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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरसूत्रे -विश्रोद्वेगजनकेषु तत्र महोष्णाः=अत्यन्तोष्णाः, सदा प्रतप्ताः निरन्तरतापयुक्ताः, दुर्गन्धाः अनिष्टगन्धयुक्ताः, विश्राः अपक्वमांसवत्पूतिगन्धाः, अतएव-उद्वेगजनका उद्वेगोत्पादकाः, तेषु 'बीभच्छदरिसणिज्जेसु' बीभत्सदर्शनीयेषु घृणितदर्शनेषु 'निच्चं' नित्यं 'हिमपडलसीयलेस' हिमपटलशीतलेषु-हिमपटलमिव शीतला ये ते तथा तेषु 'कालोभासेमु' कालावभासेषु, काल: श्यामलोऽवभासः कान्तिर्येषां ते तथा तेषु कृष्णवर्णेषु 'भीमगंभोरलोमहरिसणेमु' भीमगम्भीरलोमहर्षणेषु-तत्र भीमा: भयजनका गंभीरा:-अतलस्पर्शा अतएव लोमहर्षणाः रोमाञ्चकारिणस्तेषु-तत्स्वरूपश्रवणमात्रेण-रोमाश्चोत्पादकेषु ‘णिभिरामेसु ' निरभिरामेषु = अशोभनेषु 'निप्पडियारवाहिरोगजरापीलिए 'निष्पतिकार न्याधिरोगजरापीडितेषु-निष्पतिकाराः प्रतिकाररहिता व्याधयः कुष्ठादयः रोगाः रहते हैं । (दुग्गंध विस्सउव्वेयजणगेसु) अनिष्टतर दुगंध से भरपूर रहते है। विस्र-कच्चेमांस के जैसी यहां सदा दुर्गध आती रहती है, इसलिये नारकियों को ये सदा उद्वेग के उत्पादक होते रहते हैं। (घीभच्छदरिसणिज्जेसु य) देखने में ये बड़े असुहावने घृणित प्रतीत होते हैं । (निच्च हिमपडलसीयलेसु) सदा ये हीमपटल के जैसे शीतल होते हैं (कालोभासेसु) इनकी कांति काली होती है । ( भीमगंभीरलोमहरिसणेसु ) इन नरकावासों में जीव को सदा भय ही भय रहता है। ये आवास कितने गहरे हैं इनका पता नहीं पड़ता है । इनके स्वरूप श्रवण मात्र से ही जीवों के शरीर में रोमांच खडे हो आते हैं। (गिरभिरामेसु) ये सब अशोभन हैं। (निप्पडियार बाहिरोगजरापीलिएसु ) यहां को जो कुष्ठ आदि व्याधियाँ हैं, मस्तकशूल आदि जो रोग हैं, वार्धक्य जो तमा निरत२ तथा व्यास ४२ छ, “दुग्गंधविस्सउव्वेयजणगेसु" सौथी ખરાબ ગધથી ભરપૂર રહે છે. વિશ્વ-કાચા માંસના જેવી દુર્ગધ ત્યાં સદા આવ્યા કરે છે, તેથી નારકીઓને તેઓ સદા સંતોષ પેદા કરનારા હોય છે. बीभच्छ दरिसणिज्जेसु य" वाम ते घgin मे3101-Jए! थाय ते हाय छ. “निश्च हिमपडलमीयलेसु" तेसो सहा मिना यश व शीत राय छ 'कालो भासेसु" तेयो हेपावे ॥ य छे. “ भीमगंभीरलोमहरिसणेसु" તે નરકવાસોમાં જેને સદા ભય જ રહે છે તે આવા કેટલાં ઊંડા છે. તેની ખબર પડતી નથી. તેના સ્વરૂપનું વર્ણન સાંભળતાંજ ના શરીરના शभाय Hi / tय छ. :" णिरभिरामेसु" ते मां शाला विनानां छे. "निप्पडियारबाहिरोगजरापालिएसु" मीनी ४०४ माहि रे व्याधियो छ, For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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