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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे द्रव्यं न ' कस्सइ ' कस्यापि संयतस्याऽसंयतस्य वा ' कहेउ' कथयितुं वा, 'गे ण्हेउ' स्वयं ग्रहीतुं परेण ग्राहयितुं वा 'न कप्पई' न कल्पते, साधोनिवृत्तित्त्वात् । परद्रव्यं दृष्ट्वा साधुना किं कर्तव्यम् , ? इत्याह-'अहिरनसुवण्णएणं' अहिरण्यसुवर्णकेन-हिरण्यसुवर्णवर्जकेन 'समले१कंचणेण' समलेष्टुकाश्चनेन=समःतुल्यः लेष्टुः-मृत्खण्डं काञ्चनं सुवर्णं च उपेक्षणीयतया यस्य तेन तथोक्तेन= मृत्खण्डे सुवर्णे च समभाववतेत्यर्थः, 'अपरिग्गहसंवुडेण' अपरिग्रहसंवृतेन= नास्ति परग्रहो यस्य सोऽपरिग्रहः, अन एव संवृतः ममत्वभाववर्जितस्तेन तथोतेन साधुना ' लोगम्मि' लोके मर्त्यलोके 'विहरियव्वं' विहर्त्तव्यम् , साधुभिरुक्तरीत्या विहरणीयमिति भावः ॥ मू० १ ॥ ण्हेउं वा)और न स्वयं लेना चाहिये उसको संयत अथवा असंयत से लेने के लिये नहीं कहना चाहिये। क्यों कि इस प्रकार की प्रवृत्ति मुनिमार्ग में कल्पित नहीं कही है। कारण कि साधु (अहिरण्णसुव्वण्णेणं) हिरण्य और सुवर्ण इन सब से निवृत्तिवाला होता है साधु को न हिरण्य की चाहना होती है और न सुवर्ण की । ( समलेढुकंचणेणं ) उसकी दृष्टि में तो उपेक्षणीय होने के कारण मृत्खंड मिट्टी का ढेला और कांचन दोनों बराबर होते हैं । अर्थात् वह इन दोनों में समभाव वाला होता है। (अपरित्रहसंबुडेणं ) इस तरह ममत्वभाव से वर्जित होने के कारण अपरिग्रह से युक्त होते हैं साधु को इस प्रकार का होकर इस लोक में विचरना चारिये। ___ भावार्थ-संसार में निर्भय होकर विचरण करने के लिये सब से उत्कृष्ट साधन यदि कोई है कि जिससे लोगों की दृष्टि का आकर्षण हो યતને કહેવું ન જોઈએ, અને તે લેવી જોઈએ નહીં. કારણ કે એવા ५४२नी प्रवृत्ति भुनीमाभा लयित की नथी. २७ से साधु “ अहिरण्ण सुव्वण्णेणं " डि२९य भने सुवरण मे मधानी निवृत्ति हाय छ. साधुन (२एयनी ४२ हाती नथी । सुवानी ४२७ हाती नथी. “ समलेठुकंचणेण" તેની દષ્ટિએ ઉપેક્ષા પાત્ર હોવાથી માટીનું ઢેકું અને કાંચન અને સમાન छ मेरो भन्नेमा ते समभावाणी य छे. “ अपरिग्गहसंबुडेणं " 21 રીતે મમત્વભાવથી રહિત હોવાથી તે અપરિગ્રહી હોય છે. સાધુએ એ પ્રકારે અપરિગ્રહવત યુક્ત બનીને આ લેકમાં વિચરવું જોઈએ. ભાવાર્થ–સંસારમાં નિર્ભય થઈને ફરવાને માટે જે કંઈ સર્વશ્રેષ્ઠ સાધન હિોય કે જેનાથી લેકેની દકિટ આકર્ષાય અને સાધુત્વ પર વિશ્વાસ જામે તે For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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