-इसके जैसे विशाल होने से संसार भी एक महोदधि जैसा है, उससे पार होने के लिये यह ब्रह्मचर्य एक नौका के समान है ॥ १॥ (तित्थगरेहिं सुदेसियमग्गं) तीर्थकर भगवंतो ने इसके पालने का गुप्ति आदि रूप उपाय कहा है। ( नरगतिरिच्छविवजियमगं) इसके प्रभाव से नरकगति और तियश्चगति का मार्ग रुक जाता है (सवपवित्तसुनिम्मियसारं ) तथा જે નવ પ્રકારે શુદ્ધ બ્રહ્મચર્ય વ્રતને આરાધક હોય છે તેને માટે સાપ હાર જેવો બની જાય છે અને વિષ પણ અમૃત જેવું થઈ જાય છે. ब्रह्मययन ४ 24 प्रभाव छ : शत्रु पशु भित्र मनी लय छ, “ सव्वसमुरमहोदहितित्थं " Aani सोम आतिम २ १५ सूरमा समुद्र में । विm સમુદ્ર છે-તેને જે વિશાળ હોવાથી સંસાર પણ એક મહાસાગર જે છે, તેને પાર જવાને માટે આ બ્રહ્મચર્ય એ એક નૌકા જેવું છે ! ૧ છે "तित्थगरेहिं सुदेसियमग्गं" तीथ ५२ भगवानाये तन पालन माट गुप्ति माह Elu मतव्या छे. “ नरगतिरिच्छविवज्जियमगं" तेना प्रमाथी १२४गति मने तियतिने २ मी. नय छे. “ सव्वपवित्त सुनिमियसारं " मने तेना प्रभाव सौने प्रवित्र भने सारसूत मनावी ? छे, थेटसे 3 241 व्रत सघi ताने पवित्र १४ ४२नाइ छ. "सिद्धविमाणअवंगुयदारं " तथा मोक्ष गतिनु म मनुत्तर विमानानु वा तेनाथी 34 नय प्र १०० For Private And Personal Use Only Page #843 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७९४ प्रश्नव्याकरणसूत्रे पवित्रहहकारीत्यर्थः, तथा- सिद्धिविमाणगुयदारं ' सिद्धिविमानापावृतद्वारम्-सिद्धेः-मोक्षगतेः, विमानोनाम् अत्तरविमानानाम् च, अगतम्-उद्घाटितं द्वारं प्रवेशमुखं येन तत्तथा, स्वर्गापवर्गद्वारोद्घाटकमित्यर्थः ॥ २॥ पुनः कीदृशं ब्रह्मचर्यम् ? इत्याह-' देवनरिंद ' इत्यादि । 'देवनरिंदनमंसिय पुज्ज' देवनरेन्द्रनमस्यितपूज्यम्-देवाः भवनपत्यादयः, नरेन्द्राः चक्रवादयस्तैः नमस्थिताः= नमस्कृता ये महापुरुषास्तेषां पूज्यम् आदरणीयम् । तथा- सबजगुत्तममंगलमगं'.सर्वजगदुत्तममंगलमार्गः सर्वजगत्यु-त्रिषु लोकेषु उत्तमो मङ्गलश्च यो मार्गः उपायः, सोऽस्ति । तथा- दुरिस' दुर्द्धर्यम् - देवदानवैरप्यपरिभवनीयम् , 'गुणनायगं' गुणनायक-गुणान-ज्ञानादिरूपान नयति प्रापयति यत्तत्तादृशम्-गुणधायमित्यर्थः, तथा-' एक्कं ' एकं प्रधानम्-निरुपमम् इत्यर्थः, तथा ' मोक्खपहस्स' मोक्षपथस्य मोक्षमार्गस्य ' वडिंसगभूयं ' अवतंसकभूतम्-शिरोभूषणसदृशमिदं ब्रह्मचर्यमस्ति ॥ ३ ॥ इसका ही प्रभाव सय को पवित्र और मारभूत बना देता हैं। अर्थात् यह व्रत समस्त व्रतों को पवित्र और दृढ़ करने वाला है । (सिद्धिविमाणअवंगुयदारं ) तथा मोक्षगति का और अनुत्तर विमानों का द्वार इससे खुल जाता है, अर्थात् स्वर्ग और अपवर्ग (मोक्ष) के द्वारका यह उद्धाटक है-खोलनेवाला है ॥२॥ (देवनरिंदनमंसियपुज्ज ) भवनपति आदि देवों द्वारा चक्रवर्ती आदि नरेन्द्रों द्वारा, नमस्कृत हुए ऐसे महापुरुषों के यह पूजनीय-आदरणीय है। तथा-(सव्यजगुत्तममंगलमग्गं) यह तीनों लोकों में उत्तम और मंगलकारी मार्ग है। तथा (दुरिसं) देव और दानवोंसे भी यह पराजित होने वाला नहीं है (गुणनायगं)ज्ञानादि सद्गुणों को यह प्राप्त कराने वाला है। (एक्कं ) यह प्रधाननिरुपम है (मोक्खपहस्स वडिंसगभूयं) और मोक्षमार्गका यह शिरोभूषणरूप है॥३॥ છે એટલે સ્વર્ગ અને અપવર્ગનાં દ્વારનું તે ઉદ્ધાટન કરનાર છે-ઉઘાડનાર છે મારા " देवनरिंदन सियपुज्ज'' मनपति मावि माने यवती मा िनरेन्द्रो पy જેમને નમન કરે છે એવા મહાપુરુષોને તે પૂજનીય અને આદરણીય છે. તથા " सव्वं जगुत्तममंगलमग्गं " ते नाणे सोभा उत्तम अने मारी भाग छ, तथा “ दुरिसं" । मने दानव द्वारा पा५ ते पति थाय मे नथी. " गुणनायणं " ज्ञानादि सदगुणीने ते प्रात ४२१ना२ छे. “ एक्कं " ते प्रधान -श्रेष्ट-मनुपन छ. “ मोक्खपहस्स वडिंसगभूयं " भने मोक्षमाग न त शिश. ભૂષણ રૂપ છે ! ૩ છે For Private And Personal Use Only Page #844 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका४ अ0 ४ सू०३ ब्रह्मचर्याराधनफलम् ७९५ तथा-'सुद्धचरिएणं' शुद्धचरितेन=सम्यगाचरितेन 'जेण' येन ब्रह्मचर्येण, ' भवइ ' भवति ' सुवंभणो' सुब्राह्मणः आत्मज्ञानतत्परः, · सुसमणो' मुश्रमणः सुतपरस्त्री 'सुसाहू ' सुसाधुः निर्वाणसाधकः 'सुईसी' सुऋषिः, यथाद्वस्तुदर्शकः, 'मुमुणी ' मुमुनिः जिनाज्ञाधारकः, 'सुसंजए' सुसंयतः परमयतनापरायणः । तथा स एव 'भिक्खू ' भिक्षुः सर्वत्यागी परमपुरुषार्थसाधको वा, जो यः ‘सुद्धं' शुद्ध 'बंभचेर' ब्रह्मचर्य 'चरई' चरति पालयति॥३॥ (सुद्धचरिएणं जेग सुबंभणो भवइ ) अच्छी तरह आचरित हुए इस ब्रह्मचर्य से ही मनुष्य सुब्राह्मण-आत्म ज्ञान में तत्पर-होता है, (सुसमणो ) सुश्रमग-मुतपस्वी, (सुसाहू ) सुसाधु-निर्वाण साधक, (सुईसी) सुरुषि-यथावत् वस्तुदर्शक (सुमुणी ) सुमुनि-जिनाज्ञा का आराधक, और ( सुसंजए ) सुसंयत परम यतना में परायण होता है। तथा ( स एव भिक्खू) वही सच्चा भिक्खू है-सर्व त्यागी-अथवापरम पुरुषार्थ साधक है, (जो सुद्धं बंभचेरं चरइ ) जो इस ब्रह्मचर्य को शुद्ध रीति से पालता है। ___ भावार्थ-सूत्रकार ने इस सूत्र द्वारा इस ब्रह्मचर्य की गुणगरिमा (महिमा) का ही कथन किया है । वे कहते हैं कि इस एक ब्रह्मचर्य व्रतके पूर्णरूपसे ओरांधिक होनेपर सत्य, शील आदि जितने भी सद्गुण हैं वे सब आराधित हो जाते हैं । यह ब्रह्मचर्य पंचमहाव्रतों का मूलकारण है । अतायावज्जीव साधु को इसका सेवन करते रहना चाहिये । जिस "सुद्धचरिएणं जेण सुबंभणो भवइ ' सारी ते मायामा भारत या प्राय था। मनुष्य सुनाए- मारम शानभा त५२ थाय छे, "सुसमणो" सुश्रभ-सुत५२वी-“ सुसाहू " सुसाधु-नि सा५४, "सुईसी"सुऋषि-यथावत् परंतु ४४, “ सुमुणी" लिन माज्ञाने। भारा५४, भने “सुसंजए" सुसयत५२म यतनामा पराया थाय छ, तथा “स एव भिक्खू " ते २१ सायो लिभु छे-सत्या म२५१ ५२५ पुरुषार्थ साध४ छ, “जो सुद्धं बंभचेर चरह" २ આ બ્રહ્મચર્યને શુદ્ધ રીતે પાળે છે. ભાવાર્થ–સૂત્રકારે આ સૂત્ર દ્વારા બ્રહ્મચર્યના ગુણ ગૌરવનું જ વર્ણન કર્યું છે. તેઓ કહે છે કે આ એક બ્રહ્મચર્ય વ્રતનું પૂર્ણ સ્વરૂપે આરાધના કરવામાં આવે તે સત્ય, શીલ આદિ જેટલા સદ્દગુણ છે તેમનું આરાધન આપોઆપ થઈ જાય છે. આ બ્રહ્મચર્ય પાંચ મહાવ્રતનું મૂળ કારણ છે. તેથી સાધુએ જીવનપર્યન્ત તેનું સેવન કરવું જોઈએ. જે રીતે મૂળ વિના કઈ પણ વસ્તુની For Private And Personal Use Only Page #845 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्र ब्रह्मचारिणां किं किमनाचरणीयम् ? किं किं चाचरणीयम् ? इति दर्शयति'इमं च ' इत्यादि। मूलम्-इमं च रइरागदोलमोहपवणकरं किं मज्झप्पमाय दोसपासत्थसीलकरणं अब्भंगणाणि य तेल्लमजणाणि य अभिक्खणं कक्खसीसकरचरणवयणधोवणसंबाहणगायकम्मपरिमदणाणुलेवणचुण्णवासधूवणसरीरपरिमंडणवाउसि य हसियभणिय-नट्ट-गीय-वाइयनडनदृग-जल्लमल्ल-पेच्छणवेलंवगजाणिय सिंगारागाणि अण्णाणि य एवमाइयाणि तवसंजमवंभचेरघाओवघाइयाइं अणुचरमाणेणं बंभचरं वजेयव्वाइं सव्वकालं। भावेयम्वो भवइ अंतरप्पा इमेहिं तवनियमसीलजोगेहिं णिच्चकालं, किं ते, अण्हाणक अदंतधोवणसेयमल्लधारणमूणवय केसलोयखमदमअचेलगखुप्पिवासलाघवसीतोसिणकहसेज्जाभूमिनिसेज्जपरघरप्पवेसलद्वावलद्धमाणावमाणनिंदण-दसमसकफासनियमतवगुणविणयमाइपहिं जहा से थिरतरगं होइ बंभचे।सू.४॥ टीका-' इमं च ' इत्यादि । ' इमं च ' इदं च वक्ष्यमागम्-आसन्नपार्श्व. स्थादीनामाचरणीयमाचारजातम् , 'रइरागदोसमोहपवडगकरं ' रतिरागद्वेपमो. प्रकार मूल के विना किसी भी वस्तु की स्थिरता नहीं होती है-उसी प्रकार इम एक व्रत के अभाव में किसी भी व्रत की किसी भी सद्गुण की स्थिरता और शोभा नहीं होती है। इत्यादि रूप से इस सूत्र में इसकी महत्ता का प्रदर्शन किया गया है ॥ तू०३ ॥ अब सूत्रकार ब्रह्मचारी को किस किस बात का आचरण करना સ્થિરતા સંભવી શકતી નથી, એ જ રીતે આ એક વ્રતને અભાવ હોય તે બીજા કોઈ વ્રત કે સગુણની સ્થિરતા અને શોભા સંભવતી નથી. ઈત્યાદિ રીતે આ સૂત્રમાં બ્રહ્મચર્ય વ્રતનું મહત્ત્વ બતાવવામાં આવ્યું છે. સૂ. ૩ હવે બ્રધ્રાચારીએ કેવા પ્રકારનું આચરણ કરવું જોઈએ અને કેવા For Private And Personal Use Only Page #846 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ०३ सू०४ ब्रह्मचारीणामावरणीयादिनिरूपणम् ७७ हप्रवर्द्धनकर, तत्र-रतिः विषयानुरागः, रागः स्वजनेषु स्नेहः, द्वेषः शत्रुभावः, मोहः अज्ञानम् , एषां यत्प्रवर्द्ध-प्रवृद्धिस्तस्य करं-कारकम् . पुनः 'किंमज्म-प. मायदोस-पासत्थसील-करण' किंमध्यप्रमाददोषपार्श्वस्थशीलकरणम्-तत्र-किमध्यं-कि-कुत्सितं मध्ये यस्य तत्तथोक्तम्-असारमित्यर्थः, तथा-प्रमाददोषः, प्र. मादोऽसावधानता, सएव दोषः प्रमोददोषः, पार्श्वस्थशील-पार्श्वस्थानां-ज्ञानाचारादि बहिर्वतिनां साध्याभासानां शीलम् अनुष्ठानं निष्कारणनित्यपिण्डपरिभो. गादि, एतेपां करणम् कारकं भवति । सम्पति तदेव विशदयति- अभंगणाणि य' अभ्यञ्जनानि च घृतनवनीतादिना शरीरमर्दनानि 'तेल्लमज्जणाणि य' तैलमज्जनानि च-तैलाभ्यङ्गपूर्वकस्नानानि, तथा-तथा-'अभिक्खणं' अभीक्ष्णम्चाहिये और किस किस का नहीं ? इस बात को प्रदर्शित करते हैं'इमं च इत्यादि। ___टीकार्थ -- ( इमं च ) यह वक्ष्यमाण अबसन्न, पार्श्वस्थ, कुशील, संसक्त, यथाछंद साधुओं का आचार (रइरागदोसमोहपवणकर) रति-विषयों में अनुराग, राग-स्वजनों में स्नेह, द्वेष-शत्रुता, और मोह-अज्ञान, इनकी वृद्धिकरने वाला होता है और (किंमज्झ-पमायदोस-पासत्य-सील-करणं ) किं मध्य-असार प्रमाददोषअसावधानतारूप दोष का, पार्श्वस्थ शील-ज्ञानाचारादि से बहिर्भूत शिथिलाचारियों के अनुष्ठान का-निष्कारण नित्य पिण्डपरिभोगादिरूप स्वभाव का, जनक होता है । अब सूत्रकार इसी पार्श्वस्थ आदि के आचार को विश. दरूप से समझाते हैं-(अभंगणाणि य) अभ्यंगन-धृत नवनीत आदिसे शरीर का मर्दन करना (तेल्लमजणाणिय) तेलका मालीस करना तथा ५४१२नुं न ४२ मे ते सूत्र॥२ मतावे छ- ' इमं च" त्याहि थ-“ इमं च” मा प्रभावामा मातi अपसन्न, पावस्थ, ॥a, सात, स्वछ ही साधुसीना माया२ “ रइरागदोसमोहपवटणकरं" २ति-विषयोमा मासहित, राग-२वनी ५२ स्नेह, द्वेष-शत्रुता मन मोहमज्ञान, मे सौना वृद्धि ४२ना२ डाय छे. मने " किंमज्झ-पमायदोस-पासत्थ-. सीलकरणं " मध्य-असार, अमाहोष,-सावधानता३५ होपनुं वालજ્ઞાનાચારાદિથી બાહ્ય શિથિલતા ચારીઓનાં અનુષ્ઠાનનું, નિષ્કારણ નિત્ય પરિ ભોગાદિ રૂપ સ્વભાવનું જનક થાય છે. હવે સૂવકાર આ પાર્શ્વસ્થ આદિના माया२ने विस्ता२५४ समनवे -“ अभंगणाणिय" २५स्य-1-धी, भाम माहिया शरी२ने मादीस ४२y, “ तेल्लमजणाणिय" तेदन मादास ने For Private And Personal Use Only Page #847 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७९८ प्रश्नव्याकरणसूत्र घारंवारम् , 'करखसीसकरचरणक्यणधोरणसंवाहणगायकम्मपरिमद्दणाणुलेवण चुण्णवासधूवणसरीरपरिमंडणबाउसिय-हसिय-भणिय-नट्टगीयवाइयनड-नट्टगजल्लमलपेच्छणवेलंबगं' कक्षाशीर्षकरचरणवदनधावनसंवाहनगात्रकर्मपरिमर्दनानुलेपनचू. गंवासधूपनशरीरपरिमण्डनवाकुशितासितभगितनाट्यगीतवादितनटनर्तकजल्लमल्लप्रेक्षणविडम्बकं तत्र-कक्षा-बाहुद्वयमूलाधोवत्तिस्थानम् , शीर्ष-शिरः, करचरणं= प्रसिद्धम् , वदनं-मुखं, तेषां यद् धावनं प्रक्षालनं, संवाधनं हस्ताभ्यां पादपीडनं गात्रकर्म-शरीरपरिकम-संमर्दनादि कर्मपरिमर्दनं सर्वतः शरीरमर्दनम् , तथा-अनुलेपनचूर्णवासधूपनशरीरपरिमण्डनम्, तत्र अनुलेपनम्-शरीरे चन्दनानुलेपनम् ,चूर्णवासः सुगन्धिद्रव्यचूर्णम् , धूपनम् अगुरुधूपादिकरणम् , शरीरपरिमण्डनम् वस्त्रादिभिः शरीरशृङ्गारकरणम् , तथा वाकुशिकं नखास्त्र केशसमारचनम् बकुश कर्बुरचारित्रं तदेवप्रयोजनं यस्य तद् बाकुशिकं श्रृङ्गारप्रयोजनकं नखकेशवस्त्रसमारचनादिकं, हसितं-हासः, भणितं-स्त्रीणां विकृतभणनम् , नाट्य-नटकर्म, गोतं-गानम् , वादि. (अभिक्खणं कक्खसीस कर-चरण-वयण-धोवण संवाहण-गायकम्मपरि महणाणुलेवेण चुण्णवासधूवणसरीरपरिमंडणवाउसिययहसियभणिय-न दृ-गीय-वाइय-नड-नदृग-जल्ल-मल्ल-पेच्छण-बेलबर्ग) वारंवार कांख-मस्तकहाथ-पैर और मुंहका धोना, दोनों हाथों से शरीरका दाबना, गोत्रकर्मशरीर की सफाई पर विशेष ध्यान रखना परिमर्दक-दूसरों से शरीर को रातदिन बवाना,अनुलेपन-शरीर पर चंदन का बार २ लेप करना,चूर्णवास -मुगन्धित द्रव्यों के चूर्ण से,धूपन-अगुरु आदि के धूप से शरीर को अलंकृत करना, तथा वाकुशिक-शृंगार के प्रयोजन को लेकर नख, वस्त्र औरकेशों को समारना तथा हसित-हासका हँसो मजाक-मश्करी आदि का करना, भणित-स्त्रियों के जैसा गाली आदि भाण्ड वचनों का बोलना स्नान ४२, तथा ' अभिक्खणं कक्खसीस, कर, चरणनयण-धोवण-संवाहण गायकम्मपरिमदणाणुलेवण-चुण्ण-वासधूषण-परीर-परिमंडणमाउसियहसिय-भणियना-गीय-वाइय-नड-नदृग-जल्ल-मल्ल-पेच्छण-वेलंग" पापा२ गत, माथु', હાથ-પગ અને મને ધોવું, બને હાથથી શરીરને દબાવવું, ગાત્રકમ–શરીરની સ્વચ્છતા પર વધારે ધ્યાન આપવું, પરિમર્દન-બીજા પાસે શરીરને રાતદિવસ દબાવવું, અનુલેખન-વાર વાર શરીરે ચંદનને લેપ કરે, ચૂર્ણાવાસ–સુગંધિત દ્રવ્યોના ચૂર્ણથી, ધૂપન અગરુ આદિના ધૂપથી શરીરને અલંકૃત કરવું, તથા વાકુશિક-ગારને માટે નખ, વસ્ત્ર અને કેશને સમારવા તથા હસિત-ઠઠ્ઠા મશ્કરી આદિ કરવું, ભણિત-સ્ત્રીઓના જેવી ગાળ આદિ અશિષ્ટ વચને For Private And Personal Use Only Page #848 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुशिनीटीका अ०४ सू० ४ ब्रह्मचारोणामाचरणीयादिनिरूपणम् ७९९ तम् पटहादिवादनम् तथा-नटाः नाटयितारः, नर्तकाः नृत्यकारिणः, जल्लाः= चर्ममयरज्जूपरिनत्यकारकाः, मल्ला:-मल्लयुद्धकारिणः, तेषां प्रेक्षणम् अवलोकनम् तथा-विडम्बकाः विदूषकाः, एपामितरेतरयोगद्वन्द्वः, वर्जयितव्या इति योगः । तथा-'जाणि य सिंगारागाराणि य' यानि च शृङ्गारागाणि च शृङ्गाराधारभूतानि अङ्गचेष्टादीनि तानि तथा-'अण्णाणि य' अन्यानि च-एभ्यइतराणि च 'एवमाइयाणि ' एवमादिकानि एवं प्रकाराणि यानि तवसंजमबंभचेरघाओवघाइयाई' तपः संयमब्रह्मचर्यघातोपघातिकानि, तत्र तपः संयमब्रह्मचर्याणां घातो देशतः, उपघातःसर्वतो जायते यद्वशात् तानि तथोक्तानि 'बंभचेरं' ब्रह्मचर्यम् , ' अणुचरमाणेणं' अनुचरता=पालयता 'सबकालं ' सर्वकालं-सर्वदा ‘वज्जेयघाई' वर्जितव्यानि त्याज्यानिभवन्ति, वर्जितव्यानीत्यस्यैकवचनविपरिणामेनान्यत्राsप्यन्वयो बोध्यः । तथा-'भावेयव्यो य ' भावितव्यश्च भवति 'अंतरप्पा ' अन्तरात्मा-जीवः । के भांवितव्यो भवति ? इत्याह-' इमेहि ' एभिः 'तवणियमसीलनाटय-नाटक का देखना, गीत-गान का, वादित-पटह आदि बजते हुए घाजों का सुनना, नट-नटों का, नर्तक-नृत्यकारी जनों का जल्लजल्लों का-चर्ममयरज्जु के ऊपर नाचने वालों का, मल्ल-मल्लों के बाहु. युद्ध का प्रेक्षण-रूचिपूर्वक अवलोकन करना, तथा-विडम्बकों-विदूषकों को देखना यह सब वर्जना चाहिये तथा 'जाणिय ' जो भी (सिंगारागाराणि ) श्रृंगार के आधारभूत ऐसे, तथा (एवमाझ्याणि अण्णाणि य) इसी तरह के और भी जो ( तब संजमबंभचेरघाओवघाइयाइं ) तप, संयम एवं ब्रह्मचर्य में एक देश से दूषण लगाने वाले हो अथवा सर्वदेश से उन का घात करने वाले हों, इन सब को (पंभचेर अणुचरमाणेणं ) जो इस ब्रह्मचर्य महावत के पालन करने बाले संयमी जन हैं उन्हें (सव्वकालं वज्झेयब्वाइं) सदा के लिये छोड़ देना चाहिये । બોલવા, નાટક જેવાં, ગીત તથા પટ આદિ વાજિંત્રોને અવાજ સાંભળ, નટોન, નૃત્ય કરનારના, ચર્મમય દોરડાઓ પર નાચનારાઓના, મલેના હૃદયુદ્ધનું નિરીક્ષણ કરવાનું તથા વિષકને જોવાનું એ બધાને त्या श्वो नये. तथा "जाणिय" २ "सिंगारागाराणि" श्रगाना साधन३५ मेवां तथा “ एवमाइयाणि अण्णाणिय" मेवा प्रा२र्नु मान्नु प २ “तवसंजम बंभचेरधाओवधाइयाई" त५ सयम, मने प्राय भान्स દેશથી દૂષણ લગાડનાર હોય અથવા સર્વ દેશની તેમને ઘાત કરનાર डाय, ते मधान। " बंभचेरअणुचरभाणेणं" । प्राय भावतर्नु पासन ४२ना२ सयभी ना छेतेमको "सव्वकालं वज्जेयव्वाई" सहाने भाटे त्याग ४२३॥ For Private And Personal Use Only Page #849 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रभव्याकरणसूत्रे जोगेहि ' तपोनियमशीलयोगै-तपः प्रभृतिव्यापारैः - निच्चकालं' नित्यकालं= सर्वदाऽन्तरात्मा भावितव्यः । 'किते' के ते-कथम्भूतास्ते तपोनियमशीलयोगा? इत्याह- अण्हाणग अदंतधोवणसेयमलजल्लधारणमूगवयकेसलोयग्वमदम-अचेलग खुप्पिवासलाघवसीतोसिणकठ्ठ-सेज्जाभूमिनिसेज्जापरघरपवेसलद्धावलद्रमाणावमाणनिंदणदंसमसगफासनियमतयगुणविणयमाइएहिं ' अस्नानकादन्तधावनस्वेदमलजल्लधारणमौनव्रतकेशलोच क्षमादमावेलकक्षुत्पिपासालाघवशीतोष्णकाष्ठशय्याभूमिनिषद्यारगृहपवेशलब्धापलब्धमानापमाननिन्दनदंशमशकस्पर्शनियमतपोगुणविनयादिकैः-तत्र-अस्नानकं स्नानवर्जनम् , अदन्तधावन-दन्तधावनवर्जनम् , तथा-स्वे. दमलजल्लधारणं, तत्र-स्वेदः प्रस्वेदः, मलं-स्वेदरजः संसर्गात्समुत्पन्नं घनीभूतम् तथा ( इमेहिं तवणियमसीलजोगे हिं ) इन तप, नियम और शीलसदाचार, इन सबसे उस ब्रह्मचर्य महाव्रतधारी को ( अंतरप्पा ) अपनी अन्तरात्मा ( निच्चकाल) सर्वदा (भाविययो भवइ ) भावित करना चाहिये । ( किं ते ) वे तप नियम शील योग कौन हैं ? उन्हें दिखलाते हैं- अण्हाणग-अदंतधोवणसेय-मल्ल-जल-धारण-मूणवय-केसलोयखमदम-अलग-खुणिशसलाधव सीतोमिणकट्ठ सेज्जा भूमिनिसेज्ज. पर घर पवेस-लद्धायलद्ध-माणावमाग-निंदणदंससमगफासनियमतवगुणविणषमाइएहिं ) उस साधुके तप, नियन और शील इस प्रकार के होना चाहिये-वह साधु यावज्जीव स्नान न करे, अर्थात् उस महाव्रती को जीवन भर तक स्नान करने का त्याग कर देना चाहिये, कभी भी देतौन नहीं करना चाहिये, शरीर में प्रस्वेद - पसीना आता हो, तो उसे वायु आदि करके नहीं सुखाना चाहिये । इस पसीने में आकर नसे. तथ'इमेहिं तवणियम सील जोगेहिं थे त५, नियम, मने शास-सहायार से पाथी त प्राय मानतयारी " अंतरप्पा” पोताने सतरात्मा "निच्चकालं" सहा “भाविययो भवइ" भावित ४२ . " कि ते" तत५ नियम-शासयोग । डाय छे ते मतावे -" अण्णाणग-अदंतधोवण -सेय-मल्ल-जल्ल-धारण-मूणवय-केसलोय-खमदम-अचेलग - खुप्पिवास - लाघव सीतोसिणकदसेज्जाभूमि-निसेज्ज -परघरप्पवेसलद्धावलद्धामाणावमाण निदणदं समसगफामनियमतवगुणविणयमाइएहि " ते साधननु त५, नियम अने शासभा પ્રકારનું હોવું જોઈએ-તે સાધુ જીવન પર્યન્ત સ્નાન ન કરે એટલે કે આ મહાવ્રતધારીઓ જીવે ત્યા સુધી સ્નાન કરવાને ત્યાગ કરે જઈએ, કદી પણ દાતણ કરવું જોઈએ નહીં, શરીરે પરસેવે વળતે હોય તે પવન નાખીને તેને સકવવો જોઈએ નહીં, તે પરસેવામાં રજકણે ચાટી ગયાં હોય તે તેને શરીર પરથી દૂર કરવાં જોઈએ નહી. કાન, નાક આદિ ઇદ્રિમાં For Private And Personal Use Only Page #850 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ०४ सू०४ अमरीणामाचरणीयादिनिरूपणम् जल्लंकर्णनासिकादि समुत्थं मलम् , तेषां धारणम् , तथा-मौनव्रतम् , केशलोचः, एतौ प्रसिद्धौ, क्षमा क्रोधनिग्रहः, दमा इन्द्रियनिग्रहः, अचेलकम्-धर्मोपकरणातिरिक्तवस्त्राभावः, क्षुत्पिपासे प्रसिद्धे, लाघवम्-अल्पोपाधित्वम् , शीतोष्णे प्रसिद्धे, काष्ठशय्या-काष्ठफलकशयनम् , भूमिनिषद्या भूमावुपवेशनम् , तथा-परगृहप्रवेशलब्धापलब्धमानापमाननिन्दनानि, भिक्षार्थ परगृहप्रवेशः, तत्रापि लब्धापलब्धौ लाभालाभौ, मान-सम्मानः, अपमानः अवमानना, निन्दन-कुत्सितवचनं च, तथा- दंशमशकस्पर्शः दंशमशकदशनम् , तथा-नियमः द्रव्याद्यभिग्रहः, यदि रजःकण संसक्त हो गये हों तो उन्हें शरीर से नहीं छुडाना चाहिये । कर्ण, नासिका आदि इन्द्रियों में लगे हुए मैल को भी दूर नहीं करना चाहिये । मौनव्रत रखना चाहिये तथा अपने केशों का लौंच करना चाहिये । क्षमा-क्रोध का निग्रह करना दम-इन्द्रियों का निग्रह करना चाहिये । अचेलक-धर्मोपकरणों के सिवाय अतिरिक्त वस्त्र नहीं रखना चाहिये क्षुधा और पिपासा कि बाधा को सहना चाहिये । अल्प उपधिरखना चाहिये, शीत और उष्ण जन्य परीषह को सहन करना चाहिये । काष्ट के फलक पर शयन करना चाहिये। जमीन पर बैठना चाहिये । भिक्षा के निमित्त पर घर जाना चाहिये । भिक्षा का लाभ हो अथवा न हो दोनो अवस्थाओं में समताभाव रखना चाहिये । मान और अपमान में समवृत्ति रहना चाहिये। कोई अपनी निंदा करता हो तो उसमें अक्षमता नहीं आनी चाहिये । दंशमशकों को दशनरूपयाधा से उद्विग्न नहीं होना चाहिये। द्रव्यादि का अभिग्रह रूप नियम का, अनशन आदि तपस्याओं का मूलगुणों का और अभ्युत्थाલાગેલા મેલને ઉખેડે ન જોઈએ મૌનવ્રત રાખવું જોઈએ તથા પિતાના કેશને લેચ કર જોઈએ. ક્ષમા-કોલને નિગ્રહ કર જોઈએ, દમ-ઈન્દ્રિયોનો નિગ્રહ કર જોઈએ. અલક-ધર્મનાં ઉપકરણે સિવાય વધારાનાં વસ્ત્રાદિ રાખવાં જોઈએ નહીં, ભૂખ અને તરસની મુશ્કેલી સહન કરવી જોઈએ, શેડાં જ ઉપાધિ રાખવાં જોઈએ, શીત અને ઉષ્ણતા જન્ય પરિષહ સહન કરવાં જોઈએ. લાકડાની પાટ પર સૂવું જોઈએ, જમીન પર બેસવું જોઈએ. ભિક્ષાને નિમિત્ત પર ઘેર જવું જોઈએ. ભિક્ષાને લાભ મળે કે ન મળે છતાં પણ આ બન્ને પરિસ્થતિમાં સમભાવ રાખવું જોઈએ. માન અને અપમાનમાં સમવૃત્તિથી રહેવું જોઈએ. કેઈ પિતાની નિંદા કરતું હોય છે તેથી અક્ષમતા થવી જોઈએ નહીં ડાંસ, મચ્છરના સરૂપ મુશ્કેલીથી ઉદ્વિગ્ન થવું જોઈએ નહીં. દ્રવ્યાદિના અભિગ્રહ રૂપ નિયમનું અનશન આદિ તપસ્યાઓના મૂળ For Private And Personal Use Only Page #851 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८०२ प्रश्नव्याकरणसूत्रे तपः = अनशनादि गुणाः = मूलगुगादयः, विनयः अभ्युत्थानादिः, एषां द्वन्द्वः एतान्यादौ येषां तैस्तथोक्तयों गैरयमात्मा भवितव्यः । अस्नानाऽदन्तधावनादीनां सहनेन नियमादीनामाचरणेन च महात्मा संयो जितव्य इत्यर्थः । किमर्थमित्याह 'जहा' यथा येन कृत्वा ' वंभचेरं ब्रह्मचर्य ' थिरतरगं ' स्थिरतरकं सुस्थिरं 'होइ' भवति ॥ सू० ४ ॥ " नादिरूप विनय का पालन करना चाहिये । ये सब बातें साधु के आचार के अन्तर्हित रहती हैं । सो वह इन सब बातों से ओतप्रोत हुए तप, नियम और शील-से अपनी आत्मा को भावित करता रहे अर्थात् अस्नान, अदन्तधावन आदि जो साधू के मूलगुण हैं उनका वह शास्त्रोक्त विधि के अनुसार पालन करता हुआ और नियमादिकों का आचरण करता हुआ अपनी आत्मा को विशुद्ध करता रहे कि ( जहा a Her futari होइ ) जिससे उसका ब्रह्मचर्य सुस्थिर बना रहे। भावार्थ- ब्रह्मचर्य महाव्रत धारी सकल संयमी जन अपने आचार विचार को इस प्रकार का स्वच्छ और निर्मल बनावे कि जिससे उनमें अवसन्न पार्श्वस्थ कुशील आदिपना लेशमात्र भी न आने पावे । साधु पद प्राप्त करके भी विषयों में अनुराग बना रखना स्वजनों में स्नेह रखना तथा द्वेषी के प्रति द्वेषभावना रखना, आदि परिणति अवसन्न पार्श्वस्थ साधुओं की है। शारीरिक संस्कार में ही विशेष ध्यान रखना, गीत नृत्य, वादित्र आदि में चित्त की प्रवृत्ति करना, तप संयम आदि की आराधना सिर्फ लक्ष्य न होना, ये सब ब्रह्मचर्य << ગુણાનું અને અભ્યુત્થાનાદિરૂપ વિનયનું પાલન કરવું જોઇએ. આ બધી વાતો સાધુના આચારમાં આવી જાય છે. તે તે એ બધી વાતેામાં આતપ્રોત થઈને તપ, નિયમ અને શીલથી પેાતાના આત્માને ભાવિત કરતા રહે એટલે કે અસ્નાન, અન્નન્તધાવન આદિ જે સાધુના મૂળગુણ છે તેમનું શાસ્ત્રોક્ત વિધિ પ્રમાણે પાલન કરીને નિયમાદિનું આચરણ કરીને તે પેાતાના આત્માને :વિશુદ્ધ કરતા રહે जहा से बभचेर थिरतरगँ होइ " थी तेनुं ब्रह्मयर्य सुस्थिर मनतुं रहे, ભાવા .—બ્રહ્મચ મહાવ્રત ધારી સકલ સંયમી જન પોતાના આચાર વિચારને એવાં સ્વચ્છ અને નિમળ બનાવે કે જેથી તેમનામાં અવસન્ન પાર્શ્વસ્થ આદિ સાધુઓનાં આચાર વિચારની ઝલક લેશમાત્ર પણ ન આવી શકે. સાધુનું પદ પ્રાપ્ત કરીને પણ વિષયામાં અનુરાગ ચાલુ રાખવા, સ્વજનો પ્રત્યે સ્નેહ અને દુશ્મના પ્રત્યે દ્વેષ રાખવા આદિ પરિણતિ અવસન્ન પાર્શ્વ સ્થ સાધુઓની છે. શારિક સંસ્કારનું જ વધારે ધ્યાન રાખવુ, ગીત, નૃત્ય, વાજિંત્ર આદિમાં ચિત્તને રોકવુ', તપ, સંયમ આદિની આરાધનાને જ લક્ષ્ય For Private And Personal Use Only Page #852 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुदशिनी टीका अ. ५ सू०४ ब्रह्मचारीणामनावरणीयादिनिरूपणम् ८०३ मूलम्-इमं च अबंभचेरवेरमणपरिरक्खणट्टयाए पावयणं भगवयासुकहियं अत्तहियं पेञ्चाभावियं आगमेसिभ सुद्धं नेयाउयं अकुडिलं अणुत्तरं सव्वदुक्खपावाणं विउसमणं ॥सू०५॥ टीका-' इमं च ' इत्यादि 'इमं च ' इदं च ‘पावयणं ' प्रवचनम् 'अबंभवेरवेरमणपरिरक्खणट्ठयाए' अब्रह्मचर्यविरमणपरिरक्षणार्थ-चतुर्थमहावतरक्षणनिमित्तं भगवता मुकथितम् आत्महितं, आत्महितकारकम् , आगमिष्यद् भद्रं शुद्ध नैयायिकम् अकुटिलम् अनुत्तरं सर्वदुःखपापानां व्युपशमनम् । एषामर्थः पूर्वं तृतीयसंवरद्वारे प्रोक्तः ॥ ५॥ के घातक हैं, अतः साधु को अपने मूल गुणों की रक्षा करते हुए तप संयम एवं ब्रह्मचर्य से अपनी आत्मा को भावित करते रहना चाहिये । इस तरह से उसका ब्रह्मचर्य व्रत दृढ़तर हो जाता है । सू० ४ ।। फिर कहते हैं-'इमंच' इत्यादि। टोकार्थ-(इमं च पावयणं ) यह प्रवचन (अबंभचेर वेरमणपरि रक्खणट्टयाए भगवया सुकहियं ) अब्रह्मचर्य विरमण की परिरक्षा के निमित्त भगवान ने कहा है । (अत्तहियं) यह आत्मा का हितकारक है, (पेच्चाभावियं ) परलोक में भी शुभफल का दाता है । (आगमेसिभदं ) इसी कारण यह भविष्यत् काल में कल्याणप्रद कहा गया है। (सुद्ध) निर्दोष होने से यह शुद्ध है । ( नेयाज्यं ) वीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशक प्रभु द्वारा भाषित होने से न्यायसंपन्न है। (अकुडिलं) ન ગણવું, એ બધું બ્રહ્મચર્ય વ્રતનું ઘાતક થાય છે. તે સાધુએ પિતાના મૂળ ગુણોની રક્ષા કરતાં કરતાં તપ, સંયમ અને બ્રહ્મચર્યવ્રતથી આત્માને ભાવિત કરતાં રહેવું જોઈએ. આ પ્રમાણે કરવાથી તેનું બ્રહ્મચર્યવ્રત વધારે દઢ થતું જાય છે સૂ૪ qी सूत्रार ४ छे– “ इमं च" त्यादि 14 --" इमं च पावयणं” मा प्रयन “ अब भचेरविरमणपरिरक्खणद्वयाए भगवया सुकहियं " मा ब्रह्मचर्य विरमानी परिक्षाने निमित्त लगवाने ४ छ “अत्तहियं " ते मामाने भाट डित४.२४ छ, “पेच्चामा. वियं " पखामा ५५ शुभ ५॥ ४॥छे “आगमेसिभ' ते २0 ते ભવિષ્યકાળમાં કલ્યાણ દાયક બતાવવમાં આવ્યું છે. “સુ” નિર્દોષ હોવાથી ते शुद्ध छे. “नेयाउयं " वीतराग, सर्पज्ञ मने हितोप४ प्रभु द्वारा थित पाथी न्याय युक्त थे, " अकुडिलं " अनुभाव याथी भटिया छ, For Private And Personal Use Only Page #853 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८०४ प्रश्नव्याकरणसूत्रे अथ चतुर्थव्रतस्य पञ्चभावनाः प्रतिपादयन् तत्र पूर्वमसंसक्तवासवसति नाम्नी प्रथमां भावनामाह- 'एयस्स ' इत्यादि मूलम्-एयस्त इमा पंचभावणा चउत्थवयस्त हुंति अवंभचेरवेरमणपरिरक्षणयाए । पढमं सयणासणघरदुवार अंगणआगासगवक्खसाला अहिलोयणपच्छवत्थुकपसाहण गण्हाणिकावगासा अवगासा जे य वेसियाणं अत्यंतिट्रंति य जत्थ इत्थियाओ अभिक्खणं मोहदोसरइरागवडणाओ कहिंति य कहाओ बहुविहाओ ते हु वजणिजा इस्थिसंसत्तसंकिलिट्ठा । अण्णे वि य एवमाई य अवगासा ते हु वजणिजा, जत्थ मणोविन्भमो वा भंगो वा भंसणा वा अर्द्व रुदं च होजा झाणं तं तं च वजेजवजाभीरू अणायतणअंतपंतवासी। एवमसंसत्तवासवसहीसमिइजोगेण भाविओ भवइ अंतरप्पा आरयमणा विरयगामधम्मे जिइंदिए बंभचेरगुत्ते ॥ सू० ६ ॥ ___टीका-'एयस्स' एतस्य ' चउत्थवयम्स' चतुर्थनतस्य ब्रह्मचर्याभिधेयस्य ऋजुभाव का जनक होने से अकुटिल है । (अणुत्तरं ) सर्वश्रेष्ट होने से अनुत्तर है । तथा (सव्वदुक्वपावाणं विउसमणं) समस्त दुःखोंके जनक ज्ञानावरणीय आदि अष्टविध कर्मों का यह उपशमकारक है ।मू०५ ॥ अब सूत्रकार इस चतुर्थ महाव्रत की पांच भावनाओं को प्रतिपादन करने के अभिप्राय से सर्वप्रथम असंसक्तवासवसति नाम की पहिली भावना को प्रकट करते हैं- एयस्स' इत्यादि। टीकार्थ-(एयस्स चउत्थवयस्स इमा पंच भावणा हुंति ) इस “अणुत्तरं" स अ डापाथी मनुत्तर छ, तथा सव्वदुक्खपावाणं विउसमण समस्त દુખના જનક જ્ઞાનાવરણીય આદિ આઠ પ્રકારનાં કર્મોનું તે ઉપશમ કરનાર છે. સૂ.૫ હવે સૂવકાર આ ચેથા મહા વ્રતની પાંચ ભાવનાઓનું પ્રતિપાદન કરपाने भाटे सौथी ५७i " असंसक्तवासवसति” नामनी ५डी लावनार्नु २५ष्टी४२२३ ४२ छ- “ एयस्स" त्याह --" एयस पउत्थवयस्स इमा पंच भोवणा इंति " मा प्रायथ For Private And Personal Use Only Page #854 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीकाम०४ सू.६ असंसक्तवासवसति'नामकप्रथमभावनानिरूपणम् ८०५ इमाः वक्ष्यमाणाः पञ्चभावनाः, 'अवंभचेरवेरमणपरिरक्खणट्ठयाए ' अब्रह्मचर्यविरमणपरिरक्षणार्थ-चतुर्थवतरक्षणनिमित्तं, 'हुंति' भवन्ति । तत्र-' पढम' प्रथमां-स्त्रीपशुपण्डकसंसक्ताश्रयवर्जनलक्षणां भावनामाह-'सयणासणघरदुवारअंगण आगासगवक्खसाला अहिलोयणपच्छवत्थुगपसाबणगण्हाणिकावगासा' शयनासनगृहद्वाराङ्गनाकारागवाक्षशालाऽभिलोकनपश्चाद् वास्तुकप्रसाधनकस्नानिकावकाशाः तत्र-शयनं शय्या, आसन-प्रसिद्धम् , गृह-गेहम् , द्वारम्-गृहद्वारम् , अङ्गण= गृहाङ्गणम् , आकाश: अनावृतं स्थानम् , गवाक्षो वातायनम् , शाला: = भाण्डशालादयः, अभिलोकनम् अभिलोक्यते दूरस्थितं बस्तु यदास्थाय तद् अभिलोकनम्-उन्नतं स्थानम् , तथा-पश्चाद्-वास्तुकं पृष्ठभागवतिगृहं, तथा प्रसाधनकस्य मण्डनस्य स्नानिकायास्नानक्रियायाश्च येऽवकाशा:-गृहाः, एषां द्वन्द्वः, एते स्त्रीसंसक्तेन संक्लिष्टा वर्जनीयाः । तथा-'जे य' ये च ' अवकासा' अवकाशा ब्रह्मचर्य नामक चतुर्थत्रत की ये वक्ष्यमाण पांच भावनाएँ हैं। इनसे (अयंभचेरविरमणपरिरक्खणट्टयाए) अब्रह्मचर्य विरमण रूप ब्रह्मचर्यव्रत की अच्छी तरह से रक्षा होती है । ( पढमं ) इनमें स्त्री, पशु.पंडक से संसक्त वसति का वर्जन करने रूप प्रथम भावना है। वह इस प्रकार है- (सयणासणघरदुवारअंगणआगासगवक्खसाला अहिलोयणपच्छवत्थुग ) शयन-शय्या, आसन, गृह द्वार, आंगन, खुला, हुआ स्थान, झरोखा, शाला, अभिलोकन-वह स्थान कि जिसके सहारे से दूर की वस्तु देखी जा सके ऐसी ऊँची जगह पश्चाद् वास्तूकपीछे के भाग में रहा हुआ घर, तथा (पसाहणग-हाणीकावासा) मंडन घर और नहाने के घर, ये सब यदि स्त्रियों से संसक्त हों तो साधु का कर्तव्य है कि वह इनका परित्याग करे। तथा-(जे य अवनामन याथा प्रतनी प्रमाणे पांय भावना छे. तेमनाथी “ अब भचेर विरमणपरिरक्खणदयाए " ॥ ब्रह्मचर्य वि२भए] ३५ ब्रह्मययः व्रतनी सारी शत २१॥ थाय छे. “ पढमं" तेभा स्त्री, पशु, ५ना ससमाथी युद्धत सपाटनी त्याग ४२॥ ३५ पडती लावना छ. ते मी प्रमाणे छ-"सयणा. सणघरदुवारअंगणआगासगवक्खसाला अहिलोयणपच्छवत्थुग " शयन--शय्या, मासन, गृड, द्वा२, मागा, मुली या, अरुमे, el, मालसोन-सेवी ઉંચી જગ્યા કે જ્યાંથી દૂરની વસ્તુઓ દેખી શકાય, પશ્ચાદુવાસ્તુક-પાછળના लाममा भावयु ५२, तथा “पसाहणग-हाणिकावासा " भन ५२ भने નહાવાનાં ઘર, એ બધા સ્થાને જે સ્ત્રીઓથી યુક્ત હોય તે તેમને પરિ त्याग ४२वो ते साधुनु तव्य छे. तथा “जे य अबगासा" ने स्थान For Private And Personal Use Only Page #855 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - ८०६ प्रश्नन्याकरणसूत्र गृहाः स्थानानीत्यर्थः, 'वेसियाणं ' वेश्यानाम् ‘अटुं' अर्थ निमित्तं 'तिद्वंति' तिष्ठन्ति सन्ति, तथा-'जत्थ' यत्र ' इत्थियाओ' स्त्रियो हि ' अभिक्खणं' अभीक्ष्ण-मुहुर्मुहुः ‘मोहदोसरइरागवडणाओ ' मोहदोषरतिरागवर्धनाः मोहदोषरइरागान् वर्द्धयन्ति यास्ताः मोहादिद्धिकारिण्य इत्यर्थः, 'बहुविहाओ' बहुविधाः-जातिकुलरूपनेपथ्यविषयाः 'कहाओ' कथाः ‘ कर्हिति ' कथयन्ति, 'ते खलु ' इत्थी संसत्तसंकिलिट्ठा' स्त्रीसंसक्तसंक्लिष्टाः = स्त्रीसंसर्गयुक्ताः गृहाः, 'वजणिज्जा' वर्जनीया भवन्ति । तथा-'अण्णे विय' अन्येऽपि च 'एबमाई' एवमादयः-एवं प्रकारा येऽअवकाशा भवन्ति, 'ते हु' ते खलु 'वज्जणिज्जा' वर्जनीया भवन्ति । किं बहुना-'जत्थ' यत्र यत्र-उत्तरत्र 'तं तं' इति वीप्साप्रयोगादत्रापि वीप्सा बोद्धव्या, ज्ञायते, 'मणो विन्भमो वा' मनो विभ्रमो वा -श्रृङ्गाररससमुत्पन्नं चित्तस्याऽस्थिरत्वम् , 'भंगो वा ' ब्रह्मचर्यस्य सर्वभङ्गः, गासा) जो स्थान (वेसियाणं अटुं-तिहति ) वेश्याओं के निमित्त बने हुए हों तथा (जत्थ ) जिन स्थानों पर बैठ कर (इत्थियाओ) स्त्रियां (अभिक्खणं) बार बार (मोहदोसरइराग वडणाओ) मोह दोष रति और रागको बढानेवाली (बहुविहाओ) विविध प्रकारकी (कहाओ) कथाओंको (कहेंति) कहती हों, (तेहु) वे स्थान ( इत्थी संसक्त संकिलिट्ठा ) स्त्रीयोंसे संसक्त होने के कारण साधुको उनका परित्याग कर देना चाहिये। तथा (अण्णे वि) और भी कोइ (एवमाई य अवगासा) ऐसे स्थान हों तो (ते हु) उनका भी साधु को (वज्जणिज्जा) परित्याग कर देना चाहिये । अधिक और क्या कहा जाय (जत्थ जत्थ ) जिस २ स्थान पर साधु का (मणोविन्भमो ) मन विभ्रम युक्त बन जावे (वा) अथवा ( भंगो) उसके ब्रह्मचर्य व्रत का भंग होने की संभावना (वा) अथवा " वेसियाणंअटुं-तिद्वंति " वेश्या-मोनो निमित्त मने डाय, तथा " जत्थ" रे स्थान। ५२ मेसीने " इथियाओ" स्त्रीमा “ अभिक्खणं" पार पार " मोहदोसरइरागवड्ढणाओ " मोड, दोष, २ति मने रागरे पापनारी "बहुबिहाओ" विविध प्रा२नी “कहाओ" ४थायी “कहेंति " तो हाय " ते हु" ते स्थान " इत्थी संसत्त संकिलिदा" श्रीमाथी युत जाने पारणे साधुभाम्मे तभनी परित्याग ४२व. स. तथा “ अण्णे वि" मेवi भीन्न ५ " एव माईय अवगासा" स्थान हाय तो "ते हु" भने। ५ साधुणे " वज्जणिज्जा" परित्याग 3 वो . वधु शु हुँ! "जत्थ जत्थ "२२ स्थान ५२ साधुनु " मणोविन्भमो' भन विभयुक्त मनी तय “वा" मया "भंगो" तेना अक्षय तना मानी शयता For Private And Personal Use Only Page #856 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुशिनी टीका अ०४ सू०६ 'असंसक्तवासवसति'नामकप्रथमभावनानिरूपणम८०७ 'मंसणा वा ' भ्रंशना वा-ब्रह्मचर्यस्य देशतो भङ्गो वा, तथा-' अट्ट ' आतम् इष्ट संयोगाभिलापरूपम् , ' रुदं ' रौद्र तदुपायभूतहिंसाऽनृतादत्तादानग्रहणानुबन्धरूपम् , 'झाणं ' ध्यानं ' होज्जा' भवेत् ' तं तं च ' ततच्च ‘वज्जेज' वर्जयेत् , कः ? इत्याह-यः : बज्जभीरुः' अवधभीरू सावधवसतिवासजन्यपापभीरुः, अत एव- अणायतणअंतपंतवासी ' अनायतनान्तमान्तवासी न आय. तनं स्त्रीपशुपण्डकानामित्यनायतनम् , स्त्रीपशुपण्डकरहितमित्यर्थः, अन्तम्-इन्द्रियाननुकूलं, पर्णकुटयादि, प्रान्तं तदेव प्रकृष्टं श्मशानशून्यगृहक्षमूलादिकं वा स्थान तत्र वस्तुं शीलं यस्यासौ-निर्दोष वसतिवासीत्यर्थः, स तादृशं स्थानं वर्जयेदिति भावः । उपसंहरनाह-' एवं ' एवम्-अनेन प्रकारेण ' असंसत्तवासवसइसमिइजोगेग' असंसक्तवासवसतिसमितियोगेन=प्रसंसक्तः स्त्रीपशुपण्डकसंसर्गरहितो यो (भंसणा) एक देश से वह भंग होने की संभावना हो तथा (अहं रुदं च झाण होज्जा ) इष्ट संयोगाभिलाषरूप आर्तध्यान, हिंसा, झूठ, चोरी आदि में आनंद मानने रूप रौद्रध्यान, उसके चित्त में जग जाने की संभावना हो, तो साधु को (तं तं च ) उस स्थान का (वज्जेज्ज ) परित्याग कर देना चाहिये। क्यों कि साधु (अवज्जभीरू) सावद्यवसति वास जन्य पाप से सदा भीरु-डरने वाला होता है । ( अणायतणअंतपंतवासी) और वह ऐसे ही निर्दोष स्थान में ठहरता है कि जहां स्त्री, पशु, पंडक नहीं रहते हों, तथा जो अपनी इन्द्रियों के अनुकूल न हो, किन्तु श्मशान, शून्यगृह, वृक्षमूल आदिरूप हो । इसलिये जब सिद्धान्त में निषि वसति में ठहरने की आज्ञा प्रभु की हैं तो यह बातनिश्चित है कि वह सदोषवसति में न ठहरे । ( एवं असंसत्तवास"वा” अथवा “ भंसणा" मे शिथी तमा न पानी समपिता डाय तथा “ अहें रुदं च झाणं होज्जा" ट स यालिदाषा ३५ मात्तध्यान, હિંસા, જૂહ ચોરી આદિમાં આનંદ માનવારૂપ રૌદ્રધ્યાન, તેના ચિત્તમાં ઉત્પન્ન थपानी शयता य तो साधु " तं तं च" ते ते स्थाननी " वजेज" परित्याग ४३ हे। नये. ४।२७ है साधु " अवज्ज-भीरू" सावध वसति. पास पन्य पापोथी सही ७२ना२ सय छ. “ अणायतण अंतपंतवासी" भने તે એવા નિર્દોષ સ્થાનમાં રહે છે કે જ્યાં સ્ત્રી, પશુ, પંડક રહેતા હોય નહીં* તથા જે પિતાની ઇન્દ્રિયોને અનુકૂળ ન હોય, પણ સ્મશાન, ખાલી મકાન, વૃક્ષમૂળ આદિ રૂપે . તેથી નિર્દોષ વસતિ (વસવાટ) માં રહેવાની સિદ્ધાંતમાં પ્રભુએ આજ્ઞા આપેલી છે તે એ વાત નિશ્ચય જ છે કે તેમણે सोप पसतिभा २ नही." एवं असंसत्तवासवसतिसमिइजोगेण" For Private And Personal Use Only Page #857 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८०८ प्रश्नव्याकरणसूत्रे वासः = स्थानम् तत्र या वसतिः = निवासस्तद्रूपो यः समितियोगस्तेन 'भाविओ' भावितः = वासितः ' अंतरप्पा ' अन्तरात्मा - जीवः ' आरयमणा' आरतमनाःआसमन्तात् तं ब्रह्मचर्ये संसक्तं मनो यस्य स तथा पुनः - विरयगामधम्मे विरत ग्रामधर्मः = निवृत्तो ग्रामधर्मात मैथुनाद् यः स तथा अत एव - ' जिइंदिए ' जितेन्द्रियः=वशीकृतेन्द्रियः, ' वंभचेरगुत्ते ' ब्रह्मचर्यगुप्तः = नवविध ब्रह्मचर्यसहितः दशविधब्रह्मचर्य - सगाधिस्थानयुक्तो वा ' भवइ' भवति ॥ सु० ६ ॥ 1 बसति समिइ जोगेण ) इस प्रकार स्त्री, पशु, पंडक के संसर्ग से रहित स्थान में ठहरने रूप समिति के योग से ( भाविओ अंतरप्पा ) भावित अंतरात्मा - मुनि (आरयमणा ) सर्व प्रकार से ब्रह्मचर्य व्रत में संसक्त मन वाला हो जाता हैं और - (विरयगामधम्मो ) ग्राम धर्म - मैथुन से विरत हो जाता है । अतएव - वह (जिइंदिए बंभचेरगुत्ते भवइ ) जितेन्द्रिय बनकर नवविधब्रह्मचर्य की गुप्ति से अथवा दशविध ब्रह्मचर्य समाधी स्थान से युक्त बन जाता है भावार्थ - इस सूत्र द्वारा सूत्रकार ने ब्रह्मचर्य व्रत को स्थिर रखने बाली पांच भावनाओं में से प्रथम स्त्रीपशु पंडक सेवित शयनासन वर्जन रूप भावना का स्वरूप स्पष्ट किया है । साधुजन को ऐसी ही वसतिस्थान में निवास करने को प्रभु की आज्ञा है कि जो निर्दोष हो । स्त्री पशु पंडक आदि के संसर्ग से रहित हो। क्यों कि ऐसे स्थान में निवास करने से साधु के ब्रह्मचर्य व्रत का देश से भंग अथवा सर्वथा भंग हो सकता है। तथा जिस स्थान पर बैठकर स्त्रियां विविध આ રીતે સ્રી, પશુ, અને પંડકના સ ંસર્ગથી રહિત સ્થાનમાં રહેવા રૂપ सभितिना योगथी “भाविओ अंतरप्पा" लावित अंतरात्मा - भुनि " आरयमणा" हरे प्रारे श्रार्य व्रतमा दृढ भरवाजा यह भूय छे भने “विरयगामवम्मो" श्राभधर्म-मैथुनथी भुक्त यह लय छे. तेथी ते " जिइंदियबंभचेरगुत्ते भवइ ' જિતેન્દ્રિય થઈને નવ વિધ બ્રહ્નચની ગુપ્તિથી અથવા દેશવિધ પ્રહ્મચય સમાધિ સ્થાનથી યુક્ત બની જાય છે. " भावार्थ- —આ સૂત્ર દ્વારા સૂત્રકારે પ્રહ્મચર્ય વ્રતને સ્થિર રાખવાની પાંચ ભાવનાઓમાંથી સૌથી પહેલી સ્ત્રી, પશુ, પંડક સેવિત શયનાસન વનરૂપ ભાવનાનું સ્વરૂપ સ્પષ્ટ કર્યું" છે. સાધુજનાને એવા સ્થાનમાં વસવાની પ્રભુની આજ્ઞા છે કે જે નિર્દોષ હાય, સ્ત્રી, પશુ, પ’ડક આદિના સંસર્ગથી રહિત હાય. કારણ કે એવા સ્થાનમાં વસવાથી સાધુના બ્રહ્મચર્ય વ્રતને અંશતઃ ભંગ થાય છે અથવા સર્વથા ભંગ થઇ શકે છે, તથા જે સ્થાને બેસીને For Private And Personal Use Only Page #858 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीकाअ०४ सू०७ 'स्त्रीकथाविरती'नामक द्वीतियभावनानिरूपणम्८०९ द्वितीयां स्त्रीकथाविरतिनाम्नी भावनामाह-वीयं ' इत्यादि___ मूलम् -बीयं नारीजणस्स मज्झे न कहेयव्वा कहा विचित्ता विब्बोकविलाससंपउत्ता हास सिंगार लोइयकहव्व मोहजणणी न आवाहवरकहाविय इत्थीणं वा सुभगदुम्भगकहाचउसट्रिं महिलागुणाणं च न देसजातिकुलरूवणामनेवत्थपरिजणकहाओ इत्थियाणं अण्णावि य एवमाइयाओ कहाओ सिंगारकलुणाओतवसंजमवंभचेरघाओवघाइयाओ अणुचरमाणेणं बंभचेरं न कहेयव्वा न सुणेयन्वा न चिंतियब्बा। एवं इत्थीकहा विरइजोगेण भाविओभवइ अंतरप्पा आरयमणा विरयगामधम्मे जितिदिए वंभचेरगुत्ते ॥सू०७॥ प्रकार की श्रृंगार आदि वर्धक कथाएँ किया करती हों, जो स्थान वेश्याओं के लिये निर्मित हुए हो, जो मनःक्षोभ कारक हो, आर्तरौद्रध्यान के प्रवर्तक हों, ऐसे भी स्थानों में साधु को नहीं ठहरना चाहिये, किन्तु जो स्त्री आदि के संसर्ग से रहित हों, इन्द्रियों में क्षोभ कारक न हों ऐसे श्मशान, शन्य गृह आदि स्थानों में ही साधु को निवास करना चाहिये । इस प्रकार इस असंसक्तवासवसति नामक प्रथम भावना से भावित हुआ जीव ब्रह्मचर्य व्रत की सर्वप्रकार से रक्षा करता हुआ मैथुन से विरक्त होकर उसकी नौ कोटि से पूर्णपालना करने में सावधान रहना है । सू०६ ॥ સ્ત્રીઓ વિવિધ પ્રકારની અંગાર આદિ વર્ધક કથાઓ કહેતી હોય, જે સ્થાન વેશ્યાઓ માટે જ બનાવ્યા હોય, જે મનમાં લેભ કરનાર હેય, આ રૌદ્ર ધ્યાન તરફ દોરનાર હોય, એવા સ્થાનમાં પણ સાધુઓએ વસવું જોઈએ નહીં, પણ જે સ્થાન સ્ત્રી આદિના સંસર્ગથી રહિત હય, ઈન્દ્રિમાં ભ કરનાર ન હોય એવાં મશાન, ખાલી ઘર આદિ રથાનેમાં સાધુએ નિવાસ કરવા જોઈએ. આ પ્રકારે આ “અસંસક્ત વાસ વસતી” નામની ભાવનાથી ભાવિત થયેલ જીવ બ્રહ્મચર્ય વ્રતની દરેક રીતે રક્ષા કરતે મૈથુનથી રહિત બનીને તેનું નવ પ્રકારે પાલન કરવામાં સાવધાન રહે છે. જે સૂ. ૬ For Private And Personal Use Only Page #859 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे टीका-'बीयं द्वितीयां स्त्रीकथाविरतिलक्षणां भावनामाह 'नारीजणस्स' नारीजनस्य स्त्रीपर्षदो 'मज्झे' मध्येऽन्तराले न नैव 'कहेयवा' कथयितव्या 'कहा' कथावाक्यप्रबन्धरूपा । कथामेव विशिनष्टि'विचित्ता' विचित्रा-विचित्रत्तान्तसमन्त्रिता, तथा-' विवोकविलाससंपउत्ता' 'विवोकविलाससंप्रयुक्ता-' विवौका अत्यभिमानवशादिष्टेऽपि वस्तुन्यनादरकरणम् , तदुक्तम्-'निव्वोकस्त्यतिगर्वेण वस्तुनीष्टेऽप्यनादरः, इति । विलासः= स्थानासनगमनानां हस्तभ्रनेत्रकर्मणां चैव यो विशेषः स तदुक्तम्-" स्थानासनगमनानां इस्तभूनेत्रकर्मणां चैव ! उत्पद्यते विशेषो यः श्लष्टः स तु दिलासः स्यात् ॥” इति । विबोकवि अब सूत्रकार स्त्रीकथाविरति नामकी द्वितीय भावना को प्रदर्शित करते हैं-'बीयं नारीजणस्स' इत्यादि। टीकार्थ--(बीयं दूसरी स्त्रीकथाविरति रामकी भावना इस प्रकार से है- (नारीजणस्स मज्झे) स्त्रियों के बीच में बैठकर साधु को (कहा ) कथाएँ कि जो (विचित्ता) विचित्र वृत्तान्तों से युक्त हो (वियोकविलाससंपउत्ता) इष्ट वस्तु में भी अनादर कराने वाली हों तथा विलासभाव बढानेवाली हों ( न कहेयव्वा) नहीं करना चाहिये । अति अभिमान के वश से इष्ट वस्तु में भी अनादर करना इसका नाम विन्धोक है, तथा स्थान, आसन, गमन में एवं हस्त, भ्र, नेत्र इन की क्रियाओं में विशेषता आना इसका नाम गिलास है। ये दोनों प्रकार की विशेष चेष्टाएँ स्त्रियों में शृंगारभावजनित हुआ करती हैं। विन्वोक और विलास इन दोनों से जो कथाएँ युक्त हों वे साधु को ३. सूत्र.२ " स्त्रीकथाविरति " नामनी थी भावना मताचे छ" बीयं नारी जणस्स" त्यहि थ-"बीयं" सी था नामनी भावना मा प्रभारी छ-" नारीजणस्स मज्झे" खीमानी १-ये मेसीने साधुसे सवा "कहा" था। रे "विचित्ता" वियित्र ! पी डाय “ विवोकविलाससंपउत्ता" ४८वस्तुमा ५ मना४२ शवनारी डाय तथा वितासभाव वधापनारी डाय " न कहेयव्वा ते वीन નહીં અતિ અભિમાનને વશ થઈને ઈષ્ટ વસ્તુને પણ અનાદર કરે તેને વિક કહે છે, તથા સ્થાન, આસન, ગમનમાં અને, હાથ, ભ્ર નેત્ર વગેરેની ક્રિયામાં વિશેષતા આવે તે વિલાસ ગણાય છે. એ બન્ને પ્રકારની વિશેષ ચેષ્ટાઓથી સ્ત્રીઓમાં શૃંગાર ભાવ પેદા થાય છે. વિવેક અને વિલાસ એ બનેથી For Private And Personal Use Only Page #860 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ०४ सू०७ 'स्त्रीकथाविरति'नामकद्वितीयभावनानिरूपणम् ८११ लासौ-स्त्रीणां शृङ्गारभावजनितौ चेष्टाविशेषौ, ताभ्यां संप्रयुक्ताः,तथा-'हाससिंगारलोइयकहा ' तत्र हासशृङ्गारलौकिककथा हास्यः हास्यस्थायिभावो रसबिशेषः, श्रृङ्गार:-रतिस्थायिभावोरसविशेषः, एतत्प्रधाना या लौकिकीकथा सा तथा, 'मो. हजणणी' मोहजननी-मोहोदीरिका कथा न वक्तव्या । तथा-'आवाहविवाहवरकहावि य' आवाहविहारवरकथापि च आवाह-अभिनवपरिणीतस्य वधूवरस्य आनयनम् , विवाहः पाणिग्रहणम् , तत्प्रधाना या वरकथा-परिणेतृकथा साऽपि च न वक्तव्या । तथा-' इत्थीणं ' स्त्रीणां ' सुभगदुब्भगकहा ' सुभगदुर्भगकथा="इट नेत्रनासिकाकपालादियुक्ता च स्त्री दुर्भगा भवति" इत्यादिरूपा कथा वा न स्त्रियों के बीच बैठकर कभी नहीं कहना चाहिये, क्यों कि ऐसी कथाओं के कहने में रागभाव की संयुक्तता साधु के जानी जाती है। इससे उसके ब्रह्मचर्यत्रत में दोष आता है। इसी तरह (हाससिंगारलोइयकहा) जो लौकिक कथा हास्य और शृंगाररस प्रधान हो, तथा (मोहजणणी) मोह की जनक हो वह भी नहीं कहना चाहिये । तथा (आवाहविवाह वरकहाविय ) जो कथा नव दंपतियों के आगमन से संबंध रखती हों, अर्थात्-जिस कथा का विषय नव परिणित वधू और वर के संबंध को लिये हुए तथा जिस कथा में विवाह संबंधी चर्चा हो, ऐसी आवाह और विवाह प्रधान वाली वरकथा भी साधु को नहीं कहनी चाहिये । इसी तरह ( इत्थीणं वा सुभगदुब्भगकहा ) स्त्रियों संबंधी सुभग दुर्भग कथा भी नहीं कहना चाहिये, अर्थात्-'इस प्रकारके नेत्र, नासिका और कपाल आदिवाली स्त्री सुभग होती है और इस प्रकारके नेत्र. नासिका, યુક્ત હોય તેવી કથાઓ સાધુએ સ્ત્રીઓની વચ્ચે બેસીને કદી પણ કહેવી જોઈએ નહીં, કારણ કે એવી કથાઓ કહેવામાં રાગ ભાવની સંયુક્તતા आधी तय छे. तेथी प्रार्थ ब्रतमा ५ यावी. onय छे. मे ४ रीते "हास सिंगारलोइयकहा " २ सौ ४था हास्य भने ॥२ २१ प्रधान राय, तथा “ मोहजणणी" मोड पहा ४२ना२ जाय, ते ५५ ५वी नये नही तथा “ आवाहविवाहबरकहाविय " * ४था नव पति साना आगमन સાથે સંબંધ ધરાવતી હોય, એટલે કે જે કથાને વિષય નવ પરિણિત વર્ષ અને વરના સંબંધમાં હેય, તથા જે કથામાં વિવાહ સંબંધી ચર્ચા આવતી હેય, એવી આવાહ અને વિવાહ પ્રધાન વર કથા પણ સાધુએ કહેવી જોઈએ नडी. से प्रमाणे " इत्थीणं वा सुभगदुब्भगकहा" श्री. सधी सुमन, વિરળ કથાઓ પણ કહેવી જોઈએ નહીં, એટલે કે “આ પ્રકારનાં નેત્ર, નાક અને કપાળવાળી સ્ત્રી સુભગ હોય છે અને આ પ્રકારનાં નેવ, નાક અને For Private And Personal Use Only Page #861 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२ प्रश्नव्याकरणसूत्रे वक्तव्या। तथा-'चउसट्ठीमहिलागुगा' चतुष्पष्टिमहिलागुणाः आलिङ्गनादीनामष्टानां प्रत्येकस्याष्टविधत्वेन ये चतुष्पष्टिसंख्यका महिलागुणास्तेऽपि च न वक्तव्याः । तथा-' देसजाइकुलरूवणामनेवत्थपरिजणकहाओ' देश नातिकुलरूपनामनेपथ्यपरिजनकथाः तत्र-देशकथा लाटादिदेशसम्वन्धिस्त्रीणां वर्णनम् , यथा-' लाटयः और कपाल आदि से युक्त स्त्री दुर्भग होती है, इस प्रकार ये स्वीयो की सुभगता और दुर्भगता से संबंध रखने वाली कथा भी साधु को नहीं कहना चाहिये । तथा (चउसष्टुिं महिलागुणाणं च ) जिस कथा में स्त्रियों के चौसठ गुणों से संबंध हो, अर्थात् स्त्रियों के चौसठ गुणों को लेकरजो कथा चलती हो वह भी साधु को नहीं कहनी चाहिये। आलिगन आदि आठ गुण प्रत्येक आठ २ प्रकार के होते हैं, इस तरह ८xc=६४ प्रकार के महिलाओं के गुण कहे गये है। सो ये चौंसठ ६४ प्रकार के महिलाओं के गुण भी कथामें चर्चनीय नहीं होनी चाहिये। तथा (देसजाति कुलवणामनेवत्थपरिजगकहाओ इत्थियाणं अण्णावि य एवमाझ्याओ सिंगार कलुणाओ संजमबंभचेर घाओवघाइयाओ यंभचेरं अणुचरमाणेणं न कहेयव्वा न सुणेयव्वा न चिंतियव्या) देश,जाति, कुल, रूप, नाम, नेपथ्य, परिजन, इनसे संबंध रखने वाली स्त्रियोंकी कथाएँ भी नहीं कहनी चाहिये-लाटादि-देश संबंधी स्त्रियों का वर्णन जिस कथामें होता है वह देश कथा है, जैसे-लाट देश की स्त्रियां बहुत ही कोमल કપોળ વાળી સ્ત્રી વિરલ હોય છે... આ રીતે સ્ત્રીઓની સુભગતા કે વિરલતા साथे सय रामती ४था पशु साधुये ४ी मे नही. " च उसद्धि महिला गुणाणं च"२ थाने। सीमाना यासह गुणे। साथे संपाय એટલે કે સ્ત્રીઓના ચોસઠ ગુણેને અનુલક્ષીને જે કથા ચાલતી હોય તે પણ સાધુએ કહેવી જોઈએ નહી. આલિંગન આદિ આઠ ગુણામને પ્રત્યેક ગુણ આઠ આઠ પ્રકારને હોય છે, આ રીતે ૮૪૮-૬૪ પ્રકારના એના ગુણ બતાવ્યા છે. તે તે ચોસઠ પ્રકારના સ્ત્રીઓના ગુણ પણ કથામાં ચર્ચાને योग्य नथी. तथा "देस जातिकुलरूवणाम-नेवत्थ-परिजण-कहाओ इत्थियाणं अण्णा वि य एवमाइयाओ कहाओ सिंगारकलुणाओ संजमवं बचेरघा भोव वाइयाओ बंभचेर अणु चरमाणेणं न कहेयच्या न सुणेयच्या नचिंतियव्या" ,जति. मु,३५,नाम, नेपथ्य, પરિજન, વગેરે સાથે સંબંધ રાખનારી સ્ત્રીઓની કથાઓ પણ કહેવી જોઈએ નહીં. લાટાદિ દેશની સ્ત્રીઓનાં વર્ણન જે કથામાં હોય તે દેશ કથા છે, જેમકે “લાટ દેશની સ્ત્રીએ બહુ જ મદુ વચન વાળી અને નિપુણ હોય For Private And Personal Use Only Page #862 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ०४ सू० ७ स्रोकथाविरतिनामकद्वितीयभावनानिरूपणम् ८१३ कोमलबचनाः इति निपुणा वा भवन्तो " त्यादि । जातिकया-ब्राह्मगादिजाति संबन्धिकथा, यथा-" धिग्ब्राह्मणीवाभावे या जीवन्तिमृता इव । धन्यामन्ये शूद्रीः पतिलक्षेऽप्यनिन्दिताः॥ कुलकथा, यथा-अहो चौलुक्यपुत्रीणां साहसं जगतोऽधिकम् । पत्यौ मृते विशन्त्यग्नि याः प्रेमरहिता अपि" इति । रूपकथायथा-चन्द्रवक्त्रा सरोजाक्षी, सङ्गीः पीनधनस्तनी । किलाटीनो मता सा स्या, देवानामपि दुर्लभा ॥ १॥” इति । वचनवाली और निपुणता युक्त हुआ करती हैं ब्राह्मण आदि जाति से संबंध रखनेवाली स्त्रियों की कथा कहना इसका नाम जाति कथा है । जैसे पति के अभाव में जीवन व्यतीत करने वाली ब्राह्मणियों को धिकार हैं-क्यों कि ये जीती हुई भी एक तरह से मरी हुई जैसी हैं । और वे शूद्र जाति की स्त्रियां धन्य हैं जो लाख पतिवाली होने पर भी निन्दित नहीं होती हैं। कुल से संबंध रखलेवाली स्त्री संबंधी कथा कुल कथा है-जैसे-अहो ! चौलुक्यवंश की स्त्रियों का साहस जगत में सबसे अधिक होता है-क्यों कि ये पति के मर जाने पर प्रेम से विहीन होती हुई जीती २ अग्नि में जल जाती हैं। स्त्रियों के रूप से संबंध रखने वाली कथारूप कथा है-जैसे लाटदेश की स्त्रियां चन्द्रमा के जैसी मुखवाली होती हैं कमल जैसी आँखों वाली होती हैं वागी में इनके मिठास रहता है, इनके दोनो कूच पुष्ट और स्थूल होते हैं ।भलां ऐसी सुन्दर स्त्री किसको नहीं अच्छी लगेगी? ऐसी स्त्रीतो देवो को भी दुर्लभ हुआ करती છે.” બ્રાહ્મણ આદિ જાતિ સાથે સંબંધ રાખનાર ઝિની કથા કહેવી તે જાતિ કથા કહેવાય છે. જેમ કે” પતિ વિના જીવન વ્યતીત કરનારબાહ્ય ણીઓને ધિક્કાર છે, કારણું કે તેઓ જીવતી હોવા છતાં પણ એક રીતે તે મૃત જેવી જ છે. ” “તે શુદ્ધ જાતિની સ્ત્રિઓને ધન્ય છે કે જે લાખપતિ હોવા છતાં પણ નિદિત થતી નથી.” આ બીજી જાતિ કથાના દષ્ટાંત છે. જે કુળ સાથે સંબંધ રાખનારી સ્ત્રી વિષેની કથાને કુળ કથા કહે છે. જેમ કે “અડો ! ચાલુક્ય વંશની સ્ત્રીઓનાં સાહસ જગતમાં સૌથી વધારે હોય છે, કારણ કે પતિનું મૃત્યુ તથા તે પ્રેમભગ્ન થવાથી જીવતી અગ્નિમાં પ્રવેશ કરી બળી મરે છે. સ્ત્રીઓનાં રૂપ સાથે સંબંધ રાખનારી કથાઓને રૂપકથા કહે છે. જેમ કે લાટ દેશની ઢિઓ ચન્દ્રમુખી હોય છે, કમળનયની હોય છે, તેમની વાણીમાં મીઠાશ હોય છે, તેમના બંને કુચ પુષ્ટ અને સ્થૂળ હેય છે. એવી સુંદર સ્ત્રી કેને ન ગમે ? એવી સ્ત્રીએ તે દેવેને પણ For Private And Personal Use Only Page #863 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे __नामकथा-यथा-इयं यथा नाम्ना सुंदरी, तथा-रूपगुणाभ्यामपि ! नेपथ्यकथा, यथा-" धिङ्नारीरौदीच्या बहुवसनाच्छादिताङ्गलतिकत्वात् । यद्यौवनं न यूनां चक्षुर्मादाय संभवति ॥” इति । परिजनकथा-यथा-" चेटिकापरिवारोऽपि तस्याः कानो विचक्षणः । भावज्ञाः स्नेहवान् दक्षो विनीतः सुकुलस्तथा ॥” इति । ___एताः कथा न कर्तव्याः । तथा-' इस्थियाणं' स्त्रीणाम् 'अग्णावि य ' अन्या अचि च ' एवमाइयाओ कहाओ' एवमादिकाः कयाः या हि — सिंगारकलु णाओ' शृङ्गारकरुणाः शृङ्गाररसकरुणरसयुक्ताः, तथा ' संजमभचेरघाओवहैं । नाम कोलेकर जिस कथा में स्त्री संबंधी सौन्दर्य का वर्णन किया जाताहै वह नाम कथा है,जैसे-यह स्त्री जैसे नाम से सुन्दर है वैसे ही यह रूप और गुणों से भी सुन्दर है, स्त्री संबंधी वेशभूषा आदी की चर्चाजिस कथा में रहती है वह नेपथ्यकथा है, जैसे-उत्तरदिशा की स्त्रियों को धिक्कार है-जो अनेक वस्त्रों से आच्छादित रहा करती हैं, क्यों कि इसतरह रहने से इनका यौवन युवापुरुषों की आंखो को आनंदप्रदान नहीं करता है । स्त्रियों के परिजनों को लेकर जो कथाएँ कही जाती हैं वे परिजन कथाएँ हैं, जैसे-उस स्त्रि का चेटिका जन-दासी जन रूप परि वार-भी बड़ा सुन्दर, निपुण, भावज्ञ, स्नेहयुक्त, दक्ष-व्यवहारकुशल, विनीत एवं कुलीन है। साधु को ऐसी स्त्री संबंधी देशादि कथाएँ रागभाव से युक्त होकर नहीं करना चाहिये । तथा इसी तरह की और भी स्त्रियों से संबंध रखने वाली शृगार रस एवं करुण रस દુર્લભ છે. નામને અનુલક્ષીને જે કથામાં સ્ત્રી સંબંધી સૌદર્યનું વર્ણન કરાયું હેય છે તે નામ કથા કહેવાય છે. કે “આ સ્ત્રીનું નામ જેટલું સુંદર છે એટલી જ તે રૂપ અને ગુણમાં પણ સુંદર છે. સ્ત્રીની વેશભૂષા આદિની ચર્ચા જે કથામાં હોય છે તે નેપથ્ય કથા કહેવાય છે. જેમ કે “ઉત્તરની સ્ત્રીઓને ધિક્કાર છે, જે અનેક વસ્ત્રથી આચ્છાદિત રહે છે, કારણ કે તે પ્રમાણે રહેવાથી તેમનું યૌવન યુવાનેની આંખને આનંદ પ્રદાન કરતું નથી.” સ્ત્રિઓનાં પરિજનને અનુલક્ષીને જે કથા કહેવાય છે તે પરિજન કથાઓ છે. જેમ કે તે સ્ત્રીને દાસિજન રૂપ પરિવાર પણ ઘણે સુંદર, નિપુણ, ભાવસ, નેહાળ, દક્ષ-વ્યવહાર કુશળ, વિનીત અને કુલીન છે” સાધુએ એવી સ્ત્રી સંબંધી દેશાદિ કથાઓ રાગ ભાવથી યુકત થઈને કહેવી જોઈએ નહીં. તથા એ જ પ્રકારની સિઓ સાથે સંબંધ રાખનારી ચૂંગાર રસ અને કરુણરસ For Private And Personal Use Only Page #864 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ०४ सू०७ 'स्त्रीकथाविरति'नामकद्वितीयभावनानिरूपणम् ८१५ घाइयाओ' संयमब्रह्मवर्यघातोपघातिकास्ताः कथाः, : बंभचेरं ' ब्रह्मचर्यम् , 'अणुचरमाणेणं' अनुचरता न कहेयच्या ' स्वयं कथितव्याः , न=नापि च ' सुणेयवा' अन्यस्य कथयतः श्रोतव्याः न 'चिंतियव्या' चिन्तितव्याः, न चिन्ताविषयीकर्तव्याः। एवम् — इत्थीकहाविरइसमिइजोगेण' स्वीकथाविरतिसमितियोगेन=स्त्रीणां याः कथास्ततो या विरनिस्तद्रूपो यः समितियोगस्तेन भावितोऽन्तरात्मा आरतमना- ब्रह्मचर्यासक्तमनाः, विरतग्रामधर्मः-निवृत्तभैथुनभावः । जितेन्द्रियः वशीकृतेन्द्रियः, ब्रह्मचर्यगुप्तः नवविधब्रह्मचर्यगुप्तिसहितः, उत्तराध्ययनमूअषोडशाध्ययनोक्त दशविधब्रह्मवर्य समाधिस्थानयुक्तो वा भाति ॥ मू० ७॥ प्रधानकथाओं को नहीं कहना चाहिये। तथा जिन कथाओं से संयम और ब्रह्मचर्य का घात और उपघात होता हो ऐसी कथाएँ भी ब्रह्मचर्य को पालन करने वाले साधू को न स्वयं कहना चाहिये, न सुनना चाहिये और न ऐसी कथाओं का विचार ही करना चाहिये। (एवं इत्थी कहावि रइ समिहजोगेण भाविओं अतरप्पा विरयगामधम्मे जिइंदिए बंभचेर गुत्ते भवइ ) इस प्रकार से स्वीकथाविरतिरूप समिति के संबंध से भावित हुआ जीव ब्रह्मचर्य में आसक्त मनवाला हो जाता है और ग्रामधर्ममैथुन क्रिया से निवृत्त हो जाता है, अतएव वह जीव जितेन्द्रिय बनकर नवविध ब्रह्मचर्य की गुप्ति से अथवा उत्तराध्ययन सूत्र के सोलहवें अ. ध्ययन में कहे हुए दशविध ब्रह्मचर्य समाधि स्थान से युक्त बन जाता है। भावार्थ-इस सूत्र द्वारा सूत्रकार ने ब्रह्मचर्य व्रत की द्वितीयभावना का स्वरूप प्रकट किया है । इसमें उन्हो ने रागभाव से स्त्रीमात्र પ્રધાન કથાઓ પણ કહેવી જોઈએ નહીં તથા જે કથાએથી સંયમ અને બ્રહ્મચર્યને ઘાત અને ઉપઘાત થતો હોય એવી કથાઓ પણ બ્રહ્મચર્યનું પાલન કરનાર સાધુએ કહેવી ન જોઈએ, સાંભળવી ન જોઈએ અને એવી ४थामाना पियार ५७ ४२३। नये ना. "एवं इथीकहाविरइसमिइजोगेण. भाविओ अंतरप्पा विरयगामधम्मे जि दिए बंभचेरगुत्ते भवइ” २ प्रमाणे સ્ત્રી કથા વિરતિરૂપ સમિતિના રોગથી ભાવિત થયેલ જીવ બ્રહ્મચર્યમાં આસક્તમનવાળો બની જાય છે અને ગ્રામધર્મ-મથુનક્રિયાથી નિવૃત્ત થઈ જાય છે, તેથી તે જીવ જિતેન્દ્રિય બનીને નવવિધ બ્રાચર્યની ગુણિથી અથવા ઉત્તરાધ્યયન સૂત્રના સોળમાં અધ્યયનમાં કહેલ દશવિધ બ્રહ્મચર્યસમાધિ સ્થાનથી યુક્ત બની જાય છે. ભાવાર્થ—આ સૂત્ર દ્વારા સૂત્રકારે બ્રહ્મચર્ય વ્રતની બીજી ભાવનાનું સ્વરૂપે પ્રગટ કર્યું છે. તેમાં તેમણે રાગભાવથી સ્ત્રી માત્રની કથાઓ કહેવાને For Private And Personal Use Only Page #865 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे तृतीयां भावनामाह-' तइयं ' इत्यादि मूलम्-तइयं नारीणं हसिय- भाणय चिट्ठिय विप्पेक्खिय गइविलासकीलियं विब्बोइ य नहगीयवाइय सरीर-संठाण वण्णकरचरणनयणलावण्णरूवजोवणपयोधराधरवत्थालंकारभूसणाणि य गुज्झोवकासियाई अण्णाणि य एवमाइयाणि तव संजमबंभचेरघाओवघाइयाइं अणुचरमाणेणं बंभचेरं न चक्खुसा न मणसा न वयसा पत्थेयव्वाइं पावकम्माई एबं इत्थीरूव विरइ समिइजोगेण भाविओ भवइ अंतरप्पा आरयमणा विरयगामधम्मे जिइंदिए बंभचेरगुत्ते ॥ ८॥ टीका-'तइयं तृतीयां स्त्रीरूपनिरीक्षणवर्जनरूपां भावनामाह-'नारीण नारीणां 'हसियभणियचिट्ठियविपेक्खियगइबिलासकीलियं ' इसितभणितचेष्टितविप्रेक्षितकी कथा कहने का निषेध किया है, क्यों कि ऐसी बाते कामवर्धक हुआ करती हैं, अतः ब्रह्मचारी को अपने ब्रह्मचर्य प्रल में एकदेश अथवा सर्बदेश से बाधक ऐसी कोई भी बात स्त्रियों के बीच में बैठकर नहीं करनी चाहिये । इस प्रकास उस ब्रह्मचारी का भान हर समय सुरक्षित बना रहता है । सू०७ ॥ ___ अब सूत्रकार इस व्रत की तृतीय भावना को कहते हैं-'तइयं नारीणं' इत्यादि। टीकार्थ-(तइयं ) इस व्रत की रक्षा करने वाली तृतीय भावना स्त्री रूप निरीक्षगवर्जन करने रूप है। इस में (नारीणं) स्त्रियों के નિષેધ કર્યો છે, કારણ કે એવી વાત કામ વર્ધક હોય છે, તેથી બ્રહ્મચારીએ પિતાના બ્રહ્મચર્ય વ્રતમાં એક દેશથી અથવા સર્વદેશથી બાધક એવી કોઈ પણ વાત સ્ત્રીઓની વરો બેસીને કહેવી જોઈએ નહીં. આમ કરવાથી તે બ્રહ્મચારીનું વ્રત સદાકાળ સુરક્ષિત બની જાય છે કે સૂ. ૭ છે वे सूत्रा२ मा प्रतनी जी लावना सतावे . " तइयं नारीण" त्या 12.-" तइयं" तनुं २०५५ ४२नारी श्री लावना सीनi ३५नुं निरीक्षY ४२पानी परित्या ४२वानी छे. तेमा " नारीणं " भिमानी For Private And Personal Use Only Page #866 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुशिनी टीका अ.४ सू ८ 'स्त्रीरूपनिरीक्षवर्जन'नामकतृतीयभावनानिरूपणम् ८१७ गतिविलासक्रीडितम् , तत्र हसितं हास्यम् , भणित-जल्पितम् चेष्टितम् हस्तपादन्यासादि, विमेक्षितम्-निरीक्षितम् , गतिः-गमनम् , विलासः नेत्रजनितचेष्टाविशेषः, क्रीडितं स्वसखीभिः सह खेलनम् , एषां समाहरद्वन्द्वः, तथा-- 'वियोइयनट्टगीयवाइयसरीरसंठाणवण्णकरचरणनयणलावण्णरूबजोवणपयोधराधरवस्थालंकारभूमणाणि य ' वियोकितनाट्यगीतवादित्रशरीरसंस्थानवर्णकरचरणनयनलावण्यरूपयौवनपयोधराधरवस्त्रालङ्कारभूषणानि च, तत्र-विव्योकितं-पूर्वोक्तलक्षणोवियोकः, नृत्य-नर्तनम् , गीतं गानम् , वादितंत्रोणादिवादनम् , शरीरसंस्थान-हस्वदीर्वादिशरीराकृतिः, वर्णः-गौरत्वादिलक्षणः, तथा-करचरणनयनलावण्यम-करचरणनयनानां लावण्यं सौन्दर्यम् , रूपं-स्वरूपम् , योवनं तारुण्यम् पयोधरौ-स्तनौ, अधरः अधरोष्ठः, वस्त्राणि असिद्धानि, अलङ्काराः = हारादयः, भूषणानि-मण्डनानि, एतेषां द्वन्द्वः, तानि । तथा-गुज्झोक्कासियाइं ' गुह्यावकाशिकानि गुह्यभूतालज्जनीयत्वात् स्थगनीया अवकाशाः शरीरावयवा इत्यर्थः, त ( हसियभणियचिद्वियविप्पेक्खियगइविलासकीलियं ) हास्य का, भणित बोलने का, उनकी चेष्टाओं का, चितवन का, चाल का, नेत्र जनितचेष्टाविशेषरूप विलास का, अपनीसखियों के साथ उनके खेल खेलने का, तथा उनके (विव्चोइ य नगीइ-वाइय-सरीर-संठाणवण्णकरचरणनयण-लावण्णरूवजोवणपयोधराधरवत्थालंकारभूसणाणि :य ) विश्वोक का, नृत्य का, उनके द्वारा गाये गये गीतो का उनके वीणादिवादन का, उनके हुस्व, दीर्घ आदि शारीरिक संस्थान का उनके गौर आदि वर्ण का, कर-हाथ, चरण-पैर, नयन-नेत्र इनके लावण्य-सौन्दर्य का, रूप का, यौवन का, उनके स्तनों का, उनके अधरों का, उनके द्वारा पहरे हुए वस्त्रों का हार आदि अलंकारों का, भूषणों का तथा (गुज्झोवकासियाई ) उनके कामोद्दीपक गुप्त अंगो का, तथा ( एवमाइयाणि " हसियभणियचिट्ठियविप्पेक्खियगइविलोसकीलियं " श्यतुं, लगित-मादीनु, તેમના હાવભાવનું, ચિંતવનનું, ચાલનું, આંખોના ઈશારરૂપ વિલાસનું, પિતાની समियो सानी तेनी नु, तथा तेमना “ :विश्वोइय नगीइवाइय सरीर-संठाणवण्णकरचरणनयणलावण्यरूवजोवणपयोधराधरवत्थालंकारभूसणाणि य " વિબેકનું, નૃત્યનું તેમના દ્વારા ગવાતાં ગીતનું, તેમના વણાદિ વાદનનું, તેમના હવ, દીર્ઘ અદિ શરીર બંધારણનું, તેમના ગોરા આદિ पनु, ४२-४ाथ, य२, नेत्र, माहिना सौय नु, ३५नु, यौवननु तेभनां સ્તનેનું, તેમણે પહેરેલ વસ્ત્રનું, હાર આદિ અલંકારનું, આભૂષણોનું તથા " गुज्झोवकासियाई" तेमना भोत्तम गुस २५ गानु, तथा “ एवमाइयाणि प्र १०३ For Private And Personal Use Only Page #867 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याफरणसूत्रे एव गुह्यावकाशिकानि स्त्रीणां गुप्ताङ्गानीत्यर्थः । तथा-'अण्णाणि य एवमाइयाणि' अन्यानि च एवमादिकानि हमितादिसदृशान्यन्यान्यपि, ' तबसंयमवंभचेरघाओवघाइयाइं ' तपः संयमब्रह्मचर्यघातोपयातकानि, 'पावकम्माई' पापकर्माणि 'वं. भचेरं ' ब्रह्मचर्यम् ' अणुचरमाणेणे ' अनुचरता ' न चक्खुसा' न चक्षुषा 'न मणसा' न मनसा ' न वयसा' न वचसा 'पत्थेयब्वाई' प्रार्थयितव्यानि-न चक्षुषा द्रष्टव्यानि, न मनसा चिन्तयितच्यानि, न वचसा प्रार्थयितव्यानीत्यर्थः । एवम् अनेन प्रकारेण ' इत्थी रूचिरइसमिइजोगेण' स्त्रीरूपविरतिसमितियोगेनस्त्रीणां यद् रूपं ततो या विरतिस्तद्रूपो यः समितियोगस्तेन भावितोऽन्तरात्मा जीवः ' आरयमणा' आरतमनाः ब्रह्मचर्यासत्तचित्तो विश्वग्रामधर्मों जितेन्द्रियो ब्रह्मचर्यगुप्तश्च भवति ॥५०८॥ पावकम्माइं तवसंजमबंभचेरघाओवघाइयाई ) इसी प्रकार की और भी पाप कर्मरूप वातों का कि जो तप, संजम एनं ब्रह्म वयं व्रत को एकदेश से अथवा सर्वदेश से घात करने वाली हों (बंभचेरं अणुचरमाणेणं ) ब्रह्मचर्य व्रत की आराधना करने वाले साधु को (न चक्खुसा) राग संयुक्त होकर न आंखों से निरीक्षण करना चाहिये, ( ज मणसा) न मन से विचार करना चाहिये, और (न वयसा) न वचन से ( पत्थेयव्वाइं) प्रार्थना करना चाहिये । ( एवं इत्थीरूवविरइसमिइ जोगेण भाविओ अंतरप्पा आरयनगा विरयगामधम्मे जिइंदिए बंभचेरगुत्ते भवइ ) इस तरह से स्त्रीरूप निरीक्षण विरतिरूप समिति के योग से संबंधित जीव ब्रह्मचर्य व्रत में आसक्त मनवाला हो जाता है और ग्रामधर्म-भैथुन सेवन से निवृत्त हो जाता है। अत एव वह जीवजितेन्द्रिय बनकर नव विध ब्रह्मचर्य को शुप्ति से अथवा दशविध ब्रह्मपावकम्माइं तवसंजमयंभचेरघाओवघाइयाई" से. ५४२नी भी ५ ५।५ કર્મરૂપ વાતે કે જે તપ, સંયમ અને બ્રહ્મચર્યવ્રતને એક દેશથી અથવા सर्वशयी धात ४२नारी हाय "बभवेरअणु चरमाणेण" ब्रह्मायतनु पासन ४२नार साधु " न चक्चुसा" २३. युत थने तेमनु निरीक्षण ४२७.२ नही, "न मणसा" भनथी विया२ ४२वो नहीं भने “नवयसा" क्यनथी न " पत्थेयव्वाई" प्रार्थना ४२वी . “ एवं इत्थीरूव विरइसमिइजोगेण भाविओ अंतरप्पा आरयमणा विरयगामधम्मे जिइंदिए बभचेरगुत्त भव" । प्रभारी स्वी३५ નિરીક્ષણ વિરતિરૂપ સમિતિના ચેગથી ભાવિત જીવ બ્રહ્મચર્યવ્રતમાં આસક્ત મનવાળા થઈ જાય છે, અને ગામધર્મ મૈથુનના સેવનથી નિવૃત્ત થઈ જાય છે. તેથી તે જીવ જિતેન્દ્રિય બનીને નવવિધ બ્રહ્મચર્યની ગુપ્તિથી અથવા દશવિધ For Private And Personal Use Only Page #868 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ०४ सू०९ 'पूर्वरतादिविरति'नामकचतुर्थभावनानिरूपणम् ८१९ चतुर्थभावनामाह-' चउत्थं ' इत्यादि । मूलम्-च उत्थं पुवरय-पुवकालियपुवसंगंथसंथुया जे ते आवाहविवाहचोलकेसु य तिहिसु जण्णेसु उस्सवेसु य सिंगारागारचारुवेसाहिं हावभावललियविक्खेवविलास सालिणीहिं अणुकूलपेमियाहिं सद्धिं अणुभूया सयणसंप ओगा उ उ मुहवरकुसुमसुरभिचंदणसुगंधवरवासधूवसुहफरिसवत्थभूसणगुणोववेया रमणिज्जा उज्जगेजपउरणडणगजल्लमल्लमुट्टियवलंबगकहगपवगलासगआइक्खलंखमंखतूणइल्लतुंबर्वाणियतालायरपकरणाणि य बहुणि महुर-सरगीय सुस्सराइं अण्णाणि य एवमाइयाणि तव-संजमबंभचेरघाओवघाइयाई अणुचरमाणेणं बंभचेरं न ताई संमणेण लंभा दटुं न कहेडं न वि य सुमरेउं जे, एवं पुव्वरय पुव्वकीलिय बिरइसमिइजोगेण भाविओ भवइ अंतरप्पा आरयमणा विरयगामधम्ने जिइंदिए बंभचेरगुत्ते ॥ सू० ९॥ टीका-'चउत्यं चतुर्थी-पूर्वरतपूर्वक्रीडितस्मरणविरतिरूपां भावनामाह-'पुररयपुव्वकीलियपुगंथसंथुया' पूर्वरतपूर्वक्रीडितपूर्वसंग्रन्थसंस्तुताः, तत्र-पूर्व तम्चर्य समाधि स्थान से युक्त बन जाता है। भावार्थ--इस सूत्र द्वारा सूत्रकार ने ब्रह्मचर्य व्रत की तृतीय भावना का कथन किया है। इस में रागभाव से युक्त बनकर साधु को स्त्री के रूपादि निरीक्षण करने का सर्वथा त्याग करना कहागया है।सू०८॥ સમાધિસ્થાનથી યુક્ત બની જાય છે. ભાવાર્થ–આ વ્રત દ્વારા સૂત્રકારે બ્રહ્મચર્ય વ્રતની ત્રીજી ભાવનાનું વર્ણન કર્યું છે. તેમાં રાગ ભાવથી મુક્ત થઈને સ્ત્રીના રૂપાદિનું નિરીક્ષણ કરવાને સાધુએ પરિત્યાગ કરે જોઈએ તે બતાવ્યું છે સૂ ૮ For Private And Personal Use Only Page #869 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे गृहस्थावस्थाकालिकी कामरतिः, पूर्वक्रीडितम्-गृहस्थावस्थाश्रितं स्त्रीभिः सह क्रोडनम् , पूर्वसंग्रन्थसंस्तुताः-पूर्व-गृहस्थावस्थायां ये संग्रन्थाः श्वसुरकुलसंवन्धसंबद्धाः श्यालकश्यालिकादयः स्यालकमार्यादयश्च, तथा-संस्तुताः दर्शनभाषणादिभिः परिचिताः, एषां द्वन्द्वः, एते श्रमणेन न द्रष्टुं न कथयितुं न वास्मर्तु लभ्याः इति परेण संबन्धः । तथा-'जे ते ' ये ते 'आवाहविवाहचोल केसु' आवाहविवाहचूलकेषु, तत्र-आवाहो-बचावरगृहानयनम् , विवाहः पाणिग्रहणं, चूलक अब इस व्रत की चौथी भावना को कहते हैं---' चउत्थं पुव्यरय०' इत्यादि। टीकार्थ-( चउत्थं ) ब्रह्मचर्य व्रत की पूर्वरत पूर्वक्रीडित स्मरणविरतिनाम की चौथी भावना इस प्रकार है-(जे ते ) जो वे (पुव्वरय पुवकोलियमसंगंथसंयुरा) पूर्वरत गृहस्थावस्था में जो कामकेलि की गई हो वह पूर्वरत है। गृहस्थावस्था में जो स्त्रियों के साथ क्रोडा की गई हो वह पूर्वक्रीडित है । तथा-गृहस्थावस्था में जिनके साथ श्वप्तुर, साले, साली, आदि को संबंध रहा हो, वे पूर्व संग्रन्थ हैं और जिनके साथ दर्शन भाषण आदि से अधिक परिचय रहा हो वे पूर्वसंस्तुत हैं। इन सब का ब्रह्मचर्य महाव्रत धारण करने वाद साधु को न स्मरण करना चाहिये, न उनका कथन करना चाहिये और न संबंधी आदि जनों को देखने की लालसा ही रखनी चाहिये ! तथा ( आराहविवाह वे 24 सतनी याथी मानानु ४५न ४२ छ. “ चउत्थं पुब्बरय" त्यात -" च उत्थं " ब्राह्मयय प्रतनी याथी भावना पूर्वरतपूर्वक्रीडित स्मरणविरति , न.मनी .ते 21 प्रमाणे 2.-"जे ते पुवर यपुयकीलिय पुव्वसंगथसंथुरा" पूर्व२त- थाव:यामा रे मी! ४२॥ य ते पूरित કહેવાય છે. ગ્રંથાવસ્થામાં સ્ત્રીઓની સાથે જે કડા કરાઈ હોય તે પૂર્વકીડિત કહેવાય છે. તથા સ્થાવસ્થામાં જેમની સાથે સસરા, સાળા, સાળી આદિને સંબંધ રહ્યો હેય ને પૂર્વ સંગ્રન્થ કહેવાય છે. અને જેમની સાથે દર્શન, ભાષણ આદિથી વધારે પરિચય રહ્યો હોય તેઓ પૂર્વ સંસ્તુત કહેવાય છે. બ્રહ્મચર્ય મહાવત ધારણ કર્યા પછી સાધુએ એ બધાનું મરણ કરવું જોઈએ નહીં, તેમની વાત કરવી જોઈએ, નહીં અને સંબંધી આદિ જનેને જોવાની almस. २॥५वी मे नही तथा आवाह विवाहचोलकेतुय' मापा:--वधूने वरना ઘેર લાવતી વખતે, વિવાહ પ્રસંગે, તથા બાળકોના ચૂડાકર્મ સંસ્કારના For Private And Personal Use Only Page #870 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ०३ भू०८ 'पूर्वरतादिविरति'नामकचतुर्थभावनानिरूपणम् ८२१ =चूडाकर्मन्बालानां शिखाधारणम् , एषां द्वन्द्वः, तेषु तथोक्तेषु च-पुनः 'तिहिसु' तिथिषु-मदनत्रयोदशीप्रभृतिषु, तथा-'जण्णेमु' यज्ञेषु = नागादिपूनाप्रकरणेषु, तथा ' उत्सवेसु' उत्सवेषु-इन्द्रोल गदिषु च ' सिंगारागारचारुवेसाहिं ' श्रृङ्गारागारचारवेषाभिः शृङ्गारस्थ = शृङ्गाररसस्य आगारभूता याचारवेषाः शोभन नेपथ्यसंपन्नास्ताभिः ,तथा-'हावभावललियविक्खेवविलासमालिणीहि' हावभावल. लितविक्षेपविलासशालिनीभिः-तत्र हावः कामजनितो मुवविकारः, भावः कामजनिताःचित्तसमुन्नातिः,तदुक्तम् 'हाको मुखविकारः स्याद् भावश्चित्तसमुन्नतिः'इति। ललितम्-चेष्टाविशेषः, तदुक्तम् - " हस्तपादाङ्गविन्यासो भ्रूनेत्रौष्ठमयोजितः। सुकुमारो विधानेन ललितं तत्प्रकीर्तितम् ॥ १ ॥ " इति । विक्षेपः-चेष्टाविशेषः, तल्लक्षणं त्विदम् अप्रयत्नेन रचितो, धम्मिल्लः श्लथवन्धनः । एकांशदेशधरणैस्ताम्बूललवलाञ्छनम् ॥ १ ॥ ललाटैकान्तलिखितां, विषमा पत्रलेखिकाम् । असमञ्जसविन्यस्त मज्जनं नयनाब्जयोः ॥२॥ तथा-अनादरबद्धत्वाद् ग्रन्र्जघनवाससः । वसुधालम्वितः प्रान्तः, स्कन्धात्स्रस्तस्तथांऽशुकः ।। ३॥ जघने हारविन्यासो रशनायास्तथोरसि । इत्यवज्ञाकृतं यत्स्यादज्ञानादिवमण्डनम् ॥ ४ ॥ वितनोति परां शोभा स विक्षेप इति स्मृतः ॥" विलासः-चेष्टाविशेषः, सतु-" स्थानासनगमनानां हस्तभ्रूनेत्रकर्मणां चैव । उत्पद्यते विशेषो यः श्लिष्टः स तु विलासः स्यात् ॥ १॥” इति । चोलकेशु य ) आवाह-वधू को वर के घर पर लाने के समय में, विवाह के अवसर में, बालको के चूड़ा (चोटी) वर्म संस्कार के प्रसंग में, तथा (तिहिसु) मदनत्रयोदशी आदि तिथियों में, तथा ( अण्णेसु) नागा दिको की पूजा के अवसर रूप यज्ञों में, तथा (उस्सवेसु य) इन्द्रोत्सव आदि उत्सवों में, (सिंगारागारचारुवेसाहिं ) शृंगाररस की घरभूतवनी हुई तथा सुन्दर वेषभूषा से सजित हुई ऐसी तथा (हावभावललिय प्रसभा तथा “तिहिसु" भहन त्रयोदशी माहि तिथिमा, तथा “जण्णेस" नानी पूलना अपस२३५ यज्ञोभा तथा " उस्सवेसु य” ४न्द्रोत्सव माहि उत्सवामी," सिंगारागारचारुवेसाहि" श्र॥२ २सना मागा२३५ अनेसी तथा सु४२ वेषभूषाथी सुसजित थयेटी तथा " हावभावललियविक्खेवविलाससा For Private And Personal Use Only Page #871 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - ૨. प्रश्नव्याकरणसूत्रे ___ एभिः शालन्ते शोभन्ते यास्ताभिः, तथा- अगुकूलपेमियाहिं ' अनुकूलप्रेमिकाभिः अनुकूलं-मनोऽभिरुचिकरं प्रेम-प्रीतिर्यासां ताभिः, एतादृशीभिः 'सद्धि' सार्धम् , 'अणूभृया' अनुभूता=अनुभवविषयीकृताः 'सएणसंपजोगा' शयनसंप्रयोगाः शयनानि च संप्रयोगाः सम्पश्चेिति इतरेतरयोगद्वन्दः, शयनसंप्रयोगाः ? इत्याह-' उ उ मुहवरकुसुममुरभिचंदनसुगंधवरसासधूप सुहफरिसवस्थभूसणगुणोक्वेया' ऋतुमुखबरकुसुमसुरविचन्दनमुगन्धवस्वासधूप सुष्वस्पर्शवस्त्रभूघणगुणोपपेताः, तत्र-ऋतुमुखानि कालोचितानि यानि वस्कुसुमानि तथा-सुरभिचन्दनस्य सुगन्धो शोभनामोदयुक्तो वरः श्रेष्ठो यो वासः गन्धः सः, तथा-धूपः, तथा-सुखस्पशोनि यानि वस्त्राणि, तथा-भूषणानि च, तेषां ये गुणास्तैरुपपेता. स्ते श्रमणेन द्रष्टुं कपयितुं स्मर्तु वा न चोग्याः । तथा-'रमणिज्जा उज्ज-गेज्जपविक्खेवविलाससालिणीहिं ) हाव, भाव, ललित, विक्षेप और विलास से सुहावना स्त्रियों के साथ तथा (अणुकूलपेमियाहिं ) जिनकी प्रीति मन को मुदित करने वाली होती है ऐसी (इत्थीहिं सदि) स्त्रीयों केसाथ भोगे गये शयन संबंधी और संपर्क संबंधो पूर्वकालिक भोगों का कि जो ( उ उमुहबरकुतुमसुरभि चंदण सुगंध-वर-वासधूय-सुहकरिसवत्यभूसण-गुणोववेया) कालोचित कुसुमों की सुगंधि आदि रूप गुणों से विशेष रूप में आकर्षक होते थे, सुरभिचंदन की श्रेष्ट गंध से जो मनोमोहक बने रहते थे, कृष्णागुरु आदि मुगंधित द्रव्यों की धूप के संसर्ग से जिनमें से महक उड़ा करती थी तथा वस्त्र और आभूषणों के आडम्बर की छटा से जिन्हे भोगने लिए चित्त परबस लालायित धन जाया करता था, उन सब साबु को कभी भी स्मरगा नहीं करना चाहिये, किसी से ऐसे भोगों की बातें नहीं करना चाहिये और न ऐसे लिणीहि " १, प, विक्ष५ मने पियासी शामती श्रीमानी साथे तथा " अणुकूलमियाहि " 2ी प्रीति भन्ने मानांडित : ४२नारी य छे थेपी " इत्थीहिं सद्धि " श्रीमानी साथे लोग शयन सधी सभा समाधी पूर्व सि लागानु रे ' उ उ मुहवर-कुसुमसुरभि-चंदण-सुगंध-वरसाधूबसुह फरिसवस्थ-भूमण-गुणोववेया " सोथित पुष्पोन! सुनधी माहि३५ गुणधी વિશેષ આકર્ષક થતું હતું, સુરભિ ચંદનની શ્રેષ્ઠ ગંધથી જે મનહર બનતું હતું, કૃષ્ણ ગરૂ આદિ સુગંધિત દ્રવ્યના ધૂપના સંસર્ગથી જેનામાં મહક ઉઠયા કરતી હતી તથા વસ્ત્ર અને આભૂષણોના આડંબરની છટાથી જેને ભગવાને માટે મન લલચાઈ ગયાં કરતું હતું, એ બધી વાતનું સાધુએ કદીપણ સ્મરણ કરવું જોઈએ નહીં, કોઈની સાથે એવા ભેગેની વાત કરવી જોઈએ નહીં, For Private And Personal Use Only Page #872 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदशिनी टोका अ०४ सू०९ 'पूर्वरतादिविति नामकर तुर्थ भावनानिरूपणम २३ भोगों की ओर लक्ष्य ही रखना चाहिये। काम से जो मुख्य पर एक प्रकार की विकृति आ जाती है उसका नाम हाव है। कान से उद्भूत जोचित्त में एक प्रकार की उन्नति आ जाती है उसका नाम भाव है। एक विशेष प्रकार की चेष्टा का नाम ललित है। यह चेष्टा स्त्रियों के.हस्त पाद, शरीर, भ्र,नेत्र और ओष्ठ आदि में होती है। विक्षेप नाम चित की असावधानी का है । जब ललना जनों का चित्त इस विक्षेपनाम की चेष्टाविशेष से युक्त हो जाता है तो उनमें विशेष प्रकार की चेष्टाएँ जाग्रत होने लगती हैं जैसे वे अपनी चोटी को ढीली बांध लेती हैं। नीवी उनकी शिथिल बंध वाली हो जाती है । मस्तक पर सिन्दुर बिन्दु की जगह कज्जल की रेखा और आंखों में सिन्दूर की रेखा लगाली जाती है। अथवा आंखों में जो अंजन लगानी हैं वह भी अस्त व्यस्त रूप में लगा लेती है ! इत्यादि सब प्रकार की उनकी अण्डन विधि अवज्ञाकृत होती है। फिर भी इस स्थिति में उनको शोभा में न्यूनता नहीं आती है। स्थान, आसन, गमन आदि में जो एक प्रकार की विशेषता आ जाती है वह विलास है। इसी तरह (रमणिजना उज्जगेजपउरगडणग जल्लमल्लटिकलंबग-कहगपवा-लापम-आइक्खग-लंख मंख-हल्ल અને એવા ભેગોની તરફ લક્ષ્ય પણ રાખવું જોઈએ નહીં. કા ભાવથી ભૂખ પર જે એક પ્રકારની કિતિ આવી જાય છે તેને “હા” કહે છે. કામાતુર ચિત્તમાં જે એક પ્રકારની ઉન્નતિ આવી જાય છે તેને “ભાવ” કહે છે એક વિશેષ પ્રકારની ચેષ્ટાનું નામ લલિત છે. તે ચેષ્ટા સ્ત્રિઓના હાથ, પગ, શરીર ભ્ર, નેત્ર અને ઓષ્ઠ આદિમા થાય છે. ચિત્તની અસાવધાનીને વિક્ષેપ કહે છે. જ્યારે સ્ત્રિઓનું ચિત્ત આ વિક્ષેપ નામની વિશિષ્ટ ચેષ્ટાથી યુકન થઈ જાય છે ત્યારે તેમનામાં વિશેષ પ્રકારની ચેષ્ટાએ જાગૃત થવા માંડે છે. જેમ કે તેઓ પિતાના રોટલાને ઢીલે બાંધી લે છે. તેની નાડીનું બંધન શિથિલ થઈ જાય છે. મસ્તક પર સિંદૂરના બિન્દુની જગ્યાએ કાજળની રેખા અને આંખમાં કાજળને બદલે સિની રે લાગી જાય છે. અથવા આંખમાં જે આંજણ આંજવામાં આવે છે તે પણ અસ્તવ્યસ્ત રીતે અંજાઈ જાય છે. ઈત્યાદિ બધા પ્રકારની તેમની મંડવિધિ અવગણવાને પાત્ર છે છતાં પણ એવી પરિસ્થિતિમાં પણ તેમનાં રૂપમાં ન્યૂનતા આવતી નથી. સ્થાન, આસન, ગમન આદિમાં જે એક પ્રકારની વિશિષ્ટતા આવી જાય છે તેનું નામ વિલાસ છે. એ જ રીતે " रमणिज्जा -- उज्जगेज्ज--पउरणडणगजल्लमल्ल-मुद्वियबेलंग-कहगयहग लासग आइक्खग खमंख-तूणइल्ल-तुंब वीणिय तालायर-पकरणाणि य" सुंदर पाच मने For Private And Personal Use Only Page #873 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे उरणडणट्टगजल्लमल्लमुट्टियवेलंवगकहगपवगलासग- आइक्खगलंखमंखतूण-इल्ल तुंवबीणिय तालायरपकरणाणि य' रमणीयातोयगेयप्रचुरनटनर्तकजल्लमल्लमौष्टिकविडम्बककथकप्लवकलासकारख्यायकलङ्ग्व-मलतूणिक- तुम्ब-वीणिक-तालाचरपकरणानि च, तत्र-रमणीयं मनोहरं यत् आतोबाचं, गेयं गानं, तथा पचुराः ये नटा नाटयकारकाः, नर्तकाः = नृत्यकारिणः, जल्लाः चर्मरज्जुमव लम्ब्यक्रीडाकारका, मल्लाः = मल्लयुद्धकारिणः, मौष्टिका:-मुष्टियुद्धकारिणः, विडम्बका:-निदूषकाः, कथकाः='कल्धक' इति प्रसिद्धाः, गान्धर्वविद्याविशारदाः, प्लवकाः कर्दनकारकाः, लासकाः= लास्ये ' ति नाटकविशेषकारिणः, आख्यायका कथाकारकाः, ललाः महावंशाग्रभागमधिरुह्य क्रीडाकारिणः, मलाः= चित्रफलकहस्ताः भिक्षुकाः, तूणिकाः-तूणाभिधानवाद्यनिशेपवादकाः, तुम्बबीतुंब-वीणियकालायरपकरणाणि य ) रमणीय वाद्य और गेय की प्रक्रिया को, तथा-नट-नाटककरने वाले नटों के नाचने वाले नर्तकों के, चर्म रज्जु का सहारा लेकर विविध प्रकार की क्रीडा करने वालों जल्लों के, मल्ल युद्ध करने वाले मल्लों के, मुष्टि से युद्ध करने वाले मौष्टिकों के, अनेक प्रकार के स्वांग धर कर जनता के चित्त को रंजित करने वाले विदूषकों के, विविध प्रकार को लौकिक कथा कहने वाले कथकजनों के, अथवा गांधर्व विद्या में निपुग जनों के, कूदने, उछलने में विशेष निपुणता प्राप्त प्लवक जनों के, विशेष नाटकों को करने वाले लासक जनों के, कहानी अथवा उपन्यास को कहने वाले आख्यायक मनुष्यों के, बड़े २ वांसों के अग्नभाग पर चढ़कर विविध प्रकार की नटक्रीडा करने वाले लाखजनों के, चित्रफलक, हाथ में लेकर इधर उधर फिरने वाले भिक्षुक रूप मंखजनों के, तूणनामक वाद्य विशेष को बजाने वाले ગેયની પ્રક્રિયાને, તથા નટ-નાટક કરનાર નટોને નૃત્યકારોને ચમરજજુની મદદથી વિવિધ પ્રકારની કીડા કરનાર જલેને, મલ્લયુદ્ધ કરાર મલ્લને, મૃષ્ટિથી યુદ્ધ કરનાર સૌષ્ટિકોને, અનેક પ્રકારના વેષ લઈને જનતાનું મનોરં. જન કરનાર વિદૂષકને, વિવિધ પ્રકારની લેકકથા કહેનાર કથાકારને, અથવા ગાંધર્વ વિદ્યામાં નિપુણ લેકેને, કુદરામાં ખાસ નિપુણતા ધરાવનાર લવકોને, ખાસ ઉત્સવ પ્રસંગે ખાસ નાટક કરનાર લાસકેને, કથા અથવા નવલકથા કહેનાર આખ્યાનકારને, મેટાં મેટા વાંસની ટોચે ચડીને વિવિધ પ્રકારના નાટય પ્રયોગો કરનાર લંબજનેને, ચિત્રફલક હાથમાં લઈને આમ તેમ ફરનાર ભિક્ષુકરૂપ મંજનને, તૂળનામનાં એક વાઘને વગાડનાર તણિકજનને, તાલ For Private And Personal Use Only Page #874 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुवशिनी टीका अ0 ४ सू०९ 'पूर्वरतादिविरति'नामकचतुर्थभावनानिरूपणम्८२५ णिकाः-तुम्बवीणावादकाः, तालाचराः=तालं हस्तघातरूपमाचरन्ति ये ते तथोताः, तालवादिन इत्यर्थः, एषां द्वन्द्वः, तेषां यानि प्रकरणानि= प्रक्रियाः तानि, तथा-' वहनि ' वहनिम्बहुविधानि, ' महरसरगीयसुस्सराई' मधुरस्वरगीतसुस्वराणि-मधुराः स्वराः येषां तेषां गायकानां यानि सुस्वराणि गीतानि तानि, निष्ठान्तस्य पूर्वनिपातः, किंबहुना ' अण्णाणि य ' अन्यानि च ' एवमाइयाणि' एवमादिकानि एवम्मकाराणि यानि तपः संयमब्रह्मचर्यघातोपघातकानि 'ताई' तानि ब्रह्मचर्यमनुचरता श्रमणेन 'न दटुं' न द्रष्टुं ' कहेउं न कथयितुं 'नवि य ' नापि च ' सुमरेउं ' स्मर्तु ' लब्मा ' लभ्यानि उचितानि एवं 'पुबरयपुव्वकीलियविरइसमिइजोगेग' पूर्वरतपूर्वक्रोडितविरतिसमितियोगेन-तत्र, पूर्वरत पूर्वक्रीडिताभ्यां या विरतिस्तदूपो यः समितियोगस्तेन भावितोऽन्तरात्मा आरतमनाः ब्रह्मचर्यासक्तमनाः पिरतग्राम्यधर्मो जितेन्द्रियो ब्राह्मचर्यगुप्तश्चभवति ९ तूणिकजनों के, तुंबडी की बींणाको बजानेवाले तुम्बवीणिकों के, ताल बजाकर जनताका चित्तरंजित करनेवाले ताल चरों के जितने भी कार्य हैं उनको, तशी- बहूणि महरसरगीयसुस्सराई) और भी अनेकविध मधुर स्वर वालों के जितने भो सुस्वर संपन्न गीत हैं उनको तथा (अण्णाणि य एवमाझ्याणि) और अधिक क्या कहे इसी प्रकारके और भी जो (तवसंजमवंभचेरघाओवघाइयाइ') तप, संयम और ब्रह्मचर्य के घातक, उपचातक कार्य हैं-उन्हें (अंभोरं अणुचरमाणेणं समणेणं) ब्रह्मचर्यका पालन करने वाले साधुजन को (न त. दहुं ) नहीं देखना कल्पता है (न कहे उं) न उनका कहना योग्य है और (न वि य सुमरेलम्भा) न पूर्व में देखे गये ऐसे कार्यों को याद करना ही उचित है। ( एवं पुव्वरयपुव्वकीलियविरइसमिइजोगेण भाविओ अंतरप्पा आरयमणा બજાવીને જનતાનું મને રંજન કરનાર તાલચ તે સૌના જેટલાં કાર્યો છે તથા " बहूणिमहुरसरगीयसुस्सराई" lon पY मने वि५ मधु२ २१२वाणाना २२ सुरु१२ युक्त गीत छ भने तथा अण्णाणि य एव माइयाणि "ग ५४२ ulan ५५ रे " तवसंजमबंभचेरघोओवघाइयाई ” त५, संयम भने ब्रह्मययना धात: ५यात आर्या छ भने “बभचेरं अणुचरमाणेणं समणेणं " ब्रह्मयनु पासन ४२नार साधुलनामे “न ताइ द?" l ते ४८५तुं नथी. " न कहेउ" तेनु थन ४२ ते ५५ भायोग्य छ भने “ न वि य सुमरे उ लब्भो' पूर्व हेमेव ते आर्योनु २०२५५ ४२ ते ५ योग्य छ. “एवं पुब्वरय-पुत्र-कीलिय-विरइ-समिइ-जोगेण भाविओ अंतरप्पा आरप्र १०४ For Private And Personal Use Only Page #875 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे अथ पञ्चमी भावनामाह-पंचमं ' इत्यादि मूलम्-पंचमं आहारपणीयणिद्धभोयणविवजए संजए सुसाहू ववगयखीरदहिसप्पिनवणीयतेलगुडखंडमच्छंडियमहुखज्जगविगइपरिचत स्याहारो न दप्पणं नबहुसो न निइगं न सायसूवाधियं न खद्धं तहा भोत्तव्वं जहा से जायामायाए भवइ, न य भवइ विभमो यभंसणा य धम्मस्स, एवं पणीयाहारविरइसमिइजोगेणं भाविओ विरयगामधम्मे जिइंदिए बंभचेरगुत्ते भवइ ) इस प्रकार से पूर्वरत, पूर्वक्रीडीतों में विरतिरूप समिति के योग से भावित अंतरात्मा-जीवब्रह्मचर्य में स्थिर मन वाला बन जाता है और ग्रामधर्म से मैथुन-- कृत्य से-विरक्त हो जाता है । ऐसा वह महात्मा अपनी इंद्रियों को जीत कर नवविध ब्रह्मचर्य की गुप्ति से अथवा दशविध ब्रह्मचर्य के समाधिस्थान से युक्त बन जाता है। ___ भावार्थ-इस सूत्रद्वारा सूत्रकार ने ब्रह्मचर्य व्रत की चौथी भावना प्रकट की है। इस में यह कहा गया है कि ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने वाले साधु को प्रत्रज्या लेने के पहिले गृहस्थाश्रम में भोगे गये विविध प्रकार के भोगों की याद नहीं करनी चाहिये ! इस भावना का नाम पूर्वरत पूर्वक्रीडीत स्मरणविरति है । इसी विषय का विशेष वर्णन इस सूत्र में किया गया है । सू० ९॥ यमणा विरयगामधम्मे जिइंदिए बभचेरगुत्त भवइ " मा १२ पूर्वत, पूકીડિત માં વિરતિરૂપ સમિતિના ચેગથી ભાવિત થયેલ અંતરાત્મા-જીવ બ્રહ્મચર્યમાં આસક્ત મનવાળા બની જાય છે અને પ્રામધર્મથી-મૈથુન ક્રિયાથી વિરકત થઈ જાય છે. એવો તે મહાત્મા પિતાની ઇન્દ્રિયોને જીતીને બ્રહ્મચર્યની ગુણિથી અથવા દશવિધ બ્રહ્મચર્યના સમાધિસ્થાનથી યુક્ત થઈ જાય છે. ભાવાર્થ– આ સૂત્ર દ્વારા સૂત્રકારે બ્રહ્મચર્ય વતની ચિથી ભાવના પ્રગટ કરી છે. તેમાં એ બતાવવામાં આવ્યું છે કે શ્રાચર્ય વ્રતનું પાલન કરનાર સાધુએ દીક્ષા લીધા પછી પહેલાં ગુસ્થાશ્રમમાં ભેગવેલ વિવિધ પ્રકારના ભેગોને યાદ કરવા જોઈએ નહીં. આ ભાવનાનું નામ “ પૂર્વરત પૂર્વક્રીડિત મરણ વિરતિ” છે. આ જ વિષયનું વધુ વર્ણન આ સત્રમાં કર્યું છે. જે સ. ૯ For Private And Personal Use Only Page #876 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शनी टीका म०४ सू०१० प्रणीतभोजनवर्जन'नामकपञ्चमभावनानिरूपणम्८९७ भवइ अंतरप्पा आरयमणा विरयगामधम्मे जिइंदिए बंभचेरगुत्ते ॥ सू० १०॥ टीका-पंचमं ' पञ्चमी प्रणीतभोजनवर्जनरूपां भावनामाह- आहारपणीयनिद्धभोयणविवज्जए' आहारप्रणीतस्निग्धभोजनविवर्जन:-आहारः = अशनादिः, स च प्रणीतः प्रगलस्नेहबिन्दुश्च, तथा-स्निग्ध-चिक्कणं च तद् भोजनं च-स्निग्धभोजनम् , अनयो र्द्वन्द्वः, तस्य विवर्जका परित्यक्ता, तथा 'संजए' संयतः संयमवान् ' मुसाहू ' सुसाधुः निर्वाणसाधक योगसाधनतत्परः, तथा‘ववगयखीरदहिसप्पिनवणीयतेलगुडखंडमच्छंडियखज्जगविगइपरिचत्तकयाहारो' व्यपगतक्षीरदधिलपिनवनीततेलगुडखण्डमत्स्यण्डिकमधुखाद्यकविकृतिपरित्यक्तकृता हारः-तत्र-व्यपगताः परिहताः क्षीरं- दुग्धं, दधि-प्रसिद्धम् , सर्पिः-घृतम् , नवनीतं-'मक्खन' इति भाषाप्रसिद्धम् , तैलं प्रसिद्धम् , गुडः पसिद्धः खण्डः-शर्करा, अब मूत्रकार इस व्रत की पांचवी भावना को कहते हैं-'पंचमआहारपणीय' इत्यादि। ___टीकार्थ–(पंचम) पांचवीं भावना इस व्रत की प्रगीत भोजन वर्जन रूप है, वह इस प्रकार से है-(आहारपणीयनिद्धभोयणविवज्जए) जो आहार प्रणीन-जिसमें से घृत की विन्दुएँ नीचे टपक रही हों ऐसे कामोद्दीपक तथा स्निग्ध-रसयुक्त हो साधु को वह नहीं खाना चाहिये। क्यों कि वह (संजए) वह संयमवाला होता है और (सुसाहू ) निर्वाण साधक मनोबाकाय योग के साधन करने में तत्पर रहता है, इसलिये उसको ( वधगयखीरदहिसप्पिनवगीयतेलगुडखंडमच्छंडिय मंहुखजगविगइपरचित्तकयाहारो) दूध, दही, धृत, मक्खन, तैल, गुड, वे सूत्रा२ २॥ तनी पांयमी लापन ताये 2-"पंचमं आहारपणीय"त्याla Nxt-" पंचमं” मा तनी पांममी भावना " प्रणीतभोजन" त्यास नामनी छे. ते माप्रमाणे छ-"आहारपणीयनिद्धभोयणविवज्जए" प्रति, मेटी કે જેમાંથી ઘીનાં ટીપાં નીચે ટપકતાં હોય એ કામોદ્દીપક તથા સ્નિગ્ધરસ युत माडा२ साधुओ से नही. ४१२७४ ते " संजए' सयभी हाय छ भने "सुसाहू" निवा नासाथ मना पाय यो सावाने तत्५२ सय छ तथा तेभो " वगय-खीर दहिसप्पि-नवणीयतेलगुडखंडमच्छंडियमहुखज्जगविगइ. परचित्तकयाहारो " ३५, ४डीघी, भाम, तेस, , सा४२, मां कोरेथा For Private And Personal Use Only Page #877 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८२८ प्रश्नव्याकरणसूत्रे मत्स्यण्डिका='मिश्री'ति प्रसिद्धा च यस्मात्सः, तथा-मधुप्रसिद्धम् , खाद्यकं 'खाजा' इति प्रसिद्धम् , इत्यादि लक्षणाभिः विकृतिभिः परित्यक्तो यः सः, अनयोः कर्मधारयः, एतद्रूपो यः आहारः स कृतो येन स तथोक्तः, अन्त-प्रान्तभोजीत्यर्थः निष्ठान्तस्य पूर्वनिवातः, एतादृशः साधुः 'न' नैव ' दप्पणं' दर्पणं-दर्पकारकं भोजनं भुजोत । तथा-न 'बहुसो' बहुशः दिनमध्येऽनेकवारं भोजनं कुर्वीत । तथा-' न निइगं' नैत्यिक-नित्यपिण्डं भुञ्जीत, तथा-न ' सायमुष्पाधिगं' शाकसूपाधिकंभोजनं भुञ्जीत । तथा-' खद्धं' प्रचुरं भुञ्जीत । कथं तर्हि भोक्तव्यम् ? इत्याह- तहा' तथा ' भोत्तव्यं ' भोक्तव्यम् , ' जहा' यथा-तद् भोजनं ' से ' तस्य ब्रह्मचारिणः, 'जायमायाए ' यात्रोमात्राय, यात्रायै-संयमयात्रानिर्वाहाथ या मात्रा-बाहारपरिमाणरूपा भगवनिर्दिष्टा गा यात्रामात्रा तस्यै, शर्करा, मिश्री, इनसे रहित तथा मधु खाजा, इत्यादिरूप विकृतियोंसे रहित आहार करना चाहिये । अर्थात् साधुको अन्त प्रान्तभोजी होना चाहिये। जो साधु इस प्रकार का ओहार लेता है वह युक्त नहीं हैं-उसे (न दप्पणं) दर्पकारक भोजन नहीं करना चाहिये (न बहुसो) नदिन में अनेक बार भोजन करना चाहिये ( न निइगं) न उसे नित्य पिंड भोजी ही होना चाहिये और (न सायसूचाहिय) :न उसे शाक और दाल की अधिकतावाला भोजन ही करना चाहिये (न खई) न उसको प्रचुरमात्रा में भोजन करना चाहिये । किन्तु इस प्रकार से भोजन करना चाहिये कि (जहा ) जिससे वह भोजन (से ) उस ब्रह्मचारी की ( जायामायाए भवइ ) यात्रा मात्रा के लिये हो अर्थात् संयम के निर्वाह के लिये हो । यात्रामात्रा का तात्पर्य है कि संयमनिर्वाह रूप यात्रा के लिये आहार का परिमाण जितना प्रभु ने निर्दिष्ट किया है वह आहार રહિત તથા મધ, ખાજ ઈત્યાદિ વિકૃતિઓથી રહિત આહાર કરવો જોઈએ. એટલે કે સાધુએ અન્ત પ્રાન્તભેજી થવું જોઈએ. જે સાધુ આ પ્રકારનો આહાર से छे तेथे " न दप्पणं " ६५४।२४ मापन न नही. “न बहुसो" हिवसमा भने १२ सोन सेवन नही 'न निइगं" तेणे नित्यपि सो थ मे नही, भने “न सायसूवाहियं " तेणे पधारे । सुरत लोन दो नही न खई" तो पधारे प्रमाण मान ४२ नई नडी. पर मेवी रीत लोसन ४२ मे "जहो" थी ते मानन "से" ते प्रझयारीनी “जायामायाए भव' यात्रभावाने माट હોય, એટલે કે સંયમના નિર્વાહ માટે જ હોય. યાત્રામાત્રાનું તાત્પર્ય એવું છે કે સંયમ નિર્વાહરૂપ યાત્રાને માટે ભગવાને આહારનું જેટલું પ્રમાણ દર્શાવ્યું For Private And Personal Use Only Page #878 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ०४ सू०१० प्रणीतभोजनवर्जन'नामकपञ्चमभावनानिरूपणम्(२९ संयमयात्रार्थमित्यर्थः, ' भवइ' भवति । एवं सति 'धम्मरस ' धर्मस्य विषये, ‘विन्भमो वा ' विभ्रमो धातूपचयेन मनसोऽस्थिरत्वाद् भ्रन्तिश्च न भवति, तथा-धर्मस्य ' भंसगा' भ्रंशना नाशश्च न भवति । एवम् अनेन प्रकारेण 'पणीयाहारविरइसमिइजोगेण ' प्रणीताहारविरतिसमितियोगेन भणीतो य आहारस्तस्माद् या विरतिस्तदूपो यः समितियोगस्तेन भावितोऽन्तरात्मा आरतमना विरतग्रामधर्मों जितेन्द्रियो ब्रह्मचर्यगुप्तश्च भवति ।।मु०१० ॥ उतना ही होना चाहिये। ऐसा होने पर (धम्मस्स विभमो वा भंसणा य न य भवइ ) धर्म के विषय में, धातु के उपचय से मानसिक अस्थिरता होने के कारण जो भ्रान्ति होती है वह नहीं हो सकती है, और न उसके धर्म का ध्वंस (नाश) ही हो सकता है । ( एवं पणीराहारविरइसमिइजोगेण भाविश्वो अंतरप्पा आरयमणा विरयगामधम्मे जिइंदिए बंभचेरगुते भवइ) इस प्रकार प्रणीताहारविरतिरूप समिति के योग से भावित बना हुआ मुनि अपने द्वारा ग्रहीत ब्रह्मचर्य में संलग्न मनवाला बन जाता है और ग्रामधर्म-मैथुन से-विरत हो जाती है । इस प्रकार अपनी इन्द्रियों को जीत कर वह महात्मा नवविध ब्रह्मचर्य की गुतिसे अथवा दशविध ब्रह्मचर्यके समाधिस्थानसे युक्त बन जाता है। भावार्थ-इस सूत्रद्वारा सूत्रकार ने ब्रह्मचर्य व्रत की पांचवीं भावना प्रकट की है । इस भावना का नाम प्रणीताहार वर्जन है। ब्रह्मचर्य व्रत धारण करने वाले साधु को ऐसा भोजन नहीं करना चाहिये जो छ तर प्रभाभा तमा२ . अथत “ धम्मरस विभमो वा भंसणा य न य भवइ" मना विषयमां, घातुन संग्रह थवाने. કારણે માનસિક અસ્થિરતા થવાથી જે બ્રાન્તિ થાય છે, તે થઈ શક્તી નથી, "एवं पणीयाहारविरइसमिइजोगेण भाविओ अंतरप्पा आरयमणो विरयगोमधम्मे जिई दिए बभचेरगुत्ते भवइ ' 247 रे uglist२ वि२ति३५ समितिना योगया ભાવિત થયેલ મુનિ પિતે ગ્રહણ કરેલ બ્રહ્મચર્ય વ્રતમાં આસક્ત મનવાળે થઈ જાય છે અને ગામધર્મ-મૈથુનથી વિરક્ત થઈ જાય છે. આ રીતે પિતાની ઈન્દ્રિયને જીતીને તે મહાત્મા નવવિધ બ્રહ્મચર્યની ગુપ્તિથી અથવા દશવિધ બ્રહ્મચર્યના સમાધિસ્થાનથી યુક્ત બની જાય છે. ભાવાર્થ-આ સૂત્રધાર સૂત્રકારો બ્રહ્મચર્યવ્રતથી પાંચમી ભાવનાનું સ્પષ્ટીકરણ કર્યું છે. આ ભાવનાનું નામ " પ્રણીતાહાર વર્જન ” છે. બ્રહ્મચર્યવ્રત ધારણ કરનાર સાધુએ એવું ભોજન લેવું ન જોઈએ કે જે કામોદ્દીપક રસ યુક્ત For Private And Personal Use Only Page #879 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८३० प्रश्नव्याकरणसूत्रे अथोपसंहरन्नाह-' एवमिणं ' इत्यादि । मूलम्-एवमिणं संवरस्स दारं सम्मं संचरियं होइ सुप्पणिहियं इमेहि पंचहि वि कारणेहिं मणवयणकायपरिरक्खिएहिं णिचं आसरपंतं एसो जोगो णेयव्यो पिइमया मइमया अणासवो अकलुसो अच्छिद्दो अपरिस्साई असंकिलिछो सुद्धो सव्वजिणमणुण्णाओ । एवं चउत्थं संवरदारं फासियं पालियं सोहियं तीरियं किहियं सम्मं आराहियं आणाए अणुपालियं भवइ । एवं नायमुणिणा भगवया पण्णवियं परूवियं पसिद्धं सिद्धवरसासणमिणं आघवियं सुदेसियं पसत्थं चउत्थं संवरदारं समत्तं त्तिवेमि ॥सू०११॥ ॥ इय पण्हावागरणाणं चउत्थं संवरदारं समत्तं ॥ टीका-एवं' एवम् पूर्वोक्तप्रकारेण ' इणं ' इदम् ' संवरस्स' संवरस्य-चतुर्थस्य ब्रह्मचर्यनामकस्य संवरस्य ' दारं' द्वारं 'सम्म ' सम्मकू 'संचरियं' कामोद्दीपक रसयुक्त हो । साधु तो अन्त प्रान्त भोजी होता है. अतः उसको दर्पकारक भोजन का परित्याग करते हुए दिन में अनेक बार भी भोजन नहीं करना चाहिये और न उसे नित्यपिऊ भोजी ही होना चाहिये । अधिक भोजन संयमाचार में प्रमाद और प्रणीत रसवाला भोजन मानसिक अस्थिरताका कारण बनता है इसलिये उसे नित्य इस प्रणीताहार विरतिरूप समिति के योगसे अवश्य भावित रहनाचाहिये॥१०॥ अब सूत्रकार इस विषय का उपसंहार करते हुए कहते हैं-'एचહોય. સાધુ તે અન્તાન્ત ભોળ હોય છે. તેથી તેણે દર્પકારક ભોજનને પરિત્યાગ કરવો જોઈએ. દિવસમાં અનેક વાર ભોજન લેવું જોઇએ નહીં અને તેણે નિત્ય પિંડ ભાજી પણ થવું જોઈએ નહીં. અધિક ભોજન સમાચારમાં પ્રમાદ અને પ્રાણીની રસવાળું ભોજન માનસિક અસ્થિરતાનું કારણ બને છે. તેથી તેણે હંમેશા આ પ્રણીતાહાર વિરતિરૂપ સમિતિના યોગથી અવશ્ય लावित २२ । सू. १... !! For Private And Personal Use Only Page #880 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir %3 सुदर्शिनीटीका अ० ४ सू०११ अध्ययनोपसंहारः ८३१ संचरितं सम्यगाचरितं, · मुप्पणिहियं ' सुप्रणिहितम् - एकाग्रतया समाराधितं ' होइ' भवति । ' इमेहिं पंचहि वि' एभिः अनुपदं प्रोक्तैपञ्चभिरपि 'कारणेहि' कारणैः भावनारूपैः, कीदृशैः कारणैरित्याह--' मणवयणकायपरिरक्खिएहिं ' मनोवचनकायपरिरक्षितैः मनोवाकायैः सम्यक समाराधितैः। कियत्कालम् ? इत्याह- णिच्चं ' नित्यं सर्वदा ' आमरणंत' आमरणान्त=मरणपर्यन्तम् ‘एसो' एषः-पूर्वोक्तो 'जोगो' योगः ब्रह्मचर्यरूपो ‘णेयव्यो' नेतव्या पालनीयः, केन ? इत्याह-'धिहमया मइमया 'धृतिमता मतिमता, कीदृशोऽयं योगः ? इत्याह-'अणासवो' अनाश्रयः ‘अकलुसो' अकलुषः । अच्छिद्दो' अच्छिद्रः 'अपरिस्साई ' अपरिसायी ' अरांकिलिलो' असंक्लिष्टः ' मुद्धो' शुद्धः 'सबमिणं ' इत्यादि। टीकार्थ-( एवमिणं) इस प्रकार से यह (संवरस्स दारं ) चौथा ब्रह्मचर्य नामका संवरद्वार ( सम्म संचरिय) अच्छी तरह से पाले जाने पर (सुप्पणियिं भवइ ) स्थिर हो जाता है। इसलिये (इमेहिं पंचहिं वि कारणेहिं मणवयणकायपरिरक्खिएहिं ) मन, वचन और काय, इन तीनों योगों से अच्छी तरह सुरक्षित किये गये इन पांचभावनारूप कारणों से (निच्चं ) सदा (आमरणंतं) जीवन भरतक ( एसोजोगो ) यह ब्रह्मचर्यरूप योग (णेयन्यो ) चित्त की स्वस्थता एवं हेयोपादेय की विवेकता से युक्त हुए नुनिजन को पालन करना चाहिये । क्यों कि यह ब्रह्मचर्यरूप योग ( अणासवो ) नूतनकर्मो के आगमन से रहित होने के कारण अनावरूप है, ( अकुलसो) अशुभ अध्यवसाय से वर्जित होने के कारण अकलुष है, (अच्छिदो ) पाप का स्रोत वे सूत्रा२ २ विषय उपस.२ ४२०i 3 -" एवमिणं " त्या —" एवमिणं " 20 मारे 24 “ संवरस्स दार" याथु प्रहाय नामर्नु सवार “सम्म संचरियं " सारी रीते पापामा सावे तो "सुप्पणिहियं भवइ" स्थि२ थ य छ. " इमेहिं पंचहिं वि कारणेहिं मणवयणकाय प रिरकखिएहिं ” भन, चयन भने ४ाय, मे श्री योगयी सारी रीते सुरक्षित ४२राये। ये पांय भावना ३५ अरशथी " निच्चं" सहा आमरणत” वन पर्यन्तन! "एसो जोगो” 21 प्रह्मययं३५ योग"णेयव्यो” चित्तनी स्वस्थता भने હેપાદેયની વિક્તાપૂર્વક મુનિ જેનેએ પાળવો જોઈએ, કારણ કે આ બ્રા ३५ योग " अणासवो” नूतन भांना मागमन २हित डावाने ४ारणे अनासप छ “ अकलुसो” २५शुल मध्यवसायथी २हित पाथी म४युष छ, "अन्छिहो" पपने स्त्रोत तेनाथी छिन्न थवाने ४१२ मरि छ. "अपरिस्साई" For Private And Personal Use Only Page #881 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८३२ प्रश्नव्याकरणसूत्रे , 1 " जिण मणुण्णाओ ' सर्वजिनानुज्ञातः । एवम् अनेन प्रकारेण 'चउत्थं चतुर्थ 'सं बरदारं ' संवरदारं ' संवरद्वारं ' फासियं स्पृष्टं ' पालियं ' पालितं ' सोहिये' शोधितं ' तीरियं ' तीरितं ' किट्टियं ' कीर्तितम् ' सम्मं ' सम्यक् ' आराहियं' आराधितम् ' आणाए ' आज्ञया ' अनुपालियं ' अनुपालितं ' भव भवति । एवम् अनेन प्रकारेण 'नायमुणिगा ' ज्ञातमुनिना=ज्ञातशोद्भवेन मुनिना 'भगवया 'भगवता महावीरेण ' पण्णवियं ' प्रज्ञापितं ' परूवियं मरूपितं ' पसिद्धं ' इससे छिन्न हो जाने के कारण अच्छिद्र है। (अपरिस्साई ) चिन्दुरूप से भी कर्मरूप जल इसमें प्रवेश नहीं कर सकता है इसलिये यह अपरिस्रावी है (अकिलिडो ) असमाधिभाव से वर्जित होने से यह असंक्लिष्ट है, (सुद्धो ) कर्ममल से रहित होने के कारण शुद्ध है, (सव्वणि मणुष्णाओ ) समस्त प्राणियो का इससे हित होने के कारण समस्त अरहंत भगवंतों का यह मान्य हुआ है, ( एवं ) इस प्रकार से जो इस (च संवरदारं ) चतुर्थ संवर द्वार को ( फासियं ) अपने शरीर से स्पष्ट करते हैं, ( पालियं) निरन्तर उपयोगपूर्वक इस का सेवन करते हैं ( सोहियं ) अतिचारों से इसको रहित करते हैं, (तीरियं ) पूर्णरूप से इसका सेवन करते हैं, (किट्टियं ) दूमरों को इसके पालन करने का उपदेश देते हैं ( सम्म ) तीन करण तीन योगों से इसकी प्रकार से ( आराहियं ) अनुपालना करते हैं सो उनके द्वारा यह योग ( आणण अणुपालियं भवइ ) ) तीर्थकर प्रभुकी आज्ञानुसार ही पालित होता है । ( एवं ) इस प्रकार से ( नायमुणिणा भगवया महाક રૂપ જળનું મિઠ્ઠુ પણ તેમાં પ્રવેશ કરી શકતું નથી તેથી તે અપરિસ્ત્રાવી છે. 66 असंकलि " सभाधि लावथी रहित होवाथी ते अस डिसट छे, “सुद्धो” કમળથી રહિત હોવાને કારણે શુદ્ધ છે. ‘ सव्वजिणमगुण्णाओ " समस्त જીવોનું તેનાથી હિત થવાને કારણે સમસ્ત અર્હત ભગવાના દ્વારા તે માન્ય थयेस छे, " एवं " मा प्रहारे के सा 66 उत्थं संवरदार " यथोथा संवरद्वारना " फासियँ " पोताना शरीस्थी स्पर्श उरे छे, “ पालियं " निरंतर उपयोग पूर्व तेनु सेवन रे छे, “सोहियं ” मतियारोथी तेनुं रक्षण उरे छे, 'तीरियं” पूर्ण रीते तेनुं सेवन ४रे छे, “ किट्टियं " भीलने तेनुपालन सानो उपदेश माये छे, ४२ ऋणु योगयी तेनु सारी रीते " आराहियं " અનુપાલન કરે છે, તેમના દ્વારા આ ચેાગનું आणार अणुपालियं भवइ' तीर्थ ४२ लगवाननी आज्ञानुसार पासन थाय छे " एवं (6 આ પ્રકારે नाय मुणिणा भगवया महावीरेण " ज्ञात वशमां उत्पन्न थयेस मुनि लगवान महा " ८ सम्मं " 66 77 " For Private And Personal Use Only Page #882 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुवशिनी टीका अ० ४ सू० ११ अध्ययनोपसंहारः '८३३ प्रसिद्ध ' ' सिद्धवरसासणमिणं' सिद्धवरशासनमिदम् , 'आधवियं' आख्यातं 'मुदेसियं ' मुदेशितं 'पसस्थं ' प्रशस्तं 'चउत्थं संवरदारं चतुर्थ संवरद्वार 'समत्तं' समाप्तम् । ' तिबेमि ' इति ब्रवीमि । अस्य सूत्रस्य व्याख्या पूर्ववद् बोध्या ॥ मू०११ ॥ ॥ इति श्री विश्वविख्यात-जगद्वल्लभ - प्रसिद्धवाचकपञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापक-प्रविशुद्धगद्यपद्यनैऋग्रन्थनिर्मापक- वादिमानमर्दकश्रीशाहू छत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त 'जैनशास्त्राचार्य' पदभूषितकोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य- जैनधर्मदिवाकरपूज्यश्री घासीलालबतिविरचितायां श्री प्रश्नव्याकरणसूत्रस्य सुदर्शन्या ख्यायां व्याख्यायां संपरात्माके द्वीतीये-भागे ब्रह्मचर्यनामकं चतुर्थ संवरद्वारं समाप्तम् ॥ ४॥ वीरेण ) ज्ञातवंश में उत्पन्न हुर मुनि भगवान महावीर ने (पण्णवियं) इस चतुर्थ संवरद्वार को शिष्यों के लिये सामान्यरूप से समझाया है। (परूवियं ) बाद में भेद-प्रभेद पूर्वक उसका कथन किया है । (पसिद्ध) इसीलिये जिनवचन में यह प्रसिद्ध हुआ है । तथा (सिद्धवरसासणमिणं ) भूतकाल में जितने भो सिद्ध हो चुके हैं उनका यह प्रधान आज्ञारूप शासन है। (आपवियं) ऐसा भगवान महावीर प्रभुने इसके विषय में सर्वभाव से कहा है और ( उदेसियं ) देवों मनुजों तथा अनुरों से युक्त परिषदा में इसका उपदेश दिया है। (पसत्यं ) समस्न प्राणियों का हितकारक होने से प्रशस्त-मंगलमय है ( चउत्थं संबरदारं समत्तं ) यह चर्थ संवरद्वार समाप्त हुआ (त्तिबेमि) हे जंबू ! जैसा मैंने भगवान से सुना है वैसा ही मैं कहता हूं। वारे " पण्णवियं ” मा योथा बा२ने शिष्याने भाटे सामान्य ३ समात्यु छ. “परूवियं" त्यार से प्रमः पूर्व तेनू थन यु छ. " पसिद्धं" ते २0 नियनमा ते प्रसिद्ध थयेस छ. तथा “सिद्धवरसासणमिणं" ભૂતકાળમાં જેટલા સિદ્ધ થઈ ગયા છે તેમનું આ મુખ્ય આજ્ઞા રૂપ શાસન छ. " आघवियं " मे भगवान महावीरे तेने विष स माथी ४युं छ भने “ सुदेसियं" वो, माणुसे तथा मसुरोथी युत परिषदामा तना उपदेश मान्य छे. “पसत्थ' समस्त प्राणीमान भाटे हित।२४ पाथीप्रशस्त म मय छे. चउत्थ संवरदार समत्तं"! योथुस १२वार समास थयु. "त्तिबेमि" હે જંબૂ જેવું ભગવાનને મુખે સાંભળ્યું હતું તેવું જ તેનું કથન કરૂં છું. प्र १०५ For Private And Personal Use Only Page #883 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ८३४ प्रश्नव्याकरणसूत्रे भावार्थ - इस चतुर्थ संवरद्वार का उपसंहार करते हुए सूत्रकार कहते हैं कि जो मुनिजन इस चतुर्थ संवरद्वार को मन वचन और काय, इन तीन योगों से शुद्धिपूर्वक पांच भावनाओं सहित मरणपर्यंत पालते हैं उनके अशुभ अध्यवसाय रुक जाते हैं। नवीन कर्मों का बंध बंद हो जाता है। संचित कर्मों की निर्जरा होने लगती है। पाप का स्रोत रुक जाता है । यह अपरिस्रावी आदि विशेषणों वाला है त्रिकाल - समस्त अरहंत भगवंतों ने इसका पालन किया है । उन्हीं के कथनानुसार भगवान महावीर प्रभुने भी इसका स्वरूपादि प्रदर्शन पूर्वककथन किया है । इस प्रकार श्री सुधर्मास्वामी ने अपने शिष्य अंतिम केवली श्री जंबू स्वामी को समझाया है | सू०११ ॥ || चतुर्थ संवरद्वार समाप्त || ४ || Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भावार्थ::---આ ચેાથા સંવરદ્વારના ઉપસંહાર કરતાં સૂત્રકાર કહે છે કે જે મુનિજન આ ચોથા સવરદ્વારને મન, વચન અને કાય એ ત્રણે ચોગાની શુદ્ધિ પૂર્વક પાંચ ભાવના સહિત મરણ સુધી પાળે છે તેમનાં અશુભ અધ્યવસાય બંધ થઈ જાય છે. નવીન કર્મોના બંધ પણ અટકી જાય છે. સચિત કર્મોની નેિરા થવા માંડે છે, પાપાનાં સ્રોત અટકી જાય છે. તે અપરિસાવી આદિ વિશેષણેા વાળુ છે. ત્રિકાળવતી સમસ્ત અર્હત ભગવાને એ તેનુ પાલન કરેલ છે. તેમના કથનાનુસાર ભગવાન મહાવીરે પણ તેના સ્વરૂપ આદિ દર્શાવીને તેનુ` કથન કર્યું છે. આ પ્રમાણે શ્રી સુધર્મા સ્વામીએ પેાતાના શિષ્ય અતિમ કેવલી શ્રી જખૂસ્વામીને સમજાવ્યું છે. ।। સૂ. ૧૧ ૫ !! ચાથું સંવરદ્વાર સમાપ્ત ॥૪॥ For Private And Personal Use Only Page #884 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ अथ पञ्चमं संवरद्वारं प्रारभ्यते ॥ व्याख्यातं ब्रह्मचर्य नामकं चतुर्थ संवरद्वारम् , तद्धि सर्वथा परिग्रहविरतस्यैव संभवतीति क्रमप्राप्तं परिग्रहविरमणनामकं पञ्चमं संवरद्वारमभिधीयते । तस्येदमादिमं सूत्रम्-'जंबू' इत्यादि । मूलम्-जंबू ! अपरिग्गहसंवुडे य समणे आरंभपरिग्गहाओ विरए कोहमाणमायालोभा, एगे असंजमे, दोचेव रागदोसा, तिणि य दंडा, गारवाय गुत्तीओ तिण्णि, तिणि य विराहणाओ, चत्तारि कसाया, झाणसण्णा, विगहा तहा य हुंति चउरो, पंच-किरियाओ, समिइ, इंदिय, महव्वयाइं य ५, छज्जीवनिकाय, छच्चलेसाओ, सत्तभया, अट्ठमया, नवचेव य बंभचेरगुत्ती, दसप्पकारे य समणधम्मे एक्कारस उवासगाणं, बारस य भिक्खूणं पडिमा, तेरस किरियाट्ठाणाई, चउद्दस भूयगामा, पन्नरस परमाहम्मिया, सोलस गाहा सोलस य, असंजम १७, अबंभ १८, णाय१९, असमाहिट्ठाणा २०, सबला २१, य परीसहा २२ य, सूयगडज्झयणा२३, देव२४, भावणा२५, उद्देस२६, गुण२७, कप्प२८, पावसुय २९, मोहणिज ३०, सिद्धाइगुणा ३१, य जोगसंगह ३२, सुरिणा ३३, तित्तीसासायणा। आदि एकाइयं करेत्ता एगुत्तरियाए बुड्डीए वडिएसु तीसाओ जाव य भवेतिगाहिया। विरइपणिहिसु अविरईसु य अण्णेसु य एवमाइसु बहुसु हा. णेसु जिणप्पसत्थेसु अवितहेसु सासयभावेसु अवट्ठिएसु संकं कंखं निराकरित्ता सदहइ सासणं भगवओ अणिआणे अगारवे For Private And Personal Use Only Page #885 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८३६ प्रश्नव्याकरणसूत्रे अलुद्धे अमूढे मणवयणकायगुत्ते जो सो वीर-वरवयण-विरइ पवित्थर बहुविहपगारो संमत्तविसुद्धबद्धमूलो धिइकंदो विणय वेइओ निग्गयतेलोक विउलजसनिचियपीणपीवर-सुजायखंघो पंचमहव्वयविसालसालो भावणातयंतज्झाणसुभग जोगनाणपल्लववरंकुरधरो बहुगुणकुसुमसमिद्धो सीलसुगंधो अणण्हयफलो पुणो य मोक्खवरवीयसारो मंदरगिरिसिहरचूलिया इव इमस्स मोक्खवरमुत्तिमन्गस्स सिहरभूओ संवरपायवो चरिमं संवरदारं ॥ १॥ टीका-'जंबू' हे जम्बू ! 'अपरिग्गहसंवुडे ' अपरिग्रहसंवृतः परिग्रहः= धर्मापकरणातिरिक्त वस्तुग्रहणम् , धषिकरणे मूर्छा च, तद्भिन्नोऽपरिग्रहाः, तत्र-संवृतः संलग्नो यः स चकाराद् ब्रह्मचर्यादि गुणयुक्तश्च यः स, 'समणे' पांचवां संवरद्वार प्रारंभ ब्रह्मचर्य नाम का चतुर्थ संवरद्वार समाप्त हो चुका । यह ब्रह्मचर्य नामका चतुर्थ संवर उसी व्यक्ति के होता है जो परिग्रह से सर्वथा विरत होता है । इसलिये क्रम प्राप्त परिग्रह विरमण नाम का पांचवां संवर द्वार कहा जाता है, उसका यह प्रथम सूत्र है-'जंबू ' इत्यादि। धर्मोंपकरणों से अतिरिक्त वस्तुओं का ग्रहण करना और धर्मोपकरणों में मूर्छाभाव का रखना इसका नाम परिग्रह है। इस परिग्रह से जो भिन्न है वह अपरिग्रह है। (जंकू) हे जंबू ! ( अपरिग्गहसंबुडे य समणे ) जो इस अपरिग्रह में संलग्नचित्त होता है एवं ब्रह्मचर्य आदि - પાંચમા સંવરદ્વારને પ્રારંભ બ્રહ્મચર્ય નામનું ચોથું સંવતદ્વાર સમાપ્ત થયું. તે બ્રહ્મચર્ય નામને ચતુર્થ સંવર એ જ વ્યક્તિને થાય છે કે જે પરિગ્રહથી સર્વથા વિરક્ત બને છે. તે કારણે અનુક્રમે આવતા પરિગ્રહ વિરમણ નામના પાંચમાં સંવરદ્વારનું, पणुन ४२पामा माछ, तनुं ! पहे सूत्र छ-" जंबू ” त्याहि ધર્મોપકરણો કરતાં વધારે વસ્તુઓ ગ્રહણ કરવી અને ધર્મોપકણોમાં મૂચ્છભાવ રાખે તેને પરિગ્રહ કહે છે. આ પરિગ્રહથી જે ઉલટું છે તે अपरि उपाय छ- “जंवू " ! " अपरिग्गहसंबुडेय समणे' हे २१ ५२. ગ્રહમાં આસક્ત ચિત્તવાળા હોય છે અને બ્રહ્મચર્ય આદિ ગુણોથી યુક્ત હોય For Private And Personal Use Only Page #886 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीकाट अ० ५ सू०१ परिग्रहविमणनिरूपणम् श्रमणो भवति । एतदेव वर्ण्यते-' आरंभ परिग्गहाओ' आरम्भपरिग्रहात्-आरम्भः =पृथिव्याधुपमर्दः, परिग्रहः बाह्याभ्यन्तरनेदाद् द्विविधः, तत्र-बाह्यः परिग्रहः धर्मोपकरणातिरिक्तभिन्नवस्तुग्रहणं, धपिकरणेषु मूर्छा च । आन्तरः परिग्रहस्तु-मिथ्याविरतिकपायप्रमादाशुभयोगरूपः, अनयोः समाहारद्वन्द्वः, तस्माद् 'बिरए' विरतो यः म श्रमणो भवति । तथा यः ‘कोहमाणमायालोमा' क्रोधमानमायालोभात् , अत्र-समाहारत्वादेकत्वम् 'विरए' विरतः स श्रमणो भवति । अर्थकादि संख्यया मिथ्यात्वादि लक्षणाऽऽभ्यन्तरपरिग्रह विरति विशदयमाह'एगे' इत्यादि, 'एगे असंजमे ' एकोऽसंयमः-अविरतिलक्षणः, 'दो चेव रागदोसा' द्वौ चैव रागद्वेषौ । तथा-'तिणि य' त्रयश्च 'दंडा' दण्डाः, तथा त्रीणि 'गारवा य' गौरवाणि च, 'गुत्तीओ' गुप्तयः, 'तिण्णि य ' तिस्रश्च । तथागुणों से युक्त होता है वही श्रमण है । यह श्रमण ( आरंभपरिग्गहाओ विरए ) आरंभ और परिग्रह से सर्वथा विरत होना है। पृथिवी आदि जीवों का उपमर्दन जिन क्रियाओं से होता है वे सब आरंभ है। परिग्रह बाध और आभ्यन्तर के भेद से दो प्रकार का होता है । धर्मो. पकरणों से भिन्न वस्तुओं का अपनाना-पास में रखना-तथा धर्मापकरणों पर मूर्छाभाव-ममत्वभाव रखना यह बाह्यपरिग्रह है। मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, प्रमाद और अशुभयोग, ये सब अभ्यन्तर परिग्रह हैं। श्रमण वही हो सकता है जो आरंभ और बाह्याभ्यन्तर परिग्रह से सर्वथा विरत होता है । ( विरए कोहमाणलोभा ) इसी तरह जो क्रोध, मान, माया और लोभ, इनसे विरत होता है वही श्रमण कहलाता है । ( एगे असंजमे, दो चेव रागदोसा, तिणि य दंडा-गारवाय, गुत्तीओ तिण्णि, तिष्णि य विराहणाओ, चत्तारिकसाया, झाणसण्णा, विगहा तहा छे थे २४ श्रम छ. ते श्रम " आरभपरिगहाओ विरए " भान भने પરિગ્રહથી તદ્દન વિરક્ત હોય છે. પૃથિવી આદિ નું ઉપમન જે ક્રિયાએથી થાય છે તે સઘળાને આરંભ કહે છે. પરિગ્રહના બે ભેદ છે-બાહ્ય પરિ. ગ્રહ અને અભ્યાન્તર પરિગ્રહ ધર્મોપકરણે સિવાયની વસ્તુઓ પાસે રાખવી તથા ધર્મોપકણો ઉપર મૂચ્છભાવ. મમત્વભાવ રાખવો તે બાહ્યપરિગ્રહ છે. મિથ્યાત્વ, અવિરતિ, કષાય, પ્રમાદ અને અશુભ ગ એ બધા આવ્યાન્તર પરિગ્રહ છે. જે બાહ્ય અને આભ્યન્તર પરિગ્રહથી સર્વથા વિરક્ત હોય છે તે श्रम यश छ. "विरए कोहमाणमायालोमा” से प्रभारी ४ ओध, मान, भाया मने दोमयी २हित सोय छे ते ४ श्रम ४ाय छे. “ एगे असंजमे, दोचेव रागदोसा, तिण्णियदंडा-गारवाय, गुत्तीओ तिपिण, तिण्णि य विरोहणाओ, For Private And Personal Use Only Page #887 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८३८ प्रश्नव्याकरणसूत्रे 'तिष्णि य ' तिस्रश्च । विराहणाओ' विराधनाः। तथा-' चत्तारि' चत्वारः 'कसाया' रूपायाः । तथा-चत्वारि 'झाणा ' ध्यानानि, 'तहा य' तथा च 'चउरो' चतस्रः विगहा' विकथाः, 'हुति' भवन्ति । तथा-'पंच' पश्च 'किरियाओ' क्रियाः, तथा-पञ्च 'समिइंदियमहन्वयाइं य' समितीन्द्रियमहाव्रतानि च । पञ्च समितयः, पञ्चन्द्रियाणि, पञ्च महावतानि च । तथा-' छज्जीयनिकाया' पजीवनिकायाः । छच्चलेसाओ' पइ च लेश्याः । तथा-'सत्त भया' सप्त भयानि । तथा-' अट्ठमया' अष्टमदाः । ' नव चेव य' नव चैव च 'बंभवेरगुत्तीओ ' ब्रह्मचर्यगुप्तयः । 'दसप्पकारे य' दशप्रकारश्च = दशविधः, 'समणधम्मे श्रमण धर्मः । तथा-' एकारस' एकादश 'उवासगाणं' उपासकानां 'बारस य ' द्वादश च 'भिक्खूणं' भिक्षुणां ' पडिमा ' प्रतिमाः। 'तेरस' त्रयोदश 'किरियाठाणाई' क्रियास्थानानि । 'चउइस' चतुर्दश 'भूयगामा' भूतग्रामाः । '' पन्नरस' परमाहम्मिया' पञ्चदश परमाधार्मिकाः । ' सोळसगाहा य हुति चउरो) तथा ये जो असंयमादिक एक से लेकर तेतीस बोल है, जैसे-अविरतिरूप एक असंयम, दो राग और द्वेष तीन दण्ड, तीन गौरव, तीन गुप्ति, तीन विराधना, चार कषाय, चार ध्यान, चार संज्ञो, चार विकथा, (पंचकिरियाओ) पांच क्रिया, ( समिइंदियमहन्वयाई ) पांच समिति, पांच इन्द्रिय. पांच महाव्रत, ( छज्जीवनिकायछच्चलेसा. ओ सत्तभयाअट्ठमया नव चेव य बंभचेरगुत्ती, दसप्पकारे य समगधम्मे, एकारस उवासगाणं वारसय भिक्खूणं पडिमा ) छह जीवनिकाय छह लेश्या, सात भय, आठ मद, नौ ब्रह्मचर्य गुप्ति, दश प्रकार का श्रमणधर्म, ग्यारहश्रावकों को, बारह भिक्षुओं की प्रतिमाएँ, (तेरस किरियाहाणाई, चउद्दसभूयग्गामा, पन्नपरसरमाहम्मिया, मोलसगाहा. चत्तारि कसाचा, झाणसण्णा विगहातहा य हुंति चउरो" तथा 1 2 २५सयમાદિક એકથી લઈને તેત્રીસ બેલ છે, જેવાં કે-અવિરતિરૂપ એક અસંયમ, બે રાગ અને દ્વેષ, ત્રણ દંડ, ત્રણ ગૌરવ, ત્રણ ગુપ્તિ, ત્રણ વિરાધના, ચાર ४पाय, या२ ध्यान, या२ संज्ञा, या२ विया, "पंच किरियाओ" पाय लिया " समिइदियमहब्बयाई” पांच समिति पाय थन्द्रिय, पाय मानत, छज्जीवनिकाय छचलेसाओ सत्तभ या अदुमया नवचेव य बभचेरगुत्ती, दसापक रे य समणधम्मे, एकारस, उवासगाणं बारसयभिम्खूगं पडिमा " ७ निकाय, છ લક્ષ્યા, સાત ભય. આઠ મદ, નવ બ્રહ્મચર્ય ગુપ્તિ, દશ પ્રકારનો શ્રમણ मी, मनिया२ श्रावनी, २ मिनुभनी प्रतिमाया, " तेरस किरियाटाणाई, चउद्दस-भूयगामा पन्नरसार माह म्मिया, सोलसगाहा सोउसा य असंजम १७, For Private And Personal Use Only Page #888 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 4 सुदर्शिनी टीका अ. ५ सृ०१ परिग्रहविरमण निरूपणम् ८३९ " ' " 6 सूयग य' षोडशगाना षोडशकानि च = गाथेति षोडशमध्ययनं येषां तानि गाथापोड शकानि सूत्रकृताङ्गस्य प्रथमश्रुतस्कन्धाध्ययनानि तानि च षोडशसंख्यकानि । तथा - सप्तदशविधः 'असंजमे' असंयमः । अष्टादशविधम् ' अवंभ' अब्रह्मचर्यम् । तथा - एकोनविंशति संख्यकानि, 'णाय' ज्ञातानि=ज्ञाताध्ययनानि । विंशतिः असमाहिाणा' असमाधिस्थानानि, एकविंशतिः 'सवला य शवलाय | द्वाविंशतिः ' परीसहाय ' परीपहाच । तथा त्रयोविंशति संख्यकानि, उज्झयणा' सूत्रकृताध्ययनानि । चतुर्विंशतिः 'देवा' देवाः । पञ्चविंशतिः भावणा' भावनाः षड्विंशतिः ' उद्देस ' उद्देशाः । सप्तविंशतिः ' गुण गुणाः = अनगारगुणाः । अष्टविंशतिः एकोनविंशतिः ' पावसुय' पापश्रुतानि । त्रिंशत् - ' मोहणिज्जं ' मोहनीयानि = मोहनीयस्थानानि । एकत्रिंशत्- ' सिद्धाइगुणा य' सिद्धादिगुणा सिद्धसहभाविगुणाः । द्वात्रिंशत् - ' जोगसंग्रह ' योगसंग्रहाः, तथा द्वात्रिंशत् -' सुरिंदा ' , 1 , कप्पा कल्पाः - आचारप्रकल्पाः । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सोलसा य असंजम १७, अवंभ १८, णाय १९, असमाहिाणा २०, सबला २१, य परीसहा २२ य, सायडज्झयणा २३ ) १३ क्रियास्थान, १४ भूतग्राम, १५पर माधार्मिक, १६ सूत्रकृताङ्गके प्रथम श्रुतस्कंध के अध्ययन, १७ प्रकारका असंयम, १८ प्रकारका अब्रह्मचर्य, १९ ज्ञाताके अध्ययन, २० प्रकारके असमाधिस्थान, २१ प्रकार के शवल, २२ परीषह, २३ सूत्रकृताङ्गके अध्ययन ( देव २४, भावणा २५, उद्देस २६, गुण २७, कप्प २८ पावय २९, मोहणिज्जं ३०, सिद्धाइगुणा ३१, य जोगसंगह ३२, सुरिंदा ३३, तित्तीसासायणा ) २४ देव, २५ भावना, २६ उद्देश, २७ अनगार गुण, २८ आचारप्रकल्प, २९ पापश्रुत, ३० मोहनीयस्थान, ३१ सिद्धसह भाविगुण, ३२ योगसंग्रह, ३३ सुरेन्द्र भवनपतियों में २०, अब भ १८, णाय १९, असमाहिट्टाणा २०, सबला २१, य परीसहा २२ य, सूयगडज्झयणा २३ ” डियास्थान, १४ भूतग्राम, १५ परमधार्मिङ, १६ સૂત્રકૃતાંગના પ્રથમ શ્રતસ્કંધના અધ્યયન, ૧૭ પ્રકારના અસયમ, ૧૮ પ્રકારનું અબ્રહ્મચર્ય, ૧૯ જ્ઞાતાનાં અધ્યયન, ૨૦ પ્રકારના અસમાધિ સ્થાન, ૨૧ પ્રકા श्ना शमा, २२ परीषड, २३ सूत्रद्रुतांगना अध्ययन, "देव २४, भावणा २५, उदेस २६, गुण २७, कप्प २८, पात्र सुय २९, मोहणिज्ज ३०, सिद्धाइगुणा ३१, य जोगसंगह ३२, सुरिंदा ३३ तित्तीसाप्तायणा " २४ द्वेष, २५ ભાવના, ૨૬ ઉદ્દેશ, ૨૭ અણુગાર ગુણ, ૨૮ આચાર પ્રકલ્પ, ૨૯ પાપશ્રુત, ૩૦ માહનીય સ્થાન, ૩૧ સિદ્ધ સહભાવિ ગુણુ. ૩૨ ચાગ સગ્રહ, ૩૨ સુરેન્દ્ર, For Private And Personal Use Only Page #889 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ८४० प्रश्नव्याकरणसूत्रे 1 " , सुरेन्द्राः शिविर्भवनपतिषु, द्वादशसु कल्पेषु दश, तत्र - अष्टसु कल्पेष्वष्टौ नवमदशमयोरेकः, एकादश द्वादशयोवैक इति द्वौ ज्योतिष्केपु, चन्द्रसूर्याणामसंख्यातत्वेऽपि जातिग्रहणाद् द्वावेव एवं द्वात्रिंशदिन्द्राः । 'वित्तीसासायणा' त्रय स्त्रिँशदाशातनाः, असंयमाद्याशातनान्तानामेषां व्याख्याऽऽवश्यक सूत्रस्यास्मस्कृतमुनितोषण्याख्यायां व्याख्यायां द्रष्टव्या । एते हि ' आदि एकाइये ' आचेकादिकम् = आदेः = प्रथमतः एकादिकम् = एक द्वित्र्यादिकं ' करेता ' कृत्वा = आश्रित्य ' एकुत्तरियाए ' एकोतरिकया= एकः उत्तरे यस्याः सा तया 'बुट्टीए' हृद्धया क्रमश एकैक वृद्धचेत्यर्थः, 'वुडिएस ' वर्द्धितेषु वृद्धिमाप्तेषु सत्सु 'जाव य ' यावच ' तिगाहिया ' त्रिकाधिका=त्र्यधिकाः ' तीसं 'त्रिंशद्त्रयत्रिंशद्' भवे' भवन्ति । अत्र 'एएस' इति गम्यम्, एतेष्वनुपदमुक्तेषु असंयमादिषु तथा-' विपणिहसु' विरतिप्रणिधिषु विरतयः =माणातिपात विरमणानि, प्रणिधयः = प्रणिधानानि चित्तैकाग्रता रूपाणि, अनयोर्द्वन्द्वः, तेषु तथोक्तेषु तथा 'अविरइसु' बारहकल्पों में १०= ८ आठ कल्पों में टा नवमें दसवें कल्प में १ ग्यारहवें बारहवें १) ज्योतिषियों में जाति की अपेक्षा चंद्र और सूर्य इकार ३२ । और आशातना ३३ । इन सबकी व्याख्या आवश्यक सूत्र की पूज्यश्री घासीलालजी महाराजद्वारा की गई मुनि-तोषणी नामकी टीका में की गई है अतः जिज्ञासुजन इस विषयको वहां से देखलें | (आदि एवायं करेता) इस प्रकार ये प्रथम एकादि संख्याको लेकर के क्रमश: (एरिया बुड्डिए बुडिएस) एकर की वृद्धिसे वर्द्धिन होते २ (तीसाओ जाव य भवेतिगहिया ) तीन अधिक तीस अर्थात् तेतीस हो जाते हैं । इन असंयमादि तेतीस प्रकार तक के संख्या स्थानों में तथा ( विपणिहसु) प्राणातिपात विरमणरूप विरतियों में, चित्त की ८; = Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ભવનપતિઓમાં૨૦, બાર કામાં૧૦ (આઠ કફોમાં૮,નવમાં અને દશમાં કલ્પમાં ૧ અને અગિયાર તથા મારમાં કલ્પમાં એક) નૈાતિષિયામાં જાતિની અપેક્ષાએ સૂર્ય અને ચંદ્ર એમ બે સુરેન્દ્ર. એ રીતે કુલ ૩૨ સુરેન્દ્રો થયાં. અને અશાતનાં ૩૬. આ બધાની વ્યાખ્યા આવશ્યક સૂત્રની પૂજ્ય શ્રી. ઘાસીલાલજી મહારાજ દ્વારા કરાયેલ મુનિતેષણી નામની ટીકામાં આપેલ છે. તે જિજ્ઞાસુन ते विषय तेमाथी ले ले. " आदि एकाइयं करेत्ता " मा राते पहेलेथी એકાદિ સંખ્યાને લઈને ક્રમશઃ एगुत्तरिया बुडिहर वुडिडएस " खेड ये वधारतात "तीलाओ जान य भवेतिगाहिया " तेत्रीस थ लय छे, थो असत्यमाहि क्षेत्रीसमां प्रार सुधीना संच्या स्थानानां तथां "विरइ पणिहिसु પ્રાણાતિપાત વિરમણુરૂપ વિરતિમાં, ચિત્તની એકાગ્રતારૂપ પ્રણિધાનોમાં 66 29. For Private And Personal Use Only Page #890 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ०५ सू. ६ परिग्रहविरमणनिरूपणम् अविरतिषु अविरतिरूपेण भगवता कथितेषु प्राणातिपातादिषु च, तथा-'अण्णेसु य' अन्येषु च ' एवमाइएमु' एवमादिकेषु एवं विधेषु — बहुमु टाणेसु ' बहुषु स्थानेषु-अनेकविधेषु पदार्थेषु संख्यास्थानेषु वा चतुस्त्रिंशदादिषु, कीदृशेष्वेषु ? 'जिणपसन्थेसु ' जिनमशस्तेपु-जिनकथिनेषु, अतएव-'अवितहेसु' अवितथेषु-सत्येपु, पुनः- सासयभावेसु ' शाश्वतभावेषु-ओघतोऽक्षयस्वभावेषु, अतएव-' अवटिएमु ' अवस्थितेषु-सर्वदा भाविषु 'संकं' शङ्का सन्देह, 'ख' काक्षा=परमतवाञ्छां 'निराकरित्ता' निराकृत्य-दूरीकृत्य श्रमणैः, 'सदहति' श्रद्दधाति ' भगवओ ' भगवतो जिनस्य ' सासणं ' शासनम् कीदृशः सन् श्रमणो जिनस्य शासनं श्रधातीत्याह - 'अणियाणे ' अनिदानः =देवदिवाञ्छारहितः, ' अगारवे ' अगौरवः= ऋद्धयादिगौरववर्जितः, 'अलुद्धे ' अलुब्धा-विषयेष्वलम्पटः 'अमूढे' अमूढः, तथा-'मणोक्यणकाय. एकाग्रतारूप प्रणिधानों में ( अविरइसु ) भगवान के द्वारा अविरतरूपसे कथित प्राणातिपात आदिकों में तथा ( अण्णेषु य एवमाइएसु) और भी इसी तरह के दूसरे ( बहुमु द्वाणेलु) अनेक पदार्थों में अथवा (जिणे पसत्थेसु) चौतीस आदि संख्यास्थानों में जो कि जिनकथित हैं और इसी कारण ( अवित हेसु ) जिन में अमत्यता का थोड़ा साभी स्थान नहीं, अर्थात् सर्वथा सत्य हैं, तथा (सासयभावेसु) सामान्यकी अपेक्षा जिनका अक्षय स्वभाव है, और इसीसे (अवट्टिए) जिनकी सत्ता सदा रहती है उनमें (संकं) शंका-संदेहो ( कंग्वं ) काक्षा-परमतवांछा को (निराकरित्ता ) दूर करके जो श्रमण ( अनि याणे) निदान-देव र्यादि प्राप्तिकी इच्छा से विहीन बन कर ( अगारवे ) ऋयादि गौरव से रहित हो कर ( अलुद्धे ) विषयों में लंपटतासे रिक्त होकर और “ अविरइसु " नपान द्वारा भवि२त३थे अथित प्रातिपात मा तथा " अण्णेसु य एवमाइएसु" मी ५५ मे प्रारना बहुसु द्वाणेसु" भने पहाभा अथवा “जिणपसत्थेसु" यात्रीस माह सध्या स्थानामा थित छ भने में आरणे " अवितहेसु” भनामा मसत्यतार्नु । ५५ स्थान नथी सटोरे सपथा सत्य छ, तथा “सासय भावेसु" सामान्यनी अपेक्षा निन! २१क्षय स्खला छ, भने तेथी। " अवट्रिासु" नी सत्ता सह। २ छे, तेमनामा “संके" -सहेडने " कखं" क्षा-५२मत पायनाने 'निराकरित्ता' २ रीने २ श्रम " अनियाणे " निहान-हेवादिप्रालिनी स्थिी २डित मनीन “अगारवे" ऋद्धयादि मौरपथी २हित ने “ अलुध्धे ” विषयानी साससाथी रहित प्र १०६ For Private And Personal Use Only Page #891 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૮૪૨ प्रश्नव्याकरणसूत्रे गुत्ते' मनोवचनकायगुप्तश्च श्रमणो भवति । अथाऽपरिग्रहसंबरं वृक्षोपमया वर्णयन्नाह - जो सो' या सा-संबरपादपो यः सः स चरमं संवरद्वारमिति योगः कीदृशः संवरपादपः इत्याह-चोरबरवयणविरइपवित्थरबहुविहप्पगारो' वीरवरवचनविरतिप्रविस्तरबहुविधमकारः वीरवरस्य भगवतो महावीरस्य यद्वचनम् आज्ञा, ततः सकाशाद् या विरतिः परिग्रहाभिवृत्तिः सैव प्रविस्तरो विस्तरयुक्तो बहुविधः अनेकविधः-विचित्रविषयापेक्षया क्षायोपशमाद्यपेक्षया च पादपपक्षे मूलकन्दाद्यपेक्षयाऽनेकविधः प्रकारः भेदो यस्य सः, तथा-'समत्तविसुद्धबद्धमूलो' सम्यक्त्वविशुद्धबद्धमूला सम्यक्त्वमेव-सम्यग्दर्शनमेव विशुद्धं = बद्धं मूल यस्य ( अमूढे ) मूढता से वर्जित होकर तथा (मणवयणकायगुत्ते ) मन, वचन और काय की सरलता से संपन्न बनकर ( भगवओ) भगवान् जिनेन्द्र के (सासणं ) शासन का (सहहइ ) श्रद्वान करता है वही श्रमण सच्चा अमण है। अब सूत्रकार इस अपरिग्रहसंवर का वृक्ष की उपमा देकर वर्णन करते हैं-(जोसो) जो यह अन्तिम संवरद्वार रूप संवरवृक्ष है वह ( वीरवरवयणविरइपवित्थरबहुविहप्पगारो) अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीर की आज्ञा से जो परिग्रह से जीव की निवृत्ति होती है उस रूप है । यह परिग्रह से निवृत्ति ही इस वृक्ष के विस्तृत अनेक प्रकार--भेद हैं । तात्पर्य इस का यह है कि जिस प्रकार मूल. कन्द आदि की अपेक्षा को लेकर एक ही वृक्ष विविध प्रकारों वाला माना जाता है उसी प्रकार यह परित्यागरूप अपरिग्रह भी विचित्र विषयों के त्याग की अपेक्षा और कर्मों के क्षयोपशम आदि की अपेक्षा से अनेक प्रकार का होता है । (संमत्तविशुद्धबद्ध मूलो ) इस वृक्ष कामनी ने भने “ असूढे" भूढताथी २हित ५४ने तथ! “ मणवयणकायगुत्ते " भन, क्यन मन लायनी सताथी युक्त मनीने "भगवओ, भगवान बिनद्रन " सासण" शासन- “सदहइ" श्रद्धान ४२ छे ते श्रमा २४ सायोश्रम छे. હવે સૂત્રકાર આ અપરિગ્રહ સંવરને વૃક્ષની ઉપમા આપીને તેનું વર્ણન अरे -"जो सो" २ मा छवटना परिश्रद्धा२ ३५ ५५रियड सव२ वृक्ष छते “वीरवरवयणविरइपवित्थरबडुविहप्पगारो" मतिम तय ४२ मावान મહાવીરની આજ્ઞાથી જે પરિગ્રહથી જીવની નિવૃત્તિ થાય છે તે રૂપ છે. તે પરિગ્રહથી નિવૃત્તિ લેવી એ જ આ વૃક્ષના વિસ્તૃત અનેક પ્રકાર-ભેદ છે. તેનું તાત્પર્ય એ છે કે જેમ મૂળ, કંદ આદિની અપેક્ષાએ એક જ વૃક્ષ જેમ અનેક પ્રકારે વાળું મનાય છે તેમ આ પરિત્યાગરૂપ અપરિગ્રહ પણ વિચિત્ર વિષચેના ત્યાગની અપેક્ષાએ તથા કર્મોનો ક્ષમામ આદિની અપેક્ષાએ અનેક मार्नु हाय. “संमत्तविसुद्धबद्धमूलो" सभ्यश न मा वृक्षतुं विशुद्ध For Private And Personal Use Only Page #892 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका २०५ ०१ परिग्रहविरमणनिरूपणम् ८४३ " सः, तथा-' धिइकंदो ' श्रुतिकन्दः = धृतिः = चित्तस्वास्थ्यं सैव कन्दो पूलाघोभागरूपो यस्य सः, तथा विषयवेइओ' विनयवेदिका विनय एवं वेदिका वेदिर्यस्य सः, तथा-' निग्गय तेलोकविपुलजसनिचियपीपरजायसंधी' निर्गतत्रैलोक्यविपुल यशोनिचित पीन पीचरसुजातस्कन्धः = तत्र निर्गत व्याप्तं त्रैलोक्ये यत्तनिर्गतत्रैलोक्यं लोकाव्याप्तमित्यर्थः एतादृशं यद विपुलं विशालं यशख्यातिस्तदेव निचितो= निविड : पीनो-महान् पीवरः = पुष्टा सुजातः सुनिष्पन्नः स्कन्धो यस्य सः, तथा - पंचमहव्वयविसालसालो ' पञ्चमहायतविशालशाल: =पञ्चमहाव्रतान्येव विशाला:= विस्तृताः शाला:= शाखा यस्य सः, तथा-' भावणाततज्ज्ञासुभगजोगनाणपल्लववरं कुरधरी' भावनालगन्तध्यान्सुभगयो गानपल्लववरारधरः, तत्र - भावनैव = अनित्यत्वादिचिन्तनलक्षणैव त्वगन्तःपोऽवयवशे यस्य सः, भावनारूपत्वचासंपन्नइत्यर्थः तथा-ध्यानम् = धर्मध्यानादि, शुभयोगा: शुभमनोवाक्कायव्यापाराः ज्ञानं बोध्यः तान्येव पल्लवावराङ्कुराथ तेषां धरो यः सः, अनयोः कर्मधारयः, तथा - 'बहुगुणकुसुमसमिद्धो ' बहुगुणकुसुमसमृद्धः बहवो ये , , विशुद्ध मूल सम्यग्दर्शन है। (धिकंदो ) चित्तस्वास्थ्यरूप धैर्य ही इस का कंद है, (वियवेइओ ) बिनय ही इसकी वेदिका - उत्पत्ति भूमि है | ( निग्गय - तेल्लोकविउलजसनिचिद्यपी पीवर सुजागखंधो ) त्रैलोक्य में व्याप्त यश ही इसका निविड, पीन-बड़ा-पोवर-पुष्ट और सुजातसुहावना स्कंध है। (पंचमहन्वय विसालसालो) पांच महाव्रत ही इसकी विशाल शाखाएँ हैं । ( भावणात यंतझाणसुभगजोगनापपल्लववरंकुर धरो ) अनित्य आदि भावनाएँ हो इसकी स्वचा - छाल है, धर्मध्यान आदि ध्यान, मन, वचन और काय की शुभ प्रवृत्तिरूप, व्यापार एवं सम्यक्ज्ञान, ये सब ही इसके पत्ते और उत्तम पल्लवाङ्कुर हैं, (बहुगुण कुसुमसमिद्धो ( क्षान्त्यादि अनेक गुणोंरूपी पुष्प से यह सदा समृद्ध तेनुं ४४ छे. "विणय वेइओ "" भूज छे. “धिइकंदो ” थित्त स्वस्थता३य धैर्य વિનય જ તેની વેદિકા ઉત્પત્તિની ભૂમિકા છે. निगाय तेल्लोक्क विउलजस निश्चियपीवरसुजायबंधो " "त्रिम व्यास यश ४ तेनुं निविड, चीन-भोटु - पीवर भन्नभूत मने सुन्नत सुंदर थड छे " पंचमहन्वय विसालसालो " पांय મહાવ્રત જ તેની વિશાળ શાખાએ છે. भावणात येतज्ज्ञाणसुभगजोगनाण पल्लववर कुरधरो” मनित्य माहि भावना तेनी छास छे, धर्मध्यान माहि ધ્યાન, મન, વચન અને કાયની શુભ પ્રવૃત્તિરૂપ વ્યાપાર, અને જ્ઞાન, એ સૌ तेना पत्ता, ने उत्तम पावापुरी छे " बहुगुणकुसुम व मिद्धो ” क्षान्त्याद्दि (( ,2 For Private And Personal Use Only Page #893 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे गुणाः क्षान्त्यादिरूपास्त एव कुसुमानि-पुष्पाणि तैः समृद्धः, तथा 'सीलसुगंधो' शीलसुगन्धः, शीलं सदाचारो ब्रह्मचर्य वा, तदेव शोभनो गन्धो यस्मिन् सः, तथा-'अगण्हवफलो' अनावफलः आश्रयो नवकर्मोदयः, न आश्रयोऽनाश्रवः, स एव फलं यस्य सः, आस्रवनिरोधरूपफलसम्पन्न इत्यर्थः, 'पुणो य' पुनश्च 'मोक्खवरचीयसारो' मोक्षवरबीजसार=मोक्षवरः बरमोक्षः-अव्यावाध सुखरूपः, तस्य बोजसारः-श्रेष्ठ बीजरूपः, तथा- ' मंदरगिरिसिहरचूलिया इव' मन्दरगिरिशिखरचलिकेच मन्दगिरेः-मेरुपर्वतस्य यत् शिवरं तस्य या चूलिका चूड़ा सेव, तथा ' इमस्स' अस्य-प्रसिद्धस्य 'मोक्खवरमुत्तिमग्गस्स' मोक्षवरमुक्तिमार्गस्य मोक्षः सकलकर्मक्षयलक्षणः,तदर्थों वरः श्रेष्ठो मुक्तिरूपो निर्लोभता रूपएव मार्गः=पन्यास्तस्य 'सिहरभूओं' शिखरभूतः एतादृशः 'संवश्वरपायवो' संवरवरपादपः-संवरः आस्रवनिरोधः, स एव वरपादपः श्रेष्टरक्षोऽस्ति । एतादृशमिदं 'चरिमं' चरमम् = पञ्चसु संवरद्वारेष्वन्तिमम् , ' संवरदारं । संवरद्वारम् , अस्ति ॥ ०१॥ बना रहता हैं । ( सीलसुगंधो) सदाचार अथवाब्रह्मचर्य इसकी सुहावनी गंध है, अणण्हवफलो) आस्त्रव-नवीन कर्मों के आगमन का जो रुकना होता है वही इसका फल है-इन फलों से ही यह युक्त बना हुआ है। (पुणो य ) फिर (मोक्खवरबीयसारो) अव्यावाध सुखवाले मोक्ष का यह एक श्रेष्ठ बीज है । ( मंदरगिरिसिह चूलिया इथ) सुमेरु पर्वत के शिखर की चूलिका के समान है (इमस्स जोक्खवरमुलिमग्गस्ल सिहहरभूओ ) इस प्रसिद्ध सकल कर्मक्षय मोक्ष का जो निर्लोभतारूप मार्ग है उसका शिखरभूत है । ( संवरपाययो ) इस तरह का यह संवररूप श्रेष्ठ वृक्ष है। इस प्रकार (चरिमं संबरदारं ) पांच संवर द्वारों में यह अन्तिम संवर द्वार कहा गया है। मने गुण ३५. पुष्पोथी ते सहा समृद्ध २ छ “ सीलसुगंधो” सहायार मथा प्राय १ तेनी सुदर छ," अणण्हवफलो” सासव-ना ना આગમનનું અટકવું-એ જ તેનાં ફળ છે. એ ફળેથી જ તે યુક્ત હોય છે. " पुणोय " qul. “ मोक्खबरबीयसारो " मय शुम भाक्षतुं ते मे श्रेट भी छे. “ मंदरगिरि सिहरचूलियाइव' सुभे० ५तन शिनी रोय समान छ, “इमस्स मोक्खवरमुत्तिमग्गस सिहर भूओ" में प्रसिद्ध सण કર્મક્ષય મોક્ષને જે નિર્લોભતા રૂપ માર્ગ છે તે તેના શિખર સમાન છે. "संवरपायवो" ! प्रानु ! १२३५ ट वृक्ष छ. २।। रे " चरिमं संबरदारं " पाय सपवारभनुमा मतिम ३२६॥२ ४उपायुं . For Private And Personal Use Only Page #894 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ०५ सू० १ परिग्रहविरमणनिरूपणम् ८४५ भावार्थ-चतुर्थ संदर द्वार के प्ररूपण के बाद अब सूत्रकार पंचम संवर द्वारका वर्णन कर रहे हैं। इसके वर्णन करने का प्रयोजन उन्हों ने इस प्रकार कहा है कि जब तक जीव की बाह्याभ्यन्तर रूप परिग्रह से निवृत्ति नहीं होती तब तक वह चतुर्थ संवरद्वारका पूर्ण रूप से आराधक नहीं बनता है। धर्मोपकरणों के सिवाय अन्य पदार्थों का ग्रहण करना अथवा धर्मोपकरणों में मूर्च्छाभाव रखना इसका नाम परिग्रह है । मूर्च्छा का नाम आसक्ति है। वस्तु छोटी हो, बड़ी हो, चेतन हो चाहे अन हो वा हो या आन्तरिक हो कैसी ही हो, चाहे न भी हो, तो भी उसमें आसक्ति से बंधे रहना उसकी लगन में विवेक खो बैठना परिग्रह है । इस परिग्रहसे युक्त हुआ प्राणी क्रोध, मान, और लोभ कषायों से बंधा रहता है। राग द्वेष उसकी आत्मा में हिलोरे लेते रहते हैं । संयमके महत्त्व की गणना उसके चित्त में नहीं होती है। प्रभु द्वारा प्रतिपादित अपरिग्रह के सिद्धान्त की प्रतिष्ठा वह विचारा नहीं कर सरता है, अतः सच्चे अर्थ में श्रमण वही है जो इस परिग्रह से दूर है - विरक्त है । अपरिग्रही जीवके लिये प्रभुका आदेश है कि वह प्रभु द्वारा प्रतिपादित शासन में न शंका करे न कांक्षा करे माया ભાવા -ચોથા સંવરદ્વારનું વર્ણન કર્યાં પછી હવે સૂત્રકાર પાંચમાં સવરદ્વારનું વર્ણન કરે છે. તેનું વન કરવાના હેતુ. તેમણે એવા ખતાન્યા છે કે જ્યાં સુધી બાહ્ય અને આભ્યન્તર પરિગ્રહથી જીવ નિવૃત્ત થતો નથી ત્યાં સુધી તે ચેાથા સંવરદ્વારના પૂર્ણ રીતે આરાધક બની શકતા નથી. ધર્મોપકરણા સિવાયના અન્ય પદાર્થને અપનાવવા અથવા ધર્મપકરણમાં ( મૂર્છાભાવ) મમત્વભાવ રાખવા તેનું નામ પરિગ્રહ છે. મૂર્છા એટલે આસક્તિ વસ્તુ નાની હોય કે મોટી હોય, જડ હોય કે ચેતન હોય, બાહ્ય હાય કે આન્તરિક હાય, ભલે ગમે તેવી હાય, ભલે ન પણુ હાય, તા પણ તેમાં અતિથી બધાઈ રહેવું-તેની લગનમાં વિવેકને ગુમાવી બેસવા તે પરમહ ગણાય છે. આ પરિગ્રહ વાળા માણસ ક્રોધ, માન, માયા, અને લાભ કાષાયા વડે બંધાયેલા રહે છે. રાગદ્વેષ તેના આત્મામાં ાન મચાવે છે. સયમનું મહત્ત્વ તેના ચિત્તમાં નહીં જેવું હાય છે. પ્રભુ દ્વારા પ્રતિપાદિત અપરિગ્રહના સિદ્ધાન્તની પ્રતિષ્ઠાના તે વિચાર કરી શકતા નથી, તેથી સાચો શ્રમણુ તા એ જ છે કે જે આ પરિગ્રહથી વિરકત છે. અપરિગ્રહી જીવને માટે પ્રભુને આદેશ છે કે તે પ્રભુ દ્વારા પ્રતિપાતિ શાસનમાં શંકા ન કરે કાંક્ષા ન For Private And Personal Use Only Page #895 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नव्याकरणसूत्रे उसस्थावरादि विषयकापरिग्रहं वर्णयति- 'उत्थ न ' इत्यादि । मूलम् --जत्थ न कप्पइ गामागरणगर-खेडकब्बडमडंबदोणमुहपट्टणासमगयं च किंचि अयं वा बहुं वा अणुं वा थूलं वा तसथावरकायदव्यजायं मणसा वि परिधत्तुं न धनहिरपणसुवपणखेत्तवत्थु, न दासीदास-भयक -- पेसहय गयगवेलगं वा, न जाणजुम्गसवणासणाई, न छत्तकं, न कोडिकं, नोवाणहं, न पेहणवीयणतालियंटगा, ण यावि अयतउयतंबसीसगकंसरयय-जायरूवमणिमुत्ताहारपुडगसंखदंतमणिसिंगसेलकायवरचेलचम्मपत्ताई महारिहाई परस्म अज्झोववायलोभजणणाई परिकड्डिउं गणवओ; न यावि पुप्फफलकंदमूलादिकाई सणसत्तरसाइं सव्वधण्णाई तीहिं वि जोगेहि परिघेत्तुं ओसहभेसजभोयणट्टयाए संजयाणं किं कारणं अपरिमियणाणदंसणधरेहिं सीलगुणविगयतवकेवल इनसे विहीन होकर वह उनके द्वारा प्रतिपादित तत्वों में अपनी पूर्ण अडिग श्रद्धा रखे । प्रभुने जो यहां पर एक आदिसे लेकर तेतीस तक के संख्यास्थान कहे हैं, उनमें तथा अविरति आदि जो और भी स्थान कहे हैं उनमें निःशंकित भाव से श्रद्धा करनी चाहिए, तभी जा कर वह सच्चा अमण कहला सकता है । इत्यादि विषय को प्रतिपादन करते हुए सूचकारने इन अपरिग्रहरूप संबर द्वारकी विवेचना वृक्ष की उपमा समता लेकर की है । सू० १ ॥ કરે. ફકત તેનાથી રહિત થઈને તે તેમના દ્વારા પ્રતિપાદિત તમાં પિતાની પૂર્ણ તથા અડગ શ્રદ્ધા રાખે. પ્રભુએ અહીં જે એક આદિથી લઈને તેત્રીસ સુધીના સંખ્યા થાન બતાવ્યા છે તેમનામાં, તથા અવિરતિ આદિ જે બીજાં પણ સ્થાન બતાવ્યા છે તેમાં નિઃશક્તિ ભાવથી શ્રદ્ધા રાખવી જોઈએ ત્યારે જ તેને સાચો શ્રમણ કહી શકાય છે. ઈત્યાદિ વિષયનું પ્રતિપાદન કરતાં સૂત્રકારે આ અપરિગ્રહ રૂપાસવરદ્વારને વૃક્ષની ઉપમા આપીને તેનું વિવેચન કર્યું છે. સૂ૦૧ For Private And Personal Use Only Page #896 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ०५ सू० २ असस्थावरायपरिग्रहनिरूपणम् संजमनायगेहि तित्थंकरहिं सत्वजगजीववच्छलेहि तिलोयमहिएहिं जिणवरिंदहि एम जोणी जगाणं दिट्ठा, न कप्पड़ जाणी समुच्छिदोत्ति । तेण हि वजेति समणसीहा सू०२॥ टीका--' जत्थ' यत्र-परिग्रहनिरमणलक्षणे चरमसंबरद्वारे ' गामागरणगरखेडकबडमडंबदोण मुहपट्टणासमगयं ' ग्रामाकरनगरखेटकटमडम्बद्रोणमुखपत्तनाश्रमगतं च, ग्रामादीनां व्याख्या पूर्ववद् बोध्या, तेषु गतं स्थितं च ' किंचि' किश्चित् किमपि वस्तु ' अप्पं वा ' अल्पं वा-स्वल्पमूल्यकपर्दिकादिकं वा 'बहुं चा' बहु न बहुमूल्यं रत्नादिकं वा 'अणुं चा ' अणु चा-प्रमाणतो लघु मुक्ता फलादिकं वा, 'शूलं वा' स्थूलं चा-प्रमाणतः स्थूलं काष्टादिकं चा, अत्र सर्वत्र च शब्दो बाऽर्थकः, ' तसथावरकायदबजायं' सस्थावरकायद्रव्य नातंतत्रउसकायं-शिष्यादिकं स्थावरकाय-प्रत्नादिकं. तद्रूपं द्रव्यजातं ' मणमा वि' मन. अब सूत्रकार त्रस स्थावरविषयक अपरिग्रह का वर्णन करते हैं'जत्थ न कप्पइ ' इत्यादि। टीकार्थ-(जत्थ) जिस परिग्रहविर मणरूप अन्तिम चरमसंवरद्वार में स्थित साधु को (गामागरनगरखेडकबडमडंबदोण त्रुहपणासनगयं च) ग्राम, आकर, नगर, खेट, कर्बट, मडंब, द्रोणमुख, पत्तन और आश्रम, इनमें रबती हुई. भूली हुई, पड़ी हुई ( किंचि वि ) कुछ भी चीज ( अप्पं वा) चाहे वह कोंडी आदि जैसी अल्पमूल्यवाली हो ( बहुं या ) चाहे रत्नादिक जैसी बहुमूल्यबाली हो ( अणुं वा ) चाहे छोटी हो ( थूलं वा ) चाहे बड़ी हो, ( तसथावर कायदव्यजायं) चाहे त्रस, स्थावरकायरूप द्रव्य जात हो-शिष्यादिक उसकाय हैं, रत्नादिक स्थावर काय हैं। उन्हें હવે સૂત્રકાર ત્રણ સ્થાવર સબંધી અપરિગ્રહનું વર્ણન કરે છે – ' जत्थ न कप्पइ" त्याह At-'' जत्थ" रे ५२ विभJ३५ मतिम सं१२वा२नुं माराधन ४२di साधुने “गामागरनगरखेडकब्बडमडंबदोणमुहपट्टणासमगयं च” श्राम, या४२. ११२, , ४२, म, द्रो भुम, पत्तन भने पाश्रम, तेमा राणेदी, सूतथी ५ २७सी, ५ २७सी “किंचि वि" 5 थी। " अप्पं वा” म ते 15 माही नवी मतना खाया, " बहुंवा" लवे ते रत्नाहि म भक्ष्यवान डेय, “ अगुवा " म नानी उय, "थूलवा" भेटी उय, “ तसथावरकायदव्वजायं" लवे त्रस, स्था१२०य રૂપ દ્રવ્ય જાત હોય-શિષ્યાદિક ત્રસકાય ગણાય છે, રત્નાદિક સ્થાવરકાય ગણાય For Private And Personal Use Only Page #897 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir % ८४८ प्रश्नव्याकरणसूत्रे साऽपि परिघेत्तुं' परिग्रहीतुं 'न कप्पइ ' न कल्पते इममेवा) विशदयति, ‘हिरपणासुवर्णखेत्तवल्धुं ' हिरण्यसुवर्णक्षेत्रवस्तु मनसाऽपि परिग्रहीतुं न कल्पते, तथा'दासीदासभयकपेसहयगयगवेलगं वा 'दासीदासभृतरुपैध्ययनजगवेलकं वा, दासीदासम्मसिद्धम् , भृतकाः वेतनं गृहीत्वा कार्यकराः, प्रेष्या:-कार्ये समुपस्थिते नामान्तरे प्रेषणीय भृत्याः, हयाः अश्वाः, गजाः प्रसिद्धाः, गवेलकाः= मेपाः एषां समाहार द्वन्द्वः, मनसाऽपि परिग्रहीतुं न कल्पते. तथा-' जाणजुग्गसयणालणाई 'पान युग्यशयनासनानि, यानं रथादिकम् , युग्यं वाहनमात्रम् , शयन शय्या, आसन-प्रसिद्धम् , एतानि मनसापि परिग्रहीतुं न कल्पते । तथा'न छत्तकं' न छत्रकम्-न छत्रम् , ' न कोडिका ' न कुण्डिका कमण्डलूः मन(भणमा वि परिधेत्तुं न कप्पइ ) साधु को मन से भी ग्रहण करना योग्य नहीं है। अब इसी विषय को सूत्रकार विषदरूप से समझाते हैंजो अपरिग्रही साधु है उसको ( न धनहिरण्णसुवष्णवेत्तवत्थु ) हिर. ण्य, सुवर्ण, क्षेत्र, वास्तु तथा ( न दासीदास अयक-पेस-हय गय-गवेलगंवा ) दासी, दास, भूतक, भैष्य, हय, गज, गवेलक तथा-(न जाण जुग्गसयणालणाई ) यान, युग्य, शयन, आसन, ये सब वस्तुएँ मन से भी चाहने योग्य नहीं होती है। ग्रामादिक शब्दों की व्याख्या पहिले संबर द्वारों में की जा चुकी है ! वेतन लेकर जो काम करते हैं वे मृतक कहलाते हैं। तथा कार्य आने पर जो उसके निमित्त बाहर गाँव भेजे जाते हे वे श्रेष्य कहलाते हैं । गलक नाम मेष का है । रथ आदि थान और वाहनमात्र युग्य हैं । इसी तरह (न छत्तगं) छूपनिवारण करने के लिये छत्र को, ( न कोडिकं ) पानी आदि रखने के लिये छ, तमने "मणसा वि परिधेत्तुं न कप्पइ" भनथी use ४२वानु साधुने भाट રોગ્ય નથી. હવે એ જ વિષયને સૂત્રકાર વિસ્તારથી સમજાવે છે. જે સાધુ અપरिही छे ते " न धनहिरण्णसुवण्णखेत्तवत्थु” रिय, सु, क्षेत्र, वस्तु तथा " न डालीदास भयक-पेस-ह्य-गय-गवेलगंया" हास, सी, भ्रत, श्रेय य, ४, गवे तथा “ न जाणजुग्गसयणासगाई" यान, युथ. शयन, આસન, એ બધી વસ્તુઓ મનથી પણ ચાહવા યોગ્ય હેતી નથી. ગ્રામદિક શબ્દોની વ્યાખ્યા આગળના વરદ્વારમાં આપવામાં આવી છે. પગાર લઈને आम ४२नारने "भृतक " नेis२ ४ छ. तथा आम ५४ता भने यन निमित्त महा२ गाम भोसाय छ तेमने प्रेष्य" (इत) ४ . घटाने गवे . २५ माहियान अथवा ६३४ वाडनने “युग्य" हे छ. से १ २ " न छत्तगं' तथी पयवा भाटे छत्रने तथा "न कोडिंक" For Private And Personal Use Only Page #898 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सर्शिनी टीका अ०५ सू०२ बसस्थावराद्यपरिग्रहनिरूपणम् सोऽपि परिग्रहीतुं कल्पते । तथा न ' उवाणहं ' उपानहम्-उपलक्षणत्वात्पादुकामोनादिकं चाऽपि परिग्रहीतुं न कल्पते, तथा-न 'पेहुणवीयणतालियंटगा ' पेहुण व्यजनतालवृन्तकानि, पेहुण-मयूरपिच्छम् , व्यजनं वंशादि निर्मितम् , ताल. वृन्तकं तालपत्रनिर्मितं व्यजनम् , एतानि 'पंखा' इति भाषामसिद्धानि, एषामि. तरेतरयोगद्वन्दुः तानि मनसापि परिग्रहीतुंन कल्पन्ते, तथा-'ण यावि' न चापि ' अपतउयतंबसी सकसरययजायरूवमणिमुत्ताहारपुडगसंखदंतमणिसिंगसेलकायवरचेलचम्मपत्ताई' अयस्वपुतानसीसकांस्यरजतजातरूपमणिमुक्ताहारपुटकशङ्खदंतमणिश्रृङ्गशैलकाचवरचेलचीपात्राणि, तत्र = अयो = लोहः, त्रपु-बङ्गम् , 'कथीर' 'गंगा' प्रति प्रसिद्धम् , ताम्र प्रसिद्धम् , सीसंगीसा' इति प्रसिद्धम् , सांस्यम्-त्रपुताम्रसंयोगनं द्रव्यम् , रजतम्'चान्दी' प्रसिद्धम् , जातरूपम् मुवर्णम् , मणयाइन्द्रनीलाघाः, मुक्ताः सुक्ताफलानि, हारपुटकं लोहविशेषः, शङ्ख-प्रसिद्धः, दन्तमणिम् गजमस्तकसमुत्पन्नोमणिः: श्रृङ्ग हरिणप्रभृतीनां कमण्डल, भी वह नहीं रखता है । ( नोवाणहं ) जूते, खडाऊँ आदि भी वह रखने को इच्छातक नहीं करता है । (न पेहुण बीय तालियंटगा) पेहणमयूरपिच्छ,बंश शलाकादिनिर्मित बीजना, तालपत्र निर्मित व्यजन -पंखा, इन्हें भी वह रखने की मन से भी चाहन नहीं करता है । ( ण यावि अय-तथ्य-संबसीस-कंस-रयय-जायरूव-मणि-मुत्ता-हार-पुडग-संग्व-दंत-मणि--सिंग-सेल-कायकर-चेल-चम्म-पत्ताइं गुणवओ पलिकडि ) लोहे का पात्र, त्रपु-रांगा का पात्र, तांबे का पात्र, सीस। का पात्र, कांसे का पात्र, चांदी का पात्र, स्वर्ण का पात्र, इन्द्रनील आदि मणि का पात्र, मुक्ताफव-मोती का पात्र, हारपुटक-लोहविशेष का पात्र, शंख का पात्र, गजमोती का पात्र, हरिण आदि पशुओं के श्रृंग arelu माहि रामा माटे भगाने पर ते २४ी शतi नथी. “नो वाणहं " 0131, माहि रामवानी ते २७ ५९५ ४२ नथी. “न पेहुणवीयणतालि यंटगा" येडा-मयू२पि छ, १२ मा निर्मित dिi, ilaya निमित ५ मे, तेभने २५ ते मनथी पशु ते ४२० ३२०i नथी. "ण यावि अयतउय-तंब-सीत-कंस-रय य-जायरूव-मणि-मुत्ता-हार-पुडग-संख-दत-मणि-सिंगसेल-काववर-चेलचन्म-पत्ताई गुणवओ परिकड्ढि " सोढार्नु पात्र, धु-गान પાત્ર, તાંબાનું પાત્ર, સીસાનું પાત્ર, કાસાનું પાત્ર. ચાંદીનું પાત્ર, સોનાનું પાત્ર, ઈન્દ્રનીલ આદિ મણિનુ પાત્ર, મોતીનું પાત્ર, હારપુરક-લેહવિશેષનું પાત્ર, ગજતીનું પાત્ર, શંખનું પાત્ર, હરણ આદિ પશુઓનાં શિગડાનું પાત્ર, प्र१०७ For Private And Personal Use Only Page #899 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८५० মস্ক খাই श्रृङ्गम् , शैल: शिलेव शैला पाषाणः, काचा पसिद्धः, वरचै श्रेष्ठवस्त्रम् , चर्म= व्याघ्रादिचर्म एभिनिर्मितानि पात्राणि कीदृशानीमानि ? ' महारिहाई ' महार्हाणि बहुमूल्यानि तथा-' परस्स' परस्य-वभिनन्नजस्य ' अझोववायलोभजणणाई' अध्युपपातलोभजननानि, तत्र-अध्युपपातः ग्रहणैकाग्रचित्तता, लोभः = मूर्छा तयोर्जननानि-उत्पादकानि यानि तानि एतानि ‘गुणबओ' गुणवतः मूलगुणादि सम्पन्नस्य मनसापि परिकड्डिा' परिकर्षयितुम् आदात्तुं न कल्पन्ते, तथा'न यावि' न चापि नैव ' संजयाणे ' संयतानां, 'ओसहभेसज्जभोयणट्ठयाए' औषधभैषज्यभोजनार्थतया, तत्र औषधम्-एकद्रव्यनिष्पादितम् , भैषज्यम् अनेक द्रव्यनिष्पादितम् , भोजनं च प्रतीतमेव, एपामर्थतया प्रयोजनाय, 'पुष्फफलकंद का पात्र, शैल-पाषाण का पात्र, कांच का पात्र, सुन्दर वस्त्र का और व्याघ्र आदि के चर्म का पात्र, वह जो साधु के मूलगुणों से युक्त है मन से रखने की चाहना नहीं करता है। अर्थात् मैं इन लोहादिकों से निर्मित हुए पात्रों को रखलूं इस प्रकार का वह विचार भी मन में नहीं लाता है, क्यों कि धातु अथवा मणि आदिकों के बने हुए पात्र ( महारिहाई ) बहुमूल्य वाले होते हैं, तथा (परस्स अज्झोववायलोभजणणाई) दूसरों में अध्युपपान और लोभ इनके उत्पादक होते हैं। चित्त में ग्रहण करने की एकाग्रता का बना रहना इसका नाम अध्युपपात और उनमें मूच्छाभाव का होना इसका नाम लोभ है। इसी तरह (संजयाणं ) सकलसंयमीजनों कों (ओसहभेसज्जभोयणद्वाए ) औषध एक द्रव्य से बनाई गई दवा, भैषज्य-अनेक द्रव्यों के मेल से बनाई गई दवा, तथा भोजन-आहार इनके प्रयोजन के निमित्त (पुप्फफलकंदमूलाइयाई) શેલ પથ્થરનું પાત્ર, કાચનું પાત્ર સુંદર વસ્ત્રનું કે વ્યાઘચર્મ આદિનું પાત્ર, તે પ્રકારના પાત્રને સાધુને મૂળ ગુણેથી યુક્ત હોય તે સાધુ રાખવાની મનમાં ઈચ્છા પણ કરતો નથી. એટલે કે આ લેહાદિકથી નિર્મિત પાત્રને ગ્રહણ કર્યું તે પ્રકારને વિચાર પણ તેના મનમાં થતું નથી, કારણ કે ધાતુ અથવા મણિ माहिमांथी मनास पात्र " महारिहाइ” i भूयवान डाय छ, तथा " परम्स अझोववायलोभजणणाई" भीमा ध्युमपात भने सोमनापाદક હોય છે. તે પ્રાપ્ત કરવાની ચિત્તમાં ઉત્સુકતા રહ્યા કરવી તેનું નામ અધ્યુંપપાત છે અને તેમનામાં મૂચ્છ ભાવ હવે તે લેભ કહેવાય છે. એ જ प्रमाणे " संजयाण” स७१ सयभी नामे " ओसहभेसज्जभोयणदाए" ઓષધ-એક દ્રવ્યમાંથી બનાવેલી દવા, હૈષજ્ય અનેક દ્રવ્યોના મિશ્રણથી બનાवही , तथा लोगन मा २, २ ५यागने निमित्त “ पुप्फ फल कंदमूला For Private And Personal Use Only Page #900 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org " सुदर्शिनी टीका अ०५ सू०२ सस्थावराद्यपरिग्रह निरूपणम् ८५१ ' , मूलादियाई' पुष्पफलकन्दमूलादिकानि प्रतीतानि तथा सणसत्तरसाई' रागसप्तदशानि=शणः स्वक प्रधाननालोधान्यविशेषः स सप्तदशो येषां तानि तथोक्तानि सप्तदशसंख्यकानि, 'सन्न घण्णाई' सर्वधान्यानि ' तीहि वि ' जोगेहिं ' त्रिभि रपि योगैः = वाडूमनः कायलक्षणैस्त्रिभिरपि योगैः परिवेत्तं परिग्रहीतुं न कल्पन्ते । ' किं कारणं किमर्थं परिग्रहीतुं न कल्पन्ते ? इत्याह- ' अपरिमिय णाणदंसणधरेहिं ' अपरिमितज्ञानदर्शन धेरैः = अपरिमितानि यानि ज्ञानदर्शनानि तानि धरन्ति ये ते तैः, केवलज्ञानकेवलदर्शनधरैरित्यर्थः पुनः--' सीलगुणविणयतवसंजमनायकेहिं ' शीलगुणविनयतपः संयमनायकैः, तत्र - शीलम् = आत्मसमाधिः, गुणाः = ज्ञानादयः, विनयः अभ्युत्थानादिकः तपः संयमौ प्रतीतौ तान्नयन्ति = वर्द्धयन्ति ये ते तैः पुनः - तित्थंकरेहि ' तीर्थङ्करैः शासनमवर्तकैः पुनः 'सत्र जगजीववच्छलेहिं ' सर्वजगज्जीववत्सलैः सर्वजगतां ये जीवास्तेषु तदुपरि वत्सलैः =परमकारुणिकैः, पुनः कीदृशैः ? ' तिलोय महिएहि ' त्रिलोकमहितैः = लोकत्रयपुष्प, फल, कन्द, भूल आदिकों को तथा ( मणसत्तरसाई) शण-त्वक प्रधान नालो धान्य विशेष यह है सत्रहवां जिन्हों का ऐसे (सब्वघण्णाई समस्त धान्यों को ( न यावि तीहिंबिजोगेहि परिवेत्तुं ) मन, वचन और काय, इन तीनों योगों से ग्रहण करना कल्पित नहीं है । ( किं कारणं ) क्या कारण है कि वे नहीं कल्पता है ? इस पर कहते हैं (अपरिमियणाणदंसणधरेहिं ) अपरिमित अंपार - अनंत केवलज्ञान, केवलदर्शन, को धारण करने वाले, (सीलगुणविणयतव संजमनायगेहिं ) शीलआत्मसमाधि, ज्ञानादिगुण अभ्युत्थानादिरूप विनय, तप और संयम Easter वाले, (तित्थयरेहिं ) तीर्थकर - शासन प्रवर्तक, (सव्वजगजीववच्छ लेहिं ) समस्त जगत के जीवों के ऊपर परम करुणाशील, (तिइयाइ पुष्य, इज, उहें, भूग, माहिने तथा सण सत्तरसाई शशु-रेशाવાળી વાળાથી યુક્ત ધાન્ય વિશેષ જેમાં સત્તરમું છે એવાં सव्वधष्णाई' સમસ્ત ધાન્યાને नयावि तीहिं विजोगेहिं अय, ये होना योगथी खानु दातुं नथी. "किकारणं " ते नहीं उदयवानुं अश्शु शु छे ? तो सूत्रार डे छे- " अपरिमाणदंसणधरेहिं " અપરિમિત–અપાર-અનત કેવળજ્ઞાન, કેવળ દનને ધારણ કરનાર सील-गु णविजय तव संजम नायगेहिं " शीत-आत्म समाधि, ज्ञानादि गुणु, मल्युत्थाનાકિરૂપ વિનય, તપ અને સયમ, એને વધાવાનાર, tacafe" cla ५२ शासन प्रवर्त, " सव्वजगजीववच्छले हि સમસ્ત જગતનાં જવા પ્રત્યે અત્ય’તકરૂણાશીલ, तिलोयम हिएहि " नशेसोमा भान्य सेवां " जिणवरि 16 66 " परिधेतू મન, વચન અને ८८ (( ܕܕ 6 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only 46 " (C "" Page #901 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे मान्यैः, एतादृशैः ' जिण वरिंदेहिं ' जिनवरेन्द्र = जिनाः - अवधिज्ञानमनः पर्यय - ज्ञानघराचस्थजिना:, तेषु वराः - श्रेष्ठाः केवलिनस्ते पामिन्द्रास्तीर्थंकर नाम कमेदिवर्तित्वाद्ये तैः 'एस' एपा= पुष्पफलकन्दमूलादिसर्वधान्यरूपा 'जोणी' योनिरुत्पत्तिस्थानम्, 'जणाणं ' जगताम् = प्राणिनां 'दिवा' दृष्टा केवलेज्ञानेन, तस्माद - कारणत्तेषाँ प्राणिनां ' न कप्पड़' न कल्पते ' जोणीसमुच्छित्ति' योनिसमुच्छेदः इति = योनिध्वंस कर्त्तुमिति, 'हि ' यतः - ' तेण न हेतुना एतानि पुष्पफलादि सर्वधान्यानि ' समणसोहा ' श्रमणसिंहाः श्रमणेषु सिंहाः मुनिश्रेष्ठा: 'वज्र्जति वर्जयन्ति न संघट्टयन्ति ।। सू० २ ॥ ' लो महिहिं ) तीनों लोकों में मान्य ऐसे ( जिणवरेहिं जिनवरेन्द्रोंनेअवधिज्ञानी और मनः पर्ययज्ञानीरूप छद्मस्थजिनों में श्रेष्ठ जो केवली भगवान है, उनके भी तीर्थकर नामकर्म के उदय से युक्त होने के कारण जो इन्द्र बने हुए है ऐसे जिनवरेन्द्रों ने (एस) से पुष्प, फल, कन्द, जुल, आदि सर्वधान्य (जणाणं जोणीदिट्ठा ) जीवों की उत्पत्तिस्थान होने से योनिरूप देखे हैं । इसलिये सकल संयमी जन को (न कप्पइजोधी समुच्छि दोत्ति ) जीवों की योनिरूप पुष्पफलादिको का ध्वंस करना कल्पित नहीं है । ( तेण हि ) इसलिये ये पुष्पफलादि समस्त धान्य ( समणसिंहा ) मुनिसिंहों के लिये (बज्जेति ) वर्जनीय हैं अतः इसी कारण वे इनकी संघटना नहीं करते हैं। भावार्थ - इस परिग्रहविरमणरूप अन्तिम संवरद्वार में सूत्रकार ने सकल संयमी अपरिग्रही श्रमण के लिये यह कहा है कि वह यदि 4, देहिं " ” જિનવરેન્દ્રોએ-અધજ્ઞોની અને મનઃ પવજ્ઞાનરૂપ છદ્મસ્થ જિનામાં શ્રેષ્ઠ જે કેવલી ભગવાન છે, તેમના પણ તીર્થંકર નામકર્મના ઉદ્દયથી યુક્ત હાવાને કારણે જેઆ ઇન્દ્ર બન્યા છે એવા જિનવરેન્દ્રોએ एस " ते पुष्प, इज, मुंह, भूज आदि सर्व धान्यने " जणाणं जोणी दिट्ठां " वो સ્થાન હોવાથી ચેનિરૂપે દેખ્યાં છે. તે કારણે સકલ સંયમી જને जोणीसमुच्छिदोत्ति " જીવાની યાની રૂપ પુષ્પ, ફળ આદિના ધ્વંસ यतो नथी. " तेण हि " ते अरागे पुण्य, ई साहि समस्त धान्य उत्पत्ति “ न कप्पइ કરવો 66 वज्जेति ” ત્યાગ કરવાને समण सिंहा " सिंह समान मुनियाने माटे " યોગ્ય બતાવ્યા છે, તે તે જ કારણે તેઓ તેમને ગ્રહણ કરતાં નથી, भावार्थ --- પરિગ્રહ વિરમણુરૂપ અંતિમ સંવતદ્વારમાં સૂત્રકારે સકલ સચમી અપરિગ્રહી સાધુને માટે તે બતાવ્યુ છે. કે જો તે પોતાના મૂળશુ For Private And Personal Use Only Page #902 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ०५ सू) २ अकल्पनीयनिरूपणम् ८५३ पुनरप्थकल्पनीयानि प्रदर्शयति- जंपि य ' इत्यादि । मूलम्-जंपि य ओदाणकुम्मासगंजतप्पण-मथु-भजियपलल-सूपसंकुलि बेढिम-वरिसोलग- चुण्णकोसग-पिंड सिहरिणीवदृग-मोयक-खीर-दहि-सपि नवणीय-तिल-गुड-खंडमच्छंडिय--मधु--खजक--वंजण--विहिमाइयं पणोयं उबस्सए परघरे रपणे वा न कप्पइ तपि संनिहीकाउं सुवि. हियाणं, जे पिय उद्दिटविय रइयग पजवजायपकिण्णपा. अपने मूलगुणों की रक्षा करना चाहता है तो ग्राम आदि स्थानों में पड़ी हुई, भूली हुई, ः हुई, किसी भी वस्तु को चाहे वह थोड़ी हो, बहुत हो, कीमती हो या कीमती न भी हो, उठाने का विचार तक भी नहीं करे । इसी तरह वह धातु की किसी भी वस्तु को ग्रहण करने को भी इच्छा न करे। दासीदास आदि रूप किसी भी प्रकार का वह परिग्रह रखने का विचार तक भी न करें । ल वह औषध भैषज्य और आहार आदि के निमित्त फल पुष्पादिकों को अपने उपयोग में लावे ! समस्त प्रकार के सचित्तपदार्थों का उसको तीनकरण तीनयोगों से परित्याग कर देना चाहिये । क्यों कि ऐसे पदार्थ ज्ञानियों ने जीवों की उत्पत्ति के योनि भूत कहे हैं । मयूरपिच्छ आदि का भी उसे रखने का प्रमु का आदेश नहीं है । लोहे वस्त्र आदि के पात्र को भी उसको रखना साधुचर्या में कल्पित नहीं हैं। सू-२।। ની રક્ષા કરવા માગતો હોય તે ગ્રામ આદિ સ્થાનમાં પડેલી, ભૂલથી રહી ગયેલી, મૂકેલી, કોઈ પણ વસ્તુને-ભલે તે નાની હોય કે મોટી હોય, કીમતી હોય કે કીમતી પણ ન હોય, ઉપાડી લેવાનો વિચાર પણ કરવો જોઈએ નહીં. એ જ પ્રમાણે તેણે ધાતુની કોઈ પણ વસ્તુને ગ્રહણ કરવાની પણ ઈચ્છા કરવી જોઈએ નહીં. દાસદાસી આદિ કોઈ પણ પ્રકારને પરિગ્રહ રાખવાને તેણે વિચાર પણ કરવો જોઈએ નહીં. તેણે ઔષધ, ભૈષજ્ય અને આહાર આદિને નિમિત્ત ફળ, પુખ આદિને પિતાના ઉપયોગમાં લેવા જોઈએ નહીં. સમસ્ત પ્રકારના સચિત્ત પદાર્થોને તેણે ત્રણે રોગથી પરિત્યાગ કરવો જોઈએ. કારણ કે એવા પદાર્થોને જ્ઞાનીઓએ છરની ઉત્પત્તિના સ્થાનરૂપ-નીરૂપ બતાવ્યાં છે. મયૂરપિચ્છ આદિ રાખવાને પણ પ્રભુને આદેશ નથી. લે-વસ્ત્ર આદિનાં પાત્ર રાખવાં તે પણ સાધુને કપતું નથી . સુ ૨ For Private And Personal Use Only Page #903 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८५४ प्रश्नव्याकरणसूत्रे ओकरणपामिव्व मीसगकोयगडं पाहुडं वा दाण? - पुण्णहपगडं समणवणीमगट्टयाए वा कयं पच्छाकम्नं पुरेकम्म नितिगमुदगमक्खियं अइरित्तं मोहरं सयगाहं आहडं मट्टि. ओवलितं अच्छेजं चेव अणिसिट्र, जं तं तिहिसु जण्णेसु उस्सवेसु य अंतो वा बहिं वा होज समगट्ठयाए ठवियं ठविचं हिंसासावजसंपउत्ते न कप्पइ तं पि य परिघत्तुं ॥सू०३॥ टीका-'जंपि य ' इत्यादि। 'जंपिय' यदपि च ' ओदणकुम्मासगंजतप्पणमंथुभज्जियपललमूवसंकुलिवेढिमवरिसोलगचुण्णकोसगपिंडसिहरिणी वट्टगमोयगावीरदहिसप्पिनवणीयतिलगुडखंडमच्छंडियमधुखज्जकवंजणविहिसाइयं ' ओदनकुल्मापगअतर्पणमन्थु-भजितपललमूपशकुलिवेष्टिमवर्षोलकचूर्णकोशकपिण्डशिखरिणीवर्तकमोदकक्षीरदधिसर्पिनेवनीततिलगुडखण्डमत्स्यण्डिकामधुखाद्यकव्यञ्जनविध्यादिकम् , तत्र - ओदनाः-प्रसिद्धाः, कुल्माषाः = मापाईपत्स्विन्ना मुद्गादयो वा, गञ्जः = भोज्यविशेषः, तर्पणाः = सक्तयः, मन्थुः = बदरादिचूर्णम् , भजितं केवलाग्निपक्ययवगोधूमधानादिकम् , पललम् = तिलपिष्टम् , भूपः = मुद्गादिदालिः, फिर भो अकल्पनीय वस्तुओं को कहते हैं- जंपिय' इ. टीकार्थ-(पि य-ओदग-कुम्मास-गंज-तप्पण-मंथु-भज्जियपलल-सूव-संकुलि-बेढिम-वरिसोलग-चुणकोसग-पिंड-सिहरिणी - घट्टग-मोयग-वीर-दहि-सप्पि-नवणीय-तिल-गुड-खंड-मच्छंडियमधु--खज्जक--बंजण- विहिमाइयं-पणीयं ) जो भी ओदनभात, कुल्माष-माष-उड़ा अथवा कुछ २ पके हुए मुंग आदि अन्न गज्ज-भोज्यविशेष, तर्पण-सत्तू , मंथु-बदर (बेर ) आदि का चूर्ण, quft al७७ ५५ २५४६५नीय १२तु। सूत्र.४२ मताये थे-“पिय'' त्या टी -"जंपिय-ओदण-कुम्मासं--गंज-तापग-मंथु-भज्जिय-पलल-सूत्र-सं. कुलिवेढिम-वरिसोलग-पिंड-सिहरिणी-बट्टग-मोयग-खीर-दहि-समि-नवणीय-तिल-गुड-मच्छंडिय--मंस-खज्जक-वंजण-विहिमाइयं पणोय' " ओदन-भात, कुल्म'ष-मा५-456 अथवा यो थाई ५३ मा या मन, गञ्जसे प्रा२र्नु लोकन, तर्पण-सत्त, मंथु-मा२ माहितुं यूषु, भर्जित मनिमा For Private And Personal Use Only Page #904 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० ४ मृ०३ अकल्पनीयनिरूपणम् शष्कुली= पूड़ी ' इति प्रसिद्धाः, वेष्टिमा:- वे हमी' इति प्रसिद्धाः, वर्षोलकाः= खाद्यविशेषाः, चूर्ण कोशकानि-चूर्णभृताः कोषकाकृतिका भक्ष्यभेदाः 'गूंजा' 'कचौरी' इति भाषा प्रसिद्धा, पिण्डः = गडादिपिण्डः, शिवरिणी = श्रीखण्ड इति प्रसिद्धाः, वर्तक= बड़ा' इति भाषा प्रसिद्धम् , मोदकाः प्रसिद्धाः, क्षीरं= दुग्धम् , दधि-मसिद्धम् , सर्पिः-घृतम् , नवनीतम्= मक्वन' इति प्रसिद्धम् , तैलगुडं प्रसिद्धम् , खण्डम्= खांड' इति प्रसिद्धम् , मत्स्यण्डिका= मिश्री' इति प्रसिद्धा, मधु प्रसिद्धम् , एते पदार्था प्राधाकर्मादि दोपदृषिताः साधुभिर्वजनीयाः। तथा-खाद्यकाः 'खाजा' इति भाषा प्रसिद्धाः, व्यञ्जनानि-तक्रादोनि-रसयुक्तशाकपदार्था वा कही' आदि भाषा प्रसिद्धाः, तेपो ये विधयः-प्रकाराः, एतेऽपि सदोषा वर्जनीयाः । एषां द्वन्द्वः, एते आदी यस्य तत्तथोक्तम् , एवं विधं 'पणीयं' प्रणीत-स्निग्धमशनं च कारणं विना वर्जनीयम् । एतत्सर्वं निषिमपि-'उक्स्सए' भजित- अग्नि में मुंजेहुए जो गेहुं आदि धान्य-तिलपिष्ट, सूपमूंग आदि की दाल, शष्कुली-पुड़ी, वेष्टिम-वेढमी, वर्षोलक-एक प्र. कार का खाद्यविशेष, चूर्णकोशक-कचौड़ी, गूजा, पिण्ड-गुड़ आदि, शिवरणी-श्रीखंड, वर्तक वड़ा, मोदक-लड्डू, क्षीर-दूध, सर्पि-धृत,नवनीत-मक्खन, तिल, गुड़, खंड-खांड, मत्स्यण्डिका-मिश्री, मधु-शहद ये पदार्थ यदि आधाकर्म आदि दोषले दूषित हों तो साधुपुरुषोंद्वारा सदा वर्जनीयहैं। खाजा, तक्र आदि व्यंजन, अथवा रसयुक्त साक पदार्थ जैसे कहीआदि, तथा इन भक्ष्य पदार्थों के जो और भी भेद होते हैं वे सब भी यदि सदोष हों तो साधु को वर्जनीय हैं। तथा भोज्य ये ओदनादि रूप स्निग्ध पदार्थ निर्दोष भी हों तो भी साधु विना कारण के अपने उपयोग में इन्हें नहीं लेना चाहिये और इन सब निर्दोष भोज्यपदार्थों का शेस q, घमादि धान्य,पलल-माउस तस, सूप-भ माहिना हाण, शकुली - परी, वेष्टिम-भी, वर्षालक-मे प्रा२नुपाय, चूर्णकोशक-४-चौडी. 1, पिण्ड- २४६, शिखरिणीशिवर्तक-१६, मोदक- साडू क्षीर६५, डी. सोप-धी नवनीत-माए, तत, माण, खंड-is, मत्स्यण्डिकामिश्री, सा४२ मधु-१५, को पहा ने माम माथी दूषित आय तो સાધુઓએ તેમને ત્યાગ કરવા ગ્ય છે. તથા દારૂ અને માંસા સર્વથા ત્યાજ્ય છે. ખાજા, તક આદિ વ્યંજન, અથવા રસયુક્ત શાક, કઢી વગેરે પદાર્થ, તથા એ ભઠ્યપદાર્થોનાં બીજાં પણ જે ભેદ હોય છે, તે બધાને પણ જે તે સદેષ હોય તે સાધુએ ત્યાગ કરવો જોઈએ. તથા ભોજનને એગ્ય તે એદનાદિ સ્નિગ્ધ પદાર્થ નિર્દોષ હોય તે પણ સાધુએ કારણ વિના તેમને For Private And Personal Use Only Page #905 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - - प्रश्नध्याकरणसूत्रे उपाश्रये बसतो परघरे' परगृहे-गृहस्थगृहे 'रण्यो वा' अरण्ये = अटव्यां वा 'सुविहियाणं ' सुविहिताम् सुसाधूनां संविहिकाउं' संनिधीकर्तुम् = स्थापयितुम् । 'न कप्पड़' न कल्पते । तथा- 'जपि य' यदपि च 'उद्दिद्ववियरइयगपज्जवजातपकिष्णपाओकरणपामिच्चमीसगकीयगडं ' उद्दिष्टस्थापितरचितकपर्यवजातप्रकीर्ण प्रादुष्करणमामित्यमिश्रकनीतकृतं, तत्र-उद्दिष्टम्-दुर्भिक्षादौ पाखण्डिनः श्रमणान् अन्याँश्च भिक्षुनुद्दिश्य यत् कल्पितं तत् , स्थापितम्= श्रमणायद्यागच्छे. युस्तदा तेभ्यो दास्यामी ति बुद्धया रक्षितं यदशनादिकं तत् , रचितकम् मोदक चूर्णादिकं वह्नौ प्रताप्य पुनर्मोदकरूपेण निर्मितम् , पर्यवजातं = पर्ययोऽवस्थान्तरं जातो यत्र तत् , क्रूरादिकमुद्वरितं दध्यादिना विमिश्रितं करम्बादिकं (उवासए पर घरे रणे वा सुविहियाणं संनिहीकाउंन कप्पइ ) उपाश्रय में अथवा पर के घर में-गृहस्थ के घर में अथवा जंगल में साधुओं को आहार के निमित्त संग्रह करना नहीं कल्पता है । तथा (जंपि य उद्धि वि यरइधगपज बजायपकिण्णपाओकरणपामिनीलग कीयगड) जो भी आहार उद्दिष्ट हो-दुर्भिक्ष आदि के समय में दाखंडी साधुओं को एवं अन्य भिक्षुओं को उद्देश्य करके बनाया गया हो, स्थापित हो, । श्रमण यदि आवेंगे तो उन के लिये इस आहार को मैं दंगा' इस पहिसे जो पहिले से तैयार करके रख लिया गया हो. रचित हो-मोदकादिक फूटकर जो चू गेरूप में हो गये हों उनका बह .ई अग्नि से तपाकर बनाई गई पुनः मोइकरूप में परिवर्तित करदिया गया हो, जो आहार पर्यवजात हो-भात आदि में छाछ मिला कर बनाई गई राबड़ी की तरह साधु के उद्देश से अवस्थान्तर को प्राप्त कराया गया उपयो। ४२वो नही. मने मे लिपि मोन्य पार्थानां उवस्सए पर बरे रणे वा सुविहियाण'संनिहाकाउन कप्पइ ” उपाश्रय मथवा गृड. સ્થાનના ઘરમાં અથવા જંગલમાં આહારને નિમિત્તે સંપ્રહ કરવાનું સાધુને ४५त नथी. तथा “ जरिय उद्दि-वियरइयग-पज्जवजाय-पकिण्ण-पाओकरण पामिच्चमीसगकीयगड " 2 २२ दिष्ट डाय- माहिना समयमा પાંખડી સાધુઓ અને અન્ય ભિક્ષુઓને નિમિત્ત બનાવ્યું હોય, સાધુ આદિ આવશે તો તેમને આ આહાર હું આપીશ એ વિચારથી જે પહેલેથી તૈયાર રાખ્યો હોય, રચિત હોય, લાડુ આદિને ભૂક થઈ ગયા હોય અને તે ભૂકાને આગ પર તપાવીને ફરીથી તેને લાડુ આદિનાં રૂપે પરિવર્તન કરેલ હોય, જે આહાર પર્યવજાત હાય-ભાત આદિમાં છાશનું મિશ્રણ કરીને બનાવેલ રાબ. ડિની જેમ સાધુને નિમિત્ત અવસ્થાન્તર-ભિન્નરૂપમાં લાવવામાં આવ્યો હોય, For Private And Personal Use Only Page #906 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८५७ सुदर्शिनीटीका अ० ५ सू०३ अकल्पनीयनिरूपणम् पर्यायान्तरमापादितमित्यर्थः, एते औद्देशिकभेदाः, तथा-प्रकीर्णम् विक्षिप्तम्वि-छर्दितपरिक्षाटीत्यर्थः, अनेन छर्दिताभिधान-एषणादोषोऽभिहितः, तथाप्रादुष्करणम् पादुष्क्रियतेऽन्धकारस्थानात् , प्रदीपसहायेन साध्वर्थ बहिष्क्रियते यदशनादिकं तत् , प्रामित्यम् यत्साध्वर्थमुच्छिन्नं गृहीतं शाकादिकं तत् , मिश्रकम्-मिश्रजातम् साध्वयं गृहस्थार्थं च उपस्कृतम् , तथा-क्रीतकृतम्-क्रीतेनसाध्वर्थ क्रमणं कृत्वा गृहीतं यद् वस्तु तत् , एषां समाहारद्वन्द्वस्तत्तथोक्तम् , तथा 'पाहुडं वा प्राभृतं वा-उपायनरूपेण दत्तं वा, तथा-'दाणटपुण्णट्ठपगडं वा' दाना थपुण्यार्थप्रकृतं वा दानार्थ पुण्याथं च प्रकृतं निष्पादितं वाऽशनादिकम् , तथा'समणवणीमगट्ठयाए वा ' श्रमणवनीपकार्थतया वा, तत्र-श्रमणाः शाक्यादयः, वनीपकाः भिक्षोपजीविनस्तेपामर्थतया योजनाय वा ' कयं ' कृतम्-तदर्थनिहो, ये उद्दिष्ट आदि पर्यवजात पर्यंत औदेशिक आहार के भेद हैं। इसी तरह जो आहार देते समय प्रकीर्ण हो-फेंका गया हो, प्रादुष्कृत हो-अंधकारयुक्त स्थान से दीपादिक की सहायता द्वारा साधु को देने के लिये बाहर लाकर रखा हो, प्रामित्य हो-जो साधु के लिये शाकादिक पदार्थ खेत आदि से उखाड़ कर या काटकर लाकर बनाया गया हो, मिश्रक हो-साधु और गृहस्थ दोनो के निमित्त जो आहार बनाया गया हो, क्रोतकृत हो-साधु के निमित्त जो आहार मोल लेकर के लाया हुआ हो, तथा ( पाडुडं वा) प्राभूत हो-भेंटरूप से दिया गया हो, ( दाणट्टागट्ठपगडं ) जो दानार्थ और पुण्यार्थ निष्पादित हो-जो आहार दान के लिये और पुण्य करने के लिये बनाया गया हो तथा जो आहार (समणवणीमगट्टयाए वा कयं ) शाक्यादिक श्रमणजनों को अथवा આ રીતે ઉષ્ટિથી લઈને પર્યવ જાત સુધીના શિક આહારના ભેદ છે. એ જ રીતે આહાર આપતી વખતે પ્રકીર્ણ હોય, ફેંકવામાં આવ્યું હોય, પ્રાદુષ્યકૃત હાય-અંધારાવાળા સ્થાનમાંથી દવા આદિની મદદથી સાધુને આપવા માટે બહાર લાવીને મૂક્યું હોય, પ્રામિત્ય હાય-જે સાધુને માટે શાક આદિ પદાર્થ ખેતર આદિમાથી ઉખાડીને કાપીને લાવીને બનાવવામાં આવ્યો હોય. મિથક હોય સાધુ અને ગૃહસ્થ બનેના નિમિત્તે જે આહાર બનાવા હોય, કીકત डाय-साधुने निमित्त मा.२ परीयो डाय, तथा " पाहुडंवा" मालत डाय. लेट३५ अपाय हाय, “दाणद्वैपुणटुपगड" रे हाना मने पुन्यार्थे નિષ્પાદિત હેય-જે આહાર દાનને માટે અને પુન્ય કરવાને માટે બનાવાયે उय, तथा रे मा.२ "समणवणीमगट्ठयाए वा कयं" ॥४५ मा श्रमाने प्र १०८ For Private And Personal Use Only Page #907 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८५८ प्रश्नव्याकरणसूत्रे पादितमित्यर्थः. ' पच्छाकम्मं ' पश्चात्कर्म, पश्चाद्-दानान्तर कर्म-भाजनपक्षालनादि यत्राशनादौ तत् , तथा 'पुरेकम्मं ' पुराकर्म = पुरा = दानापूर्व कर्म= हस्तलाघवादि यत्र तथा-' नितिगं' नैत्यिकम् = नित्यपिण्डं, दातृपोषणप्रमा णं वाऽवस्थितम् , ' उदगमक्खियं ' उदकक्षितम्-उकादिना, आदिशब्दात्सचित्तपृथिवीकायादिभिरवगुण्ठितम् , उक्तश्च " मक्खियमुदगाइणाउजं जुन्नं " इति । ' अइरित्तं ' अतिरिक्तम् द्वात्रिंशत् , कवला आहारः पुरुषस्य कुक्षिपूरको भवति, स्त्रियश्चाष्टाविंशतिः कवलाः, नपुंसकस्य चतुर्विंशति कवला आहारः। ततो ऽधिक आहारोऽतिरिक्तमुच्यते । तथा-' मोहरं' मौवरम्=पूर्वसंस्तवमातापित्रादि पश्चात्संस्तवश्वशुरश्यालकादिना सह मौखर्येण बहुभाषित्वेन यल्लभ्यते, तदशना - दिकं मौखरमुच्यते । तथा ' सयंगाहं ' स्वयं ग्राहम्-दाय के नादत्तं यद्गृह्यते तत् याचक जनों को देने के प्रयोजन से बनाया गया हो, ऐसा आहार साधु को लेना नहीं कल्पता है । इसी प्रकार जो आहार (पच्छाकम्म) पश्चात् कर्म से युक्त हो, और (परेकम्मं ) पराकर्म से युक्त हो, तथा (नितिगमुदगमक्खियं ) नैत्यिक-नित्यपिंड हो, अथवा-दाता ने जिसे अपने खाने के जितना ही बनाया हो, उदक मुक्षित हो-सचित्त उदक से सचिन पृथिवीकाय आदि से अवगुंठित हो ( अइरित्तं ) अतिरिक्त होपुरुषों की अपेक्षा से बत्तीस ग्रास से, स्त्रियों की अपेक्षा अधाईस ग्रास से और नपुंसक की अपेक्षा चोईस ग्रास से जो अधिक हो, वह आहार भी मुनियों के लिये कल्पित नहीं है । इसी तरह (मोहरं ) जो आहार मौखर हो-पूर्वसंस्तव मातापिता आदि के साथ तथा पश्चात्संस्तव श्वशुर श्यालक आदि के साथ अधिक बातचीत करने से प्राप्त होता हो, (सयं અથવા યાચકજનેને દેવાને માટે બનાવા હોય, એવો આહાર લેવો સાધુને ४६५तो नथी. मे २५ प्रमाणे २ माडा२ “पच्छ।कम्म' " पश्चातभथी युत डाय अने "पुरेकम्म” पु२मथी युक्त यि तथा" नितिगमुदगमक्खियं" નૈત્યિક-નિત્ય પિંડ હોય, અથવા દાતાએ જે પિતાને ખા જેટલો જ બના બે હૈય, ઉદક મુક્ષિત હોય-સચિત્ત પાણીથી, સચિત્ત પૃથ્વીકાય આદિથી Aqागु ति य,“ अइरित” मतिरित साय--पुरुषानी अपेक्षा त्रास ગ્રાસથી, સ્ત્રીઓની અપેક્ષાએ અઠ્ઠાવીસ ગ્રાસથી, અને નપુંસકની અપેક્ષાએ ચાવીસ ગ્રાસથી તે વધારે હોય તે તે આહાર પણ મુનિઓને કલ્પત નથી. से प्रमाणे "मोहर" २ माडा२ भौम२ छाय--पूर्वसत्त१ भाता पिता આદિની સાથે તથા પશ્ચાત્ સંસ્તવ સસરા, સાળા આદિની સાથે અધિક વાત थीत ४२वाथी पास थतो छाय, “ सयंगाह" स्वयपाल डाय-हातान For Private And Personal Use Only Page #908 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टोका अ०५ सू० ३ अकल्पनीयनिरूपणम् , 1 स्वहस्तेनाशनादेर्ग्रहणमित्यर्थः, अयमपरिणताभिधानदोषउक्तः । दायकस्यदानेऽपरिणतत्वात् । तथा आहडं ' आहृतम् = स्वपरग्रामादेः साध्वर्थमानीतमशनादिकमाहृतमुच्यते । तदुक्तम्- 'सग्गामपरग्गामा आणियं आहर्ड होइ ' छाया - स्वग्रामपरग्रामादानीतमाहृतं भवति । इति । तथा - ' मट्टिओबलित्तं ' मृत्तिकोपलिप्तम् = मृत्तिका उपलक्षणत्वाज्जतुगोमयादिना चोपलिप्तं सद्यदुद्भिद्यदीयते तत् उद्भिन्नमित्यर्थः । तथा ' अच्छिज्जं ' आच्छेद्यं, यदशनादिकं स्वामी भृत्यादिभ्य आच्चिय साधुभ्यो ददाति तदशनादिकमाच्छेद्यम् । 'चैत्र' चैव चकारः पुनरर्थकः एत्रकारो निश्चयार्थः । ' अणिसिहं ' अनुसृष्टम् =अनेकस्वामिकं यदशनादिकम् एक एव ददाति तदनिसृष्टम् तथा 'जं तं ' यत्तदशनादिकम् 'तिहिसु' तिथिषु = शरत्पूर्णिमादि तिथिषु ' जण्णेसु यज्ञेषु - नागपूजादिषु ' उस्सवेसु य ' उत्सवेषु चन् इन्द्रोत्सवेषु च ' अंतो व ' अन्तर्वा उपाश्रयस्याभ्यन्तरे वा, ' वर्हि , " ८५९ गाहं ) स्वयंग्राह हो - दाता ने जिसे न दिया हो किन्तु अपने ही हाथ से जो उठाकर ले लिया गया हो, (आहडं) आहत हो - स्व और पर के ग्राम आदि से जो साधु के निमित्त लाया गया हो, ( मट्टिओलित्तं ) मृतिकोपलिप्त हो जो आहार किसी कुंभ आदि में रखकर मिट्टी से, गोबर से तथा लाख आदि से बंद किया हुआ हो और देते समय " उस मिट्टी आदि को हटाकर बाहिर किया गया हो, (अच्छेज्जं चेव ) अच्छे हो - भृत्यादिकों से छीनकर दाता जिसे साधु के लिये दे रहा हो - जिस आहार के अनेक स्वामी हो परन्तु एक ही व्यक्ति उसको साधु के लिये दे रहा हो, ऐसा आहार भी साधु को लेना कल्पता नहीं है। तथा (जं तं ) जो वह आहार ( तिहिसु ) शरत्पूर्णिमा आदि तिथियों के समय में ( जण्णेसु) नागपूजादिक यज्ञों के समय में और For Private And Personal Use Only આ હત 66 डीघो होय पण पोताने ४ हाथे ने उठायी सीधी होय, " आहड' હાય-સ્વ અને પારકે ગ્રામ આદિમાંથી જે સાધુને નિમિત્તે લાવવામાં આભ્યા होय, 'मट्टिओबलित्तं " मृत्तिपलिप्त होय - आहार पात्र हिमां મૂકીને માટીથી, ગે।મયથી તથા લાખ આદિથી બંધ કરેલ હોય અને આપતી वाते ते भाटी महिने उमेडी मडार उदेद होय, “अच्छेज्जं चेव " छेद्य હાય-નાકર આદિકા પાસેથી છીનવીને દાતા જે સાધુને માટે આપતા હોય જે આહારના માલિક અનેક હાય પણ એક જ વ્યક્તિ તે સાધુને માટે આપી રહી હાય, એવા આહાર પણ લેવાનું સાધુને કલ્પતુ નથી. તથા ले ते ब्याहार" तिहिसु ” शरद पूर्णिमा आहि तिथियोना सभये तथा " जण्णेसु' " जंतं " " Page #909 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८६० प्रश्नव्याकरणसूत्रे वा' बहिर्वा उपाश्रयाद् बहिर्वा 'समणट्टयाए ' श्रमणार्थतया = श्रमणनिमित्तमित्यर्थः, 'ठवियं ' स्थापितं 'होज्ज' भवेत् , " हिसा सावजसंपउत्तं हिंसासावद्यसंप्रयुक्तम्-हिंसया पट्कायोपमर्दनेन सावधेन=सदोषेण कर्मणा च संप्रयुक्तं 'तंपि य तदपि च अशनादिकं परिघेत्तुं' परिग्रहीतुं 'न कप्पई न कल्पते।।सू०३॥ कीदृशमशनादि कल्पते ? इत्याह-' अहकेरिसयं ' इत्यादि। मूलम्-अह केरिसयं पुणो तं कप्पइ ? जं तं एगारसपि. डवायसुद्धं किण्णणहणण-पयण-कयकारियाणुमोयण--नवकोडीहिं सुपरिसुद्धं दसहि य दोसेहिं विप्पमुकं उग्गम उप्पायणेसणाहिं सुद्धं ववगयचुयचवियचत्तदेहं च फासुयं च ववगयसंजोगमणिगालं विगयधूमं छटाणनिमित्तं छक्काय परिरक्खण, हणि हणि फासुएण भिक्खेण वट्टियध्वं । जंपि य समणस्स सुविहियस्स रोगायके बहुप्पगारम्मि समुपन्ने वायाहिग -- पित्तसिंभाइरित्तकुवियतहसंणिवाए जाए तह उदयप्पत्ते उज्जलवल विउलकक्खड पगाढदुक्खे असुभकडुय फरुसचंडफलविवागमहन्मए जीवियंतकरणे सव्वसरीर परितावणकरणे न कप्पइ । तारिसे वि तह अप्पणो परस्स ( उस्सवेसु ) इन्द्रोत्सवों के समय में तथा ( अंतो वा बहिं वा) उपाश्रय के भीतर अथवा उपायश्रय से बाहिर ( होज्जसमणट्टयाए ठवियं) मु. नियों के निमित्त स्थापित कर रखा हो ऐसा वह (हिंसासावजसंपउत्तं ) पटूकायोपमर्दनरूप हिंसा से एवं सदोष कर्म से संप्रयुक्त अशनादि (न कप्पइ तंपिय परिघेत्तु) वह भी आहार साधु को लेना नहीं कल्पता है सू३॥ liyorles यज्ञोना समय भने “ उस्सवेसु " -द्रोत्सवाने सभये तथा "अंतो या बहिंवा " यायनी म४२ अथवा पाश्रयानी. १७२ " होज्ज समणद्वयाए ठवियं " भुनियाने भाटे भी भूतो डायमेव ते " हिंसासाबज्जसंपउत्तं " ७४य ७५मन३५ डिसायी तथा सो५ मथी युत ना " न कप्पइ तं पिय परिघेत्तुं " ते माडा२ ५७] साधुने खे॥ ४६५तो नथी । सू. 3 ॥ For Private And Personal Use Only Page #910 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० ५ सू०४ कल्पनीयमशनादिनिरूपणम् ८६१ व ओसहभेसज्जभत्तपाणं च,तं पि सपिणाहकय । जं पि य समणस्स सुविहियस्त तु पडिग्गहधारिस्स भवइ, भायण भंडोवहि - उवमरण-परिग्गहो-पायबंधण - पायकेलरिया पायट्ठवणं च पडलाइं तिणि वरयत्ताणं गोच्छाओ तिन्नि य पच्छागा रओहरणचालपट्टक मुखणंतगमादीयं एवं पि य संजमस्स उववूहणट्ठयाए वायायवदंसमसगसीयपरिरक्खणट्ठयाए उवगरणं रागदासरहियं परिवहियव्वं संजएण णिच्चं पडिलेहणपप्फोडणपमजणाए अहो य राओ य अप्पमत्तेणं होइ सययं निक्खिवियव्वं च गिहियवं च भायणभंडोवहि उवकरणं ॥ सू० ४॥ टीका-संपति कीदृशमशनादिकं कल्पते ? इत्याह-'अह केरिसयं ' इत्यादि। 'अह' अथेति प्रकरणान्तरद्योतकः, अथ अकल्पनीयाहारकथनानन्तर 'केरिसयं' कीदृशं तं ' तत्-अशनादिकं — कप्पइ' कल्पते परिग्रहीतुम् ? इत्याह 'जंतं' यत्तत् ' एगारसपिंडवायसुद्धं' एकादशपिण्डपातशुद्धम् , एकादभिः पिण्डपातैः = आचाराङ्गद्वितीयश्रुतस्कन्धस्थितपिण्डैषणानामकप्रथमाध्ययनस्य विधिभतिपादकैरेकादशभिरुद्देशैः तत्रोक्तविधानै रित्यर्थः शुद्धं तत्रोक्तदोषवर्जितमि___ अब सूत्रकार साधु को कैसा अशनादि कल्पता है ? सो कहते हैं-'अह केरिसयं' इत्यादि । टीकार्थ - (अह) पूर्वोक्त आहार अकल्पनीय है तो (केरिसयं ) किस प्रकार का आहार साधु को ( कप्पइ ) कल्पता है इस पर कहते हैं (एगारसपिंडवायसुद्धं जं तं ) जो अशन ग्यारह पिण्डपातों से शुद्ध हो-अर्थात् आचाराङ्ग के द्वितीय श्रुतस्कंध के पिण्डैषणा नामक प्रथम अध्ययन में विधिप्रतिपादक जो ग्यारह उद्देश हैं उन से जो आहार वे साधुने वा मनशना छे ते सूत्रा२४९ छ-"अह के रिसयंत्या टी -" अह" पूर्वरित भाडा२ अपनीय छे तो " केरिसय " या ४२ने। माडा२ साधुने “कप्पइ" ४६ छ ? तो ते विषे सूत्र ४ छ है" एगोरसपिंडवायसुद्ध जं तं" माडा२ मणियार पियातीथी शुद्ध डाय એટલે કે આચારાંગના દ્વિતીય શ્રુતસ્કંધના પિડવણા નામના પહેલા અધ્યમનમાં વિધિ પ્રતિપાદક જે અગિયાર ઉદ્દેશ છે તેમના વડે જે આહાર શુદ્ધ For Private And Personal Use Only Page #911 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८६२ प्रश्नव्याकरणसूत्रे , त्यर्थः यत्तत्तथा, तथा = किगण हणणपयणकयका रियाणुमोयणानवकोडीहिं ' क्रयण हननपचनकृतकारितानुमोदननवकोटिभिः, तत्र - क्रयणं मूल्येन ग्रहणम्, हननं = प्राणवियोजनम्, पचनम् - अग्निना, एषां यानि कृतकारितानुमोदनानि स्वयं करणं परेण कारणं कुर्वतोऽनुमोदनम्, तान्येव नवकोटथः = नवविभागास्ताभिः ' सुपरिसुद्धं ' सुपरिशुद्धं निर्दोषम्, तथा-' दसहिं य दोसेहिं ' दशभिव दोषैः शङ्कितादिभिः, 'विषमुक्कं' विषमुक्त = रहितम्, तथा 'उम्गम - उप्पायणेरुणाहिं ' उद्मोत्पादनैषणाभिः तत्र - उद्गमः - आधा कर्मादिः - षोडशविधः, उत्पादना=याच्याशुद्ध हो, उन उद्देशों में जो आहार के दोष कहे गये हैं उनसे वर्जित हो, तथा ( किणण-हणणपयणकय-कारियाणुमोयण-नव कोडीहिं सुपरिसुद्ध) जो आहार क्रयण; हनन और पचन, की कृत, कारित और अनुमोदनरूप नवकोटियों से परिशुद्ध हो, अर्थात् जो आहार स्वयं मूल्य देकर न खरीद गया हो, दूसरों से मूल्य देकर न खरीदवाया गया हो और न उसकी अनुमोदना की गई हो, ३ इसी प्रकार जिस आहार के निमित्त हनन - प्राणियों के प्राणों का वियोजन स्वयं न किया हो, दूसरों से न कराया हो और न इसकी अनुमोदना की गइ हो ६, इसी तरह जो आहार अग्नि से स्वयं न पकाया गया हो, दूसरों से न पकवाया गया हो और न इसकी अनुमोदना की गई हो ९, इन नव कोटियों से निर्दोष हो, तथा (दसहि दोसेहिं विमुक्कं ) शंकित आदि दश दोषों से जो रहित हो, तथा - ( उग्गम-उपायणेसणाहिं सुद्धं ) आधाकर्म आदि सोलह प्रकार के उद्दम दोषों से धात्र्यादि सोलह प्रकार के (4 હાય, તે ઉદ્દેશમાં આહારનાં જે દોષો બતાવ્યા છે તેમનાથી રહિત હોય, તથા किणण- हणणपयण-कयका रियाणु मोयणनव कोडीहिं सुपरिसुद्ध ने આહાર યણુ, હનન અને પચનની કૃત, કારિત અને અનુમેદકરૂપ નવ પ્રકારે પરિશુદ્ધ હોય, એટલે કે જે આહાર જાતે કીમત આપીને ખરીદ્યો ન હોય, બીજાએ મારફત મૂલ્ય આપીને ખરીદ કરાવાયો ન હાય, અને તેની અનુમેદના પણ ન કરાઈ હાય, એ જ પ્રમાણે જે આહારને નિમિત્તે હનન-પ્રાણીઓના પ્રાણાની હત્યા પાતે ન કરી હાય, બીજાની પાસે કરાવી ન હાય, અને તેની અમેદના પણ ન કરાઇ હોય, એ જ પ્રમાણે જે આહાર અગ્નિ વડે પોતે રાંધ્યુંા ન હાય, ખીજા પાસે ર્ધાગ્યે ન હોય અને તેની અનુમેદના પણ ન કરાઇ હાય, એ નવ પ્રકારે જે આહાર નિર્દોષ હેાય, તથા दसहिं दोसेि विषमुक्कं " शक्ति माहि इस दोषोथी ने रहित होय, तथा (4 उमाम-उत्पाक्षणेसणाहिं सुद्ध' " व्याधार्म आदि सोण प्राश्ना उगम दोषार्थी, धान्याहि ८८ For Private And Personal Use Only "" Page #912 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सुदर्शिनी टीका अ०५ सू०४ कल्पनीयमशनादिनिरूपणम् ८६३ दिषोडशविधा, एषणा = दशविधा, एषामितरेतरयोगद्वन्द्व : ताभिः, ' सुद्धं ' शुद्धम्, तथा - 'ववगयचुयचवियचत्त देहं च ' व्यपगतच्युतच्यावित्यक्तदेहं च तत्र - व्यपगतम् = ओघतश्चेतना पर्यावादचेतनतत्वं प्राप्तम्, च्युतम् = जीवनादिक्रियाभ्यो विनिर्गतम्, च्यावितम् = चेतनापर्यायेभ्यो पृथक्कारितम्, तथा त्यक्तदेहम्= त्यक्तः = परित्यक्तो जीवेन देहो यस्य तत् जींवसम्बन्धरहितमित्यर्थः, एषां समाहार द्वन्द्वः, तद्, उक्तार्थे स्पष्टयति- ' फासूयं च ' प्रासुकं च प्रगता असवः प्राणा यस्मात्तत्तथोक्तम्, तथा ' ववगयसंजोगं' व्यपगत-संयोगम्-संयोजनादोषवर्जि तम्, 'अगिंगालं ' अनङ्गारम् अङ्गारदोषवर्जितम् तथा-' विगयधूमं विगत उत्पादन दोषों से, तथा दशविध एषणा दोषों से जो शुद्ध हो, तथा( बवगय चुयचवियचन्तदेहं च ) जो आहार व्यपगत हो, च्युत हो, च्यावित हो और व्यक्त देह हो, अर्थात् व्यपगत- सामान्यरूप में जो चेतना पर्याय से रहित होकर अचेतनत्व अवस्था को प्राप्त हुआ होसचित्त न हो किन्तु अचित्त हो, च्युन जीवनादि क्रियाओं से जो सर्वथा रहित हो, च्यावित-भृत्यादि द्वारा चेतना पर्यायों से पृथक कराया गया हो और व्यक्त देह-जीव के सम्बंध से विहीन हो। इसी बात को सूत्रकार स्पष्ट करते हैं - ( फालुयं ) जिस आहार को साधु अपने उपयोग में लेवे वह प्रामुक होना चाहिये । प्रासुक में " " रहित अर्थ का बोधक है, असु प्राण का वाचक है अर्थात जो आहार प्राणों से-जीवों से रहित होता है वह प्रासुक है । तथा ( ववगयसंजोगं ) संयोजनादोष से वह आहार रहित होना चाहिये। (अनिंगाल) अंगार प्र "C १ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir સાળ પ્રકારના ઉત્પાદન દોષોથી, તથા દશ પ્રકારના એષણા દ્વેષથી જે શુદ્ધ होय, तथा ववगयचुय - चवियचत्तदेह च " ने आहार व्ययगत होय, भ्युत હાય, ચ્યાવિત હાય, અને ત્યક્ત દેહ હાય, વ્યપગત એટલે સામાન્ય રીતે જે ચેતના પર્યાયથી રહિત થઇને અચેતનત્વ અવસ્થા પામ્યા હાય-ચિત્ત ન હાય, શ્રુત એટલે જીવનાદિ ક્રિયાએથી સર્વથા રહિત હાય તેવા, ચ્યાતિ એટલે નાકર આદિ દ્વારા ચૈતના પોંયાથી અલગ કરાવેલ હોય, ત્યક્ત દેહજીવના સંબંધથી રહિત હાય, એવા આહાર સાધુએ લેવા જોઇએ. એ જ वातने सूत्रार स्पष्ट उरे छे " फासूयं " ? आहार साधु पोताना उपयो गमां से ते आसु होवो लेभे प्रसुभां " प्र" रहित अर्थनो मोघउ छे, 66 ? भाहार प्रशोथी - कोथी रहित असु " आणुनी मोघ छे, भेटखे હાય છે તે પ્રાસુક આહાર કહેવાય घोषथी ते भाडार रहित होवो ले मे. છે. ' For Private And Personal Use Only 22 તથા aarय संजोय " संयोजना “ अणिगालं " संगार होषथी रहित Page #913 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे धूम-धूमदोपवर्जितम् , एतादृशम् अशनादिकं ग्रहीतुं कल्पते । साधुभिः-कथं वर्ति १.व्यम् ? इत्याह-'छट्ठाणनिमित्त' षट्स्थाननिमित्तम्-फ्ट्स्थानानि-आहारकारणस्य षटकारणानि, तेषां निमित्त-षट्कारणार्थमित्यर्थः । पट्कारणानि-वेदनं =क्षुवेदनं वैयावृत्य-शुश्रूषा, ईर्या=गमनम् , संयमरक्षा, प्राणधारण, धर्मचिन्तनं च उक्तञ्च " वेयण वेयावच्चे, इरियट्टाए य संनमहाए । तह पाणवत्तियाए, छटुं पुण धम्मचिंताए ॥" ॥ इति ॥ तथा-'छक्कायपरिरकखणटं पट्कायपरिरक्षणार्थम् , ' हणि हणि ' अहन्यहनि-प्रतिदिनम् ' फासुएण' प्रासुकेन 'भिक्खेण ' भैक्षेण सामुदानिकभिक्षया, 'वट्टियव्वं ' वर्तितव्यम् , प्राणधारणं कर्तव्यमित्यर्थः। तथा-' जंपि य' यदपि दोषों से रहित होना चाहिये और:(विगयधूम ) धूमदोष से भी रहित होना चाहिये । तभी जाकर वह साधुओं के लिये कल्पित हो सकता है। (छट्ठाणनिमित्तं ) छह कारणों से साधु आहार ग्रहण करते हैं-वे छह स्थानरूप कारण यह हैं-क्षुधावेदना १, वैयावृत्य २, ईर्या -गमन ३, संयमरक्षा ४, प्राणधारणा ५, और धर्मचिन्तन ६ । कहा भी है " वेयण १, वेयावच्चे २, इरियट्टाए ३ य संजमट्टाए ४ । तह पाणंवत्तियाए ५, छटुं पुणधम्मचिंताए ६ ॥१॥" तथा ( छक्कायपरिरक्ख ग९) आहारग्रहण करने से छात्र जीवों की रक्षा होती है । इसलिये साधु को (हणिहणि ) प्रतिदिन ( कानुएण भिक्खेण ) प्रामुक भिक्षा से (बहियवं) प्राणधारण करना चाहिये-अर्थात् डापो न भने “ विगयधूमं” धूम होपथी २डित डायो नये. त्यारे ते साधुभाने ४८ तेव। मने छ. “ छदाणनिमित्त” ७ २णाथी साधु આહાર ગ્રહણ કરે છે તે છ સ્થાનરૂપ કારણ આ પ્રમાણે છે-(૧) ક્ષુધા વેદના (२) यावृत्य, (3) ४ा-मन, (४) सयम २क्षा (५) प्राधा२शु मने (६) ધર્મ ચિન્તન કર્યું પણ છે – " वेयण १ वेयावच्चे २ इरियट्ठाए ३ य संजमट्ठाए ४ । तह पाणवत्तियाए ५, छटुं पुणधम्मचिंताए ६ ॥१॥" तथा " छक्कायपरिरक्खणट्राए " याहार डा ४२वाथी ७४ायन वोनी ५४ २१. थाय छे. तेथी साधुने " हणि हणि " प्रतिहिन " फासुएण भिक्खेण " प्रासु निक्षाथी " वट्टियव्वं " प्राधा२९ ४२वो ने मेटले ते पूरित છ સ્થાનરૂપ કારણોને ધ્યાનમાં લઈને છકાયના જીની રક્ષા કરતા થકા For Private And Personal Use Only Page #914 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुवर्शिनी टीका अ०५ सू०४ कल्पनीयमशनादिनिरूपणम् च औषधादि तदपि संनिधीकृतं न कल्पते इत्येवमन्वयः कर्तव्यः, कस्य न कल्पते? इत्याह- समणम्स 'श्रमणस्य-साधोः, कीदृशस्य तु श्रमणस्य न कल्पते इत्याह - मुविहियस्स उ' सुविहितस्य तु = शोभनानुष्ठानसम्पन्नस्य, कस्मिन् सति ? इत्याह-बहुपगारम्मि' बहुप्रकारे अनेकप्रकारे रोगायके' रोगातङ्के रोगो ज्वरादिः, आतङ्कः = सद्योघातीहृदयशूलादिः, अनयोः कर्मधारयः, तस्मिन् समुप्पन्ने ' समुत्पन्ने, रोगातङ्कानां बहुप्रकारत्वमेव स्पष्टयति-वोयाहिंगपित्तसिंभाइरित्तकुवियतहसंणिवाए' वाताधिक्य पित्तश्लेष्मातिरिक्तकुपिततथासन्निपाते तत्र-वातधिक्यं धातस्याधिक्यं प्राचुर्यम् , तथा-पित्तश्लेष्मातिरिक्त-पित्तश्ले. प्मणोरतिरेकः आधिक्य, तत् कुपितम्-कोपावस्था प्राप्तम्-कुपितवातपित्तकफानामाधिक्यमित्यर्थः, तथेति तथाभूतः एतत्रितयरूपः संनिपातस्तस्मिन् , जाते= समुत्पन्ने सति ' तह ' तथा-' उदयपत्ते ' उदयप्राप्ते-उदयावस्थां प्राप्ते सति, इन पूर्वोक्त छह स्थानख्य कारणों के ध्यान से षट्कायके जीवों की रक्षा करते हुए साधु को भिक्षा वृत्ति करना चाहिये । तथा-(जंपि य ) जो औषध आदि हैं उनका भी संनिधि-संग्रह नहीं करना चाहिये सो कहते हैं-( समणस्स सुविहियस्स ) सुविहित श्रमण के (बहुप्पगारम्मि रोगायके समुप्पन्ने ) बहुत प्रकार के रोगातंग उत्पन्न होने पर, जैसे( वायाहियपित्तसिंभाइरित्तकुवियत हसंणिवाए ) कुपितवात की अधिः कता, कुषितपित्त और कुपिनकफ की अधिकता हो तथा इन दोषों से अन्य उसे संन्निपात भी (जार ) हो ग ग हो, तथा ऐसा दुःख कि जो ( उज्जलबलविउल कक्खड पगाढदुक्खे ) उज्ज्वल-सुख के लेशसे वर्जित हो, बल-बलवान् महाकष्टकारक हो, विपुल-आत्मा के प्रतिप्रदेश में नदी वेग की तरह प्रवर्द्धमान हो कर्कश-कठोर हो और प्रगाढप्रतिक्षण असमाधिजनक हो ( तह ) तथा ऐसे रोगातंक (उदयपत्ते ) साधु लिक्षावृत्ति ४२वी . तथा “ जंपिय" मौ५५ मा माय છે તેને પણ સંગ્રહ ન કરવું જોઈએ તે બાબતમાં સૂત્રકાર કહે છે કે“समणस्स सुबिहियस्स" सुविहित श्रमाने "बहुप्पगारम्मि रोगायंके समुप्पन्ने" भने प्रा२ना शो! उत्पन्न थतi, Rai "वायाहियपित्तसिंभाइरित्तकुबियतहसंणिवाए " युषित वायुनी मधिरता, जुपित पित्त भने सुपित ४५नी मपिता डाय तथा से होषाथी: तेने सन्निपात ५९ " जाए " १४ गये! डाय, तथा मे दुः५ रे " उज्जलबलवि उलकाखडपगाढदुक्खे" Gorat. વલ-લેશ પણ સુખ વિનાનું હોય, અતિશય કષ્ટકારક હોય, વિપુલ–આત્માનાં પ્રતિ પ્રદેશમાં નદીના વેગની જેમ વધતું જતું હોય, કર્કશ-કઠેર હોય અને प्रद-प्रतिक्ष असमाथि न डाय " तह " तथा सेवा ॥ " उद प्र १०९ For Private And Personal Use Only Page #915 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नध्याकरणस्ने कस्मिन् ? इत्याह-'उज्जलबलविउलकक्खडपगाढदुक्खे' उज्ज्वलबलविपुलकर्कशप्रगाढदुःखे, तत्र-उज्ज्वलं-सुखलेशवर्जितम् , घलंबलवत्-महाकष्टजनकम् विपुलम् आत्मप्रतिपदेशे नदीवेगवत्प्रवर्द्धमानम् , कर्कशं = कठोरम् , दुःसह्यत्वात् , प्रगाढं-प्रकृष्टं प्रतिक्षणमसमाधिजनकत्वात् यदुखं तस्मिन् , कथम्भूते दुःखे ? 'असुभकडयफरुसचंडफलविवागे' अशुभकटुकपरुषचण्डफलविपाके, अशुभः= अशुभरूपः, कटुकनिम्बरस इवानिष्टः, परुषः परुषस्पर्शद्रव्यमिवानिष्टः, तथाचण्डो दारुणो यः फलविपाकस्तादृशे, पुनः- महभये ' महाभये = महद्भय यस्मात्तस्मिन् , महाभयजनके इत्यर्थः, पुनः-'जीवियंतकरणे : जीवितान्तकरणे जीवितस्य-जीवनस्य अन्तकरणं नाशो यस्मात्तस्मिन् , प्राणनाशसमर्थे इत्यर्थः, पुनः कीदृशे ? ' सव्यसरीरपरितावणकरणे' सर्वशरीरपरितापनकरणे-अङ्गप्रत्यङ्गसन्तापजनके, ' तह' तथा 'तारिसेवि' तादृशेऽपि यादृशः सोढुं न शक्यते तादृशेऽपि रोगातङ्कादौ ' अप्पणो परस्स व ' आत्मनः परस्य वा निमित्तं यदपि 'ओसहभेसज्जभत्तपाणं :' औषधभैषज्यभक्तपानम् । तं पि य' तदपि च उदय प्राप्त हो रहे हो ( असुभकडुयफरुसचंडफलविवागे ) कि जिसका फलरूपविपाक अशुभरूप ही हो, निम्बरस के जैसा कटुक अनिष्ट हो, परुस-परुष स्पर्श द्रव्य की तरह जो अरुचिकारक हो, और चंड-दारुण हो तथा ( महभये ) महाभयंकर हो ( जीवियंतकरे ) जिसमें जीवन के नाश होने की भी संभावना हो रही हो, (सव्यसरीरपरितावणकरे ) अंग, प्रत्यंग में जिसके कारण असह्य संताप बढ रहा हो ( तह तारिसे वि ) ऐसे पूर्वोक्त प्रकार के रोगातकों के समय में भी (अणणोपरस्सव) चाहे ये रोगातंक अपने लिये हो रहे हों चाहे दुसरे साधु के लिये हो रहे हों उस समय अपने और पर के निमित्त जो ( ओसहभेसज्जभत्तपाणं) औषध, भैषज्य एवं भक्तपान हो ( तंपि य ) वह भी उस यपत्ते” उध्य भ्या राय ' असुभकडुयफरुसचंडफलविवागे" ना ५०રૂપ વિપાક અશુભ રૂપ જ હેય, લીંબુ જે કટુક અનિષ્ટ હોય, પરુષ-કઠેર * સ્પર્શદ્રવ્યના જે જે અરુચિ કારક હોય, અને ચંડ-દારુણ હોય તથા “ महभये" अति मय ४२ हाय, “जीवियंतकरे" भावनना मत मा. पानी ५५५ ॥४यत! डाय “ सब्वसरीर-परितावणकरे” २५, प्रत्यागमा देने ४१२९५ असह्य सा५ यत तो डाय “ तह तारिसे वि" स ते गात પિતાને માટે થતાં હોય કે ભલે બીજા સાધુને માટે થઈ રહ્યા હોય, તે સમયે पोता. मन्यने निमित्त रे " ओसहभेसज्जभत्तपाणं " औषध, लेपन्य भने मतपान डाय " तंपिय" ते ५४ ते परिपड वि२त साधुने “ संनिहिकय" For Private And Personal Use Only Page #916 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 6 सुदर्शिनी टीका अ५ सू०४ कल्पनीयमशनादिनिरूपणम् ८६७ " संणिहिक ' संनिधीकृतं ' न कप्पइ ' न कल्पते-परिग्रहविरतत्वात्तस्य । अथ यत्कल्पते तदाह - ' जंपि य ' यदपि च किञ्चित् ' समणस्स ' श्रमणस्य ' सुविहियस्स तु 'सुविहितस्य शोभनाचारवतस्तु, 'पडिग्गहधारिस्स' पतद्ग्रहधारिणः = पात्रधारकस्य ' भायणभं डोवहि उपकरणं पडिग्गहो ' भाजन भाण्डोपध्युपकरणपतद्ग्रहः, तत्र-भाजनम्-उन्दकम् भाण्डं = जलपात्रम्, उपधिःवस्त्रादिः, तद्रूपं यत् उपकरणम् = सामग्री, तथा 'पडिग्गहो ' पतदग्रहः = भोजनपात्रं ' भवइ भवति । तथा-' पायबंधणपाय केसरिया पायवणं च पात्रबन्धनपात्र के सरिकापात्रस्थापनं च तत्र - पात्र बन्धनं = ' झोली ' इति भाषा प्रसिद्धम्, पात्रकेसरिका = पात्र मार्जिका, पात्रस्थापनं यत्र वखखण्डे पात्रं स्थाप्यते तत् एषां समाहार द्वन्द्वः, ' तिष्णि य' त्रीणि च ' पडलाई ' पटलानि उपर्युपरिपात्ररक्षणसमये पात्रपरिरक्षणार्थं पात्राभ्यन्तररक्षणीयानि वनखण्डानि तथा ' रत्तयाणं' रजस्त्राणं= , ' Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परिग्रह विरत साधु को ( संनिहिकथं ) संग्रह के रूप में अपने पास रखना ( न कप्पड़ ) नहीं कल्पता है । उस परिग्रहविरत साधु के लिये अपने पास क्या २ वस्तुएँ रखना कल्पता है ? सो सूत्रकार उन्हें बताते हैं- (समणस्स सुविहियस्स उ पडिग्गहधारिस्स) पात्रधारी उस सुविहित शोभनाचारसंपन्नश्रमण - साधुके पास ( जंपि य ) जो भी ( भायभंडोवहि उबगरणपडिग्गहो भवइ ) भाजनउन्दक, भांड - जलपात्र, उपधि-वस्त्रादिरूप उपकरण, तथा पतद्ग्रह भोजन पात्र हैं ये, तथा( पायबंधणपाय केसरिया पायवणं च ) पात्रबंधन - झोली, पात्रकेसरिका - पात्र प्रमार्जिका, पात्रस्थापनवस्त्र, तथा ( तिणिय पडलाई ) तीनपटल - ऊपर ऊपर पात्रों को रखने के समय उन पात्रों की रक्षा के लिये पात्रों के भीतर रखे हुए तीन वस्त्र खंड, (रयत्ताणं ) जलपात्र ढकने સ'ગ્રહના રૂપમાં પેાતાની પાસે રાખવા न कप्पइ " या नथी. ते परिश्र વિરત સાધુને માટે પેાતાની પાસે કયી કી ચીજો રાખવી કલ્પે છે ? તે તે सूत्रार उडे छे – “ समणास सुविहियस्स उ पडिगहधारिस्स " पात्रधारी ते सुविद्धित सहायारयुक्त साधुनी पासे "जंपिय" के छ " भायणं भंडोवहि उaगरणपडिग्गहो भवइ लाग्न–उन्८४, लांड-भणपात्र उपधि-वस्त्राहिय उ५४२५, तथा यतश्रडु-लोभन पात्र होय ते तथा " पायबंधण पायकेसरिया पायट्टवणं च " पात्रण धन-ओणी, पात्रसरिज यात्र अमनिओ, पात्रस्थापन वस्त्र तथा ‘“ तिण्णयपडलाइ " त्रपटस-पात्राने थोड जीलनी उपर भूम्वाने वमते ते पात्रोनी रक्षाने माटे पात्रोनी बच्चे राजेश ऋणु वस्त्र, “स्यत्ताणं " 66 "" For Private And Personal Use Only Page #917 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८६८ प्रश्नव्याकरणसूत्रे जलादिपात्राच्छादनवस्त्रखण्डम् , ' गोच्छओ ' गोच्छकाममाजिका, तथा-'तिन्नि य पच्छगा ' त्रयश्च पच्छादकाः, 'चादर ' प्रसिद्धाः, तत्र-द्वौ सूत्रनिर्मिती, एक ऊर्णनिर्मितः, तथा-'रओहरणचोलपट्टकमुहणंतकमाईयं ' रजोहरणचोलपट्टकमुखानन्तकादिकम् , तत्र-रजोहरणं प्रसिद्धम् , चोलपट्टकं परिधानवस्त्रम् , मुखानन्तकं सदोरकमुखवत्रिका, एतान्यादौ यस्य तत्तथा, 'एयपि य एतदपि च 'उक्गरणं' उपकरणम् 'संजमस्स ' संयमस्य-सावद्ययोगविरतिलक्षणसप्तदशविधस्य ' उववृहहणट्टयाए ' उपदणार्थतायै, वृद्धयर्थमित्यर्थः, अत्र स्वार्थे तल्प्रत्ययः। तथा'वायायवदंसमसगसीयपरिरक्खणट्ठयाए' वातातपदंशमशकशीतपरिरक्षणार्थतायै, तत्र बातातपादि संरक्षणार्थ, रागदोसरहियं रागद्वेषरहितं यथा भवति तथा णिच्चं' नित्यं 'परिवहियध्वं ' परिवोढव्यम् परिधर्तव्यं, 'संजएणं' संयतेन। 'पडिलेहणपष्फोडणपमज्जणाए' प्रतिलेखनप्रस्फोटनममार्जनायाम् , तत्र-प्रतिलेखनं= का वस्त्र, ( गोच्छओ ) गोच्छक-प्रमार्जिका, तथा (तिण्णि य पच्छागा) तीन प्रच्छादक-चादर ( इनमें २ मूतके चादर और १ ऊनका कंवल रहता है ) ( रओहरणचोलपट्टग-मुहणंतगमाईयं ) रजोहरण, चोलपट्टक, मुखानन्तक,-सदोरकमुखबस्त्रिका आदि ये उपकरण रहते हैं सो (एयंपि य ) ये उपकरण भी ( संजमस्स उवहणट्टयाए ) उस साधु के सत्रह प्रकार के संयम की रक्षा के निमित्त एवं वृद्धिके निमित्त ही होते हैं तथा- ( वायायवदंसमसगसीयपरिरक्वणट्टयाए ) चात, आतप -धूप दंशमशक, और शीत से रक्षा करने के लिये है । इसलिये (संजएणं ) संयत को ( रागदोसरहियं ) रागद्वेष से विहीन होकर (णिच्च) सर्वदा ये धर्मोंपकरण (परिवहियव्वं ) धारग करना चाहिये अर्थात् अपने पास रखना चाहिये । और इनको (पडिलेहणपफोडणपमज्ज पात्र disqानु पर, “ गोच्छओ" २७४-प्रमाण तथा “तिण्णी य पच्छागा" त्राण प्रा४४-या४२ ( ते मे सूत। भने से जननी भर हाय ). रओहरण-चोलपट्टग-मुहणं-तगमाईयं ॥ २९२६१, योसप भुभानन्त-हा२। सडितनी भुउपत्ती, मा७ि५३२६ । २९ छ, quit " एयंपिय" ते ५४२९५ ५ " संजमस्स उवव्रहणयाए" ते साधुना सत्त२ ५४।२ना सय. भनी २क्षाने भाट मने वृद्धिने भाटे ४ सय छ तथा “वायायवदसमसग सीयपरिरक्षणद्रयाए" पात, ती, २ मा भने शीतथा २६९५ ४२वाने माटे छे. तेथी " संजएणं " संयतने " रागदोसरहिय” रागद्वेषथी २डित ने "णिच्चं " सहा ते धप “ परिवहियब्ब" या ४२वां स, सरपोतानी पासे रावण, भने तेभनी “पडिलेहण For Private And Personal Use Only Page #918 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शनी टीका अ० ५ सू० ४ कल्पनीयमशनादिनिरूपणम् ८६९ प्रत्युपेक्षणम् = चक्षुरा निरीक्षणमित्यर्थः, प्रस्फोटनम्=यतनापूर्वकमास्फालनम् आभ्यां सहिता या प्रमार्जना तस्यां कृतायां सत्याम् ' सययं ' सततं ' अहो य राओ य ' अह्नि च रात्रौ च, 'मायणमंडोवहि उवगरणं ' भाजनभाण्डोपध्युपकरणम्, 'अप्पमत्तेण ' अप्रमत्तेन ममादयर्जितेन संयतेन निक्खिवियन्वं' निक्षेप्तव्यं यतनया स्थापयितव्यं च ' गिव्हियन्वं च ' यतनया ग्रहीतव्यं च ' होइ' भवति । एपाचतुर्थसमित्याराधना विज्ञेया ॥ सू० ४ ॥ 6 0 णाए ) प्रतिलेखनाचक्षु द्वारा अच्छी तरह अवलोकन क्रिया और प्रस्फोटन - पतना पूर्वक झटकारना रूप किया तथा प्रमार्जना कर लेने पर ( अहो य राओ य ) दिन में तथा रात्रि में जब कभी रखने और लेने काम पडे तो इन ( भायणभंडोवहिउवगरणं) भाजन, भांड और वस्त्रादिरूप उपधि को (अप्पसरोण) अप्रमत्त होकर साधु को (सययं) नित्य (farasi) यतनासे धरना चाहिये और (गिण्डियन्वं च होइ) यतना से उठाना चाहिये । भावार्थ - इस सूत्र द्वारा सूत्रकार ने कैसा आहार मुनि को लेना चाहिये और क्या २ सामग्री अपने पास रखना चाहिये - यह सब प्रकट किया है। आचोराङ्ग के द्वितीय श्रुतस्कंध में जो पिण्डैवणा नामका प्रथम अध्ययन है उसमें ग्यारह उद्देशों में आहार के जो दोष प्रतिपादित किये गये हैं उन दोषों से जो आहार वर्जित हो, क्रयण आदि की कृत आदि रूप नौकोटियों से जो शुद्ध हो, उङ्गम, उत्पादना और एषणा से जो शुद्ध हो, व्यपगत आदि विशेषणों वाला हो; प्रासुक हो, संयोजनादोष 66 पफोडणपमज्जणाए" प्रतिसेना:- मां बडे सारी रीते यवसेोउन भने પ્રસ્ફોટન–યતનાપૂર્ણાંક ઝટકારવારૂપ ક્રિયા તથા પ્રમાર્જન કર્યાં પછી “ अहोय राओय " हिवसे रात्रे न्यारे पशु सेवा के भूवानी ४३२ पडे त्यारे ते भायणमंडोवहिगरणं ભાજન, ભાંડ અને વસ્ત્રાદિરૂપ ઉપધ્ધિને मण " अप्रमत्त थर्ध ने साधुये " सयय " सहा " निक्खियव्व' "" यतनाપૂર્વક મૂકવા જોઇએ અને “ गियिव्वं च होइ " यतनापूर्वी उठायवा लाये 66 "" अप्प For Private And Personal Use Only ભાવા —આ સૂત્ર દ્વારા સૂત્રકારે કેવા આહાર મુનિએ લેવે! જોઇએ અને કયી કયી સામગ્રી પોતાની પાસે રાખવી જોઈએ તે બધું બતાવ્યું છે. આચારાંગના બીજા શ્રુતસ્કંધમાં જે પિંડૈષણા નામનું પહેલું અધ્યયન છે તેના અગિયાર ઉદ્દેશોમાં આહારના જે દોષોનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે તે ઢોષોથી જે આહાર રહિત હોય, ક્રયણ આદિના કૃત દ્વિરૂપ નવ પ્રકારે જે શુદ્ધ હાય, ઉદ્દગમ, ઉત્પાતના અને એષણાથી જે શુદ્ધ હાય, વ્યપગત આદિ વિશેષણા વાળા હોય, પ્રાસુક હાય, સચેાજના દોષ વિનાના હોય, અગાર Page #919 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 3 %3D% D - - - ८७० प्रश्नव्याकरणसूत्रे से हीन हो, अंगार और धूम दोष से विगत हो ऐसा ही आहार मुनि को क्षुधा वेदना आदि छह कारणों के निमित्त को लेकर छहकाय के जीवों की रक्षा के अभिप्राय से लेना चाहिये । तथा इस परिग्रह विरत साधु के लिये कभी भी चाहे किसी भी प्रकार का कैसा ही रोगातंक उदय में आ रहा हो अपने निमित्त एवं पर के निमित्त औषधि आदि का संग्रह नहीं करना चाहिये । मुनि के लिये आगम में जिन २ धर्मो. पकरणों को रखने का विधान है-वे २ धर्मोपकरण उसे शीत आतप आदि जन्य बाधा को निवृत्ति के लिये और सावद्ययोगविरतिरूप सत्रह प्रकार के संयम की रक्षा करने के लिये विना किसी रागद्वेषपरिणति के अपने पास रखना चाहिये । उनकी प्रतिदिनयतना पूर्वक प्रमार्जना आदि करके दिन या रात्रि में उन्हें यतनापूर्वक धरनो और उठाना चाहिये । सूत्र में जो " ववगयचुय चवियचत्तदेहं " यह पद आया है उसका शब्दार्थ इस प्रकार है-सामान्यरूप में जो आहार चेतन पर्याय से रहित होकर अचेतन बन जाता है । वह व्यपगत कहलाता है। विशेष रूप में जीवन आदि क्रिया से जो विनिर्गत होता है वह च्युत कहलाता है। चेतना पर्याय से जो भृत्यादि द्वारा रहित कराया जाता है वह च्यावित कहा जाता है । एवं जो जीवों के संबंध से रहित होता है वह અને ધૂમ દેષથી રહિત હોય, એવો જ આહાર મુનિએ સુધાવેદના આદિ છે. કારણેને નિમિત્તે છકાયના જીવોની રક્ષાના અભિપ્રાયથી લેવો જોઇએ. તથા એ પરિગ્રહ વિરત સાધુએ ગમે તે પ્રકારને ગાતકને ઉદય થયો હોય તે પણ પિતાને માટે કે અન્યને માટે કદી પS ઔષધિ આદિને સંગ્રહ કરો જોઈએ નહીં. મુનિને માટે જે જે ઉપકરણ રાખવાનું આગમમાં વિધાન છે, તે તે ઉપકરણ તેણે શીત, તડકે આદિથી નડતી મુશ્કેલીઓથી બચવા માટે અને સાવદ્યાગ વિરતિરૂપ સત્તર પ્રકારના સંયમની રક્ષાને માટે કઈ રાગદ્વેષ પરિણતિ વિના પિતાની પાસે રાખવાં જોઈએ. તેની દરરોજ યતનાપૂર્વક પ્રમાર્જના આદિ કરીને રાત્રે કે દિવસે તેમને યતના પૂર્વક મૂકવા તથા લેવા જોઈએ. સૂત્રમાં 2 "ववगयचुयचवियचत्तदेह" 24॥ ५४ पाये छेतेन! म मा प्रभा थाय છે સામાન્ય રીતે જે આહાર ચેતન પર્યાયથી રહિત થઈને અચેતન બની જાય છે તેને પગત આહાર કહે છે. વિશેષ રૂપે જીવન આદિ ક્રિયાથી જે વિનિગત થાય છે તે યુત અહાર કહેવાય છે. મૃત્યાદિ દ્વારા જે ચેતના પર્યાવથી રહિય થાય છે તે વ્યાવિત કહેવાય છે. અને જે જીવોના સંબંધથી For Private And Personal Use Only Page #920 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुशिनी टीका म०५ सू०५ संयताचारपालकस्य स्थितिनिरूपणम् ७१ मूलम्-एवं से संजए विमुत्ते निस्संगो निप्परिग्गहरुई निम्ममे निस्सिणेहबंधणे सव्वपावविरए वासीचंदणसमाणकप्पे समतिणमणिमुत्तलेटुकंचणसमे समे य माणावमाणणाए समियरए समियरागदोसे समिए समिइसु सम्मदिट्ठी समे य जे सव्वपाणभूएसु से हु समणे सुयधारए उज्जुए संजए सुसाहु सरणं सव्वभूयाणं सव्वजगवच्छले सञ्चभासए संसारते ठिएय संसारसमुच्छिन्ने सययं सरणाण पारए पारए य सम्वेसिं संभयाणं पवयणमयाहिं अट्ठहिं अठकम्मगंठी विमोयगे अट्टमयमहणे ससमयकुसले य भवइ, सुहदुहनिव्विसेसे अभितर वाहिरम्मि सया तवोवहाणम्मि य सुटुज्जुए खते दंते य हियनिरए इरियासमिए भासासमिए एसणासमिए आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिए उच्चारपासवणखेल-जल्लसिंघाणपरिट्रावणासलिए मणगुत्ते वइगुत्ते कायगुत्ते गुत्तिदिए गुत्तवंभयारी चाई लज्जुधण्णो तवस्सी खंतीखमे जिइंदिए सोहिए अणियाणे अवहिलेस्से अममे अकिंचणे छिन्नगंथे निरुवलेवे सुविमलवरकसभायणं चेव मुक्कतोए संखे विव निरंजणे विगयरागदोसमोहे कुम्मोइव इंदियसुगुत्ते, अच्चकणगं व जायरूवे, पुक्खरपत्तं व निरुव त्यक्त कहा जाता है । इस तरह इस सूत्र द्वारा चौथी समिति की आराधना प्रकट की गई है ऐसा जानना चाहिये । सू-४ ॥ રહિત થાય છે તે ત્યકત આહાર કહેવાય છે, આ રીતે આ સૂત્ર દ્વારા ચેથી સમિતિની આરાધના પ્રગટ કરવામાં આવી છે તેમ સમજવું જોઈએ . સૂ. ૪. For Private And Personal Use Only Page #921 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ८७२ प्रश्नव्याकरणसूत्रे लेवे, चंदो इव सोमयाए सूरोव्व दिसतेये, अचले जहमंदरे गिरिवरे, अक्खोभो सागरेव्व थिमिय पुढवी विय सव्व - फासविस तवसावि य भासरासिच्छन्नेव जायतेए जलि - यहुयासणो विव तेयसा जलंते गोसीसचंदणं पिव सीयले सुगंधीय हरओ विव, समियभावे उग्धोसियसुनिम्मलं आयंसमंडलतलं व पागडभावेण सुद्धभावे, सोंडीरो कुंजरो व, वसभो व जायथामे, सीहोव जहा मिगाहिवे होइ दुप्प - धरिसे, सारयसलिलं व सुद्धहियए भारंडे चेव अप्पमत्ते खग्गविसाणं एगजाए खाणू व उड्ढकाए सुष्णागारेव्व अप्पडिकम्मे सुष्णागारावणस्संतो निवायसरणप्पइवज्झामणमिव निष्पकंपे जहा खुरोचेत्र एगधारे जहा अहीचेव एगदिट्ठी आगासं चैव निरालंबे विहगे विव सवओ विप्यमुक्के कयपरनिलए जहा चेव उरए, अप्पडिवद्धो अनिलोव्व, जीवोव्व अपsिहयगई, गामे गामे य एगरायं नगरे नगरे पंचरायं दूइज्जते य जितिंदिए जियपरिमुहे य निभए विऊ सचिताचित्तमीस एहिं दव्वेहिं विरागयंगए संचयओ विरए मुत्ते लहुगे निरवकखे जीवियमरणासविष्पमुक्के निस्संधं निव्वणं चरितं धीरे कारण फासयंते सययं अज्झप्पज्झाणजुत्ते निहुए एगे चरेज्ज धम्मं ॥ सू० ५ ॥ ' एवं ' इत्यादि - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टीका- ' एवं ' एवम् = उक्तप्रकारेण साधुधर्मनिरतः ' से संजए ' स संयतः संयमी ' विमुत्ते ' विमुक्तः संग्रहकरणाद् विमुक्तः ' निस्संगो ' निःसङ्गः = For Private And Personal Use Only Page #922 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुदर्शिनी टीकाअ०५ सू०५ संयताचारपालकस्य स्थितिनिरूपणम् ८७३ आसक्तिवजितः । निप्परिग्गहरुई ' निष्परिग्रहरुचिः-परिग्रहरुचिरहित इत्यर्थः, 'निम्ममे' निर्ममः ममत्वभाववर्जितः 'निस्सिनेहबंधणे' निःस्नेहबन्धनः= निर्गतं स्नेहबन्धनं यस्मात्सः-स्नेहबन्धनरहित इत्यर्थः, ' सव्वपावविरए' सर्वपापविरतः-कायिकवाचिकमानसिकसर्वविधपापवर्जित इत्यर्थः, तथा-' वासीचंदणसमाणकप्पे ' वासीचन्दनसमानकल्पः, वासी= वसुला ' इति भाषापसिद्धा, सेव-वासी-तक्षकत्वेन अपकारी, तस्मिन् तथा चन्दनमिवोपकारकत्वेन चन्दनम् उपकारी, तस्मिंश्च अपकारके उपकारके द्वयोरपि समानः सदृशः कल्पः आचारो यस्य स तथोक्तः । यथोक्तम् “योमामपकरोत्येष, तत्त्वेनोपकरोत्यसौ । शिरामोक्षाधुपायेन, कुर्वाण इव नीरुजम् ॥ १॥" ' एवं से' इत्यादि टीकार्थ-( एवं ) इस प्रकार साधु धर्म में लवलीन बना हुआ ( से संजए ) वह संयमीसाधु ( विमुत्ते ) संग्रह करने से विमुक्त बन जाता है (निस्संगो) आसक्ति से वर्जित हो जाता है (निप्परिग्गहरूई) परिग्रह की रुचि से रहित हो जाता है ( निम्ममे ) ममत्वभाव से विहीन हो जाता है (निस्सिणेहबंधणे ) स्नेहरूपबंधन से मुक्त बन जाता है ( सव्वपावविरए ) कायिक, वाचिक एवं मानसिक सर्वप्रकार के पापों से विरत हो जाता है ( वासीचंदणसमाणकप्पे ) तथा वासी ( वसुला) के जैसे अपकारक में और चंदन के जैसे उपकारक में एकसा आचार वाला बन जाता है । जैसे कहा है "यो मामपकरोत्येष, तत्त्वेनोपकरोत्यसौ। शिरामोक्षायुपायेन, कुर्वाण इव नीरुजम् ॥१॥" टी -मारे साधु धर्ममा बीन अनेस " से संजए" ते सयभी साधु " विमुत्ते" संबड ४२वाना पायथी विभुत थ य छ, “निस्संगो" भासतिथी २डित मनी लय छ, “निप्परिगहराई" परिबाडनी रुथिथी २हित थ६ लय छ, “निम्ममे " ममत्व मा विनानी मनी नय छ, “निस्सिणेह बंधणे" स्ने ३५ मधनथी भुत थ य छ, “सव्यपावविरए” यि, पाथि भने भानसिप से सर्व प्रधान पापोथी वि२४त थ य छ “वासी चंदणसमाणकप्पे" तथा in " वसुला" ना २ अ५४।२४ प्रत्ये तथा ચંદનના જેવા ઉપકારક પ્રત્યે એક સરખા બની જાય છે. જેમકે કહ્યું છે "यो मामपकरोत्येष, तत्त्वेनोपकरोत्यसौ । शिरामोक्षायुपायेन, कुर्वाण इव नीरुजम् ॥ १ ॥ प्र११० For Private And Personal Use Only Page #923 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ८७४ प्रश्नव्याकरणसूत्रे " अथवा - वासी = काष्टतक्षकशस्त्रविशेष: ' वसुला' इति प्रसिद्धः, तस्यै चन्दनसमानः = चन्दनतुल्य कल्पः आचारो यस्य स तथोक्तः यथाचन्दनं स्वच्छेदक शस्त्रमपि सुगन्धयुक्तं करोति तथा साधुः स्वस्यापकारिण्यपि कोपं न करोति प्रत्युत तस्योपकारं करोति, उक्तञ्च - "6 अपकारपरेऽपिपरे, कुर्वन्त्युपकारमेव हि महान्तः । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुरभी करोति वासीं मलयजमिह तक्षमाणमपि ॥ १ ॥ " इति । तथा--' समतिणमणिमुत्तले डुकंचणसमे ' समतृणमणिमुक्त लेष्टुकाञ्चनसमः, समास्तुल्या स्तृणमणिमुक्ता यस्य सः । तथा-लेष्टुकाञ्चनयो: = मृत्खण्डसुवर्णयोश्च समः, अनयोः कर्मधारय समासः । तथा-' समे य माणाव माणगाए ' समय माना जो मेरा अपकार करता है, वह अपकार नहीं करता किन्तु नश मरोडकर नीरोग करने वाले की तरह उपकार ही करता है अथवा जिस प्रकार अपने को काटने वाले वसूला को चंदन सुगंध युक्त कर देता है उसी तरह साधु भी अपने अपकारी के ऊपर क्रोध न करके उसका उपकार ही कहता है । जैसे कहा है 19 “ अपकारपरेऽपि परे कुर्वन्त्युपकारमेव हि महान्तः । सुरभी करोति वासों, मलयजमिह तक्षमाणमपि ॥ १ ॥ जो महान पुरुष होते हैं वे अपकार करने में तत्पर हुए प्राणियों के ऊपर भी उपकार ही करते हैं । जैसे चंदन अपनेको काटनेवाले वसूलेको भी सुगंधित कर देता है। (समतिणमणिमुत्तलेटुकं चणसमे) तृण, मणि, मुक्त मिट्टीका खंड और सुवर्ण उसकी दृष्टिमें समान ही होते हैं अर्थात् - उपेक्षाभाव की अपेक्षा से वह साधु इन सब पदार्थों को पक्षपात की જે મારા પર અપકાર કરે છે, તે અપકાર કરતા નથી પણુ નસ ચાળીને નીરોગી મનાવનારની જેમ ઉપકાર જ કરે છે. અથવા જે રીતે પેાતાને કાપનાર વાંસલાને ચંદન સુગંધીદાર બનાવે છે એ જ પ્રમાણે સાધુ પશુ પોતાના પર અપકાર કરનાર પર ક્રોધ કરતા નથી પણ તેના પર ઉપકારજ કરે છે. જેમ કેકહ્યું છે કે“ अपकारपरेऽपि परे कुर्वन्त्युपकारमेव हि महान्तः । सुरभी करोति वासी, मलयजमिह तक्षमाणमपि ॥१॥" જેમ ચંદન પેાતાને કાપનારને વાંસલાને પણ સુગ ંધિત કરે છે, તેમ જે પુરુષા મહાન હોય છે તેએ અપકાર કરવાને તત્પર થયેલ પ્રાણીઓ પર पशु उपहार ०४ १रे छे. “ समतिण-मणि-मुत्तलेठु-कंचणसमे " तृशु, भणि, માતી, માટીનું ઢેકું, અને સુવર્ણ તેની નજરે સમાન જ હોય છે. એટલે કે ઉપેક્ષા ભાવની અપેક્ષાએ તે સાધુ એ બધા પટ્ટાને પક્ષપાતની નજરે જોતા' For Private And Personal Use Only Page #924 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ................................... सुदर्शिनी टीका अ०५ सू०५ संयताचारपालकस्थितिनिरूपणम् पमाननयोः, तथा-'समियरए' शमितरजाः शमितम्-उपशान्तं रजः पापं यस्य सः, अथवा-शमितं रत-विषयेष्वनुरागो यस्य सः, यद्वा-शमितो रया-विषयौत्सुक्यं यस्य सः, तथा-समियरागदोसे ' शमितरागद्वेषः-शमितौ रागद्वेषौ यस्य सः, तथा-' समिए समिईसु' समितः समितिषु-पञ्चसमितिपरायण इत्यर्थः, 'सम्मट्ठिी' सम्यग्दृष्टिः । तथा- 'जे य ' यश्च 'सन्चपाणभूएसु' सर्वप्राणभूतेषु सर्वे च ते प्राणाः द्वीन्द्रियादित्रसाः, भूताः स्थावरास्तेषु ' समे' समः, ' से हु ' स खलु — समणे' श्रमणः 'सुयधारए ' श्रुतधारकः " उज्जुए ' ऋजुका अवक्रः, अथवा-उद्युक्तः-आलस्यवर्जितः, 'संजए ' संयतः ' मुसाहू' सुसाधुः मुष्ठुनिर्वाणसाधनपरः, तथा सव्वभूयाणं , सर्वभूतानां षड्जीवनिकायस्थ दृष्टि से नहीं निहारता है । ( माणावमाणए समे य ) मान और अप. मान में वह हर्ष विषाद से विहीन होता है । ( समियरए ) उसके पाप उपशान्त हो जाते हैं। अथवा-विषयों में अनुराग या उसका ओत्सुक्यभाव उसका सर्वथा शान्त हो जाता है ( समियरागदोसे ) रागद्वेष शमित हो झाते हैं । ( समिए समिईसु) पांच समितियों में वह समित परायण होता हुआ ( सम्मदिट्ठी ) सम्यक्दृष्टिवाला बन जाता है। और (जे य सव्वपाणभूएसु समे) समस्त द्वीन्द्रियादिक त्रस जीवों पर और स्थावररूप समस्त भूतों पर उसका भाव एकसा हो जाता है। (से हु समणे ) ऐसा वह श्रमण (सुयधारए) श्रुतका धारक बन कर ( उज्जुए ) वक्रता या आलस्य से रहित ( संजए ) सम्यक् यतनावान ही हो जाता है और (सुसाहू) हरएक प्रकारकी अपनी प्रवृत्तिको यतनाचारपूर्वक करने के कारण वह सच्चे अर्थमें साधु-निर्वाण-मोक्षके साधन नथी. " माणावमाणए समे य" भान भने अपमानमा ते विषा४ हित मनी नय छ “ समियरए " तेना पा५ ५शान्त थ छे. अथाવિષયે પ્રત્યે અનુરાગ કે તેમના પ્રત્યેની ઉત્સુકતા તદ્દન શાન્ત થઈ જાય છે. "समियरागदोसे" तेना रागद्वेषनु शमन नय छे. "समिए समिईसु" पांय समितिमामा ते समित-५२।ने “सम्महिद्वी" सभ्यष्टिवानी Mय छे. मने ‘जे य सव्वषाणभूएसु समे ” समस्त विन्द्रिया िवो ५२ याने स्था१२३५ समस्त भूत। ५२ तेना समला थाय छे. “से हु समणे" मेवात श्रम "सुयधारए" श्रुतने पा२४ मनीने "उज्जुए" ५४ साथी २लित " संजए" सभ्यश्यतनापाको मनी नय छ भने “ सुसाहू " पोतानी દરેક પ્રકારની પ્રવૃત્તિ યતનાચારપૂર્વક કરવાને કારણે તે સાચા અર્થમાં સાધુ For Private And Personal Use Only Page #925 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नध्याकरणसूत्रे 'सरणं ' शरणम् ' सव्वजगवच्छले ' सर्वजगद्वत्सलः-सर्वनीवयोनिषु करुणाभावयुक्तः, 'सच्चभासए य' सत्यभाषकश्च, सत्यभाषाविवेकतत्परः तथा- संसारते ठिये य ' संसारान्ते स्थिताश्व-भाविजन्मरहितत्वात् , इममेवाथै शब्दायेन्तरेणाह 'संसारसमुछिन्ने ' संसारसमुच्छिन्नः संसारः चतुर्गतिलक्षणः समुच्छिन्नो येन सः, अतएव ' सययं ' सततम् ' मरणाणं ' मरणानां 'पारए ' पारगः-मुक्तस्यो त्पत्त्यभावेन मरणाभावान्मरणपारगत्वं बोध्यम् । तथा-'पारगे य' पारगश्च 'सव्वेसिं संसयाणं' सर्वेषां संशयानाम्-सर्वसंशयोच्छेदक इत्यर्थः, तथा 'पवयणमायाहिं अट्ठहिं प्रवचनमातृभिरष्टाभिः पञ्चसमितित्रिगुप्ति रूपाभिः साधनभूताभिः करनेमें तत्पर-बन जाता है । तथा (सरणं सव्वभूयाण) समस्त भूतों का रक्षक वना हुआ वह साधु (सव्वजगवच्छले) सर्व प्रकारकी जीव योनियों के ऊपर अपार करुणाभाव से सहित हो जाता है। (सच्चभासए) उसकी भाषा में सत्यवादिता की छाप लग जाती है और वह (संसारते ठिए ) आगामी जन्मसे रहित होनेके कारण संसार के अंत में स्थित हो जण्ता है । इसी बातको सूत्रकार शब्दान्तरसे समझाते हैं(संसारसमुच्छिन्ने ) उस साधुका चतुर्गतिरूप संसार समुच्छिन्न हो जाता है । अत एव (सययं मरणाणपारए) वह सतत् मरण का पारगामी बन जाता है । क्यों क्ति मुक्त जीव की फिर संसार में उत्पत्ति नहीं होती है, इसलिये उसका मरण भी नहीं होता है, अतः इसी भाव को लेकर वह मरण का पारगामी बन जाता है। ऐसा कहा गया है। (सव्वेसि संसयाणं पारए ) वह समस्त प्रकारके संशयों का उच्छेदक निaligg सापाने त५२ मनी नय छे. तथ! “ सरणं सव्वभूयाणं " समस्त लवान२६४ मने ते साधु " सव्वजगवच्छले ” सानी १ योनिया ५२ मा२ ४२९ माथी युत मनी नय छे. “सच्च भासए" तेनी वामi सत्यपाहतानी १५ anil नय छ भने ते “संसारते ठिए " मावता मधी રહિત હોવાને કારણે સંસારના અન્તમાં સ્થિત થઈ જાય છે. એ જ વાતને સૂત્રકાર vी ते 6 ३२१२थी समनवे छ-" संसारसमुच्छिन्ने" ते साधुने। याति३५ ससार समुश्छिन्न थलय छे. तेथी “ सययं मरणाणपारए" તે કાયમને માટે મરણને પારગામી બની જાય છે, કારણ કે મૂકત જીવની સંસારમાં ફરીથી ઉત્પત્તિ થતી નથી, તેથી તેનું મરણ પણ થતું નથી. તેથી એ सावन आरणे "ते भरणनी पा२॥भी मनी नय छ" से छे. “सव्वेसि संसयाणं पारए" ते समस्त प्रारना संशयाना छे४-निवा२४ २५ नय छे. For Private And Personal Use Only Page #926 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुदर्शिनी टीका म०५ सू. ५ संयताचारपालकस्य स्थितिनिरूपणम् १७७ 'अट्टकम्मगंठीविमोयगे ' अष्टकर्मप्रन्थिविमोचकः-अष्टौ अष्टसंख्यका ये कर्मग्रन्थयस्तेषां विमोचकः, तथा-' अट्ठमयमहणे' अष्टमदमथनअष्टमदस्थाननाशकः 'ससमयकुसलेय' स्वसमयकुशलश्च स्वसिद्धान्तनिपुणश्च, चकारात् परसमयकुशलः 'भवइ' भवति । तथा-' मुहदुक्रवनिधिसे से' सुखदुःखनिर्विशेषः=मुखदुःखयोहर्षशोकादिरहित इत्यर्थः, ' अभितरवाहिरम्मि तवोवहाणम्मि' आभ्यन्तरवाह्ये तपउपधाने, तत्र-चित्तनिरोधप्राधान्येन कर्मक्षपणहेतुत्वात्प्रायश्चित्तादिषट्कम्-आ. भ्यन्तरम् । बाह्यशरीरस्य परिशोषणेन कर्मक्षपणहेतुत्वादनशनादिषट्कं बाह्यम् , अनयोर्द्वन्द्वः, तस्मिन् , तप उपधाने-तपएव मोक्षमार्गस्योपष्टम्भकत्वादुपधानं तस्मिन् , 'सया' सदा · सुट्ठुज्जए ' सुष्ठुद्यतः = सम्यक्तया तदाराधने तत्पर हो जाता है । तथा ( पावयणमायाहि अहिं ) पांचसमिति, तीन गुप्ति रूप अष्ट प्रवचन माताओं के बल पर वह (अट्टकम्मगंठीविमोयणे )आठ प्रकार के कर्मों की ग्रन्थियों को छोड़ानेवाला बन जाता है । (अट्ठमयमहणे) शुद्ध सम्यग्दर्शन का पालनकर्ता होनेके कारण वह आठ मदों का विनाशक होता है । ( ससमयकुसले य ) स्वसमयमें पूर्ण निष्णात बन जाता है तथा चकारसे परसमयका ज्ञाता भी बन जाता है । (सुहदुक्खनिविसेसे) सुख और दुःख उसे एकसे प्रतीत होने लगजाते हैं। वह उनमें हर्ष और विषाद नहीं करता है। (अम्भितरबाहिरम्मि तवोवहाणम्मि) चित्तनिरोधकी प्रधानतासे कर्मक्षपण के हेतुभूत होने के कारण प्रायः श्चित्त आदि छह प्रकार के आभ्यन्तर तप रूप उपधान में तथा बाह्य में शरीर के परिशोषण से कर्मक्षपण के हेतु होने से अनशन आदिबारह प्रकार के बाह्य तपरूप उपधान में सदा (सुटुज्जए ) अच्छी तरह “पवयणमायाहिं अर्हि " पांय समिति गुलिथी मा8 प्रवयन भातामाना यी त “ अट्टकम्मगंठीविमोयणे " 18 प्रा२ना भनी ने छोरावनार मनी नय छ “ अट्टमयमहणे" शुद्ध सभ्यगूशननो पासना डावाने १२ ते मा महनी विनाश हाय छे “ससमयकुसले य" स्पसमयमा ५ નિષ્ણાત બની જાય છે તથા વાસથી પર સમયને જાણકાર બની જાય છે. " सहदक्खनिविसेसे" सुभ भने ५ तेने समi anा भांड छे. ते तेमi ४॥ ॐ विश६ ४२ते. नथी. “ अभितरबाहिरम्भि तवोवहाणम्मि" चित्तनिरी ધની પ્રધાનતાથી કર્મક્ષયના હેતુભૂત હોવાને કારણે પ્રાયશ્ચિત્ત આદિ છ પ્રકારનાં આભ્યન્તર તરૂપ હોવાને ઉપધાનમાં તથા બાહ્યમાં શરીરના પરિશેષણથી કર્મક્ષયના હેતુભૂત હોવાને કારણે અનશન આદિ બાર પ્રકારના બાહ્ય તપ ३५ उपधानमा सहा “ सुठुज्जए" सारी रीत ते तत्५२ ५५ लय छ, मेटले For Private And Personal Use Only Page #927 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नब्याकरणसूत्रे इत्यर्थः, तथा 'खते ' क्षान्तः क्षमावान् ' दंते य' दान्तश्च इन्द्रियदमनकारी च, तथा-'हियनिरए ' हितनिरतः-आत्मकल्याणपरायण इत्यर्थः, तथा-' इरियासमिए' ईसिमितः, 'भासासमिए ' भाषासमितः 'एसणासमिए । एषणासमितः ' आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिए ' आदानभाण्डामत्रनिक्षेपणासमितः 'उच्चारपासवणखेल जल्लसिंघाणपरिद्वावणियासमिए' 'उच्चारपासवणखेल सिंघागसमिए' उच्चारप्रस्रवण लेष्मसियाणजल्लपरिष्ठापनिकासमितः, 'मणगुत्ते। मनोगुप्तः- वयगुत्ते' वचोगुप्तः, 'कायगुत्ते' कायगुप्तः ' गुत्तिदिए ' गुप्तेन्द्रियः, ' गुप्तवंभयारी ' गुप्तब्रह्मचारी, एषामाः पूर्व व्याख्याताः । तथा वह तत्पर हो जाता है अर्थात् बाह्य और आभ्यन्तर तपों की आराधना वह बहुत अच्छी तरह से किया करता है। (खते) सय जीवों पर वह क्षमाभाव रखता हुआ (दंते) और अपनी इन्द्रियों का दमन करता हुआ (हियनिरए ) आत्मकल्याण करने में परायण बन जाता है। तथा ( इरियासमिए ) ईयोसमिति से युक्त (भासोसमिए ) भाषासमिति से युक्त, (एसणासमिए ) एषणासमिति से युक्त (आयाणभंडमत्तनिवखेवगासमिए) आदान भांडपत्रनिक्षेरणा समिति से युक्त तथा (उच्चार पासवणखेलसिंघाणजल्लपरिट्ठावणियासमिए) उच्चारप्रस्रवणखेलसिंघाणजल्लपरिष्ठापनिका समिति से युक्त (मणगुत्ते वयगुत्ते कायगुत्ते ) मनोगुप्ति, वचनगुप्ति कायगुप्ति इन तीन गुप्तियों से गुप्त-रक्षित आत्मप्रवृत्ति वाला बना हुआ (गुतिदिए ) अपनी इन्द्रियों पर पूर्ण अंकुश रखने वाला बन जाता है (गुत्त बंभयारी ) ब्रह्मचर्यव्रत की नौ कोटि से सदा रक्षा करने वाला होता है । तथा फिर કે બાહ્ય અને અત્યંતર તપની આરાધના તે બહુ સારી રીતે કર્યા કરે છે. " खंते" ६२४ ७ ५२ ते समानमा रामतो “ दंते” भने पोतानी धन्द्रियार्नु मन ४२तो " हियविरए" यात्मक्याथु ४२वामा ५सया मनी onय छे. तथा “ इरियासमिए" ध्र्या समितिथी युक्त “भासासमिए " भाषासमितिथी युत, “ एसणासमिए " मेष समितिथी युत, “ आयाण-भंड. मत्तनिक्खेवणासमिए " माहान मांड भत्र निAण समितिथी युत तथा पुच्चारपासवणखेलजल्लसिंघाणपरिद्रावणियासमिए " या२ प्रसमेत सि परिठापनि समितिथी यु४त मणगुत्ते वयगुत्ते कायगुत्ते" भनाशुसि વચન-ગુપ્તિ અને કાયમુહિ, એ ત્રણે ગુણિએથી ગુરક્ષિત આત્મ પ્રવૃત્તિ पाणी मनाने “ गुत्तिदिए " पोतानी न्द्रियो५२ पूर्ण अंश २१मनार मना गय . " गुत्तब भयारी” प्राय बतनी न अटी. सहा २क्षा ४२ना२ For Private And Personal Use Only Page #928 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ०५ सू० ५ संयताचारपालकस्य स्थितिनिरूपणम् ८९ ' चाई ' त्यागी सर्वसङ्गत्यागात् , 'लज्जू ' लज्जावान संयमी 'धण्णो' धन्यः - सम्यगज्ञान सम्यग्दर्शनसम्यक्चारित्ररूपधनलाभयोग्यत्वात् , ' तबस्सी' तपस्वी प्रशस्ततपोयुक्तत्वात् , ' खंतिक्खमे ' शान्तिक्षमः लब्ध्यादि सामर्थ्य सत्यपि क्षान्त्या-क्षमागुणेन क्षमते-सहते यः स तथोक्तः, तथा-'जिईदिए ' जितेन्द्रियः, ' सोहिए 'शोधितः शुद्धः - क्षालितमिथ्यात्वादिकर्ममलत्वात् , 'अणियाणे ' अनिदानः-निदानवर्जितः, 'अबहिलेस्से ' अबहिर्लेश्यः'अ' अविद्यमाना बहिः संयमाद् बहिः लेश्या अन्तः करणवृत्तिः, यस्य सोऽबहिर्लेश्यः, संयमान्तःकरण इत्यर्थः, तथा 'अममे' अममः-ममत्ववर्जितः, 'अकिं(चाई) सर्व संग का परित्याग कर देने से वह त्यागी कहलाने लगता है । ( लज्जू) लज्जावान् बन जाता है-वह सदा इस बात का ध्यान रखता है कि कहीं ऐसी प्रवृत्ति मुझसे न बन जावे जो संयम मार्ग के विरुद्ध होकर मुझे लजाने वाली हो। ऐसा वह संयमी (धण्णो ) सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन और सम्यक् चारित्र रूप धन लाभ के योग्य हो जाने के कारण धन्य माना जाता है। तथा (तवस्सी) प्रशस्ततपों को आचरित करने वाला होने से तपस्वी कहलाने लगता है, तथा (खंतिक्खमे ) लन्धि आदि रूप सामर्थ्यसंपन्न होने पर भी दद क्षमागुण से सब कुछ सहने वाला स्वभाव बन जाता है। इस तरह (जिइंदिए ) जितेन्द्रिय, ( सुद्ध) मित्थात्वादि कर्ममलक्षालित होने से शुद्ध (अणियाणे ) निदान से रहित, ( अहिलेस्सो) अबहिर्लेश्यसंयमयुक्त अन्तः करण वाला (अममे ) ममता से रहित ( अकिंचणे) थाय छे. तan " चाई" सब सपना त्या ४२ पाथी ते त्यागी ४ापा सारे छ. " लज्जू" ते महथी तथा महारथी हारीन । स२॥ 25 लय છે અથવા લજજાવાન બની જાય છે. તે હંમેશા તે વાતની કાળજી રાખે છે કે મારાથી કદાચ એવી પ્રવૃત્તિ થઈ ન જાય કે જે સંયમ માર્ગની વિરૂદ્ધ पाने १२ये भारे Anj ५९. मे ते सयभी ." धण्णो" सभ्यशान, સમ્યફ દર્શન, અને સમ્યફ ચારિત્રરૂપ ધનલાભને યોગ્ય થઈ જવાને કારણે धन्य भनाय छे. तथा " तवस्सी " प्रशस्त तपो ४२ना२ डापाथी तपस्वी ४. पापा सागे छ, तथा " खंतिक्खमे" DिE माहि३५ समय युटत डापा છતાં પણ તે ક્ષમાગુણથી બધું સહન કરવાની વૃત્તિવાળો થઈ જાય છે. આ शत “जिइदिए " तेन्द्रिय, " सुद्ध” भियत्वाभिमान। क्षय थाने ४।२२) शुद्ध, “ अणियाणे " निहानथी २डित, “ अवहिलेस्सो" मडिवेश्यसयभी मत:४२५पाणी “ अममे" ममताथी २डित, “अकिंचणे" अध्यिन For Private And Personal Use Only Page #929 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८८० प्रश्नव्याकरणसूत्रे चणे ' अकिञ्चनः-निद्रव्यः, 'छिन्नगंथे' छिन्नग्रन्थः-बाह्याभ्यन्तरपग्ग्रिहरहितः, तथा-' निरुबलेवे' निरुपलेपः रागद्वेषवर्जितः, तथा-' सुविमलवरकंसमायणं चेव' सुविमलवरकांस्यभाजनमिव-सुविमलं-निर्मलं यद्वरकांस्यभाजनं तदिव 'विमुत्ततोए' विमुक्ततोयः जललेपरहितः, श्रमणपक्षे सम्बन्धहेतुस्नेहवर्जित इत्यर्थः तथा- संखे विव निरजणे' शंख इव निरञ्जनः, अयं भावः-यथा शंखो निर जनोऽर्थाच्छुक्लो भवति, तथा साधुरपि निरञ्जनः रागादिकृष्णतारहितो भवति । अत एव — विगयरागदोसमोहे ' विगतरागद्वेषमोह, विगतानष्टा रागद्वेष मोहाः यस्मात् सः तथा 'कुम्मो इव' कूर्म इव इंदिए सुगुत्ते' इन्द्रियेषु गुप्तः-यथा कच्छपो ग्रीवादि स्वाङ्गानि संगोप्य गुप्तो भवति तथैव साधुरपि विषयेभ्य इन्द्रियाणि संगोप्य गुप्तो भवति । तथा-'जचकणगं व जात्यकनकमिव-शुद्धकाञ्चनमिव 'जाय. रूवे' जातरूपा रागादिक्षाररहितत्वात् , स्वस्वरूपसंम्पन्नः, तथा 'पुक्खरपत्तं व ' अकिंचन भाव से युक्त, (छिन्नगंथे ) बाह्य और आभ्यंतर परिग्रह से वर्जित, बना हुआ वह साधु (निरुवलेवे ) राग और द्वेष से निर्लिप्त बन जाता है और ( मुविमलवरकसभायणं चेव विमुत्ततोए ) निर्मल कांस्यपात्र की तरह जल से मुनिपक्ष में सम्बन्ध के हेतुभूत स्नेह से रहित होता हुआ ( संखेविव निरंजणे ) शंख की तरह निरंजन-शुक्ल अर्थात रागादिक की कृष्णता से रहित हो जाता है। इसिलिये वह (विगयरागदोसमोहे ) राग द्वेष एवं मोह से रहित हो जाता है तथा ( कुंमो इव इंदिय सुगुप्ते ) कूर्म-कच्छप की तरह इन्द्रियगुप्त कहलाता है अर्थात् जिस प्रकार कच्छपग्रीवादिक अपने अवयवों को छुपाकर शरीर में गुप्त हो जाता है उसी प्रकार वह साधु भी विषयों से इन्द्रियों को हटाकर सुरक्षित बन जाता है। तथा (जच्चकणगं व जायस्वे ) भावथा युत, “छिन्नगंथे" मा भने मास्यन्त२ परियथा २हित मने ते साधु "निरुवलेवे” २२॥ मने देषथी मसित मनी नय छ, भने “ सुविमलवर -कसभायणं चेव विमुत्ततोए" नि साना पाथी म थी २हित-मुनिपक्ष अस'धन। तभूत स्नेऽथी २डित-थईन “ संखेविव निरंजणे" मनायो नि२०-स३४ मेटले है “ विगयरागदोसमोहे " २॥हिनी शथी २डित 25 तय छ, तथा “ कुमो इव इंदियसुगुत्ते” यमान रेवोन्द्रियशुत કહેવાય છે. એટલે કે જેમ કાચબો પિતાના ગ્રીવાદિક અવયને શરીરમાં છુપાવીને ગુપ્ત થઈ જાય છે તેમ સાધુ પણ વિષયોમાંથી ઈન્દ્રિયને હટાવીને सुरक्षित मनी लय छे. तथा "जच्चकणगं व जायरूवे " शुद्ध सुवारी नाम For Private And Personal Use Only Page #930 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ܕ सुदर्शिनी टीका अ. ५ सू०५ संयताचारपालकस्यस्थितिनिरूपणम् ८८१ 6 www पुष्करपत्रमित्र - कमलपत्रमित्र 'निरुवलेवे ' निरुपलेपः - भोगगृद्धिलेपापेक्षया, तथा ' सोमायाए ' सौम्यतया = सौम्यपरिणामेन 'चंदो इव' चन्द्र इव, तथा ' सुरोब' सूर इव दित्ततेए, दीप्ततेजाः = दीप्तं तेजो यस्य सः, तथा - गिरिवरे मंदरे ' गिरिवरो मन्दरः ' जह' यथा इव सकलपर्वतश्रेष्ठ मेरुरिव ' अचले ' अचल = परीपादौ सत्यपि निश्चलः, तथा ' अक्खोभे ' अक्षोभः क्षोभवर्जितःनिस्तरङ्गः, ' सागरोच्च' सागर इव 'थिमिए स्तिमितः = कषायतरङ्गवर्जिनः, तथा - 'पुढवी विव' पृथिवीय 'सव्वफासविसहे ' सर्वस्पर्शविषहः- शुभाशुभस्पर्शेषु समचित्त इत्यर्थ?' तथा ' तत्रसावि य' तपसाऽपि च हेतुभूतेन ' भासरा सिछन्नेव ' जातते ' भस्मराशिच्छन्न इव जाततेजाः, यथा - भस्माच्छन्नो बह्निरुपरि Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir = शुद्ध सुवर्ण की तरह वह रागादिकरूप क्षार से रहित होने के कारण अपने निजरूप से सम्पन्न हो जाता है । ( पुक्खरपत्तं व निरूवलेवे ) कमल पत्र की तरह भोगों में गृद्धिरूप लेप से वह रहित बन जाता है। (सोमायाए चंदोइव) सौम्यता से वह चंद्र की तरह ( सूरोव्वदित्तते ए ) सूर्य की तरह वह दीस तेज चमकने वाला हो जाता है। तथा (गिरिवरे मंदरे जह अचले) गिरि वर सुमेरु पर्वत की तरह वह परिषह आदि के आने पर अचल सुस्थिर बना रहता है । और ( अक्खो भो सागरो ) निस्तरंग सागर की तरह अक्षोभ - क्षोभ से रहित बन जाता है (थिमिए) स्तिमित-कपायरूपतरङ्गों से रहित बन जाता है। तथा (पुढवीचि सव्वा सविस हे ) जिस प्रकार पृथ्वी समस्त प्रकार के स्पर्शो को सहन करती है उसी प्रकार वह भी शुभ और अशुभ स्पर्शो में समचित्त हो जाता हैं । ( तवसा विय भासरासिच्छन्नेव For Private And Personal Use Only તે રાગાદિક રૂપ ક્ષારથી રહિત હાવાને કારણે પેાતાના નિજ્રરૂપથી સ ́પન્ન થઇ लय छे. " पुक्खरपत्तंत्र निरुवलेवे " उसण पत्र प्रेम पालीथी अलिप्त रहे छे तेम ते लोगोथी सदिप्त था लय छे " सोमायाए चंदो इव " सौभ्यतामां ते यन्द्रनाभेव " सूरोव्व दित्ततेए " सूर्यनी प्रेम ते हीस ते-तेनस्वी थ જાય છે. તથા C: गिरिवरे मंदरे जह अचले " शिविर सुमेरुनी प्रेम ते परी - षड आदि नडे तो पशु अयक्ष, सुस्थिर रहे छे. भने “ अक्खोभो सागरोव्व " तरंग३यी सागरना वो ते मझोल-झोल रहित मनी लय छे. " थिमिए” સ્તિમિત-કષાયરૂપ તરગોથી રહિત મની જાય છે. તથા पुढवीविय सव्व फासविखहे " ?भ पृथ्वी अधा अारना स्पर्शाने सहन उरे छे तेभ ते पशु શુભ અને અશુભ સ્પર્ધામાં સમભાવવાળા થઈ જાય છે. तवसा वि भास 66 प्र १११ Page #931 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे दाहकत्वमप्रकाशयन्नप्यन्त ज्वल्यमानो भवति, तथैव श्रमणो बहिः शुष्को रूक्षः कान्तिरहितोऽप्यन्तः स्तपोजनितदीप्त्यादेदीप्यमानो भवतीति भावः । तथा'जलियडयासणो वित्र ' ज्वलितहुताशनइव-प्रदीप्तानिरव · तेयसा ' तेजसाज्ञानरूपतेजसा 'जलंते ' ज्वलन् दीप्यमानः, भावतमोविनाशकत्वात् ‘गोसीसचंदणंपिव ' गोशीर्षचन्दनमिव — सीयले ' शीतला मनस्तापोपशमनात् 'सुगंधी य' मुगन्धिना, सुरभिगन्धेन शीलसौगन्ध्यात् हरओ विव' हदक इव-जलाशय इव — समियभावे ' समिकभावः सम एव समिकः, स भावो यस्य सः, अयं भावः-यथा ह्रदो वाताभावे तरङ्गाभावेन निम्नोनतराहित्येन समाकारतया परि जायतेए ) भस्म राशि से छन्न अग्नि जिस प्रकार ऊपर से अपने दाहकत्व परिणामको प्रकाशित नहीं करती हुई भी भीतरमें जाज्वल्यमान रहा करती है उसी तरहसे वह साधु भी बाहिरसे शुष्ककाय, रूक्ष और कान्तिरहित होता हुआ भी भीतरमें तपजनित दीप्तिसे देदीप्यमान होता है। तथा-(जलिय हुथासणोंविव तेयसा जलंते) प्रदीप्तवह्नि जिस प्रकार अपनी प्रभा से चमकती रहती है उसी प्रकार यह भी भावतम का विनाशक होने से ज्ञानरूप तेज से चमकता रहता है । (गोसीसचंदणंपिव सीयले ) गोशीर्ष चंदन जिस प्रकार शीतल और सुगंधित होता है उसी प्रकार यह साधु भी मनस्ताप के उपशमन से शीतल होतो हैं और (सुगंधीय हरओविव समियभावे ) शील की सुगंधी से इद की तरह समभाववाला अर्थात् जिस प्रकार जलाशय वायु के अभाव से तरंगों के उत्थान पतन से रहित होने के कारण ऊचा नीचा नहीं रात्रिच्छन्नेव जायतेए'' मना l नीये २७सी मनि ५२थी पोताना દાહકતા પ્રગટ કરતી નથી છતા અંદર સળગતી પ્રકાશિત રહે છે, તેમ તે સાધુ પણ બહારથી શુષ્ક શરીર વાળે, રૂક્ષ અને કાતિ રહિત હોવા છતાં ५५५ महथी त५ नित तेथी दीप्यमान डाय छे. “जलिय यासणोविव तेयसा जलंते " प्रीत भनि म पोताना तेथी २४ती २७ छ तेम त ५९५ लावतमना विनाश पाथी ज्ञान ३५ तेथी यम तो २७ छ. "गोसीसचंदणंपिव सोयले " म शीर्ष न त मने सुगचित डाय छ तर आरे भनन ताप उपशमन थवाने ४।२0 शीत य छे भने “ सुगंघियहरओविव समियभावे" शीलनी सुगधथी स२।१२ना समान समभाव વાળ હોય છે, એટલે કે જેમ વાયુના અભાવે તરંગેના ઉથાન તથા પતનથી રહિત હોવાને કારણે સરોવરની સપાટી ઊંચીનીચી લાગતી નથી પણ For Private And Personal Use Only Page #932 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीकाट अ० ५ सू०५ संयतावारपालकस्य स्थितिनिरूपणम् ॥ लक्ष्यते, तथैव श्रमणोऽपि मानापमानयोरननुभवात् हर्षग्लान्योरभावात्सर्वदैकरूप एव भवतीति । तथा उग्धोसियसुनिम्मलं' मार्जितमुनिमलम् मार्जितंतलोपरिस्थितमलापनयनेन, अतएव-सुनिर्मलं-मुप्रसन्नम् , 'आयसमंडलतलं व ' आदशमण्डलतलमिव-आदर्शः-दर्पणस्तस्य यन्मण्डलतलं-मण्डलाकार तलं तदिव 'पागडभाषेण ' प्रकटभावेन-अमायित्वादनिगृहितभावेन : सुद्धभावे ' शुद्धभावः शुद्धः भावः स्वरूपो यस्य सः, तथा-' कुंजरो व ' कुञ्जर इव ' सौडीरो' शौण्डीर:= परीषहसैन्यनिर्दलनसमर्थः, ' वसभोव' वृषभ इव 'जायथामे' जातस्थामा यथा वृषभो भारोद्वहने सामर्थ्ययुक्तो भवति, तथैव स्वीकृतमहावतभारोद्वहने साम र्थ्यसंपन्न इत्यर्थः । तथा-' सोहो व ' सिंह इव श्रमणः, अमेवार्थ स्पष्टयति'जहा ' यथा सिंह 'मिगाहिये , मृगाधिपः-अथ च तैः ' दुप्पधरिसे' दुष्पधृ. दिखता है किन्तु एकसा आकार वाला परिलक्षित होता है उसी प्रकार यह साधु भी मान और अपमान के अनुभव से रहित होने के कारण हर्ष और ग्लानि, इन दोनों प्रकार के भावों से रहित बन जाता है, अनावह सर्वदा एक रूप में ही रहा करता है। (उग्योसिय मंडलं आयंसमंडलतलं व पागडभावेण सुद्धभावे ) मांजने से-ऊपर के मैल के हटा देने से-निर्मल बने हुए दर्पणमंडल की तरह इस का स्वरूप अमायी होने के कारण प्रकट रूप से शुद्ध रहता है । ( सोंडोरो कुंजरो व ) कुंजर के जैसा यह शौंडीर-परीषहरूपी सैन्य के निर्दलन करने में समर्थ होता है। (वसभोव जायथामे) वृषभ की तरह जातस्थामस्वीकृत महाव्रतरूप भार के वहन करने में शक्तिशाली होता है। (सीहोव जहा मिगाहिवे होइ दुप्पधरिसे ) सिंह जैसे मृगों का अधिपति और उनके द्वारा अपराभवनीय होता है उसी तरह वह साधु भी એક સરખી લાગે છે એ જ પ્રમાણે સાધુ પણ માન અને અને અપમાનના અનુભવથી રહિત હોવાને કારણે હર્ષ અને શેક એ બન્ને પ્રકારના ભાવથી शविर मनी जय छ तेथी ते हमेशा समलावथी२ छ. " उग्घोसियमंडल आयसमडलतलंब पागडभावेण सुद्धभावे " wiqाथी - ७५२ २ ४१ નાખવાથી નિર્મળ બનેલ દર્પણની જેમ તેનું સ્વરૂપ અમાયી હોવાને કારણે પ્રગટ ३थे शुद्ध २३ छ. “सांडीरो कुंजरोव" हाथीनी मतेशौ ॥२--५५३३पी सैन्यने। ४२२धा दी नावाने समय छे. “वसभोव जायथामे " वृषलनाम ते स्वात महात३५ मानतुं पड़न ४२वान शतिशाणी डाय 2. “ सौहोव जहा मिगाहिये होइ दुप्पधरिसे" म सि भृगाना अधिपति तथा तेमनाथी For Private And Personal Use Only Page #933 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८५ प्रश्नव्याकर णसूत्रे ज्य:-अपरिभवनीयो ' होइ' भवति, तथैव साधुः परीपहेरपराजितो भवति । तथा 'सारयसलिलं व शारदसलिलमिव शरस्तुसम्बन्धिजलमिव 'सुदहियए' शुद्धहदयः -स्वच्छान्तः करण इत्यर्थः, तथा 'भारंडे चेच' भारण्ड इव-भारण्डपक्षीय ' अप्पमत्ते' अप्रमत्तः प्रभादवर्जितः ‘खग्गिविसाणं व' खनिविषाणमिव खड्गी-' गेडा' इतिप्रसिद्धो बन्यश्चतुष्पदविशेषः, तस्य विषाणं-शामिव 'एग जाए' एकजात:यथा-खगिनः शृङ्गामेकं भवति, तथैव साधुरपि रागद्वेषरहित एकाकी भवति । तथा-' खाणूव ' स्थाणुरिव — उडकाए' ऊनकायः कायोत्सर्गकाले, तथा ' मु. णगारेच' शून्यागारमित्र अप्रतिकर्मा शरीरसंस्कारवर्जित इत्यर्थः, तथा 'सुण्णागारावणस्संतो' शून्यागारापणस्यान्तः शून्यस्यागारस्यापणस्य च अन्तःमध्ये निवायसरणप्पदीवज्झामणमिय' निर्वातशरणप्रदीपथ्यापनमिव-निर्वातो वातर-- हितो यः शरणप्रदीप-गृहप्रदीपस्तस्य ध्यापनमिव-प्रज्वलितशिखेव 'निष्पकंपे ' देशविरति श्रावकों की अपेक्षा सकलसंयम का अधिपति और परिषहों से अपराजित होता है। (सारयासलिलं व सुद्धहियए) वह शरत् ऋतु संबंधी जल के समान स्वच्छ अंतः करण वाला होता है, ( भारंडे. चैव अप्पमत्ते ) भारंडपक्षी के समान वह प्रमाद से वर्जित होता है, (खग्गिविसाणं व एगजाए ) गेडो के सींग के समान वह एक जात होता है-अर्थात् जैसे गेंडा का श्रंग एक ही होता है उसी तरह साधु भी रागद्वेष रहित होने से एकाकी ही होता है। (ग्वाणूव उड्डकाए । स्थाणु जिस प्रकार उर्ध्वकाय होता है उसी प्रकार साधु भी कायोत्सर्ग के समय उर्ध्वकाय होता है। (सुण्णागारेव्य अपडिकम्मे ) शून्य गृह जैसे संस्कार विहीन होता है उसी प्रकार साधु भी शारीरिक संस्कार से घर्जित होता है । (सुण्णागारावणस्संनो निवायसरणप्पईवज्झामणमिव અજેય હોય છે તેમ સાધુ પણ દેશ વિરતિ શ્રાવકોની અપેક્ષાએ સકળ સંચमना अधिपति भने ५२५४ाथी अ५२रित खाय छ. “ सारयसलिलं व सुद्धहियए" ते १२४ तुन जना समान २१२७ मत:४२पाणे डाय छे. “भारण्डे चेव अप्पमत्ते" ला पक्षीना कोते प्रभाह २हित हाय छ. खग्गिविसाणं व एगजाए " ना शिगानी रे ते मी डाय छे. मेटले કે જેમ ગેંડાને એક જ શિંગડું હોય છે તે પ્રમાણે સાધુ પણ રાગદ્વેષ डित पाथी ilaz खाय छ. " खाणूवउड्ढकाए " स्थ म 34°४.य छ तम साधु पार आयात्सना समये चाय डाय छे. “सुण्णागारेव्व अपडिकम्मे " माली मान म स२ विडीन डाय छ तम सा५ ५५ २ ५४२ २डित डाय छ, “सुण्णागारावणस्संतो निवायसरणप्पड़ For Private And Personal Use Only Page #934 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका २०५ सू०५ संयताबारपाकलस्य स्थितिनिरूपणम् ८८५ " निष्कम्पः - दिव्याशुपसर्गसंसर्गेऽपि धर्मध्यानादौ निश्चल इत्यर्थः, जहा खुरो ' यथा क्षुरः =र इव ' एगधारे चेव ' एकधारचैव यथा क्षुरएकधारस्तथैव साधुरुत्सर्गरूपैकधारो भवति, वर्द्धमान परिणामधारकइत्यर्थः, जहा अही' यथाऽहिः = अहिरिवसर्प इव ' एगदिट्ठी चे ' एकदृष्टिक्षेत्र = मोक्षे बद्धलक्ष्य इत्यर्थः तथा - ' आगासं चैत्र निरालंबे ' आकाशमिव निरालम्ब: । यथाऽकाशआलम्बनवर्जितस्तथैव श्रमitsपि ग्रामदेशकुलाद्यालम्बनरहित इत्यर्थः, तथा - विr fe' fare व पक्षी इव ' सव्वओ ' सर्वतः ' विमुक्के विमुक्तः निष्परिग्रह इत्यर्थः, तथा - ' उरए निष्पकपे) शून्य घर और शून्य आपण-दुकान के भीतर निर्वात (वायुरहित) प्रदेश में रखे हुए दीपक की प्रज्वलित लौं जैसे निष्प्रकंप होती है उसी प्रकार साधु भी देवादिकृत उपसर्गों के आने पर भी धर्मध्यान आदि में निष्प्रकंप निश्चल बना रहता हैं । (जहाखुरो चेव एगधारे) जैसे क्षुरा ऊस्तरा एक धार वाला होता है उसी प्रकार साधु भी उत्सर्गरूप एक धार वाडा होता है। अर्थात् साधु के परिणाम प्रकृष्ट विशुद्धि को लिये बढते ही रहते हैं, वे प्रतिपाती परिणामों वाले नहीं होते हैं । ( जहा अही चेव एगदिट्ठीं ) सर्प जिस प्रकार एक दृष्टिवाला होता है उसी प्रकार साधु भी अपने लक्ष्यरूप एक मोक्ष में निबद्ध दृष्टिवाला होता है। (आगासं चे व निरालंबे ) आकाशकी तरह वह आलंबन - सहारा से रहित होता है अर्थात् साधु को ग्राम देश, कुल आदी का आलंबन नहीं होता है। वह इन सब ग्रामादि से सर्वथा रहित ही होता है । ( बिहगे विव सन्चओ विष्पमुक्के) विहग - पक्षी की तरह वह सर्वतः विप्रमुक्त होता है परिग्रह से वर्जित होता व ज्झामणमिव निष्पकंपे " माझी घर मने मासी हुअननी अंडर वायुनी असर રહિત સ્થાનમાં રાખેલ દીવાની સળગતી વાળા જેમ નિષ્પ્રક*પ ( સ્થિર ) હાય છે તેમ સાધુ પણ દેવાકૃિત ઉપસી નડતાં છતાં પણ ધર્માંધ્યાન આદિમાં सयस रहे छे." जहा खुरो चेव एगधारे " प्रेम क्षुरा-अस्त्रो मे धारवाणी હોય છે તેમ સાધુ પણ ઉત્સરૂપી એક ધારવાળા હોય છે એટલે કે સાધુની મનવૃત્તિ પ્રકૃષ્ટ વિશુદ્ધિઓને માટે વધતી જ રહે છે, તે પ્રતિપાતિ પરિણાभोवाणी होतो नथी. " जहा अहीचेत्र एगदिट्ठी " प्रेम साथ मेड दृष्टिवाणी હાય છે તેમ સાધુ પણ પોતાના લક્ષ્યરૂપ એક મેાક્ષમાંજ લીન દૃષ્ટિવાળા હાય छे. " आगासं चैव निरालंबे " सअशनी प्रेम ते निशवा भी होय छे भेटते કે સાધુને ગામ, દેશ, કુળ આદિનું અવલંબન હેતુ નથી. તે ગ્રામા િસમસ્ત भवदा जनोथी रहित होय छे. "विहगे विव सव्वओ विप्यमुक्के " विडપક્ષીની જેમ તે સર્વ પ્રકારે મુકત હાય છે-પરિગ્રહ રહિત હૈાય છે, ડ कय • For Private And Personal Use Only Page #935 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्र जहा' उरगो यथा-सर्प इव ' कयपरनिलए चेव' कृतपरनिलयश्चैव-कृतः-आश्रयीकृतः परनिलयो येन सः, अयं भावः-यथा सर्पोऽन्यकृतविले तिष्ठति, तथैव श्रमणः परकृतगृहे तिष्ठति । तथा-' अनिलोच' अनिल इव पवन इव 'अप्पडिबद्धो' अप्रतिबद्धः-अप्रतिवन्धविहारीत्यर्थः, तथा ' जीवोव्य ' जीव इव ' अप्पडिहयगई' अपतिहतगतिः= सर्वदेशविहारीत्यर्थः । अत्र सर्वत्र 'चैत्र' शब्दः समुच्चयार्थः, 'गामे गामे य' ग्रामे ग्रामे च ' एगराय' एकरात्र ‘णगरे णगरे' नगरे नगरे ‘पंचराय' पञ्चरात्रम् , ' दूइज्जतो' बन्-विहरन् , निवासं कुर्वनित्यर्थः, तथा जिइंदिए ' जितेन्द्रियः, 'जियपरीसहे ' जितपरिषहः, अतएव 'निभए ' निर्भयः ' विऊ ' विद्वान तत्त्वज्ञ इत्यर्थः, ' सचित्ताचित्तमीसएहिं ' है ( कयपरनिलए जहा चेव उरए ) सर्प की तरह वह दूसरे ने अपने निमित्त बनाये हुए घर में रहता है, अर्थात् जिस प्रकार सर्प अन्य चूहे आदि से बनाये गये बिल में रहता है उसी प्रकार साधु भी गृहस्थ के बनाये हुए घर में रहता है। (अप्पडिबद्धो अनिलोव्व ) अनिल पवन-की तरह वह अप्रतिबद्ध - प्रतिबन्ध से रहित होता है अर्थात् वह साधु अप्रतिबन्ध विहारी होता है। तथा (जीवोव्व अप्पडिहयगई) जीव की तरह वह अप्रतिहत गतिवाला होता है-उसका विचरण सर्वत्र होता है-उसे कीसो भी देश में विचरण करने का निषेध नहीं होता है । ( गामे गामे य एगरायं ) वह हर एक ग्राम में एक रात्री तथा (णगरे णगरे य पंचरायं ) तथा प्रत्येक नगर में पांच रात्रि तक (दूइज्जते ) ठहरता है । तथा (जिइंदिए) जितेन्द्रिय (जियपरिसहे य) जितपरीषद अत एव (निभए ) निर्भय (विऊ) विद्वान्-तत्वज्ञ, वह परनिलए जहा चेव उरए" सपना भ त ५fload पोताना भाटे मनाdai ઘરમાં રહે છે, એટલે કે જેમ સર્ષ ઉંદર આદિએ બનાવેલા દરમાં રહે છે तेम साधु ५५] गृहस्थ नायसा घरमा २९ छ. “ अपडियद्धो अनिलोव्य" અનિલ-પવનની જેમ તે અપ્રતિબદ્ધ-પ્રતિબંધથી રહિત હોય છે એટલે કે તે मप्रतिमायविड डाय छ. “ जीवोव्व अप्पडिहयगई" नीम ते म. વિહત ગતિવાળો હોય છે. તેનું વિચરણ સર્વત્ર હોય છે. તેને કઈ પણ પ્રદેशमा वियवान विषेध हात नथी. “ गामे गामे य एगराय" ते ४२४ गाममा मे४ २त्री तथ! " णगरे णगरे च पंचराय” तथा प्रत्ये न॥२मा पाय रात्रि सुधी “दइज्जते ' ३।४।५ छ. तथा “जिदिए " रिन्द्रिय" जियपरि. सहेय" ५५डान तना२ पाथी " निब्भए " निमय “ विऊ” विद्वान For Private And Personal Use Only Page #936 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका म० ५ सू०५ संयताधारपालकस्य स्थितिनिरूपणम् ८७ सचित्ताचित्तमिश्रकेषु 'दव्वेहि' द्रव्येषु · विरागयंगए ' विरागतां गतः=मृाराहित्यं प्राप्तः, 'संचयओ' सञ्चयतः-संवयकरणात् 'विरए' :विरतः 'मुत्ते' मुक्ता बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहरहितः, 'लहुए' लघुकः-गौरवत्रयत्यागात् , 'निरवकंखे' निरवकाङ्क्षा आकाक्षा वर्जितत्वात् , 'जीवियमरणासविप्पमुत्ते' जीवितमरणाशाविप्रमुक्तः जीविताशामरणाशाभ्यां रहितः, 'धीरे धीरः बुद्धिमान् , ' निस्संध' सन्धिरहितं चारित्रपरिणामव्यवच्छेदाभावात् , 'निव्वणं' निव्रण निरतिचारम् 'चरितं ' चारित्रं-संयमं ' कायेण' कायेन-कायव्यापारेण न तु मनोरथमात्रेण 'फासयंते ' स्पृशन् , तथा-' सययं ' सततम् ' अज्झप्पज्झागजुत्ते' अध्यात्मध्यानयुक्तः 'निहुए ' निभृतः उपशान्तः 'एगे' एका रागादिसहायवर्जितः 'धम्म' धर्म-श्रुतचारित्ररक्षण ' चरेज्ज' चरेत् अनुपालयेत् ।।सू०५।। साधु (सचित्ताचित्तमीसएहिं दवहिं विरागयंगए) सचित्त, अचित्त और मिश्र द्रव्यों में मूछ रहितपने को प्राप्त होकर (संचयओ विरए) संचय करने से विरक्त हो जाता है और (मुत्ते) बाह्य और आभ्यंतर परिग्रह से रहित हो जाता है । इस तरह (लहुए गौरव त्रय के त्याग से लघु बना हुआ श्रमण (निरवकंखे) आकांक्षा से वर्जित होने के कारण (जीवियमरणासविपत्ते ) जीवन की आशा और मरण की भयसे रहित हो जाता है । इस प्रकार (धीरे) इन समस्त पूर्वोक्त विशेषणों से विशिष्ट बना हुआ तत्त्वज्ञ श्रमण (निस्संधं) चारित्रपरिणाम की संधि-व्यवच्छेद के अभाव से (निव्वणं ) निरतिवार (चरित्तं ) चारित्रसंयम को ( काएण) काय के व्यापार से, नहीं की मनोरथ मात्र से (फासयंते) धारण कर ( अन्झप्पज्झाण जुत्ते ) अध्यास्मध्यान में लवलीन बनता हुआ (निहुए) उपशान्त भाव से संपन्न तत्व मेवो ते साधु “ सचित्ताचित्तमीसएहिं व्वेहिं विरागय गए ' सथित्त, भयित्त मने भि द्रव्योमा ममत्व २डितताने प्रारीने " संचयओ विरए" सघड ४२पाथी वि२४त थ य छ भने " मुत्त " हमने मास्यन्तर परियडथी २हित नय छे. सरीत "लहुए" गौरवत्रयना त्यागथी स५ बनेर श्रम निरवकखे" 24xiक्षाथी २डित पाने १२णे "जीवियमरणा सविप्पमुत्ते" पननी माशा मने भनी माथी २डित लय छे. म॥ शते “ धीरे" ते सपा विशेषथी युत गने तत्वज्ञ श्रम " निस्संध" यारित्र परिणामनी सधि-व्यवछेने मला " निव्वण" निरतियार "चरित्त" यारित्र-सयभने 'कारण " ४ायना व्यापारथी-भना२५थी । नडी-" फासयते" भा२६१ अरीने “अझप्पज्झाणजुत्ते" मध्यात्मध्यान सीन मनीन “निहुए" For Private And Personal Use Only Page #937 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ટ प्रश्नव्याकरणसूत्रे मूलम् - इमं परिग्गहवेरमणपरिरक्खणट्टयाए पावयर्ण भगवया सुकहियं अन्तहियं पेच्चाभावियं आगमेसिभदं सुद्धं नेयाउयं अकुडिलं अणुत्तरं सव्वदुक्खपावाणं विउसमणं, तस्स इमा पंचभावणाओ चरिमस्स वयस्स हुंति, परिग्गहवेरमणरखण्डयाए | सू० ६ ॥ टीका-' इमं च इत्यादि 9 " 'इमं च इदं चापरिग्रहनामकं पञ्चमं संवरद्वारं 'परिग्गहवेरमणपरिरक्खणgure परिग्रहविरमणपरिरक्षणार्थतया परिग्रहविरमणस्य परिरक्षणमेव अर्थः प्रयोजनं यस्य तत्, तदेव तत्ता, त्या अत्र स्वार्थे तल, परिग्रहविरतिपरित्राणायेत्यर्थः, होकर (गे) रागादिक भावोंसे वर्जित होनेसे एक ऐसा जो होता है वही (धम्मं चारित्ररूप धर्मको ( चरेज) पालन करनेवाला हो सकता है । भावार्थ सूत्रकारने इस सूत्र द्वारा यह स्पष्ट किया है कि परिग्रहविरत रूप साधु धर्म में लवलीन बने हुए मनुष्य की स्थिति कैसी हो जाती है। तथा जब वह इस स्थिति से संपन्न बनेगा तब ही पूर्णरूप से वह भ्रमण धर्म के पालन करने का अधिकारी बन सकता है अन्यथा नहीं । सूत्र में यही विषय शब्दान्तरों से समझाया गया है || सू०५ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir फिर भी कहते हैं-' इमं च ' इत्यादि० | टीकार्थ - ( इमं च ) यह अपरिग्रह नाम का पांचवां संवर द्वाररूप ( पावयणं) प्रवचन ( परिरंग हवेरमणपरिरखगडपाए ) परिग्रहविरमग ઉપશાન્ત ભાવથી યુક્ત થઈ ને ‘ì” રાગાદિક ભાવાથી રહિત હાવાથી એક, એવા જે થાય છે તે r धं ” चारित्र३५ धर्मनुं " चरेज्ज" पादान उरनार થઈ શકે છે. (( ભ.વા સૂત્રકારે આ સૂત્રમાં એ સ્પષ્ટ કર્યુ છે કે પરિગ્રહથી વિરક્ત થવા રૂપ ધર્માંમાં લીન અનેલ મનુષ્યની સ્થિતિ કેવી થઇ જાય છે તથા જ્યારે તે આ સ્થિતિએ પહોંચે ત્યારે જ તે સંપૂર્ણ રીતે શ્રમણ ધમ નું પાલન કરવાને પાત્ર ખની શકે છે ખીજી કોઈ પણ રીતે નહી' સૂત્રમાં એ જ વિષય જુદા જુદા શબ્દો દ્વારા સમજાવવામાં આવ્યા છે. !! સૂ. પ बजी उडे छे -" इमं च " त्यिाहि. टीडार्थ–“इम ं च” मा परि नामना पांथभां संवरद्वारनं "पावयण" प्रवचन " परिमाहवेरमणपरिक्खणट्टयाए " परिथड विरभाभु व्रतनी रक्षाने भाटे " भग For Private And Personal Use Only Page #938 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ०५ सू। ६ संयताचारपालकस्य स्थितिनिरूपणम् ८८९ 'पावयणं ' प्रवचनं ' भगाया ' भगवता ' सुकहियं ' मुकथितम् ; ' अलहियं ' आत्महितम् , ' पेचाभावियं ' मेत्यभाविकम् 'आगमेसिभदं ' आगमिष्यद्भद्र 'सुद्धं ' शुद्धं ' नेयाउयं ' नैयायिकम् ' अकुडिलं' अकुटिलम् ' अणुत्तरं ' अनुत्तरं 'सव्वदुक्खपावाणं ' सर्वदुःखपापानां ' विउसमणं' व्युपशमनम् । एषां व्या. ख्या पूर्व गता । ' तस्स' तस्य-अपरिग्रहनामकस्य ' चरिमस्स' चरमस्य अन्ति मस्य ' संवरदारस्स' संवरद्वारस्य 'इमा पंच भावणाओ' इमाः वक्ष्यमाणाः पञ्च भावनाः 'हुति ' भवन्ति । किमर्थं भवन्ति ? इत्याह-' परिग्गहवेरमणरक्षणढयाए ' परिग्रहविरमणरक्षणार्थतायै-अपरिग्रहपरिरक्षणार्थमित्यर्थः ॥ सू० ६ ॥ व्रत की रक्षा के लिये ( भगवया सुकहियं) भगवान् ने कहा है । यह (अत्तहियं ) आत्मा का हितकारक है। (पेचाभावियं ) परलोक में भी शुभ फल का दाता है । इसी निमित्त से यह (आगमेसि भई ) भविज्यत् काल में कल्याण प्रद है यह ( सुद्धं ) सर्वथा निर्दोष है। (नेयाज्य) वीतराग सर्वज्ञ एवं हितोपदेशक प्रभु द्वारा भाषित होने से न्याय संपन्न है। (अकुडिलं) ऋजुभाव का जनक होने से अकुटिल है। (अणुत्तरं) सर्व श्रेष्ठ होने से अनुत्तर है। तथा ( सव्वदुक्खपावाणं) समस्त प्रकार के दुःख जनक ज्ञानावरणीय आदि अष्ठविध कर्मों का (विउसमर्ण) उपशमक है। (तस्स चरिमस्स संवरदारस्स) उस अन्तिम संवरद्वार की (इमा पंचभावणाओ) ये वक्ष्यमाण पांच भावनाए हैं जो (परिग्गहवेरमणरक्खणठ्याए हुति ) परिग्रह विरमण व्रत की रक्षा करने वाली होती हैं ।। सू०६ ॥ वया सुकहियं" मापाने ४डा छ “ अत्तहियं " आत्मानुं २४ छ. “ पेशा भावियं ' ५२४मा ५१ शुभ ५॥ ना३ छे. मे २४ ४१२ ते " आगमेसि भर" नविष्यमा ४८याहायी छ, ते " सुद्धं " तदन निषि छ" नेयाउयं" વિતરાગ સર્વજ્ઞ અને હિપદેશક પ્રભુ દ્વારા કથિત હેવાથી તે ન્યાયયુક્ત છે. "अकुडिलं " *न्नुमापनुं 13 पाथी ते Alta “ अणुत्तर" सबश्रेष्ठ उपाथी ते मनुत्तर छ. तथा “सबदुक्खपाबाणं" समस्त ४२।। मन साना१२०१५ मा ४।२भनि “ विउसमणं " ५शमन ४२ना२ छ. "तस्स चरिमरस संबरदारस्स" ते मन्तिम १२वारनी " इमा पंचभावणाओ " 20 प्रमाणे पाय लावनामे छ ? “परिगग्गहवेरमणरक्षणट्रयाए हंति" परिग्रह विमा व्रतनी २६॥ ४२नारीय छे ॥ सू. ६॥ For Private And Personal Use Only Page #939 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८९० प्रश्नव्याकरणसूत्रे सम्पति पञ्च भावना अभिधातुकामः प्रथमां भावनामाइ- पंचमं ' इत्यादि मूलम्-पढमं सोइंदिएण सोच्चा सदाइं मणुण्णभदगाई, किंते, वरमुरयमुइंगपणवदद्दरकच्छभीवीण-विपंचिवल्लईबद्धी सक-सुघोस-णंदि-सूअर-परिवादिणि वंसतूणग-पव्वय तंती. तलताल-तुडिय-निग्घोस-गीयवाइयाइं णडणगजल्लमल्लमद्विगवेलबंग-कहगपबगलासग-आइकखग--लंख- मंख--तुणइल्ल तुंबर्वाणिय-तालायर-पकरणाणि य बहूणि महुरसगीयसुस्सराई कंची मेहलाकलावगपतरक-पतरेकपाय -- जालकघंटिय खिंखिणि रयणोरुजालय छुदियनेउरचलणमालियकणगनिग' डजालकभूसणसदाणि लीलचंकम्ममाणाणुदीरियाई तरुणीजणहसिय भणिय कलरिभियमंजुलाई गुणवयणाणि य वहणि महुरजणभासियाइं अण्णेसु य एवमाइएसु सदेसु भणुण्णभद्दएसु न तेसु समणेण सज्जियव्वं न रजियव्वं न गिज्झियवं न मुज्झियव्वं न विनिघायं आवजियव्वं न लुभियत्वं न तुसियव्वं न हसियव्वं न सइं च मइं च तत्थ कुज्जा । पुणरवि य सोइंदिएण सोच्चा सदाइं अमणुण्णपावगाइं किंते, अकोसफरूसखिसण अवमाणण तज्जणनिब्भच्छणं दित्तवयण तासण उक्कूजिय रुण्णरडियकंदिय विग्युटरसियकलुणविलवियाई अण्णेसु य एवमाइएसु सदेसु अमणुण्णपावएसु. न तेसु समणेणं रुसियत्वं न हीलियव्वं न निंदियव्वं, न खिसियव्वं, न छिंदियव्यं न भिदियव्वं, न वहेयवं, न दु गुंछावत्तियाविलब्भा उप्पाएउं। एवं साइंदियभावणाभाविओ For Private And Personal Use Only Page #940 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० सू०७ 'निस्पृहता' नामकप्रथमभावना निरूपणम् भवइ अंतरप्पा मणुष्णामणुण्ण सुब्भिदुब्भिरागदोसे पणिहियप्पा साहू मणवयणकायगुत्ते संबुडे पणिहिइंदिए चरेज धम्मं ॥ सू० ७ ॥ 1 'टीका- 'पढ' प्रथमां निःस्पृहत्वाभिधेयां भावनामाह-'सोईदिएण' श्रोत्रेन्द्रि येण = कर्णेन 'सोचा ' श्रुत्वा 'सदाई' शब्दान् कीदृशान् ? ' मणुष्णभदगाई ' मनोज्ञभद्रकान् - मनोज्ञा: मनोहरा अतएव भद्रकाः कर्णेन्द्रिय सुखजनकास्तान् 'किं ते' काँस्तान = कथं भूतांस्तान् ? इत्याह-' चरमुरयमुई गपणवदहुरकच्छभी वीणविपंचिवलबद्धीकघोसणं दिसूसर परिवादिणि वंसतूणगपव्यतीतलतालतुडियनिग्घोस ८९१ अब सूत्रकार इस व्रत की पाँच भावनाओं को प्रकट करने के अभिप्राय से सर्व प्रथम उसकी प्रथम भावना को कहते हैं--' पढमं ' इत्यादि । C " टीकार्थ - ( पढमं ) इस व्रत की पहिली भावना का नाम निस्पृहता है, वह भावना इस प्रकार से है - ( सोइंदिएण ) श्रोत्रेन्द्रिय से ( मणुभद्दगाइ ) मनोज्ञ अतएव मधुर ऐसे (सदाइ ) शब्दों को ( सोचा ) सुन करके साधु का कर्तव्य है कि वह कभी भी उनमें आसक्ति न करे रागभाव से उनमें न बँधे, उनमें वह गृद्धिभाव न करे और मोहित न हो तथा जो द्वेष पैदा करने वाले हों उनमें वह रुष्ठ न हो । इसी विषय को सूत्रकार इन नीचे की पट्टियों द्वारा स्पष्ट करते हैं - (किं ते) वे कौन २ से हैं- इस प्रकार की शंका करने वाले के प्रति वे कहते हैं कि सुनो वे इस प्रकार से हैं (वरमुरयमुयंगपणवददुरकच्छभी वीण विधि - बल्ल-बद्धीक-सुबोस- मंदि-सर- परिवादिनिवसतृणक હવે સૂત્રકાર આ વ્રતની પાંચ ભાવનાઓ પ્રગટ કરવાના ઉદ્દેશથી સૌથી पडेसां तेनी प्रथम लावना विषे उडे छे-" पढमं " इत्याह- For Private And Personal Use Only टीडार्थ - "पढमं" या व्रतनी पडेली लावनानुं नाम निस्पृहता छे, ते लावना मा प्रभानु छे–“सोइंदिएण " श्रोत्रेन्द्रियथी, "मणुण्ण महगाई ” भनोज्ञ होवाथी भधुर लागे छे" सदाइ " शो " सोच्चा " सांलजीने तेमां भासात थर्पु જોઈ એ નહી એ સાધુનું કર્તવ્ય છે, તેમાં રાગભાવ ન રાખે, તેમનામાં તેણે બુદ્ધિભાવ કરવા જોઇએ નહી', માહિત થવું જોઇએ નહી. એ જ વિષયને सूत्रार नियेनी सीटीओ द्वारा स्पष्ट उरे छे - " किं ते " ते शब्दों या या हुया छे, थे अारनी श इरनार ते हे छे सालो ते या प्रमाणे छे- "वर - मुख्य-मुग-पाणत्र दरकच्छभी वीण - विपंचिबद्धीसक-सुघोस--दिसूसर Page #941 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८९२ प्रश्नव्याकरणसूत्रे गीयवाइयाइं ' वरमुरजमृदङ्गपणवदर्दुरकच्छपी वीणाविपञ्चीवल्लकी बद्धीशकसुघोषनन्दोमुस्वरपरिवादीनीवंशतूणकपर्वजतन्त्रीतलतालत्रुटितनिघोषगीतवादितानि , तत्र-वरमुरजाः श्रेष्ठमृदङ्गाः, मृदङ्गाः-प्रसिद्धाः, पणवा: लघुपटहाः, ददुराः चर्मावनद्धमुखाः कलशाः कच्छपी-कच्छपाकारी वाद्यविशेषः, वीणाविपश्चीवल्लक्य ए. तास्तिस्रो वीणाभेदाः, बद्धीशकं वायविशेषः, सुघोषा घण्टाविशेषः, नन्दिा द्वादशतूर्यसमुदायः, द्वादशविधतूर्यागि यथा "भंभा १ मुकुंद २ मद्दल ३ कडंब ४ झल्लरि ५ हुडुक ६ कंसाला ७ । कलह ८ तलिमा ९ वसो १० संखो ११ पणवो १२यवारसमो ॥११॥” इति । सुस्वरपरिवादिनी-वीणाविशेषः, वंशः वेणुः, तूणको वोद्यविशेषः, पर्वजोवंशपर्वनिर्मितो वाद्यविशेषः, तन्त्री-वीणाविशेषः, तालहस्ताः, ताला:-कांसिकाः, पव्वयततीतल-ताल-तुडिय निग्योसगीयवाइयाई) वरमुर जउत्तम एक जात का मृदंग, मृदंग-सामान्य मृदंग, पणव-छोटाढोल, दर्दुर चमडे से मडे हुए मुखवाले कलश, कच्छपी-कच्छपाकार वाद्यविशेष, वीणा, विपश्वी, वल्लकी-ये तीनों वीणा के ही भेद हैं, बद्धीशक-वाद्यविशेष, सुघोषा-एक प्रकार का वाद्यविशेष घंट, नन्दि-बारह प्रकार के बोजों का समूह वे इस प्रकार है-भंभा १, मुकुंद २, मईल ३, कडंब ४; झालर ५, हुडक ६, कंसाल ७, कलह ८, तलिमा ९, वस १०, शंख ११, पणव १२, सुस्वरपरिवादिनि एक विशेष प्रकार की बीणा वंश-बांसुरी, तृणक-एक प्रकार का वाद्यविशेष जिसे हिन्दी भाषा में रमतूला कहते हैं, पर्वज-वंश के पर्यों से निर्मित किया हुआ एक प्रकार का विशेष वाद्य, तन्त्री-वीणा विशेष-जिसे हिन्दिी में सारंगी कहते हैं, तल-परिवादिाण-वंसतूणक-पव्यय-तंतीतलताल-तुडिय-निग्घोस गोय वाइयोइ” १२ भु२०४- तनी उत्तम भृग, भू-सामान्य भृह, ५-नाना दास, દ૬-ચામડાથી મઢેલ મુખવાળે કળશ, કચ્છપી-કાચબાના આકારનું એક વાજિંત્ર, વણ, વિપંચી, વલ્લક-એ ત્રણે વીણાના પ્રકાર છે, બદ્ધશક-એક પ્રકારનું વાદ્ય, સુષા-એક પ્રકારને ખાસ ઘંટ, નન્ટિ-બાર પ્રકારના વાજિ. त्रानो समूड ते मा प्रमाणे छ-(१) मा (२) मु४, (3) Ha, (४) ४, (५) आ१२, (१) ४४, (७) ४साद, (८) ४, (८) तामा, (१०) १स. (११) शम, सने (१२) ५५१. सुस्१२ परिवाहिनी-मारनी વીણા, વંશ-બંસરી, તુણક-એક પ્રકારનું ખાસ વાદ્ય જેને હિંદી ભાષામાં રમતુલા કહે છે, પર્વજ-વાંસમાંથી બનાવેલ એક પ્રકારનું ખાસ વાદ્ય, તત્રીसारी, तह-७.५, तास-भ७२, Aथ तसतात-डायाथी ५ती asl, For Private And Personal Use Only Page #942 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ०५ सू०७ निस्पृहता' नामकप्रथमभावनानिरूपणम् ८५३ अथवा-तलतालाः हस्ततालाः, त्रुटितवाद्यविशेषः, एषां यो निर्घोषो निनादः, तथा-गीत-गानम् , वादितं-सामान्यवाद्यम् , एषां द्वन्द्वः, तानि तथोक्तानि, तथा ‘णडणदृगजल्लमल्लमुढिगवेलंबग-कहगपबगलासग-आइक्खगलंखमंख तूणइल्लतुंबवीणियतालायरपकरणाणि य' नटनर्तकजल्लमल्लमौष्टिकविडम्बक-कथक लवकलासकाख्यायकलङ्घमणिकतुम्बवीणिक तालाचरप्रकरणानि च, नत्र-नटाः नाटयकारिणः, नर्तकाः नृत्यकारिणः, जल्ला=चर्मरज्जूमवलम्ब्य क्रीडाकारकाः, मल्ला=मल्लयुद्धकोरिणः, मौष्टिका मुष्टियुद्धकारकाः, विडम्बका विदूषकाः, कथकाः= कत्थक' इतिप्रसिद्धा गान्धर्वविद्याविशारदाः, प्लवका कूर्दनकारिणः, लासका 'लास्य' इति नाटक विशेषकारिणः, अख्यायकाःकथाकारकाः, लङ्काः महावंशाग्रभागमधिरुह्य क्रीडाकारिणः, मङ्खा-चित्रफलकहस्ताः क्रीडकाः, हाथ, ताल-कसिका-झांजे, अथवा तलताल-हाथों की ताल, त्रुटितवाद्यविशेष, ईन सब के निर्घोषों-शब्दों को तथा गीतों को एवं सामान्य वाजों की आवाजों को तथा ( नड़-नगजल्लमल्ल-मुहिग-वेलंबगकहगपवगलासग-आइक्खग-लंखमंखतूणइल्ल तुंबवीणियतालायर पकरणाणि ) नट-नाटक करने वाले नटों के, नर्तकों-नृत्य करने वालों के, जल्ल चर्म रज्जू का अवलम्बन कर के क्रीडा करने वालों के, मल्लमल्ल युद्ध करने वालों के, मौष्टिक-मुष्टि से युद्ध करने वालों के, विड़म्षक-विदूषकों के, कथन-गांधर्वविद्या :विशारदों के, प्लवक-उछलकूद करने वाले मनुष्यों के, लासक-लास्य नामकनाटक विशेष को करने वालों के, आख्यायक-कथा कहने वालों के, लड-बड़े २ वंश के अग्रभाग पर चढ़कर विविध प्रकार के खेल करने वालों के, मंख चित्र फलकों को हाथ में लेकर खेल तमासा करने वालों के तूणिक-तूण ત્રુટિત-એક જાતનું વાઘ, એ બધાના અવાજને તથા તેને તથા સામાન્ય पारिजाना माने तथा " नडनहगजल्लमल्लमुद्विगवेल बगकहगपवगलासग आइक्खग-लंखमंखतूण-इल्लतुंचवीणिय-तालायरपकरणाणि " नट-!es 3 २नार નટના, નર્તક-નૃત્યકરનારના, જલ્લ–ચામડાની દોરી પર કીડા કરનારના, મલ્લમલ્લયુદ્ધ કરનારના, મૌષ્ટિક-મુષ્ટિયુદ્ધ કરનારના, વિડમ્બક-વિષકના, કથકગાંધર્વવિદ્યા વિશારદન, વક-કૂદકા ભરનાર માણસોનાં, લસક-લાસ્યનામના એક ખાસ પ્રકારનાં નાટક કરનારના, આખ્યાયક કથા કરનારના, લંખ ઉંચા ઉંચા વાંસની ટોચે ચડીને વિવિધ પ્રકારના ખેલ કરનારના, મંખ-ચિત્રનાં કુલકે હાથમાં લઈને બેલ તમાસા કરનારના, તૂણિક-તૂનામનું વાજિંત્ર વગા For Private And Personal Use Only Page #943 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे तूणिका: तूगाभिधानवाद्यविशेषवादकाः, तुम्बधीणिका:-तुम्बवीणावादकाः, तालाचरा ताल-हस्ताधातरूपमाचरन्ति ये ते तथोक्ताः-तालवादिन इत्यर्थः, एपां द्वन्द्वः, तेषां यानि प्रकरणानिप्रकर्षेण करणानि तानि तथोक्तानि, कानि तानी ? त्याह--- बहूणि ' बहूनि-अनेकप्रकाराणि, ' महुरसरगीयमुस्सराणि' मधुरस्त्रराणि-मधुरस्वराणां गायकानां गीतानि-गानानि च तानि सुस्वराणि । तथा' कंचीमेहलाकलावगपतरकपयरेकपायजालकघंटियलिखिणिरयणोरुजालयछुद्दिय नेउयचलणमालियकणगनिगडजालाभूसणसवाणि' काची मेखलाकलापकपतरकप्रतरेकपादजालक घष्टिकाकिङ्किणी-रत्नोरु-जालक-क्षुद्रिका-नूपुर-चरणमालिका कनकनिगड-जालकभूषणशब्दान् । तत्र-काञ्ची=फटिभूषणम् , मेखलोऽपि कटिभूषणभेदः, कलापको ग्रोवाऽभरणम् , प्रतरकाणि प्रतरेकाच आभरणविशेषाः, पादजालक-चरणाभरणम् , घण्टिका - प्रसिद्धा, किङ्किण्यः = क्षुद्रघण्टिकाः, रत्नोरु. जालकम् रत्ननिर्मित जडाभरणम् , क्षुद्रिका आभरणविशेषाः, नूपुरंपादभूषणम् , चरणमालिकाः पादाभरगविशेषाः, कनकनिगडास्वर्णभूषणविशेषाः, जालकं चाप्यानामक वाद्यविशेष को बजाने वालों के, तुम्बवीणिक-तुम्बवीणा को बजाने वालों के, तालाचर-ताली बजाने वालों के द्वारा अच्छी तरह से किये गये (बहणि ) अनेक प्रकार के (महरसरगीयसुस्सराई) मधुर स्वरभित गीता स्वरों को, तथा- (कंची मेहलाकलावग-पतर-कपय-रेक-पाय-जालक-घंटिय-खिखिणि - रयणोरुजालयछुद्दिय-नेउयचलणमालियकणगानगड-जालक-भूसणसहाणि ) कांची-कटिभूषण, मेखला, कलापक-ग्रीवाभरण-प्रतरक, प्रतेरक ये दोनों एक प्रकार के आभरण विशेष होते हैं, पाइजालक-चरणा. भरण, घण्टिका, किङ्किणी-छोटी २ घंटिकाएँ, रत्नोरुजालक-रत्ननिर्मित जंघाभरण, क्षुद्रिका-भाभरणविशेष, नूपुर-पादभूषण-विछिया, चरणमालिका-पादाभरणविशेष,कनकनिगड-स्वर्गनिर्मितभूषणविशेप, और उना२ ॥२॥ सारी ते ४२१मा यापेर “ बहूणि " मने ॥२॥ " महुर सरगीयसुस्सराई, मधु२ २१२युत vilत३५ २१२शने तथा " कंची मेहलाक लावग-पतरक-पयरेक--पायजालक--धंटिय--खिखिणिरयणोरुजालय-छुहियने उयचलण-मालिय-कणग-निगड-जालक-भूसणसहाणि” यी-टिभूषा, भेनसाસેર, કલાપક-ડેકનું ઘરેણું-પ્રતિરક, પ્રતિરક એ બંને એક પ્રકાનાં ખાસ આભૂપણ છે, પાદજાલક-પગનું આભૂષણ, ઘટિકા,-ઘૂઘરી, કિંકિણી-નાની નાની ઘૂઘરીઓ, નપુર-ઝાંઝર, વિછિયા, ચરણમાલિકા, એ બધા આભૂષણોનાં અવાજને For Private And Personal Use Only Page #944 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra सुदर्शिनी टीका अ०५ सू०9 निस्पृहता 'नामकप्रथम भावना निरूपणम् ८९५ 1 9 भूषण विशेषः, एषामितरेतयोगद्वन्द्वः, एतान्येव भूषणानि तेषां शब्दास्ताँस्तथोक्तान, तथा - लीलचकम्ममाणुदीरियाई' लीलाचङ्क्रम्यमाणोदीरितान् = लीलया चङ्क्रम्यमाणानां सलीलं गच्छन्तीनाम् उदीरितान=भूषणजनितान् शब्दान्, तथा - 'तरुणीजणहसियमणियकल रिभियमंजुलाई' तरुणीजनहसितभणितकलरिभितमञ्जुलानि - तरुणीजनस्य यानि हसितानि भणितानि कलरिभितानि= मधुररणनानि = मज्जुलानि-मनोहराणि च तानि तथोक्तानि तथा--' गुणवयणणि य ' गुणवचनानि च = कामगुणवर्द्धकवचनानि च ' वहणि बहूनि अनेकविधानि तथा 'महूरजणभासियाई' मधुरजनभाषितानि मधुराणि यानि जनभाषितानि -तालस्वरत्युक्तानि गायकजनगानानि तानि श्रुत्वा, ' समणेण श्रमणेन - साधुना तेसु ' तेषु मणुष्णभदrसु ' मनोज्ञभद्रकेषु ' सद्देसु ' य' अन्येषु च एव माइएस' एवमादिकेषु शब्देषु न ' सज्जियन्त्रं ' न सक्तव्यम् - आसक्तिर्न कर्तव्येत्यर्थः तथा-'न रज्जियध्वं न रक्तव्यं - रागो न कर्तव्यः, 'न गिज्झियच्वं न गर्धितव्यम् = गृद्धिभावो न कर्तव्यः तथा-' न मुज्झि ' शब्देषु तथा 'अण्णेसु 6 1 www.kobatirth.org 66 46 " તાલ સ્વરયુક્ત ગીતાને સાંભળીને સાધુએ અને મધુર પ્રકારનાં બીજા શબ્દોમાં પણ सद्दसु ” શબ્દોમાં તથા जालक - एक प्रकार का आभूषण विशेष, इन सब शब्दों को तथा ( लीलच कम्ममाणु दीरियाई ) लीलासहित जाती हुई स्त्रीयों के भूषण के शब्दों को, तथा (तरुणीजणहसिय भणियकलरिभियमंजुलाई ) तरुणियों के हसित, भणित, कलरिभिक और मनोहर, ऐसे (बहूणि गुवयणाणि ) अनेक प्रकार के कामगुणवर्धक वचनों को तथा ( महुरजण भासियाई तालस्वरयुक्त गायकजनों के गानों को सुनकर के साधुको (तेसुमगुण) उन मनोज्ञ एवं मधुर (सदेसु ) शब्दो में तथा ( अण्णेय एवमाहए ) इसी प्रकार के और भी दूसरे शब्दों में (न सज्जियन्त्र) आसक्ति नहीं करना चाहिये, (न रज्जियव्वं ) राग नहीं करना चाहिये. (न गिज्जियां ) गृद्धिभाव नहीं करना चाहिये, अर्थात् न रजिय તથા लीलकम्ममाणुदीरियाई " सीतासहित ती स्त्रीयानां आभूषणोनां भवाने तथा "तरुणीजण - हसिय-मणिय-कलरिभिय- मंजुलाई " तरुणीगोनां डुसित, ललित, उसरिमित भने मनोहर, मेवां " बहूणि गुणवयणाणि અનેક પ્રકારના કામ વર્ધક શબ્દોને તથા महुरजणभासियाई " गायमेनां ” તે માન " सेवा << (C " (4 , Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 66 ? तेसु मणुण्णमएस For Private And Personal Use Only अण्णेसु य एवमाइएस 44 " मासहित रखी ले मे नहीं. न सज्जियन्त्र રાગ કરવા જોઇએ નહીં, न गिझियन्त्र " गृद्धिभाव न "" " "" Page #945 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८९६ प्रश्नव्याकरणसूत्रे " यन मोहितव्यम् - तत्र मोहो न कर्तव्य इत्यर्थः तथा - 'विणिधाय' विनिघातः =तदर्थं चारित्रभ्रंशः, आवज्जियध्वं ' आपत्तव्यः = कर्तव्यइत्यर्थः, तथा - 'न लुभिrot' न लब्धव्यम् = लोभो न कर्तव्य इत्यर्थः ' न तुसियच्वं 'न तोष्टव्यम्मनोज्ञशब्दादिषु प्रसन्नमनसा न भाव्यमित्यर्थः, तथा - ' न हसियव्वं 'न हसि - तव्यम् = विस्मयेन हासो न कर्तव्यः, तथा - श्रमणः 'तस्थ' तत्र - मनोज्ञभद्रकशब्द विषये 'सई' स्मृर्ति - स्मरणं च ' मई ' मर्ति बुद्धिनिवेशं च 'न कुज्जा' न कुर्यात् । पुणरवि य' पुनरपि चामनोज्ञादि शब्दविषये मोच्यते ' सोइंदिएण ' श्रोत्रेन्द्रियेण 'सोचा ' श्रुत्वा 'सद्दाई' शब्दान् कीदृशान् ? ' अमणुष्णपावगाई ' अमनोज्ञपापक न्=अमनोज्ञा:= अमनोहरा अतएव पापकाः =अशुभास्तान् ' किं ते ' ललचाना नहीं चाहिये, ( न मुज्झियव्वं ) उनमे मोह नहीं करना चाहिये, (न विणिधाय आवज्जियव्वं ) उनके निमित्त अपने चारित्र को भ्रष्ट नहीं करना चाहिये, ( न लुभियव्वं ) उनमें लुभाना नहीं चाहिये, ( न तुसियव्वं ) उनसे प्रसन्नमन नहीं बनाना चाहिये, (न हसिraj ) हंसना नहीं चाहिये; और ( न सई च तत्थकुज्जा ) न उन मनोज्ञशब्दादिकों की याद करना चाहिये और न उनमें अपनी बुद्धि को ही लगाना चाहिये । इसी प्रकार ( पुणरवि य) फिर ( सोइदिएण ) श्रोत्र इन्द्रिय से ( अमणुण्णपावगाई ) अमनोज्ञ अतएव अरुचि कारक अशुभ (साई) शब्दों को ( सोच्चा) सुनकर साधु का कर्तव्य है कि वह उन पर द्वेष भी न करे - नाक मुँह न सिकोडे, इसी विषय को अब सूत्रकार इन पंक्तियों द्वारा स्पष्ट करते हैं - वे कौन से हैं इस शंका के समाधान ४२वो लेड मे मेटले हे सतावु लेह मे नहीं. "न मुझिय તેમનામાં मोह रखे। लेहो नहीं. "न विणिधायं आवज्जियन्त्र" तेमना निमित्ते पोताना चारित्रने भ्रष्ट वु लेई से नहीं, "न लुभियव्व" तेमां ससथातुं लेई रखे नहीं. न तुसियन्त्र " तेमां भनने प्रसन्न राम हो नहीं. "न हसि - यव्व' ” इसवु लेखे नहीं, भने “न सई च मई ज तत्थ कुज्जा મનાજ્ઞ શબ્દાદિકોને યાદ કરવા જોઈએ નહીં. અને તેમાં પેાતાના મનને थेयावा हेवु नहीं'. ४ प्रमाणे 'पुणरवि य" वजी " सोइदिएण " श्रोत्रे. " "" " 22 ते न्द्रियथी " अमणुण्णपावगोई ” અમનેાના અને તે કારણે અરુચિકારક અશુભ 66 सहाई ” शाम्होने “ सोच्चा " सांलजीने तेना प्रत्ये द्वेष यायु न श्वा જોઈએ તે સાધુનું કર્તવ્ય છે-તેના તરફનાં તિરસ્કારથી નાક કે માતુ સ ંકેાચવું બગાડવું જોઈ એ નહી, એ જ વિષયને સૂત્રકાર આ પંક્તિઓ દ્વારા સ્પષ્ટ કરે છેતે કયા કયા પ્રકારના છે તે શકાના નિવારણના માટે તેઓ તે અમ For Private And Personal Use Only Page #946 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ०४ सू०७ 'परिग्रहविरमण'नामकप्रथमभावनानिरूपणम् ८९७ काँस्तान् कथम्भूताँस्तान् शब्दान् इत्याह- ' अकोसफरुसखिसणअत्रमाणणतज्जणनिमंछणंदित्तवयणतासणउक्कूजियरुण्णरडियकंदियणिग्धुट्ठरसियकलुणविलवियाई ' आक्रोशपरुपखिसनावमाननतर्जननिर्भर्त्सनदीप्तवचनत्रासनोत्कूजितरुदितरटितक्रन्दितनिर्युष्टरसितकरुणविलपितानि-तत्र-आक्रोशः = ' रे दुष्ट ! म्रियस्वे ' त्यादिवचनम् , परुष-रे मूर्ख ! रे चौर! इत्यादि, खिंसनम्-निन्दावचनं 'कुशीलोऽसि, निर्लज्जोऽसी' त्यादिरूपम् , अवमाननम् अपमानजनकवचनं, त्वङ्कारादिरूपम् , तर्जनम्-'ज्ञास्यसि रे दुष्ट ! ममावज्ञायाः फलम् ' इत्यादिरूपम्निर्भत्सनम् असर रे निर्दय ? मम दृष्टिपथादित्यादिरूपम् , दीप्तवचनम् कुपितवचनम्-त्रासनम् अन्धकारादौ फेत्कारादिरूपः शृगालादिशब्दः, उत्कूजितम्निमित्त वे उन अमनोज्ञ पापक शब्दों को कहते है-(अकोसफरस-खिसण-अवमाणण- तज्जण-निन्भच्छण-दित्तवयण-तासणउक्कूजिय-रुण्ण-रडिय-कंदिय--णिग्घुट्ठ-रसिय-कलुण-विलवियाई) 'रे दुष्ट ! मर जा' इत्यादि प्रकार के जो शब्द होते हैं-वे आक्रोश शब्द हैं, कठोर शब्दों का नाम परुष है-जैसे-'ओ मूर्ख ! अरे ओ चौर !' आदि । निंदात्मक शब्दों का नाम खिसन है, जैसे-'तु बडे खोटे स्वभाव का है, तू बड़ा बे शरम है ' इत्यादि । 'तू' आदि शब्द अपमान जनक शब्द हैं। जिन शब्दों से दूसरों को डाटना होता है वे तर्जना शब्द है, जैसे-'ओ दुष्ट ! अवज्ञा करने का फल मैं तुझे बताऊँगा। तथा 'ओ निर्दय । मेरे सामने से हट जा' इत्यादि प्रकार के वाक्य निर्भत्सन वाक्य कहलाते हैं । कुपित वचनों का नाम दीप्तवचन है । अंधकार आदि में फुत्कार आदि रूप शब्दों का नाश पा५४ शहीने मतावे छे.." अक्कोस-फरुस-खिसण-अवमाणण-तज्जणनिब्भच्छण-दित्तवयण-तासण-उक्कृजिय-रुण-रडिय-कंदिय-णिग्धु-रसिय-कलण -बिलवियाई" "! भरी" त्यात प्रा२न शहाने माोश शर्ट કહે છે, કઠોર શબ્દોને પરુષ શબ્દો કહે છે, જેવાં કે “એ મૂર્ખ ! અરે એ या " 26 ५२५ Ava! . " तुं ! २५ स्वभावाणी छ, तु घ! मेशरम छ" मा निहाम होने मिसन ४९ छे. “तु, माहि २५५માનજનક શબ્દો છે. જે શબ્દો દ્વારા બીજાને ધમકી અપાય છે તે શબ્દોને તર્જના શબ્દ કહે છે, જેવાં કે “રે દુષ્ટ મારી અવજ્ઞા કરવાનું ફળ હું તને ચખાડીશ”. તથા “અરે નિર્દય! મારી નજરથી દૂર થા” ઈત્યાદિ પ્રકારનાં વાક્યને નિર્ભત્સના વાક્ય કહે છે. કોંધયુક્ત વચને તપ્ત વચન કહે છે. प्र ११३ For Private And Personal Use Only Page #947 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८९८ प्रश्नव्याकरणसूत्रे , 6 अव्यक्त महाध्वनिकरणम्, रुदितम् = साश्रुरोदनम्, रटितं = कलहा यितं -कलद्दवाक्यमित्यर्थः क्रन्दितम् = इष्टत्रियोगादौ क्रन्दम्, निर्घुष्टम् = उच्चैर्नादकरणम्, रसितम् -शूकरादिवत् शब्दकरणम् करुण चिलपितम् = पुत्रादिमृत्यौ सकरुणविलापकरणम्, एतेषामितरेतरयोगद्वन्द्वः, तानि श्रुत्वा श्रमणेन तेसु' तेषु 'अमणुण्णपावरसु ' अमनोज्ञपाप के पु=अमनोज्ञाशुभेषु, 'सदेसु' शब्देषु तथा-'अण्णेसु य एवमाइएस' अन्येषु च एवमादिकेषु समुपस्थितेषु शब्देषु 'न रुसियच्वं 'न रोपितव्यम् - रोषो न कर्तव्यः, ' न हीलियन्वं ' न हीलितव्यम् = अवज्ञा न कर्तव्येत्यर्थः, 'न निंदियच्वं ' न निन्दितव्यम् = निन्दा न कर्त्तव्या, 'न खिसियव्वं न खिसितव्यम् = , नाम त्रासन है । जिस प्रकार श्रृंगाल आदि के शब्द होते है | अस्पष्ट जोर २ से बोलने का नाम उत्क्रूजित है। आंसू निकाल २ कर रोने का नाम रुदित है । कलहवर्धक वाक्यों का नाम रटित है । इष्ट के वियोग आदि होने पर जो कदन करते समय वचन निकलते हैं वे कंदित वचन हैं। ऊँचे स्वर से जो बोलने में आते हैं वे निर्घुष्ट शब्द हैं। सूअर आदि के जैसे शब्दों का बोलना इसका नाम रसित है । पुत्र आदि के मर जाने पर जो करुण विलाप किया जाता है । और उस समय जो शब्द मुँह से निकलते हैं वे करुण विलपित हैं । ऐसे शब्दों में तथा ( अण्णेसु य एवमाइएस सदेसु) इसी प्रकार के और भी शब्द जो ( अमणुण्णपाचएस) अमनोज्ञ अशुभ हों उन शब्दों में ( समणेण ) श्रमण का कर्तव्य है कि वह उनमें ( न रुसियन्वं ) रोष न करे । અંધકાર આદિમાં ફુત્કાર આદ્વિરૂપ શબ્દોનું નામ ત્રાસન છે, શિયાળ આદિના અવાજ તે પ્રકારને હાય છે. જોર જોરથી અસ્પષ્ટ ખેલવું તેને ઉત્કૃતિ શબ્દો કહે છે. આંસુ પાડી પાડીને રડવાના અવાજને રુદિત શબ્દ કહે છે. કલહવર્ધક વાકયાને રિટત વાકય કહે છે. ઈંટના વિયાગ આદિ થતાં રુદનની સાથે જે વચન નીકળે છે તેને ક્રતિવચન કહે છે. ઊ'ચા આવાજથી ખેલતા વચનને નિવ્રુષ્ટ શબ્દ કહે છે. સૂઅર આદિ જેવાં શબ્દો ખેલવા તે રસિત શબ્દ કહેવાય છે. પુત્ર આદિનું મત્યુ થતાં જે કરુણુ વિલાપ કરાય છે. અને ત્યારે જે શબ્દો મેઢામાંથી નીકળે છે તે કરુણ વિલપિત કહેવાય છે. એવાં શબ્દો प्रत्ये तथा " अण्णेसुय एवमाइएस ससु ” એવા જ પ્રકારનાં ખીજા શબ્દો કે " अमणुण्णपावसु " अमनोज्ञ भने अशुल होय, ते शब्दोथी " न रुसियव्व " शेष न श्वो " समणेण " ते श्रभणुनुं उर्तव्य छे. व्वं " तेभनी अवज्ञा रवी नहीं, " " न निंदियव्व " निहा न For Private And Personal Use Only हीलिय रखी, (6 न Page #948 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका ०५ ०७ 'परिग्रहविरमण' नामक प्रथम भावनानिरूपणम् ८९९ 1 } " परसमक्षं च निन्दा न कर्तव्या, ' न छिंदियव्वं ' न छेत्तव्यम् =अमनोज्ञ शब्दकद्रव्यस्य छेदो न कार्यः, तथा-' न भिदियव्वं न भेतव्यम् तस्यैव न भेदः कर्त्तव्यः, ' न वहेयव्वं ' न हन्तव्यम् = तस्यानिष्ट शब्दकर्तुर्वधो न कर्तव्यः, तथा'दुर्गुछावत्तियावि' जुगुप्सावृत्तिकाऽपि शब्दविषये स्वस्य परस्य वा घृणावृत्तिरपि, 'उप्पाएउं' उत्पादयितुं ' न लब्भा' न लभ्या - नोचिता, यथा-स्वस्य परस्य वाहृदि शब्दविषया जुगुप्सा प्रादुर्भवेन्न तथा कर्तव्यमिति भावः । अथ प्रथमभावनानिगमनार्थमाह – एवम् उक्तरीत्या 'सोईदियभावणाभाविओ' श्रोत्रेन्द्रियभावनाभावितः श्रोत्रेन्द्रियं निरोद्धव्यम्, अन्यथा - महदनर्थसंभवः इत्येवं रूपया भावनया भाक्तिः, ' अंतरप्पा ' अन्तरात्मा - जीवो ' भवइ' भवति, ततश्च 'मणुणामण्ण सुब्भिदुब्भिरागदोसे ' मनोज्ञामनोज्ञसुरभिदुरभिरागद्वेषो मनोज्ञामनोज्ञा ( न हीलियव्वं ) उनकी अवज्ञा न करे, ( न निंदिपव्वं ) निंदा न करे ( न खिसि ) उन पर खिसियावे नहीं - दूसरों के समक्ष उनकी निंदा न करे ( न छिंदियव्वं ) जो अमनोज्ञ शब्दों करने वाला विणादि द्रव्य है उसका वह न छेदन करे और ( न भिदियव्वं ) न भेदन करे ( न वयववं ) अनिष्ट शब्द करने वाले मनुष्य आदि का वध न करे । और ( न दुर्गुछा वतिया विलभा उप्पाए उं) न उन अनिष्ट शब्दों के विषय में अपने एवं पर के घृणावृत्ति उत्पन्न करने की कोशिश ही करे । अब सूत्रकार इस प्रथम भावना का उपसंहार करने के लिये कहते हैं - ( एवं ) इस प्रकार ( सोइंदिय भावणाभाविओ ) श्रोत्रेन्द्रिय की भावना से भावित हुआ 'मुझे श्रोत्रेन्द्रिय का निरोध करना चाहिये नहीं तो बड़ा भारी अनर्थ होगा ' इस प्रकार की विचा रधारा से वासित हुआ (अंतरप्पा ) अन्तरात्मा मुनि ( मणुण्णामनुण्णसुन्दुभि रामदोसे पणिहियप्पा ) मनोज्ञ रूप शुभ और अमनोज्ञ 1 खिंसियव्वं " तेना पर मिसियामे नहीं-मील पासे तेनी निहा उरवी लेखे नहीं, “न छिद्रियब्वं " अमनोज्ञ भवान डरनार वीणादि ने वस्तु होय तेनुं तेन न उरे, “ न सिंदियवं " तेनुं लेहन न पुरे "न वहेयव्वं " अनिष्ट शब्द १२नार भनुष्य महिना ते वध न उरे, भने “ न दुगुंछावत्तिया बि लब्भा उप्पाएउ” ते अनिष्ट शब्द अत्ये पोते तृष्णा न पुरे ने जीओमां तुष्या. વૃત્તિ પેદા કરવાની કોશિશ ન કરે. હવે સૂત્રકાર આ પહેલી ભાવનાના ઉપसहारा छे" एवं या रीते " सोईंदियभावणाभाविओ " श्रोत्रेન્દ્રિયની ભાવનાથી ભાવિત થયેલ “ મારે શ્રોતેન્દ્રિય પર અકૂશ રાખવા જોઇએ નહી' તે! ઘણા ભારે અન થશે ” એ પ્રકારની વિચારધારાથી પ્રભાવિત थयेव “ अंतरप्पा ” अन्तरात्मा - सुनि “ मणुष्णा मणुष्णसुमिदुब्भिरागदोसे पणिहि "" For Private And Personal Use Only Page #949 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ९०० प्रश्नव्याकरणसूत्र ये सुरभिदुरभयः शुभा शुभाः शब्दास्तेषु यद्रागद्वेषं तत्र, 'पणिहियप्पा' प्रणिहितात्मा संवृतात्मा 'साहू ' साधुः ‘मणक्यणकागगुत्ते' मनोवचनकायगुप्तः, 'संवुडे' संवृतः-संवरवान् ' पणिहिइंदिए ' प्रणिहितेन्द्रियः-प्रणिहिता-वशीकृतः इन्द्रियो येन तथाभूतः सन् 'धम्म' धर्म 'चरेज्ज ' चरेत् ॥ मू० ७ ।। द्वितीयां भावनामाह-बीयं" इत्यादि मूलम्-वीयं चक्खु इंदिएण पासिय रूवाणि मणुण्णभद्दगाइं सचित्ताचित्तमीसगाई कट्रे पोत्थे य चित्तकम्मे लेप्पकम्मे रूप अशुभ शब्दों में रागद्वेष करने को परिणति से रहित हो जाता है। इस प्रकार की स्थिति से संपन्न हुआ ( साहू ) साधु (मणवयहायगुत्ते) अपने मन, वचन और काय को शुभाशुभ के व्यापार से सुरक्षित कर लेता है । और ( संवुडे ) संवर से युक्त बनकर (पणिहिइंदिए ) अपनी श्रोत इन्द्रिय को वश में करके (धम्म ) चारित्ररूप धर्म को ( चरेन) पालन करने वाला बन जाता है। भावार्थ-इस सूत्र द्वारा सूत्रकार ने परिग्रह विरमणवत की प्रथम भावना का विवेचन किया है। इसमें उन्हों ने यह कहा है कि साधुको इष्ट श्रोत्रेन्द्रिय के विषय में ललचाना नहीं चाहिये और अनिष्ट विषय में द्वेष नहीं करना चाहिये ।इस प्रकार से इस भावना से भावितमुनि अपने व्रत की रक्षा और उसकी सुस्थिरता करता हुआ संवर से युक्त बन जाता है और चारित्ररूप धर्म की परिपालना अच्छी तरह से करसकता है।मू०७॥ यप्पा” भनाज्ञ३५ शुल भने अशुभ शम्मा पनी परिणतिथी २डित ५४ Mय छे. या प्रा२नी स्थितिथी युत मनेर " साहू" साधु "मणवयकायगुत्ते" પિતાના મન, વચન અને કાયને શુભાશુભ પ્રવૃત્તિથી સુરક્ષિત કરી નાખે છે. भने“ संबुडे '' १२थी युद्धत मनीने “ पणिहिइदिए” पोतानी श्रोत्रेन्द्रियने १० ४रीने “धम्म” यारित्र३५ यमन " चरेज " पालन ४२नार 25 नय छे. ભાવાર્થ–આ સૂત્રદ્વારા પરિગ્રહ વિરમણ વ્રતની પહેલી ભાવનાનું વિવેચન કર્યું છે તેમાં તેમણે એ બતાવ્યું છે કે સાધુએ શ્રોત્રેન્દ્રિયના ઈષ્ટ વિષયમાં લલચાવું જોઈએ નહીં અને અનિષ્ટ વિષય પ્રત્યે દ્વેષ કરવો જોઈએ નહીં આ રીતે આ ભાવનાથી ભાવિત થયેલ મુનિ પિતાના વતની રક્ષા તથા સુસ્થિ રતા કરતે કરતે સંવરથી યુક્ત થઈ જાય છે, અને ચારિત્રરૂપ ધર્મનું સારી शते पालन ४२. श छे ॥ सू०७ ॥ For Private And Personal Use Only Page #950 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीकाम०५ सू०८ चक्षुरिन्द्रियसंवर' नामक द्वितीयभावनानिरूपणम् ० सेले य दंतकम्मे य, पंचहिं वण्णेहिं अणेगसंठाणसंठियाई गंथिमवेढिमपूरिमसंघाइमणि य मलाई बहुविहाणि य नयणमणसुकराई वणसंडे पव्वए य गामागरनगराणि य खुड्डियपुक्खरिणी वावीदीहिय - गुंजालिय सरसरपंतिय सागरबिलपंतिय खाइय- नई - सर - तलाग - वष्पिणो फुल्लुप्पलपउमपरिमंडियाभिरामे, अणेगसउणगणमिहुणवियरिए, वरमंडवविविहभवण - तोरण - चेइय - देवकुल- सभप्पवावसह - सुकयसयणासण--सीयरह-सगडजाणजुग्गय-संदणे नरनारिंगणे य सोमपडिरूवदरिसणिज्जे, अलंकिय विभूसिय, पुव्वकय तवप्पभावसोहग्गसंपत्ते, नड - नट्टग - जल-मल - मुट्टिय-चेलंबगकहग-पवग-लासग - आइक्खग लेख मंख तूणइल तुंबवीणिय-तालायर पकरणाणि य बहूणि सुकरणाणि अण्णेसु य एवमाइएसु रूवेसु मणुन्नभद्दएसुन तेसु समणेण सज्जियव्वं, न रजियव्वं, जाव न सई च मई च तत्थ कुजा, पुणरवि -- खुइदिएणं पासिय रुवाई अमणुन्नपावगाई, किं ते ? गंडिकोढि - कुणि - उदरि--कच्छुल---पइल - कुज-- पंगुल -- वामण-अंधिलग - एगचक्खु विणिहय सप्पिसल्लगवाहिरोगपीलियं विगयाणि य मयककलेवराणि सकिमिणकुहियं च दव्वरासिं अन्नेसु य एवमाइएस अमणन्नपावगेसु न तेसु समणेण रूसियव्वं, जाव न दुर्गुछावत्तियावि लब्भा उप्पाएउं, एवं चक्खुइदियभावणाभाविओ भवइ अंतरप्पा मणुष्णामणुष्ण For Private And Personal Use Only Page #951 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir DEE ९०२ प्रश्नव्याकरणसूत्रे सुभिदुभिरागदोसे पणिहियप्पा साहमणवयणकायगुत्ते संवुडे पणिहिइंदिए चरेज्ज धम्मं ॥ सू० ८॥ टीका-'वीयं ' इत्यादि ‘बीयं ' द्वितीयां चक्षुरिन्द्रियसंवराभिधेयां भावनामाह- ' चक्खुईदिएण' चक्षुरिन्द्रियेण ' पासिय' दृष्टा स्वाणि' रूपाणि आकारान् कीदृशानि ? 'मणुण्णभदगाई' मनोज्ञभद्रकाणि-मनोज्ञानि-मनोहराणि च तानि भद्रकाणि= मुन्दराणि चेति कर्मधारयः, तथा-' सचित्ताचित्तमीसगाई' सचित्ताचित्तमिश्रकाणि, तत्र-सचित्तानि नरयुग्मादीनि, अचित्तानि-तत्प्रतिकृतिरूपाणि, मिश्रकाणि वस्त्राभरणभूषितानि तान्येव, काष्ठपाषाणादीनि वा दृष्ट्वा तेषु श्रमणेन न सक्तव्यमित्यायग्रेण सम्बन्धः । कस्मिन् स्थाने दृष्ट्वा इत्याह-'कडे' काष्ठे-काष्ठफलके ' पोत्थे य' पुस्ते च-पुस्तके च 'चित्तकम्मे ' चित्रकर्मणि लेप्पक इस व्रत की द्वितीय भावना को कहते हैं-' बीयं इत्यादि। टीकार्थ-(बीयं ) दूसरी चक्षुरिन्द्रिय संवर नाम की भावना है वह इस प्रकार से है-(चक्खुइदिएण) चक्षुइन्द्रिय से ( मणुण्णभदगाई) मनोज्ञ अतएव सुन्दर ऐसे ( ख्वाइं ) रूपों को कि जो ( सचित्ताचित्तमीसगाई) सचित्त, अचित्त और मिश्रद्रव्य से आश्रित हो उन्हें (पासिय) देख करके साधु को चाहिये कि वह उनमें आसक्तचित्त न बने, यह आगे से संबन्ध है । नर नारी आदि सचित्त द्रव्य हैं, इन के प्रतिकृतिफोटो अचित्तद्रव्य हैं । वस्त्र आभूषण आदि से विभूषित नर नारी आदि मिश्रद्रव्य हैं। इनके आश्रित जो मनोहर आकार होता है वह मनोज्ञ अद्रकरूप है । इन सब का आकार (कट्टे ) काष्ठ के वे सूत्रा२ प्रतनी जी लाना मताचे छ-" बीय" त्याहि टी -“ बीय" ite यक्षुरिन्द्रिय स१२ नामनी भावना छे. ते ॥ प्रमाणे छ-" चक्खुइदिएण" यक्षु धन्द्रियथी "मणुण्णभद्दगाई" भनास भने सु४२ मेवा " रूवाइ' " ३पौने २ " सचित्ताचित्तमीसगाई" सथित्त, मयित्त भने मिश्र द्रव्यने मश्रित खाय, तेभने “पासियं" ने तमा સાધુએ આસક્ત થવું જોઈએ નહીં. નર, નારી આદિ સચિત્ત દ્રવ્ય છે. તેમની પ્રતિકૃતિ-ફેટે અચિત્ત દ્રવ્ય છે. વસ્ત્ર, આભૂષણ આદિથી વિભૂષિત નર-નારી આદિ મિશ્ર દ્રવ્ય છે. તેમના પર આધાર રાખનાર જે મનેહર આકાર હોય છે તે મને ભદ્રકરૂપ છે. તે બધાને આકાર “ ” લાકડાના પાટીયા પર For Private And Personal Use Only Page #952 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुशिनीटीका अ० ५ सू० ८ 'चक्षुरिन्द्रियसवर'नामकद्वितीयनिरूपणम् ९०३ म्मे' लेप्यकर्मणि भित्यादौ, ' सेले य शैले-पाषाणे च ' दंतकम्मे ' दन्तकमणि हस्तिदन्तादिषु यन्नरयुगादीनामाकृतिरुट्टयते तद्दन्तकर्म तस्मिंश्च 'पंचहिं वण्णेहिं' पञ्चभिर्वर्णैर्युक्तानि, 'अणेगसंठागसंठियाई' अनेक संस्थानसंस्थितानि' अनेकानि=अनेकप्रकाराणि यानि संस्थानानि आकृतयस्तैः संस्थितानि-युक्तानि, तथा-'गंथिमवेढिमपूरिमसंघाइमाणि य' ग्रन्थिमवेष्टिमपूरिमसंघातिमानि चः, तत्र-ग्रन्थिम-ग्रन्थस्तेन निवृत्तं मालावत् , वेष्टिमम् वेष्टनेन निवृत्तम् पुष्पगेन्दुकवत् , पूरिम-पूरणेन निवृत्तं, यन्त्रे पित्तलादि रसपूरणेन निष्पादितं पुत्तलिकादिकम् , संघातिमम्-संघातेन निवृत्तम् , कपर्दिकादिसंघातेन निष्पादितं कुक्कुटापटियों पर उकेरा जाता है ( पोत्थे य ) पुस्तकों से छापा जाता है, (चित्तकम्मे य ) कागज आदि पर चित्रित किया जाता है मृत्तिका आदि में बनाया जाता है ( लेप्पकम्मे ) रँग आदि से भित्ति आदि पर लिखा जाता है ( सेले य) पाषण के ऊपर अंकित किया जाता है (दंतकम्मे य) हाथी दांत पर खोदा जाता है । इन सब पदार्थों के ऊपर उकेरे गये उन २ आकारों को (पंचहिं वण्णेहिं ) पाँच वर्णों से भरा जाकर बहुत हो सुन्दर रूप से आकर्षक बनाया जाता है । ( अणेगसंठाणसंठियाई ) भिन्न २ रूप में उन चित्रों को सजाया जाता है । इसी प्रकार (गंथिमवेढिमपूरिमसंघाइमाणि य ) माला की तरह गूंथ २ कर जो चित्र बनाये जाते हैं वे ग्रन्थिम, पुष्पगेंद की तरह जो वेष्टित करके चित्र बनाये जाते हैं वे वेष्टिम, किसी पदार्थ पर जो पुत्तलिकादि की तरह रंग से भरकर चित्र बन जाते हैं वे पूरिम, तथा कौडी आदि के परस्पर जोड़ने से कुक्कुट आदि के जैसा जो रूप बनाया जाता है वह संधातिम है। इन सब यितशय छ, “ पोत्थेय " पुस्तामा ७५ाय छे. चित्तकम्मेय" मा ५२ तिवामां आवे छे, माटी माहिया मनावाम मा छे, “ लेप्पकम्मे" २ माहिथा वा माहि५२ सासेपाय छ, “ सेलेय" ५५२ ५२ जोतराय छे, “दंतकम्मेय'' थीin ५२ अतरवामां आवे छे, ते सपा पहा ५२ माहित ४२० ते मारीने "पचहि वण्णेहिं " पाय २ ने मई सुंदर भने म मनापाय छे. “अणेगसंठाणसंठियाई ” भिन्न भिन्न रात तेना सन्तपट राय छे. मे ४ रीते "गंथिमबेढिमपूरिमसंघाइमाणि य" માળાની જેમ ગૂંથી ગૂંથીને જે ચિત્ર બનાવવામાં આવે છે તે ગ્રંથિમ, પુષ્પના દડાની જેમ જે ચિત્ર વેષ્ટિત કરીને બનાવાય છે વેષ્ટિમ, કઈ પદાર્થ પર પુતળી આદિની જેમ રંગથી ભરીને જે ચિત્ર બનાવાય છે તે પૂરિમ, તથા કડી આદિને એક બીજામાં પરોવીને કૂકડા આદિ જે જે આકાર બનાવાય છે તે For Private And Personal Use Only Page #953 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - १०४ प्रश्नव्याकरणसूत्रे दिस्वरूपम् , एषां द्वन्द्वः, तानि तथोक्तानि दृष्टा, तथा- बहुविधानि=अनेकम काराणि च पुनः ' अहियं ' अधिकम्-अत्यथै यथा स्यात्तथा 'नयणमण मुहकराई' नयनमनःसुखकराणि = नयनयोर्मनसश्च सुखकराणि-मुखोत्पादकानि 'मल्लाई' माल्यानि 'माला' इति भाषा प्रसिद्धानि तथा-' वणसंडे ' वनपण्डान्-एकजा. तीयानामनेकजातीयानां च वृक्षाणां समूहान् , ' पन्चए य' पर्वतांश्च ' गोमागरनगराणि य ' ग्रामाकरनगराणि च दृष्ट्वया, तथा-' खुदियपुरवरिणी-चावीदीहिय गुंजालिय-सरसरपंतिय-सागर-विलपंतिय-खाइय-नई-सर-तलाग-विपिणो' क्षुद्रिका पुष्करिणी वापी दीर्घिका गुञ्जालिका सरः सरः पङ्क्तिका सागर -विलपक्तिका-खातिका-नदी-सरस्तडागवान् , तत्र-क्षुद्रिका-लघुजलाशयविशेषः, पुष्करिणी-कमलवती बतुलाकारा वापी-चतुष्कोणा, दीपिका-लम्बाकारवापी, गुञ्जालिका-चक्राकारवापी, सरः सरः पक्तिका=येषां मध्ये एकस्मातड़ा. गादपरस्मिस्तडागे जलं समायाति, एतादृशजलाशयसमूहः सरसरः पडिक्तकेको निहार कर, (देखकर) तथा (बहुविहाणि) अनेक प्रकार की (मल्लाई) मालाओं को कि जो (अहियं नयणमणसुहकराई) अधिक से अधिक रूप में नेत्र एवं मन को आहादकारक होती हों देखकर (वगसंडे) एक जातीय और अनेक जातीय वृक्षों के समूहों को ( पचए य) पर्वतों को गामागरणगराणि ) ग्राम, आकर, नगरों को (सुद्दिय पुक्खरिणी-वावी -दीहिय-गुंजालिय-सरसर-पति य-सागर-बिलपंति य-खाइय-नईसर-तलाग-वप्पिणो) क्षुद्रिका-लघु-जलाशय, पुष्करिणी-कमलों से युक्त गोल आकारवाली वावड़ी, वापी-चार कोनों वाली वावडी, दीपिका -लम्बे आकार बाली बावडी, गुञालिका-चक्र आकारवाली बावडी, सरः सरः पंक्ति-एक तालाब से दूसरे तालावों में जल जाने वाले तालाब के समूह, सागर-समुद्र बिलपंक्ति-बिलोंके जैसे आकार वाले कूओं की, सातिम उपाय छे. ते मानेनने तथा “बहुविहाणि” भने ५४२नी "मल्लाइ” भाणारे “ अहियं नयणमणसुहकराई" म अने भनने वधारमा पधारे मानहाय डाय. छ, तभने ने “वणसंडे" मे तन मने तना वृक्षना सभूडान “पव्वएय" ताने, "गामागरणगराणि" आम, २४२, नगाराने "खुद्दिय-पुक्खरिणी-वाबी- दीहिय-गुंजालिय सरसर-पतिय-सागर-बिलपतिय-खाइय- नई -सर-तलाग-वप्पिणो" शुद्रिा -नान १७॥शय, ०४२-४भगोथी युत . કારની વાવ, વાપી-ચાર ખૂણાવાળી વાવ સરકસરપંક્તિ-એક તળાવમાંથી બીજા તળાવમાં પાણી જતું હોય તેવાં તળાને સમૂહ, સાગર, બિલપંક્તિ-દરના For Private And Personal Use Only Page #954 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ०५ सू०८'चक्षुरिन्द्रियसंवर'नामकद्वितीयभावनानिरूपणम् ९०५ त्युच्यते, सागरः समुद्रः, विलपतिकाः-बिलानीवबिलानि-कूपास्तेषां पत्रिका -कूपश्रेणिरित्यर्थः, खातिका परिवाः, नदी प्रसिद्धा, सरः-स्वाभाविकस्तडागः, तडागः कृत्रिमः सरोवरः, वप्राधान्यक्षेत्राणि, एषामित्तरेतरयोगद्वन्द्वः, ताँस्तथोक्तान् , दृष्ट्वा, कीदृशानेतान् ? इत्याह-'फुल्लुप्पलपउमपरिमंडियाभिरामे' फुल्लोस्पलपद्मपरिमण्डिताभिरामान् तत्र फुल्लानि-विकासितानि यानि उत्पलानि चन्द्र विकाशिकमलानि, पद्मानि-सूर्यविकासिकमलानि च तैः परितः समन्तामण्डिता अतएव-अभिरामा-मनोहरास्ताँस्तथोक्तान् , पुनः कथम्भूतान् ? ' अणेगसउणगणमिहुणविचरिए'.अनेकशकुनगणमिथुनविचरितान=अनेकानि-बहुविधानि यानि शकुनगणमिथुनानि-पक्षिगणयुगलानि, विचरितानि-संचरितानि यत्र तान् , फुल्लोत्पलादिपदानि क्षुद्रिकादिवपान्तविशेषणानि । तथा-' वरमंडव-विविह-भवणतोरण-चेय-देवकुल-सभप्पवा-वसह-सुकयसयणासण-सीयरह-सगड - जाणजुग्ग-संदणे' वरमण्डपविविधभवनतोरण चैत्य देवकुलसभाप्रपावसथसुकृतशयनासनशिविकारयशकटयानयुग्यस्यन्दनान , तत्र-वरमण्डपाः श्रेष्ठमण्डपाः, विविधभवनानि, तोरणानि प्रसिद्धानि, चैत्यानि-उद्यानानि, देवकुलानि प्रसिद्धानि, श्रेणि, खातिका-परिखाएं नदी-नदियां, सर-सामान्यतालाब तडागकृत्रिम सरोवर, वन-धान्य के खेत जो (फुल्लुप्पलपउमपरिमंडियाभिरामे ) विकाशित-उत्पलों से, चंद्रविकाशिकमलों से सब और मंडित हो रहे हों, और इसी कारण जिनसे मन में विशेष प्रफुल्लिता आती, हो, तथा जो (अणेगसउणगणमिहुणविचरिए) अनेक पक्षियों के युगल जहां विचरण कर रहे हों इन सब को देखकर साधु इनमें आसक्ति न करे । तथा ( वरमंडवविविहभवणतोरणचेइयदेवकुलसभप्पवावमहसुकयसयणासणसीयरहसगडजाणजुग्गसंदणे ) वरमंडप-श्रेष्ठमंडप, विविधभवन, तोरण, चैत्य-उद्यान, देवकुल, सभा, प्रपा-पानीयशाला, જેવા આકારના કૂવાઓની હાર, ખાતિકા-ફરતી આવેલી બાઈ એ, નદીઓ, स२-सामान्य ताव, ता-कृत्रिम सरी२, १५-धान्यना मत रे “फुल्लु पलपउमपरियमंडियाभिरामे" विसित पोथी--यद्रविधी भगाथी मधी તરફ ઘેરાયેલાં હોય, અને એ જ કારણે મનને વધારે પ્રકુલિત બનાવતાં डाय, तथा “ अणेगसउणगणमिहणविचरिए” मने पक्षीमान युगस यां વિચરતાં હોય, તે બધું જોઈને સાધુએ તથા આસક્તિ કરવી જોઈએ નહીં. તથા "वरम'डव-विविहभवण-तोरण-चेइय-देवकुल-सभप्प-वावसह-सयणासण-सीयरह सगडजाणजुग्गसंदणे" १२५ -श्रेष्टभ७५, विविधभवन, तो२५], येत्य,--Gधान, हेवा, सला, ५५.. ५२५, मापसथ-परिवानां स्थान, सारी ते सवप्र ११४ For Private And Personal Use Only Page #955 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ९०६ प्रश्नव्याकरणसूत्र सभा प्रसिद्धा, प्रपा-पानीयशाला,आवसथः परित्राजकवसतिः,सुकृतशयनासनानि =सुकृतानि-मुष्ठ कृतानि-विहितानि यानि शयनानि शय्याः, आसनानि=सिंहासनानि च तानि तथोक्तानि, शिविका- पालकी ' ति प्रसिद्धा, रथः प्रसिद्धः, शकटम् गाड़ा' इति भाषा मसिद्धम् , यानम्-गमनसाधनं स्थादिकम् , युग्यम् अश्वादिवाहनम् , स्यन्दनो-रथविशेषः, एषामितरेतरयोगद्वन्द्वः, तास्तथोक्तम् , तथा 'नरनारिगणेव' नरनारिंगणांश्च-स्त्रीपुरुषसमुदायांश्च, दृष्ट्वा, कथम्भूतानेतान् ? इत्याह- सोमपडिरू पदरिसमिज्जे' सोमप्रतिरूपदर्शनीयान्-सोम वत् सौम्यतया चन्द्रवत् प्रतिरूपाः=सुन्दराः, अतए-दर्शनीयाःद्रष्टुं योग्यस्तान् पुनः कथंभूतान् ? ' अलंकियविभूसिए ' अलङ्कृतविभूषितान् अलङ्कृताः-मुकुटाधलङ्कारः विभूषिताः वस्त्रादिभिः सज्जिताः ये तान् , पुनः कथंभूतान् ? पुवकयतवप्पभावसोहग्गसंपउत्त' पूर्वकुततपः प्रभावसौभाग्यसंप्रयुक्तान पूर्वकृततपः म. भावेण प्राप्तं यत्सौभाग्यं तेन संप्रयुक्ता ये ते तथा तान् दृष्ट्वा, तथा-' नड-नट्टग जल्ल मल्लमुट्टियवेलंगकहग-पग-लासग-आइक वग-लंख-मंख-तूगइल्ल-तुंबवीणिय-तालायरपकरणाणि' नट नर्तक जल्लमल्लमोष्टिकविडम्बक- कथकआवसथ-परिव्राजकों के स्थान, सुकृत-अच्छी तरह से सजाये गये शयन, आसन, पालकी, रथ गाडा, यान-गमन के साधनभूत वाहन, युग्य-अश्वादिकवाहन, स्पंदन-रथविशेष, इन सबको, तथा ( नरनारिगणे य ) नर और नारी के वृन्द को कि जो (सोमपडिरू बदरिसणिज्जे) चन्द्रमा के जैसा सुन्दर आकार वाला है और इसी से जो दर्शनीय बना हुआ हैं (अलंकियविभूसिए) मुकुट आदि विवध अलंकारों से एवं वस्त्रादिकों से सुसज्जित है, (पुन्वकय तकप्पभावसोहग्ग संपउत्ते ) पूर्वकृत तप के प्रभाव से प्राप्त सौभाग्य से जो युक्त हैं इन सब को देखकर के तथा ( नड-नग-जल्ल-मुट्टिय-वेलंयग-कहग-पवग-लासग-आईक्खग-लंख-मंख-तूण-इल्ल-तुंबवीणिय-तालायर-पकरणाणि ) ટવાળાં શયનસ્થાન, આસન, પાલખી, રથ. ગાડાં, યાન-મુસાફરીના સાધનરૂપ વાહન, યુગ્ય અધાદિ વાહન, સ્પંદન-ખાસ પ્રકારના રથ, એ બધાને તથા " नरनारिगणेय" न२ भने नारीना समूडने रे " सोमपडिरूवदरिमणिज्जे" ચન્દ્રમા જેવાં સુંદર આકારવાળા છે અને તેથી જ જે જેવાં ગમે તેવાં છે, " अलंकियविभसिए " भुगट माहि विविध मरे तथा पत्रोथी विभूषित छे, " पुवकयतवसमावसोहाग संरउत्ते” पूत तपना प्रमाथी प्रात येत सीलाग्यथा मा युद्धत छ, से सोने ने तथा “नड-नग-जल्ल-मल्लमुद्रिय-वेलंवग-कहग-पग-लासग-आइक्खग-लंख-मंख-तूण-इल्ल-तुबत्रीणिय -तो For Private And Personal Use Only Page #956 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ०५ सू०८ चक्षुरिन्द्रिय संवर'नामकद्वितीयभावनानिरूपणम् ९०७ प्लवक-लासकाख्यायक-लङ्ख-मङ्ख तूणिक तुम्बवीणिक तालाचर प्रकरणाणि च, नटनकादिपदानां व्याख्याऽस्यैवप्रथमभावनातोऽवगन्तव्याः, 'वहूणि ' बहूनिअनेकविधानि 'सुकरणाणि ' सुकरणानि-शोभनक्रियायुक्तानि दृष्ट्वा, नटनर्तकादीनां बहुविधान् मनोहरव्यापारान् दृष्टेत्यर्थः, तेषु तथा 'अण्णेसु य ' अन्येषु चैतद्भिन्नेषु ' एवमाइएसु ' एवमादिकेषु-एवंविधेषु ‘मणुनभदएसु' मनोज्ञभद्रकेषु 'रूवेसु ' रूपेषु-चक्षुर्ग्राह्यविषयेषु 'समणेण' श्रमणेन साधुना 'न सज्जियव्वं' न सक्तव्यम्, न रज्जियव्वं न रक्तव्यम् 'जाव' यावत्-यावत्करणात् 'नगिझियव्वं' न गर्धितव्यम्' 'न मुज्झियव्वं न मोहितव्यम् , 'न विणिघायमावज्जियव्वं' न विनिघातपत्तव्यः तथा-'न लुभियव्यं न लोब्धव्यम् , 'न तुसियवं' न तोष्टव्यम् , नट,-नर्तक, जल्ल, मल्ल, मौष्टिक, बेलंवक, कथाक, पूलवक, लासक, आख्यायिक, लंख, मंख, तृणिक, तुम्बवीणिक, तालाचार, इन सब के मनोहर व्यापारों को जों (बहणि) अनेक प्रकार के होते हैं और ( मुकराणि ) शोभन क्रिया संपन्न रहा करते हैं उनको देख करके, तथा ( अण्णेस्तु एवमाइएसु रुवेसु मणुण्णभदएसु) और भी जो इसी प्रकार के मनोज्ञभद्रक रूप हों उन्हें देख करके (समणेण ) साधु को (तेसु) उनमें (न सज्जियव्वं ) आसक्त नहीं बनना चाहिये । (न रज्जियव्वं) राग नहीं करना चाहिये। यहां यावत् शब्द से (न गिज्झियव्वं) गृद्धिभाव नहीं करना चाहिये-अर्थात्-उनमें ललचाना नहीं चाहिये । ( न मुज्झियव्वं ) न मोह करना चाहिये, (न विणिघायं आवज्जियध्वं ) उनके लिये चारित्र का भंग न करे, (न लुभियव्वं ) लोभ न करे, ( न तुसिमव्वं ) प्रसन्न मन नहीं होना चाहिये, (न हसियवं) लायर-पकरणाणि" नट, नत, ४६८, भौष्टि४, मेद १४, ७५४, २१४, सास આખ્યાયિક, લંખ, મંગ, તુણિક, તુંબવીણિક, તાલાચાર, એ બધાનાં મનહર व्यापार बहूणि " मने २ सय छ, भने “ सुकराणि " सुदर ठिया युक्त है।५ छ, तेभने धने तथा “ अण्णेसु एवमाइएसु रूवेसु मणुण्ण भहरसु" से प्रानi zlan ५४२ मनोज्ञ मद्र४३५ डाय तेमन निधन “समणेण" साधुमे " तेसु" तेमनामा "न सज्जियव्व" यासरत थो नही, “न रज्जियवं” २॥ ४२ मे नही, “ न गिझियव्व" तमा सया ने नही, " न मुज्झियव्व" तेने मोटे मोड ४२॥ नमे नही, "न विणिघाय आवज्जियव" तेने भाट शास्त्रिनो मन ४२३ मे " न लुभियम्ब" खोल ३२३ मे मे नाही', " न तुसियव्व" For Private And Personal Use Only Page #957 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ९०८ प्रश्नव्याकरणसूत्रे 'न इसियध्वं' न हसितव्यम् , तथा-श्रमणस्तत्र 'न सई च मई च' न स्मृतिं च मति च ' कुज्जा' कुर्यात् । एतत्सर्वमस्यैव प्रथमभावनायां व्याख्यातम् । 'पुणरवि ' पुनरप्युच्यतेश्रमणः ' चक्खुइदिएण' चक्षुरिन्द्रियेण 'अमणुण्यपावगाई' अमनोज्ञपापकानि ' रूपाणि ' रूपाणि 'पासिय' दृष्ट्वा 'किं ते ' कानि तानिकथम्भूतानि तानि रूपाणि ? इत्याह- गंडि-कोटि-कुणि-उदरि-कच्छुल्ल-पइल्ल -कुज्ज-पंगुल-बामण-अंधिल्लग-एगचक्खुविणिहय सपिसल्लगवाहिरोगपीलियं' गण्डिकुष्ठिकुण्युदरिकच्छुल्ल श्ली पदकुब्ज पङ्गुलरामनान्धिलकैकचक्षुर्विनिहत सपिशाचकव्याधिरोगपीडितं-तत्र-गण्डो गण्डो हि कण्ठरोगविशेषः स च वातपित्त 'ले. मसन्निपातैर्जायमानत्वाच्चतुर्विधः, स यस्यास्ति स गण्डी, गण्डमालावानित्यर्थः, कुष्ठी-कुष्ठमस्यास्तीति कुष्ठी-कुष्ठरोगवान् , कुष्ठमष्टादशविधम् , तत्र महाकु. आश्चर्य से हंसना नहीं गहिये, तथा (न सईच मइं च तत्थकुज्जा) और न उनकी याद करना चाहिये और न उनमें अपनी बुद्धि को ही लगाना चाहिये । ( पुगरवि) इसी तरह (अमणुण्णपागाई) अमनोज्ञ अशुभ (रूवाई) रूपों को (चक्खुइंदिएण) चक्षु इंद्रिय से (पासिय) देखकर साधु को उनमें रोष-द्वेष नहीं करना चाहिये । (किं ते!) वे अमनोज्ञ अशुभ रूप कौन २ से हैं इस प्रकार को शंका का समाधान करते हुए मूत्रकार अब उन्हें इन निम्नलिखित पदों द्वारा प्रकाशित करते हैं-(गडि-कोढि-कुणि-उदरि कच्छुल्ल-पइल्लकुज्ज-पंगुल-वामण-अंधिल्लग-एगचक्खु-विणिय सपिसल्लग-वाहीरोग-पीलियं ) गंडी-गंडमाल-रोगवाले, कुष्ठी-कुष्टरोगवाले, कुणिकुष्ठरोगी, उद्ररोगी, कच्छुल्लरोगो, श्लीपदरोगी, कुज-कुवडा, पंगुल, तेनाथी भनभां मान पावो नही', " न हसियव्व" तेने मन भावयथी उस ननस, तथा “ न सईच मई च तत्थकुन्जा" तेने या કરવું જોઈએ નહીં કે તેમાં ધ્યાન પરોવવું જોઈએ નહીં. ____" पुणरवि" मे प्रमाणे “ अमणुण्णपावगाइ" अमना शुभ "रूवाई" ३पाने " चक्खुइदिएण" यक्षुन्द्रियथा “ पासिय " ने तेना प्रत्ये शेष-द्वेष ४२ मे नही, " किं ते?" ते २५शुम ३५ ४५i :यां છે તે શંકાનું સમાધાન કરવાને માટે સૂત્રકાર નીચેના પદે દ્વારા તેમને જાહેર ४२ -" गंडि-कोढि-कुणि-उदरि-कच्छुल्ल- पइल्ल-कुज-पगुल-वामण-अधिल्ल ग-एगचक्खु-विविय-सपिसल्लग--वाहिरोग-पीलियं " 11-3माना रोगवाणा, सुटगी, अणि- गामा, ४२२।गी, ४२सरोगी, वी५४रोगी, ५31, For Private And Personal Use Only Page #958 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनीटीका अ०५ सू०८'चक्षुरिन्द्रियसंवर'नामद्वितीयभावनानिरूपणम् ९०९ फस्य सप्तभेदाः । तद्यथा अरुण-दुम्बर-स्पर्शजिह्व-करकपाल-काकन-पौण्डरीक दणि । इति, महत्त्वं चैषामसाध्यत्वात्। सामान्यकुष्ठस्यै कादश भेदाः, स्थूलामारुक्क १ महाकुष्ठै २ ककुष्ठ ३ चर्मदल ४ विसर्प ५ परीसर्प ६ विचर्चिका ७ सिध्म ८ कटिभ ९ पामा १० शतारुष्क ११ संज्ञकाः । एवं सर्वाणि कुष्ठान्यष्टा. दश । यद्यपि सर्व कुष्ठं सन्निपातजमेव जायते, तथापि-वातादिदोषोत्कटतया वामन, अंधिल्लग-जन्मान्ध, एकचक्षु-काना, विनिहतचक्षु-जन्म के बाद होने वाला अंधा, सपिसल्लक-सपिशाच-भूतादि आवेश वाला, अथवा सर्पिशल्यक-घसीते हुए चलने वाला हृदयरोगी, व्याधिपीडित, इन सब को देखकर इनमें द्वेष तथा घृणा नहीं करनी चाहिये। पूर्वोक्त पदों का अलग-अलग अर्थ इस प्रकार हैं-गंडी-वातपित्त और सन्निपात-वातादि त्रिदोष मिश्रित विकार से उत्पन्न होने के कारण चार प्रकार के कंठ रोगवाला, कुष्ठी-कुष्ठ अठारह प्रकार का होता है, जिसमें सात प्रकार के महाकुष्ठ होते हैं और ग्यारह प्रकार के सामान्यकुष्ठ होते हैं। (१) अरुण २ दुम्बर ३ स्पर्शजिह्व ४ करकपाल ५ काकन ६ पौण्डरिक और ७ दद्र । ये असाध्य होने से महाकुष्ठ माने गये हैं। सामान्य कुष्ठ ग्यारह प्रकारके ये हैं-१स्थूलामारुक्क २ महाकुष्ठ ३ एककुष्ठ४ चर्मदल ५ विसर्प ६ परिसर्प विचर्चिका ८ सिध्म ९ किटिभ १० पामा शतारुष्क ११ । यद्यपि सब ही कुष्ठ सन्निपात से ही उत्पन्न होते हैं तथापि वातादिक दोषों की उत्कटता से इसमें भेद माना गया सूखा, वामन, His, relया. म पछी मां! मनेसा, सपिस१४સપિશાચ-ભૂતાદિ વળગાડવાળા, અથવા સપિશલ્પક-ઢસડાતા ચાલના હૃદયરોગી, વ્યાધિ પીડિત અને રોગ પીડિત, એ બધાને જોઈને તેમના પ્રત્યે દ્વેષ અથવા ઘણા કરવી જોઈએ નહીં. પૂર્વોક્ત પદોને અલગ અલગ અર્થ આ પ્રમાણે छे–“गडी"-qात पित्त भने सन्निपात-पाताल त्रिोष मिश्रित विजयी उत्पन्न थवाने रणे यार ४१२॥४गाणा, “कुष्ठी "-ष्ट मा२ २॥ હોય છે, જેમાં સાત પ્રકારનાં મહાકુષ્ટ હોય છે અને અગિયાર પ્રકારના सामान्य मुष्ट डाय छे. (१) १२, (२) हुम्म२, 3) २५Ara, (४) ४२. Bास, (४) १४न, (६) पौरी मने (७ मे साते असाध्य पाथी મહાકુષ્ઠ ગણાય છે. અગિયાર પ્રકારના સામાન્ય કુષ્ટ આ પ્રમાણે છે–(૧) સ્થલાभा२४, (२) मा४८, (3) मे ४४(४) यमस, (५) विस ५ (6) परीस (७) विद्यार्थी, (८) सिम) मि (१०) मा, (११) शता२४. in કુષ્ટ સન્નિપાતથી જ ઉત્પન્ન થાય છે. છતાં પણ વાતાદિક દેની પ્રબળતાને For Private And Personal Use Only Page #959 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६१० प्रश्नव्याकरणसूत्रे भेदभाग्भवतीति विज्ञेयम् । तथा-कुणिः कुण्टः, अयं हि गर्भाधानादि दोषाद् हस्बैकपादो न्यूनैकपाणिर्वा भवति। तथा – उदरी-उदररोगवान् , उदररोगा अष्टप्रकाराः तदुक्तम् पृथक समस्तैरपिचानिलोधैः प्लीहोदरं बद्धगुदं तथैव । आगन्तुकं वेसरमष्टमं तु जलोदरं चेति भवन्ति तानि " ॥ इति । एतेषु जलोदरमसाध्यं शेषाणि तु साध्यानि । तथा-कच्छुल्ला कण्डूतिमान् , श्लीपदः श्लोपद्रोगयुक्तः, श्लीपदलक्षणमेवमुक्तम्-" प्रकुपिता वातपित्तश्लेष्माणोऽधोऽधः प्रपन्ना वक्षस्थलोरुजङ्घा-स्ववतिष्ठमानाः कालान्तरे पादमाश्रित्य शनैः शनैः शोथमुपजनयन्ति” तदेवश्लीपदमुच्यते । अन्यदप्युक्तम्है इन अठारह प्रकार के कुष्ठरोगवाला, कुणी-कुष्ठरोगी (२) यह रोग गर्भाधानादि के दोष से होता है। इसमें एक पैर छोटा हो जाता है या एक हाथ छोटा हो जाता है। उदररोगी-उदररोग आठ प्रकार का होता है, कहा भी है__ " पृथकू १ समस्तै २ रपि चानिलोधैः ३, प्लीहोदरं ४ बद्धगुदं ५ तथैव । आगुन्तुकं ६ वेसर ७-मष्टमं तु जलोदरं ८ वेति भवन्ति तानि ॥ १ ॥" ____ पृथक् १, समस्त २, अनिलौघ ३ प्लीहोदर ४ बदगुद ५ आगन्तुक ६ वेसर ७ जलोदर ८ उदररोग के ये ८ प्रकार हैं। इनमें जलोदर रोग असाध्य है, बाकी सब साध्य हैं । कच्छुल्ल-खुजली रोगवाला, श्लीपदरोगी-इस रोग के लक्षण इस प्रकार कहे हैं ____“कुपि तावातपित्तश्लेष्माणोऽधोधः प्रपन्ना वक्षःस्थलोरुजडा स्ववतिष्ठमानाःकालान्तरे पादमाश्रित्य शनैःशने शोथमुपजनयन्ति ॥" કારણે તેમાં ભેદ માનવામાં આવ્યાં છે. આ રીતે અઢાર પ્રકારના કુષ્ટરોગી, कुणि-२०४रोगी- समाधान होषथी थाय छे. ते शेगमा साथ કે એક પગ ટૂંક થઈ જાય છે. ઉદરગી -ઉદરરોગ આઠ પ્રકારના હોય છે કહ્યું પણ છે કે" पृथक् १ समस्तै २ रपि चानिलौघैः ३ प्लीहोदरं ४ बद्धगुदं ५ तथैव । आगुन्तुकं ६ वेसर७ मष्टमं तु जलोदरं ८ चेति भवन्ति तानि ॥१॥" (१) पृथ५ . (२) समस्त, (3) अनितोष, (४) बी२ (५) मह (१) मागन्तु, (७) वेस२ अने (८) सो२, को 28 प्रसार २२ हाय छे. तेमा सोह२ असाध्य २।छ, माडी मया साध्य छ " कच्छुल्ल " ६२, ५२०४', अस, वगैरे मुसीरागो, talual-(थापना शी) આ રોગના લક્ષણે નીચે પ્રમાણે કહેલ છે– " कुपिता वातपित्त लेष्माणोऽधोधः अपना वक्षःस्थलोरुजङ्घास्ववतिष्ठमाना कालान्तरे पादमाश्रित्य शनैः शनैः शोथमुपजनयन्ति " For Private And Personal Use Only Page #960 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ०५ सून' चक्षुरिन्द्रियसंघर' नामक द्वितीय भावनानिरूपणम् ९११ 'पुराणोदकभूयिष्ठाः सर्वषु च शीतलाः । ये देशास्तेषु जायन्ते श्लीपदानि विशेषतः ॥ १ ॥ ' पादयोर्हस्तयोऽपि जायते श्लीपदं नृणाम् । कष्ठनासावपि च क्वचिदिच्छन्ति तद्विदः || २ || इति । इदं च 'फील पाँव' हाथी पगा ' इत्यादि नामभिर्लोके प्रसिद्धम् । तथाकुब्जः = गडुलः कुबडा' इति भाषाप्रसिद्धः । पङ्गुलः = पङ्गुः =गमनासमर्थः, वामनः = खर्वः - स्वशरीर इत्यर्थः । एते कुजक्षमनादयो मातापितृशुक्रशोणितदोषेण भवन्ति । तदुक्तम् - यह रोग प्रकुपित होकर जब वात पित्त और कफ नीचे नीचे शारीरिक भागों में पहुँच जाते है और वक्षस्थल, उरु, जंघा, इनमें प्रवेश कर जाते हैं तब वे कालान्तर में पैर में पहुँच कर धीरे ? उसमें शोथ - सूजन को उत्पन्न कर देते हैं इसी का नाम श्लीपद रोग है, इस रोग का नाम फिलपांव हाथीपणा आदि भी है। इसके और भी लक्षण कहे हैं " पुराणोदक भूयिष्ठाः सर्वर्तु च शीतलाः । देशास्तेषु जायन्ते, श्लीपदानि विशेषतः ॥ १ ॥ पादयो हस्तयो वाऽपि जायते श्लीपदन्नृणाम् । कर्णेष्टिनासास्वपि च क्वचिदिच्छन्ति तद्विदः ॥ 11 यह रोग उन देशो में विशेष कर होता है जिनदेशों में पुराना पानि अधिक रूप में भरा रहता है तथा जो सर्व ऋतुओं में शीतल रहा करते हैं, aaan ह भी कहते है कि यह रोग हाथ, पैर, कान, જ્યારે વાત, પિત્ત અને કફ પ્રકુપિત થઈ ને શરીરનાં નીચેના ભાગેામાં પહોંચી જાય છે અને વક્ષસ્થળ, ઉરું જંઘા આદિમાં પ્રવેશ કરે છે ત્યારે સમય જતાં પગમાં પહોંચીને ધીમે ધીમે તેમાં સર્જા ઉત્પન્ન કરે છે. તે રાગનું નામ શ્લીપદરેગ છે. આ રાગનાં બીજા નામેા ફિલપગા હાથીપગા દિ પણ છે. તેનાં ખીજા લક્ષણા પણ કહેલ છે , ... " पुराणोकभूयिष्ठाः सर्वर्त्तषु च शीतलाः येदेशास्तेषु जायन्ते, श्रीपदानि विशेषतः ॥ १ ॥ पादयो हस्तयोर्वाऽपि जायते श्लीपदं नृणाम् । कर्णोष्ठ नासास्वपि च काचिदिच्छन्ति तद्विदः ॥ १॥ જે દેશામાં પ્રાચીન પાણી વિશેષ પ્રમાણમાં ભરાઈ રહે છે તે દેશમાં આ રોગ વધુ પ્રમાણમાં થાય છે. વળી જે પ્રદેશ ખધી ઋતુઓમાં શીતળ રહે છે ત્યાં પણ આ રોગ વધારે પ્રમાણમાં થાય છે. કેટલાક એમ પણ કહે For Private And Personal Use Only Page #961 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नध्याकरणसूत्रे गर्ने वातप्रकोपेण, दोहदे वाऽपमानिते। भवेत्कुब्जः कुणिः पङ्गुमूको मन्मन एव च ॥ १ ॥ इति । तथा अन्धिल्लका जात्यन्धः, एकचक्षुः काणः, एतद् दोषद्वयं च गर्भगतस्य जातस्य चापि भवति । गर्भगतो यथैतद्दोषद्वयभाग्भवति, तदेवं विज्ञातव्यम्यदा हि गर्भस्थनीवस्य नेत्रद्वयं तेजो न प्रतिपद्यते तदा स गर्भस्थो जात्यन्धो भवति । यदा चै नेत्रं प्रतिपद्यते नापरं, तदा स काणो भवति । तदेव ओठ और नासिका में भी होता है । कुब्ज पंगु और वामन, ये माता पिता के शुक्र शोणित के दोष से उत्पन्न होते हैं, कहा भी है "गर्भ वातप्रकोपेण, दोहदे वाग्यमानिते। __भवेत्कुजाकुणिःपणु मुको मन्मन एव च ॥ १ ॥ अर्थात्-गर्भ में वात के प्रकोप होने से तथा दोहद-गर्भिणी मनोरथ की तर्फ ध्यान नहीं देने से अर्थात् उसका अपमान करने से कुब्जक, कुणि-कुष्ठ-पगु और लूले तथा तुतलाने वाले बालक उत्पन्न होते हैं । अंधिल जन्मान्ध, काना ये दोनों प्रकार के व्यक्ति जब गर्भ अवस्था संपन्न होते हैं तब उस समय यदि दोनों नेत्र इनमें से किसी एक के तेज को प्राप्त नहीं कर पाते हैं तो वह गर्भ जन्मान्ध होकर उत्पन्न होता है-यदि एक ही नेत्र तेज को प्रोप्त कर लेता है दूसरा नहीं कर पाता तो वह उस समय काना उत्पन्न होता है। वही तेज यदि रक्तानुगत हो जाता है तो शिशु रक्ताक्ष उत्पन्न होता है, पित्तानुगत होता है तो शिशु पिङ्गाक्ष होता है और यदि लेष्मानुगत होता छ में २मा शग हाथ, पशु, आन, ड.3 मने नभ प थाय छे. कुब्जપાંગળાપણું અને વામનતા માતાપિતાના શુકે તથા રક્તનાદોષથી થાય છે. કહ્યું પણ છે " गर्ने वातप्रकोपेण, दोहदे वाग्यमानिते । भवेत्कुब्जः कुणिः पङ्गुको मन्मथ एव च ॥ १॥" એટલે કે ગર્ભમાં વાયુનો પ્રકોપ થવાથી તથા ગર્ભિણીને દેહદ-મનોરથ નહીં કરવાથી, તેને દેહદની અવગણના કરવાથી કૂબડે. કુણિ-કુષ્ટ, हो, भूगी २५24 तात १४ सन् छे. अंधिल-सन्मांध, यी, ये એ બંને પ્રકારનાં બાળકે જ્યારે ગર્ભમાં હોય ત્યારે જે બંને આંખો તેજ પ્રાપ્ત કરી લેતી નથી તે તે બાળક જન્મથી જ અંધ પેદા થાય છે. જે એક જ આંખ તેજ પ્રાપ્ત કરી લે છે પણ બીજી આંખ તેજ પ્રાપ્ત કરી લેતી નથી તે તે જન્મથી જ કાણે હોય છે. એ જ તેજ જે રક્તાનુગત થઈ જાય તે બાળક રક્તાક્ષ-લાલ નેત્રવાળું થાય છે, પિત્તાનુગત થઈ જાય તે બાળક પિંગાક્ષ પીળી આંખવાળે જન્મે છે, અને જે શ્લેષ્માનુગત થાય તે તે શુકલાલ પેદા For Private And Personal Use Only Page #962 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ०५ सू०८ 'चक्षुरिन्द्रियसंवर'नामकद्वितीयभावनानिरूपणम् ९१३ तेजो यदि रक्तानुगतं पित्तानुगतं श्लेष्मानुगतं च भवति, तदा जातकः क्रमेण रक्ताक्षः पिङ्गाक्षः शुक्लाक्षश्च भवति । तथा विनिहतः-विनिहतचक्षुष्क इत्यर्थः; उत्पत्त्यनन्तरं यस्य नेत्रद्वयं नष्टं स विनिहत उच्यते। तथा 'सप्पिसल्लग' सपिशाचकः = पिशाचगृहीत इत्यर्थः । अथवा-सर्पिशल्यकः, इतिच्छाया । तत्र--सी-सर्पतीति सी, सर्पणशील इत्यर्थः । अयं हि पीठे समुगविश्य तत् जङ्घायोः कटयां च दृढं बद्धा हस्तयोः पादुके आदाय, तदाश्रयणेन सर्पतिसरति, अत एवायं सीत्युच्यते । अयं किल गर्भदोषाकर्मदोषाच्च भवति । शल्यका हृदयशल्यादि रोगवान् । उभयोः कर्मधारयः। तथा-व्याधिरोगपीडितः= व्याधिना-चिरस्थायिपीडया, रोगेण-सयोघातिपीडयाच पीडितो यः स तथोक्तः एषां समाहारद्वन्द्वस्तत्तथोक्तम् , तथा-'विगयाणि य मयकलेवराणि ' विकृतानि च मृतकलेबराणि तथा-' सकिमिणकुहियं च ' सकृमिकथितं च-सह कृमिभिः, है तो वह शुक्लाक्ष उत्पन्न होता है। विनिहत-विनिहतचक्षुउत्पत्ति के बाद जिसके नेत्र फूट जाते हैं वह चिनिहतचक्षुक कहलाता है ऐसे प्राणी सपिसल्लग-पिशाचहीत अथवा सर्पिशल्यक-सी-पीठ पर बैठ कर जो उसे दोनों जंघाओं से कटि पर मजबूती के साथ वांधकर और दोनों में दो काष्ठ आदि की पादुकाओं को लेकर उसके सहारे से सरकता है उसका नाम सी है ऐसे सरकने वाले व्यक्ति को कि जो गर्भदोष से और अपने कर्म के दोष से-अशुभ कर्म के उदय से उत्पन्न होता है, ऐसा शल्यक-हृदय शल्यादि रोगवाला, व्याधिरोग पीडितव्याधिरोग से पीडिल प्राणी, अर्थात्-चिरस्थायी पीडारूप व्याधिसे तथा सद्योघाति रोगरूप पीटा से जो कष्ट पा रहा है ऐसे दुःखित जीव, इन सब को देख कर इनमें द्वेष तथा घृणा नहीं करनी चाहिये । (बिगयाणिय मयकलेवराणि ) विकृत हुए मृतक कलेवरों को, (सकिमिण थाय छे. विनिहत-विनिहत्य - म पछी नी भी छूटी तय छे ते विनि. तय हेवाय छ. सपिसल्लग-पिशायडित २५१ शपिशव्य-साधी-पी४५२ બેસીને અથવા બને જાંઘને કટિ પર મજબૂત રીતે બાંધીને અને બંને હાથમાં બે લાકડા આદિની ઘાડી લઈને તેની મદદથી જે જમીન પર સરકે છે તેને સર્ષિ કહે, છે. એ રીતે સરકનાર વ્યક્તિ કે જે ગર્ભષથી-અશુભ કર્મના ઉદયથી ઉત્પન્ન થાય છે, "शल्यक'-६६३८य माहि वाणा, व्याधि ।पीडितव्याधि रोगथी पीsadi પ્રાણી એટલે કે દીર્ઘકાળતી ચાલ્યા આવતા પીડારૂપ વ્યાધિથી તથા હંમેશ રોગરૂપ પીડાથી પીડાતા દુઃખી એ બધાને જોઈને તેમના પ્રત્યે દ્વેષ કે ઘણા કરવી मध्ये नही. “ विगयाणिय मयकलेवराणि" विकृत थयेस भृत शरीप्र ११५ For Private And Personal Use Only Page #963 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे कुथितो दुर्गन्धयुक्तो यः स तथोक्तस्तै 'दब्बरासिं ' द्रव्यराशि-पुरीपादिद्रव्यसमूह च दृष्ट्वा 'एवमाइएम' एवमादिकेपु-एवं प्रकारेषु 'अमणुन्नपावगेमु' अमनोज्ञपापकेषु, तथा-एभ्यः 'अन्नेसु' अन्येषु च 'तेमु तेषु अमनोज्ञपापकेषु समुपस्थितेषु 'समणेण ' श्रमणेन-साधुना ' न रुसियव्वं ' न रोष्टव्यम् , ' जाव' यावत्पदान 'न हीलितव्यम् , न निन्दितव्यम् , न खिसितव्यम् , न छेत्तव्यम् , न भेत्तव्यम् न हन्तव्यम् , इति । षट्पदानि संग्राह्याणि । तथा-श्रमणेन , दुगुंछावत्तियावि' जुगुप्सात्तिकाऽपि न लब्भा' लभ्या ' उप्पाएउं' उत्पादयितुम् । एवम् अकुहियं च दव्यरासिं ) कृमिसहित सडे हुए दुर्गंधित पदार्थ को और पुरीष आदि द्रव्य समूह को देख कर के इनमें तथा ( अन्नेसु य एषमाइएसु) इनसे भिन्न और जो इसी तरह के (अमणुण्णपावएसु तेसु) अमनोज्ञ अशुभ पदार्थ समक्ष उपस्थित हो उनके ऊपर (समणेणं ) साधुको (न रुसियव्वं ) रोष नहीं करना चाहिये । यावत् पद से (न हीलियब्वं ) अवज्ञा नहीं करनी चाहिये, उनकी (न निंदियव्वं ) निंदा नहीं करना चाहिये, ( न खिसियव्वं ) उनकी दूसरे के सामने निंदा नहीं करनी चाहिये । इसी तरह (न छिदियध्वं) अमनोज्ञरूप आकृति का छेदन नहीं करना चाहिये । (न भिदियब्वे) न भेदन करना चाहिये। ( न बहे यव्वं ) न अनिष्ट रूपवाले व्यक्तिका वध करना चाहिये । इसी प्रकार से इन पदार्थों के ऊपर साधु को ( न दुगुंछा बत्तियावि लम्भा उप्पाएउ ) जुगुप्सावृत्ति भी उत्पन्न करना उचित नहीं है । (एवं ) इस शन “ सकिमिणकुहियं च व्वरासि” भिसहित सता हु युत पहानि भने पुरीष माहि द्रव्य समूडने नन तेभा तथा “ अन्नेसुय एवमाइएसु" से पसंत २३ २४ २. allon " अमणुण्ण पावएसु तेसु" ममनोन, मशुम पहा पासे माह डाय तेभन ५२ " समणेणं " साधु " न रुसियव्य" शेष न ४२ मे, " न हीलियव्यं” तेनी As! न ४२वी नेमे, " न " निदिब्य" तेमनी नि न ४२वी ने मे; "न खिसियव्व'' मीना 241101 नि न. ४२वी. मे, 24 प्रभाए " न चिंदियध्वं " ममनोज्ञ भावनी वस्तुनुं छेदन ४२११j नही', "न भिंदियन्त्र, लेहन शqयु नही, " न वहे. यव्य" अनि ३५१जी व्यतिने १५ ४१ मे नही. मे ४ प्रभाव से पहार्थी प्रत्ये साधुझे “ न दुगुछा--वत्तियो वि लब्मा उप्पाए" शुसा वृत्ति ५५५ रामवी ते योग्य नथी. “ एब" मारीते " चक्खुइंदिय For Private And Personal Use Only Page #964 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir , सुदर्शिनी टीका २०५ सू०८ 'चक्षुरिन्द्रियसंवर' नामक द्वितीय भावनानिरूपणम् ९१५ नेन प्रकारेण 'चक्खुइंदियभावणाभाविओ' चक्षुरिन्द्रियभावनाभावितो 'भवइ भवति 'अंतरा' अन्तरात्मा - जीवः । ततश्च 'मणुष्णामणुष्णसुभिदुब्भिरागर्दी से ' मनोज्ञामनोज्ञसुरभिदुरभिरागद्वेषे, 'पणिहियप्पा' प्रणिहितात्मा : साहू ' साधुः 'मणवयणकायगुत्ते ' मनोवचनकाय गुप्तः, ' संबुडे ' संवृतः 'पणिहिईदिए' मणिहितेन्द्रियो ' धम्मं ' धर्भे ' चरेज्ज ' चरेत् । एषां पदानां व्याख्याऽस्यैव प्रथमभावनायां द्रष्टव्या ।। ० ८ ॥ प्रकार से ( चक्खु इंदिय भावणाभाविओ अन्तरप्पा ) जब चक्षु इन्द्रिय की भावना से भावित अंतरात्मा होता है तब वह (प्रणुण्गामणुण्णसुभिदुभिरागदोसे पणिहियप्पा) मनोज्ञरूप चक्षुइन्द्रिय के अशुभ वि में रागद्वेष से रहित होने से व्यवस्थित आत्मावाला (साहू) साधु (मवयणका गुत्ते) अपने मन, वचन और कायरूप योगोंको शुभ अशुभ के व्यापार से सुरक्षित कर लेता है और (संबुडे ) संबर से युक्त बन कर (पणिहिद दिए ) अपनी चक्षुइन्द्रिय को वशमें कर के ( धम्मं ) चारित्र रूप धर्म का ( चरेज्ज) पालक बन जाता है । भावार्थ- सूत्रकार ने इस सूत्रद्वारा परिग्रह विरमण व्रतकी द्वितीय भावना जो चक्षु इन्द्रिय संवर नामकी है वह कही है। इस भावना में साधु को ऐसा विचार करना सरझाया गया है कि वह इस प्रकार से अपनी चक्षुरिन्द्रिय की परिणति को ऐसी विचारधारा से सुदृढरूप में बांध कर रखे कि जिससे वह चक्षुरिन्द्रिय के विषयभूत मनोज्ञ रूपमें હ भावणा भाविओ अन्तरप्पा ” જ્યારે અંતરાત્મા ચક્ષુ ઇન્દ્રિયની ભાવનાથી ભાવિત थाय छे त्यारे ते " मणुणामणुष्णसुभदुभिरागद्दासेपणइयप्पा " भनाइय ચક્ષુ ઇન્દ્રિયના શુભ વિષયમાં અને અમનેાજ્ઞરૂપ ચક્ષુ ઇન્દ્રિયના અશુભ વિષયમાં रागद्वेषथी रहित थपाथी व्यवस्थित आत्मावाणी "साहू" आधु 66 मणवयणका यगुत्ते " पोताना भन, वयन भने अवश्य योगोने शुल अशुभ प्रवृत्तिथी सुरक्षित मनावी से छे भने “ संबुडे " संवस्थी युक्त मनीने “ पणिहिइ दिए પોતાની ચક્ષુ ઈન્દ્રિયને કાષ્ટ્રમાં રાખીને " धम्मं " ચારિત્રયરૂપ ધર્મ - नो " चरेज्ज " પાલક બને છે. " ભાવા —ત્રકારે આ સૂત્રદ્વારા પરિગ્રહ વિરમણ વ્રતની ચક્ષુઇન્દ્રિય સવર નામની બીજી ભાવના બતાવી છે. આ ભાવના દ્વારા સાધુને એ વિષય સમજાવવામાં આવ્યા છે કે તે એવી પોતાની ચક્ષુઈન્દ્રિયની પ્રવૃત્તિને એવા પ્રકારની વિચાર ધારાથી બાંધી રાખે કે જેથી ચક્ષુઈન્દ્રિય વડે દૃષ્ટિગત થતા For Private And Personal Use Only Page #965 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्या - D तृतीयां भावनामाह-' तइयं ' इत्यादि मूलम्-तइयं घाणिदिएण अग्घाइय गंधाई मणुन्नभद्दगाई, किं ते ? जलयर--थलयर--सरस--पुप्फल-पाणभोयणकुट्ट-तगर---पत्त--चोय-दमणग--सस्य--एलारस--पक्रमसि-- गोसीस--सरसचंदण-कपूरलवंग- अगुरुकुंकुमककोल उसोर सेसचंदण सुगंधसारंगजुत्तिवरधूववासे उउयपिडिमणिहारिमगंधिएसु अन्नेसु य एवमाइएसु गंधेसु मणुन्नभदएसु न तेसु समणेन सजियब्वं जाव न सइंच मइंच तत्थं कुजा, पुणरवि घाणिदिएण अग्घाइय गंधाणि अमणुन्नपाबगाई, किं ते? अहिमड--अस्समड-हत्थिमड-गोमड-विग-सुणग सियाल--मणुय-मज्जार--सीह--दीविय-मय--कुहिय-विणठ्ठतथा अमनोज्ञरूपमें रागद्वेष न कर सके । मनोज्ञरूप समक्ष उपस्थित हो तो उसे देख कर उसमें रागादि परिणतिसे उसे बंध नहीं जाना चाहिये और अशुभ रूप हो तो उसमें द्वेष परिणति से अपने आपको दुःखित नहीं करना चाहिये । दोनों प्रकारकी विषय संनिधानता में उसको समभावी रहना चाहिये । जो ऐसा नहीं करताहै यह महान् अनर्थका भागी बनता है । इस प्रकार चक्षुरिन्द्रिय की भावना से भावित हुआ वह साधु अपने त्रियोगों को शुभाशुभ रूप व्यापार से सुरक्षित रखता हुआ चक्षु इन्द्रिय को वशमें कर लेता है और चारित्ररूप धर्मका पालक बन कर अपने परिग्रह विरमणरूप व्रतको सुस्थिर बना लेता है । सू०८ ॥ મને તથા અમનેણ રૂપમાં તેને રાગદ્વેષ ન થાય. જે તેની સમક્ષ મનેસ પદાર્થ હાજર થાય તે તેમનામાં રાગાદિ પરિણતિથી બંધાવું જોઈએ નહીં અને જે અશુભ રૂપ હોય તે તેના પ્રત્યે દ્વેષ વૃત્તિ દાખવીને પોતાની જાતને દાખી કરવી જોઈએ નહી. બન્ને પ્રકારના વિષયો સમક્ષ તેને તે સમભાવ યુક્ત રહેવું જોઈએ. જે તે પ્રમાણે કરતે નથી તે મહા અનર્થને પાત્ર થાય છે આ પ્રમાણે ચક્ષુન્દ્રિયની ભાવનાથી ભાવિત બનેલ તે સાધુ પિતાના ત્રણે યેગને શભાશભ પ્રવૃત્તિઓથી સુરક્ષિત રાખીને ચક્ષુ ઇન્દ્રિય પર કાબૂ જમાવે છે અને ચારિ. ત્રરૂપ ધર્મનું પાલન કરીને પોતાના પરિગ્રડ વિરમણવ્રતને સુસ્થિર બનાવે છે સૂ૮ For Private And Personal Use Only Page #966 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 4 www.kobatirth.org सुदर्शिनी टीका अ०५ सू. ९ ' घ्राणेन्द्रियसंवर' नामक तृतीय भावना निरूपणम् ११७ किमिण बहुदुरभिगंधाई, अन्नेसु य एवमाइएस गंधेसु अमणुन्नपावरसु न तेसु समणेण रूसियव्वं न हीलियव्वं जाव पणिहिईदिए चरेज्ज धम्मं ॥ सू० ९ ॥ " 4 टीका - तइयं तृतीयां घ्राणेन्द्रियसंवरणाभिधेयां भावनामाहघाणिदिरण ' प्राणेन्द्रियण 'मणुन्नभहगाई' मनोज्ञ भद्रकान् 'गंधाई' ' गन्धान् evarta ' अघाय ' किंते ' कान् तान् = कथम्भूतास्तान् गन्धान् ? इत्याहजलयर-थलयर-सरस- पुप्फफलभोयण - कुट्ट - तगर - पत्त - चोय दमणग- मरुय - एलारस पकमंसि - गोसीस - सरस- चंदण - कप्पूर- लवंग- अगर- कुंकुम ककोल्लउसीर-सेस- चंदण-सुगंध सारंग जुत्तिवर धूववा से ' जलचर-स्थलचर- सरस- पुष्पफल- पानभोजन- कुष्ठ- तगरपत्रत्वचा दमनक - मरुकैलारस-पक्रमांसी- गोशीर्षअब सूत्रकार परिग्रह विरमण व्रत की तीसरी भावना को समझाते हैं-' तइयं ' इत्यादि । - 4 । टीकार्थ - (asi) इस की तीसरी भावनाका नाम घ्राणेन्द्रिय संवरण है । इस भावनावाले साधु को घ्राणेन्द्रियके मनोज्ञ भद्रक गंध को सूंघ करके राग नहीं करना चाहिये और अमनोज्ञ पोपक अशुभगंधों को सुंघकर द्वेष नहीं करना चाहिये। इस सूत्र में इसी विषय को सूत्रकार विशेषरूप से स्पष्ट करते हैं (किं ते) वह मनोज्ञ भद्रक गंध कौन हैं इस प्रकार की आशंका उत्तर देते हुए सूत्रकार कहते हैं - ( जलचरथलचर- सरस- पुष्पफल- पाणभोयण- कुछ-नगर- पत्त-चोय - दमणकमरुय - एलारस-पक्कवमंसिगोसीस - सरसचंदण - कप्पूर - लवंग - अगुरु कुंकुम - कंकोल्ल- उसीर- सेसचंदण सुगंध-सारंग जुत्तिवर-धूववासे) " Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir હવે સૂત્રકાર પરિગ્રહ વિરમણ વ્રતની ત્રીજી ભાવના સમજાવે " तइय " प्रत्याहिटीअर्थ - " तइय આ વ્રતની ત્રીજી ભાવનાનું નામ ઘ્રાણેન્દ્રિય સંવરણ છે. આ ભાવનાવાળા સાધુએ ઘ્રાણેન્દ્રિયને માટે મનેજ્ઞ ભદ્રક ગધને સૂધીને તેમાં રાગ કરવા જોઇએ નહીં. અને અમનેજ્ઞ પાપક અશુભ ગધાને સૂધીને તેમના પ્રત્યે દ્વેષ કરવા જોઈએ નહીં. એ જ વિષયનું સૂત્રકાર વિસ્તારથી स्पष्टी४२ रे छे. " किं ते " ते मनोज्ञ लद्र गंध शेनी शेनी होय छे ते प्रश्न उत्तर आपता सूत्रार उडे छे -" जलयर - थलयर - सरस- पुष्कफलपाणसोयण- कुट्ट - तगर-पत्त-चोय - दमणक-मस्य- एलारसपकमंसि - गोसीस - सरसचंदण -कपूर- लवंग- अगुरु-कुंकुम - कंकोल - उसीर - सेसचंदण - सुगंध सारंग जुत्तीवर For Private And Personal Use Only Page #967 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १९९८ प्रश्नव्याकरणसूत्र सरसचन्दन-कर्पूर-लवङ्गागुरुकुकुमककोलोशीरश्वेतचन्दनसुगन्धसारङ्गयुक्तिवरधूपवासान्-तत्र-जलचराणि-जले समुत्पन्नानि पुष्पादीनि, स्थलचराणि-स्थले समुत्पन्नानि सुगन्धिपुष्पादीनि, सरसानि-रसयुक्तानि पुष्पफलपानभोजनानि, कुष्ठं= सुगन्धिद्रव्यविशेषः, तगरः, धूपविशेषः, पत्रम्-तमालपत्रम् , ' चोयं ' त्वचा सुगन्धिपक्षत्वचा, दमनकः-पुष्पजातिविशेषः, मरुकः='मरुआ' इति भापापसिद्धो वनस्पतिविशेषः, एलारसः एलायाः 'इलायची' इति प्रसिद्धाया रसा, 'पिकमंसी' पक्वमांसी-परिपकगन्धद्रव्यविशेषः, गोशीर्षम् एतन्नामकं चन्दनम् सरसचन्दनम् =श्रीखण्डचन्दनम् , कर्पूरः-प्रसिद्धः, लवङ्गानि-प्रसिद्धानि, अगुरु-धूपविशेषः, कुङ्कुमम्-'केसर' इति प्रसिद्धम् , ककोलः फलविशेषः, उशीरम् वीरणमूलं 'खश' इतिप्रसिद्धम् , श्वेतचन्दनं प्रसिद्धम् , सुगन्धसारङ्गयुक्तिवरधूपवासः सुगन्धानां-शो. भनगन्धवतां सारङ्गाणां-कमलपत्राणां युक्तियोजन यत्रैतादृशो यो वरधूपवास: धूपद्रव्यविशेषः, एतेषामितरेतरयोगद्वन्द्वः, ताँस्तथोक्तानाधाय ' समणेण ' श्रमणेन-साधुना * उउयपिंडिमणिहारिमगंधिएसु' ऋतुजपिण्डिमनिहारिमगन्धिकेषुजलचर-जल में उत्पन्न हुए सुगंधित पुष्पो की, स्थलचर-स्थल में उत्पन्न हुए खुशबूदार फूलों की, सरस-रस युक्त पुष्प, फल, पान, भोजनों की, कुष्ठ-सुगंधित द्रव्य की, तगर-धूपविशेष की, पत्र-तमालपत्र की, चोयसुगंधित वृक्ष की छाल की, दमनक-पुष्पजाति विशेष की, मरुक-मरुआ की,इलायची के रस की,पक्वमंसी-परिपक्वगंधद्रव्य विशेष की, गोशीर्ष चंदन की, श्रीखंडचंदन की, कपूर की, लवंग-लोगो की, अगुरुधूप की, कुंकुम-केशर की, कंकोल नामक फलविशेष की, उशीर-खश की, श्वेतचंदन की, तथा जिसमें शोभन गंववाले कमल पत्रों का योजनसंमिश्रण-हुआ हो ऐसे उत्तम धूपविशेष की, सुगंध को सूघ करके, तथा ( उउयपिंडिमणिहारिमगंधिएसु) ऐसी सुगन्ध से युक्त द्रव्यों के धूववासे” ८५२-ri Sपन्न थयेट! भुपित योनी, २२४५२-भीन પર ઉત્પન્ન થયેલાં સુગંધિત ફેલેની, સરસ-રસદાર ફુલ, ફળ, પાન, ભેજની ४४-सुचित व्यनी, त२-२ गतना धूपनी, पत्र-तमासपनी, यायસુગંધિત વૃક્ષની છાલની, દમનક-એક જાતના ફૂલની, મક-ડમરાની, એલાયચીના રસની, પકવમસી-એક જાતનું સુગધિ દ્રવ્યના ગશીર્ષ ચંદનની, શ્રીम यहननी; उपूरनी; सवी गती, मगुरु धूपनी; शुभ-शरनी; स નામના એક જાતના ફૂલની ઉશીર-સુગંધિવાળાની શ્વેતચંદનની, તથા જેમાં સુંદર ગંધવાળા કમળ પાનું મિશ્રણ થયું હોય એવાં ઉત્તમ પ્રકારનાં ધૂપની सुगध सूधान तथा " उउय पिडिमणिहारिमगंधिएसु" रे द्रव्योमा अतुने For Private And Personal Use Only Page #968 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदशिनी टीकाम०५ सू०९ 'नाणेन्द्रियसंवर'नामकतृतीयभावनानिरूपणम् ९१९ ऋतुजः कालोचितः पिण्डिमः पिण्डिभूतो बहुलो निर्झरिमो दूरतरप्रदेशगामी यो गन्धः, स विद्यते येषु तेषु द्रव्येषु, तथा-' अण्णेसु य एचमाइएमु गंधेसु 'अन्येषु चैवमादिकेषु गन्धेषु, कथम्भूतेषु ? इत्याह — मणुणभइएसु मनोज्ञभद्रकेषु 'तेसु' तेषु गन्धेषु ' न सज्जियव्वं ' न सक्तव्यम् ‘जाव' यावत्-यावत्करणात्-न रक्तव्यम् , न गर्द्धितव्यम् , न मोहितव्यम् , न पिनिधातआपत्तव्यः, न लोब्धम् , न तोष्टव्यम् , न हसितव्यम् , इतिसंग्राह्यम् । तथा-श्रमणः 'तत्थ' तत्र गन्धविषये 'सई च मई च' स्मृति च मतिं च 'न कुज्जा' न कुर्यात् । ' पुणरवि' पुनरप्युच्यते-घागिदिएण' घाणेन्द्रियेण 'अमणुण्णपावगाई' अमनोज्ञपापकान् , कि जिनमें सुगन्ध ऋतु के अनुकूल पिण्डीभूत होकर रह रही हो और दूर२ प्रदेशतक जिन की वह सुगंध फैल रही हो उपस्थित होने पर उन में तथा (अण्णेसु एवमाइएमु मणुगभद्दएमु ) इन से भिन्न इसी प्रकार के और भी जो मनोज्ञ भद्रक गंधयुक्त पदार्थ हों उनके समक्ष में आने पर (समणेण ) साधु को उनकी (तेसु ) उन२ मनोज्ञ भद्रक गंधों में (न सज्जियव्वं जाव न सई च मइं च तत्थ कुज्जा) आसक्त नहीं होना चाहिये-यावत् उनमें स्मृति को और अपनी मति को नहीं लगाना चाहिये । यहां यावत् शब्द से " न रज्जियव्वं न गिज्झियव्यं, न मुज्झियव्वं, न विणिघायं आवज्जियव्वं, न लुभियव्वं, न तुसियव्वं न हसियव्यं " इन पदों का संग्रह किया गया है । इनका अर्थ पहले कर दिया गया है वहां से समझ लेना चाहिये। इसी तरह अमनोज्ञ पाप गंध में रोष आदि न करना चाहिये इसी बात को कहते हैं-(पुणरवि ) इसी तरह से (घाणिदिएण ) नाणेन्द्रिय અનુકૂળ સુગધ ભરેલી હોય અને તેમની તે સુગંધ દૂર દૂરના પ્રદેશ સુધી ફેલાતી डाय; अवां सुगंधित द्रव्यो भार डाय तो तेभा तथा “ अण्णेसु एवमाइएसु मणुण्णभदएसु" रात तमना ! भनाश भद्र: सवा २ पहा डाय ते पासे डाय तो ५ " समणेण" साधु तेभनी “ तेसु" ते ते मनोज्ञ अधोमा “न सज्जियव्वं जाब न सईच मईच तन्थकुज्जा” मासत થવું જોઈએ નહીં ત્યાંથી શરૂ કરીને તેને યાદ કરવી નહીં કે તેને વિચાર ५५५ ४२वो नही. त्या सुधा सभ देवातुं छे. मी यावत् शथी “न रज्जियव्व', न गिज्झियव्वं, न मुज्झियव्व, न विणिधाय अवज्जियव्य, न लुभियव', न तुसियव्व, न हसियव" पहोने। म ४२वाना छे. तेमना અર્થ આગળ આવી ગયા છે તે ત્યાંથી સમજી લેવા. એ જ પ્રમાણે અમને પાપક ગંધ પ્રત્યે રોષ આદિ કરવા જોઈએ नही से पात सूत्र१२ ४ छ-"पुणरवि " २ रीते 'पाणिदिएण" धातु For Private And Personal Use Only Page #969 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ९२० - प्रश्नव्याकरणसूत्रे गंधाणि 'गन्धान ' अग्याइय' आघ्राय 'किं ते ' काँस्तान् कथंभूतांस्तान गन्धानाघ्राय ? इत्याह- 'अहिमड-अस्समड-हत्थिमड- गोमड-विग-मुणगंसियाल-मणुय-मज्जार- सी ह- दीवियमयकुहियविणकिमिणबहुदुरभिगंधाई' अहिमृताश्वमृतहस्तिमृतगोमृतकशुनक-शृगाल-मनुज-मार्जार-सिंह द्वीपिकमृतकुथितविनिष्टकृमिवेदबहुदुरभिगन्धान्तत्र-अहिमृतानि-अहीनां सर्पाणां मृतानि =मृतशरीराणि, अश्वमृतानि=अश्वानां मृतशरीराणि, हस्तिमृतानि हस्तिनां मृतशरीराणि, गोमृतानि गवां मृतशरीराणि, तथा-कस्य ईहामृगस्य ' कोक ईहामृगो वृकः' इत्यमरः, शुनकस्य कुक्कुरस्य शृगालस्य ' गीदड' इतिप्रसिद्धस्य, मनुजस्य-मनुष्यस्य, मार्जारस्य=विडालस्य, सिंहस्य केशरिणः, द्वीपिकस्य-चित्रकस्य च यानि मृतानि मृतशरीराणि, कथम्भूतानीमानि ? सुथितानि-शटितानि, अतएव-विनिष्टानि=विनष्टाकृतिकानि, कृमिवन्ति कृमिसंकुलानि, तेषां बहुदुरसे (अपणुण्ण पावगाइं ) अमनोज्ञ अशुभ (गंधाणि ) गंध-दुर्गन्ध को ( अग्घाइय ) सुंघकर के साथु को उसमें द्वेष-अरचि परिणाम-अरति वृत्ति नहीं करनी चाहिये । (किं ते ?) दुर्गन्ध के विषयभूत पदार्थ कौन २ से हैं इस प्रश्न का उत्तर देने के लिये सूत्रकार उन पदार्थों में से किन नेक पदार्थों को प्रकट कटते हैं-जैसे-(अहिमड-अरस्लमड-हत्थिमडगोमड-विग सुणग-सियाल-मणुय-मज्जार-सीह-दीविय-भय -कुहिय विणट्ठ किषिण बहुदुरभिगंधाई) अहितक, सर्पका मृतकलेवर, घोड़े का मृतकलेवर, हस्ती का मृतकलेवर, गाय का भूतकलेचर, वृक का मृतकलेवर, कुत्ते का मृतकलेवर, शृगाल का मृतकलेवर, मनुष्य का मृतकलेवर, विडाल का मृतकलेवर, सिंह का मृतकलेवर. चित्रक-बीते का मृतकलेवर, ये सब जब कुथित-सड़ जाते हैं, तब इनमें कीडे पड़ न्द्रियथा “ अमषुण्णपावगाई " ममनो। मशुम “ गंधाणि " - धने “ अग्याइय" भूधाने साधुसे तेना प्रत्ये द्वेष-भरुन्थिन। भाव-मतिवृत्ति ४२१न नहीं. " कि ते दुग यु४त पदार्थी या छ्या छ तना ઉત્તર આપતા સૂત્રકાર તે પદાર્થોમાંથી કેટલાંક પદાર્થોનો ઉલ્લેખ કરે છે. જેમ " अमिड-अस्समड-हत्थिमड-गोमड-विग सुणग-सियाल-मणुध - मज्जारसीह-दीविय-मय -कुहिय-विण?- किमिण-बहुदुरभिगंधाइ " मडिभृत-भरेसा સાપનું શરીર, ઘડાનું મૃતશરીર હાથીનું મૃતશરીર, વરૂનું મૃતશરીર સિંહનું મૃત શરીર, કૂતરાનું મૃત શરીર શિયાળનું મૃત શરીર, માણસનું મડદુ, ચિત્તાનું મૃત શરીર, એ બધાં જ્યારે સડે છે ત્યારે તેમાં કીડા પડે છે અને For Private And Personal Use Only Page #970 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुपर्शिनी टीका भ०५ सू०९ 'घ्राणेन्द्रियसंवर'नामकतृतीयभावनानिरूपणम् ९२१ भिगन्धान्-अत्यन्तामनोज्ञगन्धयुक्तान् अघ्राय — समणेण ' श्रमणेन-साधुना 'तेसु' 'तेषु-पूर्वोक्तेषु तथा एवमाइएमु ' एवमादिकेषु -एवं प्रकारेषु 'अण्णेसु य' अन्येषु च 'अमणुन्नपावगेसु ' अमनोज्ञ पापकेषु गन्धेषु ' न रुसियव्वं ' न रोष्टव्यम् , 'न हीलियध्वं ' न हीलितव्यम् , ' जाव.' यावत्-यावत्करणात्-'न निन्दितव्यम् , न खिसितव्यम् , न छेत्तव्यम् , न भेत्तव्यम् , न हन्तव्यम् , न जुगुप्सावृत्तिकाऽपि लाभ्योत्पादयितुम् । एवं घ्राणेन्द्रियभावनाभावितो भवति अन्तरात्मा जीवः । ततश्च मनोज्ञामनोज्ञसुरभिदुरभिरागद्वेषे प्रणिहितात्मा साधुर्मनोवचनकायजाते हैं, और उस समय उनकी दुर्गन्ध बहुत अधिक असह्य हो जाती है सो (समणेण ) साधु को इनको दुर्गन्ध में तथा ( एवमाइएसु अन्नेसु तेसु अमणुण्णपावगेसु ) इनसे भिन्न इसी तरह की और भी अमनोज्ञ उन अशुभ गंधों में (न रुसियव्वं न हीलियव्वं जाव पणिहिय पंचेंदिए धम्म चरेज्ज ) रोष नहीं करना चाहिये, उनकी अवज्ञा नहीं करना चाहिगे, यहां यावत् पद से “ न निंदियध्वं, न खिसियव्वं, न छिदियव्वं, न भिदियचं, न बहेयव्यं, न दुगुंछावत्तियाविलब्भा उप्पाए उं एवं घाणिदिय भावणा भाविओ भवइ अंतरप्पा मणुण्णामणुण्ण सुभिः दुभि रागदोसे पणिहियप्पा साहू मणवयणकाय गुत्ते संबुडे) इन पूर्वोक्त समस्त पदों का संग्रह और अर्थ पहले की तरह कर लेना चाहिये । अर्थात् निंदा, खिसा, छेदन, भेदन, नहीं करना चाहिये और न उनके विषय में साधु को जुगुप्सा-घृगा-वृत्ति ही करनी उचित है। इस प्रकार घाणइन्द्रिय की भावनो से भविन अन्तरात्मा होता है तब वह मनोज्ञ त्यारे तेमनी 4 ugl or असा थ ५ छ. तो “ समणेण" साधुणे तमनी ५ प्रत्ये तथा “ एवमाइएसु अन्नेसु तेसु अमणुण्णपावगेसु" ते संत ते ४२नी ममनोज्ञ अशुभ हुने यो प्रत्ये "न रुसियब्बन हीलियब्व जाव पणिहिय पंचेदिए धम्म चरेज्ज" २१५ ४२ मे नडी, तेमनी 24qज्ञा ४२वी नडी. मी यावत्-७४थी “न निदियव्व', न खिसियव्व', न छिंदियव्व', न भिंदियव्व, न वहेयव्यं, न दुगुंछावत्तियाविलब्भा उप्पाएउं एवं घाणिदियभावणाभाविओ भवइ अंतरप्पा मणुण्णामणुण्णसुभिदुभिरागदोसे पणिहियप्पासाहू मणक्यकायगुत्ते संवुडे" पूर्वाईत मे सपना पहोने ४२॥ લેવાના છે અને આગળ બતાવ્યા પ્રમાણે તેમને અર્થ સમજી લેવાને છે. એટલે કે નિંદા, ખ્રિસા, છેદન, ભેદન કરવું જોઈએ નહીં અને તેમના પ્રત્યે સાધુએ જુગુપ્સા-ધૃણાવૃત્તિ પણ રાખવી જોઈએ નહીં. આ રીતે જ્યારે અંતરાત્મા ધ્રાણેન્દ્રિયની ભાવનાથી ભાવિત થાય છે ત્યારે તે મને જ્ઞરૂપ ધ્રાણેન્દ્રિ For Private And Personal Use Only Page #971 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे गुप्तः संहतः, ' इत्येतेषां संग्रहः, तथा-'पणिहिइंदिए' पणिहितपञ्चेन्द्रियः-प्रणिहितानि-वशीकृतानि इन्द्रियाणि येन स तथोक्तः सन् 'धम्म ' धर्म 'चरेज' चरेत् अनुतिष्ठेत् ॥ सू० ९॥ रूप घ्राणेन्द्रिय के शुभ और अमनोज्ञ के अशुभ विषय में रागद्वेष करने से रहित हो जाता है । इस प्रकार की स्थिति से युक्त बना हुआ साधु अपने मन वचन और कायरूप योगों को शुभ अशुभ व्यापार से सुरक्षित कर लेता है और घ्राणेन्द्रिय के शुभाशुभ विषय में शुभाशुभपरिणति जन्य कर्मबंधन की निवृत्तिरूप संवर से युक्त हो जाता है और ( पणिहिइंदिए चरेज धम्मं ) वशीकृत इंद्रियों वाला होकर चारित्ररूप धर्म का पालक बन जाता है। भावार्थ-सूत्रकार ने इस सूत्र द्वारा परिग्रह-विरमण व्रत की तीसरी भावना का उल्लेख किया है । इस भावनाका नाम घ्राणेन्द्रियसंवरण है। इसमें साधु अपनी घाणेन्द्रियको सुगंध और दुर्गन्धके संवन्ध होने पर पक्षपातिनी नहीं बनता है। यदि वह ऐसा करता है तो महान् अनर्थ का पात्र होता है । उसे नवीन कर्मों का बंधक माना जाता है। सुगंध और दुर्गन्ध के विषयभूत कितनेक पदार्थो को सूत्रकार ने इस सूत्र द्वारा समझाया है । अतः चरित्रधर्म को पूर्ण रूप से पालन करने के लिये साधु का कर्त्तव्य है कि वह इस प्रकार की जबर स्थिति उसके समक्ष हो तो वह समभावी बना रहे ॥ ० ९ ।। યના શુભ અને અમને જ્ઞરૂપ અશુભ વિષયોમાં રાગ અને દ્વેષથી રહિત થઈ જાય છે. આ પ્રકારની સ્થિતિથી યુક્ત થયેલ સાધુ પિતાના મન, વચન અને કાયરૂપ યોગને શુભ અશુભ વ્યાપારથી સુરક્ષિત કરી નાખે છે, અને ઘાણેન્દ્રિયના શુભાશુભ વિષયમાં શુભાશુભ પરિણતિજન્ય કર્મબંધનની નિવૃત્તિરૂપ सवयी युत तय छ भने : पणिहिंइदिए चरेज्ज धम्भं " सयभी ઈન્દ્રિયવાળો થઈને ચારિત્રરૂપ ધર્મનું પાલન કરનાર બને છે. ભાવાર્થ–સૂત્રકારે આ સૂત્રદ્વારા પરિગ્રહ વિરમણવ્રતની ત્રીજી ભાવનાનું સ્પષ્ટીકરણ કર્યું છે. તે ભાવનાનું નામ પ્રાણેન્દ્રિય સંવરણ છે. તેમાં એ બતાવ્યું છે કે સુગંધ અને દુધને સંબંધ થતાં સાધુ પિતાની ધ્રાણેન્દ્રિયને પક્ષપાતી બનાવતું નથી. જે તે એવું કરે તે મહાન અનર્થને પાત્ર થાય છે, તેને નવીન કર્મને બાંધનાર માનવામાં આવે છે. સુગંધ અને દુર્ગધયુક્ત કેટલાક પદાર્થો સૂત્રકારે આ સૂત્રમાં દર્શાવ્યાં છે તેથી ચારિત્રધર્મનું સંપૂર્ણ રીતે પાલન કરવાને માટે સાધુનું કર્તવ્ય છે કે તેણે ધ્રાણેન્દ્રિયના વિષયભૂત સુગધ તથા દુર્ગધયુક્ત પદાર્થો પ્રત્યે સમભાવ રાખવો જોઈએ. એ સૂ૯ છે For Private And Personal Use Only Page #972 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका भ०५ सू०१० जिद्धेन्द्रियसंवर'नामकचतुर्थभावनानिरूपणम् ९२३ चतुर्थी भावनामाह-'च उत्थं ' इत्यादि-- मूलम्-चउत्थं जिभिदिएण साइय रसाणिउ मणुण्ण भद्दगाई, किं ते? उग्गाहिम विविहपाणभोयण गुलकय खंडकय तेल्लघयकयभक्खेसु बहुविहेसु लवणरससंजुत्तेसु, बहुप्पकारमज्जियनिट्ठाणगदालियंब सेहंब दुद्धदहि--सरयमज्जवरदारणी सीहुकाविसायण सागटारसबहुप्पगारेसुयभोयणेसु य मणुण्णवण्णगन्धरसफासबहुदब्बसंभिएसु अण्णेसु य एवमाइएसु रसेसु मणुण्णभदएसु न तेसु समणेण सज्जियव्वं जाव न सइंच मई च तत्थ कुज्जा । पुणरवि जिभिदिएण साइयरसाइं अमगुण्जपावगाई, किं ते ? अरसविविरससीयलुक्खणिजप्पमाणभाषणाई दोसी वावण्णकुहिय पूइय अमणुण्णविणटुप्पसूय बहुदुन्भिगंधियाइं तित्तकडुयकसाय अंबिलरसलिंदनीरसाइं अण्णेसु य एवमाइएसु रसेसु अमणुण्णपावएसन तेस समणेणं रुचियवव्वं जाव चरेज्ज धम्मं ॥ सू०१०॥ टीका-' चउत्थं ' चतुर्थी जिद्धेन्द्रिय संवरणलक्षणां भावनामाह-'जिभिदिएण' जिहवेन्द्रियेण ' मणुण्णभद्दगाई' मनोज्ञभद्रकान् ' रसाणि उ.' रसाँस्तु अब सूत्रकार इस व्रत की चौथी भावना को कहते हैं'चउत्थं ' इत्यादि। टीकार्थ-(चउत्थं) चौथी भावना का नाम जिह्वेन्द्रियसंवरण है। इस भावनाके वशवर्ती हुए साधुको जिह्वा इन्द्रियके मनोज्ञभद्रक विषयमें और अमनोज्ञ अभद्रक विषय में रागद्वेष नहीं करना चाहिये-प्रत्युत समभाव वे सूत्र४।२ २५॥ प्रतनी याथी लाना मता छ-चउत्थं " ध्याह. 12-" चउत्थं " याथी भावनानु नाम वेन्द्रिय स५२२५ छ. આ ભાવનાનું પાલન કરનાર સાધુએ જિહા ઈન્દ્રિયના મનેજ્ઞ ભદ્રક વિષયમાં અને અમને અભદ્રક વિષયમાં રાગ દ્વેષ રાખ જોઈએ નહીં, પણ સમ For Private And Personal Use Only Page #973 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२४ प्रश्नव्याकरणसूत्रे वक्ष्यामाणपदार्थेषु स्थितान्‘साइय' स्वादयित्वा अविरतगृहस्थावस्थायामास्वाय, 'किं ते ' काँस्तान केषु केषु पदार्थेषु स्थितांस्तान् ? इत्याह-'उग्गहिमविविहपाणभोयणगुलकयखंडकय तेलघयकयभक्खेसु ' अवगाहिमविविधपानभोजनगुडकतखण्डकृततैलघृतकृतभक्ष्येषु-तत्र-अवगाहिमानि अवगाहनेन घृततैलादिषु बोलनेन पाकतो निष्पन्नानि यानि तानि पक्कान्नानि खण्डखायादीनि अगाहिमानि' कथ्यन्ते, तथा-विविधानि=बहुविधानि पानभोजनानि, तथा-गुडकृतानि-गुडेन निष्पादितानि, खण्डकृतानि वण्डेन निष्पादितानि, तैलघृतानि तैलेन घृतेन च ही धारण करना चाहिये, इसी विषय को सूत्रकार विशेषरूप से इस मूत्र द्वारा समझाते हैं-(जिभिदिएण) साधु जिहा इन्द्रिय से ( मणुण्ण भद्दगाई रसाणिउ ) मनोज्ञ-भद्रक रसको ( साइय ) अस्वादित करके उसमें राग आदि न करे इस प्रकार का यहां संबंध लगा लेना चाहिये, (किं ते ) यह मनोज्ञ रस किन २ पदार्थों के सहारे रहता है, इस प्रकार की आशंका का उत्तर देने के निमित्त सूत्रकार यहाँ उन कितनेक पदार्थों के नाम निर्दिष्ट करते हैं (उग्गाहिमविविहपाणभोयणगुलकयखंडकयतेल्लघयकयभक्खेसु) घृत, तैल आदिका जिनमें पहिले भोंन (तला जाता) दिया जाता हैं और फिर बादमें जो उनमें ही चुरोये जाकर पकाये जाते है ऐसे खाजा आदि पक्वान्न अवगाहिम कहलाते हैं तथा अनेक प्रकारका जो पान भोजन होताहै वह विविध पान भोजन कहलाता है गुड मिला कर बनाया गया ' एवं खांड मिश्रित कर बनाया गया विशेष भोजन गुड़कृत भोजन और खंडकृत भोजन कहलाता है । तैल ભાવ જ રાખવું જોઈએ. એ જ વિષયને સૂત્રકાર વિસ્તારપૂર્વક આ સૂત્ર દ્વારા सभनव छ “ जिभिदिएण" साधुसे लथी “ मणुण्णभद्दगाई रसाणिउ" भनाज्ञ-मद्र २सना “साइय" मास्वाह चीन तमाशाह ४२ नये नही. " किं ते" से मनोज्ञ २४ ज्या ज्या पहार्थीमा डाय छे, ते प्रश्नमा ઉત્તર આપતા સૂત્રકાર અહીં એવા કેટલાક પદાર્થોના નામનો ઉલ્લેખ કરે છે " उग्गाहिम-विविहपाण-भोयण-गुलकय-खंडकय- तेल्ल-घयकय-भक्खेसु" घी, तेस આદિનું જેમાં પહેલા જેમાં મેણુ દેવાય છે અને પછી તેમાં જ તળીને પકવવામાં આવે છે એવા ખાજા આદિ પકવાનને અવગાહિમ કહે છે. તથા અનેક પ્રકારના જે પાન (પી શકાય તેવા) ભેજન હોય છે તેમને વિવિધ પાન ભજન કહે છે, ગેળ નાખીને બનાવેલા ભોજનને ગુડકૃત અને ખાંડ નાખીને બનાવેલા ભેજનને ખાંડકૃત ભજન કહે છે. તેલ અને ઘીમાં બનાવેલ લાડુ For Private And Personal Use Only Page #974 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ०५ सू०१० 'जिह्नवेन्द्रियसंवर' नामक चतुर्थ भावना निरूपणम् ९२५ = निष्पादितानि यानि भक्ष्याणि मोदकादीनि तानि एषां द्वन्द्वस्तेषु तथोक्तेषु तथा 'बहुविसु ' बहुविधेषु विविधप्रकारेषु 'लवणरससंजुत्तेसु' लवण रससंयुक्तेषु भक्ष्येषु शाकवटाकादिषु तथा बहुपगारमज्जिय - निडाणगदा लियंब से हंबदुद्धदहि सरयमज्जवरवारुणी सीहुकाविसायणसागद्वारसवहुप्पगारे सु' बहुप्रकार मज्जिका निष्ठानक दालिकाम्लधाम्ल दुग्धदधिसरकमद्यवरवारुणी सीधुकापिशायनशाकाष्टादशबहुप्रका रेषु तत्र - एतदास्वादनं गृहस्थावस्थासु बोध्यम्, संयमावस्थासु सर्वथा तद्वर्जनात बहुप्रकारा-बहुविधा, मार्जिता = रसाला = दधिशर्करादिनिष्पादितसुगन्धद्रव्यवासितखाद्य विशेषः, श्रीखण्डेति भाषापसिद्धः, निष्ठानकं प्रकृष्टमूल्यनिष्पादितो भक्ष्यविशेषः तदुक्तम्- 'निद्वाणंति जा सयसहस्स' इति, अयं भावः यलक्षमुद्राभिर्निष्पाद्यते तद् भक्ष्यविशेषो निष्ठानमुच्यते । यद्वा-भक्ताद्यनोपसेचनेन संपादिते दध्यादिव्यञ्जने 'करंबा' इतिभाषामसिद्धे, तथा दालिकाम्लम् = मरीचराजिकादि संस्कृतोद्विदलनिऔर घृतमें बनायागया मोदकादि भोजनीय पदार्थ तेलकृत और घृतकृत भोजन कहलाता है। इन खाद्य पदार्थों में तथा और भी ( बहुविसु ) अनेक प्रकार ( लवणरस संजुत्तेसु) लवणरसमिश्रित शाक, बड़ा आदि खाद्यपदार्थ विशेष है उनमें तथा (बहुप्पगार- मज्जिय-निक्षणग - दालियंत्र से हंब-बुद्ध - दहि- सरय-मज्ज- वरवारुणी - सीहु का विसा यण - सागद्वारस- बहुष्पगारेसु-भोयणेसु य) पहिले गृहस्थावस्था में उपयो गमें लाये गये बहुविध भोजनीयपदार्थ जैसा मार्जिता रसाला -दधि शर्करा आदिसे निष्पादित तथा सुगंधित द्रव्यसे वासित खाद्यविशेष कि जिसे श्रीखंड कहते हैं, उनमें निष्ठानक- एक लाख रुपये लगा कर निष्पादित किये गये भक्ष्य विशेषमें अथवा मेहरी - राबडी में, दालिकाम्ल में मरीच राई में संस्कृत हुए तथा द्विदल चना आदि के आटे - वेसन आदिसे 66 ” અનેક પ્રકારના (6 | આદિ ખાદ્ય પદાર્થને તેલકૃત અને ધૃતકૃત ભાજન કહે છે. એ ખાદ્ય પદાર્થોમાં તથા ખીજા પણ જે बहुविसु लवणरस संजुत्सु લવણરસ મિશ્રિત શાક, વડા આદિ ખાદ્ય પદાર્થો છે તેમાં તથા बहुप्पगार -मज्जिय-निट्ठाण - दालियंब - सेहंब - दुद्ध - दहि- सरय-मज्ज- वरवारुणी- सीहु-काविसायण- सागद्वारसबहु पगारेसु भोयणेसु य " पडेसां गृहस्थावस्थामा उपयोगभां લીધેલ અનેક પ્રકારના ખાદ્યો જેવા કે દહી, ખાંડ આદિમાંથી તૈયાર કરેલ તથા सुगंधित द्रव्यधीयुक्त भे पास लोभन लेने शिम' हे छे. तेमां निष्ठानको साथ इपीया अस्थीने तैयार उशवेस मास लोन्नभां अथवा मेहरी-दूधपाउस, દાલિકામ્સમાં-મરચાં, રાઈ, મેથી, જીરૂં આદિને વઘાર કરેલ તથા ચણા મહિના For Private And Personal Use Only (" "" , Page #975 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे पादितोव्यञ्जनविशेषः 'कट' इतिभाषाप्रसिद्धो, सेधाम्लम् खाद्यविशेषः, पक्वं सद् यदम्लेन संस्क्रियते तत्खाद्यं सेधाम्लमुच्यते । दुग्धंदधि च प्रसिद्धम् , सरका=गुडघातकीपुष्पादिना सिद्धः 'सरकाः' इति भाषाप्रसिद्धाः, मद्यं-पैष्टं गोधूमादिचूर्णनिष्पन्नम् , वरवारणी श्रेष्ठमदिरा, सीधुः आसवः-इक्ष्वादिजनितमद्यम् , कापिशायनम् कापिशी नाम नगरी तस्यां जातं द्राक्षानिर्मितं विशिष्टमद्यम् , एतान्यपि मद्यानि गृहवस्थावस्थासु समास्वादितानि न तु संयमावस्थायामिति बोध्यम् , तथा शाका अष्टादश-अष्टादशसंख्यकाः शाकाः, एषां बहुव्रीहिसमासे तानि तथोतानि, तानि च बहुप्रकाराणोतिकर्मधारयः, तेषु तथोक्तेषु 'मणुन्नवन्नगंधरसफासबहुदव्वसंभिएसु ' मनोज्ञवर्णगन्धरसस्पर्शबहुद्रव्यसंभृतेषु-मनोहरवर्णगन्धरसस्पर्शवद् बहुविधद्रव्यसंस्कृतेषु ' भोयणेसु' भोजनेषु च स्थितान् रमान गृहस्थावस्थाबनाये गये " कढी” रूप व्यंजनमें, सेंधाम्लमें पका कर के जो खटाई से संस्कृत किया गया हो, ऐसे खाद्यविशेष में, दुग्ध, दधिमें गुड़, धातकी पुष्प-महुआ-इन दोनों के मेल से बनाये गये सरका में, गोधूम-गेहूं के आटेसे निष्पन्न किये गये मद्य-पैष्ट मद्य में, वरवारणो-उत्तम मदिरा में मुनि अवस्था में नहीं, किन्तु गृहस्थावस्थामें उपयोग में लाई गई श्रेष्ठ मदिरा वराण्डी में, सीधु-आसव इक्षु आदिके रस से बनाये गये मद्यमें, कापिशायन-कापिशी नाम की नगरी में द्राक्षाओं से बनाये विशिष्ट मद्यमें तथा अठारह प्रकार के शाकों में, इत्यादि अनेक प्रकार के भक्ष्य पदार्थों में तथा ( मणुन्नवन्नगंधरसफासबहुव्वसंभिएसु भोयणेसु य ) मनोज्ञ वर्ण. गंध, रस और स्पर्शवाले अनेकविध द्रव्यों से निष्पन्न हुए भोजनों में स्थित रसों को गृहस्थावस्था में आस्वादित करके उनमें, तथा લેટમાંથી બનાવેલ “કઢી” નામના વ્યંજનમાં, સેંઘાણ્વમાં-પકાવીને ખટાશ ઉમેરવામાં આવી હોય એવાં ખામાં, દૂધ, દહીંમાં ગોળ, ધાતકી પુષ્પ-મહુડા એ બંનેના મિશ્રણથી બનાવેલ સરકામાં, ગોધૂમ-ઘઉંના લેટમાંથી તૈયાર કરેલ મઘ-ષ્ટિમધમાં, વરવારણું ઉત્તમ મદિરામાં, મુનિ અવસ્થામાં નહીં પણ ગૃહસ્થાવસ્થામાં ઉપયોગમાં લીધેલ શ્રેષ્ઠ મદિરા-વરડીમાં, સીધુ-આસવ-શેરડી આદિના રસમાંથી બનાવેલ મદિરામાં, કાપિશાયન-કાપિશી નામની નગરીમાં દ્રાક્ષમાંથી બનાવેલ એક વિશિષ્ટ મધમાં, તથા અઢાર પ્રકારનાં શાકમાં त्याहि भने, ४२i माय पहाभा तथा “मणुन्नबन्नगंधरसफासबहुव्व संमिएसु भोयणेसु य” भना७२ प[, गंध, २४ आने २५ भने मानi તમાંથી તૈયાર કરાવેલ ભેજનોમાં રહેલ રસને ગૃહસ્થાવસ્થામાં સ્વાદ For Private And Personal Use Only Page #976 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिमी टीकाम०५ ०१० जिहवेन्द्रियसंवर'नामकचतुर्थभावनानिरूपणम् ९२७ यामास्वाद्य तेषु तथा---' अन्नेसु य' अन्येषु च = एतद्भिन्नेषु ' एबमाइएसु' एवमादिकेषु = पूर्वोक्तसदृशेषु- 'मणुण्णभद्दएमु ' मनोज्ञभद्रकेषु रसेषु कथ. म्भूतेषु रसेपु ? तेषु-ये रसा अविरतगृहस्थावस्थायामास्वादितास्तेषु ' समणेण ' श्रमणेन श्रमणावस्थास्थितेन मुनिना 'न सज्जियव्यं न सक्तव्यम् 'जाव' यावत्यावत्करणात्-न रक्तव्यम् , न गर्द्धितव्यम् , न मोहितव्यम् , न विनिघात आपत्तव्यः, न लोब्धव्यम् , न तोष्टव्यम् , न हसितव्यम् , एषामर्थः प्रथमभावनायामुक्तः । न च श्रमणः ' तत्थ ' तत्र-गृहस्थावस्थोपभुक्तरसेषु 'सईच' स्मृति च-स्मरणमपि, 'मई च ' मतिं च श्रमणावस्थायां तदुपभोगबुद्धिमपि 'कुज्जा' कुर्यात् । 'पुणरवि' पुणरप्युच्यते-- जिभिदिएण' जिह्वेन्द्रियेण ' अमणुन्नपा( अन्नेसु एवमाइएसु मणुन्न भद्दएसु ) दूसरे और इसी प्रकार के मनोज्ञ भद्रक रसों में कि जो अविरत नित्य गृहस्थावस्था में आस्वादित किये हुए थे ( समणेण) श्रमण अवस्था में स्थित हुए मुनि को (न सज्जियव्वं जाव न सईच मई च तत्थ कुज्जा) ओसक्तचित्त नहीं बनना चाहिये यावत् उसे उनकी स्मृति नहीं करना चाहिये और उनमें अपनी कि मैं श्रमणावस्था में इनका भोग करूं इस प्रकार बुद्धि को भी नहीं लगाना चाहिये । यहां यावत् शब्द से “ न रज्जियवं, न गिझियव्वं, न मुझियवं, न विणिघायं आवज्जियवं, न लुभियव्वं, न तुसियव्वं, न हसियव्वं " इन पूर्वक्ति पदों का ग्रहण किया गया है। इन सबका अर्थ प्रथम भावना में लिखा जा चुका है । ( पुणरवि) इसी तरह फिर (जिभिदिएण) जिहा इन्द्रिय से ( अमणुन्नपावगाइं रसाइं ) अरुचिकासने तेमनामा तथा “ अन्नेसु एवमाइएसु मणुन्नभदएसु" मे ४ ५२न! બીજા ભદ્રક મનોજ્ઞ રસમાં કે જેને ગૃહસ્થાવસ્થામાં સદા સ્વાદ લેવાતું હતું तमा “समणेण" साधु अवस्थामा २८ भुनिये “न सज्जियव जाव न सईच मई च तत्थ कुज्जा" " मासत न नही” त्यांथी २३ કરીને “તેણે તેમને યાદ કરવા જોઈએ નહીં. અને હું શ્રમણ – અવસ્થામાં તેમને ઉપભેગ કરૂં એ વિચાર પણ કરે જોઈએ નહીં” ત્યાં સુધી અર્થ ગ્રહણ કરવાને છે. ___मी ' यावत् ' शथी “ न रज्जियवं, न गिझियव्व', न मुज्झियव्व, न विणिघायं आवज्जियव्व, न लुभियन्व, न तुसियव्वं न हसियव्व" से पूरित પદે ગ્રહણ કરાયેલ છે. એ બધાને અર્થ પહેલી ભાવનામાં અપાઈ ગયો છે " पुणराप" मे शते " जिभिदिएण" मी " अमणुन्नपावगाई रसाई" For Private And Personal Use Only Page #977 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ९२८ प्रश्नव्याकरणसूत्रे बगाई" अमनोज्ञयापकान् अरुचिकरान् , ' रसाई' रसान् ‘साइय' स्वादयित्वा, ' किं ते ' कांस्तान कथंभूतांस्तान् रसान् । इत्याह-' अरसविरससीयलुक्वणिज्जप्पपाणभोयणाई' अरसविरसशीतलहक्षनिर्याप्यपानभोजनानि, तत्र-अरसानि =रसरहितानि-हिङ्गग्वादिसंस्कारवर्जितानि, विरसानिविगतरसानि-पर्युषितानि, शीतानि शीतलानि रूक्षाणि-घृतादिलेशवर्जितानि, निर्याप्याणि-बलवर्द्धनशक्तिरहितानि यानि पानभोजनानि तानि तथोक्तानि, तथा-'दोसीणवावनकुहियपूइय-अमणुन्नविण?-पत्य-बहुदुन्भिगंधियाई' दोपन्नव्यापनकुथितपूतिकामनोज्ञ विनष्टप्रस्तबहुदुरभिगन्धितानि, तत्र-' दोसीग' त्ति-दोपानं-दोषा-रात्रिस्तत्र पक्वं यदन्न, रात्रिपर्युषितमित्यर्थः, व्यापन्न=विनिष्ट वर्णम् , कुथित कोथयुक्तम् , शटितमित्यर्थः, पूतिकम् गन्धयुक्तम् , अत एव-अमनोज्ञम् असुन्दरम् , विनष्टम् अत्यन्तविकृतावस्थामाप्तम् , ततः प्रमूतः प्रादुर्भूतो यो बहु दुरभिगन्धः अतिदुर्गन्धः स जातो येषु तानि तथोक्तानि, तथा-'तित्तकडुयकसायअंबिलरसलिंदनीरसाई' रक रसों का (साइय ) आस्वादन करके उनमें साधु को राग द्वेषभाव धारण नहीं करना चाहिये । (किं ते ? ) अरुचिकारक रस कौन २ से हैं इस प्रश्न का समाधान करने के निमित्त सूत्रकार कहते हैं-(अरसविरससीयलुक्खणिज्जपाण भोयणाई) अरस-हिङ्गु आदिके वघार से वर्जित, विरस-रस से विहीन-पर्युषित, शीत-शीतल-ठंडे, रूक्षघृतादि के लेश से रहित, निर्याप्य-वल बढाने की शक्ति से रहित, तथा (दोसीणवाचनकुट्टिय पूइय अपणुनविणट्टपसूयबहुदुन्भिगंधियाई) दोसी: णरात्रिमें पकाये गये ब्यापन-विनष्ट वर्णवाले, कुथित-सडे हुए पूतिक दुगंधयुक्त, अतएव मनोज्ञ-असुन्दर तथा विनष्ट-अत्यंत विकृत अवस्था वाले और इसी कारण जिनमें से अत्यंत दुर्गध निकल रही हो ऐसे तथा जो (तित्तकडुयकसायअंबिलरसलिंदनीरसाई) मरीच-मिर्च के जैसा भरुथि४२ २सोनु “साइय" भारवाहन परीने तेमनामा साधु ३५५ २०५३। मे नडी. " किं ते १" अरुथि४।२४ २५ च्या ४या छे थे प्रश्ननु सभाधान ४२वाने माटे सूत्रधार ४ छ-" अरसविरससीयलक्खणिज्जप्पपाणभोयणाई" २५२स-1ि माहिना १२थी २डित, विरस -२२२डित-पयुषित, शीत -शीतज-3'31, ३२-३ विनानु, निर्याय-21 qधारपानी शतिथी २डित, तथा " दोसिणवावन्नकुहियपूइयअमणुन्नविणटुपसूयवहुदुभिगंधियाई" हसीy -रात्रे रास, व्यापन-विनष्ट वाणु-थित-सस, पूति- दुध, तेथी અમને-અસુંદર તથા વિનષ્ટ-અત્યંત વિકૃત અવસ્થાવાળા અને એ કારણે भांथी मत्यात नीती हाय तेवा, तथा २ " तित्तकडुयकसायअबिल For Private And Personal Use Only Page #978 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 27 सुदर्शिनी टीका अ०५सू० १० 'जिहवेन्द्रिय संघर' नामक चतुर्थ भावनानिरूपणम् ९२९ " तिक्तकटुककषायाम्लरस लिन्द्रनीरसानि = तत्र तिक्तं मरीचत्रत्, कटुकं - निम्बवत्, कपायम्=आमलफलवत्, आम्लरसम् = अम्मिल 'इमली ' कावत लिन्द्र-सशैवालपुराणजलवत्, नीरसं= विगतरसम् एषां इन्दुस्तानि तथोक्तानि आस्वाद्य - उपर्यु कारसविरसादि पानभोजनस्थितान मनोज्ञपापकान् रसानास्वाद्येत्यर्थः, 'समणेण ' श्रमणेन - साधुना ' तेसु ' तेषु = उक्तेषु ' अमणुन्नपावरसु ' अमनोज्ञपापकेषु रसेसु रसेषु तथा एम्य: ' अन्नेसु ' अन्येषु ' एवमाइएस ' एवमादिकेषु = एवं प्रकारेषु च अमनोज्ञपापकेषु रसेषु ' न रोसियच्चं ' न रोष्टव्यम्, 'जाव' याव स्करणात्-नहीलियर, 'न निंदितव्यं न खिसितव्यम्, न छेत्तव्यम्, न तिक्त हो-चरपरा हो, कटुक-नीम के जैसा कडबा हो, आमले के जैसा कपाय रसवाला हो, कच्ची कैरी- अमिया के जैसा जो खट्टा हो, लिंद्रशैवालसहित पुराने जलके समान हो, विगतरस हो ऐसे इन उपर्युक्त are far आदि पान भोजन में स्थित अमनोज्ञ पापक- अरुचिकारक रसों को आस्वादित करके ( समणेण ) मुनि को (तेसु) उन ( अमणुपावस) अमनोज्ञ पापक- अरुचिकारक - रसोंमें तथा ( अण्णेमु एवामाइ ए रसे) इसी प्रकार के और भी इनसे भिन्न रसों में ( न रुसि - यव्वं जाव चरेज्ज धम्मं ) रोष नहीं करना चाहिये । " न हीलियनं, न निंदिय्वं न खिसि न छिंदियव्यं, न निदियव्यं न बहेव्वं, न दुधावचियाविभा उप्पा" उनकी अवज्ञा नहीं करनी चाहिये, उन्हें देखकर उनपर सिसयाना - परोक्ष में निंदा नहीं करनी चाहिये । तथा अमनोज्ञ रसस्थित व्यका छेदन नहीं करना चाहिये, भेदन एवं रसलिंदनीरसाईं " भरीय-सध्यां वां तीयां होय, थरपरा होय, मुटुલીમડા જેવાં કડવા હાય, આમળા જેવાં તુરા હાય, કાચી કેરી જેવાં ખાટાં होय, लिंद्र -? शेवाजयुक्त पुराण पाणी नेवां होय, विगत रस डोय, मेवां ઉપર કહેલા અરસ વરસ આદિ ભેજનામાં રહેલ અમનેાજ્ઞ પાપક-અરુચિકર रसोनुं व्यास्वाहन उरीने " समणेण भुनिये " तेसु ” ते “अमणुन्न पाव ए अमनोज्ञ पापड-अरुथि४२ रसोभां तथा " अण्णेसु एवमाइएस रसेसु" પ્રકારના બીજા રસામાં પણ न रुसियन् जाव चरेज्जधम्मं " शेष रखे। लेहाखे नहीं, न हीलियव्व' न निंदियव्त्र, न खिंसियव्व न छिंदियव्व', न मंयिव्व, न वहेयव्य, न दुर्गुछावत्तियावि लब्भा उप्पाएउ " तेभनी अवज्ञा ન કરવી જોઇએ, તેમને જોઈને તેમની પરાક્ષ રીતે નિંદા ન કરવી જોઈએ, તથા અરુચિકર રસવાળા દ્રવ્યનું છેદન ન કરવું જોઇએ, ભેદન અને નાશ ન કરવા ,, 66 16 , प्र ११७ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only 1 Page #979 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ९३० प्रश्नव्याकरणसूत्रे भेतव्यम् न हन्तव्यम् न जुगुप्सावृत्तिकाऽपि लभ्या उत्पादयितुम् । एवं जिहवेन्द्रियभावनाभावितो भवति अन्तरात्मा - जीवः मुनिः । ततश्च - मनोज्ञामनोज्ञसुरभिदुरभिरागद्वेषे प्रणिहितारमा साधुर्मनोवचनकाय गुप्तः संवृतः प्रणिहितेन्द्रियः- एव संग्रहो बोध्यः 'धम्मं ' धर्म 'चरेज्ज ' चरेत्=अनुतिष्ठेत् ॥ सू० १० ॥ नाश नहीं करना चाहिये । और न अपने मनमें भी उस पर जुगुप्सा वृति जगे ऐसी चेष्टा ही करनी चाहिये । इस प्रकार से 'जिद्दाइन्द्रिय मुझे वशमें करनी चाहिये अन्यथा महान् अनर्थ का भागी मुझे होना पडेगा ' इस प्रकारकी जिस इन्द्रियकी भावना से भावित जब मुनि हो जाता है तब वह मनोज्ञरूप एवं अमनोज्ञरूप सुरभिदुरभि इस में राग द्वेष करने से रहित बन जाता है । इस प्रकारकी स्थिति से संपन्न बना हुआ साधु अपने मन, वचन, और कायरूप तीन योगों को शुभ और अशुभ के व्यापार से रहित कर लेता है और इस इन्द्रिय के संवरणसे युक्त बन जाता है । इस तरह रसनेन्द्रिय के संवरण से युक्त होकर वह चारित्ररूप धर्मका पालन करने में सर्व प्रकार से दृढ हो जाता है । भावार्थ - इस सूत्रद्वारा सूत्रकार ने इस व्रत की चौथी भावना का स्वरूप प्रदर्शित किया है। उसमें उन्होंने यह समझाया है कि साधुको अपनी रसना इन्द्रिय को रुचिकारक एवं अरुचिकारक रसों के आस्वादजन्य रागद्वेष के पक्षपात से रहित कर लेनी चाहिये, तभी जा कर वह रसनेन्द्रिय विजयी हो सकता है। ऐसा नहीं होना चाहिये कि જોઈએ. પેાતાના મનમાં કે પારકાના મનમાં તેના પ્રત્યે જુગુપ્સાવૃત્તિ થાય તેવું વન કરવુ જોઈએ નહીં, આ રીતે “ મારે જિજ્ઞા ઈન્દ્રિયને વશ રાખવી જોઇએ. નહી. તેા મારે મહાન અનને પાત્ર બનવું પડશે.” આ પ્રકારની જિજ્ઞા ઇન્દ્રિયની ભાવનાથી જ્યારે મુનિ ભાવિત થાય છે ત્યારે તે મનેાસરૂપ અને અમનેાના રૂપ, સુંદર અને અસુંદર દ્રવ્યો પ્રત્યે રાગ દ્વેષથી રહિત બની જાય છે. આ પ્રકારની ભાવનાથી યુક્ત બનેલ સાધુ મન, વચન અને કાય, એ ત્રણે ચેગોને શુભ અને અશુભ વ્યાપારથી રહિત કરી લે છે. અને આ ઇન્દ્રિયના સંવરણથી યુક્ત બની જાય છે. આ રીતે રસના ઇન્દ્રિયના સંવરણથી યુક્ત થઈને તે ચારિત્રરૂપ ધર્મનું પાલન કરવામાં બધી રીતે દૃઢ બની જાય છે. ભાવા—આ સૂત્ર દ્વારા સૂત્રકારે આ વ્રતની ચાથી ભાવનાનું સ્વરૂપ પ્રગટ કર્યું છે તેમાં તેમણે સમજાવ્યું છે કે સાધુએ પોતાની રસના ઇન્દ્રિયને રુચિકર અને અરૂચિકર રસેના આસ્વાદનને કારણે ઉત્પન્ન થતાં રાગદ્વેષને પક્ષપાતથી રહિત કરવી જોઈએ; ત્યારે જ તે રસનેન્દ્રિય પર વિજય મેળવી શકે For Private And Personal Use Only Page #980 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुरर्शिनी टोका अ५ सू०११ स्पर्शन्द्रिय संवर'नाम कपञ्चमभावनानिरूपणम् १३१ पश्चमी भावनामाह-पंचमं ' इत्यादि मूलम्-पंचमं पुण फासिदिएण फासिय फासाई मणुन्नभइकाई, कि ते? दग मंडव-हार-सेयचंदण-सीयल-विमल-जलविविह-कुसुमसत्थर --ओसीरमुत्तिय--मुणालदोसिणा पेहुण उक्खेवग-तालियंटवीयणग-जणिय-सुहसीयले य पवणे गिम्हकाले, सुहफासाणि य यहूणि सयणाणि य आस णाणि णे य पाउरणगुणे य सिसिरकाले, अंगारपवावणा रुचिकारक रस मिल जावे तो वित्तमें उसके प्रति रागभात्र उद्भूत हो जावे और अरुचिकारक रस मिल जावे तो उसमें द्वेषभाव उत्पन्न हो जावें। दोनों प्रकारके रसों में समताभाव धारण करना माधु का सर्वे प्रथम कर्तव्य है । इसी विषयको लेकर इस सूत्रमें रुचिकारक रसके आश्रयभूत उग्गाहिम आदि कितनेक पदार्थो को तथा अरुचिकारक रस के आश्रयभूत अरसविरस आदि पदार्थो को कहा गया है । तथा साथ२ में यह समझाया गया है कि गृहस्थावस्था में जिन रुचिकारक रसों का आस्वाद लिया था वे रस साधु अवस्था में स्मरण करने योग्य नहीं हैं। कारण कि उनकी स्मृति से जिह्वा इन्द्रिय में रस के प्रति लोलुपता बढ़ती है। इप्त प्रकार से रसना इन्द्रिय के विषय में समभाव रखनेवाला साधु चारित्र धर्मका निर्वाह अच्छी तरह से करनेवाला हो जाता है ॥०१०॥ છે એવું ન બનવું જોઈએ કે રૂચિકર રસ મળે તે તેના પ્રત્યે ચિત્તમાં રાગભાવ પિદા થઈ જાય છે, અને અરૂચિકર રસ મળે તે હેષભાવ પેદા થાય. બને પ્રકારના રસે પ્રત્યે સમભાવ રાખવે તે સાધુનું પહેલું કર્તવ્ય છે. એ વિષયનું વર્ણન કરતાં આ સૂત્રમાં રૂચિકર રસયુક્ત ઉગાહિમ આદિ કેટલાક પદાર્થોને તથા અરૂચિકર રસયુક્ત અરસવિરસ આદિ પદાર્થોને બતાવ્યા છે તથા સાથે સાથે એ સમજાવ્યું છે કે ગૃહસ્થાવસ્થામાં જે રૂચિકારક રસને સ્વાદ લીધે હતે તે રસેનું સાધુ અવસ્થામાં સ્મરણ કરવું તે પણ ચગ્ય નથી. કારણ કે તેને યાદ કરવાની જિવા ઈન્દ્રિયમાં રસના પ્રત્યે લાલસા વધે છે. આ રીતે રસના ઈન્દ્રિયની બાબતમાં સમભાવ રાખનાર સાધુ ચરિત્ર ધર્મનું સારી રીતે पासन ४२ना२ मनी नय छे. ॥ सू० १० ॥ For Private And Personal Use Only Page #981 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३३३ प्रश्नव्याकरणदो य आयवनिद्धमउय-लीय उसिणलहुया य जे उउसुहफासा अंगसुहनिव्बुइकरा ते, अन्नेसु य एवमाइएसु फासेसु मणुन्नभदएसु न तेसु समणेण सज्जियव्वं,न रज्जियवं, न गिज्झियवं, न मुज्झियव्वं, न विणिघाय आवज्जियवं, न लुभिः यवं, न अज्झोववज्जियवं, न तूसियनं, न हसियव्वं, न सई च मइं च तत्थकुज्जा । पुणरवि फासिदिएण फासिय फासाइं अमणुन्नपावगाई, किं ते ? अणेगवहबंध-तालणंकण अइभारारोवण-अंगभंजण-सुईनखप्पवेस-गायपच्छणलक्खारसखारतेल्लकलकलंत--तउसीसककाललोह-सिंचणहडिबंधण रज्जुनिगल-संकलन हत्थंडुयकुंभिपाकदहण-सीहपुच्छण-सूलभेय--गयचलणमलण-करचरणकन्ननासोट्ठसीसछेयण-जिन्भच्छेयण-वसणनयण हिययदंतभंजण-जोत्तलयकसप्पहारपादपण्हिजाणुपत्थरनिवायपीलणक -- विकच्छुअगणि विच्छुयडक्वायायवदंसमसगनिवाए दुणिसज्जदुन्निहिया कक्खड-गुरुसीयउसिणलुक्खेसु बहुविहेसु अन्नेसु य एवमाइएसु फासेसु अमणुन्न पावगेसु न तेसु समणेण रूसियव्वं, न हीलि. यत्वं, न निंदियव्यं, न गरहियवं, न खिसियवं, न छिंदियन्वं, न भिंदियव्वं, न वहेयव्वं, न दुगुंछावत्तियाविलब्भा उप्पाएउं एवं फासिदियभावणाभाविओ भवइ अंतरप्पा मणुन्नामणुन्नसुन्भिदुभिरागदोसपणिहियप्पा साहू मयवयणकायगुत्ते संवुडे पणिहिइंदिए चरेज धम्मं ॥ सू० ११ ॥ For Private And Personal Use Only Page #982 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सुदर्शिनी टीका अ०५ सू०११ 'स्पर्शेन्द्रियसंवर' नामकप पञ्चम भावनानिरूपणम् ९३३ टीका--' पुण' पुनः 'पंचमं पञ्चमी स्पर्शेन्द्रियसंवरणाभिधेयां भावनामाह - ' फासिदिएण ' स्पर्शेन्द्रियेण ' मणुग्ण भरगाई' मनोज्ञभद्रकानू 'फासाई' स्पर्शान् 'फासिय' स्पृष्टा 'किं ते' काँस्तन-कथम्भूतस्तान् इत्याह- 'दगमंडव - हार- सेय· चंदणसीयलविमलजलविविधकुसुमसत्थर उसीर- मुत्तियमुणालदो सिणा ' दकमण्डपहार श्वेतचन्दनशीतलविमलजलविविधकुसुमसंस्तरोशीर मौक्तिकमृणालज्योस्नाः, तत्र - दकमण्डपाः = उदकमण्डपाः, जल यन्त्रस्थानानीत्यर्थः, हाराः प्रतीताः, श्वेतचन्दनानि=श्रीखण्डचन्दनानि शीतलविमलजलानि = शीतलानि = विमलानि अब सूत्रकार इस व्रत की पांचवी भावना कहते हैं- 'पंचमं पुण' इ० टीकार्थ - ( पंचमं पुण) पांचवीं भावना स्पर्शनेन्द्रिय संवर नाम की है । वह इस प्रकार से है - ( फार्सिदिएण ) स्पर्शन इन्द्रिय से ( मणुण्णभगाई फासाई ) मनोज्ञ भद्रक-स्पर्शन इन्द्रिय को सुखकारक - स्पर्शो को ( फासिय ) स्पर्श कर के साधु को उन में रुचिभाव - रागपरिणति नहीं करना चाहिये, इस प्रकार से यहां संबंध लगा लेना चाहिये( किं ते ? ) रुचिकारक स्पर्श के विषयभूत कौन २ से पदार्थ हैं, इस प्रकार के प्रश्नका उत्तर देते हुए सूत्रकार उन कितनेक पदार्थों को नाम निर्देशपूर्वक कहते हैं- (गिम्हकाले दगमंडव - हार - सेयचंदण - सीयल विमल - जलविवि कुसुम सत्य - ओसीर - मुत्तिय - मुगाल-दीसिणा - पेहुणउक्खेवग - तलियंट-बीयणग-जणिय सुहसीयले य पवणे ) ग्रीष्मकाल में दकमंडप - जल के फुआरे जहां जल वरसाकर स्थान को ठंडा रखते हों, ऐसा जल यंत्र स्थान, हार श्वेतचंदन- श्रीखंड चंदन, शीतल, निर्मल Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir હવે સૂત્રકાર આ વ્રતની પાંચમી ભાવના મતાવે છે " पंचमं पुण " इत्याहि- स्यशेंन्द्रियथी " मणुण्णभगाइ' फासाइ " टीडार्थ - पंचमं पुण " पांयभी लावता स्पर्शेन्द्रिय सवर नामनी छे તે આ પ્રમાણે છે ' फासिंदिएण " મનોજ્ઞભદ્રક સ્પર્શેન્દ્રિય સુખકારક સ્પર્શોના " फासिय ” स्पर्श उरीने साधुओ તેમના પ્રત્યે રૂચિભાવ-રાગપરણિત કરવી જોઇએ નહીં (6 " किं ते ? " ३२४४२४ स्पर्शबाणा श्या કયા પદાર્થો છે તે પ્રશ્નના ઉત્તર આપતા સૂત્રકાર એવા કેટલાક પઢાર્થોનો ઉલ્લેખ કરીને કહે છે કે— गिहाले दगड-हार - सेयचंदण सोयलविमलजल विविध कुसुम सत्थर-ओखीर- मुत्तिय - मुणाल- दोसिणा पेहुण-उक्खेव तालियंट-वीयणग-- अणिय सुइसी. यले य पवणे " श्रीष्म ऋतुमा सय नयां पालीना दुवारा पालीने उडाडीने -- For Private And Personal Use Only Page #983 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ९३४ प्रश्नव्याकरणसूत्रे -निर्मलानि च यानि जलानि तानि, तथा-विविधकुछमसंस्तराः= विविधानाम् अनेकप्रकाराणां कुसुमानां=पुष्पाणां ये संस्तराः शय्यास्ते, तया-उशीरागि =मुगन्धितृणानि, 'खश' इति प्रसिद्धानि, मौक्तिकानि-मुक्ताफलानि, मृणालानि पद्मनालानि, ज्योत्स्नाः चन्द्रिकाः, एषामितरेतरयोगद्वन्द्वः, ताः, तथा'पेहुणउक्खेवगतालियंटवीयणगणियमुहसीयले ' पिच्छोत्क्षेपकतालगन्तव्यजनफजनितसुखशीतलान् , तत्र-पिच्छोत्क्षेपका:-पिच्छानां मयूरपिच्छकानां ये उत्क्षे. पका व्यजनानि, तालचन्तानि-जालपत्रव्यजनानि, व्यजनकानि-वंशदलनिर्मित व्यजनानि तज्जनिताः मुखाः-सुखकराः शीतलास्तांस्तथोक्तान् ‘पवणे य' पवनाँश्च गिम्हकाले ' ग्रीष्मकाले ! तथा-'मुइफासाणि य ' सुखपर्शानि च सुखः =सुखकरः स्पर्शो येषां तानि-स्पर्शसुखावहानीत्यर्थः, · वहूनि-अनेकाकाराणि 'सयणाणि आसणाणि य' शयनान्यासनानि च, प्रावरणगुगाँश्च-मृदुस्पर्शान शीता पहारकानुत्तरीयांश्च 'सिसिरकाले ' शिशिरकाले शीतकाले, तथा-' अंगारप्पजल, विविध प्रकार के पुष्पों से रचित शय्या, उशीर-शंख, मुक्ताफल, मृणाल-कमलनाल, और दोसिमाचंद्रिका-चांदनी को, तथा पेहुणउक्खेवग-मयूर के पिच्छों के बने हुए पंखों की, ताडपत्र के बने हुए पंखों की और बांस की शलाकाओं से बने हुए पंखों को, सुखदायक शीतल वायु को तथा-सुखप्रद स्पर्शवाले अनेक प्रकार के शयन और आसनों को, (सिसिरकाले ) शीतलकाल में तथा ( सुहफासाणि य ) नरमस्पर्शवाले शीतापहारक ( बहुगि सयणाणि आस गाणि य ) अनेक प्रकार के शयन और आसनों को, तथा ( पाउरणगुणे य) ओढने के चद्दर आदि वस्त्रों को ( अंगारप्पयावणा य ) अग्नि के उष्णस्पर्श को, જગ્યાને ઠંડી રાખતા હય, એવાં જલયંત્રવાળાં સ્થાન, હાર, વેત ચંદન, શીતલ. નિર્મળ જળ, વિવિધ પ્રકારના પુપિ વડે બનાવેલી શય્યા, ઉશાર. ખશ, મુક્તાફળ, મૃણાલ-કમળનાળ, અને દેરિણ-ચંદ્રિકા-ચાંદનીની, તથા હિણ ઉકખેવગ-રનાં પીછાંના બનાવેલ પંખાના, તાડપત્રમાંથી બનાવેલ પંખાના અને વાંસની સળીઓમાંથી બનાવેલ પંખાના, સુખદાયક શીતળ વાયુનો તથા સુખપ્રદ સ્પર્શવાળાં અનેક પ્રકારનાં શયન અને આસનોને સ્પર્શ કરે नमे नही तथा “सिसिरकाले " शियाना "सुहफासाणि य” नरम १५i शीत २ ४२ना "बहूणि सयणाणि आसणाणि य” भने प्रारना शयनी मने मासनाना, तथा “ पाउरणगुगे य” मावान या२ माह सोनी, "अगारप्पयावणा य " ATHA S५५ २५ नो, “ आयवनिद्धमर For Private And Personal Use Only Page #984 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 3 } सुशिनी टीका अ०५ सू० ११' स्पर्शेन्द्रियसंवर' नामक पश्चमभावनानिरूपणम् ९३५ यावणा य' शरीरस्य अङ्गारवतापनाश्च = पहिनिपेरणानि च, 'आय निडमउयसीउसिणलहुया य आतपस्निग्धमृदुकशीतोष्णलघुकाँश्च तत्र - आतपः = सूर्यतापः, स्निग्धाः = चिकणाः, मृदुकाः = कोमलाः, उष्णाः ऊष्मयुक्ताः, लघुकाः = मनोज्ञाः, एषामितरेतरयोगद्वन्द्रः, 'जे' ये ' उउसुहफासा ऋतुमुखस्पर्धा :- ऋतुषु = हेम न्तादिषु सुख:- सुखकरः स्पर्शो येषां ते तथोक्ताः, ' अंगसुहनिच्छुक्करा ' अङ्गसुखनिर्वृतिकराः =अङ्गसुखं= शरीरसुखं, निर्वृतिः -मनः स्वास्थ्यं च कुर्वन्ति ये ते तथोक्ताः, ' ते ' तान् स्पृष्ट्वा, 'समणेण ' श्रमणेन साधुना ' तेसु ' तेषु पूर्वोतेषु ' मणुन्नभद्दसु फासे ' मनोज्ञभद्रकेषु स्पर्शेषु, तथा एभ्यः 'अन्नेसु य' अन्येषु च ' एवमाइएसु ' एवमादिकेषु ' फासेसु ' स्पर्शेषु 'न सज्जियच्चं ' न सक्तव्यम् = आसक्तिनैव कर्तव्या, तथा--' न रज्जियच्वं न रक्तव्यम् - रागो न कर्तव्यः, ' न गिज्झियन्त्रं ' न गर्दितव्यम् - गृद्धिभावो न कर्त्तव्यः, 'न मुज्झियव्वं ' न मोहितव्यम् - तत्र मोहो न कर्तव्यः, तथा-न 'विगिघायं' विनिर्घातः= तदर्थं चारित्रभ्रंशः, ' आवज्जियध्वं ' आपत्तव्यः कर्त्तव्य इत्यर्थः, 'न लुभियव्वं ' न लब्धव्यम् - लोभो न कर्तव्यः, ' अज्ज्ञोववज्जियच्चं ' न अध्युपपत्तव्यम् = तत्प्रा(आयवनिमयसीय उसिणलहुया य) सूर्य के ताप को, चिकणपदार्थ को, कोमलपदार्थ को उष्ण पदार्थ को, हल्के पदार्थ को, कि (जे) जो (उ उ सुहफासा ) ऋतु के अनुसार जिनका स्पर्श सुखजनक होता है और ( अंगसुह निबुझकरा ) शरीर को एवं मन को आनंद प्रदान करता है, उनको शरीर से स्पर्श करके ( समणेण ) साधु को (तेसु) उन २ ( मणुareer फासेसु) मनोज्ञभद्रक - रुचिकारक - स्पर्शो में तथा (अण्णेसु य एवमाइएस फासेसु ) इन से अतिरिक्त और भी स्पर्शो में ( न सज्जियव्वं, न रज्जियव्वं, न गिज्झियव्वं, न मुज्झियव्यं, न विणिघायं आवज्जियव्वं, न लुभियव्वं, न अज्झोववज्जियच्वं न तुसियचं, न यसीय - उसिण - लहुया य " सूर्यना तापनो, भुट्टायम पहार्थना, अभण यहार्थना, उष्णु पार्थना, इसा पहार्थना, हे " जे " भे" उउहफासा ઋતુ પ્રમાણે જેને જેના સ્પર્શે સુખદાયક લાગે છે અને “ rage fro इकरा " शरीरने तथा भनने मान आये छे, तेभनो शरीरथी स्पर्श रीने 66 For Private And Personal Use Only ܐ ܐܐ " समणेण " साधुखे " तेसु ” à câs “#ganegy màg” dâlauks, रुथि४।२४ स्पर्शोभां तथा " अण्णेसु एवमाइएस फासेसु ” ते सिवायना मील પણ સ્પર્ધામાં न सज्जियां, न रज्जियब्वं न गिज्झियव्व, न मुज्झियव्व', न विणिधायं आवज्जियन्त्र, न लुभियव्वं, न अज्झोववज्जियब्व, न तुसियव्वं, (C Page #985 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir মধ্বন্ধ प्त्यर्थ नैवाधिको यत्नो विधेयः, 'न तुसिय ' न तोष्टव्य-तत्प्राप्तौ परितोषो न कर्तव्यः, 'न हसियन्वं न इसितव्यम्-प्राप्तौ विस्मयेन हासो न कर्तव्यः। तथा श्रमणः 'तत्थ ' तत्र-पूर्वोक्तमुक्ततद्विषये 'सइंच' स्मृति-स्मरणं च' मति बुद्धिनिवेशं च ' न कुज्जा' न कुर्यात् । 'पुणरवि ' पुनरपि उच्यते-'फासिंदिएण' स्पर्शेन्द्रियेण ' अमनुण्णपागाई' अमनोज्ञपापकान् अरुचिकरानित्यर्थः, 'फासाइं ' स्पर्शान् ' फासिय' स्पृष्ट्वा ' किंते' काँस्तान् कथम्भूतांस्तान् ? इत्याह-- 'अणेगबह-बंध-तालणं-कण- अइभारारोपण-अंग-भंजण-सुईनखप्पवेस हसियव्यं, न सई च मइं च तत्थ कुज्जा) कभी भी आसक्ति से अपने चित्त को नहीं बांधना चाहिये, उनमें रागभाव नहीं करना चाहिये। गृद्धिभाव नहीं करना चाहिये । उन में मुग्ध नहीं होना चाहिये-उनके निमित्त अपने चारित्र का परित्याग नहीं कर देना चाहिये । उनमें लुभाना नहीं चाहिये। और न उनकी प्राप्ति के निमित्त प्रयत्न ही करना चाहिये । यदि ये अनायास प्राप्त हो भी जाये तो उनकी प्राप्ति में परितोष नहीं मानना चाहिये । और प्राति में कोई विस्मय आश्चर्य ही नहीं करना चाहिये तथा श्रमण को इन पूर्वोक्त अनुभवित पी में अपनी स्मृति को एवं बुद्धि को भी नहीं लगाना चाहिये। ( पुणरवि ) इसी तरह फिर ( फालिदिएण ) स्पर्शन इन्द्रिय से ( अन्नगुणापावगाई) अमनोज्ञपापक-अरुचिकारक-पशों को स्पर्श करके उनमें साधु को द्वेष नहीं करना चाहिये । ( किं ते ?) वे अमनोज्ञ पापक स्पर्श किन २ पदार्थों में रहते हैं, इस प्रकार के प्रश्न का उत्तर देने के लिये सूत्रकार कहते हैं कि (अणेगवहबंध-तालगंकण-अइभारारोवगन हसियध, न सईच मइंच तत्थ कुज्जा" ही पा सासस्तिथी पोताना ચિત્તને બાંધવું નહીં, તેમનામાં રાગભાવ કરવો નહીં. તેની લાલસા રાખવી નહીં. તેમાં મુગ્ધ થવું નહીં, તેને ખાતર પિતાના ચારિત્રને પરિત્યાગ ન કરે ઈ એ, તેમાં ભાવું ન જોઈએ અને તેની પ્રાપ્તિ માટે વધુ પ્રયત્ન પણ કરે જોઈએ નહીં. જે તે અનાયાસે મળી જાય તે તેની પ્રાપ્તિથી પરિષ માનવો જોઈએ નહીં. તેની પ્રાપ્તિમાં વિસ્મય પણ બતાવવું જોઈએ નહીં. અને સાધુએ એ પૂર્વોક્ત અનુભવેલ શેનું સ્મરણ કરવું જોઈએ નહીં અને तमना विया२ ५५५ ४२वो ने नही. " पुणरवि" मे रीते ' फासिंदिएण" २५शेन्द्रियथा “ अमणुण्णपावगाइ" अमना ५५४-मथिला२४ २पना २५श पशन तमना प्रत्ये साधु देष ४श्व मे नाही. " कि ते" ममनाश पा५४-२०२थि।२४ २५शवा॥ ४॥ ४॥ पहा छ, ते प्रश्न उत्तर माता सूत्रधार ४ छ, “अणेगवहबंध--तालणकण--अइभारारोवण For Private And Personal Use Only Page #986 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुशिनी टीका भ०५ सू०११ 'स्पर्शेन्द्रियसंवर'नामकपश्चमभावनानिरूपणम् ९३७ - गायपच्छण लक्खारस-खारतेल्ल कलकलंत तउअसीसककाललोहसिंचण हडिबंधण रज्जुनिगल-संकलहत्थंडुय-कुंभिपाकदहण-सीहपुच्छण- उबंधण- मूलभेय-गयचलणमलण-करचणकन्ननाप्तो?सीसछेयण-जिब्भछेयणवसणनयणहिययदंतभंजण - जोत्तलयकसप्पहार-पादपहि जाणु-पत्थर-निवाय-पीलण-कविकच्छुअगणि-विच्छुय डकवायायव-दंसमंसग-निवाए ' अनेकबधबन्धताडनाङ्कनातिभारारोपणाङ्गमञ्जनसूचीनखमवेश-गात्रप्रतक्षण-लाक्षारस खारतैलकलकलायमानत्रपुक सीसककाललोहसेचनहडिबन्धनरज्जुनिगडसंकलहस्तान्दुक कुम्भीपाकदहनसिंहपुच्छोद्वन्धन-शूल भेद-गजचरणमर्दन-करचरणकर्णनासौष्ठ शीर्षच्छेदनकृषणनयन हृदयदन्तभञ्जनयोबलत्ताकशाप्रहारपादपणिजानुप्रस्तरनिपातपीडनकपिकच्छ्रवग्नि-वृश्चिक-दंशवातातपदंशमशकनिपातान् , तत्र-अनेको बहुविधो यो बधा-यष्टयाघाघातः, रज्ज्वादिभिर्वन्धः, ताडनम् चपेटादिताडनम् , अङ्कनम्-तप्तायः शलाकादिना गाने चित्रकरणम् , अतिभारारोपणम्-प्रमाणाधिकभारसमारोपणम् , अङ्गभञ्जनम् शरीरावयवत्रोटनम् , ' मुईनखप्पवेस' सूचीनखप्रवेशः सूचीनां नखेषु प्रवेशः प्रवेशकरणम् , अंगभंजणसूईनखप्पवेस-गायपच्छण-लक्खारस खारतेल्लकलकलंत-तउ. सीसककाललोहसिंचण-हडिबंधण-रज्जुनिगल-संकलन हत्थंडय कुंभिपाकदहण-सीहपुच्छण-उब्बंधण-मूलभेय-गयचलणमलण- करचरणकन्न नासोटसीलछेयणजिन्भछेयण-वसण-- नयणहियय-दंतभंजण- जोत्तलयकसप्पहार - पादपण्हिजाणुपत्थरनिवायपीलगकविकच्छुअगणिविच्छुयडकायायवदंसमंसगनिवाए ) वह अनेक प्रकार से यष्टयादि द्वारा आघात करने रूप वध, बंधण-रज्ज्वादि द्वारा बांधनेरूप बंधन, तालणचपेटा-थप्पड आदि मारने रूप ताडन, अंकण-तपी हुई लोहे को सलाई से शरीर में चिह्न करने रूप अंकन, (अईभारारोवण) प्रमाण से अधिक भार का लादना, ( अंगभंजण ) शारीरिक अवयव को तोडना (सईनअंगभंजण-सूईनखप्पवेस-गायपच्छण-लक्खारस-खारतेल्लकलकलंत--तउसीसककाल --लोहसिंचण--हडिबंधण- रज्जुनिगल--संकलन हत्थंडुयकुंभिपाकदहणसीहपुच्छण उब्बधण-सूलभेय--गयचलणमलण- करचरणकन्ननासोट्ट सीसछेयण- जिन्भछेयण--वसण - नयण- हिययदंतमंजण-जोत्तलयंकसप्पहार-- पादपहि जाणुपत्थर निवाय पालणकवि . कच्छु-अगणिविच्छुय-डकवायायवदंसमसगनिवाए " ते अने: ५४२नी सissa माहिना प्रा२३५ वध, बंधण-हो२३१ मा मांधा३५ धन, तालण-२.५ माहिना मा२ ३५ साउन, अंकण-तास सोढाना सजीया १3 शरी२ ५२ अम हे॥३५ निशान, अइभारारोवण-वधारे प्रभाशुभा मार साह, अंगभंजणशरीरना मगर्नु छेन. सूईनखप्पवेस-सायने नमi isीवी, गायपच्छण प्र ११८ For Private And Personal Use Only Page #987 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे 'गायपच्छण' गात्रपतक्षणं वास्यादिना शरीरच्छोलनम् , ' लक्खारसखारतेलकलकलंततउअ-सीस काललोहसिंचण' लाक्षारसक्षारतैलकलकलायमानत्रपुकसीसककाललोहसेचनम् , लाक्षारसेन लाक्षा-जतु तस्या रसेन–तप्तेन द्रवेण क्षार तैलेन-क्षारपदार्थमिश्रिततैलेन, कलकलायमानेन अतितप्ततया शब्दायमानेन त्रपुकेण=रङ्गेण सीसकेन' सीसा' इतिप्रसिद्धद्रव्येण, काललोहेन-कृष्णलोहेन च यत्सेचनम् ' हडिबंधण ' हडिबन्धनम् खोडकक्षेपः, 'रज्जुनिगलसंकलन' रज्जुनिगडसङ्कलनम्-रज्जवा निगडेन च संकलनंबन्धनम् ' हत्थंदुय' हस्तान्दुकम् काष्ठादिनिर्मितहस्तबन्धनसाधनेन यद्वन्धनं तद्वस्तान्दुकमुच्यते, 'कुंभिषाक' कुम्भीपाक: कुंभ्यां पात्रविशेषे पाका पचनम् ' दहण ' दहनम् अग्निना दाहकरणम् , ' सीहपुच्छण' सिंहपुच्छन–लिङ्गत्रोटनम् , ' उब्बंधणं ' उद्वन्धनं पाशोल्लम्बनम् , ' मूलभेय' शूलभेदः, शूलेनभेदः=भेदनम् , ' गयचलणमलण ' गजचरणमर्दकम् गजचरणमर्दनम् , 'करचणकन्ननासोट्टसीसछेयण' करचरणकर्णनासो. खप्पवेस ) सईयों को नखों में भोंकना, (गायपच्छण) वसूलो आदि से शरीर के अवयवों को छोलना, ' लक्खारस' तपे हुए लाखके रससे, (खारतेल्ल) क्षारपदार्थ मिश्रित तपे हुए तैल से तथा (कलकलंत) अत्यंत उकलने से पिघले हुए (तउ) पु-कथीर से, (सीसक) सीसे से (काललोह ) काले लोहे से, (सिंचण) शरीर को सींचना-शरीर पर छिडकना ( हडिबंधण ) खोडे में डालना, ' रज्जुनिगलसंकलन ' रस्सी और बेडी बांधना, ' हत्थंडुय' हथकडी में बांधना ' कुंभीपाग ' कुंभी में पकाना, 'दहण' अग्नि में जलाना, 'सीहपुच्छण' लिङ्ग को तोडना, 'उब्बंधण' फांसी में लटकाना, 'मूलभेय ' मूलीपर चढ़ाना, ‘गयचलण'-हाथी के पैरो से कुचलना, 'करचरणकन्ननासोहसीसछेयण' हाथ-पैर, कान, Gival माहिथी श६२ना अवयवान छ।सवानी ठिया, लक्खारस -२म सामना २सथी खारतेल्ल-क्षारयुत पहायची तपासा तेथी, तथा कलकलंत-मत्यात १२म ४२वाथी मागणेसा " तउ” थी२थी, “सीस."-सीसाथी "काललोह" - ri सोढाथी, “ सिंचण "-शरी२ ५२ २७वानी जिया, “ हडिबंधण"-33भां पूर, “ रज्जुनिगलसंकलन" हो भने मेरी ५३ मधषु', " हत्थंडुय"125thi Mi, " कुंभीपाग" मीमा ५४३, "दहण"-PAGEHi m' " सीहपुच्छण "-गिने तो', “उबंधन'' सीमे सपयु', “सूलभेय"सूजी ५२ यावयु, “ गयचलण"-थाना ५ तणे Alla, “ करचरणकन्नकासोदुसीसछेयण " साथ, ५०1, आन, I, Rो भने भरतनुं छेदन ४२१. For Private And Personal Use Only Page #988 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टोका अ०५ सू०११ स्पर्शेन्द्रियसंवर'नामकपञ्चमभावनानिरूपणम् ९३२ प्ठशीपच्छेदनम्= जिम्भछेयण' जिवाच्छेदनम् , 'वसणनयणहिययदंतमंजण' वृषगनयनहृदयदन्तमञ्जनम्वृषणस्य अण्डकोशस्य, नयनयोः, हृदयस्य दन्तानां च भञ्जनम्-विनाशनम् , 'जोत्तलयकसप्पहार' योक्त्रलताकशाप्रहार:-योक्त्रेण रज्जुविशेषेण, लतया वेत्रादिलतया; कशया च यः प्रहारः, प्रहारः, 'पादपण्डिजाणुपत्थरनिवाय ' पादपाणिजानुप्रस्तरनिपातः पादयोः चरणयोः, पायर्यो :पादपश्चाद्भागयोः, जानुनोः= घुटना ' इतिभाषा प्रसिद्धगेश्व प्रस्तरनिपात:= पाषाणपातः, ‘पीलणं' पीडन-यन्त्रे पीडनम् , ' कविक छु' कपिकच्छु। तीव्रकण्डूतिकारकवनस्पतिविशेषः, 'अगणि' अग्निः, 'विच्छुयडक' दृश्चिकदंशः 'वायातबदंसमसंगनिवाए' वातातपदंशमशनिपातः वातस्य आतपस्य दंशानां मशकानां च निपतेनम् , एतेषां द्वन्द्वः, ताँस्तथोक्तान् स्पृष्ट्वा, तथा-'दुणिसिज्ज दुन्निसीहिया' दुष्टनिषद्यादुनै षेधिक्या दुष्टनिषद्याः क्षुद्रासनानि, दुनै षेधिकस्य कष्टकरस्वाध्यायभूमयस्ताश्वस्पृष्ट्वा, 'तेसु तेवु-उक्तेषु 'अमगुन्नपावगेसु' अमनोज्ञपापकेषु नासिका, होठ ओर मस्तक का छेदन करना, 'जिन्भच्छेयण ' जीभ का छेदन करना 'वसण-नयग-हियय-दंत-भंजण' अण्डकोष, नेत्र, हृदय और दांतोंका भांगना, 'जोत्त-लय-कस प्पहार' चमडे की रस्सी से, वेत्रादिलता से, तथा चाबुक से प्रहार करना, ‘पादपण्हिजाणुपत्थर निवाय' पांच, एडी, घुटना,इन पर पत्थर का गिरना, 'पील ग' यंत्र में पीलना, 'कविकच्छु-अगणि-विच्छुय-डॅक' करेंच की फली,अग्नि और बिच्छू का डंक-स्पर्श, ‘वायायवदंसमसनिवार' शीतकाल में ठंडे पवन का लगाना उष्णकाल में धूप का लगना, तथा डाँस और मच्छरों का शरीर पर गिरना इन सबके स्पर्श का अनुभव करके(दुहृणिसिज्जदुनिसीहिया)कष्टकारकआसन और स्वाध्याय की भूमि के स्पर्श को अनुभव करके (तेलु यु, “जिन्भच्छेयण " मर्नु छैन ४२०', "वसण-नयण-हियय-दंत-भंजण" मअष, नेत्र, हय भने दांत तो, " जोत्त-लय-कस-पहार" याभानी होशथी नेत२- माहि साथी तथा यामु४थी ३८७२, " पादपण्हिजाणुपत्थरनिवाय" ५, मेडी भने ५ ५२ ५.०२नु ५७, " पीलण "-यमा पा, "कविकच्छ-अगणि-विच्छुय टक्क"-४३'यनी जी, मनि मन बिछानो "५, “ वायायवदंसमसगनिवाए " शियाम 3*५५न पायो, S i તડકો લાગે, તથા ડાંસ અને મચ્છરેનું શરીર પર પડવું, એ બધા સ્પર્શને ०१२ ५२ अनुनय ४ीने “दुद्रुणिसिज्जदुनिसीहिया " ४८।२४ मासन भने २१४यायनी मूभिना २५शने मनुलवाने " तेसु अमणुनपावगेसु" ते For Private And Personal Use Only Page #989 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ܕ ૪૦ प्रश्नव्याकरणसूत्रे " } अरुचिकरेष्वित्यर्थः, ' फासेसु ' ' स्पर्शेषु एभ्यः, 'अन्नेसु' अन्येषु च 'बहुवि हेसु ' बहुविधेषु ' एवमाइएस ' एवमादिकेषु - एवं प्रकारेषु' कक्खडगुरुसीयउसिणलुक्खेसु' कर्कशगुरुशीतोष्णरूक्षेषु कर्कशाः = कठिनाः, गुरवः =भाराः, शीताः = शीतलाः, उष्णाः = तापनाः, रूक्षाः = परुषाः, एषां द्वन्द्वस्तेषु तथोक्तेषु स्पर्शेषु च 'समणेणं' श्रमणेन - साधुना 'न रुसियब्वं' न रोष्टव्यम् = रोषो न कर्तव्य इत्यर्थः, ' न हीलियai ' न हीलितव्यम् = अवज्ञा न कर्तव्या, 'न निंदियव्वं न निन्दितव्यम्, स्वमनसि निन्दा न कर्त्तव्या, 'न खिसियब्वं न खिसितव्यम् = परसमक्षे च निन्दा न कर्तव्या, 'न छिंदियां 'न छेत्तव्यम् = छेदनं न कर्त्तव्यम् । 'न मिंदिपव्वं न भेतव्यम् - भेदनं न कर्तव्यम्, 'न वहेय' न हन्तव्यम् = विनाशो न कर्तव्यः, तथा तद्विषये ' जुगुंछावत्तियावि' जुगुप्सावृत्तिकाऽपि स्वस्य परस्य चा हृदि 'उप्पाएउ' उत्पादयि तुं 'न लंभा' न लभ्या-नोचिता यथा पूर्वोक्तस्पर्शा -- श्रयविषये स्वस्य परस्य वा हृदि जुगुप्सा प्रादुर्भवेन्न तथा कर्तव्यमिति भावः । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमनपावसु ) उन अमनोज्ञपापक- अरुचिकारक स्पर्शो में, तथा ( एवमाइए बहुविसु कक्खडगुरुसीय उसिणलुक्स ) इन से भिन्न और जो कर्कश, गुरु, शीत, उष्ण, रूक्ष स्पर्श हैं उनमें ( समणेणं न रुसियन्वं, न हीलियव्वं, न निंदियध्वं न गरहियव्वं न खिसियां, न छिंदियrवं, न भिदियं, न बहेयव्यं न दुर्गुछावत्तियावि लभाउप्पाएउं साधु को रुष्ट नहीं होना चाहिये, उनकी अवहेलना नहीं करनी चाहिये । निंदा नहीं करनी चाहिये। गर्दा नहीं करनी चाहिये। उन पर खिस याना नहीं चाहिये | उस अमनोज्ञ स्पर्श के आश्रयभूत द्रव्य का छेदन नहीं करना चाहिये । भेदन नहीं करना चाहिये । नाश नहीं करना चाहिये। और न अपने तथा परके मन में उनपर ग्लानि उत्पन्न करने 6: एमा અમનાજ્ઞ પાપક-અરુચિકારક સ્પર્ધામાં, તથા बहुविसु कक्खडगुरुसी उसिणलुक्खेसु " ते उपरांत जीन पशु के श, गुरु, शीत, पशु, स्पर्श छे तेमना प्रत्ये “समणेण न रुसियन्त्र, न हीलियव्वं न निंदियव्व', " न गरहियव्वं न खिसियञ्च न छिंदियव्व न मिंदिया, न, वहेयन्त्र, न दुगु छावत्तिया वि लब्भा उप्पाएउ " साधुये रुष्ट पु लेडसे नहीं, તેમની એવહેલના ન કરવી જોઇએ. નિ'દા ન કરવી જોઇએ. ગહ ન કરવી જોઈ એ. તેમના પર ખિસિયાવું જોઇએ નહીં, તે અમનાજ્ઞ સ્પવાળાં દ્રવ્યનું છેદન કરવુ જોઈએ નહી', ભેદન કરવુ જોઇએ નહી' નાશ કરવા જોઇએ નહીં અને પોતાનાં કે અન્યના મનમાં તેમના પ્રત્યે ગ્લાનિ ઉત્પન્ન કરવાની પ્રવૃત્તિન For Private And Personal Use Only Page #990 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ०५ सू०११ स्पर्शेन्द्रियसंवर'नामकपञ्चमभावनानिरूपणम् ९४१ सम्प्रति पञ्चमी भावनामुपसंहरन्नाह-एवम् अनेन प्रकारेण · फासिदियभावणाभाविओ' स्पर्शेन्द्रियभावनाभारितः, 'अंतरप्पा' अन्तरात्मा-जीवो जीवः 'भवई' भवति । ततश्च 'मणुम्नामणुन्नमुभिदुभिरागद्वेषपणिहितात्मा मनोज्ञाऽमनोज्ञा ये सुरभिदुरभयः शुभाशुभस्पर्शास्तेषु यद्रागद्वेषं तत्र प्रणिहितात्मा-संवृतात्मा, 'साहू' साधुः ' मणवयणकायगुत्ते' मनोवचनकायगुप्तः 'संवुडे' संतः संवरवान् ' पणि हिइंदिए ' प्रणिहितेन्द्रियः, प्रणिहिता-वशीकृत इन्द्रियो येन तथाभूतः सन् 'धम्म' धर्म श्रुतचारित्रलक्षणं धर्म ' चरेज्ज ' चरेत् अनुतिष्ठेत् ।। मू० ११ ॥ की चेष्टा ही करना चाहिये । अब सूत्रकार इस पांचवीं भावना का उपसंहार करते हुए कहते हैं ( एवं फासिदियभावणाभाविओ अंतरप्पाभवइ मणुन्नसुन्भिदुभिरागोदोसे पणिहियप्पा साहू मणवयणकायगुत्ते संबुडे पणिहिइंदिए धम्म चरेज्ज ) इस प्रकार से स्पर्श इन्द्रिय की भावना से भावित जब मुनि हो जाता है तब वह मनोज्ञ रूप शुभ स्पर्श में और अमनोज्ञरूप अशुभःस्पर्श में रागद्वेष करने से रहित बन जाता है । इस तरह उनमें रागद्वेष करने से संवृतात्मा बना हुआ साधु अपने मन, वचन और कायरूप त्रियोंगों को स्पर्श संबंधी शुभ अशुभ के व्यापार से रहित कर लेता है तथा इस स्पर्शन इन्द्रिय के संवरण से युक्त बन जाता है । इस प्रकार इस इन्द्रिय के संवरण से युक्त बना हुआ वह साधु चारित्ररूप धर्म की आराधना अच्छी तरह से करने लगता है। ___ भावार्थ-सूत्रकार ने इस सूत्र द्वारा इस परिग्रह विरमणव्रत की पांचवीं भावना का स्वरूप प्रगट किया है। इस पांचवीं भावना का કરવી જોઈએ. હવે સૂત્રકાર આ પાંચમી ભાવનાને ઉપસંહાર કરતાં કહે છે. " एवं फासिदियभावणाभाविओ अंतरप्पा भवइ मणुन्नोमनुन्नसुब्भिदुब्भि रागदोसे पणिहियप्पा साहू मणबयणकायगुत्ते संवुडे पणिहिइंदिए धम्म चरेज्ज " AL રીતે જ્યારે મુનિ સ્પર્શેન્દ્રિયની ભાવનાથી ભાવિત થઈ જાય છે ત્યારે તે મને જ્ઞરૂપ શુભ સ્પર્શ પ્રત્યે તથા અમને જ્ઞરૂપ અશુભ સ્પર્શ પ્રત્યે રાગદ્વેષથી રહિત બની જાય છે. આ રીતે તેમના પ્રત્યે રાગદ્વેષ કરવાથી નિવૃત્ત થયેલ સાધુ પિતાના મન, વચન અને કાયરૂપ ત્રણે વેગેને સ્પર્શ સંબંધી શુભ અશુભ વ્યાપારથી રહિત કરી લે છે, અને આ સ્પર્શેન્દ્રિય સંવરથી યુક્ત થઈ જાય છે. આ રીતે આ ઈન્દ્રિયના સંવરથી યુક્ત બનેલ તે સાધુ ચારિત્રરૂપ ધર્મની સારી રીતે આરાધના કરવા લાગી જાય છે. ભાવાર્થ–સૂત્રકારે આ સૂત્ર દ્વારા આ પરિગ્રહ વિરમણ વ્રતની પાંચમી ભાવનાનું સ્પષ્ટીકરણ કર્યું છે તે પાંચમી ભાવનાનું નામ સ્પશેન્દ્રિય સંવરણ For Private And Personal Use Only Page #991 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ૨૪૨ इदं संरद्वारमुपसंहरन्नाह - ' एवमिणं इत्यादि - मूलम् - एवमिणं संवरदारं सम्मं संवरियं होइ सुप्पणिहियं इमेहिं पंचहिं वि कारणेहिं मणत्रयणकाय परिरक्खि एहिं निच्चं आमरणंतं च एस जोगो नेयव्वो धिमया अणासवो अकलुसो अच्छिदो अपरिस्साई असंकिलिट्टो सुद्धो सव्वजिणमणुष्णाओ । एवं पंचमं संवरदारं फासियं पालियं सोहियं तीरियं किट्टियं अणुपालियं आणाए आराहियं भवइ । एवं णायमुणिणा भगवया पण्णवियं परुवियं पसिद्धं सिद्धवरसासणमिणं आघवियं सुदेसियं पसत्थं पंचमं संवरदारं समत्तं त्तित्रेमि ॥सू१२॥ नाम स्पर्शनेन्द्रियसंवरण है। इस भावना से भावित हुए मुनिजन को स्पर्शन इन्द्रिय के विषयभूत-आठ प्रकार के स्पर्श में चाहे वह रुचिकारक हो या न हो रागद्वेष करने का सर्वथा परित्याग कर देना चाहिये । गर्मी के समय में शीतस्पर्श की शिशिरऋतु में गरमस्पर्श तथा और भी अन्य ऋतुओं में भिन्न २ प्रकार के स्पर्श की कामना साधु को नहीं करनी चाहिये । सूत्रनिर्दिष्ट दगमंडप आदि मनोज्ञभद्रक स्पर्श के विषय में और अनेक बंधन आदि अमनोज्ञ पापक स्पर्श के विषय हैं अतः साधु को दोनों प्रकार के स्पर्शो में समभाव संपन्न रहना चाहिये । यही स्पर्शन इन्द्रिय संवरण नाम की भावना है || सू० ११॥ " Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only प्रश्नव्याकरणसूत्रे છે. આ ભાવનાથી ભાવિત થયેલ મુનિએ સ્પર્શેન્દ્રિય વડે અનુભવાતા આઠ પ્રકારના સ્પર્શ પ્રત્યે રાગદ્વેષને સર્વથા પરિત્યાગ કરવા જોઇએ-ભલે તે સ્પર્શી રુચિકર હોય કે અરુચિકર હોય પણ તેમના પ્રત્યે રાગદ્વેષ રાખવા જોઈએ નહી. ગરમીના દિવસોમાં શીત સ્પર્શની શિયાળામાં ઉષ્ણુ સ્પની અને અન્ય ઋતુઓમાં જુદા જુદા પ્રકારના પની ઇચ્છા સાધુએ કરવી જોઇએ નહી. સૂત્રમાં દર્શાવેલ દગમ’ડપ આદિ મનેજ્ઞભદ્રક સ્પર્શમાં તથા અનેક ધમ‘ધન આઢિ અાજ્ઞ પાપક પની બાબતમાં સાધુએ સમભાવ રાખવા જોઇએ, એ જ આ સ્પર્શેન્દ્રિય સવરણુ નામની ભાવના છે. !! સૂ॰૧૧ | Page #992 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सुदर्शिनी टीका अ०५ सू०१२ अध्ययनोपसंहारः ९४३ टीका- ' एवमिणं ' एवम् अनेन प्रकारेण इदम् = अपरिग्रहनामकं ' संवरदारं ' संवरद्वारम् ' संवरियं ' संहतं = संसेवितं सत् ' सुप्पणिहियं' प्रणिहितं सु रक्षितं ' होइ' भवति । ' मणवयणकाय परिरक्खिए हिं' मनोवचनकायपरिरक्षितैः= योगत्रयपरिरक्षितैः ' इमेहिं पंचहिं वि कारणेहिं ' एभिः पञ्चभिरपि कारणैः = पूर्वोक्ताभिः पञ्चभिर्भावनाभिरित्यर्थः ' गिच्चं ' नित्यम् ' आमरणंत' आमरणान्तं = मरणपर्यन्तं च ' एसजोगो एप योगः = अपरिग्रहलक्षण संवररूपव्यापारः 'धिःमया ' धृतिमता=स्वस्थचित्तेन ' मझ्झ्या ' मतिमता हेयोपादेय बुद्धियुक्तेन 'नेयत्रो ' नेत्तव्यः - वोढव्यः - परिपालनीय इत्यर्थः । कीदृशोऽयं योगः ? इत्याह-अयं योगः ' अणासत्रो ' अनाश्रवः - नूतनकर्मागमनरहितत्वात्, 'अकलुसो ' अकलुपः- शुभाव्यवसायत्वात् अच्छिदो ' अच्छिद्रः- छिन्नस्रोतस्त्वात्, 'अपरिस्साई ' " 6 अब सूत्रकार इन पांचवें संवरद्वार का उपसंहार करते हैं- 'एवमिण' इ० टीकार्थ - ( एवमिणं संवरदारं ) इस प्रकार से यह अपरिग्रह नाम का संवरद्वार ( सम्मसंवरियं ) अच्छी तरह सेवित होने पर ( सुप्पणिहियं ) सुरक्षित हो जाता है। इसलिये ( मणवयण काय परिरक्विएहिं ) मन, वचन और कायरूप तीन योगों से परिरक्षित हुई (इमेहि पंचहि कारणेहिं ) इन पांच भावनाओं का ( णिच्चं ) सदा ( आमरणंत ) मरणपर्यन्त - यावज्जीव (एस जोगो) यह अपरिग्रहलक्षणसंवररूप व्यापार ( धिमया महमा नेयत्रो ) धैर्यशाली एवं हेय और उपादेय के विवेक से युक्त बुद्धिवाले साधुजन को सेवन करना चाहिये, क्यो कि यह योग (अणासवो) नवीन कर्मों के आगमन से रहित होने के कारण अनाश्रवरूप है, (अकलुसो) शुभाध्यवसायरूप होने से अकलुष है, (अच्छिदो ) इसमें पापका स्रोत छिन्न हो जाता है इसलिये अच्छिद्र 77 હવે સૂત્રકાર આ પાંચમાં સવદ્વારને ઉપસહાર કરે છે टीअर्थ - " एवमिणं संवरदारं " या प्रमाणे या अपरियड नामना संव२द्वा२नुं “ सम्भं संवरियं " सारी रीते सेवन थतां " सुप्पणिहियं " सुरक्षित यह भय छे. तेथी "मणत्रयणकायपरिरक्खि एहिं " भन, वयन भने छाय, मे भागे योगोथी परिरक्षित थये “ इमेहिं पंचहि कारणेहि " से पाये लावनागोनुं “णिच्चं અપરિગ્રહસ’વરરૂપ વ્યાપાર धिमया मइमया नेव्वो " धैर्यशाणी मने डेय અને ઉપાદેયના વિવેકથી યુક્ત બુદ્ધિમાન સાધુએ સેન કરવું જોઈએ, કારણુ े ते योग " अणोसवो” नूतन उभेना आगमनथी रहित होवाने अर अनाश्रव३५ छे. “अकलुसो शुल मध्यवसायश्य होवाथी सम्दुष छे, “अच्छि दो” 66 आमरणंत સદા वन पर्यन्त “ एसजोगो " આ ८८ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ܕܕ . For Private And Personal Use Only Page #993 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नध्याकरणसूत्रे अपरिस्रावी-कर्मजलपवेशरहितत्वात् , ' असंकिलिट्ठो' असंक्लिष्टः असमाधिमा ववर्जित्तत्वात् ' सुरो' शुद्धः-कर्ममलवर्जितत्वात् , ' सधनिणमणुण्णाओ' सर्वजिनानुज्ञातः- सकलमाणिहितकारकत्वात्सर्वै रहद्भिरङ्गीकृतश्चास्ति । एवम्-उक्तमकारेण 'पंचम संवरदारं 'पंचमं संघरद्वारं ' फासियं ' स्पृष्टं कायेन, पालियं' पालित-सततमुपयोगेन सेवितम् ' सोहियं' शोधितम्-प्रतीचारवर्जनेन 'तीरियं' तीर्ण-तीरं प्राषितं सम्यक्पालनात् , 'किट्टियं ' कीर्तितम् - स्तुतम् कल्याणका. रकत्वात् , ' आराहियं' आराधितम्-त्रिकरण त्रियोगैः, सम्यगाचरितत्वात् , 'आणाए ' आज्ञया-सर्वज्ञवचनेन 'अणुपालियं ' अनुपालितं दृहमनस्कत्वाच्च है, (अपरिस्साई ) विन्दुमात्र भी कर्मजल इसमें प्रविष्ट नहीं हो पाता हैं इसलिये यह अपरिस्रावी है । ( असंकिलिट्ठो) असमाधिभाव से रहित होने के कारण यह असंक्लिष्ट है, और ( सुद्धो) कर्ममल से वर्जित होने के कारण यह शुद्ध है । ( सवजिणमणुण्णाओ ) इससे समस्त प्राणियों का हित हुआ है और आगे भी हित होगा ऐसा जान कर ही समस्त अरिहंत भगवंतों ने इसे अंगीकृत किया है । (एवं पंचमं संवरदारं ) इस उक्त प्रकार से जो इस संवरद्वार को (फासियं) अपने शरीर से आचरित करते हैं (पालियं) निरन्तर उपयोगपूर्वक इसका सेवन करते हैं, ( सोहियं ) अतिचारों से इसे रहित करते हैं, (तीरियं ) पूर्णरूप से इसका सेवन करते है, (किट्टिय) दूसरों को इसके पालन करने का उपदेश देते हैं ( आराहियं ) तीनकरण तीन योग से इसकी भली प्रकार से अनुपालना करते हैं, (अणाए अणुपालियं भवइ) उनके द्वारा यह योग तीर्थकर प्रभु की आज्ञा अनुसार ही पालित तनाथी पापना श्रोत छिन्न 45 लय छे तेथी ते मछिद्र छे, "अपरिम्साई" બિન્દુ જેટલું પણ કમંજળ તેમાં પ્રવેશ પામી શકતું નથી, તે અપરિસ્ત્રાવી "असंकिलिलो" मसमाधिमाथी २डित जवान २ ते ५ सिट छ भने “ सुद्धो" भभ विनु हावाथी ते शुद्ध छे. “सव्वजिणमणुण्णाओ" તેનાથી સમસ્ત પ્રાણીઓનું હિત થયું છે અને ભવિષ્યમાં પણ હિત થશે मे सीने समस्त मरिडत लगवाना तेने मान्य अरेस. "एवं पंचमं संवरदार" २॥ सूत्रमा ह्या प्रमाणे रे ! पांयमा सवार "फासिय" पाताना शरीरथी माय ४२ , “पालिय" निरन्तर उपयोग पूर्व सेवन छ, “सोहियं " मतियाराथी तेने रहित ४२ छ, “ तीरिय" शते तेनु सेवन ४२ छ "किट्टिय" अन्यने तेना पासननी पहेश मापे ॐ "आराहिय" ज ४२६५ मने त्रशु योगयी सात तेनी मा२।५ना ४२ छ, “ आणाए अनुपालियं भव" तमना दास ते योगर्नु ती ४२ प्रभुनी For Private And Personal Use Only Page #994 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनीटीका अ० ५ सू० १२ अध्ययनोपसंहारः भवति । एवम् उक्तरूपं पंचमं संवरदारं, ' गायमुणिणा' ज्ञातमुनिना-प्रसिद्धक्षत्रियवंशोद्भवेन मुनिना भगवता महावीरेण 'पण्णवियं ' प्रज्ञापितम्-शिष्येभ्यः सामान्यतया कथितम् ' परूवियं ' प्ररूपितम्-भेदानुभेदप्रदर्शनपूर्वकं कथितम् , 'पसिद्धं ' प्रसिद्धम् मण्यातम् , प्रमाणप्रतिष्ठितत्वात् 'सिद्धवरसासणं' सिद्धवरशासनम् सिद्धानां-निष्ठितार्थानां कृतकृत्यानामितियावत् वरशासन-प्रधानाज्ञारूपम् , ' इणं' इदम् ‘आघवियं' :आख्यातं सर्वतोभावेन कथितम् , ' सुदेसियं' मुदेशितम् सदेवमनुजासुरायां सभायां सुष्ट्रपदिष्टं 'पसत्थं ' प्रशस्तं 'पंचम संवरदारं' पंचमं संवरबार ' समत्तं ' समाप्तम् 'तिवेमि' इति ब्रवीमि, अस्या यः पूर्वमुक्तः ॥ सू-१२॥ . हुआ माना जाता है । ( एवं ) इस प्रकार से ( नायमुणिणा भगवया) ज्ञात नामक क्षत्रियवंश में उत्पन्न हुए मुनिराज भगवान् महावीर ने (पण्णवियं ) शिष्यों के लिये इस पंचम संवर द्वार को सामान्यरूप से समझाया, (परूवियं) भेद प्रभेदपूर्वक उसका कथन किया है । (पसिद्धं) प्रमाणप्रतिष्टित होने से जिन वचन में यह प्रख्यात हुआ है, अर्थात् जिन वचन के अनुसार ही आचार्यपरंपरा से इसका पालन करना इसी रूप से चला आ रहा है । तथा (सिद्धवरसासणमिणं ) भूतकाल में जितने भी सिद्ध हो चुके हैं उनका यह प्रधान आज्ञारूपशासन है। ( आघवियं ) ऐसा भगवान महावीर प्रभुने सर्वभाव से इसके विषय में कहा है और ( सुदेसियं ) देवों, मनुजों तथा असुरों से युक्त परिषदा में इसका उपदेश दिया है । ( पसत्यं ) सर्व प्राणियों का हितका. रक होने से मंगलमय है, इस प्रकार यह (पंचमं संवरदारं समतं) पंचमसंवरद्वार समाप्त हुआ, (त्तिबेमि ) ऐसा में कहता हूं। अर्थात् माशा प्रमाणे पालन थयु ॥य छ. “ एवं " " नायमणिणा भगवया" ज्ञातृ ण नामाना क्षत्रिय शमi Bपन्न थये मुनिरा लगवान महावीरे “पण्णवियं" शिष्याने भाट २ पायमा संवारने सामान्य३५ समनव्यु छ, “ परूवियं " लेह प्रने पू४ तेनुं विवेयन युछे, “पसिद्ध" પ્રમાણ પ્રતિષ્ઠિત હોવાથી જિનવચનમાં તે પ્રખ્યાત થયું છે, એટલે કે જિન વચન પ્રમાણે જ આચાર્ય પરંપરાથી તેનું આ રીતે પાલન થતું આવ્યું છે, तथा " सिद्धवरसासणमिणं" भूतभाटा सिद्धी थप गया तमा प्रधान माशा३५ शासन छ, “ अधविय" मे लगवान महावीरे सर्व माथी तेल छ, भने “ सुदेसियं" हेवो. मनुष्यो भने ससुरानी परिषदामा तन पहेश दाधी छे. “ पसत्थं" ते स प्राणायार्नु हित 32. ना२ पाथी भनभय छ, मा रीते मा "पंचमं” पायभु " संवरदार समत्त" सं१२६३ समास थयु “त्तिबेमि " म हुँ . मेट For Private And Personal Use Only Page #995 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - प्रश्नव्याकरणसूत्रे अथ संवरपञ्चकमुपसंहरन्नाह -' एयाई ' इत्यादि । मूलम्-एयाई वयाइं पंचवि सुव्वय महाव्वयाइं हेउसय विवित्तपुक्खलाई कहियाइं अरिहंत सासणे पंच समासेण संवरा वित्थरेण उ पणवीसई समिए सहिए संवुडे सया जयण घडण सुविसुद्धदंसणे एए अणुचरियं संजए चरमसरीरधरे भविस्सतीति ॥ सू० ॥ १३ ॥ ॥ इय पंचमं संवरदारं समत्तं ॥ टीका-'एयाइं ' इत्यादि 'सुन्चय ' सुव्रत-हे शोभनव्रत जम्बूः । ' एयाई' एतानि पंचवि' पहे जंबू ! इस पंचम संवरद्वार का जैसा कथन मैं ने साक्षात् भगवान् महावीर के मुख से सुना हे वैसा ही यह मैं ने तुमसे कहा है । अपनी तरफ से इसमें मैंने कुछ भी मिश्रित कर नहीं कहा है। भावार्थ-इन पूर्वोक्त पांच भावनाओं से अच्छी तरह सेवित होने पर यह अपरिग्रह नामक पांचवां संवरद्वार स्थिर हो जाता है । इसलिये मुनिजन को इसका पालन इस रूप से करना अवश्य है। समस्त तीर्थंकरों ने इसे सर्वप्राणियों का हितकारक जानकर पालित किया है । यह अनाश्रव आदि विशेषणों वाला है। भगवान् महावीर प्रभु ने भी इसके पालन करने का उपदेश परिषदों में जीवों को दिया है। ऐसा मंगलमय यह पांचवां संवरद्वार समाप्त हुआ ॥ सू० १२ ॥ “હે જંબૂ ! આ પાંચમાં સંવરદ્વારનું કથન જે પ્રમાણે મેં સાક્ષાત્ મહાવીર પ્રભુને મુખે સાંભળ્યું હતું, એ જ પ્રમાણે તે હું તમને કહું છું. મારી તરફથી તેમાં કંઈ પણ ઉમેરવામાં આવ્યું નથી. - ભાવાર્થપૂર્વોક્ત પાંચ ભાવનાઓનું સારી રીતે સેવન કરવામાં આવે તે અપરિગ્રહ નામનું પાચમું સંવરદ્વાર સ્થિર થઈ જાય છે. તેથી મુનિજને તેનું તે રીતે પાલન કરવું અતિ આવશ્યક છે. બધા તીર્થકરોએ તેને સઘળાં પ્રાણીઓનું હિતકારક સમજીને તેનું પાલન કરેલ છે. તે અનાશ્રવ આદિ વિશેપણે વાળું છે. ભગવાન મહાવીરે પણ પરિષદાઓમા તેનું પાલન કરવાનો ઉપદેશને આપ્યો છે. એવું મંગળમય આ પાંચમું સંવરદ્વાર સમાપ્ત થયું સૂર For Private And Personal Use Only Page #996 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सुदर्शिनी टोका अ० ५ सू) १३ उपसंहारः હ 6 , श्वपि वयाई ' व्रतानि - अहिंसादीनि ' महन्वयाई ' महाव्रतानि ' हे उसयविवित्तपुकलाई ' हेतुशत विविक्तपुष्कलानि = हेतुशतैः = उपपत्तिशः विविक्ते:-निदोषैः कृस्वा पुष्कलानि=वितीर्णानि 'कहियाई ' कथितानि 'अरिहंतसासणे' अर्हच्छासने - जनप्रवचने । ते च ' संवरा: ' समासेण ' समासेन संक्षेपेण 'पंच' पञ्चपञ्चसंख्यकाः, ' वित्रेण उ' विस्तरेण तु ' पण्णत्रीसह ' पञ्चविंशतिः - प्रतिसंवरद्वारं पञ्चपञ्चभावनासत्त्वेन पञ्चविंशतिसंख्यकाः भवन्ति । अथ संवरधारिणां भाविनी दशा वण्यते-' संजए 'संयतः साधुः ' समिए' समित: - ईर्ष्या समित्या दिभिः पञ्चविंशतिभावनाभिर्युक्तः, सहिए' सहितः - ज्ञानादर्शनाभ्यां युक्तः, 'संबुडे' संवृतः = पायेन्द्रियसंवरणयुक्तः 'सया' सदा ' जयणघडणसुविसुद्ध - , ( " Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अब सूत्रकार पांचों संवरों का उपसंहार करते हुए कहते हैंयाई' इत्यादि । टीकार्थ - ( सुव्व !) शोभनवत संपन्न हे जम्बू ! (एयाई पंचवि महव्वयाई) ये पांचों ही अहिंसा आदिक महाव्रत (अरिहंतसासणे हे उसयविविसपुकलाई कहियाइ) अर्हत प्रभु के शासन में सैकडो निर्दोष युक्तियों से विस्तृत करके कहे गये हैं । (संवरा समासेण पंच) वे संवर संक्षेप से पांच हैं परन्तु (वित्रेण उ पणवीसई) विस्तार से पांच २ अपनी२ भावनाओं से सहित होने के कारण ये पचीस हो जाते हैं । (संजए ) इन संवरद्वारों का पालन करने वाला संयत ( समिए ) ईर्यासमिति आदि पच्चीस भावनाओं से युक्त (सहिए) ज्ञानदर्शन से सहित और ( संडे) कषाय एवं इन्द्रियों के संवरण से युक्त होता हुआ (सया ) सदा ( जपणघडण सुविसुद्वदंसणे) अपने तस्वार्थ श्रद्धानरूप दर्शन को हवे सूत्रावरीन उपहार उरतां उडे छे...." एयाइ " त्याहि. टीडार्थ – “ सुव्वय ! " शोलनत्रत युक्त हे क्यू ! " एयाइ पंचवि महव्वयो " अहिंसा माहिते यांचे महावत " अरिहंत सासणे हे उसयविवित्त पुक्कलाइ कहियाइ' ” अद्भुत अलुना शासनभां से उडो निर्दोष युक्तियोथी विस्ता रथी हेवामां मायां छे. " संवरा समासेण पंच " ते सवर संक्षिप्तभां पांय " छे थएणु “ विस्थरेण उ पणवीसई " विस्तारथी पोत पोतानी पांय पांथ लावनाम सहित होवाने अरणे पचीस थाय छे. " संजए" मे संवरद्वारनं पादान ४२नार संयंत "समिए” यसमिति सहि पथीस लावनाओोथी युक्त" सहिए" ज्ञानदर्शनथी युक्त भने " संबुडे ” उषाय भने हन्द्रियांना संवरथी युक्त थाने " " 41 सया સદા जयसुविसुद्ध " पोताना तत्त्वार्थ श्रद्धान For Private And Personal Use Only Page #997 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नध्याकरणसूत्रे दसणे' यतनघटनसुविशुद्धदर्शनः, यतनेन प्राप्तसंयमसंयोगेषु प्रयत्नेन, घटनेन= अप्राप्तसंयमसंयोगमाप्त्यर्थघटनया च सुविशुद्धं दर्शनं श्रद्धानरूपं यस्य स तथा, 'एए' एतान् उक्तरूपान् संवरान् अणुचरिय' अनुचर्य आसेव्य 'चरमसरीरधरे' चरमशरीरधरः अन्तिमशरीरधारी भविस्सतीति-भविष्यतीतिविज्ञेयम् ॥मू०१३।। इति पञ्चमं सवरद्वारं समाप्तम् ।। साम्पतं :दशमाङ्गेऽस्मिन् कियच्छ्रतस्कन्धादि तदर्शयति 'पण्हावागरणेणं' इत्यादि मूलम्-पण्हावागरणेणं एगो सुयक्खंधो दस अज्झयणा एकसरगा दससु चेव दिवसेसु अदिसिजंति, एगंतरेसु आयंयतन से-प्राप्तसंयम के संरक्षणरूप प्रयत्न से तथा घटन से-अप्राप्तसंयम की प्राप्ति करने की घटना से सुविशुद्ध रखता है । ( एए अणुचरिए) इन पूर्वक्तिरूप संवरों को पालन करके ( चरिमसरीरधरे ) अन्तिमशरी. रधारी ( भविस्सइ) होवेगा। ऐसा जान लेना चाहिये । भावार्थ-सूत्रकार ने इस सूत्र द्वारा समझाया है कि जो मुनि इन पांचों संवरद्वारों का शास्त्रमर्यादा के अनुसार पालन करेगा और पच्चीस भावनाओंसे इन्हें स्थिर रखेगा, वह चरमशरीरी होगा, अर्थात् उसका पुनः जन्म संसार में नहीं होगा, वह अवश्य ही मोक्ष प्राप्त करने वाला होगा। ये संक्षेपतः संवरद्वार पांच ही हैं-परन्तु विस्तार की अपेक्षा अपनी २ पांच भावनाओं से सहित होने के कारण ये पच्चीस भी हो जाते हैं ।। सू० १३ ॥ ॥पांचवां संवरद्वार समाप्त ॥ રૂ૫ દર્શનને પ્રયત્નપૂર્વક–પ્રાપ્ત સંયમનાં સરક્ષણરૂપ પ્રયત્નથી તથા ઘટનથી सात सयभनी प्राप्ति ४२वानी घटनाथी सत्यत विशुद्ध रामे छ. “ ए ए अणुचरिए " मे पूरित सरीतुं पासन ने “ चरिमसरीरधरे” अन्तिम शरीरधारी " भविस्मइ” थरी से प्रभारी सभ सवु. ભાવાર્થ-સૂત્રકારે આ સૂત્ર દ્વારા એ સમજાવ્યું છે કે જે મુનિ આ પાંચે સંવરદ્વારનું શાસ્ત્રમર્યાદા અનુસાર પાલન કરશે અને પચીસ ભાવનાઓ વડે તેમને સ્થિર રાખશે, તે ચરમ શરીરી થશે, એટલે કે તેને સંસારમાં ફરી જન્મ લેવું પડશે નહીં, તે અવશ્ય મોક્ષ પ્રાપ્ત કરશે. સંક્ષિપ્તમાં પાંચ જ સંવરદ્વાર છે, પણ વિસ્તારની અપેક્ષાએ પિત પિતાની પાંચ. પાંચ ભાવનાઓ સહિત હેવાને કારણે તે પચીસ પણ કહી શકાય છેસૂ૦ ૧૩ છે પાંચમું સંવરદ્વાર સમાસ છે For Private And Personal Use Only Page #998 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुदशिनी टीका ० ५ सू०१३ दशमाङ्गे श्रुतस्कंधादिनिरूपणम् बिलेसु निरुद्धेसु आउत्तभत्तपाणएणं अंगं जहा आयारस्स ॥सू०१४॥ ॥ इयं पण्हावागरणं संमत्तं ॥ टीका-'पण्हावागरणेणं ' इत्यादि प्रश्नव्याकरणे खलु एकः श्रुतस्कन्धः दश अध्ययनानि, एतानि कीदृशानि ? एकसरकाणि उद्देशविभागादिरहितानि । एतान्यध्ययनानि दशस्वेव दिवसेदिश्यन्ते । तथा-एकान्तरेषु आचाम्लेषु निरुद्धेषु-स्वीकृतेषु सत्सु आयुक्तभक्तपानेन भक्तपाने आयुक्तः-आयुक्तभक्तपानस्तेन तथा, अशनादौ दत्तोपयोगेनेत्यर्थः, इदमङ्गमुद्दिश्यते । अस्यावशिष्टं सर्व यथा आचारस्य आचाराङ्गस्य तथैव विज्ञेयम् १४ ॥ इतिप्रश्नव्याकरण नाम दशमाङ्गं संपूर्णम् ।।। अब सूत्रकार इस दश अंग में कितने श्रुतस्कंध आदि है यह दिखलाते हैं-'पण्हावागरणेणं' इत्यादि । टीकार्थ-- (पण्हावागरणेणं) इन प्रश्नव्याकरण में ( एगो सुयक्खंघो) एक श्रुतस्कंध है। ( दस अज्झयणा ) दश अध्ययन हैं । ये दशों ही अध्ययन ( एक सरगा) उदेश विभाग आदि से रहित हैं । (दससु चेव दिवसेसु उदिसिज्जंति ) और दश ही दिनों में इनकी वाचना की जाती है । (एगंतरेसु आयंबिलेसु निरूद्धेसु आउत्तभत्तपाणएणं) सभा में इसकी वाचना करने वाले साधु को दशदिन तक एकान्तर से आयंबिल करना चाहिये । आचाम्लत्रत करने में अशनादि सामग्री पर एषणादि शुद्धि का विशेष ध्यान रखना चाहिये ।इस सूत्र का अवशिष्ट अंश जैसा आचारांग सूत्र का है वैसा ही जानना चाहिये । सू-१५ ॥ ॥ इस तरह प्रश्नव्याकरण नामका यह दशवां अंग समाप्त हुआ। હવે આ દશમા અંગમાં કેટલા શ્રુતસ્કંધ આદિ છે તે સૂત્રકાર બતાવે छ-" पण्हावागरणेणं " त्याहि Ast--" पण्हावागरणेणं" मा प्रश्नव्यामा "एगो सुयक्खंधो" में श्रत छ. "दस अज्झयणा" इस अध्ययन छे. ते से अध्ययन 'एक्कसरगा" श मिला माहिथी २डित छ. "दससु चेव दिवसेसु उद्दिसिज्जति” भने ४१ हिवसमा तेनुं वाय४४0 ४ाय छ “एगंतरेसु आयंबिलेसु निरुद्धेसु आउत्त भत्तपाrui” સભામાં તેનું વાંચન કરનાર સાધુએ દસ દિવસ સુધી એકાન્તરે આયંબિલ કરવા જોઈએ. આયંબિલવ્રત કરતાં અશનાદિ સામગ્રી પર એષણાદિ શુદ્ધિનું ખાસ ધ્યાન રાખવું જોઈએ. આ સૂત્રને અવશિષ્ટ અંશ જે આચારાંગ સવને છે તે જ સમજી લેવું જોઈએ છે સૂ ૧૫ છે છે આ રીતે પ્રશ્નવ્યાકરણ નામનું આ દશમું અંગ સમાપ્ત થયું છે For Private And Personal Use Only Page #999 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १५० www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २ ॥ || अथ शास्त्रप्रशस्तिः ॥ सौराष्ट्रे मुनिभिः साकं, विहारं कुर्वता मया । चातुर्मास्य सुखेनैव, नीतं जेतपुरे पुरे ॥ १ ॥ ततो विहरमाणोऽहं धोराजीनाम विश्रुते । पुरे समागतः शेष, - काले तैर्मुनिभिः सह ॥ सप्ताधिके वैक्रमाब्दे, सहस्रद्वय संख्यके । पौषे पुष्ये पौर्णमास्यां, शुभदे भौमवासरे ॥ ३ ॥ प्रश्नव्याकरणस्येयं, वृत्तिर्नाम्ना सुर्दशनी । रचिता घासिलालेन, श्रीसंघेन समादृता ॥ ४ ॥ लिमड़ी संघस्थापित - पौषधशाला च विद्यते तत्र । प्रवचन रहस्यपूर्णा, सेयं शिवसौख्यदा पूर्णा ॥ ५ ॥ व्याकरणसूत्रे टीकाकार की प्रशस्ति सौराष्ट्रदेश में मुनिजनों के साथ विहार करते हुए मैं ने जेतपुर में आनंदपूर्वक चौमासा किया। वहां से बिहार कर मैं उन मुनिजनों के साथ धोराजी नाम से प्रसिद्ध शहर में आया । शेष काल वहाँ रहकर विक्रम संवत् २००७ के पौष मास, पौर्णमासी निधि मंगलवार और पुष्यनक्षत्र के दिन प्रश्नव्याकरणकी यह वृत्ति जिसका नाम सुदर्शिनी है। मैं ने घासीलाल ने रची है। वहां के श्रीसंघ ने इसका अच्छा आदर किया । उस शहर में लिमड़ी संत्र के द्वारा स्थापित की हुई एक पौषध शाला है । उसमें ठहर कर प्रवचन के रहस्य से परिपूर्ण और शिव के सुख की दाता यह वृत्ति पूर्ण हुई है || For Private And Personal Use Only || टीअारनी प्रशस्ति ॥ સૌરાષ્ટ્રમાં મુનિજનાની સાથે વિહાર કરતાં મે' જેતપુરમાં આનદપૂર્વક ચામાસુ વ્યતીત કર્યું, ત્યાંથી વિહાર કરીને હું મુનિએ સાથે ધારાજી નામના પ્રસિદ્ધ શહેરમાં આન્યા. શેષ કાળમાં ત્યાં રહીને વિક્રમ સ'વત ૨૦૦૭ના પોષ માસની પૂર્ણિમાની તિથિને મંગળવાર અને પુષ્પ નક્ષત્રના દિવસે પ્રશ્નવ્યાકરણની આ વૃત્તિ જેનું નામ સુદર્શિની છે, તે મેધાસીલાલે રચી છે. ત્યાંના શ્રી સંઘે તેને ઘણા આદર કર્યાં. તે શહેરમાં લિમડી સંધ દ્વારા સ્થપાયેલ એક પૌષધશાળા છે ત્યાં રહીને પ્રવચનના રહસ્યથી પરિપૂર્ણ અને મેાક્ષના સુખની દાતા આ વૃત્તિ મે' પૂરી કરી છે !! પ ૫ Page #1000 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दशिनी टीका शालमस्तिः संघमहिमाधोराजी नगरस्य एष परमोदारो महाधार्मिकः, शुद्धस्थानकवासिधर्मनिरतः सम्यक्त्वभावान्वितः । तत्त्वातत्त्वपयोविवेचनविधौ हंसायमानः सदा, सर्वेषामुपकारको विजयते श्री जैनसंघोमहान् ॥ ६॥ देवे गुरौ धर्मपथे च भक्ति येषां सदाचाररुचिश्च नित्यम् । ते श्रावका धर्मरता उदाराः, सुश्राविकाः सन्ति गृहे गृहेऽत्र ॥७॥ मङ्गलं भगवान् वीरो मङ्गलं गौतमः प्रभुः । सुधर्मा मङ्गलं जम्बू-जैनधर्मश्च मंगलम् । ॥ इति श्री विश्वविख्यात-जगद्वल्लभ - प्रसिद्धवाचकपञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापक-प्रविशुद्धगधपद्यनैकग्रन्थनिर्मारक- वादिमानमर्दकश्रीशाहू छत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त · जैनशास्त्राचार्य ' पदभूषितकोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य- जैनधर्मदिवाकरपूज्यश्री घासीलालबतिविरचिता दशमाङ्गस्य श्री प्रश्नव्याकरणसूत्रस्य सुदर्शन्याख्या व्याख्या समाप्ताः ॥ शुभं भूयात् ।। ॥ श्रीरस्तु ॥ For Private And Personal Use Only Page #1001 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे % D संघमहिमा धोराजी शहर का यह महान् श्री जैनसंघ अत्यंत उदार है, परमधार्मिक है, शुद्धस्थानकवासी धर्म में लवलीन हैं, सम्यक्त्व भाव से युक्त है, तत्व अतत्त्व का क्षीर नीर की तरह विवेक करने में हंस के जैसा है। समस्त प्राणियों का उपकारक है, अतः यह सदा जयवंता वत्तों ॥ ६ ॥ जिनकी देव गुरु और धर्म में नित्य भक्ति है । तथा सदाचार में जिनकी रुचि है ऐसे धर्मरत उदार श्रावक और सुश्राविकाएँ यहाँ घर २ में हैं ॥ ७॥ अंतिम मंगलाचरण अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीर मंगलरूप हैं, गौतमप्रभु मंगलरूप हैं, सुधर्मास्वामी मंगलरूप है अन्तिम केवली जंबूम्वामी मंगलरूप हैं और यह जैनधर्म मंगलरूप है ॥ ८ ॥ ॥ श्रीरस्तु-शुभं भूयात् ॥ સંઘમહિમા ધોરાજી શહેરને તે મહાન શ્રીસંઘ અત્યંત ઉદાર છે, ઘણે જ ધાર્મિક છે, શુદ્ધ સ્થાનકવાસી ધર્મમાં દઢ રીતે માનનાર છે, સમ્યકત્વ ભાવથી યુક્ત છે, તત્વ અતત્ત્વને દૂધ અને પાણીની જેમ વિવેક કરવામાં હંસ સમાન છે. સઘળાં પ્રાણીઓને ઉપકાર કરનાર છે, તેથી તેને સદા જય જયકાર હે દા જેમને દેવ, ગુરૂ અને ધર્મ પ્રત્યે નિત્ય ભકિતભાવ છે, તથા સદાચાર પ્રત્યે જેમની અભિરૂચિ છે એવા ધર્મરત ઉદાર શ્રાવક અને સુશ્રાવિકાઓ અહીં દરેક ઘરમાં છે. જે ૭ અંતિમ મંગલાચરણ અન્તિમ તીર્થંકર ભગવાન મહાવીર મંગળરૂપ છે, ગૌતમપ્રભુ મંગલરૂપ છે સુધર્માસ્વામી મંગળરૂપ છે. અન્તિમ કેવળી જબૂસ્વામી મંગળરૂપ છે, અને આ જૈન ધર્મ મંગળરૂપ છે. જે ૮ છે ॥ श्रीरस्तु-शुभं भूयात् ॥ For Private And Personal Use Only Page #1002 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Imagesponaries कुमार गुकमाइन्डोग बक्स पीरमोशनकार राख अमवाद For Private And Personal Use Only