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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २३८ प्रश्नव्याकरणसूत्रे नतया हतो दुष्टः, अत्र संभ्रमे द्वित्वम्' तथा 'खुद्द छिन्नो भिन्नो सुष्ठु छिन्नो भि नश्च स दुर्जनेन इति पूर्वोक्तप्रकारैः 'उवदिसंता' उपदिशन्तः = कथयन्तः 'एवं विह' एवंविधं स्वरूपतः सत्यमपि प्राणिनां हिंसाकारणत्वात् परिणामतोऽलीकं 'मणेणं, वायाए कम्मुणा य' मनसा - वचसा कर्मणा च त्रिधा 'अलीयं ' अलीकम् = असत्यं ' करेंति ' कुर्वन्ति भाषन्ते इत्यर्थः कीदृशास्ते अलीकभाषिणः ? इत्याह ' अकुसला' अकुशलाः = भाषासमितिविकलाः 'अणज्जा' अनार्याः कलेच्छाः कुछ भी दान मत दो। ( सुहओ सुछिण्णो भिण्णिोत्ति) 'तुमने उस दुष्ट को अच्छा मारा, बहुत अच्छा किया जो उसे छिन्न भिन्न कर डाला | ( ति ) इस पूर्वोक्त प्रकार से ( उवदिसंता) दूसरों के प्रति कहते हुए मृषावादी जन ( एवं विहं ) यद्यपि स्वरूप की अपेक्षा अपने वाच्यार्थ से संबंधित होने के कारण - सत्य होने पर भी प्राणि हिंसा के कारण होने से असत्यवाणी को (मणेणं वायाए कम्मुणा ) मन से, वचन से और काय से, (अलियं करेंति) अलोक - झूठ बोला करते हैं। तात्पर्य इसका यह है कि अपने अभिधेय (वक्तव्य ) से असंबंधित वाणी ही मृषास्वरूप नहीं है किन्तु जिस सत्यवाणी से पर प्राणियों को कष्ट हो आपत्ति में पड़ जाना पड़े उनके प्राणों की हिंसा आदि हो जावे वह वाणी भी असत्य ही है। ऐसी वाणी केवल वचनयोग की अपेक्षा से ही असत्यरूप नहीं मानी जाती है किन्तु वह मन और काय इन अंगों की अपेक्षा भी असत्य मानी जाती हैं । इस तरह की असत्यवाणी का जो (अकुसला) 77 अर्थ नेपा हान न आयो " सहओ सुहुछिण्णो भिण्णोत्ति ” “ तभे તે દુષ્ટને માયા તે ઠીક કર્યું, તેને છિન્ન ભિન્ન કરી નાખ્યા તે ઘણુ સારૂ अयु " "त्ति " मा पूर्वोत अरे" उवदिसंता " जीलने हेत ते असत्य ખેલનારા લોક " एवं विहं " ने स्वपनी अपेक्षा पोताना पायार्थ સાથે સાથે સંબંધિત હોવાને કારણે-સત્ય હોવા છતાં પણ પ્રાણી હિંસાના अरशु ३५ होवाथी असत्यवादीने “ मणेणं वायाए कम्मुणा ” भनथी, वयनथी अने अर्थथी " अलियं करेति " मसी-असत्य मोहया उरे छे- तेनु तात्पर्य એ છે કે પેાત.ના અભિધેયથી અસ’બધિત વાણી જ મૃષાવાદ રૂપ નથી પણ જે સત્ય વાણીથી ખીજા પ્રાણીએને કષ્ટ થાય, આપત્તિમાં મૂકાવુ પડે, તેમનાં પ્રાણાની હિંસા આદી થાય, તે વાણી પણ અસત્ય જ છે. એવી વાણી કેવળ વચનયાગની અપેક્ષાએ જ અસત્યરૂપ માનવામાં આવતી નથી પશુ તે મનચાગ અને કાયયેાગની અપેક્ષાએ પણ અસત્ય મનાય છે. આ પ્રકારની અસત્ય बाली ने " સમિતિથી રહિત જીવા હાય છે તથા ભાષા अलि. << " अकुसला For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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