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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नध्याकरणसूत्रे म्पराऽनुगत सम्यग्ज्ञानाभावात् , दुरन्तं विषाकदारुणत्वात् 'विइयं ' द्वितीयम् 'अधम्मदारं' अधर्मद्वारं 'क्रित्तियं' कीर्तितं कथितम् ॥ सू. १॥ एतेन यादृशं मृषावादस्वरूपमस्ति तत्पथमान्तद्वारे प्रोक्तम् । साम्मतं 'यन्नामे 'ति द्वितीयान्तरे तन्नामान्याह- तस्स' इत्यादिना मूलम्--तस्स य णामाणि गोणाणि हुंति तीसं तं जहाअलियं १, सडं २, अणज्जं ३, मायामोसो ४, असंतकं ५, कूडकवडमवत्थुगं च ६, निरत्थयमवत्थयं च७, विदेसगरहणिज्जं ८, अणुज्जुकं ९, कक्कणा य १०, वंचणा य११, मिच्छापच्छाकडं च १२, साइ १३, उस्सुत्तं १४, उक्कूलं च १५, अढे १६, अब्भ. क्खाणं च १७, किब्बिसं १८, वलयं १९, गहणं च २० मम्मणं च २१, नूमं २२, नियई २३, अप्पच्चओ २४, असंमओ २५, असच्चसंघत्तणं २५, विवक्खो २७, उवहियं २८, उवहि असुद्धं २९, अवलोवोत्ति ३०, बिइयस्स इमाणि एवमाइयाणि नामधेज्जाणि होत तीसं सावज्जस्स अलियस्स वयजोगस्स अणेगाइं ॥ सू. २॥ हुए मिथ्यात्व, अविरति के प्रवाह का विच्छेद नहीं होता है। (अणुगयं) सम्यग्ज्ञानका अभाव होने से यह जीव के साथ भवपरम्परानुगत होता है। (दुरंतं ) विपाक इसका बहुत ही अधिक दारुण होता है इसलिये यह जीव के लिये दुरन्त कहा गया है। इस तरह से (विइयं ) इस द्वितीय अधर्म द्वार का (कित्तियं ) सूत्रकार ने तीर्थकर परंपरा के वर्णन अनुसार वर्णन किया है ।सू. १॥ હોવાને કારણે અનાદિ કાળથી લાગેલ મિથ્યાત્વ અવિરતિ આદિને પ્રવાહ तूटता नथी. “ अणुगयं" सभ्य ज्ञाननी मला पाथी ते ७वनी साथै स१५२५२रानुगत डाय छ. " दुरतं" तेन विपा " परिणाम" घरी २५५ हाय छे, तेथी ते अपने भाट दुरन्त हावायु छ 241 शते " बिइय" A भी अमानुं 'कित्तिय" सूत्रा तीथ ४२ ५२ ५२॥ ४२ वन प्रभा न यु छ. ॥ सू-१॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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