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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुशिंनी टीका म०१ सू० १२ चतुरिन्द्रियादिनां हिंसाप्रयोजननिरूपणम् ५५ णान् दीनान् 'बहवे' बहून् 'बेइंदिए' द्वीन्द्रियान 'वस्थोहरपरिमंडणहा' वस्त्रोपगृ. हपरिमण्डनार्थम् , 'वस्थ' वस्त्राणि 'ओहर' उपगृहाः लघुगृहाः तेषां परिमंडणट्ठा' परिमण्डनार्थ शोभार्थम् , तत्र वस्त्राणां परिमण्डनं कृमिरागेण रञ्जनम् , उपगृहाणां परिमण्डनं शङ्खशुक्तिचूर्णेनावलेपनम् । यद्वा-अर्थशब्दस्य प्रत्येकमभिसम्बन्धेवस्त्रार्थम् , उपगृहाथ, मण्डनार्थ चेति । तत्र पट्टसूत्रादि वस्त्रनिर्माणे कम्याधुपधातः, उपगृहनिर्माणे मृजलादिषु पुतरकाशुपमर्दनम् , हारादिपरिमण्डननिर्माणे शुक्त्याग्रुपहननं भवत्येव ॥मू०१२।। के अभिप्राय से वे उनकी हिंसा करते हैं । इसी तरह (वेइंदिए ) शंख शुक्तिका आदि जो विचारे दो इन्द्रिय जीव हैं उन बहुत से दीन जीवों की भी (वत्थोहर परिमंडणट्ठा ) वस्त्र, उपगृह-लघुघर की शोभानिमित्त हिंसा करते हैं । कृमिराग से वस्त्रों का रंगनो यह वस्त्रों का परिमंडन हैं। शंख, शुक्तिका के चूने से छोटे २ :घरों का पोतना यह उपगृहों का परिमंडन है । अथवा अर्थ शब्द का प्रत्येक के साथ संबंध करने पर ऐसा भी इस पद को अर्थ होता है कि वस्त्र के निमित्त, उपगृह के निमित्त और मण्डन-हार आदि भूषण के निमित्त पटसूत्र आदि वस्त्र के निर्माण में कृम्यादि जीवों का उपघात होता है, उपग्रहों के निर्माण में मिट्टी जल आदि में रहे हुए लट आदि दो इन्द्रिय जीवों का उपमर्दन होता है, तथा हार आदि आभूषणों के निर्माण करने में शुक्ति आदि जीवों का हनन होता है। ___भावार्थ-भ्रमर, मधुकरी आदि जो चार इन्द्रिय वाले जीव हैं, तथा २९] भाटे तो तेभनी डिसा ४३ छे. मे ४ रीते "बेइंदिए” २५ शुति भारे मिया। दिन्द्रिय सयोनी ५ "वयोहरपरिमंडणद्वा" १७. ७५ લઘુઘરની શોભાને નિમિત્તે હિંસા કરે છે કૃમિરાગથી વોને રંગવા તે વસ્ત્રોનું પરિમંડન કહેવાય છે શંખ, શુક્તિકાના ચૂનાથી નાનાં નાનાં ઘરને લીંપવા તે ઉપગ્રહ પરિમંડન કહેવાય છે. અથવા “અર્થ’ શબ્દને દરેકની સાથે સંબંધ જોડવાથી આ પદને એ પણ અર્થ થઈ શકે છે કે અને માટે, ઉપગ્રહને માટે અને મંડન-હાર આદિ ભૂષણને માટે. પસૂત્ર આદિ વસ્ત્ર બનાવવામાં કૃમ્યાદિ છને ઉપઘાત થાય છે, ઉપગ્રહોની રચનામાં માટી, જળ આદિમાં રહેલ લટ આદિ કિંઈન્દ્રિય જીને વાત થાય છે, તથા હાર આદિ આભૂષણે બનાવવામાં શુક્તિ આદિ જીની હત્યા થાય છે. ભાવાર્થ–મર, મધમાખી આદિ જે ચાર ઈન્દ્રિય વાળા જ છે, તથા For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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