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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नध्याकरणसूत्रे अथ चतुरिन्द्रियादीनां हिंसामयोजनमाह-'हिंसंति य' इत्यादि। मूलम्-हिंसंति य भमरमहुकरिंगणे रसेसु गिद्धा, तहेव तेइंदिए सरीरोवकरणट्टयाए किवणे, बेइंदिए बहवे वत्थोहर परिमंडणट्ठा ॥ सू० १२ ॥ ___ टोका-'ये' च-पुनः ‘रसेसु' रसेषु-मध्वादिषु 'गिद्धा' गृद्धाः तद्रसलोलुपाः हिंसकाः जना मध्वादि ग्रहणार्थ 'भमरमहुकरिंगणे' भ्रमरमधुकरीगणान्भ्रमराः कृष्णवर्णाः लोकभाषया पुंस्त्वविशिष्टाः, मधुकर्यः-लघुमधुमक्षिकाः लोक भाषया स्त्रीत्वविशिष्टाः, तेषां गणान् समूहान् हिंसन्ति । 'तहेव तथैव 'तेइंदिए' त्रीन्द्रियान-यूकामत्कुणादीन ‘सरीरोवकरणठ्याए' शरीरोपकरणार्थ-शरीरस्योपकारार्थ शयनकाले मत्कुणादिकृतदुःखनिवारणार्थ हिंसन्ति । तथा 'किवणे' कृप___ अब सूत्रकार चतुरिन्द्रिय आदि जीवों की हिंसा करने वालों का क्या प्रयोजन होता है-इस बात को प्रकट करते हैं-'हिंसंति य भमरमहुकरिगणे ' इत्यादि। टीकार्थ-(रसेसु गिद्धा) जो अषुध-अज्ञानी जन मधु (शहद) आदि रसों में लोलुप होते हैं वे उन मधु आदि रसों को प्राप्त करने के अभिप्राय से (भमरमहुकरिगणे हिंसंति ) भ्रमर भ्रमरियों के समूह मारते हैं। भ्रमरियों से, मधुको एकत्रित करने वाली मधु मक्खियों का यहां ग्रहण करना चाहिये । (तहेव ) इसी तरह (किवणे) दीन ऐसे (तेइंदिए ) जू खटमल आदि तेइन्द्रिय जीवों की (सरीरोवकरणट्ठयाए ) अपने शरीर के उपकार के लिये अर्थात् शयनकाल में जोखटमल आदि बारा उनके शरीर में काटने जन्य दुःख होता है उस दुःख को, निवारण करने હવે ચતુરિન્દ્રિય આદિ જેની હિંસા કરનારનું શું પ્રયોજન હોય છે, ते सूत्रा२ प्राट ४३ छ-" हिंसंति य भमरमहुकरिगणे" त्यादि. ___tथ-"रसेसु गिद्धे" २ ममुध-मज्ञानी मधु-मध माहि २सोमा सोयु५ याय छ तेस ते भ५ मा २सोने पास ४२वाने भाटे “भमरमहुकरगणे हिंसति" प्रभरे। तथा अमरीमाना सभूउनी त्या रे छ. अमरीमा मेरो मही भय सत्र ४२नारी मधमानीमा सभापी "तहेव" मे प्रमाणे "किवणे" या "तेइंदिए" , भा3 माहिन्द्रिय वानी या "मरी. रोक्करणदयाए" पोताना शरीरन ५४रने भाट मेसे सूती मते मां આદિ જે જંતુ કરડે છે અને ઉંઘમાં ખલેલ પહોંચાડે છે તે દુખના નિવા For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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